जुगनू की तबीअत इन दिनों कुछ नासाज़ सी है। पर काम नहीं करेगी तो चलेगा कैसे? इस बीच नियमित ग्राहकों के अलावा एक झोले वाला आदमी भी उसके पास आने लगा है। वह आदमी है मदनलाल। इस बीच बीमारी बढ़ती है, पर कुछ समय बाद मजबूरी जुगनू को दुबारा इस पेशे में आने के लिए मजबूर कर देती है। वह अपने भविष्य को लेकर बेहद चिंतित है और मदनलाल के प्रति जन्मे नए लगाव को लेकर भी उसके मन में उथल-पुथल चल रही है।
जाँच करने बाली डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि उसे कोई पोशीदा मर्ज़ नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं। उसने एक पर्चा भी लिख दिया था। खाने को गिज़ा बताई थी।
कमेटी पहले ही पेशे पर रोक लगा चुकी थी। सब परेशान थीं। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या होगा? डॉक्टरी जाँच में बहुतों का पेशा और पहले ही ठप्प हो चुका था।
इब्राहीम ठेकेदार ने जो चुनी थीं, वे सब ‘पास’ हो गई थीं। उनके नख़रे बहुत बढ़ गए थे। वे बड़े ग़रूर से अपने ख़ानदानों की चर्चा करती थीं।
इब्राहीम ने चुस्त-दुरुस्त लड़कियों को छाँट लिया था। धीरे-धीरे वे शहर के अच्छे हिस्सों में जा बसी थीं। इब्राहीम उनकी देखभाल करता था और जिस ठेके से जितनी ले गया था, उनका पैसा महीने-के-महीने चुकता कर जाता था।
एक बार जब जुगनू ज़्यादा परेशान थी, तो उसने भी इब्राहीम से कहा था कि किसी ठौर-ठिकाने पर बैठा दे, पर इब्राहीम ने दो-टूक जवाब दे दिया था, ‘शादी तो है नहीं कि किसी की आँख में धूल झोंककर गले मढ़ दूँ! जो आएगा, वह तो बोटी-बोटी देखेगा।’ और वह क़तराकर चला गया था।
उस दिन उसके दिल पर पहली चोट लगी थी—अब वह इस लायक़ भी नहीं रही? दूसरी चोट तब लगी थी, जब साथ के बारजे से शहनाज़ ने हाथ मटकाते हुए गाली दी थी, ‘अरे, अल्ला तुझे वह दिन भी दिखाएगा जब गाहक तेरी सीढ़ियों पर क़दम तक नहीं रखेगा।’
शहनाज़ की इस बात पर मुहल्ले में बड़ा बावेला मचा था। यह गाली तो बुरी-से-बुरी को नहीं दी जाती…सबके गाहक जीते-जागते रहें। ख़ुदा मर्दों को रोज़ी दे…जाँघ में ज़ोर दे!
और उसी दिन पहली बार झिझकता हुआ वह आया था। फत्ते उसे लाया था। उसके हाथ में बड़ा-सा थैला था। ख़ाकी पैंट और नीली क़मीज़ पहने था। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। कानों के रोओं और भौंहों पर धूल की हलकी परत थी। कमरे में जाकर जुगनू खाट पर ख़ुद बैठ गई थी, तो वह अचकचाया-सा खड़ा रह गया था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि थैला कहाँ रख दे। तभी जुगनू ने बड़ी आसानी से थैला लेकर सिरहाने रख दिया था। वह चुपचाप खाट पर बैठ गया था। कुछ क्षणों की ख़ामोशी के बाद जुगनू ने कहा था, ‘जूते उतार लो…।’ उसने किरमिच के जूते उतारे थे तो बदबू का एक भभका उठा था…कुछ-कुछ वैसा ही जैसा कि बहुतों के कपड़े उतारने पर उठा करता था…ख़ास तौर से उस मनसू किरानी के पास से फूटता था, जो रात के ग्यारह बजे के बाद ही आया करता था और निबट चुकने के बाद कमर में दर्द की वजह से शिला की तरह बैठा रह जाता था। तब जुगनू ही उसे उठाती थी और वह जाँघें खुजलाता हुआ चला जाता था। या फिर कंवरजीत होटल वाले की तरह, जो बदबू तो देता ही था और उठने से पहले खाट पर बैठा हुआ ‘ओं…ओं’ करके डकारें लेता था।
बह भभक उससे बर्दाश्त नहीं हुई तो बोली, ‘जूते पहन लो!’
वह जूते पहनकर फिर बैठ गया था। तब उसे बड़ी कोफ़्त हुई थी। एक मिनट वह उसे घूरती रही थी, फिर चिढ़कर बोली थी, ‘यह घर की बैठक नहीं है…फ़ारिग़ होके अपना रास्ता नापो!’ उसने अपमानित महसूस किया था और अपने को संभालने के बाद अचकचाकर बोला था, ‘तुम्हारा नाम क्या है?’
‘जुगनू!’ वह बोली थी।
‘कहाँ की हो?’
‘तुम अपना काम करो…।’ वह फिर चिढ़ गई थी।
और तब उसने उसकी तरह ही पूछा था, ‘तुम्हें यह पेशा पसंद है?’
‘हाँ!…तुम्हें नहीं है?’ कहते हुए वह लेट गई थी। उसने साड़ी जाँघों तक खिसका ली थी। वह भी लेट गया था और उसने ब्लाउज़ के भीतर हाथ डालने की झिझकभरी कोशिश की थी।
‘परेशान न करो तो अच्छा है…’ वह बोली थी, ‘क्यों खोलते हो…?’
उसके लिए कुछ भी कर सकना मुमकिन नहीं रह गया था। जुगनू के चेहरे पर सस्ते पाउडर की परत थी…गर्दन में पाउडर ककी डोरियाँ-सी बन गई थीं। होंठों पर ख़ून सूखकर चिपक गया था। कानों के टॉप्स मेंढक की आँखों की तरह उभरे हुए थे। बाल तेल से भीगे थे। तकिया निहायत गंदा था और चादर कुचले हुए चमेली के फूल की तरह मैली थी।
संकरी कोठरी में अजीब-सी बदबू भरी हुई थी। एक कोने में पानी का घड़ा रखा था और तामचीनी का एक डिब्बा। कोने में ही कुछ चिथड़े भी पड़े थे।
वह पड़ा-पड़ा इधर-उधर देखता रहा। जुगनू के सिरहाने ही छोटी-सी अलमारी थी। उसका पत्थर तेल के चिकने चकत्तों से भरा हुआ था। वह टूटा हुआ कंघा, सस्ती नेलपॉलिस की शीशी और जूड़े के कुछ पिन उसमें पड़े थे। अलमारी की दीवार पर पेंसिल से कुछ नाम और पते लिखे हुए थे। सिनेमा के गीतों की कुछ किताबें एक कोने में रखी थीं, उन्हीं के पास मरे साँपों की तरह चुटीले पड़े थे। देखते-देखते उसके मन में गिजगिजाहट भर गई थी। आसरे के लिए उसने जुगनू की जाँघ पर हाथ रख लिया था। जाँघ बासी मछली की तरह पुली-पुली और खद्दर की तरह खुरदरी थी। जुगनू के खुले हुए आधे तन से मावे की महक आ रही थी। उसने हाथ हटाया तो जाँघों के नीचे चादर पर आ गया था। उसे लगा जैसे चादर भीगी हुई हो…
‘यही कमाई का वक़्त होता है…इतने में तो चार ख़ुश हो गए होते!’ जुगनू ने कहा और दोनों बाँहों में कसकर उसे भींच लिया था।
और जब वह उठकर बैठा तो जुगनू ने मज़ाक़-मज़ाक़ में उसका थैला खोल लिया था, ‘बहुत रुपया भरकर चलते हो!’ उसे लगा कि शायद वह मज़ाक़ में एकाध रुपया और हथियाना चाहती है। तब उसने जुगनू को पहली बार ग़ौर से देखा था और चुपचाप चला गया था।
जब भी जुगनू बाज़ार से निकलती, तो सिर पर पल्ला डालकर। वह इतनी छिछोरी भी नहीं थी कि कोई फ़बती कसता। सब उसे ऐसे देखते थे, जैसे उस पर उनका समान अधिकार हो। वह रास्ता चलते कनखियों से उन लोगों को ज़रूर देख लेती थी, जिन्हें वह अच्छी तरह पहचानती थी और जो उसके मर्दों की तरह उसके पास आते-जाते थे। तभी एक दिन वह दिखाई पड़ा था—वही थैलेवाला आदमी। एक इमारत की पहली मंज़िल के बारजे पर कोहनियाँ टेके वह बीड़ी पी रहा था। वही क़मीज़ पहने था। इमारत पर लाल झंडा लगा हुआ था, जिसकी छाया उसके कंधों पर काँप रही थी।
टूटी हुई चप्पल जुड़वाने के लिए वह वहीं रुक गई थी। वह शायद भीतर चला गया था।
रात को वह आया था। उसको आँखों में पहचान थी। इस बार वह सकुचा नहीं रहा था। खाट पर बैठे-बैठे जुगनू ने उससे पूछा था, ‘तुम क्या काम करते हो?’
‘कुछ नहीं!’ वह बोला था, ‘मज़दूरों में काम करता हूँ…’
‘हमारा भी कुछ काम कर दिया करो…हम भी मज़दूर हैं!’ जुगनू ने मज़ाक़ किया था।
‘तुम्हें देर तो नहीं हो रही है!’ उसने कहा था
‘आज तबीअत ठीक नहीं है।’ जुगनू अलसाते हुए बोली थी।
‘क्या हुआ?’
‘कमर बहुत दुःख रही है। सारे बदन में हड़फूटन है…जुगनू बोली थी, ‘पता नहीं क्या हो गया है…तारा को बुला दूँ?…बहुत शराफ़त से पेश आएगी…समझदार औरत है…’
उसने मना कर दिया था। कुछेक मिनट बैठकर वह चलने लगा था, तो सिर्फ़ इतना ही बोला था, ‘मैं ऐसे ही चला आया था।’ और वह चुपचाप अँधेरी सीढ़ियों में उतर गया था। जुगनू ख़ामोशी से आकर खिड़की पर खड़ी हो गई थी। उसे लगा था कि वह किसी और ज़ीने में चढ़ जाएगा। गली में ज़्यादा आमद-ओ-रफ़्त नहीं थी। थोड़ी-थोड़ी दूर पर आदमियों के तीन-चार गोल खड़े हुए थे। उनमें से फूटकर कभी-कभी कोई किसी ज़ीने में चढ़ जाता था। नानबाई की चिमनी में से धुआँ निकल रहा था…वह उसे देखती रही थी। वह कहीं रुका नहीं। धीरे-धीरे गली पारकर सड़क की तरफ़ मुड़ गया था—उसी सड़क पर, जिस पर वह इमारत थी, जिसमें वह रहता था।
जुगनू को उसका यूँ लौट जाना बहुत अच्छा लगा था। हल्की-सी ख़ुशी हुई थी। कोठरी के पलंग पर आकर वह लेट रही थी।
कोठरी में बहुत सीलन थी और घुटी-घुटी-सी बदबू। दरवाज़ा उसने बंद कर लिया था और सिनेमा के गीतों की किताब उठाकर मन ही मन पढ़ती रही थी।
तभी किवाड़ों पर दस्तक हुई थी और अम्मा की आवाज़ आई थी, ‘जुगनू बेटे! मुआ बेहोश तो नहीं हो गया!’
‘यहाँ कोई नहीं है, अम्मा!’
‘तो बारजे पर निकल आ, बेटे…बड़ी अच्छी हवा चल रही है…गली में रौनक़ भी है…’ कहते हुए अम्मा ने दरवाज़ा खोल दिया था, ‘तबीअत तो ठीक है!’
‘कुछ गड़बड़ है, अम्मा!’
‘तो एक गिलास दूध पी ले, बेटा…अभी तो वक़्त है, कोई आ ही गया तो…’
और वह उठ आई थी। उसकी गर्दन पर उल्टा हाथ रखते हुए अम्मा ने बुख़ार देखा था और कमर के ऊपर पीठ के मांस की लौटती सलवटें देखकर बोली थी, ‘सेहत का ख़याल छोड़ दिया है तूने…कमर पर कितनी मोटी पर्तें गिरने लगी हैं…थोड़ी-सी वर्ज़िश कर लिया कर…’ कहती हुई वह दूसरी कोठरी की ओर चली गई थी। दूसरी कोठरी से कुछ तेज़-तेज़ आवाज़ें आ रही थीं। और अम्मा बड़बड़ाती हुई भीतर चली गई थी, ‘यह चुडैल बिना लड़े लगाम नहीं डालने देती…किसी दिन इस कोठरी में क़तल होगा…!’
यह रोज़ की बात थी…बिलकीस को अम्मा यूँ ही कोसती थी। ख़ुद बिलकीस का कहना था कि उसके पास से कोई बिना अपनी कमर पकड़े वापस नहीं जा सकता। बिलकीस को इसमें मज़ा भी आता था। आदमी को छोड़ते ही वह दरवाज़े पर आकर खड़ी हो जाती थी और उसे हारकर जाते हुए देखकर तालियाँ चटकाकर बड़ी ऊँची हँसी में हँसती थी, ‘अरी, ओ मरी ज़ुबेदा! ज़री देख…रुस्तम जारिया है! बड़ा आया था पैलवान का बच्चा! ये मरदुआ सोएगा औरत के साथ!’
एक दिन आदमी बिगड़ गया था, ‘क्या बक रही है?’
‘अरे, जा-जा भिश्ती की औलाद…ले, ये चवन्नी ले जा, छटाँक-भर मलाई खा लीजे…’
और वह आदमी बहुत अपमानित-सा सीढ़ियाँ उतर गया था। पूरे कोठे में बिलकीस को लेकर दहशत छाई रहती थी। पता नहीं कब झगड़ा हो जाए! और वह हाथ नचा-नचा कर बड़े फ़ख़्र से हमेशा कहा करती थी, ‘अपने तो बरम्मचारी की औरत हैं…’
जुगनू को देखकर बिलकीस हमेशा ताना देती थी, ‘तू तो किसी घर बैठ जा…’ पर जुगनू किसी से लड़ी नहीं। वह जानती थी कि बिलकीस बहुत मुँहफट है। अम्मा तक को नहीं धर गाँठती। और अम्मा थी कि सबके तन-बदन का ख़याल रखती थी। बदन चुस्त दरुस्त रखने के लिए वह हमेशा चीख़ती ही रहती थी। ‘भैंस की तरह फैलती ही जा रही है। साटन की पेटीकोट पहना कर। आलू खाना बंन् कर कलमुँही!’
