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सिरी उपमा जोग

siri upma jog

शिवमूर्ति

शिवमूर्ति

सिरी उपमा जोग

शिवमूर्ति

और अधिकशिवमूर्ति

    किर्र-किर्र-किर्र घंटी बजती है।

    एक आदमी पर्दा उठाकर कमरे से बाहर निकलता है। अर्दली बाहर प्रतीक्षारत लोगों में से एक आदमी को इशारा करता है। वह आदमी जल्दी-जल्दी अंदर जाता है।

    सवेरे आठ बजे से यही क्रम जारी है। अभी दस बजे ए.डी.एम. साहब को दौरे पर भी जाना है, लेकिन भीड़ है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही। किसी की खेत की समस्या है तो किसी की सीमेंट की। किसी की चीनी की, तो किसी की लाइसेंस की। समस्याएँ ही समस्याएँ।

    पौने दस बजे एक लंबी घंटी बजती है। प्रत्युत्तर में अर्दली भागा-भागा भीतर जाता है। ''कितने मुलाक़ाती हैं अभी?''

    ''हुज़ूर, सात-आठ होंगे''

    ''सबको एक साथ भेज दो।''

    अगले क्षण कई लोगों का झुंड अंदर घुसता है, लेकिन दस-ग्यारह साल का एक लड़का अभी भी बाहर बरामदे में खड़ा है। अर्दली झुँझलाता है, ''जा-जा तू भी जा।''

    ''मुझे अकेले में मिला दो,'' लड़का फिर मिनमिनाता है।

    इस बार अर्दली भड़क जाता है, ''आख़िर ऐसा क्या है, जो तू सबेरे से अकेले-अकेले की रट लगा रहा है। क्या है इस चिट्टी में, बोल तो, क्या चाहिए—चीनी, सीमेंट, मिट्टी का तेल?''

    लड़का चुप रह जाता है। चिट्ठी वापस जेब में डाल लेता है।

    अर्दली लड़के को ध्यान से देख रहा है। मटमैली-सी सूती क़मीज़ और पायजामा, गले में लाल रंग का गमछा, छोटे-कड़े-खड़े-रूखे बाल, नंगे पाँव। धूल-धूसरित चेहरा, मुरझाया हुआ। अपरिचित माहौल में किंचित संभ्रमित, अविश्वासी और कठोर। दूर देहात से आया हुआ लगता है।

    कुछ सोचकर अर्दली आश्वासन देता है, ''अच्छा, इस बार तू अकेले में मिल ले।'' लेकिन जब तक अंदर के लोग बाहर आएँ, साहब ऑफ़िस-रूम से बेड-रूम में चले जाते हैं।

    ड्राइवर आकर जीप पोंछने लगता है। फिर इंजन स्टार्ट करके पानी डालता है। लड़का जीप के आगे-पीछे हो रहा है।

    थोड़ी देर में अर्दली निकलता है। साहब की मैगज़ीन, रूल, पान का डिब्बा, सिगरेट का पैकेट और माचिस लेकर। फिर निकलते हैं साहब, धूप-छाँही चश्मा लगाए। चेहरे पर आभिजात्य और गंभीरता ओढ़े हुए।

    लड़के पर नज़र पड़ते ही पूछते हैं, ''हाँ, बोलो बेटे, कैसे?''

    लड़का सहसा कुछ बोल नहीं पा रहा है। वह संभ्रम नमस्कार करता है।

    ''ठीक है, ठीक है।'' साहब जीप में बैठते हुए पूछते हैं, ''काम बोलो अपना, जल्दी, क्या चाहिए?''

    अर्दली बोलता है, ''हुज़ूर, मैंने लाख पूछा कि क्या काम है, बताता ही नहीं। कहता है, साहब से अकेले में बताना है।''

    ''अकेले में बताना है तो कल मिलना, कल।''

    जीप रेंगने लगती है। लड़का एक क्षण असमंजस में रहता है फिर जीप के बग़ल में दौड़ते हुए जेब से एक चिट्ठी निकालकर साहब की गोद में फेंक देता है।

    ''ठीक है, बाद में मिलना'', साहब एक चालू आश्वासन देते हैं। तब तक लड़का पीछे छूट जाता है। लेकिन चिट्ठी की गँवारू शक्ल उनकी उत्सुकता बढ़ा देती है। उसे आटे की लेई से चिपकाया गया है।

    चिट्ठी खोलकर वे पढ़ना शुरू करते हैं—'सरब सिरी उपमा जोग, खत लिखा लालू की माई की तरफ़ से, लालू के बप्पा को पाँव छूना पहुँचे...''

