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व्यतिक्रम

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रमाकांत

रमाकांत

व्यतिक्रम

रमाकांत

और अधिकरमाकांत

    माँ जब तब कहा करतीं, “हमारे तो करम ही फूट गये हैं।”

    हम सारी बातों का क्रम जोड़ लेते। माँ ने पिताजी से शाम और अगले दिन सुबह के लिए सब्ज़ियाँ या बाज़ार से कुछ और लाने को कहा होगा। पिताजी ने कहा होगा, “हाँ, हाँ। झोला और पैसे दे दो।” माँ ने पैसे और झोला उनके पास रख दिए होंगे पर पिताजी उठे नहीं होंगे। फिर माँ ने कहा होगा, “अरे पैसे और झोला रख दिए हैं।” “हाँ! हाँ! उठ रहा हूँ, यह ख़बर पढ़ लूँ।” पिताजी ने कहा होगा। “अरे मेरी अँगीठी की आँच बेकार जा रही है, यह ख़बर फिर पढ़ लेना, माँ के स्वर में हल्की चिड़चिड़ाहट रही होगी। पिताजी ने सुझाया होगा, “अरे तो रोटियाँ सेक लो न, आँच क्यों बर्बाद कर रही हो।”

    लेकिन रोटियाँ भी सिक गई होंगी। तब पिताजी ने अख़बार से अपना ध्यान हटाए बिना कहा होगा, “अरे रोटियाँ भी सिक गईं! अच्छा तो कोई अचार या चटनी नहीं है। उसी से खा लेंगे।”

    “तुम तो खा लोगे पर मल्लू और गुल्लू? सवेरे ही स्कूल जाना होता है उन्हें। कोई मक्खन और दूध नहीं मिलता उन्हें। सब्जी होगी तो दो-दो रोटियाँ खाकर स्कूल चले जाएँगे और उसी पर दो बजे तक रहेंगे...।”

    “तो उन्हीं में से किसी मे मँगा लो न।”

    “यह नहीं हो सकता”, माँ कहती, “यहीं तो नहीं है बाज़ार। कितना ख़तरनाक है। रिक्शों, ताँगों और मोटरों की भरमार रहती है। फिर मुहल्ले के शैतान छोकरे, बात-बेबात पर झगड़ा-लड़ाई करते हैं। तुम्हें नहीं जाना तो मुझसे ही क्यों नहीं कह देते, मैं ही तुम्हारे रहते सब जगह आऊँ-जाऊँगी...”। हे भगवान, मेरे तो....”

    “ओह...अच्छा।” पिताजी कहते। वह अख़बार अच्छी तरह तहाकर रख देते। फिर झोला और पैसे उठाकर बाज़ार चले जाते।

    यह क़रीब-क़रीब रोज़ का क्रम था। काम से आते हुए वह कभी-कभी अपने साथ कोई किताब भी ले आते। वह कबाड़ी के यहाँ से ख़रीदी पुरानी किताबें होतीं। किसी की जिल्द रहती, किसी के पन्ने एक-दूसरे से अलग रहते। घर में कमरे के जिस कोने में उनकी चारपाई रहती उसी पर करवट लेटकर काफ़ी देर तक वह उन किताबों के पन्ने सहेजते-सँभालते रहते, फिर उन्हें पढ़ने लग जाते। उसी समय बार-बार माँ उनसे बाज़ार जाने की जिद करने लगतीं...।

    एक बार यह क्रम बदल गया।

    उस साल सर्दियाँ बहुत जल्द शुरू हो गई थी। और सालों पुरानी रजाइयों को उधेड़कर उनकी खोलियाँ धुला लेने और रुई को दुबारा धुनवा लेने के लिए काफ़ी मौक़ा मिल जाता था। पर उस बार नहीं मिला। हमें पुरानी रजाइयाँ ही ओढ़नी पड़ी। उनकी रुई ढीली पड़कर इधर-उधर खिसक गई थी पर अब उन्हें ठीक कराने का मौक़ा था।

