जब उसने पुकारे जाने की आवाज़ सुनी, वह अपनी छोटी-सी कोठरी के बाहर खड़ा था, उसके हाथ में झंडी थी। जहाँ वह खड़ा था वहाँ से बिना किसी शंका के यह समझना बेहद आसान था कि आवाज़ कहाँ से आई है, पर फिर भी ऊपर देखने की बजाए, जहाँ ठीक उसके सिर के ऊपर एक नोकदार चट्टान पर मैं खड़ा था, वह घूमा और नीचे रेलवे लाइन की तरफ़ देखने लगा। उसकी इस हरकत में कुछ ख़ास था, पर क्या यह मैं समझ नहीं पा रहा था? जिस नुकीली चट्टान पर मैं खड़ा था उसकी आड़ में वह ढँक-सा गया था और मुझे भी आग उगलते सूरज से बचने के लिए आँखों को हाथ से ढँकना पड़ा, उसके बाद ही मैं उसे देख सका।
“अरे भाई! ज़रा सुनो तो?”
वह रेलवे लाइन की तरफ़ देख रहा था, वह मुड़ा और उसने आँखें उठाईं तो ठीक अपने ऊपर मुझे खड़ा पाया।
“
‘क्या, कोई रास्ता है जिससे मैं नीचे आकर तुमसे बात कर सकूँ?’
कोई जवाब दिए बग़ैर वह मुझे देखता रहा और मैंने भी अपनी बात दोहराई नहीं और उसे देखता रहा, तभी ज़मीन और हवा में एक अस्पष्ट-सा कंपन हुआ, जो तत्काल तेज़ स्पंदन में बदल गया और फिर तेज़ी से सरपट भागती ट्रेन वहाँ से गुज़री, मैं झटके से पीछे हटा, मानो वह मुझे नीचे खींच लेगी, जब तेज़ी से गड़गड़ाती ट्रेन मेरे सामने से गुज़रती हुई, ढलान पर उतरने लगी तो मैंने फिर नीचे देखा वह अपनी झंडी लहरा रहा था। मैंने अपना सवाल दोहराया, वह पल भर रुका, एकटक भरपूर तौलती नजरों से उसने मुझे देखा और फिर जिस डंडी में झंडा लपेटा हुआ था, उसी से उसने मुझे सामने की तरफ़ का रास्ता दिखाया, जो
करीब दो-तीन सौ गज दूर था।
मैं चिल्लाया “ठीक है!” और उस तरफ़ चल पड़ा, यह गहरा और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता था। इस टेढ़े-मेढ़े रास्ते से उतरते हुए जब मैं नीचे पहुँचा तो मैंने पाया कि वह रेल की पटरियों के बीचों-बीच खड़ा था, जहाँ से कुछ देर पहले ट्रेन गुज़री थी, लगा मानो उसे मेरे अचानक प्रकट होने का इंतज़ार हो, वह इस कदर चौकन्ना और सहमा हुआ था कि मुझे ताज्जुब हुआ।
मैं थोड़ा और नीचे उतरा और पटरियों के एकदम क़रीब आ गया। वह अब सामने था, पतला दुबला दढ़ियल आदमी जिसकी भौंहें घनी थीं। उसकी चौकी इतनी सुनसान जगह पर थी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। दोनों तरफ़ पानी से रिसती सीलन भरी नोंकदार पथरीली दीवार थी, जहाँ से कुछ भी देखना मुश्किल था सिवाय आसमां की एक पतली-सी लकीर के। वातावरण में भयावह उदासीनता और घुटन थी। उस जगह पर इतनी कम धूप आती थी कि हर तरफ़ सीलन की बदबू थी। तेज़ ठंडी हवा में मैं काँप उठा, ऐसा लगा जैसे कुदरती दुनिया कहीं पीछे छूट गई हो।
वह हिलता, उससे पहले मैं उसके इतने क़रीब पहुँच गया कि उसे छू सकता था। तब तक वह मुझे एकटक घूरता ही रहा। मैं उसके क़रीब पहुँचा तो वह एक क़दम पीछे हटा और हाथ ऊपर उठाया।
“यह तो एकदम सुनसान चौकी है और इसने मेरा ध्यान खींच लिया। मेरे ख़याल से शायद ही कभी कोई भूले भटके यहाँ आता होगा।” मैं बोला।
उसने सुरंग के मुहाने के पास लाल बत्ती की तरफ़ बड़े विस्मय से देखा और चारों तरफ़ नज़र घुमाई, मानो वहाँ से कुछ ग़ायब हो गया हो और फिर मेरी तरफ़ देखा।
“वह बत्ती भी तुम्हारी ड्यूटी में शामिल है? क्यों है ना?”
“हाँ है, आप नहीं जानते क्या?” बेहद दबे स्वर में उसने जवाब दिया।
जब मैंने उसके भावहीन और उदास चेहरे को ग़ौर से देखा तो लगा मानो वह जीता जागता मनुष्य न होकर कोई प्रेतात्मा हो, यह डरावना ख़याल मेरे दिमाग़ में क्यों आया, मैं नहीं जानता? पर तब से मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि उसके दिमाग़ में कोई ख़लल तो नहीं?
अब मेरी बारी थी, मैं भी पीछे हट गया, पर ऐसा करते वक़्त मैंने उसकी आँखों में अपने प्रति एक स्पष्ट भय देखा, इससे मेरे उस ख़याल को और हवा मिली।
“तुम तो मेरी तरफ़ यूँ देख रहे हो”, मैंने जबरन मुस्कराते हुए कहा, “मानो तुम मुझसे भयभीत हो।”
“मुझे अंदेशा है कि शायद मैंने पहले आपको कहीं देखा है।”
“कहाँ?”
उसने उस लाल बत्ती की ओर इशारा किया।
“वहाँ?” आश्चर्य चकित हो मैंने पूछा।
मेरी तरफ़ से सतर्क रहते हुए उसने जवाब दिया, (बिना आवाज़ किए) “हूँ।”
“प्यारे दोस्त, मैं भला वहाँ क्या करूँगा? ख़ैर तुम चाहे जो भी सोचो पर क़सम ख़ुदा की कि मैं वहाँ कभी गया ही नहीं।”
“हाँ, शायद ऐसा ही होगा।”
फिर वह सहज हो गया, अब वह मेरी बातों का खुलकर जवाब देने लगा, क्या उसे यहाँ बहुत काम करना पड़ता है? हाँ, काफी ज़िम्मेदारी का काम है। हर वक़्त चौकस रहना पड़ता है। यूँ मेहनत कुछ भी नहीं, पर ज़िम्मेदारी ज़्यादा है—सिग्नल बदलना, बत्तियाँ धीमी करना, इस लोहे के हैंडल को ऊपर नीचे घुमाना, बस यही सब है।
उन लंबे उदास दिनों के बारे में जिसके बारे में सोच-सोच कर मैं हैरान था कि कोई कैसे यहाँ समय काटता होगा, उसने सिर्फ़ इतना ही कहा कि यह सब उसकी ज़िंदगी का ढर्रा बन चुका है और उसे इसकी आदत पड़ चुकी है। यहाँ उसने संकेतों की अपनी एक भाषा ईजाद कर ली है और इस तरह अपने ख़यालों की उधेड़बुन में ही व्यस्त रहता है। उसने जोड़-बाक़ी और दशमलव का सारा हिसाब और थोड़ा-सा बीजगणित भी सीख लिया है, हालाँकि वह शुरू से ही हिसाब में कमज़ोर था।
काम करते समय क्या यह ज़रूरी है कि हर वक़्त सीलन भरी कोठरी में ही रहा जाए, क्या पत्थर की दीवार लाँघ कर सूरज की खुली रोशनी में जाना उसे नहीं सुहाता? यह वक़्त और हालात पर निर्भर है, अच्छे मौसम में उसने बाहर निकलना भी चाहा, पर बिजली की घंटी किसी भी वक़्त बज उठने की चिंता हर वक़्त उसके दिमाग पर हावी रही, इस वजह से बाहर निकलना ख़ुशी की बजाए परेशानी ही अधिक देता है।
मुझे वह अपनी कोठरी में ले गया। वहाँ अँगीठी थी, मेज़ थी, जिस पर दफ़्तरी रजिस्टर रखा था, जिसमें उसे लगातार कुछ दर्ज करना पड़ता था, एक टेलीग्राफ़ मशीन और एक घंटी थी, जिसका उसने कुछ देर पहले जिक़्र किया था। उसने बताया कि जब वह नौजवान था (हालाँकि मुझे संदेह था कि ऐसी जगह पर कोई भी नौजवान बना रह सकता है) वह दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी था, व्याख्यानों में भी मौजूद रहता था, पर फिर उसने वह मौक़ा गँवा दिया और जीवन में एक बार लुढ़का तो फिर संभल नहीं पाया। अब इस सबसे उसे कोई गिला भी नहीं है, कमरे में उसका बिस्तर लगा हुआ था, वह उस पर लेट गया, रात बहुत हो चुकी थी, और इतनी रात गए वहाँ एक और बिस्तर लगाना मुश्किल था।
धीमे-धीमे स्वर में उसने जो कुछ भी बताया कुल मिलाकर उसका यही सार था, वह बीच-बीच में मुझे ‘सर’ कह कर बुलाता। खासकर तब जब वह अपनी जवानी के दिनों की बातें करता, मानो वह यह साबित करना चाह रहा हो कि मैं जो कुछ उसे समझ रहा हूँ उस लिहाज़ से वह कुछ भी नहीं है। जब हम बातें कर रहे थे, बीच-बीच में कई बार घंटी बजी और उसे संदेश पढ़कर जवाब भेजने पड़े। एक बार जब वहाँ से ट्रेन गुज़री तो वह बाहर गया, उसने झंडी दिखाई और ट्रेन के ड्राइवर से कुछ चिल्ला कर कहा भी, मैंने पाया कि काम निपटाते वक़्त वह बेहद सतर्क और मुस्तैद रहता, जब तक काम निपट न जाता, वह एकदम ख़ामोश रहता।
देखा जाए तो इस नौकरी के लिए वह एकदम भरोसेमंद आदमी था, पर हालात कुछ ऐसे बने कि...जब वह मुझसे बात कर रहा था तो बेवजह घंटी की तरफ़ देखने लगता, जब वह बज भी नहीं रही होती। एक बार तो उसने कोठरी का दरवाज़ा भी खोला (जिसे सीलन की बदबू रोकने के लिए बंद कर रखा था) और वह बाहर जाकर सुरंग के मुहाने पर लगी लाल बत्ती की तरफ़ भी देखने लगा। दोनों ही मौकों पर जब वह लौट कर अँगीठी के निकट आया तो उसके चेहरे पर वही अजीब-सा भाव था, जिसे मैंने पहले भी देखा था और जिसे समझ पाना मुश्किल था।
जाने के लिए जब मैं उठा तो मैंने उससे कहा: “तुम्हें देख कर मुझे लगा है कि आज मैं एक ऐसे शख़्स से मिला हूँ, जो अपनी दुनिया में ख़ुश और संतुष्ट है।” (मैं मानता हूँ यह मैंने महज उसका हौसला बढ़ाने के लिए कहा था)।
“हाँ मैं ख़ुद भी यही समझता था”, वह उसी धीमे स्वर में बोला, “पर अब मैं परेशान हूँ, सर मैं बहुत परेशान हूँ”।
“क्या बात है? तुम्हें क्या परेशानी है?”
“उसे बताना मुश्किल है सर, बहुत मुश्किल, अगर आप फिर कभी आएँ तो मैं बताने की कोशिश करूँगा।”
“मैं ज़रूर तुमसे दोबारा मिलना चाहता हूँ। बताओ हम कब मिल सकते हैं?”
