‘ऐ मर कलमुँहे!’ अकस्मात् घेघा बुआ ने कूड़ा फेंकने के लिए दरवाज़ा खोला और चौतरे पर बैठे मिरवा को गाते हुए देखकर कहा, “तोरे पेट में फोनोगिराफ़ उलियान बा का, जौन भिनसार भवा कि तान तोड़ै लाग? राम जानै, रात के कैसन एकरा दीदा लागत है!” मारे डर के कि कहीं घेघा बुआ सारा कूड़ा उसी के सर पर न फेक दें, मिरवा थोड़ा खिसक गया और ज्यों ही घेघा बुआ अंदर गईं कि फिर चौतरे की सीढ़ी पर बैठ, पैर झुलाते हुए उसने उल्टा-सुल्टा गाना शुरू कर किया, “तुमें बछ याद कलते अम छनम तेरी कछम!”
मिरवा की आवाज़ सुनकर जाने कहाँ से झबरी कुतिया भी कान-पूँछ झटकारते आ गई और नीचे सड़क पर बैठकर मिरवा का गाना बिल्कुल उसी अंदाज़ में सुनने लगी जैसे हिज़ मास्टर्स वॉयस के रिकार्ड पर तसवीर बनी होती है।
अभी सारी गली में सन्नाटा था सबसे पहले मिरवा (असली नाम मिहिरलाल) जागता था और आँख मलते-मलते घेघा बुआ के चौतरे पर आ बैठता था। उसके बाद झबरी कुतिया, फिर मिरवा की छोटी बहन मटकी और उसके बाद एक-एक कर गली के तमाम बच्चे-खोंचे वाली का लड़का मेवा, ड्राइवर साहब की लड़की निरमल, मनीजर साहब के मुन्ना बाबू-सभी आ जुटते थे। जबसे गुलकी ने घेघा बुआ के चौतरे पर तरकारियों की दुकान रखी थी तब से यह जमावड़ा वहाँ होने लगा था। उसके पहले बच्चे हकीमजी के चौतरे पर खेलते थे। धूप निकलते गुलकी सट्टी से तरकारियाँ ख़रीदकर अपनी कुबड़ी पीठ पर लादे, डंडा टेकती आती और अपनी दुकान फैला देती। मूली, नींबू, कद्दू, लौकी, घिया-बंडा, कभी-कभी सस्ते फल! मिरवा और मटकी जानकी उस्ताद के बच्चे थे जो एक भयंकर रोग में गल-गलकर मरे थे और दोनों बच्चे भी विकलांग, विक्षिप्त और रोगग्रस्त पैदा हुए थे। सिवा झबरी कुतिया के और कोई उनके पास नहीं बैठता था और सिवा गुलकी के कोई उन्हें अपनी देहरी या दुकान पर चढ़ने नहीं देता था।
आज भी गुलकी को आते देखकर पहले मिरवा गाना छोड़कर, “छलाम गुलकी!” और मटकी अपने बढ़ी हुई तिल्ली वाले पेट पर से खिसकता हुआ जांघिया संभालते हुए बोली, “एक ठो मूली दै देव! ए गुलकी!” गुलकी पता नहीं किस बात से खीजी हुई थी कि उसने मटकी को झिड़क दिया और अपनी दुकान लगाने लगी। झबरी भी पास गई कि गुलकी ने डंड उठाया। दुकान लगाकर वह अपनी कुबड़ी पीठ दुहराकर बैठ गई और जाने किसे बुड़बुड़ाकर गालियाँ देने लगी। मटकी एक क्षण चुपचाप रही फिर उसने रट लगाना शुरू किया, “एक मूली! एक गुलकी!...एक” गुलकी ने फिर झिड़का तो चुप हो गई और अलग हटकर लोलुप नेत्रों से सफ़ेद धुली हुई मूलियों को देखने लगी। इस बार वह बोली नहीं। चुपचाप उन मूलियों की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि गुलकी चीख़ी, “हाथ हटाओ। छूना मत। कोढ़िन कहीं की! कहीं खाने-पीने की चीज़ देखी तो जोंक की तरह चिपक गई, चल इधर!” मटकी पहले तो पीछे हटी पर फिर उसकी तृष्णा ऐसी अदम्य हो गई कि उसने हाथ बढ़ाकर एक मूली खींच ली। गुलकी का मुँह तमतमा उठा और उसने बाँस की खपच्ची उठाकर उसके हाथ पर चट से दे मारी! मूली नीचे गिरी और हाय! हाय! हाय!” कर दोनों हाथ झटकती हुई मटकी पाँव पटकपटक कर रोने लगी। “जावो अपने घर रोवो। हमारी दुकान पर मरने को गली-भर के बच्चे हैं,” गुलकी चीख़ी! “दुकान दैके हम बिपता मोल लै लिया। छन-भर पूजा-भजन में भी कचरघांव मची रहती है!” अंदर से घेघा बुआ ने स्वर मिलाया। ख़ासा हंगामा मच गया कि इतने में झबरी भी खड़ी हो गई और लगी उदात्त स्वर में भूँकने। ‘लेफ़्ट राइट! लेफ़्ट राइट!’ चौराहे पर तीन-चार बच्चों का जूलूस चला आ रहा था। आगे-आगे दर्जा ‘ब’ में पढ़ने वाले मुन्ना बाबू नीम की संटी को झंडे की तरह थामे जलूस का नेतृत्व कर रहे थे, पीछे थे मेवा और निरमल। जलूस आकर दुकान के सामने रुक गया। गुलकी सतर्क हो गई। दुश्मन की ताक़त बढ़ गई थी।
मटकी खिसकते-खिसकते बोली, “हमके गुलकी मारिस है। हाय! हाय! हमके नरिया में ढकेल दिहिस। अरे बाप रे!” निरमल, मेवा, मुन्ना, सब पास आकर उसकी चोट देखने लगे।फिर मुन्ना ने ढकेलकर सबको पीछे हटा दिया और संटी लेकर तनकर खड़े हो गए। “किसने मारा है इसे!”
“हम मारा है!” कुबड़ी गुलकी ने बड़े कष्ट से खड़े होकर कहा, “का करोगे? हमें मारोगे! मारोगे!”
“मारेंगे क्यों नहीं?” मुन्ना बाबू ने अकड़कर कहा। गुलकी इसका कुछ जवाब देती कि बच्चे पास घिर आए। मटकी ने जीभ निकालकर मुँह बिराया, मेवा ने पीछे जाकर कहा, “ए कुबड़ी, ए कुबड़ी, अपना कूबड़ दिखाओ!” और एक मुट्ठी धूल उसकी पीठ पर छोड़कर भागा। गुलकी का मुँह तमतमा आया और रूँधे गले से कराहते हुए उसने पता नहीं क्या कहा। किंतु उसके चेहरे पर भय की छाया बहुत गहरी हो रही थी। बच्चे सब एक-एक मुट्ठी धूल लेकर शोर मचाते हुए दौड़े कि अकस्मात् घेघा बुआ का स्वर सुनाई पड़ा, “ए मुन्ना बाबू, जात हौ कि अबहिन बहिनजी का बुलवाय के दुई-चार कनेठी दिलवाई जाते तो हैं!” मुन्ना ने अकड़ते हुए कहा, “ए मिरवा, बिगुल बजाओ।” मिरवा ने दोनों हाथ मुँह पर रखकर कहा, “धुतु-धुतु-धू।” जलूस आगे चल पड़ा और कप्तान ने नारा लगाया :
अपने देस में अपना राज!
गुलकी की दुकान बाईकाट!
नारा लगाते हुए जलूस गली में मुड़ गया। कुबड़ी ने आँसू पोंछे, तरकारी पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी के छींटे देने लगी।
गुलकी की उम्र ज़्यादा नहीं थी। यही हद-से-हद पच्चीस-छब्बीस। पर चेहरे पर झुर्रियाँ आने लगी थीं और कमर के पास से वह इस तरह दोहरी हो गई थी जैसे अस्सी वर्ष की बुढ़िया हो। बच्चों ने जब पहली बार उसे मुहल्ले में देखा तो उन्हें ताजुज्ब भी हुआ और थोड़ा भय भी। कहाँ से आई? कैसे आ गई? पहले कहाँ थी? इसका उन्हें कुछ अनुमान नहीं था? निरमल ने ज़रूर अपनी माँ को उसके पिता ड्राइवर से रात को कहते हुए सुना, “यह मुसीबत और खड़ी हो गई। मरद ने निकाल दिया तो हम थोड़े ही यह ढोल गले बांधेंगे। बाप अलग हम लोगों का रुपया खा गया। सुना चल बसा तो डरी कि कहीं मकान हम लोग न दख़ल कर लें और मरद को छोड़कर चली आई। ख़बरदार जो चाभी दी तुमने!”
“क्या छोटेपन की बात करती हो! रुपया उसके बाप ने ले लिया तो क्या हम उसका मकान मार लेंगे? चाभी हमने दे दी है। दस-पाँच दिन का नाज-पानी भेज दो उसके यहाँ।”
“हाँ-हाँ, सारा घर उठा के भेज देव। सुन रही हो घेघा बुआ!”
“तो का भवा बहू, अरे निरमल के बाबू से तो एकरे बाप की दाँत काटी रही।” घेघा बुआ की आवाज़ आई, “बेचारी बाप की अकेली संतान रही। एही के बियाह में मटियामेट हुई गवा। पर ऐसे कसाई के हाथ में दिहिस की पाँचै बरस में कूबड़ निकल आवा।”
“साला यहाँ आवे तो हंटर से ख़बर लूँ मैं।” ड्राइवर साहब बोले, “ पाँच बरस बाद बाल-बच्चा हुआ। अब मरा हुआ बच्चा पैदा हुआ तो उसमें इसका क्या कसूर! साले ने सीढ़ी से ढकेल दिया। ज़िंदगी-भर के लिए हड्डी ख़राब हो गई न! अब कैसे गुज़ारा हो उसका?”
“बेटवा एको दुकान खुलवाय देव। हमरा चौतरा खाली पड़ा है। यही रुपया दुइ रुपया किराया दै देवा करै, दिन-भर अपना सौदा लगाय ले। हम का मना करित है? एत्ता बड़ा चौतरा मुहल्लेवालन के काम न आई तो का हम छाती पर धै लै जाब! पर हाँ, मुला रुपया दै देव करै।”
दूसरे दिन यह सनसनीख़ेज़ ख़बर बच्चों में फैल गई। वैसे तो हकीमजी का चबूतरा पड़ा था, पर वह कच्चा था, उस पर छाजन नहीं थी। बुआ का चौतरा लंबा था, उस पर पत्थर जुड़े थे। लकड़ी के खंभे थे। उस पर टीन छाई थी। कई खेलों की सुविधा थी। खंभों के पीछे किल-किल काँटे की लकीरें खींची जा सकती थीं। एक टाँग से उचक-उचककर बच्चे चिबिड्डी खेल सकते थे। पत्थर पर लकड़ी का पीढ़ा रखकर नीचे से मुड़ा हुआ तार घुमाकर रेलगाड़ी चला सकते थे। जब गुलकी ने अपनी दुकान के लिए चबूतरों के खंभों में बाँस-बांधे तो बच्चों को लगा कि उनके साम्राज्य में किसी अज्ञात शत्रु ने आकर क़िलेबंदी कर ली है। वे सहमे हुए दूर से कुबड़ी गुलकी को देखा करते थे। निरमल ही उसकी एकमात्र संवाददाता थी और निरमल का एकमात्र विश्वस्त सूत्र था उसकी माँ। उससे जो सुना था उसके आधार पर निरमल ने सबको बताया था कि यह चोर है। इसका बाप सौ रुपया चुराकर भाग गया। यह भी उसके घर का सारा रुपया चुराने आई है।
“रुपया चुराएगी तो यह भी मर जाएगी।” मुन्ना ने कहा, “भगवान सबको दंड देता है।” निरमल बोली, “ससुराल में भी रुपया चुराए होगी।” मेवा बोला “अरे कूबड़ थोड़े है! ओही रुपया बाँधे है पीठ पर। मनसेधू का रुपया है।”
“सचमुच?” निरमल ने अविश्वास से कहा। “और नहीं क्या कूबड़ थोड़ी है। है तो दिखावै।” मुन्ना द्वारा उत्साहित होकर मेवा पूछने ही जा रहा था कि देखा साबुन वाली सत्ती खड़ी बात कर रही है गुलकी से-कह रही थी,”अच्छा किया तुमने! मेहनत से दुकान करो। अब कभी थूकने भी न जाना उसके यहाँ। हरामज़ादा, दूसरी औरत कर ले, चाहे दस और कर ले। सबका ख़ून उसी के मत्थे चढ़ेगा। यहाँ कभी आवे तो कहलाना मुझसे। इसी चाकू से दोनों आँखें निकाल लूँगी!”
बच्चे डरकर पीछे हट गए। चलते-चलते सत्ती बोली, “कभी रुपए-पैसे की ज़रूरत हो तो बताना बहिना!”
कुछ दिन बच्चे डरे रहे। पर अकस्मात् उन्हें यह सूझा कि सत्ती को यह कुबड़ी डराने के लिए बुलाती है। इसने उसके गु़स्से में आग में घी का काम किया। पर कर क्या सकते थे। अंत में उन्होंने एक तरीक़ा ईजाद किया। वे एक बुढ़िया का खेल खेलते थे। उसको उन्होंने संशोधित किया। मटकी को लैमन जूस देने का लालच देकर कुबड़ी बनाया गया। वह उसी तरह पीठ दोहरी करके चलने लगी। बच्चों ने सवाल जवाब शुरू किए।
“कुबड़ी-कुबड़ी का हेराना?”
“सुई हिरानी।”
“सुई लैके का करबे”
“कन्था सीबै!”
“कन्था सी के का करबे?”
“लकड़ी लाबै!”
“लकड़ी लाय के का करबे?”
“भात पकइबे!”
“भात पकाए के का करबै?”
“भात खाबै!”
“भात के बदले लात खाबै।”
और इसके पहले कि कुबड़ी बनी हुई मटकी कुछ कह सके, वे उसे ज़ोर से लात मारते और मटकी मुँह के बल गिर पड़ती, उसकी कोहनियाँ और घुटने छिल जाते, आँख में आँसू आ जाते और ओंठ दबाकर वह रूलाई रोकती। बच्चे ख़ुशी से चिल्लाते, “मार डाला कुबड़ी को। मार डाला कुबड़ी को।” गुलकी यह सब देखती और मुँह फेर लेती।
एक दिन जब इसी प्रकार मटकी को कुबड़ी बनाकर गुलकी की दुकान के सामने ले गए तो इसके पहले कि मटकी जवाब दे, उन्होंने अनचिते में इतनी ज़ोर से ढकेल दिया कि वह कुहनी भी न टेक सकी और सीधे मुँह के बल गिरी। नाक, होंठ और भौंह ख़ून से लथपथ हो गए। वह “हाय! हाय!” कर इस बुरी तरह चीख़ी कि लड़के कुबड़ी मर गई चिल्लाते हुए सहम गए और हतप्रभ हो गए। अकस्मात् उन्होंने देखा की गुलकी उठी। वे जान छोड़ भागे। पर गुलकी उठकर आई, मटकी को गोद में लेकर पानी से उसका मुँह धोने लगी और धोती से ख़ून पोंछने लगी। बच्चों ने पता नहीं क्या समझा कि वह मटकी को मार रही है, या क्या कर रही है कि वे अकस्मात् उस पर टूट पड़े। गुलकी की चीख़े सुनकर मुहल्ले के लोग आए तो उन्होंने देखा कि गुलकी के बाल बिखरे हैं और दांत से ख़ून बह रहा है, अधउघारी चबूतरे से नीचे पड़ी है, और सारी तरकारी सड़क पर बिखरी है। घेघा बुआ ने उसे उठाया, धोती ठीक की और बिगड़कर बोलीं,” औकात रत्ती-भर नै, और तेहा पौवा-भर। आपन बखत देख कर चुप नै रहा जात। कहे लड़कन के मुँह लगत हो?” लोगों ने पूछ तो कुछ नहीं बोली। जैसे उसे पाला मार गया हो। उसने चुपचाप अपनी दुकान ठीक की और दांत से ख़ून पोंछा, कुल्ला किया और बैठ गई।
उसके बाद अपने उस कृत्य से बच्चे जैसे ख़ुद सहम गए थे। बहुत दिन तक वे शांत रहे। आज जब मेवा ने उसकी पीठ पर धूल फेंकी तो जैसे उसे खू़न चढ़ गया पर फिर न जाने वह क्या सोचकर चुप रह गई और जब नारा लगाते जूलूस गली में मुड़ गया तो उसने आँसू पोंछे, पीठ पर से धूल झाड़ी और साग पर पानी छिड़कने लगी। लड़के का हैं गल्ली के राक्षस हैं!” घेघा बुआ बोलीं। “अरे उन्हें काहै कहो बुआ! हमारा भाग भी खोटा है!” गुलकी ने गहरी साँस लेकर कहा...
