माँ जब तब कहा करतीं, “हमारे तो करम ही फूट गये हैं।”
हम सारी बातों का क्रम जोड़ लेते। माँ ने पिताजी से शाम और अगले दिन सुबह के लिए सब्ज़ियाँ या बाज़ार से कुछ और लाने को कहा होगा। पिताजी ने कहा होगा, “हाँ, हाँ। झोला और पैसे दे दो।” माँ ने पैसे और झोला उनके पास रख दिए होंगे पर पिताजी उठे नहीं होंगे। फिर माँ ने कहा होगा, “अरे पैसे और झोला रख दिए हैं।” “हाँ! हाँ! उठ रहा हूँ, यह ख़बर पढ़ लूँ।” पिताजी ने कहा होगा। “अरे मेरी अँगीठी की आँच बेकार जा रही है, यह ख़बर फिर पढ़ लेना, माँ के स्वर में हल्की चिड़चिड़ाहट रही होगी। पिताजी ने सुझाया होगा, “अरे तो रोटियाँ सेक लो न, आँच क्यों बर्बाद कर रही हो।”
लेकिन रोटियाँ भी सिक गई होंगी। तब पिताजी ने अख़बार से अपना ध्यान हटाए बिना कहा होगा, “अरे रोटियाँ भी सिक गईं! अच्छा तो कोई अचार या चटनी नहीं है। उसी से खा लेंगे।”
“तुम तो खा लोगे पर मल्लू और गुल्लू? सवेरे ही स्कूल जाना होता है उन्हें। कोई मक्खन और दूध नहीं मिलता उन्हें। सब्जी होगी तो दो-दो रोटियाँ खाकर स्कूल चले जाएँगे और उसी पर दो बजे तक रहेंगे...।”
“तो उन्हीं में से किसी मे मँगा लो न।”
“यह नहीं हो सकता”, माँ कहती, “यहीं तो नहीं है बाज़ार। कितना ख़तरनाक है। रिक्शों, ताँगों और मोटरों की भरमार रहती है। फिर मुहल्ले के शैतान छोकरे, बात-बेबात पर झगड़ा-लड़ाई करते हैं। तुम्हें नहीं जाना तो मुझसे ही क्यों नहीं कह देते, मैं ही तुम्हारे रहते सब जगह आऊँ-जाऊँगी...”। हे भगवान, मेरे तो....”
“ओह...अच्छा।” पिताजी कहते। वह अख़बार अच्छी तरह तहाकर रख देते। फिर झोला और पैसे उठाकर बाज़ार चले जाते।
यह क़रीब-क़रीब रोज़ का क्रम था। काम से आते हुए वह कभी-कभी अपने साथ कोई किताब भी ले आते। वह कबाड़ी के यहाँ से ख़रीदी पुरानी किताबें होतीं। किसी की जिल्द न रहती, किसी के पन्ने एक-दूसरे से अलग रहते। घर में कमरे के जिस कोने में उनकी चारपाई रहती उसी पर करवट लेटकर काफ़ी देर तक वह उन किताबों के पन्ने सहेजते-सँभालते रहते, फिर उन्हें पढ़ने लग जाते। उसी समय बार-बार माँ उनसे बाज़ार जाने की जिद करने लगतीं...।
एक बार यह क्रम बदल गया।
उस साल सर्दियाँ बहुत जल्द शुरू हो गई थी। और सालों पुरानी रजाइयों को उधेड़कर उनकी खोलियाँ धुला लेने और रुई को दुबारा धुनवा लेने के लिए काफ़ी मौक़ा मिल जाता था। पर उस बार नहीं मिला। हमें पुरानी रजाइयाँ ही ओढ़नी पड़ी। उनकी रुई ढीली पड़कर इधर-उधर खिसक गई थी पर अब उन्हें ठीक कराने का मौक़ा न था।
मेरा कोट छोटा हो गया था। मेरे स्वेटर की भी ऊन उधड़ रही थी। एक पुरानी कमीज़ पहनकर मैं स्वेटर पहन लेता, फिर ऊपर से एक कमीज़ और।
उस दिन सर्दी ज़रा ज्य़ादा थी। पिताजी के सामने मैंने चाय रखी तो मेरे दाँत किटकिटा रहे थे। उन्होंने पूछा, “तुम अपना कोट क्यों नहीं पहनते...?”
“मेरे तो छोटा हो गया, मल्लू को आ गया है। मुझे नया कोट ले दीजिए।”
“छोटा हो गया? ज़रा भी पहनने लायक़ नहीं है?”