“सर, सुबह मेरी ड्यूटी ख़त्म होती है, फिर रात दस बजे मैं काम पर आऊँगा।”
“ठीक है, मैं ग्यारह बजे तुमसे आकर मिलूँगा”।
उसने मेरा शुक्रिया अदा किया और मुझे छोड़ने दरवाज़े तक आया।
“सर, जब तक आप ऊपर नहीं पहुँच जाते मैं अपनी सफ़ेद बत्ती दिखाता रहूँगा।” उसने अपनी उसी धीमी आवाज़ में कहा, “पर बीच रास्ते में और ऊपर पहुँचने के बाद भी कोई आवाज़ मत दीजिएगा।”
उसका हाव-भाव कुछ ऐसा था कि मुझे वह जगह और भी रहस्यमय लगने लगी और मेरे जिस्म में कँपकपी-सी दौड़ गई। बहरहाल मैंने इतना ही कहा “ठीक है”।
“और कल जब आप नीचे आएँ, तब भी कोई आवाज़ न दीजिएगा। जाने से पहले मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ, आख़िर आपने आज इस तरह क्यों पुकारा था, हैलो! वहाँ नीचे!”
“मुझे याद नहीं, मैं क्या बोला था, हाँ, शायद कुछ ऐसा ही पुकारा था...”
“शायद नहीं, सर, यक़ीनन यही शब्द आपने कहे थे, मैं अच्छी तरह जानता हूँ।”
“हाँ ठीक है, यही शब्द होंगे, मैंने कहा होगा क्योंकि मैंने तुम्हें नीचे खड़े देखा था।”
“क्या और कोई वजह नहीं थी?”
“और क्या वजह हो सकती है?”
“क्या आपको ऐसा नहीं महसूस हुआ कि कोई दैवी शक्ति आपको यही शब्द कहने के लिए बाध्य कर रही थी।”
“नहीं?”
गुड नाइट कह कर उसने बत्ती ऊपर कर दी। मैं नीचे रेलवे लाइन के किनारे-किनारे चलता रहा, जब तक सही रास्ता न मिल गया। नीचे उतरने से ऊपर चढ़ना ख़ासा आसान लगा, और मैं अपनी सराय में बिना किसी जोखिम के पहुँच गया।
अगली रात मुलाकात के लिए तय वक़्त पर, मैंने उसी ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर दोबारा क़दम रखा, उसी क्षण दूर कहीं ग्यारह का गजर बजा, वह नीचे मेरा इंतज़ार कर रहा था, उसके हाथ में दूधिया रोशनी वाली बत्ती थी। मैंने आवाज़ नहीं दी, पर नजदीक पहुँचते ही मैंने पूछा,
“क्या मैं अब कुछ कह सकता हूँ?”
“बिल्कुल सर”।
एक-दूसरे को अभिवादन कर हम साथ-साथ कोठरी तक आए, अंदर जाकर उसने दरवाज़ा बंद कर लिया, हम अँगीठी के करीब आकर बैठ गए।
“सर, मैंने तय कर लिया है”, जैसे ही हम बैठे फुसफुसाहट के स्वर में उसने कहना शुरू किया, “आपको दोबारा नहीं पूछना पड़ेगा कि मेरी परेशानी क्या है, दरअसल कल शाम मैं आपको कोई और ही समझ बैठा था, उसी ने मुझे परेशान कर रखा था।”
—“बस इस वजह से?”
नहीं, उस दूसरे शख़्स से परेशान था जो मैं आपको समझ बैठा था।”
“कौन है वह?”
“मैं नहीं जानता।”
“मेरी तरह है कोई?”
“मैं नहीं जानता, मैंने कभी उसका चेहरा नहीं देखा, उसका बायाँ हाथ चेहरे के सामने होता है और दायाँ हाथ हवा में लहराता रहता है, उत्तेजना से—इस तरह।”
मैं ग़ौर से उसके हाथ के इशारे को देखता रहा, यह बेहद उत्तेजना और भावावेश में किया गया हाथ का इशारा था: “ख़ुदा के वास्ते रास्ते से हट जाओ।”
‘‘एक पूर्णमासी की रात में”, वह बताने लगा, “मैं यहाँ बैठा था, जब मैंने चीख़ती हुई यह आवाज़ सुनी।”
“हैलो! वहाँ नीचे!” मैं चौंक गया, दरवाज़े से देखा कि कोई सुरंग के नज़दीक लाल बत्ती के मुहाने खड़ा हाथ हिला रहा है। ठीक वैसे ही जैसे मैंने अभी-अभी आपको दिखाया, चिल्लाने से आवाज़ फट गई थी, “देखो, ज़रा संभलो!” और फिर “हैलो! वहाँ नीचे। देखो, हट जाओ!” मैंने अपनी लालटेन उठाई और लाल रोशनी को तेज़ कर चिल्लाते हुए उस आदमी की तरफ़ भागा:
“क्या बात है? क्या हो गया?”
वह आकृति सुरंग के घुप्प अँधेरे में खड़ी थी, जब मैं उसके कुछ क़रीब पहुँचा तो देखा उसकी कमीज़ की आस्तीन उसके चेहरे पर लहरा रही थी। मैं सीधे उसके निकट गया और हाथ बढ़ाकर उसकी क़मीज़ पकड़ना ही चाहता था कि वह छाया ओझल हो गई।”
“कहाँ, सुरंग में?” मैंने पूछा।
“पता नहीं, मैं सुरंग के भीतर पाँच सौ गज तक भागते हुए गया। मैंने लैंप की रोशनी को ऊपर उठाकर देखा। दूर कुछ धुँधली आकृतियाँ दिखाई दे रहीं थीं। मैं लौट कर तेज़ी से बाहर की तरफ़ भागा और अपनी लाल रोशनी में चारों तरफ़ देखा। फिर लोहे की सीढ़ियों से ऊपर बनी गैलरी में भी खड़े होकर देखा। मैं नीचे उतरा और भाग कर यहाँ आ गया, मैंने दोनों तरफ़ तार देकर पूछा, “कुछ गड़बड़ है क्या” दोनों तरफ़ से जवाब आया: “सब ठीक है”।
अपने भीतर उठ रही कँपकँपी पर क़ाबू पाते हुए मैंने उसे समझाया कि उस आकृति को देखना आँखों का धोखा भी तो हो सकता है। ऐसे कई क़िस्से सुनने में आए हैं, जहाँ आँखों की किसी नस की बीमारी की वजह से रोगी को किसी चीज़ का भ्रम हो जाता है और इसे उन लोगों पर कई प्रयोगों से साबित भी किया गया है। जहाँ तक उस काल्पनिक पुकार का सवाल है तो पलभर ज़रा ध्यान से इस सुनसान वादी में हवा को सुनो जो टेलीफ़ोन के तारों से टकरा कर एक अजीब तरह की आवाज़ पैदा कर रही है!”
कुछ पल बाद हम जब दोबारा बैठे तो वह बोला कि सालों तक तमाम सर्द रातें उसने यहाँ अकेले बिताई हैं, क्या वह हवा और तारों की आवाज़ को नहीं पहचानता? फिर उसने मुझे टोका कि अभी उसकी बात पूरी नहीं हुई है।
मैंने माफ़ी माँगी, वह हल्के से मेरी बाँह छूते हुए बोलने लगा:
“उस घटना के छह घंटे के भीतर इस लाइन पर एक अजीबोग़रीब दुर्घटना घटी और दस घंटे बाद मृतकों और घायलों को उस सुरंग में से ठीक उसी जगह पर लाया गया, जहाँ वह आकृति दिखाई दी थी।’
विस्मय भरी सिहरन मेरे बदन में फैल गई, पर मैंने उस पर क़ाबू पाने की कोशिश करते हुए कहा, “इसमें कोई शक नहीं कि यह एक अजीब इत्तफ़ाक है।” यह कह मैंने उसे तसल्ली देनी चाही, पर बहस की कोई गुँजाइश ही नहीं थी, क्योंकि ऐसे इत्तफ़ाकों का बार-बार घटना असंभव था और ऐसे किसी भी मुद्दे पर बात करते समय इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी था। फिर भी मैं बोला (हालाँकि मैं जानता था, यह उसे नागवार गुज़रेगा) कि कोई भी समझदार आदमी जीवन के सामान्य मसलों पर ग़ौर करते समय इस तरह के इत्तफ़ाकों पर ध्यान नहीं देता, उसने फिर गुज़ारिश की कि उसकी बात अभी पूरी नहीं हुई है।
बीच में टोकने के लिए मैंने फिर से माफ़ी माँगी।
“यह साल भर पहले की बात है”, उसने फिर से मेरे कंधे पर हाथ रख लिया और बताने लगा, “छह या सात महीने गुज़र चुके थे और मैं उस सदमे से उबर चुका था, तब एक सुबह जब दिन निकला ही था, मैं इस दरवाज़े पर खड़ा लाल बत्ती को देख रहा था कि मैंने दोबारा उस काली छाया को देखा, वह एकटक मेरी ओर देख रही थी’’, वह रुक गया और एकटक मुझे घूरने लगा।
“क्या उसने तुम्हें पुकारा था?”
“नहीं, वह ख़ामोश थी।”
“उसने अपना हाथ हिलाया था?”
“नहीं, हाथों से उसने अपना चेहरा ढाँप रखा था और वह बिजली के खंभे पर झुकी हुई थी, यूँ।”
एक बार फिर मैंने उसके इशारे को ग़ौर से देखा, यह बिल्कुल किसी के विलाप प्रकट करने की मुद्रा था। मैंने ऐसी मुद्रा क़ब्रों पर अंकित तस्वीरों में देखी “क्या तुम उसके निकट गए?”
“मैं अंदर आकर बैठ गया, पहले तो इसलिए कि मैं इस पर सोचना चाहता था, दूसरे उसे देख कर मेरे होश उड़ गए थे। मैं दोबारा जब दरवाज़े पर गया तो दिन चढ़ आया था और वह छाया वहाँ नहीं थी।”
“पर उसके बाद कुछ नहीं घटा?”
उसने अपनी उँगलियों से मेरी बाँह को दो-तीन बार छुआ, हर बार वह एक डरावने ढंग से सिर हिलाता।
“उसी दिन जब सुरंग में से गाड़ी आई, तो मैंने पाया कि डिब्बे की मेरी तरफ़ खुलने वाली एक खिड़की के भीतर कई हाथ और सिर जैसा कुछ दिख रहा था और कुछ हिल रहा था। मैंने तुरंत ड्राइवर को संकेत दिया, रुको। उसने ब्रेक लगाए, पर फिर भी ट्रेन सौ-डेढ़ सौ गज दूर रेंगती चली गई। मैं उसके पीछे भागा और क़रीब पहुँचा तो मैंने भयावह चीखें और रुदन सुना। एक ख़ूबसूरत जवान औरत की डिब्बे में मौक़े पर ही मृत्यु हो गई थी। बाद में उसे यहाँ लाया गया और यही हम दोनों के बीच की इस जगह पर लिटाया गया।”
अनजाने में ही मैंने अपनी कुर्सी पीछे खिसका ली।
“बिल्कुल सर, ऐसा ही हुआ, बिल्कुल सच, जो घटा मैं वही बयान कर रहा हूँ ।”
मुझे कुछ नहीं सूझा कि मैं क्या कहूँ, मेरा हलक सूख रहा था। तारों पर से गुज़रती हवा भी मानो इस कहानी को सुन चीत्कार करती हुई वहाँ से निकलती जान पड़ती थी। उसने दोबारा कहना शुरू किया, “सर अब आप ही बताएँ और सोचे कि मेरा दिमाग़ कितना परेशान है, वह छाया हफ़्ता भर पहले फिर आई थी, तब से वह बार-बार आ रही है।”
“क्या बत्ती के पास?”
“हाँ उस ख़तरे वाली बत्ती के पास।”
“वह क्या करती दिखाई देती है?”
वह लगातार बेहद उत्तेजना और भावावेश में वही इशारा करती है, “ख़ुदा के वास्ते रास्ते से हट जाओ!”
वह कहता चला गया, “मेरा चैन और आराम छिन चुका है, वह छाया हर पल मुझे पुकारती है, बेहद वेदना में तड़पते हुए चिल्लाती है, “वहाँ नीचे! देखो, ज़रा संभलो!”
