माँ आँगन में चारपाई पर लेटी हुई थी। मेरी आवाज़ सुनकर उठ बैठीं। मैंने अटैची चारपाई के पास ही रख दी। माँ के पैर छुए और उनके पास बैठ गया। माँ मेरे पास सरक आई, अपने दोनों पंजे मेरे गालों पर रख दिए और रुआँसी हो गई।
बड़े दादा और बच्चे भीतर खाना खा रहे थे। आवाज़ सुनकर आँगन में आ गए। छोटे दादा भी आए हुए थे। बच्चे जूठे हाथों से आकर चिपट गए। मैं उठकर खड़ा हो गया। माँ बोलीं—हाथ-मुँह धोकर खाना खा लो, सफ़र में थक गए होंगे।
मैंने अटैची उठा ली और अंदर चला आया।
भाभी रोटी सेंक रही थीं। मुझे देखकर हाल पूछा। मैंने कपड़े बदले। सहन में जाकर हाथ-मुँह धोया। लौटकर खाना खाने बैठ गया। मैंने छोटे दादा से पूछा—आप कब आए?
जवाब बड़े दादा ने दिया—परसों सुबह।
—भाभी और बच्चों को नहीं लाए?
—ना।
—बच्चे कैसे हैं?
—मज़े में हैं। तुमको याद करते रहते हैं। छोटे दादा ने कौर मुँह में रखते हुए कहा। दाल में नमक कम था। मैंने थोड़ा नमक लेकर दाल में घोल लिया। बड़े दादा बोले—तार मिल गया था?
—हाँ।
—मैंने सोचा था, तुम परसों ही आ जाओगे।
—छुट्टी नहीं मिली।
उन्होंने कौर चबाते हुए मेरी तरफ़ देखा। कुछ-कुछ नाराज़गी के साथ बोले—तुम्हारी यह शिकायत कभी दूर भी होगी?
—मैं क्या कर सकता हूँ? फ़ैक्टरी के नियम ही ऐसे हैं...नौकरी भी तो करनी है।
उन्होंने गिलास उठाकर मुँह से लगा लिया। बच्चे खाना खा चुके थे। बड़े दादा उठे, बाहर जाकर हाथ धो आए। खूटी पर टँगी हुई क़मीज़ की जेब में से बीड़ी निकालकर सुलगा ली, दीवार से पीठ सटाकर बैठ गए। छोटे दादा भी खाना ख़त्म कर चुके थे, मगर वहीं बैठे रहे।
बीड़ी के चार-छः कश लगाकर बड़े दादा बोले—तुम्हें पता है, दो साल बाद तुम घर आए हो?
—माँ की तबीअत ठीक ही तो है...आपने तार किसलिए दिया था?
मेरी कटोरी में दाल खतम हो गई थी। मैंने थोड़ी दाल और लेकर उसमें नमक मिला लिया।
—क्या माँ के मरने के बाद ही आने का इरादा था?
—बड़े दादा, आप भी क्या बात करते हैं...मैं जानबूझकर थोड़े यहाँ नहीं आता हूँ? मैंने गिलास के बचे पानी में ही उँगलियाँ डुबा दीं।
—तो तुम ही बताओ, ये भी तो नौकरी करते हैं...मगर साल में एक बार हाल तो पूछ जाते हैं...तुम्हारे तो बीवी-बच्चे भी नहीं हैं...
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। छोटे दादा को शायद लगा कि मैं इन सवालों से दुखी हो गया हूँ। वह जैसे स्थिति को संभलाते हुए बोले—मेरी तो सरकारी नौकरी है न दादा...चाहे जब छुट्टी ले सकता हूँ, किसी न किसी बहाने...प्राइवेट में दिक़्क़त होती है...।
बड़े दादा ने बीड़ी का टोंटा ज़मीन पर रगड़ दिया। मेरी तरफ़ फिसलती निगाह से देखा। बोले—तुम कभी शीशे में अपनी शक्ल भी देखते हो?
उनका सवाल सुनकर मुझे हँसी आ गई। मुझे हँसता देखकर छोटे दादा और पास में बैठे हुए बच्चे भी हँस पड़े। भाभी चूल्हे के पास ही बैठी खाना खा रही थीं। शायद दाल ख़त्म हो गई थी। हर दूसरे-तीसरे कौर के साथ वह कुर्र करके प्याज़ कुतर रही थीं। बड़े दादा ने आगे पैर पसार लिए थे। मैंने उनकी तरफ़ देखा। उनकी खोपड़ी बिलकुल गंजी हो गई थी और गाल ख़ासे पिचक गए थे। मेरे भीतर कुछ हिल-सा गया। मैंने उनसे कहा—बड़दा, आपकी सेहत काफ़ी गिर गई है।
उन्होंने उठकर जेब में से एक बीड़ी और निकाल ली। बोले—तुम अपनी पर तो ध्यान दो...देखी है, शक्ल कैसी निकल आई है, बिज्जुओं जैसी...इसीलिए तो कहता हूँ, शीशे में अपनी शक्ल देख लिया करो।
मैं बड़े दादा के बारे में सोचने लगा। मुझे ठीक से याद भी नहीं है, मेरे पिता कब मर गए थे। मुझे पाला-पोसा बड़े दादा ने ही। छोटे भाई की तरह नहीं, अपने सगे बेटे की तरह, मुझे ही नहीं, छोटे दादा को भी। हमें पढ़ाया-लिखाया। काम-धंधे के लायक़ बनाया। जब मेरे पिता चल बसे थे तब उनकी उम्र सिर्फ़ सत्रह साल की थी और साल भर पहले ही उनकी शादी हो चुकी थी। मगर जायदाद में अपना हिस्सा लेकर वह अलग नहीं हो गए थे। परिवार के सारे बोझ को कंधों पर धर लिया। माँ, चाची, दो छोटे भाई, बीवी। सभी को समेटे रखा। चाची की मौत-मिट्टी की, छोटे दादा की शादी की, इस सबके बदले में किसी से कुछ नहीं चाहा। अपने ही सिर के बाल उड़ा लिए। गाल पिचका लिए। ज़िल्लतें सहीं। मगर शू नहीं किया। इस सबके बीच इतना ज़रूर हुआ कि पिता की छोड़ी हुई जायदाद धीरे-धीरे सरकने लगी। क़र्ज़दारी बढ़ने लगी। फाँकों ने हमारी दहलीज़ में झाँकना शुरू किया। तगादों की आवाज़ें बुलंद होने लगी। बीच बाज़ार में उनके गिरेबान परम जबूत पंजे पसरने लगे। फिर भी उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आगे चलते गए, दोनों कंधों को बोझ से दबाए ही।
मैं उठकर बाहर आँगन में आ गया। मेरे पीछे छोटे दादा भी आ गए। माँ लेटे-लेटे माला फेर रही थीं। मुझे देखकर चारपाई पर एक तरफ़ हो गई। मैं उनके पास बैठ गया। छोटे दादा सामने वाली चारपाई पर बैठ गए। माँ ने माला समेट कर तकिए के नीचे रख दी। बोलीं—खाना खा लिया? खाया क्या होगा, कोई सब्ज़ी भी तो नहीं थी। मैंने माँ के कंधे पर हाथ रख दिया।
भाभी भीतर चौका साफ़ कर रही थीं। बच्चे शायद सोने की तैयारी कर रहे थे। बड़े दादा उठकर आए। सामने वाली चारपाई पर बैठ गए। भीतर की रौशनी बाहर आँगन में पड़ रही थी। बेहद मामूली-सी। शक्लों की शिनाख़्त भर करने लायक़ बड़े दादा थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे। फिर चारपाई पर लेट गए। छोटे दादा ने मुझसे पूछा—तुम्हारी फ़ैक्टरी में कितने आदमी काम करते हैं?
—सात सौ।
—सात सौ? बहुत बड़ी फ़ैक्टरी होगी।
—और क्या।
—बड़े दादा ने लेटे-लेटे पूछा—तुम्हारी तनख़्वाह बढ़ी है कि नहीं?
—बढ़ी है...अठारह रुपए?
—बस पाँच साल में अठारह रुपए?
—पार साल ही तो मैं पर्मानेंट हुआ हूँ...मालिक हरामी है...
—क्या कहता है? छोटे दादा ने पूछा।
—कहता क्या है?...वर्कर्स के साथ बेरहमी दिखाता है। धमकी दो तो यूनियन के नेताओं को ख़रीद लेता है या सिर फुड़वा देता है।
सिर फूटने वाली बात से शायद बड़े दादा चकरा गए। झट से उठ बैठे। उस झीनी रौशनी में मेरी तरफ़ ग़ौर से देखने की कोशिश की। बोले—तुम इन झंझटों में पड़ते तो नहीं हो न? अलग ही रहा करो...
—बड़दा, आप भी कैसी बात करते हैं। हर आदमी इसी तरह अलग रहेगा तो हक़ के लिए लड़ेगा कौन?
छोटे दादा शहर में नौकरी करते है। वह मेरी बात समझ गए। मेरा समर्थन करते हुए बोले—यूनियन के कामों से ऐसे अलग रहकर काम नहीं चलता दादा...
बड़े दादा फिर लेट गए। बोले—सो तो ठीक है, फिर भी होशियारी से काम लेना चाहिए...छोटू वहाँ रहते भी अकेले हैं न...
माँ को शायद नींद आ रही थी, उन्होंने भी यही ताकीद दुहरा दी और आँखें मूँद लीं। भीतर भाभी भी काम से निपट कर बच्चों के पास ही सो गर्इ थीं। थोड़ी देर चारों तरफ़ चुप्पी छार्इ रही।
लेटे-लेटे ही अचानक बड़े दादा बोले छोटू मैंने वह बची हुई ज़मीन बेच दी है।
मैंने कोई जवाब नहीं दिया तार पाने के बाद मुझे जो ख़याल आया था वह ठीक ही था। छोटे दादा ने जैसे ख़ुलासा किया—बेच देना ही ठीक था...वरना बेकार में ब्याज़ चढ़ जाता...फिर तो ज़मीन बेचकर भी क़र्ज़ा चुकाना मुश्किल हो जाता...
—तुम लोगों से पूछे बिना ही यह फ़ैसला ले लिया। बड़े दादा के स्वर में रंज था।
—हमसे पूछते तो हम भी यही सलाह देते...
—करता क्या, क़र्ज़दार मेरी जान खाए जा रहा था।
—ख़ैर छोड़िए, फिकर करने की कोई बात नहीं।
माँ ने करवट बदली। उनकी नींद उचट गई थीं। या लेटे-लेटे वह चुपचाप हमारी बातें सुन रही थीं। बोलीं—तुम्हारे पिताजी की वह आख़िरी निशानी थी...वह भी चली गई।
बड़े दादा उठ कर चुपचाप बैठ गए। मैंने माँ को ढाढ़स दिया—निशानी-विशानी कुछ नहीं होती माँ। पिताजी ने हमारी ही ज़रूरतों के लिए ही तो ज़मीन रखी थी।
बड़े दादा उठकर भीतर गए। घड़े में से पानी लेकर पिया। बीड़ी सुलगाई। वापस आकर चारपाई पर बैठ गए। बीड़ी के दो-चार तेज़ कश खींचे और अपने आप बड़बड़ाने लगे—हमारी ज़मीनें इतनी जल्दी नहीं बिकतीं...लेकिन आधी तो सूद पर ही चली गई...गाँव में और कोई भी तो नहीं है। क़र्ज़ा देने वाला यही साला अकेला इब्बू है...इसका ब्याज़ तो आग जैसा है...जलाकर राख कर देने वाला...साल भर गुज़रा कि नहीं, क़र्ज़े की रक़म दुगुनी हो जाती है...ज़रूरतमंद करे भी क्या...इसी तरह क़र्ज़ लेता रहेगा, इसी तरह अपने आप को बेचता रहेगा...यह हरामी इब्बू गाँव में किसी को ज़िंदा नहीं छोड़ेगा...सब को खा जाएगा...
छोटे दादा को शायद नींद आ रही थी, बोले—दादा, जाकर सो जाइए। कल सुबह तड़के उठना भी तो है। पहली बस से जाना ही ठीक रहेगा...
—हाँ छोटू, कल चलना है रजिस्ट्रार आफ़िस को...मैंने चार-पाँच दिन पहले ही काग़ज़ात तैयार करवा लिए हैं...बस तुम्हारा इंतिज़ार था...तुम्हारा तार मिलने के बाद वकील के कारिंदे से भी कह दिया, कल सुबह चलने के लिए...गाँव वालों का भी क्या भरोसा...ख़रीदार के कोई कान भर देगा तो वह मुकर न जाण...फिर और किसी को ख़रीदने भी नहीं देगा इसलिए रजिस्ट्री कल ही हो जानी चाहिए...क्या ख़याल है? सुबह की बस से चलोगे तो शाम तक लौट आएँगे...वरना रात हो जाएगी...माँ को भी तो साथ चलना है न...रात हो जाएगी तो इनको तकलीफ़ होगी...उन्होंने बीड़ी का टोंटा फेंक दिया, उठे, सोने भीतर चले गए। माँ ने पैरों के पास पड़ा हुआ कंबल खींच कर ओढ़ लिया। छोटे दादा दूसरी चारपाई पर पसर गए। मैं माँ की बग़ल में ही सिकुड़ गया।
मच्छरों की वजह से रात को ठीक से नींद नहीं लगी। सबेरे ढंग से आँख लगी कि भाभी ने जगा दिया। बड़े दादा शायद वकील के कारिंदे के पास गए हुए थे। माँ कंबल ओढ़े मेरे पास वाली चारपाई पर बैठी होंठों में कुछ बुदबुदा रही थीं। छोटे दादा शायद दातून कर रहे थे। मुझे जगाकर भाभी बोलीं—लाला उठो, जाना नहीं है?
मैंने आँखें मलीं। देखा, पास के नीम के पेड़ पर आठ-दस चिड़ियाँ चहक रही हैं। नीम की पतली-सी टहनियाँ हल्की-सी हवा के झोंकों की वजह से हौले-हौले झूल रही हैं। मैंने आवाज़ दी—भाभी, क्या चाय बन सकेगी? भाभी ने कोई जवाब नहीं दिया। शायद मेरी आवाज़ सुनी नहीं हो। मैं उठकर भीतर गया। बच्चे टेढ़े-मेढ़े सो रहे थे। भाभी आटा गूंध रही थीं। मैंने दुबारा पूछा—चाय नहीं बनाओगी?
इतने में छोटे दादा अंदर आ गए। शायद उनको भी चाय की तलब लगी थी। भाभी बोलीं—पत्ती है और गुड़ भी... दूध आने में देरी होगी।
मैंने छोटे दादा से पूछा—बिना दूध की चाय पी लेंगे आप? वैसे होती शानदार है। भाभी से मैंने चूल्हा जलाने को कहा और ख़ुद चाय बनाने बैठ गया।
बड़े दादा आ गए। भाभी को आटा गूंधते देख कर बरस पड़े—अभी तक तुमने कुछ बनाया नहीं है? हम क्या दस बजे तक यहीं बैठे रहेंगे? मैंने उन्हें भी थोड़ी-सी चाय दी। भाभी पराठे सेंकने लगीं। बड़े दादा से बोलीं—ले जाने के लिए भी चार-छह पराठे सेक हूँ? अचार के साथ खा लेना...माँजी बाहर का खाना खाएँगी भी नहीं।
मैं हाथ मुँह धोकर तैयार हो गया। हम लोगों ने नाश्ता किया। माँ ने सिर्फ़ आधा पराठा खाया। उनका चेहरा उतरा हुआ था। मैंने सोचा, शायद उन्हें अपने पति की याद आ रही होगी। उनकी छोड़ी हुई ज़मीन का आख़िरी टुकड़ा भी तो बिका जा रहा है। माँ ने पानी पिया और माला लेकर बैठ गयीं।
भाभी ने पराठे एक पुराने अख़बार में लपेट कर झोले में रख दिए। एक ख़ाली लोटा भी साथ में रख दिया, पानी-वानी पीने के लिए। माँ ने कहकर उससे अपनी शाल भी रखवा ली। झोला हाथ में लेते हुए बड़े दादा ने भाभी से पूछा—हम पाँच जनों के लायक़ खाना रख दिया है न?
—पाँच कौन, हम चार ही तो हैं? मैंने पूछा।
—वह वकील का कारिंदा भी साथ चल रहा है न...उसी ने तो काग़ज़ात तैयार किए हैं...ज़मीन के रुपए भी तो वही साथ लाएगा।
माँ की तरफ़ देख कर बड़े दादा ने कहा— माँ चलें?
मैंने माँ की तरफ़ नहीं देखा। छोटे दादा और मैं बाहर आ गए। माँ बड़े दादा के साथ चलने लगीं। बाहर आकर बोलीं—बेकार में जायदाद में मेरा हिस्सा भी लिखा गए हैं...वरना मेरे ये बार-बार के चक्कर नहीं होते...गाँव में फ़जीहत अलग से...मैंने ही कौन-सी जायदाद बचा ली है?