मैंने मल्लू से कोट लेकर पहनकर दिखा दिया। बाँह कलाइयों से चार अँगुल ऊपर तक चढ़ आई और बटन बहुत मुश्किल से बंद हुए।
“तू बड़ा हो रहा है।” मेरी पीठ थपथपाते हुए क्षण-भर को वह मेरी ओर देखते रहे। उनके होंठों के कोरों में दबी हुई हँसी फूट पड़ी। मैंने उन्हें हँसते कभी नहीं देखा था। उनकी आँखें तक जैसे हँस रही थीं। लेकिन सिर्फ़ क्षण-भर को। अगले ही क्षण फिर उदास हो गए। आँखों में हमेशा बनी रहने वाली किसी पीड़ा की उदासी जैसे फिर छा गई। उस दिन न उन्होंने अख़बार पढ़ा और न अपनी किताबें ही सँभालीं। किताब और अख़बार चारपाई के सिरहाने दीवार में बनी आलमारी में रख दिए और हथेलियों पर गर्दन टिकाए बहुत देर तक छत की ओर देखते रहे। माँ ने सब्जी लाने के लिए कहा तो उन्होंने ज़रा भी प्रतिवाद नहीं किया, चुपचाप झोला उठाया और बाज़ार चले गए। उसके बाद वे कई दिनों तक न कोई अख़बार लाए और न कबाड़ी के यहाँ से कोई किताब।
हमें कई हफ्तों बाद पता चला। उस दिन दोपहर को हम स्कूल से लौटे तो पिताजी खिड़की के पास एक स्टूल खींचकर बैठे कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने एक बार हमारी ओर देखा और फिर अपनी नज़रें किताब में गड़ा लीं। जैसे अब नजरें वहीं स्थिर हो जाएँगी। हमारे लिए दिन की रोटियाँ रखी रहती थीं। उस दिन नहीं मिलीं। शाम को माँ ने और दिनों की तरह सौदा लाने के लिए पिताजी से बाज़ार जाने को भी नहीं कहा और रात को नमक और पानी के साथ हमारे आगे दो-दो रोटियाँ रखकर रोने लगीं। रोते-रोते ही उन्होंने बताया पिताजी की नौकरी दो महीने पहले ही छूट गई थी।
हमने फिर सारा क्रम जोड़ लिया।
पिताजी रोज़ काम की तलाश में निकलते थे। हमारे स्कूल जाने के पहले ही वह निकल जाते और काफ़ी शाम ढले लौटते थे। बहुत थके हुए वह घर में दाख़िल होते और निढाल हो, हथेलियों में सर थामे अपनी चारपाई पर देर तक बैठे रहते। कमरे में दूसरी ओर बैठकर हम पढ़ा करते। हम यह दिखाने की कोशिश करते कि हमें कुछ पता नहीं। माँ पिताजी के सामने स्टूल खींचकर उसी पर कुछ खाने की चीजें रख देतीं। हम देखते कि खाने की चीजें रोज़ कम से कम होती जा रही थी। हमें इर लगता था कि ऐसा न हो कि एक दिन उनके सामने जो थाली रखी जाए उसमें कुछ रहे ही न। पिताजी एक रोटी खा लेते फिर कहते— भूख नहीं है। फिर हम भी यहीं करने लगे थे। थोड़ा-सा कुछ खाकर हम ख़ूब ढेर-सा पानी पी लेते और फिर कह देते— भूख नहीं है।
पहले यह बहाना था, बाद में आदत बन गई। हमें सचमुच भूख कम लगती थी।
माँ बहुत डरी-डरी-सी रहने लगी थीं। उनका डरा-डरा-सा व्यवहार बहुत अजीब लगता। अब वह किसी बात पर भी ज़ोर न देतीं। पिताजी को पढ़ने के लिए भी न कोसतीं। लेकिन पिताजी ने अब पढ़ना बंद कर दिया था। वह लेटकर कुछ पढ़ने की कोशिश ज़रूर करते, लेकिन बहुत जल्द ही उसे बंद कर रख देते फिर लालटेन बुझाकर सो जाते। उनकी बदली हुई आदतों को देखकर माँ जैसे और भी सहम जातीं।
एक दिन पिताजी के साथ एक आदमी आया। हम उसे जानते थे। चौराहे पर उसकी रद्दी सामानों की दुकान थी।
माँ घर भर में घूम-घूमकर सामान लातीं और कमरे के बीच में रखती जातीं। सबसे आख़िर में वह अपनी सिलाई मशीन ले आईं। हमें लगा कि उसे रखते-रखते शायद वह ख़ुद गिर पड़ेंगी। उस आदमी ने उनके हाथ से मशीन संभाल ली। लेकिन हमारा भय निर्मूल था। सावधानी से मशीन रखकर आँचल से अपने हाथ पोंछती हुई बहुत बारीकी से वह हर चीज़ का भाव-ताव करने लगीं।
उस दिन बहुत दिन के बाद माँ ने उनसे बाज़ार जाने की ज़िद की। हममें से किसी ने उस दिन भूख न लगने की शिकायत नहीं की।
लेकिन ज्य़ादा दिन तक यह नहीं चल सका।
माँ ने पिताजी से कहा, “क्यों न मैं ही कोई काम तलाशूँ?”
