बडगेस्टन, सेल्सवर्ग और विएना की सैर करने के पश्चात् मेरी आस्ट्रिया-यात्रा पूर्ण हो जाती है; परंतु आस्ट्रिया को छोड़ते हुए मेरे मन में बड़ा दुःख होने लगा। इतने समय तक इस देश का आतिथ्य ग्रहण कर, इसकी प्रकृति की अभिरामता में अपनी शरीर-स्थिति को स्वस्थ पाकर और विनम्र आस्ट्रियनों के अनुरागपूर्ण व्यवहार का अनुभव कर एक मोह-सा उत्पन्न हो गया था! मैं जल्दी ही इस राष्ट्र से विलग नहीं होना चाहता था। परंतु समय के संकोच और यूरोप के अन्यान्य प्रगतिशील राष्ट्रों के देखने की बलवती इच्छा ने ही मुझे बलात् यहाँ से आगे बढ़ने को विवश कर दिया!
अपने पर पर बैठ कर यह लेख-माला लिखते समय भी आस्ट्रिया की पर्वतमयी भूमि का दृश्य मेरी स्मृति पर अंकित हो सामने प्रत्यक्ष-सा लक्षित हो रहा है। जान पड़ रहा है, आज भी मैं उसी कुहरे की दूधिया चादर से आच्छादित, हरीभरी, सोध शृंगों पर बसी हुई, भव्य भवनों, विद्युल्ता-वल्लरी से आवेष्ठित अनेक प्रपातों और उद्यानों की पुनीव शोभा से आवृत पर्वत मालिका पर ही सैर कर रहा हूँ।
आस्ट्रिया के एक नगर में (सन् 37 के अगस्त में) होटल मैनेजर के साथ बैठ कर उसके प्यारे देश की चर्चा करते समय उस प्रौढवयस्क व्यक्ति की त्यौरियाँ चढ़ रही थीं। वह अपने देश की दीनता का सत्य वर्णन करते हुए दर्द अनुभव कर रहा था। युद्ध की पाशवी लीला का चित्र मानों उसके सामने आ गया था। उसने कहा था—...महासमर के अनंतर आस्ट्रिया को महान कष्टों का सामना करना पड़ा है। हम लोगों को आज खाना और कपड़ा ठीक तरह नसीब नहीं होता। युद्ध के पूर्ण होते ही ऐसी दशा हो गई थी कि एक अर्से तक रोटी तो क्या, पाव-भर आलू भी खाने को मिलना दुश्वार था। अनेकों ने पेड़ की पत्तियों से अपने पेट पाले हैं! आज ज़रा हम सम्हले हैं, परंतु धंदा नहीं है। धंदे के लिए राष्ट्र अर्थ-सामर्थ्य अनुभव नहीं कर रहा है। इधर यहाँ यह दशा है, उधर सिर पर युद्ध की विभीपिका निकट आती दीख रही है और भविष्य पुनः अंधकारमय विदित हो रहा है। मैंने देखा, उसकी आँखों में पानी भर आया था!
परंतु अब आप युद्ध को टालने का कौन-सा रास्ता सोच रहे हैं? और, मान लीजिए कि युद्ध नहीं टला वो आस्ट्रिया की क्या स्थिति होगी? मैंने पूछा।
वह सम्हल कर साहस के साथ वोला—युद्ध टालने से टल नहीं सकता और न आस्ट्रिया ही स्वतंत्रता से अपना अस्तित्व क़ायम रख सकता है। अब तो आस्ट्रिया के निवासी यही सोच रहे हैं कि हिटलर—जो हमारा, आस्ट्रियन—ही है, सहारा लेना ही श्रेयस्कर होगा। हम जर्मनी के साथ होकर ही रह सकते हैं...।
मैंने उसकी बात काटकर पूछा—लेकिन इसमें आस्ट्रिया अपना स्वतंत्र अस्तित्व कैसे क़ायम रख सकेगा? और, अभी आप यह कह चुके हैं कि डा० शुसनिंग (चांसलर-आस्ट्रिया), जो एक सच्चे देश-भक्त और चतुर व्यक्ति हैं, हर तरह आस्ट्रिया को अन्य राष्ट्रों के साथ समुन्नत बनाए रखेंगे और उसी पंक्ति में रखने के लिए सारी बुद्धि-शक्ति ख़र्च कर रहे हैं। यह कैसे शक्य है?