वह लगातार हाथ हिलाकर इशारा करती है, वह घंटी बजा देती है...
मैंने इस बात पर उसे पकड़ लिया, “क्या उसने कल शाम तुम्हारी घंटी बजाई थी, जब मैं यहाँ था और तुम दरवाज़े तक गए थे?”
“हाँ, दो बार।”
“देखो” मैंने कहा, “तुम्हारी कल्पना किस कदर तुम्हें भ्रमित कर रही है।”
मेरी आँखें घंटी की तरफ़ ही थीं और कान भी घंटी की तरफ़ ही लगे हुए थे और यदि मैं एक ज़िंदा इंसान हूँ तो पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि उस दौरान घंटी कतई नहीं बजी थी। सिवाय उन क्षणों में जब तुम स्टेशन को रूटीन क़िस्म के संदेश भेजते रहे थे।”
उसने अपना सिर हिलाया। “इस बारे में मैंने आज तक कभी कोई ग़लती नहीं की सर, मैं कभी छाया की घंटी को स्टेशन से भेजी घंटी समझ ही नहीं सकता, क्योंकि छाया की घंटी में एक अजीब-सा कंपन होता है, और इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं अगर आपने उसे नहीं सुना हो, पर मैंने उसे सुना था।”
‘और क्या जब तुमने बाहर झाँका तो वह छाया दिखाई दी थी?”
“हाँ, वह थी।”
“दोनों बार?”
उसने पूरे विश्वास से कहा: “हाँ, दोनों बार।”
“क्या तुम अभी मेरे साथ बाहर आओगे, और हम उसे देखें? उसने अपना निचला होंठ ऐसे काटा, मानो बाहर आने की उसकी इच्छा न हो पर फिर भी वह उठा।
मैंने दरवाज़ा खोला और सीढ़ी पर खड़ा रहा, जबकि वह दहलीज़ पर खड़ा था। बाहर ख़तरे की बत्ती जल रही थी। सुरंग का भयावह मुहाना खुला था, पत्थरों की दीवार थी, आसमां पर तारे चमक रहे थे। “क्या वह तुम्हें दिख रही है?’’ मैंने उसके चेहरे पर नज़र गड़ाते हुए पूछा, उसकी आँखें खुली थीं, पर उनमें खिंचाव था। ख़ुद मेरी आँखों में खिंचाव आ गया था, क्योंकि मैं भी नज़रें गड़ाकर उसी जगह को देख रहा था।
“नहीं, वह नहीं है” वह बोला।
“देख लिया” मैंने कहा।
हम फिर भीतर आ गए, दरवाज़ा बंद कर अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ गए। मैं इस मौक़े का पूरा फ़ायदा उठाना चाहता था, पर उसने फिर ऐसी बात शुरू कर दी कि मुझे लगा हम दोनों के बीच कोई तर्कसंगत बात होनी मुमकिन ही नहीं है, उसकी बात सुनकर मुझे अपनी हालत काफ़ी कमज़ोर जान पड़ी।
“सर, अब तक आप बख़ूबी समझ गए होंगे”, उसने कहना शुरू किया, क्या चीज़ मुझे इस कदर परेशान कर रही है, यही कि उस छाया का क्या मतलब है?”
“मैं कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ” मैंने कहा।
“यह चेतावनी किस बारे में है?” आग की ओर देखते हुए उसने कहा ख़तरा कहाँ है?” किस तरह का खतरा है? ख़तरा पटरियों पर मंडरा रहा है, ज़रूर कुछ होने वाला है। दो बार जो पहले घट चुका है, तीसरी बार उस पर संदेह नहीं किया जा सकता। यह बहुत यातनादायी है, मैं भला क्या कर सकता हूँ?”
उसने अपना रूमाल निकाला और माथे पर से पसीने की बूँदें पोंछीं।
“यदि मैं दोनों तरफ़ ‘ख़तरे’ का तार भेजता हूँ तो मेरे पास इसकी कोई वजह नहीं है।” अपनी हथेलियों का पसीना पोंछते हुए वह बोलता रहा, “इससे मेरी परेशानी बढ़ जाएगी और कोई फ़ायदा नहीं होगा। वे लोग सोचेंगे मैं पागल हूँ। यह कुछ इस तरह होगा—संदेश: ‘ख़तरा! सावधान रहें!’ जवाब: ‘क्या ख़तरा?
कहाँ?’ संदेश: ‘पता नहीं, पर ख़ुदा के वास्ते सावधान रहें!’ वे लोग मुझे बरख़ास्त कर देंगे, और वे करेंगे भी क्या?”
उसकी दिमाग़ी हालत को देख मुझे उस पर तरस आ रहा था। यह एक बेहद ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ आदमी की मानसिक यातना थी, जो जीवन बचाने की कठिन ज़िम्मेदारी के अहसास से सहनशीलता की तमाम सीमाओं को पार कर चुका था।
“जब वह छाया पहली बार ख़तरे की बत्ती के पास खड़ी थी” वह बोलता गया, “अपने काले घने बालों को माथे पर से हटाते हुए वह बहुत उत्तेजना के साथ हाथ हिला रही थी, वह मुझे बता क्यों नहीं देती कि दुर्घटना कहाँ होने वाली है? और उसे कैसे रोका जा सकता है? दूसरी बार तो उसने चेहरा भी ढाँप रखा था। इसकी बजाए क्यों नहीं मुझे बताया कि वह मरने वाली है। उसे घर पर ही रोक लिया जाए? यदि वह दोनों बार केवल मुझे आगाह करने आई थी कि ये चेतावनियाँ सच हैं, तो शायद अब तीसरी के लिए मुझे तैयार कर रही है। मुझे वह सीधे-सीधे सावधान क्यों नहीं कर देती? मैं अकेला ग़रीब सिग्नल मैन भला इस सुनसान चौकी पर कर भी क्या सकता हूँ? हे ईश्वर, मेरी मदद करो! क्यों नहीं वह किसी ऐसे शख़्स के पास जाती, जिसकी बात को लोग सुनते हों और जिसके पास कुछ करने का अधिकार हो!”
जब मैंने उसे इस हालत में देखा, तो मुझे लगा कि इस बेचारे ग़रीब के लिए ही नहीं, जनता की भलाई के लिए भी इसे इस हालत से उबारना होगा। इसलिए तथ्य और भ्रम की सारी बहस को दरकिनार कर मैंने उसे समझाया कि वह अपने काम को बड़ी ख़ूबी से अंजाम दे रहा है और उसे ऐसा करना भी चाहिए। वह अपना कर्तव्य भी बख़ूबी जानता है। भले ही वह इस आकृति के खेल को न समझ पा रहा हो। अपनी इस कोशिश से मुझे वह सफलता मिली जो तर्क से उसे समझाने पर नहीं मिलती। इस बात से उसे राहत महसूस हुई। ज्यों-ज्यों रात गहराती गई उसके काम की भागदौड़ भी बढ़ने लगी। दो बजे मैंने उससे विदा ली। मैं तो पूरी रात उसके साथ बिताने को तैयार था, पर वह नहीं माना।
रास्ते से नीचे उतरते हुए मैंने दो बार उस लाल बत्ती को मुड़कर देखा। मैं उन दो हादसों और मृत लड़की के बारे में सोचता रहा। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगा। पर सबसे ज़्यादा फ़िक्र मुझे इस बात की थी कि इस रहस्यमय वारदात को सुनने के बाद अब मुझे क्या करना चाहिए? इसमें कोई शक नहीं था कि वह एक बेहद समझदार, मेहनती और निष्ठावान कर्मचारी था। पर इस मानसिक हालत में वह कब तक अपने को ठीक-ठाक रख सकेगा? हालांकि वह मामूली नौकरी थी, पर फिर भी काफी ज़िम्मेदारी से भरी हुई थी।
मुझे बार-बार ऐसा महसूस हो रहा था कि उसने मुझे जो कुछ बताया है, यदि वह सब मैं उसके अफ़सरों को जाकर बता देता तो यह विश्वासघात होगा। इससे पहले उसी के साथ सीधे-सीधे बात कर बीच का कोई रास्ता निकलना होगा। आख़िरकार मैंने तय किया कि आस-पास के किसी चिकित्सक के पास उसे ले जाकर उसकी राय लेना ठीक रहेगा। तब तक मैं उसका राज़ अपने तक ही रखूँगा। उसने मुझे बताया था कि उसकी ड्यूटी का समय बदलेगा और सूर्योदय के एक दो घंटे बाद उसकी छुट्टी हो जाएगी। मैंने उस समय उससे मिलना तय कर लिया था।
अगले दिन शाम बड़ी ख़ुशगवार थी। मैं उसका लुत्फ़ उठाने के लिए जल्दी ही निकल पड़ा, सूरज अभी डूबा नहीं था। मैंने सोचा घंटे भर तक सैर करूँगा, आधा घंटा जाने के लिए आधा घंटा लौटने के लिए, तब तक उससे मिलने का वक़्त भी हो जाएगा।
सैर शुरू करने से पहले अनायास ही मैंने पहाड़ी के किनारे से नीचे झाँका, जहाँ से मैंने पहली बार उसे देखा था। मैं बयान नहीं कर सकता मैं इस कदर रोमांचित हो उठा, जब मैंने सुरंग के मुँह पर एक आदमी को वैसा ही इशारा करते देखा, उसकी क़मीज़ की आस्तीन उसकी आँखों पर आ रही थी वह उत्तेजना में अपना दायाँ हाथ हिला रहा था।
पर दूसरे ही पल एक अनाम-सा आतंक मुझ पर हावी हो गया, क्योंकि पल भर बाद ही मैंने देखा कि वह सचमुच एक आदमी की आकृति थी। वह आदमी कुछ दूर खड़ी एक भीड़ को यह सब अभिनय करके दिखा रहा था। ख़तरे की बत्ती अभी तक नहीं जलाई गई थी, पर खंभे के नीचे कड़ी और तिरपाल की सहायता से एक मचान बनाई गई थी, जो मैंने पहले नहीं देखी थी, वह बमुश्किल एक बिस्तर जितनी थी।
मुझे तुरंत अंदेशा हुआ ज़रूर कोई हादसा हुआ है, मैं तंग गली से उतर कर तेज़ी से नीचे आया।
“क्या बात है?” मैंने लोगों से पूछा।
“सर, आज सुबह सिग्नल मैन मारा गया।”
“उस कोठरी में रहता है वह तो नहीं?”
“हाँ वही, सर?”
“क्या वही जिसे मैं जानता हूँ?”
“सर अगर आप उसे जानते हैं तो देखकर पहचान लेंगे” उस व्यक्ति ने कहा और तिरपाल का कोना उठा दिया।
“ओह! यह सब कैसे हो गया?” मैंने पूछा।
“सर, वह इंजिन से कट गया। इंग्लैंड में कोई और इस काम को उससे बेहतर नहीं कर सकता था। पर पता नहीं क्यों वह बाहर से आती हुई रेल के बारे में सावधान नहीं था, यह हादसा दिन की रोशनी में हुआ। उसने बत्ती जला रखी थी और हाथ में लालटेन थी। इंजिन जब सुरंग से बाहर निकला, इसकी पीठ उस तरफ़ थी और वह कुचला गया। अभी उस गाड़ी का ड्राइवर हाथ के इशारे से सबको दिखा रहा था।”
“टॉम, इन साहब को भी दिखाओ।”
वह आदमी जिसने काले कपड़े पहन रखे थे, एक बार फिर सुरंग के भीतर तक गया और बताने लगा,
“सुरंग में मोड़ पर ही मैंने उसे देखा, गाड़ी की गति को कम करने का समय ही नहीं था और मैं जानता था। वह काफ़ी एहतियात बरतने वाला कर्मचारी है, पर जब मैंने देखा कि वह इंजिन की सीटी पर ध्यान ही नहीं दे रहा है तो मैंने सीटी बंद कर दी और अपनी पूरी शक्ति से चिल्लाने लगा”।
“तुमने क्या कहा?”