किसी ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप चलने लगे। तीन साल पहले, सर्दियों में माँ के दाहिने हाथ और पैर पर लकवे का जो हमला हुआ था, उसका असर अब तक था। वह दाहिने हाथ से पानी का भरा लोटा भी ढंग से उठा नहीं पाती थीं। और चलते हुए दाहिने पैर को घसीट कर चलती थीं। इनके इलाज के लिए दादा ने जो पैसा उधार लिया था, उसका भी एक हिस्सा था ज़मीन की बिक्री में। पता नहीं छोटे दादा क्या सोच रहे थे लेकिन उनके साथ चलते हुए मेरे दिमाग़ में यही सारी बातें कुलबुला रही थीं।
हम लोग बस के समय से पहले ही अड्डे पर पहुँच गए। लेकिन वह वकील का कारिंदा अब तक नहीं पहुँचा था। बड़े दादा व्यग्र होकर उसकी राह देखने लगे। छोटे दादा को भी बेचैनी होने लगी। माँ भी माला फेरने के दौरान बीच-बीच में उसके न आने की वजह पूछने लगी। मैं थोड़े से घेरे में चहलकदमी करने लगा। हम लोग उसकी राह देख ही रहे थे कि बस आई और निकल गई। बड़े दादा की बेचैनी बढ़ गई। वह बार-बार बीड़ी सुलगाने और बड़बड़ाने लगे-पता नहीं क्या बात हो गई। सुबह भी मैं उससे मिला था, उसने ऐसी कोई बात नहीं कही थी...तो अब आया क्यों नहीं? साले इब्बू ने तो कोई अडंगा नहीं अड़ा दिया होगा।
छोटे दादा दो-चार बार जिज्ञासा दिखा कर गुमसुम हो गए। मैं माँ के पास बैठ गया। बड़े दादा पास में पड़ी हुई बड़ी-सी चट्टान पर उकडूं बैठकर बेचैनी से थूकने लगे। छोटे दादा ने उसे दूर से आते हुए देख लिया। उत्साह में उछल कर बोले—दादा, वह आ रहा है। यह बात सुनते ही उन्होंने उँगलियों में फंसी हुई बीड़ी परे फैंक दी, तेज़ी से उठ कर खड़े हो गए। वह अपनी बड़ी-सी बेढब तोंद को झुलाता हुआ हाथी के बच्चे की तरह चला आ रहा था।
उसके पास आते ही दादा लपक पड़े—क्या बात हो गई थी चाचा? बड़ी आँखे दुखाई तुमने। तेज़ चलने की वजह से वह शायद थक गया था। उसी चट्टान पर बैठ कर हाँफने लगा। बीच-बीच में दाँत ऐसे चलाने लगा जैसे जुगाली कर रहा हो। मैंने देखा उसकी क़मीज़ की जेब बेहूदगी की हद तक बड़ी है और उसमें तरह-तरह के काग़ज़ ठुँसे हुए हैं। उसने जेब में तीन-चार रंग-बिरंगे पेन लगा रखे हैं। हाथ में एक झोला है जो शायद काग़ज़ों से ही भरा हुआ है। उसने साँस धीमी की और बोला—क्या करता, इब्बू ने रुपए देने में देरी कर दी। सुबह सात बजे ही मैं उसके घर पहुँच गया था। लेकिन पैसे वालों के नखरे तुम जानते ही हो। इसी में देरी हो गई। चलो कोई बात नहीं, अगली बस से चलेंगे। बड़े दादा ने एक बीड़ी और सुलगा ली।
रजिस्ट्रार के दफ़्तर पर जब हम पहुँचे तो दोपहर के खाने का समय हो गया था। साहब खाना खाने घर चले गए थे। दोनों क्लर्क दफ़्तर में ही बैठे खाना खा रहे थे और सामने बैठी हुई टाइपिस्ट लड़की को देखे जा रहे थे। चपरासी स्टूल पर बैठा बीड़ी पी रहा था। हम लोग वहाँ पहुँचे तो वह उठ कर खड़ा हो गया और हमारे साथ वाले आदमी को बड़े जोश से नमस्ते की। उसने हमारी तरफ़ भी मुस्कुराती निगाहों से देखा। शायद उसे हमारी शिनाख़्त हो गई थी। पिछले दस सालों में यह पाँचवी या छठी बार हम लोग वहाँ गए थे। इसी तरह तीन भाई और माँ। हाँ, पहले एकाध बार हमारी चाची भी साथ थीं जो हमारी ही तरह बिकी हुई ज़मीनों की हक़दार थीं। लेकिन वह बार-बार यह ज़हमत उठाने से बच गईं और चल बसी थीं। इन्हीं सारी बातों के साथ ही यह सवाल भी मेरे दिमाग़ में चक्कर काटने लगा कि सरकार को यह क्या सूझी कि इतने मामूली से क़स्बे में रजिस्ट्रार आफ़िस खोल रखा है। क्या और कोई जगह नहीं मिली होगी? सब कुछ हास्यास्पद था। मैं सोचता रह गया।
बस से उतर कर यहाँ तक पैदल चलने की वजह से माँ थक गई थीं। उन्हें प्यास लग आई थी और शायद भूख भी। मैंने माँ से पूछा—माँ, खाना खाओगी?
यह बात सुन कर हमारे साथ के कारिंदे ने अपनी फैली हुई जेब में से काग़ज़ों का पुलिंदा निकाला और उसके बीच में तह करके रखे हुए नोटों में से एक दस रुपए का पत्ता बड़े दादा की तरफ़ बढ़ाते हुए बोला—तुम लोग जा कर पास के ढाबे में खाना खा लो...अब हमारा काम तो ढाई बजे ही होगा...मैं साहब के घर जा कर कह दूँगा कि हमारा काम ज़रा जल्दी कर दें...आफ़िस में कहना ठीक नहीं रहेगा...उसने मेरी तरफ़ देख कर मुस्करा दिया जैसे यह कहना चाहता हो कि हथेली की गर्मी को तुम्हारे शहरों के दफ़्तर वाले ही नहीं, हमारे गाँवों और क़स्बों के दफ़्तर वाले भी जानते-पहचानते हैं।
बड़े दादा ने नोट नहीं लिया। बोले—हम खाना ले आए हैं। छोटे दादा को शायद उसका नोट देना अच्छा नहीं लगा। वह आवाज़ में कुछ तुर्शी भरते हुए बोले, हमारी तरफ़ से तुम ही रख लो चाचा...तुम्हें भी तो खाना खाना है...शायद उसकी समझ में बात नहीं आई। वह हीं-हीं करके हँसने लगा। जब वह साहब से मिलने के लिए उसी तरह झूलता चला गया, छोटे दादा हिकारत से बोले—हरामज़ादा, खाना खाने के लिए हमें पैसे देने लगा है...लोगों के काग़ज़-पत्तर लिख कर चार पैसे क्या कमा लिए हैं, साले का दिमाग़ फिर गया है...वो दिन भूल गया जब इसकी माँ हमारे घर पर अनाज बीना करती थी, दो जून रोटी के लिए...स्साला...मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक वह इस तरह ग़ुस्सा क्यों हो रहे हैं, अपनी फ़ितरत के ख़िलाफ़। मैं सोचने लगा, पिता की सारी ज़मीन के बिक जाने का उन्हें जो दर्द हो रहा है, उसे वह झेल नहीं पा रहे हैं। प्यास की वजह से माँ का गला सूख गया था। वह धीरे से खाँसने लगीं। बड़े दादा बोले—चलो, सामने के बग़ीचे में चल कर खाना खा लेते हैं...इब्बू साले की वजह से इतनी देरी हो गई...वरना अब तक काम पूरा हो गया होता, दो बजे वाली बस से लौट भी जाते। माँ को चलने में तकलीफ़ हो रही थी। वह आज अपनी शक्ति से बढ़कर चल चुकी थीं। छोटे दादा ने उनकी बाँह पकड़ ली और धीरे-धीरे चलने लगे। हम लोग सड़क पार करके बग़ीचे के पास आ गए। बड़े दादा वहीं खड़े माली को ऊंची आवाज़ में पुकारने लगे। आठ-दस आवाज़ों के बाद माली ने जवाब दिया।
—क्या हम कुँए पर बैठ कर खाना खा लें?
—आ जाइए, इसमें पूछने की क्या बात है?
माली को आज़ाद हिंदुस्तान की हवा अभी नहीं लगी है। मैं धीरे-धीरे चलते हुए सोचने लगा।
—तुम्हारे यहाँ का कुत्ता बड़ा ख़तरनाक है। भई...बड़े दादा को कुत्तों से नफ़रत थी और डर भी।
—डरिए नहीं, वह कुछ नहीं करेगा...मैं जो आप से बात कर रहा हूँ।
माली ने ही कुएँ से एक बाल्टी पानी निकाल कर दिया। हम लोगों ने हाथ मुँह धोए। माँ ने खाने से पहले ही लोटा भर पानी पी लिया। हमने खाना खाया। अब भी माँ ने आधे पराठे से ज़्यादा नहीं खाया। वह ख़ाली पानी पीती रहीं। बड़े दादा ने कुल्ला किया। सरक कर पेड़ के तने से सट कर बैठ गए। बीड़ी सुलगा ली? मैंने झोले में से शाल निकाल कर ज़मीन पर बिछा दी। माँ को थोड़ी देर आराम करने के लिए कहा। बड़े दादा बीड़ी पीते हुए पेड़ के पत्तों की तरफ़ देख रहे थे। बोले—छोटू, अब तुम्हें अपनी आदतें सुधारनी होंगी...देख रहे हो न, बित्ता भर ज़मीन भी अब हमारी नहीं रही है। मैंने उनके चेहरे की तरफ़ देखा। लगा जैसे हवाइयाँ उड़ रही हैं। मैंने गर्दन झुका ली। उन्हें किसी तरह का जवाब देने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। उन्होंने बीड़ी फेंक दी। कुछ रूखें स्वर में बोले—समझ रहे हो, मैं क्या कह रहा हूँ?
—जी...
—जी-जी से काम नहीं चलेगा, हमें अपने पिताजी की ज़मीन वापस ख़रीदनी है...यह तुम दोनों से ही हो सकता है।
—आप अपने यहाँ के इब्बू हरामज़ादे का कलेजा फाड़ दीजिए...मैं अपनी फ़ैक्टरी के मालिक की बोटियाँ नोच लूँगा... और ये...ये अपनी सरकार की गर्दन काट देंगे...तभी हम अपने पिताजी की ज़मीन वापस कमा सकते हैं...ख़तम कर सकेंगे इब्बू को आप?
मैं उठकर खड़ा हो गया। मेरा जिस्म हलका-सा झूल रहा था। शायद ग़ुस्से के अतिरेक की वजह से। मैं जा कर थोड़ी देर कुएँ पर खड़ा रहा, फिर लौट आया। बड़े दादा उसी तरह चुपचाप बैठे हुए थे। माँ शायद मेरी कड़कती आवाज़ सुन कर घबरा गई थीं। वह उठकर बैठ गईं। काफ़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। बड़े दादा के लटकाए हुए चहेरे को देख कर छोटे दादा को रहम हो आया था। वह धीमी आवाज़ में बोले—दादा, छोटू ठीक ही कह रहे हैं...इन हालातों में कोई भी अपनी खोई हुई ज़मीन दुबारा ख़रीद नहीं सकता...आप ही सोच कर देखिए, हम लोग भला ज़मीन कैसे ख़रीद सकते हैं?
बड़े दादा कुछ नहीं बोले। जैसे गहरी सोच में डूब गए हों, छोटे दादा ने माँ को बाँह पकड़ कर उठाया। बड़े दादा की तरफ़ तरस खाती नज़रों से देखा। बोले—चलिए, काफ़ी देर हो गई है...दफ़्तर में काम शुरू हो गया होगा।
हम लोग दफ़्तर में दाख़िल हुए। पता चला, साहब अभी नहीं आए हैं। खाना खा कर घर पर आराम कर रहे हैं। उनका कमरा अब भी बंद था। सामने के कमरे में दोनों बाबू बैठे हुए थे। एक के आगे बड़ा-सा रजिस्टर फैला हुआ था जिस पर वह कुछ लिख रहा था, दवात में कलम डुबो-डुबो कर। दूसरा बाबू पान चबाते हुए कोई काग़ज़ बहुत ध्यान से पढ़ रहा था। बाईं तरफ़ की खिड़की के पास बैठी टाइपिस्ट बहुत मामूली-सी रफ़्तार के साथ कुछ टाइप कर रही थी। टाइप में शायद उसका मन नहीं लग रहा था। वह बीच-बीच में खिड़की के बाहर झाँक रही थी। उस खिड़की के साथ ही बरामदे में बने हुए लंबे-से चबूतरे पर हमारे साथ वाला कारिंदा लेटा सुबह की तरह जुगाली कर रहा था। चपरासी उसके पैरों के पास बैठा उससे बातें कर रहा था। उस चबूतरे के रू-ब-रू, बरामदे के दूसरी तरफ़ बने हुए वैसे ही लंबे चबूतरे पर कोई पाँच-छह लोग चुपचाप बैठे हुए थे। ठेठ गाँव के लोग। शायद वे भी अपनी ज़मीन-जायदाद की बिक्री के सिलसिले में आए हुए थे।
हमें देखते ही कारिंदा उठ कर बैठ गया। चपरासी परे हठकर खड़ा हो गया। शायद उस पर मेरी और छोटे दादा की पतलूनों का रोब पड़ रहा था। कारिंदे ने पूछा-खाना खा लिया?
छोटे दादा ने माँ को एक तरफ़ बिठा दिया। माँ ने माला फेरनी शुरू कर दी। उन्होंने किसी तरफ़ कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। बड़े दादा ने कारिंदे से साहब के बारे में पूछा। उसने जुगाली बंद की। बोला—सब ठीक हो गया है। साहब अभी आने वाले हैं, पहले हमारा ही काम होगा। बड़े दादा उसकी बग़ल में बैठ गए। उनकी बग़ल में छोटे दादा। मैं खिड़की के पास खड़ा हो गया। सामने के चबूतरे, पर बैठे हुए लोग उसी तरह गुमसुम थे।
साहब जब आए तो धूप काफ़ी फीकी पड़ गई थी। साढ़े तीन के क़रीब का समय था। उन्हें दूर से आते देख कर चपरासी ने भाग कर उनके कमरे के किवाड़ खोल दिए। दोनों चबूतरों के लोग उठ कर खड़े हो गए। सिर्फ़ माँ बैठ रहीं, उसी तरह माला फेरती हुई। हमारे साथ वाले कारिंदे ने एक बार फिर कस कर साहब को सलाम किया। उन्होंने उस पर नज़र डाली तो उन्होंने होंठों पर खिली हुई मुस्कुराहट को चुस्ती के साथ भीतर लपेट लिया, अपने कमरे में चले गए। घंटी बजाई। भाग कर चपरासी उनके कमरे में गया। पल भर के बाद लौट आया। धीमी आवाज़ में हमारे साथ वाले कारिंदे से कुछ कहा। लौट कर बाबुओं वाले कमरे में चला गया।
कारिंदे ने अपने झोले में से काग़ज़ निकाले। जल्दी में उन्हें एक बार उलटा-पुलटा। तेज़ क़दमों से जा कर पान चबाने वाले बाबू के आगे काग़ज़ रख दिए। समाने वाले चबूतरे पर बैठे हुए लोगों में भी अब चहल-पहल आ गई थीं। उनमें से एक आदमी अपने झोले में से कुछ काग़ज़ निकाल कर देख रहा था। मैं जिधर खड़ा था, उधर से साहब के चेहरे की झलक मिल रही थी। मैंने देखा, मुझे उनका धड़ और मोटा-सा सिर ही नज़र आ रहा था। बहुत ग़ौर करने पर भी उनकी गर्दन का कहीं नामो-निशान नहीं था।
काफ़ी देर बाद चपरासी ने आकर हम लोंगों को अंदर चलने के लिए कहा।
हम लोग बाबुओं वाले कमरे में पहुँचे, चपरासी ने एक छोटी-सी मेज़ पर बड़ा-सा खुला रजिस्टर लाकर रखा। उस पर ख़ाने बने हुए थे। पहले दो-तीन ख़ानों में कुछ लिखा हुआ था। आख़िरी ख़ानों में हम लोगों को दस्तख़त करने थे। पहले ख़ाने में माँ को, उसके नीचे वाले में बड़े दादा को, तीसरे में छोटे दादा को और चौथे में मुझे। इसी क्रम से हमारे नाम दर्ज थे। माँ दस्तख़त करना नहीं जानती थीं। बड़े दादा ने चपरासी को बताया। बग़ल की मेज पर से बड़ा-सा रोशनाई का पैड उठा लाया। माँ के दाहिने हाथ का अँगूठा अपने हाथ में ले कर उसने पैड पर रगड़ कर काला किया। माँ को अपना अँगूठा एकदम ढीला छोड़ देने की हिदायत की और सबसे ऊपर वाले ख़ाने में अँगूठे का बड़ा-सा निशान लगा दिया निशान लगाते हुए माँ का अँगूठा काँप रहा था। चपरासी ने रजिस्टर का पन्ना पलटा। उस पन्ने पर भी सबसे ऊपर वाले खाने में माँ के अँगूठे का निशान लगाया और इसी तरह तीसरे पन्ने पर भी। उसके बाद उसने बग़ल में पड़े हुआ खुरदरा काला कपड़ा उठा कर माँ को दिया, अपना अँगूठा पोंछ लेने के लिए। मैंने वह कपड़ा अपने हाथ में ले कर माँ का अँगूठा अच्छी तरह पोंछा और उन्हें बाहर चबूतरे पर ला कर बिठा दिया।
मैंने देखा, माँ का चेहरा कसा हुआ है और उनके हाथ ज़ाहिर तौर पर काँप रहे हैं। वह अपने पल्लू से आँखें पोंछने लगीं।
हम तीनों भाइयों ने तीनों पन्नों पर अपने दस्तख़त कर दिए। हमें भी दस्तख़तों के नीचे अपने अँगूठों के निशान भी लगाने थे। सरकार की एहतियाती सूझ पर मुझे ख़ुशी हो आई। कहीं तो वह सजग है। यह सब कर-करा कर हम लोग भी बाहर चबूतरे के पास आ गए। बड़े दादा का चेहरा भी ख़ासा कसा हुआ था। उनके गालों के गड्ढे कुछ और धंसे हुए लग रहे थे। वह चुपचाप बैठे रहे। छोटे दादा माँ के पास जाकर बैठ गए। हमारे साथ वाला कारिंदा बाबुओं के कमरे में ही खड़े कुछ बातें कर रहा था। हमारे सामने वाले चबूतरे पर बैठे हुए लोगों को भी यही सब करना था। उनमें से दो आदमी उठ कर चपरासी के कहने पर अंदर गए।
कोई पंद्रह-बीस मिनट बाद हमें साहब के कमरे में जाने के लिए कहा गया। हम लोग जाकर सहाब की बड़ी-सी मेज़ के इर्द-गिर्द खड़े हो गए। माँ के और बड़े दादा के चेहरों पर अब तक भी सहजता नहीं आ पाई थी। साहब के आगे वही रजिस्टर फैला हुआ था जिस पर हम लोगों ने दस्तख़त करके अँगूठे के निशान लगाए थे। साहब थोड़ी देर कुछ पढ़ते रहे, फिर गंभीर आवाज़ में बोले—सुभ्रदा देवी आप ही हैं?
—जी। माँ की आवाज़ लड़खड़ाई।
—रामगोपाल?
—जी, मैं। बड़े दादा बोले।
—हरिशरण?
—जी, मैं। छोटे दादा ने कहा।
—राधेश्याम?
—मैं हूँ। मेरे अंदर का शहर कुलबुलाने लग गया था।
—क्या आप लोगों ने ज़मीन अपनी मर्ज़ी से बेची है?
—जी। बड़े दादा ने उत्तर दिया।
—कितने में?
—चार हज़ार नौ सौ पचास में।
—आप लोगों को रुपए मिल गए?
