जब उसकी पत्नी का देहांत हुआ, तब प्रोफ़ेसर व्लाडिस्लाव ईबश्चूट्स के पास सिर्फ़ उसकी पुस्तकें व पक्षी बचे थे। उसने इतिहास के प्रोफ़ेसर पद से त्यागपत्र इसलिए दिया था कि वह जेलपोलस्की गिरोह से जुड़े छात्रों की दैनंदिन हरकतों के कारण बहुत परेशान हो गया था। वे छात्र कक्षा में अपनी अलग पहचान के लिए सोने की विशिष्ट क़सीदायुक्त टोपियाँ पहनकर हाथों में लोहे की ताड़ियाँ घुमाते हुए, हरदम लड़ने पर आमादा रहते थे। कुछेक कारणों से ईबश्चूट्स यह कभी समझ नहीं पाए कि इन छात्रों को यहूदियों से इतनी नफ़रत क्यों है? उनमें से कई छात्रों के आरक्त चेहरे, फुंसियों से भरी गर्दनें, चपटी नासिकाएँ और चौड़ी ठुड्डियाँ—मानो यहूदियों के प्रति नफ़रत ने उन्हें एक बिरादरी में बाँध दिया हो। यहूदी छात्रों के लिए अलग सीटों की माँग करने वाली उनकी आवाज़ भी एक-सी होती।
व्लाडिस्लाव ईबश्चूट्स मामूली पेंशन लेकर रिटायर हो गए, जिससे मकान का किराया व भोजन का ख़र्च निकालना भी मुश्किल था। किंतु बुढ़ापे में एक व्यक्ति को और क्या चाहिए? कमज़ोर आँखों वाली उसकी पोलिश नौकरानी टेकला एक खेतिहर महिला थी। प्रोफ़ेसर ने काफ़ी समय पहले ही उसकी तनख़्वाह बंद कर दी थी। दोनों के ही दाँत नदारद। इसलिए टेकला दोनों वक़्त सूप बना लेती। किसी को भी नए कपड़े व नए जूतों की ज़रूरत नहीं थी। दिवंगत श्रीमती ईबश्चूट्स की पुरानी पोशाकें, सूट व फरवाले गंदे कोट काफ़ी मात्रा में पड़े हुए थे, जिन्हें कीटनाशक गोलियों ने अब तक बचा रखा था।
पिछले कुछ वर्षों में प्रोफ़ेसर का पुस्तकालय इतना बढ़ गया कि सभी अलमारियाँ किताबों से ठसाठस भर गईं। यहाँ तक कि कपड़ों की अलमारियों में, पेटियों में, तहख़ाने में, अटारियों पर किताबें ही किताबें। हस्तलिखित पांडुलिपियाँ भी। जब तक श्रीमती ईबश्चूट्स जीवित रही, तब तक वह किताबों को सलीक़े से रखती, साफ़ करती, उनकी मरम्मत भी करती, बेकार पांडुलिपियों को स्टोव में जला देती, किंतु उसकी मृत्यु उपरांत सब कुछ उपेक्षित पड़ा रहता। प्रोफ़ेसर ने पक्षियों के दर्जनों पिंजरे इकट्ठे कर लिए थे, जिनमें तोते, टुइयाँ-तोते और कनारी इत्यादि टिवटिव करते रहते। वे हमेशा से ही पक्षियों को बड़ा प्यार करते थे। पिंजरे हरदम खुले रहते ताकि वे जहाँ-तहाँ मनमरजी से उड़ सकें। टेकला शिकायत करती कि अब उससे इनकी बीट साफ़ नहीं होती। प्रोफ़ेसर मुस्कराकर कहते, पगली, भगवान् के जीवों में कैसा भेद? उनकी तो सब चीज़ें साफ़-सुथरी हैं।
उनके लिए इतना ही काफ़ी नहीं था। वे नियमित रूप से गली के कबूतरों को दाना चुगाया करते। पड़ोसी नित साँझ-सवेरे उन्हें दानों का थैला हाथ में लिए बाहर निकलते देखते। वे बहुत ही छोटे क़द के व्यक्ति थे। पीठ झुकी हुई, छितरी दाढ़ी जो अब सफ़ेद से पीली होने लगी थी, टेढ़ी-मेढ़ी नाक, पिचका चेहरा। चश्मे के पीछे उनकी भौंहें और भी घनी नज़र आतीं। वे हमेशा हरे रंग का फ्रॉक कोट पहने रहते। घुमावदार पंजेनुमा प्लास्टिक के जूते, जो अब बाज़ार में मिलने बंद हो गए थे, उनके पाँवों में रहते। उनके खिचड़ीनुमा बाल गोल टोपी से इधर-उधर बाहर निकले रहते। वे आगे वाले दरवाज़े से बाहर नहीं आ पाते और उनकी आवाज़ सुनने से पहले ही कबूतर इकट्ठे हो जाते। वे ईंटवाले पुराने मकानों और चर्मरोग चिकित्सालय के आसपास लगे पेड़ों पर बैठे रहते। वह गली जिसमें प्रोफ़ेसर का मकान था, 'नौवी एवीएट बुलेवर्ड' से शुरू होती हुई ढलान से आगे 'विस्ट्चूला' जाती थी। गर्मी के मौसम के दौरान 'बटिया-पत्थरों' के बीच से घास निकलती थी। वाहनों का आवागमन कम था। कभी-कभार कोई अरथी आतशक या त्वचा के रोगियों की लाशें ढोती हुई नज़र आ जाती या कभी-कभार पुलिस की कोई गाड़ी रतिरोग से पीड़ित वेश्याओं को यहाँ से ले जाती हुई दीख पड़ती। कुछेक घरों के पिछवाड़ों में अभी तक हैंडपंप ही काम आते थे। बूढ़े मकान मालिक अपने घरों से यदा-कदा ही बाहर निकलते थे। कबूतर शहर के शोरगुल से बचे रहते थे।