“मैंने कहा, वहाँ नीचे, देखो ज़रा, संभलो! ख़ुदा के वास्ते रास्ते से हट जाओ!” मैं सन्न रह गया।
ओह सर, यह बहुत भयानक था, मैं लगातार बिना रुके चिल्ला-चिल्लाकर इशारा करता रहा, मैंने अपना यह हाथ आँखों पर रख लिया, ताकि मैं कुछ देख न सकूँ और आख़िर तक मैं हाथ हिलाता रहा; पर कोई फ़ायदा न हुआ।”
अब इस क़िस्से को और ज़्यादा न फैलाते हुए मैं सिर्फ़ यही कहूँगा कि यह कैसा संजोग था कि उस सिग्नल मैन ने अपनी मौत से पहले इंजिन ड्राइवर के न केवल शब्दों को बल्कि उसके इशारे तक को मेरे सामने दोहराया था। यह मौत का कैसा पूर्वाभास था!
“hailo? vahan niche!”
jab usne pukare jane ki avaz suni, wo apni chhoti si kothari ke bahar khaDa tha, uske haath mein jhanDi thi. jahan wo khaDa tha vahan se bina kisi shanka ke ye samajhna behad asan tha ki avaz kahan se aai hai, par phir bhi uupar dekhne ki bajaye, jahan theek uske sir ke uupar ek nokadar chattan par main khaDa tha, wo ghuma aur niche relve lain ki taraf dekhne laga. uski is harkat mein kuch khaas tha, par kya ye main samajh nahin pa raha tha? jis nukili chattan par main khaDa tha uski aaD mein wo Dhank sa gaya tha aur mujhe bhi aag ugalte suraj se bachne ke liye ankhon ko haath se Dhankna paDa, uske baad hi main use dekh saka.
“are bhai! zara suno to?”
wo relve lain ki taraf dekh raha tha, wo muDa aur usne ankhen uthain to theek apne uupar mujhe khaDa paya.
“
‘kya, koi rasta hai jisse main niche aakar tumse baat kar sakun?’
koi javab diye baghair wo mujhe dekhta raha aur mainne bhi apni baat dohrai nahin aur use dekhta raha, tabhi zamin aur hava mein ek aspasht sa kampan hua, jo tatkal tez spandan mein badal gaya aur phir tezi se sarpat bhagti tren vahan se guzri, main jhatke se pichhe hata, manon wo mujhe niche kheench legi, jab tezi se gaDagDati tren mere samne se guzarti hui, Dhalan par utarne lagi to mainne phir niche dekha wo apni jhanDi lahra raha tha. mainne apna saval dohraya, wo pal bhar ruka, ektak bharpur taulti najron se usne mujhe dekha aur phir jis DanDi mein jhanDa lapeta hua tha, usi se usne mujhe samne ki taraf ka rasta dikhaya, jo
karib do teen sau gaj door tha.
main chillaya “theek hai!” aur us taraf chal paDa, ye gahra aur teDha meDha rasta tha. is teDhe meDhe raste se utarte hue jab main niche pahuncha to mainne paya ki wo rel ki patariyon ke bichon beech khaDa tha, jahan se kuch der pahle tren guzri thi, laga manon use mere achanak prakat hone ka intzaar ho, wo is kadar chaukanna aur sahma hua tha ki mujhe tajjub hua.
main thoDa aur niche utra aur patariyon ke ekdam qarib aa gaya. wo ab samne tha, patla dubla daDhiyal adami jiski bhaunhen ghani theen. uski chauki itni sunsan jagah par thi, jiski kalpana bhi nahin ki ja sakti. donon taraf pani se risti silan bhari nonkdar pathrili divar thi, jahan se kuch bhi dekhana mushkil tha sivay asman ki ek patli si lakir ke. vatavran mein bhayavah udasinata aur ghutan thi. us jagah par itni kam dhoop aati thi ki har taraf silan ki badbu thi. tez thanDi hava mein main kaanp utha, aisa laga jaise kudarti duniya kahin pichhe chhoot gai ho.
wo hilta, usse pahle main uske itne qarib pahunch gaya ki use chhu sakta tha. tab tak wo mujhe ektak ghurta hi raha. main uske qarib pahuncha to wo ek qadam pichhe hata aur haath uupar uthaya.
“yah to ekdam sunsan chauki hai aur isne mera dhyaan kheench liya. mere khayal se shayad hi kabhi koi bhule bhatke yahan aata hoga. ” main bola.
usne surang ke muhane ke paas laal batti ki taraf baDe vismay se dekha aur charon taraf nazar ghumai, manon vahan se kuch ghayab ho gaya ho aur phir meri taraf dekha.
jab mainne uske bhavahin aur udaas chehre ko ghaur se dekha to laga manon wo jita jagata manushya na hokar koi pretatma ho, ye Daravna khayal mere dimagh mein kyon aaya, main nahin janta? par tab se main isi udheDbun mein raha ki uske dimagh mein koi khalal to nahin?
ab meri bari thi, main bhi pichhe hat gaya, par aisa karte vaqt mainne uski ankhon mein apne prati ek aspasht bhay dekha, isse mere us khayal ko aur hava mili.
“tum to meri taraf yoon dekh rahe ho”, mainne jabran muskrate hue kaha, “manon tum mujhse bhaybhit ho. ”
mujhe andesha hai ki shayad mainne pahle aapko kahin dekha hai. ”
“kahan?”
usne us laal batti ki or ishara kiya.
“vahan?” ashcharya chakit ho mainne puchha.
meri taraf se satark rahte hue usne javab diya, (bina avaz kiye)
“pyare dost, main bhala vahan kya karunga? khair tum chahe jo bhi socho par qasam khuda ki ki main vahan kabhi gaya hi nahin. ”
“haan, shayad aisa hi hoga. ”
phir wo sahj ho gaya, ab wo meri baton ka khulkar javab dene laga, kya use yahan bahut kaam karna paDta hai? haan, kaphi zimmedari ka kaam hai. vaqt chaukas rahna paDta hai. yoon mehnat kuch bhi nahin, par zimmedari zyada hai—signal badalna, battiyan dhimi karna, is lohe ke hainDal ko uupar niche ghumana, bas yahi sab hai.
un lambe udaas dinon ke bare mein jiske bare mein soch soch kar main hairan tha ki koi kaise yahan samay katta hoga, usne sirf itna hi kaha ki ye sab uski zindagi ka Dharra ban chuka hai aur use iski aadat paD chuki hai. yahan usne sanketon ki apni ek bhasha iijad kar li hai aur is tarah apne khayalon ki udheDbun mein hi vyast rahta hai. usne joD baqi aur dashamlav ka sara hisab aur thoDa sa bijagnit bhi seekh liya hai, halanki wo shuru se hi
hisab mein kamzor tha.
kaam karte samay kya ye zaruri hai ki har vaqt silan bhari kothari mein hi raha jaye, kya patthar ki divar laangh kar suraj ki khuli roshni mein jana use nahin suhata? ye vaqt aur halat par nirbhar hai, achchhe mausam mein usne bahar nikalna bhi chaha, par bijli ki ghanti kisi bhi vaqt baj uthne ki chinta har vaqt uske dimag par havi rahi, is vajah se bahar nikalna khushi ki bajaye pareshani hi adhik deta hai.
mujhe wo apni kothari mein le gaya. vahan angithi thi, mez thi, jis par daftri rajistar rakha tha, jismen use lagatar kuch darz karna paDta tha, ek teligraf mashin aur ek ghanti thi, jiska usne kuch der pahle jiqr kiya tha. usne bataya ki jab wo naujavan tha (halanki mujhe sandeh tha ki aisi jagah par koi bhi naujavan bana rah sakta hai) wo darshanshastr ka vidyarthi tha, vyakhyanon mein bhi maujud rahta tha, par phir usne wo mauqa ganva diya aur jivan mein ek baar luDhka to phir sambhal nahin paya. ab is sabse use koi gila bhi nahin hai, kamre mein uska bistar laga hua tha, wo us par let gaya, raat bahut ho chuki thi, aur itni raat ge vahan ek aur bistar lagana mushkil tha.
dhime dhime svar mein usne jo kuch bhi bataya kul milakar uska yahi saar tha, wo beech beech mein mujhe ‘sar’ kah kar bulata. khaskar tab jab wo apni javani ke dinon ki baten karta, manon wo ye sabit karna chaah raha ho ki main jo kuch use samajh raha hoon us lihaz se wo kuch bhi nahin hai. jab hum baten kar rahe the, beech beech mein kai baar ghanti baji aur use sandesh paDhkar javab bhejne paDe. ek baar jab vahan se tren guzri to wo bahar gaya, usne jhanDi dikhai aur tren ke Draivar se kuch chilla kar kaha bhi, mainne paya ki kaam niptate vaqt wo behad satark aur mustaid rahta, jab tak kaam nipat na jata, wo ekdam khamosh rahta.
dekha jaye to is naukari ke liye wo ekdam bharosemand adami tha, par halat kuch aise bane ki. . . jab wo mujhse baat kar raha tha to bevajah ghanti ki taraf dekhne lagta, jab wo baj bhi nahin rahi hoti. ek baar to usne kothari ka darvaza bhi khola (jise silan ki badbu rokne ke liye band kar rakha tha) aur wo bahar jakar surang ke muhane par lagi laal batti ki taraf bhi dekhne laga. donon hi maukon par jab wo laut kar angithi ke nikat aaya to uske chehre par vahi ajib sa bhaav tha, jise mainne pahle bhi dekha tha aur jise samajh
pana mushkil tha.
jane ke liye jab main utha to mainne usse kahah “tumhen dekh kar mujhe laga hai ki aaj main ek aise shakhs se mila hoon, jo apni duniya mein khush aur santusht hai. ” (main manata hoon ye mainne mahaj uska hausla baDhane ke liye kaha tha).
“haan main khud bhi yahi samajhta tha”, wo usi dhime svar mein bola, “par ab main pareshan hoon, sar main bahut pareshan hoon”.
kya baat hai? tumhein kya pareshani hai?”
“use batana mushkil hai sar, bahut mushkil, agar aap phir kabhi ayen to main batane ki koshish karunga. ”
“main zarur tumse dobara milna chahta hoon. batao hum kab mil sakte hain?”
“sar, subah meri Dyuti khatm hoti hai, phir raat das baje main kaam par auunga. ”
“theek hai, main gyarah baje tumse aakar milunga”.
usne mera shukriya ada kiya aur mujhe chhoDne darvaze tak aaya.
“sar, jab tak aap uupar nahin pahunch jate main apni safed batti dikhata rahunga. ” usne apni usi dhimi avaz mein kaha, “par beech raste mein aur uupar pahunchne ke baad bhi koi avaz mat dijiyega. ”
uska haav bhaav kuch aisa tha ki mujhe wo jagah aur bhi rahasyamay lagne lagi aur mere jism mein kanpakapi si dauD gai. baharhal mainne itna hi kaha “theek hai”.
aur kal jab aap niche ayen, tab bhi koi avaz na dijiyega. jane se pahle main aapse ek saval puchhna chahta hoon, akhir aapne aaj is tarah kyon pukara tha, hailo! vahan niche!”
“mujhe yaad nahin, main kya bola tha, haan, shayad kuch aisa hi pukara tha. . . ”
“shayad nahin, sar, yaqinan yahi shabd aapne kahe the, main achchhi tarah janta hoon. ”
“kya aapko aisa nahin mahsus hua ki koi daivi shakti aapko yahi shabd kahne ke liye badhya kar rahi thi. ”
“nahin?”
guD nait kah kar usne batti uupar kar di. main niche relve lain ke kinare kinare chalta raha, jab tak sahi rasta na mil gaya. niche utarne se uupar chaDhna khasa asan laga, aur main apni saray mein bina kisi jokhim ke pahunch gaya.
agli raat mulakat ke liye tay vaqt par, mainne usi uubaD khabaD raste par dobara qadam rakha, usi kshan door kahin gyarah ka gajar baja, wo niche mera intzaar kar raha tha, uske haath mein dudhiya roshni vali batti thi. mainne avaz nahin di, par najdik pahunchte hi mainne puchha,
“kya main ab kuch kah sakta hoon?”