—जी, मिल गए।
—अब आप लोग जा सकते हैं। साहब कुर्सी की पीठ पर पसर गए।
हम लोग बाहर आ गए। हमारे साथ वाला कारिंदा चबूतरे पर बैठा काग़ज़ के टुकड़े पर कुछ लिख रहा था। बड़े दादा उसकी बग़ल में बैठ गए। मैंने छोटे दादा से पूछा—अब हम लोग जा सकते हैं न? उन्होंने मेरी तरफ़ ध्यान से देखा। अँग्रेज़ी में बोले कि वह भी सब कुछ से काफ़ी ऊब गए हैं...मैंने जैसे ख़ुद को सांत्वना देते हुए कहा—चलिए, यह आख़िरी ऊब है...वह हँस पड़े। ख़ासी फीकी-सी हँसी। गोया मुझ पर तरस खा रहे हो कि बच्चू, इस ऊब को तो आख़िरी कह रहे हो, बाक़ी रोज़मर्रे की ऊबों का क्या करोगे? मैं खिड़की में से टाइपिस्ट लड़की को देखने लगा।
यह कारिंदा काग़ज़ का टुकड़ा बड़े दादा के आगे करके उन्हें समझाने लगा—इब्बू से लिया हुआ पैसा, एक हज़ार छह सौ। दो साल का ब्याज़, आठ रूपए सैकड़ा। हर महीने की दर से तीन हज़ार बहत्तर। मेरी फ़ीस, पचास रुपए। साहब को दिए हुए साठ रुपए, दफ़्तर वालों को, आठ रुपए। कुल चार हजार आठ सौ दस रुपए। बक़ाया एक सौ चालीस तुम्हें मिलने हैं। उसने अपनी फैली हुई जेब में से टटोल कर नोटों की गड्डी निकाली और दस-दस के चौदह नोट गिन कर बड़े दादा के हाथ में पकड़ा दिए। मैंने देखा, रुपए लेते हुए बड़े दादा के चेहरे पर काली-सी झांई थरथरा उठी है। इस बीच वह कारिंदा फिर जुगाली करने लग गया था। बड़े दादा ने रुपए जेब में रख लिए। कारिंदे ने कहा—तुम लोग जाओ...छह बजे आख़िरी बस है, उससे चले जाना। मुझे थोड़ा काम है। मैं कल शाम तक घर पहुँचूँगा।
हम लोग धीरे-धीरे चलकर बस अड्डे पर आ गए। रास्ते भर कोई किसी से कुछ नहीं बोला। माँ ने सिर्फ़ इतना कहा—मेरी आँखों के सामने ही तुम्हारे पिताजी भी चले गए...उनकी ज़मीन भी चली गई। उनका गला भर आया था। इस पर भी किसी ने कुछ नहीं कहा।
बस स्टैंड पर बैठे-बैठे सात बज गए। छह बजे वाली बस नहीं आई थी। माँ ने इस बीच दो बार पानी पिया। माला फेरती हुई बैठी रहीं। बारी-बारी से मैं और छोटे दादा इधर-उधर जाकर बस के बारे में दर्याफ़्त कर आए। और लोग भी हमारी तरह थे। किसी ने बताया, बस कहीं रास्ते में ख़राब हो गई होगी। न भी आए तो कोई बड़ी बात नहीं।
बड़े दादा की परेशानी बढ़ गई। माँ को आराम की ज़रूरत थी। बस नहीं आएगी तो रात को साढ़े ग्यारह बजे मेल मिलेगा। मौसम ख़राब है। रात में हल्की-सी ठंड पड़ने लगती है। माँ को परेशानी होगी। क्या किया जाए? वह बड़बड़ाने लगे।
साढ़े आठ बज गए थे। क़स्बे का मामूली-सा अस्तित्व जैसे रात भर के लिए अंधरे में खोता जा रहा था। अड्डे नी इक्के-दुक्के लोग ही रह गए थे। मैंने सुझाया, स्टेशन चलेंगे। माँ निढाल हो रही थीं। स्टेशन क़स्बे के बाहर था। लगभग सुनसान इलाक़े में। हम लोगों ने ताँगा कर लिया। ताँगे में बैठने से पहले बड़े दादा ने अपने लिए बीड़ी का बंडल और माचिस ली। एक दर्जन केले ख़रीद कर झोले में रख लिए। स्टेशन पर कुछ भी तो नहीं मिलता है...माँ ने दोपहर को कुछ नहीं खाया है...वह बोले।
स्टेशन बहुत छोटा-सा था और उजाड़ था। टिकट घर और स्टेशन मास्टर के कमरों में मद्धिम-सी रौशनी थी और कहीं रौशनी का नाम नहीं था। प्लेटफ़ार्म उन दोनों कमरों जितना ही फैला हुआ था जिस पर टीन की छत थी। प्लेटफ़ार्म के इधर-उधर काफ़ी जगह थी, मगर खुली हुई। वहाँ भी रौशनी नहीं थी। प्लेटफ़ार्म पर अनाज के या किसी चीज़ के भरे बोरे पड़े हुए थे, बेतरतीब। छत के नीचे की सारी जगह उन्हीं से घिरी हुई थी। शायद एक कोने में किसी और चीज़ के बोरे पड़े हुए थे जिनसे एक तरह की तीख़ी बदबू आ रही थी। मैंने सोचा, शायद कच्चे चमड़े के बोरे होंगे। उस बदबू में वहाँ बैठना संभव नहीं था, ख़ासकर माँ के लिए इसलिए, एक तरफ़ खुले में बैठने के सिवा कोई चारा नहीं था। माँ की बाँह पकड़ कर उन्हें रास्ता दिखाते हुए छोटे दादा चलने लगे। बड़े दादा ने दस रुपए का नोट निकाल कर मुझे दिया, टिकट ख़रीदने के लिए। टिकटघर में बाबू सो रहा था। मैंने स्टेशन मास्टर से जाकर पूछा। उसने बताया, ग्यारह बजे टिकट मिलेगी। मैंने पूछा—यहाँ कोई वेटिंग-रूम नहीं है? उसने गर्दन उठाकर मेरी तरफ़ देखा। मेरी पतलून पर नज़र डाली। गर्दन झुका ली। मुझे उसका रुख़ अच्छा नहीं लगा। मैंने अँग्रेज़ी में कहा—यात्रियों को असुविधा होती है। उसने दुबारा मेरी तरफ़ देखा। अँग्रेज़ी में ही बोला—चुनाव लड़कर मंत्री बन जाइए, फिर इस पर सोचिए उसने ठहाका लगा दिया।
माँ शाल ओढ़ कर दुबकी बैठी थीं। मैंने कहा—अभी गाड़ी आने में काफ़ी देर है, माँ के सोने का इंतिज़ाम होना चाहिए।
बड़े दादा बोले—सो कैसे सकती हैं, बिछाने के लिए कुछ भी तो नहीं है।
माँ बोलीं—मैं ठीक हूँ, तुम लोग फिकर मत करो। हम लोग भी माँ के साथ ज़मीन पर बैठ गए।
हम लोगों से थोड़ा-सा हटकर कुछ लोगों की आवाज़ें आ रही थीं हँसने की, बातें करने की। मैंने ध्यान से देखा। अंधेरे में किसी का चेहरा नज़र नहीं आ रहा था। मैं उठ कर उन लोगों के पास गया। कोई छह-सात लोग एक-दसूरे की बग़ल में लेटे बातें कर रहे थे। मेरी आहट पाकर वे चुप हो गए। मैंने झुक कर उनकी तरफ़ देखने की कोशिश की। फिर भी किसी का चेहरा साफ़ नज़र नहीं आ रहा थ। मैंने पूछा—क्या आप लोग भी गाड़ी के लिए बैठे हैं?
एक ने कहा—नहीं, हम तो यहीं के हैं। रेलवे लाइन का काम चल रहा है न, दिन में काम करते हैं, रात को यहीं सोए रहते हैं।
मैं उन लोगों के पास उकडूँ बैठ गया। पूछा—मेल कितने बजे आएगा?
—बारह बजे तक आ जाएगा।
—बारह तक?
—आपको कहाँ जाना है? उनमें से तीन-चार लोग उठ कर बैठ गए थे।
—यही, चार-पाँच स्टेशन छोड़ कर, उधर।
वे लोग चुप हो गए। मैं बोला—मेरे साथ माँ और दो भाई भी हैं...बस से जाना था...बस नहीं मिली...माँ की तबीअत ठीक नहीं है... हमारे पास कपड़े भी नहीं है...
मेरी बात सुन कर एक आदमी झट से उठ बैठा। अपने सिरहाने तह करके रखी हुई सुजनी मेरी तरफ़ बढ़ाई। बोला—यह लीजिए, किसी न किसी तरह थोड़ा समय ही तो काटना है। मैं धन्यवाद देकर वहाँ से उठा। सुजनी दुहरी तह करके ज़मीन पर बिछाई थी। बड़े दादा ने केले निकाल कर माँ को दिए। उन्हें शायद भूख लग रही थी। केले खा लिए। शाल ओढ़ कर सुजनी पर लेट गईं।
हम तीनों ने भी केले खाए। वे मज़दूर लोग उसी तरह बातें कर रहे थे। बीच-बीच में ठहाके लगा रहे थे। कहीं दूर पर कुत्तों के भूँकने की आवाज़ें आ रही थीं। आसमान पर इधर-उधर तारे टिमटिमा रहे थे। मौसम में कुछ खुनकी बढ़ गईं थी।
बड़े दादा ने बीड़ी सुलगा ली। उन लोगों में से किसी ने बीड़ी सुलगा ली। मैंने आवाज़ कुछ ऊँची करके उन लोगों से पूछा—आप लोगों में से किसी को बीड़ी-वीड़ी तो नहीं चाहिए? मुझे लगा, बहुत बेहूदे ढंग से कृतज्ञता दिखा रहा हूँ। उनको बीड़ी चाहिए नहीं थी।
बड़े दादा ने मुझसे पूछा—छोटू, कितने दिन की छुट्टी ले आए हो?
—कल रात की गाड़ी से चले जाना है...
—और तुम? उन्होंने छोटे दादा से पूछा।
—मैं भी कल-परसों में चला जाऊँगा।
—तुम लोगों को किराए के पैसे चाहिए न? वह बोले।
—नहीं, मेरे पास हैं। मैं बोला। छोटे दादा ने कहा—उनको भी नहीं चाहिए।
—इन एक सौ चालीस में से तुम लोग भी ले सकते हो।
मैंने उस अंधेरे में ही उनका चेहरा देखने की कोशिश की। मुझे कुछ नज़र नहीं आया। उनकी आवाज़ के कंपन के सिवा।
मैं बोला रुक-रुक कर—बड़दा, आप फिकर मत कीजिए...अच्छे दिन आएँगे...।
वह कुछ नहीं बोले। बीड़ी का टोंटा फेंक दिया।
कहीं किसी मुर्ग़े को ग़लतफ़हमी हो गई थी। वह बाँग देने लगा। सबेरा होने से पहले ही सवेरे की उतावली में।
पास के लोगों में से किसी ने पूछा—बाबूजी, कै बजे हैं?
उन लोगों को नींद नहीं आ रही थी। किसी बात पर खिलखिलाकर हँस पड़े। थोड़ी देर बाद चुप्पी छा गई। आस-पास की झाड़ियों में झींगुर बोल रहे थे। उन लोगों में से किसी ने कहा—अबे अब शुरू तो कर...साला हर रात सताता है... इसके साथ ही तीन-चार लोगों की आवाज़ें एक साथ आईं—हाँ यार, अब शुरू कर। उनमें से किसी ने हमारी तरफ़ आवाज़ फेंकी—बाबूजी, आप लोग तो पढ़े-लिखे हैं...कोई कहानी-वहानी सुनाइए...गाड़ी के आने तक वक़्त कट जाएगा...
मैंने जवाब दिया—हममें कोई कहानी-वहानी नहीं जातना।
—ऐ दुर्गा, तू सुना...सुनोगे बाबूजी? उनमें से एक बोला।
—ज़रूर।
थोड़ी देर ख़ामोशी बनी रही। आसमान साफ़ हो गया था। तारों की संख़या बढ़ गर्इ थी। शायद दुर्गा बोल उठा—तो सुनिए बाबूजी...यह कहानी मैंने बचपन में अपने दादा से सुनी थी...उनको उनके नाना ने सुनाई थी।
किसी ने आवाज़ कसी—अबे नाना के बच्चे, कहानी तो सुना...
दुर्गा ने गला साफ़ किया। आवाज़ बुलंद की। कहने लगा—एक गाँव में एक आदमी रहता था...बहुत ग़रीब...
उन लोगों में से किसी ने फब्ती कसी—तेरे से भी? एक ज़बरदस्त ठहाका लगा। दुर्गा नाराज़ हो गया—साले, तू बीच में बोलेगा तो मैं कहानी ठेंगा सुनाऊँगा...
—अबे चुप रह, बीच में बोलता क्यों है?
दुर्गा ने कहानी शुरू की—हाँ, तो वह बहुत ग़रीब था। एक दिन वह काम-धाम की खोज में निकल पड़ा पैदल। बारह-तेरह बरस का रहा होगा। रास्ते में भूख लग आई। रात को भी कुछ नहीं खाया था। पर करते क्या? ऐसे ही चलते रहे। चलते-चलते दिन ढलने लगा। रास्ते में दोनों ने तीन-चार जगह पानी पिया। और इसी से संतोष कर लिया। फूटी कौड़ी तो पास में थी नहीं, जो कुछ ख़रीद कर खा लेते।
बड़े दादा को शायद कहानी अच्छी लग रही थी।
दुर्गा बोले जा रहा था—बाप-बेटा किसी गाँव के पास पहुँचे। गाँव के बाहर कोई मेला लगा हुआ था। नगाड़े-तुरही की आवाज़ें आ रही थीं। लड़के के कान खड़े हो गए। उसने अपने बाप से पूछा। आवाज़ बाप ने भी सुनी थी। बोला, कोई मेला होगा। मेले की बात सुनकर लड़का मचलने लगा। बाप का हाथ पकड़ कर बोला, बापू मेला देखते चलेंगे। उन्हें उसी तरफ़ जाना था। बाप मान गया। बाप-बेटा उधर ही चल पड़े। थोड़ी देर बाद मेले में पहुँच गए। बहुत भारी मेला लगा था। तरह-तरह की चीज़ें बिक रही थीं। तरह-तरह के खेल-तमाशे हो रहे थे। बाप ने लड़के को सारे मेले में घुमाया। बेचारा लड़का नदीदी आँखों से देखता रहा। शाम हो गई तो बाप ने लड़के का हाथ पकड़ लिया। बोला, चल, शाम हो रही है, जल्दी पहुँचना है। पर लड़के को मेले में मज़ा आ रहा था। वह अपने बाप का हाथ पकड़े हुए इधर-उधर देखता हुआ मलने लगा।
—अब वहीं एक कोने में, एक पेड़ के तने से आठ-दस ऊँट बंधे हुए थे। लड़के की निगाह ऊँटों पर पड़ी। उसने इतने सारे ऊँट इकट्ठे कभी नहीं देखे थे। उसने बाप का हाथ पकड़ लिया। बोला, बापू उन ऊँटों को देखते चलेंगे। बाप लड़के को लेकर ऊँटों की ओर चला।
दुर्गा को शायद तलब लग गई थी। उसने कहानी रोक कर बीड़ी सुलगा ली। दो-तीन सुट्टे मारे। बाक़ी टुकड़ा अपने साथी को पकड़ा दिया। फिर कहानी शुरू की—हाँ, तो वे दोनों ऊँटों के पास पहुँचे। ऊटों वाला ऊँट बेच रहा था। ऊँची आवाज़ में कह रहा था—ऊँट ले लो...ऊँट बीकानेरी ऊँट...गाड़ी खिंचवा लो..रहट चलवा लो...ज़मीन जुतवा लो... सवारी कर लो...ऊँट ले लो... दो-दो आने का...ऊँट ले लो...
दुर्गा का कोई साथी ठठा कर हँस पड़ा—साले की हर कहानी ऐसी ही होती है...अबे, दो आने में कहीं ऊँट मिलता है?
—अबे चुप...बीच में बकवास मत कर...वरना तेरी अक़्लमंदी पीछे-से निकाल देंगे। तीन-चार लोगों ने टोकने वाले को एक साथ डाँटा। वह चुप हो गया। छोटे को नींद आ रही थी। वह बैठे-बैठे इधर-उधर होने लगे। बड़े दादा ने एक बीड़ी सुलगा ली। मैंने आसमान की तरफ़ देखा।
दुर्गा ने फिर कहना शुरू किया तो क्या बता रहा था मैं? हाँ...तो ऊँट वाला चिल्ला रहा था, दो-दो आने का एक ऊँट...दो-दो आने का ऊँट...लड़के ने ऊँट का दाम सुना तो उसके मुँह में पानी भर आया। ख़ुशी के मारे उसके पैर ज़मीन पर टिक नहीं रहे थे। सोचने लगा, हमारे पास ऊँट होता तो दिन भर हम पैदल क्यों चलते? आराम से उस पर बैठ कर चले जाते। उसने बाप का हाथ पकड़ कर खींचा और कहने लगा—बापू, एक ऊँट ले लो...हमारे बहुत काम आएगा। बाप ने लड़के को समझाया, बेटे पैसे नहीं हैं। लेकिन कहाँ मानने लगा। मचल गया, बापू एक ऊँट ख़रीद दो। अब बाप को ग़ुस्सा आ गया। उसने लड़के का हाथ पकड़ कर खींचते हुए झिड़क दिया—अबे चुपचाप चल, ऊँट कहाँ से ख़रीदेगा? कल से खाना नहीं खाया।
चलते-चलते बाप-बेटा काफ़ी दूर चले गए। बाप आगे-आगे चल रहा था। लड़का पीछे-पीछे, लड़का बहुत थक गया था। बेचारे का चेहरा लटक आया था। उसकी आँखों के आगे ऊँट ही दिखाई पड़ रहे थे। एकाएक लड़के को अपने पैरों के पास कोई चीज़ दिखाई पड़ी। चमकदार चीज़। लड़के ने झुक कर उठा ली। क़मीज़ से उस पर की धूल साफ़ की। वह और ज़्यादा चमकने लगी। लड़के ने बाप को आवाज़ दी—बापू, यह देखो, कोई चीज़ मिली है। बाप ने पीछे मुड़ कर देखा। बाप ने उलट-पलट कर देखा। बोला—बेटे, यह तो हीरा है। लड़का समझा नहीं, बोला—वह क्या होता है, बापू? बापू ने बताया—हीरा क़ीमती चीज़ होता है बेटे। बाप को बहुत ख़ुशी हो रही थी। बेटे ने पूछा—यह कितने में बिकेगा बापू? बापू ने दुबारा उलट-पुलट कर देखा। सोच कर बोला—यह तो पाँच सौ का है बेटे। पाँच सौ। तो मुझे कई ऊँट दिला दो न बापू। लड़का तरसने लगा। बाप को बेटे पर दया हो आई। बोला, चल तेरे लिए एक ऊँट ख़रीद देता हूँ। बाप-बेटा भागे-भागे मेले में लौट आए। मेला उठ रहा था। लोग बाग अपने-अपने घरों की तरफ़ चल रहे थे। लड़के ने उछलते हुए एक ऊँट चुन लिया। बोला, वह वाला ख़रीद दो बापू। बाप को भी वह ऊँट पसंद आया। उसने ऊँट वाले के हाथ में हीरा रख दिया। बोला-भैय्या, वह वाला ऊँट दे दो और बाक़ी पैसे भी। ऊँट वाले ने हीरे को ठोंक-पीट कर देखा, बोला-यह क्या है?—यह हीरा है, बाप ने कहा—इसमें ऊँट कैसे ख़रीदोगे? ऊँट वाले ने पूछा। अरे, यह तो पाँच सौ रुपए का हीरा है...तुम्हारा ऊँट तो दो आने का है। दे दो वह वाला ऊँट...जल्दी से...बाक़ी पैसे भी लौटाओ।
—ऊँट वाले ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए उस ग़रीब आदमी के हाथ में हीरा वापस रख दिया। ग़ुस्से में बोला—क्या बक रहे हो...अभी दस मिनट पहले ही रामपुर के राजा ने एक हज़ार रुपए में मेरा एक ऊँट ख़रीदा है...मैं तो अब हज़ार रुपए का ही ऊँट बेचूँगा...