पेट पर ढलान आते ही वह ज़ुबेदा के लिए भीतर बक्से में से पेटी निकाल लाई थी, ‘दिन में इसे बाँधा कर! चाय पीना कम कर…’ और उसने जीन की हर नाप की अंगियाँ लाकर रख दी थीं। उसे बस एक ही फ़िक्र रहती थी, ‘मेरा बस चले तो उमर रोक दूँ तुम लोगों के लिए…’
दुपहर में अम्मा बड़े प्यार से कभी किसी के बाल साफ़ करने बैठ जाती, कभी शाम के लिए साड़ियों पर इस्त्री करती और बसंत के दिन तो वह सबके लिए बसंती जोड़ा रंगती थी। फत्ते के लिए रूमाल रँगना भी न भूलती। ईद-बक़रीद, होली-दीवाली बड़े हौसले से मनाती और कभी-कभी कमला की याद करके डबडबाई आँखों से कहती, ‘उस जैसी लड़की तो हज़ार कोखें नहीं जनम पाएँगी…ख़ुदा ने क्या ख़ूबसूरती बख़्शी थी, हाथ लगाते मैली होती थी…उसे तो पैसों वालों का डाह खा गया। ज़हर दे दिया कुत्तों ने…बहुत छटपटाई थी बेचारी। हाय, मैं अस्पताल तक न ले जा पाई…।’
…जुगनू बारजे में आकर बैठ गई थी। आते-जातों को देख रही थी। भीड़ धीरे-धीरे हलकी हो रही थो। फूल-गजरेवाले उठकर जा रहे थे और उसने देखा था—रोज़ की तरह मन्नन माली ने जाते हुए एक गजरा कलावती की खिड़की में फेंका था और कलावती ने रोज़ की तरह मुस्कुराकर गालियाँ दी थीं। बन्ने कलईवाला धुला हुआ तहमद और जालीदार बनियान पहने आया था और सीधे शहनाज़ के कोठे पर चढ़ गया था।
शंकर पनवाड़ी के सामने चबूतरे पर नीम-पागल चुन्नीलाल ने अपना बोरा बिछा दिया था और तामचीनी के मग्गे में चाय पीते हुए बड़बड़ा रहा था, ‘अरे ज़ालिम, उसी दिन हाथ क़लम करवा ले जिस दिन ग़लत सुर निकल जाए! अरे ज़ालिम…यहीं उतरकर आएगी…इसी बोरे पर सुहागरात होगी…ज़ालिम!’
और तभी एक क्षण के लिए गली के मोड़ पर जुगनू को उसी नीली क़मीज़ वाले का शक हुआ था। शायद वह फिर लौटकर आया है और चुपके से कहीं चढ़ जाएगा। पर वह उसका भ्रम था। वह नहीं था, कोई और आदमी था।
फिर बहुत दिन बाद वह लौटा था। और जुगनू की कोठरी में आते ही घर की तरह खाट पर पसर गया था। लेकिन जूते उतारने की फिर भी उसकी हिम्मत नहीं हुई थी।
‘तुम अपना नाम तो बता दो?’ जुगनू ने बग़ल में लेटते हुए पूछा था।
‘मदनलाल…क्यों?’
‘ऐसा ही…यहाँ नहीं थे?’
‘जेल में था…गिरफ़्तारियाँ हो गई थीं, उसी में चला गया था…’
‘हड़ताल चल रही थी न…मालिकों ने बंद करवा दिया था। बड़ी मुश्किल से रिहाई हुई…’
‘इस हड़ताल-वड़ताल से कुछ होता भी है? काहे को की थी?’
‘बग़ैर नोटिस छँटनी हुई थी…तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। और भी बहुत-से मसले थे…जूते उतार लूँ?’ मदनलाल ने बहुत सकुचाते हुए कहा था।
‘उतार लो।’
और किरमिच के जूतों और पसीने से सने हुए पैरों से जो भभक निकली थी, उससे जुगनू को कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई थी, धीरे-धीरे जैसे बू ही उसके चारों ओर समा गई थी…और फिर उसके बदन में भर गई थी।
मदनलाल तो चला गया था, पर उसकी वह गंध रह गई थी। और उन्हीं दिनों सब पेशेवालियों को डॉक्टरी जाँच के लिए हाज़िर होना पड़ा था और डॉक्टरनी ने इतना ही कहा था कि कोई पेशोदा मर्ज़ नहीं है, पर तपेदिक के आसार ज़रूर हैं…
देखते-देखते उसकी खाँसी बढ़ गई थी। बुख़ार रहने लगा था। अम्मा अस्पताल ले जाकर दिखा आई थी पर रोग थमने में नहीं आ रहा था। धीरे-धीरे वह काम के लायक़ नहीं रह गई थी। एक दिन ख़ून थूका था तो बिलकीस ने आसमान सिर पर उठा लिया था, ‘अरे, इसे डलवाओ कहीं बाहर! हमें मरना है?’ तो अम्मा ने उसे डाँटा था, पर भीतर से वह भी बदल गई थी। तरह-तरह से उसने जुगनू को समझाया था कि वह अपनी सेहत की ख़ातिर कहीं और चली जाए। ज़रूरत के लिए सौ-पचास रुपए भी ले जाए, इस तरह लापरवाही न करे…
पर जुगनू की समझ में नहीं आता था कि वह कहाँ चली जाए। पैसा भी पास नहीं था और सौ-दो-सौ से कितने दिन कट सकते थे। आख़िर हारकर वह तपेदिक अस्पताल में भरती हो गई थी। धीरे-धीरे अम्मा का दिया और अपने पास का सारा रुपया ख़त्म हो गया था। चार महीने लगातार उसे सेनेटोरियम में रहना पड़ा था। उसके बाद भी छुट्टी नहीं मिली थी। हाँ, कहीं थोड़ी-बहुत देर के लिए आने-जाने पर रोक नहीं थी। वहाँ से निकलकर वह दो-चार बार अम्मा के पास आई थी तो अम्मा ने कहा था, ‘किसी को बताना मत बेटे कि कहाँ थी…मैंने तो यही कहा है कि रामपुर चली गई है अपनी बहन के पास, कुछ दिनों में वापस आ जाएगी…पर मुआ दारोग़ा बहुत परेशान करता था...उसे शक है कि यहीं-कहीं बैठने लगी है…’
अम्मा की आँखों में अपनापन पाकर उसे बड़ा सहारा-सा मिला था। और अम्मा उसकी हालत देख-देखकर दुखी होती रही थी। सचमुच जुगनू का बदन झुलस-सा गया था…बाल बहुत-झीने हो गए थे और चेहरे की सुर्ख़ी ग़ायब हो गई थी।
जुगनू जब भी शीशे में अपने को देखती, तो घबरा उठती थी। अब क्या होगा? कैसे बीतेगी यह पहाड़-सी बीमार ज़िंदगी! सहारा…कोई और सहारा भी तो नहीं, कोई हुनर भी नहीं…
पेशे पर रोक लग जाने के बावजूद कई नई लड़कियाँ लखनऊ-बनारस से आ गई थीं और उन्होंने बाज़ार बिगाड़ रखा था। सुना था, शहनाज़ की हालत भी ख़राब हो गई थी और कलावती भूखों मरने की हालत में पहुँच गई थी।
यह सब सुन-जानकर जुगनू का दिल घबराने लगा था।
चलने से पहले उसने अम्मा से कुछ रुपए माँगे थे, तो वह अपना रोना रोने लगी और तंगहाली का बयान करने लगी थी। उसकी हालत भी ख़स्ता थी।
और वहाँ से सेनेटोरियम लौटते हुए उसने उन सबकी ओर आसरे से भरी नज़रें डाली थीं, जिन्हें वह जानती थी, जो उफनती जवानी के दिनों में उसके पास आते-जाते रहे थे।
मनसू किरानी को दुकान पर बैठा देखकर जुगनू के मन में नफ़रत-सी भर आई थी…उसका कमर पकड़ बैठ जाना और फिर जाँघें खुजलाते हुए कोठरी से जैसे-तैसे जाना…
कंवरजीत होटलवाला मैला पाजामा पहने नोट गिन रहा था—उठने से पहले हमेशा ‘ओं…ओं…’ की डकारें लेता था, तो जुगनू का मन मिचलाने लगता था…
जुगनू ने औरों को भी देखा था…जिनसे थोड़ी-बहुत भी मेल-मुलाक़ात रही थी।
सेनेटोरियम में और बहुत दिन रुकना नहीं हुआ। आख़िर आना तो था ही। पर वह सभी की शुक्रगुज़ार थी कि उन्होंने मुसीबत और तक़लीफ़ के दिनों में आँखें नहीं पलटी थीं।
और जो कुछ उसने जिससे लिया था, उसे नुस्ख़े के पीछे ही नोट कर लिया था। इतने दिनों में काफ़ी क़र्ज़ा चढ़ गया था। कंवरजीत होटल वाले ने बड़ा एहसान जताकर सैंतालिस रुपए दिए थे। मनसू ने उतना एहसान तो नहीं जताया था, पर रुपए जल्दी-से-जल्दी लौटा देने की बात ले ली थी-सैंतालीस रुपए से जैसे उसका कारबार ठप्प हुआ जा रहा था।
संतराम फ़िटर ने बीस दिए थे और चलते-चलते बड़ा गंदा मज़ाक़ किया था, ‘सूद में एक रात…ठीक है न…’ पर उस गंदे मज़ाक़ से उसे लगा था कि आदमी की आँख अभी उस पर टिकती है। बदन गया-बीता नहीं हुआ है, जितना शायद वह समझ रही थी।
तंगी के उन दिनों में उसने एक रोज़ मदनलाल से मिलकर भी तीस रुपए ले लिए थे। उसने बस यही कहा था, ‘ये चंदे के रुपए हैं, जल्दी दे दोगी तो ठीक रहेगा, मेरे पास भी इतना नहीं होता कि भर सकूँ!’ पर उस बात में निहायत बेचारगी थी। बहुत मजबूरी में उसने कहा था और साथ ही यह भी कहा था कि उसे जुगनू ग़लत न समझे…उसकी उतनी औक़ात नहीं। और वह बिना कुछ और बोले पार्टी के दफ़्तर में चला गया था।
ज़रूरत की वजह से दिल पर पत्थर रखकर जुगनू ने रुपए ले लिए थे, पर तक़लीफ़ भी हुई थी।
और अब, जब से वह सेनेटोरियम से लौटी थी, तो पुलिसवाले अलग परेशान कर रहे थे। सात महीने का पैसा उन्हें नहीं मिला था। इस कोठे पर उन्होंने सबसे अलग-अलग रक़म बाँध रखी थी।
लौटकर आने के बाद वह भीतर-ही-भीतर बड़ी कमज़ोरी-सी महसूस करती थी। बदन अब उतना झेल नहीं पाता था। कोई ज़्यादा छेड़ता-छाड़ता तो हलकी खाँसी आने लगती थी…और पाँच-पाँच, सात-सात मिनट के भीतर ही दम फूलने लगता…और लोग थे कि सीने पर ही सारा वज़न रख देते थे…
रह-रहकर अब वैसी ही उलझन होती थी जैसी कि शुरू-शुरू में हुआ करती थी और उसे लगता था कि उसने यह सब जैसे अब पहली बार ही शुरू किया हो।
बालों की एक पुरानी चोटी वह सात रुपए में कलावती से ख़रीद लाई थी और छातियों पर भी कप्स लगाने लगी थी। हर बार उन्हें निकालने और लगाने में बड़ी उलझन भी होती थी। कलफ़-लगी धोतियाँ पहनने से उसे हमेशा चिढ़ रही थी, पर अब कलफ़ लगी ही पहनती थी। बदन गुदाज़ लगता था।
इतना सब करने के बावजूद आमदनी काफ़ी नहीं थी, कोई-कोई रात तो ख़ाली ही चली जाती थी। और अपनी कोठरी में अकेले लेटे हुए वह बहुत घबराती थी…यह पहाड़-सी ज़िंदगी…दिन-दिन टूटता हुआ शरीर…!’
नपुंसक लोगों से उसे बेहद परेशानी होती थी। वे हद से ज़्यादा परेशान करते थे…बोटी-बोटी टटोलते रहते थे और जोश आने के इंतज़ार में बहुत सताते थे। चट-औचट हाथ डालते थे और तरह-तरह की गंदी फ़रमाइशें करते थे।
इससे अच्छे तो वे थे, भरी बंदूक़ की तरह आते थे…और अपना काम करके चलते बनते थे। न बकवास करते, न ज़्यादा सताते थे। पर आमदनी इतनी भी नहीं थी कि गुज़ारा हो जाए। क़र्ज़ा उतरने में नहीं आता था।
नुस्ख़े के पीछे सबके रुपए नोट कर रखे थे…पर उन्हें चुकाने लायक़ पैसा कभी हाथ में नहीं आता था।
आख़िर और कोई तरीक़ा नहीं रह गया था। जाँघ के जोड़ पर निकला फोड़ा दिखाने के लिए जुगनू जब जर्राह के पास जा रही थी, तो रास्ते में मनसू ने टोक दिया था, ‘बहुत दिन हो गए…अब तो धंधा भी चल रहा है!’
चलते-चलते वे एक तरफ़ को आ गए थे। तब बहुत मजबूरी में उसने मनसू से कहा था, ‘एक पैसा नहीं बचता, क्या करूँ…तुमने तो आना जाना भी छोड़ दिया है…’
‘हमने तो गंगाजली उठा ली है…रंडीबाज़ी नहीं करेंगे। तुलसी की कंठी पहन ली है, यह देखो!’ मनसू बोला तो जुगनू को हलकी-सी हँसी आ गई थी और वह आँखें फाड़े देखता रह गया था।
जाँघ के जोड़ पर निकले फोड़े के कारण चलने में जुगनू को काफ़ी तक़लीफ़ हो रही थी। वह टाँगें फैला-फैलाकर चल रही थी…मनसू का मन डोल रहा था। गली के मोड़ पर आकर मनसू ने धीरे-से कहा था, ‘तो फिर…बताया नहीं तुमने…कब तक इंतिज़ार करोगी?’