वह क्षण भर चुप रहा। कुछ सोचने के पश्चात् निस्तब्धता भंग करते हुए कहने लगा—आप ठीक कहते हैं, लेकिन आस्ट्रिया को जर्मनी में मिलने के सिवा दूसरा चारा नहीं है। यह राष्ट्र ऐसे घातक वैज्ञानिक साधनों से समन्वित युद्ध में अकेला तो रह नहीं सकता। डॉ. शुसनिंग की भावनाएँ पवित्र और आदरणीय है, तथापि वे जर्मनों के जाल में पूरी तरह आ चुके हैं। यह एकता (जर्मन-आस्ट्रियन) हुए बिना रहेगी नहीं, आज तो हम यही अपने देश के लिए श्रेयस्कर मानते हैं।
जिस समय यह चर्चा हो रही थी, मालूम होता है, आस्ट्रियन स्वतंत्रता अंतिम श्वास ले रही थी। जर्मन नाज़ियों का जाल समस्त आस्ट्रिया पर फैला हुआ था। हर क्षेत्र में जर्मन महत्ता और हिटलर की शक्ति का प्रदर्शन स्पष्ट विदित होता था। पता नहीं, जिन मैनेजर महाशय से मैंने उपर्युक्त चर्चा की थी, वे भी जर्मनी के कोई व्यक्तिविशेप ही थे या और कोई!
आस्ट्रिया की स्थिति है भी नाज़ुक। वह एक ओर म्युनिक (जर्मनी) से लगा हुआ है, दूसरी ओर इटली की सीमा है और तीसरी ओर स्वीस-राष्ट्र है। अधबीच में यह पर्वत-श्रृंग पर तल के शक्तिराष्ट्रों से आवृत हो गया है। समस्त आस्ट्रिया में बहुत बड़ी तादाद में जर्मन जनता आकर बसी हुई है। और, जर्मनी से वस्त हो वे यहूदी लोग, जो भाग खड़े हुए थे, इस राष्ट्र में आश्वस्त हो बस रहे थे। परंतु उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि जर्मनी के दाँत ऑस्ट्रिया पर भी लगे हुए ही हैं। अनेक तर्क-प्रवीण राजनीतिक भविष्य-वादियों ने हिटलर से मुसोलिनी की भेंट होने के प्रथम प्रसंग पर ही यह मान लिया था कि यह बहुत बड़ा दाव है और हो-न-हो यह आस्ट्रिया या जेकोस्लेवेकिया की हार-जीत का प्रश्न है, यह कितना सत्य हुआ है! आज आस्ट्रिया बिना किसी हिंसा के एक राष्ट्र से दूसरे राष्ट्र में— स्वतंत्रता से पराधीनता में अपना निजत्व खोकर—परिवर्तित हो गया है। जिस बात की कल्पना हमें एक वर्ष पूर्व हो चुकी थी, वह इस प्रकार सहज ही शक्य हो सकेगी, संदेह था। परंतु आस्ट्रिया के अचानक परिवर्तन पर आश्चर्य का कारण नहीं। जिसे हिटलर की दुर्दान्त शक्ति का पता है, उसकी कुटिल एवं षडयंत्र-पूर्ण शासनशैली का ज्ञान है, यह इसे असभाव्य और विस्मय की घात नहीं समझेगा।
आस्ट्रिया पर उसका अर्से से दाव था। उसने अपने आपको आस्ट्रिपन बताकर आस्ट्रियनों पर अपना प्रभाव डाला था कि मैं भी तो तुम्हीं में से एक हूँ।' यह स्वयं अ-जर्मन हो नूतन जर्मनी का विधाता बना हुआ है। आस्ट्रियनों में उसने अपनी आत्मीयता का भाव प्रकट कर, चतुराई के साथ अंतरंग प्रचार कर, एक विचित्र जाल बिछा दिया था। उसी का फल है कि डा. शुसनिंग और भूत पूर्व चांसलर डफलस—दोनों का 'अर्थहीन' प्रभाव उतना कारगर सिद्ध न हो सका। डा० डफलस ने नाजियों के प्रचार रोकने के अनेक ज़ोरदार प्रयत्न किए और उस समय प्रीमियर डा० शुसनिंग ने उग्र विरोध भी किया। उसीके फल स्वरूप पूर्व विरोध के कारण तथा जर्मनी के शत्रु यहूदियों को आश्रय देने के फलस्वरूप, आज डा० शुसनिंग को कारागार मे घंद रहना पड़ा है। पता नहीं, किसी भयानक दण्ड को भोगना भी पड़े! हिटलर के शत्रु अपने अस्तित्व को रख सकें, यह आशा नहीं की जा सकती।
