वह समस्या जो किसी भारी और भद्दी शिला-जैसी थी, यूँ जिस-तिस प्रकार ठेल दी गई थी, पर वह नहीं चाहता था कि उसके बाद जो किया जाना था, उसे अंतिम रूप उसकी उपस्थिति में ही दिया जाए। दूसरों के लिए स्थिति उसके कारण असुविधाजनक हो गई है, यह अनुभूति उसे कुछ इस प्रकार कचोट रही है जैसे वह दावत की सजी-सुधरी मेज़ पर बैठा है और उसके सामने अति स्वादिष्ट और मूल्यवान भोज्य पदार्थ परोसे गए हैं और एकाएक उसे पता लग गया है कि मेज़बान ने वह सब उधार लेकर विवशतावश उसके लिए जुटाया है; और फिर वह दावत की मेज़ से न उठ सकता है और न उत्साह और न रूचि के साथ खा ही पाता है। ...बीच में जो रिश्ता है उसकी वजह से उन्हें असुविधा के लिए शायद दुःख नहीं होगा, वे उसे संतोष या कुछ ऐसा ही मानेंगे, पर उसके अपने अंदर जो किसकिसैला गरमबगूला घुमड़ रहा है वह...?
छोटी और सामान्य बातें भी क्यों किसी को इतना अधिक मथती हैं?
नवंबर के आख़िरी दिन थे और सर्दी होनी ही चहिए। इन दिनों रात होते ही अँधेरा जैसे ख़ून के स्याह मायल चकत्तों जैसा जम जाता हो। दफ़्तर का सतीश मिल गया था और वह उससे ढेर सारी बेकार की बातें करता रहा था। फिर वह देर तक बिना वजह सड़क से लगी एक टाकीज़ के कॉरीडोर में घुसकर बाहर जालीदार खिड़कियों में चिपकी तसवीरें देखता रहा। इसके बाद एक सिगरेट सुलगाकर उस ओर निकल गया जिधर पाँच-मंज़िला एक नर्इ इमारत बन रही थी। यूँ वह उसे पहले भी देख चुका था। जब वह लौटकर अपनी गली में आया तब वकील साहब की बैठक की बत्ती बुझ चुकी थी; बदरी दूधवाला अपनी दुकान पर कूँडे में दही जमाने के लिए दूध उड़ेल रहा था; खंडहर की ओर मुँह किए एक कुत्ता रुक-रुककर ग़ुर्रा रहा था...।
अपने घर के मोहरे में घुसने से पहले उसने बग़ल के दरवाज़ेवाले मकान की ओर देखा। मालिक-मकान का लड़का आकर अब उसमें ख़ुद रहने लगा था। दो महीने पहले वहाँ रुक्मो भाभी रहती थीं। एक नाज़ुक सी सरसराहट की लहर उसकी रगों में दौड़ गई।
सिदरी में एक मुड़ी हुई सलाख के सहारे लालटेन लटकी हुई थी और उसका झिल्ली जैसा धुंधलाया प्रकाश फैला हुआ था। उसके अंदर प्रवेशते ही दो जोड़ी आँखें उसके चेहरे पर जड़ गईं।
“कहीं कुछ काम था? अम्मा ने अपने को फैलाना चाहा। या शायद अपने को समेटा ही हो।
खाँसी के ठाँसों से बाबू खाट पर बैठे-बैठे हिलने लगे जैसे किसी काग़ज़ के पुतले को हवा छेड़ गई हो।
उसने बाबू की ओर देखा। गाढ़े की गंजी के ऊपर वह तंबाकू रंग का स्वेटर पहने थे, जगह-जगह जिसमें तार निकले थे। किसी टूटती लहर की तरह उनका सीना उठ और गिर रहा था।
अम्मा की आँखें उसके चेहरे पर अब भी जमी हैं, उसने महसूस किया।—यूँ ही दफ़्तर का सतीश मिल गया था।—वह बोल गया।
अम्मा के पूछने में क्या विह्वलता के साथ-साथ एक हलका-सा भय का भाव नहीं था? बाबू और अम्मा को संदेह है कि वह संतुष्ट है। उसके आने से पहले शायद वे उसी के बारे में बातचीत कर रहे थे और उसके लौटने में देर हो जाने से चिंतित थे।
उसे सतीश की कही गई बात याद आ गई। बातचीत ख़त्म करते हुए उसने पूछा था—“विदा करा लाए? दोपहर की गाड़ी से आए होंगे?—” फिर ओठों की कोरें फैलाता हुआ मुस्कुरा दिया—“यार, जाओ घर पर। बीबी इंतिज़ार कर रही होगी!...
