सत्ताइस जुलाई, 1932 ई० को मैं लंदन पहुँचा था। तबसे 14 नवंबर तक इंग्लैंड में ही रहा। वहाँ के निवास के बारे में फिर लिखूँगा। 14 नवंबर को मैं पेरिस नगरी के लिए रवाना हुआ और 26 नवंबर तक वहाँ रहा। दो व्याख्यान होने के अतिरिक्त मेरे तिब्बत से लाए चित्रपटों की वहाँ—मुजीग्विमे में प्रदर्शनी भी हुई। 26 नवंबर को चित्रों को मैंने रेलवे पार्सल से भेज दिया और स्वयं फ्रांकफुर्त (जर्मनी) के लिए रवाना हुआ।
सवा नौ बजे रात को (प्रायः) पाँच घंटे रात बीते हमारी ट्रेन परी स्टेशन से रवाना हुई। रास्ते में जिस वक़्त गाड़ी फ़्रांस की सीमा पार कर जर्मनी में घुसी, जकात (Custums) वाले ने आकर पूछ-ताछ की। सिगरेट के लिए विशेष तौर से पूछा! फिर पासपोर्ट देखने वाला आया। अँग्रेज़ी प्रजा के लिए फ़्रांस और जर्मनी में वीसे (Visas) की आवश्यकता नहीं होती। हमारे खाने की दोनों बेंचों पर अकेले हमी थे, इसलिए सोने का आराम रहा। गाड़ी फ्रांकफुर्त, 10 बजे सबेरे या घंटा दिन चढ़े, पहुँचने वाली थी। आठ बजे पह (प्रभा) फटने लगा और फिर ड्वाश-लान्ट (जर्मनी) की सुहावनी भूमि दिखलाई देने लगी। भूमि ऊँची नीची तथा पहाड़ों से घिरी थी। लंबे-लंबे जुते हुए खेत और पत्रहीन नंगे वृक्षों की भरमार बतला रही थी कि जर्मनी सिर्फ़ कारख़ानों का ही देश नहीं है। जगह-जगह, क़स्बों में भी, बड़ी-बड़ी चिमनियों वाले कारख़ाने हैं। रेल में मिलने वाले दीर्घकाय हृष्ट-पुष्ट ऑफ़िसर फ़्रांस के नफ़ासत-पसंद दुबले-पतले शिक्षितों से पृथक हो रहे थे।
परी से ही मित्रों ने, सबेरे के कलेवे के लिए, दो सेब और सैंडविच के दो-तीन टुकड़े रख दिए थे। सैंडविच को सत्तू की तरह बहुगुणा भोजन समझिए। पतली पावरोटी बीच से फाड़कर और उसमें मक्खन लगाकर एक पतली तह बैकन (सूअर के माँस) की रख दी जाती है, बस यही सैंडविच है। इसके ऐसा नाम पड़ने का कारण यह बतलाया जाता है कि इंग्लैंड मे लार्ड सैंडविच नामक सामंत हर वक़्त जूए और पासे के खेल में लगा रहता था। वह अपने खेल को छोड़कर खाने के लिए भी अधिक समय नही लगाना चाहता था, इसलिए नौकर खेल पर ही उसे उक्त प्रकार का भोजन रख देते थे। वह खेलते-खेलते उसे खाता जाता था! लार्ड सैंडविच का खाना होने से उसका नाम ही सैंडविच पड़ गया।
मैं सेब और सैंडविच खाकर तैयार था कि 10 बजे हमारी ट्रेन फ्रांकफुर्त आम माइन स्टेशन पर पहुँची। श्रीयुत इंद्रबहादुर सिंह को अपने आने की सूचना पहले से ही दे रखी थी—और साथ ही इस बात की भी कि मेरे नारंगी रंग के कपड़े दूर से ही मालूम पड़ जाएँगे! सचमुच ही, प्लेटफ़ार्म पर उतरते ही देखा, चश्मा दिए ,भेंड़के खाल की सफ़ेद गाँधी टोपी लगाए एक हृष्ट-पुष्ट नौजवान सामने आ खड़े हुए हैं। उनके साथ एक दूसरे सज्जन थे, जिनका परिचय इंद्रजी ने जापान-निवासी प्रोफ़ेसर डाक्टर कितायामा कहकर दिया। टैक्सी करके हम लोग शूमान-स्ट्रासे गए। डाक्टर कितायामा जापान के जो दो संप्रदाय के बौद्ध भिक्षु हैं। 10 वर्ष पूर्व, उन्हें जर्मनी में संस्कृत और आधुनिक अन्वेषण की विद्या सीखने के लिए उनके मठ ने भेजा था। डाक्टर (Ph.D.) होने के बाद, कितने ही वर्षों से वह मारबुर्ग और फ्रांकफुर्त के विश्वविद्यालयों में बौद्ध धर्म तथा चीनी भाषा के अध्यापक हैं। डा० रुदाल्फ़ ओतोने उन्हें ख़ास तौर से, मुझे मारबुर्ग लाने के लिए भेजा था।
श्रीयुत इंद्रबहादुर के अतिरिक्त श्रीयुत ए० वसु और डाक्टर देवीलाल, दो और भारतीय यहाँ रहते हैं। तीनों ही बड़े देशप्रेमी सज्जन हैं। वसु महाशय की जर्मन स्त्री स्वयं Ph.D. तथा कई बड़ी कंपनियों के डाइरेक्टर तथा एक सम्भ्रांत पिता की एकलौती लड़की हैं। विदेश में विवाह करने वाले भारतीयों में अक्सर देखा जाता है कि वह सुसंस्कृत, सुशिक्षित संभ्रांत कुलों में शादी नहीं करते। श्रीयुत वसुका विवाह इसका अपवाद है। इंद्र की भाँति वसु भी खाल की गाँधी टोपी पहनते है। इसके लिए उन्हें एक-एक टोपी पर तीस-तीस मार्क (30 रुपए) ख़र्च करने पड़े। थोड़ी देर के ही वार्तालाप से फ्रांकफुर्त भी घर बन गया। इंद्रजी से ही मालूम हुआ कि सत्यनारायण आजकल स्कन्धनाभीय देशों में गया हुआ है। भारी घुमक्कड़ है। निबंध समाप्त होते ही निकल गया।
