घुड़दौड़ के मैदान के सामने से निकलने वाली सड़क की शुरुआत की वह हरे रंग की इमारत कभी इलाक़े का सबसे भव्य घर था। इधर कुछ वर्षों से सीमेंट की इमारतें खड़ी हो जाने पर अब उस घर की वह भव्यता जाती रही थी। उसकी पहचान अभी भी बनी हुई थी। वक़्त के साथ उदास पड़कर फाटक पर उसका नेमप्लेट आज भी अपनी पहचान इन दो शब्दों में लिए हुए था, “अपना जहान”। अपने परिवार को भी दाऊद ने हमेशा अपना जहान माना था। और आज भी इलाक़े के लोग उसे दोमंज़िला ही कह जाते थे। गाँव की अपनी ज़मीन और अपने घर को बेच कर दाऊद सुलेमान इसलिए शहर आ गया था, ताकि उसके दोनों लड़के गाँव के पिछड़े पड़े लड़कों से अपनी अलग पहचान बना सकें।
शां-दे-मार्स के सामने की कोर्दरी गली में ज़मीन ख़रीदने से पहले जब उसने मरियम से कहा था कि बच्चों के हित के लिए अब उन लोगों को शहर में जा बसना चाहिए तो उसकी पत्नी तैयार नहीं हुई थी। बोली थी—
—ना बाबा, हम शहर में नहीं ना रह सकब। हुवाँ के लोगन के त ज़बान ही हमार समझ में ना आवेला।
दाऊद सुलेमान को अपनी भोली-भाली बीवी को समझाने में तीन दिन लग गए थे। बाद में मरियम को अपनी खाविंद की यह बात जँच गई थी कि वहाँ के लोगों को भी क्रिओली नहीं आती थी। वे सभी गाँवों से वहाँ जा बसे हैं।
उसने कहा—
—मरियम! उन लोगों को क्रिओली बोलते सुन तुम्हें भी वह ज़ुबान आ जाएगी।
दाऊद के दोनों बेटे को भी ढंग से क्रिओली नहीं आती थी। शहर आ बसने पर शुरू-शुरू में जमाल और रोशन की क्रिओली पर लोग हँसते रह जाते थे। जमाल जोकि उन दिनों आठ साल का था और रोशन से दो साल बड़ा था, अपनी माँ और अपने छोटे भाई से पहले शहर की भाषा बड़ी खूबी के साथ बोलने लगा था। उसकी माँ तो आज भी कोर्दर गली को कुदूरे और पोर लूई को पुलवी बोलती थी। उसके वाक्यों में भोजपुरी शब्दों की भरमार बनी रहती थी।
अपनी बड़ी पतोहू से जब भी वह भोजपुरी लहजे में क्रिओली में बात करती तो छोटी बहू सलमा खीझ उठती। कभी कह जाती, मेरी समझ में नहीं आती तुम्हारी गँवार बोली। और कभी अपने पति पर झुँझला उठती—मैं जब तुम्हारी माँ से बात करूँ तो तुम वहाँ मौजूद रहा करो।
मरियम आख़िरी दम तक सही ढंग से क्रिओली बोलना नहीं सीख पाई, लेकिन उसकी बड़ी पतोहू हमीदा अपनी सास से भोजपुरी सीख कर रही। उस अंतिम घड़ी में अपनी सास के हाथों को अपने हाथों में लिए बोली—नैं अम्मी! हम लोग के छोड़ के नैं जा।
अपनी बीवी की मौत के बाद दाऊद सुलेमान की दुनिया अंधकार में डूबती चली गई। दोनों पुत्र वधुओं में सिर्फ़ हमीदा थी, जो उसका ख़याल रखती थी।
सुलेमान का संसार अँधेरे में डूबता ही गया।
सात शयनकक्षों वाले घर में जब उससे अपना सोने वाला कमरा भी ले लिया गया तो वह चुप रहा। बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई को ऐसा करने से रोका तो सही। पर चूँकि उसका छोटा भाई अपनी बीवी की बदौलत अब जमाल से भी अधिक हैसियत वाला बन गया था, इसलिए जमाल उससे अनुरोध तो कर सकता था, पर आदेश नहीं दे सकता था।
घर का सबसे छोटा कमरा पाकर उसमें रह कर सुलेमान चुप रहा। बड़े बेटे से भी यह नहीं कहा कि उस कमरे में कभी हफ़्ते भर झाड़ू नहीं लगती। बिस्तर की चादर भी कभी लंबे समय तक बदली नहीं जाती।
आज उस पूरे घर की खिड़कियों के पर्दे बदले जा रहे थे।
कोई चार साल बाद आज वह दोमंज़िला नए रंगों से रंगा जा रहा था। जिन सात नाती-नातिनों ने इन चार सालों में अपने दादा की न तो कोई झलक पाई और ना ही उनके बारे में कभी कुछ पूछा, आज वे भी घर को सजाने में लगे हुए थे। अगर किसी को कभी दाऊद सुलेमान की याद आई थी तो वह हमीदा थी। अपने खाविंद से ज़िद करके दो बार यतीमखाना पहुँचकर रही थी वह।
चार साल बाद। आज “अपना जहान” को सुलेमान के ज़िंदा होने का एहसास हुआ था।
हर कोई बोल रहा था।
छोटे-बड़े सभी दौड़-धूप में शामिल थे।
कोई हिदायत दे रहा था—यह पुरानी कुर्सी यहाँ से हटा दो। कोई अपने हिस्से का काम पूरा करके कह रहा था—गुलदस्ता ले आया मैं।
फूलों की ख़ुशबू। रसोई से आती बिरयानी की जाफ़रानी महक।
रोशन कभी अपने बड़े भाई को आदेश दे रहा था, कभी अपनी पत्नी को तो कभी अपने बच्चों को इस घर में इतनी ज़्यादा सक्रियता न तो दोनों भाइयों की शादियों के दौरान थी और ना ही ईद के किसी मौक़े पर।
वह सिर्फ़ हमीदा थी, जो अपनी सबसे बड़ी बेटी सुरैया के साथ बरामदे में बैठी उस अजीबोग़रीब आवाजाही को देख रही थी। कुछ हद तक उसका अपना पति भी ठीक उसी की तरह आपाधापी में सबसे कम उन्माद लिए हुए था। इस बात की तो उसे ख़ुशी थी कि इतने लम्बे अंतराल के बाद उसका बाप इस घर को लौट रहा था। अगर उसका यह लौटना उसकी अपनी मर्जी से होता या ख़ुद जमाल की दरख़्वास्त पर उसकी बात मानकर ऐसा हुआ होता तो आज जमाल भी घर के बाक़ी लोगों की तरह उमंग लिए होता।
पर क्या यह जो कुछ देख रहा था, वह सचमुच की ख़ुशी थी? अपनी इस बात का जवाब कल रात ही में जमाल को अपनी बीवी से मिल गया था। वह बोली थी—
— यह अब्बा जान के लौटने की ख़ुशी नहीं है।
हमीदा ने सुबह अपनी छोटी गोतनी खतीजा को अपने ससुर के मुद्दत से बंद कमरे की सफ़ाई करते देख उससे पूछा था—
—फिर इसी कमरे में रखना है ससुर जी को क्या?
—अरे नहीं, हम उन्हें उनका वह पहला कमरा दे रहे हैं।
—पर वह तो सलीम का कमरा...
—सलीम को पाकिस्तान से लौटने में अभी दो साल बाक़ी हैं।
—पर अगले महीने छुट्टी में तो आ रहा है?
—वह आ जाएगा तो देखा जाएगा। मुझे तो लगता है कि ससुर जी अपने इसी कमरे में रहने की माँग करेंगे।
हमीदा मुस्कुरा कर वहाँ से टल गई थी।
सुलेमान के इस कमरे में रहने के दिनों में हमीदा कभी-कभार कमरे की सफ़ाई कर जाती थी। एक बार कमरे की सफ़ाई के दौरान ही उसने अपने ससुर से सवाल किया था।
—अब्बा! अब आपको ऐसा नहीं लगता कि अपनी सारी जाएदाद दोनों बेटों के नाम कर जाने में आपने जल्दबाज़ी कर दी?
कुछ ठहर कर सुलेमान ने इस प्रश्न का उत्तर दिया था।
—तुम्हारी सास की इच्छा पूरी की मैंने।
—यह तो मैं जानती हूँ, पर क्या ऐसा करके आप पछता नहीं रहे?
—वैसे भी हज के लिए निकलने से पहले मुझे अपने को इस बोझ से रिहा तो करना ही था।
यह कह जाने के बाद सुलेमान को यह एहसास हुआ कि उसने अपने को जाएदाद के बोझ से रिहा करके अपने को बेटों के सिर बोझ बना दिया था, पर हमीदा से बोला नहीं। बोला ज़रूर पर कुछ और ही।
—कम से कम इस बात का तो संतोष है मुझे कि जाएदाद देते समय की मेरी शर्तों को मेरे दोनों लड़के आज भी रखे हुए हैं। ये दोनों, बच्चों के साथ इसी छत के नीचे मिल-मिलाकर जीते रहें, बस मेरी तो खुदा से यही दुआ रहती है।
उस रात हमीदा अपने पति से भी सवाल करने से नहीं चूकी थी।
—तुम बड़े भाई होकर छोटे भाई के सामने चुप्पी साधे रहते हो और वह मनमानी करता रहता है। आख़िर ऐसा कब तक होता रहेगा?