    अचानक जैसे करेंट लग जाता है उनको। लालू की माई की चिट्ठी! इतने दिनों बाद। पसीना चुहचुहा आया है उनके माथे पर। सन्न!

    बड़ी देर बाद प्रकृतिस्थ होते हैं वे। तिरछी आँखों और बैक मिरर से देखते हैं—ड्राइवर निर्विकार जीप चलाए जा रहा है। अर्दली ऊँघते हुए झूलने लगा है।

    वे फिर चिट्ठी खोलते हैं—''आगे समाचार मालूम हो कि हम लोग यहाँ पर राज़ी-ख़ुशी से हैं और आपकी राज़ी-ख़ुशी भगवान से नेक मनाया करते हैं। आगे, लालू के बप्पा को मालूम हो कि हम अपनी याद दिलाकर आपको दुखी नहीं करना चाहते, लेकिन कुछ ऐसी मुसीबत गई है कि लालू को आपके पास भेजना ज़रूरी हो गया है। लालू दस महीने का था, तब आप आख़िरी बार गाँव आए थे। उस बात को दस साल होने जा रहे हैं। इधर दो-तीन साल से आपके चाचा जी ने हम लोगों को सताना शुरू कर दिया है। किसी किसी बहाने से हमको, लालू को और कभी-कभी कमला को भी मारते-पीटते रहते हैं। जानते हैं कि आपने हम लोगों को छोड़ दिया है, इसलिए गाँव भर में कहते हैं कि 'लालू' आपका बेटा नहीं है।

    वे चाहते हैं कि हम लोग गाँव छोड़कर भाग जाएँ तो सारी खेती-बारी, घर दुवार पर उनका क़ब्ज़ा हो जाए। आज आठ दिन हुए, आपके चाचा जी हमें बड़ी मार मारे। मेरा एक दाँत टूट गया। हाथ-पाँव सूज गए हैं। कहते हैं—गाँव छोड़कर भाग जाओ, नहीं तो महतारी-बेटे का मूँड़ काट लेंगे। अपने हिस्से का महुए का पेड़ वे ज़बरदस्ती कटवा लिए हैं। कमला अब सत्तरह वर्ष की हो गई है। मैंने बहुत दौड़-धूप कर एक जगह उसकी शादी पक्की की है। अगर आपके चाचा जी मेरी झूठी बदनामी लड़के वालों तक पहुँचा देंगे तो मेरी बिटिया की शादी भी टूट जाएगी। इसलिए आप से हाथ जोड़कर विनती है कि एक बार घर आकर अपने चाचा जी को समझा दीजिए। नहीं तो लालू को एक चिट्ठी ही दे दीजिए, अपने चाचा जी के नाम। नहीं तो आपके आँख फेरने से तो हम भीगी बिलार बने ही हैं, अब यह गाँव-डीह भी छूट जाएगा।

    राम खेलावन मास्टर ने अख़बार देखकर बताया था कि अब आप इस ज़िले में हैं। इसी जगह पर लालू को भेज रही हूँ।''

    चिट्ठी पढ़कर वे लंबी साँस लेते हैं। उन्हें याद आता है कि लड़का पीछे बंगले पर छूट गया है। कहीं किसी को अपना परिचय दे दिया तो? लेकिन अब इतनी दूर गए है कि वापस लौटना उचित नहीं लग रहा है। फिर वापस चलकर सबके सामने उससे बात भी तो नहीं की जा सकती है। उन्हें प्यास लग आई है। ड्राइवर से कहते हैं, ''जीप रोकना, प्यास लगी है।'' पानी और चाय पीकर सिगरेट सुलगाया उन्होंने। तब धीरे-धीरे प्रकृतिस्थ हो रहे हैं। उनके मस्तिष्क में दस साल पुराना गाँव उभर रहा है। गाँव, जहाँ उनका प्रिय साथी था—महुए का पेड़, जो अब नहीं रहा। उसी की जड़ पर बैठकर सवेरे से शाम तक 'कंपटीशन' की तैयारी करते थे वे। गाँव जहाँ उनकी उस समय की प्रिय बेटी कमला थी। जिसके लाल-लाल नरम होंठ कितने सुंदर लगते थे। महुए के पेड़ पर बैठकर कौआ जब 'काँ-काँ!' बोलता तो ज़मीन पर बैठी नन्हीं कमला दुहराती—काँ! काँ! कौआ थक-हारकर उड़ जाता तो वह ताली पीटती थी। वह अब सयानी हो गई है। उसकी शादी होने वाली हैं एक दिन हो भी जाएगी। विदा होते समय अपने छोटे भाई का पाँव पकड़कर रोएगी। बाप का पाँव नहीं रहेगा पकड़कर रोने के लिए। भाई आश्वासन देगा कंधा पकड़कर, आफ़त-बिपत में साथ देने का। बाप की शायद कोई घुँधली-सी तस्वीर उभरे उसके दिमाग़ में।

