स्ववृत्त (बायोडेटा) लेखन और रोज़गार संबंधी आवेदन पत्र
svvritt ( bayoDeta ) lekhan aur rozgar sambandhi avedan patr
नोट
प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
यह हो सकता है कि कोई अपना रास्ता चुने भी और उस पर अकेला भी न हो? राजमार्ग पर चलने वाले रास्ता नहीं चुनते, रास्ता उन्हें चुनता है।
—सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’
हिंदी साहित्यकार
विद्यार्थी के मन में अपने भविष्य को लेकर तरह-तरह की कल्पनाएँ होती हैं। कुछ अपना स्वतंत्र उद्यम या व्यवसाय खड़ा करने का स्वप्न देखते है तो कुछ अपनी मनचाही नौकरी पाने का ख़्वाब बुनते हैं। कोई डॉक्टर बनना चाहता है तो कोई इंजीनियर। कोई मैनेजर बनना चाहता है तो कोई बैंकर। वहीं कुछ शिक्षक बनना चाहते हैं। विद्यार्थी जीवन होता ही है कल्पनाओं का संसार रचने और उसे हक़ीक़त में बदलने का प्रयास। एक दिन छात्र जीवन अपनी परिणति प्राप्त करता है और फिर हम अपनी कल्पना के महल के दरवाज़े पर दस्तक देने लगते हैं अंदर प्रवेश का अरमान सँजोए।
लेकिन कई बार उस महल के द्वार पर प्रवेशार्थियों की अच्छी ख़ासी भीड़ जमा हो जाती है और अंदर जगह की कमी होती है। कुछ को प्रवेश मिल पाता है और अधिकांश बाहर ही रह जाते हैं। द्वार के दुबारा खुलने की प्रतीक्षा करते हुए। नरेंद्र भी एक वैसा ही प्रतीक्षारत प्रवेशार्थी है।
नरेंद्र मार्केटिंग मैनेजर बनना चाहता है। सच पूछा जाए तो अंततः इसके भी बहुत आगे जाना चाहता है। इस दिशा की पहली सीढ़ी है मार्केटिंग एक्ज़क्यूटिव का पद। इसके लिए नरेंद्र कुछ समय से जी तोड़ कोशिश कर रहा है। अख़बारों, बिजनेस पत्रिकाओं और इंटरनेट पर वह विज्ञापनों की तलाश करता रहता है और लगातार आवेदन भेजता रहता है मगर या तो आवेदन का उत्तर ही नहीं मिलता या फिर नकारात्मक उत्तर आता है।
आज फिर दरवाज़े की घंटी बजी। बाहर पोस्टमैन खड़ा था। नरेंद्र के दिल की धड़कन बढ़ गई। आशाओं और आशंकाओं के मिश्रित ऊहापोह के साथ उसने दरवाज़ा खोला। पत्र किसी कंपनी से ही आया था। धड़कते हृदय के साथ लिफ़ाफ़ा खोला। फिर वही ढाक के तीन पात। वही नकारात्मक उत्तर।
नरेंद्र के चाचा जी मुंबई से आजकल घर पर ही आए हुए हैं। चाचा जी मुंबई में एक बड़ी कंपनी के मानव संसाधन विभाग में बड़े पद पर हैं। उनकी नज़र नरेंद्र के उदास चेहरे पर पड़ती है।
नरेंद्र! चेहरा इस तरह उतरा हुआ क्यों है? इतने उदास क्यों नज़र आ रहे हो?