जमाल से एक बार फिर अपनी बीवी के सवाल का जवाब नहीं बन पड़ा था।
उसी चुप्पी से उकता कर हमीदा ने आगे कहा था—
—बड़ी दुकान की ज़िम्मेवारी तुमने उसे सौंप दी। और वह है कि तुम्हारी छोटी दुकान से कम आय तुम्हारे सामने लाता है। कपड़ों की फैक्टरी में भी उसी की धाक है। उसके दो बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं। तुम्हारे दोनों लड़के सरकारी दफ़्तरों की ख़ाक छान रहे हैं। तुमने हमारी सुरैया को सीनियर कैम्ब्रिज से आगे पढ़ने ही नहीं दिया जबकि उसकी आयशा फ्रांस में डॉक्टरी पढ़ रही है।
—क्या उसके बच्चे हमारे बच्चे नहीं?
—बस, इसके आगे तुम्हें कुछ आता ही नहीं। तुम अपने छोटे भाई को बहुत अधिक छूट दिए बैठे हो। अब्बाजान भी ऐसा ही कहते हैं।
कोई दो महीने बाद दाऊद सुलेमान ने पहले अपने छोटे लड़के को डाँटते हुए कहा था—
—दो कारों के होते तीसरी कार ख़रीदने की क्या ज़रूरत थी? तुम्हारी फिज़ूलखर्ची बढ़ती ही जा रही है। फ़ैक्टरी के मैनेजर का भी यही कहना है कि वहाँ भी अनावश्यक नई मशीन लगाकर तुमने फ़ैक्टरी की आर्थिक स्थिति बिगाड़ दी है।
उसी दिन जमाल को भी अपने बाप से खरी-खोटी सुननी पड़ी थी।
—हालत को इससे अधिक नाज़ुक मत होने दो। तुम अब भी सख्ती के साथ पेश नहीं आओगे तो पूरा व्यवसाय डूब जाएगा। और फिर रोशन को फ़ैक्टरी में कुछ ज़्यादा ही अधिकार हासिल हो गया है। मुझे यह भी बताया गया है कि बहुत ही सफ़ाई के साथ वह घोटाला करने में लगा हुआ है।
और कुछ ही दिन बाद रोशन की बीवी खतीजा ने अपना रंग ज़माना शुरू किया था। अपने दो बच्चों के बाद उसने अपनी बहन को भी अपनी ओर से पढ़ने के लिए फ्रांस भेज दिया। फिर तो उस दिन को ज़्यादा देर नहीं हुई जब सुलेमान को कहना ही पड़ा—
—देखो रोशन! मैंने बहुत मेहनत और क़ुरबानी के बाद यह सारा कुछ हासिल किया था। इन्हें इस तरह लुटाने का हक तुम्हें नहीं मिलता।
और एक दिन बिन नींद वाली रात में उसने अपने आपसे पूछा। क्या मरियम का यह पूछा जाना सही था कि आख़िर इतना बड़ा घर बनाना ज़रूरी था? वह रोज़ वाला चूहा उसकी चारपाई पर चढ़ आया। रोज़ वाला चक्कर काट कर लौट गया। गोया मरियम के सवाल का दाऊद को जवाब मिल गया।
उसने अपने आप से कहा—ज़रूरी था वरना पड़ोस की सफ़ेद बिल्ली अपने बच्चों को हमारी सीढ़ियों के नीचे जन्म कैसे देती? उसके बच्चे यहाँ पल रहे चूहों से चोर-पुलिस का खेल कैसे खेलते? कबूतर या गौरैया अपने घोंसले कहाँ बनाते? हर जुम्मे को पड़ोस के कुत्ते बिरयानी की हड्डियाँ खाने किसके द्वार जाते?
फिर तो वह दिन भी आकर ही रहा, जब दाऊद को उस यतीमखाने के अपने दोस्त, वहाँ के निदेशक को फोन करना ही पड़ा।
—रोहित! मेरा नाम अपने यतीमों की फहरिश्त में दर्ज़ कर लो। कल मैं पहुँच रहा हूँ।
जब दोनों दोस्त, “विश्राम” के अहाते में मिले थे तो रोहित ने अपने दोस्त से गलबाँही के बाद कहा था—
—जिसकी सबसे अधिक रहमत रही, इस जगह पर आज...।
दाऊद ने अपने दोस्त को इससे आगे कहने नहीं दिया था। ख़ुद बोल गया था।
—मैं तो बार-बार कहता था यार कि कितना सुकून है यहाँ। बस सुकून के लिए आया हूँ। “अपना जहान” छोड़कर तुम्हारे जहान में।
लेकिन इस सचमुच के शांत वातावरण में भी दाऊद सुलेमान को बहुत दिनों तक वह शांति नहीं मिल पाई, जिसकी तलाश में वह यहाँ पहुँचा था। छ: महीने भी नहीं गुज़रे थे कि जमाल और हमीदा अपने मायूस चेहरों के साथ उस तक पहुँचे। बोलने की हिम्मत जमाल में नहीं हो पाई थी, इसलिए हमीदा को वह बात बतानी पड़ी थी।
—अब्बा! मरियम टेक्सटाइल से तीन सौ मज़दूरों को नौकरी से हटाना पड़ा। चेहरे पर बिना कोई भाव लाये दाऊद ने कहा था—
—यह नौबत तो आनी ही थी।
एक लंबी ख़ामोशी के बाद उसने कहा था—
—मेरी मरियम को इस बात का फन था कि उसकी फ़ैक्टरी सात सौ ग़रीबों के परिवारों को जीवन दिए हुई थी। चलो अच्छा ही हुआ कि आज यह सुनने को वह हमारे बीच नहीं कि उसकी फ़ैक्टरी ने तीन सौ परिवारों से रोज़ी छीन ली।
साल बीत कर रहा। ईद का त्योहार दोबारा आ गया। जमाल हमीदा के साथ फिर “विश्राम” पहुँचा। हमीदा ही अपने ससुर को घर लौटने के लिए मनाती रही।
आख़िर में जमाल बोल सका था—
—वह दिन भी दूर नहीं अब्बा कि फ़ैक्टरी बंद हो जाए।
—यह नौबत आने से पहले मेरी साँसों का चलना बंद हो जाना चाहिए।
हमीदा गिड़गिड़ा उठी थी—
—अब आपको घर लौट चलना ही होगा अब्बा।
एक हल्की मुस्कान के बाद दाऊद ने मन ही मन कहा—घर? कैसा घर? फिर वह सोच उठा अपने यतीमखाने के बारे में। अंतर था उसकी अपनी इमारत और इस इमारत में। उसकी तो घर कहे जाने वाली अपनी इमारत में यहाँ से अधिक दीवारें थीं। वहाँ दो भाई दो दीवारों के इधर-उधर रहते हैं, जबकि यहाँ अलग-अलग मज़हबों के भाई चार दीवारों के भीतर भी एकसाथ रहते हैं। किसी का अपना न होकर भी यह सभी मज़दूरों का अपना जहान था।
—नहीं हमीदा, वह आलीशान घर बिक गया होता तो मुझे इतना दुख नहीं होता, जितना फ़ैक्टरी की हालत जानकर हो रहा है।
—अब मुझे लगता है कि सबसे बड़ा क़सूर मेरा ही है।
—तुम्हारा क़सूर बस इतना ही है जमाल कि तुमने अपने छोटे भाई पर अपने से अधिक यक़ीन किया। ख़ैर! तुम चाहो तो अभी से मरियम टैक्सटाइल को डूबने से रोका जा सकता है।
–दोनों दुकानों में से एक को बेचकर शायद...।
—नहीं बेटे, विरासत को बेचने की बात मत सोचो। गाँव की विरासत को बेचकर शहर नहीं आता तो आज यह सारा कुछ झेलने को नहीं मिलता। तुम दोनों को शहरी ज़िंदगी और गाँव के लोगों से बेहतर तालीम देने का ख़्वाब देखा था।
न जाने कितने महीने बाद सुलेमान को अपने बड़े बेटे का फ़ोन मिला।
—अब्बा! बैंक एक भी रुपया फ़ैक्टरी को देने के लिए तैयार नहीं।
दो महीने बाद फिर से फ़ोन आया था।
—अब्बा! अब एक ही उपाय बाक़ी है। बैंक का कर्ज़ भरने के लिए फ़ैक्टरी को बेचना ही पड़ेगा।
—नहीं जमाल, मरियम टैक्सटाइल महज़ एक फ़ैक्टरी नहीं। वह तुम्हारी विरासत है, तुम्हारी माँ की रूह है उसमें।
