चुनौती हिमालय की
chunauti himalay ki
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा पाँचवी के पाठ्यक्रम में शामिल है।
जोज़ीला पास से आगे चलकर जवाहरलाल मातायन पहुँचे तो वहाँ के नवयुवक कुली ने बताया, “शाब, सामने उस बर्फ़ से ढके पहाड़ के पीछे अमरनाथ की गुफ़ा है।”
“लेकिन, शाब, रास्ता बहुत टेढ़ा है।” किशन ने कुली की बात काटी।” बहुत चढ़ाई है। और शाब, दूर भी है।”
“कितनी दूर?” जवाहरलाल ने पूछा।
“आठ मील, शाब,” कुली ने जल्दी से उत्तर दिया।
“बस! तब तो ज़रूर चलेंगे।” जवाहरलाल ने अपने चचेरे भाई की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली। दोनों कश्मीर घूमने निकले थे और जोज़ीला पास से होकर लद्दाखी इलाक़े की ओर चले आए थे। अब अमरनाथ जाने में क्या आपत्ति हो सकती थी? फिर जवाहरलाल रास्ते की मुश्किलों के बारे में सुनकर सफ़र के लिए और भी उत्सुक हो गए।
“कौन-कौन चलेगा हमारे साथ?” जवाहरलाल ने जानना चाहा।
तुरंत किशन बोला, “शाब मैं चलूँगा। भेड़ें चराने मेरी बेटी चली जाएगी।” अगले दिन सुबह तड़के तैयार होकर जवाहरलाल बाहर आ गए। आकाश में रात्रि की कालिमा पर प्रातः की लालिमा फैलती जा रही थी। तिब्बती पठार का दृश्य निराला था। दूर-दूर तक वनस्पति-रहित उजाड़ चट्टानी इलाक़ा दिखाई दे रहा था। उदास, फीके, बर्फ़ से ढके चट्टानी पहाड़ सुबह की पहली किरणों का स्पर्श पाकर ताज की भाँति चमक उठे। दूर से छोटे-छोटे ग्लेशियर ऐसे लगते, मानो स्वागत करने के लिए पास सरकते आ रहे हों। सर्द हवा के झोंके हड्डियों तक ठंडक पहुँचा रहे थे।
जवाहर ने हथेलियाँ आपस में रगड़कर गर्म कीं और कमर में रस्सी लपेट कर चलने को तैयार हो गए। हिमालय की दुर्गम पर्वतमाला मुँह उठाए चुनौती दे रही थी। जवाहर इस चुनौती को कैसे न स्वीकार करते। भाई, किशन और कुली सभी रस्सी के साथ जुड़े थे। किशन गड़ेरिया अब गाइड बन गया।
बस आठ मील ही तो पार करने हैं। जोश में आकर जवाहरलाल चढ़ाई चढ़ने लगे। यूँ आठ मील की दूरी कोई बहुत नहीं होती। लेकिन इन पहाड़ी रास्तों पर आठ क़दम चलना दूभर हो गया। एक-एक डग भरने में कठिनाई हो रही थी।
रास्ता बहुत ही वीरान था। पेड़-पौधों की हरियाली के अभाव में एक अजीब ख़ालीपन-सा महसूस हो रहा था। कहीं एक फूल दिख जाता तो आँखों को ठंडक मिल जाती। दिख रही थीं सिर्फ़ पथरीली चट्टानें और सफ़ेद बर्फ़। फिर भी इस गहरे सन्नाटे में बहुत सुकून था। एक ओर सूँ-सूँ करती बर्फ़ीली हवा बदन को काटती तो दूसरी ओर ताज़गी और स्फूर्ति भी देती।
जवाहरलाल बढ़ते जा रहे थे। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ते गए, त्यों-त्यों साँस लेने में दिक़्क़त होने लगी। एक कुली की नाक से ख़ून बहने लगा। जल्दी से जवाहरलाल ने उसका उपचार किया। ख़ुद उन्हें भी कनपटी की नसों में तनाव महसूस हो रहा था, लगता था जैसे दिमाग़ में ख़ून चढ़ आया हो। फिर भी जवाहरलाल ने आगे बढ़ने का इरादा नहीं बदला।
थोड़ी देर में बर्फ़ पड़ने लगी। फिसलन बढ़ गई, चलना भी कठिन हो गया। एक तरफ़ थकान, ऊपर से सीधी चढ़ाई। तभी सामने एक बर्फ़ीला मैदान नज़र आया। चारों ओर हिम शिखरों से घिरा वह मैदान देवताओं के मुकुट के समान लग रहा था। प्रकृति की कैसी मनोहर छटा थीं आँखों और मन को तरोताज़ा कर गई। बस एक झलक दिखाकर बर्फ़ के धुँधलके में ओझल हो गई।
दिन के बारह बजने वाले थे। सुबह चार बजे से वे लोग लगातार चढ़ाई कर रहे थे। शायद सोलह हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर होंगे इस वक़्त...अमरनाथ से भी ऊपर पर अमरनाथ की गुफ़ा का दूर-दूर तक पता नहीं था। इस पर भी जवाहरलाल की चाल में न ढीलापन था, न बदन में सुस्ती हिमालय ने चुनौती जो दी थी। निर्गम पथ पार करने का उत्साह उन्हें आगे खींच रहा था।