—यह बात सुन कर बेचारे लड़के की साँस रुक गई। उसके बाप को भी बहुत दुख हुआ। उसे ग़ुस्सा भी आया। लेकिन करता क्या? वह अपने लड़के का हाथ पकड़े चुपचाप आगे बढ़ गया, हीरे को मुट्ठी में बाँधे। भूखे बाप-बेटे पैर घिसटते हुए चलने लगे।
—बस, यही है कहानी। दुर्गा चुप हो गया।
थोड़ी देर चारों तरफ़ मुर्दानी छाई रही। कुछ देर बाद उन लोगों में से किसी ने पूछा—यार दुर्गा, कहानी तो ठीक है... पर...तू यह बता, दो-दो आने में बिकने वाले ऊँट को उस राजा ने एक हज़ार रुपए में क्यों ख़रीदा था? क्या उस राजा को...यार उस राजा को इस बात का पता लग गया था कि वह गाँव का ग़रीब लड़का भी ऊँट ख़रीद लेगा?
किसी और ने सवाल का समर्थन करते हुए पूछा—हाँ, दुर्गा, उस राजा ने ऐसा क्यों किया था?
दुर्गा ने इस बीच बीड़ी सुलगा ली थी। बड़े दादा ने भी। कश खींचता हुआ दुर्गा बोला—मैं क्या जानूँ, यार...मुझे क्या पता, राजा ने दो आने का ऊँट एक हज़ार में क्यों लिया था?
—मैं जानूँ...मैं जानता हूँ...बड़े दादा ने पूरी ताक़त के साथ बीड़ी ज़मीन पर दे मारी और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए उठ कर खड़े हो गए, जैसे बौखला गए हों। उनका जिस्म काँप रहा था।
मैंने कस कर उनकी बाँह पकड़ ली। उन्हें जैसे समझाते हुए धीरे से बोला—बड़दा, आप धीरज रखिए...ये लोग...ये सब लोग भी आप ही की तरह जान जाएँगे...बड़े दादा अब भी काँप रहे थे। पता नहीं क्यों मेरी आँखें डबडबा आई थीं। अँधेरे में ही मैंने बाएँ हाथ से आँखें पोंछ लीं।
पिछले स्टेशन से रेल के छूटने की घंटी बज उठी, अँधेरे को चीरती हुई-टन्...टन्...।
छोटे दादा माँ को जगाने लग गए थे—माँ, उठो, गाड़ी आ रही है। कहीं दूर पर मुर्ग़ा बाँग देने लग गया था।
man angan mein charpai par leti hui thi meri awaz sunkar uth baithin mainne attachi charpai ke pas hi rakh di man ke pair chhue aur unke pas baith gaya man mere pas sarak i, apne donon panje mere galon par rakh diye aur ruansi ho gai
baDe dada aur bachche bhitar khana kha rahe the awaz sunkar angan mein aa gaye chhote dada bhi aaye hue the bachche juthe hathon se aakar chipat gaye main uthkar khaDa ho gaya man bolin—hath munh dhokar khana kha lo, safar mein thak gaye honge
—maze mein hain tumko yaad karte rahte hain chhote dada ne kaur munh mein rakhte hue kaha dal mein namak kam tha mainne thoDa namak lekar dal mein ghol liya baDe dada bole—tar mil gaya tha?
—han
—mainne socha tha, tum parson hi aa jaoge
—chhutti nahin mili
unhonne kaur chabate hue meri taraf dekha kuch kuch narazgi ke sath bole—tumhari ye shikayat kabhi door bhi hogi?
—main kya kar sakta hoon? factory ke niyam hi aise hain naukari bhi to karni hai
unhonne gilas uthakar munh se laga liya bachche khana kha chuke the baDe dada uthe, bahar jakar hath dho aaye khuti par tangi hui qamiz ki jeb mein se biDi nikalkar sulga li, diwar se peeth satakar baith gaye chhote dada bhi khana khatm kar chuke the, magar wahin baithe rahe
biDi ke chaar chhः kash lagakar baDe dada bole—tumhen pata hai, do sal baad tum ghar aaye ho?
—man ki tabiat theek hi to hai aapne tar kisaliye diya tha?
meri katori mein dal khatam ho gai thi mainne thoDi dal aur lekar usmen namak mila liya
—kya man ke marne ke baad hi aane ka irada tha?
—baDe dada, aap bhi kya baat karte hain main janbujhkar thoDe yahan nahin aata hoon? mainne gilas ke bache pani mein hi ungliyan Duba deen
—to tum hi batao, ye bhi to naukari karte hain magar sal mein ek bar haal to poochh jate hain tumhare to biwi bachche bhi nahin hain
mainne koi jawab nahin diya chhote dada ko shayad laga ki main in sawalon se dukhi ho gaya hoon wo jaise sthiti ko sambhlate hue bole—meri to sarkari naukari hai na dada chahe jab chhutti le sakta hoon, kisi na kisi bahane praiwet mein diqqat hoti hai
baDe dada ne biDi ka tonta zamin par ragaD diya meri taraf phisalti nigah se dekha bole—tum kabhi shishe mein apni shakl bhi dekhte ho?
unka sawal sunkar mujhe hansi aa gai mujhe hansta dekhkar chhote dada aur pas mein baithe hue bachche bhi hans paDe bhabhi chulhe ke pas hi baithi khana kha rahi theen shayad dal khatm ho gai thi har dusre tisre kaur ke sath wo kurr karke pyaz kutar rahi theen baDe dada ne aage pair pasar liye the mainne unki taraf dekha unki khopaDi bilkul ganji ho gai thi aur gal khase pichak gaye the mere bhitar kuch hil sa gaya mainne unse kaha—baDda, apaki sehat kafi gir gai hai
unhonne uthkar jeb mein se ek biDi aur nikal li bole—tum apni par to dhyan do dekhi hai, shakl kaisi nikal i hai, bijjuon jaisi isiliye to kahta hoon, shishe mein apni shakal dekh liya karo
main baDe dada ke bare mein sochne laga mujhe theek se yaad bhi nahin hai, mere pita kab mar gaye the mujhe pala posa baDe dada ne hi chhote bhai ki tarah nahin, apne sage bete ki tarah, mujhe hi nahin, chhote dada ko bhi hamein paDhaya likhaya kaam dhandhe ke layaq banaya jab mere pita chal base the tab unki umr sirf satrah sal ki thi aur sal bhar pahle hi unki shadi ho chuki thi magar jayadad mein apna hissa lekar wo alag nahin ho gaye the pariwar ke sare bojh ko kandhon par dhar liya man, chachi, do chhote bhai, biwi sabhi ko samete rakha chachi ki maut mitti ki, chhote dada ki shadi ki, is sabke badle mein kisi se kuch nahin chaha apne hi sir ke baal uDa liye gal pichka liye zillaten sahin magar shu nahin kiya is sabke beech itna zarur hua ki pita ki chhoDi hui jayadad dhire dhire sarakne lagi qarzdari baDhne lagi phankon ne hamari dahliz mein jhankna shuru kiya tagadon ki awazen buland hone lagi beech bazar mein unke gireban param jabut panje pasarne lage phir bhi unhonne pichhe muDkar nahin dekha aage chalte gaye, donon kandhon ko bojh se dabaye hi
main uthkar bahar angan mein aa gaya mere pichhe chhote dada bhi aa gaye man lete lete mala pher rahi theen mujhe dekhkar charpai par ek taraf ho gai main unke pas baith gaya chhote dada samne wali charpai par baith gaye man ne mala samet kar takiye ke niche rakh di bolin—khana kha liya? khaya kya hoga, koi sabzi bhi to nahin thi mainne man ke kandhe par hath rakh diya
bhabhi bhitar chauka saf kar rahi theen bachche shayad sone ki taiyari kar rahe the baDe dada uthkar aaye samne wali charpai par baith gaye bhitar ki raushani bahar angan mein paD rahi thi behad mamuli si shaklon ki shinakht bhar karne layaq baDe dada thoDi der chupchap baithe rahe phir charpai par let gaye chhote dada ne mujhse puchha—tumhari factory mein kitne adami kaam karte hain?
—sat sau
—sat sau? bahut baDi factory hogi
—aur kya
—baDe dada ne lete lete puchha—tumhari tankhah baDhi hai ki nahin?
—baDhi hai atharah rupye?
—bus panch sal mein atharah rupye?
—par sal hi to main parmanent hua hoon malik harami hai
—kya kahta hai? chhote dada ne puchha
—kahta kya hai? warkars ke sath berahmi dikhata hai dhamki do to union ke netaon ko kharid leta hai ya sir phuDwa deta hai
sir phutne wali baat se shayad baDe dada chakra gaye jhat se uth baithe us jhini raushani mein meri taraf ghaur se dekhne ki koshish ki bole—tum in jhanjhton mein paDte to nahin ho n? alag hi raha karo
—baDda, aap bhi kaisi baat karte hain har adami isi tarah alag rahega to haq ke liye laDega kaun?
chhote dada shahr mein naukari karte hai wo meri baat samajh gaye mera samarthan karte hue bole—union ke kamon se aise alag rahkar kaam nahin chalta dada
baDe dada phir let gaye bole—so to theek hai, phir bhi hoshiyari se kaam lena chahiye chhotu wahan rahte bhi akele hain na
man ko shayad neend aa rahi thi, unhonne bhi yahi takid duhra di aur ankhen moond leen bhitar bhabhi bhi kaam se nipat kar bachchon ke pas hi so gari theen thoDi der charon taraf chuppi chhari rahi
lete lete hi achanak baDe dada bole chhotu mainne wo bachi hui zamin bech di hai
mainne koi jawab nahin diya tar pane ke baad mujhe jo khayal aaya tha wo theek hi tha chhote dada ne jaise khulasa kiya—bech dena hi theek tha warna bekar mein byaz chaDh jata phir to zamin bechkar bhi qarza chukana mushkil ho jata
—tum logon se puchhe bina hi ye faisla le liya baDe dada ke swar mein ranj tha
—hamse puchhte to hum bhi yahi salah dete
—karta kya, qarzdar meri jaan khaye ja raha tha
—khair chhoDiye, phikar karne ki koi baat nahin
man ne karwat badli unki neend uchat gai theen ya lete lete wo chupchap hamari baten sun rahi theen bolin—tumhare pitaji ki wo akhiri nishani thi wo bhi chali gai
baDe dada uth kar chupchap baith gaye mainne man ko DhaDhas diya—nishani wishani kuch nahin hoti man pitaji ne hamari hi zaruraton ke liye hi to zamin rakhi thi
baDe dada uthkar bhitar gaye ghaDe mein se pani lekar piya biDi sulgai wapas aakar charpai par baith gaye biDi ke do chaar tez kash khinche aur apne aap baDbaDane lage—hamari zaminen itni jaldi nahin biktin lekin aadhi to sood par hi chali gai ganw mein aur koi bhi to nahin hai qarza dene wala yahi sala akela ibbu hai iska byaz to aag jaisa hai jalakar rakh kar dene wala sal bhar guzra ki nahin, qarze ki raqam duguni ho jati hai zarurtaman kare bhi kya isi tarah qarz leta rahega, isi tarah apne aap ko bechta rahega ye harami ibbu ganw mein kisi ko zinda nahin chhoDega sab ko kha jayega
chhote dada ko shayad neend aa rahi thi, bole—dada, jakar so jaiye kal subah taDke uthna bhi to hai pahli bus se jana hi theek rahega
—han chhotu, kal chalna hai registrar aafis ko mainne chaar panch din pahle hi kaghzat taiyar karwa liye hain bus tumhara intizar tha tumhara tar milne ke baad wakil ke karinde se bhi kah diya, kal subah chalne ke liye ganw walon ka bhi kya bharosa kharidar ke koi kan bhar dega to wo mukar na jaan phir aur kisi ko kharidne bhi nahin dega isliye registry kal hi ho jani chahiye kya khayal hai? subah ki bus se chaloge to sham tak laut ayenge warna raat ho jayegi man ko bhi to sath chalna hai na raat ho jayegi to inko takliph hogi unhonne biDi ka tonta phenk diya, uthe, sone bhitar chale gaye man ne pairon ke pas paDa hua kanbal kheench kar oDh liya chhote dada dusri charpai par pasar gaye main man ki baghal mein hi sikuD gaya
machchharon ki wajah se raat ko theek se neend nahin lagi sabere Dhang se ankh lagi ki bhabhi ne jaga diya baDe dada shayad wakil ke karinde ke pas gaye hue the man kanbal oDhe mere pas wali charpai par baithi honthon mein kuch budbuda rahi theen chhote dada shayad datun kar rahe the mujhe jagakar bhabhi bolin—lala utho, jana nahin hai?
mainne ankhen malin dekha, pas ke neem ke peD par aath das chiDiyan chahak rahi hain neem ki patli si tahniyan halki si hawa ke jhonkon ki wajah se haule haule jhool rahi hain mainne awaz di—bhabhi, kya chay ban sakegi? bhabhi ne koi jawab nahin diya shayad meri awaz suni nahin ho main uthkar bhitar gaya bachche teDhe meDhe so rahe the bhabhi aata goondh rahi theen mainne dubara puchha—chay nahin banaogi?
itne mein chhote dada andar aa gaye shayad unko bhi chay ki talab lagi thi bhabhi bolin—patti hai aur guD bhi doodh aane mein deri hogi
mainne chhote dada se puchha—bina doodh ki chay pi lenge aap? waise hoti shanadar hai bhabhi se mainne chulha jalane ko kaha aur khu chay banane baith gaya
baDe dada aa gaye bhabhi ko aata gundhte dekh kar baras paDe—abhi tak tumne kuch banaya nahin hai? hum kya das baje tak yahin baithe rahenge? mainne unhen bhi thoDi si chay di bhabhi parathe senkne lagin baDe dada se bolin—le jane ke liye bhi chaar chhah parathe sek hoon? achar ke sath kha lena manji bahar ka khana khayengi bhi nahin
main hath munh dhokar taiyar ho gaya hum logon ne nashta kiya man ne sirf aadha paratha khaya unka chehra utra hua tha mainne socha, shayad unhen apne pati ki yaad aa rahi hogi unki chhoDi hui zamin ka akhiri tukDa bhi to bika ja raha hai man ne pani piya aur mala lekar baith gayin
bhabhi ne parathe ek purane akhbar mein lapet kar jhole mein rakh diye ek khali lota bhi sath mein rakh diya, pani wani pine ke liye man ne kahkar usse apni shaal bhi rakhwa li jhola hath mein lete hue baDe dada ne bhabhi se puchha—ham panch janon ke layaq khana rakh diya hai n?
—panch kaun, hum chaar hi to hain? mainne puchha
—wah wakil ka karinda bhi sath chal raha hai na usi ne to kaghzat taiyar kiye hain zamin ke rupye bhi to wahi sath layega
man ki taraf dekh kar baDe dada ne kaha— man chalen?
mainne man ki taraf nahin dekha chhote dada aur main bahar aa gaye man baDe dada ke sath chalne lagin bahar aakar bolin—bekar mein jayadad mein mera hissa bhi likha gaye hain warna mere ye bar bar ke chakkar nahin hote ganw mein fajih alag se mainne hi kaun si jayadad bacha li hai?
kisi ne unki baat ka koi jawab nahin diya chupchap chalne lage teen sal pahle, sardiyon mein man ke dahine hath aur pair par lakwe ka jo hamla hua tha, uska asar ab tak tha wo dahine hath se pani ka bhara lota bhi Dhang se utha nahin pati theen aur chalte hue dahine pair ko ghasit kar chalti theen inke ilaj ke liye dada ne jo paisa udhaar liya tha, uska bhi ek hissa tha zamin ki bikri mein pata nahin chhote dada kya soch rahe the lekin unke sath chalte hue mere dimagh mein yahi sari baten kulbula rahi theen
hum log bus ke samay se pahle hi aDDe par pahunch gaye lekin wo wakil ka karinda ab tak nahin pahuncha tha baDe dada wyagr hokar uski rah dekhne lage chhote dada ko bhi bechaini hone lagi man bhi mala pherne ke dauran beech beech mein uske na aane ki wajah puchhne lagi main thoDe se ghere mein chahalkadmi karne laga hum log uski rah dekh hi rahe the ki bus i aur nikal gai baDe dada ki bechaini baDh gai wo bar bar biDi sulgane aur baDbaDane lage pata nahin kya baat ho gai subah bhi main usse mila tha, usne aisi koi baat nahin kahi thi to ab aaya kyon nahin? sale ibbu ne to koi aDanga nahin aDa diya hoga
chhote dada do chaar bar jij~nasa dikha kar gumsum ho gaye main man ke pas baith gaya baDe dada pas mein paDi hui baDi si chattan par ukDun baithkar bechaini se thukne lage chhote dada ne use door se aate hue dekh liya utsah mein uchhal kar bole—dada, wo aa raha hai ye baat sunte hi unhonne ungliyon mein phansi hui biDi pare phaink di, tezi se uth kar khaDe ho gaye wo apni baDi si beDhab tond ko jhulata hua hathi ke bachche ki tarah chala aa raha tha
uske pas aate hi dada lapak paDe—kya baat ho gai thi chacha? baDi ankhe dukhai tumne tez chalne ki wajah se wo shayad thak gaya tha usi chattan par baith kar hanphane laga beech beech mein dant aise chalane laga jaise jugali kar raha ho mainne dekha uski qamiz ki jeb behudgi ki had tak baDi hai aur usmen tarah tarah ke kaghaz thunse hue hain usne jeb mein teen chaar rang birange pen laga rakhe hain hath mein ek jhola hai jo shayad kaghazon se hi bhara hua hai usne sans dhimi ki aur bola—kya karta, ibbu ne rupye dene mein deri kar di subah sat baje hi main uske ghar pahunch gaya tha lekin paise walon ke nakhre tum jante hi ho isi mein deri ho gai chalo koi baat nahin, agli bus se chalenge baDe dada ne ek biDi aur sulga li
registrar ke daftar par jab hum pahunche to dopahar ke khane ka samay ho gaya tha sahab khana khane ghar chale gaye the donon clerk daftar mein hi baithe khana kha rahe the aur samne baithi hui typist laDki ko dekhe ja rahe the chaprasi stool par baitha biDi pi raha tha hum log wahan pahunche to wo uth kar khaDa ho gaya aur hamare sath wale adami ko baDe josh se namaste ki usne hamari taraf bhi musakrati nigahon se dekha shayad use hamari shinakht ho gai thi pichhle das salon mein ye panchawi ya chhathi bar hum log wahan gaye the isi tarah teen bhai aur man han, pahle ekadh bar hamari chachi bhi sath theen jo hamari hi tarah biki hui zaminon ki haqdar theen lekin wo bar bar ye zahmat uthane se bach gain aur chal basi theen inhin sari baton ke sath hi ye sawal bhi mere dimagh mein chakkar katne laga ki sarkar ko ye kya sujhi ki itne mamuli se qasbe mein registrar aafis khol rakha hai kya aur koi jagah nahin mili hogi? sab kuch hasyaspad tha main sochta rah gaya
bus se utar kar yahan tak paidal chalne ki wajah se man thak gai theen unhen pyas lag i thi aur shayad bhookh bhi mainne man se puchha—man, khana khaogi?