जमाल से फ़ोन पर बात कर चुकने के बाद सुलेमान ने ब्रिटिश अमेरिकन बीमा कंपनी को फ़ोन किया था। तीन दिन पहले भी वह वहाँ के मैनेजर से फ़ोन पर बात कर चुका था। पता चला था कि मैनेजर मीटिंग में व्यस्त था। सुलेमान ने सहायक मैनेजर से बात की थी। संतोषजनक उत्तर पाकर वह उसी क्षण “विश्राम” मुख्य दफ़्तर को बढ़ गया था। अपने दोस्त के साथ पीते हुए उसने उसके सामने अपनी भीतर की बन आई उम्मीद को रखते हुए कहा था।
—दोस्त! सोचा था बिन ख़ास मेहनत की अपनी आख़िरी कमाई यतीमखाने को दे जाऊँगा, पर...।
—पहले ही तुम इस जगह को बहुत दे चुके हो। मैं चाहता हूँ कि तुम अपने बच्चों को एक मौक़ा और दो...।
—नहीं रोहित, मैं अपने बच्चों को मौक़ा नहीं दे रहा। मैं तो मरियम की याद को मुरझाने से बचाना चाहता हूँ। यहाँ के दो सौ व्यक्ति तो यूँ भी भूखे नहीं मरेंगे, जबकि मरियम टैक्सटाइल के छ: सौ कामगारों के बाल-बच्चों के मुँह के निवाले छिन जाने का सवाल है। वैसे भी मरियम टैक्सटाइल मेरे लिए एक मस्जिद के बराबर है।
—मैं जानता हूँ सुलेमान, मेरे सामने ही तो तुम्हारे और मरियम के बीच यह बहस छिड़ी थी। तुम अपने गाँव की बची हुई ज़मीन के टुकड़े पर मस्जिद बनाना चाह रहे थे और मरियम तुमसे फ़ैक्टरी की माँग करती रही थी।
—और ज़िंदगी में पहली बार मैं उसकी बात को अपनी बात से अधिक महत्त्व दे बैठा था।
—तब तुम ख़ुश थे, आज...।
—आज भी मैं ख़ुश हूँ उस वक़्त मैं मरियम की जीत पर ख़ुश था, आज अपनी जीत पर। मैंने सपने में मरियम से वायदा किया है कि उसकी जिस यादगार को उसके बच्चे धूमिल करके नेस्तनाबूद करने जा रहे थे, मैं उसे बचा कर रहूँगा।
—मुझे तुम्हारे और मरियम के बीच की एक बात और याद आ गई। जब तुम अपना बीमा करवा रहे थे तो सारे जीवन काल के लाभ को ठुकरा कर तुमने उसे अपनी मौत के बाद मरियम और बच्चों के हित में लिखवाना चाहा था।
—हाँ दोस्त! और मरियम ने मुझे मजबूर किया था कि मैं उसे पच्चीस साल से अधिक की पॉलिसी न बनाऊँ और जीते जी मैं उस लाभ को हासिल कर लूँ। उसका यह भी हठ था कि मेरे बाद ही कोई दूसरा उसका हकदार बने, मेरे होते नहीं।
—तो यह दूसरी बार था कि तुमने अपनी ज़िद को छोड़कर अपनी बीवी की बात मानी थी।
—मेरी वे दो हारें जो वक़्त के साथ मेरी जीत बनीं।
अपने बच्चों से चार साल दूर रहकर आज दाऊद सुलेमान बस द्वारा कोर्दरी गली के अपने घर पहुँचा। उसके दोनों लड़कों ने रात में उससे फ़ोन पर बातें की थीं। दोनों उसे अपनी-अपनी कार में लेने यतीमखाने पहुँचना चाहते थे। दाऊद ने दोनों से एक ही बात कही थी।
—वहाँ से यहाँ बस के जरिए आया था। यहाँ से वहाँ भी बस के जरिए पहुँचूँगा। छोटे बेटे ने साहस बटोर कर यह भी पूछ लिया था।
—हो पाया पूरी रक़म का बंदोबस्त?
—दाऊद ने इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया था। सुबह उसकी बड़ी बहू हमीदा ने उसे फ़ोन करके उससे माँग की थी कि वह बस से न आएँ।
—अब्बा! जमाल आपको लेने आ जाएगा।
—उस घर की तुम ही हो जो सबसे ज़्यादा याद आती हो बेटी, फिर भी मैं अपनी जिद पर अड़ा रहूँगा।
फ़ोन रख कर दाऊद सुलेमान ने अपने आपसे कहा था—अपनी ज़िद छोड़कर हार में भी जीत का एहसास तो एक ही व्यक्ति से पा सका हूँ। वह भी ज़िंदगी में सिर्फ़ दो ही बार। अब इस जहान में कोई है ही नहीं जिसके आगे मैं अपनी ज़िद छोड़कर हार मान लूँ।
“विश्राम” में दाऊद को एक ख़ास कमरा मिला हुआ था, पर वह उसमें बिरले ही रहता। इतनी लंबी अवधि के बाद अपने खानदान के लोगों से मिलने से पहले उसने कुछ समय एकांत में बिताना चाहा। उस ख़ास कमरे में पहुँच कर वह चारपाई पर लेट गया। बंद रहने के कारण कमरा गर्म था। उस ठंडे में वह गर्मी उसे अच्छी लगी। सामने की दीवार पर लगे आईने में वह अपने चेहरे को देखता रहा। हज से लौटने के बाद जब उसने दाढ़ी बनानी छोड़नी शुरू की थी तो मरियम को उसके चेहरे पर दाढ़ी अच्छी नहीं लगी थी। बोली थी—
—बिन दाढ़ी के तुम अधिक अच्छे लगते थे।
दाऊद झट बोल उठा था—
—कहो तो निकाल दूँ?
इस पर मरियम बोली थी—
—अब तुम हाजी हो, दाढ़ी ज़रूरी है। लेकिन तुम्हारी दाढ़ी के बावजूद मैं तुम्हें उसी पहले वाले रूप में देखती हूँ, जब लोग तुम्हें राजकपूर कहा करते। दाऊद ने अपने हाथ को दाढ़ी पर रखकर सिर्फ़ अपने को मूँछों के साथ देखा, पर अब वह बात नहीं थी जो सात बार “आवारा” देखने के दिनों में थी।
“अपना जहान” के सभी लोग बेताबी के साथ उस व्यक्ति की राह देख रहे थे। बहुत दिनों बाद आज उसके इस घर के मालिक होने का एहसास सभी को हुआ। बहुत दिनों बाद कोई अपने बाप को इस आँगन में बैठाने की अधीरता लिए हुए था तो कोई ससुर को और कोई अपने दादा को।
उसने कहा था कि वह शाम को पाँच बजे तक पहुँच जाएगा।
जमाल ने अपने हाथ की घड़ी की ओर देखा। उसे लगा कि उसकी घड़ी सही समय नहीं बता रही थी। उसने रोशन से पूछा—
—वक़्त क्या हुआ है?
—साढ़े पाँच।
जमाल यह तय नहीं कर पाया कि दोनों भाइयों में किसकी घड़ी पंद्रह मिनट आगे और किसकी पीछे थी।
बिरयानी के देग को आँगन के चूल्हे से उतार कर रसोई के भीतर रख आने के बाद हमीदा खतीजा के साथ फिर से आँगन में आ गई। पहली बार जब हमीदा ने इलैक्ट्रिक कुकर पर बिरयानी पकाई थी तो उसका ससुर खाते हुए बोल गया था—
—लकड़ी की आग में पकने वाली बिरयानी कुछ और ही होती है।
फिर तो मरियम के कहने पर उसके जीते जी कभी भी बिरयानी कुकर पर नहीं पकी। लेकिन उसके बाद रसोई के भीतर की सहूलियत को छोड़ बाहर पकाने की ज़रूरत दोनों बहुओं ने कभी नहीं समझी। आज रोशन की हिदायत पर आँगन में बिरयानी पकी थी। अपने देवर और पति के बीच पहुँचकर हमीदा ने कहा—
—अब्बा को तो अब तक आ जाना चाहिए था।
उसका अब्बा अब भी बस स्टॉप पर खड़ा सोचे जा रहा था। क्या सचमुच वह “अपने जहान” में अपने जहान के बीच जा रहा था? “विश्राम” के फाटक तक उसे छोड़ते समय अभी चंद मिनट पहले रोहित ने उससे कहा था—
—मैं एक बार फिर तुमसे यह कह रहा हूँ दोस्त कि चार मिलियन रुपए की इस भारी रक़म को तुम जुए पर रख रहे हो। मुझे अभी भी इस बात का यक़ीन नहीं कि इससे मरियम टैक्सटाइल फिर से ज़िंदा हो सकती है?