आचार्य ओतो से मेरा परिचय 1927-28 में, लंका में हुआ था। उस समय यद्यपि हमारा वार्तालाप दो ही घंटे हो पाया था; किंतु तभी से हमारी बहुत घनिष्ठता हो गई थी। पत्र-व्यवहार ही जारी नहीं था, बल्कि एक बार तो (जब कि, मैं ल्हासा में था) उन्होंने अपना पत्र जर्मनी में लिखकर, साथ ही ह्युगोका 'जर्मन स्वयंशिक्षक' और 'जर्मन इंगलिश कोश'—यह कहकर भेज दिया कि, ''अब वादा करने का काम नहीं, आपको मेरे पत्रों के लिए जर्मन सीखनी ही पड़ेगी।'' मैंने इस प्रेम के बलात्कार को स्वीकार तो किया, किंतु अधिक समय तक लगा न रहा। वस्तुतः फ़्रेंच की भाँति कितनी ही जर्मन पुस्तकों को भी अपने काम के लिए पढ़ने की यदि मजबूरी हुई होती, तो उसमें भी काम चलने लगता। आचार्य ओतो सत्तर वर्ष से ऊपर के है। संस्कृत के नामी विद्वानों में है, तो भी संस्कृत-साहित्य के बहिरंग विषयों की अपेक्षा अंतरंग विपयोपर ही उनके अधिकांश ग्रंथ और लेख है; इसी लिए थोड़े ही भारतीय उन्हें प्राच्य-तत्त्व-विशारद जानते है। मारवुर्ग विश्वविद्यालय (जर्मनी में) धर्मशास्त्र के लिए सबसे प्रसिद्ध विश्व विद्यालय है। कई वर्षों तक उसके यह चांसलर रह चुके हैं। विचारों में यह श्रीयुत एण्ड जकी तरह अत्यंत उदार ईसाई है। योग के प्रेमी और अभ्यासी हैं।
दूसरे दिन डाक्टर कितायामा ने आकर कहा कि, “आचार्य ओतो फ़ेफड़े के रोग के कारण शीघ्र ही इटली के समुद्रतट पर चले जानेवाले हैं; इसलिए आप शीघ्र ही चलिए। इस प्रकार 1 दिसंबर को, डा० किता के साथ, दोपहर की गाड़ी से मैं मारबुर्ग के लिए चल पड़ा। आज दिन था; इसलिए खेत, गाँव, पहाड़, सभी ख़ूब दिखाई पड़े। आज, एक जगह खेतों में बैलों को हल जोतते देखा! फ़्राँस और इंग्लैंड में सिर्फ़ घोड़ों का ही हल जोतते देखा था। दो घंटे की यात्रा समाप्त कर मारबुर्ग पहुँच गए।
मारबुर्ग 40-50 हज़ार का एक छोटा-सा शहर है। शहर का पुराना सामंतशाही महल और कितने ही घर तथा गिर्जे, पहाड़ के ढलाव पर बसे हुए हैं। पहाड़ और उसके नीचे सर्वत्र वृक्षों और वनस्पतियो की अधिकता है। इस जाड़े में देवदार को छोड़ कर बाक़ी सभी वृक्ष पत्तो से शून्य हैं। नगर की स्वच्छता और सफ़ाई के बारे में तो क्या कहना! शहर की ओर बढ़ते ही यह बात मालूम हुई कि यहाँ अनेक स्त्रियाँ लंबे-लंबे सुनहले केश रखती है। आज कल इंग्लैंड, फ़्रांस (और जर्मनी के अधिकांश स्थानों) में स्त्रियों ने बालों को कटा डाला है। किसी भी स्त्री के सारे बाल देखने में आश्चर्य मालूम होता है! पता लगाने से मालूम हुआ, मारबुर्ग के आसपास, देहातों में अभी सनातनी स्त्रियाँ मिलती हैं! यह अपने केशों को चाँदपर जूड़े की शक्ल में वैसे ही बाँधती है, जैसे चंपारण की देहाती पुरानी चाल की स्त्रियाँ! जहाँ मैं इन्हें अचंभे-से देख रहा था, वहाँ यह भी जहाँ-तहाँ पचीसों की संख्या में खड़ी मेरे पीले वस्त्रों को देख रही थी।
होटल में थोड़ी देर विश्राम करने के बाद मैं, कितायामा के साथ आचार्य ओतो के घर पर गया, जो थोड़ा चढ़कर पहाड़ पर था। छः बज गए थे; दो घंटे रात बीत चुकी थी, सर्दी भी ख़ूब थी; तो भी यूरोप में घरों को गर्म रखने का रिवाज़ है; जिसके कारण बाहर सर्दी के मारे ठिठुरते हुए को भी घर में कोट-टोपी उतारनी पड़ती है। घंटी बजाते ही नौकरानी आई। डा० किताने मेरे आने की ख़बर भेजी। थोड़ी ही देर में दीर्व-काय श्वेतश्मश्रुकेशधारी तुंग आर्य-नास प्राचार्य ओतो सीढ़ियों पर सामने थे। देखा, शरीर कुछ दुर्बल था। मालूम हुआ, इधर स्वास्थ्य ठीक नहीं था। सत्तर के ऊपर का शरीर था, तो भी कमर झुकी नहीं थी! स्वागत के बाद उनकी बैठक में गया। वार्तालाप आरंभ हुआ तो पूर पाँच घंटे तक होता रहा! समय समाप्त होता जाता था किंतु हमारी बात नहीं समाप्त होती थी! मैंने भी इधर के कुछ अपने कामों का ब्यौरा सुनाया। आचार्य ने यामुनाचार्य के सिद्धित्रय के अपने जर्मन अनुवाद की भी चर्चा की। पूछा—आपको हमारा देश कैसा दीख पड़ता है? मैंने उत्तर दिया—यद्यपि जाड़े से पतझड़ के कारण देश का पूरा सौंदर्य मेरी आँखों से ओझल है; लेकिन मैं हिमालय जैसे स्थानों से परिचित हूँ इसलिए यह समझने में मुझे ज़रा भी दिक़्क़त नहीं कि गर्मियों में यह देश विशेषकर मारबुर्ग तो नंदन-कानन रहता होगा। उन्होंने कहा—कवि रवीन्द्र गर्मियों में यहाँ आए थे; उन्होंने भी मारबुर्ग के सौंदर्य की प्रशंसा की थी।
मैंने वहाँ की ग्रामीण स्त्रियों के जूड़ों और बैल के हलों का ज़िक्र करते कहा कि, इनमें मुझे ऋग्वेद-कालीन आर्यों के उष्णीष और हलों की समानता मालूम होती है। उन्होंने बतलाया कि, मेरे बचपन में, जर्मनी में, सभी हल बैलों से ही चलते थे; उस समय घोड़ों के हल कुछ धनिकों के शौक़ में शामिल थे। ग्रामीण जनता पुरानेपन की बड़ी भक्त होती है, इसलिए उसके रीति-रिवाज़ो में कुछ ऐसी बातों का मिलना आश्चर्यकर नहीं, जो यूरोपीय और भारतीय आर्यों के सम्मिलित पूर्वजों में प्रचलित थी। आर्यों की बात चलते ही वह और मैं दोनों ही अनुभव कर रहे थे मानों हज़ारों वर्ष के बिछुड़े बंधुओं का प्रेमालाप चल रहा हो! उन्होंने ऋग्वेद के दधिक्रा और नासत्या शब्दोंपर बात करते हुए कहा—दधिक्रा घोड़े का नाम है, किंतु “दधत् क्रामतीति—की व्युत्पत्ति से नहीं। प्रारंभ में आर्यों का, सवारी के लिए, घोड़ा पालना बहुत संदिग्ध है। मालूम होता है, आजकल के दक्षिणी रूस के बाशिंदों की भाँति (जो घोड़ियों को विशेषकर कूमिस् (दही से बना एक प्रकार का पेय पदार्थ के लिए पालते हैं) वह भी, दही के लिए, घोड़ों को पालते थे और 'दधिक्रा' में दधि शब्द दही के लिए ही है।