दूसरी ओर छोटे-से आँगन के सिरे पर जो कोठा था, उसकी देहलीज़ पर निकलकर कंतो खड़ी हो गई थी। वह फिर आँगन पार कर मुस्कुराती हुई वहाँ आ गई जहाँ अम्मा थी।
“भाभी के साथ ख़ूब बातें छन रही हैं, क्यों न? जबसे आई है, मुँह से मुँह जोड़े है।”—अम्मा भी हँस दी और उसकी ओर देखने लगी।
पर वह कंतो की ओर देखता रहा जो अब भी मुस्कुरा रही थी। कंतो उससे तीन वर्ष ही छोटी है। उसकी शादी उससे पहले होने को थी, किंतु जुड़ी बात टूट गई। कई बार टूट गई। बाबू और अम्मा फिर कोशिश में हैं कि कहीं बात जुड़े। सिर से ऊपर होता पानी नीचे उतरे।
उसे लगा कि सामने कोठे में साड़ी की हलकी-सी सरसराहट हुई है। वहाँ आज शायद लैंप जल रहा था। झिल्ली-जैसी रौशनी वहाँ भी फैली थी।
कुछ देर ऐसा लगा कि किसी मूक चल-चित्र के वे पात्र हैं।
वह अब कोठे के अंदर था। शादी के बाद जब पत्नी आई थी तो सात दिन रही थी और सात दिनों में शायद सारा संकोच, झिझक और अजनबीपन दूर हो चुका था। पत्नी खाट पर दोनों पैर लटकाए बैठी थी। पैरों में चाँदी की पतली पाजेब थी। तलुवे और एड़ी महावर से गुलाबी थे। खाट पर सफ़ेद चादर बिछी थी। पत्नी के दाँतों की लजीली मुस्कुराहट भी शायद इतनी ही धवल थी। कोठरी की इस बीच सफ़ाई हो गई थी। जाला वग़ैरह पोंछ दिया गया था। पर सफ़ाई और पोंछे जाने का भाव वहाँ छूट गया था।
सिदरी में बाबू को खाँसी फिर उठी थी और वह फिर खाँसने लगे थे। बाबू को खाँसी की शिकायत है। खाँसी सर्दियों में और उग्र हो जाती है।
बाबू अब सिदरी में सोया करेंगे और वह कोठे में। एक लंबे समय से शायद अपने होश से वह बाबू को इसी कोठे में सोते देख रहा था। गर्मियों में वह कोठे के आगे के किवाड़ और पीछे गली में खुलने वाली खिड़की खोलकर सोते थे और बरसात और सर्दियों में दरवाज़ा भेड़कर। वह अब तक दूसरों के साथ सिदरी में सोता था।
शादी के बाद वह समस्या उठ खड़ी हुई थी कि बहू कहाँ सोएगी? बहू-बेटी के लेटने-बैठने के लिए आड़-ओट चाहिए ही। घर में केवल वही एक पटा कोठा था। दो सिदरियाँ थीं, जिनमें एक में चौका था—पूजा के लिए उठा हुआ एक घेरा और उसके पीछे ईंधन, भरसावन वग़ैरह रखने की दबी-दबी सी पट्टीनुमा जगह। दूसरी सिदरी में सोना-लेटना होता था। बार्इं तरफ़ बाहर की ओर टट्टी थी और उससे चिपका अंदर की जानिब टीन की चादरों से गुसलख़ाने की ज़रूरत को पूरा करने वाला उठा हुआ एक घेराव। बहुत पहले छत पर एक बरसाती थी जो बरसाती पानी में गिर गई और अब ऊपर बस खुली नंगी छत थी—आकांक्षाहीन ज़िंदगी जैसी।
शादी में उसकी सुहाग-सेज पड़ोस की रुक्मो भाभी के घर में बिछार्इ गई थी। रुक्मो भाभी के पति ताला और नेम प्लेट बनाने वाली एक कंपनी में नौकर थे और उन दिनों माल लेकर दौरे पर गए थे। रुक्मो भाभी के कोई संतान नहीं थी। मोहल्ले की औरतों और युवकों की ऐसी धारणा थी कि उनके संतान होगी भी नहीं। रुक्मो भाभी के पति की उम्र काफ़ी थी। सगे-संबंधियों से उन दिनों उसका छोटा-सा घर किसी रेल के डिब्बे-जैसा भरा हुआ था। रुक्मो भाभी ने ख़ुद ही सुहाग-सेज वहाँ डालने का प्रस्ताव रखा था।
शादी के बाद की मधु-रातें दूसरे के घर में गुज़ारते हुए उसे कुछ भारी-भारी-सा लगा था। उसकी पत्नी क्या महसूस करेगी? सलोने-सुंदर अंग पर जैसे एक गंदा ज़ख़्म दीख गया हो।
एक रात पत्नी ने पूछा भी—“मैं दोबारा जब लौटकर आऊँगी तब क्या इंतिज़ाम होगा जी?
उसने अम्मा के मुँह से इन दिनों जो बात सुनी थी उसको दोहरा दिया—“हम लोग दूसरे बड़े मकान की खोज में हैं। तब तक क्या कोई मिल नहीं जाएगा?
पत्नी इसके बाद रुक्मो भाभी के पति को लेकर पूछने लगी थी—जिसके बारे में इतने दिनों में उसने अपनी हमजोलियों के मुँह से कुछ जान लिया था—कि क्या वह बहुत ज़ियादा बदसूरत भी है और ग़ुस्सैल भी; कि पहले क्या उसकी आदतें बहुत ख़राब थीं...। उसी रात को उसने सपना देखा कि रुक्मो भाभी का पति गजाधर प्रसाद दौरे से लौट आया है और रुक्मो भाभी पर बिगड़ रहा है कि उसने किसी दूसरे को वहाँ सोने क्यों दिया और उसकी सेज के निकट आकर वह ग़ुस्साया हुआ उसे झिंझोड़ रहा है। उसकी जब आँख खुली तो उसने पाया कि उसकी गर्दन पसीजी हुई है। पत्नी उससे सटकर सो रही थी और उसकी लंबी-लंबी बरौनियोंदार मुंदी पलकों पर निश्चिंतता लिए स्निग्धता थी।—उसे फिर दोबारा बहुत देर तक नींद न आई और बरसात के दिनों-जैसी एक अजीब-सी घुटन और अकुलाहट आभासती रही।
ऐसी बात नहीं कि उसके बाद उसने किसी दूसरे मकान की तलाश न की हो। अपनी ओर से उसने कोई असर न उठा रखी। कुछ ही ऐसे काम थे जिनमें उसने इतनी अधिक चिंता और उत्साह दिखाया हो। किंतु भारत की राजधानी दिल्ली-जैसे महानगर में इच्छानुकूल मकान मिलना शायद एक बहुत बड़ी उपलब्धि है। एक तो पगड़ी का सवाल था और दूसरा किराए की दर का। जिस मकान में रहा जा रहा था वह केवल बारह रुपए पर था। दूसरा जो उससे कुछ ही बड़ा होता उसके पचास-साठ रुपए माँगे जाते। वह सब क्या चाहने पर भी वह दे सकता?