    फिर उनके दिमाग़ में पत्नी के टूटे दाँतवाला चेहरा घूम गया। दीनता की मूर्ति, अति परिश्रम-कुपोषण और पति की निष्ठुरता से कृश, सूखा शरीर, हाथ-पाँव सूजे हुए, मार से। बहुत ग़रीबी के दिन थे, जब उनका गौना हुआ था। इंटर पास किया था उस साल। लालू की मार्इ बलिष्ठ कद-काठी की हिम्मत और जीवटवाली महिला थी, निरक्षर लेकिन आशा और आत्मविश्वास की मूर्ति। उसे देखकर उनके मन में श्रद्धा होती थी उसके प्रति। इतनी आस्था हो ज़िंदगी और परिश्रम में तो संसार की कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रह सकती। बी.ए. पास करते-करते कमला पैदा हो गई थी। उसके बाद बेरोज़गारी के वर्षो में लगातार हिम्मत बँधाती रहती थी। अपने गहने बेचकर प्रतियोगिता परीक्षा की फ़ीस और पुस्तकों की व्यवस्था की थी उसने। खेती-बारी का सारा काम अपने ज़िम्मे लेकर उन्हें परीक्षा की तैयारी के लिए मुक्त कर दिया था। रबी की सिंचार्इ के दिनों में सारे दिन बच्ची को पेड़ के नीचे लिटाकर कुएँ पर पुर हाँका करती थी। बाज़ार से हरी सब्ज़ी ख़रीदना संभव नहीं था, लेकिन छप्पर पर चढ़ी हुर्इ नेनुआ की लताओं को वह अगहन-पूस तक बाल्टी भर-भर कर सींचती रहती थी, जिससे उन्हें हरी सब्ज़ी मिलती रहे। रोज़ सबेरे ताज़ी रोटी बनाकर उन्हें खिला देती और ख़ुद बासी खाकर लड़की को लेकर खेत पर चली जाती थी। एक बकरी लार्इ थी वह अपने मायके से, जिससे उन्हें सबेरे थोड़ा दूध या चाय मिल सके। रात को सोते समय पूछती, ''अभी कितनी किताब और पढ़ना बाक़ी है, साहबीवाली नौकरी पाने के लिए।''

    वे उसके प्रश्न पर मुस्करा देते, ''कुछ कहा नहीं जा सकता। सारी किताबें पढ़ लेने के बाद भी ज़रूरी नहीं कि साहब बन ही जाएँ।''

    ऐसा मत सोचा करिए,'' वह कहती, ''मेहनत करेंगे तो भगवान उसका फल ज़रूर देंगे।''

    यह उसी के त्याग, तपस्या और आस्था का परिणाम था कि एक ही बार में उनका सेलेक्शन हो गया था। परिणाम निकला तो वे ख़ुद आश्चर्यचकित थे। घर आकर एकांत में पत्नी को गले से लगा लिया था। वाणी अवरूद्ध हो गई थी। उसको पता लगा तो वह बड़ी देर तक निस्पंद रोती रही, बेआवाज़। सिर्फ़ आँसू झरते रहे थे। पूछने पर बताया, ख़ुशी के आँसू हैं ये।

    गाँव की औरतें ताना मारती थीं कि ख़ुद ढोएगी गोबर और भतार को बनाएगी कप्तान, लेकिन अब कोई कुछ नहीं कहेगा, मेरी पत बच गई।

    वे भी रोने लगे थे उसका कंधा पकड़कर।

    जाने कितनी मनौतियाँ माने हुए थी वह। सत्यनारायण...संतोषी...शुक्रवार...विंध्याचल... सब एक-एक करके पूरा किया था। ज़रा-जीर्ण कपड़े में पुलकती घूमती उसकी छवि, जिसेकहते हैं, राजपाट पा जाने की ख़ुशी।