मुझे तो दोपहर के 'बाद खाना ही नहीं था; इसलिए उनके भोजन के समय बैठे-बैठे बात-चीत होती रही। वहीं उन्होंने अपनी वृद्धा बहन से परिचय कराया। दूसरे दिन के मध्याह्न- भोजन का निमंत्रण भी मिला। आधी रात को मैं अपने स्थान पर चला गया।
3 दिसंबर को आचार्य ओतो, अपने शिष्यों से समुद्रतट पर जाने के लिए बिदाई लेनेवाले थे। उस दिन वह महात्मा गाँधी पर बोले। मैं भी निमंत्रित किया गया था। चार-पाँच सौ छात्र छात्राएँ बड़ी व्याख्यान-शाला में बैठे थे। आचार्य ने महात्मा गाँधी पर बहुत सुंदर भाषण दिया। मेरे विषय में भी कुछ कहा। मेरे व्याख्यान की आशा भी दिलाई, किंतु जल्दी के कारण मैं दूसरे ही दिन वहाँ से चल पड़ा और समयाभाव से फिर मारबुर्ग लौटकर न जा सका। वहाँ से हम मारबुर्ग के धार्मिक संग्रहालय में गए। बौद्ध, ब्राह्मण, यहूदी, ईसाई, इस्लाम सभी धर्मों के ग्रंथों, मूर्तियों, पूजाभांडों, चित्रों आदि का यहाँ सुंदर संग्रह है और इन संग्रहों को उन-उन धर्मावलंबियों की श्रद्धा का ख़याल करके सजाया गया है।
3 दिसंबर को मारबुर्ग विश्वविद्यालय के संस्कृत के प्रोफ़ेसर डाक्टर नोबल से मिलने गया। वह 'सुवर्णप्रभाससून' (एक बौद्ध ग्रंथ) का अनेक पाठ-भेदों के साथ सुंदर संस्करण निकालने जा रहे हैं।
उसी दिन फ्रांकफुर्त से टेलीफ़ोन आया और मुझे फ्रांकफुर्त लौट आना पड़ा। आज वसु महाशय का 'भारतमित्रसभा' में भाषण था। मुझे भी कुछ शब्द कहने को कहा गया।
यहीं महाबोधि के ट्रस्टियों का पत्र मिला। उन्होंने मेरे शीघ्र लौटने के इरादे पर खेद प्रकट किया था; और, लिखा था कि आप जाड़े भर यूरोप में रहकर फिर अमेरिका होते हुए लौटे।” मैंने अस्वीकृति का पत्र लिख दिया।
फ्रांकफुर्त का विश्वविद्यालय जर्मनी के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में है। अर्थशास्त्र और समाज-शास्त्र में विशेष ख्याति रखता है। यहाँ चार हज़ार से अधिक विद्यार्थी पढ़ते हैं! जर्मनी में आठ वर्ष की शिक्षा सभी लड़के-लड़कियों के लिए अनिवार्य है। चार वर्ष वह प्राथमिक श्रेणी में पढ़ते हैं फिर माध्यमिक श्रेणी में, ऊपर की पाँच वर्ष की पढ़ाई ऐच्छिक है। इस प्रकार 13 वर्ष में माध्यमिक शिक्षा या मैट्रिक्युलेशन परीक्षा समाप्त होती है, जिसमें 6 वर्ष से 16 वर्ष की उम्र तक का समय लगता है। फिर तीन वर्ष तक विश्वविद्यालय में अधिकारी के तौर पर पढ़ना होता है। इसके बाद दो वर्ष Ph.D. में लगता है। हमारे यहाँ की भाँति वहाँ बी० ए०, एम० ए० की डिग्रियाँ नहीं हैं। भारत के किसी विश्वविद्यालय की डिग्री वहाँ अत्यावश्यक नहीं है। विद्यार्थी को एक छोटा-सा निबंध लिखने को कहा जाता है, जिसमें उसके उस विषय क साधारण ज्ञान का परिचय मिल जाता है। फिर वह तीन या चार सेमेस्टर या डेढ़-दो वर्ष में अपने PH.D. का निबंध दे सकता है। निबंध को प्रोफ़ेसर लोग एक दो बार कुछ और संशोधन करने के लिए लौटाते हैं, फिर स्वीकृत हो जाने पर भी तबतक उपाधि नहीं मिल सकती, जब तक कि निबंध को छपवाकर उसकी ढाई सौ कापियाँ अपने विश्वविद्यालय को नहीं दिया जाता। निबंध के छपवाने का ऐसा ही कड़ा नियम फ़्रांस में भी है। अच्छे योग्य आदमी के लिए निबंध के समय को यदि प्रोफ़ेसर चाहे तो और भी कम कर सकते हैं।
sattais julai, 1932 i० ko main landan pahuncha tha tabse 14 nowember tak inglainD mein hi raha wahan ke niwas ke bare mein phir likhunga 14 nowember ko main pari (paris) nagri ke liye rawana hua aur 26 nowember tak wahan raha do wyakhyan hone ke atirikt mere tibbat se laye chitrapton ki wahan, mujigwime mein, pradarshani bhi hui 26 nowember ko chitron ko mainne railway parcel se bhej diya aur swayan phrankphurt (jarmni) ke liye rawana hua