‘क़ुव्वत हो तो वसूल कर ले जाओ!’ जुगनू ने अपनी मजबूरी को पीते हुए बनावटी शोख़ी से कहा था और गली में मुड़ गई थी। अपनी ही बात पर उसे बड़ी शर्म आई थी…फिर लगा था कि ठीक ही तो कहा उसने…ख़ामख़्वाह की इज़्ज़त का क्या मतलब? और फिर किसी का क़र्ज़ा लेकर क्यों मरे? जो उतर जाए सो अच्छा ही है।
जर्राह ने बताया था कि अभी फोड़ा पकने में दिन लगेंगे। बाँधने के लिए पूल्टिस दे दी थी। जब वह लौटी तो दुपहर हो रही थी। सब अपने-अपने चबूतरों पर बैठी मिसकौट कर रही थीं। यही वक़्त होता है, जब सब जागकर उठ जाती हैं और शाम की तैयारी से पहले मिल-बैठ लेती हैं। गली में से कच्ची उमर के लौंडों का गोल गुज़र रहा था। वे गंदे इशारे कर-कर के औरतों को चिढ़ा रहे थे और बापों को दी जानेवाली गालियों का मज़ा ले रहे थे। आवारा लौंडे रोज़ गुज़रते थे…और उनका रोज़ का यही शग़ल था। ढलती उमर की औरतें गंदे इशारे देख-देखकर उनके बापों को गालियाँ देती थीं और जवान औरतें मुस्कुराती रहती थीं। कभी-कभी हसन, बनवारी या लँगड़ा मातादीन उन लौंडों को दौड़ा भी देता था, तब वे गली के मुहाने पर पहुँचकर गालियाँ देते थे और नेकर या घुटना उठा-उठाकर अश्लील हरकतें करते थे। लौंडों का यह गोल मस्जिद के पीछे वाली बस्ती से आया करता था…
दुपहर में ही दुख-सुख की बातें हुआ करती थीं। और चुग़ली-चबाव भी। ज़्यादातर चुग़ली उनकी हुआ करती थी, जो इस मुहल्ले से उठकर शरीफ़ों की बस्तियों में चली गई थीं…जिन्हें छाँट-छाँटकर इब्राहीम ले गया था।
शाम होते ही गली गरमाने लगती थी। फूल-हारवाले आ जाते थे। पनवाड़ियों की दुकानें सज जाती और ग़फ़ूर की दुकान पर आकर एक पुलिसवाला बैठ जाता था…उसके बैठते ही ग़फ़ूर खुलेआम बोतलें बेचना शुरू कर देता था।
जुगनू शाम को पुल्टिस हटा देती थी और बड़े बेमन से सिंगार करके बैठ जाती थी। फोड़ा गाँठ बनकर रह गया था, दर्द बहुत करता था। फिर भी वह जैसे-तैसे एकाध को ख़ुश कर ही देती थी।
बारजे पर बैठे-बैठे जब वह सोच में डूब जाती और बेसहारा पहाड़-सी ज़िंदगी सामने फैल जाती, तब बहुत घबराती थी। आख़िर क्या होगा? वह तो दाने-दाने को मोहताज हो जाएगी। लँगड़ी घोड़ी की ज़िंदगी वह कैसे जी पाएगी?…क्या उसे भी मस्जिद की सीढ़ियों पर बुर्क़ा पहनकर बैठना होगा और अल्लाह के नाम पर हाथ फैलाना होगा? अख़्तरी की तरह…बिहब्बो और चंपा की तरह…जी जब बहुत घबराता तो वह ज़हर खाने की बात सोचती…या डूब मरने की।
सैकड़ों मरद आए और गए…पर कोई एक ऐसा नहीं, जिसकी परछाईं तले उम्र कट जाए।
ज़रा ज़्यादा जान-पहचान तो उन्हीं से थी, जिनसे रुपए लिए थे। पर आसरा वहाँ भी नहीं था। किसका क्या भरोसा…कौन कहाँ चला जाए! उम्र के साथ सब लौट जाते हैं। जहाँ बाल-बच्चे बड़े हुए कि उनका आना-जाना बंद। जहाँ उम्र ढली कि आदमी ने दूसरा शौक़ और शग़ल खोजा…तब कौन आएगा? पुरानी पहचानी शक्लें भी नहीं दिखाई देंगी। तब कितना अजीब और अकेला लगेगा!…बीते हुए वक़्त में बैठकर जीना कितना तकलीफ़देह होगा…!
पिछले दिनों में उसे बस यही एक तस्कीन मिली है कि सभी क़र्ज़दार अपना पैसा वसूलने के लिए उसके पास आते रहे हैं…उसे उम्मीद थी कि मनसू ज़रूर आएगा, वह अपना पैसा ज़रूर वसूल करेगा…और बस आया था।
मनसू के बदन से वैसा ही भभका उठा था और वह आया भी ग्यारह के बाद ही था और निबट जाने के बाद कमर पकड़कर बैठ गया था। जुगनू भी मस्त पड़ी हुई थी। फोड़े पर दबाव पड़ने की वजह से वह बिल-बिला उठी थी। और उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि मनसू को उठाकर दरवाज़े तक पहुँचा आए ताकि वह हमेशा की तरह जाँघें खुजलाता हुआ चला जाए।
मनसू की अकड़ी कमर जब कुछ ढीली पड़ी, तो बोला था, ‘याद रखना…’
जुगनू ने ‘अच्छा’ कहा था और मनसू को सहारा देकर उठा दिया था।
रात काफ़ी हो गई थी। वह वहीं पड़ी-पड़ी कोठरी की दीवारों को देखती रही थी। पर उनमें देखने को कुछ भी नहीं था। मटमैली भद्दी दीवारें जिन पर कभी उसने रद्दी रिसालों से काट-काटकर फ़िल्मी सितारों की तस्वीरें चिपकाई थीं। कोने में कील पर एक डोरी में पुरानी चूड़ियों का लच्छा लटक रहा था और दीवार की किनारी के सहारे नेलपॉलिश की ख़ाली शीशी पड़ी थी…
खाट के नीचे गूदड़ था और टीन का बक्सा-बकसे में बारह बरस पहले का एक पर्चा पड़ा हुआ है, जिसके हुरुफ़ भी उड़ गए हैं…अब उस पर्चे का कोई मतलब नहीं रह गया है। मुसव्विदा मुर्दा हो चुका है। और अब कौन जाता है वापस…और कौन बुलाता है वापस…ज़िंदगियों के बीच से वक़्त का दरिया किनारे काटता हुआ निकल गया है…कहीं कोई नहीं है…कोई कहीं नहीं है।
सुबह उठी तो बदन टूट रहा था। फोड़े में बहुत दर्द था। जाँघ का जोड़ फटा जा-रहा था। उसने फिर पुल्टिस बाँध ली थी। और शाम को जैसे-तैसे तैयार हो गई थी। कोठरी में जाकर सबका हिसाब जोड़ने लगी थी। अलमारी की दीवार पर उसने निशान लगा रखे थे कि कौन कितनी मर्तबा आया था और कितने रुपए पट गए थे। संतराम फ़िटर सचमुच बहुत बदतमीज़ी से पेश आया था। बीस रुपए के बदले में वह चार बार हो गया था और पांचवीं बार जब जाने लगा था, तो जुगनू ने बहुत आहिस्ता से कहा था, ‘यूँ ही जा रहे हो?’
‘क्यों?’ संतराम की निगाहों में शैतानी थी।
‘रुपया तो पिछली बार ही पट गया था!’ उसने बहुत झिझकते हुए पर साफ़-साफ़ कहा था।
‘एक बारी सूद की?’ संतराम ने बड़े गंदे लहज़े में कहा था, ‘फोकट का पैसा नहीं आता, समझी?’ और कोठरी से निकलकर सीढ़ियाँ उतर गया था।
जुगनू हताश-सी देखती रह गई थी। और हमजोलियों की तरह वह झगड़ा भी नहीं कर पाती थी। चीख़-चिल्ला भी नहीं पाती थी और आदमी को बे-इज़्ज़त करके भेजते नहीं बनता था।
कंवरजीत होटलवाले के सबसे ज़्यादा पैसे चढ़े हुए थे। वह सिर्फ़ तीन बार आया था। कुल पंद्रह रुपए पटे थे। मनसू के भी बीस उतर गए थे…हलकी राहत मिली थी उसे कि तभी फोड़ा टीस उठा था। वह टाँगें फैलाकर वहाँ बिस्तर पर लेट गई थी।
दरवाज़े पर आहट हुई तो देखा मदनलाल था। उसे देखते ही एक क्षण को वह भीतर-ही-भीतर झल्ला उठी थी। जैसे एक और सूदखोर पठान सामने आकर खड़ा हो गया हो…अपनी वसूलयाबी के लिए।
मदनलाल इस बीच नहीं आया था। इस वक़्त उसका आना जुगनू को खल गया था। फिर भी बेचारगी में उसने उसे भीतर बुला लिया था…मदनलाल खाट पर बैठ गया था। अपना थैला उसने सिरहाने सरका दिया था। जुगनू ख़ामोशी से थैले को टटोलने लगी थो। उसमें कुछ पोस्टर थे और तह किया हुआ एक झंडा। एकाध पुराने-से रजिस्टर भी थे। उसका दिल धड़क उठा था कि कहीं वह नक़द पैसे की माँग न कर दे। फोड़ा अलग टीस रहा था।
मदनलाल वही पुराने कपड़े पहने हुए था और वही जूते। पसीने की गंध पूरी कोठरी में भर गई थी।
‘बहुत दिनों बाद आना हुआ!’ जैसे-तैसे जुगनू ने कहा।
‘जूते उतार लूँ!’ मदनलाल ने हलकेपन से कहा था।
‘उतार लो…’
‘दरवाज़ा बंद कर दूँ?’
‘आज बहुत तक़लीफ़ है…जाँघ के जोड़ पर फोड़ा निकला हुआ है। सीधी तो लेट भी जाऊँ पर जाँघ मोड़ते जान निकलती है…’ जुगनू ने कहा था तो मदनलाल तस्मे खोलते-खोलते ठिठक गया था। मन-ही-मन वह शरमा भी गया था। जुगनू भी बहुत अटपटा महसूस कर रही थी। पर मदनलाल ने उसे उबार लिया था। इधर-उधर की बातें करता रहा था, पर हर क्षण जुगनू को डर लगा रहता था कि घूम-फिर कर बात रुपयों पर न आ जाए…
‘अच्छा तो चलता हूँ…’ मदनलाल थैला लेकर खड़ा हो गया था। उसने बहुत भरी-भरी नज़रों से जुगनू को देखा था…जैसे आज लौटते हुए उसे तक़लीफ़ हो रही थी।
और सारी बातों के बावजूद जुगनू अब दुबारा उससे रुकने को कह भी नहीं सकती थी। बहुत संकोच से उसने कहा था, ‘वह तुम्हारे रुपए…’
‘उनके लिए नहीं…’ मदनलाल ने कहा, ‘तुम्हारे लिए आया था!’
उसकी बग़लों के नीचे भरा हुआ पसीना स्याही के धब्बे की तरह चमक रहा था। बाँहों की उभरी हुई नसें पसीजी हुईं थी। उसने पसीजे हाथ से जुगनू का हाथ पकड़ा था, तो लगा था जैसे हथेली में गृदारी रोटी की हलकी-सी तपिश आ गई हो।
‘मैं फिर आऊँगा…’ कहकर मदनलाल चला गया था। जुगनू सीधी बारजे पर आ गई थी। मन में कहीं अफ़सोस भी था कि उसे ऐसे ही लौट जाना पड़ा। मदनलाल को वह देखती रही थी…वह गली में तीन-चार घर पार करके खड़ा हो गया था। उसका गली में रुकना जैसे उससे सहा नहीं जा रहा था। फिर वह ऊपर बारजे पर एक नज़र डालकर पाँचवें कोठे की सीढ़ियाँ चढ़ गया था। पता नहीं, कैसी तिलमिलाहट उसे हुई थी। फोड़ा और ज़ोर से टीस उठा था!…फिर धीरे-धीरे जलन शांत हो गई थी। अगर उसने रोका होता तो वह शायद नहीं जाता…आख़िर उसे भी तो जलन बर्दाश्त होने लगी थी। वह तो सिर्फ़ उसकी तक़लीफ़ का ख़याल करके लौट गया था, उसके पसीजे हाथ की गरमाहट में किसी तरह का धोखा नहीं था…
तभी कंवरजीत आ गया था। एकाएक लगा था जैसे कोई पराया घर में घुस आया हो। पर अपने को संभालते हुए उसने मुस्कुराकर उसे देखा था।
बिलकीस उधर कोने में खड़ी किसी पहलवान से बात कर रही थी। जुगनू चुपचाप कंवरजीत को लेकर कोठरी में चली गई थी। दरवाज़े भेड़ लिए थे। कंवरजीत ने कुंडी चढ़ा दी थी।
‘आज बहुत तक़लीफ़ है…फोड़ा पक गया है।’ जुगनू ने जैसे आजिज़ी से उसे समझाया था।
‘अभी तक ठीक नहीं हुआ?’ कंवरजीत ने पूछा था।
‘हूँ, शायद दो-तीन दिन में फट जाए!’ जुगनू ने जैसे माफ़ी माँगी थी।
‘बिल्कुल तक़लीफ़ नहीं होने दूँगा…बहुत आसानी से…’ कहते हुए कंवरजीत खाट पर लेट गया था।
‘आज…’ जुगनू ने कहा, तो उसने बहुत नरमी से उसे अपनी बग़ल में लिटा लिया था और बोला था, ‘ज़रा-सी भी तक़लीफ़ नहीं होने दूँगा…’
जुगनू बहुत बेबस हो गई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि उसे कैसे समझाए, तभी उसने उसकी छातियों पर हाथ रख लिया था। धीरे-से करवट लेकर जुगनू ने लाइट बुझा दी थी और ब्लाउज़ में हाथ डालकर कप्स निकाले और खाट के नीचे सरका दिए थे।
बहुत बार उसने कराह दबाई और कंवरजीत को रोका। आँखों के सामने अँधेरा छा-छा जाता था और ज़ोर पड़ते ही जाँघ फटने लगती थी। कंवरजीत तीन-चार बार रुका, फिर जैसे उस पर शैतान सवार हो गया था…
‘अरे, रुक तो…’ वह चीख़ा था और जुगनू की टाँगें दबाकर वह हावी हो गया था।
‘अरी, अम्मा रे…मार डाला…!’ वह पूरी आवाज़ से चीख़ी थी जैसे किसी ने क़त्ल कर दिया हो और छटपटाकर बेहोश-सी हो गई थी।
‘साली!’ हाँफ़ते हुए कंवरजीत बोला और उसे छोड़कर निढाल-सा बैठ गया था।
कुछेक मिनट बाद जुगनू को होश आया था। दर्द कुछ थमा था तो उसके हाथ-पैर हिले थे। तकिए के नीचे से कपड़ा निकालकर उसने लाइट जलाई थी, तो पूरी जाँघ फटे हुए फोड़े के मवाद से भरी हुई थी और कंवरजीत उससे बिल्कुल अलग बैठा ‘ओं…ओं…’ करके डकारें ले रहा था।
‘फूट गया न…’ वह खड़ा होता हुआ बोला था, तो उसने जाँघ पर साड़ी खिसका ली थी।
‘ध्यान रखना, चौथी बारी हुई!’ कंवरजीत ने कहा और कुंडी खोलकर कोठरी से बाहर निकल गया था।
साड़ी खिसकाकर वह मवाद पोंछने लगी थी। एकाएक मन बहुत घबरा उठा था। उसने धीरे-से फत्ते को आवाज़ दी थी। फत्ते आया था, तो उसने घड़े से पानी निकलवाया था और कपड़ा भिगोकर मवाद पोंछते हुए बोली थी, ‘देख, फत्ते…उधर विमला के घर एक आदमी गया है…चला न गया हो तो ज़रा बुला ला। नीली क़मीज़ पहने है, थैला है उसके पास।’
‘गाहक आदमी है?’ फत्ते बोला था।
‘नहीं, आपसी का आदमी है!’ जुगनू ने कहा, ‘ज़रा-सा पानी और दे दे…’
फत्ते घड़े से पानी निकाल कर लाया, तो फिर सोचते हुए बोली, ‘रहने दे…तू अपना काम कर। वह कह गया है, आ जाएगा कभी…’ कहते-कहते उसने फोड़े को हलके-से दाबा, तो कुछ और मवाद निकल पड़ा था; और दर्द से फिर चेहरे पर पसीना छलछला आया था।
jugnu ki tabiat in dinon kuch nasaz si hai. par kaam nahin karegi to chalega kaise? is beech niymit grahkon ke alava ek jhole vala adami bhi uske paas aane laga hai. wo adami hai madanlal. is beech bimari baDhti hai, par kuch samay baad majburi jugnu ko dubara is peshe mein aane ke liye majbur kar deti hai. wo apne bhavishya ko lekar behad chintit hai aur madanlal ke prati janme ne lagav ko lekar bhi uske man mein uthal puthal chal rahi hai.