ye baat sun kar hamare sath ke karinde ne apni phaili hui jeb mein se kaghazon ka pulinda nikala aur uske beech mein tah karke rakhe hue noton mein se ek das rupye ka patta baDe dada ki taraf baDhate hue bola—tum log ja kar pas ke Dhabe mein khana kha lo ab hamara kaam to Dhai baje hi hoga main sahab ke ghar ja kar kah dunga ki hamara kaam zara jaldi kar den aafis mein kahna theek nahin rahega usne meri taraf dekh kar muskra diya jaise ye kahna chahta ho ki hatheli ki garmi ko tumhare shahron ke daftar wale hi nahin, hamare ganwon aur qasbon ke daftar wale bhi jante pahchante hain
baDe dada ne not nahin liya bole—ham khana le aaye hain chhote dada ko shayad uska not dena achchha nahin laga wo awaz mein kuch turshi bharte hue bole, hamari taraf se tum hi rakh lo chacha tumhein bhi to khana khana hai shayad uski samajh mein baat nahin i wo heen heen karke hansne laga jab wo sahab se milne ke liye usi tarah jhulta chala gaya, chhote dada hikarat se bole—haramazada, khana khane ke liye hamein paise dene laga hai logon ke kaghaz pattar likh kar chaar paise kya kama liye hain, sale ka dimagh phir gaya hai wo din bhool gaya jab iski man hamare ghar par anaj bina karti thi, do june roti ke liye ssala meri samajh mein nahin aa raha tha ki achanak wo is tarah ghussa kyon ho rahe hain, apni fitrat ke khilaf main sochne laga, pita ki sari zamin ke bik jane ka unhen jo dard ho raha hai, use wo jhel nahin pa rahe hain pyas ki wajah se man ka gala sookh gaya tha wo dhire se khansane lagin baDe dada bole—chalo, samne ke baghiche mein chal kar khana kha lete hain ibbu sale ki wajah se itni deri ho gai warna ab tak kaam pura ho gaya hota, do baje wali bus se laut bhi jate man ko chalne mein taklif ho rahi thi wo aaj apni shakti se baDhkar chal chuki theen chhote dada ne unki banh pakaD li aur dhire dhire chalne lage hum log saDak par karke baghiche ke pas aa gaye baDe dada wahin khaDe mali ko unchi awaz mein pukarne lage aath das awazon ke baad mali ne jawab diya
—kya hum kune par baith kar khana kha len?
—a jaiye, ismen puchhne ki kya baat hai?
mali ko azad hindustan ki hawa abhi nahin lagi hai main dhire dhire chalte hue sochne laga
—tumhare yahan ka kutta baDa khatarnak hai bhai baDe dada ko kutton se nafar thi aur Dar bhi
—Dariye nahin, wo kuch nahin karega main jo aap se baat kar raha hoon
mali ne hi kuen se ek balti pani nikal kar diya hum logon ne hath munh dhoe man ne khane se pahle hi lota bhar pani pi liya hamne khana khaya ab bhi man ne aadhe parathe se ziyada nahin khaya wo khali pani piti rahin baDe dada ne kulla kiya sarak kar peD ke tane se sat kar baith gaye biDi sulga lee? mainne jhole mein se shaal nikal kar zamin par bichha di man ko thoDi der aram karne ke liye kaha baDe dada biDi pite hue peD ke patton ki taraf dekh rahe the bole—chhotu, ab tumhein apni adten sudharni hongi dekh rahe ho na, bitta bhar zamin bhi ab hamari nahin rahi hai mainne unke chehre ki taraf dekha laga jaise hawaiyan uD rahi hain mainne gardan jhuka li unhen kisi tarah ka jawab dene ki himmat nahin paD rahi thi unhonne biDi phenk di kuch rukhen swar mein bole—samajh rahe ho, main kya kah raha hoon?
—ji
—ji ji se kaam nahin chalega, hamein apne pitaji ki zamin wapas kharidani hai ye tum donon se hi ho sakta hai
—ap apne yahan ke ibbu haramzade ka kaleja phaD dijiye main apni factory ke malik ki botiyan noch lunga aur ye ye apni sarkar ki gardan kat denge tabhi hum apne pitaji ki zamin wapas kama sakte hain khat kar sakenge ibbu ko aap?
main uthkar khaDa ho gaya mera jism halka sa jhool raha tha shayad ghusse ke atirek ki wajah se main ja kar thoDi der kuen par khaDa raha, phir laut aaya baDe dada usi tarah chupchap baithe hue the man shayad meri kaDakti awaz sun kar ghabra gai theen wo uthkar baith gain kafi der tak koi kuch nahin bola baDe dada ke latkaye hue chahere ko dekh kar chhote dada ko rahm ho aaya tha wo dhimi awaz mein bole—dada, chhotu theek hi kah rahe hain in halaton mein koi bhi apni khoi hui zamin dubara kharid nahin sakta aap hi soch kar dekhiye, hum log bhala zamin kaise kharid sakte hain?
baDe dada kuch nahin bole jaise gahri soch mein Doob gaye hon, chhote dada ne man ko banh pakaD kar uthaya baDe dada ki taraf taras khati nazron se dekha bole—chaliye, kafi der ho gai hai daftar mein kaam shuru ho gaya hoga
hum log daftar mein dakhil hue pata chala, sahab abhi nahin aaye hain khana kha kar ghar par aram kar rahe hain unka kamra ab bhi band tha samne ke kamre mein donon babu baithe hue the ek ke aage baDa sa register phaila hua tha jis par wo kuch likh raha tha, dawat mein kalam Dubo Dubo kar dusra babu pan chabate hue koi kaghaz bahut dhyan se paDh raha tha bain taraf ki khiDki ke pas baithi typist bahut mamuli si raftar ke sath kuch type kar rahi thi type mein shayad uska man nahin lag raha tha wo beech beech mein khiDki ke bahar jhank rahi thi us khiDki ke sath hi baramde mein bane hue lambe se chabutre par hamare sath wala karinda leta subah ki tarah jugali kar raha tha chaprasi uske pairon ke pas baitha usse baten kar raha tha us chabutre ke ru ba ru, baramde ke dusri taraf bane hue waise hi lambe chabutre par koi panch chhah log chupchap baithe hue the theth ganw ke log shayad we bhi apni zamin jayadad ki bikri ke silsile mein aaye hue the
hamein dekhte hi karinda uth kar baith gaya chaprasi pare hathkar khaDa ho gaya shayad us par meri aur chhote dada ki patlunon ka rob paD raha tha karinde ne puchha khana kha liya?
chhote dada ne man ko ek taraf bitha diya man ne mala ferni shuru kar di unhonne kisi taraf koi khas dhyan nahin diya baDe dada ne karinde se sahab ke bare mein puchha usne jugali band ki bola—sab theek ho gaya hai sahab abhi aane wale hain, pahle hamara hi kaam hoga baDe dada uski baghal mein baith gaye unki baghal mein chhote dada main khiDki ke pas khaDa ho gaya samne ke chabutre, par baithe hue log usi tarah gumsum the
sahab jab aaye to dhoop kafi phiki paD gai thi saDhe teen ke qarib ka samay tha unhen door se aate dekh kar chaprasi ne bhag kar unke kamre ke kiwaD khol diye donon chabutron ke log uth kar khaDe ho gaye sirf man baith rahin, usi tarah mala pherti hui hamare sath wale karinde ne ek bar phir kas kar sahab ko salam kiya unhonne us par nazar Dali to unhonne honthon par khili hui muskurahat ko chusti ke sath bhitar lapet liya, apne kamre mein chale gaye ghanti bajai bhag kar chaprasi unke kamre mein gaya pal bhar ke baad laut aaya dhimi awaz mein hamare sath wale karinde se kuch kaha laut kar babuon wale kamre mein chala gaya
karinde ne apne jhole mein se kaghaz nikale jaldi mein unhen ek bar ulta pulta tez qadmon se ja kar pan chabane wale babu ke aage kaghaz rakh diye samane wale chabutre par baithe hue logon mein bhi ab chahl pahal aa gai theen unmen se ek adami apne jhole mein se kuch kaghaz nikal kar dekh raha tha main jidhar khaDa tha, udhar se sahab ke chehre ki jhalak mil rahi thi mainne dekha, mujhe unka dhaD aur mota sa sir hi nazar aa raha tha bahut ghaur karne par bhi unki gardan ka kahin namo nishan nahin tha
kafi der baad chaprasi ne aakar hum longon ko andar chalne ke liye kaha
hum log babuon wale kamre mein pahunche, chaprasi ne ek chhoti si mez par baDa sa khula register lakar rakha us par khane bane hue the pahle do teen khanon mein kuch likha hua tha akhiri khanon mein hum logon ko dastakhat karne the pahle khane mein man ko, uske niche wale mein baDe dada ko, tisre mein chhote dada ko aur chauthe mein mujhe isi kram se hamare nam darj the man dastakhat karna nahin janti theen baDe dada ne chaprasi ko bataya baghal ki mej par se baDa sa roshanai ka pad utha laya man ke dahine hath ka angutha apne hath mein le kar usne pad par ragaD kar kala kiya man ko apna angutha ekdam Dhila chhoD dene ki hidayat ki aur sabse upar wale khane mein anguthe ka baDa sa nishan laga diya nishan lagate hue man ka angutha kanp raha tha chaprasi ne register ka panna palta us panne par bhi sabse upar wale khane mein man ke anguthe ka nishan lagaya aur isi tarah tisre panne par bhi uske baad usne baghal mein paDe hua khurdara kala kapDa utha kar man ko diya, apna angutha ponchh lene ke liye mainne wo kapDa apne hath mein le kar man ka angutha achchhi tarah ponchha aur unhen bahar chabutre par la kar bitha diya
mainne dekha, man ka chehra kasa hua hai aur unke hath zahir taur par kanp rahe hain wo apne pallu se ankhen ponchhne lagin
hum tinon bhaiyon ne tinon pannon par apne dastakhat kar diye hamein bhi dastakhton ke niche apne anguthon ke nishan bhi lagane the sarkar ki ehatiyati soojh par mujhe khushi ho i kahin to wo sajag hai ye sab kar kara kar hum log bhi bahar chabutre ke pas aa gaye baDe dada ka chehra bhi khasa kasa hua tha unke galon ke gaDDhe kuch aur dhanse hue lag rahe the wo chupchap baithe rahe chhote dada man ke pas jakar baith gaye hamare sath wala karinda babuon ke kamre mein hi khaDe kuch baten kar raha tha hamare samne wale chabutre par baithe hue logon ko bhi yahi sab karna tha unmen se do adami uth kar chaprasi ke kahne par andar gaye
koi pandrah bees minat baad hamein sahab ke kamre mein jane ke liye kaha gaya hum log jakar sahab ki baDi si mez ke ird gird khaDe ho gaye man ke aur baDe dada ke chehron par ab tak bhi sahajta nahin aa pai thi sahab ke aage wahi register phaila hua tha jis par hum logon ne dastakhat karke anguthe ke nishan lagaye the sahab thoDi der kuch paDhte rahe, phir gambhir awaz mein bole—subhrda dewi aap hi hain?
—ji man ki awaz laDkhaDai
—ramgopal?
—ji, main baDe dada bole
—harishran?
—ji, main chhote dada ne kaha
—radheshyam?
—main hoon mere andar ka shahr kulbulane lag gaya tha
—kya aap logon ne zamin apni marzi se bechi hai?
—ji baDe dada ne uttar diya
—kitne mein?
—chaar hajar nau sau pachas mein
—ap logon ko rupye mil gaye?
—ji, mil gaye
—ab aap log ja sakte hain sahab kursi ki peeth par pasar gaye
hum log bahar aa gaye hamare sath wala karinda chabutre par baitha kaghaz ke tukDe par kuch likh raha tha baDe dada uski baghal mein baith gaye mainne chhote dada se puchha—ab hum log ja sakte hain n? unhonne meri taraf dhyan se dekha angrezi mein bole ki wo bhi sab kuch se kafi ub gaye hain mainne jaise khu ko santwana dete hue kaha—chaliye, ye akhiri ub hai wo hans paDe khasi phiki si hansi goya mujh par taras kha rahe ho ki bachchu, is ub ko to akhiri kah rahe ho, baqi rozmarre ki ubon ka kya karoge? main khiDki mein se typist laDki ko dekhne laga
ye karinda kaghaz ka tukDa baDe dada ke aage karke unhen samjhane laga—ibbu se liya hua paisa, ek hazar chhah sau do sal ka byaz, aath rupye saikDa har mahine ki dar se teen hazar bahattar meri fees, pachas rupye sahab ko diye hue sath rupye, daftar walon ko, aath rupye kul chaar hajar aath sau das rupye baqaya ek sau chalis tumhein milne hain usne apni phaili hui jeb mein se tatol kar noton ki gaDDi nikali aur das das ke chaudah not gin kar baDe dada ke hath mein pakDa diye mainne dekha, rupye lete hue baDe dada ke chehre par kali si jhani tharthara uthi hai is beech wo karinda phir jugali karne lag gaya tha baDe dada ne rupye jeb mein rakh liye karinde ne kaha—tum log jao chhah baje akhiri bus hai, usse chale jana mujhe thoDa kaam hai main kal sham tak ghar pahunchunga
hum log dhire dhire chalkar bus aDDe par aa gaye raste bhar koi kisi se kuch nahin bola man ne sirf itna kaha—meri ankhon ke samne hi tumhare pitaji bhi chale gaye unki zamin bhi chali gai unka gala bhar aaya tha is par bhi kisi ne kuch nahin kaha
bus stand par baithe baithe sat baj gaye chhah baje wali bus nahin i thi man ne is beech do bar pani piya mala pherti hui baithi rahin bari bari se main aur chhote dada idhar udhar jakar bus ke bare mein daryaft kar aaye aur log bhi hamari tarah the kisi ne bataya, bus kahin raste mein kharab ho gai hogi na bhi aaye to koi baDi baat nahin
baDe dada ki pareshani baDh gai man ko aram ki zarurat thi bus nahin ayegi to raat ko saDhe gyarah baje mel milega mausam kharab hai raat mein halki si thanD paDne lagti hai man ko pareshani hogi kya kiya jay? wo baDbaDane lage
saDhe aath baj gaye the qasbe ka mamuli sa astitw jaise raat bhar ke liye andhre mein khota ja raha tha aDDe ni ikke dukke log hi rah gaye the mainne sujhaya, station chalenge man niDhal ho rahi theen station qasbe ke bahar tha lagbhag sunsan ilaqe mein hum logon ne tanga kar liya tange mein baithne se pahle baDe dada ne apne liye biDi ka banDal aur machis li ek darjan kele kharid kar jhole mein rakh liye station par kuch bhi to nahin milta hai man ne dopahar ko kuch nahin khaya hai wo bole
station bahut chhota sa tha aur ujaD tha ticket ghar aur station master ke kamron mein maddhim si raushani thi aur kahin raushani ka nam nahin tha pletfarm un donon kamron jitna hi phaila hua tha jis par teen ki chhat thi pletfarm ke idhar udhar kafi jagah thi, magar khuli hui wahan bhi raushani nahin thi pletfarm par anaj ke ya kisi cheez ke bhare bore paDe hue the, betartib chhat ke niche ki sari jagah unhin se ghiri hui thi shayad ek kone mein kisi aur cheez ke bore paDe hue the jinse ek tarah ki tikhi badbu aa rahi thi mainne socha, shayad kachche chamDe ke bore honge us badbu mein wahan baithna sambhaw nahin tha, khaskar man ke liye isliye, ek taraf khule mein baithne ke siwa koi chara nahin tha man ki banh pakaD kar unhen rasta dikhate hue chhote dada chalne lage baDe dada ne das rupye ka not nikal kar mujhe diya, ticket kharidne ke liye tikatghar mein babu so raha tha mainne station master se jakar puchha usne bataya, gyarah baje ticket milegi mainne puchha—yahan koi weting room nahin hai? usne gardan uthakar meri taraf dekha meri patlun par nazar Dali gardan jhuka li mujhe uska rukh achchha nahin laga mainne angrezi mein kaha—yatriyon ko asuwidha hoti hai usne dubara meri taraf dekha angrezi mein hi bola—chunaw laDkar mantari ban jaiye, phir is par sochiye usne thahaka laga diya
man shaal oDh kar dubki baithi theen mainne kaha—abhi gaDi aane mein kafi der hai, man ke sone ka intizam hona chahiye
baDe dada bole—so kaise sakti hain, bichhane ke liye kuch bhi to nahin hai
man bolin—main theek hoon, tum log phikar mat karo hum log bhi man ke sath zamin par baith gaye
hum logon se thoDa sa hatkar kuch logon ki awazen aa rahi theen hansne ki, baten karne ki mainne dhyan se dekha andhere mein kisi ka chehra nazar nahin aa raha tha main uth kar un logon ke pas gaya koi chhah sat log ek dasure ki baghal mein lete baten kar rahe the meri aahat pakar we chup ho gaye mainne jhuk kar unki taraf dekhne ki koshish ki phir bhi kisi ka chehra saf nazar nahin aa raha th mainne puchha—kya aap log bhi gaDi ke liye baithe hain?
ek ne kaha—nahin, hum to yahin ke hain railway line ka kaam chal raha hai na, din mein kaam karte hain, raat ko yahin soe rahte hain
main un logon ke pas ukDun baith gaya puchha—mel kitne baje ayega?