वैसे तो नरेंद्र का अहं उसे अपना दुख बाँटने से रोकता था लेकिन इस समय वह फट पड़ा। ज़ख़्म ताज़ा-ताज़ा था।
“चाचा जी! मैं मार्केटिंग एक्ज़क्यूटिव के पद के लिए न जाने कितनी बार प्रयत्न कर चुका हूँ। अगर मुझे साक्षात्कार के लिए बुलावा मिल जाए तो मुझे विश्वास है कि मैं अवश्य ही चुन लिया जाऊँगा। मगर उसकी नौबत ही नहीं आती। या तो जवाब ही नहीं आता या फिर इंकार का पत्र आ जाता है। लगता है अपने भाइयों या रिश्तेदारों को ही चुन लेते हैं।”
चाचा जी मुस्कुराए। मानव संसाधन विभाग में काम करने की वजह से ऐसी फब्तियाँ सुनने का उनका अनुभव पुराना था। असफल उम्मीदवार कई बार अनेक तरह के उलटे-सीधे पत्र लिखते थे। उन्होंने संयत होकर नरेंद्र से कहा।
“बेटे ऐसी बात नहीं है। जिस तरह तुम्हें अपनी मनचाही नौकरी की तलाश है, उसी तरह कंपनियों को भी मनचाहे उम्मीदवार की खोज रहती है। मगर उनकी समस्या यह है कि वे जब भी कोई विज्ञापन निकालते हैं, उनके पास स्ववृत्तों का ढेर लग जाता है। कई बार तो पाँच पदों के लिए पाँच हज़ार स्ववृत्त आ जाते हैं। ऐसे में किसी भी कंपनी के लिए क्या यह संभव है कि वह हर किसी को बुलाए और उनका साक्षात्कार करे? पाँच पदों के लिए अधिक से अधिक पचास उम्मीदवारों को ही बुलाया जा सकता है। ये पचास उम्मीदवार स्ववृत्त के आधार पर ही चुने जाते हैं।”
नरेंद्र आश्चर्यचकित होकर बोला यानी साक्षात्कार के बाद तो दस में से एक को चुना जाता है लेकिन साक्षात्कार के लिए बुलाया जाना ज़्यादा कठिन है। सौ में से एक उम्मीदवार को साक्षात्कार के लिए चुनते हैं स्ववृत्त के आधार पर। शेष निन्यानवे के हाथ निराशा ही लगती है।
चाचा जी बोले, “हाँ बेटे। ऐसा ही है। हो सकता है उस निन्यानवे में कई ऐसे भी उम्मीदवार हों जो चुने गए उम्मीदवारों से अधिक योग्य हों। मगर चूँकि उनके स्ववृत्त अच्छी तरह बने हुए नहीं होते इसलिए वे पीछे छूट जाते हैं।”
नरेंद्र के लिए यह चौकाने वाली बात थी।
चाचा जी आगे बोले, “तुम मार्केटिंग को अपना कैरियर बनाना चाहते हो। मगर नौकरी की तलाश भी एक प्रकार की मार्केटिंग ही है। इसमें तुम अपने ग्राहक को प्रेरित करते हो कि वह तुम्हारे प्रतियोगियों की तुलना में तुम्हें पसंद करे। जिस प्रकार ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए निर्माता लुभावने विज्ञापनों का सहारा लेता है उसी प्रकार उम्मीदवार के लिए यह ज़रूरी है कि वह अपना स्ववृत्त सुंदर और आकर्षक बनाए।”
चाचा जी जारी रहे—”एक स्ववृत्त की तुलना हम उम्मीदवार के दूत या प्रतिनिधि से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक अच्छा दूत या प्रतिनिधि अपने स्वामी का एक सुंदर और आकर्षक चित्र प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार एक अच्छा स्ववृत्त नियुक्तिकर्ता के मन में उम्मीदवार के प्रति अच्छी और सकारात्मक धारणा उत्पन्न करता है। एक अच्छा स्ववृत्त किसी चुंबक की तरह होता है जो नियुक्तिकर्ता को आकर्षित कर लेता है। नौकरी में सफलता के लिए योग्यता और व्यक्ति के साथ-साथ स्ववृत्त निर्माण की कला में निपुणता भी आवश्यक है। ध्यान रहे! पहली लड़ाई तो तुम्हारा स्ववृत्त ही तुम्हारे लिए लड़ता है। इस लड़ाई में जीतने के बाद ही ख़ुद लड़ने की बारी आती है। अगर स्ववृत्त कमज़ोर हुआ तो लड़ाई शुरू में ही ख़त्म हो जाती है।”
नरेंद्र चाचा जी की बातों से अत्यंत प्रभावित हुआ। वह अपने कमरे में जाकर अपना स्ववृत्त ले आया और उसे चाचा जी को देते हुए बोला, “चाचा जी! क्या कमी है मेरे स्ववृत्त में?”