sawa nau baje raat ko (prayः) panch ghante raat bite hamari train pari station se rawana hui raste mein jis waqt gaDi frans ki sima par kar jarmni mein ghusi, jakat (custums) wale ne aakar poochh tachh ki cigarette ke liye wishesh taur se puchha! phir passport dekhne wala aaya angrezi praja ke liye frans aur jarmni mein wise (wisas) ki awashyakta nahin hoti hamare khane ki donon benchon par akele hami the, isliye sone ka aram raha gaDi phrankphurt, 10 baje sabere ya ghanta din chaDhe, pahunchne wali thi aath baje pah (prabha) phatne laga, aur, phir Dwash lant (jarmni) ki suhawni bhumi dikhlai dene lagi bhumi unchi nichi tatha pahaDon se ghiri thi lambe lambe jute hue khet aur patrhin nange wrikshon ki bharmar batala rahi thi ki, jarmni sirf karkhanon ka hi desh nahin hai jagah jagah, qasbon mein bhi, baDi baDi chimaniyon wale karkhane hain rail mein milne wale dirghakay hrisht pusht afisar frans ke nafasat pasand duble patle shikshiton se prithak ho rahe the
pari se hi mitron ne, sabere ke kalewe ke liye, do seb aur sainDwich ke do teen tukDe rakh diye the sainDwich ko, sattu ki tarah, bahuguna bhojan samjhiye patli pawaroti beech se phaDkar aur usmen makkhan lagakar ek patli tah baikan (suar ke mans) ki rakh di jati hai, bus, yahi sainDwich hai iske aisa nam paDne ka karan ye batlaya jata hai ki, inglainD mae lord sainDwich namak samant har waqt jue aur pase ke khel mein laga rahta tha wo apne khel ko chhoDkar khane ke liye bhi adhik samay nahi lagana chahta tha, isliye naukar khel par hi, use ukt prakar ka bhojan rakh dete the wo khelte khelte use khata jata tha! lord sainDwich ka khana hone se uska nam hi sainDwich paD gaya
main seb aur sainDwich khakar taiyar tha ki, 10 baje hamari tran phrankphurt aam main station par pahunchi shriyut indrabhadur sinh ko apne aane ki suchana pahle se hi de rakhi thi—aur, sath hi, is baat ki bhi ki, mere narangi rang ke kapDe door se hi malum paD jayenge! sachmuch hi, pletfarm par utarte hi dekha, chashma diye, bhenDke khaal ki safed gandhi topi lagaye ek hrisht pusht naujawan samne aa khaDe hue hain unke sath ek dusre sajjan the, jinka parichai indrji ne japananiwasi professor Daktar kitayama kahkar diya taxi karke hum log shuman strase gaye Daktar kitayama japan ke jo do samprday ke bauddh bhikshu hain 10 warsh poorw, unhen jarmni mein sanskrit aur adhunik anweshan ki widdya sikhne ke liye unke math ne bheja tha Daktar (ph D ) hone ke baad, kitne hi warshon se, wo marburg aur phrankphurt ke wishwwidyalyon mein bauddh dharm tatha chini bhasha ke adhyapak hain Da० rudalph otone unhen khas taur se, mujhe marburg lane ke liye bheja tha
shriyut indrabhadur ke atirikt shriyut e० wasu aur Daktar dewilal, do aur bharatiy yahan rahte hain tinon hi baDe deshapremi sajjan hain wasu mahashay ki german istri swayan ph D tatha kai baDi kampaniyon ke director tatha ek sambhrant pita ki eklauti laDki hain widesh mein wiwah karne wale bhartiyon mein aksar dekha jata hai ki wo susanskrit, sushikshait sambhrant kulon mein shadi nahin karte shriyut wasuka wiwah iska apwad hai indr ki bhanti wasu bhi khaal ki gandhi topi pahante hai iske liye unhe, ek ek topipar, tees tees mark (30 rupae) kharch karne paDe thoDi der ke hi wartalap se phrankphurt bhi ghar ban gaya indrji se hi malum hua ki, satyanarayan ajkal skandhnabhiy deshon mein gaya hua hai bhari ghumakkaD hai nibandh samapt hote hi nikal gaya
acharya oto se mera parichai 1927 28 mein, lanka mein hua tha us samay yadyapi hamara wartalap do hi ghante ho paya tha; kintu tabhi se hamari bahut ghanishthata ho gai thi patr wywahar hi jari nahin tha, balki ek bar to (jab ki, main lhasa mein tha) unhonne apna patr jarmni mein likhkar, sath hi hyugoka german swyanshikshak aur german inglish kosh—yah kahkar bhej diya ki, ab wada karne ka kaam nahin, aapko mere patron ke liye german sikhni hi paDegi mainne is prem ke balatkar ko swikar to kiya, kintu adhik samay tak laga na raha wastutः phrench ki bhanti kitni hi german pustkon ko bhi apne kaam ke liye paDhne ki yadi majburi hui hoti, to usmen bhi kaam chalne lagta acharya oto sattar warsh se upar ke hai sanskrit ke nami widwanon mein hai, to bhi sanskritsahitya ke bahirang wishyon ki apeksha, antrang wipyopar hi unke adhikansh granth aur lekh hai; isi liye thoDe hi bharatiy, unhen prachya tattw wisharad jante hai marwurg wishwawidyalay (jarmni mein) dharmshastr ke liye sabse prasiddh wishw widyalay hai kai warshon tak uske ye chanslar rah chuke hain wicharon mein ye shriyut enD jaki tarah, atyant udar, isai hai yog ke premi aur abbhyasi hain