“तुम” पिताजी ने कहा, “तुम कौन-सा काम करोगी?”
“मुझे क्या पता, इसीलिए तो तुमसे पूछ रही हूँ।”
“मैं तो कहता हूँ, तुम इसका ख़याल ही छोड़ दो...” दो-चार दिन की मुश्किल है, कट जाएगी...।”
दो-चार दिन बहुत जल्दी बीत गए। मुश्किलें बरकरार रहीं। माँ ने फिर पिताजी से अपने सिलसिले में कोई बात नहीं की। हाँ, एक दिन वह मुहल्ले की दो-तीन औरतों के साथ कहीं गई थीं। आईं तो अपने साथ बहुत-सा कपड़ा ले आईं। फिर तुरंत ही उन्हें काटने बैठ गईं। शाम तक उन्होंने कई ब्लाउज़ और पेटीकोट काट डाले और उन पर हाथ से कच्ची सिलाई भी कर दी।
पिताजी रोज़ की तरह शाम को आए तो उन्होंने भी देखा यह सब। ताज्जुब में पड़कर उन्होंने जैसे कुछ कहना चाहा फिर चुप रहे।
माँ हर तीसरे-चौथे दिन जातीं। वह कपड़े लातीं, काटतीं, उन पर कच्ची सिलाई करतीं। फिर उनके साथ ही बाज़ार जाने वाली एक औरत उन पर बख़िया कर लेती और वे उन्हें दुकानदार के यहाँ पहुँचा आतीं। लेकिन वह हर रोज़ कपड़े न ला पातीं। कभी काम न मिलता तो कभी ख़ाली हाथ ही वापस आना पड़ता।
पिताजी का पढ़ना फिर बंद हो गया था। एक दिन वह लौटे तो उनके साथ एक अजनबी आदमी था।
उसे बैठाकर पिताजी अपनी किताबों की अलमारी के पास गए और एक-एक कर अलमारी से किताबें निकाल-निकालकर ज़मीन पर फैलाने लगे। वह आदमी रद्दी किताबें बेचने वाला था। वह हर एक किताब ग़ौर से देखता और किताब की हालत के मुताबिक़ उन्हें अलग-अलग ढेरियों में रखता जाता।
सारी किताबों की ढेरियाँ लग गईं तो वह कुछ देर तक दाम का हिसाब लगाता रहा। आख़िरकार हिसाब लगा चुका तो कहा, “सारी बीस रुपए की होंगी बाबू जी।”
माँ अब तक सहमी हुई सी यह सब देख रही थीं। बीस रुपए का नाम सुना तो पिताजी के जवाब देने के पहले ख़ुद ही आगे बढ़ आईं और कहा—
“तुम रहने दो। किताबें हमें नहीं बेचनी हैं।”
किताब वाला उलझन में पड़कर पिताजी को देखने लगा। पिताजी ने कहा, “नहीं भाई, उनकी बातों का ख़याल न करो।...हाँ दाम तुम कम ज़रुर दे रहे हो...।”
“नहीं। नहीं।” माँ बोली, “सौ रुपए भी दें तो भी किताबें नहीं बेचनी हैं।”
“आख़िर क्या करना है इनका। इन्हें पढ़ चुका हूँ, इन्हें बेचकर दूसरी किताबें ले आऊँगा।”
आख़िर पच्चीस रुपए में सौदा हो गया और किताब वाला किताबों की ढेरियाँ बाँधकर चला गया तो पिताजी ने वे रुपए माँ की ओर बढ़ाते हुए कहा, “तुम नाहक़ परेशान होती हो। अभी हमारा समय ख़राब है।”
“तुम तो कह रहे थे कि दूसरी किताबें ख़रीदने के लिए इन्हें बेच रहा हूँ।...तुम्हें हमारी क़सम किताबें ही ख़रीदना इन पैसों से...।” उस दिन माँ अपने आपको फिर रोक नहीं पाईं और बहुत देर तक रोती रहीं।