इस बार जो झड़ी लगी तो पाँच दिन तक लगातार सूरज के दर्शन नहीं हुए। बच्चे सब घर में क़ैद थे और गुलकी कभी दुकान लगाती थी, कभी नहीं, राम-राम करके तीसरे पहर झड़ी बंद हुई। बच्चे हकीमजी के चौतरे पर जमा हो गए। मेवा बिलबोटी बीन लाया था और निरमल ने टपकी हुई निमकौड़ियाँ बीनकर दुकान लगा ली थी और गुलकी की तरह आवाज़ लगा रही थी, “ले खीरा, आलू, मूली, घिया, बंडा!” थोड़ी देर में क़ाफी शिशु-ग्राहक दुकान पर जुट गए। अकस्मात् शोरगुल से चीरता हुआ बुआ के चौतरे से गीत का स्वर उठा बच्चों ने घूम कर देखा मिरवा और मटकी गुलकी की दुकान पर बैठे हैं। मटकी खीरा खा रही है और मिरवा झबरी का सर अपनी गोद में रखे बिलकुल उसकी आँखों में आँखें डालकर गा रहा है।
तुरंत मेवा गया और पता लगाकर लाया कि गुलकी ने दोनों को एक–एक अधन्ना दिया है दोनों मिलकर झबरी कुतिया के कीड़े निकाल रहे हैं। चौतरे पर हलचल मच गई और मुन्ना ने कहा, “निरमल! मिरवा-मटकी को एक भी निमकौड़ी मत देना। रहें उसी कुबड़ी के पास!”
“हाँ जी!” निरमल ने आँख चमकाकर गोल मुँह करके कहा, “हमार अम्मां कहत रहीं उन्हें छुयो न! न साथ खायो, न खेलो। उन्हें बड़ी बुरी बीमारी है। आक थू!” मुन्ना ने उनकी ओर देखकर उबकाई जैसा मुँह बनाकर थूक दिया।
गुलकी बैठी-बैठी सब समझ रही थी और जैसे इस निरर्थक घृणा में उसे कुछ रस-सा आने लगा था। उसने मिरवा से कहा, “तुम दोनों मिल के गाओ तो एक अधन्ना दें। खूब ज़ोर से!” भाई-बहन दोनों ने गाना शुरू किया-माल कताली मल जाना, पल अकियाँ किछी से...” अकस्मात् पटाक से दरवाज़ा खुला और एक लोटा पानी दोनों के ऊपर फेंकती हुई घेघा बुआ गरजीं, “दूर कलमुँहे। अबहिन बितौ-भर के नाहीं ना और पतुरियन के गाना गाबै लगे। न बहन का ख्याल, न बिटिया का। और ए कुबड़ी, हम तुहूं से कहे देइत है कि हम चकलाखाना खोलै के बरे अपना चौतरा नहीं दिया रहा। हुंह! चली हुंआ से मुजरा करावै।”
गुलकी ने पानी उधर छिटकाते हुए कहा, “बुआ बच्चे हैं। गा रहे हैं। कौन कसूर हो गया।”
“ऐ हाँ! बच्चे हैं। तुहूं तो दूध पियत बच्ची हौ। कह दिया कि ज़बान न लड़ायों हमसे, हाँ! हम बहुतै बुरी हैं। एक तो पाँच महीने से किराया नाहीं दियो और हियां दुनियां-भर के अंधे-कोढ़ी बटुरे रहत हैं। चलौ उठायो अपनी दुकान हियां से। कल से न देखी हियां तुम्हें राम! राम! सब अधर्म की संतान राच्छस पैदा भए हैं मुहल्ले में! धरतियौ नहीं फाटत कि मर बिलाय जांय।”
गुलकी सन्न रह गई। उसने किराया सचमुच पाँच महीने से नहीं दिया था। बिक्री नहीं थी। मुहल्ले में उनसे कोई कुछ लेता ही नहीं था, पर इसके लिए बुआ निकाल देगी यह उसे कभी आशा नहीं थी। वैसे भी महीने में बीस दिन वह भूखी सोती थी। धोती में दस-दस पैबंद थे। मकान गिर चुका था एक दालान में वह थेड़ी-सी जगह में सो जाती थी। पर दुकान तो वहाँ रखी नहीं जा सकती। उसने चाहा कि वह बुआ के पैर पकड़ ले, मिन्नत कर ले। पर बुआ ने जितनी ज़ोर से दरवाज़ा खोला था उतनी ही ज़ोर से बंद कर दिया। जब से चौमास आया था, पुरवाई बही थी, उसकी पीठ में भयानक पीड़ा उठती थी। उसके पांव कांपते थे। सट्टी में उस पर उधार बुरी तरह चढ़ गया था। पर अब होगा क्या? वह मारे खीज के रोने लगी।
इतने में कुछ खटपट हुई और उसने घुटनों से मुँह उठाकर देखा कि मौक़ा पाकर मटकी ने एक फूट निकाल लिया है और मरभुखी की तरह उसे हबर-हबर खाती जा रही थी है, एक क्षण वह उसके फूलते-पचकते पेट को देखती रही, फिर ख़्याल आते ही कि फूट पूरे दस पैसे का है, वह उबल पड़ी और सड़ासड़ तीन-चार खपच्ची मारते हुए बोली, “चोट्टी! कुतिया! तोरे बदन में कीड़ा पड़ें!” मटकी के हाथ से फूट गिर पड़ा पर वह नाली में से फूट के टुकड़े उठाते हुए भागी। न रोई, न चीख़ी, क्योंकि मुँह में भी फूट भरा था। मिरवा हक्का-बक्का इस घटना को देख रहा था कि गुलकी उसी पर बरस पड़ी। सड़-सड़ उसने मिरवा को मारना शुरू किया, “भाग, यहाँ से हरामज़ादे!” मिरवा दर्द से तिलमिला उठा, “हमला पइछा देव तो जाई।” “देत हैं पैसा, ठहर तो।” सड़! सड़...रोता हुआ। मिरवा चौतरे की ओर भागा।
निरमल की दुकान पर सन्नाटा छाया हुआ था। सब चुप उसी ओर देख रहे थे। मिरवा ने आकर कुबड़ी की शिकायत मुन्ना से की। और घूमकर बोला, “मेवा बता तो इसे!” मेवा पहले हिचकिचाया, फिर बड़ी मुलायमियत से बोला, “मिरवा तुम्हें बीमारी हुई है न! तो हम लोग तुम्हें नहीं छुएंगे। साथ नहीं खिलाएँगे तुम उधर बैठ जाओ।”
“हम बीमाल हैं मुन्ना?”
मुन्ना कुछ पिघला, “हाँ, हमें छूओ मत। निमकौड़ी ख़रीदना हो तो उधर बैठ जाओ हम दूर से फेंक देंगे। समझे!” मिरवा समझ गया सर हिलाया और अलग जाकर बैठ गया। मेवा ने निमकौड़ी उसके पास रख दी और चोट भूलकर पकी निमकौड़ी का बीजा निकाल कर छीलने लगा। इतने में उधर से घेघा बुआ की आवाज़ आई, “ऐ मुन्ना!” तई तू लोग परे हो जाओ! अबहिन पानी गिरी ऊपर से!” बच्चो ने ऊपर देखा। तिछत्ते पर घेघा बुआ मारे पानी के छप-छप करती घूम रही थीं। कूड़े से तिछत्ते की नाली बंद थी और पानी भरा था। जिधर बुआ खड़ी थीं उसके ठीक नीचे गुलकी का सौदा था। बच्चे वहाँ से दूर थे पर गुलकी को सुनने के लिए बात बच्चों से कही गई थी। गुलकी कराहती हुई उठी। कूबड़ की वजह से वह तनकर तिछत्ते की ओर देख भी नहीं सकती थी। उसने धरती की ओर देखा ऊपर बुआ से कहा, “इधर की नाली काहे खोल रही हो? उधर की खोलो न!”
“काहे उधर की खोली! उधर हमारा चौका है कि नै!”
“इधर हमारा सौदा लगा है।”
“ऐ है!” बुआ हाथ चमका कर बोलीं, सौदा लगा है रानी साहब का! किराया देय की दायीं हियाव फाटत है और टर्राय के दायीं नटई में गामा पहिलवान का ज़ोर तो देखो! सौदा लगा है तो हम का करी। नारी तो इहै खुली है!”
“खोलो तो देखैं!” अकस्मात् गुलकी ने तड़प कर कहा। आज तक किसी ने उसका वह स्वर नहीं सुना था, “पाँच महीने का दस रुपया नहीं दिया बेशक, पर हमारे घर की धन्नी निकाल के बसंतू के हाथ किसने बेचा? तुमने। पच्छिम ओर का दरवाज़ा चिरवा के किसने जलवाया? तुमने। हम गरीब हैं। हमारा बाप नहीं है सारा मुहल्ला हमें मिल के मार डालो।”
“हमें चोरी लगाती है। अरे कल की पैदा हुई।” बुआ मारे ग़ुस्से के खड़ी बोली बोलने लगी थीं।
बच्चे चुप खड़े थे। वे कुछ-कुछ सहमे हुए थे। कुबड़ी का यह रूप उन्होंने कभी न देखा न सोचा था
“हाँ! हाँ! हाँ। तुमने, ड्राइवर चाचा से, चाची ने सबने मिलके हमारा मकान उजाड़ा है। अब हमारी दुकान बहाय देव। देखेंगे हम भी। निरबल के भी भगवान हैं!”
“ले! ले! ले! भगवान हैं तो ले!” और बुआ ने पागलों की तरह दौड़कर नाली में जमा कूड़ा लकड़ी से ठेल दिया। छह इंच मोटी गंदे पानी की धार धड़-धड़ करती हुई उसकी दुकान पर गिरने लगी। तरोइयां पहले नाली में गिरीं, फिर मूली, खीरे, साग, अदरक उछल-उछलकर दूर जा गिरे। गुलकी आँख फाड़े पागल-सी देखती रही और फिर दीवार पर सर पटककर हृदय-विदारक स्वर में डकराकर रो पड़ी, “अरे मोर बाबू, हमें कहाँ छोड़ गए! अरे मोरी माई, पैदा होते ही हमें क्यों नहीं मार डाला! अरे धरती मैया, हमें काहे नहीं लील लेती!”
सर खोले बाल बिखेरे छाती कूट-कूटकर वह रो रही थी और तिछत्ते का पिछले पहले नौ दिन का जमा पानी धड़-धड़ गिर रहा था।
बच्चे चुप खड़े थे। अब तक जो हो रहा था, उनकी समझ में आ रहा था। पर आज यह क्या हो गया, यह उनकी समझ में नहीं आ सका। पर वे कुछ बोले नहीं। सिर्फ़ मटकी उधर गई और नाली में बहता हुआ हरा खीरा निकालने लगी कि मुन्ना ने डाँटा, “ख़बरदार! जो कुछ चुराया।” मटकी पीछे हट गई। वे सब किसी अप्रत्याशित भय संवेदना या आशंका से जुड़-बटुरकर खड़े हो गए। सिर्फ़ मिरवा अलग सर झुकाए खड़ा था। झींसी फिर पड़ने लगी थी और वे एक-एक कर अपने घर चले गए।
दूसरे दिन चौतरा ख़ाली थी। दुकान का बांस उखड़वाकर बुआ ने नांद में गाड़कर उस पर तुरई की लतर चढ़ा दी थी। उस दिन बच्चे आए पर उनकी हिम्मत चौतरे पर जाने की नहीं हुई। जैसे वहाँ कोई मर गया हो। बिलकुल सुनसान चौतरा था और फिर तो ऐसी झड़ी लगी कि बच्चों का निकलना बंद। चौथे या पाँचवें दिन रात को भयानक वर्षा तो हो ही रही थी, पर बादल भी ऐसे गरज रहे थे कि मुन्ना अपनी खाट से उठकर अपनी माँ के पास घुस गया। बिजली चमकते ही जैसे कमरा रोशनी से नाच-नाच उठता था छत पर बूंदों की पटर-पटर कुछ धीमी हुई, थोड़ी हवा भी चली और पेड़ों का हरहर सुनाई पड़ा कि इतने में धड़-धड़-धड़-धड़ाम! भयानक आवाज़ हुई। माँ भी चौंक पड़ी। पर उठी नहीं। मुन्ना आँखें खोले अँधेरे में ताकने लगा। सहसा लगा मुहल्ले में कुछ लोग बातचीत कर रहे हैं घेघा बुआ की आवाज़ सुनाई पड़ी,”किसका मकान गिर गया है रे।”
“गुलकी का!’ किसी का दूरागत उत्तर आया।
“अरे बाप रे! दब गई क्या?”
“नहीं, आज तो मेवा की माँ के यहाँ सोई है!”
मुन्ना लेटा था और उसके ऊपर अंधेरे में यह सवाल-जवाब इधर-से-उधर और उधर-से-इधर आ रहे थे। वह फिर काँप उठा, माँ के पास घुस गया और सोते-सोते उसने साफ़ सुना-कुबड़ी फिर उसी तरह रो रही है, गला फाड़कर रो रही है! कौन जाने मुन्ना के ही आँगन में बैठकर रो रही हो! नींद में वह स्वर कभी दूर कभी पास आता हुआ लग रहा है जैसे कुबड़ी मुहल्ले के हर आँगन में जाकर रो रही है पर कोई सुन नहीं रहा है, सिवा मुन्ना के।
बच्चों के मन में कोई बात इतनी गहरी लकीर बनाती कि उधर से उनका ध्यान हटे ही नहीं। सामने गुलकी थी तो वह एक समस्या थी, पर उसकी दुकान हट गई, फिर वह जाकर साबुन वाली सत्ती के गलियारे में सोने लगी और दो-चार घरों से माँग-मूँगकर खाने लगी, उस गली में दिखती ही नहीं थी। बच्चे भी दूसरे कामों में व्यस्त हो गए। अब जाड़े आ रहे थे। उनका जमावड़ा सुबह न होकर तीसरे पहर होता था। जमा होने के बाद जूलूस निकलता था। और जिस जोशीले नारे से गली गूँज उठती थी वह था, “घेघा बुआ को वोट दो।” पिछले दिनों म्युनिसिपैलिटी का चुनाव हुआ था और उसी में बच्चों ने यह नारा सीखा था। वैसे कभी-कभी बच्चों में दो पार्टियां भी होती थीं, पर दोनों को घेघा बुआ से अच्छा उम्मीदवार कोई नहीं मिलता था अतः दोनों गला फाड़-फाड़कर उनके ही लिए वोट माँगती थीं।
उस दिन जब घेघा बुआ के धैर्य का बांध टूट गया और नई-नई गालियों से विभूषित अपनी पहली इलेक्शन स्पीच देने ज्यों ही चौतरे पर अवतरित हुईं कि उन्हें डाकिया आता हुआ दिखाई पड़ा। वह अचकचाकर रुक गईं। डाकिए के हाथ में एक पोस्ट कार्ड था और वह गुलकी को ढूँढ़ रहा था। बुआ ने लपक कर पोस्टकार्ड लिया, एक साँस में पढ़ गईं। उनकी आँखें मारे अचरज के फैल गईं, और डाकिए को यह बताकर कि गुलकी सत्ती साबुन वाली के ओसारे में रहती है, वे झट से दौड़ी-दौड़ी निरमल की माँ ड्राइवर की पत्नी के यहाँ गईं। बड़ी देर तक दोनों में सलाह-मशविरा होता रहा और अंत में बुआ आईं और उन्होंने मेवा को भेजा, “जा गुलकी को बुलाय ला!”
पर जब मेवा लौटा तो उसके साथ गुलकी नहीं वरन् सत्ती साबुन वाली थी और सदा की भाँति इस समय भी उसकी कमर से वह काले बेंट का चाकू लटक रहा था, जिससे वह साबुन की टिक्की काटकर दुकानदारों को देती थी। उसने आते ही भौं सिकोड़कर बुआ को देखा और कड़े स्वर में बोली, “क्यों बुलाया है गुलकी को? तुम्हारा दस रुपए किराया बाकी था, तुमने पंद्रह रुपए का सौदा उजाड़ दिया! अब क्या काम है!”