—barah baje tak aa jayega
—barah tak?
—apko kahan jana hai? unmen se teen chaar log uth kar baith gaye the
—yahi, chaar panch station chhoD kar, udhar
we log chup ho gaye main bola—mere sath man aur do bhai bhi hain bus se jana tha bus nahin mili man ki tabiat theek nahin hai hamare pas kapDe bhi nahin hai
meri baat sun kar ek adami jhat se uth baitha apne sirhane tah karke rakhi hui sujni meri taraf baDhai bola—yah lijiye, kisi na kisi tarah thoDa samay hi to katna hai main dhanyawad dekar wahan se utha sujni duhri tah karke zamin par bichhai thi baDe dada ne kele nikal kar man ko diye unhen shayad bhookh lag rahi thi kele kha liye shaal oDh kar sujni par let gain
hum tinon ne bhi kele khaye we majdur log usi tarah baten kar rahe the beech beech mein thahake laga rahe the kahin door par kutton ke bhunkne ki awazen aa rahi theen asman par idhar udhar tare timtima rahe the mausam mein kuch khunki baDh gain thi
baDe dada ne biDi sulga li un logon mein se kisi ne biDi sulga li mainne awaz kuch unchi karke un logon se puchha—ap logon mein se kisi ko biDi wiDi to nahin chahiye? mujhe laga, bahut behude Dhang se kritaj~nata dikha raha hoon unko biDi chahiye nahin thi
baDe dada ne mujhse puchha—chhotu, kitne din ki chhutti le aaye ho?
—kal raat ki gaDi se chale jana hai
—aur tum? unhonne chhote dada se puchha
—main bhi kal parson mein chala jaunga
—tum logon ko kiraye ke paise chahiye n? wo bole
—nahin, mere pas hain main bola chhote dada ne kaha—unko bhi nahin chahiye
—in ek sau chalis mein se tum log bhi le sakte ho
mainne us andhere mein hi unka chehra dekhne ki koshish ki mujhe kuch nazar nahin aaya unki awaz ke kanpan ke siwa
main bola ruk ruk kar—baDda, aap phikar mat kijiye achchhe din ayenge
wo kuch nahin bole biDi ka tonta phenk diya
kahin kisi murghe ko ghaltafahmi ho gai thi wo bang dene laga sabera hone se pahle hi sawere ki utawli mein
pas ke logon mein se kisi ne puchha—babuji, kai baje hain?
mainne machis jala kar ghaDi dekhi paune das, mainne awaz di
un logon ko neend nahin aa rahi thi kisi baat par khilakhilakar hans paDe thoDi der baad chuppi chha gai aas pas ki jhaDiyon mein jhingur bol rahe the un logon mein se kisi ne kaha—abe ab shuru to kar sala har raat satata hai iske sath hi teen chaar logon ki awazen ek sath ain—han yar, ab shuru kar unmen se kisi ne hamari taraf awaz phenki—babuji, aap log to paDhe likhe hain koi kahani wahani sunaiye gaDi ke aane tak waqt kat jayega
—ai durga, tu suna sunoge babuji? unmen se ek bola
—zarur
thoDi der khamoshi bani rahi asman saf ho gaya tha taron ki sankhya baDh gari thi shayad durga bol utha—to suniye babuji ye kahani mainne bachpan mein apne dada se suni thi unko unke nana ne sunai thi
kisi ne awaz kasi—abe nana ke bachche, kahani to suna
durga ne gala saf kiya awaz buland ki kahne laga—ek ganw mein ek adami rahta tha bahut gharib
un logon mein se kisi ne phabti kasi—tere se bhee? ek zabardast thahaka laga durga naraz ho gaya—sale, tu beech mein bolega to main kahani thenga sunaunga
—abe chup rah, beech mein bolta kyon hai?
durga ne kahani shuru ki—han, to wo bahut gharib tha ek din wo kaam dham ki khoj mein nikal paDa paidal barah terah baras ka raha hoga raste mein bhookh lag i raat ko bhi kuch nahin khaya tha par karte kya? aise hi chalte rahe chalte chalte din Dhalne laga raste mein donon ne teen chaar jagah pani piya aur isi se santosh kar liya phuti kauDi to pas mein thi nahin, jo kuch kharid kar kha lete
baDe dada ko shayad kahani achchhi lag rahi thi
durga bole ja raha tha— bap beta kisi ganw ke pas pahunche ganw ke bahar koi mela laga hua tha nagaDe turhi ki awazen aa rahi theen laDke ke kan khaDe ho gaye usne apne bap se puchha awaz bap ne bhi suni thi bola, koi mela hoga mele ki baat sunkar laDka machalne laga bap ka hath pakaD kar bola, bapu mela dekhte chalenge unhen usi taraf jana tha bap man gaya bap beta udhar hi chal paDe thoDi der baad mele mein pahunch gaye bahut bhari mela laga tha tarah tarah ki chizen bik rahi theen tarah tarah ke khel tamashe ho rahe the bap ne laDke ko sare mele mein ghumaya bechara laDka nadidi ankhon se dekhta raha sham ho gai to bap ne laDke ka hath pakaD liya bola, chal, sham ho rahi hai, jaldi pahunchna hai par laDke ko mele mein maza aa raha tha wo apne bap ka hath pakDe hue idhar udhar dekhta hua malne laga
—ab wahin ek kone mein, ek peD ke tane se aath das unt bandhe hue the laDke ki nigah unton par paDi usne itne sare unt ikatthe kabhi nahin dekhe the usne bap ka hath pakaD liya bola, bapu un unton ko dekhte chalenge bap laDke ko lekar unton ki or chala
durga ko shayad talab lag gai thi usne kahani rok kar biDi sulga li do teen sutte mare baqi tukDa apne sathi ko pakDa diya phir kahani shuru ki—han, to we donon unton ke pas pahunche uton wala unt bech raha tha unchi awaz mein kah raha tha—unt le lo unt bikaneri unt gaDi khinchwa lo rahat chalwa lo zamin jutwa lo sawari kar lo unt le lo do do aane ka unt le lo
durga ka koi sathi thatha kar hans paDa—sale ki har kahani aisi hi hoti hai abe, do aane mein kahin unt milta hai?
—abe chup beech mein bakwas mat kar warna teri aqalmandi pichhe se nikal denge teen chaar logon ne tokne wale ko ek sath Danta wo chup ho gaya chhote ko neend aa rahi thi wo baithe baithe idhar udhar hone lage baDe dada ne ek biDi sulga li mainne asman ki taraf dekha
durga ne phir kahna shuru kiya to kya bata raha tha main? han to unt wala chilla raha tha, do do aane ka ek unt do do aane ka unt laDke ne unt ka dam suna to uske munh mein pani bhar aaya khushi ke mare uske pair zamin par tik nahin rahe the sochne laga, hamare pas unt hota to din bhar hum paidal kyon chalte? aram se us par baith kar chale jate usne bap ka hath pakaD kar khincha aur kahne laga—bapu, ek unt le lo hamare bahut kaam ayega bap ne laDke ko samjhaya, bete paise nahin hain lekin kahan manne laga machal gaya, bapu ek unt kharid do ab bap ko ghussa aa gaya usne laDke ka hath pakaD kar khinchte hue jhiDak diya—abe chupchap chal, unt kahan se kharidega? kal se khana nahin khaya
chalte chalte bap beta kafi door chale gaye bap aage aage chal raha tha laDka pichhe pichhe, laDka bahut thak gaya tha bechare ka chehra latak aaya tha uski ankhon ke aage unt hi dikhai paD rahe the ekayek laDke ko apne pairon ke pas koi cheez dikhai paDi chamakdar cheez laDke ne jhuk kar utha li qamiz se us par ki dhool saf ki wo aur ziyada chamakne lagi laDke ne bap ko awaz di—bapu, ye dekho, koi cheez mili hai bap ne pichhe muD kar dekha bap ne ulat palat kar dekha bola—bete, ye to hira hai laDka samjha nahin, bola—wah kya hota hai, bapu? bapu ne bataya—hira qimti cheez hota hai bete bap ko bahut khushi ho rahi thi bete ne puchha—yah kitne mein bikega bapu? bapu ne dubara ulat pulat kar dekha soch kar bola—yah to panch sau ka hai bete panch sau to mujhe kai unt dila do na bapu laDka tarasne laga bap ko bete par daya ho i bola, chal tere liye ek unt kharid deta hoon bap beta bhage bhage mele mein laut aaye mela uth raha tha log bag apne apne gharon ki taraf chal rahe the laDke ne uchhalte hue ek unt chun liya bola, wo wala kharid do bapu bap ko bhi wo unt pasand aaya usne unt wale ke hath mein hira rakh diya bola bhayya, wo wala unt de do aur baqi paise bhi unt wale ne hire ko thonk peet kar dekha, bola ye kya hai? —yah hira hai, bap ne kaha—ismen unt kaise kharidoge? unt wale ne puchha are, ye to panch sau rupye ka hira hai tumhara unt to do aane ka hai de do wo wala unt jaldi se baqi paise bhi lautao
—oont wale ne nak bhaun sikoDte hue us gharib adami ke hath mein hira wapas rakh diya ghusse mein bola—kya bak rahe ho abhi das minat pahle hi rampur ke raja ne ek hazar rupye mein mera ek unt kharida hai main to ab hazar rupye ka hi unt bechunga
—yah baat sun kar bechare laDke ki sans ruk gai uske bap ko bhi bahut dukh hua use ghussa bhi aaya lekin karta kya? wo apne laDke ka hath pakDe chupchap aage baDh gaya, hire ko mutthi mein bandhe bhukhe bap bete pair ghisatte hue chalne lage
—bus, yahi hai kahani durga chup ho gaya
thoDi der charon taraf murdani chhai rahi kuch der baad un logon mein se kisi ne puchha—yar durga, kahani to theek hai par tu ye bata, do do aane mein bikne wale unt ko us raja ne ek hazar rupye mein kyon kharida tha? kya us raja ko yar us raja ko is baat ka pata lag gaya tha ki wo ganw ka gharib laDka bhi unt kharid lega?
kisi aur ne sawal ka samarthan karte hue puchha—han, durga, us raja ne aisa kyon kiya tha?
durga ne is beech biDi sulga li thi baDe dada ne bhi kash khinchta hua durga bola—main kya janun, yar mujhe kya pata, raja ne do aane ka unt ek hazar mein kyon liya tha?
—main janun main janta hoon baDe dada ne puri taqat ke sath biDi zamin par de mari aur zor zor se chillate hue uth kar khaDe ho gaye, jaise baukhla gaye hon unka jism kanp raha tha
mainne kas kar unki banh pakaD li unhen jaise samjhate hue dhire se bola—baDda, aap dhiraj rakhiye ye log ye sab log bhi aap hi ki tarah jaan jayenge baDe dada ab bhi kanp rahe the pata nahin kyon meri ankhen DabDaba i theen andhere mein hi mainne bayen hath se ankhen ponchh leen
pichhle station se rail ke chhutne ki ghanti baj uthi, andhere ko chirti hui tan tan
chhote dada man ko jagane lag gaye the—man, utho, gaDi aa rahi hai kahin door par murgha bang dene lag gaya tha
man angan mein charpai par leti hui thi meri awaz sunkar uth baithin mainne attachi charpai ke pas hi rakh di man ke pair chhue aur unke pas baith gaya man mere pas sarak i, apne donon panje mere galon par rakh diye aur ruansi ho gai
baDe dada aur bachche bhitar khana kha rahe the awaz sunkar angan mein aa gaye chhote dada bhi aaye hue the bachche juthe hathon se aakar chipat gaye main uthkar khaDa ho gaya man bolin—hath munh dhokar khana kha lo, safar mein thak gaye honge
—maze mein hain tumko yaad karte rahte hain chhote dada ne kaur munh mein rakhte hue kaha dal mein namak kam tha mainne thoDa namak lekar dal mein ghol liya baDe dada bole—tar mil gaya tha?
—han
—mainne socha tha, tum parson hi aa jaoge
—chhutti nahin mili
unhonne kaur chabate hue meri taraf dekha kuch kuch narazgi ke sath bole—tumhari ye shikayat kabhi door bhi hogi?
—main kya kar sakta hoon? factory ke niyam hi aise hain naukari bhi to karni hai
unhonne gilas uthakar munh se laga liya bachche khana kha chuke the baDe dada uthe, bahar jakar hath dho aaye khuti par tangi hui qamiz ki jeb mein se biDi nikalkar sulga li, diwar se peeth satakar baith gaye chhote dada bhi khana khatm kar chuke the, magar wahin baithe rahe
biDi ke chaar chhः kash lagakar baDe dada bole—tumhen pata hai, do sal baad tum ghar aaye ho?
—man ki tabiat theek hi to hai aapne tar kisaliye diya tha?
meri katori mein dal khatam ho gai thi mainne thoDi dal aur lekar usmen namak mila liya
—kya man ke marne ke baad hi aane ka irada tha?
—baDe dada, aap bhi kya baat karte hain main janbujhkar thoDe yahan nahin aata hoon? mainne gilas ke bache pani mein hi ungliyan Duba deen
—to tum hi batao, ye bhi to naukari karte hain magar sal mein ek bar haal to poochh jate hain tumhare to biwi bachche bhi nahin hain
mainne koi jawab nahin diya chhote dada ko shayad laga ki main in sawalon se dukhi ho gaya hoon wo jaise sthiti ko sambhlate hue bole—meri to sarkari naukari hai na dada chahe jab chhutti le sakta hoon, kisi na kisi bahane praiwet mein diqqat hoti hai
baDe dada ne biDi ka tonta zamin par ragaD diya meri taraf phisalti nigah se dekha bole—tum kabhi shishe mein apni shakl bhi dekhte ho?
unka sawal sunkar mujhe hansi aa gai mujhe hansta dekhkar chhote dada aur pas mein baithe hue bachche bhi hans paDe bhabhi chulhe ke pas hi baithi khana kha rahi theen shayad dal khatm ho gai thi har dusre tisre kaur ke sath wo kurr karke pyaz kutar rahi theen baDe dada ne aage pair pasar liye the mainne unki taraf dekha unki khopaDi bilkul ganji ho gai thi aur gal khase pichak gaye the mere bhitar kuch hil sa gaya mainne unse kaha—baDda, apaki sehat kafi gir gai hai
unhonne uthkar jeb mein se ek biDi aur nikal li bole—tum apni par to dhyan do dekhi hai, shakl kaisi nikal i hai, bijjuon jaisi isiliye to kahta hoon, shishe mein apni shakal dekh liya karo
main baDe dada ke bare mein sochne laga mujhe theek se yaad bhi nahin hai, mere pita kab mar gaye the mujhe pala posa baDe dada ne hi chhote bhai ki tarah nahin, apne sage bete ki tarah, mujhe hi nahin, chhote dada ko bhi hamein paDhaya likhaya kaam dhandhe ke layaq banaya jab mere pita chal base the tab unki umr sirf satrah sal ki thi aur sal bhar pahle hi unki shadi ho chuki thi magar jayadad mein apna hissa lekar wo alag nahin ho gaye the pariwar ke sare bojh ko kandhon par dhar liya man, chachi, do chhote bhai, biwi sabhi ko samete rakha chachi ki maut mitti ki, chhote dada ki shadi ki, is sabke badle mein kisi se kuch nahin chaha apne hi sir ke baal uDa liye gal pichka liye zillaten sahin magar shu nahin kiya is sabke beech itna zarur hua ki pita ki chhoDi hui jayadad dhire dhire sarakne lagi qarzdari baDhne lagi phankon ne hamari dahliz mein jhankna shuru kiya tagadon ki awazen buland hone lagi beech bazar mein unke gireban param jabut panje pasarne lage phir bhi unhonne pichhe muDkar nahin dekha aage chalte gaye, donon kandhon ko bojh se dabaye hi
main uthkar bahar angan mein aa gaya mere pichhe chhote dada bhi aa gaye man lete lete mala pher rahi theen mujhe dekhkar charpai par ek taraf ho gai main unke pas baith gaya chhote dada samne wali charpai par baith gaye man ne mala samet kar takiye ke niche rakh di bolin—khana kha liya? khaya kya hoga, koi sabzi bhi to nahin thi mainne man ke kandhe par hath rakh diya
bhabhi bhitar chauka saf kar rahi theen bachche shayad sone ki taiyari kar rahe the baDe dada uthkar aaye samne wali charpai par baith gaye bhitar ki raushani bahar angan mein paD rahi thi behad mamuli si shaklon ki shinakht bhar karne layaq baDe dada thoDi der chupchap baithe rahe phir charpai par let gaye chhote dada ne mujhse puchha—tumhari factory mein kitne adami kaam karte hain?
—sat sau
—sat sau? bahut baDi factory hogi
—aur kya
—baDe dada ne lete lete puchha—tumhari tankhah baDhi hai ki nahin?
—baDhi hai atharah rupye?
—bus panch sal mein atharah rupye?