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marburg 40, 50 hazar ka ek chhota sa shahr hai shahr ka purana samantshahi mahl aur kitne hi ghar tatha girje pahaD ke Dhalaw par base hue hain pahaD aur uske niche sarwatr wrikshon aur wanaspatiyo ki adhikta hai is jaDe mein dewdar ko chhoD kar baqi sabhi wriksh patto se shunya hain nagar ki swachchhata aur safai ke bare mein to kya kahna! shahr ki or baDhte hi ye baat malum hui ki, yahan anek striyan lambe lambe sunahle kesh rakhti hai aaj kal inglainD, frans (aur jarmni ke adhikansh sthanon) mein striyon ne balon ko kata Dala hai kisi bhi istri ke sare baal dekhne mein ashchary malum hota hai! pata lagane se malum hua, marburg ke asapas, dehaton mein, abhi sanatani striyan milti hain! ye apne keshon ko, chandapar, juDe ki shakl mein waise hi bandhti hai, jaise champaran ki dehati, purani chaal ki striyan! jahan main inhen achambhe se dekh raha tha, wahan ye bhi, jahan tahan pachison ki sankhya mein khaDi mere pile wastron ko dekh rahi thi
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yahin mahabodhi ke trastiyon ka patr mila unhonne mere sheeghr lautne ke irade par khed prakat kiya tha; aur, likha tha ki, aap jaDe bhar europe mein rahkar phir amerika hote hue laute ” mainne aswikriti ka patr likh diya
phrankphurt ka wishwawidyalay jarmni ke prasiddh wishwwidyalyon mein hai arthshastr aur samaj shastr mein wishesh khyati rakhta hai yahan chaar hazar se adhik widyarthi paDhte hain! jarmni mein aath warsh ki shiksha, sabhi laDke laDakiyon ke liye, aniwary hai chaar warsh wo prathamik shrenai mein paDhte hain, phir madhyamik shrenai mein, upar ki panch warsh ki, paDhai aichchhik hai is prakar 13 warsh mein madhyamik shiksha ya maitrikyuleshan pariksha samapt hoti hai, jis mein 6 warsh se 16 warsh ki umr tak ka samay lagta hai phir teen warsh tak wishwawidyalay mein, adhikari ke taur par, paDhna hota hai iske baad do warsh ph D mein lagta hai hamare yahan ki bhanti wahan b० e०, em० e० ki degreeyan nahin hain bharat ke kisi wishwawidyalay ki degre wahan atyawashyak nahin hai widyarthi ko ek chhota sa nibandh likhne ko kaha jata hai, jismen uske us wishay k sadharan gyan ka parichai mil jata hai phir wo teen ya chaar semistar ya DeDh do warsh mein apne ph D ka nibandh de sakta hai nibandh ko professor log ek do bar kuch aur sanshodhan karne ke liye lautate hain, phir swikrit ho jane par bhi tabtak upadhi nahin mil sakti, jabtak ki, nibandh ko chhapwakar uski Dhai sau copiyan apne wishwawidyalay ko nahin diya jata nibandh ke chhapwane ka aisa hi kaDa niyam frans mein bhi hai achchhe yogya adami ke liye, nibandh ke samay ko, yadi professor chahe, to aur bhi kam kar sakte hain
sattais julai, 1932 i० ko main landan pahuncha tha tabse 14 nowember tak inglainD mein hi raha wahan ke niwas ke bare mein phir likhunga 14 nowember ko main pari (paris) nagri ke liye rawana hua aur 26 nowember tak wahan raha do wyakhyan hone ke atirikt mere tibbat se laye chitrapton ki wahan, mujigwime mein, pradarshani bhi hui 26 nowember ko chitron ko mainne railway parcel se bhej diya aur swayan phrankphurt (jarmni) ke liye rawana hua