“शाब, लौट चलिए वापस कैंप में पहुँचते-पहुँचते दिन ढल जाएगा,” एक कुली ने कहा। “लेकिन अभी तो अमरनाथ पहुँचे नहीं।” जवाहरलाल को लौटने का विचार पसंद नहीं आया।
“वह तो दूर बर्फ़ के उस मैदान के पार है,” किशन बीच में बोल पड़ा।
“चलो, चलो। चढ़ाई तो पार कर ली, अब आधे मील का मैदान ही तो बाक़ी है,” कहकर जवाहरलाल ने थके हुए कुलियों को उत्साहित किया।
सामने बर्फ़ का सपाट मैदान दिखाई दे रहा था। उसके पार दूसरी ओर से नीचे उतरकर गुफ़ा तक पहुँचा जा सकता था। जवाहरलाल फुर्ती से बढ़ते जा रहे थे। दूर से मैदान जितना सपाट दिख रहा था असलियत में उतना ही ऊबड़-खाबड़ था। ताज़ी बर्फ़ ने ऊँची-नीची चट्टानों को एक पतली चादर से ढककर एक समान कर दिया था। गहरी खाइयाँ थीं, गड्ढे बर्फ़ से ढके हुए थे और गज़ब की फिसलन थी। कभी पैर फिसलता और कभी बर्फ़ में पैर अंदर धँसता जाता, धँसता जाता। बहुत नाप-नाप कर क़दम रखने पड़ रहे थे। ये तो चढ़ाई से भी मुश्किल था, पर जवाहरलाल को मज़ा आ रहा था। तभी जवाहरलाल ने देखा सामने एक गहरी खाई मुँह फाड़े निगलने के लिए तैयार थी। अचानक उनका पैर फिसला। वे लड़खड़ाए और इससे पहले कि सँभल पाएँ ने खाई में गिर पड़े।
“शाब...गिर गए! किशन चीख़ा।
जवाहर...!” भाई की पुकार वादियों की शांति भंग कर गई। वे खाई की ओर तेज़ी से बढ़े।
रस्सी से बँधे जवाहरलाल हवा में लटक रहे थे। उफ़, कैसा झटका लगा। दोनों तरफ़ चट्टानें-ही-चट्टानें, नीचे गहरी खाई। जवाहरलाल कसकर रस्सी पकड़े थे, वही उनका एकमात्र सहारा था।
जवाहर ...!” ऊपर से भाई की पुकार सुनाई दी।
मुँह ऊपर उठाया तो भाई और किशन के धुँधले चेहरे खाई में झाँकते हुए दिखाई दिए। “हम खींच रहे हैं, रस्सी कस के पकड़े रहना,” भाई ने हिदायत दी।
जवाहरलाल जानते थे कि फिसलन के कारण यूँ ऊपर खींच लेना आसान नहीं होगा। “भाई, मैं चट्टान पर पैर जमा लूँ” वह चिल्लाए। खाई की दीवारों से उनकी आवाज़ टकराकर दूर-दूर तक गूँज गई। हल्की-सी पेंग बढ़ा जवाहरलाल ने खाई की दीवार से उभरी चट्टान को मज़बूती से पकड़ लिया और पथरीले धरातल पर पैर जमा लिए। पैरों तले धरती के एहसास से जवाहरलाल की हिम्मत बढ़ गई।
“घबराना मत, जवाहर” भाई की आवाज़ सुनाई दी।
“मैं बिल्कुल ठीक हूँ,” कहकर जवाहरलाल मज़बूती से रस्सी पकड़ एक-एक क़दम ऊपर की ओर बढ़ने लगे। कभी पैर फिसलता, कभी कोई हल्का-फुल्का पत्थर पैरों के नीचे से सरक जाता, तो वह मन-ही-मन काँप जाते और मज़बूती से रस्सी पकड़ लेते। रस्सी से हथेलियाँ भी जैसे कटने लगीं थीं पर जवाहरलाल ने उस तरफ़ ध्यान नहीं दिया। कुली और किशन उन्हें खींचकर बार-बार ऊपर चढ़ने में मदद कर रहे थे। धीरे-धीरे सरककर किसी तरह जवाहरलाल ऊपर पहुँचे। मुड़कर ऊपर से नीचे देखा कि खाई इतनी गहरी थी कि कोई गिर जाए तो उसका पता भी न चले।
“शुक्र है, भगवान का!” भाई ने गहरी साँस ली।
“शाब, चोट तो नहीं आई?” एक कुली ने पूछा।
गर्दन हिला, कपड़े झाड़ जवाहरलाल फिर चलने को तैयार हो गए। इस हादसे से हल्का-सा झटका ज़रूर लगा फिर भी जोश ठंडा नहीं हुआ। वह अब भी आगे जाना चाहते थे।
आगे चलकर इस तरह की गहरी और चौड़ी खाइयों की तादाद बहुत थीं। खाइयाँ पार करने का उचित सामान भी तो नहीं था। निराश होकर जवाहरलाल को अमरनाथ तक का सफ़र अधूरा छोड़कर वापस लौटना पड़ा। अमरनाथ पहुँचने का सपना तो पूरा ना हो सका पर हिमालय की ऊँचाइयाँ सदा जवाहरलाल को आकर्षित करती रहीं।
- पुस्तक : रिमझिम (पृष्ठ 140)
- रचनाकार : सुरेखा पणंदीकर
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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