घर पर सुबह-शाम मकान की चर्चा होती। उसका छोटा भाई राधे या बाबू धीमी-बूझी आवाज़ में बताते कि उनको किसी लड़के या दफ़्तर के साथी से पता लगा है कि अमुक बस्ती में अमुक मकान ख़ाली हुआ है। पर वहाँ जाने पर वही हश्र होता। या तो किराया बहुत ज़ियादा होता या मोटी पगड़ी का सवाल। अम्मा बुदबुदातीं कि वह किसी दूसरे की जगह पर हज़ार-बारह सौ रुपया उधार लेकर कैसे नई तामीर करवा सकती हैं। मकान मालिक किराया तो ले जाता है, पर यह नहीं होता कि ऊपर एक कमरा और बनवा दे, वह आठ-दस रुपए किराया और बढ़ाने को तैयार है। पर मकान मालिक क्या इसके लिए राज़ी है? उसके मकान छोड़ने में ही उसे लाभ था।
स्थिति से सहजता से समझौता बस एक ही तरह संभव था और वह यूँ कि बाबू वह कोठा ख़ाली कर दें। पर झिझक यह थी कि बाबू को काफ़ी असुविधा और परेशानी थी, विशेषकर सर्दी के दिनों में। सिदरी में सीधी हवा जाती थी। उनकी एकांत में सोने की भी आदत थी।
पीछे गली के स्कूल के अहाते का हरसिंगार फूल चुका था और रात में हवा में एक मीठी गमक बसी होती थी—कुएँ के शीतल जल में जैसे हलकी-सी मिठास घुली हो।
बहू के बिदा कराने की बात उठती थी।
उसके लिए किसी जगह का इंतिज़ाम भी हुआ है कि बुलाने को ही सोचा जा रहा है?
जैसे एक कमरा हो और उसके अनबुहरे फ़र्श पर मुड़े-तुड़े कुछ काग़ज़ बिखरे हों और हवा का एक झोंका आया हो और वे सब काग़ज़ फड़फड़ा उठे हों। सुबह का समय था और घर पर सब ही मौजूद थे। बाबू पूजा के लिए उठे हुए घेरे में आसनी बिछाकर जाप कर रहे थे और उसका खिंचा स्वर शायद वहाँ भी पहुँच गया था। कुछ क्षणों के लिए लगा कि जाप रुक गया है और फिर जब शुरू हुआ तब स्वर सहज न था।
कहकर जब उसने अनुभव किया तो बरसात की सीलन-जैसी चिपचिपाहट उसके मन पर छाने लगी। इतना निर्लज्ज वह कैसे हो गया। कौन-सी मनःस्थिति थी जिसमें वह अपने आवेग को संभाल न सका। राधे उसकी ओर किताब के पीछे से ताक रहा था। बर्तन मलती कंतो की पलकें नल के नीचे से बार-बार उसकी ओर उठ जाती थीं। अँगीठी के पास बैठी हुई अम्मा के चेहरे की सिकुड़ी हुई जिल्द के नीचे कोई साया थरथरा रहा था।
“जगह की तंगी के पीछे क्या बहू आएगी नहीं? कैसे-न-कैसे बेटे, वक़्त काटा ही जाता है अम्मा के स्वर में भीगा कंपन था। उसने लक्ष्य किया कि अम्मा की आँखों में आर्द्रता उतर आई है।
एक ऐसा अदृश्य दबाव था जो असह्य होता जा रहा था। नहीं, जैसे प्रतिपल उसे कोई नंगा कर रहा था।
वह वहाँ से जल्द उठ आया था। फिर जब-जब इस संबंध में कोई बात उठी वह अपने को बचाता रहा, छिपाता रहा। उसकी कोई भी इच्छा-अनिच्छा, सहमति-असहमति नहीं। समस्या का एक ही हल था जिसे वही नहीं सब जानते थे और अंत में उसी पर आया गया था। बाबू सिदरी में आ जाएँगे। सर्दी जब ज़ियादा पड़ेगी, न होगा टाट का मोटा पर्दा डलवा लिया जाएगा या लकड़ी के तख़्ते वग़ैरह ठुकवा दिए जाएँगे।
उसने अपने में एक बुझापन-सा महसूस किया। स्नायुओं में जैसी ऊष्मता होनी चाहिए, वैसी न थी। उत्साह को जैसे किसी ने मसल दिया हो। उसने इस मनःस्थिति से छुटकारा पाने की कोशिश की, पर कुछ ही देर बाद वह अपने को फिर उसी दबाव के नीचे अनुभव करने लगता बाबू को खाँसी क्या आज ज़ियादा आ रही है? बाबू के लिए सिदरी नर्इ जगह है। ज़रूर वह एक अटपटापन-सा महसूस कर रहे होंगे।