—par sal hi to main parmanent hua hoon malik harami hai
—kya kahta hai? chhote dada ne puchha
—kahta kya hai? warkars ke sath berahmi dikhata hai dhamki do to union ke netaon ko kharid leta hai ya sir phuDwa deta hai
sir phutne wali baat se shayad baDe dada chakra gaye jhat se uth baithe us jhini raushani mein meri taraf ghaur se dekhne ki koshish ki bole—tum in jhanjhton mein paDte to nahin ho n? alag hi raha karo
—baDda, aap bhi kaisi baat karte hain har adami isi tarah alag rahega to haq ke liye laDega kaun?
chhote dada shahr mein naukari karte hai wo meri baat samajh gaye mera samarthan karte hue bole—union ke kamon se aise alag rahkar kaam nahin chalta dada
baDe dada phir let gaye bole—so to theek hai, phir bhi hoshiyari se kaam lena chahiye chhotu wahan rahte bhi akele hain na
man ko shayad neend aa rahi thi, unhonne bhi yahi takid duhra di aur ankhen moond leen bhitar bhabhi bhi kaam se nipat kar bachchon ke pas hi so gari theen thoDi der charon taraf chuppi chhari rahi
lete lete hi achanak baDe dada bole chhotu mainne wo bachi hui zamin bech di hai
mainne koi jawab nahin diya tar pane ke baad mujhe jo khayal aaya tha wo theek hi tha chhote dada ne jaise khulasa kiya—bech dena hi theek tha warna bekar mein byaz chaDh jata phir to zamin bechkar bhi qarza chukana mushkil ho jata
—tum logon se puchhe bina hi ye faisla le liya baDe dada ke swar mein ranj tha
—hamse puchhte to hum bhi yahi salah dete
—karta kya, qarzdar meri jaan khaye ja raha tha
—khair chhoDiye, phikar karne ki koi baat nahin
man ne karwat badli unki neend uchat gai theen ya lete lete wo chupchap hamari baten sun rahi theen bolin—tumhare pitaji ki wo akhiri nishani thi wo bhi chali gai
baDe dada uth kar chupchap baith gaye mainne man ko DhaDhas diya—nishani wishani kuch nahin hoti man pitaji ne hamari hi zaruraton ke liye hi to zamin rakhi thi
baDe dada uthkar bhitar gaye ghaDe mein se pani lekar piya biDi sulgai wapas aakar charpai par baith gaye biDi ke do chaar tez kash khinche aur apne aap baDbaDane lage—hamari zaminen itni jaldi nahin biktin lekin aadhi to sood par hi chali gai ganw mein aur koi bhi to nahin hai qarza dene wala yahi sala akela ibbu hai iska byaz to aag jaisa hai jalakar rakh kar dene wala sal bhar guzra ki nahin, qarze ki raqam duguni ho jati hai zarurtaman kare bhi kya isi tarah qarz leta rahega, isi tarah apne aap ko bechta rahega ye harami ibbu ganw mein kisi ko zinda nahin chhoDega sab ko kha jayega
chhote dada ko shayad neend aa rahi thi, bole—dada, jakar so jaiye kal subah taDke uthna bhi to hai pahli bus se jana hi theek rahega
—han chhotu, kal chalna hai registrar aafis ko mainne chaar panch din pahle hi kaghzat taiyar karwa liye hain bus tumhara intizar tha tumhara tar milne ke baad wakil ke karinde se bhi kah diya, kal subah chalne ke liye ganw walon ka bhi kya bharosa kharidar ke koi kan bhar dega to wo mukar na jaan phir aur kisi ko kharidne bhi nahin dega isliye registry kal hi ho jani chahiye kya khayal hai? subah ki bus se chaloge to sham tak laut ayenge warna raat ho jayegi man ko bhi to sath chalna hai na raat ho jayegi to inko takliph hogi unhonne biDi ka tonta phenk diya, uthe, sone bhitar chale gaye man ne pairon ke pas paDa hua kanbal kheench kar oDh liya chhote dada dusri charpai par pasar gaye main man ki baghal mein hi sikuD gaya
machchharon ki wajah se raat ko theek se neend nahin lagi sabere Dhang se ankh lagi ki bhabhi ne jaga diya baDe dada shayad wakil ke karinde ke pas gaye hue the man kanbal oDhe mere pas wali charpai par baithi honthon mein kuch budbuda rahi theen chhote dada shayad datun kar rahe the mujhe jagakar bhabhi bolin—lala utho, jana nahin hai?
mainne ankhen malin dekha, pas ke neem ke peD par aath das chiDiyan chahak rahi hain neem ki patli si tahniyan halki si hawa ke jhonkon ki wajah se haule haule jhool rahi hain mainne awaz di—bhabhi, kya chay ban sakegi? bhabhi ne koi jawab nahin diya shayad meri awaz suni nahin ho main uthkar bhitar gaya bachche teDhe meDhe so rahe the bhabhi aata goondh rahi theen mainne dubara puchha—chay nahin banaogi?
itne mein chhote dada andar aa gaye shayad unko bhi chay ki talab lagi thi bhabhi bolin—patti hai aur guD bhi doodh aane mein deri hogi
mainne chhote dada se puchha—bina doodh ki chay pi lenge aap? waise hoti shanadar hai bhabhi se mainne chulha jalane ko kaha aur khu chay banane baith gaya
baDe dada aa gaye bhabhi ko aata gundhte dekh kar baras paDe—abhi tak tumne kuch banaya nahin hai? hum kya das baje tak yahin baithe rahenge? mainne unhen bhi thoDi si chay di bhabhi parathe senkne lagin baDe dada se bolin—le jane ke liye bhi chaar chhah parathe sek hoon? achar ke sath kha lena manji bahar ka khana khayengi bhi nahin
main hath munh dhokar taiyar ho gaya hum logon ne nashta kiya man ne sirf aadha paratha khaya unka chehra utra hua tha mainne socha, shayad unhen apne pati ki yaad aa rahi hogi unki chhoDi hui zamin ka akhiri tukDa bhi to bika ja raha hai man ne pani piya aur mala lekar baith gayin
bhabhi ne parathe ek purane akhbar mein lapet kar jhole mein rakh diye ek khali lota bhi sath mein rakh diya, pani wani pine ke liye man ne kahkar usse apni shaal bhi rakhwa li jhola hath mein lete hue baDe dada ne bhabhi se puchha—ham panch janon ke layaq khana rakh diya hai n?
—panch kaun, hum chaar hi to hain? mainne puchha
—wah wakil ka karinda bhi sath chal raha hai na usi ne to kaghzat taiyar kiye hain zamin ke rupye bhi to wahi sath layega
man ki taraf dekh kar baDe dada ne kaha— man chalen?
mainne man ki taraf nahin dekha chhote dada aur main bahar aa gaye man baDe dada ke sath chalne lagin bahar aakar bolin—bekar mein jayadad mein mera hissa bhi likha gaye hain warna mere ye bar bar ke chakkar nahin hote ganw mein fajih alag se mainne hi kaun si jayadad bacha li hai?
kisi ne unki baat ka koi jawab nahin diya chupchap chalne lage teen sal pahle, sardiyon mein man ke dahine hath aur pair par lakwe ka jo hamla hua tha, uska asar ab tak tha wo dahine hath se pani ka bhara lota bhi Dhang se utha nahin pati theen aur chalte hue dahine pair ko ghasit kar chalti theen inke ilaj ke liye dada ne jo paisa udhaar liya tha, uska bhi ek hissa tha zamin ki bikri mein pata nahin chhote dada kya soch rahe the lekin unke sath chalte hue mere dimagh mein yahi sari baten kulbula rahi theen
hum log bus ke samay se pahle hi aDDe par pahunch gaye lekin wo wakil ka karinda ab tak nahin pahuncha tha baDe dada wyagr hokar uski rah dekhne lage chhote dada ko bhi bechaini hone lagi man bhi mala pherne ke dauran beech beech mein uske na aane ki wajah puchhne lagi main thoDe se ghere mein chahalkadmi karne laga hum log uski rah dekh hi rahe the ki bus i aur nikal gai baDe dada ki bechaini baDh gai wo bar bar biDi sulgane aur baDbaDane lage pata nahin kya baat ho gai subah bhi main usse mila tha, usne aisi koi baat nahin kahi thi to ab aaya kyon nahin? sale ibbu ne to koi aDanga nahin aDa diya hoga
chhote dada do chaar bar jij~nasa dikha kar gumsum ho gaye main man ke pas baith gaya baDe dada pas mein paDi hui baDi si chattan par ukDun baithkar bechaini se thukne lage chhote dada ne use door se aate hue dekh liya utsah mein uchhal kar bole—dada, wo aa raha hai ye baat sunte hi unhonne ungliyon mein phansi hui biDi pare phaink di, tezi se uth kar khaDe ho gaye wo apni baDi si beDhab tond ko jhulata hua hathi ke bachche ki tarah chala aa raha tha
uske pas aate hi dada lapak paDe—kya baat ho gai thi chacha? baDi ankhe dukhai tumne tez chalne ki wajah se wo shayad thak gaya tha usi chattan par baith kar hanphane laga beech beech mein dant aise chalane laga jaise jugali kar raha ho mainne dekha uski qamiz ki jeb behudgi ki had tak baDi hai aur usmen tarah tarah ke kaghaz thunse hue hain usne jeb mein teen chaar rang birange pen laga rakhe hain hath mein ek jhola hai jo shayad kaghazon se hi bhara hua hai usne sans dhimi ki aur bola—kya karta, ibbu ne rupye dene mein deri kar di subah sat baje hi main uske ghar pahunch gaya tha lekin paise walon ke nakhre tum jante hi ho isi mein deri ho gai chalo koi baat nahin, agli bus se chalenge baDe dada ne ek biDi aur sulga li
registrar ke daftar par jab hum pahunche to dopahar ke khane ka samay ho gaya tha sahab khana khane ghar chale gaye the donon clerk daftar mein hi baithe khana kha rahe the aur samne baithi hui typist laDki ko dekhe ja rahe the chaprasi stool par baitha biDi pi raha tha hum log wahan pahunche to wo uth kar khaDa ho gaya aur hamare sath wale adami ko baDe josh se namaste ki usne hamari taraf bhi musakrati nigahon se dekha shayad use hamari shinakht ho gai thi pichhle das salon mein ye panchawi ya chhathi bar hum log wahan gaye the isi tarah teen bhai aur man han, pahle ekadh bar hamari chachi bhi sath theen jo hamari hi tarah biki hui zaminon ki haqdar theen lekin wo bar bar ye zahmat uthane se bach gain aur chal basi theen inhin sari baton ke sath hi ye sawal bhi mere dimagh mein chakkar katne laga ki sarkar ko ye kya sujhi ki itne mamuli se qasbe mein registrar aafis khol rakha hai kya aur koi jagah nahin mili hogi? sab kuch hasyaspad tha main sochta rah gaya
bus se utar kar yahan tak paidal chalne ki wajah se man thak gai theen unhen pyas lag i thi aur shayad bhookh bhi mainne man se puchha—man, khana khaogi?
ye baat sun kar hamare sath ke karinde ne apni phaili hui jeb mein se kaghazon ka pulinda nikala aur uske beech mein tah karke rakhe hue noton mein se ek das rupye ka patta baDe dada ki taraf baDhate hue bola—tum log ja kar pas ke Dhabe mein khana kha lo ab hamara kaam to Dhai baje hi hoga main sahab ke ghar ja kar kah dunga ki hamara kaam zara jaldi kar den aafis mein kahna theek nahin rahega usne meri taraf dekh kar muskra diya jaise ye kahna chahta ho ki hatheli ki garmi ko tumhare shahron ke daftar wale hi nahin, hamare ganwon aur qasbon ke daftar wale bhi jante pahchante hain
baDe dada ne not nahin liya bole—ham khana le aaye hain chhote dada ko shayad uska not dena achchha nahin laga wo awaz mein kuch turshi bharte hue bole, hamari taraf se tum hi rakh lo chacha tumhein bhi to khana khana hai shayad uski samajh mein baat nahin i wo heen heen karke hansne laga jab wo sahab se milne ke liye usi tarah jhulta chala gaya, chhote dada hikarat se bole—haramazada, khana khane ke liye hamein paise dene laga hai logon ke kaghaz pattar likh kar chaar paise kya kama liye hain, sale ka dimagh phir gaya hai wo din bhool gaya jab iski man hamare ghar par anaj bina karti thi, do june roti ke liye ssala meri samajh mein nahin aa raha tha ki achanak wo is tarah ghussa kyon ho rahe hain, apni fitrat ke khilaf main sochne laga, pita ki sari zamin ke bik jane ka unhen jo dard ho raha hai, use wo jhel nahin pa rahe hain pyas ki wajah se man ka gala sookh gaya tha wo dhire se khansane lagin baDe dada bole—chalo, samne ke baghiche mein chal kar khana kha lete hain ibbu sale ki wajah se itni deri ho gai warna ab tak kaam pura ho gaya hota, do baje wali bus se laut bhi jate man ko chalne mein taklif ho rahi thi wo aaj apni shakti se baDhkar chal chuki theen chhote dada ne unki banh pakaD li aur dhire dhire chalne lage hum log saDak par karke baghiche ke pas aa gaye baDe dada wahin khaDe mali ko unchi awaz mein pukarne lage aath das awazon ke baad mali ne jawab diya
—kya hum kune par baith kar khana kha len?
—a jaiye, ismen puchhne ki kya baat hai?
mali ko azad hindustan ki hawa abhi nahin lagi hai main dhire dhire chalte hue sochne laga
—tumhare yahan ka kutta baDa khatarnak hai bhai baDe dada ko kutton se nafar thi aur Dar bhi
—Dariye nahin, wo kuch nahin karega main jo aap se baat kar raha hoon
mali ne hi kuen se ek balti pani nikal kar diya hum logon ne hath munh dhoe man ne khane se pahle hi lota bhar pani pi liya hamne khana khaya ab bhi man ne aadhe parathe se ziyada nahin khaya wo khali pani piti rahin baDe dada ne kulla kiya sarak kar peD ke tane se sat kar baith gaye biDi sulga lee? mainne jhole mein se shaal nikal kar zamin par bichha di man ko thoDi der aram karne ke liye kaha baDe dada biDi pite hue peD ke patton ki taraf dekh rahe the bole—chhotu, ab tumhein apni adten sudharni hongi dekh rahe ho na, bitta bhar zamin bhi ab hamari nahin rahi hai mainne unke chehre ki taraf dekha laga jaise hawaiyan uD rahi hain mainne gardan jhuka li unhen kisi tarah ka jawab dene ki himmat nahin paD rahi thi unhonne biDi phenk di kuch rukhen swar mein bole—samajh rahe ho, main kya kah raha hoon?
—ji
—ji ji se kaam nahin chalega, hamein apne pitaji ki zamin wapas kharidani hai ye tum donon se hi ho sakta hai
—ap apne yahan ke ibbu haramzade ka kaleja phaD dijiye main apni factory ke malik ki botiyan noch lunga aur ye ye apni sarkar ki gardan kat denge tabhi hum apne pitaji ki zamin wapas kama sakte hain khat kar sakenge ibbu ko aap?
main uthkar khaDa ho gaya mera jism halka sa jhool raha tha shayad ghusse ke atirek ki wajah se main ja kar thoDi der kuen par khaDa raha, phir laut aaya baDe dada usi tarah chupchap baithe hue the man shayad meri kaDakti awaz sun kar ghabra gai theen wo uthkar baith gain kafi der tak koi kuch nahin bola baDe dada ke latkaye hue chahere ko dekh kar chhote dada ko rahm ho aaya tha wo dhimi awaz mein bole—dada, chhotu theek hi kah rahe hain in halaton mein koi bhi apni khoi hui zamin dubara kharid nahin sakta aap hi soch kar dekhiye, hum log bhala zamin kaise kharid sakte hain?
baDe dada kuch nahin bole jaise gahri soch mein Doob gaye hon, chhote dada ne man ko banh pakaD kar uthaya baDe dada ki taraf taras khati nazron se dekha bole—chaliye, kafi der ho gai hai daftar mein kaam shuru ho gaya hoga
hum log daftar mein dakhil hue pata chala, sahab abhi nahin aaye hain khana kha kar ghar par aram kar rahe hain unka kamra ab bhi band tha samne ke kamre mein donon babu baithe hue the ek ke aage baDa sa register phaila hua tha jis par wo kuch likh raha tha, dawat mein kalam Dubo Dubo kar dusra babu pan chabate hue koi kaghaz bahut dhyan se paDh raha tha bain taraf ki khiDki ke pas baithi typist bahut mamuli si raftar ke sath kuch type kar rahi thi type mein shayad uska man nahin lag raha tha wo beech beech mein khiDki ke bahar jhank rahi thi us khiDki ke sath hi baramde mein bane hue lambe se chabutre par hamare sath wala karinda leta subah ki tarah jugali kar raha tha chaprasi uske pairon ke pas baitha usse baten kar raha tha us chabutre ke ru ba ru, baramde ke dusri taraf bane hue waise hi lambe chabutre par koi panch chhah log chupchap baithe hue the theth ganw ke log shayad we bhi apni zamin jayadad ki bikri ke silsile mein aaye hue the
hamein dekhte hi karinda uth kar baith gaya chaprasi pare hathkar khaDa ho gaya shayad us par meri aur chhote dada ki patlunon ka rob paD raha tha karinde ne puchha khana kha liya?
chhote dada ne man ko ek taraf bitha diya man ne mala ferni shuru kar di unhonne kisi taraf koi khas dhyan nahin diya baDe dada ne karinde se sahab ke bare mein puchha usne jugali band ki bola—sab theek ho gaya hai sahab abhi aane wale hain, pahle hamara hi kaam hoga baDe dada uski baghal mein baith gaye unki baghal mein chhote dada main khiDki ke pas khaDa ho gaya samne ke chabutre, par baithe hue log usi tarah gumsum the
sahab jab aaye to dhoop kafi phiki paD gai thi saDhe teen ke qarib ka samay tha unhen door se aate dekh kar chaprasi ne bhag kar unke kamre ke kiwaD khol diye donon chabutron ke log uth kar khaDe ho gaye sirf man baith rahin, usi tarah mala pherti hui hamare sath wale karinde ne ek bar phir kas kar sahab ko salam kiya unhonne us par nazar Dali to unhonne honthon par khili hui muskurahat ko chusti ke sath bhitar lapet liya, apne kamre mein chale gaye ghanti bajai bhag kar chaprasi unke kamre mein gaya pal bhar ke baad laut aaya dhimi awaz mein hamare sath wale karinde se kuch kaha laut kar babuon wale kamre mein chala gaya
karinde ne apne jhole mein se kaghaz nikale jaldi mein unhen ek bar ulta pulta tez qadmon se ja kar pan chabane wale babu ke aage kaghaz rakh diye samane wale chabutre par baithe hue logon mein bhi ab chahl pahal aa gai theen unmen se ek adami apne jhole mein se kuch kaghaz nikal kar dekh raha tha main jidhar khaDa tha, udhar se sahab ke chehre ki jhalak mil rahi thi mainne dekha, mujhe unka dhaD aur mota sa sir hi nazar aa raha tha bahut ghaur karne par bhi unki gardan ka kahin namo nishan nahin tha
kafi der baad chaprasi ne aakar hum longon ko andar chalne ke liye kaha
hum log babuon wale kamre mein pahunche, chaprasi ne ek chhoti si mez par baDa sa khula register lakar rakha us par khane bane hue the pahle do teen khanon mein kuch likha hua tha akhiri khanon mein hum logon ko dastakhat karne the pahle khane mein man ko, uske niche wale mein baDe dada ko, tisre mein chhote dada ko aur chauthe mein mujhe isi kram se hamare nam darj the man dastakhat karna nahin janti theen baDe dada ne chaprasi ko bataya baghal ki mej par se baDa sa roshanai ka pad utha laya man ke dahine hath ka angutha apne hath mein le kar usne pad par ragaD kar kala kiya man ko apna angutha ekdam Dhila chhoD dene ki hidayat ki aur sabse upar wale khane mein anguthe ka baDa sa nishan laga diya nishan lagate hue man ka angutha kanp raha tha chaprasi ne register ka panna palta us panne par bhi sabse upar wale khane mein man ke anguthe ka nishan lagaya aur isi tarah tisre panne par bhi uske baad usne baghal mein paDe hua khurdara kala kapDa utha kar man ko diya, apna angutha ponchh lene ke liye mainne wo kapDa apne hath mein le kar man ka angutha achchhi tarah ponchha aur unhen bahar chabutre par la kar bitha diya
mainne dekha, man ka chehra kasa hua hai aur unke hath zahir taur par kanp rahe hain wo apne pallu se ankhen ponchhne lagin
hum tinon bhaiyon ne tinon pannon par apne dastakhat kar diye hamein bhi dastakhton ke niche apne anguthon ke nishan bhi lagane the sarkar ki ehatiyati soojh par mujhe khushi ho i kahin to wo sajag hai ye sab kar kara kar hum log bhi bahar chabutre ke pas aa gaye baDe dada ka chehra bhi khasa kasa hua tha unke galon ke gaDDhe kuch aur dhanse hue lag rahe the wo chupchap baithe rahe chhote dada man ke pas jakar baith gaye hamare sath wala karinda babuon ke kamre mein hi khaDe kuch baten kar raha tha hamare samne wale chabutre par baithe hue logon ko bhi yahi sab karna tha unmen se do adami uth kar chaprasi ke kahne par andar gaye
koi pandrah bees minat baad hamein sahab ke kamre mein jane ke liye kaha gaya hum log jakar sahab ki baDi si mez ke ird gird khaDe ho gaye man ke aur baDe dada ke chehron par ab tak bhi sahajta nahin aa pai thi sahab ke aage wahi register phaila hua tha jis par hum logon ne dastakhat karke anguthe ke nishan lagaye the sahab thoDi der kuch paDhte rahe, phir gambhir awaz mein bole—subhrda dewi aap hi hain?