प्रोफ़ेसर टेकला से अकसर कहते कि उनके लिए कबूतरों को बहलाना गिरजाघर या किसी यहूदी सभागार में उपासना करने के समान है। दाना चुगने के लिए कबूतर हर रोज़ साँझ-सकारे आपका इंतज़ार करते रहें, इससे अच्छी पूजा और क्या हो सकती है! भगवान् के बनाए प्राणियों की सेवा करना ही सच्चा धर्म है। कबूतरों को दाना चुगाने से प्रोफ़ेसर को ख़ुशी तो होती ही थी, पर वे उनसे सीखते भी बहुत कुछ थे। उन्होंने एक बार 'तालमूड' के उद्धरण में पढ़ा कि कबूतर यूनानियों को बहुत पसंद करते थे और उन्हें हाल ही में उस तुलना का मर्म अच्छी तरह समझ में आया था। कबूतरों के पास अपनी जीविका-उपार्जन के निमित्त कोई उपकरण या हथियार नहीं होते। वे आज दिन तक अपने आपको लोगों द्वारा उछाले गए दानों के आसरे ही स्वस्थ-दुरुस्त रखे हुए हैं। उनकी ग़ुटरग़ूँ का संगीत अभी तक क़ायम है। कबूतरों को हर आवाज़ या आहट से डर लगता है। छोटे से पिल्ले को देखते ही वे एक साथ पाँखों को फड़फड़ाते हुए उड़ जाते हैं। वे उन मैनाओं को भी नहीं भगाते, जो इनका दाना चुराती हैं। यूनानियों की तरह कबूतर भी शांतिप्रिय या पवित्र इरादे लेकर फलते-फूलते रहे हैं, किंतु हर आचार-व्यवहार या नियम-कायदे का अपवाद भी होता है। जैसे यूनानियों में, वैसे कबूतरों में भी कोई न कोई परियुद्धक नमूने मिलते हैं, जो अपनी आनुवंशिकता को अस्वीकार करते हैं। ऐसे कबूतर भी थे, जो दूसरे कबूतरों को भगा देते। चोंच मारकर छीना-झपटी करते। प्रोफ़ेसर ईबश्चूट्स ने सामी-विरोधी तथा यूनानी-साम्यवादी छात्रों की वजह से विश्वविद्यालय छोड़ दिया था, जो अपने स्वार्थ की ख़ातिर दूसरों को उत्पीड़ित करते थे।
इतने वर्षों तक प्रोफ़ेसर ने अध्ययन अध्यापन किया, पुरालेखों को पढ़ा, उनकी छानबीन की और वैज्ञानिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख लिखे, पर इतिहास दर्शन के उस तथ्य के प्रति हमेशा ध्यान केंद्रित रखा जो यह समझाए कि मानव जाति किस दिशा में अग्रसर हो रही है? उसे लड़ने के लिए कौन बाध्य कर रहा है? एक समय ऐसा भी था कि जब घटनाओं के भौतिकवादी विश्लेषण की ओर प्रोफ़ेसर का ध्यान अधिक था। वे ल्यूक्रशियम, डिडरोट, वोग्ट, फ़्यूरबॉक के मुरीद थे। वे कुछ समय तक कार्लमार्क्स के भी प्रशंसक रहे। लेकिन वह युवावस्था जल्द ही गुज़र गई। अब प्रोफ़ेसर दूसरी ओर उन्मुख हुए। यह परिवर्तन प्रकृति के उद्देश्य की पड़ताल करने, तथाकथित सोद्देश्यों की सच्चाई जानने और विज्ञान के वर्जित क्षेत्र की ओर बढ़ने के लिए था। यद्यपि प्रकृति में निश्चित परियोजना परिलक्षित होती है, पर प्रोफ़ेसर को यह अव्यवस्थित नज़र आई। हम सभी ज़रूरतमंद थे—चाहे वह यूनानी हो, चाहे ईसाई या मुसलमान हो, चाहे महान सिकंदर, शारलेमैन, चाहे नेपोलियन या हिटलर हो। बिल्लियों के द्वारा चूहों का शिकार करवाकर, बाज—सिकरों के द्वारा ख़रगोशों को मरवाकर, भ्रातृत्व संघ द्वारा यूनानियों पर हमला करवाकर भगवान को क्या मिलेगा? उसे क्या सिद्धि प्राप्त होगी?