sawa nau baje raat ko (prayः) panch ghante raat bite hamari train pari station se rawana hui raste mein jis waqt gaDi frans ki sima par kar jarmni mein ghusi, jakat (custums) wale ne aakar poochh tachh ki cigarette ke liye wishesh taur se puchha! phir passport dekhne wala aaya angrezi praja ke liye frans aur jarmni mein wise (wisas) ki awashyakta nahin hoti hamare khane ki donon benchon par akele hami the, isliye sone ka aram raha gaDi phrankphurt, 10 baje sabere ya ghanta din chaDhe, pahunchne wali thi aath baje pah (prabha) phatne laga, aur, phir Dwash lant (jarmni) ki suhawni bhumi dikhlai dene lagi bhumi unchi nichi tatha pahaDon se ghiri thi lambe lambe jute hue khet aur patrhin nange wrikshon ki bharmar batala rahi thi ki, jarmni sirf karkhanon ka hi desh nahin hai jagah jagah, qasbon mein bhi, baDi baDi chimaniyon wale karkhane hain rail mein milne wale dirghakay hrisht pusht afisar frans ke nafasat pasand duble patle shikshiton se prithak ho rahe the
pari se hi mitron ne, sabere ke kalewe ke liye, do seb aur sainDwich ke do teen tukDe rakh diye the sainDwich ko, sattu ki tarah, bahuguna bhojan samjhiye patli pawaroti beech se phaDkar aur usmen makkhan lagakar ek patli tah baikan (suar ke mans) ki rakh di jati hai, bus, yahi sainDwich hai iske aisa nam paDne ka karan ye batlaya jata hai ki, inglainD mae lord sainDwich namak samant har waqt jue aur pase ke khel mein laga rahta tha wo apne khel ko chhoDkar khane ke liye bhi adhik samay nahi lagana chahta tha, isliye naukar khel par hi, use ukt prakar ka bhojan rakh dete the wo khelte khelte use khata jata tha! lord sainDwich ka khana hone se uska nam hi sainDwich paD gaya
main seb aur sainDwich khakar taiyar tha ki, 10 baje hamari tran phrankphurt aam main station par pahunchi shriyut indrabhadur sinh ko apne aane ki suchana pahle se hi de rakhi thi—aur, sath hi, is baat ki bhi ki, mere narangi rang ke kapDe door se hi malum paD jayenge! sachmuch hi, pletfarm par utarte hi dekha, chashma diye, bhenDke khaal ki safed gandhi topi lagaye ek hrisht pusht naujawan samne aa khaDe hue hain unke sath ek dusre sajjan the, jinka parichai indrji ne japananiwasi professor Daktar kitayama kahkar diya taxi karke hum log shuman strase gaye Daktar kitayama japan ke jo do samprday ke bauddh bhikshu hain 10 warsh poorw, unhen jarmni mein sanskrit aur adhunik anweshan ki widdya sikhne ke liye unke math ne bheja tha Daktar (ph D ) hone ke baad, kitne hi warshon se, wo marburg aur phrankphurt ke wishwwidyalyon mein bauddh dharm tatha chini bhasha ke adhyapak hain Da० rudalph otone unhen khas taur se, mujhe marburg lane ke liye bheja tha
shriyut indrabhadur ke atirikt shriyut e० wasu aur Daktar dewilal, do aur bharatiy yahan rahte hain tinon hi baDe deshapremi sajjan hain wasu mahashay ki german istri swayan ph D tatha kai baDi kampaniyon ke director tatha ek sambhrant pita ki eklauti laDki hain widesh mein wiwah karne wale bhartiyon mein aksar dekha jata hai ki wo susanskrit, sushikshait sambhrant kulon mein shadi nahin karte shriyut wasuka wiwah iska apwad hai indr ki bhanti wasu bhi khaal ki gandhi topi pahante hai iske liye unhe, ek ek topipar, tees tees mark (30 rupae) kharch karne paDe thoDi der ke hi wartalap se phrankphurt bhi ghar ban gaya indrji se hi malum hua ki, satyanarayan ajkal skandhnabhiy deshon mein gaya hua hai bhari ghumakkaD hai nibandh samapt hote hi nikal gaya