अगले हफ़्ते पिताजी को काम मिल गया। जब वह घर लौटे तो रोज़ की तरह थके और निढाल नहीं थे। निराश होकर चारपाई पर देर तक बैठे भी नहीं। आते ही हाथ-मुँह धोए और ख़ुद ही खाने की माँग की और खाना खाने के बीच में ही काम मिल जाने की ख़ुशखबरी दी।
“जभी तो मैं कहूँ। आज ज़रुर कोई बात है।” माँ का भी चेहरा खिल उठा।
उन्होंने बताया, “तनख़्वाह पहली नौकरी से दस रुपए कम है, फिर भी मैंने मान लिया। काम न होने से तो अच्छा है।”
मल्लू ने मुझसे लड़ना-झगड़ना छोड़ रखा था। उस दिन बहुत दिनों बाद उसने मुझे चिकुटी काटी। मैंने उसकी पीठ पर धौल जमाई। उसने भागकर माँ से शिकायत की। माँ ने हमें झिड़का, पर चेहरे और आँखों में हँसी छलक रही थी। जैसे हम पिताजी और माँ को बरसों बाद देख रहे थे। मल्लू को उठाकर दुलारा और मुझे भी पुचकारकर अपने पास बैठाया।
पहली तनख़्वाह पर हमारे लिए कपड़े और किरमिच के जूते ख़रीदे गए। पिताजी फिर शाम को पुरानी किताबें लाते और माँ सब्ज़ी लाने के लिए उन्हें उठाने में असमर्थ होकर अपने करम को कोसने लगीं।
एक दिन वह फिर कोई किताब या अख़बार नहीं लाए।
हमने फिर सारा क्रम जोड़ लिया।
उस दिन मैंने मल्लू की गेंद अपने थैले में रख ली थी और इसके लिए वह मुझसे दिन-भर लड़ता रहा। पर अब वह अपनी गेंद भूल गया।
पिताजी चारपाई पर सिर थामकर बैठ गए। माँ ने किसी तरह चाय बनाई और पिताजी के आगे तिपाई रख दी। उन्होंने बहुत देर तक उसकी ओर देखा भी नहीं। माँ जैसे भीतर से काँप उठी थीं। बड़ी मुश्किल से अपने को सँभालकर उन्होंने कहा, “चाय पी लो, ठंडी हो रही है।”
“हाँ, पी लेता हूँ।”
“आज क्या हो गया जो इस तरह बैठे हो।” उन्होंने जैसे जानते हुए भी पूछा, “क्या काम से जवाब मिल गया?”
“नहीं, जवाब तो नहीं मिला है।” पिताजी ने कहा।
“फिर इस तरह क्यों बैठे हो? तबिअत ख़राब है?”
“नहीं।”
“फिर?”
“सोचता हूँ, यह काम कर पाऊँगा या नहीं।”
“क्यों?”
पिताजी फिर कुछ देर तक नहीं बोले।
“बोलते क्यों नहीं जी। जब जवाब नहीं मिल गया तो ऐसा क्यों सोच रहे हो—?” माँ अब फिर कुछ आश्वस्त हो गई थी।
“वह काम छूटने से भी भयानक बात है।” पिताजी ने कहा।
अँगीठी पर पँखा झलते-झलते माँ का हाथ अचानक रुक गया। पिताजी जैसे अपने आप से कहते रहे, “हाँ, काम छूटने से भी भयानक, समझ...।”
“क्या पहले तुम्हें नहीं मालूम था?” माँ ने पूछा।
“मालूम था, पर हड़ताल की वजह से जिनकी छुट्टी कर हमें रखा गया था, वे आज जलूस बनाकर आए थे— पच्चीस-तीस लोग— साथ में उनकी औरतें और बच्चे भी थे। फिर पुलिस आई और लारियों में भरकर उन्हें ले गई...।”
“क्या और लोगों ने भी यही फ़ैसला किया है?”
“औरों की बात नहीं जानता।” पिताजी ने कहा, “लेकिन क्या अब वहाँ जाना ठीक होगा?”
माँ कुछ नहीं बोलीं।
पिताजी भी कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होंने ही कहा, “तुमने बताया नहीं, क्या वहाँ जाना अब ठीक होगा?”