    मेरा कोट छोटा हो गया था। मेरे स्वेटर की भी ऊन उधड़ रही थी। एक पुरानी कमीज़ पहनकर मैं स्वेटर पहन लेता, फिर ऊपर से एक कमीज़ और।

    उस दिन सर्दी ज़रा ज्य़ादा थी। पिताजी के सामने मैंने चाय रखी तो मेरे दाँत किटकिटा रहे थे। उन्होंने पूछा, “तुम अपना कोट क्यों नहीं पहनते...?”

    “मेरे तो छोटा हो गया, मल्लू को गया है। मुझे नया कोट ले दीजिए।”

    “छोटा हो गया? ज़रा भी पहनने लायक़ नहीं है?”

    मैंने मल्लू से कोट लेकर पहनकर दिखा दिया। बाँह कलाइयों से चार अँगुल ऊपर तक चढ़ आई और बटन बहुत मुश्किल से बंद हुए।

    “तू बड़ा हो रहा है।” मेरी पीठ थपथपाते हुए क्षण-भर को वह मेरी ओर देखते रहे। उनके होंठों के कोरों में दबी हुई हँसी फूट पड़ी। मैंने उन्हें हँसते कभी नहीं देखा था। उनकी आँखें तक जैसे हँस रही थीं। लेकिन सिर्फ़ क्षण-भर को। अगले ही क्षण फिर उदास हो गए। आँखों में हमेशा बनी रहने वाली किसी पीड़ा की उदासी जैसे फिर छा गई। उस दिन उन्होंने अख़बार पढ़ा और अपनी किताबें ही सँभालीं। किताब और अख़बार चारपाई के सिरहाने दीवार में बनी आलमारी में रख दिए और हथेलियों पर गर्दन टिकाए बहुत देर तक छत की ओर देखते रहे। माँ ने सब्जी लाने के लिए कहा तो उन्होंने ज़रा भी प्रतिवाद नहीं किया, चुपचाप झोला उठाया और बाज़ार चले गए। उसके बाद वे कई दिनों तक कोई अख़बार लाए और कबाड़ी के यहाँ से कोई किताब।

    हमें कई हफ्तों बाद पता चला। उस दिन दोपहर को हम स्कूल से लौटे तो पिताजी खिड़की के पास एक स्टूल खींचकर बैठे कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने एक बार हमारी ओर देखा और फिर अपनी नज़रें किताब में गड़ा लीं। जैसे अब नजरें वहीं स्थिर हो जाएँगी। हमारे लिए दिन की रोटियाँ रखी रहती थीं। उस दिन नहीं मिलीं। शाम को माँ ने और दिनों की तरह सौदा लाने के लिए पिताजी से बाज़ार जाने को भी नहीं कहा और रात को नमक और पानी के साथ हमारे आगे दो-दो रोटियाँ रखकर रोने लगीं। रोते-रोते ही उन्होंने बताया पिताजी की नौकरी दो महीने पहले ही छूट गई थी।

    हमने फिर सारा क्रम जोड़ लिया।

    पिताजी रोज़ काम की तलाश में निकलते थे। हमारे स्कूल जाने के पहले ही वह निकल जाते और काफ़ी शाम ढले लौटते थे। बहुत थके हुए वह घर में दाख़िल होते और निढाल हो, हथेलियों में सर थामे अपनी चारपाई पर देर तक बैठे रहते। कमरे में दूसरी ओर बैठकर हम पढ़ा करते। हम यह दिखाने की कोशिश करते कि हमें कुछ पता नहीं। माँ पिताजी के सामने स्टूल खींचकर उसी पर कुछ खाने की चीजें रख देतीं। हम देखते कि खाने की चीजें रोज़ कम से कम होती जा रही थी। हमें इर लगता था कि ऐसा हो कि एक दिन उनके सामने जो थाली रखी जाए उसमें कुछ रहे ही न। पिताजी एक रोटी खा लेते फिर कहते— भूख नहीं है। फिर हम भी यहीं करने लगे थे। थोड़ा-सा कुछ खाकर हम ख़ूब ढेर-सा पानी पी लेते और फिर कह देते— भूख नहीं है।