“अरे राम! राम! कैसा किराया बेटी! अंदर जाओ-अंदर जाओ!’ बुआ के स्वर में असाधारण मुलायमियत थी। सत्ती के अंदर जाते ही बुआ ने फटाक् से किवाड़ा बंद कर लिए। बच्चों का कौतूहल बहुत बढ़ गया था। बुआ के चौके में एक झंझरी थी। सब बच्चे वहाँ पहुँचे और आँख लगाकर कनपटियों पर दोनों हथेलियाँ रखकर घंटीवाला बाइसकोप देखने की मुद्रा में खड़े हो गए।
अंदर सत्ती गरज रही थी, “बुलाया है तो बुलाने दो। क्यों जाए गुलकी? अब बड़ा खयाल आया है। इसलिए की उसकी रखैल को बच्चा हुआ है जो जाके गुलकी झाड़ू-बुहारू करे, खाना बनावे, बच्चा खिलावे, और वह मरद का बच्चा गुलकी की आँख के आगे रखैल के साथ गुलछर्रे उड़ावे!”
निरमल की माँ बोलीं,”अपनी बिटिया, पर गुजरे तो अपने आदमी के साथ करैगी न! जब उसकी पत्नी आई है तो गुलकी को जाना चाहिए। और मरद तो मरद। एक रखैल छोड़ दुई-दुई रखैल रख ले तो औरत उसे छोड़ देगी? राम! राम!”
“नहीं, छोड़ नहीं देगी तो जाय कै लात खाएगी?” सत्ती बोली।
“अरे बेटा!” बुआ बोलीं,” भगवान रहें न? तौन मथुरापुरी में कुब्जा दासी के लात मारिन तो ओकर कूबर सीधा हुई गवा। पती तो भगवान हैं बिटिया। ओका जाय देव!”
“हाँ-हाँ, बड़ी हितू न बनिए! उसके आदमी से आप लोग मुफ्त में गुलकी का मकान झटकना चाहती हैं। मैं सब समझती हूँ।”
निरमल की माँ का चेहरा ज़र्द पड़ गया। पर बुआ ने ऐसी कच्ची गोली नहीं खेली थी। वे डपटकर बोलीं, “ख़बरदार जो कच्ची जबान निकाल्यो! तुम्हारा चरित्तर कौन नै जानता! ओही छोकरा मानिक...”
“ज़बान खींच लूँगी” सत्ती गला फाड़कर चीख़ी, “जो आगे एक हरूफ़ कहा।” और उसका हाथ अपने चाकू पर गया- “अरे! अरे! अरे!” बुआ सहमकर दस क़दम पीछे हट गईं,”तो का ख़ून करबो का, कतल करबो का?”
सत्ती जैसे आई थी वैसे ही चली गई। तीसरे दिन बच्चों ने तय किया कि होरी बाबू के कुएँ पर चलकर बर्रें पकड़ी जाएँ। उन दिनों उनका ज़हर शांत रहता है, बच्चे उन्हें पकड़कर उनका छोटा-सा काला डंक निकाल लेते और फिर डोरी में बांधकर उन्हें उड़ाते हुए घूमते। मेवा, निरमल और मुन्ना एक-एक बर्रे उड़ाते हुए जब गली में पहुँचे तो देखा बुआ के चौतरे पर टीन की कुरसी डाले कोई आदमी बैठा है। उसकी अजब शक्ल थी। कान पर बड़े-बड़े बाल, मिचमिची आँखें, मोछा और तेल से चुचुआते हुए बाल। कमीज और धोती पर पुराना बदरंग बूट। मटकी हाथ फैलाए कह रही है,“एक डबल दै देव! एक दै देव ना?” मुन्ना को देखकर मटकी ताली बजा-बजाकर कहने लगी,“गुलकी का मनसेधू आवा है। ए मुन्ना बाबू! ई कुबड़ी का मनसेधू है।” फिर उधर मुड़कर, “एक डबल दै देव।” तीनों बच्चे कौतूहल में रुक गए। इतने में निरमल की माँ एक गिलास में चाय भरकर लाई और उसे देते-देते निरमल के हाथ में बर्रे देखकर उसे डाँटने लगी। फिर बर्रे छुड़ाकर निरमल को पास बुलाया और बोली,“बेटा, ई हमारी निरमला है। ए निरमल, जीजाजी हैं, हाथ जोड़ो! बेटा, गुलकी हमारी जात-बिरादरी की नहीं है तो का हुआ, हमारे लिए जैसे निरमल वैसे गुलकी।
अरे, निरमल के बाबू और गुलकी के बाप की दाँत काटी रही। एक मकान बचा है उनकी चिहारी, और का?” एक गहरी सांस लेकर निरमल की माँ ने कहा।
“अरे तो का उन्हें कोई इनकार है?” बुआ आ गई थीं,“अरे सौ रुपए तुम दैवे किए रहय्यू, चलो तीन सौ और दै देव। अपने नाम कराय लेव?”
“पाँच सौ से कम नहीं होगा?” उस आदमी का मुँह खुला, एक वाक्य निकला और मुँह फिर बंद हो गया।
“भवा! भवा! ऐ बेटा दामाद हौ, पाँच सौ कहबो तो का निरमल की माँ को इनकार है?”
अकस्मात् वह आदमी उठकर खड़ा हो गया। आगे-आगे सत्ती चली आ रही थी, पीछे-पीछे गुलकी। सत्ती चौतरे के नीचे खड़ी हो गई। बच्चे दूर हट गए। गुलकी ने सिर उठाकर देखा और अचकचाकर सर पर पल्ला डालकर माथे तक खींच लिया। सत्ती दो-एक क्षण उसकी ओर एकटक देखती रही और फिर गरजकर बोली, “यही कसाई है! गुलकी, आगे बढ़कर मार दो चपोटा इसके मुँह पर! खबरदार जो कोई बोला।” बुआ चट से देहरी के अंदर हो गईं, निरमल की माँ की जैसे घिग्घी बंध गई और वह आदमी हड़बड़ाकर पीछे हटने लगा।
“बढ़ती क्यों नहीं गुलकी! बड़ा आया वहाँ से बिदा कराने?”
गुलकी आगे बढ़ी; सब सन्न थे; सीढ़ी चढ़ी, उस आदमी के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। गुलकी चढ़ते-चढ़ते रुकी, सत्ती की ओर देखा, ठिठकी, अकस्मात् लपकी और फिर उस आदमी के पाँव पर गिर के फफक-फफककर रोने लगी, “हाय! हमें काहे को छोड़ दियौ! तुम्हारे सिवा हमारा लोक-परलोक और कौन है! अरे, हमरे मरै पर कौन चुल्लू भर पानी चढ़ाई।”
सत्ती का चेहरा स्याह पड़ गया। उसने बड़ी हिकारत से गुलकी की ओर देखा और गुस्से में थूक निगलते हुए कहा, “कुतिया!” और तेज़ी से चली गई। निरमल की माँ और बुआ गुलकी के सर पर हाथ फेर-फेरकर कह रही थीं, “मत रो बिटिया! मत रो! सीता मैया भी तो बनवास भोगिन रहा। उठो गुलकी बेटा! धोती बदल लेव कंघी चोटी करो। पति के सामने ऐसे आना असगुन होता है। चलो!”
गुलकी आँसू पोंछती-पोंछती निरमल की माँ के घर चली। बच्चे पीछे-पीछे चले तो बुआ ने डांटा,“ऐ चलो एहर, हुंआ लड्डू बँट रहा है का?”
दूसरे दिन निरमल के बाबू (ड्राइवर साहब), गुलकी और जीजाजी दिनभर कचहरी में रहे। शाम को लौटे तो निरमल की माँ ने पूछा,“पक्का कागज लिख गया?”
“हाँ-हाँ रे, हाकिम, के सामने लिख गया।” फिर ज़रा निकट आकर फुसफुसाकर बोले,“मट्टी के मोल मकान मिला है। अब कल दोनों को बिदा करो।”
“अरे, पहले सौ रुपए लाओ! बुआ का हिस्सा भी तो देना है?” निरमल की माँ उदास स्वर में बोली, “बड़ी चंट है बुढ़िया। गाड़-गाड़ के रख रही है, मर के सांप होएगी।”
सुबह निरमल की माँ के यहाँ मकान ख़रीदने की कथा थी। शंख, घंटा-घड़ियाली, केले का पत्ता, पंजीरी, पंचामृत का आयोजन देखकर मुन्ना के अलावा सब बच्चे इकट्ठा थे। निरमल की माँ और निरमल के बाबू पीढ़े पर बैठे थे; गुलकी एक पीली धोती पहने माथे तक घूँघट काढ़े सुपारी काट रही थी और बच्चे झाँक-झाँककर देख रहे थे। मेवा ने पहुँचकर कहा,“ए गुलकी, ए गुलकी, जीजाजी के साथ जाओगी क्या?”
कुबड़ी ने झेंपकर कहा,“धत्त रे! ठिठोली करता है।”
और लज्जा-भरी जो मुस्कान किसी भी तरुणी के चेहरे पर मनमोहक लाली बनकर फैल जाती, उसके झुर्रियोंदार, बेडौल, नीरस चेहरे पर विचित्र रूप से विभत्स लगने लगी। उसके काले पपड़ीदार होंठ सिकुड़ गए, आँखों के कोने मिचमिचा उठे और अत्यंत कुरुचिपूर्ण ढंग से उसने अपने पल्ले से सर ढांक लिया और पीठ सीधी कर जैसे कूबड़ छिपाने का प्रयास करने लगी। मेवा पास ही बैठ गया। कुबड़ी ने पहले इधर-उधर देखा, फिर फुसफुसाकर मेवा से कहा,“क्यों रे! जीजाजी कैसे लगे तुझे?” मेवा ने असमंजस में या संकोच में पड़कर कोई जवाब नहीं दिया तो जैसे अपने को समझाते हुए गुलकी बोली, “कुछ भी होय। है तो अपना आदमी! हारे-गाढ़े कोई और काम आएगा? औरत को दबाय के रखना ही चाहिए।” फिर थोड़ी देर चुप रहकर बोली,“मेवा भैया, सत्ती हमसे नाराज है। अपनी सगी बहन क्या करेगी जो सत्ती ने किया हमारे लिए। ए चाची और बुआ तो सब मतलब के साथी हैं हम क्या जानते नहीं? पर भैया अब जो कहो कि हम सत्ती के कहने से अपने मरद को छोड़ दें, सो नहीं हो सकता।” इतने में किसी का छोटा-सा बच्चा घुटनों के बल चलते-चलते मेवा के पास आकर बैठ गया। गुलकी क्षण-भर उसे देखती रही फिर बोली,“पति से हमने अपराध किया तो भगवान् ने बच्चा छीन लिया, अब भगवान् हमें छमा कर देंगे।” फिर कुछ क्षण के लिए चुप हो गई।
“क्षमा करेंगे तो दूसरी संतान देंगे?”
“क्यों नहीं देंगे? तुम्हारे जीजाजी को भगवान् बनाए रखे। खोट तो हमी में है। फिर संतान होगी तब तो सौत का राज नहीं चलेगा।”
इतने में गुलकी ने देखा कि दरवाजे पर उसका आदमी खड़ा बुआ से कुछ बातें कर रहा है। गुलकी ने तुरत पल्ले से सर ढंका और लजाकर उधर पीठ कर ली। बोली,“राम! राम! कितने दुबरा गए हैं। हमारे बिना खाने-पीने का कौन ध्यान रखता! अरे, सौत तो अपने मतलब की होगी। ले भैया मेवा, जा दो बीड़ा पान दे आ जीजा को?” फिर उसके मुँह पर वही लाज की बीभत्स मुद्रा आई,“तुझे कसम है, बताना मत किसने दिया है।”
मेवा पान लेकर गया पर वहाँ किसी ने उसपर ध्यान ही नहीं दिया। वह आदमी बुआ से कह रहा था, “इसे ले तो जा रहे हैं, पर इतना कहे देते हैं, आप भी समझा दें उसे-कि रहना हो तो दासी बनकर रहे। न दूध की न पूत की, हमारे कौन काम की; पर हाँ औरतिया की सेवा करे, उसका बच्चा खिलावे, झाड़ू-बुहारू करे तो दो रोटी खाय पड़ी रहे। पर कभी उससे जबान लड़ाई तो खैर नहीं। हमारा हाथ बड़ा जालिम है। एक बार कूबड़ निकला, अगली बार परान निकलेगा।”
“क्यों नहीं बेटा! क्यों नहीं?” बुआ बोलीं और उन्होंने मेवा के हाथ से पान लेकर अपने मुँह में दबा लिए।
क़रीब तीन बजे इक्का लाने के लिए निरमल की माँ ने मेवा को भेजा। कथा की भीड़-भाड़ से उनका मूड़ पिराने; लगा था, अतः अकेली गुलकी सारी तैयारी कर रही थी। मटकी कोने में खड़ी थी। मिरवा और झबरी बाहर गुमसुम बैठे थे। निरमल की माँ ने बुआ को बुलवाकर पूछा कि बिदा-बिदाई में क्या करना होगा, तो बुआ मुँह बिगाड़कर बोलीं, “अरे कोई जात-बिरादरी की है का? एक लोटा में पानी भर के इकन्नी-दुअन्नी उतार के परजा-पजारू को दे दियो बस?” और फिर बुआ शाम को बियारी में लग गईं।
इक्का आते ही जैसे झबरी पागल-सी इधर-उधर दौड़ने लगी। उसे जाने कैसे आभास हो गया कि गुलकी जा रही है, सदा के लिए। मेवा ने अपने छोटे-छोटे हाथों से बड़ी-बड़ी गठरियाँ रखीं, मटकी और मिरवा चुपचाप आकर इक्के के पास खड़े हो गए। सर झुकाए पत्थर-सी चुप गुलकी निकली। आगे-आगे हाथ में पानी का भरा लोटा लिए निरमल थी। वह आदमी जाकर इक्के पर बैठ गया।
“अब जल्दी करो! उसने भारी गले से कहा। गुलकी आगे बढ़ी, फिर रुकी और टेंट से दो अधन्नी निकाले, “ले मिरवा, ले मटकी?” मटकी जो हमेशा हाथ फैलाए रहती थी, इस समय जाने कैसा संकोच उसे आ गया कि वह हाथ नीचे कर दीवार से सट कर खड़ी हो गई और सर हिलाकर बोली, “नहीं?”
“नहीं बेटा! ले लो!” गुलकी ने पुचकारकर कहा। मिरवा-मटकी ने पैसे ले लिए और मिरवा बोला, “छलाम गुलकी! ए आदमी छलाम?”
“अब क्या गाड़ी छोड़नी है?” वह फिर भारी गले से बोला।
“ठहरो बेटा, कहीं ऐसे दामाद की बिदाई होती है?” सहसा एक बिलकुल अजनबी किंतु अत्यंत मोटा स्वर सुनाई पड़ा। बच्चों ने अचरज से देखा, मुन्ना की माँ चली आ रही हैं।
“हम तो मुन्ना का आसरा देख रहे थे कि स्कूल से आ जाए, उसे नाश्ता करा लें तो आएँ, पर इक्का आ गया तो हमने समझा अब तू चली। अरे! निरमल की माँ, कहीं ऐसे बेटी की बिदाई होती है! लाओ जरा रोली घोलो जल्दी से, चावल लाओ, और सेंदुर भी ले आना निरमल बेटा! तुम बेटा उतर आओ इक्के से!”
निरमल की माँ का चेहरा स्याह पड़ गया था। बोलीं, “जितना हमसे बन पड़ा किया। किसी को दौलत का घमंड थोड़े ही दिखाना था?”