उसने पीछे गली में खुलने वाली खिड़की खोल दी। खसती हुई रात में हवा तीखी हो गई थी और उसमें स्कूल के अहाते के हरसिंगार की महक घुली थी। चाँद आसमान में दूध में भीगी रोटी-जैसा दिखाई दे रहा था। सर्दियों-की चाँदनी ज़ियादा साफ़ और चमकदार होती है। चाँदनी का एक बड़ा टुकड़ा अंदर भी रेंग आया था। कोठे का फ़र्श काफ़ी खुरदरा था। चूने का गट्टा पड़ा था और जगह-ब-जगह चूना उतर गया था और गट्टा नंगा रह गया था। बाबू ने पिछली बरसात में कहा था कि एक बोरी सीमेंट का प्रबंध हो जाए तो छत की दराज़ें भी चिकना करवा लें। पर फिर उन्होंने वह इच्छा दबा ली और छत की दराज़ों में कहीं से लाकर पिघला कोलतार गिरा दिया। एक चूहा पीछे छिपा हुआ काठ के संदूक़ को किट-किट-किट कर कुतर रहा था। आहट पाकर ज़रा देर के लिए चुप हो जाता था और फिर कुतरने लगता था।
बाबू फिर खाँसने लगे थे। सूखी खाँसी के ठाँसों की आवाज़ यूँ उठती थी जैसे कोई कड़ी चीज़ छीली जा रही हो।
कुछ देर बाद जब उसे पेशाबख़ाने में जाने की ज़रूरत हुई और वह बाहर आँगन में आया, बाबू तब भी खाँस रहे थे। उसे लगा कंतो भी सोर्इ नहीं है और जाग रही है। उसकी आहट पाकर उसने अभी-अभी करवट बदली है और लोई सिर तक खींची है।—उसका बिछावन माँ से इधर ही हटकर था। चार फिट का आँगन कोठे और सिदरी में कितना अलगाव रख सकता है।
कुछ देर पहले पत्नी कोठे में किसी बात पर खुलकर हँसी थी, पर तुरंत बाद ही सहम गई—उइ राम!—बाहर आवाज़ सुनकर कोई सोचेगा कि बहू कितनी निर्लज्ज है!...
न जाने क्यों उसे इन्हीं क्षणों दस-बारह दिन पहले की वह स्थिति भी याद हो आई। सुबह आठ या नौ का समय होगा। धूप ऊनी कालीन-जैसी बिछल रही थी और वह ऊपर छत पर चला गया था। दूसरे मकान की मुँडेर पर कबूतर का एक जोड़ा बैठा हुआ था। कबूतर-कबूतरी के आगे पीछे गर्दन फुलाता और गुटरगूँ की आवाज़ करता चक्कर काट रहा था। एकाएक कबूतर कबूतरी पर बैठ गया। उसने तभी पाया कि पीछे कंतो भी आ गई हैं दो क्षण के लिए दोनों की आँखें मिलीं और हट गईं। उनमें एक ऐसा भाव जल उठा था जो ओट चाह रहा था। कंतो नीचे वापस लौट गई। वह दूसरी ओर हटकर खड़ा हो गया।
उसे लगा कि कंतो वहाँ उसकी उपस्थिति अनुभव कर रही है। वह ग़ुसलख़ाने को पार करता हुआ पेशाबख़ाने में चला गया।
लौटते हुए सिदरी में उसकी नज़र चली गई। खाँसने के बाद घरघराहट के साथ बाबू साँस ले रहे थे जैसे किसी बर्तन के सूराख में से भाप सूँ-सूँ कर गुज़र रही हो। अम्मा गद्दा डाले ज़मीन पर सो रही थीं। थोड़ा हटकर कंतो लेटी थी। उसने अभी-अभी करवट फिर बदली थी।...और राधे...ऐं...राधे कहाँ सो रहा है...जब वह वापस लौटकर आया था, राधे शायद नहीं था। शायद वह रजनीकांत की बैठक में सो रहा होगा। रजनीकांत के छोटे भाई के साथ उसकी पढ़ाई चलती है। इस साल वे दसवीं दर्जे में हैं। उसे याद आ गया कि तीसरे पहर ऐसी चर्चा उठी थी कि परीक्षा तक राधे वहाँ सोने को कहता है।
चौदह साल का राधे भी क्या स्थिति से परिचित है और समझौता करना जानता है?
उसे लगा कि हवा में बढ़ी हुई सिहरन उसे तेज़ी से छू रही है। वह अंदर चला गया।
सुबह चाय के समय उसने पाया कि वह अपने को सबकी निगाहों से बचाना चाह रहा है। वह उस मनःस्थिति से उबरने के लिए अपने से जूझता रहा, पर बार-बार उसी के बीच अपने को पाता।
murari qasdan der se lauta
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sthiti se sahajta se samjhauta bus ek hi tarah sambhaw tha aur wo yoon ki babu wo kotha khali kar den par jhijhak ye thi ki babu ko kafi asuwidha aur pareshani thi, wisheshkar sardi ke dinon mein sidri mein sidhi hawa jati thi unki ekant mein sone ki bhi aadat thi
pichhe gali ke school ke ahate ka harsingar phool chuka tha aur raat mein hawa mein ek mithi gamak basi hoti thi—kuen ke shital jal mein jaise halki si mithas ghuli ho
bahu ke bida karane ki baat uthti thi
uske liye kisi jagah ka intizam bhi hua hai ki bulane ko hi socha ja raha hai?
