मेरे एक विद्यार्थी ने आमों के बाग़ में आने के लिए आमंत्रित किया है, आप चलेंगी क्या? मेरे बहनोई प्रो. धर्मेंद्रनाथ शास्त्री ने कहा।
सेब, नाशपाती, बादाम, अखरोट आदि से झूलते बाग़ों में मेरा बचपन उछलते-कूदते बीता है, किंतु इधर वर्षों से समतल पर आए हुए होने पर भी आम, नारंगी आदि के बाग़ देखने की इच्छा पूरी नहीं हुई थी। उस दिन मन-ही-मन प्रबल इच्छा होने पर भी किसी कारण से मैं उनका साथ न दे सकी। मलिकजी, केशव तथा छोटा भाषी उनके साथ गए। दूसरे दिन स्नानागार से निकलते ही मुझे घर-भर में प्रभात-किरणों के साथ अनोखी मीठी गंध जैसी जान पड़ी। जान लिया कि वे लोग लौट आए हैं। काफ़ी लंबे और बड़े-बड़े चौड़े पत्तों से ढंका एक बड़ा-सा आमों का टोकरा बीच में रखे चारों जने फ़र्श पर लोटपोटकर अहा...हा...हा...कर रहे थे।
“ज़रा बहिनजी को 'शाहपसंद' दिखलाना।—शास्त्रीजी ने कहा।
केशव, अन्नाजी को 'बेगमपसंद' तो दिखाओ।—मलिकजी बोले।
तब तक भाषी भी कानों में आकर बोल उठा—“अन्नाजी, हमने बड़े आम देखे।
मेरी आँखों के आगे यद्यपि बार-बार उन सुंदर हरे-लाल आमों के लटकने की कल्पना आती और ख़याल आता, कैसे इन लोगों ने चाँदनी रात में बैलगाड़ी की सवारी का आनंद लिया होगा; किंतु उनके बार-बार आमों की प्रशंसा सही न जाती थी। मैंने कहा—“हुआ क्या भई, हमने भी अनेकों बाग़ देखे हैं।” किंतु उन लोगों का उत्साह तो जैसे समाप्त ही न होता था। मैं सोचने लगी, आमों के बाग़ और टोकरे का रौब अब जाने कितने दिन चलेगा।
दूसरे दिन रविवार था। दिन भर बर्फ़ में ठंडे किए हुए आमों के टोकरे के इर्द-गिर्द सब लोग बैठ गए और चाकू लेकर एक-एक आम का पृथक-पृथक आस्वादन कराया जाने लगा। वास्तव में उन आमों के रस का हम सबको क़ायल होना पड़ा। इसमें संदेह नहीं कि ऐसे आम हमने जीवन में कभी न खाए थे।
फ़रीदी साहब का बाग़ राठौल नामक गाँव में है, दिल्ली से क़रीब 25 मील की दूरी पर बाग़पत जानेवाली छोटी लाइन पर स्थित है। प्रथम बार शास्त्रीजी तथा उनके साथी रेलगाड़ी पर वहाँ गए थे। स्टेशन से गाँव क़रीब पाँच मील है। उन लोगों ने आते-जाते दोनों समय मज़े-मज़े बैलगाड़ी में बैठकर यात्रा की थी; किंतु आज नहर के किनारे वहाँ हम लोग दो मोटरों में ही जा सके।
एक ओर गंगा की नहर, दूसरी ओर सुंदर पत्तों से ढके पेड़। स्थान-स्थान पर नाचते पंख फैलाए हुए मोर। दूर-दूर तक उर्वरा-भूमि। श्रावण के बादलों से कुछ-कुछ ढंका आकाश। छः वर्ष कलकत्ते के कोलाहलपूर्ण वातावरण में रहने के कारण मेरी आँखों के आगे जब कभी इतनी खुली भूमि, इतना विस्तृत आकाश नज़र आता है, तो ऐसा लगता है मानो स्वप्न देख रही हूँ।
खेतों की ऊबड़-खाबड़ भूमि को लाँघते हुए हमें बड़ा अच्छा लगता था। लगभग दस बजे हम लोग एक कच्ची सड़क से गाँव की ओर मुड़े। वहाँ पहले से ही फ़रीदी साहब के भेजे हुए एक सज्जन हमें मार्ग दिखाने के लिए खड़े थे। ऊँचे-नीचे कच्चे रास्तों और बीहड़ खाइयों को पार कर हमने एक आम के बाग़ के पास मोटर खड़ी की।