अपने कोट की भीतरी जेब के भीतर बीमे का वह चैक दाऊद को इस्पाती वजन-सा लगा। उसने अपनी मरियम को याद करके उससे पूछा—
—तुम क्या कहती हो मरियम?
तभी शहर जाने वाली बस उसके सामने आकर रुक गई। रास्ते की उस दूसरी ओर वह दूसरी बस रुकी जो “विश्राम” की ओर जा रही थी। दोनों से सवारियाँ उतरीं और दोनों पर सवारियाँ चढ़ने आगे बढ़ीं। दाऊद सुलेमान के भी क़दम उठे।
ghuDdauD ke maidan ke samne se nikalne vali saDak ki shuruat ki wo hare rang ki imarat kabhi ilaqe ka sabse bhavya ghar tha. idhar kuch varshon se siment ki imarten khaDi ho jane par ab us ghar ki wo bhavyata jati rahi thi. uski pahchan abhi bhi bani hui thi. vaqt ke saath udaas paDkar phatak par ka nemaplet aaj bhi apni pahchan in do shabdon mein liye hue tha, “apna jahan”. apne parivar ko bhi daud ne hamesha apna jahan mana tha. aur aaj bhi ilaqe ke log use domanzila hi kah jate the. gaanv ki apni zamin aur apne ghar ko bech kar daud suleman isliye shahr aa gaya tha, taki uske donon laDke gaanv ke pichhDe paDe laDkon se apni alag pahchan bana saken.
shaan de mars ke samne ki kordri gali mein zamin kharidne se pahle jab usne mariyam se kaha tha ki bachchon ke hit ab un logon ko shahr mein ja basna chahiye to uski patni taiyar nahin hui thi. boli thee—
—na baba, hum shahr mein nahin na rah sakab. huvan ke logan ke ta zaban hi hamar samajh mein na avela.
daud suleman ko apni bholi bhali bivi ko samjhane mein teen din lag ge the. baad mein mariyam ko apni khavind ki ye baat janch gai thi ki vahan ke logon ko bhi krioli nahin aati thi. ve sabhi ganvon se vahan ja base hain.
usne kaha—
—mariyam! un logon ko krioli bolte sun tumhein bhi wo zuban aa jayegi.
daud ke donon bete ko bhi Dhang se krioli nahin aati thi. shahr aa basne par shuru shuru mein jamal aur roshan ki krioli par log hanste rah jate the. jamal joki un dinon aath saal ka tha aur roshan se do saal baDa tha, apni maan aur apne chhote bhai se pahle shahr ki bhasha baDi khubi ke saath bolne laga tha. uski maan to aaj bhi kordar gali ko kudure aur por lui ko pulvi bolti thi. uske vakyon mein bhojapuri shabdon ki bharmar bani rahti thi.
apni baDi patohu se jab bhi wo bhojapuri lahje mein krioli mein baat karti to chhoti bahu salma kheejh uthti. kabhi kah jati, meri samajh mein nahin aati tumhari ganvar boli. aur kabhi apne pati par jhunjhla uthti—main jab tumhari maan se baat karun to tum vahan maujud raha karo.
mariyam akhiri dam tak sahi Dhang se krioli bolna nahin seekh pai, lekin uski baDi patohu hamida apni saas se bhojapuri seekh kar rahi. us antim ghaDi mein apni saas ke hathon ko apne hathon mein liye boli—nain ammi! hum log ke chhoD ke nain ja.
apni bivi ki maut ke baad daud suleman ki duniya andhkar mein Dubti chali gai. donon putr vadhuon mein sirf hamida thi, jo uska khayal rakhti thi.
suleman ka sansar andhere mein Dubta hi gaya.
saat shayankakshon vale ghar mein jab usse apna sone vala kamra bhi le liya gaya to wo chup raha. baDe bete ne apne chhote bhai ko aisa karne se roka to sahi. par chunki uska chhota bhai apni bivi ki badaulat ab jamal se bhi adhik haisiyat vala ban gaya tha, isliye jamal usse anurodh to kar sakta tha, par adesh nahin de sakta tha.
ghar ka sabse chhota kamra pakar usmen rah kar suleman chup raha. baDe bete se bhi ye nahin kaha ki us kamre mein kabhi hafte bhar jhaDu nahin lagti. bistar ki chadar bhi kabhi lambe samay tak badli nahin jati.
aaj us pure ghar ki khiDakiyon ke parde badle ja rahe the.
koi chaar saal baad aaj wo domanzila ne rangon se ranga ja raha tha. jin saat nati natinon ne in chaar salon mein apne dada ki na to koi jhalak pai aur na hi unke bare mein kabhi kuch puchha, aaj ve bhi ghar ko sajane mein lage hue the. agar kisi ko kabhi daud suleman ki yaad aai thi to wo hamida thi. apne khavind se zid karke do baar yatimkhana pahunchakar rahi thi wo.
chaar saal baad. aaj “apna jahan” ko suleman ke zinda hone ka ehsaas hua tha.
har koi bol raha tha.
chhote baDe sabhi dauD dhoop mein shamil the.
koi hidayat de raha tha—yah purani kursi yahan se hata do. koi apne hisse ka kaam pura karke kah raha tha—guldasta le aaya main.
phulon ki khushbu. rasoi se aati biryani ki jafrani mahak.
roshan kabhi apne baDe bhai ko adesh de raha tha, kabhi apni patni ko to kabhi apne bachchon ko is ghar mein itni zyada sakriyta na to donon bhaiyon ki shadiyon ke dauran thi aur na hi eid ke kisi mauqe par.
wo sirf hamida thi, jo apni sabse baDi beti suraiya ke saath baramde mein baithi us ajiboghrib avajahi ko dekh rahi thi. kuch had tak uska apna pati bhi theek usi ki tarah apadhapi mein sabse kam unmaad liye hue tha. is baat ki to use khushi thi ki itne lambe antral ke baad uska baap is ghar ko laut raha tha. agar uska ye lautna uski apni marji se hota ya khud jamal ki darakhvast par uski baat mankar aisa hua hota to aaj jamal bhi ghar ke baqi logon ki tarah umang liye hota.
par kya ye jo kuch dekh raha tha, wo sachmuch ki khushi thee? apni is baat ka javab kal raat hi mein jamal ko apni bivi se mil gaya tha. wo boli thee—
— ye abba jaan ke lautne ki khushi nahin hai.
hamida ne subah apni chhoti gotni khatija ko apne sasur ke muddat se band kamre ki safai karte dekh usse puchha tha—
—phir isi kamre mein rakhna hai sasur ji ko kyaa?
—are nahin, hum unhen unka wo pahla kamra de rahe hain.
—par wo to salim ka kamra. . .
—salim ko pakistan se lautne mein abhi do saal baqi hain.
—par agle mahine chhutti mein to aa raha hai?
—vah aa jayega to dekha jayega. mujhe to lagta hai ki sasur ji apne isi kamre mein rahne ki maang karenge.
hamida muskura kar vahan se tal gai thi.
suleman ke is kamre mein rahne ke dinon mein hamida kabhi kabhar kamre ki safai kar jati thi. ek baar kamre ki safai ke dauran hi usne apne sasur se saval kiya tha.
—abba! ab aapko aisa nahin lagta ki apni sari jayedad donon beton ke naam kar jane mein aapne jaldbazi kar dee?
kuch thahar kar suleman ne is parashn ka uttar diya tha.
—tumhari saas ki ichchha puri ki mainne.
—yah to main janti hoon, par kya aisa karke aap pachhta nahin rahe?
—vaise bhi haj ke liye nikalne se pahle mujhe apne ko is bojh se riha to karna hi tha.
ye kah jane ke baad suleman ko ye ehsaas hua ki usne apne ko jayedad ke bojh se riha karke apne ko beton ke sir bojh bana diya tha, par hamida se bola nahin. bola zarur par kuch aur hi.
—kam se kam is baat ka to santosh hai mujhe ki jayedad dete samay ki meri sharton ko mere donon laDke aaj bhi rakhe hue hain. ye donon, bachchon ke saath isi chhat ke niche mil milakar jite rahen, bas meri to khuda se yahi dua rahti hai.
us raat hamida apne pati se bhi saval karne se nahin chuki thi.
—tum baDe bhai hokar chhote bhai ke samne chuppi sadhe rahte ho aur wo manmani karta rahta hai. akhir aisa kab tak hota rahega?
jamal se ek baar phir apni bivi ke saval ka javab nahin ban paDa tha.
usi chuppi se ukta kar hamida ne aage kaha tha—
—baDi dukan ki zimmevari tumne use saump di. aur wo hai ki tumhari chhoti dukan se kam aay tumhare samne lata hai. kapDon ki phaiktri mein bhi usi ki dhaak hai. uske do bachche videshon mein paDh rahe hain. tumhare donon laDke sarkari daftron ki khaak chhaan rahe hain. tumne hamari suraiya ko siniyar kaimbrij se aage paDhne hi nahin diya jabki uski aysha phraans mein Dauktri paDh rahi hai.
