दोनों बच्चियाँ अपने कमरे में अकेली थीं। बत्तियाँ बुझा दी गई थीं। चारों ओर अँधेरा था सिवाए धुँधली रोशनी के जो उनके बिस्तरों में से टिमटिमा रही थी। वे इतने आहिस्ता से साँस ले रही थीं, जैसे लगे कि वे सो रही हैं।
“सुनो,” बिस्तर पर से एक हल्की फुसफुसाहट भरी आवाज़ आई। यह बारह बरस की बच्ची थी।
“क्या बात है” उसकी बहन ने पूछा जो उससे एक बरस बड़ी थी।
“मैं बहुत ख़ुश हूँ कि तुम अभी तक जाग रही हो। मुझे तुमसे कुछ कहना है।”
उसने कुछ जवाब नहीं दिया, पर दूसरे बिस्तरे पर थोड़ी हलचल ज़रूर हुई। बड़ी बच्ची उठकर बैठ गई थी और धुँधली रोशनी में उसकी आँखें चमक रही थीं।
“मैं तुमसे यह कहना चाहती थी, पर पहले बताओ कि तुमने मिस मान में इन दिनों आए बदलाव पर ग़ौर किया है?”
“हाँ,” पल भर की चुप्पी के बाद दूसरी बच्ची बोली। “कुछ बात तो ज़रूर है, पर मैं नहीं जानती कि क्या? अब वह पहले की तरह सख़्ती नहीं बरतती। पिछले दो दिनों से मैंने अपनी पढ़ाई नहीं की और उसने मुझे ज़रा भी नहीं डाँटा।
मैं नहीं जानती उसे क्या हुआ है, पर इतना ज़रूर है कि वह अब हमारी फ़िक्र नहीं करती। हमेशा खोई-खोई रहती है, पहले की तरह वह हमारे साथ खेलती भी नहीं है।”
“मेरे ख़याल से वह दुखी है, पर ज़ाहिर नहीं करना चाहती। अब वह पिआनो भी नहीं बजाती।” पल भर चुप्पी रही फिर बड़ी लड़की ने पहल की—
“तुम कह रही थी कि तुम्हें मुझसे कुछ बात करनी है।”
“हाँ, पर तुम किसी को बताना नहीं, माँ या अपनी दोस्त लॉटी को भी नहीं।”
“अरे बाबा, नहीं कहूँगी,” दूसरी कुछ उकताकर बोली, “अब बोलो भी।”
अच्छा सुनो, जब हम सोने के लिए अपने कमरे में आए तो अचानक मुझे याद आया कि मैं मिस मान को शुभरात्रि कहना भूल गई थी। सो बग़ैर जूते पहने पंजों के बल मैं धीमे-धीमे उसके कमरे तक गई, ताकि उसे चौंका सकूँ। मैंने आहिस्ता से उसका दरवाज़ा खोला। पल भर के लिए मुझे लगा कि शायद वह कमरे में नहीं है। बत्ती जल रही थी। मुझे वह कहीं दिखाई नहीं दी, फिर अचानक मैं चौंक पड़ी। मुझे किसी के रोने की आवाज़ सुनाई दी। मैंने देखा वह बिस्तरे में औंधी लेटी हुई थी, सिर तकिए में धँसा रखा था। वह ज़ोर-ज़ोर से सिसकियाँ भर रही थी। मुझे बड़ा अजीब लगा। उसने मुझे नहीं देखा। मैं जैसे गई थी उसी तरह पंजों के बल बाहर आ गई। मैंने कमरे का दरवाज़ा भेड़ दिया। कुछ पल कमरे के बाहर खड़ी रही। उसकी सिसकियों की आवाज़ दरवाज़े से बाहर तक सुनाई दे रही थी। फिर मैं लौट आई।”
पल भर ख़ामोशी रही। दोनों में से कोई नहीं बोला। बड़ी लड़की ने एक गहरी साँस ली और बोली—“बेचारी मिस मान!” फिर चुप्पी छा गई।
“ऐसी क्या बात हो सकती है, वह रो क्यों रही थी?” छोटी लड़की ने बात फिर शुरू की। “हाल में उसका किसी के साथ कोई झगड़ा भी नहीं हुआ है। माँ भी अब उसे उतना डाँटती-फटकारती नहीं है, जैसे अक्सर किया करती थी। यक़ीनन हम उसकी परेशानी का सबब नहीं हो सकते। फिर ऐसी किस बात ने उसे रोने पर मजबूर कर दिया?”
“मेरे ख़याल से मैं अंदाज़ा लगा सकती हूँ” बड़ी लड़की बोली।
“क्या बात हो सकती है?”
उसने जवाब देने में काफ़ी देर की, पर फिर तफ़सील से बताया—
“मेरे ख़याल से उसे किसी से प्रेम है।”
“प्रेम?” छोटी लड़की ने चौंककर पूछा। “मगर किससे?”
“क्या तुमने ग़ौर नहीं किया?”
“तुम्हारे ख़याल से ओटो तो नहीं?”
“बेशक वही! वह भी उससे प्यार करता है। पिछले तीन बरसों से वह हमारे साथ रह रहा है, पर पहले कभी हमारे साथ सैर के लिए नहीं आता था। मगर अब पिछले दो-तीन महीने से एक भी दिन नहीं गुज़रा जब वह हमारे साथ न आया हो। मिस मान के आने से पहले तक उसने हमसे कभी बात तक नहीं की थी, पर अब दिन भर हमारे साथ चुहलबाज़ी करता रहता है। अब जब भी हम बाहर निकलते हैं, बग़ीचे में या सैर पर या कहीं और तो वह हमसे टकरा ही जाता है, ख़ासकर जहाँ मिस मान हमें ले जाती हैं। तुमने इस पर यक़ीनन ग़ौर किया होगा?”
“हाँ मैंने ग़ौर किया है।” छोटी बोली, “पर मैं सोच रही थी...”
उसने वाक्य पूरा नहीं किया।
“हालाँकि मैं बात को तूल नहीं देना चाहती, पर मुझे लगता है कि वह उससे मिलने के लिए हमें बहाने की तरह इस्तेमाल कर रहा है।”
देर तक ख़ामोशी रही। दोनों बहनें सोच-विचार करने लगीं। फिर छोटी ही ने बात शुरू की।
“यदि यह बात है तो वह रो क्यों रही थी? वह उसे इतना पसंद करता है। मुझे तो हमेशा लगता रहा है कि प्रेम में पड़ना काफ़ी सुखद होता है।”
“मैं भी ऐसा ही सोचती हूँ।” बड़ी ने खोए-खोए अंदाज़ में कहा। “पता नहीं फिर क्या बात है?”
“बेचारी मिस मान!” एक बार फिर उनींदी-सी आवाज़ आई।
उस रात उनकी बातचीत यहीं पर ख़त्म हो गई। सुबह हालाँकि दोबारा उन्होंने इस मसले को नहीं उठाया, पर दोनों बख़ूबी जानती थीं कि दूसरी के दिमाग़ में क्या चल रहा है। ऐसा नहीं था कि उन्होंने एक-दूसरे को अर्थभरी नज़रों से न देखा हो, यदा-कदा उनकी निगाहें गवर्नेस पर भी टिक जाती थीं। भोजन के वक़्त उन्होंने चचेरे भाई ओटो को यूँ नज़रअंदाज़ किया, मानों वह कोई अजनबी हो। उससे कोई बात नहीं की पर चोरी-छिपे उसका जाएज़ा लेती रहीं। वे जानना चाहती थीं कि मिस मान के साथ उसकी कोई अंदरूनी साँठ-गाँठ है या नहीं? खेलकूद में भी उसका मन नहीं लग रहा था। उन पर बस एक ही धुन सवार थी कि इस रहस्य पर से परदा कैसे उठे? शाम को बड़े अनमनेपन से एक बहन ने दूसरी से पूछा—
“क्या तुमने आज कुछ ग़ौर किया?”
“नहीं” बहन ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया। इस बारे में बातचीत करने से उन्हें डर लग रहा था। इस तरह कई दिनों तक पहेली बनी रही। दोनों लड़कियाँ चुपचाप हर चीज़ पर नज़र रखतीं। उनके दिमाग़ों में खलबली मची रहती। हर वक़्त बस एक ही ख़याल उन पर हावी रहता कि इस ख़ूबसूरत पहेली को सुलझाएँ तो कैसे?
रात को खाने के वक़्त छोटी लड़की ने साफ़ देखा गवर्नेस ने ओटो को हल्का-सा इशारा किया। ओटो ने जवाब में गर्दन हिलाई। उत्तेजना के मारे मेज़ के नीचे से उसने अपनी बहन को हल्की-सी लात मारी। बड़ी ने सवालिया नज़रों से छोटी को देखा। जवाब में उसने भी अर्थभरी निगाहें उस पर डालीं। उसके बाद खाने के पूरे वक़्त दोनों बड़ी बेचैन रहीं। खाना ख़त्म कर गवर्नेस ने बच्चियों से कहा—
“स्टडी रूम में जाकर कुछ काम करो। मेरा सिर फट रहा है, मैं कुछ देर लेटना चाहती हूँ।”
एकांत मिलते ही छोटी फट पड़ी—
“तुम देखो, ओटो अब कमरे में जाएगा।”
“हाँ, मैं जानती हूँ इसलिए उसने हमें यहाँ भेजा है।”
“हमें दरवाज़े के बाहर से सुनना चाहिए।”
“पर यदि किसी ने देख लिया तो...”
“कौन?”
“माँ।”
“हाँ, वह तो बहुत बुरा होगा,” छोटी ने घबराकर कहा।
“तो ठीक है, मैं सुनूँगी और तुम नज़र रखना कि कोई आ तो नहीं रहा।”
छोटी ने मुँह फुलाकर कहा, “पर फिर तुम मुझे सब कुछ नहीं बताओगी।”
“डरो नहीं! मैं सब बताऊँगी”
“मेरी क़सम?”
“तेरी क़सम, जब कोई आता दिखे तो तुम खाँसना।”
वे गलियारे में इंतज़ार करने लगीं। उनके दिल उत्तेजना से धड़क रहे थे। जाने क्या होगा? उन्हें पदचाप सुनाई दी। वे दोनों अँधेरे स्टडी-रूम में छुपकर खड़ी हो गईं। हाँ, यह ओटो था। वह मिस मान के कमरे में गया और दरवाज़ा बंद कर लिया। बड़ी लड़की अपनी जगह पर जा पहुँची और की-होल से कान लगाकर सुनने लगी। उसने साँसें थाम रखी थीं। छोटी उसे ईर्ष्या से देखने लगी। जिज्ञासा से वह बेताब हो रही थी, वह भी दरवाज़े के निकट जा पहुँची, पर बड़ी बहन ने उसे धक्का देकर इशारा किया कि जाकर गलियारे के छोर पर निगरानी रखे। इसी तरह कई मिनट गुज़र गए। छोटी को तो पल-पल पहाड़-सा जान पड़ रहा था। उसकी बेचैनी का पारावार नहीं था। आँसुओं को वह बमुश्किल रोक पा रही थी क्योंकि उसकी बहन सब कुछ सुन रही थी। अचानक एक आवाज़ से वह चौंक उठी और खाँसी। दोनों लड़कियाँ तेज़ी से अपने स्टडी-रूम में घुस गईं। कुछ पल साँस ठीक करने के लिए वे चुप रहीं। फिर छोटी ने बेसब्र हो पूछा—
“अब ज़रा जल्दी से मुझे सब बताओ।”
बड़ी बहन दुविधा में पड़ गई। कुछ इस तरह बड़बड़ाई मानो ख़ुद से ही बतिया रही हो।
“मुझे समझ नहीं आ रहा।”
“क्या?”
“यह कितनी अजीब बात है।”
“क्या? अरे बोलो भी।” दूसरी कुछ ग़ुस्से में फट पड़ी। बड़ी ने फिर बोलने की कोशिश की। “यह वाक़ई आश्चर्यजनक था। मैं जैसा सोच रही थी उससे एकदम अलग। मेरे ख़्याल से जब वह उसके कमरे में गया तो उसने उसे बांहों में भर लेना चाहा या चूमना चाहा, मगर मिस मान ने रोक दिया और बोली, “नहीं अभी नहीं। मैं तुमसे एक बहुत ज़रूरी बात करना चाहती हूँ।”
“मैं ठीक से देख नहीं पा रही थी, क्योंकि चाबी बीच में आ रही थी, पर मैं अच्छी तरह सब सुन रही थी।”
“क्या बात है?” ओटो ने पूछा। उसका स्वर वाक़ई अलग था। मैंने उसे पहले कभी इस तरह बोलते नहीं सुना है। तुम जानती हो वह कैसे बोलता है। ऊँचा और रोब से, मगर इस बार यक़ीन है वह घबराया हुआ था। मिस मान समझ गई होगी कि वह उसे फुसलाना चाहता है, क्योंकि वह बस इतना ही बोली—“मुझे लगता है कि तुम अच्छी तरह जानते हो।”
“नहीं, क़तई नहीं।”
“यदि ऐसा है तो,” वह बेहद उदास स्वर में बोली, “क्यों तुमने मुझसे किनारा कर लिया है? हफ़्ते भर से कोई बात तक नहीं की। क्यों मुझसे हर वक़्त कन्नी काटते फिरते हो; अब तुम उन बच्चियों के पास भी नहीं आते, बग़ीचे में भी मिलने नहीं आते। क्या अचानक तुमने मेरा ख़्याल करना छोड़ दिया है? ओह! तुम अच्छी तरह जानते हो कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?”