हमारी इच्छा थी कि सीधे बाग़ में ही जाएँ, किंतु फ़रीदी साहब के दोनों खादीधारी सुपुत्र हाथ जोड़े प्रणाम करते हुए हमें अपने घर लिवा जाने को उत्सुक थे।
फ़रीदी साहब का मकान सौ वर्ष पुराना है, किंतु अभी तक पक्का है। दालान में पलंग पड़े थे, उन पर दरी-खेस बिछाकर हमें बिठाया गया। चारों ओर बड़े-बड़े झाड़-से खजूर के पंखे झलने के लिए आदमी तैनात किए गए। उनके पुत्र तथा छोटी-सी लड़की जलपान तैयार करने में लगे थे और स्वयं गृहस्वामी फ़रीदी साहब, जिनके चेहरे पर उत्साह, लगन और अतिथि-सत्कार की भावना मुसकराहट के द्वारा प्रकट हो रही थी; तीन बड़े-बड़े तसले आमों के भरे हुए खींच लाए। दो दर्जन चाकू उन्होंने पहले से ही मेहमानों के लिए मँगवा रखे थे।
“लीजिए साहब, शौक़ फ़रमाइए।
यह ‘राठौल' है, यह 'बेगमपसंद' है, यह 'बड़ा चितला' है, यह 'अमृती' है, यह 'मोहनभोग' है, यह 'हेमसागर' है...” और इस प्रकार एक के बाद दूसरे नाम सुनने को मिलने लगे।
वास्तव में इन आमों में जामुन, संतरा, अमरूद, अनानास, लीची, आड़ आदि जाने कितने फलों के रस के स्वाद आते हैं और एक-एक आम की शक्ल भी देखने ही योग्य है।
मेहमान थक जाते हैं खाते-खाते, किंतु मेज़बान अपने पच्चीस वर्ष के प्रथम परिश्रम का फल खिलाते-खिलाते नहीं थकते हैं और कहते हैं—“अजी साहब, यह क्या? इसे देखिए। अभी आपने खाया ही क्या है? सचमुच पहले खाया हुआ आम पीछे वाले के मुक़ाबले में कुछ अँचता ही नहीं।
छुआछूत आदि में मेरी आस्था नहीं है, किंतु तो भी अभी तक मुसलमान बंधुओं के यहाँ खाना खाने का सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ था, लेकिन उस दिन के-से मीठे चावल, स्वादिष्ट भोजन तथा इतना स्नेह से भीगा आतिथ्य शायद ही कभी प्राप्त हुआ हो।
खाना खाने के बाद मेरी अभिलाषा थी कि फ़रीदी साहब से पूछूँ, उन्हें यह आमों का शौक़ उत्पन्न कैसे हुआ, किंतु डॉ. बलराम, जिन्हें आयुर्वेद में भी दिलचस्पी है, फ़रीदी साहब की पर्वत-भ्रमण में एकत्रित की हुई तथा प्रयोग में लाई हुई जड़ी-बूटियों एवं औषधियों के विषय में छानबीन करने लगे।
शिवालिक पर्वत से लाई हुई एक बूटी उन्होंने ऐसी दिखाई, जिसे वे डिप्थीरिया में प्रयुक्त कर चुके थे। कई प्रकार के लवण तथा अन्य औषधियाँ, जिनसे वे अपने गाँव वालों का उपचार करते रहे हैं, दिखाईं।
फ़रीदी साहब की अवस्था इस समय क़रीब पचास वर्ष की होगी। जीवन के छब्बीस वर्ष भूमि को काटते-छाँटते बीते हैं। एक-एक पेड़ का इतिहास सुनाते जाते। तीन-चार मील के घेरे में सोलह हज़ार पेड़ आम के हैं, जिनकी एक सूची उर्दू में उन्होंने प्रकाशित की है, जिसमें पाँच सौ इकतीस क़िस्म के आमों का विवरण है!