—kya uske bachche hamare bachche nahin?
—bas, iske aage tumhein kuch aata hi nahin. tum apne chhote bhai ko bahut adhik chhoot diye baithe ho. abbajan bhi aisa hi kahte hain.
koi do mahine baad daud suleman ne pahle apne chhote laDke ko Dantte hue kaha tha—
—do karon ke hote tisri kaar kharidne ki kya zarurat thee? tumhari phizulkharchi baDhti hi ja rahi hai. faiktri ke mainejar ka bhi yahi kahna hai ki vahan bhi anavashyak nai mashin lagakar tumne faiktri ki arthik sthiti bigaD di hai.
usi din jamal ko bhi apne baap se khari khoti sunni paDi thi.
—halat ko isse adhik nazuk mat hone do. tum ab bhi sakhti ke saath pesh nahin aoge to pura vyavsay Doob jayega. aur phir roshan ko faiktri mein kuch zyada hi adhikar hasil ho gaya hai. mujhe ye bhi bataya gaya hai ki bahut hi safai ke saath wo ghotala karne mein laga hua hai.
aur kuch hi din baad roshan ki bivi khatija ne apna rang zamana shuru kiya tha. apne do bachchon ke baad usne apni bahan ko bhi apni or se paDhne ke liye phraans bhej diya. phir to us din ko zyada der nahin hui jab suleman ko kahna hi paDa—
—dekho roshan! mainne bahut mehnat aur qurbani ke baad ye sara kuch hasil kiya tha. inhen is tarah lutane ka hak tumhein nahin milta.
aur ek din bin neend vali raat mein usne apne aapse puchha. kya mariyam ka ye puchha jana sahi tha ki akhir itna baDa ghar banana zaruri tha? wo roz vala chuha uski charpai par chaDh aaya. roz vala chakkar kaat kar laut gaya. goya mariyam ke saval ka daud ko javab mil gaya.
usne apne aap se kaha—zaruri tha varna paDos ki safed billi apne bachchon ko hamari siDhiyon ke niche janm kaise deti? uske bachche yahan pal rahe chuhon se chor pulis ka khel kaise khelte? kabutar ya gauraiya apne ghonsle kahan banate? har jumme ko paDos ke kutte biryani ki haDDiyan khane kiske dvaar jate?
phir to wo din bhi aakar hi raha, jab daud ko us yatimkhane ke apne dost, vahan ke nideshak ko phon karna hi paDa.
—rohit! mera naam apne yatimon ki phahrisht mein darz kar lo. kal main pahunch raha hoon.
jab donon dost, “vishram” ke ahate mein mile the to rohit ne apne dost se galbanhi ke baad kaha tha—
—jiski sabse adhik rahmat rahi, is jagah par aaj. . . .
daud ne apne dost ko isse aage kahne nahin diya tha. khud bol gaya tha.
—main to baar baar kahta tha yaar ki kitna sukun hai yahan. bas sukun ke liye aaya hoon. “apna jahan” chhoDkar tumhare jahan mein.
lekin is sachmuch mein shaant vatavran mein bhi daud suleman ko bahut dinon tak wo shanti nahin mil pai, jiski talash mein wo yahan pahuncha tha. chhah mahine bhi nahin guzre the ki jamal aur hamida apne mayus chehron ke saath us tak pahunche. bolne ki himmat jamal mein nahin ho pai thi, isliye hamida ko wo baat batani paDi thi.
—abba! mariyam tekstail se teen sau mazduron ko naukari se hatana paDa. chehre par bina koi bhaav laye daud ne kaha tha—
—yah naubat to aani hi thi.
ek lambi khamoshi ke baad usne kaha tha—
—meri mariyam ko is baat ka phan tha ki uski faiktri saat sau gharibon ke parivaron ko jivan diye hui thi. chalo achchha hi hua ki aaj ye sunne ko wo hamare beech nahin ki uski faiktri ne teen sau parivaron se rozi chheen li.
saal beet kar raha. eid ka tyohar dobara aa gaya. jamal hamida ke saath phir “vishram” pahuncha. hamida hi apne sasur ko ghar lautne ke liye manati rahi.
akhir mein jamal bol saka tha—
—vah din bhi door nahin abba ki faiktri band ho jaye.
—yah naubat aane se pahle meri sanson ka chalna band ho jana chahiye.
hamida giDgiDa uthi thee—
—ab aapko ghar laut chalna hi hoga abba.
ek halki muskan ke baad daud ne man hi man kaha—ghar? kaisa ghar? phir wo soch utha apne yatimkhane ke bare mein. antar tha uski apni imarat aur is imarat mein. uski to ghar kahe jane vali apni imarat mein yahan se adhik divaren theen. vahan do bhai do divaron ke idhar udhar rahte hain, jabki yahan alag alag mazahbon ke bhai chaar divaron ke bhitar bhi eksaath rahte hain. kisi ka apna na hokar bhi ye sabhi mazduron ka apna jahan tha.
—nahin hamida, wo alishan ghar bik gaya hota to mujhe itna dukh nahin hota, jitna faiktri ki haalat jankar ho raha hai.
—ab mujhe lagta hai ki sabse baDa qasur mera hi hai.
—tumhara qasur bas itna hi hai jamal ki tumne apne chhote bhai par apne se adhik yaqin kiya. khair! tum chaho to abhi se mariyam taikstail ko Dubne se roka ja sakta hai.
–donon dukanon mein se ek ko bechkar shayad. . . .
—nahin bete, virasat ko bechne ki baat mat socho. gaanv ki virasat ko bechkar shahr nahin aata to aaj ye sara kuch jhelne ko nahin milta. tum donon ko shahri zindagi aur gaanv ke logon se behtar talim dene ka khvaab dekha tha.
na jane kitne mahine baad suleman ko apne baDe bete ka fon mila.
—abba! baink ek bhi rupya faiktri ko dene ke liye taiyar nahin.
do mahine baad phir se fon aaya tha.
—abba! ab ek hi upaay baqi hai. baink ka karz bharne ke liye faiktri ko bechna hi paDega.
—nahin jamal, mariyam taikstail mahz ek faiktri nahin. wo tumhari virasat hai, tumhari maan ki rooh hai usmen.
jamal se fon par baat kar chukne ke baad suleman ne british amerikan bima kampni ko fon kiya tha. teen din pahle bhi wo vahan ke mainejar se fon par baat kar chuka tha. pata chala tha ki mainejar miting mein vyast tha. suleman ne sahayak mainejar se baat ki thi. santoshajnak uttar pakar wo usi kshan vishram mukhya daftar ko baDh gaya tha. apne dost ke saath pite hue usne uske samne apni bhitar ki ban aai ummid ko rakhte hue kaha tha.
—dost! socha tha bin khaas mehnat ki apni akhiri kamai yatimkhane ko de jaunga, par. . . .
—pahle hi tum is jagah ko bahut de chuke ho. main chahta hoon ki tum apne bachchon ko ek mauqa aur do. . . .
—nahin rohit, main apne bachchon ko mauqa nahin de raha. main to mariyam ki yaad ko murjhane se bachana chahta hoon. yahan ke do sau vyakti to yoon bhi bhukhe nahin marenge, jabki mariyam taikstail ke chhah sau kamgaron ke baal bachchon ke munh ke nivale chhin jane ka saval hai. vaise bhi mariyam taikstail mere liye ek masjid ke barabar hai.
—main janta hoon suleman, mere samne hi to tumhare aur mariyam ke beech ye bahs chhiDi thi. tum apne gaanv ki bachi hui zamin ke tukDe par masjid banana chaah rahe the aur mariyam tumse faiktri ki maang karti rahi thi.
—aur zindagi mein pahli baar main uski baat ko apni baat se adhik mahattv de baitha tha.
—tab tum khush the, aaj. . . .
—aaj bhi main khush hoon us vaqt main mariyam ki jeet par khush tha, aaj apni jeet par. mainne sapne mein mariyam se vayada kiya hai ki uski jis yadgar ko uske bachche dhumil karke nestanabud karne ja rahe the, main use bacha kar rahunga.
—mujhe tumhare aur mariyam ke beech ki ek baat aur yaad aa gai. jab tum apna bima karva rahe the to sare jivan kaal ke laabh ko thukra kar tumne use apni maut ke baad mariyam aur bachchon ke hit mein likhvana chaha tha.
—haan dost! aur mariyam ne mujhe majbur kiya tha ki main use pachchis saal se adhik ki paulisi na banaun aur jite ji main us laabh ko hasil kar loon. uska ye bhi hath tha ki mere baad hi koi dusra uska hakdar bane, mere hote nahin.
—to ye dusri baar tha ki tumne apni zid ko chhoDkar apni bivi ki baat mani thi.
—meri ve do haren jo vaqt ke saath meri jeet banin.
apne bachchon se chaar saal door rahkar aaj daud suleman bas dvara kordri gali ke apne ghar pahuncha. uske donon laDkon ne raat mein usse fon par baten ki theen. donon use apni apni kaar mein lene yatimkhane pahunchna chahte the. daud ne donon se ek hi baat kahi thi.