jaanch karne bali Dauktarni ne itna hi kaha tha ki use koi poshida marz nahin hai, par tapedik ke asar zarur hain. usne ek parcha bhi likh diya tha. khane ko giza batai thi.
kameti pahle hi peshe par rok laga chuki thi. sab pareshan theen. samajh mein nahin aa raha tha ki aya hoga? Dauktri jaanch mein bahuton ka pesha aur pahle hi thapp ho chuka tha.
ibrahim thekedar ne jo chuni theen, ve sab ‘paas’ ho gai theen. unke nakhre bahut baDh ge the. ve baDe gharur se apne khandanon ki charcha karti theen.
ibrahim ne chust durust laDakiyon ko chhaant liya tha. dhire dhire ve shahr ke achchhe hisson mein ja basi theen. ibrahim unki dekhbhal karta tha aur jis theke se jitni le gaya tha, unka paisa mahine ke mahine chukta kar jata tha.
ek baar jab jugnu zyada pareshan thi, to usne bhi ibrahim se kaha tha ki kisi thaur thikane par baitha de, par ibrahim ne do took javab de diya tha, ‘shadi to hai nahin ki kisi ki ankh mein dhool jhonkkar gale maDh doon! jo ayega, wo to boti boti dekhega. ’ aur wo qatrakar chala gaya tha.
us din uske dil par pahli chot lagi thi—ab wo is layaq bhi nahin rahi? dusri chot tab lagi thi, jab saath ke barje se shahnaz ne haath matkate hue gali di thi, ‘are, alla tujhe wo din bhi dikhayega jab gahak teri siDhiyon par qadam tak nahin rakhega. ’
shahnaz ki is baat par muhalle mein baDa bavela macha tha. ye gali to buri se buri ko nahin di jati…sabke gahak jite jagte rahen. khuda mardon ko rozi de…jangh mein zor de!
aur usi din pahli baar jhijhakta hua wo aaya tha. phatte use laya tha. uske haath mein baDa sa thaila tha. khaki paint aur nili qamiz pahne tha. daDhi baDhi hui thi. kanon ke roon aur bhaunhon par dhool ki halki parat thi. kamre mein jakar jugnu khaat par khud baith gai thi, to wo achakchaya sa khaDa rah gaya tha. uski samajh mein nahin aa raha tha ki thaila kahan rakh de. tabhi jugnu ne baDi asani se thaila lekar sirhane rakh diya tha. wo chupchap khaat par baith gaya tha. kuch kshnon ki khamoshi ke baad jugnu ne kaha tha, ‘jute utaar lo…. ’ usne kirmich ke jute utare the to badbu ka ek bhabhka utha tha…kuchh kuch vaisa hi jaisa ki bahuton ke kapDe utarne par utha karta tha…khas taur se us mansu kirani ke paas se phutta tha, jo raat ke gyarah baje ke baad hi aaya karta tha aur nibat chukne ke baad kamar mein dard ki vajah se shila ki tarah baitha rah jata tha. tab jugnu hi use uthati thi aur wo janghen khujlata hua chala jata tha. ya phir kanvarjit hotal vale ki tarah, jo badbu to deta hi tha aur uthne se pahle khaat par baitha hua ‘on…on’ karke Dakaren leta tha.
bah bhabhak usse bardasht nahin hui to boli, ‘jute pahan lo!’
wo jute pahankar phir baith gaya tha. tab use baDi koft hui thi. ek minat wo use ghurti rahi thi, phir chiDhkar boli thi, ‘yah ghar ki baithak nahin hai…farigh hoke apna rasta napo!’ usne apmanit mahsus kiya tha aur apne ko sambhalne ke baad achakchakar bola tha, ‘tumhara naam kya hai?’
‘jugnu!’ wo boli thi.
‘kahan ki ho?’
‘tum apna kaam karo…. ’ wo phir chiDh gai thi.
aur tab usne uski tarah hi puchha tha, ‘tumhen ye pesha pasand hai?’
‘han!…tumhen nahin hai?’ kahte hue wo let gai thi. usne saDi janghon tak khiska li thi. wo bhi let gaya tha aur usne blauz ke bhitar haath Dalne ki jhijhakabhri koshish ki thi.
‘pareshan na karo to achchha hai…’ wo boli thi, ‘kyon kholte ho…?’
uske liye kuch bhi kar sakna mumkin nahin rah gaya tha. jugnu ke chehre par saste pauDar ki parat thi…gardan mein pauDar kaki Doriyan si ban gai theen. honthon par khoon sukhkar chipak gaya tha. kanon ke taups menDhak ki ankhon ki tarah ubhre hue the. baal tel se bhige the. takiya nihayat ganda tha aur chadar kuchle hue chameli ke phool ki tarah maili thi.
sankri kothari mein ajib si badbu bhari hui thi. ek kone mein pani ka ghaDa rakha tha aur tamchini ka ek Dibba. kone mein hi kuch chithDe bhi paDe the.
wo paDa paDa idhar udhar dekhta raha. jugnu ke sirhane hi chhoti si almari thi. uska patthar tel ke chikne chakatton se bhara hua tha. wo tuta hua kangha, sasti nelapaulis ki shishi aur juDe ke kuch pin usmen paDe the. almari ki divar par pensil se kuch naam aur pate likhe hue the. sinema ke giton ki kuch kitaben ek kone mein rakhi theen, unhin ke paas mare sanpon ki tarah chutile paDe the. dekhte dekhte uske man mein gijagijahat bhar gai thi. aasre ke liye usne jugnu ki jaangh par haath rakh liya tha. jaangh basi machhli ki tarah puli puli aur khaddar ki tarah khuradri thi. jugnu ke khule hue aadhe tan se mave ki mahak aa rahi thi. usne haath hataya to janghon ke niche chadar par aa gaya tha. use laga jaise chadar bhigi hui ho…
‘yahi kamai ka vaqt hota hai…itne mein to chaar khush ho ge hote!’ jugnu ne kaha aur donon banhon mein kaskar use bheench liya tha.
aur jab wo uthkar baitha to jugnu ne mazaq mazaq mein uska thaila khol liya tha, ‘bahut rupya bharkar chalte ho!’ use laga ki shayad wo mazaq mein ekaadh rupya aur hathiyana chahti hai. tab usne jugnu ko pahli baar ghaur se dekha tha aur chupchap chala gaya tha.
jab bhi jugnu bazar se nikalti, to sir par palla Dalkar. wo itni chhichhori bhi nahin thi ki koi fabti kasta. sab use aise dekhte the, jaise us par unka saman adhikar ho. wo rasta chalte kanakhiyon se un logon ko zarur dekh leti thi, jinhen wo achchhi tarah pahchanti thi aur jo uske mardon ki tarah uske paas aate jate the. tabhi ek din wo dikhai paDa tha—vahi thailevala adami. ek imarat ki pahli manzil ke barje par kohaniyan teke wo biDi pi raha tha. vahi qamiz pahne tha. imarat par laal jhanDa laga hua tha, jiski chhaya uske kandhon par kaanp rahi thi.
tuti hui chappal juDvane ke liye wo vahin ruk gai thi. wo shayad bhitar chala gaya tha.
raat ko wo aaya tha. usko ankhon mein pahchan thi. is baar wo sakucha nahin raha tha. khaat par baithe baithe jugnu ne usse puchha tha, ‘tum kya kaam karte ho?’
‘kuchh nahin!’ wo bola tha, ‘mazduron mein kaam karta hoon…’
‘hamara bhi kuch kaam kar diya karo…ham bhi mazdur hain!’ jugnu ne mazaq kiya tha.
‘tumhen der to nahin ho rahi hai!’ usne kaha tha
‘aaj tabiat theek nahin hai. ’ jugnu alsate hue boli thi.
‘kya hua?’
‘kamar bahut duःkha rahi hai. sare badan mein haDphutan hai…jugnu boli thi, ‘pata nahin kya ho gaya hai…tara ko bula dun?…bahut sharafat se pesh ayegi…samajhdar aurat hai…’
usne mana kar diya tha. kuchhek minat baithkar wo chalne laga tha, to sirf itna hi bola tha, ‘main aise hi chala aaya tha. ’ aur wo chupchap andheri siDhiyon mein utar gaya tha. jugnu khamoshi se aakar khiDki par khaDi ho gai thi. use laga tha ki wo kisi aur zine mein chaDh jayega. gali mein zyada aamad o raft nahin thi. thoDi thoDi door par adamiyon ke teen chaar gol khaDe hue the. unmen se phutkar kabhi kabhi koi kisi zine mein chaDh jata tha. nanbai ki chimani mein se dhuan nikal raha tha…vah use dekhti rahi thi. wo kahin ruka nahin. dhire dhire gali parkar saDak ki taraf muD gaya tha—usi saDak par, jis par wo imarat thi, jismen wo rahta tha.
jugnu ko uska yoon laut jana bahut achchha laga tha. halki si khushi hui thi. kothari ke palang par aakar wo let rahi thi.
kothari mein bahut silan thi aur ghuti ghuti si badbu. darvaza usne band kar liya tha aur sinema ke giton ki kitab uthakar man hi man paDhti rahi thi.
tabhi kivaDon par dastak hui thi aur amma ki avaz aai thi, ‘jugnu bete! mua behosh to nahin ho gaya!’
‘yahan koi nahin hai, amma!’
‘to barje par nikal aa, bete…baDi achchhi hava chal rahi hai…gali mein raunaq bhi hai…’ kahte hue amma ne darvaza khol diya tha, ‘tabiat to theek hai!’
‘kuchh gaDbaD hai, amma!’
‘to ek gilas doodh pi le, beta…abhi to vaqt hai, koi aa hi gaya to…’
aur wo uth aai thi. uski gardan par ulta haath rakhte hue amma ne bukhar dekha tha aur kamar ke uupar peeth ke maans ki lautti salavten dekhkar boli thi, ‘sehat ka khayal chhoD diya hai tune…kamar par kitni moti parten girne lagi hain…thoDi si varzish kar liya kar…’ kahti hui wo dusri kothari ki or chali gai thi. dusri kothari se kuch tez tez avazen aa rahi theen. aur amma baDbaDati hui bhitar chali gai thi, ‘yah chuDail bina laDe lagam nahin Dalne deti…kisi din is kothari mein qatal hoga…!’
ye roz ki baat thi…bilkis ko amma yoon hi kosti thi. khud bilkis ka kahna tha ki uske paas se koi bina apni kamar pakDe vapas nahin ja sakta. bilkis ko ismen maza bhi aata tha. adami ko chhoDte hi wo darvaze par aakar khaDi ho jati thi aur use harkar jate hue dekhkar taliyan chatkakar baDi uunchi hansi mein hansti thi, ‘ari, o mari zubeda! zari dekh…rustam jariya hai! baDa aaya tha pailvan ka bachcha! ye mardua soega aurat ke saath!’
ek din adami bigaD gaya tha, ‘kya bak rahi hai?’
‘are, ja ja bhishti ki aulad…le, ye chavanni le ja, chhatank bhar malai kha lije…’
aur wo adami bahut apmanit sa siDhiyan utar gaya tha. pure kothe mein bilkis ko lekar dahshat chhai rahti thi. pata nahin kab jhagDa ho jaye! aur wo haath nacha nacha kar baDe fakhr se hamesha kaha karti thi, ‘apne to barammchari ki aurat hain…’
jugnu ko dekhkar bilkis hamesha tana deti thi, ‘tu to kisi ghar baith ja…’ par jugnu kisi se laDi nahin. wo janti thi ki bilkis bahut munhaphat hai. amma tak ko nahin dhar ganthati. aur amma thi ki sabke tan badan ka khayal rakhti thi. badan chust darust rakhne ke liye wo hamesha chikhti hi rahti thi. ‘bhains ki tarah phailti hi ja rahi hai. satan ki petikot pahna kar. aalu khana bann kar kalamunhi!’
pet par Dhalan aate hi wo zubeda ke liye bhitar bakse mein se peti nikal lai thi, ‘din mein ise bandha kar! chaay pina kam kar…’ aur usne jeen ki har naap ki angiyan lakar rakh di theen. use bas ek hi fikr rahti thi, ‘mera bas chale to umar rok doon tum logon ke liye…’
duphar mein amma baDe pyaar se kabhi kisi ke baal saaf karne baith jati, kabhi shaam ke liye saDiyon par istri karti aur basant ke din to wo sabke liye basanti joDa rangti thi. phatte ke liye rumal rangana bhi na bhulti. eid baqrid, holi divali baDe hausale se manati aur kabhi kabhi kamla ki yaad karke DabDabai ankhon se kahti, ‘us jaisi laDki to hazar kokhen nahin janam payengi…khuda ne kya khubsurti bakhshi thi, haath lagate maili hoti thi…use to paison valon ka Daah kha gaya. zahr de diya kutton ne…bahut chhataptai thi bechari. haay, main aspatal tak na le ja pai…. ’
…jugnu barje mein aakar baith gai thi. aate jaton ko dekh rahi thi. bheeD dhire dhire halki ho rahi tho. phool gajrevale uthkar ja rahe the aur usne dekha tha—roz ki tarah mannan mali ne jate hue ek gajra kalavati ki khiDki mein phenka tha aur kalavati ne roz ki tarah muskurakar galiyan di theen. banne kaliivala dhula hua tahmad aur jalidar baniyan pahne aaya tha aur sidhe shahnaz ke kothe par chaDh gaya tha.
shankar panvaDi ke samne chabutre par neem pagal chunnilal ne apna bora bichha diya tha aur tamchini ke magge mein chaay pite hue baDbaDa raha tha, ‘are zalim, usi din haath qalam karva le jis din ghalat sur nikal jaye! are zalim…yahin utarkar ayegi…isi bore par suhagarat hogi…zalim!’
aur tabhi ek kshan ke liye gali ke moD par jugnu ko usi nili qamiz vale ka shak hua tha. shayad wo phir lautkar aaya hai aur chupke se kahin chaDh jayega. par wo uska bhram tha. wo nahin tha, koi aur adami tha.
phir bahut din baad wo lauta tha. aur jugnu ki kothari mein aate hi ghar ki tarah khaat par pasar gaya tha. lekin jute utarne ki phir bhi uski himmat nahin hui thi.