एक आम हमें ऐसा दिखाया गया, जो देखने में गहरा हरा था और उसके रस में “सोए की सुगंध थी। उसे उलटा करके पकड़ने से बूँद-बूँद करके कुछ मिनटों में सारा रस टपककर ऊपर का छिलका बिलकुल ख़ाली हो जाता था। ऐसे ही कई आमों में बेला, चमेली आदि फूलों की मृदु सुगंध आती थी। एक बिलकुल छोटा-सा आम, जिसका रंग ठीक बसंती है और जिसमें छोटे-छोटे हरे धब्बे हैं, “चितला कहा जाता है। फ़रीदी साहब आजकल इस चेष्टा में हैं कि वह हरे के स्थान पर गहरेलाल रंग में आ जाए। एक और आम करेले की शक्ल का है। एक आम कछुआ-सा है।
फ़रीदी साहब का कहना है कि यदि आमों की ऋतु में (उनके बाग़ में मई से लेकर अक्टूबर तक आम फलते हैं) नियमपूर्वक प्रति सप्ताह एक बार लगातार दो वर्ष तक आया जाए, तब कहीं प्रत्येक आम का आस्वादन किया जा सकता है, क्योंकि प्रत्येक आम के फलने का पृथक-पृथक समय होता है। उनका कहना है कि आम किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाता। यदि एक गिलास ठंडा पानी ऊपर से पी लिया जाए, तो दो सौ आम तक एक दिन में खा लेने की भी वे सम्मति देते हैं।
“यह इस आम की माँ है, यह बाप है।” एक-एक क़लम और एक-एक गुठली जाने कहाँ से काटकर कहाँ लगाई हुई, फ़रीदी साहब दिखाते जाते और तेज़ी से आगे बढ़ते जाते। मेरी आँखों के आगे फलों का विश्वकर्मा दौड़ जाता। यद्यपि भारत-भूमि में—विशेषतया मेरठ जिले में— आम उत्पन्न करना कुछ भी बड़ी बात नहीं है, किंतु उस व्यक्ति की छब्बीस वर्ष की अथक मेहनत, उत्साह, नए-नए आविष्कार तथा आमों के विषय में विस्तृत ज्ञान देखकर दंग रह जाना पड़ता है। फ़रीदी साहब कहते हैं—“यदि अपने लड़कों की शिक्षा में डेढ़-सौ रुपए प्रतिमास मुझे न व्यय करने पड़ते, तो वे रुपए अपने बाग़ में लगाकर इसे मैं कुछ चीज़ बना देता।
आमों के पेड़ों में हमने कई प्रकार के नए घोंसले देखे। मेरे मन में बार-बार आता था, जापान, जर्मनी आदि अन्य देशों के बच्चों का जहाँ शहर से बाहर दो-दो, तीन-तीन महीनों के लिए शिक्षा का प्रबंध किया जाता है, प्रकृति-विज्ञान जहाँ उन्हें बाहर ले जाकर सिखाया जाता है, वहाँ क्यों हमारे देश के लाखों प्रतिभाशाली बच्चों का मस्तिष्क चहारदीवारी में पुस्तकें रटा-रटाकर संकुचित किया जाता है? हमारे स्कूलों में यह प्रबंध अवश्य होना चाहिए। बच्चों की तो क्या, हमारे बड़े-बूढ़ों को भी पता नहीं कि देश के किस-किस कोने में कौन गुणी मनुष्य बैठे क्या कर रहे हैं!
गत वर्ष जब उनके बाग़ीचे के “बेगमपसंद” तथा “राठौल” नामक आम लंदन की एक प्रतियोगिता में सर्वप्रथम एवं द्वितीय आए, तो उनके पास सरकारी तौर से कोई सूचना नहीं आई, क्योंकि संभवतः इससे गवर्नमेंट नर्सरी को कोई श्रेय प्राप्त न हो सकता। पीछे नवाब छतारी जब फ़रीदी साहब से मिले, तो उन्होंने शिमले से कागज़ निकलवाए और तब उन्हें अपने आमों के विषय में पता लगा!
हम चाहते हैं कि ऐसे महानुभाव राठौल जाएँ, जो काफ़ी आम खाने का दम रखते हों (क्योंकि फ़रीदी साहब आम तो बहुत खिला देंगे) और उनसे परिचय प्राप्त कर विशेष रूप से उनकी कला का अध्ययन करें।
- पुस्तक : बीसवीं सदी का हिंदी महिला-लेखन (खंड-3) (पृष्ठ 517)
- संपादक : ममता कालिया
- रचनाकार : सत्यवती मलिक
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2015
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