“नहीं बहन! तुमने तो किया पर मुहल्ले की बिटिया तो सारे मुहल्ले की बिटिया होती है। हमारा भी तो फ़र्ज़ था। अरे माँ-बाप नहीं हैं तो मुहल्ला तो है। आओ बेटा?” और उन्होंने टीका करके आँचल के नीचे छिपाए हुए कुछ कपड़े और एक नारियल उसकी गोद में डालकर उसे चिपका लिया। गुलकी जो अभी तक पत्थर-सी चुप थी सहसा फूट पड़ी। उसे पहली बार लगा जैसे वह मायके से जा रही है। मायके से अपनी माँ को छोड़कर छोटे-छोटे भाई-बहनों को छोड़कर और वह अपने कर्कश फटे हुए गले से विचित्र स्वर से रो पड़ी।
“ले अब चुप हो जा! तेरा भाई भी आ गया?” वे बोलीं। मुन्ना बस्ता लटकाए स्कूल से चला आ रहा था। कुबड़ी को अपनी माँ के कंधे पर सर रखकर रोते देखकर वह बिल्कुल हतप्रभ-सा खड़ा हो गया, “आ बेटा, गुलकी जा रही है न आज! दीदी है न! बड़ी बहन है। चल पाँव छू ले! आ इधर?” माँ ने फिर कहा। मुन्ना और कुबड़ी के पाँव छुए? क्यों? क्यों? पर माँ की बात! एक क्षण में उसके मन में जैसे एक पूरा पहिया घूम गया और वह गुलकी की ओर बढ़ा। गुलकी ने दौड़कर उसे चिपका लिया और फूट पड़ी, “हाय मेरे भैया! अब हम जा रहे हैं! अब किससे लड़ोगे मुन्ना भैया? अरे मेरे वीरन, अब किससे लड़ोगे?” मुन्ना को लगा जैसे उसकी छोटी-छोटी पसलियों में एक बहुत बड़ा-सा आँसू जमा हो गया जो अब छलकने ही वाला है। इतने में उस आदमी ने फिर आवाज़ दी और गुलकी कराहकर मुन्ना की माँ का सहारा लेकर इक्के पर बैठ गई। इक्का खड़-खड़ कर चल पड़ा। मुन्ना की माँ मुड़ी कि बुआ ने व्यंग्य किया, “एक आध गाना भी बिदाई का गाए जाओ बहन! गुलकी बन्नो ससुराल जा रही है!” मुन्ना की माँ ने कुछ जवाब नहीं दिया, मुन्ना से बोली, “जल्दी घर आना बेटा, नाश्ता रखा है?”
पर पागल मिरवा ने, जो बंबे पर पाँव लटकाए बैठा था, जाने क्या सोचा कि वह सचमुच गला फाड़कर गाने लगा, “बन्नो डाले दुपट्टे का पल्ला, मुहल्ले से चली गई राम?” यह उस मुहल्ले में हर लड़की की बिदा पर गाया जाता था। बुआ ने घुड़का तब भी वह चुप नहीं हुआ, उलटे मटकी बोली, “काहे न गावें, गुलकी नै पैसा दिया है?” और उसने भी सुर मिलाया,“बन्नो तली गई लाम! बन्नो तली गई लाम! बन्नो तली गई लाम!”
मुन्ना चुपचाप खड़ा रहा। मटकी डरते-डरते आई, “मुन्ना बाबू! कुबड़ी ने अधन्ना दिया है, ले लें?”
“ले ले” बड़ी मुश्क़िल से मुन्ना ने कहा और उसकी आँख में दो बड़े-बड़े आँसू डबडबा आए। उन्हीं आँसुओं की झिलमिल में कोशिश करके मुन्ना ने जाते हुए इक्के की ओर देखा। गुलकी आँसू पोंछते हुए परदा उठाकर मुड़-मुड़कर देख रही थी। मोड़ पर एक धचके से इक्का मुड़ा और फिर अदृश्य हो गया।
सिर्फ़ झबरी सड़क तक इक्के के साथ गई और फिर लौट गई।
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gulki ki umr zyada nahin thi yahi had se had pachchis chhabbis par chehre par jhurriyan aane lagi theen aur kamar ke pas se wo is tarah dohri ho gai thi jaise assi warsh ki buDhiya ho bachchon ne jab pahli bar use muhalle mein dekha to unhen tajujb bhi hua aur thoDa bhay bhi kahan se i? kaise aa gai? pahle kahan thee? iska unhen kuch anuman nahin tha? nirmal ne zarur apni man ko uske pita Draiwar se raat ko kahte hue suna, ‘‘yah musibat aur khaDi ho gai marad ne nikal diya to hum thoDe hi ye Dhol gale bandhenge bap alag hum logon ka rupaya kha gaya suna chal bsa to Dari ki kahin makan hum log na dakhal kar len aur marad ko chhoDkar chali i khabardar jo chabhi di tumne!’’
‘‘kya chhotepan ki baat karti ho! rupaya uske bap ne le liya to kya hum uska makan mar lenge? chabhi hamne de di hai das panch din ka naj pani bhej do uske yahan ’’
‘‘han han, sara ghar utha ke bhej dew sun rahi ho ghegha bua!’’
‘‘to ka bhawa bahu, are nirmal ke babu se to ekre bap ki dant kati rahi ’’ ghegha bua ki awaz i, ‘‘bechari bap ki akeli santan rahi ehi ke biyah mein matiyamet hui gawa par aise kasai ke hath mein dihis ki panchai baras mein kubaD nikal aawa ’’
‘‘sala yahan aawe to hunter se khabar loon main ’’ Draiwar sahab bole,‘‘ panch baras baad baal bachcha hua ab mara hua bachcha paida hua to usmen iska kya kasur! sale ne siDhi se Dhakel diya jindgi bhar ke liye haDDi kharab ho gai n! ab kaise gujara ho uska?’’
‘‘betwa eko dukan khulway dew hamra chautara khali paDa hai yahi rupaya dui rupaya kiraya dai dewa karai, din bhar apna sauda lagay le hum ka mana karit hai? etta baDa chautara muhallewalan ke kaam na i to ka hum chhati par dhai lai jab! par han, mula rupaya dai dew karai ’’
dusre din ye sanasnikhej khabar bachchon mein phail gai waise to hakimji ka chabutara paDa tha, par wo kachcha tha, us par chhajan nahin thi bua ka chautara lamba tha, us par patthar juDe the lakDi ke khambhe the us par teen chhai thi kai khelon ki suwidha thi khambhon ke pichhe kil kil kante ki lakiren khinchi ja sakti theen ek tang se uchak uchakkar bachche chibiDDi khel sakte the patthar par lakDi ka piDha rakhkar niche se muDa hua tar ghumakar relgaDi chala sakte the jab gulki ne apni dukan ke liye chabutron ke khambhon mein bans bandhe to bachchon ko laga ki unke samrajy mein kisi agyat shatru ne aakar qilebandi kar li hai we sahme hue door se kubDi gulki ko dekha karte the nirmal hi uski ekmatr sanwadadata thi aur nirmal ka ekmatr wishwast sootr tha uski man usse jo suna tha uske adhar par nirmal ne sabko bataya tha ki ye chor hai iska bap sau rupaya churakar bhag gaya ye bhi uske ghar ka sara rupaya churane i hai
‘‘rupaya churayegi to ye bhi mar jayegi ’’ munna ne kaha, ‘‘bhagwan sabko danD deta hai ’’ nirmal boli, ‘‘sasural mein bhi rupaya churaye hogi ’’ mewa bola ‘‘are kubaD thoDe hai! ohi rupaya bandhe hai peeth par mansedhu ka rupaya hai ’’
‘‘sachmuch ?’’ nirmal ne awishwas se kaha ‘‘aur nahin kya kubaD thoDi hai hai to dikhawai ’’ munna dwara utsahit hokar mewa puchhne hi ja raha tha ki dekha sabunwali satti khaDi baat kar rahi hai gulki se kah rahi thi,‘‘achchha kiya tumne! mehnat se dukan karo ab kabhi thukne bhi na jana uske yahan haramazada, dusri aurat kar le, chahe das aur kar le sabka khoon usi ke matthe chaDhega yahan kabhi aawe to kahlana mujhse isi chaku se donon ankhen nikal lungi!’’
bachche Darkar pichhe hat gaye chalte chalte satti boli, ‘‘kabhi rupae paise ki zarurat ho to batana bahina!’’
kuch din bachche Dare rahe par akasmat unhen ye sujha ki satti ko ye kubDi Darane ke liye bulati hai isne uske gusse mein aag mein ghi ka kaam kiya par kar kya sakte the ant mein unhonne ek tariqa ijad kiya we ek buDhiya ka khel khelte the usko unhonne sanshodhit kiya matki ko laiman juice dene ka lalach dekar kubDi banaya gaya wo usi tarah peeth dohri karke chalne lagi bachchon ne sawal jawab shuru kiye
‘‘kubDi kubDi ka herana?’’
‘‘sui hirani ’’
‘‘sui laike ka karbe’’
‘‘kantha sibai!’’
‘‘kantha si ke ka karbe?’’
‘‘lakDi labai!’’
‘‘lakDi lay ke ka karbe?’’
‘‘bhat pakaibe!’’
‘‘bhat pakaye ke ka karabai?’’
‘‘bhat khabai!’’
‘‘bhat ke badle lat khabai ’’
aur iske pahle ki kubDi bani hui matki kuch kah sake, we use zor se lat marte aur matki munh ke bal gir paDti, uski kohaniyan aur ghutne chhil jate, ankh mein ansu aa jate aur awnth dabakar wo rulai rokti bachche khushi se chillate, ‘‘mar Dala kubDi ko mar Dala kubDi ko ’’ gulki ye sab dekhti aur munh pher leti
ek din jab isi prakar matki ko kubDi banakar gulki ki dukan ke samne le gaye to iske pahle ki matki jawab de, unhonne anachite mein itni zor se Dhakel diya ki wo kuhni bhi na tek saki aur sidhe munh ke bal giri nak, honth aur bhaunh khoon se lathpath ho gaye wo ‘‘hay! hay!’’ kar is buri tarah chikhi ki laDke kubDi mar gai chillate hue saham gaye aur hataprabh ho gaye akasmat unhonne dekha ki gulki uthi we jaan chhoD bhage par gulki uthkar i, matki ko god mein lekar pani se uska munh dhone lagi aur dhoti se khoon ponchhne lagi bachchon ne pata nahin kya samjha ki wo matki ko mar rahi hai, ya kya kar rahi hai ki we akasmat us par toot paDe gulki ki chikhe sunkar muhalle ke log aaye to unhonne dekha ki gulki ke baal bikhre hain aur dant se khoon bah raha hai, adhaughari chabutre se niche paDi hai, aur sari tarkari saDak par bikhri hai ghegha bua ne use uthaya, dhoti theek ki aur bigaDkar bolin,‘‘ aukat ratti bhar nai, aur teha pauwa bhar aapan bakhat dekh kar chup nai raha jat kahe laDkan ke munh lagat ho?’’ logon ne poochh to kuch nahin boli jaise use pala mar gaya ho usne chupchap apni dukan theek ki aur dant se khoon ponchha, kulla kiya aur baith gai
uske baad apne us krity se bachche jaise khud saham gaye the bahut din tak we shant rahe aaj jab mewa ne uski peeth par dhool phenki to jaise use khoon chaDh gaya par phir na jane wo kya sochkar chup rah gai aur jab nara lagate julus gali mein muD gaya to usne ansu ponchhe, peeth par se dhool jhaDi aur sag par pani chhiDakne lagi laDke ka hain galli ke rakshas hain!’’ ghegha bua bolin ‘‘are unhen kahai kaho bua! hamara bhag bhi khota hai!’’ gulki ne gahri sans lekar kaha
is bar jo jhaDi lagi to panch din tak lagatar suraj ke darshan nahin hue bachche sab ghar mein qaid the aur gulki kabhi dukan lagati thi, kabhi nahin, ram ram karke tisre pahar jhaDi band hui bachche hakimji ke chautre par jama ho gaye mewa bilboti been laya tha aur nirmal ne tapki hui nimkauDiyan binkar dukan laga li thi aur gulki ki tarah awaz laga rahi thi, ‘‘le khira, aalu, muli, ghiya, banDa!’’ thoDi der mein qaphi shishu gerahak dukan par jut gaye akasmat shorgul se chirta hua bua ke chautre se geet ka swar utha bachchon ne ghoom kar dekha mirwa aur matki gulki ki dukan par baithe hain matki khira kha rahi hai aur mirwa jhabri ka sar apni god mein rakhe bilkul uski ankhon mein ankhen Dalkar ga raha hai
turant mewa gaya aur pata lagakar laya ki gulki ne donon ko ek–ek adhanna diya hai donon milkar jhabri kutiya ke kiDe nikal rahe hain chautre par halchal mach gai aur munna ne kaha, ‘‘nirmal! mirwa matki ko ek bhi nimkauDi mat dena rahen usi kubDi ke pas!’’
‘‘han jee!’’ nirmal ne ankh chamkakar gol munh karke kaha, ‘‘hamar amman kahat rahin unhen chhuyo n! na sath khayo, na khelo unhen baDi buri bimari hai aak thoo!’’ munna ne unki or dekhkar ubkai jaisa munh banakar thook diya
gulki baithi baithi sab samajh rahi thi aur jaise is nirarthak ghrina mein use kuch ras sa aane laga tha usne mirwa se kaha, ‘‘tum donon mil ke gao to ek adhanna den khoob zor se!’’ bhai bahan donon ne gana shuru kiya mal katali mal jana, pal akiyan kichhi se ’’ akasmat patak se darwaza khula aur ek lota pani donon ke upar phenkti hui ghegha bua garjin, door kalamunhe abhin bitau bhar ke nahin na aur paturiyan ke gana gabai lage na bahan ka khyal, na bitiya ka aur e kubDi, hum tuhun se kahe deit hai ki hum chaklakhana kholai ke bare apna chautara nahin diya raha hunh! chali huna se mujra karawai ’’
gulki ne pani udhar chhitkate hue kaha,‘‘bua bachche hain ga rahe hain kaun kasur ho gaya ’’
‘‘ai han! bachche hain tuhun to doodh piyat bachchi hau kah diya ki zaban na laDayon hamse, han! hum bahutai buri hain ek to panch mahine se kiraya nahin diyo aur hiyan duniyan bhar ke andhe koDhi bature raht hain chalau uthayo apni dukan hiyan se kal se na dekhi hiyan tumhein ram! ram! sab adharm ki santan rachchhas paida bhae hain muhalle mein! dharatiyau nahin phatat ki mar bilay jaany ’’
gulki sann rah gai usne kiraya sachmuch panch mahine se nahin diya tha bikri nahin thi muhalle mein unse koi kuch leta hi nahin tha, par iske liye bua nikal degi ye use kabhi aasha nahin thi waise bhi mahine mein bees din wo bhukhi soti thi dhoti mein das das paiband the makan gir chuka tha ek dalan mein wo theDi si jagah mein so jati thi par dukan to wahan rakhi nahin ja sakti usne chaha ki wo bua ke pair pakaD le, minnat kar le par bua ne jitni zor se darwaza khola tha utni hi zor se band kar diya jab se chaumas aaya tha, purwai bahi thi, uski peeth mein bhayanak piDa uthti thi uske panw kampte the satti mein us par udhaar buri tarah chaDh gaya tha par ab hoga kya? wo mare kheej ke rone lagi
itne mein kuch khatpat hui aur usne ghutnon se munh uthakar dekha ki mauqa pakar matki ne ek phoot nikal liya hai aur marabhukhi ki tarah use habar habar khati ja rahi thi hai, ek kshan wo uske phulte pachakte pet ko dekhti rahi, phir khyal aate hi ki phoot pure das paise ka hai, wo ubal paDi aur saDasaD teen chaar khapachchi marte hue boli,‘‘chotti! kutiya! tore badan mein kiDa paDen!’’ matki ke hath se phoot gir paDa par wo nali mein se phoot ke tukDe uthate hue bhagi na roi, na chikhi, kyonki munh mein bhi phoot bhara tha mirwa hakka bakka is ghatna ko dekh raha tha ki gulki usi par baras paDi saD saD usne mirwa ko marana shuru kiya,‘‘bhag, yahan se haramjade!’’ mirwa dard se tilmila utha,‘‘hamla paichha dew to jai ’’ ‘‘det hain paisa, thahar to ’’ saD! saD rota hua mirwa chautre ki or bhaga
nirmal ki dukan par sannata chhaya hua tha sab chup usi or dekh rahe the mirwa ne aakar kubDi ki shikayat munna se ki aur ghumkar bola, ‘‘mewa bata to ise!’ mewa pahle hichakichaya, phir baDi mulayamiyat se bola, ‘‘mirwa tumhein bimari hui hai n! to hum log tumhein nahin chhuenge sath nahin khilayenge tum udhar baith jao ’’
‘‘ham bimal hain munna?’’
munna kuch pighla, ‘‘han, hamein chhuo mat nimkauDi kharidna ho to udhar baith jao hum door se phenk denge samjhe!’’ mirwa samajh gaya sar hilaya aur alag jakar baith gaya mewa ne nimkauDi uske pas rakh di aur chot bhulkar paki nimkauDi ka bija nikal kar chhilne laga itne mein udhar se ghegha bua ki awaz i, ‘‘ai munna!’’ tai tu log pare ho jao! abhin pani giri upar se!’’ bachcho ne upar dekha tichhatte par ghegha bua mare pani ke chhap chhap karti ghoom rahi theen kuDe se tichhatte ki nali band thi aur pani bhara tha jidhar bua khaDi theen uske theek niche gulki ka sauda tha bachche wahan se door the par gulki ko sunne ke liye baat bachchon se kahi gai thi gulki karahti hui uthi kubaD ki wajah se wo tankar tichhatte ki or dekh bhi nahin sakti thi usne dharti ki or dekha upar bua se kaha,‘‘idhar ki nali kahe khol rahi ho? udhar ki kholo n!’’