jaise ek kamra ho aur uske anabuhre farsh par muDe tuDe kuch kaghaz bikhre hon aur hawa ka ek jhonka aaya ho aur we sab kaghaz phaDphaDa uthe hon subah ka samay tha aur ghar par sab hi maujud the babu puja ke liye uthe hue ghere mein asani bichhakar jap kar rahe the aur uska khincha swar shayad wahan bhi pahunch gaya tha kuch kshnon ke liye laga ki jap ruk gaya hai aur phir jab shuru hua tab swar sahj na tha
kahkar jab usne anubhaw kiya to barsat ki silan jaisi chipachipahat uske man par chhane lagi itna nirlajj wo kaise ho gaya kaun si manःsthiti thi jismen wo apne aaweg ko sambhal na saka radhe uski or kitab ke pichhe se tak raha tha bartan malti kanto ki palken nal ke niche se bar bar uski or uth jati theen angihti ke pas baithi hui amma ke chehre ki sikuDi hui jild ke niche koi saya tharthara raha tha
“jagah ki tangi ke pichhe kya bahu ayegi nahin? kaise na kaise bete, waqt kata hi jata hai amma ke swar mein bhiga kampan tha usne lakshya kiya ki amma ki ankhon mein ardrata utar i hai
ek aisa adrshy dabaw tha jo asahy hota ja raha tha nahin, jaise pratipal use koi nanga kar raha tha
wo wahan se jald uth aaya tha phir jab jab is sambandh mein koi baat uthi wo apne ko bachata raha, chhipata raha uski koi bhi ichha anichchha, sahamti ashamti nahin samasya ka ek hi hal tha jise wahi nahin sab jante the aur ant mein usi par aaya gaya tha babu sidri mein aa jayenge sardi jab ziyada paDegi, na hoga tat ka mota parda Dalwa liya jayega ya lakDi ke takhte waghairah thukwa diye jayenge
usne apne mein ek bujhapan sa mahsus kiya snayuon mein jaisi ushmta honi chahiye, waisi na thi utsah ko jaise kisi ne masal diya ho usne is manःsthiti se chhutkara pane ki koshish ki, par kuch hi der baad wo apne ko phir usi dabaw ke niche anubhaw karne lagta babu ko khansi kya aaj ziyada aa rahi hai? babu ke liye sidri nari jagah hai zarur wo ek ataptapan sa mahsus kar rahe honge
usne pichhe gali mein khulne wali khiDki khol di khasti hui raat mein hawa tikhi ho gai thi aur usmen school ke ahate ke harsingar ki mahak ghuli thi chand asman mein doodh mein bhigi roti jaisa dikhai de raha tha sardiyon ki chandni ziyada saf aur chamakdar hoti hai chandni ka ek baDa tukDa andar bhi reng aaya tha kothe ka farsh kafi khurdara tha chune ka gatta paDa tha aur jagah ba jagah chuna utar gaya tha aur gatta nanga rah gaya tha babu ne pichhli barsat mein kaha tha ki ek bori siment ka prbandh ho jaye to chhat ki darazen bhi chikna karwa len par phir unhonne wo ichha daba li aur chhat ki darazon mein kahin se lakar pighla koltar gira diya ek chuha pichhe chhipa hua kath ke sanduq ko kit kit kit kar kutar raha tha aahat pakar zara der ke liye chup ho jata tha aur phir kutarne lagta tha
babu phir khansane lage the sukhi khansi ke thanson ki awaz yoon uthti thi jaise koi kaDi cheez chhili ja rahi ho
kuch der baad jab use peshabkhane mein jane ki zarurat hui aur wo bahar angan mein aaya, babu tab bhi khans rahe the use laga kanto bhi sori nahin hai aur jag rahi hai uski aahat pakar usne abhi abhi karwat badli hai aur loi sir tak khinchi hai —uska bichhawan man se idhar hi hatkar tha chaar phit ka angan kothe aur sidri mein kitna algaw rakh sakta hai
kuch der pahle patni kothe mein kisi baat par khulkar hansi thi, par turant baad hi saham gai—ui ram!—bahar awaz sunkar koi sochega ki bahu kitni nirlajj hai!
na jane kyon use inhin kshnon das barah din pahle ki wo sthiti bhi yaad ho i subah aath ya nau ka samay hoga dhoop uni kalin jaisi bichhal rahi thi aur wo upar chhat par chala gaya tha dusre makan ki munDer par kabutar ka ek joDa baitha hua tha kabutar kabutari ke aage pichhe gardan phulata aur gutargun ki awaz karta chakkar kat raha tha ekayek kabutar kabutari par baith gaya usne tabhi paya ki pichhe kanto bhi aa gai hain do kshan ke liye donon ki ankhen milin aur hat gain unmen ek aisa bhaw jal utha tha jo ot chah raha tha kanto niche wapas laut gai wo dusri or hatkar khaDa ho gaya
use laga ki kanto wahan uski upasthiti anubhaw kar rahi hai wo ghusalkhane ko par karta hua peshabkhane mein chala gaya
lautte hue sidri mein uski nazar chali gai khansane ke baad ghargharaht ke sath babu sans le rahe the jaise kisi bartan ke surakh mein se bhap soon soon kar guzar rahi ho amma gadda Dale zamin par so rahi theen thoDa hatkar kanto leti thi usne abhi abhi karwat phir badli thi aur radhe ain radhe kahan so raha hai jab wo wapas lautkar aaya tha, radhe shayad nahin tha shayad wo rajnikant ki baithak mein so raha hoga rajnikant ke chhote bhai ke sath uski paDhai chalti hai is sal we daswin darje mein hain use yaad aa gaya ki tisre pahar aisi charcha uthi thi ki pariksha tak radhe wahan sone ko kahta hai
chaudah sal ka radhe bhi kya sthiti se parichit hai aur samjhauta karna janta hai?