“bilkul sar”.
ek dusre ko abhivadan kar hum saath saath kothari tak aaye, andar jakar usne darvaza band kar liya, hum angithi ke karib aakar baith ge.
“sar, mainne tay kar liya hai”, jaise hi hum baithe phusphusahat ke svar mein usne kahna shuru kiya, “apko dobara nahin puchhna paDega ki meri pareshani kya hai, darasal kal shaam main aapko koi aur hi samajh baitha tha, usi ne mujhe pareshan kar rakha tha. ”
—“bas is vajah se?”
nahin, us dusre shakhkh se pareshan tha jo main aapko samajh baitha tha. ”
“kaun hai vah?”
“main nahin janta. ”
“meri tarah hai koi?”
“main nahin janta, mainne kabhi uska chehra nahin dekha, uska bayan haath chehre ke samne hota hai aur dayan haath hava mein lahrata rahta hai, uttejna se is tarah. ”
main ghaur se uske haath ke ishare ko dekhta raha, ye behad uttejna aur bhavavesh mein kiya gaya haath ka ishara thaah “khuda ke vaste raste se hat jao. ”
‘‘ek purnmasi ki raat men”, wo batane laga, “main yahan baitha tha, jab mainne chikhti hui ye avaz suni. ”
“hailo ! vahan niche!” main chaunk gaya, darvaze se dekha ki koi surang ke nazdik laal batti ke muhane khaDa haath hila raha hai. theek vaise hi jaise mainne abhi abhi aapko dikhaya, chillane se avaz phat gai thi, “dekho, zara sambhlo!” aur phir “hailo vahan niche. dekho, hat jao!” mainne apni lalten uthai aur laal roshni ko tej kar chillate hue us adami ki taraf bhagah
“kya baat hai? kya ho gaya?”
wo akriti surang ke ghupp andhere mein khaDi thi, jab main uske kuch qarib pahuncha to dekha uski kamij ki astin uske chehre par lahra rahi thi. main sidhe uske nikat gaya aur haath baDhakar uski qamiz pakaDna hi chahta tha ki wo chhaya ojhal ho gai. ”
“kahan, surang men?” mainne puchha.
“pata nahin, main surang ke bhitar paanch sau gaj tak bhagte hue gaya. mainne laimp ki roshni ko uupar uthakar dekha. door kuch dhundhli akritiyan dikhai de rahin theen. main laut kar tezi se bahar ki taraf bhaga aur apni laal roshni mein charon taraf dekha. phir lohe ki siDhiyon se uupar bani gailri mein bhi khaDe hokar dekha. main niche utra aur bhaag kar yahan aa gaya, mainne donon taraf taar dekar puchha, “kuchh gaDbaD hai kyaa” donon taraf se javab ayah “sab theek hai”.
apne bhitar uth rahi kanpkanpi par qabu pate hue mainne use samjhaya ki us akriti ko dekhana ankhon ka dhokha bhi to ho sakta hai. aise kai qisse sunne mein aaye hain, jahan ankhon ki kisi nas ki bimari ki vajah se rogi ko kisi cheez ka bhram ho jata hai aur ise un logon par kai pryogon se sabit bhi kiya gaya hai. jahan tak us kalpanik pukar ka saval hai to palbhar zara dhyaan se is sunsan vadi mein hava ko suno jo telifon ke taron se takra kar ek ajib tarah ki avaz paida kar rahi hai!”
kuch pal baad hum jab dobara baithe to wo bola ki salon tak tamam sard raten usne yahan akele bitai hain, kya wo hava aur taron ki avaz ko nahin pahchanta? phir usne mujhe toka ki abhi uski baat puri nahin hui hai.
mainne mafi mangi, wo halke se meri baanh chhute hue bolne lagah
“us ghatna ke chhah ghante ke bhitar is lain par ek ajiboghrib durghatna ghati aur das ghante baad mritkon aur ghaylon ko us surang mein se theek usi jagah par laya gaya, jahan wo akriti dikhai di thi. ’
vismay bhari siharan mere badan mein phail gai, par mainne us par qabu pane ki koshish karte hue kaha, “ismen koi shak nahin ki ye ek ajib ittfaak hai. ” ye kah mainne use tasalli deni chahi, par bahs ki koi gunjaish hi nahin thi, kyonki aise ittfakon ka baar baar ghatna asambhav tha aur aise kisi bhi mudde par baat karte samay is baat ka dhyaan rakhna zaruri tha. phir bhi main bola (halanki main janta tha, ye use nagavar guzrega) ki koi bhi samajhdar adami jivan ke samanya maslon par ghaur karte samay is tarah ke ittfakon par dhyaan nahin deta, usne phir guzarish ki ki uski baat abhi puri nahin hui hai.
beech mein tokne ke liye mainne phir se mafi mangi.
“yah saal bhar pahle ki baat hai”, usne phir se mere kandhe par haath rakh liya aur batane laga, “chhah ya saat mahine guzar chuke the aur main us sadme se ubar chuka tha, tab ek subah jab din nikla hi tha, main is darvaze par khaDa laal batti ko dekh raha tha ki mainne dobara us kali chhaya ko dekha, wo ektak meri or dekh rahi thee’’, wo ruk gaya aur ektak mujhe ghurne laga.
“kya usne tumhein pukara tha?”
“nahin, wo khamosh thi. ”
“usne apna haath hilaya tha?”
“nahin, hathon se usne apna chehra Dhaanp rakha tha aur wo bijli ke khambhe par jhuki hui thi, yoon. ”
ek baar phir mainne uske ishare ko ghaur se dekha, ye bilkul kisi ke vilap prakat karne ki mudra tha. mainne aisi mudra qabron par ankit tasviron mein dekhi “kya tum uske nikat ge?”
“main andar aakar baith gaya, pahle to isliye ki main is par sochna chahta tha, dusre use dekh kar mere hosh uD ge the. main dobara jab darvaze par gaya to din chaDh aaya tha aur wo chhaya vahan nahin thi. ”
“par uske baad kuch nahin ghata?”
usne apni ungliyon se meri baanh ko do teen baar chhua, har baar wo ek Daravne Dhang se sir hilata.
“usi din jab surang mein se gaDi aai, to mainne paya ki Dibbe ki meri taraf khulne vali ek khiDki ke bhitar kai haath aur sir jaisa kuch dikh raha tha aur kuch hil raha tha. mainne turant Draivar ko sanket diya, ruko. usne break lagaye, par phir bhi tren sau DeDh sau gaj door rengti chali gai. main uske pichhe bhaga aur qarib pahuncha to mainne bhayavah chikhen aur rudan suna. ek khubsurat javan aurat ki Dibbe mein mauqe par hi mrityu ho gai thi. baad mein use yahan laya gaya aur yahi hum donon ke beech ki is jagah par litaya gaya. ”
anjane mein hi mainne apni kursi pichhe khiska li.
“bilkul sar, aisa hi hua, bilkul sach, jo ghata main vahi byaan kar raha mujhe kuch nahin sujha ki main kya kahun, mera halak sookh raha tha. taron par se guzarti hava bhi manon is kahani ko sun chitkar karti hui vahan se nikalti jaan paDti thi. usne dobara kahna shuru kiya, “sar ab aap hi batayen aur sochen ki mera dimagh kitna pareshan hai, wo chhaya hafta bhar pahle phir aai thi, tab se wo baar baar aa rahi hai. ”
“kya batti ke paas?”
“haan us khatre vali batti ke paas. ”
“vah kya karti dikhai deti hai?”
wo lagatar behad uttejna aur bhavavesh mein vahi ishara karti hai, “khuda ke vaste raste se hat jao!”
wo kahta chala gaya, “mera chain aur aram chhin chuka hai, wo chhaya har pal mujhe pukarti hai, behad vedna mein taDapte hue chillati hai, “vahan niche! dekho, zara sambhlo!”
wo lagatar haath hilakar ishara karti hai, wo ghanti baja deti hai. . .
mainne is baat par use pakaD liya, “kya usne kal shaam tumhari ghanti bajai thi, jab main yahan tha aur tum darvaze tak ge the?”
“haan, do baar. ”
“dekho” mainne kaha, “tumhari kalpana kis kadar tumhein bhramit kar rahi hai.
meri ankhen ghanti ki taraf hi theen aur kaan bhi ghanti ki taraf hi lage hue the aur yadi main ek zinda insaan hoon to pure yakin ke saath kah sakta hoon ki us dauran ghanti katii nahin baji thi. sivay un kshnon mein jab tum steshan ko rutin qism ke sandesh bhejte rahe the. ”
usne apna sir hilaya. “is bare mein mainne aaj tak kabhi koi ghalati nahin ki sar, main kabhi chhaya ki ghanti ko steshan se bheji ghanti samajh hi nahin sakta, kyonki chhaya ki ghanti mein ek ajib sa kampan hota hai, aur ismen koi tajjub bhi nahin agar aapne use nahin suna ho, par mainne use suna tha. ”
‘aur kya jab tumne bahar jhanka to wo chhaya dikhai di thee?”
“haan, wo thi. ”
“donon baar?”
usne pure vishvas se kahah “haan, donon baar. ”
“kya tum abhi mere saath bahar aoge, aur hum use dekhen? usne apna nichla honth aise kata, manon bahar aane ki uski ichchha na ho par phir bhi wo utha.
mainne darvaza khola aur siDhi par khaDa raha, jabki wo dahliz par khaDa tha. bahar khatre ki batti jal rahi thi. surang ka bhayavah muhana khula tha, patthron ki divar thi, asman par tare chamak rahe the. “kya wo tumhein dikh rahi hai?’’ mainne uske chehre par nazar gaDate hue puchha, uski ankhen khuli theen, par unmen khinchav tha. khud meri ankhon mein khinchav aa gaya tha, kyonki main bhi nazren gaDakar usi jagah ko dekh raha tha.
“nahin, wo nahin hai” wo bola.
“dekh liya” mainne kaha.
hum phir bhitar aa ge, darvaza band kar apni apni kursiyon par baith ge. main is mauqe ka pura fayda uthana chahta tha, par usne phir aisi baat shuru kar di ki mujhe laga hum donon ke beech koi tarksangat baat honi mumkin hi nahin hai, uski baat sunkar mujhe apni haalat kafi kamzor jaan paDi.
“sar, ab tak aap bakhubi samajh ge honge”, usne kahna shuru kiya, kya cheez mujhe is kadar pareshan kar rahi hai, yahi ki us chhaya ka kya matlab hai?”
“main kuch nahin samajh pa raha hoon” mainne kaha.
“yah chetavni kis bare mein hai?” aag ki or dekhte hue usne kaha khatra kahan hai?” kis tarah ka khatra hai? khatra patariyon par manDra raha hai, zarur kuch hone vala hai. do baar jo pahle ghat chuka hai, tisri baar us par sandeh nahin kiya ja sakta. ye bahut yatanadayi hai, main bhala kya kar sakta hoon?”
usne apna rumal nikala aur mathe par se pasine ki bunden ponchhin.
“yadi main donon taraf ‘khatre’ ka taar bhejta hoon to mere paas iski koi vajah nahin hai. ” apni hatheliyon ka pasina ponchhte hue wo bolta raha, “isse meri pareshani baDh jayegi aur koi fayda nahin hoga. ve log sochenge main pagal ye kuch is tarah hoga—sandeshah ‘khatra! savdhan rahen!’ javabah ‘kya khatra?
kahan?’ sandeshah ‘pata nahin, par khuda ke, vaste savdhan rahen!’ ve log mujhe barkhast kar denge, aur ve karenge bhi kyaa?”
uski dimaghi haalat ko dekh mujhe us par taras aa raha tha. ye ek behad iimandar, kartavyanishth adami ki manasik yatana thi, jo jivan bachane ki kathin zimmedari ke ahsas se sahanshilata ki tamam simaon ko paar kar chuka tha.