चाचा जी ने स्ववृत्त पर अपनी अनुभवी नज़र दौड़ाई और परखा। फिर बोले, “तुम्हारा स्ववृत्त सही तरीक़े से नहीं बना है। इसमें कमियाँ ही कमियाँ हैं। मैं तुम्हें बचपन से जानता हूँ और इसलिए यह कह सकता हूँ कि अगर तुम्हें साक्षात्कार का बुलावा मिल जाए तो तुम्हें सफल होने से कोई रोक नहीं सकता। तुम्हारे व्यक्तित्व में वे सारी ख़ूबियाँ हैं जो एक अच्छे मार्केटिंग एक्ज़क्यूटिव में होनी चाहिए। मगर तुम्हारा स्ववृत्त इतने बुरे तरीक़े से बना हुआ है कि तुम्हारी ग़लत तस्वीर पेश करता है और साक्षात्कार की नौबत ही नहीं आने देता। तुम्हें अपना स्ववृत्त दुबारा तैयार करना होगा।”
नरेंद्र को अपनी भूल समझ में आ रही थी। वह बोला, “चाचा जी क्या आप अच्छा स्ववृत्त बनाने में मेरा मार्गदर्शन करेंगे?”
चाचा जी ने सोफ़े पर अपनी मुद्रा बदली और बोले, “हाँ नरेंद्र, क्यों नहीं। मगर शुरुआत कहाँ से करूँ? चलो, इतना तो अब तक तुम्हें भी मालूम हो गया है कि स्ववृत्त एक विशेष प्रकार का लेखन है, जिसमें व्यक्ति विशेष के बारे में किसी विशेष प्रयोजन को ध्यान में रखकर सिलसिलेवार ढंग से सूचनाएँ संकलित की जाती हैं।”
नरेंद्र बोल पड़ा, “वाह चाचा जी! एक ही वाक्य में इतनी सारी बातें। यह तो गागर में सागर वाली बात हुई।”
चाचा जी आगे बोले, “हाँ बेटे! स्ववृत्त के दो पक्ष हैं। पहले पक्ष में वह व्यक्ति है जिसको केंद्र में रखकर सूचनाएँ संकलित की गई होती हैं। दूसरा पक्ष उस व्यक्ति या संस्था का है जिसके लिए या जिसके प्रयोजन को ध्यान में रखकर सूचनाएँ जुटाई जाती हैं। पहला पक्ष है उम्मीदवार और दूसरा पक्ष नियोक्ता।”
“सच है चाचा जी किसी भी व्यक्ति से संबंधित सूचनाओं का तो कोई अंत ही नहीं है। लेकिन हर सूचना नियोक्ता के काम की नहीं हो सकती। इसीलिए स्ववृत्त में वही सूचनाएँ डाली जा सकती हैं जिनमें दूसरे पक्ष यानी नियोक्ता की दिलचस्पी हो।”
“वाह नरेंद्र। तुम तो ख़ासे समझदार हो! कुछ बातें जो मैं तुम्हें बताना चाहूँगा, उनमें पहली तो यह है कि स्ववृत्त में ईमानदारी होनी चाहिए। किसी भी प्रकार के झूठे दावे या अतिशयोक्ति से बचना चाहिए। यह मत भूलो कि नियोक्ता को उम्मीदवारों के चयन का अच्छा ख़ासा अनुभव होता है। ग़लत या बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावों से उन्हें धोखा देने की कोशिश ख़तरनाक बन सकती है। अगर साक्षात्कार के लिए बुला भी लिया गया तो उस दौरान कलई खुलने का पूरा अंदेशा रहता है।”
“मगर इसका यह अर्थ भी नहीं है कि अपनी ख़ूबियाँ और अच्छाइयाँ बताने में तुम कंजूसी बरतो। अपने व्यक्तित्व, ज्ञान और अनुभव के सबल पहलुओं पर ज़ोर देना तो कभी भी नहीं भूलना चाहिए।” नरेंद्र चाचा की बातें ग़ौर से सुन रहा था। उसके मन में एक प्रश्न उभरा।
“चाचा जी! स्ववृत्त को भाषा-शैली कैसी होनी चाहिए?”