तत्पश्चात् प्रोफ़ेसर ने इतिहास के अध्ययन से नाता तोड़ लिया। बुढ़ापे में वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सही मायने में उन्हें जीव और प्राणी—शास्त्र से ज़्यादा लगाव है। जिसकी सहज परिणति यह हुई कि उन्होंने कुछ ही समय में पशु-पक्षियों पर ढेरों पुस्तकें प्राप्त कर लीं। उन्हें अच्छी तरह पता था कि वह 'सबलवाय' से पीड़ित हैं और उनकी दाईं आँख बिलकुल बेकार है। फिर भी वे एक छोटी ख़ुर्दबीन ले आए। उनके अध्ययन-मनन का कोई व्यावसायिक लक्ष्य नहीं था। वे अपनी आत्मिक उन्नति के लिए उसी लगन से पढ़ते, जिस तरह धर्मपरायण लोग 'तालमूड' का पाठ करते हैं। और उन्हीं के उनमान सर हिलाकर गाना गाते। अपनी दाढ़ी का बाल तोड़कर उसे यत्नपूर्वक स्लाइड पर रखकर वे ख़ुर्दबीन से नीचे देखते। हर बाल की अपनी जटिल रचना होती है। टेकला के ख़ूबसूरत गुलदस्ते से शांतिमय वातावरण बनता, जिससे प्रोफ़ेसर की आत्मा पुनर्जीवित हो उठती। जब वे ख़ुर्दबीन के पास बैठकर अपने काम में मशग़ूल होते तो टुइयाँ-तोते चहचहाते, बोलते, घूमते, कनारी मीठे स्वर में गाती, तोते बातचीत करते, एक-दूसरे को बंदर, उल्लू या भुक्खड़ कहते—टेकला की गँवई बोली के लहज़े में। भगवान के परोपकार या उसकी करुणा पर विश्वास करना इतना आसान नहीं था, मगर उसका अस्तित्व कण-कण में व्याप्त था।
टेकला भी छोटे क़द की थी। चेचकरू। बाल उसके बारीक थे, नुकीले, जिनमें सफ़ेदी झाँकने लगी थी। फीके रंग का पहनावा और टूटी-फूटी चप्पल। बिल्ली के उनमान, उसकी हरी आँखें गालों के ऊपर से दिखाई दे रही थीं। उसका एक पाँव जोड़ों के दर्द से पीड़ित था, जिस पर विलेप और मरहम लगा हुआ था, जो किसी परिचित हकीम ने निःशुल्क दिया था। अपने भगवान की आराधना करने के लिए वह गिरजाघर जाने वाली थी। उसने प्रोफ़ेसर के पास आकर कहा, “मैंने दूध गरम कर दिया है।”
मुझे नहीं चाहिए।
उसमें कॉफ़ी का एक चम्मच मिला दूँ?
धन्यवाद टेकला, मुझे कुछ नहीं चाहिए।
“तुम्हारा गला सूख जाएगा।
यह कहाँ लिखा है कि गला गीला रखना ज़रूरी है?
टेकला ने कोई जवाब नहीं दिया। किंतु वह गई नहीं। जब श्रीमती ईबश्चूट्स मरणासन्न थी, तब उसने मन ही मन क़सम खाई थी कि वह प्रोफ़ेसर का ख़याल रखेगी। थोड़ी देर बाद वे कुर्सी से उठे। वे एक विशेष तकिए पर बैठते थे ताकि उनकी 'हिमरोइड्स' में जलन न हो।
“क्या तुम अब तक यहीं हो, टेकला?” प्रोफ़ेसर ने मुँह बनाकर कहा, “तुम भी मेरी पत्नी की तरह ज़िद्दी हो। उसकी आत्मा को शांति मिले!”
“प्रोफ़ेसर! दवाई का वक़्त हो गया है।”
“कौन-सी दवाई? बेवक़ूफ़! कोई दिल हमेशा नहीं धड़क सकता।”
प्रोफ़ेसर ने आवर्द्धक लेंस 'द बर्ड्स ऑफ़ पोलैंड' पुस्तक के खुले पन्नों पर रखा और अपने पक्षियों की देखभाल के लिए चल पड़े। गली के कबूतरों को दाना चुगाने में उन्हें सचमुच ख़ुशी होती थी। मगर खुले पिंजरों में रहने वाले पक्षियों का ख़्याल रखना बड़ी मेहनत तथा सतर्कता का काम था। टेकला के लिए एक भी दिन ऐसा नहीं गुज़रता जब उस पर विपत्ति न आती हो। कभी कोई टुइयाँ-तोता किताब या किवाड़ के पीछे फँस जाता, उसको वहाँ से यत्नपूर्वक निकालना पड़ता। पर टुइयाँ-तोते आपस में लड़ते। प्रोफ़ेसर ने सभी चिड़ियों की नस्लों के लिए अलग-अलग व्यवस्था की थी। लेकिन टेकला भूल जाती और दरवाज़ा अधखुला छोड़ देती। एक बार वसंत का दौर था। खिड़कियाँ खोली नहीं जा सकती थीं। फलस्वरूप सीलन-भरी हवा से बीट की गंध आ रही थी। नियमानुसार पंछी रात को सोते थे, फिर भी कोई पखेरू दुःस्वप्न के कारण