    सर्विस ज्वाइन करने के बाद एक-डेढ़ साल तक वे हर माह के द्वितीय शनिवार और रविवार को गाँव जाते रहे थे। पिता, पत्नी, पुत्री सबके लिए कपड़े-लत्ते तथा घर की अन्य छोटी-मोटी चीज़ें, जो अभी तक पैसे के अभाव के कारण नहीं थीं, वे एक-एक करके लाने लगे थे। पत्नी को पढ़ाने के लिए एक ट्यूटर लगा दिया था। पत्नी की देहाती ढंग से पहनी गई साड़ी और घिसे-पिटे कपड़े उनकी आँखों में चुभने लगे थे। एक-दो बार शहर ले जाकर फ़िल्म वग़ैरह दिखा लाए थे, जिसका अनुकरण कर वह अपने में आवश्यक सुधार ले आए। खड़ी बोली बोलने का अभ्यास कराया करते थे, लेकिन घर-गृहस्थी के अथाह काम और बीमार ससुर की सेवा से इतना समय वह निकाल पाती, जिससे पति की इच्छा के अनुसार अपने में परिवर्तन ला पाती। वह महसूस करती थी कि उसके गँवारपन के कारण वे अक्सर खीज उठते और कभी-कभी तो रात में कहते कि उठकर नहा लो और कपड़े बदलो, तब आकर सोओ। भूसे जैसी गंध रही है तुम्हारे शरीर से। उस समय वह कुछ बोलती। चुपचाप आदेश का पालन करती, लेकिन जब मनोनुकूल वातावरण पाती तो मुस्कराकर कहती, ''अब मैं आपके 'जोग' नहीं रह गई हूँ, कोई शहराती 'मेम' ढूँढ़िए अपने लिए।''

    ''क्यों, तुम कहाँ जाओगी?''

    ''जाउँगी कहाँ, यहाँ रहकर ससुरजी की सेवा करूँगी। आपका घर-दुवार सँभालूँगी। जब कभी आप गाँव आएँगे, आपकी सेवा करूँगी''

    ''तुमने मेरे लिए इतना दुख झेला है, तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से आज मैं धूल से आसमान पर पहुँचा हूँ, गाढ़े समय में सहारा दिया है। तुम्हें छोड़ दूँगा तो नरक में भी जगह मिलेगी मुझे?''

    लेकिन उनके अंदर उस समय भी कहीं कोई चोर छिपा बैठा था, जिसे वे पहचान नहीं पाए थे।

    जिस साल लालू पैदा हुआ, उसी साल पिता जी का देहांत हो गया। क्रिया-कर्म करके वापस गए तो मन गाँव से थोड़ा-थोड़ा उचटने लगा था। दो बच्चों की प्रसूति और कुपोषण से पत्नी का स्वास्थ्य उखड़ गया था। शहर की आबोहवा तथा साथी अधिकारियों के घर-परिवार का वातावरण हीन भावना पैदा करने लगा था। ज़िंदगी के प्रति दृष्टिकोण बदलने लगा था। गाँव कर्इ-कर्इ महीनों बाद आने लगे थे। और आने पर पत्नी जब घर की समस्याएँ बताती तो लगता, ये किसी और की समस्याएँ हैं। इनसे उन्हें कुछ लेना-देना नहीं है। वे शहर में अपने को 'अनमैरिड' बताते थे। इस समय तक उनकी जान-पहचान जिला न्यायाधीश की लड़की ममता से हो चुकी थी और उसके सान्निध्य के कारण पत्नी से जुड़ा रहा-सहा रागात्मक संबंध भी अत्यंत क्षीण हो चला था।

    तीन-चार महीने बाद फिर गाँव आए तो पत्नी ने टोका था, ''इस बार क़ाफ़ी दुबले हो गए हैं। लगता है, क़ाफ़ी काम रहता है, बहुत गुमसुम रहने लगे हैं, क्या सोचते रहते हैं?''

    वे टाल गए थे। रात में उसने कहा, ''इस बार मैं भी चलूँगी साथ में। अकेले तो आपकी देह गल जाएगी।''

    वे चौंक गए थे, ''लेकिन यहाँ की खेती-बारी, घर-दुवार कौन देखेगा? अब तो पिताजी भी नहीं रहे।''

    ''तो खेती-बारी के लिए अपना शरीर सुखाइएगा?''