use laga ki hawa mein baDhi hui siharan use tezi se chhu rahi hai wo andar chala gaya
subah chay ke samay usne paya ki wo apne ko sabki nigahon se bachana chah raha hai wo us manःsthiti se ubarne ke liye apne se jujhta raha, par bar bar usi ke beech apne ko pata
murari qasdan der se lauta
wo samasya jo kisi bhari aur bhaddi shila jaisi thi, yoon jis tis prakar thel di gai thi, par wo nahin chahta tha ki uske baad jo kiya jana tha, use antim roop uski upasthiti mein hi diya jaye dusron ke liye sthiti uske karan asuwidhajanak ho gai hai, ye anubhuti use kuch is prakar kachot rahi hai jaise wo dawat ki saji sudhri mez par baitha hai aur uske samne ati swadisht aur mulyawan bhojya padarth parose gaye hain aur ekayek use pata lag gaya hai ki mezban ne wo sab udhaar lekar wiwashtawash uske liye jutaya hai; aur phir wo dawat ki mez se na uth sakta hai aur na utsah aur na ruchi ke sath kha hi pata hai beech mein jo rishta hai uski wajah se unhen asuwidha ke liye shayad duःkh nahin hoga, we use santosh ya kuch aisa hi manenge, par uske apne andar jo kisakisaila garamabgula ghumaD raha hai wo ?
chhoti aur samany baten bhi kyon kisi ko itna adhik mathti hain?
nowember ke akhiri din the aur sardi honi hi chahiye in dinon raat hote hi andhera jaise khoon ke syah mayal chakatton jaisa jam jata ho daftar ka satish mil gaya tha aur wo usse Dher sari bekar ki baten karta raha tha phir wo der tak bina wajah saDak se lagi ek takiz ke corridor mein ghuskar bahar jalidar khiDakiyon mein chipki taswiren dekhta raha iske baad ek cigarette sulgakar us or nikal gaya jidhar panch manzila ek nari imarat ban rahi thi yoon wo use pahle bhi dekh chuka tha jab wo lautkar apni gali mein aaya tab wakil sahab ki baithak ki batti bujh chuki thee; badri dudhwala apni dukan par kunDe mein dahi jamane ke liye doodh uDel raha tha; khanDhar ki or munh kiye ek kutta ruk rukkar ghurra raha tha
apne ghar ke mohre mein ghusne se pahle usne baghal ke darwazewale makan ki or dekha malik makan ka laDka aakar ab usmen khu rahne laga tha do mahine pahle wahan rukmo bhabhi rahti theen ek nazuk si sarsarahat ki lahr uski ragon mein dauD gai
sidri mein ek muDi hui salakh ke sahare lalten latki hui thi aur uska jhilli jaisa dhundhlaya parkash phaila hua tha uske andar prweshte hi do joDi ankhen uske chehre par jaD gain
“kahin kuch kaam tha? amma ne apne ko phailana chaha ya shayad apne ko sameta hi ho
khansi ke thanson se babu khat par baithe baithe hilne lage jaise kisi kaghaz ke putle ko hawa chheD gai ho
usne babu ki or dekha gaDhe ki ganji ke upar wo tambaku rang ka sweater pahne the, jagah jagah jismen tar nikle the kisi tutti lahr ki tarah unka sina uth aur gir raha tha
amma ki ankhen uske chehre par ab bhi jami hain, usne mahsus kiya —yoon hi daftar ka satish mil gaya tha —wah bol gaya
amma ke puchhne mein kya wihwalta ke sath sath ek halka sa bhay ka bhaw nahin tha? babu aur amma ko sandeh hai ki wo santusht hai uske aane se pahle shayad we usi ke bare mein batachit kar rahe the aur uske lautne mein der ho jane se chintit the
use satish ki kahi gai baat yaad aa gai batachit khatm karte hue usne puchha tha—“wida kara laye? dopahar ki gaDi se aaye honge?—” phir othon ki koren phailata hua muskura diya—“yar, jao ghar par bibi intizar kar rahi hogi!
dusri or chhote se angan ke sire par jo kotha tha, uski dehliz par nikalkar kanto khaDi ho gai thi wo phir angan par kar muskurati hui wahan aa gai jahan amma thi
“bhabhi ke sath khoob baten chhan rahi hain, kyon n? jabse i hai, munh se munh joDe hai ”—amma bhi hans di aur uski or dekhne lagi
par wo kanto ki or dekhta raha jo ab bhi muskura rahi thi kanto usse teen warsh hi chhoti hai uski shadi usse pahle hone ko thi, kintu juDi baat toot gai kai bar toot gai babu aur amma phir koshish mein hain ki kahin baat juDe sir se upar hota pani niche utre
use laga ki samne kothe mein saDi ki halki si sarsarahat hui hai wahan aaj shayad lamp jal raha tha jhilli jaisi raushani wahan bhi phaili thi
kuch der aisa laga ki kisi mook chal chitr ke we patr hain
wo ab kothe ke andar tha shadi ke baad jab patni i thi to sat din rahi thi aur sat dinon mein shayad sara sankoch, jhijhak aur ajanbipan door ho chuka tha patni khat par donon pair latkaye baithi thi pairon mein chandi ki patli pajeb thi taluwe aur eDi mahawar se gulabi the khat par safed chadar bichhi thi patni ke danton ki lajili muskurahat bhi shayad itni hi dhawal thi kothari ki is beech safai ho gai thi jala waghairah ponchh diya gaya tha par safai aur ponchhe jane ka bhaw wahan chhoot gaya tha