थोड़ी देर चुप्पी रही, फिर वह बोला—“तुम जानती हो इम्तहान नज़दीक आ रहे हैं। मुझे अपनी पढ़ाई को छोड़ किसी और चीज़ के लिए वक़्त नहीं मिलता, मैं क्या करूँ?”
वह रोने लगी और सुबकते हुए बहुत आहिस्ता से उससे पूछा, ‘ओटो, सच-सच बताओ मैंने ऐसा क्या किया है कि तुम मेरे साथ इस तरह बर्ताव कर रहे हो? मैंने तुम पर कोई ज़ोर-ज़बर्दस्ती नहीं की, कोई हक़ नहीं जताया, पर क्या हमें खुलकर बात नहीं कर लेनी चाहिए। तुम्हारे हाव-भाव से साफ़ दिख रहा है कि सब जानते हुए भी तुम अनजान बन रहे हो”... गवर्नेस काँपने लगी। वाक्य भी पूरा नहीं कर पाई। ओटो थोड़ा क़रीब आया और पूछा...
“क्या जानता हूँ?”
“हमारे बच्चे के बारे में”
“बच्चा, यह कैसे मुमकिन है?” छोटी बहन बीच में ही बोल पड़ी।
“पर उसने तो यही कहा।”
“हो सकता है तुमने ग़लत सुना हो।”
“नहीं, मुझे पूरा यक़ीन है। ओटो ने दोहराया भी कि हमारा बच्चा?”
“थोड़ी देर बाद मिस मान ने पूछा, अब हमें क्या करना चाहिए? ओटो ख़ामोश रहा। उसी वक़्त तुम खाँसी और मुझे वहाँ से भागना पड़ा।
छोटी काफ़ी डरी हुई और हैरान थी, “पर उसका बच्चा कैसे हो सकता है और बच्चा है कहाँ?”
“मेरी समझ में भी उतना ही आ रहा है, जितना तुम्हें आ रहा है।”
“शायद उसके घर पर होगा। माँ उसे यहाँ नहीं लाने देती होगी। यक़ीनन यही वजह है कि वह इतनी दुखी है।”
“ओह पर यह कैसे मुमकिन है, तब तो वह ओटो को जानती तक नहीं थी।”
वे असहाय हो सोचने लगीं। छोटी लड़की फिर बोली,
“बच्चा, यह कैसे मुमकिन है? उसका तो विवाह भी नहीं हुआ है। केवल विवाहित लोगों के बच्चे होते हैं।”
“बेवकूफ़ मत बनो। उसने ओटो से कब विवाह किया?”
“तो फिर? ”
वे एक-दूसरे को ताकने लगीं।
“बेचारी मिस मान” उनमें से एक दुखी होकर बोली।
बार-बार इसी जुमले को बोलकर वे करुणा व्यक्त करतीं। पर हर बार उनकी जिज्ञासा और प्रबल हो उठती।
“तुम्हें क्या लगता है वह बच्चा लड़का होगा या लड़की?”
“मैं भला कैसे बता सकती हूँ?”
“यदि मैं होशियारी से उससे पता लगाऊँ तो कैसा रहेगा?”
“ओ, चुप भी रहो।”
“क्यों नहीं? वह हमारे साथ कितना अच्छा बर्ताव करती है।”
‘‘इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा। वे इस तरह की बातें हमारे साथ नहीं करेंगे। जब भी वे इस तरह की बातें करते हैं और हम भूले-भटके वहाँ पहुँच जाएँ तो एकाएक चुप हो जाते हैं जैसे हम कोई दूध पीते बच्चे हों—हालाँकि मैं तेरह की हो चुकी हूँ। इसलिए इस बारे में उससे पूछना बेकार है वह हमें टाल देगी?”
“पर मैं जानना चाहती हूँ।”
“मुझे ओटो के रवैये पर वाक़ई हैरानी हो रही है। वह ऐसे जताने लगा, जैसे उसे कुछ पता ही नहीं है। यह कैसे मुमकिन है कि किसी का बच्चा हो और उसे ख़बर तक न हो। जैसे सबको पता होता है कि उनके माता-पिता हैं, वैसे ही उनका बच्चा है, यह भी सबको पता होता है।”
“ओह वह यूँ ही बन रहा था। वह अक्सर कैसे मज़ाक करता रहता है?”
“पर ऐसी बात पर कोई मज़ाक कैसे कर सकता है? वह तो तब करता है, जब हमें चिढ़ाना होता है।”
उनकी बातचीत में रुकावट आ गई, गवर्नेस आ गई थी। उन्होंने ऐसे जताया जैसे किसी काम में व्यस्त हों। मगर उनकी नज़रों से यह छिपा न रह सका कि उसकी आँखें सुर्ख़ थीं और गहरे अवसाद से भरी थीं। वे एकदम शांत बैठी रहीं। उनके दिल में उसके प्रति अलग क़िस्म की करुणा उमड़ रही थी। वे इसी ख़याल में खोई रहीं कि उसका एक बच्चा है, इसलिए वह इतनी उदास है। पर अनजाने ही यह उदासी आहिस्ता-आहिस्ता उन पर छाने लगी थी।
दूसरे दिन रात के खाने पर उन्हें एक बेहद चौंकाने वाली ख़बर पता चली। ओटो जा रहा था। उसने अंकल से कहा था कि इम्तहान से पहले उसे काफ़ी मेहनत करनी है और यहाँ घर पर पढ़ाई में ध्यान लगाना मुश्किल है। अगले दो महीने वह किसी हॉस्टल में रहेगा।
दोनों लड़कियाँ उत्तेजना से काँप रही थीं। उन्हें यक़ीन था कि हो न हो ओटो के इस तरह जाने के पीछे पिछले दिन की बातचीत का संबंध है। अपने सहज-बोध से उन्होंने जान लिया कि यह कायरता भरा पलायन है। ओटो जब उनसे विदा लेने आया तो वे उसके साथ बेहद बेरुखी से पेश आईं। उन्होंने उसकी तरफ़ पीठ कर ली।
हालाँकि मिस मान से वह कैसे विदा ले रहा है, इस पर उन्होंने पूरी नज़र रखी। बड़े संयम से मिस मान ने हाथ मिलाया, पर उसके होंठ लरज़ रहे थे। इन दिनों लड़कियों में तब्दीली आ गई थी। उनकी हँसी कहीं लुप्त हो गई थी। उन्हें किसी चीज़ में रस नहीं आता, आँखें हमेशा उदास रहतीं। वे बेचैनी से यहाँ-वहाँ चहलक़दमी करतीं। अपने से बड़ों के प्रति वे अविश्वास से भर उठी थीं। उन्हें लगता कि छोटी-से-छोटी बात के पीछे उन्हें धोखा देने की मंशा छिपी है। हर वक़्त निगरानी रखने की उधेड़बुन में डूबी रहतीं और दरवाज़े के पीछे छुपकर हर बात सुनतीं। हर वक़्त उस जाल को भेदने के लिए बेताब रहतीं, जिसने उस रहस्य पर पर्दा डाल रखा था फिर कम से कम जाल के सुराखों की मार्फ़त वास्तविक दुनिया की एक झलक पा लेना चाहती थीं।
बचपन का वह भरोसा, अल्हड़पन और मासूमियत कहीं लुप्त हो गई थी। इसके अलावा हर वक़्त उन पर कोई नया रहस्य खुलने की धुन सवार रहती। हर वक़्त उन्हें यह डर घेरे रहता कि कुछ छूट न जाए। चारों ओर छल-फ़रेब के माहौल को देखकर वे ख़ुद भी छल करने लगीं थीं। जब भी उनके माता-पिता या कोई बड़ा उनके आस-पास से गुज़रता तो झट से वे इस तरह दिखावा करने लगतीं, मानो किसी बचकाने काम में लगी हों। बड़ों की दुनिया के ख़िलाफ़ इस साझी मुहिम के मक़सद ने उन्हें एक-दूसरे के और भी क़रीब ला दिया था। अपनी बेबसी और अज्ञान पर जब उनका बस नहीं चलता तो प्यार से एक-दूसरे से लिपट जातीं। कभी-कभार रोने लगतीं। किसी वाजिब वजह के बग़ैर ही उनकी ज़िंदगियों ने करवट बदल ली थी। और उन्हें एक नाज़ुक मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था।
उनकी बेहिसाब तकलीफ़ों में यह सबसे बड़ी तकलीफ़ थी, जो उन्हें हर वक़्त सालती रहती। एक-दूसरे से कहे बग़ैर ही उन्होंने मन-ही-मन इरादा कर लिया था कि मिस मान को कम-से-कम परेशानी देंगी। मिस मान जो पहले ही इतनी दुखी और परेशान हैं, उनकी तकलीफ़ों में इजाफ़ा नहीं होने देंगी। वे बेहद मेहनती हो गई थीं। अपनी ज़िम्मेदारी समझने लगी थीं। वे एक-दूसरे की पढ़ाई में मदद करतीं, हमेशा शांत रहतीं और समझदारी से पेश आतीं। पर गवर्नेस थी कि इस पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देती थी। यही बात उन्हें कचोटती। वह अब कितनी बदल चुकी है। उसके साथ जब वे बात करतीं तो लगता जैसे गहरी नींद से जागी हो। वे जब उनकी ओर नज़रें घुमातीं तो लगता बहुत लंबी दूरी तय करके आई हैं। घंटों वह ख़यालों में गुम रहती। लड़कियाँ जब भी उसके क़रीब से गुज़रतीं तो धीमे-धीमे बेआवाज़ पंजों के बल ही चलतीं, ताकि उसके ख़यालों में बाधा न पड़े। उन्हें लगता कि वह ज़रूर अपने उस बच्चे के बारे में सोच रही है, जो यहाँ नहीं है। उनके भीतर नारीत्व का जो अंकुर फूट रहा था उसकी वजह से गवर्नेस के प्रति वे पहले से कहीं ज़्यादा अनुराग महसूस करने लगी थीं। उन्हें लगता मिस मान जो हमेशा से बहुत अच्छी थी, कभी-कभार ही डाँटकर बात करती थी, अब तो और ज़्यादा ख़्याल रखने लगी है। दोनों लड़कियों को बस यही लगता कि उसके हर काम में गहरा गम छिपा हुआ है, जो न चाहते हुए भी प्रकट हो जाता है। उन्होंने कभी उसे रोते हुए नहीं देखा था, पर उसकी आँखें अक्सर सुर्ख़ दिखाई देतीं। ज़ाहिर था कि वह अपने ग़मों को अपने तक ही रखना चाहती थी। उन्हें इस बात का दुःख था कि वे उसकी कोई मदद नहीं कर पा रही हैं। एक दिन बच्चियों के आते ही गवर्नेस ने मुँह खिड़की की तरफ़ फेर लिया, ताकि झटपट आँसू पोंछ सके। छोटी बहन ने साहस कर उसका हाथ थाम लिया और पूछ ही लिया—
“मिस मान क्या आप बहुत दुखी हैं, कहीं हमसे तो कोई भूल नहीं हुई है?”
“नहीं, मेरी प्यारी बच्ची तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है।” यह कह उसने बच्ची का माथा चूम लिया। तब से लड़कियाँ हर वक़्त चौकन्नी रहने लगीं। एक दिन उनमें से एक ने बैठकखाने में अचानक कुछ ऐसा सुन लिया, जो दरअसल उनके कानों तक नहीं पहुँचना चाहिए था। उनके माता-पिता आपस में खुसर-पुसर कर रहे थे, पर बच्ची ने काफ़ी कुछ सुन लिया और सोच में डूब गई।
“हाँ, मेरे दिमाग़ में भी यही बात घूम रही है,” माँ कह रही थी, “कल मैं उससे बात करूँगी।”
छोटी बहन ने पहले मन-ही-मन सारी बातों पर ग़ौर किया, फिर अपनी बहन से मशविरा करने पहुँच गई।
“तुम्हारे ख़याल से यह सारी हाय-तौबा किस बारे में हो सकती है?”