    ''तुम तो फ़ालतू में चिंता करती हो,'' लेकिन वह कुछ और सुनना चाहती थी, बोली थी, ''फिर आप शादी क्यों नहीं कर लेते वहाँ किसी पढ़ी-लिखी लड़की से? मैं तो शहर में आपके साथ रहने लायक भी नहीं हूँ।''

    ''कौन सिखाता है तुम्हें इतनी बातें?''

    ''सिखाएगा कौन? यह तो सनातन से होता आया है। मैं तो आपकी सीता हूँ। जब तक बनवास में रहना पड़ा, साथ रही, लेकिन राजपाट मिल जाने के बाद तो सोने की सीता ही साथ में सो हेगी। लालू के बाबू, सीता को तो आगे भी बनवास ही लिखा रहता है।''

    ''चुपचाप सो जाओ।'' उन्होंने कहा, लेकिन सोई नहीं वह। बड़ी देर तक छाती पर सिर रखकर पड़ी रही फिर बोली, ''एक गीत सुनाऊँगी आपको। मेरी माँ कभी-कभी गाया करती थी।'' फिर बड़े करूण स्वर में गाती रही थी वह, जिसकी एकाध पंक्ति ही अब उन्हें याद है—'' सौतनिया संग रास रचावत, मों संग रास भुलान, यह बतिया कोऊ कहत बटोही, लगत करेजवा में बान, सँवरिया भूले हमें...''

    वे अंदर से हिल गए और उसे दिलासा देते रहे कि वह भ्रम में पड़ गई है, पर वह तो जैसे भविष्यद्रष्टा थी। आगत, जो अभी उनके सामने भी बहुत स्पष्ट नहीं था, उसने साफ़ देख लिया था। उनके सीने में उसने कहीं 'ममता' की गंध पा ली थी।

    उस बार गाँव से आए तो फिर पाँच-छह महीने तक वापस जाने का मौक़ा नहीं लग पाया। इसी बीच ममता से उनका विवाह हो गया। शादी के दूसरे तीसरे महीने गाँव से पत्नी का पत्र आया कि कमला को चेचक निकल आई है। लालू भी बहुत बीमार है। मौक़ा निकालकर चले आइए। लेकिन गाँव वे पत्र मिलने के महीने भर बाद ही जा सके। कोई बहाना ही समझ में नहीं रहा था, जो ममता से किया जा सकता। दोनों बच्चे तब तक ठीक हो चुके थे, लेकिन उनके पहुँचने के साथ ही उसकी आँखें झरने-सी झरनी शुरू हो गई थीं। कुछ बोली नहीं थी। रात में फिर वही गीत बड़ी देर तक गाती रही थी। उनका हाथ पकड़कर कहा था, ''लगता है, आप मेरे हाथों से फिसले जा रहे हैं और मैं आपको सँभाल नहीं पा रही हूँ।'' वे इस बार कोई आश्वासन नहीं दे पाए थे। उसका रोना-धोना उन्हें क़ाफ़ी अन्यमनस्क बना रहा था। वे उकताए हुए से थे। अगले ही दिन वे वापस जाने को तैयार हो गए थे। घर से निकलने लगे तो वह आधे घंटे तक पाँव पकड़कर रोती रही थी। फिर लड़की को पैरों पर झुकाया था, नन्हें लालू को पैरों पर लिटा दिया था। जैसे सब कुछ लुट गया हो, ऐसी लग रही थी वह, दीन-हीन-मलिन।

    वे जान छुड़ाकर बाहर निकल आए थे। वही उनका अंतिम मिलन था। तब से दस साल के क़रीब होने को आए, वे कभी गाँव गए, ही कोई चिट्टी-पत्री लिखी।

    हाँ, क़रीब साल भर बाद पत्नी की चिट्ठी ज़रूर आई थी। जाने कैसे उसे पता लग गया था, लिखा था—कमला नई अम्मा के बारे में पूछती है। कभी ले आइए उनको गाँव। दिखा-बता जाइए कि गाँव में भी उनकी खेती-बारी, घर-दुवार है। लालू अब दौड़ लेता है। तेवारी बाबा उसका हाथ देखकर बता रहे थे कि लड़का भी बाप की तरह तोता-चश्म होगा। जैसे तोते को पालिए-पोसिए, खिलाइए-पिलाइए, लेकिन मौक़ा पाते ही उड़ जाता है। पोस नहीं मानता। वैसे ही यह भी...तो मैंने कहा, 'बाबा, तोता पंछी होता है, फिर भी अपनी आन नहीं छोड़ता, ज़रूर उड़ जाता है, तो आदमी होकर भला कोई कैसे अपनी आन छोड़ दे? पोसना कैसे छोड़ दे? मैं तो इसे इसके बापू से भी बड़ा साहब बनाऊँगी...'