“jab wo chhaya pahli baar khatre ki batti ke paas khaDi thee” wo bolta gaya, “apne kale ghane balon ko mathe par se hatate hue wo bahut uttejna ke saath haath hila rahi thi, wo mujhe bata kyon nahin deti ki durghatna kahan hone vali hai? aur use kaise roka ja sakta hai? dusri baar to usne chehra bhi Dhaanp rakha tha. iski bajaye kyon nahin mujhe bataya ki wo marne vali hai. use ghar par hi rok liya jaye? yadi wo donon baar keval mujhe agah karne aai thi ki ye chetavaniyan sach hain, to shayad ab tisri ke liye mujhe taiyar kar rahi hai. mujhe wo
sidhe sidhe savdhan kyon nahin kar deti? main akela gharib signal main bhala is sunsan chauki par kar bhi kya sakta hoon? he iishvar, meri madad karo! kyon nahin wo kisi aise shakhs ke paas jati, jiski baat ko log sunte hon aur jiske paas kuch karne ka adhikar ho!”
jab mainne use is haalat mein dekha, to mujhe laga ki is bechare gharib ke liye hi nahin, janta ki bhalai ke liye bhi ise is haalat se ubarna hoga. isliye tathya aur bhram ki sari bahs ko darkinar kar mainne use samjhaya ki wo apne kaam ko baDi khubi se anjam de raha hai aur use aisa karna bhi chahiye. wo apna kartavya bhi bakhubi janta hai. bhale hi wo is akriti ke khel ko na samajh pa raha ho. apni is koshish se mujhe wo saphalta mili jo tark se use samjhane par nahin milti. is baat se use rahat mahsus hui. jyon jyon raat gahrati gai uske kaam ki bhagdauD bhi baDhne lagi. do baje mainne usse vida li. main to puri raat uske saath bitane ko taiyar tha, par wo nahin mana.
raste se niche utarte hue mainne do baar us laal batti ko muDkar dekha. main un do hadson aur mrit laDki ke bare mein sochta raha. mujhe kuch bhi achchha nahin laga. par sabse zyada fikr mujhe is baat ki thi ki is rahasyamay vardat ko sunne ke baad ab mujhe kya karna chahiye? ismen koi shak nahin tha ki wo ek behad samajhdar, mehnati aur nishthavan karmachari tha. par is manasik haalat mein wo kab tak apne ko theek thaak rakh sakega? halanki wo mamuli naukari thi, par phir bhi kaphi zimmedari se bhari hui thi.
mujhe baar baar aisa mahsus ho raha tha ki usne mujhe jo kuch bataya hai, yadi wo sab main uske afasron ko jakar bata deta to ye vishvasghat hoga. isse pahle usi ke saath sidhe sidhe baat kar beech ka koi rasta nikalna hoga. akhirkar mainne tay kiya ki aas paas ke kisi chikitsak ke paas use le jakar uski raay lena theek rahega. tab tak main uska raaz apne tak hi rakhunga. usne mujhe bataya tha ki uski Dyuti ka samay badlega aur suryoday ke ek do ghante baad uski chhutti ho jayegi. mainne us samay usse milna tay kar liya tha.
agle din shaam baDi khushagvar thi. main uska lutf uthane ke liye jaldi hi nikal paDa, suraj abhi Duba nahin tha. mainne socha ghante bhar tak sair karunga, aadha ghanta jane ke liye aadha ghanta lautne ke liye, tab tak usse milne ka vaqt bhi ho jayega.
sair shuru karne se pahle anayas hi mainne pahaDi ke kinare se niche jhanka, jahan se mainne pahli baar use dekha tha. main byaan nahin kar sakta main is kadar romanchit ho utha, jab mainne surang ke munh par ek adami ko vaisa hi ishara karte dekha, uski qamiz ki astin uski ankhon par aa rahi thi wo uttejna mein apna dayan haath hila raha tha.
kyonki pal ek dusre hi pal ek anam sa atank mujh par havi ho gaya, bhar baad hi mainne dekha ki wo sachmuch ek adami ki akriti thi. wo adami kuch door khaDi ek bheeD ko ye sab abhinay karke dikha raha tha. khatre ki batti abhi tak nahin jalai gai thi, par khambhe ke niche kaDi aur tirpal ki sahayata se ek machan banai gai thi, jo mainne pahle nahin dekhi thi, wo bamushkil ek bistar jitni thi.
mujhe turant andesha hua zarur koi hadasa hua hai, main tang gali se utar kar tezi se niche aaya.
“kya baat hai?” mainne logon se puchha.
“sar, aaj subah signal main mara gaya. ”
“us kothari mein rahta hai wo to nahin?”
“haan vahi, sar?”
“kya vahi jise main janta hoon?”
“sar agar aap use jante hain to dekhkar pahchan lenge” us vyakti ne kaha aur tirpal ka kona utha diya.
‘oh! ye sab kaise ho gaya?” mainne puchha.
“sar, wo injin se kat gaya. inglainD mein koi aur is kaam ko usse behtar nahin kar sakta tha. par pata nahin kyon wo bahar se aati hui rel ke bare mein savdhan nahin tha, ye hadasa din ki roshni mein hua. usne batti jala rakhi thi aur haath mein lalten thi. injin jab surang se bahar nikla, iski peeth us taraf thi aur wo kuchla gaya. abhi us gaDi ka Draivar haath ke ishare se sabko dikha raha tha. ”
“taum, in sahab ko bhi dikhao. ”
wo adami jisne kale kapDe pahan rakhe the, ek baar phir surang ke bhitar tak gaya aur batane laga,
“surang mein moD par hi mainne use dekha, gaDi ki gati ko kam karne ka samay hi nahin tha aur main janta tha. wo kafi ehtiyat baratne vala karmachari hai, par jab mainne dekha ki wo injin ki siti par dhyaan hi nahin de raha hai to mainne siti band kar di aur apni puri shakti se chillane laga”.
“tumne kya kaha?”
“mainne kaha, vahan niche, dekho zara, sambhlo! khuda ke vaste raste se hat jao!” main sann rah gaya.
oh sar, ye bahut bhayanak tha, main lagatar bina ruke chilla chillakar ishara karta raha, mainne apna ye haath ankhon par rakh liya, taki main kuch dekh na sakun aur akhir tak main haath hilata raha; par koi fayda na hua. ”
ab is qisse ko aur zyada na phailate hue main sirf yahi kahunga ki ye kaisa sanjog tha ki us signal main ne apni maut se pahle injin Draivar ke na keval shabdon ko balki uske ishare tak ko mere samne dohraya tha. ye maut ka kaisa purvabhas tha!
“hailo? vahan niche!”
jab usne pukare jane ki avaz suni, wo apni chhoti si kothari ke bahar khaDa tha, uske haath mein jhanDi thi. jahan wo khaDa tha vahan se bina kisi shanka ke ye samajhna behad asan tha ki avaz kahan se aai hai, par phir bhi uupar dekhne ki bajaye, jahan theek uske sir ke uupar ek nokadar chattan par main khaDa tha, wo ghuma aur niche relve lain ki taraf dekhne laga. uski is harkat mein kuch khaas tha, par kya ye main samajh nahin pa raha tha? jis nukili chattan par main khaDa tha uski aaD mein wo Dhank sa gaya tha aur mujhe bhi aag ugalte suraj se bachne ke liye ankhon ko haath se Dhankna paDa, uske baad hi main use dekh saka.
“are bhai! zara suno to?”
wo relve lain ki taraf dekh raha tha, wo muDa aur usne ankhen uthain to theek apne uupar mujhe khaDa paya.
“
‘kya, koi rasta hai jisse main niche aakar tumse baat kar sakun?’
koi javab diye baghair wo mujhe dekhta raha aur mainne bhi apni baat dohrai nahin aur use dekhta raha, tabhi zamin aur hava mein ek aspasht sa kampan hua, jo tatkal tez spandan mein badal gaya aur phir tezi se sarpat bhagti tren vahan se guzri, main jhatke se pichhe hata, manon wo mujhe niche kheench legi, jab tezi se gaDagDati tren mere samne se guzarti hui, Dhalan par utarne lagi to mainne phir niche dekha wo apni jhanDi lahra raha tha. mainne apna saval dohraya, wo pal bhar ruka, ektak bharpur taulti najron se usne mujhe dekha aur phir jis DanDi mein jhanDa lapeta hua tha, usi se usne mujhe samne ki taraf ka rasta dikhaya, jo
karib do teen sau gaj door tha.
main chillaya “theek hai!” aur us taraf chal paDa, ye gahra aur teDha meDha rasta tha. is teDhe meDhe raste se utarte hue jab main niche pahuncha to mainne paya ki wo rel ki patariyon ke bichon beech khaDa tha, jahan se kuch der pahle tren guzri thi, laga manon use mere achanak prakat hone ka intzaar ho, wo is kadar chaukanna aur sahma hua tha ki mujhe tajjub hua.
main thoDa aur niche utra aur patariyon ke ekdam qarib aa gaya. wo ab samne tha, patla dubla daDhiyal adami jiski bhaunhen ghani theen. uski chauki itni sunsan jagah par thi, jiski kalpana bhi nahin ki ja sakti. donon taraf pani se risti silan bhari nonkdar pathrili divar thi, jahan se kuch bhi dekhana mushkil tha sivay asman ki ek patli si lakir ke. vatavran mein bhayavah udasinata aur ghutan thi. us jagah par itni kam dhoop aati thi ki har taraf silan ki badbu thi. tez thanDi hava mein main kaanp utha, aisa laga jaise kudarti duniya kahin pichhe chhoot gai ho.
wo hilta, usse pahle main uske itne qarib pahunch gaya ki use chhu sakta tha. tab tak wo mujhe ektak ghurta hi raha. main uske qarib pahuncha to wo ek qadam pichhe hata aur haath uupar uthaya.
“yah to ekdam sunsan chauki hai aur isne mera dhyaan kheench liya. mere khayal se shayad hi kabhi koi bhule bhatke yahan aata hoga. ” main bola.
usne surang ke muhane ke paas laal batti ki taraf baDe vismay se dekha aur charon taraf nazar ghumai, manon vahan se kuch ghayab ho gaya ho aur phir meri taraf dekha.
jab mainne uske bhavahin aur udaas chehre ko ghaur se dekha to laga manon wo jita jagata manushya na hokar koi pretatma ho, ye Daravna khayal mere dimagh mein kyon aaya, main nahin janta? par tab se main isi udheDbun mein raha ki uske dimagh mein koi khalal to nahin?
ab meri bari thi, main bhi pichhe hat gaya, par aisa karte vaqt mainne uski ankhon mein apne prati ek aspasht bhay dekha, isse mere us khayal ko aur hava mili.
“tum to meri taraf yoon dekh rahe ho”, mainne jabran muskrate hue kaha, “manon tum mujhse bhaybhit ho. ”
mujhe andesha hai ki shayad mainne pahle aapko kahin dekha hai. ”
“kahan?”
usne us laal batti ki or ishara kiya.