जाग उठता। अँधेरे में इधर-उधर फड़फड़ाता। रोशनी जलानी पड़ती ताकि पखेरू अपने आपको मार न डाले। कुछ दानों के बदले ये पखेरू प्रोफ़ेसर को क्या सुख पहुँचाते? एक टुइयाँ-तोते ने बहुत सारे शब्द सीख लिए थे और कुछेक पूरे वाक्य भी। उसने अपना चक्कस प्रोफ़ेसर की गंजी खोपड़ी को बनाया। कान की लोलक में चोंच मारता। चश्मे की डंडी पर चढ़ जाता। कभी-कभार लिखते समय उनकी तर्जनी पर कलाबाज़ी करता। प्रोफ़ेसर को गहराई से यह एहसास होने लगा था कि ये पक्षी कितने समझदार हैं। कितना असाधारण है इनका आचरण। कितना उच्च है इनका व्यक्तित्व। इतने सालों से देखते रहने के बावजूद उन्हें आज भी इनकी हरकतों से कम आश्चर्य नहीं होता। प्रोफ़ेसर को यह जानकर बड़ी ख़ुशी होती कि इन जीवों को परोक्ष-अपरोक्ष रूप से इतिहास का कोई बोध नहीं है। ये परंपरा या अन्य संस्कारों से पूर्णतया मुक्त हैं। सारे साहसिक कार्यों को तुरंत भुला दिया जाता है। हर दिन इनकी एक नई शुरुआत होती है। फिर भी एक अपवाद अवश्य नज़र आया। उन्होंने एक बार देखा कि एक नर टुइयाँ-तोता अपने साथी के मरने पर गम में घुला जा रहा है। उदास है। पक्षियों को आकर्षित करने की प्रवृत्ति, घृणा, व्यवधान, बदले की भावना और आत्महत्या के दृष्टांत भी देखे। भगवान या क़ुदरत का दिया हुआ विवेक, पंखों की बनावट, अंडे देने का कौशल और रंग बदलने की निर्भीक प्रक्रिया इन सब में एक निहित उद्देश्य है। यह सब क्योंकर घटित होता है? आनुवंशिकता, गुणसूत्र या जीन्स? अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद प्रोफ़ेसर अपने आप से ही बातचीत करने लगे थे। कभी-कभार प्राचीन प्रतिभाओं के प्रति मतभेद भी उजागर होते रहे थे। वे डार्विन से कहते, नहीं चार्ल्स, नहीं, तुम्हारे सिद्धांत यह पहेली सुलझाने में सक्षम नही हैं। श्रीमान लेमार्क, तुम्हारे सिद्धांत भी अपर्याप्त हैं। फिर से सोचना ज़रूरी है।
उस दुपहर अपनी दवाई लेने के बाद प्रोफ़ेसर ने एक थैले में अलसी, बाजरा व सूखे मटर भरे और कबूतरों को चुग्गा डालने के लिए वे बाहर निकले। हालाँकि वह मई का महीना था। बारिश के कारण ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। फ़िलहाल 'विसट्यूला' में बरसात थम गई थी और धूप बादलों को चीरती हुई निकल आई थी, पारलौकिक कुल्हाड़ी के उनमान। ज्यों ही प्रोफ़ेसर बाहर आए चारों तरफ से कबूतर एक साथ झपटे। कुछ अतिरेक उतावली में टोपी के पास पंख फड़फड़ाने लगे। मानो टोपी नीचे गिराने की ख़ातिर खीज उठे हों। प्रोफ़ेसर को मालूम था कि थैले में पर्याप्त दाने नहीं हैं, इसलिए उन्होंने जल्दी-जल्दी चुग्गा उछालना शुरू किया। ताकि वे आपस में झगड़ें नहीं, किंतु तब तक तो छीना-झपटी का दौर चल पड़ा था। कुछ तो एक दूसरे के ऊपर चढ़कर दूर धकेलने की चेष्टा कर रहे थे। तिस पर गली काफ़ी सँकरी थी और कबूतरों का झुंड बहुत बड़ा था। वे होंठों ही होंठों में बुदबुदाए, 'बेचारे पक्षी कितने भूखे हैं!' उन्हें मालूम था कि कबूतरों को खिलाने में उनकी समस्या कभी नहीं सुलझेगी। वे जितना अधिक चुग्गा डालेंगे, कबूतरों की संख्या उतनी ही बढ़ती रहेगी। प्रोफ़ेसर ने पढ़ा था कि आस्ट्रेलिया में कबूतर इतने बढ़ गए हैं कि इनके वज़न से कई छतें तक ढह पड़ी हैं। इस अविराम दौड़-धूप में भला प्रकृति के नियमों की कौन अवहेलना कर सकता है? और न ही इन जीवों को भूखे मरने के लिए कोई छोड़ सकता है।