‘‘kahe udhar ki kholi! udhar hamara chauka hai ki nai!’’
‘‘idhar hamara sauda laga hai ’’
‘‘ai hai!’’ bua hath chamka kar bolin, sauda laga hai rani sahab ka! kiraya dey ki dayin hiyaw phatat hai aur tarray ke dayin nati mein gamma pahilwan ka zor to dekho! sauda laga hai to hum ka kari nari to ihai khuli hai!’’
‘‘kholo to dekhain!’’ akasmat gulki ne taDap kar kaha aaj tak kisi ne uska wo swar nahin suna tha,‘‘panch mahine ka das rupaya nahin diya beshak, par hamare ghar ki dhanni nikal ke basantu ke hath kisne becha? tumne pachchhim or ka darwaza chirwa ke kisne jalwaya? tumne hum garib hain hamara bap nahin hai sara muhalla hamein mil ke mar Dalo ’’
‘‘hamen chori lagati hai are kal ki paida hui ’’ bua mare ghusse ke khaDi boli bolne lagi theen
bachche chup khaDe the we kuch kuch sahme hue the kubDi ka ye roop unhonne kabhi na dekha na socha tha
‘‘han! han! han tumne, Draiwar chacha se, chachi ne sabne milke hamara makan ujaDa hai ab hamari dukan bahay dew dekhenge hum bhi nirbal ke bhi bhagwan hain!’’
‘‘le! le! le! bhagwan hain to le!’’ aur bua ne pagalon ki tarah dauDkar nali mein jama kuDa lakDi se thel diya chhah inch moti gande pani ki dhaar dhaD dhaD karti hui uski dukan par girne lagi taroiyan pahle nali mein girin, phir muli, khire, sag, adrak uchhal uchhalkar door ja gire gulki ankh phaDe pagal si dekhti rahi aur phir diwar par sar patakkar hirdai widarak swar mein Dakrakar ro paDi, ‘‘are mor babu, hamein kahan chhoD gaye! are mori mai, paida hote hi hamein kyon nahin mar Dala! are dharti maiya, hamein kahe nahin leel leti!’’
sar khole baal bikhere chhati koot kutkar wo ro rahi thi aur tichhatte ka pichhle pahle nau din ka jama pani dhaD dhaD gir raha tha
bachche chup khaDe the ab tak jo ho raha tha, unki samajh mein aa raha tha par aaj ye kya ho gaya, ye unki samajh mein nahin aa saka par we kuch bole nahin sirf matki udhar gai aur nali mein bahta hua hara khira nikalne lagi ki munna ne Danta, ‘‘khabardar! jo kuch churaya ’’ matki pichhe hat gai we sab kisi apratyashit bhay sanwedana ya ashanka se juD baturkar khaDe ho gaye sirf mirwa alag sar jhukaye khaDa tha jhinsi phir paDne lagi thi aur we ek ek kar apne ghar chale gaye
dusre din chautara khali thi dukan ka bans ukhaDwakar bua ne nand mein gaDkar us par turai ki latar chaDha di thi us din bachche aaye par unki himmat chautre par jane ki nahin hui jaise wahan koi mar gaya ho bilkul sunsan chautara tha aur phir to aisi jhaDi lagi ki bachchon ka nikalna band chauthe ya panchwen din raat ko bhayanak warsha to ho hi rahi thi, par badal bhi aise garaj rahe the ki munna apni khat se uthkar apni man ke pas ghus gaya bijli chamakte hi jaise kamra roshni se nach nach uthta tha chhat par bundon ki patar patar kuch dhimi hui, thoDi hawa bhi chali aur peDon ka harhar sunai paDa ki itne mein dhaD dhaD dhaD dhaDam! bhayanak awaz hui man bhi chaunk paDi par uthi nahin munna ankhen khole andhere mein takne laga sahsa laga muhalle mein kuch log batachit kar rahe hain ghegha bua ki awaz sunai paDi,‘‘kiska makan gir gaya hai re ’’
‘‘gulki ka!’ kisi ka duragat uttar aaya
‘‘are bap re! dab gai kya?’’
‘‘nahin, aaj to mewa ki man ke yahan soi hai!’’
munna leta tha aur uske upar andhere mein ye sawal jawab idhar se udhar aur udhar se idhar aa rahe the wo phir kanp utha, man ke pas ghus gaya aur sote sote usne saf suna kubDi phir usi tarah ro rahi hai, gala phaDkar ro rahi hai! kaun jane munna ke hi angan mein baithkar ro rahi ho! neend mein wo swar kabhi door kabhi pas aata hua lag raha hai jaise kubDi muhalle ke har angan mein jakar ro rahi hai par koi sun nahin raha hai, siwa munna ke
bachchon ke man mein koi baat itni gahri lakir banati ki udhar se unka dhyan hate hi nahin samne gulki thi to wo ek samasya thi, par uski dukan hat gai, phir wo jakar sabun wali satti ke galiyare mein sone lagi aur do chaar gharon se mang mungakar khane lagi, us gali mein dikhti hi nahin thi bachche bhi dusre kamon mein wyast ho gaye ab jaDe aa rahe the unka jamawDa subah na hokar tisre pahar hota tha jama hone ke baad julus nikalta tha aur jis joshile nare se gali goonj uthti thi wo tha,‘ghegha bua ko wote do ’’ pichhle dinon myunisipailiti ka chunaw hua tha aur usi mein bachchon ne ye nara sikha tha waise kabhi kabhi bachchon mein do partiyan bhi hoti theen, par donon ko ghegha bua se achchha ummidwar koi nahin milta tha at donon gala phaD phaDkar unke hi liye wote mangti theen
us din jab ghegha bua ke dhairya ka bandh toot gaya aur nai nai galiyon se wibhushait apni pahli election speech dene jyon hi chautre par awatrit huin ki unhen Dakiya aata hua dikhai paDa wo achakchakar ruk gain Dakiye ke hath mein ek post card tha aur wo gulki ko DhoonDh raha tha bua ne lapak kar postakarD liya, ek sans mein paDh gain unki ankhen mare achraj ke phail gain, aur Dakiye ko ye batakar ki gulki satti sabunwali ke osare mein rahti hai, we jhat se dauDi dauDi nirmal ki man Draiwar ki patni ke yahan gain baDi der tak donon mein salah mashawira hota raha aur ant mein bua ain aur unhonne mewa ko bheja,‘‘ja gulki ko bulay la!’’
par jab mewa lauta to uske sath gulki nahin waran satti sabunwali thi aur sada ki bhanti is samay bhi uski kamar se wo kale bent ka chaku latak raha tha, jisse wo sabun ki tikki katkar dukandaron ko deti thi usne aate hi bhano sikoDkar bua ko dekha aur kaDe swar mein boli,‘‘kyon bulaya hai gulki ko? tumhara das rupae kiraya baki tha, tumne pandrah rupae ka sauda ujaD diya! ab kya kaam hai!’’
‘‘are ram! ram! kaisa kiraya beti! andar jao andar jao!’ bua ke swar mein asadharan mulayamiyat thi satti ke andar jate hi bua ne phatak se kiwaDa band kar liye bachchon ka kautuhal bahut baDh gaya tha bua ke chauke mein ek jhanjhari thi sab bachche wahan pahunche aur ankh lagakar kanpatiyon par donon hatheliyan rakhkar ghantiwala baiskop dekhne ki mudra mein khaDe ho gaye
andar satti garaj rahi thi, ‘‘bulaya hai to bulane do kyon jaye gulki? ab baDa khayal aaya hai isliye ki uski rakhail ko bachcha hua hai jo jake gulki jhaDu buharu kare, khana banawe, bachcha khilawe, aur wo marad ka bachcha gulki ki ankh ke aage rakhail ke sath gulchharre uDawe!’’
nirmal ki man bolin,‘‘apni bitiya, par gujre to apne adami ke sath karaigi n! jab uski patni i hai to gulki ko jana chahiye aur marad to marad ek rakhail chhoD dui dui rakhail rakh le to aurat use chhoD degi? ram! ram!’’
‘‘nahin, chhoD nahin degi to jay kai lat khayegi?’’ satti boli
‘‘are beta!’’ bua bolin,‘‘bhagwan rahen n? taun mathurapuri mein kubja dasi ke lat marin to okar kubar sidha hui gawa pati to bhagwan hain bitiya oka jay dew!’’
‘‘han han, baDi hitu na baniye! uske adami se aap log mupht mein gulki ka makan jhatakna chahti hain main sab samajhti hoon ’’
nirmal ki man ka chehra zard paD gaya par bua ne aisi kachchi goli nahin kheli thi we Dapatkar bolin,‘‘khabardar jo kachchi jaban nikalyo! tumhara charittar kaun nai janta! ohi chhokra manik ’’
‘‘jaban kheench lungi’’ satti gala phaDkar chikhi, ‘‘jo aage ek haruf kaha ’’ aur uska hath apne chaku par gaya ‘‘are! are! are!’’ bua sahamkar das qadam pichhe hat gain,‘‘to ka khoon karbo ka, katal karbo ka?’’
satti jaise i thi waise hi chali gai tisre din bachchon ne tay kiya ki hori babu ke kuen par chalkar barren pakDi jayen un dinon unka zahr shant rahta hai, bachche unhen pakaDkar unka chhota sa kala Dank nikal lete aur phir Dori mein bandhkar unhen uDate hue ghumte mewa, nirmal aur munna ek ek barre uDate hue jab gali mein pahunche to dekha bua ke chautre par teen ki kursi Dale koi adami baitha hai uski ajab shakl thi kan par baDe baDe baal, michamichi ankhen, mochha aur tel se chuchuate hue baal kamij aur dhoti par purana badrang boot matki hath phailaye kah rahi hai,“ek double dai dew! ek dai dew na?” munna ko dekhkar matki tali baja bajakar kahne lagi,“gulki ka mansedhu aawa hai e munna babu! i kubDi ka mansedhu hai ” phir udhar muDkar, “ek double dai dew ” tinon bachche kautuhal mein ruk gaye itne mein nirmal ki man ek gilas mein chay bharkar lai aur use dete dete nirmal ke hath mein barre dekhkar use Dantane lagi phir barre chhuDakar nirmal ko pas bulaya aur boli,“beta, i hamari niramla hai e nirmal, jijaji hain, hath joDo! beta, gulki hamari jat biradri ki nahin hai to ka hua, hamare liye jaise nirmal waise gulki
are, nirmal ke babu aur gulki ke bap ki dant kati rahi ek makan bacha hai unki chihari, aur ka?’’ ek gahri sans lekar nirmal ki man ne kaha
“are to ka unhen koi inkar hai?’’ bua aa gai theen,“are sau rupae tum daiwe kiye rahayyu, chalo teen sau aur dai dew apne nam karay lew?”
“panch sau se kam nahin hoga?” us adami ka munh khula, ek waky nikla aur munh phir band ho gaya
“bhawa! bhawa! ai beta damad hau, panch sau kahbo to ka nirmal ki man ko inkar hai?”
akasmat wo adami uthkar khaDa ho gaya aage aage satti chali aa rahi thi, pichhe pichhe gulki satti chautre ke niche khaDi ho gai bachche door hat gaye gulki ne sir uthakar dekha aur achakchakar sar par palla Dalkar mathe tak kheench liya satti do ek kshan uski or ektak dekhti rahi aur phir garajkar boli,“yahi kasai hai! gulki, aage baDhkar mar do chapota iske munh par! khabardar jo koi bola ’’ bua chat se dehri ke andar ho gain, nirmal ki man ki jaise ghigghi bandh gai aur wo adami haDabDakar pichhe hatne laga
“baDhti kyon nahin gulki! baDa aaya wahan se bida karane?”
gulki aage baDhi; sab sann the; siDhi chaDhi, us adami ke chehre par hawaiyan uDne lagin gulki chaDhte chaDhte ruki, satti ki or dekha, thithki, akasmat lapki aur phir us adami ke panw par gir ke phaphak phaphakkar rone lagi,“hay! hamein kahe ko chhoD diyau! tumhare siwa hamara lok parlok aur kaun hai! are, hamre marai par kaun chullu bhar pani chaDhai ’’
satti ka chehra syah paD gaya usne baDi hikarat se gulki ki or dekha aur gusse mein thook nigalte hue kaha, “kutiya!’’ aur tezi se chali gai nirmal ki man aur bua gulki ke sar par hath pher pherkar kah rahi theen, “mat ro bitiya! mat ro! sita maiya bhi to banwas bhogin raha utho gulki beta! dhoti badal lew kanghi choti karo pati ke samne aise aana asgun hota hai chalo!’’
gulki ansu ponchhti ponchhti nirmal ki man ke ghar chali bachche pichhe pichhe chale to bua ne Danta,“ai chalo ehar, huna laDDu bant raha hai ka?’’
dusre din nirmal ke babu (Draiwar sahab), gulki aur jijaji dinbhar kachahri mein rahe sham ko laute to nirmal ki man ne puchha,“pakka kagaj likh gaya?”
“han han re, hakim, ke samne likh gaya ” phir zara nikat aakar phusaphusakar bole,“matti ke mol makan mila hai ab kal donon ko bida karo ”
“are, pahle sau rupae lao! bua ka hissa bhi to dena hai?” nirmal ki man udas swar mein boli, “baDi chant hai buDhiya gaD gaD ke rakh rahi hai, mar ke samp hoegi ’’
subah nirmal ki man ke yahan makan kharidne ki katha thi shankh, ghanta ghaDiyali, kele ka patta, panjiri, panchamrit ka ayojan dekhkar munna ke alawa sab bachche ikattha the nirmal ki man aur nirmal ke babu piDhe par baithe the; gulki ek pili dhoti pahne mathe tak ghunghat kaDhe supari kat rahi thi aur bachche jhank jhankakar dekh rahe the mewa ne pahunchakar kaha,“e gulki, e gulki, jijaji ke sath jaogi kya?’’
kubDi ne jhempkar kaha,“dhatt re! thitholi karta hai ’’
aur lajja bhari jo muskan kisi bhi tarunai ke chehre par manmohak lali bankar phail jati, uske jhurriyondar, beDaul, niras chehre par wichitr roop se wibhats lagne lagi uske kale papDidar honth sikuD gaye, ankhon ke kone michamicha uthe aur atyant kuruchipurn Dhang se usne apne palle se sar Dhank liya aur peeth sidhi kar jaise kubaD chhipane ka prayas karne lagi mewa pas hi baith gaya kubDi ne pahle idhar udhar dekha, phir phusaphusakar mewa se kaha,“kyon re! jijaji kaise lage tujhe?” mewa ne asmanjas mein ya sankoch mein paDkar koi jawab nahin diya to jaise apne ko samjhate hue gulki boli, “kuchh bhi hoy hai to apna adami! hare gaDhe koi aur kaam ayega? aurat ko dabay ke rakhna hi chahiye ” phir thoDi der chup rahkar boli,“mewa bhaiya, satti hamse naraj hai apni sagi bahan kya karegi jo satti ne kiya hamare liye e chachi aur bua to sab matlab ke sathi hain hum kya jante nahin? par bhaiya ab jo kaho ki hum satti ke kahne se apne marad ko chhoD den, so nahin ho sakta ” itne mein kisi ka chhota sa bachcha ghutnon ke bal chalte chalte mewa ke pas aakar baith gaya gulki kshan bhar use dekhti rahi phir boli,“pati se hamne apradh kiya to bhagwan ne bachcha chheen liya, ab bhagwan hamein chhama kar denge ” phir kuch kshan ke liye chup ho gai
“kshama karenge to dusri santan denge?’’