“स्ववृत्त में आलंकारिक भाषा की गुंजाइश नहीं है। इसीलिए इसकी इस शैली सरल, सीधी, सटीक और साफ़ होनी चाहिए ताकि पढ़ने वाले को सारी बातें एक ही नज़र में स्पष्ट हो जाएँ और अर्थ निकालने के लिए दिमाग़ पर ज़ोर न डालना पड़े।”
नरेंद्र ने अगला प्रश्न पूछा, “क्या स्ववृत्त के आकार-प्रकार को लेकर भी कोई नियम है?”
चाचा जी ने जवाब दिया “इसका कोई निश्चित नियम तो नहीं है लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि स्ववृत्त न तो ज़रूरत से अधिक लंबा हो न ही ज़्यादा छोटा। अगर बहुत संक्षिप्त हुआ तो इसमें अनेक ज़रूरी चीज़ें आने से रह जाएँगी। दूसरी ओर यदि बहुत लंबा हुआ तो पढ़ने वाला अनेक पहलुओं को नज़रअंदाज़ कर सकता है।”
“लेकिन चाचा जी आप अपने अनुभव के आधार पर कुछ गुर तो बता ही सकते हैं।”
“बेटे, ध्यान देने की बात यह है कि जब पद बहुत बड़ा होता है तो उसके लिए उम्मीदवार भी कम होते हैं। मसलन यदि मैनेजिंग डायरेक्टर के पद के लिए विज्ञापन दिया जाए तो गिनती के लोग ही अपना स्ववृत्त भेजेंगे। ये सारे लोग अच्छी योग्यता और व्यापक अनुभव वाले होंगे। अतः इस स्थिति में स्ववृत्त यदि नौ-दस पृष्ठों का भी हुआ तो उसे ध्यानपूर्वक और बारीक़ी से पढ़ा जाएगा। लेकिन यदि नीचे के पद के लिए विज्ञापन दिया जाए तो बड़ी संख्या में आवेदन आएँगे। यहाँ पर यदि स्ववृत्त दो-तीन पृष्ठों से अधिक लंबा हुआ तो पढ़ने वाला अपना धैर्य खो सकता है।”
“यानी मेरी तरह जो कॉलेज से तुरंत निकला है उनका स्ववृत्त दो-तीन पृष्ठों से अधिक लंबा नहीं होना चाहिए।”
चाचा जी बोले, “हाँ! मोटेतौर पर तुम ऐसा मान सकते हो। एक और बात स्ववृत्त साफ़-सुथरे ढंग से टंकित या कंप्यूटर-मुद्रित होना चाहिए। व्याकरण संबंधी भूलों को भी दूर कर लेना चाहिए। ये बातें छोटी लग सकती हैं मगर उम्मीदवार के प्रति विपरीत धारणा उत्पन्न करती हैं। नियोक्ता को ऐसा लग सकता है कि उम्मीदवार या तो लापरवाह है या फिर उसकी शिक्षा दीक्षा ढंग से नहीं हुई है।”
नरेंद्र ने बात को आगे बढ़ाया, “चाचाजी! शुरू में आपने कहा था कि स्ववृत्त व्यक्ति विशेष के बारे में सूचनाओं का सिलसिलेवार संकलन है। क्या आप इसे और समझाएँगे। सूचनाओं का सिलसिला किस प्रकार का होना चाहिए।”
चाचा जी अपनी अनुभव सिद्ध वाणी में बोले—”बेटे स्ववृत्त सूचनाओं का एक अनुशासित प्रवाह है। यानी इसमें प्रवाह और अनुशासन दोनों ही होने चाहिए। प्रवाह व्यक्ति परिचय से प्रारंभ होता है और शैक्षणिक योग्यता, अनुभव, प्रशिक्षण, उपलब्धियाँ, कार्येतर गतिविधियाँ इत्यादि पड़ावों को पार करता हुआ अपनी पूर्णता प्राप्त करता है। स्ववृत्त के जो ये अवयव मैंने तुम्हें बताए हैं वे केवल उदाहरण के लिए हैं। आवश्यकतानुसार इनमें फेरबदल किया जा सकता है।”