जिस हॉल में अनाज की बोरी रखी थी, वे लौटकर वहाँ आए। पूरा थैला भरा और मन ही मन बुदबुदाए, 'आशा करता हूँ कि वे रुके रहेंगे।' जब वे बाहर आए तो उनकी आशा के अनुरूप पक्षी वहीं पर ही मौजूद थे। 'धन्यवाद! धन्यवाद!' उन्होंने कहा और अतिशय धर्मोत्साह की वजह से कुछ परेशान भी हुए। वे इधर-उधर दाने उछालने लगे तो उनके हाथ-पाँव काँप उठे। मुट्ठियों से फिसलकर पाँवों के पास ही गिर पड़े। कबूतर बेसब्री से उनके कंधों पर, भुजाओं पर पाँखे फड़फड़ाते हुए उन्हें नोचने लगे। एक साहसी कबूतर तो थैले पर ही बैठकर अनाज खाने की कोशिश करने लगा।
अचानक एक पत्थर प्रोफ़ेसर ईबश्चूट्स के ललाट पर लगा, यकायक तो उन्हें पता ही नहीं चला कि यह क्या हुआ? तब तक दो पत्थर और लगे। एक कुहनी पर और दूसरा गर्दन पर।
सभी कबूतर एक साथ उड़े, मानो हवा का तूफ़ान उठा हो। वे किसी तरह घर के अंदर आने में कामयाब हुए। उन्होंने कई बार पत्रिकाओं में पढ़ा था कि यूनानियों पर सैक्सनी बग़ीचों में और उपनगरों में गुंडों द्वारा हमले किए जाते हैं। किंतु उनके साथ कभी ऐसा नहीं हुआ। वे असमंजस में थे कि उन्हें चोट कहाँ ज़्यादा लगी है? ललाट पर या उनके अहम पर! क्या हम इतने गिर चुके हैं? वे बुदबुदाए। टेकला खिड़की से सारा माजरा देख रही थी। वह ग़ुस्से में भुनभुनाती उनके पास आई। फुफकारते हुए उन दुष्टों को मार बददुआएँ देने लगी। फिर अचानक दौड़कर रसोई में अँगोछा भिगोने गई। प्रोफ़ेसर ने टोपी उतारकर ललाट के टीसते गूमड़े को छूकर देखा। तब तक टेकला गीला अँगोछा लेकर लौट आई। उन्हें सोने के कमरे में ले गई। कोट उतारकर लिटाया। उपचार करते समय भी उसका बड़बड़ाना जारी था, “भगवान उन्हें भरपूर दंड देना। उन पर फ़ालिज गिरे! उन्हें कोढ़ निकले!
“बस टेकला, बस।
“अगर यही हमारा पोलैंड है तो इसे आग लग जानी चाहिए।
पोलैंड में अच्छे लोग भी रहते हैं।
“तलछट, वेश्या, कोढ़ी, कुत्ते!
टेकला बाहर गई। शायद पुलिस को बुलाने। किंतु प्रोफ़ेसर ने पड़ोसियों से शिकायत करते तथा चिल्लाते हुए उसे सुना। कुछ देर बाद सब कुछ शांत हो गया। जब टेकला अकेली ही वापस आई तो उन्होंने सोचा—नहीं, वह पुलिस को बुलाने नहीं गई। वह बेचैनी से बड़बड़ाती हुई रसोई में घूम रही थी। प्रोफ़ेसर ने अपनी आँखें बंद कर लीं। “देर-सबेर तुम्हें अपनी खाल पर सब कुछ सहन करना पड़ेगा। मैं दूसरे पीड़ित व्यक्तियों की अपेक्षा किस माने में श्रेष्ठ हूँ। यही इतिहास है। इतने बरसों तक मैंने यही दिमाग़ में भर रखा था।
यहूदी शब्द उन्होंने काफ़ी समय से भुला दिया था। आज अचानक उनके दिमाग़ में कौंधा—रेशयिम, एक दुष्ट आदमी! वह दुष्ट ही है जो अपना इतिहास बनाता है।
प्रोफ़ेसर एक मिनट के लिए स्तब्ध रह गए। इतने सालों से जिस उत्तर की उन्हें तलाश थी, वह एक क्षण में स्पष्ट हो गया। गुंडों द्वारा उन पर पत्थर फेंकने और न्यूटन द्वारा सेब को नीचे गिरते देखने में परस्पर कितना साम्य था। सूर्य के उजाले की तरह सच्चाई उनके सामने प्रज्वलित हो उठी, जो किसी भी समय के लिए अमान्य नहीं हो सकती। सभी विधानों की एक-सी परिणति होती है। हर पीढ़ी में कोई न कोई आदमी ऐसा होता ही है, जो झूठ बोलता है, ख़ून-ख़राबा करता है, दंगा-फ़साद करता है। दुष्टता या बर्बरता कभी रुक नहीं सकती, चाहे वह युद्ध के रूप में हो, चाहे क्रांति के रूप में। चाहे अपने झंडे के नीचे लड़े या दूसरे झंडे के नीचे लड़े। चाहे कुछ भी नारा हो, कुछ भी वाद हो—मक़सद एक ही रहता—ख़ून बहाना, दूसरों को आतंकित करना, उत्पीड़ित करना। एक ही उद्देश्य ने मैसडोनिया के एलेक्ज़ेंडर, हेमिलकर, चंगेज़ ख़ाँ, शारलेमैन, शमीलनिट्सकी, नेपोलियन, रौबरस्पीयर और लेनिन को संगठित किया। इतना आसान।
गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत भी आसान था, इसलिए उसके आविष्कार में इतना समय लगा।
व्लाडिस्लाव ईबश्चूट्स को शाम होते-होते नींद आने लगी। उन्होंने अपने आप से कहा, 'नहीं, यह इतना आसान नहीं हो सकता।' टेकला ने प्रोफ़ेसर के माथे पर बर्फ़ का सेंक किया। पूर्णतया आश्वस्त होने के लिए वह डॉक्टर को बुलाना चाहती थी, पर प्रोफ़ेसर ने मना कर दिया। उन्हें डॉक्टर व पड़ोसियों के रूबरू होने में शर्म महसूस हो रही थी। टेकला ने जई का घोल करके उन्हें पिलाया। वे हमेशा सोने से पहले पिंजरों की सँभाल करते, उनमें ताज़ा पानी भरते, दाने व सब्जियाँ डालते और मिट्टी भी बदलते, किंतु उस शाम प्रोफ़ेसर ने सब काम टेकला पर छोड़ दिया। उसने बत्तियाँ बुझा दीं। कुछ टुइयाँ-तोते प्रोफ़ेसर के कमरे में ही पिंजरों में बंद थे। कुछ पर्दे की डंडी पर सो गए। हालाँकि प्रोफ़ेसर थके हुए थे, फिर भी उन्हें तुरंत नींद नहीं आई। उनकी दुरुस्त आँख का ऊपरी हिस्सा सूज गया था, जिससे पलक झपकाने में उन्हें कठिनाई हो रही थी। उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि कहीं वे पूरी तरह से अंधे न हो जाएँ। अंधा होने की बजाय तो मर जाना ही बेहतर है। ऊँघ आते ही उन्होंने सपने में एक विचित्र धरती देखी—जहाँ एकदम नई प्राकृतिक छटा बिखरी पड़ी थी, जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा—हरे-भरे पहाड़, रहस्यमयी घाटियाँ, लुभावने बग़ीचे—गहर-घुमेर गाछ-बिरछों से आच्छादित और रंग-बिरंगे फूलों का बिछौना। मैं कहाँ हूँ?” वे नींद में बड़बड़ाए, इटली में”, “अफ़गानिस्तान में? नीचे की ज़मीन इस तरह खिसक रही थी, मानो हवाई जहाज़ में बैठे हों या अंतरिक्ष में लटके हुए हों। क्या मैं पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की पहुँच से परे हूँ? वे दुविधा में फँस गए कि आख़िर यह हुआ क्योंकर? यहाँ तो कोई वायुमंडल भी नहीं। वे फिर बुदबुदाए, “उफ्फ! कहीं मेरा दम न घुट जाए। अकस्मात् उनकी नींद उचट गई। समझ नहीं पड़ा कि वे हैं कहाँ? माथे पर कुछ दबाव महसूस हुआ। हाथ से स्पर्श करते ही उन्हें आश्चर्य हुआ, मेरे सिर पर यह पट्टी क्यों बँधी है? इस प्रश्न के साथ ही अचानक उन्हें सब याद आ गया। “हाँ, इतिहास दुष्टों ने ही बनाया है। मैंने न्यूटन के इतिहास का सूत्र खोज लिया है। मुझे अपना शोधकार्य फिर से प्रारंभ करना होगा। ओह...। उन्हें अपने सीने में बाईं तरफ़ तीखा दर्द महसूस हुआ। वे लेटे-लेटे ही दिल की धड़कनें सुनते रहे।
हृदय-शूल के लिए उनके पास गोलियाँ थीं, किंतु वे पढ़ने वाले कमरे की दराज़ में रखी हुई थीं। उनकी दिवंगत पत्नी स्टेफ़नी ने उन्हें एक छोटी-सी घंटी दे रखी थी। रात को जब भी उनकी तबीयत ख़राब हो तो वे घंटी बजाकर टेकला को बुला लें, किंतु प्रोफ़ेसर की इच्छा नहीं होती कि वे घंटी बजाएँ, यहाँ तक कि रात की हरी बत्ती तक जलाने में भी उन्हें हिचकिचाहट होती। पक्षियों को आवाज़ व रोशनी से बड़ा डर लगता था।
उन्होंने सोचा—टेकला दिन-भर के कामकाज से थक गई होगी। तिस पर इस अप्रिय घटना की वजह से वह ठीक तरह से सो भी नहीं पाई होगी। गुंडों के अचीते आक्रमण से वह उनकी अपेक्षा ज़्यादा परेशान हुई थी। चंद घड़ियों की नींद के अलावा बेचारी के पास और है ही क्या? न कोई रिश्तेदार, न कोई दोस्त और न कोई संतान। प्रोफ़ेसर ने टेकला के नाम वसीयत तो लिख दी, लेकिन उन अप्रकाशित पांडुलिपियों का मूल्य ही क्या था, उसके लिए!