acharya oto se mera parichai 1927 28 mein, lanka mein hua tha us samay yadyapi hamara wartalap do hi ghante ho paya tha; kintu tabhi se hamari bahut ghanishthata ho gai thi patr wywahar hi jari nahin tha, balki ek bar to (jab ki, main lhasa mein tha) unhonne apna patr jarmni mein likhkar, sath hi hyugoka german swyanshikshak aur german inglish kosh—yah kahkar bhej diya ki, ab wada karne ka kaam nahin, aapko mere patron ke liye german sikhni hi paDegi mainne is prem ke balatkar ko swikar to kiya, kintu adhik samay tak laga na raha wastutः phrench ki bhanti kitni hi german pustkon ko bhi apne kaam ke liye paDhne ki yadi majburi hui hoti, to usmen bhi kaam chalne lagta acharya oto sattar warsh se upar ke hai sanskrit ke nami widwanon mein hai, to bhi sanskritsahitya ke bahirang wishyon ki apeksha, antrang wipyopar hi unke adhikansh granth aur lekh hai; isi liye thoDe hi bharatiy, unhen prachya tattw wisharad jante hai marwurg wishwawidyalay (jarmni mein) dharmshastr ke liye sabse prasiddh wishw widyalay hai kai warshon tak uske ye chanslar rah chuke hain wicharon mein ye shriyut enD jaki tarah, atyant udar, isai hai yog ke premi aur abbhyasi hain
dusre din Daktar kitayama ne aakar kaha ki, “acharya oto, phephDe ke rog ke karan, sheeghr hi italy ke samudrtat par chale janewale hain; isliye aap sheeghr hi chaliye is prakar 1 december ko, Da० kita ke sath, dopahar ki gaDi se, main marburg ke liye chal paDa aaj din tha; isliye khet, ganw, pahaD, sabhi khoob dikhai paDe aaj, ek jagah, kheton mein, bailon ko hal jotte dekha! frans aur inglainD mein sirf ghoDon ka hi hal jotte dekha tha do ghante ki yatra samapt kar marburg pahunch gaye
marburg 40, 50 hazar ka ek chhota sa shahr hai shahr ka purana samantshahi mahl aur kitne hi ghar tatha girje pahaD ke Dhalaw par base hue hain pahaD aur uske niche sarwatr wrikshon aur wanaspatiyo ki adhikta hai is jaDe mein dewdar ko chhoD kar baqi sabhi wriksh patto se shunya hain nagar ki swachchhata aur safai ke bare mein to kya kahna! shahr ki or baDhte hi ye baat malum hui ki, yahan anek striyan lambe lambe sunahle kesh rakhti hai aaj kal inglainD, frans (aur jarmni ke adhikansh sthanon) mein striyon ne balon ko kata Dala hai kisi bhi istri ke sare baal dekhne mein ashchary malum hota hai! pata lagane se malum hua, marburg ke asapas, dehaton mein, abhi sanatani striyan milti hain! ye apne keshon ko, chandapar, juDe ki shakl mein waise hi bandhti hai, jaise champaran ki dehati, purani chaal ki striyan! jahan main inhen achambhe se dekh raha tha, wahan ye bhi, jahan tahan pachison ki sankhya mein khaDi mere pile wastron ko dekh rahi thi
hotel mein thoDi der wishram karne ke baad main, kitayama ke sath acharya oto ke gharpar gaya, jo thoDa chaDhkar pahaD par tha chhः baj gaye the; do ghante raat beet chuki thi, sardi bhi khoob tha; to bhi europe mein gharon ko garm rakhne ka rawaj hai; jiske karan bahar sardi ke mare thithurte hue ko bhi ghar mein coat topi utarni paDti hai ghanti bajate hi naukarani aari Da० kitane mere aane ki khabar bheji thoDi hi der mein deerw kay shwetashmashrukeshdhari tung aary nas prachary oto siDhiyon par samne the dekha, sharir kuch durbal tha malum hua, idhar swasthy theek nahin tha sattar ke upar ka sharir tha, to bhi kamar jhuki nahin thee! swagat ke baad unki baithak mein gaya wartalap arambh hua, to poor panch ghante tak hota raha! samay samapt hota jata tha, kintu hamari baat nahin samapt hoti thee! mainne bhi idhar ke kuch apne kamon ka wyara sunaya acharya ne yamunacharya ke siddhitray ke apne german anuwad ki bhi charcha ki puchha—apko hamara desh kaisa deekh paDta hai? mainne uttar diya—yadyapi jaDese, patjhaD ke karan, desh ka pura saundarya meri ankhon se ojhal hai; lekin main himale jaise sthanon se parichit hoon; isliye ye samajhne mein mujhe zara bhi diqqat nahin ki, garmiyon mein ye desh, wishesh kar marburg to nandan kanan rahta hoga unhonne kaha—kawindr rawindr garmiyon mein yahan aaye the; unhonne bhi marburg ke saundarya ki prshansa ki thi