—vahan se yahan bas ke jariye aaya tha. yahan se vahan bhi bas ke jariye pahunchunga. chhote bete ne sahas bator kar ye bhi poochh liya tha.
—ho paya puri raqam ka bandobast?
—daud ne is saval ka koi javab nahin diya tha. subah uski baDi bahu hamida ne use fon karke usse maang ki thi ki wo bas se na ayen.
—abba! jamal aapko lene aa jayega.
—us ghar ki tum hi ho jo sabse zyada yaad aati ho beti, phir bhi main apni jid par aDa rahunga.
fon rakh kar daud suleman ne apne aapse kaha tha—apni zid chhoDkar haar mein bhi jeet ka ehsaas to ek hi vyakti se pa saka hoon. wo bhi zindagi mein sirf do hi baar. ab is jahan mein koi hai hi nahin jiske aage main apni zid chhoDkar haar maan loon.
“vishram” mein daud ko ek khaas kamra mila hua tha, par wo usmen birle hi rahta. itni lambi avadhi ke baad apne khanadan ke logon se milne se pahle usne kuch samay ekaant mein bitana chaha. us khaas kamre mein pahunch kar wo charpai par let gaya. ’ band rahne ke karan kamra garm tha. us thanDe mein wo garmi use achchhi lagi. samne ki divar par ke aine mein wo apne chehre ko dekhta raha. haj se lautne ke baad jab usne daDhi banani chhoDni shuru ki thi to mariyam ko uske chehre par daDhi achchhi nahin lagi thi. boli thee—
—bin daDhi ke tum adhik achchhe lagte the.
daud jhat bol utha tha—
—kaho to nikal doon?
is par mariyam boli thee—
—ab tum haji ho, daDhi zaruri hai. lekin tumhari daDhi ke bavjud main tumhein usi pahle vale roop mein dekhti hoon, jab log tumhein rajakpur kaha karte. daud ne apne haath ko daDhi par rakhkar sirf apne ko munchhon ke saath dekha, par ab wo baat nahin thi jo saat baar “avara” dekhne ke dinon mein thi.
“apna jahan” ke sabhi log betabi ke saath us vyakti ki raah dekh rahe the. bahut dinon baad aaj uske is ghar ke malik hone ka ehsaas sabhi ko hua. bahut dinon baad koi apne baap ko is angan mein baithane ki adhirata liye hue tha to koi sasur ko aur koi apne dada ko.
usne kaha tha ki wo shaam ko paanch baje tak pahunch jayega.
jamal ne apne haath ki ghaDi ki or dekha. use laga ki uski ghaDi sahi samay nahin bata rahi thi. usne roshan se puchha—
—vaqt kya hua hai?
—saDhe paanch.
jamal ye tay nahin kar paya ki donon bhaiyon mein kiski ghaDi pandrah minat aage aur kiski pichhe thi.
biryani ke deg ko angan ke chulhe se utaar kar rasoi ke bhitar rakh aane ke baad hamida khatija ke saath phir se angan mein aa gai. pahli baar jab hamida ne ilaiktrik kukar par biryani pakai thi to uska sasur khate hue bol gaya tha—
—lakDi ki aag mein pakne vali biryani kuch aur hi hoti hai.
phir to mariyam ke kahne par uske jite ji kabhi bhi biryani kukar par nahin paki. lekin uske baad rasoi ke bhitar ki sahuliyat ko chhoD bahar pakane ki zarurat donon bahuon ne kabhi nahin samjhi. aaj roshan ki hidayat par angan mein biryani paki thi. apne devar aur pati ke beech pahunchakar hamida ne kaha—
—abba ko to ab tak aa jana chahiye tha.
uska abba ab bhi bas staup par khaDa soche ja raha tha. kya sachmuch wo “apne jahan” mein apne jahan ke beech ja raha tha? vishram ke phatak tak use chhoDte samay abhi chand minat pahle rohit ne usse kaha tha—
—main ek baar phir tumse ye kah raha hoon dost ki chaar miliyan rupe ki is bhari raqam ko tum jue par rakh rahe ho. mujhe abhi bhi is baat ka yaqin nahin ki isse mariyam taikstail phir se zinda ho sakti hai?
apne kot ki bhitari jeb ke bhitar bime ka wo chaik daud ko ispati vajan sa laga. usne apni mariyam ko yaad karke usse puchha—
—tum kya kahti ho mariyam?
tabhi shahr jane vali bas uske samne aakar ruk gai. raste ki us dusri or wo dusri bas ruki jo “vishram” ki or ja rahi thi. donon se svariyan utrin aur donon par svariyan chaDhne aage baDhin. daud suleman ke bhi qadam uthe.
ghuDdauD ke maidan ke samne se nikalne vali saDak ki shuruat ki wo hare rang ki imarat kabhi ilaqe ka sabse bhavya ghar tha. idhar kuch varshon se siment ki imarten khaDi ho jane par ab us ghar ki wo bhavyata jati rahi thi. uski pahchan abhi bhi bani hui thi. vaqt ke saath udaas paDkar phatak par ka nemaplet aaj bhi apni pahchan in do shabdon mein liye hue tha, “apna jahan”. apne parivar ko bhi daud ne hamesha apna jahan mana tha. aur aaj bhi ilaqe ke log use domanzila hi kah jate the. gaanv ki apni zamin aur apne ghar ko bech kar daud suleman isliye shahr aa gaya tha, taki uske donon laDke gaanv ke pichhDe paDe laDkon se apni alag pahchan bana saken.
shaan de mars ke samne ki kordri gali mein zamin kharidne se pahle jab usne mariyam se kaha tha ki bachchon ke hit ab un logon ko shahr mein ja basna chahiye to uski patni taiyar nahin hui thi. boli thee—
—na baba, hum shahr mein nahin na rah sakab. huvan ke logan ke ta zaban hi hamar samajh mein na avela.
daud suleman ko apni bholi bhali bivi ko samjhane mein teen din lag ge the. baad mein mariyam ko apni khavind ki ye baat janch gai thi ki vahan ke logon ko bhi krioli nahin aati thi. ve sabhi ganvon se vahan ja base hain.
usne kaha—
—mariyam! un logon ko krioli bolte sun tumhein bhi wo zuban aa jayegi.
daud ke donon bete ko bhi Dhang se krioli nahin aati thi. shahr aa basne par shuru shuru mein jamal aur roshan ki krioli par log hanste rah jate the. jamal joki un dinon aath saal ka tha aur roshan se do saal baDa tha, apni maan aur apne chhote bhai se pahle shahr ki bhasha baDi khubi ke saath bolne laga tha. uski maan to aaj bhi kordar gali ko kudure aur por lui ko pulvi bolti thi. uske vakyon mein bhojapuri shabdon ki bharmar bani rahti thi.
apni baDi patohu se jab bhi wo bhojapuri lahje mein krioli mein baat karti to chhoti bahu salma kheejh uthti. kabhi kah jati, meri samajh mein nahin aati tumhari ganvar boli. aur kabhi apne pati par jhunjhla uthti—main jab tumhari maan se baat karun to tum vahan maujud raha karo.
mariyam akhiri dam tak sahi Dhang se krioli bolna nahin seekh pai, lekin uski baDi patohu hamida apni saas se bhojapuri seekh kar rahi. us antim ghaDi mein apni saas ke hathon ko apne hathon mein liye boli—nain ammi! hum log ke chhoD ke nain ja.
apni bivi ki maut ke baad daud suleman ki duniya andhkar mein Dubti chali gai. donon putr vadhuon mein sirf hamida thi, jo uska khayal rakhti thi.
suleman ka sansar andhere mein Dubta hi gaya.
saat shayankakshon vale ghar mein jab usse apna sone vala kamra bhi le liya gaya to wo chup raha. baDe bete ne apne chhote bhai ko aisa karne se roka to sahi. par chunki uska chhota bhai apni bivi ki badaulat ab jamal se bhi adhik haisiyat vala ban gaya tha, isliye jamal usse anurodh to kar sakta tha, par adesh nahin de sakta tha.
ghar ka sabse chhota kamra pakar usmen rah kar suleman chup raha. baDe bete se bhi ye nahin kaha ki us kamre mein kabhi hafte bhar jhaDu nahin lagti. bistar ki chadar bhi kabhi lambe samay tak badli nahin jati.
aaj us pure ghar ki khiDakiyon ke parde badle ja rahe the.
koi chaar saal baad aaj wo domanzila ne rangon se ranga ja raha tha. jin saat nati natinon ne in chaar salon mein apne dada ki na to koi jhalak pai aur na hi unke bare mein kabhi kuch puchha, aaj ve bhi ghar ko sajane mein lage hue the. agar kisi ko kabhi daud suleman ki yaad aai thi to wo hamida thi. apne khavind se zid karke do baar yatimkhana pahunchakar rahi thi wo.