नरेंद्र ने जिज्ञासा प्रकट की कि व्यक्ति परिचय में क्या-क्या बातें होनी चाहिए।
चाचा जी ने समझाया कि व्यक्ति परिचय के अंतर्गत उम्मीदवार का नाम, जन्मतिथि, उम्र, पत्र व्यवहार का पता, टेलीफ़ोन नंबर, ई-मेल का पता आदि सूचनाएँ दी जाती हैं। व्यक्ति परिचय में जन्म तिथि और माता-पिता का नाम अवश्य डालना चाहिए। जिन पदों के लिए बड़ी संख्या में आवेदन आते हैं वहाँ एक ही नाम के कई उम्मीदवार होते हैं। पिता के नाम और जन्मदिन के आधार पर उनमें आसानी से भेद किया जा सकता है।
नरेंद्र ने अगला सवाल उठाया, “चाचाजी व्यक्ति परिचय के बाद किस प्रकार की सूचनाएँ डाली जानी चाहिए?”
“यदि उम्मीदवार किसी बड़े पद के लिए आवेदन कर रहा है और बहुत अनुभवी है तो अनुभव की चर्चा व्यक्ति परिचय के तुरंत बाद डाली जा सकती है। लेकिन तुम्हारी तरह जो कॉलेज से तुरंत ही बाहर निकले हैं उन्हें व्यक्ति परिचय के तत्काल बाद अपनी शैक्षणिक योग्यताओं की चर्चा करनी चाहिए। शैक्षणिक योग्यताओं से संबंधित सूचनाएँ एक सारणी के रूप में प्रस्तुत की जानी चाहिए जिनमें प्राप्त डिप्लोमा या डिग्री का विवरण, स्कूल या कॉलेज का नाम, बोर्ड या विश्वविद्यालय का नाम, संबंधित परीक्षा का वर्ष, परीक्षा के विषय, प्राप्तांक प्रतिशत और श्रेणी का उल्लेख होना चाहिए।”
नरेंद्र ने सवाल किया पढ़ाई-लिखाई या अनुभव की चर्चा तो ठीक है मगर कार्येतर गतिविधियों की चर्चा क्यों ज़रूरी है।
चाचा जी सोफ़े पर बैठे-बैठे थोड़े बोर हो रहे थे। वे खड़े होकर कमरे में चहलक़दमी करने लगे और खिड़की के पास खड़े होकर कहने लगे, “जब नियोक्ता किसी उम्मीदवार को चुनने का निर्णय लेता है तो उसके संपूर्ण व्यक्तित्व को ध्यान में रखता है। कार्येतर गतिविधियों के माध्यम से उम्मीदवार के व्यक्तित्व के बारे में अच्छी जानकारियाँ मिलती हैं और पद के लिए उसकी येग्यता को तय करना आसान हो जाता है। मसलन यदि कोई उम्मीदवार अच्छा फ़ुटबॉल खिलाड़ी है तो यह माना जा सकता है कि उसमें टीम भावना अवश्य ही होगी। अगर किसी को भाषण या वाद-विवाद में ढेरों पुरस्कार मिल चुके हैं तो इससे उसकी वाक्पटुता और संभाषण कला का पता चलता है। यदि तुम्हारी ऐसी कोई गतिविधि या हॉबी हो जो तुम्हारी उम्मीदवारी को सबल बनाते हों तो उनकी चर्चा करना मत भूलना।”