mainne wahan ki gramin striyon ke juDon aur bail ke halon ka zikr karte kaha ki, inmen mujhe rigwed kalin aryon ke ushnaish aur halon ki samanata malum hoti hai unhonne batlaya ki, mere bachpan mein, jarmni mein, sabhi hal bailon se hi chalte the; us samay ghoDon ke hal kuch dhanikon ke shauq mein shamil the gramin janta puranepan ki baDi bhakt hoti hai, isliye uske riti rawajon mein kuch aisi baton ka milna ashcharykar nahin, jo yuropiy aur bharatiy aryon ke sammilit purwjon mein prachalit thi aryon ki baat chalte hi wo aur main, donon hi, anubhaw kar rahe the, manon, hazaron warsh ke bichhuDe bandhuonka premalap chal raha ho! unhonne rigwed ke dadhikra aur nasatya shabdompar baat karte hue kaha—dadhikra ghoDe ka nam hai, kintu “dadhat kramtiti—ki wyutpatti se nahin prarambh mein aryon ka, sawari ke liye, ghoDa palna bahut sandigdh hai malum hota hai, ajkal ke dakshainai roos ke basindon ki bhanti (jo ghoDiyon ko wisheshkar kumis (dahi se bana ek prakar ka pey padarth ke liye palte hain) wo bhi, dahi ke liye, ghoDon ko palte the, aur, dadhikra mein dadhi shabd dahi ke liye hi hai
mujhe to dopahar ke baad khana hi nahin tha; isliye unke bhojan ke samay baithe baithe baat cheet hoti rahi wahin unhonne apni wriddha bahan se parichai karaya dusre din ke madhyahn bhojan ka nimantran bhi mila aadhi raat ko main apne sthan par chala gaya
3 december ko acharya oto, apne shishyon se samudrtat par jane ke liye, bidai lenewale the us din wo mahatma gandhi par bole main bhi nimantrit kiya gaya tha chaar panch sau chhatr chhatrayen baDi wyakhyan shala mein, baithe the acharya ne mahatma gandhi par bahut sundar bhashan diya mere wishay mein bhi kuch kaha mere wyakhyan ki aasha bhi dilai, kintu jaldi ke karan main dusre hi din wahan se chal paDa; aur, samyabhaw se, phir marburg lautkar na ja saka wahan se hum marburg ke dharmik sangrhalay mein gaye bauddh, brahman, yahudi, isai, islam sabhi dharmon ke granthon, murtiyon, pujabhanDon, chitron aadi ka yahan sundar sangrah hai; aur, in sangrhon ko un un dharmawlambiyon ki shardha ka khayal karke sajaya gaya hai
3 december ko marburg wishwawidyalay ke sanskrit ke professor Daktar nobel se milne gaya wo suwarnaprbhassun (ek bauddh granth) ka, anek, path bhedon ke sath, sundar sanskran nikalne ja rahe hain
usi din phrankphurt se telephone aaya aur mujhe phrankphurt laut aana paDa aaj wasu mahashay ka “bharatmitrasbha” mein bhapan tha mujhe bhi kuch shabd kahne ko kaha gaya
yahin mahabodhi ke trastiyon ka patr mila unhonne mere sheeghr lautne ke irade par khed prakat kiya tha; aur, likha tha ki, aap jaDe bhar europe mein rahkar phir amerika hote hue laute ” mainne aswikriti ka patr likh diya
phrankphurt ka wishwawidyalay jarmni ke prasiddh wishwwidyalyon mein hai arthshastr aur samaj shastr mein wishesh khyati rakhta hai yahan chaar hazar se adhik widyarthi paDhte hain! jarmni mein aath warsh ki shiksha, sabhi laDke laDakiyon ke liye, aniwary hai chaar warsh wo prathamik shrenai mein paDhte hain, phir madhyamik shrenai mein, upar ki panch warsh ki, paDhai aichchhik hai is prakar 13 warsh mein madhyamik shiksha ya maitrikyuleshan pariksha samapt hoti hai, jis mein 6 warsh se 16 warsh ki umr tak ka samay lagta hai phir teen warsh tak wishwawidyalay mein, adhikari ke taur par, paDhna hota hai iske baad do warsh ph D mein lagta hai hamare yahan ki bhanti wahan b० e०, em० e० ki degreeyan nahin hain bharat ke kisi wishwawidyalay ki degre wahan atyawashyak nahin hai widyarthi ko ek chhota sa nibandh likhne ko kaha jata hai, jismen uske us wishay k sadharan gyan ka parichai mil jata hai phir wo teen ya chaar semistar ya DeDh do warsh mein apne ph D ka nibandh de sakta hai nibandh ko professor log ek do bar kuch aur sanshodhan karne ke liye lautate hain, phir swikrit ho jane par bhi tabtak upadhi nahin mil sakti, jabtak ki, nibandh ko chhapwakar uski Dhai sau copiyan apne wishwawidyalay ko nahin diya jata nibandh ke chhapwane ka aisa hi kaDa niyam frans mein bhi hai achchhe yogya adami ke liye, nibandh ke samay ko, yadi professor chahe, to aur bhi kam kar sakte hain
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।