chaar saal baad. aaj “apna jahan” ko suleman ke zinda hone ka ehsaas hua tha.
har koi bol raha tha.
chhote baDe sabhi dauD dhoop mein shamil the.
koi hidayat de raha tha—yah purani kursi yahan se hata do. koi apne hisse ka kaam pura karke kah raha tha—guldasta le aaya main.
phulon ki khushbu. rasoi se aati biryani ki jafrani mahak.
roshan kabhi apne baDe bhai ko adesh de raha tha, kabhi apni patni ko to kabhi apne bachchon ko is ghar mein itni zyada sakriyta na to donon bhaiyon ki shadiyon ke dauran thi aur na hi eid ke kisi mauqe par.
wo sirf hamida thi, jo apni sabse baDi beti suraiya ke saath baramde mein baithi us ajiboghrib avajahi ko dekh rahi thi. kuch had tak uska apna pati bhi theek usi ki tarah apadhapi mein sabse kam unmaad liye hue tha. is baat ki to use khushi thi ki itne lambe antral ke baad uska baap is ghar ko laut raha tha. agar uska ye lautna uski apni marji se hota ya khud jamal ki darakhvast par uski baat mankar aisa hua hota to aaj jamal bhi ghar ke baqi logon ki tarah umang liye hota.
par kya ye jo kuch dekh raha tha, wo sachmuch ki khushi thee? apni is baat ka javab kal raat hi mein jamal ko apni bivi se mil gaya tha. wo boli thee—
— ye abba jaan ke lautne ki khushi nahin hai.
hamida ne subah apni chhoti gotni khatija ko apne sasur ke muddat se band kamre ki safai karte dekh usse puchha tha—
—phir isi kamre mein rakhna hai sasur ji ko kyaa?
—are nahin, hum unhen unka wo pahla kamra de rahe hain.
—par wo to salim ka kamra. . .
—salim ko pakistan se lautne mein abhi do saal baqi hain.
—par agle mahine chhutti mein to aa raha hai?
—vah aa jayega to dekha jayega. mujhe to lagta hai ki sasur ji apne isi kamre mein rahne ki maang karenge.
hamida muskura kar vahan se tal gai thi.
suleman ke is kamre mein rahne ke dinon mein hamida kabhi kabhar kamre ki safai kar jati thi. ek baar kamre ki safai ke dauran hi usne apne sasur se saval kiya tha.
—abba! ab aapko aisa nahin lagta ki apni sari jayedad donon beton ke naam kar jane mein aapne jaldbazi kar dee?
kuch thahar kar suleman ne is parashn ka uttar diya tha.
—tumhari saas ki ichchha puri ki mainne.
—yah to main janti hoon, par kya aisa karke aap pachhta nahin rahe?
—vaise bhi haj ke liye nikalne se pahle mujhe apne ko is bojh se riha to karna hi tha.
ye kah jane ke baad suleman ko ye ehsaas hua ki usne apne ko jayedad ke bojh se riha karke apne ko beton ke sir bojh bana diya tha, par hamida se bola nahin. bola zarur par kuch aur hi.
—kam se kam is baat ka to santosh hai mujhe ki jayedad dete samay ki meri sharton ko mere donon laDke aaj bhi rakhe hue hain. ye donon, bachchon ke saath isi chhat ke niche mil milakar jite rahen, bas meri to khuda se yahi dua rahti hai.
us raat hamida apne pati se bhi saval karne se nahin chuki thi.
—tum baDe bhai hokar chhote bhai ke samne chuppi sadhe rahte ho aur wo manmani karta rahta hai. akhir aisa kab tak hota rahega?
jamal se ek baar phir apni bivi ke saval ka javab nahin ban paDa tha.
usi chuppi se ukta kar hamida ne aage kaha tha—
—baDi dukan ki zimmevari tumne use saump di. aur wo hai ki tumhari chhoti dukan se kam aay tumhare samne lata hai. kapDon ki phaiktri mein bhi usi ki dhaak hai. uske do bachche videshon mein paDh rahe hain. tumhare donon laDke sarkari daftron ki khaak chhaan rahe hain. tumne hamari suraiya ko siniyar kaimbrij se aage paDhne hi nahin diya jabki uski aysha phraans mein Dauktri paDh rahi hai.
—kya uske bachche hamare bachche nahin?
—bas, iske aage tumhein kuch aata hi nahin. tum apne chhote bhai ko bahut adhik chhoot diye baithe ho. abbajan bhi aisa hi kahte hain.
koi do mahine baad daud suleman ne pahle apne chhote laDke ko Dantte hue kaha tha—
—do karon ke hote tisri kaar kharidne ki kya zarurat thee? tumhari phizulkharchi baDhti hi ja rahi hai. faiktri ke mainejar ka bhi yahi kahna hai ki vahan bhi anavashyak nai mashin lagakar tumne faiktri ki arthik sthiti bigaD di hai.
usi din jamal ko bhi apne baap se khari khoti sunni paDi thi.
—halat ko isse adhik nazuk mat hone do. tum ab bhi sakhti ke saath pesh nahin aoge to pura vyavsay Doob jayega. aur phir roshan ko faiktri mein kuch zyada hi adhikar hasil ho gaya hai. mujhe ye bhi bataya gaya hai ki bahut hi safai ke saath wo ghotala karne mein laga hua hai.
aur kuch hi din baad roshan ki bivi khatija ne apna rang zamana shuru kiya tha. apne do bachchon ke baad usne apni bahan ko bhi apni or se paDhne ke liye phraans bhej diya. phir to us din ko zyada der nahin hui jab suleman ko kahna hi paDa—
—dekho roshan! mainne bahut mehnat aur qurbani ke baad ye sara kuch hasil kiya tha. inhen is tarah lutane ka hak tumhein nahin milta.
aur ek din bin neend vali raat mein usne apne aapse puchha. kya mariyam ka ye puchha jana sahi tha ki akhir itna baDa ghar banana zaruri tha? wo roz vala chuha uski charpai par chaDh aaya. roz vala chakkar kaat kar laut gaya. goya mariyam ke saval ka daud ko javab mil gaya.
usne apne aap se kaha—zaruri tha varna paDos ki safed billi apne bachchon ko hamari siDhiyon ke niche janm kaise deti? uske bachche yahan pal rahe chuhon se chor pulis ka khel kaise khelte? kabutar ya gauraiya apne ghonsle kahan banate? har jumme ko paDos ke kutte biryani ki haDDiyan khane kiske dvaar jate?
phir to wo din bhi aakar hi raha, jab daud ko us yatimkhane ke apne dost, vahan ke nideshak ko phon karna hi paDa.
—rohit! mera naam apne yatimon ki phahrisht mein darz kar lo. kal main pahunch raha hoon.
jab donon dost, “vishram” ke ahate mein mile the to rohit ne apne dost se galbanhi ke baad kaha tha—
—jiski sabse adhik rahmat rahi, is jagah par aaj. . . .
daud ne apne dost ko isse aage kahne nahin diya tha. khud bol gaya tha.
—main to baar baar kahta tha yaar ki kitna sukun hai yahan. bas sukun ke liye aaya hoon. “apna jahan” chhoDkar tumhare jahan mein.
lekin is sachmuch mein shaant vatavran mein bhi daud suleman ko bahut dinon tak wo shanti nahin mil pai, jiski talash mein wo yahan pahuncha tha. chhah mahine bhi nahin guzre the ki jamal aur hamida apne mayus chehron ke saath us tak pahunche. bolne ki himmat jamal mein nahin ho pai thi, isliye hamida ko wo baat batani paDi thi.
—abba! mariyam tekstail se teen sau mazduron ko naukari se hatana paDa. chehre par bina koi bhaav laye daud ne kaha tha—
—yah naubat to aani hi thi.
ek lambi khamoshi ke baad usne kaha tha—
—meri mariyam ko is baat ka phan tha ki uski faiktri saat sau gharibon ke parivaron ko jivan diye hui thi. chalo achchha hi hua ki aaj ye sunne ko wo hamare beech nahin ki uski faiktri ne teen sau parivaron se rozi chheen li.
saal beet kar raha. eid ka tyohar dobara aa gaya. jamal hamida ke saath phir “vishram” pahuncha. hamida hi apne sasur ko ghar lautne ke liye manati rahi.
akhir mein jamal bol saka tha—
—vah din bhi door nahin abba ki faiktri band ho jaye.
—yah naubat aane se pahle meri sanson ka chalna band ho jana chahiye.
hamida giDgiDa uthi thee—
—ab aapko ghar laut chalna hi hoga abba.
ek halki muskan ke baad daud ne man hi man kaha—ghar? kaisa ghar? phir wo soch utha apne yatimkhane ke bare mein. antar tha uski apni imarat aur is imarat mein. uski to ghar kahe jane vali apni imarat mein yahan se adhik divaren theen. vahan do bhai do divaron ke idhar udhar rahte hain, jabki yahan alag alag mazahbon ke bhai chaar divaron ke bhitar bhi eksaath rahte hain. kisi ka apna na hokar bhi ye sabhi mazduron ka apna jahan tha.