रात को खाने की मेज़ पर दोनों बहनों ने ग़ौर किया कि उनके माता-पिता गवर्नेस को भेदती नज़रों से टटोल रहे थे। फिर एक-दूसरे की ओर भी अर्थभरी नज़रों से देखने लगे। खाने के बाद माँ ने मिस मान से कहा—
“ज़रा मेरे कमरे में तो आना, तुमसे कुछ बात करनी है।”
लड़कियाँ उत्तेजना से भर उठीं। ज़रूर कुछ होने वाला है। छिपकर सुनने में वे अब माहिर हो चुकी थीं। अब तो ऐसा करने में उन्हें शर्म भी नहीं आती थी। उनकी बस इतनी मंशा थी कि उनसे जो छिपाया जा रहा है, उसका पता लगाया जाए। जिस कमरे में मिस मान गई थी, उस दरवाज़े के बाहर वे पलक झपकते ही पहुँच गईं। कान लगाकर ध्यान से सुनने लगीं, पर उन्हें केवल फुसफुसाहट सुनाई दे रही थी। तो क्या वे कुछ जान नहीं पाएँगी?
अचानक एक आवाज़ ऊँची होने लगी। उनकी माँ क्रोधित हो चिल्ला रही थी, “तुम्हें क्या लगता है, हम सब अंधे हैं—तुम्हारी इस हालत पर किसी का ध्यान नहीं जाएगा? क्या इसी तरीक़े से तुम गवर्नेस की अपनी ज़िम्मेदारी निभाओगी? मैं तो इस ख़याल से ही काँप उठती हूँ कि मैंने अपनी बेटियों की तालीम का सारा दारोमदार तुम जैसी गवर्नेस पर छोड़ रखा है। बेशक, तुमने बड़ी बेशर्मी से बच्चियों के प्रति लापरवाही बरती है...”
गवर्नेस ने विरोध करना चाहा और कुछ बोलने का प्रयास करने लगी, पर वह बहुत धीमे बोल रही थी, ताकि बात बाहर तक न सुनाई दे। “हाँ, बोलो-बोलो, यूँ भी हर कुलटा बहाने बनाती ही है। तुम्हारे जैसी स्त्रियाँ पहला मौक़ा पाते ही अपना सब कुछ लुटा देती हैं। ईश्वर भला करे! वाक़ई यह कितनी बेतुकी बात है कि तुम्हारे जैसी एक बदचलन स्त्री गवर्नेस बनकर बैठी है। अब कोई ख़ुशामद नहीं चलेगी। यह मत सोचना कि मैं तुम्हें अब इस घर में रहने दूँगी।”
बाहर खड़ी लड़कियाँ काँपने लगी थीं। उन्हें पूरी बात समझ तो नहीं आई पर माँ का रवैया उन्हें बड़ा नागवार लगा। मिस मान के आँसुओं से उन्हें जवाब मिल गया था। उनकी आँखों से भी आँसू बहने लगे। माँ का ग़ुस्सा बढ़ता ही जा रहा था।
“रोने-धोने के अलावा अब तुम कर भी क्या सकती हो? पर तुम्हारे इन आँसुओं का मुझ पर कोई असर नहीं होने वाला है। मुझे तुम जैसों के साथ रत्ती भर भी हमदर्दी नहीं है। अब तुम क्या करोगी? कहाँ जाओगी? इससे मुझे कोई मतलब नहीं है। तुम्हें ख़ुद पता होगा कि ऐसे वक़्त तुम्हारी कौन मदद कर सकता है। मैं तो बस इतना जानती हूँ कि अब तुम एक दिन भी इस घर में नहीं रह सकती।”
मिस मान का करुण विलाप ही एकमात्र जवाब था। लड़कियों ने किसी को किसी तरह बिलखते नहीं देखा था। उन्हें तो यही लग रहा था कि कोई इस तरह फूट-फूट कर रो रहा हो वह ग़लती कर ही नहीं सकता। कुछ पल उनकी माँ ख़ामोश रही। फिर तीखे लहज़े में बोली—
“बस मुझे यही कहना था, जाओ और अपना सामान बाँधना शुरू कर दो। कल सुबह आकर अपनी तनख़्वाह ले लेना। अब तुम जा सकती हो।”
लड़कियाँ भागकर अपने कमरे में आ गईं। क्या बात हो सकती है? अचानक आए इस तूफ़ान की क्या वजह है? धुँधले काँच के पार की हक़ीकत का उन्हें थोड़ा बहुत अहसास तो ज़रूर था। पहली बार उनके दिलों में अपने माता-पिता के प्रति बग़ावत का जज़्बा पनप रहा था।
“क्या माँ का इतने कड़े ढंग से बात करना जायज़ था?” बड़ी ने कहा। इतने खुले लफ़्ज़ों में माँ की बुराई सुनकर छोटी थोड़ा घबरा गई और हकलाकर बोलने लगी, “किंतु...पर...हमें नहीं पता कि उसने क्या किया है?”
“कुछ नहीं किया है। मुझे यक़ीन है मिस मान कुछ ग़लत कर ही नहीं सकती। माँ उसे उतना नहीं जानती जितना हम जानते हैं।”
“जिस ढंग से वह रो रही थी, वह वाक़ई हिला देने वाला था, मुझे बहुत दुख हो रहा था।”
“हाँ, वह सब वाक़ई दर्दनाक था। पर माँ जिस तरह से उस पर बरस रही थी, वह वीभत्स था...वाक़ई शर्मनाक!”
बोलते-बोलते वह ग़ुस्से से काँपने लगी और आँखों से आँसू टपकने लगे।
इसी पल मिस मान भीतर आई। वह थकी-थकी-सी दिख रही थी।
“बच्चों, मुझे आज दोपहर तक काफ़ी काम निपटाने हैं। मुझे यक़ीन है कि तुम दोनों मेरे जाने के बाद भी अच्छी तरह से रहोगी? आज की शाम हम साथ गुज़ारेंगे।”
वह मुड़ी और कमरे से बाहर चली गई। उसने ध्यान ही नहीं दिया कि बच्चियाँ कितनी उदास दिख रही थीं?
“क्या तुमने देखा उसकी आँखें कितनी लाल हो रखी थीं? मुझे तो बिल्कुल समझ में नहीं आता कि माँ उसके साथ कदर बेरहमी से कैसे पेश आ सकती हैं?”
“बेचारी मिस मान!”
वे रुआँसी हो गई थीं। आँसुओं को रोकने में आवाज़ टूटने लगी। तब माँ उनके कमरे में आई। वह जानना चाहती थी कि वे उसके साथ सैर पर चलना चाहेंगी?
“नहीं, आज नहीं, माँ।”
दरअसल उन्हें अपनी माँ से डर लग रहा था और वे उससे नाराज़ भी थीं, क्योंकि माँ ने उन्हें नहीं बताया था कि वह मिस मान को निकाल रही हैं। इस वक़्त वे अकेले रहने के मूड में थीं। वे पिंजरे में क़ैद अबाबील पक्षी की तरह छटपटाहट महसूस कर रही थीं। फ़रेब और चुप्पी का जो माहौल उनके इर्द-गिर्द रचा गया था, उससे वह बुरी तरह विचलित थीं। वे इस उधेड़बुन में थीं कि जाकर मिस मान से पूछें कि आख़िर माज़रा क्या है? वे उसे साफ़-साफ़ बता देना चाहती थीं कि वे चाहती हैं कि वह उनके साथ ही रहे और माँ ने उसके साथ जो बर्ताव किया वह सर्वथा अनुचित था। पर वे मिस मान का दुःख बिल्कुल नहीं बढ़ाना चाहती थीं। दूसरे उन्हें शर्म भी आ रही थी। भला किस मुँह से वे इस मसले पर कोई बात करेंगी। उन्होंने तो सारी बातें छिपकर सुनी हैं।
पूरी दोपहर अकेले बड़ी मुश्किल से काटी। पहाड़-सा एक पल उदासी में रोते-बिलखते गुज़रा। उनके ज़ेहन में बस माँ का बेरहम बर्ताव और मिस मान की उदास सिसकियाँ गूँजती रहीं, जो उन्होंने बंद दरवाज़े के बाहर कान लगाकर सुनी थीं।
शाम को गवर्नेस उनसे मिलने आई, केवल ‘शुभरात्रि’ कहकर जाने लगी। जब वह जाने लगी तो दोनों लड़कियाँ ख़ामोशी को तोड़ने के लिए तड़प उठीं, पर उनके होंठों से एक लफ़्ज़ भी नहीं निकल पाया। दरवाज़े पर पहुँचकर मानो मूक मोह के वशीभूत उसने मुड़कर दोनों लड़कियों को देखा। उनकी आँखों में स्नेह तैर रहा था। उसने दोनों को बांहों में भर लिया। गले लगते ही दोनों फूट-फूटकर रोने लगीं। एक बार फिर उसने दोनों को चूमा और तेज़ी से बाहर निकल गई।
लड़कियों ने जान लिया कि यही अंतिम विदाई थी।
“अब हम उसे कभी नहीं देख पाएँगी।” एक ने सुबकते हुए कहा।
“हाँ, मैं जानती हूँ। कल जब हम स्कूल से लौटेंगी, तब तक वह जा चुकी होगी।”
“शायद कुछ अरसे बाद हम उससे मिलने जा पाएँगी, तब हो सकता है वह हमें अपना बच्चा दिखाए।”
“हाँ वह हमेशा से कितनी भली और प्यारी रही है।”
“बेचारी मिस मान!”
इस दुखभरे जुमले में मानो उनकी क़िस्मत में क्या बदा है इसका पूर्वाभास झलक रहा था। “मुझे वाक़ई समझ में नहीं आ रहा है कि अब उसके बग़ैर हम कैसे रहेंगे, क्या करेंगे?”
“उसकी जगह मैं किसी भी दूसरी गवर्नेस को बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी।”
“मैं भी नहीं।”
“मिस मान जैसी कोई और हो ही नहीं सकती। इसके अलावा...”
उसने वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया। उनके भीतर पनप रहे नारीत्व ने अनजाने ही उनके दिलों में मिस मान के प्रति श्रद्धा का भाव पैदा कर दिया था, ख़ासकर जब से उन्हें पता चला था कि उसका एक बच्चा है। यह बात उनके ज़ेहन में घर कर गई थी और इस बात ने उन्हें बहुत भीतर तक छू लिया था।
“सुनो” एक बोली।
“बोलो?”
“मुझे एक तरक़ीब सूझ रही है। क्यूँ न हम मिस मान के जाने से पहले कुछ ऐसा करें, जो उसे बहुत अच्छा लगे। कुछ ऐसा जिससे उसे पता चले कि हम उसे कितना चाहते हैं। और यह कि हम माँ के पक्ष में नहीं है? क्या तुम मेरा साथ दोगी?”
दुनिया का सारा बोझ जैसे उनके नन्हें कमज़ोर कंधों पर आन पड़ा था। उनका वह अलमस्त, अल्हड़ बचपन कहीं पीछे छूट गया था। एक अनजाना भय उनकी राह तक रहा था। घटना की असलियत से वे अभी भी नावाकिफ़ थीं पर उसके भयानक अंजाम से वे जूझ रही थीं। अवसाद एवं अकेलेपन की इस घड़ी में वे एक-दूसरे के क़रीब आ गई थीं। पर यह एक मूक साहचर्य था। ख़ामोशी के जाल को वे अभी भी तोड़ नहीं पा रही थीं। बड़ों से वे पूरी तरह कटकर रह गई थीं। उनमें से कोई भी उन तक नहीं पहुँच पाता था, क्योंकि उनकी आत्माओं के पट बंद हो चुके थे—शायद आने वाले बहुत लंबे समय तक! आस-पास की हर शै के साथ उनकी जंग जारी थी। महज़ एक दिन में उनकी दुनिया बदल चुकी थी। वे बड़ी हो गई थीं। शाम ढलने तक वे दोनों एकदम तन्हा अपने शयनकक्ष में ही बैठी रहीं। क्षण भर के लिए भी उनके भीतर तनहाई या भयानक अंजाम का भय नहीं जागा, जो अमूमन बच्चों में होता है। हालाँकि बेहिसाब ठंड थी, पर अपनी बेध्यानी में वे कमरे को गर्म रखने वाला उपकरण चालू करना भूल गई थीं। दोनों एक ही बिस्तरे में एक-दूसरे से लिपटकर लेट गईं। अपनी उलझन पर कोई भी बात करने में वे असमर्थ थीं। पर छोटी बहन का बहुत देर से जज़्ब भावनाओं का सोता आँसुओं के ज़रिए फूट पड़ा और उसने राहत महसूस की। फिर बड़ी बहन भी अपनी रुलाई रोक नहीं सकी। इस तरह वे दोनों एक-दूसरे से लिपटकर रोती रहीं।
अब वे मिस मान के उन्हें छोड़कर चले जाने या माता-पिता से उनके मनमुटाव पर विलाप नहीं कर रही थीं। दरअसल वे इस अहसास की कल्पना मात्र से बुरी तरह दहल गई थीं कि इस विराट अनजानी दुनिया में उनके साथ कुछ भी घट सकता है, जिसकी निर्मम सच्चाई से आज पहली बार उनका साबका हुआ था। वे उस ज़िंदगी से कतराने लगीं, जिसमें वे बड़ी हो रही थीं। वे ऐसे जीवन से खौफ़ खाने लगीं जो बियाबान जंगल की तरह टेढ़े-मेढ़े रास्ते से उन्हें भयभीत कर रहा था। पर उन्हें इस जंगल को पार करना ही था। धीरे-धीरे उनकी यह बेचैनी अलौकिक दृष्टि में तब्दील होती गई। उनकी सिसकियाँ अब धीमी पड़ने लगीं। साँसों में भी एक ठहराव आ गया। साँसें एक लयात्मक सामंजस्य से चलने लगीं।
फिर वे दोनों सो गईं।
donon bachchiyan apne kamre mein akeli theen. battiyan bujha di gai theen. charon or andhera tha sivaye dhundhli roshni ke jo unke bistron mein se timtima rahi thi. ve itne ahista se saans le rahi theen, jaise lage ki ve so rahi hain.