sidri mein babu ko khansi phir uthi thi aur wo phir khansane lage the babu ko khansi ki shikayat hai khansi sardiyon mein aur ugr ho jati hai
babu ab sidri mein soya karenge aur wo kothe mein ek lambe samay se shayad apne hosh se wo babu ko isi kothe mein sote dekh raha tha garmiyon mein wo kothe ke aage ke kiwaD aur pichhe gali mein khulne wali khiDki kholkar sote the aur barsat aur sardiyon mein darwaza bheDkar wo ab tak dusron ke sath sidri mein sota tha
shadi ke baad wo samasya uth khaDi hui thi ki bahu kahan soegi? bahu beti ke letne baithne ke liye aaD ot chahiye hi ghar mein kewal wahi ek pata kotha tha do sidariyan theen, jinmen ek mein chauka tha—puja ke liye utha hua ek ghera aur uske pichhe indhan, bharsawan waghairah rakhne ki dabi dabi si pattinuma jagah dusri sidri mein sona letana hota tha barin taraf bahar ki or tatti thi aur usse chipka andar ki janib teen ki chadron se gusalkhane ki zarurat ko pura karne wala utha hua ek gheraw bahut pahle chhat par ek barsati thi jo barsati pani mein gir gai aur ab upar bus khuli nangi chhat thi—akankshahin zindagi jaisi
shadi mein uski suhag sej paDos ki rukmo bhabhi ke ghar mein bichhari gai thi rukmo bhabhi ke pati tala aur nem plate banane wali ek kampni mein naukar the aur un dinon mal lekar daure par gaye the rukmo bhabhi ke koi santan nahin thi mohalle ki aurton aur yuwkon ki aisi dharana thi ki unke santan hogi bhi nahin rukmo bhabhi ke pati ki umr kafi thi sage sambandhiyon se un dinon uska chhota sa ghar kisi rail ke Dibbe jaisa bhara hua tha rukmo bhabhi ne khu hi suhag sej wahan Dalne ka prastaw rakha tha
shadi ke baad ki madhu raten dusre ke ghar mein guzarte hue use kuch bhari bhari sa laga tha uski patni kya mahsus karegi? salone sundar ang par jaise ek ganda zakhm deekh gaya ho
ek raat patni ne puchha bhi—“main dobara jab lautkar aungi tab kya intizam hoga jee?
usne amma ke munh se in dinon jo baat suni thi usko dohra diya—“ham log dusre baDe makan ki khoj mein hain tab tak kya koi mil nahin jayega?
patni iske baad rukmo bhabhi ke pati ko lekar puchhne lagi thi—jiske bare mein itne dinon mein usne apni hamjoliyon ke munh se kuch jaan liya tha—ki kya wo bahut ziyada badsurat bhi hai aur ghussail bhee; ki pahle kya uski adten bahut kharab theen usi raat ko usne sapna dekha ki rukmo bhabhi ka pati gajadhar parsad daure se laut aaya hai aur rukmo bhabhi par bigaD raha hai ki usne kisi dusre ko wahan sone kyon diya aur uski sej ke nikat aakar wo ghussaya hua use jhinjhoD raha hai uski jab ankh khuli to usne paya ki uski gardan pasiji hui hai patni usse satkar so rahi thi aur uski lambi lambi barauniyondar mundi palkon par nishchintta liye snigdhata thi —use phir dobara bahut der tak neend na i aur barsat ke dinon jaisi ek ajib si ghutan aur akulahat abhasti rahi
aisi baat nahin ki uske baad usne kisi dusre makan ki talash na ki ho apni or se usne koi asar na utha rakhi kuch hi aise kaam the jinmen usne itni adhik chinta aur utsah dikhaya ho kintu bharat ki rajdhani dilli jaise mahangar mein ichchhanukul makan milna shayad ek bahut baDi uplabdhi hai ek to pagDi ka sawal tha aur dusra kiraye ki dar ka jis makan mein raha ja raha tha wo kewal barah rupae par tha dusra jo usse kuch hi baDa hota uske pachas sath rupae mange jate wo sab kya chahne par bhi wo de sakta?
ghar par subah sham makan ki charcha hoti uska chhota bhai radhe ya babu dhimi bujhi awaz mein batate ki unko kisi laDke ya daftar ke sathi se pata laga hai ki amuk basti mein amuk makan khali hua hai par wahan jane par wahi hashr hota ya to kiraya bahut ziyada hota ya moti pagDi ka sawal amma budabudatin ki wo kisi dusre ki jagah par hazar barah sau rupaya udhaar lekar kaise nai tamir karwa sakti hain makan malik kiraya to le jata hai, par ye nahin hota ki upar ek kamra aur banwa de, wo aath das rupae kiraya aur baDhane ko taiyar hai par makan malik kya iske liye razi hai? uske makan chhoDne mein hi use labh tha
sthiti se sahajta se samjhauta bus ek hi tarah sambhaw tha aur wo yoon ki babu wo kotha khali kar den par jhijhak ye thi ki babu ko kafi asuwidha aur pareshani thi, wisheshkar sardi ke dinon mein sidri mein sidhi hawa jati thi unki ekant mein sone ki bhi aadat thi
pichhe gali ke school ke ahate ka harsingar phool chuka tha aur raat mein hawa mein ek mithi gamak basi hoti thi—kuen ke shital jal mein jaise halki si mithas ghuli ho
bahu ke bida karane ki baat uthti thi
uske liye kisi jagah ka intizam bhi hua hai ki bulane ko hi socha ja raha hai?