—nahin hamida, wo alishan ghar bik gaya hota to mujhe itna dukh nahin hota, jitna faiktri ki haalat jankar ho raha hai.
—ab mujhe lagta hai ki sabse baDa qasur mera hi hai.
—tumhara qasur bas itna hi hai jamal ki tumne apne chhote bhai par apne se adhik yaqin kiya. khair! tum chaho to abhi se mariyam taikstail ko Dubne se roka ja sakta hai.
–donon dukanon mein se ek ko bechkar shayad. . . .
—nahin bete, virasat ko bechne ki baat mat socho. gaanv ki virasat ko bechkar shahr nahin aata to aaj ye sara kuch jhelne ko nahin milta. tum donon ko shahri zindagi aur gaanv ke logon se behtar talim dene ka khvaab dekha tha.
na jane kitne mahine baad suleman ko apne baDe bete ka fon mila.
—abba! baink ek bhi rupya faiktri ko dene ke liye taiyar nahin.
do mahine baad phir se fon aaya tha.
—abba! ab ek hi upaay baqi hai. baink ka karz bharne ke liye faiktri ko bechna hi paDega.
—nahin jamal, mariyam taikstail mahz ek faiktri nahin. wo tumhari virasat hai, tumhari maan ki rooh hai usmen.
jamal se fon par baat kar chukne ke baad suleman ne british amerikan bima kampni ko fon kiya tha. teen din pahle bhi wo vahan ke mainejar se fon par baat kar chuka tha. pata chala tha ki mainejar miting mein vyast tha. suleman ne sahayak mainejar se baat ki thi. santoshajnak uttar pakar wo usi kshan vishram mukhya daftar ko baDh gaya tha. apne dost ke saath pite hue usne uske samne apni bhitar ki ban aai ummid ko rakhte hue kaha tha.
—dost! socha tha bin khaas mehnat ki apni akhiri kamai yatimkhane ko de jaunga, par. . . .
—pahle hi tum is jagah ko bahut de chuke ho. main chahta hoon ki tum apne bachchon ko ek mauqa aur do. . . .
—nahin rohit, main apne bachchon ko mauqa nahin de raha. main to mariyam ki yaad ko murjhane se bachana chahta hoon. yahan ke do sau vyakti to yoon bhi bhukhe nahin marenge, jabki mariyam taikstail ke chhah sau kamgaron ke baal bachchon ke munh ke nivale chhin jane ka saval hai. vaise bhi mariyam taikstail mere liye ek masjid ke barabar hai.
—main janta hoon suleman, mere samne hi to tumhare aur mariyam ke beech ye bahs chhiDi thi. tum apne gaanv ki bachi hui zamin ke tukDe par masjid banana chaah rahe the aur mariyam tumse faiktri ki maang karti rahi thi.
—aur zindagi mein pahli baar main uski baat ko apni baat se adhik mahattv de baitha tha.
—tab tum khush the, aaj. . . .
—aaj bhi main khush hoon us vaqt main mariyam ki jeet par khush tha, aaj apni jeet par. mainne sapne mein mariyam se vayada kiya hai ki uski jis yadgar ko uske bachche dhumil karke nestanabud karne ja rahe the, main use bacha kar rahunga.
—mujhe tumhare aur mariyam ke beech ki ek baat aur yaad aa gai. jab tum apna bima karva rahe the to sare jivan kaal ke laabh ko thukra kar tumne use apni maut ke baad mariyam aur bachchon ke hit mein likhvana chaha tha.
—haan dost! aur mariyam ne mujhe majbur kiya tha ki main use pachchis saal se adhik ki paulisi na banaun aur jite ji main us laabh ko hasil kar loon. uska ye bhi hath tha ki mere baad hi koi dusra uska hakdar bane, mere hote nahin.
—to ye dusri baar tha ki tumne apni zid ko chhoDkar apni bivi ki baat mani thi.
—meri ve do haren jo vaqt ke saath meri jeet banin.
apne bachchon se chaar saal door rahkar aaj daud suleman bas dvara kordri gali ke apne ghar pahuncha. uske donon laDkon ne raat mein usse fon par baten ki theen. donon use apni apni kaar mein lene yatimkhane pahunchna chahte the. daud ne donon se ek hi baat kahi thi.
—vahan se yahan bas ke jariye aaya tha. yahan se vahan bhi bas ke jariye pahunchunga. chhote bete ne sahas bator kar ye bhi poochh liya tha.
—ho paya puri raqam ka bandobast?
—daud ne is saval ka koi javab nahin diya tha. subah uski baDi bahu hamida ne use fon karke usse maang ki thi ki wo bas se na ayen.
—abba! jamal aapko lene aa jayega.
—us ghar ki tum hi ho jo sabse zyada yaad aati ho beti, phir bhi main apni jid par aDa rahunga.
fon rakh kar daud suleman ne apne aapse kaha tha—apni zid chhoDkar haar mein bhi jeet ka ehsaas to ek hi vyakti se pa saka hoon. wo bhi zindagi mein sirf do hi baar. ab is jahan mein koi hai hi nahin jiske aage main apni zid chhoDkar haar maan loon.
“vishram” mein daud ko ek khaas kamra mila hua tha, par wo usmen birle hi rahta. itni lambi avadhi ke baad apne khanadan ke logon se milne se pahle usne kuch samay ekaant mein bitana chaha. us khaas kamre mein pahunch kar wo charpai par let gaya. ’ band rahne ke karan kamra garm tha. us thanDe mein wo garmi use achchhi lagi. samne ki divar par ke aine mein wo apne chehre ko dekhta raha. haj se lautne ke baad jab usne daDhi banani chhoDni shuru ki thi to mariyam ko uske chehre par daDhi achchhi nahin lagi thi. boli thee—
—bin daDhi ke tum adhik achchhe lagte the.
daud jhat bol utha tha—
—kaho to nikal doon?
is par mariyam boli thee—
—ab tum haji ho, daDhi zaruri hai. lekin tumhari daDhi ke bavjud main tumhein usi pahle vale roop mein dekhti hoon, jab log tumhein rajakpur kaha karte. daud ne apne haath ko daDhi par rakhkar sirf apne ko munchhon ke saath dekha, par ab wo baat nahin thi jo saat baar “avara” dekhne ke dinon mein thi.
“apna jahan” ke sabhi log betabi ke saath us vyakti ki raah dekh rahe the. bahut dinon baad aaj uske is ghar ke malik hone ka ehsaas sabhi ko hua. bahut dinon baad koi apne baap ko is angan mein baithane ki adhirata liye hue tha to koi sasur ko aur koi apne dada ko.
usne kaha tha ki wo shaam ko paanch baje tak pahunch jayega.
jamal ne apne haath ki ghaDi ki or dekha. use laga ki uski ghaDi sahi samay nahin bata rahi thi. usne roshan se puchha—
—vaqt kya hua hai?
—saDhe paanch.
jamal ye tay nahin kar paya ki donon bhaiyon mein kiski ghaDi pandrah minat aage aur kiski pichhe thi.
biryani ke deg ko angan ke chulhe se utaar kar rasoi ke bhitar rakh aane ke baad hamida khatija ke saath phir se angan mein aa gai. pahli baar jab hamida ne ilaiktrik kukar par biryani pakai thi to uska sasur khate hue bol gaya tha—
—lakDi ki aag mein pakne vali biryani kuch aur hi hoti hai.
phir to mariyam ke kahne par uske jite ji kabhi bhi biryani kukar par nahin paki. lekin uske baad rasoi ke bhitar ki sahuliyat ko chhoD bahar pakane ki zarurat donon bahuon ne kabhi nahin samjhi. aaj roshan ki hidayat par angan mein biryani paki thi. apne devar aur pati ke beech pahunchakar hamida ne kaha—
—abba ko to ab tak aa jana chahiye tha.
uska abba ab bhi bas staup par khaDa soche ja raha tha. kya sachmuch wo “apne jahan” mein apne jahan ke beech ja raha tha? vishram ke phatak tak use chhoDte samay abhi chand minat pahle rohit ne usse kaha tha—
—main ek baar phir tumse ye kah raha hoon dost ki chaar miliyan rupe ki is bhari raqam ko tum jue par rakh rahe ho. mujhe abhi bhi is baat ka yaqin nahin ki isse mariyam taikstail phir se zinda ho sakti hai?
apne kot ki bhitari jeb ke bhitar bime ka wo chaik daud ko ispati vajan sa laga. usne apni mariyam ko yaad karke usse puchha—
—tum kya kahti ho mariyam?
tabhi shahr jane vali bas uske samne aakar ruk gai. raste ki us dusri or wo dusri bas ruki jo “vishram” ki or ja rahi thi. donon se svariyan utrin aur donon par svariyan chaDhne aage baDhin. daud suleman ke bhi qadam uthe.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 414)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।