‘tum apna naam to bata do?’ jugnu ne baghal mein lette hue puchha tha.
‘madanlal…ayon?’
‘aisa hi…yahan nahin the?’
‘jel mein tha…giraftariyan ho gai theen, usi mein chala gaya tha…’
‘haDtal chal rahi thi na…malikon ne band karva diya tha. baDi mushkil se rihai hui…’
‘is haDtal vaDtal se kuch hota bhi hai? kahe ko ki thee?’
aur kirmich ke juton aur pasine se sane hue pairon se jo bhabhak nikli thi, usse jugnu ko koi khaas pareshani nahin hui thi, dhire dhire jaise bu hi uske charon or sama gai thi…aur phir uske badan mein bhar gai thi.
madanlal to chala gaya tha, par uski wo gandh rah gai thi. aur unhin dinon sab peshevaliyon ko Dauktri jaanch ke liye hazir hona paDa tha aur Dauktarni ne itna hi kaha tha ki koi peshoda marz nahin hai, par tapedik ke asar zarur hain…
dekhte dekhte uski khansi baDh gai thi. bukhar rahne laga tha. amma aspatal le jakar dikha aai thi par rog thamne mein nahin aa raha tha. dhire dhire wo kaam ke layaq nahin rah gai thi. ek din khoon thuka tha to bilkis ne asman sir par utha liya tha, ‘are, ise Dalvao kahin bahar! hamein marna hai?’ to amma ne use Danta tha, par bhitar se wo bhi badal gai thi. tarah tarah se usne jugnu ko samjhaya tha ki wo apni sehat ki khatir kahin aur chali jaye. zarurat ke liye sau pachas rupe bhi le jaye, is tarah laparvahi na kare…
par jugnu ki samajh mein nahin aata tha ki wo kahan chali jaye. paisa bhi paas nahin tha aur sau do sau se kitne din kat sakte the. akhir harkar wo tapedik aspatal mein bharti ho gai thi. dhire dhire amma ka diya aur apne paas ka sara rupya khatm ho gaya tha. chaar mahine lagatar use senetoriyam mein rahna paDa tha. uske baad bhi chhutti nahin mili thi. haan, kahin thoDi bahut der ke liye aane jane par rok nahin thi. vahan se nikalkar wo do chaar baar amma ke paas aai thi to amma ne kaha tha, ‘kisi ko batana mat bete ki kahan thi…mainne to yahi kaha hai ki rampur chali gai hai apni bahan ke paas, kuch dinon mein vapas aa jayegi…par mua darogha bahut pareshan karta tha. . . use shak hai ki yahin kahin baithne lagi hai…’
amma ki ankhon mein apnapan pakar use baDa sahara sa mila tha. aur amma uski haalat dekh dekhkar dukhi hoti rahi thi. sachmuch jugnu ka badan jhulas sa gaya tha…bal bahut jhine ho ge the aur chehre ki surkhi ghayab ho gai thi.
jugnu jab bhi shishe mein apne ko dekhti, to ghabra uthti thi. ab kya hoga? kaise bitegi ye pahaD si bimar zindgi! sahara…koi aur sahara bhi to nahin, koi hunar bhi nahin…
peshe par rok lag jane ke bavjud kai nai laDkiyan lakhanuu banaras se aa gai theen aur unhonne bazar bigaD rakha tha. suna tha, shahnaz ki haalat bhi kharab ho gai thi aur kalavati bhukhon marne ki haalat mein pahunch gai thi.
ye sab sun jankar jugnu ka dil ghabrane laga tha.
chalne se pahle usne amma se kuch rupe mange the, to wo apna rona rone lagi aur tanghali ka byaan karne lagi thi. uski haalat bhi khasta thi.
aur vahan se senetoriyam lautte hue usne un sabki or aasre se bhari nazren Dali theen, jinhen wo janti thi, jo uphanti javani ke dinon mein uske paas aate jate rahe the.
mansu kirani ko dukan par baitha dekhkar jugnu ke man mein nafrat si bhar aai thi…uska kamar pakaD baith jana aur phir janghen khujlate hue kothari se jaise taise jana…
kanvarjit hotalvala maila pajama pahne not gin raha tha—uthne se pahle hamesha ‘on…on…’ ki Dakaren leta tha, to jugnu ka man michlane lagta tha…
jugnu ne auron ko bhi dekha tha…jinse thoDi bahut bhi mel mulaqat rahi thi.
senetoriyam mein aur bahut din rukna nahin hua. akhir aana to tha hi. par wo sabhi ki shukraguzar thi ki unhonne musibat aur taqlif ke dinon mein ankhen nahin palti theen.
aur jo kuch usne jisse liya tha, use nuskhe ke pichhe hi not kar liya tha. itne dinon mein kafi qarza chaDh gaya tha. kanvarjit hotal vale ne baDa ehsaan jatakar saintalis rupe diye the. mansu ne utna ehsaan to nahin jataya tha, par rupe jaldi se jaldi lauta dene ki baat le li thi saintalis rupe se jaise uska karabar thapp hua ja raha tha.
santram fitar ne bees diye the aur chalte chalte baDa ganda mazaq kiya tha, ‘sood mein ek rat…thik hai na…’ par us gande mazaq se use laga tha ki adami ki ankh abhi us par tikti hai. badan gaya bita nahin hua hai, jitna shayad wo samajh rahi thi.
tangi ke un dinon mein usne ek roz madanlal se milkar bhi tees rupe le liye the. usne bas yahi kaha tha, ‘ye chande ke rupe hain, jaldi de dogi to theek rahega, mere paas bhi itna nahin hota ki bhar sakun!’ par us baat mein nihayat becharagi thi. bahut majburi mein usne kaha tha aur saath hi ye bhi kaha tha ki use jugnu ghalat na samjhe…uski utni auqat nahin. aur wo bina kuch aur bole parti ke daftar mein chala gaya tha.
zarurat ki vajah se dil par patthar rakhkar jugnu ne rupe le liye the, par taqlif bhi hui thi.
aur ab, jab se wo senetoriyam se lauti thi, to pulisvale alag pareshan kar rahe the. saat mahine ka paisa unhen nahin mila tha. is kothe par unhonne sabse alag alag raqam baandh rakhi thi.
lautkar aane ke baad wo bhitar hi bhitar baDi kamzori si mahsus karti thi. badan ab utna jhel nahin pata tha. koi zyada chheDta chhaDta to halki khansi aane lagti thi…aur paanch paanch, saat saat minat ke bhitar hi dam phulne lagta…aur log the ki sine par hi sara vazan rakh dete the…
rah rahkar ab vaisi hi uljhan hoti thi jaisi ki shuru shuru mein hua karti thi aur use lagta tha ki usne ye sab jaise ab pahli baar hi shuru kiya ho.
balon ki ek purani choti wo saat rupe mein kalavati se kharid lai thi aur chhatiyon par bhi kaps lagane lagi thi. har baar unhen nikalne aur lagane mein baDi uljhan bhi hoti thi. kalaf lagi dhotiyan pahanne se use hamesha chiDh rahi thi, par ab kalaf lagi hi pahanti thi. badan gudaz lagta tha.
itna sab karne ke bavjud amdani kafi nahin thi, koi koi raat to khali hi chali jati thi. aur apni kothari mein akele lete hue wo bahut ghabrati thi…yah pahaD si zindgi…din din tutta hua sharir…!’
napunsak logon se use behad pareshani hoti thi. ve had se zyada pareshan karte the…boti boti tatolte rahte the aur josh aane ke intzaar mein bahut satate the. chat auchat haath Dalte the aur tarah tarah ki gandi farmaishen karte the.
isse achchhe to ve the, bhari banduq ki tarah aate the…aur apna kaam karke chalte bante the. na bakvas karte, na zyada satate the. par amdani itni bhi nahin thi ki guzara ho jaye. qarza utarne mein nahin aata tha.
nuskhe ke pichhe sabke rupe not kar rakhe the…par unhen chukane layaq paisa kabhi haath mein nahin aata tha.
akhir aur koi tariqa nahin rah gaya tha. jaangh ke joD par nikla phoDa dikhane ke liye jugnu jab jarrah ke paas ja rahi thi, to raste mein mansu ne tok diya tha, ‘bahut din ho ge…ab to dhandha bhi chal raha hai!’
chalte chalte ve ek taraf ko aa ge the. tab bahut majburi mein usne mansu se kaha tha, ‘ek paisa nahin bachta, kya karun…tumne to aana jana bhi chhoD diya hai…’
‘hamne to gangajli utha li hai…ranDibazi nahin karenge. tulsi ki kanthi pahan li hai, ye dekho!’ mansu bola to jugnu ko halki si hansi aa gai thi aur wo ankhen phaDe dekhta rah gaya tha.
jaangh ke joD par nikle phoDe ke karan chalne mein jugnu ko kafi taqlif ho rahi thi. wo tangen phaila phailakar chal rahi thi…mansu ka man Dol raha tha. gali ke moD par aakar mansu ne dhire se kaha tha, ‘to phir…bataya nahin tumne…kab tak intizar karogi?’
‘quvvat ho to vasul kar le jao!’ jugnu ne apni majburi ko pite hue banavati shokhi se kaha tha aur gali mein muD gai thi. apni hi baat par use baDi sharm aai thi…phir laga tha ki theek hi to kaha usne…khamakhvah ki izzat ka aya matlab? aur phir kisi ka qarza lekar kyon mare? jo utar jaye so achchha hi hai.
jarrah ne bataya tha ki abhi phoDa pakne mein din lagenge. bandhne ke liye pultis de di thi. jab wo lauti to duphar ho rahi thi. sab apne apne chabutron par baithi miskaut kar rahi theen. yahi vaqt hota hai, jab sab jagkar uth jati hain aur shaam ki taiyari se pahle mil baith leti hain. gali mein se kachchi umar ke launDon ka gol guzar raha tha. ve gande ishare kar kar ke aurton ko chiDha rahe the aur bapon ko di janevali galiyon ka maza le rahe the. avara launDe roz guzarte the…aur unka roz ka yahi shaghal tha. Dhalti umar ki aurten gande ishare dekh dekhkar unke bapon ko galiyan deti theen aur javan aurten muskurati rahti theen. kabhi kabhi hasan, banvari ya langDa matadin un launDon ko dauDa bhi deta tha, tab ve gali ke muhane par pahunchakar galiyan dete the aur nekar ya ghutna utha uthakar ashlil harakten karte the. launDon ka ye gol masjid ke pichhe vali basti se aaya karta tha…
duphar mein hi dukh sukh ki baten hua karti theen. aur chughli chabav bhi. zyadatar chughli unki hua karti thi, jo is muhalle se uthkar sharifon ki bastiyon mein chali gai thin…jinhen chhaant chhantakar ibrahim le gaya tha.
shaam hote hi gali garmane lagti thi. phool harvale aa jate the. panvaDiyon ki dukanen saj jati aur ghafur ki dukan par aakar ek pulisvala baith jata tha…uske baithte hi ghafur khuleam botlen bechna shuru kar deta tha.
jugnu shaam ko pultis hata deti thi aur baDe beman se singar karke baith jati thi. phoDa gaanth bankar rah gaya tha, dard bahut karta tha. phir bhi wo jaise taise ekaadh ko khush kar hi deti thi.
barje par baithe baithe jab wo soch mein Doob jati aur besahara pahaD si zindagi samne phail jati, tab bahut ghabrati thi. akhir kya hoga? wo to dane dane ko mohtaj ho jayegi. langDi ghoDi ki zindagi wo kaise ji payegi?…kya use bhi masjid ki siDhiyon par burqa pahankar baithna hoga aur allah ke naam par haath phailana hoga? akhtri ki tarah…bihabbo aur champa ki tarah…ji jab bahut ghabrata to wo zahr khane ki baat sochti…ya Doob marne ki.
saikDon marad aaye aur ge…par koi ek aisa nahin, jiski parchhain tale umr kat jaye.
zara zyada jaan pahchan to unhin se thi, jinse rupe liye the. par aasra vahan bhi nahin tha. kiska aya bharosa…kaun kahan chala jaye! umr ke saath sab laut jate hain. jahan baal bachche baDe hue ki unka aana jana band. jahan umr Dhali ki adami ne dusra shauq aur shaghal khoja…tab kaun ayega? purani pahchani shaklen bhi nahin dikhai dengi. tab kitna ajib aur akela lagega!…bite hue vaqt mein baithkar jina kitna taklifdeh hoga…!
pichhle dinon mein use bas yahi ek taskin mili hai ki sabhi qarzdar apna paisa vasulne ke liye uske paas aate rahe hain…use ummid thi ki mansu zarur ayega, wo apna paisa zarur vasul karega…aur bas aaya tha.
mansu ke badan se vaisa hi bhabhka utha tha aur wo aaya bhi gyarah ke baad hi tha aur nibat jane ke baad kamar pakaDkar baith gaya tha. jugnu bhi mast paDi hui thi. phoDe par dabav paDne ki vajah se wo bil bila uthi thi. aur uski himmat nahin ho rahi thi ki mansu ko uthakar darvaze tak pahuncha aaye taki wo hamesha ki tarah janghen khujlata hua chala jaye.
mansu ki akDi kamar jab kuch Dhili paDi, to bola tha, ‘yaad rakhna…’
jugnu ne ‘achchha’ kaha tha aur mansu ko sahara dekar utha diya tha.
raat kafi ho gai thi. wo vahin paDi paDi kothari ki divaron ko dekhti rahi thi. par unmen dekhne ko kuch bhi nahin tha. matmaili bhaddi divaren jin par kabhi usne raddi risalon se kaat katkar filmi sitaron ki tasviren chipkai theen. kone mein keel par ek Dori mein purani chuDiyon ka lachchha latak raha tha aur divar ki kinari ke sahare nelapaulish ki khali shishi paDi thee…
khaat ke niche gudaD tha aur teen ka baksa bakse mein barah baras pahle ka ek parcha paDa hua hai, jiske huruf bhi uD ge hain…ab us parche ka koi matlab nahin rah gaya hai. musavvida murda ho chuka hai. aur ab kaun jata hai vapas…aur kaun bulata hai vapas…zindagiyon ke beech se vaqt ka dariya kinare katta hua nikal gaya hai…kahin koi nahin hai…koi kahin nahin hai.
subah uthi to badan toot raha tha. phoDe mein bahut dard tha. jaangh ka joD phata ja raha tha. usne phir pultis baandh li thi. aur shaam ko jaise taise taiyar ho gai thi. kothari mein jakar sabka hisab joDne lagi thi. almari ki divar par usne nishan laga rakhe the ki kaun kitni martaba aaya tha aur kitne rupe pat ge the. santram fitar sachmuch bahut badatmizi se pesh aaya tha. bees rupe ke badle mein wo chaar baar ho gaya tha aur panchvin baar jab jane laga tha, to jugnu ne bahut ahista se kaha tha, ‘yoon hi ja rahe ho?’
‘kyon?’ santram ki nigahon mein shaitani thi.
‘rupya to pichhli baar hi pat gaya tha!’ usne bahut jhijhakte hue par saaf saaf kaha tha.