“मुझसे क्यों कहलवाना चाहते हो, नहीं जाओगे तो क्या मैं ज़िद करूँगी”, माँ ने कहा। अँगीठी बिल्कुल ठंडी पड़ चुकी थी। उनके हाथों में जैसे अब पँखा झलने की ताक़त नहीं रह गई थी, और हमें लगा अब इसमें कभी फिर आँच नहीं उठ सकेगी...।
पिताजी निढाल होकर चारपाई पर लेट गए। उनकी निगाह हमारे ऊपर पड़ी।
“तुम लोग यहाँ क्यों खड़े हो? जाओ, बाहर जाकर खेलो...।”
हमने जैसे सुना नहीं।
पिताजी सहसा चीख़ पड़े— “जाओ, खेलते क्यों नहीं।...कम से कम इस वक़्त मेरे सामने से चले जाओ...।”
हम सहमकर एक कोने में दुबके रहे। पर वह इस तरह चीख़ क्यों रहे थे— हम इसका कोई क्रम नहीं जोड़ पाए...।
man jab tab kaha kartin, “hamare to karam hi phoot gaye hain ”
hum sari baton ka kram joD lete man ne pitaji se sham aur agle din subah ke liye sabziyan ya bazar se kuch aur lane ko kaha hoga pitaji ne kaha hoga, “han, han jhola aur paise de do ” man ne paise aur jhola unke pas rakh diye honge par pitaji uthe nahin honge phir man ne kaha hoga, “are paise aur jhola rakh diye hain ” “han! han! uth raha hoon, ye khabar paDh loon ” pitaji ne kaha hoga “are meri angihti ki anch bekar ja rahi hai, ye khabar phir paDh lena, man ke swar mein halki chiDchiDahat rahi hogi pitaji ne sujhaya hoga, “are to rotiyan sek lo na, anch kyon barbad kar rahi ho ”
lekin rotiyan bhi sick gai hongi tab pitaji ne akhbar se apna dhyan hataye bina kaha hoga, “are rotiyan bhi sick gain! achchha to koi achar ya chatni nahin hai usi se kha lenge ”
“tum to kha loge par mallu aur gullu? sawere hi school jana hota hai unhen koi makkhan aur doodh nahin milta unhen sabji hogi to do do rotiyan khakar school chale jayenge aur usi par do baje tak rahenge ”
“to unhin mein se kisi mae manga lo na ”
“yah nahin ho sakta”, man kahti, “yahin to nahin hai bazar kitna khatarnak hai rikshon, tangon aur motron ki bharmar rahti hai phir muhalle ke shaitan chhokre, baat bebat par jhagDa laDai karte hain tumhein nahin jana to mujhse hi kyon nahin kah dete, main hi tumhare rahte sab jagah aun jaungi ” he bhagwan, mere to ”
“oh achchha ” pitaji kahte wo akhbar achchhi tarah tahakar rakh dete phir jhola aur paise uthakar bazar chale jate
ye qarib qarib roz ka kram tha kaam se aate hue wo kabhi kabhi apne sath koi kitab bhi le aate wo kabaDi ke yahan se kharidi purani kitaben hotin kisi ki jild na rahti, kisi ke panne ek dusre se alag rahte ghar mein kamre ke jis kone mein unki charpai rahti usi par karwat letkar kafi der tak wo un kitabon ke panne sahejte sambhalte rahte, phir unhen paDhne lag jate usi samay bar bar man unse bazar jane ki jid karne lagtin
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“nahin, jawab to nahin mila hai ” pitaji ne kaha
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“phir?”
“sochta hoon, ye kaam kar paunga ya nahin ”
“kyon?”
pitaji phir kuch der tak nahin bole
“bolte kyon nahin ji jab jawab nahin mil gaya to aisa kyon soch rahe ho—?” man ab phir kuch ashwast ho gai thi
“wah kaam chhutne se bhi bhayanak baat hai ” pitaji ne kaha
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“kya pahle tumhein nahin malum tha?” man ne puchha
“malum tha, par haDtal ki wajah se jinki chhutti kar hamein rakha gaya tha, we aaj jalus banakar aaye the— pachchis tees log— sath mein unki aurten aur bachche bhi the phir police i aur lariyon mein bharkar unhen le gai ”
“kya aur logon ne bhi yahi faisla kiya hai?”
“auron ki baat nahin janta ” pitaji ne kaha, “lekin kya ab wahan jana theek hoga?”
man kuch nahin bolin
pitaji bhi kuch der chup rahe phir unhonne hi kaha, “tumne bataya nahin, kya wahan jana ab theek hoga?”