    पहले यह बहाना था, बाद में आदत बन गई। हमें सचमुच भूख कम लगती थी।

    माँ बहुत डरी-डरी-सी रहने लगी थीं। उनका डरा-डरा-सा व्यवहार बहुत अजीब लगता। अब वह किसी बात पर भी ज़ोर देतीं। पिताजी को पढ़ने के लिए भी कोसतीं। लेकिन पिताजी ने अब पढ़ना बंद कर दिया था। वह लेटकर कुछ पढ़ने की कोशिश ज़रूर करते, लेकिन बहुत जल्द ही उसे बंद कर रख देते फिर लालटेन बुझाकर सो जाते। उनकी बदली हुई आदतों को देखकर माँ जैसे और भी सहम जातीं।

    एक दिन पिताजी के साथ एक आदमी आया। हम उसे जानते थे। चौराहे पर उसकी रद्दी सामानों की दुकान थी।

    माँ घर भर में घूम-घूमकर सामान लातीं और कमरे के बीच में रखती जातीं। सबसे आख़िर में वह अपनी सिलाई मशीन ले आईं। हमें लगा कि उसे रखते-रखते शायद वह ख़ुद गिर पड़ेंगी। उस आदमी ने उनके हाथ से मशीन संभाल ली। लेकिन हमारा भय निर्मूल था। सावधानी से मशीन रखकर आँचल से अपने हाथ पोंछती हुई बहुत बारीकी से वह हर चीज़ का भाव-ताव करने लगीं।

    उस दिन बहुत दिन के बाद माँ ने उनसे बाज़ार जाने की ज़िद की। हममें से किसी ने उस दिन भूख लगने की शिकायत नहीं की।

    लेकिन ज्य़ादा दिन तक यह नहीं चल सका।

    माँ ने पिताजी से कहा, “क्यों मैं ही कोई काम तलाशूँ?”

    “तुम” पिताजी ने कहा, “तुम कौन-सा काम करोगी?”

    “मुझे क्या पता, इसीलिए तो तुमसे पूछ रही हूँ।”

    “मैं तो कहता हूँ, तुम इसका ख़याल ही छोड़ दो...” दो-चार दिन की मुश्किल है, कट जाएगी...।”

    दो-चार दिन बहुत जल्दी बीत गए। मुश्किलें बरकरार रहीं। माँ ने फिर पिताजी से अपने सिलसिले में कोई बात नहीं की। हाँ, एक दिन वह मुहल्ले की दो-तीन औरतों के साथ कहीं गई थीं। आईं तो अपने साथ बहुत-सा कपड़ा ले आईं। फिर तुरंत ही उन्हें काटने बैठ गईं। शाम तक उन्होंने कई ब्लाउज़ और पेटीकोट काट डाले और उन पर हाथ से कच्ची सिलाई भी कर दी।

    पिताजी रोज़ की तरह शाम को आए तो उन्होंने भी देखा यह सब। ताज्जुब में पड़कर उन्होंने जैसे कुछ कहना चाहा फिर चुप रहे।

    माँ हर तीसरे-चौथे दिन जातीं। वह कपड़े लातीं, काटतीं, उन पर कच्ची सिलाई करतीं। फिर उनके साथ ही बाज़ार जाने वाली एक औरत उन पर बख़िया कर लेती और वे उन्हें दुकानदार के यहाँ पहुँचा आतीं। लेकिन वह हर रोज़ कपड़े ला पातीं। कभी काम मिलता तो कभी ख़ाली हाथ ही वापस आना पड़ता।