“suno,” bistar par se ek halki phusphusahat bhari avaz aai. ye barah baras ki bachchi thi.
“kya baat hai” uski bahan ne puchha jo usse ek baras baDi thi.
“main bahut khush hoon ki tum abhi tak jaag rahi ho. mujhe tumse kuch kahna hai. ”
usne kuch javab nahin diya, par dusre bistare par thoDi halchal zarur hui. baDi bachchi uthkar baith gai thi aur dhundhli roshni mein uski ankhen chamak rahi theen.
“main tumse ye kahna chahti thi, par pahle batao ki tumne mis maan mein in dinon aaye badlav par ghaur kiya hai?”
“haan,” pal bhar ki chuppi ke baad dusri bachchi boli. “kuchh baat to zarur hai, par main nahin janti ki kyaa? ab wo pahle ki tarah sakhti nahin baratti. pichhle do dinon se mainne apni paDhai nahin ki aur usne mujhe zara bhi nahin Danta.
main nahin janti use kya hua hai, par itna zarur hai ki wo ab hamari fikr nahin karti. hamesha khoi khoi rahti hai, pahle ki tarah wo hamare saath khelti bhi nahin hai. ”
“mere khayal se wo dukhi hai, par zahir nahin karna chahti. ab wo piano bhi nahin bajati. ” pal bhar chuppi rahi phir baDi laDki ne pahal kee—
“tum kah rahi thi ki tumhein mujhse kuch baat karni hai. ”
“haan, par tum kisi ko batana nahin, maan ya apni dost lauti ko bhi nahin. ”
“are baba, nahin kahungi,” dusri kuch uktakar boli, “ab bolo bhi. ”
achchha suno, jab hum sone ke liye apne kamre mein aaye to achanak mujhe yaad aaya ki main mis maan ko shubhratri kahna bhool gai thi. so baghair jute pahne panjon ke bal main dhime dhime uske kamre tak gai, taki use chaunka sakun. mainne ahista se uska darvaza khola. pal bhar ke liye mujhe laga ki shayad wo kamre mein nahin hai. batti jal rahi thi. mujhe wo kahin dikhai nahin di, phir achanak main chaunk paDi. mujhe kisi ke rone ki avaz sunai di. mainne dekha wo bistare mein aundhi leti hui thi, sir takiye mein dhansa rakha tha. wo zor zor se siskiyan bhar rahi thi. mujhe baDa ajib laga. usne mujhe nahin dekha. main jaise gai thi usi tarah panjon ke bal bahar aa gai. mainne kamre ka darvaza bheD diya. kuch pal kamre ke bahar khaDi rahi. uski sisakiyon ki avaz darvaze se bahar tak sunai de rahi thi. phir main laut aai. ”
pal bhar khamoshi rahi. donon mein se koi nahin bola. baDi laDki ne ek gahri saans li aur boli—”bechari mis maan!” phir chuppi chha gai.
“aisi kya baat ho sakti hai, wo ro kyon rahi thee?” chhoti laDki ne baat phir shuru ki. “haal mein uska kisi ke saath koi jhagDa bhi nahin hua hai. maan bhi ab use utna Dantti phatkarti nahin hai, jaise aksar kiya karti thi. yaqinan hum uski pareshani ka sabab nahin ho sakte. phir aisi kis baat use rone par mazbur kar diya?”
“mere khayal se main andaza laga sakti hoon” baDi laDki boli.
“kya baat ho sakti hai?”
usne javab dene mein kafi der ki, par phir tafsil se bataya—
“mere khayal se use kisi se prem hai. ”
“prem?” chhoti laDki ne chaunkkar puchha. “magar kisse?”
“kya tumne ghaur nahin kiya?”
“tumhare khayal se oto to nahin?”
“beshak vahi! wo bhi usse pyaar karta hai. pichhle teen barson se wo hamare saath rah raha hai, par pahle kabhi hamare saath sair ke liye nahin aata tha. magar ab pichhle do teen mahine se ek bhi din nahin guzra jab wo hamare saath na aaya ho. mis maan ke aane se pahle tak usne hamse kabhi baat tak nahin ki thi, par ab din bhar hamare saath chuhalbazi karta rahta hai. ab jab bhi hum bahar nikalte hain, baghiche mein ya sair par ya kahin aur to wo hamse takra hi jata hai, khaskar jahan mis maan hamein le jati hain. tumne is par yaqinan ghaur
kiya hoga?”
“haan mainne gaur kiya hai. ” chhoti boli, “par main soch rahi thi. . . ”
usne vakya pura nahin kiya.
“halanki main baat ko tool nahin dena chahti, par mujhe lagta hai ki wo usse milne ke liye hamein bahane ki tarah istemal kar raha hai. ”
der tak khamoshi rahi. donon bahnen soch vichar karne lagin. phir chhoti hi ne baat shuru ki.
“yadi ye baat hai to wo ro kyon rahi thee? wo use itna pasand karta hai. mujhe to hamesha lagta raha hai ki prem mein paDna kafi sukhad hota hai. ”
“main bhi aisa hi sochti hoon. ” baDi ne khoe khoe andaz mein kaha. “pata nahin phir kya baat hai?”
“bechari mis maan!” ek baar phir unindi si avaz aai.
us raat unki batachit yahin par khatm ho gai. subah halanki dobara unhonne is masle ko nahin uthaya, par donon bakhubi janti theen ki dusri ke dimagh mein kya chal raha hai. aisa nahin tha ki unhonne ek dusre ko arth bhari nazron se na dekha ho, yada kada unki nigahen gavarnes par bhi tik jati theen. bhojan ke vaqt unhonne chachere bhai oto ko yoon nazarandaz kiya, manon wo koi ajnabi ho. usse koi baat nahin ki par chori chhipe uska jayeja leti rahin. ve janna chahti theen ki mis maan ke saath uski koi andaruni saanth gaanth hai ya nahin? khelakud mein bhi uska man nahin lag raha tha. un par bas ek hi dhun savar thi ki is rahasya par se parda kaise uthe? shaam ko baDe anamnepan se ek bahan ne dusri se puchha—
“kya tumne aaj kuch ghaur kiya?”
“nahin” bahan ne sankshipt sa javab diya. is bare mein batachit karne se unhen Dar lag raha tha. is tarah kai dinon tak paheli bani rahi. donon laDkiyan chupchap har cheez par nazar rakhtin. unke dimaghon mein khalbali machi rahti. har vaqt bas ek hi khayal un par havi rahta ki is khubsurat paheli ko suljhayen to kaise?
raat ko khane ke vaqt chhoti laDki ne saaf dekha gavarnes ne oto ko halka sa ishara kiya. oto ne javab mein gardan hilai. uttejna ke mare mez ke niche se usne apni bahan ko halki si laat mari. baDi se savaliya nazron se chhoti ko dekha. javab mein usne bhi arthabhri nigahen us par Dalin. uske baad khane ke pure vaqt donon baDi bechain rahin. khana khatm kar gavarnes ne bachchiyon se kaha—
“stDi room mein jakar kuch kaam karo. mera sir phat raha hai, main kuch der letana chahti hoon. ”
“haan, wo to bahut bura hoga,” chhoti ne ghabrakar kaha.
“to theek hai, main sunungi aur tum nazar rakhna ki koi aa to nahin raha. ”
chhoti ne munh phulakar kaha, “par phir tum mujhe sab kuch nahin bataogi. ”
“Daro nahin! main sab bataungi”
“meri qasam?”
“teri qasam, jab koi aata dikhe to tum khansna. ”
ve galiyare mein intzaar karne lagin. unke dil uttejna se dhaDak rahe the. jane kya hoga? unhen padchap sunai di. ve donon andhere stDi room mein chhupkar khaDi ho gain. haan, ye oto tha. wo mis maan ke kamre mein gaya aur darvaza bandkar liya. baDi laDki apni jagah par ja pahunchi aur ki hol se kaan lagakar sunne lagi. usne sansen thaam rakhi theen. chhoti use iirshya se dekhne lagi. jigyasa se wo betab ho rahi thi, wo bhi darvaze ke nikat ja pahunchi, par baDi bahan ne use dhakka dekar ishara kiya ki jakar galiyare ke chhor par nigrani rakhe. isi tarah kai minat guzar ge. chhoti ko to pal pal pahaD sa jaan paD raha tha. uski bechaini ka paravar nahin tha. ansuon ko wo bamushkil rok pa rahi thi kyonki uski bahan sab kuch sun rahi thi. achanak ek avaz se wo chaunk uthi aur khansi. donon laDkiyan tezi se apne stDi room mein ghus gain. kuch pal saans theek karne ke liye ve chup rahin. phir chhoti ne besabr ho puchha—
“ab zara jaldi se mujhe sab batao. ”
baDi bahan duvidha mein paD gai. kuch is tarah baDabDai manon khud se hi batiya rahi ho.
“mujhe samajh nahin aa raha. ”
“kyaa?”
“yah kitni ajib baat hai. ”
“kyaa? are bolo bhi. ” dusri kuch ghusse mein phat paDi. baDi ne phir bolne ki koshish ki. “yah vaqii ashcharyajnak tha. main jaisa soch rahi thi usse ekdam alag. mere khyaal se jab wo uske kamre mein gaya to use banhon mein bhar lena chaha ya chumna chaha, magar mis maan ne rok diya aur boli, “nahin abhi nahin. main tumse ek bahut zaruri baat karna chahti hoon. ”
“main theek se dekh nahin pa rahi thi, kyonki chabi beech mein aa rahi thi, par main achchhi tarah sab sun rahi thi. ”
“kya baat hai?” oto ne puchha. uska svar vaqii alag tha. mainne use pahle kabhi is tarah bolte nahin suna hai. tum janti ho wo kaise bolta hai. uncha aur rob se, magar is baar yaqin hai wo ghabraya hua tha. mis maan samajh gai hogi ki wo use phuslana chahta hai, kyonki wo bas itna hi boli—“mujhe lagta hai ki tum achchhi tarah jante ho. ”
“nahin, qatii nahin. ”
“yadi aisa hai to,” wo behad udaas svar mein boli, “kyon tumne mujhse kinara kar liya hai? hafte bhar se koi baat tak nahin ki. kyon mujhse har vaqt kanni katte phirte ho; ab tum un bachchiyon ke paas bhi nahin aate, baghiche mein bhi milne nahin aate. kya achanak tumne mera khyaal karna chhoD diya hai? oh! tum achchhi tarah jante ho ki tum aisa kyon kar rahe ho?”
thoDi der chuppi rahi, phir wo bola—“tum janti ho imtahan nazdik aa rahe hain. mujhe apni paDhai ko chhoD kisi aur cheez ke liye vaqt nahin milta, main kya karun?”
wo rone lagi aur subakte hue bahut ahista se usse puchha, ‘oto, sach sach batao mainne aisa kya kiya hai ki tum mere saath is tarah bartav kar rahe ho? mainne tum par koi zor zabardasti nahin ki, koi haq nahin jataya, par kya hamein khulkar baat nahin kar leni chahiye. tumhare haav bhaav se saaf dikh raha hai ki sab jante hue bhi tum anjan ban rahe ho”. . . gavarnes kanpne lagi. vakya bhi pura nahin kar pai. oto thoDa qarib aaya aur puchha. . .
“kya janta hoon?”
“hamare bachche ke bare men”
“bachcha, ye kaise mumkin hai?” chhoti bahan beech mein hi bol paDi.
“par usne to yahi kaha. ”
“ho sakta hai tumne ghalat suna ho. ”
“nahin, mujhe pura yaqin hai. oto ne dohraya bhi ki hamara bachcha?”
“thoDi der baad mis maan ne puchha, ab hamein kya karna chahiye? oto khamosh raha. usi vaqt tum khansi aur mujhe vahan se bhagna paDa.
chhoti kafi Dari hui aur hairan thi, “par uska bachcha kaise ho sakta hai aur bachcha hai kahan?”