“mujhse kyon kahlawana chahte ho, nahin jaoge to kya main zid karungi”, man ne kaha angihti bilkul thanDi paD chuki thi unke hathon mein jaise ab pankha jhalne ki taqat nahin rah gai thi, aur hamein laga ab ismen kabhi phir anch nahin uth sakegi
pitaji niDhal hokar charpai par let gaye unki nigah hamare upar paDi
pitaji sahsa cheekh paDe— “jao, khelte kyon nahin kam se kam is waqt mere samne se chale jao ”
hum sahamkar ek kone mein dubke rahe par wo is tarah cheekh kyon rahe the— hum iska koi kram nahin joD pae
man jab tab kaha kartin, “hamare to karam hi phoot gaye hain ”
hum sari baton ka kram joD lete man ne pitaji se sham aur agle din subah ke liye sabziyan ya bazar se kuch aur lane ko kaha hoga pitaji ne kaha hoga, “han, han jhola aur paise de do ” man ne paise aur jhola unke pas rakh diye honge par pitaji uthe nahin honge phir man ne kaha hoga, “are paise aur jhola rakh diye hain ” “han! han! uth raha hoon, ye khabar paDh loon ” pitaji ne kaha hoga “are meri angihti ki anch bekar ja rahi hai, ye khabar phir paDh lena, man ke swar mein halki chiDchiDahat rahi hogi pitaji ne sujhaya hoga, “are to rotiyan sek lo na, anch kyon barbad kar rahi ho ”
lekin rotiyan bhi sick gai hongi tab pitaji ne akhbar se apna dhyan hataye bina kaha hoga, “are rotiyan bhi sick gain! achchha to koi achar ya chatni nahin hai usi se kha lenge ”
“tum to kha loge par mallu aur gullu? sawere hi school jana hota hai unhen koi makkhan aur doodh nahin milta unhen sabji hogi to do do rotiyan khakar school chale jayenge aur usi par do baje tak rahenge ”
“to unhin mein se kisi mae manga lo na ”
“yah nahin ho sakta”, man kahti, “yahin to nahin hai bazar kitna khatarnak hai rikshon, tangon aur motron ki bharmar rahti hai phir muhalle ke shaitan chhokre, baat bebat par jhagDa laDai karte hain tumhein nahin jana to mujhse hi kyon nahin kah dete, main hi tumhare rahte sab jagah aun jaungi ” he bhagwan, mere to ”
“oh achchha ” pitaji kahte wo akhbar achchhi tarah tahakar rakh dete phir jhola aur paise uthakar bazar chale jate
ye qarib qarib roz ka kram tha kaam se aate hue wo kabhi kabhi apne sath koi kitab bhi le aate wo kabaDi ke yahan se kharidi purani kitaben hotin kisi ki jild na rahti, kisi ke panne ek dusre se alag rahte ghar mein kamre ke jis kone mein unki charpai rahti usi par karwat letkar kafi der tak wo un kitabon ke panne sahejte sambhalte rahte, phir unhen paDhne lag jate usi samay bar bar man unse bazar jane ki jid karne lagtin
ek bar ye kram badal gaya
us sal sardiyan bahut jald shuru ho gai thi aur salon purani rajaiyon ko udheDkar unki kholiyan dhula lene aur rui ko dubara dhunwa lene ke liye kafi mauqa mil jata tha par us bar nahin mila hamein purani rajaiyan hi oDhni paDi unki rui Dhili paDkar idhar udhar khisak gai thi par ab unhen theek karane ka mauqa na tha
mera coat chhota ho gaya tha mere sweater ki bhi un udhaD rahi thi ek purani kamiz pahankar main sweater pahan leta, phir upar se ek kamiz aur
us din sardi zara jyada thi pitaji ke samne mainne chay rakhi to mere dant kitakita rahe the unhonne puchha, “tum apna coat kyon nahin pahante ?”
“mere to chhota ho gaya, mallu ko aa gaya hai mujhe naya coat le dijiye ”
“chhota ho gaya? zara bhi pahanne layaq nahin hai?”
mainne mallu se coat lekar pahankar dikha diya banh kalaiyon se chaar angul upar tak chaDh i aur button bahut mushkil se band hue
“tu baDa ho raha hai ” meri peeth thapthapate hue kshan bhar ko wo meri or dekhte rahe unke honthon ke koron mein dabi hui hansi phoot paDi mainne unhen hanste kabhi nahin dekha tha unki ankhen tak jaise hans rahi theen lekin sirf kshan bhar ko agle hi kshan phir udas ho gaye ankhon mein hamesha bani rahne wali kisi piDa ki udasi jaise phir chha gai us din na unhonne akhbar paDha aur na apni kitaben hi sanbhalin kitab aur akhbar charpai ke sirhane diwar mein bani almari mein rakh diye aur hatheliyon par gardan tikaye bahut der tak chhat ki or dekhte rahe man ne sabji lane ke liye kaha to unhonne zara bhi pratiwad nahin kiya, chupchap jhola uthaya aur bazar chale gaye uske baad we kai dinon tak na koi akhbar laye aur na kabaDi ke yahan se koi kitab