एक नया सूत्र...।
कुछ देर बाद प्रोफ़ेसर को लगा कि सीने का दर्द कम हो रहा है। किंतु फिर अचानक छुरी घोंपने जैसी असह्य पीड़ा उठी, जो कंधों, पसलियों व बाँहों को झकझोर गई। उन्होंने घंटी बजाने के लिए हाथ बढ़ाया, पर अकारथ। वहाँ पहुँचने के पहले ही उनकी अँगुलियाँ शिथिल पड़ गईं। उन्होंने कभी सोचा तक नहीं था कि उन्हें इतनी भयंकर पीड़ा होगी, जैसे कोई तीखे पंजों से उनका हृदय भींच रहा हो। उनका दिल घुटने लगा। हाँफते समय उन्हें ख़याल आया कि उनके बाद कबूतरों का क्या होगा?
अगले दिन सुबह जब टेकला उनके कमरे में आई तो उन्हें बड़ी मुश्किल से पहचान सकी। जो आकृति उसे नज़र आई, वह प्रोफ़ेसर की बजाय एक विरूप गुड़िया की थी। चिकनी माटी के उनमान पीला चेहरा। हड्डियाँ एकदम सख़्त। मुँह फटा हुआ, विकृत नाक, दाढ़ी ऊपर की ओर उठी हुई, एक आँख की पलकें चिपकी हुईं, दूसरी आँख अधखुली, मानो किसी अजनबी दुनिया से झाँक रही हो। मोम के सदृश अँगुलियाँ तकिए पर पसरी थीं।
टेकला चिल्लाने लगी। घबराए पड़ोसी अंदर आए। किसी ने रोगी वाहन के लिए तक़ाज़ा किया तो बाहर उसके भोंपू की आवाज़ सुनाई दी। लेकिन जो अंतरंग डॉक्टर भीतर आया, उसने रोगी की सूरत देखते ही गर्दन हिला दी कि उसे अब कुछ भी मदद पहुँचाई नहीं जा सकती। उसने आँखें झुकाकर सीने पर क्रॉस का निशान बनाया।
टेकला चीत्कार कर उठी, उन जानवरों ने इसे मार डाला। मार डाला। इस पर पत्थर फेंके। हैजा हो उन हरामज़ादों को। उन पर पागल कुत्ते छोड़े जाएँ। वे दुष्ट राक्षस! सत्यानाश हो उनका।
“वे कौन हैं? डॉक्टर ने काँपती आवाज़ में पूछा।
“वे अपने ही पॉलिश कसाई थे। गुंडे! जानवर! ख़ूनी!
“हाँ, एक यहूदी!
“ओह!
जब प्रोफ़ेसर जीवित थे, तब उनकी कोई पूछ न थी। किंतु उनकी मृत्यु के पश्चात उनकी कीर्ति के अंबार लग गए। उनकी शोकसभा में विभिन्न संगठनों, अनेक संस्थाओं और विश्वविद्यालयों से लोग आए। मुँह लटकाए हुए उनकी अंत्येष्टि में शामिल हुए। कई प्रमुख प्रतिष्ठानों से तार आए कि वे अपने प्रतिनिधि भेज रहे हैं।
प्रोफ़ेसर का घर फूलों से भर गया। बहुत सारे लेखक, प्राध्यापक, आचार्य व छात्र अत्यंत सम्मान के साथ उनके पार्थिव शरीर को भीगी आँखों से देख रहे थे, क्योंकि प्रोफ़ेसर यूनानी थे, इसलिए यूनानी संस्थाओं ने भजन गाने के लिए दो गायकों को भेजा ताकि दिवंगत आत्मा को शांति मिले। घबराई हुई चिड़ियाँ एक दीवार से दूसरी दीवार पर बैठ रही थीं। उनकी पाँखों में अशांति की फड़फड़ाहट थी। उनकी चहचहाहट में उदासी भरी थी। एक किताब केस से दूसरे किताब केस पर, एक बल्ली से दूसरी बल्ली पर वे बौराई-सी उड़ रही थीं। टेकला ने उन्हें अपने-अपने पिंजरों में डालने का प्रयास किया, पर वह सफल नहीं हुई ।
दो दरवाज़े और खिड़कियाँ लापरवाही से खुली रह गई थीं, उनसे कुछ चिड़ियाँ बाहर निकल आई थीं। एक तोता चिल्ला-चिल्लाकर टेकला को यह सूचित कर रहा था कि फ़ोन की घंटी बज रही है। पर टेकला तो अपना होश ही भूली हुई थी। यूनानी समुदाय के अधिकारी क़ब्रिस्तान के अग्रिम भुगतान के लिए तक़ाज़ा कर रहे थे और एक पॉलिश मेजर जो प्रोफ़ेसर का विद्यार्थी रह चुका था, उन्हें इसके भीषण परिणाम की सूचना दे रहा था।
अगली सुबह एक यूनानी अरथी गली से निकली। काले कपड़ों में ढके शव की सिर्फ़ दो आँखें दिखाई दे रही थीं, मानो बादलों से छाए आसमान से विदा माँग रही हों। जब शव-यात्रा ‘टेक्की ऐवन्यू' से पुराने शहर की ओर बढ़ रही थी तो कबूतरों के झुंड उड़कर छतों पर बैठने लगे। उन कबूतरों की संख्या इतनी अधिक थी कि आसमान तथा इमारतों के बीच की गलियाँ उनसे पूरमपूर छा गईं। सँकरी गली तो शुरू से आख़िर तक इस क़दर धुँधला गई, ऐसा अँधेरा फैल गया, मानो सूरज पूरा अस्त हो गया हो। कबूतर थोड़ी देर के लिए ठौर प्रलंबित हुए, तत्पश्चात एक साथ सत्वर गति से शव-यात्रा को चारों ओर से घेरकर उड़ने लगे।