    पिताजी का पढ़ना फिर बंद हो गया था। एक दिन वह लौटे तो उनके साथ एक अजनबी आदमी था।

    उसे बैठाकर पिताजी अपनी किताबों की अलमारी के पास गए और एक-एक कर अलमारी से किताबें निकाल-निकालकर ज़मीन पर फैलाने लगे। वह आदमी रद्दी किताबें बेचने वाला था। वह हर एक किताब ग़ौर से देखता और किताब की हालत के मुताबिक़ उन्हें अलग-अलग ढेरियों में रखता जाता।

    सारी किताबों की ढेरियाँ लग गईं तो वह कुछ देर तक दाम का हिसाब लगाता रहा। आख़िरकार हिसाब लगा चुका तो कहा, “सारी बीस रुपए की होंगी बाबू जी।”

    माँ अब तक सहमी हुई सी यह सब देख रही थीं। बीस रुपए का नाम सुना तो पिताजी के जवाब देने के पहले ख़ुद ही आगे बढ़ आईं और कहा—

    “तुम रहने दो। किताबें हमें नहीं बेचनी हैं।”

    किताब वाला उलझन में पड़कर पिताजी को देखने लगा। पिताजी ने कहा, “नहीं भाई, उनकी बातों का ख़याल करो।...हाँ दाम तुम कम ज़रुर दे रहे हो...।”

    “नहीं। नहीं।” माँ बोली, “सौ रुपए भी दें तो भी किताबें नहीं बेचनी हैं।”

    “आख़िर क्या करना है इनका। इन्हें पढ़ चुका हूँ, इन्हें बेचकर दूसरी किताबें ले आऊँगा।”

    आख़िर पच्चीस रुपए में सौदा हो गया और किताब वाला किताबों की ढेरियाँ बाँधकर चला गया तो पिताजी ने वे रुपए माँ की ओर बढ़ाते हुए कहा, “तुम नाहक़ परेशान होती हो। अभी हमारा समय ख़राब है।”

    “तुम तो कह रहे थे कि दूसरी किताबें ख़रीदने के लिए इन्हें बेच रहा हूँ।...तुम्हें हमारी क़सम किताबें ही ख़रीदना इन पैसों से...।” उस दिन माँ अपने आपको फिर रोक नहीं पाईं और बहुत देर तक रोती रहीं।

    अगले हफ़्ते पिताजी को काम मिल गया। जब वह घर लौटे तो रोज़ की तरह थके और निढाल नहीं थे। निराश होकर चारपाई पर देर तक बैठे भी नहीं। आते ही हाथ-मुँह धोए और ख़ुद ही खाने की माँग की और खाना खाने के बीच में ही काम मिल जाने की ख़ुशखबरी दी।

    “जभी तो मैं कहूँ। आज ज़रुर कोई बात है।” माँ का भी चेहरा खिल उठा।

    उन्होंने बताया, “तनख़्वाह पहली नौकरी से दस रुपए कम है, फिर भी मैंने मान लिया। काम होने से तो अच्छा है।”

    मल्लू ने मुझसे लड़ना-झगड़ना छोड़ रखा था। उस दिन बहुत दिनों बाद उसने मुझे चिकुटी काटी। मैंने उसकी पीठ पर धौल जमाई। उसने भागकर माँ से शिकायत की। माँ ने हमें झिड़का, पर चेहरे और आँखों में हँसी छलक रही थी। जैसे हम पिताजी और माँ को बरसों बाद देख रहे थे। मल्लू को उठाकर दुलारा और मुझे भी पुचकारकर अपने पास बैठाया।

    पहली तनख़्वाह पर हमारे लिए कपड़े और किरमिच के जूते ख़रीदे गए। पिताजी फिर शाम को पुरानी किताबें लाते और माँ सब्ज़ी लाने के लिए उन्हें उठाने में असमर्थ होकर अपने करम को कोसने लगीं।