“kyon nahin denge? tumhare jijaji ko bhagwan banaye rakhe khot to hami mein hai phir santan hogi tab to saut ka raj nahin chalega ’’
itne mein gulki ne dekha ki darwaje par uska adami khaDa bua se kuch baten kar raha hai gulki ne turat palle se sar Dhanka aur lajakar udhar peeth kar li boli,“ram! ram! kitne dubra gaye hain hamare bina khane pine ka kaun dhyan rakhta! are, saut to apne matlab ki hogi le bhaiya mewa, ja do biDa pan de aa jija ko?” phir uske munh par wahi laj ki bibhats mudra i,“tujhe kasam hai, batana mat kisne diya hai ”
mewa pan lekar gaya par wahan kisi ne uspar dhyan hi nahin diya wo adami bua se kah raha tha,“ise le to ja rahe hain, par itna kahe dete hain, aap bhi samjha den use ki rahna ho to dasi bankar rahe na doodh ki na poot ki, hamare kaun kaam kee; par han auratiya ki sewa kare, uska bachcha khilawe, jhaDu buharu kare to do roti khay paDi rahe par kabhi usse jaban laDai to khair nahin hamara hath baDa jalim hai ek bar kubaD nikla, agli bar paran niklega ”
“kyon nahin beta! kyon nahin?” bua bolin aur unhonne mewa ke hath se pan lekar apne munh mein daba liye
qarib teen baje ikka lane ke liye nirmal ki man ne mewa ko bheja katha ki bheeD bhaD se unka mooD pirane; laga tha, at akeli gulki sari taiyari kar rahi thi matki kone mein khaDi thi mirwa aur jhabri bahar gumsum baithe the nirmal ki man ne bua ko bulwakar puchha ki bida bidai mein kya karna hoga, to bua munh bigaDkar bolin, “are koi jat biradri ki hai ka? ek lota mein pani bhar ke ikanni duanni utar ke parja pajaru ko de diyo bus?” aur phir bua sham ko biyari mein lag gain
ikka aate hi jaise jhabri pagal si idhar udhar dauDne lagi use jane kaise abhas ho gaya ki gulki ja rahi hai, sada ke liye mewa ne apne chhote chhote hathon se baDi baDi gathriyan rakhin, matki aur mirwa chupchap aakar ikke ke pas khaDe ho gaye sar jhukaye patthar si chup gulki nikli aage aage hath mein pani ka bhara lota liye nirmal thi wo adami jakar ikke par baith gaya
“ab jaldi karo! usne bhari gale se kaha gulki aage baDhi, phir ruki aur tent se do adhanni nikale,“le mirwa, le matki?” matki jo hamesha hath phailaye rahti thi, is samay jane kaisa sankoch use aa gaya ki wo hath niche kar diwar se sat kar khaDi ho gai aur sar hilakar boli, “nahin?”
“nahin beta! le lo!” gulki ne puchkarkar kaha mirwa matki ne paise le liye aur mirwa bola,“chhalam gulki! e adami chhalam?’’
“ab kya gaDi chhoDni hai?” wo phir bhari gale se bola
“thahro beta, kahin aise damad ki bidai hoti hai?” sahsa ek bilkul ajnabi kintu atyant mota swar sunai paDa bachchon ne achraj se dekha, munna ki man chali aa rahi hain
“ham to munna ka aasra dekh rahe the ki school se aa jaye, use nashta kara len to ayen, par ikka aa gaya to hamne samjha ab tu chali are! nirmal ki man, kahin aise beti ki bidai hoti hai! lao jara roli gholo jaldi se, chawal lao, aur sendur bhi le aana nirmal beta! tum beta utar aao ikke se!’’
nirmal ki man ka chehra syah paD gaya tha bolin, “jitna hamse ban paDa kiya kisi ko daulat ka ghamanD thoDe hi dikhana tha?”
“nahin bahan! tumne to kiya par muhalle ki bitiya to sare muhalle ki bitiya hoti hai hamara bhi to farz tha are man bap nahin hain to muhalla to hai aao beta?” aur unhonne tika karke anchal ke niche chhipaye hue kuch kapDe aur ek nariyal uski god mein Dalkar use chipka liya gulki jo abhi tak patthar si chup thi sahsa phoot paDi use pahli bar laga jaise wo mayke se ja rahi hai mayke se apni man ko chhoDkar chhote chhote bhai bahnon ko chhoDkar aur wo apne karkash phate hue gale se wichitr swar se ro paDi
“le ab chup ho ja! tera bhai bhi aa gaya?” we bolin munna basta latkaye school se chala aa raha tha kubDi ko apni man ke kandhe par sar rakhkar rote dekhkar wo bilkul hataprabh sa khaDa ho gaya, “a beta, gulki ja rahi hai na aaj! didi hai n! baDi bahan hai chal panw chhu le! aa idhar?” man ne phir kaha munna aur kubDi ke panw chhue? kyon? kyon? par man ki baat! ek kshan mein uske man mein jaise ek pura pahiya ghoom gaya aur wo gulki ki or baDha gulki ne dauDkar use chipka liya aur phoot paDi, “hay mere bhaiya! ab hum ja rahe hain! ab kisse laDoge munna bhaiya? are mere wiran, ab kisse laDoge?” munna ko laga jaise uski chhoti chhoti pasliyon mein ek bahut baDa sa ansu jama ho gaya jo ab chhalakne hi wala hai itne mein us adami ne phir awaz di aur gulki karahkar munna ki man ka sahara lekar ikke par baith gai ikka khaD khaD kar chal paDa munna ki man muDi ki bua ne wyangy kiya, “ek aadh gana bhi bidai ka gaye jao bahan! gulki banno sasural ja rahi hai!” munna ki man ne kuch jawab nahin diya, munna se boli,“jaldi ghar aana beta, nashta rakha hai?
par pagal mirwa ne, jo bambe par panw latkaye baitha tha, jane kya socha ki wo sachmuch gala phaDkar gane laga,“banno Dale dupatte ka palla, muhalle se chali gai ram?” ye us muhalle mein har laDki ki bida par gaya jata tha bua ne ghuDka tab bhi wo chup nahin hua, ulte matki boli, “kahe na gawen, gulki nai paisa diya hai?” aur usne bhi sur milaya,“banno tali gai lam! banno tali gai lam! banno tali gai lam!”
munna chupchap khaDa raha matki Darte Darte i,“munna babu! kubDi ne adhanna diya hai, le len?”
“le le” baDi mushqil se munna ne kaha aur uski ankh mein do baDe baDe ansu DabDaba aaye unhin ansuon ki jhilmil mein koshish karke munna ne jate hue ikke ki or dekha gulki ansu ponchhte hue parda uthakar muD muDkar dekh rahi thi moD par ek dhachke se ikka muDa aur phir adrshy ho gaya
sirf jhabri saDak tak ikke ke sath gai aur phir laut gai
‘‘ai mar kalamunhe!’ akasmat ghegha bua ne kuDa phenkne ke liye darwaza khola aur chautre par baithe mirwa ko gate hue dekhkar kaha, ‘‘tore pet mein phonogiraf uliyan ba ka, jaun bhinsar bhawa ki tan toDai lag? ram janai, raat ke kaisan ekra dida lagat hai!’’ mare Dar ke ki kahin ghegha bua sara kuDa usi ke sar par na phek den, mirwa thoDa khisak gaya aur jyon hi ghegha bua andar gain ki phir chautre ki siDhi par baith, pair jhulate hue usne ulta sulta gana shuru kar kiya, ‘‘tumen bachh yaad kalte am chhanam teri kachham!’’
mirwa ki awaz sunkar jane kahan se jhabri kutiya bhi kan poonchh jhhatkarte aa gai aur niche saDak par baithkar mirwa ka gana bilkul usi andaz mein sunne lagi jaise his masters wauyas ke rikarD par taswir bani hoti hai
abhi sari gali mein sannata tha sabse pahle mirwa (asli nam mihirlal) jagata tha aur ankh malte malte ghegha bua ke chautre par aa baithta tha uske baad jhabri kutiya, phir mirwa ki chhoti bahan matki aur uske baad ek ek kar gali ke tamam bachche khonchewali ka laDka mewa, Draiwar sahab ki laDki nirmal, manijar sahab ke munna babu sabhi aa jutte the jabse gulki ne ghegha bua ke chautre par tarkariyon ki dukan rakhi thi tab se ye jamawDa wahan hone laga tha uske pahle bachche hakimji ke chautre par khelte the dhoop nikalte gulki satti se tarkariyan kharidkar apni kubDi peeth par lade, DanDa tekti aati aur apni dukan phaila deti muli, nimbu, kaddu, lauki, ghiya banDa, kabhi kabhi saste phal! mirwa aur matki janki ustad ke bachche the jo ek bhayankar rog mein gal galkar mare the aur donon bachche bhi wiklang, wikshaipt aur rogagrast paida hue the siwa jhabri kutiya ke aur koi unke pas nahin baithta tha aur siwa gulki ke koi unhen apni dehri ya dukan par chaDhne nahin deta tha
aj bhi gulki ko aate dekhkar pahle mirwa gana chhoDkar, ‘‘chhalam gulki!’’ aur matki apne baDhi hui tilliwale pet par se khisakta hua janghiya sambhalte hue boli, ‘‘ek tho muli dai dew! e gulki!’’ gulki pata nahin kis baat se khiji hui thi ki usne matki ko jhiDak diya aur apni dukan lagane lagi jhabri bhi pas gai ki gulki ne DanD uthaya dukan lagakar wo apni kubDi peeth duhrakar baith gai aur jane kise buDabuDakar galiyan dene lagi matki ek kshan chupchap rahi phir usne rat lagana shuru kiya, ‘‘ek muli! ek gulki! ek’’ gulki ne phir jhiDka to chup ho gai aur alag hatkar lolup netron se safed dhuli hui muliyon ko dekhne lagi is bar wo boli nahin chupchap un muliyon ki or hath baDhaya hi tha ki gulki chikhi, ‘‘hath hatao chhuna mat koDhin kahin kee! kahin khane pine ki cheez dekhi to jonk ki tarah chipak gai, chal idhar!’’ matki pahle to pichhe hati par phir uski tirishna aisi adamy ho gai ki usne hath baDhakar ek muli kheench li gulki ka munh tamtama utha aur usne bans ki khapachchi uthakar uske hath par chat se de mari! muli niche giri aur hay! hay! hay!’’ kar donon hath jhatakti hui matki panw patakaptak kar rone lagi ‘‘jawo apne ghar rowo hamari dukan par marne ko gali bhar ke bachche hain,’’ gulki chikhi! ‘‘dukan daike hum bipta mol lai liya chhan bhar puja bhajan mein bhi kacharghanw machi rahti hai!’’ andar se ghegha bua ne swar milaya khasa hangama mach gaya ki itne mein jhabri bhi khaDi ho gai aur lagi udatt swar mein bhunkne ‘left rait! left rait!’ chaurahe par teen chaar bachchon ka julus chala aa raha tha aage aage darja ‘ba’ mein paDhnewale munna babu neem ki santi ko jhanDe ki tarah thame jalus ka netritw kar rahe the, pichhe the mewa aur nirmal jalus aakar dukan ke samne ruk gaya gulki satark ho gai dushman ki taqat baDh gai thi
matki khisakte khisakte boli,‘‘hamke gulki maris hai hay! hay! hamke nariya mein Dhakel dihis are bap re!’’ nirmal, mewa, munna, sab pas aakar uski chot dekhne lage phir munna ne Dhakelkar sabko pichhe hata diya aur santi lekar tankar khaDe ho gaye ‘‘kisne mara hai ise!’’
‘‘ham mara hai!’’ kubDi gulki ne baDe kasht se khaDe hokar kaha,‘‘ka karoge? hamein maroge! maroge!’’
‘‘marenge kyon nahin?’’ munna babu ne akaDkar kaha gulki iska kuch jawab deti ki bachche pas ghir aaye matki ne jeebh nikalkar munh biraya, mewa ne pichhe jakar kaha, ‘‘e kubDi, e kubDi, apna kubaD dikhao!’’ aur ek mutthi dhool uski peeth par chhoDkar bhaga gulki ka munh tamtama aaya aur rundhe gale se karahte hue usne pata nahin kya kaha kintu uske chehre par bhay ki chhaya bahut gahri ho rahi thi bachche sab ek ek mutthi dhool lekar shor machate hue dauDe ki akasmat ghegha bua ka swar sunai paDa, ‘‘e munna babu, jat hau ki abhin bahinji ka bulway ke dui chaar kanethi dilwai!’’ ‘‘jate to hain!’’ munna ne akaDte hue kaha, ‘‘e mirwa, bigul bajao ’’ mirwa ne donon hath munh par rakhkar kaha,‘‘dhutu dhutu dhu ’’ jalus aage chal paDa aur kaptan ne nara lagayah
apne des mein apna raj!
gulki ki dukan baikat!
nara lagate hue jalus gali mein muD gaya kubDi ne ansu ponchhe, tarkari par se dhool jhaDi aur sag par pani ke chhinte dene lagi
gulki ki umr zyada nahin thi yahi had se had pachchis chhabbis par chehre par jhurriyan aane lagi theen aur kamar ke pas se wo is tarah dohri ho gai thi jaise assi warsh ki buDhiya ho bachchon ne jab pahli bar use muhalle mein dekha to unhen tajujb bhi hua aur thoDa bhay bhi kahan se i? kaise aa gai? pahle kahan thee? iska unhen kuch anuman nahin tha? nirmal ne zarur apni man ko uske pita Draiwar se raat ko kahte hue suna, ‘‘yah musibat aur khaDi ho gai marad ne nikal diya to hum thoDe hi ye Dhol gale bandhenge bap alag hum logon ka rupaya kha gaya suna chal bsa to Dari ki kahin makan hum log na dakhal kar len aur marad ko chhoDkar chali i khabardar jo chabhi di tumne!’’
‘‘kya chhotepan ki baat karti ho! rupaya uske bap ne le liya to kya hum uska makan mar lenge? chabhi hamne de di hai das panch din ka naj pani bhej do uske yahan ’’
‘‘han han, sara ghar utha ke bhej dew sun rahi ho ghegha bua!’’
‘‘to ka bhawa bahu, are nirmal ke babu se to ekre bap ki dant kati rahi ’’ ghegha bua ki awaz i, ‘‘bechari bap ki akeli santan rahi ehi ke biyah mein matiyamet hui gawa par aise kasai ke hath mein dihis ki panchai baras mein kubaD nikal aawa ’’
‘‘sala yahan aawe to hunter se khabar loon main ’’ Draiwar sahab bole,‘‘ panch baras baad baal bachcha hua ab mara hua bachcha paida hua to usmen iska kya kasur! sale ne siDhi se Dhakel diya jindgi bhar ke liye haDDi kharab ho gai n! ab kaise gujara ho uska?’’
‘‘betwa eko dukan khulway dew hamra chautara khali paDa hai yahi rupaya dui rupaya kiraya dai dewa karai, din bhar apna sauda lagay le hum ka mana karit hai? etta baDa chautara muhallewalan ke kaam na i to ka hum chhati par dhai lai jab! par han, mula rupaya dai dew karai ’’
dusre din ye sanasnikhej khabar bachchon mein phail gai waise to hakimji ka chabutara paDa tha, par wo kachcha tha, us par chhajan nahin thi bua ka chautara lamba tha, us par patthar juDe the lakDi ke khambhe the us par teen chhai thi kai khelon ki suwidha thi khambhon ke pichhe kil kil kante ki lakiren khinchi ja sakti theen ek tang se uchak uchakkar bachche chibiDDi khel sakte the patthar par lakDi ka piDha rakhkar niche se muDa hua tar ghumakar relgaDi chala sakte the jab gulki ne apni dukan ke liye chabutron ke khambhon mein bans bandhe to bachchon ko laga ki unke samrajy mein kisi agyat shatru ne aakar qilebandi kar li hai we sahme hue door se kubDi gulki ko dekha karte the nirmal hi uski ekmatr sanwadadata thi aur nirmal ka ekmatr wishwast sootr tha uski man usse jo suna tha uske adhar par nirmal ne sabko bataya tha ki ye chor hai iska bap sau rupaya churakar bhag gaya ye bhi uske ghar ka sara rupaya churane i hai
‘‘rupaya churayegi to ye bhi mar jayegi ’’ munna ne kaha, ‘‘bhagwan sabko danD deta hai ’’ nirmal boli, ‘‘sasural mein bhi rupaya churaye hogi ’’ mewa bola ‘‘are kubaD thoDe hai! ohi rupaya bandhe hai peeth par mansedhu ka rupaya hai ’’
‘‘sachmuch ?’’ nirmal ne awishwas se kaha ‘‘aur nahin kya kubaD thoDi hai hai to dikhawai ’’ munna dwara utsahit hokar mewa puchhne hi ja raha tha ki dekha sabunwali satti khaDi baat kar rahi hai gulki se kah rahi thi,‘‘achchha kiya tumne! mehnat se dukan karo ab kabhi thukne bhi na jana uske yahan haramazada, dusri aurat kar le, chahe das aur kar le sabka khoon usi ke matthe chaDhega yahan kabhi aawe to kahlana mujhse isi chaku se donon ankhen nikal lungi!’’
bachche Darkar pichhe hat gaye chalte chalte satti boli, ‘‘kabhi rupae paise ki zarurat ho to batana bahina!’’
kuch din bachche Dare rahe par akasmat unhen ye sujha ki satti ko ye kubDi Darane ke liye bulati hai isne uske gusse mein aag mein ghi ka kaam kiya par kar kya sakte the ant mein unhonne ek tariqa ijad kiya we ek buDhiya ka khel khelte the usko unhonne sanshodhit kiya matki ko laiman juice dene ka lalach dekar kubDi banaya gaya wo usi tarah peeth dohri karke chalne lagi bachchon ne sawal jawab shuru kiye
‘‘kubDi kubDi ka herana?’’