    उन्होंने पत्र का कोई उत्तर नहीं भेजा था। हाँ, वह पत्र ममता के हाथों में ज़रूर पड़ गया था, जिसके कारण महीनों घर में रोना-धोना और तनाव व्याप्त रहा था।...और क़रीब नौ साल बाद आज यह दूसरा पत्र है।

    पत्र उनके हाथों में बड़ी देर तक काँपता रहा और फिर उसे उन्होंने जेब में रख लिया। मन में सवाल उठने लगे—क्या मिला उसको उन्हें आगे बढ़ाकर? वे बेरोज़गार रहते, गाँव में खेती-बारी करते। वह कंधे से कंधा भिड़ाकर खेत में मेहनत करती। रात में दोनों सुख की नींद सोते। तीनों लोकों का सुख उसकी मुट्ठी में रहता। छोटे से संसार में आत्मतुष्ट हो जीवन काट देती। उन्हें आगे बढ़ाकर वह पीछे छूट गई। माथे का सिंदूर और हाथ की चूड़ियाँ निरंतर दुख दे रही हैं उसे।

    सारे दिन किसी कार्यक्रम में उनका मन नहीं लगता।

    शाम को जीप वापस लौट रही है। उनके मस्तिष्क में लड़के का चेहरा उभर आया है—जैसे मरूभूमि में खड़ा हुआ अशेष जिजीविषा वाला बबूल का कोई शिशु झाड़, जिसे कोई झंझावात डिगा नहीं सकता। कोई तपिश सुखा नहीं सकती। उपेक्षा की धूप में जो हरा-भरा रह लेगा, अनुग्रह की बाढ़ में जो गल जाएगा।

    जीप गेट के अंदर मुड़ती है तो गेट से सटे चबूतरे पर लड़का औंधा लेटा दिखाई देता है। मच्छरों से बचने के लिए उसने अँगौछे से सारा शरीर ढँक लिया है। जीप आगे बढ़ जाती है।

    अंदर उनकी चार साल की बेटी टी.वी. देख रही है। आहट पाकर दौड़ी आती है और पैरों से लिपट जाती है। फिर महत्त्वपूर्ण सूचना देती है तर्जनी उठाकर, ''पापा, पापा, बदमाश लड़का, बरामदे तक घुस आया था। मम्मी पूछती, तो बोलता नहीं था। भगाती तो भागता नहीं था। मैंने अपनी खिलौना मोटर फेंककर मारा, उसका माथा कटने से ख़ून बहकर मुँह में जाने लगा तो थू-थू करता हुआ भागा। और पापा, वह ज़रूर बदमाश था। ज़रा भी नहीं रोया। बस, घूर रहा था। बाहर चपरासियों के लड़के मार रहे थे, लेकिन मम्मी ने मना करवा दिया।''

    वाश-बेसिन की तरफ़ बढ़ते हुए वे ममता से पूछते हैं, ''कौन था?''

    ''शायद आपके गाँव से आया है। भेंट नहीं हुई क्या?''

    ''मैं तो अभी चला रहा हूँ, कहाँ गया?''

    ''नाम नहीं बताता था, काम नहीं बताता था, कहता था, सिर्फ़ साहब को बताऊँगा। फिर लड़के तंग करने लगे तो बाहर चला गया।''

    ''कुछ खाना-पीना?''

    ''पहले यह बताइए, वह है कौन?'' एकाएक ममता का स्वर कर्कश और तेज़ हो गया, ''उस चुड़ैल की औलाद तो नहीं, जिसे आप गाँव का राज-पाट दे आए हैं? ऐसा हुआ तो ख़बरदार, जो उसे गेट के अंदर भी लाए, ख़ून पी जाऊँगी।''

    वे चुपचाप ड्राइंगरूम में आकर सोफ़े पर निढाल पड़ गए हैं। चक्कर आने लगा है। शायद रक्तचाप बढ़ गया है।

    बाहर फागुनी जाड़ा बढ़ता जा रहा है।

    सवेरे उठकर वे देखते हैं चबूतरे पर 'गाँव' नहीं है।

    वे चैन की साँस लेते हैं।