    एक दिन वह फिर कोई किताब या अख़बार नहीं लाए।

    हमने फिर सारा क्रम जोड़ लिया।

    उस दिन मैंने मल्लू की गेंद अपने थैले में रख ली थी और इसके लिए वह मुझसे दिन-भर लड़ता रहा। पर अब वह अपनी गेंद भूल गया।

    पिताजी चारपाई पर सिर थामकर बैठ गए। माँ ने किसी तरह चाय बनाई और पिताजी के आगे तिपाई रख दी। उन्होंने बहुत देर तक उसकी ओर देखा भी नहीं। माँ जैसे भीतर से काँप उठी थीं। बड़ी मुश्किल से अपने को सँभालकर उन्होंने कहा, “चाय पी लो, ठंडी हो रही है।”

    “हाँ, पी लेता हूँ।”

    “आज क्या हो गया जो इस तरह बैठे हो।” उन्होंने जैसे जानते हुए भी पूछा, “क्या काम से जवाब मिल गया?”

    “नहीं, जवाब तो नहीं मिला है।” पिताजी ने कहा।

    “फिर इस तरह क्यों बैठे हो? तबिअत ख़राब है?”

    “नहीं।”

    “फिर?”

    “सोचता हूँ, यह काम कर पाऊँगा या नहीं।”

    “क्यों?”

    पिताजी फिर कुछ देर तक नहीं बोले।

    “बोलते क्यों नहीं जी। जब जवाब नहीं मिल गया तो ऐसा क्यों सोच रहे हो—?” माँ अब फिर कुछ आश्वस्त हो गई थी।

    “वह काम छूटने से भी भयानक बात है।” पिताजी ने कहा।

    अँगीठी पर पँखा झलते-झलते माँ का हाथ अचानक रुक गया। पिताजी जैसे अपने आप से कहते रहे, “हाँ, काम छूटने से भी भयानक, समझ...।”

    “क्या पहले तुम्हें नहीं मालूम था?” माँ ने पूछा।

    “मालूम था, पर हड़ताल की वजह से जिनकी छुट्टी कर हमें रखा गया था, वे आज जलूस बनाकर आए थे— पच्चीस-तीस लोग— साथ में उनकी औरतें और बच्चे भी थे। फिर पुलिस आई और लारियों में भरकर उन्हें ले गई...।”

    “क्या और लोगों ने भी यही फ़ैसला किया है?”

    “औरों की बात नहीं जानता।” पिताजी ने कहा, “लेकिन क्या अब वहाँ जाना ठीक होगा?”

    माँ कुछ नहीं बोलीं।

    पिताजी भी कुछ देर चुप रहे। फिर उन्होंने ही कहा, “तुमने बताया नहीं, क्या वहाँ जाना अब ठीक होगा?”

    “मुझसे क्यों कहलवाना चाहते हो, नहीं जाओगे तो क्या मैं ज़िद करूँगी”, माँ ने कहा। अँगीठी बिल्कुल ठंडी पड़ चुकी थी। उनके हाथों में जैसे अब पँखा झलने की ताक़त नहीं रह गई थी, और हमें लगा अब इसमें कभी फिर आँच नहीं उठ सकेगी...।

    पिताजी निढाल होकर चारपाई पर लेट गए। उनकी निगाह हमारे ऊपर पड़ी।

    “तुम लोग यहाँ क्यों खड़े हो? जाओ, बाहर जाकर खेलो...।”

    हमने जैसे सुना नहीं।

    पिताजी सहसा चीख़ पड़े— “जाओ, खेलते क्यों नहीं।...कम से कम इस वक़्त मेरे सामने से चले जाओ...।”

    हम सहमकर एक कोने में दुबके रहे। पर वह इस तरह चीख़ क्यों रहे थे— हम इसका कोई क्रम नहीं जोड़ पाए...।

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