‘‘sui hirani ’’
‘‘sui laike ka karbe’’
‘‘kantha sibai!’’
‘‘kantha si ke ka karbe?’’
‘‘lakDi labai!’’
‘‘lakDi lay ke ka karbe?’’
‘‘bhat pakaibe!’’
‘‘bhat pakaye ke ka karabai?’’
‘‘bhat khabai!’’
‘‘bhat ke badle lat khabai ’’
aur iske pahle ki kubDi bani hui matki kuch kah sake, we use zor se lat marte aur matki munh ke bal gir paDti, uski kohaniyan aur ghutne chhil jate, ankh mein ansu aa jate aur awnth dabakar wo rulai rokti bachche khushi se chillate, ‘‘mar Dala kubDi ko mar Dala kubDi ko ’’ gulki ye sab dekhti aur munh pher leti
ek din jab isi prakar matki ko kubDi banakar gulki ki dukan ke samne le gaye to iske pahle ki matki jawab de, unhonne anachite mein itni zor se Dhakel diya ki wo kuhni bhi na tek saki aur sidhe munh ke bal giri nak, honth aur bhaunh khoon se lathpath ho gaye wo ‘‘hay! hay!’’ kar is buri tarah chikhi ki laDke kubDi mar gai chillate hue saham gaye aur hataprabh ho gaye akasmat unhonne dekha ki gulki uthi we jaan chhoD bhage par gulki uthkar i, matki ko god mein lekar pani se uska munh dhone lagi aur dhoti se khoon ponchhne lagi bachchon ne pata nahin kya samjha ki wo matki ko mar rahi hai, ya kya kar rahi hai ki we akasmat us par toot paDe gulki ki chikhe sunkar muhalle ke log aaye to unhonne dekha ki gulki ke baal bikhre hain aur dant se khoon bah raha hai, adhaughari chabutre se niche paDi hai, aur sari tarkari saDak par bikhri hai ghegha bua ne use uthaya, dhoti theek ki aur bigaDkar bolin,‘‘ aukat ratti bhar nai, aur teha pauwa bhar aapan bakhat dekh kar chup nai raha jat kahe laDkan ke munh lagat ho?’’ logon ne poochh to kuch nahin boli jaise use pala mar gaya ho usne chupchap apni dukan theek ki aur dant se khoon ponchha, kulla kiya aur baith gai
uske baad apne us krity se bachche jaise khud saham gaye the bahut din tak we shant rahe aaj jab mewa ne uski peeth par dhool phenki to jaise use khoon chaDh gaya par phir na jane wo kya sochkar chup rah gai aur jab nara lagate julus gali mein muD gaya to usne ansu ponchhe, peeth par se dhool jhaDi aur sag par pani chhiDakne lagi laDke ka hain galli ke rakshas hain!’’ ghegha bua bolin ‘‘are unhen kahai kaho bua! hamara bhag bhi khota hai!’’ gulki ne gahri sans lekar kaha
is bar jo jhaDi lagi to panch din tak lagatar suraj ke darshan nahin hue bachche sab ghar mein qaid the aur gulki kabhi dukan lagati thi, kabhi nahin, ram ram karke tisre pahar jhaDi band hui bachche hakimji ke chautre par jama ho gaye mewa bilboti been laya tha aur nirmal ne tapki hui nimkauDiyan binkar dukan laga li thi aur gulki ki tarah awaz laga rahi thi, ‘‘le khira, aalu, muli, ghiya, banDa!’’ thoDi der mein qaphi shishu gerahak dukan par jut gaye akasmat shorgul se chirta hua bua ke chautre se geet ka swar utha bachchon ne ghoom kar dekha mirwa aur matki gulki ki dukan par baithe hain matki khira kha rahi hai aur mirwa jhabri ka sar apni god mein rakhe bilkul uski ankhon mein ankhen Dalkar ga raha hai
turant mewa gaya aur pata lagakar laya ki gulki ne donon ko ek–ek adhanna diya hai donon milkar jhabri kutiya ke kiDe nikal rahe hain chautre par halchal mach gai aur munna ne kaha, ‘‘nirmal! mirwa matki ko ek bhi nimkauDi mat dena rahen usi kubDi ke pas!’’
‘‘han jee!’’ nirmal ne ankh chamkakar gol munh karke kaha, ‘‘hamar amman kahat rahin unhen chhuyo n! na sath khayo, na khelo unhen baDi buri bimari hai aak thoo!’’ munna ne unki or dekhkar ubkai jaisa munh banakar thook diya
gulki baithi baithi sab samajh rahi thi aur jaise is nirarthak ghrina mein use kuch ras sa aane laga tha usne mirwa se kaha, ‘‘tum donon mil ke gao to ek adhanna den khoob zor se!’’ bhai bahan donon ne gana shuru kiya mal katali mal jana, pal akiyan kichhi se ’’ akasmat patak se darwaza khula aur ek lota pani donon ke upar phenkti hui ghegha bua garjin, door kalamunhe abhin bitau bhar ke nahin na aur paturiyan ke gana gabai lage na bahan ka khyal, na bitiya ka aur e kubDi, hum tuhun se kahe deit hai ki hum chaklakhana kholai ke bare apna chautara nahin diya raha hunh! chali huna se mujra karawai ’’
gulki ne pani udhar chhitkate hue kaha,‘‘bua bachche hain ga rahe hain kaun kasur ho gaya ’’
‘‘ai han! bachche hain tuhun to doodh piyat bachchi hau kah diya ki zaban na laDayon hamse, han! hum bahutai buri hain ek to panch mahine se kiraya nahin diyo aur hiyan duniyan bhar ke andhe koDhi bature raht hain chalau uthayo apni dukan hiyan se kal se na dekhi hiyan tumhein ram! ram! sab adharm ki santan rachchhas paida bhae hain muhalle mein! dharatiyau nahin phatat ki mar bilay jaany ’’
gulki sann rah gai usne kiraya sachmuch panch mahine se nahin diya tha bikri nahin thi muhalle mein unse koi kuch leta hi nahin tha, par iske liye bua nikal degi ye use kabhi aasha nahin thi waise bhi mahine mein bees din wo bhukhi soti thi dhoti mein das das paiband the makan gir chuka tha ek dalan mein wo theDi si jagah mein so jati thi par dukan to wahan rakhi nahin ja sakti usne chaha ki wo bua ke pair pakaD le, minnat kar le par bua ne jitni zor se darwaza khola tha utni hi zor se band kar diya jab se chaumas aaya tha, purwai bahi thi, uski peeth mein bhayanak piDa uthti thi uske panw kampte the satti mein us par udhaar buri tarah chaDh gaya tha par ab hoga kya? wo mare kheej ke rone lagi
itne mein kuch khatpat hui aur usne ghutnon se munh uthakar dekha ki mauqa pakar matki ne ek phoot nikal liya hai aur marabhukhi ki tarah use habar habar khati ja rahi thi hai, ek kshan wo uske phulte pachakte pet ko dekhti rahi, phir khyal aate hi ki phoot pure das paise ka hai, wo ubal paDi aur saDasaD teen chaar khapachchi marte hue boli,‘‘chotti! kutiya! tore badan mein kiDa paDen!’’ matki ke hath se phoot gir paDa par wo nali mein se phoot ke tukDe uthate hue bhagi na roi, na chikhi, kyonki munh mein bhi phoot bhara tha mirwa hakka bakka is ghatna ko dekh raha tha ki gulki usi par baras paDi saD saD usne mirwa ko marana shuru kiya,‘‘bhag, yahan se haramjade!’’ mirwa dard se tilmila utha,‘‘hamla paichha dew to jai ’’ ‘‘det hain paisa, thahar to ’’ saD! saD rota hua mirwa chautre ki or bhaga
nirmal ki dukan par sannata chhaya hua tha sab chup usi or dekh rahe the mirwa ne aakar kubDi ki shikayat munna se ki aur ghumkar bola, ‘‘mewa bata to ise!’ mewa pahle hichakichaya, phir baDi mulayamiyat se bola, ‘‘mirwa tumhein bimari hui hai n! to hum log tumhein nahin chhuenge sath nahin khilayenge tum udhar baith jao ’’
‘‘ham bimal hain munna?’’
munna kuch pighla, ‘‘han, hamein chhuo mat nimkauDi kharidna ho to udhar baith jao hum door se phenk denge samjhe!’’ mirwa samajh gaya sar hilaya aur alag jakar baith gaya mewa ne nimkauDi uske pas rakh di aur chot bhulkar paki nimkauDi ka bija nikal kar chhilne laga itne mein udhar se ghegha bua ki awaz i, ‘‘ai munna!’’ tai tu log pare ho jao! abhin pani giri upar se!’’ bachcho ne upar dekha tichhatte par ghegha bua mare pani ke chhap chhap karti ghoom rahi theen kuDe se tichhatte ki nali band thi aur pani bhara tha jidhar bua khaDi theen uske theek niche gulki ka sauda tha bachche wahan se door the par gulki ko sunne ke liye baat bachchon se kahi gai thi gulki karahti hui uthi kubaD ki wajah se wo tankar tichhatte ki or dekh bhi nahin sakti thi usne dharti ki or dekha upar bua se kaha,‘‘idhar ki nali kahe khol rahi ho? udhar ki kholo n!’’
‘‘kahe udhar ki kholi! udhar hamara chauka hai ki nai!’’
‘‘idhar hamara sauda laga hai ’’
‘‘ai hai!’’ bua hath chamka kar bolin, sauda laga hai rani sahab ka! kiraya dey ki dayin hiyaw phatat hai aur tarray ke dayin nati mein gamma pahilwan ka zor to dekho! sauda laga hai to hum ka kari nari to ihai khuli hai!’’
‘‘kholo to dekhain!’’ akasmat gulki ne taDap kar kaha aaj tak kisi ne uska wo swar nahin suna tha,‘‘panch mahine ka das rupaya nahin diya beshak, par hamare ghar ki dhanni nikal ke basantu ke hath kisne becha? tumne pachchhim or ka darwaza chirwa ke kisne jalwaya? tumne hum garib hain hamara bap nahin hai sara muhalla hamein mil ke mar Dalo ’’
‘‘hamen chori lagati hai are kal ki paida hui ’’ bua mare ghusse ke khaDi boli bolne lagi theen
bachche chup khaDe the we kuch kuch sahme hue the kubDi ka ye roop unhonne kabhi na dekha na socha tha
‘‘han! han! han tumne, Draiwar chacha se, chachi ne sabne milke hamara makan ujaDa hai ab hamari dukan bahay dew dekhenge hum bhi nirbal ke bhi bhagwan hain!’’
‘‘le! le! le! bhagwan hain to le!’’ aur bua ne pagalon ki tarah dauDkar nali mein jama kuDa lakDi se thel diya chhah inch moti gande pani ki dhaar dhaD dhaD karti hui uski dukan par girne lagi taroiyan pahle nali mein girin, phir muli, khire, sag, adrak uchhal uchhalkar door ja gire gulki ankh phaDe pagal si dekhti rahi aur phir diwar par sar patakkar hirdai widarak swar mein Dakrakar ro paDi, ‘‘are mor babu, hamein kahan chhoD gaye! are mori mai, paida hote hi hamein kyon nahin mar Dala! are dharti maiya, hamein kahe nahin leel leti!’’
sar khole baal bikhere chhati koot kutkar wo ro rahi thi aur tichhatte ka pichhle pahle nau din ka jama pani dhaD dhaD gir raha tha
bachche chup khaDe the ab tak jo ho raha tha, unki samajh mein aa raha tha par aaj ye kya ho gaya, ye unki samajh mein nahin aa saka par we kuch bole nahin sirf matki udhar gai aur nali mein bahta hua hara khira nikalne lagi ki munna ne Danta, ‘‘khabardar! jo kuch churaya ’’ matki pichhe hat gai we sab kisi apratyashit bhay sanwedana ya ashanka se juD baturkar khaDe ho gaye sirf mirwa alag sar jhukaye khaDa tha jhinsi phir paDne lagi thi aur we ek ek kar apne ghar chale gaye
dusre din chautara khali thi dukan ka bans ukhaDwakar bua ne nand mein gaDkar us par turai ki latar chaDha di thi us din bachche aaye par unki himmat chautre par jane ki nahin hui jaise wahan koi mar gaya ho bilkul sunsan chautara tha aur phir to aisi jhaDi lagi ki bachchon ka nikalna band chauthe ya panchwen din raat ko bhayanak warsha to ho hi rahi thi, par badal bhi aise garaj rahe the ki munna apni khat se uthkar apni man ke pas ghus gaya bijli chamakte hi jaise kamra roshni se nach nach uthta tha chhat par bundon ki patar patar kuch dhimi hui, thoDi hawa bhi chali aur peDon ka harhar sunai paDa ki itne mein dhaD dhaD dhaD dhaDam! bhayanak awaz hui man bhi chaunk paDi par uthi nahin munna ankhen khole andhere mein takne laga sahsa laga muhalle mein kuch log batachit kar rahe hain ghegha bua ki awaz sunai paDi,‘‘kiska makan gir gaya hai re ’’
‘‘gulki ka!’ kisi ka duragat uttar aaya
‘‘are bap re! dab gai kya?’’
‘‘nahin, aaj to mewa ki man ke yahan soi hai!’’
munna leta tha aur uske upar andhere mein ye sawal jawab idhar se udhar aur udhar se idhar aa rahe the wo phir kanp utha, man ke pas ghus gaya aur sote sote usne saf suna kubDi phir usi tarah ro rahi hai, gala phaDkar ro rahi hai! kaun jane munna ke hi angan mein baithkar ro rahi ho! neend mein wo swar kabhi door kabhi pas aata hua lag raha hai jaise kubDi muhalle ke har angan mein jakar ro rahi hai par koi sun nahin raha hai, siwa munna ke
bachchon ke man mein koi baat itni gahri lakir banati ki udhar se unka dhyan hate hi nahin samne gulki thi to wo ek samasya thi, par uski dukan hat gai, phir wo jakar sabun wali satti ke galiyare mein sone lagi aur do chaar gharon se mang mungakar khane lagi, us gali mein dikhti hi nahin thi bachche bhi dusre kamon mein wyast ho gaye ab jaDe aa rahe the unka jamawDa subah na hokar tisre pahar hota tha jama hone ke baad julus nikalta tha aur jis joshile nare se gali goonj uthti thi wo tha,‘ghegha bua ko wote do ’’ pichhle dinon myunisipailiti ka chunaw hua tha aur usi mein bachchon ne ye nara sikha tha waise kabhi kabhi bachchon mein do partiyan bhi hoti theen, par donon ko ghegha bua se achchha ummidwar koi nahin milta tha at donon gala phaD phaDkar unke hi liye wote mangti theen
us din jab ghegha bua ke dhairya ka bandh toot gaya aur nai nai galiyon se wibhushait apni pahli election speech dene jyon hi chautre par awatrit huin ki unhen Dakiya aata hua dikhai paDa wo achakchakar ruk gain Dakiye ke hath mein ek post card tha aur wo gulki ko DhoonDh raha tha bua ne lapak kar postakarD liya, ek sans mein paDh gain unki ankhen mare achraj ke phail gain, aur Dakiye ko ye batakar ki gulki satti sabunwali ke osare mein rahti hai, we jhat se dauDi dauDi nirmal ki man Draiwar ki patni ke yahan gain baDi der tak donon mein salah mashawira hota raha aur ant mein bua ain aur unhonne mewa ko bheja,‘‘ja gulki ko bulay la!’’
par jab mewa lauta to uske sath gulki nahin waran satti sabunwali thi aur sada ki bhanti is samay bhi uski kamar se wo kale bent ka chaku latak raha tha, jisse wo sabun ki tikki katkar dukandaron ko deti thi usne aate hi bhano sikoDkar bua ko dekha aur kaDe swar mein boli,‘‘kyon bulaya hai gulki ko? tumhara das rupae kiraya baki tha, tumne pandrah rupae ka sauda ujaD diya! ab kya kaam hai!’’