नरेंद्र बोल पड़ा, “चाचाजी मुझे तो भाषण और वाद-विवाद में बहुत सारे पुरस्कार मिले हैं। पर्यटन का भी मुझे शौक़ है। क्या मुझे अपने स्ववृत्त में इनकी चर्चा करनी चाहिए थी।”
“चाचा जी थोड़ा ग़ुस्सा दिखाते हुए बोले, क्या अब तक तुम इनकी चर्चा करना भूल जाते थे? अगर तुम मार्केटिंग एक्ज़क्यूटिव का पद पाना चाहते हो तो तुम्हारी इस प्रकार की गतिविधियाँ तुम्हें अन्य उम्मीदवारों से मीलों आगे ले जा सकती हैं। मार्केटिंग एक्ज़क्यूटिव के रूप में वैसे लोग सफल साबित होते हैं जो वाक्पटु हों और जिन्हें घूमना-फिरना अच्छा लगता हो।”
चाचा जी को अचानक एक और बात याद आई। स्ववृत्त में दो-तीन वैसे लोगों के नाम पते भी दिए जा सकते हैं जो उम्मीदवार के रिश्तेदार न हों मगर उसकी योग्यताओं एवं क्षमताओं से परिचित हों। जिन लोगों का विवरण दिया जाए वे प्रतिष्ठित व्यक्ति हों। यदि वे उसी क्षेत्र के जाने-माने लोग हों जिस क्षेत्र में उम्मीदवार आवेदन कर रहा है तो यह सोने पर सुहागा वाली बात है।
“मगर चाचा जी! जो उम्मीदवार पहले से कहीं काम कर रहे हैं वे तो इस प्रकार का विवरण आसानी से जुटा लेंगे, मगर वे क्या करें जो कॉलेज से तुरंत निकले हैं और संबंधित उद्योग या क्षेत्र के लोगों से जिनका परिचय नहीं है।”
चाचा जी का उत्तर था “जो कॉलेज से तुरंत निकले हैं उन्हें अपने प्रिंसिपल या प्रोफ़ेसरों के नाम-पते देने चाहिए। कॉलेज से तुरंत निकले छात्रों के मामले में नियोक्ता, प्रिंसिपल या प्रोफ़ेसरों की राय को महत्त्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि इन लोगों ने उम्मीदवार को विद्यार्थी रूप में कई वर्षों तक नज़दीक से देखा-परखा होता है।”
नरेंद्र की सभी शंकाओं का समाधान हो गया था। चाचा जी को धन्यवाद देते हुए बोला, “चाचाजी आपने इतनी बहुमूल्य जानकारियाँ दीं। अब शायद स्ववृत्त की वजह से मैं ख़ारिज नहीं किया जाऊँगा। शायद अगली बार मैं ज़रूर सफल हो जाऊँगा।”
चाचा जी मुस्कुराते हुए बोले, “धन्यवाद इस प्रकार नहीं। पहले मम्मी को चाय के लिए बोलो और आज का अख़बार लेकर आओ। मैंने अब तक अख़बार नहीं देखा है। और हाँ! जब तक मैं अख़बार का दैनिक पारायण संपन्न करता हूँ तब तक तुम मुझे अपना एक स्ववृत्त बनाकर दिखलाओ। मैं भी तो देखूँ कि मेरी बातों का तुम पर क्या असर पड़ा है।”
चाचा जी अख़बार के साथ चाय की चुस्कियाँ लेने लगे और नरेंद्र अपने कमरे में अपना स्ववृत्त तैयार करने लगा। कुछ समय के बाद बाहर निकला और चाचा जी के सामने उसने अपना स्ववृत्त पेश कर दिया।
स्ववृत्त इस प्रकार था—