hamein kai haphton baad pata chala us din dopahar ko hum school se laute to pitaji khiDki ke pas ek stool khinchkar baithe kuch paDhne ki koshish kar rahe the unhonne ek bar hamari or dekha aur phir apni nazren kitab mein gaDa leen jaise ab najren wahin sthir ho jayengi hamare liye din ki rotiyan rakhi rahti theen us din nahin milin sham ko man ne aur dinon ki tarah sauda lane ke liye pitaji se bazar jane ko bhi nahin kaha aur raat ko namak aur pani ke sath hamare aage do do rotiyan rakhkar rone lagin rote rote hi unhonne bataya pitaji ki naukari do mahine pahle hi chhoot gai thi
hamne phir sara kram joD liya
pitaji roz kaam ki talash mein nikalte the hamare school jane ke pahle hi wo nikal jate aur kafi sham Dhale lautte the bahut thake hue wo ghar mein dakhil hote aur niDhal ho, hatheliyon mein sar thame apni charpai par der tak baithe rahte kamre mein dusri or baithkar hum paDha karte hum ye dikhane ki koshish karte ki hamein kuch pata nahin man pitaji ke samne stool khinchkar usi par kuch khane ki chijen rakh detin hum dekhte ki khane ki chijen roz kam se kam hoti ja rahi thi hamein ir lagta tha ki aisa na ho ki ek din unke samne jo thali rakhi jaye usmen kuch rahe hi na pitaji ek roti kha lete phir kahte— bhookh nahin hai phir hum bhi yahin karne lage the thoDa sa kuch khakar hum khoob Dher sa pani pi lete aur phir kah dete— bhookh nahin hai
pahle ye bahana tha, baad mein aadat ban gai hamein sachmuch bhookh kam lagti thi
man bahut Dari Dari si rahne lagi theen unka Dara Dara sa wywahar bahut ajib lagta ab wo kisi baat par bhi zor na detin pitaji ko paDhne ke liye bhi na kostin lekin pitaji ne ab paDhna band kar diya tha wo letkar kuch paDhne ki koshish zarur karte, lekin bahut jald hi use band kar rakh dete phir lalten bujhakar so jate unki badli hui adton ko dekhkar man jaise aur bhi saham jatin
ek din pitaji ke sath ek adami aaya hum use jante the chaurahe par uski raddi samanon ki dukan thi
man ghar bhar mein ghoom ghumkar saman latin aur kamre ke beech mein rakhti jatin sabse akhir mein wo apni silai machine le ain hamein laga ki use rakhte rakhte shayad wo khu gir paDengi us adami ne unke hath se machine sambhal li lekin hamara bhay nirmul tha sawadhani se machine rakhkar anchal se apne hath ponchhti hui bahut bariki se wo har cheez ka bhaw taw karne lagin
us din bahut din ke baad man ne unse bazar jane ki zid ki hammen se kisi ne us din bhookh na lagne ki shikayat nahin ki
lekin jyada din tak ye nahin chal saka
man ne pitaji se kaha, “kyon na main hi koi kaam talashun?”
“tum” pitaji ne kaha, “tum kaun sa kaam karogi?”
“mujhe kya pata, isiliye to tumse poochh rahi hoon ”
“main to kahta hoon, tum iska khayal hi chhoD do ” do chaar din ki mushkil hai, kat jayegi ”
do chaar din bahut jaldi beet gaye mushkilen barakrar rahin man ne phir pitaji se apne silsile mein koi baat nahin ki han, ek din wo muhalle ki do teen aurton ke sath kahin gai theen ain to apne sath bahut sa kapDa le ain phir turant hi unhen katne baith gain sham tak unhonne kai blouse aur petikot kat Dale aur un par hath se kachchi silai bhi kar di
pitaji roz ki tarah sham ko aaye to unhonne bhi dekha ye sab tajjub mein paDkar unhonne jaise kuch kahna chaha phir chup rahe
man har tisre chauthe din jatin wo kapDe latin, kattin, un par kachchi silai kartin phir unke sath hi bazar jane wali ek aurat un par bakhiya kar leti aur we unhen dukandar ke yahan pahuncha atin lekin wo har roz kapDe na la patin kabhi kaam na milta to kabhi khali hath hi wapas aana paDta
pitaji ka paDhna phir band ho gaya tha ek din wo laute to unke sath ek ajnabi adami tha
use baithakar pitaji apni kitabon ki almari ke pas gaye aur ek ek kar almari se kitaben nikal nikalkar zamin par phailane lage wo adami raddi kitaben bechne wala tha wo har ek kitab ghaur se dekhta aur kitab ki haalat ke mutabiq unhen alag alag Dheriyon mein rakhta jata