‘‘are ram! ram! kaisa kiraya beti! andar jao andar jao!’ bua ke swar mein asadharan mulayamiyat thi satti ke andar jate hi bua ne phatak se kiwaDa band kar liye bachchon ka kautuhal bahut baDh gaya tha bua ke chauke mein ek jhanjhari thi sab bachche wahan pahunche aur ankh lagakar kanpatiyon par donon hatheliyan rakhkar ghantiwala baiskop dekhne ki mudra mein khaDe ho gaye
andar satti garaj rahi thi, ‘‘bulaya hai to bulane do kyon jaye gulki? ab baDa khayal aaya hai isliye ki uski rakhail ko bachcha hua hai jo jake gulki jhaDu buharu kare, khana banawe, bachcha khilawe, aur wo marad ka bachcha gulki ki ankh ke aage rakhail ke sath gulchharre uDawe!’’
nirmal ki man bolin,‘‘apni bitiya, par gujre to apne adami ke sath karaigi n! jab uski patni i hai to gulki ko jana chahiye aur marad to marad ek rakhail chhoD dui dui rakhail rakh le to aurat use chhoD degi? ram! ram!’’
‘‘nahin, chhoD nahin degi to jay kai lat khayegi?’’ satti boli
‘‘are beta!’’ bua bolin,‘‘bhagwan rahen n? taun mathurapuri mein kubja dasi ke lat marin to okar kubar sidha hui gawa pati to bhagwan hain bitiya oka jay dew!’’
‘‘han han, baDi hitu na baniye! uske adami se aap log mupht mein gulki ka makan jhatakna chahti hain main sab samajhti hoon ’’
nirmal ki man ka chehra zard paD gaya par bua ne aisi kachchi goli nahin kheli thi we Dapatkar bolin,‘‘khabardar jo kachchi jaban nikalyo! tumhara charittar kaun nai janta! ohi chhokra manik ’’
‘‘jaban kheench lungi’’ satti gala phaDkar chikhi, ‘‘jo aage ek haruf kaha ’’ aur uska hath apne chaku par gaya ‘‘are! are! are!’’ bua sahamkar das qadam pichhe hat gain,‘‘to ka khoon karbo ka, katal karbo ka?’’
satti jaise i thi waise hi chali gai tisre din bachchon ne tay kiya ki hori babu ke kuen par chalkar barren pakDi jayen un dinon unka zahr shant rahta hai, bachche unhen pakaDkar unka chhota sa kala Dank nikal lete aur phir Dori mein bandhkar unhen uDate hue ghumte mewa, nirmal aur munna ek ek barre uDate hue jab gali mein pahunche to dekha bua ke chautre par teen ki kursi Dale koi adami baitha hai uski ajab shakl thi kan par baDe baDe baal, michamichi ankhen, mochha aur tel se chuchuate hue baal kamij aur dhoti par purana badrang boot matki hath phailaye kah rahi hai,“ek double dai dew! ek dai dew na?” munna ko dekhkar matki tali baja bajakar kahne lagi,“gulki ka mansedhu aawa hai e munna babu! i kubDi ka mansedhu hai ” phir udhar muDkar, “ek double dai dew ” tinon bachche kautuhal mein ruk gaye itne mein nirmal ki man ek gilas mein chay bharkar lai aur use dete dete nirmal ke hath mein barre dekhkar use Dantane lagi phir barre chhuDakar nirmal ko pas bulaya aur boli,“beta, i hamari niramla hai e nirmal, jijaji hain, hath joDo! beta, gulki hamari jat biradri ki nahin hai to ka hua, hamare liye jaise nirmal waise gulki
are, nirmal ke babu aur gulki ke bap ki dant kati rahi ek makan bacha hai unki chihari, aur ka?’’ ek gahri sans lekar nirmal ki man ne kaha
“are to ka unhen koi inkar hai?’’ bua aa gai theen,“are sau rupae tum daiwe kiye rahayyu, chalo teen sau aur dai dew apne nam karay lew?”
“panch sau se kam nahin hoga?” us adami ka munh khula, ek waky nikla aur munh phir band ho gaya
“bhawa! bhawa! ai beta damad hau, panch sau kahbo to ka nirmal ki man ko inkar hai?”
akasmat wo adami uthkar khaDa ho gaya aage aage satti chali aa rahi thi, pichhe pichhe gulki satti chautre ke niche khaDi ho gai bachche door hat gaye gulki ne sir uthakar dekha aur achakchakar sar par palla Dalkar mathe tak kheench liya satti do ek kshan uski or ektak dekhti rahi aur phir garajkar boli,“yahi kasai hai! gulki, aage baDhkar mar do chapota iske munh par! khabardar jo koi bola ’’ bua chat se dehri ke andar ho gain, nirmal ki man ki jaise ghigghi bandh gai aur wo adami haDabDakar pichhe hatne laga
“baDhti kyon nahin gulki! baDa aaya wahan se bida karane?”
gulki aage baDhi; sab sann the; siDhi chaDhi, us adami ke chehre par hawaiyan uDne lagin gulki chaDhte chaDhte ruki, satti ki or dekha, thithki, akasmat lapki aur phir us adami ke panw par gir ke phaphak phaphakkar rone lagi,“hay! hamein kahe ko chhoD diyau! tumhare siwa hamara lok parlok aur kaun hai! are, hamre marai par kaun chullu bhar pani chaDhai ’’
satti ka chehra syah paD gaya usne baDi hikarat se gulki ki or dekha aur gusse mein thook nigalte hue kaha, “kutiya!’’ aur tezi se chali gai nirmal ki man aur bua gulki ke sar par hath pher pherkar kah rahi theen, “mat ro bitiya! mat ro! sita maiya bhi to banwas bhogin raha utho gulki beta! dhoti badal lew kanghi choti karo pati ke samne aise aana asgun hota hai chalo!’’
gulki ansu ponchhti ponchhti nirmal ki man ke ghar chali bachche pichhe pichhe chale to bua ne Danta,“ai chalo ehar, huna laDDu bant raha hai ka?’’
dusre din nirmal ke babu (Draiwar sahab), gulki aur jijaji dinbhar kachahri mein rahe sham ko laute to nirmal ki man ne puchha,“pakka kagaj likh gaya?”
“han han re, hakim, ke samne likh gaya ” phir zara nikat aakar phusaphusakar bole,“matti ke mol makan mila hai ab kal donon ko bida karo ”
“are, pahle sau rupae lao! bua ka hissa bhi to dena hai?” nirmal ki man udas swar mein boli, “baDi chant hai buDhiya gaD gaD ke rakh rahi hai, mar ke samp hoegi ’’
subah nirmal ki man ke yahan makan kharidne ki katha thi shankh, ghanta ghaDiyali, kele ka patta, panjiri, panchamrit ka ayojan dekhkar munna ke alawa sab bachche ikattha the nirmal ki man aur nirmal ke babu piDhe par baithe the; gulki ek pili dhoti pahne mathe tak ghunghat kaDhe supari kat rahi thi aur bachche jhank jhankakar dekh rahe the mewa ne pahunchakar kaha,“e gulki, e gulki, jijaji ke sath jaogi kya?’’
kubDi ne jhempkar kaha,“dhatt re! thitholi karta hai ’’
aur lajja bhari jo muskan kisi bhi tarunai ke chehre par manmohak lali bankar phail jati, uske jhurriyondar, beDaul, niras chehre par wichitr roop se wibhats lagne lagi uske kale papDidar honth sikuD gaye, ankhon ke kone michamicha uthe aur atyant kuruchipurn Dhang se usne apne palle se sar Dhank liya aur peeth sidhi kar jaise kubaD chhipane ka prayas karne lagi mewa pas hi baith gaya kubDi ne pahle idhar udhar dekha, phir phusaphusakar mewa se kaha,“kyon re! jijaji kaise lage tujhe?” mewa ne asmanjas mein ya sankoch mein paDkar koi jawab nahin diya to jaise apne ko samjhate hue gulki boli, “kuchh bhi hoy hai to apna adami! hare gaDhe koi aur kaam ayega? aurat ko dabay ke rakhna hi chahiye ” phir thoDi der chup rahkar boli,“mewa bhaiya, satti hamse naraj hai apni sagi bahan kya karegi jo satti ne kiya hamare liye e chachi aur bua to sab matlab ke sathi hain hum kya jante nahin? par bhaiya ab jo kaho ki hum satti ke kahne se apne marad ko chhoD den, so nahin ho sakta ” itne mein kisi ka chhota sa bachcha ghutnon ke bal chalte chalte mewa ke pas aakar baith gaya gulki kshan bhar use dekhti rahi phir boli,“pati se hamne apradh kiya to bhagwan ne bachcha chheen liya, ab bhagwan hamein chhama kar denge ” phir kuch kshan ke liye chup ho gai
“kshama karenge to dusri santan denge?’’
“kyon nahin denge? tumhare jijaji ko bhagwan banaye rakhe khot to hami mein hai phir santan hogi tab to saut ka raj nahin chalega ’’
itne mein gulki ne dekha ki darwaje par uska adami khaDa bua se kuch baten kar raha hai gulki ne turat palle se sar Dhanka aur lajakar udhar peeth kar li boli,“ram! ram! kitne dubra gaye hain hamare bina khane pine ka kaun dhyan rakhta! are, saut to apne matlab ki hogi le bhaiya mewa, ja do biDa pan de aa jija ko?” phir uske munh par wahi laj ki bibhats mudra i,“tujhe kasam hai, batana mat kisne diya hai ”
mewa pan lekar gaya par wahan kisi ne uspar dhyan hi nahin diya wo adami bua se kah raha tha,“ise le to ja rahe hain, par itna kahe dete hain, aap bhi samjha den use ki rahna ho to dasi bankar rahe na doodh ki na poot ki, hamare kaun kaam kee; par han auratiya ki sewa kare, uska bachcha khilawe, jhaDu buharu kare to do roti khay paDi rahe par kabhi usse jaban laDai to khair nahin hamara hath baDa jalim hai ek bar kubaD nikla, agli bar paran niklega ”
“kyon nahin beta! kyon nahin?” bua bolin aur unhonne mewa ke hath se pan lekar apne munh mein daba liye
qarib teen baje ikka lane ke liye nirmal ki man ne mewa ko bheja katha ki bheeD bhaD se unka mooD pirane; laga tha, at akeli gulki sari taiyari kar rahi thi matki kone mein khaDi thi mirwa aur jhabri bahar gumsum baithe the nirmal ki man ne bua ko bulwakar puchha ki bida bidai mein kya karna hoga, to bua munh bigaDkar bolin, “are koi jat biradri ki hai ka? ek lota mein pani bhar ke ikanni duanni utar ke parja pajaru ko de diyo bus?” aur phir bua sham ko biyari mein lag gain
ikka aate hi jaise jhabri pagal si idhar udhar dauDne lagi use jane kaise abhas ho gaya ki gulki ja rahi hai, sada ke liye mewa ne apne chhote chhote hathon se baDi baDi gathriyan rakhin, matki aur mirwa chupchap aakar ikke ke pas khaDe ho gaye sar jhukaye patthar si chup gulki nikli aage aage hath mein pani ka bhara lota liye nirmal thi wo adami jakar ikke par baith gaya
“ab jaldi karo! usne bhari gale se kaha gulki aage baDhi, phir ruki aur tent se do adhanni nikale,“le mirwa, le matki?” matki jo hamesha hath phailaye rahti thi, is samay jane kaisa sankoch use aa gaya ki wo hath niche kar diwar se sat kar khaDi ho gai aur sar hilakar boli, “nahin?”
“nahin beta! le lo!” gulki ne puchkarkar kaha mirwa matki ne paise le liye aur mirwa bola,“chhalam gulki! e adami chhalam?’’
“ab kya gaDi chhoDni hai?” wo phir bhari gale se bola
“thahro beta, kahin aise damad ki bidai hoti hai?” sahsa ek bilkul ajnabi kintu atyant mota swar sunai paDa bachchon ne achraj se dekha, munna ki man chali aa rahi hain
“ham to munna ka aasra dekh rahe the ki school se aa jaye, use nashta kara len to ayen, par ikka aa gaya to hamne samjha ab tu chali are! nirmal ki man, kahin aise beti ki bidai hoti hai! lao jara roli gholo jaldi se, chawal lao, aur sendur bhi le aana nirmal beta! tum beta utar aao ikke se!’’
nirmal ki man ka chehra syah paD gaya tha bolin, “jitna hamse ban paDa kiya kisi ko daulat ka ghamanD thoDe hi dikhana tha?”
“nahin bahan! tumne to kiya par muhalle ki bitiya to sare muhalle ki bitiya hoti hai hamara bhi to farz tha are man bap nahin hain to muhalla to hai aao beta?” aur unhonne tika karke anchal ke niche chhipaye hue kuch kapDe aur ek nariyal uski god mein Dalkar use chipka liya gulki jo abhi tak patthar si chup thi sahsa phoot paDi use pahli bar laga jaise wo mayke se ja rahi hai mayke se apni man ko chhoDkar chhote chhote bhai bahnon ko chhoDkar aur wo apne karkash phate hue gale se wichitr swar se ro paDi
“le ab chup ho ja! tera bhai bhi aa gaya?” we bolin munna basta latkaye school se chala aa raha tha kubDi ko apni man ke kandhe par sar rakhkar rote dekhkar wo bilkul hataprabh sa khaDa ho gaya, “a beta, gulki ja rahi hai na aaj! didi hai n! baDi bahan hai chal panw chhu le! aa idhar?” man ne phir kaha munna aur kubDi ke panw chhue? kyon? kyon? par man ki baat! ek kshan mein uske man mein jaise ek pura pahiya ghoom gaya aur wo gulki ki or baDha gulki ne dauDkar use chipka liya aur phoot paDi, “hay mere bhaiya! ab hum ja rahe hain! ab kisse laDoge munna bhaiya? are mere wiran, ab kisse laDoge?” munna ko laga jaise uski chhoti chhoti pasliyon mein ek bahut baDa sa ansu jama ho gaya jo ab chhalakne hi wala hai itne mein us adami ne phir awaz di aur gulki karahkar munna ki man ka sahara lekar ikke par baith gai ikka khaD khaD kar chal paDa munna ki man muDi ki bua ne wyangy kiya, “ek aadh gana bhi bidai ka gaye jao bahan! gulki banno sasural ja rahi hai!” munna ki man ne kuch jawab nahin diya, munna se boli,“jaldi ghar aana beta, nashta rakha hai?
par pagal mirwa ne, jo bambe par panw latkaye baitha tha, jane kya socha ki wo sachmuch gala phaDkar gane laga,“banno Dale dupatte ka palla, muhalle se chali gai ram?” ye us muhalle mein har laDki ki bida par gaya jata tha bua ne ghuDka tab bhi wo chup nahin hua, ulte matki boli, “kahe na gawen, gulki nai paisa diya hai?” aur usne bhi sur milaya,“banno tali gai lam! banno tali gai lam! banno tali gai lam!”
munna chupchap khaDa raha matki Darte Darte i,“munna babu! kubDi ne adhanna diya hai, le len?”
“le le” baDi mushqil se munna ne kaha aur uski ankh mein do baDe baDe ansu DabDaba aaye unhin ansuon ki jhilmil mein koshish karke munna ne jate hue ikke ki or dekha gulki ansu ponchhte hue parda uthakar muD muDkar dekh rahi thi moD par ek dhachke se ikka muDa aur phir adrshy ho gaya
sirf jhabri saDak tak ikke ke sath gai aur phir laut gai
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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