चाचा जी ने स्ववृत्त पर नज़र डाली और नरेंद्र की ओर देखकर संतोष और प्रशंसा के सम्मिलित भाव से मुस्कुराए। थोड़ा विराम देकर वे आगे कहने लगे, “अब तुम्हारा स्ववृत्त पूरी तरह से तैयार है। इसे सुरक्षित रखो। जब भी आवेदन करना हो इसे भेज दो। हाँ, विज्ञापन में वर्णित योग्यताओं और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इसमें थोड़ा हेर-फेर या जोड़-घटाव करना मत भूलना।”
इसके बाद चाचा जी ने क्षणभर की एक अर्थपूर्ण चुप्पी साधी। फिर बोले—”लेकिन नरेंद्र, यह तो आधी ही लड़ाई हुई। आधी तो अभी बाक़ी ही है।”
“क्या मतलब!” नरेंद्र की उत्सुकता बढ़ गई।
“मतलब यह कि सिर्फ़ स्ववृत्त देने भर से ही काम नहीं चलता। स्ववृत्त के साथ एक आवेदन-पत्र भी लिखना होता है। इस आवेदन-पत्र के साथ हम स्ववृत्त को लगाते हैं और नियोक्ता को उसके विचार के लिए भेज देते हैं।”
“मगर चाचा जी, जब स्ववृत्त में सारी जानकारियाँ दे ही दी जाती हैं तो फिर अलग से आवेदन-पत्र लिखने की ज़रूरत क्यों पड़ती है?”
“यह अच्छा सवाल है। स्ववृत्त तो बना-बनाया रखा होता है। विज्ञापन देखा और भेज दिया। अतः सिर्फ़ स्ववृत्त से यह पता नहीं चलता कि उम्मीदवार पद और संबंधित संस्थान को लेकर कितना गंभीर है। स्ववृत्त की एक कमी यह होती है कि यह सूचनाओं के सिलसिलेवार संकलन के रूप में होता है। इसमें भाषा का वह वैयक्तिक स्पर्श नहीं आ पाता। दूसरी ओर, आवेदन-पत्र हर विज्ञापन के लिए विशेषतौर पर लिखे जाते हैं। ये उम्मीदवार के भाषा-ज्ञान और अभिव्यक्ति की क्षमता की तो जानकारी देते ही हैं, साथ ही यह भी दर्शाते हैं कि उम्मीदवार पद और संस्थान को लेकर गंभीर है या नहीं। नियोक्ता को योग्य उम्मीदवार की तलाश तो होती ही है, वह यह अपेक्षा रखता है कि चयन के बाद वह नौकरी में कम से कम कुछ वर्षों तक अवश्य टिके। आवेदन-पत्र से बहुत कुछ इन बातों का भी आभास नियोक्ता को मिल जाता है।”
“चाचा जी, आवेदन-पत्र तो हम लोग स्कूल के ज़माने से ही लिखते रहे हैं। क्या नौकरी के आवेदन-पत्र अपने स्वरूप में अन्य आवेदन पत्रों से भिन्न होता है?”
“आवेदन का ढाँचा या स्वरूप तो वैसा ही होता है जैसा अन्य दूसरे आवेदन-पत्रों का होता है। लेकिन इसका उद्देश्य अलग होता है—पद के लिए अपनी योग्यता और गंभीरता के प्रति नियोक्ता का विश्वास जगाना। उद्देश्य की भिन्नता की वजह से इसकी विषय-वस्तु अन्य आवेदन-पत्रों से भिन्न होती है।”
“चाचा जी, फिर आप यह भी बता दें कि विषय-वस्तु के अंतर्गत क्या होगा और हम उसे आकार कैसे देंगे?”