“meri samajh mein bhi utna hi aa raha hai, jitna tumhein aa raha hai. ”
“shayad uske ghar par hoga. maan use yahan nahin lane deti hogi. yaqinan yahi vajah hai ki wo itni dukhi hai. ”
‘oh par ye kaise mumkin hai, tab to wo oto ko janti tak nahin thi. ”
ve ashay ho sochne lagin. chhoti laDki phir boli,
“bachcha, ye kaise mumkin hai? uska to vivah bhi nahin hua hai. keval vivahit logon ke bachche hote hain. ”
“bevakuf mat bano. usne oto se kab vivah kiya?”
“to phir? ”
ve ek dusre ko takne lagin.
“bechari mis maan” unmen se ek dukhi hokar boli.
baar baar isi jumle ko bolkar ve karuna vyakt kartin. par har baar unki jigyasa aur prabal ho uthti.
“tumhen kya lagta hai wo bachcha laDka hoga ya laDki?”
“main bhala kaise bata sakti hoon?”
“yadi main hoshiyari se usse pata lagaun to kaisa rahega?”
‘‘isse koi fayda nahin hoga. ve is tarah ki baten hamare saath nahin karenge. jab bhi ve is tarah ki baten karte hain aur hum bhule bhatke vahan pahunch jayen to ekayek chup ho jate hain jaise hum koi doodh pite bachche hon—halanki main terah ki ho chuki hoon. isliye is bare mein usse puchhna bekar hai wo hamein taal degi?”
“par main janna chahti hoon. ”
“mujhe oto ke ravaiye par vaqii hairani ho rahi hai. wo aise jatane laga, jaise use kuch pata hi nahin hai. ye kaise mumkin hai ki kisi ka bachcha ho aur use khabar tak na ho. jaise sabko pata hota hai ki unke mata pita hain, vaise hi unka bachcha hai, ye bhi sabko pata hota hai.
“oh wo yoon hi ban raha tha. wo aksar kaise mazak karta rahta hai?”
“par aisi baat par koi mazak kaise kar sakta hai? wo to tab karta hai, jab hamein chiDhana hota hai. ”
unki batachit mein rukavat aa gai, gavarnes aa gai thi. unhonne aise jataya jaise kisi kaam mein vyast hon. magar unki nazron se ye chhipa na rah saka ki uski ankhen surkh theen aur gahre avsad se bhari theen. ve ekdam shaant baithi rahin. unke dil mein uske prati alag qism ki karuna umaD rahi thi. ve isi khayal mein khoi rahi ki uska ek bachcha hai, isliye wo itni udaas hai. par anjane hi ye udasi ahista ahista un par chhane lagi thi.
dusre din raat ke khane par unhen ek behad chaunkane vali khabar pata chali. oto ja raha tha. usne ankal se kaha tha ki imtahan se pahle use kafi mehnat karni hai aur yahan ghar par paDhai mein dhyaan lagana mushkil hai. agle do mahine wo kisi haustal mein rahega.
donon laDkiyan uttejna se kaanp rahi theen. unhen yaqin tha ki ho na ho oto ke is tarah jane ke pichhe pichhle din ki batachit ka sambandh hai. apne sahj bodh se unhonne jaan liya ki ye kayarta bhara palayan hai. oto jab unse vida lene aaya to ve uske saath behad berukhi se pesh ain. unhonne uski taraf peeth kar li.
halanki mis maan se wo kaise vida le raha hai, is par unhonne puri nazar rakhi. baDe sanyam se mis maan ne haath milaya, par uske honth laraz rahe the. in dinon laDakiyon mein tabdili aa gai thi. unki hansi kahin lupt ho gai thi. unhen kisi cheez mein ras nahin aata, ankhen hamesha udaas rahtin. ve bechaini se yahan vahan chahalaqadmi kartin. apne se baDon ke prati ve avishvas se bhar uthi theen. unhen lagta ki chhoti se chhoti baat ke pichhe unhen dhokha dene ki mansha chhipi hai. har vaqt nigrani rakhne ki udheDbun mein Dubi rahtin aur darvaze ke pichhe chhupkar har baat suntin. har vaqt us jaal ko bhedne ke liye betab rahtin, jisne us rahasya par parda Daal rakha tha phir kam se kam jaal ke surakhon ki marphat vastavik duniya ki ek jhalak pa lena chahti theen.
bachpan ka wo bharosa, alhaDpan aur masumiyat kahin lupt ho gai thi. iske alava har vaqt un par koi naya rahasya khulne ki dhun savar rahti. har vaqt unhen ye Dar ghere rahta ki kuch chhoot na jaye. charon or chhal fareb ke mahaul ko dekhkar ve khud bhi chhal karne lagin theen. jab bhi unke mata pita ya koi baDa unke aas paas se guzarta to jhat se ve is tarah dikhava karne lagtin, manon kisi bachkane kaam mein lagi hon. baDon ki duniya ke khilaf is sajhi muhim ke maqsad ne unhen ek dusre ke aur bhi qarib la diya tha. apni bebasi aur agyan par jab unka bas nahin chalta to pyaar se ek dusre se lipat jatin. kabhi kabhar rone lagtin. kisi vazib vajah ke baghair hi unki zindagiyon ne karvat badal li thi. aur unhen ek nazuk moD par lakar khaDa kar diya tha.
unki behisab taqlifon mein ye sabse baDi taqlif thi, jo unhen har vaqt salti rahti. ek dusre se kahe baghair hi unhonne man hi man irada kar liya tha ki mis maan ko kam se kam pareshani dengi. mis maan jo pahle hi itni dukhi aur pareshan hain, unki taqlifon mein ijafa nahin hone dengi. ve behad mehnati ho gai theen. apni zimmedari samajhne lagi theen. ve ek dusre ki paDhai mein madad kartin, hamesha shaant rahtin aur samajhdari se pesh atin. par gavarnes thi ki is par ratti bhar bhi dhyaan nahin deti thi. yahi baat unhen kachotti. wo ab kitni badal chuki hai. uske saath jab ve baat kartin to lagta jaise gahri neend se jagi ho. ve jab unki or nazren ghumati to lagta bahut lambi duri tay karke aai hain. ghanton wo khayalon mein gum rahti. laDkiyan jab bhi uske qarib se guzartin to dhime dhime beavaz panjon ke bal hi chaltin, taki uske khayalon mein badha na paDe. unhen lagta ki wo zarur apne us bachche ke bare mein soch rahi hai, jo yahan nahin hai. unke bhitar naritv ka jo ankur phoot raha tha uski vajah se gavarnes ke prati ve pahle se kahin zyada anurag mahsus karne lagi theen. unhen lagta mis maan jo hamesha se bahut achchhi thi, kabhi kabhar hi Dantakar baat karti thi, ab to aur zyada khyaal rakhne lagi hai. donon laDakiyon ko bas yahi lagta ki uske har kaam mein gahra gam chhipa hua hai, jo na chahte hue bhi prakat ho jata hai. unhonne kabhi use rote hue nahin dekha tha, par uski ankhen aksar surkh dikhai detin. zahir tha ki wo apne ghamon ko apne tak hi rakhna chahti thi. unhen is baat ka dukh tha ki ve uski koi madad nahin kar pa rahi hain. ek din bachchiyon ke aate hi gavarnes ne munh khiDki ki taraf pher liya, taki jhatpat ansu ponchh sake. chhoti bahan ne sahas kar uska haath thaam liya aur poochh hi liya—
“mis maan kya aap bahut dukhi hain, kahin hamse to koi bhool nahin hui hai?”
“nahin, meri pyari bachchi tumhari koi ghalati nahin hai. ” ye kah usne bachchi ka matha choom liya. tab se laDkiyan har vaqt chaukanni rahne lagin. ek din unmen se ek ne baithakkhane mein achanak kuch aisa sun liya, jo darasal unke kanon tak nahin pahunchna chahiye tha. unke mata pita aapas mein khusar pusar kar rahe the, par bachchi ne kafi kuch sun liya aur soch mein Doob gai.
“haan, mere dimagh mein bhi yahi baat ghoom rahi hai,” maan kah rahi thi, “kal main usse baat karungi. ”
chhoti bahan ne pahle man hi man sari baton par ghaur kiya, phir apni bahan se mashavira karne pahunch gai.
“tumhare khayal se ye sari haay tauba kis bare mein ho sakti hai?”
raat ko khane ki mez par donon bahnon ne ghaur kiya ki unke mata pita gavarnes ko bhedti nazron se tatol rahe the. phir ek dusre ki or bhi arthabhri nazron se dekhne lage. khane ke baad maan ne mis maan se kaha—
“zara mere kamre mein to aana, tumse kuch baat karni hai. ”
laDkiyan uttejna se bhar uthin. zarur kuch hone vala hai. chhipkar sunne mein ve ab mahir ho chuki theen. ab to aisa karne mein unhen sharm bhi nahin aati thi. unki bas itni mansha thi ki unse jo chhipaya ja raha hai, uska pata lagaya jaye. jis kamre mein mis maan gai thi, us darvaze ke bahar ve palak jhapakte hi pahunch gain. kaan lagakar dhyaan se sunne lagin, par unhen keval phusphusahat sunai de rahi thi. to kya ve kuch jaan nahin payengi?
achanak ek avaz uunchi hone lagi. unki maan krodhit ho chilla rahi thi, “tumhen kya lagta hai, hum sab andhe hain—tumhari is haalat par kisi ka dhyaan nahin jayega? kya isi tariqe se tum gavarnes ki apni zimmedari nibhaogi? main to is khayal se hi kaanp uthti hoon ki mainne apni betiyon ki talim ka sara daromadar tum jaisi gavarnes par chhoD rakha hai. beshak, tumne baDi besharmi se bachchiyon ke prati laparvahi barti hai. . . ”
gavarnes ne virodh karna chaha aur kuch bolne ka prayas karne lagi, par wo bahut dhime bol rahi thi, taki baat bahar tak na sunai de. “haan, bolo bolo, yoon bhi har kulata bahane banati hi hai. tumhare jaisi striyan pahla mauqa pate hi apna sab kuch luta deti hain. iishvar bhala kare! vaqii ye kitni betuki baat hai ki tumhare jaisi ek badachlan stri gavarnes bankar baithi hai. ab koi khushamad nahin chalegi. ye mat sochna ki main tumhein ab is ghar mein rahne dungi. ”
bahar khaDi laDkiyan kanpne lagi theen. unhen puri baat samajh to nahin aai par maan ka ravaiya unhen baDa nagavar laga. mis maan ke ansuon se unhen javab mil gaya tha. unki ankhon se bhi ansu bahne lage. maan ka ghussa baDhta hi ja raha tha.
“rone dhone ke alava ab tum kar bhi kya sakti ho? par tumhare in ansuon ka mujh par koi asar nahin hone vala hai. mujhe tum jaison ke saath ratti bhar bhi hamdardi nahin hai. ab tum kya karogi? kahan jaogi? isse mujhe koi matlab nahin hai. tumhein khud pata hoga ki aise vaqt tumhari kaun madad kar sakta hai. main to bas itna janti hoon ki ab tum ek din bhi is ghar mein nahin rah sakti. ”
mis maan ka karun vilap hi ekmaatr javab tha. laDakiyon ne kisi ko kisi tarah bilakhte nahin dekha tha. unhen to yahi lag raha tha ki koi is tarah phoot phoot kar ro raha ho wo galti kar hi nahin sakta. kuch pal unki maan khamosh rahi. phir tikhe lahze mein boli—
“bas mujhe yahi kahna tha, jao aur apna saman bandhna shuru kar do. kal subah aakar apni tanakhvah le lena. ab tum ja sakti ho. ”
laDkiyan bhagkar apne kamre mein aa gain. kya baat ho sakti hai? achanak aaye is tufan ki kya vajah hai? dhundhale kaanch ke paar ki haqikat ka unhen thoDa bahut ahsas to zarur tha. pahli baar unke dilon mein apne mata pita ke prati baghavat ka jazba panap raha tha.
“kya maan ka itne kaDe Dhang se baat karna jayez tha?” baDi ne kaha. itne khule lafzon mein maan ki burai sunkar chhoti thoDa ghabra gai aur haklakar bolne lagi, “kintu. . . par. . . hamein nahin pata ki usne kya kiya hai?”
“kuchh nahin kiya hai. mujhe yaqin hai mis maan kuch ghalat kar hi nahin sakti. maan use utna nahin janti jitna hum jante hain. ”
“jis Dhang se wo ro rahi thi, wo vaqii hila dene vala tha, mujhe bahut dukh ho raha tha. ”
“haan, wo sab vaqii dardanak tha. par maan jis tarah se us par baras rahi thi, wo vibhats tha. . . vaqii sharmanak!”
bolte bolte wo ghusse se kanpne lagi aur ankhon se ansu tapakne lage.
isi pal mis maan bhitar aai. wo thaki thaki si dikh rahi thi.