आज आस्ट्रिया के अनेक विद्वान, व्यापारी, संपन्न यहूदी ज़ुल्म के शिकार हो रहे हैं। आस्ट्रिया के जिन विद्वानों से मैं मिला हूँ उनमें दो यहूदी सज्जन थे। भगवान जाने-आज वे कहाँ होंगे।
आस्ट्रिया ने कई उतार-चढाव देखे हैं। वह महायुद्ध-काल में हगेरी का समिलित राज्य था। नेपोलियन के परास्त कर देने पर पचास वर्ष अनंतर तक जर्मनी छोटे-छोटे रजवाड़ों में विभक्त हो गया था। अनेक बार प्रयत्न होने पर भी वह संयुक्त नहीं हो सका।
आस्ट्रिया और प्रशिया के राजा इस प्रकार के संघ के प्रमुख बनने को लालायित थे। इसके पूर्व कई शताब्दियों तक प्रसिद्ध 'हेप्सबर्ग' के घराने के अंतर्गत यही आस्ट्रिया, जर्मनी का सबसे शक्तिशाली राज्य बनकर उभर रहा था। फिर तीसरे नेपोलियन ने इसे परास्त कर डाला था। बाद बिस्मार्क की शक्ति और सहयोग पाकर इसने डेनमार्क को गिरा दिया और तुरंत ही आस्ट्रिया पर हाथ डाला। इस समय इसने इटली को सहायता पा ली थी और थोड़े से समय के बीच ही पुनः प्रशिया ने इसे धर दयाया था। पर प्रशिया की प्रभुता से चौंककर बिस्मार्क ने आस्ट्रिया को सहयोगी बनाया। आगे चलकर इटली को भी शामिल कर एक 'त्रिकुटी' बना डाली थी। परंतु महासमर ने सारा नक़्शा ही पलट दिया। और आज? आज तो बिना किसी समर के आस्ट्रिया का नाम भी समाप्त कर दिया है (जर्मनी ने आस्ट्रिया को 'आस्टोमार्क' के नाम से सूचित किया है!) तथा जर्मनी ने अपना नक़्शा पलट लिया है। कौन जाने, भावी महासमर में अब इनका क्या रूप होगा?
कुछ भी हो। मुझे तो यह अनुभव हुआ है कि आस्ट्रियनों में वर्ण-भेद का प्रश्न नहीं है। ये बड़े ही मिलनसार, विनयी और भद्र लोग हैं। रहन सहन बहुत सीधा-सादा है। अधिकांश लोग सुस्वभाव, आविथ्य प्रिय तथा सहृदय हैं। रूखापन उनमें मैंने कहीं नहीं पाया। आस्ट्रिया में व्यापार कम दिखाई दिया। शिक्षा भी अन्य प्रगतिशील राष्ट्रों के मुक़ाबिले में कम है। कृषि है, परंतु पर्वतमय भूमि होने के कारण कृषि के वर्तमान-युगीन साधनों का उपयोग कम ही होता देखा जाता है। खेती, घोड़ों और गायों से होती है। होटलों का व्यवसाय बहुत बढ़ा हुआ है। ज़ियादातर ग्राम और ग्रामीण ही है। ग़रीबी भी सर्वत्र लक्षित होती है। फटेहाल लोग; सिर पर पुराने ज़माने के जूड़े (वेणी) बाँधनेवाली, प्राचीन ग्राम्य शैली के लहंगे और फ्राक धारण करनेवाली तथा पाउडर-लिपस्टिक से वंचित महिलाएँ और अभिनवता के स्पर्श से अपरिचित जनता ही आस्ट्रिया में ज़ियादा है। विएना को छोड़ आस्ट्रिया के अन्य ग्रामों में जितने लोग आस्ट्रिय भाषा बोलने-जानने वाले हैं उत्तने इंग्लिश मंच के नहीं! हाँ, यदि जर्मन सीमा पर बसे हुए आस्ट्रियन जर्मन-मिश्रित भाषा जानते हैं तो इटली की सीमा पर इटली भाषा से परिचित मिल सकेंगे। ऐसा ही स्वीस सीमा का हाल समझिए।
आस्ट्रिया की स्वास्थ्यप्रद यात्रा समाप्त कर मैंने यूरोप के स्वर्ग-स्विटज़रलैंड-की यात्रा आरंभ की।
- पुस्तक : दुनिया की सैर (पृष्ठ 123)
- रचनाकार : योगेंद्रनाथ सिंह
- प्रकाशन : पुस्तक-भंडार
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.