“vahan?” ashcharya chakit ho mainne puchha.
meri taraf se satark rahte hue usne javab diya, (bina avaz kiye)
“pyare dost, main bhala vahan kya karunga? khair tum chahe jo bhi socho par qasam khuda ki ki main vahan kabhi gaya hi nahin. ”
“haan, shayad aisa hi hoga. ”
phir wo sahj ho gaya, ab wo meri baton ka khulkar javab dene laga, kya use yahan bahut kaam karna paDta hai? haan, kaphi zimmedari ka kaam hai. vaqt chaukas rahna paDta hai. yoon mehnat kuch bhi nahin, par zimmedari zyada hai—signal badalna, battiyan dhimi karna, is lohe ke hainDal ko uupar niche ghumana, bas yahi sab hai.
un lambe udaas dinon ke bare mein jiske bare mein soch soch kar main hairan tha ki koi kaise yahan samay katta hoga, usne sirf itna hi kaha ki ye sab uski zindagi ka Dharra ban chuka hai aur use iski aadat paD chuki hai. yahan usne sanketon ki apni ek bhasha iijad kar li hai aur is tarah apne khayalon ki udheDbun mein hi vyast rahta hai. usne joD baqi aur dashamlav ka sara hisab aur thoDa sa bijagnit bhi seekh liya hai, halanki wo shuru se hi
hisab mein kamzor tha.
kaam karte samay kya ye zaruri hai ki har vaqt silan bhari kothari mein hi raha jaye, kya patthar ki divar laangh kar suraj ki khuli roshni mein jana use nahin suhata? ye vaqt aur halat par nirbhar hai, achchhe mausam mein usne bahar nikalna bhi chaha, par bijli ki ghanti kisi bhi vaqt baj uthne ki chinta har vaqt uske dimag par havi rahi, is vajah se bahar nikalna khushi ki bajaye pareshani hi adhik deta hai.
mujhe wo apni kothari mein le gaya. vahan angithi thi, mez thi, jis par daftri rajistar rakha tha, jismen use lagatar kuch darz karna paDta tha, ek teligraf mashin aur ek ghanti thi, jiska usne kuch der pahle jiqr kiya tha. usne bataya ki jab wo naujavan tha (halanki mujhe sandeh tha ki aisi jagah par koi bhi naujavan bana rah sakta hai) wo darshanshastr ka vidyarthi tha, vyakhyanon mein bhi maujud rahta tha, par phir usne wo mauqa ganva diya aur jivan mein ek baar luDhka to phir sambhal nahin paya. ab is sabse use koi gila bhi nahin hai, kamre mein uska bistar laga hua tha, wo us par let gaya, raat bahut ho chuki thi, aur itni raat ge vahan ek aur bistar lagana mushkil tha.
dhime dhime svar mein usne jo kuch bhi bataya kul milakar uska yahi saar tha, wo beech beech mein mujhe ‘sar’ kah kar bulata. khaskar tab jab wo apni javani ke dinon ki baten karta, manon wo ye sabit karna chaah raha ho ki main jo kuch use samajh raha hoon us lihaz se wo kuch bhi nahin hai. jab hum baten kar rahe the, beech beech mein kai baar ghanti baji aur use sandesh paDhkar javab bhejne paDe. ek baar jab vahan se tren guzri to wo bahar gaya, usne jhanDi dikhai aur tren ke Draivar se kuch chilla kar kaha bhi, mainne paya ki kaam niptate vaqt wo behad satark aur mustaid rahta, jab tak kaam nipat na jata, wo ekdam khamosh rahta.
dekha jaye to is naukari ke liye wo ekdam bharosemand adami tha, par halat kuch aise bane ki. . . jab wo mujhse baat kar raha tha to bevajah ghanti ki taraf dekhne lagta, jab wo baj bhi nahin rahi hoti. ek baar to usne kothari ka darvaza bhi khola (jise silan ki badbu rokne ke liye band kar rakha tha) aur wo bahar jakar surang ke muhane par lagi laal batti ki taraf bhi dekhne laga. donon hi maukon par jab wo laut kar angithi ke nikat aaya to uske chehre par vahi ajib sa bhaav tha, jise mainne pahle bhi dekha tha aur jise samajh
pana mushkil tha.
jane ke liye jab main utha to mainne usse kahah “tumhen dekh kar mujhe laga hai ki aaj main ek aise shakhs se mila hoon, jo apni duniya mein khush aur santusht hai. ” (main manata hoon ye mainne mahaj uska hausla baDhane ke liye kaha tha).
“haan main khud bhi yahi samajhta tha”, wo usi dhime svar mein bola, “par ab main pareshan hoon, sar main bahut pareshan hoon”.
kya baat hai? tumhein kya pareshani hai?”
“use batana mushkil hai sar, bahut mushkil, agar aap phir kabhi ayen to main batane ki koshish karunga. ”
“main zarur tumse dobara milna chahta hoon. batao hum kab mil sakte hain?”
“sar, subah meri Dyuti khatm hoti hai, phir raat das baje main kaam par auunga. ”
“theek hai, main gyarah baje tumse aakar milunga”.
usne mera shukriya ada kiya aur mujhe chhoDne darvaze tak aaya.
“sar, jab tak aap uupar nahin pahunch jate main apni safed batti dikhata rahunga. ” usne apni usi dhimi avaz mein kaha, “par beech raste mein aur uupar pahunchne ke baad bhi koi avaz mat dijiyega. ”
uska haav bhaav kuch aisa tha ki mujhe wo jagah aur bhi rahasyamay lagne lagi aur mere jism mein kanpakapi si dauD gai. baharhal mainne itna hi kaha “theek hai”.
aur kal jab aap niche ayen, tab bhi koi avaz na dijiyega. jane se pahle main aapse ek saval puchhna chahta hoon, akhir aapne aaj is tarah kyon pukara tha, hailo! vahan niche!”
“mujhe yaad nahin, main kya bola tha, haan, shayad kuch aisa hi pukara tha. . . ”
“shayad nahin, sar, yaqinan yahi shabd aapne kahe the, main achchhi tarah janta hoon. ”
“kya aapko aisa nahin mahsus hua ki koi daivi shakti aapko yahi shabd kahne ke liye badhya kar rahi thi. ”
“nahin?”
guD nait kah kar usne batti uupar kar di. main niche relve lain ke kinare kinare chalta raha, jab tak sahi rasta na mil gaya. niche utarne se uupar chaDhna khasa asan laga, aur main apni saray mein bina kisi jokhim ke pahunch gaya.
agli raat mulakat ke liye tay vaqt par, mainne usi uubaD khabaD raste par dobara qadam rakha, usi kshan door kahin gyarah ka gajar baja, wo niche mera intzaar kar raha tha, uske haath mein dudhiya roshni vali batti thi. mainne avaz nahin di, par najdik pahunchte hi mainne puchha,
“kya main ab kuch kah sakta hoon?”
“bilkul sar”.
ek dusre ko abhivadan kar hum saath saath kothari tak aaye, andar jakar usne darvaza band kar liya, hum angithi ke karib aakar baith ge.
“sar, mainne tay kar liya hai”, jaise hi hum baithe phusphusahat ke svar mein usne kahna shuru kiya, “apko dobara nahin puchhna paDega ki meri pareshani kya hai, darasal kal shaam main aapko koi aur hi samajh baitha tha, usi ne mujhe pareshan kar rakha tha. ”
—“bas is vajah se?”
nahin, us dusre shakhkh se pareshan tha jo main aapko samajh baitha tha. ”
“kaun hai vah?”
“main nahin janta. ”
“meri tarah hai koi?”
“main nahin janta, mainne kabhi uska chehra nahin dekha, uska bayan haath chehre ke samne hota hai aur dayan haath hava mein lahrata rahta hai, uttejna se is tarah. ”
main ghaur se uske haath ke ishare ko dekhta raha, ye behad uttejna aur bhavavesh mein kiya gaya haath ka ishara thaah “khuda ke vaste raste se hat jao. ”
‘‘ek purnmasi ki raat men”, wo batane laga, “main yahan baitha tha, jab mainne chikhti hui ye avaz suni. ”
“hailo ! vahan niche!” main chaunk gaya, darvaze se dekha ki koi surang ke nazdik laal batti ke muhane khaDa haath hila raha hai. theek vaise hi jaise mainne abhi abhi aapko dikhaya, chillane se avaz phat gai thi, “dekho, zara sambhlo!” aur phir “hailo vahan niche. dekho, hat jao!” mainne apni lalten uthai aur laal roshni ko tej kar chillate hue us adami ki taraf bhagah
“kya baat hai? kya ho gaya?”
wo akriti surang ke ghupp andhere mein khaDi thi, jab main uske kuch qarib pahuncha to dekha uski kamij ki astin uske chehre par lahra rahi thi. main sidhe uske nikat gaya aur haath baDhakar uski qamiz pakaDna hi chahta tha ki wo chhaya ojhal ho gai. ”
“kahan, surang men?” mainne puchha.
“pata nahin, main surang ke bhitar paanch sau gaj tak bhagte hue gaya. mainne laimp ki roshni ko uupar uthakar dekha. door kuch dhundhli akritiyan dikhai de rahin theen. main laut kar tezi se bahar ki taraf bhaga aur apni laal roshni mein charon taraf dekha. phir lohe ki siDhiyon se uupar bani gailri mein bhi khaDe hokar dekha. main niche utra aur bhaag kar yahan aa gaya, mainne donon taraf taar dekar puchha, “kuchh gaDbaD hai kyaa” donon taraf se javab ayah “sab theek hai”.
apne bhitar uth rahi kanpkanpi par qabu pate hue mainne use samjhaya ki us akriti ko dekhana ankhon ka dhokha bhi to ho sakta hai. aise kai qisse sunne mein aaye hain, jahan ankhon ki kisi nas ki bimari ki vajah se rogi ko kisi cheez ka bhram ho jata hai aur ise un logon par kai pryogon se sabit bhi kiya gaya hai. jahan tak us kalpanik pukar ka saval hai to palbhar zara dhyaan se is sunsan vadi mein hava ko suno jo telifon ke taron se takra kar ek ajib tarah ki avaz paida kar rahi hai!”
kuch pal baad hum jab dobara baithe to wo bola ki salon tak tamam sard raten usne yahan akele bitai hain, kya wo hava aur taron ki avaz ko nahin pahchanta? phir usne mujhe toka ki abhi uski baat puri nahin hui hai.
mainne mafi mangi, wo halke se meri baanh chhute hue bolne lagah
“us ghatna ke chhah ghante ke bhitar is lain par ek ajiboghrib durghatna ghati aur das ghante baad mritkon aur ghaylon ko us surang mein se theek usi jagah par laya gaya, jahan wo akriti dikhai di thi. ’
vismay bhari siharan mere badan mein phail gai, par mainne us par qabu pane ki koshish karte hue kaha, “ismen koi shak nahin ki ye ek ajib ittfaak hai. ” ye kah mainne use tasalli deni chahi, par bahs ki koi gunjaish hi nahin thi, kyonki aise ittfakon ka baar baar ghatna asambhav tha aur aise kisi bhi mudde par baat karte samay is baat ka dhyaan rakhna zaruri tha. phir bhi main bola (halanki main janta tha, ye use nagavar guzrega) ki koi bhi samajhdar adami jivan ke samanya maslon par ghaur karte samay is tarah ke ittfakon par dhyaan nahin deta, usne phir guzarish ki ki uski baat abhi puri nahin hui hai.
beech mein tokne ke liye mainne phir se mafi mangi.
“yah saal bhar pahle ki baat hai”, usne phir se mere kandhe par haath rakh liya aur batane laga, “chhah ya saat mahine guzar chuke the aur main us sadme se ubar chuka tha, tab ek subah jab din nikla hi tha, main is darvaze par khaDa laal batti ko dekh raha tha ki mainne dobara us kali chhaya ko dekha, wo ektak meri or dekh rahi thee’’, wo ruk gaya aur ektak mujhe ghurne laga.
“kya usne tumhein pukara tha?”
“nahin, wo khamosh thi. ”
“usne apna haath hilaya tha?”
“nahin, hathon se usne apna chehra Dhaanp rakha tha aur wo bijli ke khambhe par jhuki hui thi, yoon. ”
ek baar phir mainne uske ishare ko ghaur se dekha, ye bilkul kisi ke vilap prakat karne ki mudra tha. mainne aisi mudra qabron par ankit tasviron mein dekhi “kya tum uske nikat ge?”
“main andar aakar baith gaya, pahle to isliye ki main is par sochna chahta tha, dusre use dekh kar mere hosh uD ge the. main dobara jab darvaze par gaya to din chaDh aaya tha aur wo chhaya vahan nahin thi. ”
“par uske baad kuch nahin ghata?”
usne apni ungliyon se meri baanh ko do teen baar chhua, har baar wo ek Daravne Dhang se sir hilata.