‘ek bari sood kee?’ santram ne baDe gande lahze mein kaha tha, ‘phokat ka paisa nahin aata, samjhi?’ aur kothari se nikalkar siDhiyan utar gaya tha.
jugnu hatash si dekhti rah gai thi. aur hamjoliyon ki tarah wo jhagDa bhi nahin kar pati thi. cheekh chilla bhi nahin pati thi aur adami ko be izzat karke bhejte nahin banta tha.
kanvarjit hotalvale ke sabse zyada paise chaDhe hue the. wo sirf teen baar aaya tha. kul pandrah rupe pate the. mansu ke bhi bees utar ge the…halki rahat mili thi use ki tabhi phoDa tees utha tha. wo tangen phailakar vahan bistar par let gai thi.
darvaze par aahat hui to dekha madanlal tha. use dekhte hi ek kshan ko wo bhitar hi bhitar jhalla uthi thi. jaise ek aur sudakhor pathan samne aakar khaDa ho gaya ho…apni vasulyabi ke liye.
madanlal is beech nahin aaya tha. is vaqt uska aana jugnu ko khal gaya tha. phir bhi becharagi mein usne use bhitar bula liya tha…madanlal khaat par baith gaya tha. apna thaila usne sirhane sarka diya tha. jugnu khamoshi se thaile ko tatolne lagi tho. usmen kuch postar the aur tah kiya hua ek jhanDa. ekaadh purane se rajistar bhi the. uska dil dhaDak utha tha ki kahin wo naqad paise ki maang na kar de. phoDa alag tees raha tha.
madanlal vahi purane kapDe pahne hue tha aur vahi jute. pasine ki gandh puri kothari mein bhar gai thi.
‘bahut dinon baad aana hua!’ jaise taise jugnu ne kaha.
‘jute utaar loon!’ madanlal ne halkepan se kaha tha.
‘utar lo…’
‘darvaza band kar doon?’
‘aaj bahut taqlif hai…jangh ke joD par phoDa nikla hua hai. sidhi to let bhi jaun par jaangh moDte jaan nikalti hai…’ jugnu ne kaha tha to madanlal tasme kholte kholte thithak gaya tha. man hi man wo sharma bhi gaya tha. jugnu bhi bahut atpata mahsus kar rahi thi. par madanlal ne use ubaar liya tha. idhar udhar ki baten karta raha tha, par har kshan jugnu ko Dar laga rahta tha ki ghoom phir kar baat rupyon par na aa jaye…
‘achchha to chalta hoon…’ madanlal thaila lekar khaDa ho gaya tha. usne bahut bhari bhari nazron se jugnu ko dekha tha…jaise aaj lautte hue use taqlif ho rahi thi.
aur sari baton ke bavjud jugnu ab dubara usse rukne ko kah bhi nahin sakti thi. bahut sankoch se usne kaha tha, ‘vah tumhare rupe…’
‘unke liye nahin…’ madanlal ne kaha, ‘tumhare liye aaya tha!’
uski baghlon ke niche bhara hua pasina syahi ke dhabbe ki tarah chamak raha tha. banhon ki ubhri hui nasen pasiji huin thi. usne pasije haath se jugnu ka haath pakDa tha, to laga tha jaise hatheli mein gridari roti ki halki si tapish aa gai ho.
‘main phir auunga…’ kahkar madanlal chala gaya tha. jugnu sidhi barje par aa gai thi. man mein kahin afsos bhi tha ki use aise hi laut jana paDa. madanlal ko wo dekhti rahi thi…vah gali mein teen chaar ghar paar karke khaDa ho gaya tha. uska gali mein rukna jaise usse saha nahin ja raha tha. phir wo uupar barje par ek nazar Dalkar panchaven kothe ki siDhiyan chaDh gaya tha. pata nahin, kaisi tilmilahat use hui thi. phoDa aur zor se tees utha tha!…phir dhire dhire jalan shaant ho gai thi. agar usne roka hota to wo shayad nahin jata…akhir use bhi to jalan bardasht hone lagi thi. wo to sirf uski taqlif ka khayal karke laut gaya tha, uske pasije haath ki garmahat mein kisi tarah ka dhokha nahin tha…
tabhi kanvarjit aa gaya tha. ekayek laga tha jaise koi paraya ghar mein ghus aaya ho. par apne ko sambhalte hue usne muskurakar use dekha tha.
bilkis udhar kone mein khaDi kisi pahlavan se baat kar rahi thi. jugnu chupchap kanvarjit ko lekar kothari mein chali gai thi. darvaze bheD liye the. kanvarjit ne kunDi chaDha di thi.
‘aaj bahut taqlif hai…phoDa pak gaya hai. ’ jugnu ne jaise ajizi se use samjhaya tha.
‘abhi tak theek nahin hua?’ kanvarjit ne puchha tha.
‘hoon, shayad do teen din mein phat jaye!’ jugnu ne jaise mafi mangi thi.
‘bilkul taqlif nahin hone dunga…bahut asani se…’ kahte hue kanvarjit khaat par let gaya tha.
‘aaj…’ jugnu ne kaha, to usne bahut narmi se use apni baghal mein lita liya tha aur bola tha, ‘zara si bhi taqlif nahin hone dunga…’
jugnu bahut bebas ho gai thi. samajh mein nahin aa raha tha ki use kaise samjhaye, tabhi usne uski chhatiyon par haath rakh liya tha. dhire se karvat lekar jugnu ne lait bujha di thi aur blauz mein haath Dalkar kaps nikale aur khaat ke niche sarka diye the.
bahut baar usne karah dabai aur kanvarjit ko roka. ankhon ke samne andhera chha chha jata tha aur zor paDte hi jaangh phatne lagti thi. kanvarjit teen chaar baar ruka, phir jaise us par shaitan savar ho gaya tha…
‘are, ruk to…’ wo chikha tha aur jugnu ki tangen dabakar wo havi ho gaya tha.
‘ari, amma re…mar Dala…!’ wo puri avaz se chikhi thi jaise kisi ne qatl kar diya ho aur chhataptakar behosh si ho gai thi.
‘sali!’ hanfate hue kanvarjit bola aur use chhoDkar niDhal sa baith gaya tha.
kuchhek minat baad jugnu ko hosh aaya tha. dard kuch thama tha to uske haath pair hile the. takiye ke niche se kapDa nikalkar usne lait jalai thi, to puri jaangh phate hue phoDe ke mavad se bhari hui thi aur kanvarjit usse bilkul alag baitha ‘on…on…’ karke Dakaren le raha tha.
‘phoot gaya na…’ wo khaDa hota hua bola tha, to usne jaangh par saDi khiska li thi.
‘dhyaan rakhna, chauthi bari hui!’ kanvarjit ne kaha aur kunDi kholkar kothari se bahar nikal gaya tha.
saDi khiskakar wo mavad ponchhne lagi thi. ekayek man bahut ghabra utha tha. usne dhire se phatte ko avaz di thi. phatte aaya tha, to usne ghaDe se pani nikalvaya tha aur kapDa bhigokar mavad ponchhte hue boli thi, ‘dekh, phatte…udhar vimla ke ghar ek adami gaya hai…chala na gaya ho to zara bula la. nili qamiz pahne hai, thaila hai uske paas. ’
‘gahak adami hai?’ phatte bola tha.
‘nahin, aapsi ka adami hai!’ jugnu ne kaha, ‘zara sa pani aur de de…’
phatte ghaDe se pani nikal kar laya, to phir sochte hue boli, ‘rahne de…tu apna kaam kar. wo kah gaya hai, aa jayega kabhi…’ kahte kahte usne phoDe ko halke se daba, to kuch aur mavad nikal paDa tha; aur dard se phir chehre par pasina chhalachhla aaya tha.
jugnu ki tabiat in dinon kuch nasaz si hai. par kaam nahin karegi to chalega kaise? is beech niymit grahkon ke alava ek jhole vala adami bhi uske paas aane laga hai. wo adami hai madanlal. is beech bimari baDhti hai, par kuch samay baad majburi jugnu ko dubara is peshe mein aane ke liye majbur kar deti hai. wo apne bhavishya ko lekar behad chintit hai aur madanlal ke prati janme ne lagav ko lekar bhi uske man mein uthal puthal chal rahi hai.
jaanch karne bali Dauktarni ne itna hi kaha tha ki use koi poshida marz nahin hai, par tapedik ke asar zarur hain. usne ek parcha bhi likh diya tha. khane ko giza batai thi.
kameti pahle hi peshe par rok laga chuki thi. sab pareshan theen. samajh mein nahin aa raha tha ki aya hoga? Dauktri jaanch mein bahuton ka pesha aur pahle hi thapp ho chuka tha.
ibrahim thekedar ne jo chuni theen, ve sab ‘paas’ ho gai theen. unke nakhre bahut baDh ge the. ve baDe gharur se apne khandanon ki charcha karti theen.
ibrahim ne chust durust laDakiyon ko chhaant liya tha. dhire dhire ve shahr ke achchhe hisson mein ja basi theen. ibrahim unki dekhbhal karta tha aur jis theke se jitni le gaya tha, unka paisa mahine ke mahine chukta kar jata tha.
ek baar jab jugnu zyada pareshan thi, to usne bhi ibrahim se kaha tha ki kisi thaur thikane par baitha de, par ibrahim ne do took javab de diya tha, ‘shadi to hai nahin ki kisi ki ankh mein dhool jhonkkar gale maDh doon! jo ayega, wo to boti boti dekhega. ’ aur wo qatrakar chala gaya tha.
us din uske dil par pahli chot lagi thi—ab wo is layaq bhi nahin rahi? dusri chot tab lagi thi, jab saath ke barje se shahnaz ne haath matkate hue gali di thi, ‘are, alla tujhe wo din bhi dikhayega jab gahak teri siDhiyon par qadam tak nahin rakhega. ’
shahnaz ki is baat par muhalle mein baDa bavela macha tha. ye gali to buri se buri ko nahin di jati…sabke gahak jite jagte rahen. khuda mardon ko rozi de…jangh mein zor de!
aur usi din pahli baar jhijhakta hua wo aaya tha. phatte use laya tha. uske haath mein baDa sa thaila tha. khaki paint aur nili qamiz pahne tha. daDhi baDhi hui thi. kanon ke roon aur bhaunhon par dhool ki halki parat thi. kamre mein jakar jugnu khaat par khud baith gai thi, to wo achakchaya sa khaDa rah gaya tha. uski samajh mein nahin aa raha tha ki thaila kahan rakh de. tabhi jugnu ne baDi asani se thaila lekar sirhane rakh diya tha. wo chupchap khaat par baith gaya tha. kuch kshnon ki khamoshi ke baad jugnu ne kaha tha, ‘jute utaar lo…. ’ usne kirmich ke jute utare the to badbu ka ek bhabhka utha tha…kuchh kuch vaisa hi jaisa ki bahuton ke kapDe utarne par utha karta tha…khas taur se us mansu kirani ke paas se phutta tha, jo raat ke gyarah baje ke baad hi aaya karta tha aur nibat chukne ke baad kamar mein dard ki vajah se shila ki tarah baitha rah jata tha. tab jugnu hi use uthati thi aur wo janghen khujlata hua chala jata tha. ya phir kanvarjit hotal vale ki tarah, jo badbu to deta hi tha aur uthne se pahle khaat par baitha hua ‘on…on’ karke Dakaren leta tha.
bah bhabhak usse bardasht nahin hui to boli, ‘jute pahan lo!’
wo jute pahankar phir baith gaya tha. tab use baDi koft hui thi. ek minat wo use ghurti rahi thi, phir chiDhkar boli thi, ‘yah ghar ki baithak nahin hai…farigh hoke apna rasta napo!’ usne apmanit mahsus kiya tha aur apne ko sambhalne ke baad achakchakar bola tha, ‘tumhara naam kya hai?’
‘jugnu!’ wo boli thi.
‘kahan ki ho?’
‘tum apna kaam karo…. ’ wo phir chiDh gai thi.
aur tab usne uski tarah hi puchha tha, ‘tumhen ye pesha pasand hai?’
‘han!…tumhen nahin hai?’ kahte hue wo let gai thi. usne saDi janghon tak khiska li thi. wo bhi let gaya tha aur usne blauz ke bhitar haath Dalne ki jhijhakabhri koshish ki thi.
‘pareshan na karo to achchha hai…’ wo boli thi, ‘kyon kholte ho…?’
uske liye kuch bhi kar sakna mumkin nahin rah gaya tha. jugnu ke chehre par saste pauDar ki parat thi…gardan mein pauDar kaki Doriyan si ban gai theen. honthon par khoon sukhkar chipak gaya tha. kanon ke taups menDhak ki ankhon ki tarah ubhre hue the. baal tel se bhige the. takiya nihayat ganda tha aur chadar kuchle hue chameli ke phool ki tarah maili thi.
sankri kothari mein ajib si badbu bhari hui thi. ek kone mein pani ka ghaDa rakha tha aur tamchini ka ek Dibba. kone mein hi kuch chithDe bhi paDe the.
wo paDa paDa idhar udhar dekhta raha. jugnu ke sirhane hi chhoti si almari thi. uska patthar tel ke chikne chakatton se bhara hua tha. wo tuta hua kangha, sasti nelapaulis ki shishi aur juDe ke kuch pin usmen paDe the. almari ki divar par pensil se kuch naam aur pate likhe hue the. sinema ke giton ki kuch kitaben ek kone mein rakhi theen, unhin ke paas mare sanpon ki tarah chutile paDe the. dekhte dekhte uske man mein gijagijahat bhar gai thi. aasre ke liye usne jugnu ki jaangh par haath rakh liya tha. jaangh basi machhli ki tarah puli puli aur khaddar ki tarah khuradri thi. jugnu ke khule hue aadhe tan se mave ki mahak aa rahi thi. usne haath hataya to janghon ke niche chadar par aa gaya tha. use laga jaise chadar bhigi hui ho…
‘yahi kamai ka vaqt hota hai…itne mein to chaar khush ho ge hote!’ jugnu ne kaha aur donon banhon mein kaskar use bheench liya tha.
aur jab wo uthkar baitha to jugnu ne mazaq mazaq mein uska thaila khol liya tha, ‘bahut rupya bharkar chalte ho!’ use laga ki shayad wo mazaq mein ekaadh rupya aur hathiyana chahti hai. tab usne jugnu ko pahli baar ghaur se dekha tha aur chupchap chala gaya tha.
jab bhi jugnu bazar se nikalti, to sir par palla Dalkar. wo itni chhichhori bhi nahin thi ki koi fabti kasta. sab use aise dekhte the, jaise us par unka saman adhikar ho. wo rasta chalte kanakhiyon se un logon ko zarur dekh leti thi, jinhen wo achchhi tarah pahchanti thi aur jo uske mardon ki tarah uske paas aate jate the. tabhi ek din wo dikhai paDa tha—vahi thailevala adami. ek imarat ki pahli manzil ke barje par kohaniyan teke wo biDi pi raha tha. vahi qamiz pahne tha. imarat par laal jhanDa laga hua tha, jiski chhaya uske kandhon par kaanp rahi thi.
tuti hui chappal juDvane ke liye wo vahin ruk gai thi. wo shayad bhitar chala gaya tha.
raat ko wo aaya tha. usko ankhon mein pahchan thi. is baar wo sakucha nahin raha tha. khaat par baithe baithe jugnu ne usse puchha tha, ‘tum kya kaam karte ho?’