sari kitabon ki Dheriyan lag gain to wo kuch der tak dam ka hisab lagata raha akhiraka hisab laga chuka to kaha, “sari bees rupae ki hongi babu ji ”
man ab tak sahmi hui si ye sab dekh rahi theen bees rupae ka nam suna to pitaji ke jawab dene ke pahle khu hi aage baDh ain aur kaha—
“tum rahne do kitaben hamein nahin bechni hain ”
kitab wala uljhan mein paDkar pitaji ko dekhne laga pitaji ne kaha, “nahin bhai, unki baton ka khayal na karo han dam tum kam zarur de rahe ho ”
“nahin nahin ” man boli, “sau rupae bhi den to bhi kitaben nahin bechni hain ”
“akhir kya karna hai inka inhen paDh chuka hoon, inhen bechkar dusri kitaben le aunga ”
akhir pachchis rupae mein sauda ho gaya aur kitab wala kitabon ki Dheriyan bandhakar chala gaya to pitaji ne we rupae man ki or baDhate hue kaha, “tum nahaq pareshan hoti ho abhi hamara samay kharab hai ”
“tum to kah rahe the ki dusri kitaben kharidne ke liye inhen bech raha hoon tumhein hamari qas kitaben hi kharidna in paison se ” us din man apne aapko phir rok nahin pain aur bahut der tak roti rahin
agle hafte pitaji ko kaam mil gaya jab wo ghar laute to roz ki tarah thake aur niDhal nahin the nirash hokar charpai par der tak baithe bhi nahin aate hi hath munh dhoe aur khu hi khane ki mang ki aur khana khane ke beech mein hi kaam mil jane ki khushakhabri di
“jabhi to main kahun aaj zarur koi baat hai ” man ka bhi chehra khil utha
unhonne bataya, “tankhwah pahli naukari se das rupae kam hai, phir bhi mainne man liya kaam na hone se to achchha hai ”
mallu ne mujhse laDna jhagaDna chhoD rakha tha us din bahut dinon baad usne mujhe chikuti kati mainne uski peeth par dhaul jamai usne bhagkar man se shikayat ki man ne hamein jhiDka, par chehre aur ankhon mein hansi chhalak rahi thi jaise hum pitaji aur man ko barson baad dekh rahe the mallu ko uthakar dulara aur mujhe bhi puchkarkar apne pas baithaya
pahli tankhwah par hamare liye kapDe aur kirmich ke jute kharide gaye pitaji phir sham ko purani kitaben late aur man sabzi lane ke liye unhen uthane mein asmarth hokar apne karam ko kosne lagin
ek din wo phir koi kitab ya akhbar nahin laye
hamne phir sara kram joD liya
us din mainne mallu ki gend apne thaile mein rakh li thi aur iske liye wo mujhse din bhar laDta raha par ab wo apni gend bhool gaya
pitaji charpai par sir thamkar baith gaye man ne kisi tarah chay banai aur pitaji ke aage tipai rakh di unhonne bahut der tak uski or dekha bhi nahin man jaise bhitar se kanp uthi theen baDi mushkil se apne ko sanbhalakar unhonne kaha, “chay pi lo, thanDi ho rahi hai ”
“han, pi leta hoon ”
“aj kya ho gaya jo is tarah baithe ho ” unhonne jaise jante hue bhi puchha, “kya kaam se jawab mil gaya?”
“nahin, jawab to nahin mila hai ” pitaji ne kaha
“phir is tarah kyon baithe ho? tabiat kharab hai?”
“nahin ”
“phir?”
“sochta hoon, ye kaam kar paunga ya nahin ”
“kyon?”
pitaji phir kuch der tak nahin bole
“bolte kyon nahin ji jab jawab nahin mil gaya to aisa kyon soch rahe ho—?” man ab phir kuch ashwast ho gai thi
“wah kaam chhutne se bhi bhayanak baat hai ” pitaji ne kaha
angihti par pankha jhalte jhalte man ka hath achanak ruk gaya pitaji jaise apne aap se kahte rahe, “han, kaam chhutne se bhi bhayanak, samajh ”
“kya pahle tumhein nahin malum tha?” man ne puchha
“malum tha, par haDtal ki wajah se jinki chhutti kar hamein rakha gaya tha, we aaj jalus banakar aaye the— pachchis tees log— sath mein unki aurten aur bachche bhi the phir police i aur lariyon mein bharkar unhen le gai ”
“kya aur logon ne bhi yahi faisla kiya hai?”
“auron ki baat nahin janta ” pitaji ne kaha, “lekin kya ab wahan jana theek hoga?”
man kuch nahin bolin
pitaji bhi kuch der chup rahe phir unhonne hi kaha, “tumne bataya nahin, kya wahan jana ab theek hoga?”
“mujhse kyon kahlawana chahte ho, nahin jaoge to kya main zid karungi”, man ne kaha angihti bilkul thanDi paD chuki thi unke hathon mein jaise ab pankha jhalne ki taqat nahin rah gai thi, aur hamein laga ab ismen kabhi phir anch nahin uth sakegi
pitaji niDhal hokar charpai par let gaye unki nigah hamare upar paDi
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।