“usi din jab surang mein se gaDi aai, to mainne paya ki Dibbe ki meri taraf khulne vali ek khiDki ke bhitar kai haath aur sir jaisa kuch dikh raha tha aur kuch hil raha tha. mainne turant Draivar ko sanket diya, ruko. usne break lagaye, par phir bhi tren sau DeDh sau gaj door rengti chali gai. main uske pichhe bhaga aur qarib pahuncha to mainne bhayavah chikhen aur rudan suna. ek khubsurat javan aurat ki Dibbe mein mauqe par hi mrityu ho gai thi. baad mein use yahan laya gaya aur yahi hum donon ke beech ki is jagah par litaya gaya. ”
anjane mein hi mainne apni kursi pichhe khiska li.
“bilkul sar, aisa hi hua, bilkul sach, jo ghata main vahi byaan kar raha mujhe kuch nahin sujha ki main kya kahun, mera halak sookh raha tha. taron par se guzarti hava bhi manon is kahani ko sun chitkar karti hui vahan se nikalti jaan paDti thi. usne dobara kahna shuru kiya, “sar ab aap hi batayen aur sochen ki mera dimagh kitna pareshan hai, wo chhaya hafta bhar pahle phir aai thi, tab se wo baar baar aa rahi hai. ”
“kya batti ke paas?”
“haan us khatre vali batti ke paas. ”
“vah kya karti dikhai deti hai?”
wo lagatar behad uttejna aur bhavavesh mein vahi ishara karti hai, “khuda ke vaste raste se hat jao!”
wo kahta chala gaya, “mera chain aur aram chhin chuka hai, wo chhaya har pal mujhe pukarti hai, behad vedna mein taDapte hue chillati hai, “vahan niche! dekho, zara sambhlo!”
wo lagatar haath hilakar ishara karti hai, wo ghanti baja deti hai. . .
mainne is baat par use pakaD liya, “kya usne kal shaam tumhari ghanti bajai thi, jab main yahan tha aur tum darvaze tak ge the?”
“haan, do baar. ”
“dekho” mainne kaha, “tumhari kalpana kis kadar tumhein bhramit kar rahi hai.
meri ankhen ghanti ki taraf hi theen aur kaan bhi ghanti ki taraf hi lage hue the aur yadi main ek zinda insaan hoon to pure yakin ke saath kah sakta hoon ki us dauran ghanti katii nahin baji thi. sivay un kshnon mein jab tum steshan ko rutin qism ke sandesh bhejte rahe the. ”
usne apna sir hilaya. “is bare mein mainne aaj tak kabhi koi ghalati nahin ki sar, main kabhi chhaya ki ghanti ko steshan se bheji ghanti samajh hi nahin sakta, kyonki chhaya ki ghanti mein ek ajib sa kampan hota hai, aur ismen koi tajjub bhi nahin agar aapne use nahin suna ho, par mainne use suna tha. ”
‘aur kya jab tumne bahar jhanka to wo chhaya dikhai di thee?”
“haan, wo thi. ”
“donon baar?”
usne pure vishvas se kahah “haan, donon baar. ”
“kya tum abhi mere saath bahar aoge, aur hum use dekhen? usne apna nichla honth aise kata, manon bahar aane ki uski ichchha na ho par phir bhi wo utha.
mainne darvaza khola aur siDhi par khaDa raha, jabki wo dahliz par khaDa tha. bahar khatre ki batti jal rahi thi. surang ka bhayavah muhana khula tha, patthron ki divar thi, asman par tare chamak rahe the. “kya wo tumhein dikh rahi hai?’’ mainne uske chehre par nazar gaDate hue puchha, uski ankhen khuli theen, par unmen khinchav tha. khud meri ankhon mein khinchav aa gaya tha, kyonki main bhi nazren gaDakar usi jagah ko dekh raha tha.
“nahin, wo nahin hai” wo bola.
“dekh liya” mainne kaha.
hum phir bhitar aa ge, darvaza band kar apni apni kursiyon par baith ge. main is mauqe ka pura fayda uthana chahta tha, par usne phir aisi baat shuru kar di ki mujhe laga hum donon ke beech koi tarksangat baat honi mumkin hi nahin hai, uski baat sunkar mujhe apni haalat kafi kamzor jaan paDi.
“sar, ab tak aap bakhubi samajh ge honge”, usne kahna shuru kiya, kya cheez mujhe is kadar pareshan kar rahi hai, yahi ki us chhaya ka kya matlab hai?”
“main kuch nahin samajh pa raha hoon” mainne kaha.
“yah chetavni kis bare mein hai?” aag ki or dekhte hue usne kaha khatra kahan hai?” kis tarah ka khatra hai? khatra patariyon par manDra raha hai, zarur kuch hone vala hai. do baar jo pahle ghat chuka hai, tisri baar us par sandeh nahin kiya ja sakta. ye bahut yatanadayi hai, main bhala kya kar sakta hoon?”
usne apna rumal nikala aur mathe par se pasine ki bunden ponchhin.
“yadi main donon taraf ‘khatre’ ka taar bhejta hoon to mere paas iski koi vajah nahin hai. ” apni hatheliyon ka pasina ponchhte hue wo bolta raha, “isse meri pareshani baDh jayegi aur koi fayda nahin hoga. ve log sochenge main pagal ye kuch is tarah hoga—sandeshah ‘khatra! savdhan rahen!’ javabah ‘kya khatra?
kahan?’ sandeshah ‘pata nahin, par khuda ke, vaste savdhan rahen!’ ve log mujhe barkhast kar denge, aur ve karenge bhi kyaa?”
uski dimaghi haalat ko dekh mujhe us par taras aa raha tha. ye ek behad iimandar, kartavyanishth adami ki manasik yatana thi, jo jivan bachane ki kathin zimmedari ke ahsas se sahanshilata ki tamam simaon ko paar kar chuka tha.
“jab wo chhaya pahli baar khatre ki batti ke paas khaDi thee” wo bolta gaya, “apne kale ghane balon ko mathe par se hatate hue wo bahut uttejna ke saath haath hila rahi thi, wo mujhe bata kyon nahin deti ki durghatna kahan hone vali hai? aur use kaise roka ja sakta hai? dusri baar to usne chehra bhi Dhaanp rakha tha. iski bajaye kyon nahin mujhe bataya ki wo marne vali hai. use ghar par hi rok liya jaye? yadi wo donon baar keval mujhe agah karne aai thi ki ye chetavaniyan sach hain, to shayad ab tisri ke liye mujhe taiyar kar rahi hai. mujhe wo
sidhe sidhe savdhan kyon nahin kar deti? main akela gharib signal main bhala is sunsan chauki par kar bhi kya sakta hoon? he iishvar, meri madad karo! kyon nahin wo kisi aise shakhs ke paas jati, jiski baat ko log sunte hon aur jiske paas kuch karne ka adhikar ho!”
jab mainne use is haalat mein dekha, to mujhe laga ki is bechare gharib ke liye hi nahin, janta ki bhalai ke liye bhi ise is haalat se ubarna hoga. isliye tathya aur bhram ki sari bahs ko darkinar kar mainne use samjhaya ki wo apne kaam ko baDi khubi se anjam de raha hai aur use aisa karna bhi chahiye. wo apna kartavya bhi bakhubi janta hai. bhale hi wo is akriti ke khel ko na samajh pa raha ho. apni is koshish se mujhe wo saphalta mili jo tark se use samjhane par nahin milti. is baat se use rahat mahsus hui. jyon jyon raat gahrati gai uske kaam ki bhagdauD bhi baDhne lagi. do baje mainne usse vida li. main to puri raat uske saath bitane ko taiyar tha, par wo nahin mana.
raste se niche utarte hue mainne do baar us laal batti ko muDkar dekha. main un do hadson aur mrit laDki ke bare mein sochta raha. mujhe kuch bhi achchha nahin laga. par sabse zyada fikr mujhe is baat ki thi ki is rahasyamay vardat ko sunne ke baad ab mujhe kya karna chahiye? ismen koi shak nahin tha ki wo ek behad samajhdar, mehnati aur nishthavan karmachari tha. par is manasik haalat mein wo kab tak apne ko theek thaak rakh sakega? halanki wo mamuli naukari thi, par phir bhi kaphi zimmedari se bhari hui thi.
mujhe baar baar aisa mahsus ho raha tha ki usne mujhe jo kuch bataya hai, yadi wo sab main uske afasron ko jakar bata deta to ye vishvasghat hoga. isse pahle usi ke saath sidhe sidhe baat kar beech ka koi rasta nikalna hoga. akhirkar mainne tay kiya ki aas paas ke kisi chikitsak ke paas use le jakar uski raay lena theek rahega. tab tak main uska raaz apne tak hi rakhunga. usne mujhe bataya tha ki uski Dyuti ka samay badlega aur suryoday ke ek do ghante baad uski chhutti ho jayegi. mainne us samay usse milna tay kar liya tha.
agle din shaam baDi khushagvar thi. main uska lutf uthane ke liye jaldi hi nikal paDa, suraj abhi Duba nahin tha. mainne socha ghante bhar tak sair karunga, aadha ghanta jane ke liye aadha ghanta lautne ke liye, tab tak usse milne ka vaqt bhi ho jayega.
sair shuru karne se pahle anayas hi mainne pahaDi ke kinare se niche jhanka, jahan se mainne pahli baar use dekha tha. main byaan nahin kar sakta main is kadar romanchit ho utha, jab mainne surang ke munh par ek adami ko vaisa hi ishara karte dekha, uski qamiz ki astin uski ankhon par aa rahi thi wo uttejna mein apna dayan haath hila raha tha.
kyonki pal ek dusre hi pal ek anam sa atank mujh par havi ho gaya, bhar baad hi mainne dekha ki wo sachmuch ek adami ki akriti thi. wo adami kuch door khaDi ek bheeD ko ye sab abhinay karke dikha raha tha. khatre ki batti abhi tak nahin jalai gai thi, par khambhe ke niche kaDi aur tirpal ki sahayata se ek machan banai gai thi, jo mainne pahle nahin dekhi thi, wo bamushkil ek bistar jitni thi.
mujhe turant andesha hua zarur koi hadasa hua hai, main tang gali se utar kar tezi se niche aaya.
“kya baat hai?” mainne logon se puchha.
“sar, aaj subah signal main mara gaya. ”
“us kothari mein rahta hai wo to nahin?”
“haan vahi, sar?”
“kya vahi jise main janta hoon?”
“sar agar aap use jante hain to dekhkar pahchan lenge” us vyakti ne kaha aur tirpal ka kona utha diya.
‘oh! ye sab kaise ho gaya?” mainne puchha.
“sar, wo injin se kat gaya. inglainD mein koi aur is kaam ko usse behtar nahin kar sakta tha. par pata nahin kyon wo bahar se aati hui rel ke bare mein savdhan nahin tha, ye hadasa din ki roshni mein hua. usne batti jala rakhi thi aur haath mein lalten thi. injin jab surang se bahar nikla, iski peeth us taraf thi aur wo kuchla gaya. abhi us gaDi ka Draivar haath ke ishare se sabko dikha raha tha. ”
“taum, in sahab ko bhi dikhao. ”
wo adami jisne kale kapDe pahan rakhe the, ek baar phir surang ke bhitar tak gaya aur batane laga,
“surang mein moD par hi mainne use dekha, gaDi ki gati ko kam karne ka samay hi nahin tha aur main janta tha. wo kafi ehtiyat baratne vala karmachari hai, par jab mainne dekha ki wo injin ki siti par dhyaan hi nahin de raha hai to mainne siti band kar di aur apni puri shakti se chillane laga”.
“tumne kya kaha?”
“mainne kaha, vahan niche, dekho zara, sambhlo! khuda ke vaste raste se hat jao!” main sann rah gaya.
oh sar, ye bahut bhayanak tha, main lagatar bina ruke chilla chillakar ishara karta raha, mainne apna ye haath ankhon par rakh liya, taki main kuch dekh na sakun aur akhir tak main haath hilata raha; par koi fayda na hua. ”
ab is qisse ko aur zyada na phailate hue main sirf yahi kahunga ki ye kaisa sanjog tha ki us signal main ne apni maut se pahle injin Draivar ke na keval shabdon ko balki uske ishare tak ko mere samne dohraya tha. ye maut ka kaisa purvabhas tha!
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 3)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।