“bachchon, mujhe aaj dopahar tak kafi kaam niptane hain. mujhe yaqin hai ki tum donon mere jane ke baad bhi achchhi tarah se rahogi? aaj ki shaam hum saath guzarenge. ”
wo muDi aur kamre se bahar chali gai. usne dhyaan hi nahin diya ki bachchiyan kitni udaas dikh rahi theen?
“kya tumne dekha uski ankhen kitni laal ho rakhi theen? mujhe to bilkul samajh mein nahin aata ki maan uske saath kadar berahmi se kaise pesh aa sakti hain?”
“bechari mis maan!”
ve ruansi ho gai theen. ansuon ko rokne mein avaz tutne lagi. tab maan unke kamre mein aai. wo janna chahti thi ki ve uske saath sair par chalna chahengi?
“nahin, aaj nahin, maan. ”
darasal unhen apni maan se Dar lag raha tha aur ve usse naraz bhi theen, kyonki maan ne unhen nahin bataya tha ki wo mis maan ko nikal rahi hain. is vaqt ve akele rahne ke mooD mein theen. ve pinjre mein qaid ababil pakshi ki tarah chhatpatahat mahsus kar rahi theen. fareb aur chuppi ka jo mahaul unke ird gird racha gaya tha, usse wo buri tarah vichlit theen. ve is udheDbun mein theen ki jakar mis maan se puchhen ki akhir mazra kya hai? ve use saaf saaf bata dena chahti theen ki ve chahti hain ki wo unke saath hi rahe aur maan ne uske saath jo bartav kiya wo sarvatha anuchit tha. par ve mis maan ka dukh bilkul nahin baDhana chahti theen. dusre unhen sharm bhi aa rahi thi. bhala kis munh se ve is masle par koi baat karengi. unhonne to sari baten chhipkar suni hain.
puri dopahar akele baDi mushkil se kati. pahaD sa ek pal udasi mein rote bilakhte guzra. unke zehn mein bas maan ka beraham bartav aur mis maan ki udaas siskiyan gunjti rahin, jo unhonne band darvaze ke bahar kaan lagakar suni theen.
shaam ko gavarnes unse milne aai, keval ‘shubhratri’ kahkar jane lagi. jab wo jane lagi to donon laDkiyan khamoshi ko toDne ke liye taDap uthin, par unke honthon se ek lafj bhi nahin nikal paya. darvaze par pahunchakar manon mook moh ke vashibhut usne muDkar donon laDakiyon ko dekha. unki ankhon mein sneh tair raha tha. usne donon ko banhon mein bhar liya. gale lagte hi donon phut phutkar rone lagin. ek baar phir usne donon ko chuma aur tezi se bahar nikal gai.
laDakiyon ne jaan liya ki yahi antim vidai thi.
ab hum use kabhi nahin dekh payengi. ” ek ne subakte hue kaha.
“haan, main janti hoon. kal jab hum skool se lautengi, tab tak wo ja chuki hogi. ”
“shayad kuch arse baad hum usse milne ja payengi, tab ho sakta hai wo hamein apna bachcha dikhaye. ”
“haan wo hamesha se kitni bhali aur pyari rahi hai. ”
“bechari mis maan!”
is dukhabhre jumle mein manon unki qismat mein kya bada hai iska purvabhas jhalak raha tha. “mujhe vaqii samajh mein nahin aa raha hai ki ab uske baghair hum kaise rahenge, kya karenge?”
“uski jagah main kisi bhi dusri gavarnes ko bardasht nahin kar paungi. ”
“main bhi nahin. ”
“mis maan jaisi koi aur ho hi nahin sakti. iske alava. . . ”
usne vakya adhura hi chhoD diya. unke bhitar panap rahe naritv ne anjane hi unke dilon mein mis maan ke prati shraddha ka bhaav paida kar diya tha, khaskar jab se unhen pata chala tha ki uska ek bachcha hai. ye baat unke zehn mein ghar kar gai thi aur is baat ne unhen bahut bhitar tak chhu liya tha.
“suno” ek boli.
“bolo?”
“mujhe ek tarqib soojh rahi hai. kyoon na hum mis maan ke jane se pahle kuch aisa karen, jo use bahut achchha lage. kuch aisa jisse use pata chale ki hum use kitna chahte hain. aur ye ki hum maan ke paksh mein nahin hai? kya tum mera saath dogi?”
duniya ka sara bojh jaise unke nanhen kamzor kandhon par aan paDa tha. unka wo almast, alhaD bachpan kahin pichhe chhoot gaya tha. ek anjana bhay unki raah tak raha tha. ghatna ki asliyat se ve abhi bhi navakif theen par uske bhayanak anjam se ve joojh rahi theen. avsad evan akelepan ki is ghaDi mein ve ek dusre ke qarib aa gai theen. par ye ek mook sahacharya tha. khamoshi ke jaal ko ve abhi bhi toD nahin pa rahi theen. baDon se ve puri tarah katkar rah gai theen. unmen se koi bhi un tak nahin pahunch pata tha, kyonki unki atmaon ke pat band ho chuke the—shayad aane vale bahut lambe samay tak! aas paas ki har shai ke saath unki jang zari thi. mahaj ek din mein unki duniya badal chuki thi. ve baDi ho gai theen. shaam Dhalne tak ve donon ekdam tanha apne shayankaksh mein hi baithi rahin. kshan bhar ke liye bhi unke bhitar tanhai ya bhayanak anjam ka bhay nahin jaga, jo amuman bachchon mein hota hai. halanki behisab thanD thi, par apni bedhyani mein ve kamre ko garm rakhne vala upakran chalu karna bhool gai theen. donon ek hi bistare mein ek dusre se lipatkar let gain. apni uljhan par koi bhi baat karne mein ve asmarth theen. par chhoti bahan ka bahut der se jazb bhavnaon ka sota ansuon ke zariye phoot paDa aur usne rahat mahsus ki. phir baDi bahan bhi apni rulai rok nahin saki. is tarah ve donon ek dusre se lipatkar roti rahin.
ab ve mis maan ke unhen chhoDkar chale jane ya mata pita se unke manmutav par vilap nahin kar rahi theen. darasal ve is ahsas ki kalpana maatr se buri tarah dahal gai theen ki is virat anjani duniya mein unke saath kuch bhi ghat sakta hai, jiski nirmam sachchai se aaj pahli baar unka sabka hua tha. ve us zindagi se katrane lagin, jismen ve baDi ho rahi theen. ve aise jivan se khauf khane lagin jo biyaban jangal ki tarah teDhe meDhe raast se unhen bhaybhit kar raha tha. par unhen is jangal ko paar karna hi tha. dhire dhire unki ye bechaini alaukik drishti mein tabdil hoti gai. unki siskiyan ab dhimi paDne lagin. sanson mein bhi ek thahrav aa gaya. sansen ek layatmak samanjasya se chalne lagin.
phir ve donon so gain.
donon bachchiyan apne kamre mein akeli theen. battiyan bujha di gai theen. charon or andhera tha sivaye dhundhli roshni ke jo unke bistron mein se timtima rahi thi. ve itne ahista se saans le rahi theen, jaise lage ki ve so rahi hain.
“suno,” bistar par se ek halki phusphusahat bhari avaz aai. ye barah baras ki bachchi thi.
“kya baat hai” uski bahan ne puchha jo usse ek baras baDi thi.
“main bahut khush hoon ki tum abhi tak jaag rahi ho. mujhe tumse kuch kahna hai. ”
usne kuch javab nahin diya, par dusre bistare par thoDi halchal zarur hui. baDi bachchi uthkar baith gai thi aur dhundhli roshni mein uski ankhen chamak rahi theen.
“main tumse ye kahna chahti thi, par pahle batao ki tumne mis maan mein in dinon aaye badlav par ghaur kiya hai?”
“haan,” pal bhar ki chuppi ke baad dusri bachchi boli. “kuchh baat to zarur hai, par main nahin janti ki kyaa? ab wo pahle ki tarah sakhti nahin baratti. pichhle do dinon se mainne apni paDhai nahin ki aur usne mujhe zara bhi nahin Danta.
main nahin janti use kya hua hai, par itna zarur hai ki wo ab hamari fikr nahin karti. hamesha khoi khoi rahti hai, pahle ki tarah wo hamare saath khelti bhi nahin hai. ”
“mere khayal se wo dukhi hai, par zahir nahin karna chahti. ab wo piano bhi nahin bajati. ” pal bhar chuppi rahi phir baDi laDki ne pahal kee—
“tum kah rahi thi ki tumhein mujhse kuch baat karni hai. ”
“haan, par tum kisi ko batana nahin, maan ya apni dost lauti ko bhi nahin. ”
“are baba, nahin kahungi,” dusri kuch uktakar boli, “ab bolo bhi. ”
achchha suno, jab hum sone ke liye apne kamre mein aaye to achanak mujhe yaad aaya ki main mis maan ko shubhratri kahna bhool gai thi. so baghair jute pahne panjon ke bal main dhime dhime uske kamre tak gai, taki use chaunka sakun. mainne ahista se uska darvaza khola. pal bhar ke liye mujhe laga ki shayad wo kamre mein nahin hai. batti jal rahi thi. mujhe wo kahin dikhai nahin di, phir achanak main chaunk paDi. mujhe kisi ke rone ki avaz sunai di. mainne dekha wo bistare mein aundhi leti hui thi, sir takiye mein dhansa rakha tha. wo zor zor se siskiyan bhar rahi thi. mujhe baDa ajib laga. usne mujhe nahin dekha. main jaise gai thi usi tarah panjon ke bal bahar aa gai. mainne kamre ka darvaza bheD diya. kuch pal kamre ke bahar khaDi rahi. uski sisakiyon ki avaz darvaze se bahar tak sunai de rahi thi. phir main laut aai. ”
pal bhar khamoshi rahi. donon mein se koi nahin bola. baDi laDki ne ek gahri saans li aur boli—”bechari mis maan!” phir chuppi chha gai.
“aisi kya baat ho sakti hai, wo ro kyon rahi thee?” chhoti laDki ne baat phir shuru ki. “haal mein uska kisi ke saath koi jhagDa bhi nahin hua hai. maan bhi ab use utna Dantti phatkarti nahin hai, jaise aksar kiya karti thi. yaqinan hum uski pareshani ka sabab nahin ho sakte. phir aisi kis baat use rone par mazbur kar diya?”
“mere khayal se main andaza laga sakti hoon” baDi laDki boli.
“kya baat ho sakti hai?”
usne javab dene mein kafi der ki, par phir tafsil se bataya—
“mere khayal se use kisi se prem hai. ”
“prem?” chhoti laDki ne chaunkkar puchha. “magar kisse?”
“kya tumne ghaur nahin kiya?”
“tumhare khayal se oto to nahin?”
“beshak vahi! wo bhi usse pyaar karta hai. pichhle teen barson se wo hamare saath rah raha hai, par pahle kabhi hamare saath sair ke liye nahin aata tha. magar ab pichhle do teen mahine se ek bhi din nahin guzra jab wo hamare saath na aaya ho. mis maan ke aane se pahle tak usne hamse kabhi baat tak nahin ki thi, par ab din bhar hamare saath chuhalbazi karta rahta hai. ab jab bhi hum bahar nikalte hain, baghiche mein ya sair par ya kahin aur to wo hamse takra hi jata hai, khaskar jahan mis maan hamein le jati hain. tumne is par yaqinan ghaur
kiya hoga?”
“haan mainne gaur kiya hai. ” chhoti boli, “par main soch rahi thi. . . ”
usne vakya pura nahin kiya.
“halanki main baat ko tool nahin dena chahti, par mujhe lagta hai ki wo usse milne ke liye hamein bahane ki tarah istemal kar raha hai. ”
der tak khamoshi rahi. donon bahnen soch vichar karne lagin. phir chhoti hi ne baat shuru ki.
“yadi ye baat hai to wo ro kyon rahi thee? wo use itna pasand karta hai. mujhe to hamesha lagta raha hai ki prem mein paDna kafi sukhad hota hai. ”
“main bhi aisa hi sochti hoon. ” baDi ne khoe khoe andaz mein kaha. “pata nahin phir kya baat hai?”
“bechari mis maan!” ek baar phir unindi si avaz aai.
us raat unki batachit yahin par khatm ho gai. subah halanki dobara unhonne is masle ko nahin uthaya, par donon bakhubi janti theen ki dusri ke dimagh mein kya chal raha hai. aisa nahin tha ki unhonne ek dusre ko arth bhari nazron se na dekha ho, yada kada unki nigahen gavarnes par bhi tik jati theen. bhojan ke vaqt unhonne chachere bhai oto ko yoon nazarandaz kiya, manon wo koi ajnabi ho. usse koi baat nahin ki par chori chhipe uska jayeja leti rahin. ve janna chahti theen ki mis maan ke saath uski koi andaruni saanth gaanth hai ya nahin? khelakud mein bhi uska man nahin lag raha tha. un par bas ek hi dhun savar thi ki is rahasya par se parda kaise uthe? shaam ko baDe anamnepan se ek bahan ne dusri se puchha—
“kya tumne aaj kuch ghaur kiya?”