—ji man ki awaz laDkhaDai
—ramgopal?
—ji, main baDe dada bole
—harishran?
—ji, main chhote dada ne kaha
—radheshyam?
—main hoon mere andar ka shahr kulbulane lag gaya tha
—kya aap logon ne zamin apni marzi se bechi hai?
—ji baDe dada ne uttar diya
—kitne mein?
—chaar hajar nau sau pachas mein
—ap logon ko rupye mil gaye?
—ji, mil gaye
—ab aap log ja sakte hain sahab kursi ki peeth par pasar gaye
hum log bahar aa gaye hamare sath wala karinda chabutre par baitha kaghaz ke tukDe par kuch likh raha tha baDe dada uski baghal mein baith gaye mainne chhote dada se puchha—ab hum log ja sakte hain n? unhonne meri taraf dhyan se dekha angrezi mein bole ki wo bhi sab kuch se kafi ub gaye hain mainne jaise khu ko santwana dete hue kaha—chaliye, ye akhiri ub hai wo hans paDe khasi phiki si hansi goya mujh par taras kha rahe ho ki bachchu, is ub ko to akhiri kah rahe ho, baqi rozmarre ki ubon ka kya karoge? main khiDki mein se typist laDki ko dekhne laga
ye karinda kaghaz ka tukDa baDe dada ke aage karke unhen samjhane laga—ibbu se liya hua paisa, ek hazar chhah sau do sal ka byaz, aath rupye saikDa har mahine ki dar se teen hazar bahattar meri fees, pachas rupye sahab ko diye hue sath rupye, daftar walon ko, aath rupye kul chaar hajar aath sau das rupye baqaya ek sau chalis tumhein milne hain usne apni phaili hui jeb mein se tatol kar noton ki gaDDi nikali aur das das ke chaudah not gin kar baDe dada ke hath mein pakDa diye mainne dekha, rupye lete hue baDe dada ke chehre par kali si jhani tharthara uthi hai is beech wo karinda phir jugali karne lag gaya tha baDe dada ne rupye jeb mein rakh liye karinde ne kaha—tum log jao chhah baje akhiri bus hai, usse chale jana mujhe thoDa kaam hai main kal sham tak ghar pahunchunga
hum log dhire dhire chalkar bus aDDe par aa gaye raste bhar koi kisi se kuch nahin bola man ne sirf itna kaha—meri ankhon ke samne hi tumhare pitaji bhi chale gaye unki zamin bhi chali gai unka gala bhar aaya tha is par bhi kisi ne kuch nahin kaha
bus stand par baithe baithe sat baj gaye chhah baje wali bus nahin i thi man ne is beech do bar pani piya mala pherti hui baithi rahin bari bari se main aur chhote dada idhar udhar jakar bus ke bare mein daryaft kar aaye aur log bhi hamari tarah the kisi ne bataya, bus kahin raste mein kharab ho gai hogi na bhi aaye to koi baDi baat nahin
baDe dada ki pareshani baDh gai man ko aram ki zarurat thi bus nahin ayegi to raat ko saDhe gyarah baje mel milega mausam kharab hai raat mein halki si thanD paDne lagti hai man ko pareshani hogi kya kiya jay? wo baDbaDane lage
saDhe aath baj gaye the qasbe ka mamuli sa astitw jaise raat bhar ke liye andhre mein khota ja raha tha aDDe ni ikke dukke log hi rah gaye the mainne sujhaya, station chalenge man niDhal ho rahi theen station qasbe ke bahar tha lagbhag sunsan ilaqe mein hum logon ne tanga kar liya tange mein baithne se pahle baDe dada ne apne liye biDi ka banDal aur machis li ek darjan kele kharid kar jhole mein rakh liye station par kuch bhi to nahin milta hai man ne dopahar ko kuch nahin khaya hai wo bole
station bahut chhota sa tha aur ujaD tha ticket ghar aur station master ke kamron mein maddhim si raushani thi aur kahin raushani ka nam nahin tha pletfarm un donon kamron jitna hi phaila hua tha jis par teen ki chhat thi pletfarm ke idhar udhar kafi jagah thi, magar khuli hui wahan bhi raushani nahin thi pletfarm par anaj ke ya kisi cheez ke bhare bore paDe hue the, betartib chhat ke niche ki sari jagah unhin se ghiri hui thi shayad ek kone mein kisi aur cheez ke bore paDe hue the jinse ek tarah ki tikhi badbu aa rahi thi mainne socha, shayad kachche chamDe ke bore honge us badbu mein wahan baithna sambhaw nahin tha, khaskar man ke liye isliye, ek taraf khule mein baithne ke siwa koi chara nahin tha man ki banh pakaD kar unhen rasta dikhate hue chhote dada chalne lage baDe dada ne das rupye ka not nikal kar mujhe diya, ticket kharidne ke liye tikatghar mein babu so raha tha mainne station master se jakar puchha usne bataya, gyarah baje ticket milegi mainne puchha—yahan koi weting room nahin hai? usne gardan uthakar meri taraf dekha meri patlun par nazar Dali gardan jhuka li mujhe uska rukh achchha nahin laga mainne angrezi mein kaha—yatriyon ko asuwidha hoti hai usne dubara meri taraf dekha angrezi mein hi bola—chunaw laDkar mantari ban jaiye, phir is par sochiye usne thahaka laga diya
man shaal oDh kar dubki baithi theen mainne kaha—abhi gaDi aane mein kafi der hai, man ke sone ka intizam hona chahiye
baDe dada bole—so kaise sakti hain, bichhane ke liye kuch bhi to nahin hai
man bolin—main theek hoon, tum log phikar mat karo hum log bhi man ke sath zamin par baith gaye
hum logon se thoDa sa hatkar kuch logon ki awazen aa rahi theen hansne ki, baten karne ki mainne dhyan se dekha andhere mein kisi ka chehra nazar nahin aa raha tha main uth kar un logon ke pas gaya koi chhah sat log ek dasure ki baghal mein lete baten kar rahe the meri aahat pakar we chup ho gaye mainne jhuk kar unki taraf dekhne ki koshish ki phir bhi kisi ka chehra saf nazar nahin aa raha th mainne puchha—kya aap log bhi gaDi ke liye baithe hain?
ek ne kaha—nahin, hum to yahin ke hain railway line ka kaam chal raha hai na, din mein kaam karte hain, raat ko yahin soe rahte hain
main un logon ke pas ukDun baith gaya puchha—mel kitne baje ayega?
—barah baje tak aa jayega
—barah tak?
—apko kahan jana hai? unmen se teen chaar log uth kar baith gaye the
—yahi, chaar panch station chhoD kar, udhar
we log chup ho gaye main bola—mere sath man aur do bhai bhi hain bus se jana tha bus nahin mili man ki tabiat theek nahin hai hamare pas kapDe bhi nahin hai
meri baat sun kar ek adami jhat se uth baitha apne sirhane tah karke rakhi hui sujni meri taraf baDhai bola—yah lijiye, kisi na kisi tarah thoDa samay hi to katna hai main dhanyawad dekar wahan se utha sujni duhri tah karke zamin par bichhai thi baDe dada ne kele nikal kar man ko diye unhen shayad bhookh lag rahi thi kele kha liye shaal oDh kar sujni par let gain
hum tinon ne bhi kele khaye we majdur log usi tarah baten kar rahe the beech beech mein thahake laga rahe the kahin door par kutton ke bhunkne ki awazen aa rahi theen asman par idhar udhar tare timtima rahe the mausam mein kuch khunki baDh gain thi
baDe dada ne biDi sulga li un logon mein se kisi ne biDi sulga li mainne awaz kuch unchi karke un logon se puchha—ap logon mein se kisi ko biDi wiDi to nahin chahiye? mujhe laga, bahut behude Dhang se kritaj~nata dikha raha hoon unko biDi chahiye nahin thi
baDe dada ne mujhse puchha—chhotu, kitne din ki chhutti le aaye ho?
—kal raat ki gaDi se chale jana hai
—aur tum? unhonne chhote dada se puchha
—main bhi kal parson mein chala jaunga
—tum logon ko kiraye ke paise chahiye n? wo bole
—nahin, mere pas hain main bola chhote dada ne kaha—unko bhi nahin chahiye
—in ek sau chalis mein se tum log bhi le sakte ho
mainne us andhere mein hi unka chehra dekhne ki koshish ki mujhe kuch nazar nahin aaya unki awaz ke kanpan ke siwa
main bola ruk ruk kar—baDda, aap phikar mat kijiye achchhe din ayenge
wo kuch nahin bole biDi ka tonta phenk diya
kahin kisi murghe ko ghaltafahmi ho gai thi wo bang dene laga sabera hone se pahle hi sawere ki utawli mein
pas ke logon mein se kisi ne puchha—babuji, kai baje hain?
mainne machis jala kar ghaDi dekhi paune das, mainne awaz di
un logon ko neend nahin aa rahi thi kisi baat par khilakhilakar hans paDe thoDi der baad chuppi chha gai aas pas ki jhaDiyon mein jhingur bol rahe the un logon mein se kisi ne kaha—abe ab shuru to kar sala har raat satata hai iske sath hi teen chaar logon ki awazen ek sath ain—han yar, ab shuru kar unmen se kisi ne hamari taraf awaz phenki—babuji, aap log to paDhe likhe hain koi kahani wahani sunaiye gaDi ke aane tak waqt kat jayega
—ai durga, tu suna sunoge babuji? unmen se ek bola
—zarur
thoDi der khamoshi bani rahi asman saf ho gaya tha taron ki sankhya baDh gari thi shayad durga bol utha—to suniye babuji ye kahani mainne bachpan mein apne dada se suni thi unko unke nana ne sunai thi
kisi ne awaz kasi—abe nana ke bachche, kahani to suna
durga ne gala saf kiya awaz buland ki kahne laga—ek ganw mein ek adami rahta tha bahut gharib
un logon mein se kisi ne phabti kasi—tere se bhee? ek zabardast thahaka laga durga naraz ho gaya—sale, tu beech mein bolega to main kahani thenga sunaunga
—abe chup rah, beech mein bolta kyon hai?
durga ne kahani shuru ki—han, to wo bahut gharib tha ek din wo kaam dham ki khoj mein nikal paDa paidal barah terah baras ka raha hoga raste mein bhookh lag i raat ko bhi kuch nahin khaya tha par karte kya? aise hi chalte rahe chalte chalte din Dhalne laga raste mein donon ne teen chaar jagah pani piya aur isi se santosh kar liya phuti kauDi to pas mein thi nahin, jo kuch kharid kar kha lete
baDe dada ko shayad kahani achchhi lag rahi thi
durga bole ja raha tha— bap beta kisi ganw ke pas pahunche ganw ke bahar koi mela laga hua tha nagaDe turhi ki awazen aa rahi theen laDke ke kan khaDe ho gaye usne apne bap se puchha awaz bap ne bhi suni thi bola, koi mela hoga mele ki baat sunkar laDka machalne laga bap ka hath pakaD kar bola, bapu mela dekhte chalenge unhen usi taraf jana tha bap man gaya bap beta udhar hi chal paDe thoDi der baad mele mein pahunch gaye bahut bhari mela laga tha tarah tarah ki chizen bik rahi theen tarah tarah ke khel tamashe ho rahe the bap ne laDke ko sare mele mein ghumaya bechara laDka nadidi ankhon se dekhta raha sham ho gai to bap ne laDke ka hath pakaD liya bola, chal, sham ho rahi hai, jaldi pahunchna hai par laDke ko mele mein maza aa raha tha wo apne bap ka hath pakDe hue idhar udhar dekhta hua malne laga
—ab wahin ek kone mein, ek peD ke tane se aath das unt bandhe hue the laDke ki nigah unton par paDi usne itne sare unt ikatthe kabhi nahin dekhe the usne bap ka hath pakaD liya bola, bapu un unton ko dekhte chalenge bap laDke ko lekar unton ki or chala
durga ko shayad talab lag gai thi usne kahani rok kar biDi sulga li do teen sutte mare baqi tukDa apne sathi ko pakDa diya phir kahani shuru ki—han, to we donon unton ke pas pahunche uton wala unt bech raha tha unchi awaz mein kah raha tha—unt le lo unt bikaneri unt gaDi khinchwa lo rahat chalwa lo zamin jutwa lo sawari kar lo unt le lo do do aane ka unt le lo
durga ka koi sathi thatha kar hans paDa—sale ki har kahani aisi hi hoti hai abe, do aane mein kahin unt milta hai?
—abe chup beech mein bakwas mat kar warna teri aqalmandi pichhe se nikal denge teen chaar logon ne tokne wale ko ek sath Danta wo chup ho gaya chhote ko neend aa rahi thi wo baithe baithe idhar udhar hone lage baDe dada ne ek biDi sulga li mainne asman ki taraf dekha
durga ne phir kahna shuru kiya to kya bata raha tha main? han to unt wala chilla raha tha, do do aane ka ek unt do do aane ka unt laDke ne unt ka dam suna to uske munh mein pani bhar aaya khushi ke mare uske pair zamin par tik nahin rahe the sochne laga, hamare pas unt hota to din bhar hum paidal kyon chalte? aram se us par baith kar chale jate usne bap ka hath pakaD kar khincha aur kahne laga—bapu, ek unt le lo hamare bahut kaam ayega bap ne laDke ko samjhaya, bete paise nahin hain lekin kahan manne laga machal gaya, bapu ek unt kharid do ab bap ko ghussa aa gaya usne laDke ka hath pakaD kar khinchte hue jhiDak diya—abe chupchap chal, unt kahan se kharidega? kal se khana nahin khaya
chalte chalte bap beta kafi door chale gaye bap aage aage chal raha tha laDka pichhe pichhe, laDka bahut thak gaya tha bechare ka chehra latak aaya tha uski ankhon ke aage unt hi dikhai paD rahe the ekayek laDke ko apne pairon ke pas koi cheez dikhai paDi chamakdar cheez laDke ne jhuk kar utha li qamiz se us par ki dhool saf ki wo aur ziyada chamakne lagi laDke ne bap ko awaz di—bapu, ye dekho, koi cheez mili hai bap ne pichhe muD kar dekha bap ne ulat palat kar dekha bola—bete, ye to hira hai laDka samjha nahin, bola—wah kya hota hai, bapu? bapu ne bataya—hira qimti cheez hota hai bete bap ko bahut khushi ho rahi thi bete ne puchha—yah kitne mein bikega bapu? bapu ne dubara ulat pulat kar dekha soch kar bola—yah to panch sau ka hai bete panch sau to mujhe kai unt dila do na bapu laDka tarasne laga bap ko bete par daya ho i bola, chal tere liye ek unt kharid deta hoon bap beta bhage bhage mele mein laut aaye mela uth raha tha log bag apne apne gharon ki taraf chal rahe the laDke ne uchhalte hue ek unt chun liya bola, wo wala kharid do bapu bap ko bhi wo unt pasand aaya usne unt wale ke hath mein hira rakh diya bola bhayya, wo wala unt de do aur baqi paise bhi unt wale ne hire ko thonk peet kar dekha, bola ye kya hai? —yah hira hai, bap ne kaha—ismen unt kaise kharidoge? unt wale ne puchha are, ye to panch sau rupye ka hira hai tumhara unt to do aane ka hai de do wo wala unt jaldi se baqi paise bhi lautao
—oont wale ne nak bhaun sikoDte hue us gharib adami ke hath mein hira wapas rakh diya ghusse mein bola—kya bak rahe ho abhi das minat pahle hi rampur ke raja ne ek hazar rupye mein mera ek unt kharida hai main to ab hazar rupye ka hi unt bechunga
—yah baat sun kar bechare laDke ki sans ruk gai uske bap ko bhi bahut dukh hua use ghussa bhi aaya lekin karta kya? wo apne laDke ka hath pakDe chupchap aage baDh gaya, hire ko mutthi mein bandhe bhukhe bap bete pair ghisatte hue chalne lage
—bus, yahi hai kahani durga chup ho gaya
thoDi der charon taraf murdani chhai rahi kuch der baad un logon mein se kisi ne puchha—yar durga, kahani to theek hai par tu ye bata, do do aane mein bikne wale unt ko us raja ne ek hazar rupye mein kyon kharida tha? kya us raja ko yar us raja ko is baat ka pata lag gaya tha ki wo ganw ka gharib laDka bhi unt kharid lega?
kisi aur ne sawal ka samarthan karte hue puchha—han, durga, us raja ne aisa kyon kiya tha?
durga ne is beech biDi sulga li thi baDe dada ne bhi kash khinchta hua durga bola—main kya janun, yar mujhe kya pata, raja ne do aane ka unt ek hazar mein kyon liya tha?
—main janun main janta hoon baDe dada ne puri taqat ke sath biDi zamin par de mari aur zor zor se chillate hue uth kar khaDe ho gaye, jaise baukhla gaye hon unka jism kanp raha tha
mainne kas kar unki banh pakaD li unhen jaise samjhate hue dhire se bola—baDda, aap dhiraj rakhiye ye log ye sab log bhi aap hi ki tarah jaan jayenge baDe dada ab bhi kanp rahe the pata nahin kyon meri ankhen DabDaba i theen andhere mein hi mainne bayen hath se ankhen ponchh leen
pichhle station se rail ke chhutne ki ghanti baj uthi, andhere ko chirti hui tan tan
chhote dada man ko jagane lag gaye the—man, utho, gaDi aa rahi hai kahin door par murgha bang dene lag gaya tha
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 28)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।