‘kuchh nahin!’ wo bola tha, ‘mazduron mein kaam karta hoon…’
‘hamara bhi kuch kaam kar diya karo…ham bhi mazdur hain!’ jugnu ne mazaq kiya tha.
‘tumhen der to nahin ho rahi hai!’ usne kaha tha
‘aaj tabiat theek nahin hai. ’ jugnu alsate hue boli thi.
‘kya hua?’
‘kamar bahut duःkha rahi hai. sare badan mein haDphutan hai…jugnu boli thi, ‘pata nahin kya ho gaya hai…tara ko bula dun?…bahut sharafat se pesh ayegi…samajhdar aurat hai…’
usne mana kar diya tha. kuchhek minat baithkar wo chalne laga tha, to sirf itna hi bola tha, ‘main aise hi chala aaya tha. ’ aur wo chupchap andheri siDhiyon mein utar gaya tha. jugnu khamoshi se aakar khiDki par khaDi ho gai thi. use laga tha ki wo kisi aur zine mein chaDh jayega. gali mein zyada aamad o raft nahin thi. thoDi thoDi door par adamiyon ke teen chaar gol khaDe hue the. unmen se phutkar kabhi kabhi koi kisi zine mein chaDh jata tha. nanbai ki chimani mein se dhuan nikal raha tha…vah use dekhti rahi thi. wo kahin ruka nahin. dhire dhire gali parkar saDak ki taraf muD gaya tha—usi saDak par, jis par wo imarat thi, jismen wo rahta tha.
jugnu ko uska yoon laut jana bahut achchha laga tha. halki si khushi hui thi. kothari ke palang par aakar wo let rahi thi.
kothari mein bahut silan thi aur ghuti ghuti si badbu. darvaza usne band kar liya tha aur sinema ke giton ki kitab uthakar man hi man paDhti rahi thi.
tabhi kivaDon par dastak hui thi aur amma ki avaz aai thi, ‘jugnu bete! mua behosh to nahin ho gaya!’
‘yahan koi nahin hai, amma!’
‘to barje par nikal aa, bete…baDi achchhi hava chal rahi hai…gali mein raunaq bhi hai…’ kahte hue amma ne darvaza khol diya tha, ‘tabiat to theek hai!’
‘kuchh gaDbaD hai, amma!’
‘to ek gilas doodh pi le, beta…abhi to vaqt hai, koi aa hi gaya to…’
aur wo uth aai thi. uski gardan par ulta haath rakhte hue amma ne bukhar dekha tha aur kamar ke uupar peeth ke maans ki lautti salavten dekhkar boli thi, ‘sehat ka khayal chhoD diya hai tune…kamar par kitni moti parten girne lagi hain…thoDi si varzish kar liya kar…’ kahti hui wo dusri kothari ki or chali gai thi. dusri kothari se kuch tez tez avazen aa rahi theen. aur amma baDbaDati hui bhitar chali gai thi, ‘yah chuDail bina laDe lagam nahin Dalne deti…kisi din is kothari mein qatal hoga…!’
ye roz ki baat thi…bilkis ko amma yoon hi kosti thi. khud bilkis ka kahna tha ki uske paas se koi bina apni kamar pakDe vapas nahin ja sakta. bilkis ko ismen maza bhi aata tha. adami ko chhoDte hi wo darvaze par aakar khaDi ho jati thi aur use harkar jate hue dekhkar taliyan chatkakar baDi uunchi hansi mein hansti thi, ‘ari, o mari zubeda! zari dekh…rustam jariya hai! baDa aaya tha pailvan ka bachcha! ye mardua soega aurat ke saath!’
ek din adami bigaD gaya tha, ‘kya bak rahi hai?’
‘are, ja ja bhishti ki aulad…le, ye chavanni le ja, chhatank bhar malai kha lije…’
aur wo adami bahut apmanit sa siDhiyan utar gaya tha. pure kothe mein bilkis ko lekar dahshat chhai rahti thi. pata nahin kab jhagDa ho jaye! aur wo haath nacha nacha kar baDe fakhr se hamesha kaha karti thi, ‘apne to barammchari ki aurat hain…’
jugnu ko dekhkar bilkis hamesha tana deti thi, ‘tu to kisi ghar baith ja…’ par jugnu kisi se laDi nahin. wo janti thi ki bilkis bahut munhaphat hai. amma tak ko nahin dhar ganthati. aur amma thi ki sabke tan badan ka khayal rakhti thi. badan chust darust rakhne ke liye wo hamesha chikhti hi rahti thi. ‘bhains ki tarah phailti hi ja rahi hai. satan ki petikot pahna kar. aalu khana bann kar kalamunhi!’
pet par Dhalan aate hi wo zubeda ke liye bhitar bakse mein se peti nikal lai thi, ‘din mein ise bandha kar! chaay pina kam kar…’ aur usne jeen ki har naap ki angiyan lakar rakh di theen. use bas ek hi fikr rahti thi, ‘mera bas chale to umar rok doon tum logon ke liye…’
duphar mein amma baDe pyaar se kabhi kisi ke baal saaf karne baith jati, kabhi shaam ke liye saDiyon par istri karti aur basant ke din to wo sabke liye basanti joDa rangti thi. phatte ke liye rumal rangana bhi na bhulti. eid baqrid, holi divali baDe hausale se manati aur kabhi kabhi kamla ki yaad karke DabDabai ankhon se kahti, ‘us jaisi laDki to hazar kokhen nahin janam payengi…khuda ne kya khubsurti bakhshi thi, haath lagate maili hoti thi…use to paison valon ka Daah kha gaya. zahr de diya kutton ne…bahut chhataptai thi bechari. haay, main aspatal tak na le ja pai…. ’
…jugnu barje mein aakar baith gai thi. aate jaton ko dekh rahi thi. bheeD dhire dhire halki ho rahi tho. phool gajrevale uthkar ja rahe the aur usne dekha tha—roz ki tarah mannan mali ne jate hue ek gajra kalavati ki khiDki mein phenka tha aur kalavati ne roz ki tarah muskurakar galiyan di theen. banne kaliivala dhula hua tahmad aur jalidar baniyan pahne aaya tha aur sidhe shahnaz ke kothe par chaDh gaya tha.
shankar panvaDi ke samne chabutre par neem pagal chunnilal ne apna bora bichha diya tha aur tamchini ke magge mein chaay pite hue baDbaDa raha tha, ‘are zalim, usi din haath qalam karva le jis din ghalat sur nikal jaye! are zalim…yahin utarkar ayegi…isi bore par suhagarat hogi…zalim!’
aur tabhi ek kshan ke liye gali ke moD par jugnu ko usi nili qamiz vale ka shak hua tha. shayad wo phir lautkar aaya hai aur chupke se kahin chaDh jayega. par wo uska bhram tha. wo nahin tha, koi aur adami tha.
phir bahut din baad wo lauta tha. aur jugnu ki kothari mein aate hi ghar ki tarah khaat par pasar gaya tha. lekin jute utarne ki phir bhi uski himmat nahin hui thi.
‘tum apna naam to bata do?’ jugnu ne baghal mein lette hue puchha tha.
‘madanlal…ayon?’
‘aisa hi…yahan nahin the?’
‘jel mein tha…giraftariyan ho gai theen, usi mein chala gaya tha…’
‘haDtal chal rahi thi na…malikon ne band karva diya tha. baDi mushkil se rihai hui…’
‘is haDtal vaDtal se kuch hota bhi hai? kahe ko ki thee?’
aur kirmich ke juton aur pasine se sane hue pairon se jo bhabhak nikli thi, usse jugnu ko koi khaas pareshani nahin hui thi, dhire dhire jaise bu hi uske charon or sama gai thi…aur phir uske badan mein bhar gai thi.
madanlal to chala gaya tha, par uski wo gandh rah gai thi. aur unhin dinon sab peshevaliyon ko Dauktri jaanch ke liye hazir hona paDa tha aur Dauktarni ne itna hi kaha tha ki koi peshoda marz nahin hai, par tapedik ke asar zarur hain…
dekhte dekhte uski khansi baDh gai thi. bukhar rahne laga tha. amma aspatal le jakar dikha aai thi par rog thamne mein nahin aa raha tha. dhire dhire wo kaam ke layaq nahin rah gai thi. ek din khoon thuka tha to bilkis ne asman sir par utha liya tha, ‘are, ise Dalvao kahin bahar! hamein marna hai?’ to amma ne use Danta tha, par bhitar se wo bhi badal gai thi. tarah tarah se usne jugnu ko samjhaya tha ki wo apni sehat ki khatir kahin aur chali jaye. zarurat ke liye sau pachas rupe bhi le jaye, is tarah laparvahi na kare…
par jugnu ki samajh mein nahin aata tha ki wo kahan chali jaye. paisa bhi paas nahin tha aur sau do sau se kitne din kat sakte the. akhir harkar wo tapedik aspatal mein bharti ho gai thi. dhire dhire amma ka diya aur apne paas ka sara rupya khatm ho gaya tha. chaar mahine lagatar use senetoriyam mein rahna paDa tha. uske baad bhi chhutti nahin mili thi. haan, kahin thoDi bahut der ke liye aane jane par rok nahin thi. vahan se nikalkar wo do chaar baar amma ke paas aai thi to amma ne kaha tha, ‘kisi ko batana mat bete ki kahan thi…mainne to yahi kaha hai ki rampur chali gai hai apni bahan ke paas, kuch dinon mein vapas aa jayegi…par mua darogha bahut pareshan karta tha. . . use shak hai ki yahin kahin baithne lagi hai…’
amma ki ankhon mein apnapan pakar use baDa sahara sa mila tha. aur amma uski haalat dekh dekhkar dukhi hoti rahi thi. sachmuch jugnu ka badan jhulas sa gaya tha…bal bahut jhine ho ge the aur chehre ki surkhi ghayab ho gai thi.
jugnu jab bhi shishe mein apne ko dekhti, to ghabra uthti thi. ab kya hoga? kaise bitegi ye pahaD si bimar zindgi! sahara…koi aur sahara bhi to nahin, koi hunar bhi nahin…
peshe par rok lag jane ke bavjud kai nai laDkiyan lakhanuu banaras se aa gai theen aur unhonne bazar bigaD rakha tha. suna tha, shahnaz ki haalat bhi kharab ho gai thi aur kalavati bhukhon marne ki haalat mein pahunch gai thi.
ye sab sun jankar jugnu ka dil ghabrane laga tha.
chalne se pahle usne amma se kuch rupe mange the, to wo apna rona rone lagi aur tanghali ka byaan karne lagi thi. uski haalat bhi khasta thi.
aur vahan se senetoriyam lautte hue usne un sabki or aasre se bhari nazren Dali theen, jinhen wo janti thi, jo uphanti javani ke dinon mein uske paas aate jate rahe the.
mansu kirani ko dukan par baitha dekhkar jugnu ke man mein nafrat si bhar aai thi…uska kamar pakaD baith jana aur phir janghen khujlate hue kothari se jaise taise jana…
kanvarjit hotalvala maila pajama pahne not gin raha tha—uthne se pahle hamesha ‘on…on…’ ki Dakaren leta tha, to jugnu ka man michlane lagta tha…
jugnu ne auron ko bhi dekha tha…jinse thoDi bahut bhi mel mulaqat rahi thi.
senetoriyam mein aur bahut din rukna nahin hua. akhir aana to tha hi. par wo sabhi ki shukraguzar thi ki unhonne musibat aur taqlif ke dinon mein ankhen nahin palti theen.
aur jo kuch usne jisse liya tha, use nuskhe ke pichhe hi not kar liya tha. itne dinon mein kafi qarza chaDh gaya tha. kanvarjit hotal vale ne baDa ehsaan jatakar saintalis rupe diye the. mansu ne utna ehsaan to nahin jataya tha, par rupe jaldi se jaldi lauta dene ki baat le li thi saintalis rupe se jaise uska karabar thapp hua ja raha tha.
santram fitar ne bees diye the aur chalte chalte baDa ganda mazaq kiya tha, ‘sood mein ek rat…thik hai na…’ par us gande mazaq se use laga tha ki adami ki ankh abhi us par tikti hai. badan gaya bita nahin hua hai, jitna shayad wo samajh rahi thi.
tangi ke un dinon mein usne ek roz madanlal se milkar bhi tees rupe le liye the. usne bas yahi kaha tha, ‘ye chande ke rupe hain, jaldi de dogi to theek rahega, mere paas bhi itna nahin hota ki bhar sakun!’ par us baat mein nihayat becharagi thi. bahut majburi mein usne kaha tha aur saath hi ye bhi kaha tha ki use jugnu ghalat na samjhe…uski utni auqat nahin. aur wo bina kuch aur bole parti ke daftar mein chala gaya tha.
zarurat ki vajah se dil par patthar rakhkar jugnu ne rupe le liye the, par taqlif bhi hui thi.
aur ab, jab se wo senetoriyam se lauti thi, to pulisvale alag pareshan kar rahe the. saat mahine ka paisa unhen nahin mila tha. is kothe par unhonne sabse alag alag raqam baandh rakhi thi.
lautkar aane ke baad wo bhitar hi bhitar baDi kamzori si mahsus karti thi. badan ab utna jhel nahin pata tha. koi zyada chheDta chhaDta to halki khansi aane lagti thi…aur paanch paanch, saat saat minat ke bhitar hi dam phulne lagta…aur log the ki sine par hi sara vazan rakh dete the…
rah rahkar ab vaisi hi uljhan hoti thi jaisi ki shuru shuru mein hua karti thi aur use lagta tha ki usne ye sab jaise ab pahli baar hi shuru kiya ho.
balon ki ek purani choti wo saat rupe mein kalavati se kharid lai thi aur chhatiyon par bhi kaps lagane lagi thi. har baar unhen nikalne aur lagane mein baDi uljhan bhi hoti thi. kalaf lagi dhotiyan pahanne se use hamesha chiDh rahi thi, par ab kalaf lagi hi pahanti thi. badan gudaz lagta tha.
itna sab karne ke bavjud amdani kafi nahin thi, koi koi raat to khali hi chali jati thi. aur apni kothari mein akele lete hue wo bahut ghabrati thi…yah pahaD si zindgi…din din tutta hua sharir…!’
napunsak logon se use behad pareshani hoti thi. ve had se zyada pareshan karte the…boti boti tatolte rahte the aur josh aane ke intzaar mein bahut satate the. chat auchat haath Dalte the aur tarah tarah ki gandi farmaishen karte the.
isse achchhe to ve the, bhari banduq ki tarah aate the…aur apna kaam karke chalte bante the. na bakvas karte, na zyada satate the. par amdani itni bhi nahin thi ki guzara ho jaye. qarza utarne mein nahin aata tha.
nuskhe ke pichhe sabke rupe not kar rakhe the…par unhen chukane layaq paisa kabhi haath mein nahin aata tha.
akhir aur koi tariqa nahin rah gaya tha. jaangh ke joD par nikla phoDa dikhane ke liye jugnu jab jarrah ke paas ja rahi thi, to raste mein mansu ne tok diya tha, ‘bahut din ho ge…ab to dhandha bhi chal raha hai!’
chalte chalte ve ek taraf ko aa ge the. tab bahut majburi mein usne mansu se kaha tha, ‘ek paisa nahin bachta, kya karun…tumne to aana jana bhi chhoD diya hai…’
‘hamne to gangajli utha li hai…ranDibazi nahin karenge. tulsi ki kanthi pahan li hai, ye dekho!’ mansu bola to jugnu ko halki si hansi aa gai thi aur wo ankhen phaDe dekhta rah gaya tha.
jaangh ke joD par nikle phoDe ke karan chalne mein jugnu ko kafi taqlif ho rahi thi. wo tangen phaila phailakar chal rahi thi…mansu ka man Dol raha tha. gali ke moD par aakar mansu ne dhire se kaha tha, ‘to phir…bataya nahin tumne…kab tak intizar karogi?’