“nahin” bahan ne sankshipt sa javab diya. is bare mein batachit karne se unhen Dar lag raha tha. is tarah kai dinon tak paheli bani rahi. donon laDkiyan chupchap har cheez par nazar rakhtin. unke dimaghon mein khalbali machi rahti. har vaqt bas ek hi khayal un par havi rahta ki is khubsurat paheli ko suljhayen to kaise?
raat ko khane ke vaqt chhoti laDki ne saaf dekha gavarnes ne oto ko halka sa ishara kiya. oto ne javab mein gardan hilai. uttejna ke mare mez ke niche se usne apni bahan ko halki si laat mari. baDi se savaliya nazron se chhoti ko dekha. javab mein usne bhi arthabhri nigahen us par Dalin. uske baad khane ke pure vaqt donon baDi bechain rahin. khana khatm kar gavarnes ne bachchiyon se kaha—
“stDi room mein jakar kuch kaam karo. mera sir phat raha hai, main kuch der letana chahti hoon. ”
“haan, wo to bahut bura hoga,” chhoti ne ghabrakar kaha.
“to theek hai, main sunungi aur tum nazar rakhna ki koi aa to nahin raha. ”
chhoti ne munh phulakar kaha, “par phir tum mujhe sab kuch nahin bataogi. ”
“Daro nahin! main sab bataungi”
“meri qasam?”
“teri qasam, jab koi aata dikhe to tum khansna. ”
ve galiyare mein intzaar karne lagin. unke dil uttejna se dhaDak rahe the. jane kya hoga? unhen padchap sunai di. ve donon andhere stDi room mein chhupkar khaDi ho gain. haan, ye oto tha. wo mis maan ke kamre mein gaya aur darvaza bandkar liya. baDi laDki apni jagah par ja pahunchi aur ki hol se kaan lagakar sunne lagi. usne sansen thaam rakhi theen. chhoti use iirshya se dekhne lagi. jigyasa se wo betab ho rahi thi, wo bhi darvaze ke nikat ja pahunchi, par baDi bahan ne use dhakka dekar ishara kiya ki jakar galiyare ke chhor par nigrani rakhe. isi tarah kai minat guzar ge. chhoti ko to pal pal pahaD sa jaan paD raha tha. uski bechaini ka paravar nahin tha. ansuon ko wo bamushkil rok pa rahi thi kyonki uski bahan sab kuch sun rahi thi. achanak ek avaz se wo chaunk uthi aur khansi. donon laDkiyan tezi se apne stDi room mein ghus gain. kuch pal saans theek karne ke liye ve chup rahin. phir chhoti ne besabr ho puchha—
“ab zara jaldi se mujhe sab batao. ”
baDi bahan duvidha mein paD gai. kuch is tarah baDabDai manon khud se hi batiya rahi ho.
“mujhe samajh nahin aa raha. ”
“kyaa?”
“yah kitni ajib baat hai. ”
“kyaa? are bolo bhi. ” dusri kuch ghusse mein phat paDi. baDi ne phir bolne ki koshish ki. “yah vaqii ashcharyajnak tha. main jaisa soch rahi thi usse ekdam alag. mere khyaal se jab wo uske kamre mein gaya to use banhon mein bhar lena chaha ya chumna chaha, magar mis maan ne rok diya aur boli, “nahin abhi nahin. main tumse ek bahut zaruri baat karna chahti hoon. ”
“main theek se dekh nahin pa rahi thi, kyonki chabi beech mein aa rahi thi, par main achchhi tarah sab sun rahi thi. ”
“kya baat hai?” oto ne puchha. uska svar vaqii alag tha. mainne use pahle kabhi is tarah bolte nahin suna hai. tum janti ho wo kaise bolta hai. uncha aur rob se, magar is baar yaqin hai wo ghabraya hua tha. mis maan samajh gai hogi ki wo use phuslana chahta hai, kyonki wo bas itna hi boli—“mujhe lagta hai ki tum achchhi tarah jante ho. ”
“nahin, qatii nahin. ”
“yadi aisa hai to,” wo behad udaas svar mein boli, “kyon tumne mujhse kinara kar liya hai? hafte bhar se koi baat tak nahin ki. kyon mujhse har vaqt kanni katte phirte ho; ab tum un bachchiyon ke paas bhi nahin aate, baghiche mein bhi milne nahin aate. kya achanak tumne mera khyaal karna chhoD diya hai? oh! tum achchhi tarah jante ho ki tum aisa kyon kar rahe ho?”
thoDi der chuppi rahi, phir wo bola—“tum janti ho imtahan nazdik aa rahe hain. mujhe apni paDhai ko chhoD kisi aur cheez ke liye vaqt nahin milta, main kya karun?”
wo rone lagi aur subakte hue bahut ahista se usse puchha, ‘oto, sach sach batao mainne aisa kya kiya hai ki tum mere saath is tarah bartav kar rahe ho? mainne tum par koi zor zabardasti nahin ki, koi haq nahin jataya, par kya hamein khulkar baat nahin kar leni chahiye. tumhare haav bhaav se saaf dikh raha hai ki sab jante hue bhi tum anjan ban rahe ho”. . . gavarnes kanpne lagi. vakya bhi pura nahin kar pai. oto thoDa qarib aaya aur puchha. . .
“kya janta hoon?”
“hamare bachche ke bare men”
“bachcha, ye kaise mumkin hai?” chhoti bahan beech mein hi bol paDi.
“par usne to yahi kaha. ”
“ho sakta hai tumne ghalat suna ho. ”
“nahin, mujhe pura yaqin hai. oto ne dohraya bhi ki hamara bachcha?”
“thoDi der baad mis maan ne puchha, ab hamein kya karna chahiye? oto khamosh raha. usi vaqt tum khansi aur mujhe vahan se bhagna paDa.
chhoti kafi Dari hui aur hairan thi, “par uska bachcha kaise ho sakta hai aur bachcha hai kahan?”
“meri samajh mein bhi utna hi aa raha hai, jitna tumhein aa raha hai. ”
“shayad uske ghar par hoga. maan use yahan nahin lane deti hogi. yaqinan yahi vajah hai ki wo itni dukhi hai. ”
‘oh par ye kaise mumkin hai, tab to wo oto ko janti tak nahin thi. ”
ve ashay ho sochne lagin. chhoti laDki phir boli,
“bachcha, ye kaise mumkin hai? uska to vivah bhi nahin hua hai. keval vivahit logon ke bachche hote hain. ”
“bevakuf mat bano. usne oto se kab vivah kiya?”
“to phir? ”
ve ek dusre ko takne lagin.
“bechari mis maan” unmen se ek dukhi hokar boli.
baar baar isi jumle ko bolkar ve karuna vyakt kartin. par har baar unki jigyasa aur prabal ho uthti.
“tumhen kya lagta hai wo bachcha laDka hoga ya laDki?”
“main bhala kaise bata sakti hoon?”
“yadi main hoshiyari se usse pata lagaun to kaisa rahega?”
‘‘isse koi fayda nahin hoga. ve is tarah ki baten hamare saath nahin karenge. jab bhi ve is tarah ki baten karte hain aur hum bhule bhatke vahan pahunch jayen to ekayek chup ho jate hain jaise hum koi doodh pite bachche hon—halanki main terah ki ho chuki hoon. isliye is bare mein usse puchhna bekar hai wo hamein taal degi?”
“par main janna chahti hoon. ”
“mujhe oto ke ravaiye par vaqii hairani ho rahi hai. wo aise jatane laga, jaise use kuch pata hi nahin hai. ye kaise mumkin hai ki kisi ka bachcha ho aur use khabar tak na ho. jaise sabko pata hota hai ki unke mata pita hain, vaise hi unka bachcha hai, ye bhi sabko pata hota hai.
“oh wo yoon hi ban raha tha. wo aksar kaise mazak karta rahta hai?”
“par aisi baat par koi mazak kaise kar sakta hai? wo to tab karta hai, jab hamein chiDhana hota hai. ”
unki batachit mein rukavat aa gai, gavarnes aa gai thi. unhonne aise jataya jaise kisi kaam mein vyast hon. magar unki nazron se ye chhipa na rah saka ki uski ankhen surkh theen aur gahre avsad se bhari theen. ve ekdam shaant baithi rahin. unke dil mein uske prati alag qism ki karuna umaD rahi thi. ve isi khayal mein khoi rahi ki uska ek bachcha hai, isliye wo itni udaas hai. par anjane hi ye udasi ahista ahista un par chhane lagi thi.
dusre din raat ke khane par unhen ek behad chaunkane vali khabar pata chali. oto ja raha tha. usne ankal se kaha tha ki imtahan se pahle use kafi mehnat karni hai aur yahan ghar par paDhai mein dhyaan lagana mushkil hai. agle do mahine wo kisi haustal mein rahega.
donon laDkiyan uttejna se kaanp rahi theen. unhen yaqin tha ki ho na ho oto ke is tarah jane ke pichhe pichhle din ki batachit ka sambandh hai. apne sahj bodh se unhonne jaan liya ki ye kayarta bhara palayan hai. oto jab unse vida lene aaya to ve uske saath behad berukhi se pesh ain. unhonne uski taraf peeth kar li.
halanki mis maan se wo kaise vida le raha hai, is par unhonne puri nazar rakhi. baDe sanyam se mis maan ne haath milaya, par uske honth laraz rahe the. in dinon laDakiyon mein tabdili aa gai thi. unki hansi kahin lupt ho gai thi. unhen kisi cheez mein ras nahin aata, ankhen hamesha udaas rahtin. ve bechaini se yahan vahan chahalaqadmi kartin. apne se baDon ke prati ve avishvas se bhar uthi theen. unhen lagta ki chhoti se chhoti baat ke pichhe unhen dhokha dene ki mansha chhipi hai. har vaqt nigrani rakhne ki udheDbun mein Dubi rahtin aur darvaze ke pichhe chhupkar har baat suntin. har vaqt us jaal ko bhedne ke liye betab rahtin, jisne us rahasya par parda Daal rakha tha phir kam se kam jaal ke surakhon ki marphat vastavik duniya ki ek jhalak pa lena chahti theen.
bachpan ka wo bharosa, alhaDpan aur masumiyat kahin lupt ho gai thi. iske alava har vaqt un par koi naya rahasya khulne ki dhun savar rahti. har vaqt unhen ye Dar ghere rahta ki kuch chhoot na jaye. charon or chhal fareb ke mahaul ko dekhkar ve khud bhi chhal karne lagin theen. jab bhi unke mata pita ya koi baDa unke aas paas se guzarta to jhat se ve is tarah dikhava karne lagtin, manon kisi bachkane kaam mein lagi hon. baDon ki duniya ke khilaf is sajhi muhim ke maqsad ne unhen ek dusre ke aur bhi qarib la diya tha. apni bebasi aur agyan par jab unka bas nahin chalta to pyaar se ek dusre se lipat jatin. kabhi kabhar rone lagtin. kisi vazib vajah ke baghair hi unki zindagiyon ne karvat badal li thi. aur unhen ek nazuk moD par lakar khaDa kar diya tha.
unki behisab taqlifon mein ye sabse baDi taqlif thi, jo unhen har vaqt salti rahti. ek dusre se kahe baghair hi unhonne man hi man irada kar liya tha ki mis maan ko kam se kam pareshani dengi. mis maan jo pahle hi itni dukhi aur pareshan hain, unki taqlifon mein ijafa nahin hone dengi. ve behad mehnati ho gai theen. apni zimmedari samajhne lagi theen. ve ek dusre ki paDhai mein madad kartin, hamesha shaant rahtin aur samajhdari se pesh atin. par gavarnes thi ki is par ratti bhar bhi dhyaan nahin deti thi. yahi baat unhen kachotti. wo ab kitni badal chuki hai. uske saath jab ve baat kartin to lagta jaise gahri neend se jagi ho. ve jab unki or nazren ghumati to lagta bahut lambi duri tay karke aai hain. ghanton wo khayalon mein gum rahti. laDkiyan jab bhi uske qarib se guzartin to dhime dhime beavaz panjon ke bal hi chaltin, taki uske khayalon mein badha na paDe. unhen lagta ki wo zarur apne us bachche ke bare mein soch rahi hai, jo yahan nahin hai. unke bhitar naritv ka jo ankur phoot raha tha uski vajah se gavarnes ke prati ve pahle se kahin zyada anurag mahsus karne lagi theen. unhen lagta mis maan jo hamesha se bahut achchhi thi, kabhi kabhar hi Dantakar baat karti thi, ab to aur zyada khyaal rakhne lagi hai. donon laDakiyon ko bas yahi lagta ki uske har kaam mein gahra gam chhipa hua hai, jo na chahte hue bhi prakat ho jata hai. unhonne kabhi use rote hue nahin dekha tha, par uski ankhen aksar surkh dikhai detin. zahir tha ki wo apne ghamon ko apne tak hi rakhna chahti thi. unhen is baat ka dukh tha ki ve uski koi madad nahin kar pa rahi hain. ek din bachchiyon ke aate hi gavarnes ne munh khiDki ki taraf pher liya, taki jhatpat ansu ponchh sake. chhoti bahan ne sahas kar uska haath thaam liya aur poochh hi liya—
“mis maan kya aap bahut dukhi hain, kahin hamse to koi bhool nahin hui hai?”