jaise ek kamra ho aur uske anabuhre farsh par muDe tuDe kuch kaghaz bikhre hon aur hawa ka ek jhonka aaya ho aur we sab kaghaz phaDphaDa uthe hon subah ka samay tha aur ghar par sab hi maujud the babu puja ke liye uthe hue ghere mein asani bichhakar jap kar rahe the aur uska khincha swar shayad wahan bhi pahunch gaya tha kuch kshnon ke liye laga ki jap ruk gaya hai aur phir jab shuru hua tab swar sahj na tha
kahkar jab usne anubhaw kiya to barsat ki silan jaisi chipachipahat uske man par chhane lagi itna nirlajj wo kaise ho gaya kaun si manःsthiti thi jismen wo apne aaweg ko sambhal na saka radhe uski or kitab ke pichhe se tak raha tha bartan malti kanto ki palken nal ke niche se bar bar uski or uth jati theen angihti ke pas baithi hui amma ke chehre ki sikuDi hui jild ke niche koi saya tharthara raha tha
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ek aisa adrshy dabaw tha jo asahy hota ja raha tha nahin, jaise pratipal use koi nanga kar raha tha
wo wahan se jald uth aaya tha phir jab jab is sambandh mein koi baat uthi wo apne ko bachata raha, chhipata raha uski koi bhi ichha anichchha, sahamti ashamti nahin samasya ka ek hi hal tha jise wahi nahin sab jante the aur ant mein usi par aaya gaya tha babu sidri mein aa jayenge sardi jab ziyada paDegi, na hoga tat ka mota parda Dalwa liya jayega ya lakDi ke takhte waghairah thukwa diye jayenge
usne apne mein ek bujhapan sa mahsus kiya snayuon mein jaisi ushmta honi chahiye, waisi na thi utsah ko jaise kisi ne masal diya ho usne is manःsthiti se chhutkara pane ki koshish ki, par kuch hi der baad wo apne ko phir usi dabaw ke niche anubhaw karne lagta babu ko khansi kya aaj ziyada aa rahi hai? babu ke liye sidri nari jagah hai zarur wo ek ataptapan sa mahsus kar rahe honge
usne pichhe gali mein khulne wali khiDki khol di khasti hui raat mein hawa tikhi ho gai thi aur usmen school ke ahate ke harsingar ki mahak ghuli thi chand asman mein doodh mein bhigi roti jaisa dikhai de raha tha sardiyon ki chandni ziyada saf aur chamakdar hoti hai chandni ka ek baDa tukDa andar bhi reng aaya tha kothe ka farsh kafi khurdara tha chune ka gatta paDa tha aur jagah ba jagah chuna utar gaya tha aur gatta nanga rah gaya tha babu ne pichhli barsat mein kaha tha ki ek bori siment ka prbandh ho jaye to chhat ki darazen bhi chikna karwa len par phir unhonne wo ichha daba li aur chhat ki darazon mein kahin se lakar pighla koltar gira diya ek chuha pichhe chhipa hua kath ke sanduq ko kit kit kit kar kutar raha tha aahat pakar zara der ke liye chup ho jata tha aur phir kutarne lagta tha
babu phir khansane lage the sukhi khansi ke thanson ki awaz yoon uthti thi jaise koi kaDi cheez chhili ja rahi ho
kuch der baad jab use peshabkhane mein jane ki zarurat hui aur wo bahar angan mein aaya, babu tab bhi khans rahe the use laga kanto bhi sori nahin hai aur jag rahi hai uski aahat pakar usne abhi abhi karwat badli hai aur loi sir tak khinchi hai —uska bichhawan man se idhar hi hatkar tha chaar phit ka angan kothe aur sidri mein kitna algaw rakh sakta hai
kuch der pahle patni kothe mein kisi baat par khulkar hansi thi, par turant baad hi saham gai—ui ram!—bahar awaz sunkar koi sochega ki bahu kitni nirlajj hai!
na jane kyon use inhin kshnon das barah din pahle ki wo sthiti bhi yaad ho i subah aath ya nau ka samay hoga dhoop uni kalin jaisi bichhal rahi thi aur wo upar chhat par chala gaya tha dusre makan ki munDer par kabutar ka ek joDa baitha hua tha kabutar kabutari ke aage pichhe gardan phulata aur gutargun ki awaz karta chakkar kat raha tha ekayek kabutar kabutari par baith gaya usne tabhi paya ki pichhe kanto bhi aa gai hain do kshan ke liye donon ki ankhen milin aur hat gain unmen ek aisa bhaw jal utha tha jo ot chah raha tha kanto niche wapas laut gai wo dusri or hatkar khaDa ho gaya
use laga ki kanto wahan uski upasthiti anubhaw kar rahi hai wo ghusalkhane ko par karta hua peshabkhane mein chala gaya
lautte hue sidri mein uski nazar chali gai khansane ke baad ghargharaht ke sath babu sans le rahe the jaise kisi bartan ke surakh mein se bhap soon soon kar guzar rahi ho amma gadda Dale zamin par so rahi theen thoDa hatkar kanto leti thi usne abhi abhi karwat phir badli thi aur radhe ain radhe kahan so raha hai jab wo wapas lautkar aaya tha, radhe shayad nahin tha shayad wo rajnikant ki baithak mein so raha hoga rajnikant ke chhote bhai ke sath uski paDhai chalti hai is sal we daswin darje mein hain use yaad aa gaya ki tisre pahar aisi charcha uthi thi ki pariksha tak radhe wahan sone ko kahta hai
chaudah sal ka radhe bhi kya sthiti se parichit hai aur samjhauta karna janta hai?
use laga ki hawa mein baDhi hui siharan use tezi se chhu rahi hai wo andar chala gaya
subah chay ke samay usne paya ki wo apne ko sabki nigahon se bachana chah raha hai wo us manःsthiti se ubarne ke liye apne se jujhta raha, par bar bar usi ke beech apne ko pata
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1960-1970) (पृष्ठ 80)
संपादक : केवल गोस्वामी
रचनाकार : हृदयेश
प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।