‘quvvat ho to vasul kar le jao!’ jugnu ne apni majburi ko pite hue banavati shokhi se kaha tha aur gali mein muD gai thi. apni hi baat par use baDi sharm aai thi…phir laga tha ki theek hi to kaha usne…khamakhvah ki izzat ka aya matlab? aur phir kisi ka qarza lekar kyon mare? jo utar jaye so achchha hi hai.
jarrah ne bataya tha ki abhi phoDa pakne mein din lagenge. bandhne ke liye pultis de di thi. jab wo lauti to duphar ho rahi thi. sab apne apne chabutron par baithi miskaut kar rahi theen. yahi vaqt hota hai, jab sab jagkar uth jati hain aur shaam ki taiyari se pahle mil baith leti hain. gali mein se kachchi umar ke launDon ka gol guzar raha tha. ve gande ishare kar kar ke aurton ko chiDha rahe the aur bapon ko di janevali galiyon ka maza le rahe the. avara launDe roz guzarte the…aur unka roz ka yahi shaghal tha. Dhalti umar ki aurten gande ishare dekh dekhkar unke bapon ko galiyan deti theen aur javan aurten muskurati rahti theen. kabhi kabhi hasan, banvari ya langDa matadin un launDon ko dauDa bhi deta tha, tab ve gali ke muhane par pahunchakar galiyan dete the aur nekar ya ghutna utha uthakar ashlil harakten karte the. launDon ka ye gol masjid ke pichhe vali basti se aaya karta tha…
duphar mein hi dukh sukh ki baten hua karti theen. aur chughli chabav bhi. zyadatar chughli unki hua karti thi, jo is muhalle se uthkar sharifon ki bastiyon mein chali gai thin…jinhen chhaant chhantakar ibrahim le gaya tha.
shaam hote hi gali garmane lagti thi. phool harvale aa jate the. panvaDiyon ki dukanen saj jati aur ghafur ki dukan par aakar ek pulisvala baith jata tha…uske baithte hi ghafur khuleam botlen bechna shuru kar deta tha.
jugnu shaam ko pultis hata deti thi aur baDe beman se singar karke baith jati thi. phoDa gaanth bankar rah gaya tha, dard bahut karta tha. phir bhi wo jaise taise ekaadh ko khush kar hi deti thi.
barje par baithe baithe jab wo soch mein Doob jati aur besahara pahaD si zindagi samne phail jati, tab bahut ghabrati thi. akhir kya hoga? wo to dane dane ko mohtaj ho jayegi. langDi ghoDi ki zindagi wo kaise ji payegi?…kya use bhi masjid ki siDhiyon par burqa pahankar baithna hoga aur allah ke naam par haath phailana hoga? akhtri ki tarah…bihabbo aur champa ki tarah…ji jab bahut ghabrata to wo zahr khane ki baat sochti…ya Doob marne ki.
saikDon marad aaye aur ge…par koi ek aisa nahin, jiski parchhain tale umr kat jaye.
zara zyada jaan pahchan to unhin se thi, jinse rupe liye the. par aasra vahan bhi nahin tha. kiska aya bharosa…kaun kahan chala jaye! umr ke saath sab laut jate hain. jahan baal bachche baDe hue ki unka aana jana band. jahan umr Dhali ki adami ne dusra shauq aur shaghal khoja…tab kaun ayega? purani pahchani shaklen bhi nahin dikhai dengi. tab kitna ajib aur akela lagega!…bite hue vaqt mein baithkar jina kitna taklifdeh hoga…!
pichhle dinon mein use bas yahi ek taskin mili hai ki sabhi qarzdar apna paisa vasulne ke liye uske paas aate rahe hain…use ummid thi ki mansu zarur ayega, wo apna paisa zarur vasul karega…aur bas aaya tha.
mansu ke badan se vaisa hi bhabhka utha tha aur wo aaya bhi gyarah ke baad hi tha aur nibat jane ke baad kamar pakaDkar baith gaya tha. jugnu bhi mast paDi hui thi. phoDe par dabav paDne ki vajah se wo bil bila uthi thi. aur uski himmat nahin ho rahi thi ki mansu ko uthakar darvaze tak pahuncha aaye taki wo hamesha ki tarah janghen khujlata hua chala jaye.
mansu ki akDi kamar jab kuch Dhili paDi, to bola tha, ‘yaad rakhna…’
jugnu ne ‘achchha’ kaha tha aur mansu ko sahara dekar utha diya tha.
raat kafi ho gai thi. wo vahin paDi paDi kothari ki divaron ko dekhti rahi thi. par unmen dekhne ko kuch bhi nahin tha. matmaili bhaddi divaren jin par kabhi usne raddi risalon se kaat katkar filmi sitaron ki tasviren chipkai theen. kone mein keel par ek Dori mein purani chuDiyon ka lachchha latak raha tha aur divar ki kinari ke sahare nelapaulish ki khali shishi paDi thee…
khaat ke niche gudaD tha aur teen ka baksa bakse mein barah baras pahle ka ek parcha paDa hua hai, jiske huruf bhi uD ge hain…ab us parche ka koi matlab nahin rah gaya hai. musavvida murda ho chuka hai. aur ab kaun jata hai vapas…aur kaun bulata hai vapas…zindagiyon ke beech se vaqt ka dariya kinare katta hua nikal gaya hai…kahin koi nahin hai…koi kahin nahin hai.
subah uthi to badan toot raha tha. phoDe mein bahut dard tha. jaangh ka joD phata ja raha tha. usne phir pultis baandh li thi. aur shaam ko jaise taise taiyar ho gai thi. kothari mein jakar sabka hisab joDne lagi thi. almari ki divar par usne nishan laga rakhe the ki kaun kitni martaba aaya tha aur kitne rupe pat ge the. santram fitar sachmuch bahut badatmizi se pesh aaya tha. bees rupe ke badle mein wo chaar baar ho gaya tha aur panchvin baar jab jane laga tha, to jugnu ne bahut ahista se kaha tha, ‘yoon hi ja rahe ho?’
‘kyon?’ santram ki nigahon mein shaitani thi.
‘rupya to pichhli baar hi pat gaya tha!’ usne bahut jhijhakte hue par saaf saaf kaha tha.
‘ek bari sood kee?’ santram ne baDe gande lahze mein kaha tha, ‘phokat ka paisa nahin aata, samjhi?’ aur kothari se nikalkar siDhiyan utar gaya tha.
jugnu hatash si dekhti rah gai thi. aur hamjoliyon ki tarah wo jhagDa bhi nahin kar pati thi. cheekh chilla bhi nahin pati thi aur adami ko be izzat karke bhejte nahin banta tha.
kanvarjit hotalvale ke sabse zyada paise chaDhe hue the. wo sirf teen baar aaya tha. kul pandrah rupe pate the. mansu ke bhi bees utar ge the…halki rahat mili thi use ki tabhi phoDa tees utha tha. wo tangen phailakar vahan bistar par let gai thi.
darvaze par aahat hui to dekha madanlal tha. use dekhte hi ek kshan ko wo bhitar hi bhitar jhalla uthi thi. jaise ek aur sudakhor pathan samne aakar khaDa ho gaya ho…apni vasulyabi ke liye.
madanlal is beech nahin aaya tha. is vaqt uska aana jugnu ko khal gaya tha. phir bhi becharagi mein usne use bhitar bula liya tha…madanlal khaat par baith gaya tha. apna thaila usne sirhane sarka diya tha. jugnu khamoshi se thaile ko tatolne lagi tho. usmen kuch postar the aur tah kiya hua ek jhanDa. ekaadh purane se rajistar bhi the. uska dil dhaDak utha tha ki kahin wo naqad paise ki maang na kar de. phoDa alag tees raha tha.
madanlal vahi purane kapDe pahne hue tha aur vahi jute. pasine ki gandh puri kothari mein bhar gai thi.
‘bahut dinon baad aana hua!’ jaise taise jugnu ne kaha.
‘jute utaar loon!’ madanlal ne halkepan se kaha tha.
‘utar lo…’
‘darvaza band kar doon?’
‘aaj bahut taqlif hai…jangh ke joD par phoDa nikla hua hai. sidhi to let bhi jaun par jaangh moDte jaan nikalti hai…’ jugnu ne kaha tha to madanlal tasme kholte kholte thithak gaya tha. man hi man wo sharma bhi gaya tha. jugnu bhi bahut atpata mahsus kar rahi thi. par madanlal ne use ubaar liya tha. idhar udhar ki baten karta raha tha, par har kshan jugnu ko Dar laga rahta tha ki ghoom phir kar baat rupyon par na aa jaye…
‘achchha to chalta hoon…’ madanlal thaila lekar khaDa ho gaya tha. usne bahut bhari bhari nazron se jugnu ko dekha tha…jaise aaj lautte hue use taqlif ho rahi thi.
aur sari baton ke bavjud jugnu ab dubara usse rukne ko kah bhi nahin sakti thi. bahut sankoch se usne kaha tha, ‘vah tumhare rupe…’
‘unke liye nahin…’ madanlal ne kaha, ‘tumhare liye aaya tha!’
uski baghlon ke niche bhara hua pasina syahi ke dhabbe ki tarah chamak raha tha. banhon ki ubhri hui nasen pasiji huin thi. usne pasije haath se jugnu ka haath pakDa tha, to laga tha jaise hatheli mein gridari roti ki halki si tapish aa gai ho.
‘main phir auunga…’ kahkar madanlal chala gaya tha. jugnu sidhi barje par aa gai thi. man mein kahin afsos bhi tha ki use aise hi laut jana paDa. madanlal ko wo dekhti rahi thi…vah gali mein teen chaar ghar paar karke khaDa ho gaya tha. uska gali mein rukna jaise usse saha nahin ja raha tha. phir wo uupar barje par ek nazar Dalkar panchaven kothe ki siDhiyan chaDh gaya tha. pata nahin, kaisi tilmilahat use hui thi. phoDa aur zor se tees utha tha!…phir dhire dhire jalan shaant ho gai thi. agar usne roka hota to wo shayad nahin jata…akhir use bhi to jalan bardasht hone lagi thi. wo to sirf uski taqlif ka khayal karke laut gaya tha, uske pasije haath ki garmahat mein kisi tarah ka dhokha nahin tha…
tabhi kanvarjit aa gaya tha. ekayek laga tha jaise koi paraya ghar mein ghus aaya ho. par apne ko sambhalte hue usne muskurakar use dekha tha.
bilkis udhar kone mein khaDi kisi pahlavan se baat kar rahi thi. jugnu chupchap kanvarjit ko lekar kothari mein chali gai thi. darvaze bheD liye the. kanvarjit ne kunDi chaDha di thi.
‘aaj bahut taqlif hai…phoDa pak gaya hai. ’ jugnu ne jaise ajizi se use samjhaya tha.
‘abhi tak theek nahin hua?’ kanvarjit ne puchha tha.
‘hoon, shayad do teen din mein phat jaye!’ jugnu ne jaise mafi mangi thi.
‘bilkul taqlif nahin hone dunga…bahut asani se…’ kahte hue kanvarjit khaat par let gaya tha.
‘aaj…’ jugnu ne kaha, to usne bahut narmi se use apni baghal mein lita liya tha aur bola tha, ‘zara si bhi taqlif nahin hone dunga…’
jugnu bahut bebas ho gai thi. samajh mein nahin aa raha tha ki use kaise samjhaye, tabhi usne uski chhatiyon par haath rakh liya tha. dhire se karvat lekar jugnu ne lait bujha di thi aur blauz mein haath Dalkar kaps nikale aur khaat ke niche sarka diye the.
bahut baar usne karah dabai aur kanvarjit ko roka. ankhon ke samne andhera chha chha jata tha aur zor paDte hi jaangh phatne lagti thi. kanvarjit teen chaar baar ruka, phir jaise us par shaitan savar ho gaya tha…
‘are, ruk to…’ wo chikha tha aur jugnu ki tangen dabakar wo havi ho gaya tha.
‘ari, amma re…mar Dala…!’ wo puri avaz se chikhi thi jaise kisi ne qatl kar diya ho aur chhataptakar behosh si ho gai thi.
‘sali!’ hanfate hue kanvarjit bola aur use chhoDkar niDhal sa baith gaya tha.
kuchhek minat baad jugnu ko hosh aaya tha. dard kuch thama tha to uske haath pair hile the. takiye ke niche se kapDa nikalkar usne lait jalai thi, to puri jaangh phate hue phoDe ke mavad se bhari hui thi aur kanvarjit usse bilkul alag baitha ‘on…on…’ karke Dakaren le raha tha.
‘phoot gaya na…’ wo khaDa hota hua bola tha, to usne jaangh par saDi khiska li thi.
‘dhyaan rakhna, chauthi bari hui!’ kanvarjit ne kaha aur kunDi kholkar kothari se bahar nikal gaya tha.
saDi khiskakar wo mavad ponchhne lagi thi. ekayek man bahut ghabra utha tha. usne dhire se phatte ko avaz di thi. phatte aaya tha, to usne ghaDe se pani nikalvaya tha aur kapDa bhigokar mavad ponchhte hue boli thi, ‘dekh, phatte…udhar vimla ke ghar ek adami gaya hai…chala na gaya ho to zara bula la. nili qamiz pahne hai, thaila hai uske paas. ’
‘gahak adami hai?’ phatte bola tha.
‘nahin, aapsi ka adami hai!’ jugnu ne kaha, ‘zara sa pani aur de de…’
phatte ghaDe se pani nikal kar laya, to phir sochte hue boli, ‘rahne de…tu apna kaam kar. wo kah gaya hai, aa jayega kabhi…’ kahte kahte usne phoDe ko halke se daba, to kuch aur mavad nikal paDa tha; aur dard se phir chehre par pasina chhalachhla aaya tha.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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