“nahin, meri pyari bachchi tumhari koi ghalati nahin hai. ” ye kah usne bachchi ka matha choom liya. tab se laDkiyan har vaqt chaukanni rahne lagin. ek din unmen se ek ne baithakkhane mein achanak kuch aisa sun liya, jo darasal unke kanon tak nahin pahunchna chahiye tha. unke mata pita aapas mein khusar pusar kar rahe the, par bachchi ne kafi kuch sun liya aur soch mein Doob gai.
“haan, mere dimagh mein bhi yahi baat ghoom rahi hai,” maan kah rahi thi, “kal main usse baat karungi. ”
chhoti bahan ne pahle man hi man sari baton par ghaur kiya, phir apni bahan se mashavira karne pahunch gai.
“tumhare khayal se ye sari haay tauba kis bare mein ho sakti hai?”
raat ko khane ki mez par donon bahnon ne ghaur kiya ki unke mata pita gavarnes ko bhedti nazron se tatol rahe the. phir ek dusre ki or bhi arthabhri nazron se dekhne lage. khane ke baad maan ne mis maan se kaha—
“zara mere kamre mein to aana, tumse kuch baat karni hai. ”
laDkiyan uttejna se bhar uthin. zarur kuch hone vala hai. chhipkar sunne mein ve ab mahir ho chuki theen. ab to aisa karne mein unhen sharm bhi nahin aati thi. unki bas itni mansha thi ki unse jo chhipaya ja raha hai, uska pata lagaya jaye. jis kamre mein mis maan gai thi, us darvaze ke bahar ve palak jhapakte hi pahunch gain. kaan lagakar dhyaan se sunne lagin, par unhen keval phusphusahat sunai de rahi thi. to kya ve kuch jaan nahin payengi?
achanak ek avaz uunchi hone lagi. unki maan krodhit ho chilla rahi thi, “tumhen kya lagta hai, hum sab andhe hain—tumhari is haalat par kisi ka dhyaan nahin jayega? kya isi tariqe se tum gavarnes ki apni zimmedari nibhaogi? main to is khayal se hi kaanp uthti hoon ki mainne apni betiyon ki talim ka sara daromadar tum jaisi gavarnes par chhoD rakha hai. beshak, tumne baDi besharmi se bachchiyon ke prati laparvahi barti hai. . . ”
gavarnes ne virodh karna chaha aur kuch bolne ka prayas karne lagi, par wo bahut dhime bol rahi thi, taki baat bahar tak na sunai de. “haan, bolo bolo, yoon bhi har kulata bahane banati hi hai. tumhare jaisi striyan pahla mauqa pate hi apna sab kuch luta deti hain. iishvar bhala kare! vaqii ye kitni betuki baat hai ki tumhare jaisi ek badachlan stri gavarnes bankar baithi hai. ab koi khushamad nahin chalegi. ye mat sochna ki main tumhein ab is ghar mein rahne dungi. ”
bahar khaDi laDkiyan kanpne lagi theen. unhen puri baat samajh to nahin aai par maan ka ravaiya unhen baDa nagavar laga. mis maan ke ansuon se unhen javab mil gaya tha. unki ankhon se bhi ansu bahne lage. maan ka ghussa baDhta hi ja raha tha.
“rone dhone ke alava ab tum kar bhi kya sakti ho? par tumhare in ansuon ka mujh par koi asar nahin hone vala hai. mujhe tum jaison ke saath ratti bhar bhi hamdardi nahin hai. ab tum kya karogi? kahan jaogi? isse mujhe koi matlab nahin hai. tumhein khud pata hoga ki aise vaqt tumhari kaun madad kar sakta hai. main to bas itna janti hoon ki ab tum ek din bhi is ghar mein nahin rah sakti. ”
mis maan ka karun vilap hi ekmaatr javab tha. laDakiyon ne kisi ko kisi tarah bilakhte nahin dekha tha. unhen to yahi lag raha tha ki koi is tarah phoot phoot kar ro raha ho wo galti kar hi nahin sakta. kuch pal unki maan khamosh rahi. phir tikhe lahze mein boli—
“bas mujhe yahi kahna tha, jao aur apna saman bandhna shuru kar do. kal subah aakar apni tanakhvah le lena. ab tum ja sakti ho. ”
laDkiyan bhagkar apne kamre mein aa gain. kya baat ho sakti hai? achanak aaye is tufan ki kya vajah hai? dhundhale kaanch ke paar ki haqikat ka unhen thoDa bahut ahsas to zarur tha. pahli baar unke dilon mein apne mata pita ke prati baghavat ka jazba panap raha tha.
“kya maan ka itne kaDe Dhang se baat karna jayez tha?” baDi ne kaha. itne khule lafzon mein maan ki burai sunkar chhoti thoDa ghabra gai aur haklakar bolne lagi, “kintu. . . par. . . hamein nahin pata ki usne kya kiya hai?”
“kuchh nahin kiya hai. mujhe yaqin hai mis maan kuch ghalat kar hi nahin sakti. maan use utna nahin janti jitna hum jante hain. ”
“jis Dhang se wo ro rahi thi, wo vaqii hila dene vala tha, mujhe bahut dukh ho raha tha. ”
“haan, wo sab vaqii dardanak tha. par maan jis tarah se us par baras rahi thi, wo vibhats tha. . . vaqii sharmanak!”
bolte bolte wo ghusse se kanpne lagi aur ankhon se ansu tapakne lage.
isi pal mis maan bhitar aai. wo thaki thaki si dikh rahi thi.
“bachchon, mujhe aaj dopahar tak kafi kaam niptane hain. mujhe yaqin hai ki tum donon mere jane ke baad bhi achchhi tarah se rahogi? aaj ki shaam hum saath guzarenge. ”
wo muDi aur kamre se bahar chali gai. usne dhyaan hi nahin diya ki bachchiyan kitni udaas dikh rahi theen?
“kya tumne dekha uski ankhen kitni laal ho rakhi theen? mujhe to bilkul samajh mein nahin aata ki maan uske saath kadar berahmi se kaise pesh aa sakti hain?”
“bechari mis maan!”
ve ruansi ho gai theen. ansuon ko rokne mein avaz tutne lagi. tab maan unke kamre mein aai. wo janna chahti thi ki ve uske saath sair par chalna chahengi?
“nahin, aaj nahin, maan. ”
darasal unhen apni maan se Dar lag raha tha aur ve usse naraz bhi theen, kyonki maan ne unhen nahin bataya tha ki wo mis maan ko nikal rahi hain. is vaqt ve akele rahne ke mooD mein theen. ve pinjre mein qaid ababil pakshi ki tarah chhatpatahat mahsus kar rahi theen. fareb aur chuppi ka jo mahaul unke ird gird racha gaya tha, usse wo buri tarah vichlit theen. ve is udheDbun mein theen ki jakar mis maan se puchhen ki akhir mazra kya hai? ve use saaf saaf bata dena chahti theen ki ve chahti hain ki wo unke saath hi rahe aur maan ne uske saath jo bartav kiya wo sarvatha anuchit tha. par ve mis maan ka dukh bilkul nahin baDhana chahti theen. dusre unhen sharm bhi aa rahi thi. bhala kis munh se ve is masle par koi baat karengi. unhonne to sari baten chhipkar suni hain.
puri dopahar akele baDi mushkil se kati. pahaD sa ek pal udasi mein rote bilakhte guzra. unke zehn mein bas maan ka beraham bartav aur mis maan ki udaas siskiyan gunjti rahin, jo unhonne band darvaze ke bahar kaan lagakar suni theen.
shaam ko gavarnes unse milne aai, keval ‘shubhratri’ kahkar jane lagi. jab wo jane lagi to donon laDkiyan khamoshi ko toDne ke liye taDap uthin, par unke honthon se ek lafj bhi nahin nikal paya. darvaze par pahunchakar manon mook moh ke vashibhut usne muDkar donon laDakiyon ko dekha. unki ankhon mein sneh tair raha tha. usne donon ko banhon mein bhar liya. gale lagte hi donon phut phutkar rone lagin. ek baar phir usne donon ko chuma aur tezi se bahar nikal gai.
laDakiyon ne jaan liya ki yahi antim vidai thi.
ab hum use kabhi nahin dekh payengi. ” ek ne subakte hue kaha.
“haan, main janti hoon. kal jab hum skool se lautengi, tab tak wo ja chuki hogi. ”
“shayad kuch arse baad hum usse milne ja payengi, tab ho sakta hai wo hamein apna bachcha dikhaye. ”
“haan wo hamesha se kitni bhali aur pyari rahi hai. ”
“bechari mis maan!”
is dukhabhre jumle mein manon unki qismat mein kya bada hai iska purvabhas jhalak raha tha. “mujhe vaqii samajh mein nahin aa raha hai ki ab uske baghair hum kaise rahenge, kya karenge?”
“uski jagah main kisi bhi dusri gavarnes ko bardasht nahin kar paungi. ”
“main bhi nahin. ”
“mis maan jaisi koi aur ho hi nahin sakti. iske alava. . . ”
usne vakya adhura hi chhoD diya. unke bhitar panap rahe naritv ne anjane hi unke dilon mein mis maan ke prati shraddha ka bhaav paida kar diya tha, khaskar jab se unhen pata chala tha ki uska ek bachcha hai. ye baat unke zehn mein ghar kar gai thi aur is baat ne unhen bahut bhitar tak chhu liya tha.
“suno” ek boli.
“bolo?”
“mujhe ek tarqib soojh rahi hai. kyoon na hum mis maan ke jane se pahle kuch aisa karen, jo use bahut achchha lage. kuch aisa jisse use pata chale ki hum use kitna chahte hain. aur ye ki hum maan ke paksh mein nahin hai? kya tum mera saath dogi?”
duniya ka sara bojh jaise unke nanhen kamzor kandhon par aan paDa tha. unka wo almast, alhaD bachpan kahin pichhe chhoot gaya tha. ek anjana bhay unki raah tak raha tha. ghatna ki asliyat se ve abhi bhi navakif theen par uske bhayanak anjam se ve joojh rahi theen. avsad evan akelepan ki is ghaDi mein ve ek dusre ke qarib aa gai theen. par ye ek mook sahacharya tha. khamoshi ke jaal ko ve abhi bhi toD nahin pa rahi theen. baDon se ve puri tarah katkar rah gai theen. unmen se koi bhi un tak nahin pahunch pata tha, kyonki unki atmaon ke pat band ho chuke the—shayad aane vale bahut lambe samay tak! aas paas ki har shai ke saath unki jang zari thi. mahaj ek din mein unki duniya badal chuki thi. ve baDi ho gai theen. shaam Dhalne tak ve donon ekdam tanha apne shayankaksh mein hi baithi rahin. kshan bhar ke liye bhi unke bhitar tanhai ya bhayanak anjam ka bhay nahin jaga, jo amuman bachchon mein hota hai. halanki behisab thanD thi, par apni bedhyani mein ve kamre ko garm rakhne vala upakran chalu karna bhool gai theen. donon ek hi bistare mein ek dusre se lipatkar let gain. apni uljhan par koi bhi baat karne mein ve asmarth theen. par chhoti bahan ka bahut der se jazb bhavnaon ka sota ansuon ke zariye phoot paDa aur usne rahat mahsus ki. phir baDi bahan bhi apni rulai rok nahin saki. is tarah ve donon ek dusre se lipatkar roti rahin.
ab ve mis maan ke unhen chhoDkar chale jane ya mata pita se unke manmutav par vilap nahin kar rahi theen. darasal ve is ahsas ki kalpana maatr se buri tarah dahal gai theen ki is virat anjani duniya mein unke saath kuch bhi ghat sakta hai, jiski nirmam sachchai se aaj pahli baar unka sabka hua tha. ve us zindagi se katrane lagin, jismen ve baDi ho rahi theen. ve aise jivan se khauf khane lagin jo biyaban jangal ki tarah teDhe meDhe raast se unhen bhaybhit kar raha tha. par unhen is jangal ko paar karna hi tha. dhire dhire unki ye bechaini alaukik drishti mein tabdil hoti gai. unki siskiyan ab dhimi paDne lagin. sanson mein bhi ek thahrav aa gaya. sansen ek layatmak samanjasya se chalne lagin.
phir ve donon so gain.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 183)
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