“बेटे, इस प्रकार के आवेदन-पत्रों की विषय वस्तु के मुख्यतः चार हिस्से होते हैं। पहला हिस्सा भूमिका का होता है, जिसमें उम्मीदवार विज्ञापन और विज्ञापित पद का हवाला देते हुए अपनी उम्मीदवारी की इच्छा प्रकट करता है। दूसरे खंड में उम्मीदवार यह बतलाता है कि वह विज्ञापन में वर्णित योग्यताओं और आवश्यकताओं को पूरा करने में किस प्रकार सक्षम है। तीसरे खंड में उम्मीदवार पद और संस्थान के प्रति अपनी गंभीरता और अभिरुचि को अभिव्यक्त करता है। चौथा खंड उपसंहार यानी आवेदन पत्र की विषय-वस्तु के औपचारिक समापन के लिए होता है।”
नरेश को चाचा जी की बातें तो समझ में आ रही थीं मगर एक शंका भी थी। उसने पूछा तीसरे खंड के बारे में अभी-अभी आपने बताया कि इसमें उम्मीदवार पद और संस्थान के बारे में अपनी गंभीरता को अभिव्यक्त करता है। यह बात पूरे तौर पर साफ़ नहीं हुई।
चाचा जी ने अपना चश्मा ठीक करते हुए कहा “नरेंद्र, जिस प्रकार नियोक्ता अपनी पसंद का उम्मीदवार चुनता है उसी प्रकार उम्मीदवार को भी नियोक्ता का संस्थान पसंद आना चाहिए। तभी उम्मीदवार के लंबे समय तक टिकने की संभावना रहती है। जब उम्मीदवार पद और संस्थान को लेकर गंभीर होता है तो वह उसके बारे में जानकारियाँ हासिल करता है और यह तय करता है कि वे उसके सपनों और भावी योजनाओं के अनुरूप हैं या नहीं। अगर उम्मीदवार ने जानकारी जुटाने के बाद संस्थान को अपनी इच्छाओं के अनुरूप पाया है तो आवेदन पत्र में इसकी चर्चा अवश्य होनी चाहिए। नियोक्ता पर इसका बहुत ही अच्छा असर होता है।”
“चाचा जी, अभी तक तो मैं विज्ञापन के जवाब में केवल स्ववृत्त ही भेजा करता था मगर अब मैं स्ववृत्त को आवेदन-पत्र के साथ भेजा करूँगा।”
चाचा जी बोल पड़े फिर शुभ कार्य में देर किस बात की।
फिर अख़बार के पन्ने पलटते हुए बोले, “मैंने इसमें तुम्हारे लिए अभी-अभी एक विज्ञापन देखा है। इंडिया केमिकल्स लि. को मार्केटिंग एक्ज़क्यूटिव्स की ज़रूरत है। तुम इसके लिए आवेदन-पत्र तैयार क्यों नहीं करते? आवेदन का आवेदन होगा और इस बात की परीक्षा भी हो जाएगी कि अभी-अभी तुमने मुझसे कितना सीखा है?”
नरेंद्र को अख़बार पकड़ाने के बाद अब चाचा जी पड़ोस में अपने मित्र से मिलने चले गए और नरेंद्र अपने कमरे में आवेदन-पत्र लिखने चला गया। जब आवेदन-पत्र तैयार हुआ तो इस प्रकार था—
जब तक नरेंद्र का आवेदन-पत्र तैयार हुआ, चाचा जी पड़ोस से वापस आ चुके थे। उन्होंने आवेदन-पत्र को पढ़ा और गहरी साँस खींचते हुए कहा, “वैसे तो मैं कंपनी के मानव संसाधन विकास के महाप्रबंधक को अच्छी तरह से जानता हूँ मगर मैं तुम्हारी सिफ़ारिश नहीं करूँगा। मुझे विश्वास है कि तुम यह पद अपनी योग्यता के बल पर हासिल कर सकोगे।”
दो महीने बाद मुंबई में चाचा जी के फ़्लैट की घंटी बजी। दरवाज़ा खोलने के बाद चाचा जी ने दरवाज़े पर नरेंद्र को खड़ा पाया। हाथ में मिठाई का डिब्बा और गर्म सूट का एक पैकेट था। दोनों की नज़रें मिलीं। नरेंद्र ने चाचा जी के पैर छुए और चाचा जी ने बधाई देते हुए उसे गले लगा लिया।
- पुस्तक : अभिवक्ति और माध्यम (पृष्ठ 182)
- प्रकाशन : एनसीईआरटी
- संस्करण : 2022
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