जो प्रतिनिधि अरथी के नीचे गोल मालाएँ लेकर चल रहे थे, वे आश्चर्यचकित होकर ऊपर देखने लगे। गली के निवासी, क्या बूढ़े, क्या बीमार, अपनी अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए सीने पर सलीब का निशान बना रहे थे। कबूतरों के उस अप्रतिम करिश्मे को सभी आश्चर्य से देख रहे थे। टेकला ने अपने दोनों हाथ काली शाल से बाहर निकाले और फफक-फफक कर रोने लगी।
कबूतरों का पूरा समूह तब तक अरथी के साथ-साथ चलता रहा, जब तक वह 'ब्रोवासी' गली में नहीं पहुँची। जिस कवायद से कबूतरों ने आकाश में गोल घेरा बनाया था, उसमें उनके अनेक पंख, धूप तथा छाँह के बीच में आ रहे थे। कभी लहू की तईं लाल तो कभी सीसे की तरह साँवले। यद्यपि उन पक्षियों की योजनाबद्ध उड़ान न तो शव-यात्रा के आगे थी और न पीछे। जब तक शव-यात्रा फ़रमानस्का और मैरियनस्टेट के प्रतिच्छेदक तक नहीं पहुँची, तब तक कबूतर अपनी गति से उड़ते रहे। फिर उन्होंने एक आख़िरी गोला बनाया और काफ़ी पीछे हो लिए। सभी पंखों वाले मेज़बान अपने संरक्षक की चिर-शांति के लिए फिर उसके साथ-साथ उड़ने लगे।
जाने क्योंकर उन कबूतरों को यह इलहाम हो गया था कि उनके लिए अगली सुबह शरतकाल की तरह उबाऊ व अवसाद-भरी होगी। उस दुःखद स्थिति के बाद ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे आकाश को जंग लग गया हो और वह जर्जरित होकर नीचे झुक आया हो। चिमनी का धुआँ वापस छत पर इकट्ठा होने लगा था। सुइयों की तरह पतली-पतली बारिश हो रही थी। रात के अँधेरे में प्रोफ़ेसर के दरवाज़े पर किसी ने 'स्वास्तिक' का चिह्न बना दिया था। दानों का थैला लेकर टेकला बाहर आई, पर कुछ ही कबूतर नीचे आए। वे सहमे-सहमे झिझकते हुए दाना चुग रहे थे। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था कि प्रतिबंध की अवज्ञा करने पर वे पकड़े जाएँगे। नाली से जले कोयलों की दुर्गंध आ रही थी और आसपास चारों ओर बरबादी का आभास होने लगा था।
jab uski patni ka dehant hua, tab profesar vlaDislav iibashchuts ke paas sirf uski pustken va pakshi bache the. usne itihas ke profesar pad se tyagpatr isliye diya tha ki wo jelpolaski giroh se juDe chhatron ki dainandin harakton ke karan bahut pareshan ho gaya tha. ve chhaatr kaksha mein apni alag pahchan ke liye sone ki vishisht kasidayukt topiyan pahankar hathon mein lohe ki taDiyan ghumate hue, hardam laDne par amada rahte the. kuchhek karnon se iibashchuts ye kabhi samajh nahin pae ki in chhatron ko yahudiyon se itni nafrat kyon hai? unmen se kai chhatron ke arakt chehre, phunsiyon se bhari gardnen, chapti nasikayen aur chauDi thuDDiyan—mano yahudiyon ke prati nafrat ne unhen ek biradri mein baandh diya ho. yahudi chhatron ke liye alag siton ki maang karne vali unki avaz bhi ek si hoti.
vlaDislav iibashchuts mamuli penshan lekar ritayar ho ge, jisse makan ka kiraya va bhojan ka kharch nikalna bhi mushkil tha. kintu buDhape mein ek vyakti ko aur kya chahiye? kamzor ankhonvali uski polish naukarani tekla ek khetihar mahila thi. profesar ne kafi samay pahle hi uski tanakhvah band kar di thi. donon ke hi daant nadarad. isliye tekla donon vaqt soop bana leti. kisi ko bhi ne kapDe va ne juton ki zarurat nahin thi. divangat shrimti iibashchuts ki purani poshaken, soot va pharvale gande kot kafi matra mein paDe hue the, jinhen kitanashak goliyon ne ab tak bacha rakha tha.
pichhle kuch varshon mein profesar ka pustakalaya itna baDh gaya ki sabhi almariyan kitabon se thasathas bhar gain. yahan tak ki kapDon ki almariyon mein, petiyon mein, tahkhane mein, atariyon par kitaben hi kitaben. hastalikhit panDulipiyan bhi. jab tak shrimti iibashchuts jivit rahi, tab tak wo kitabon ko saliqe se rakhti, saaf karti, unki marammat bhi karti, bekar panDulipiyon ko stov mein jala deti, kintu uski mrityu upraant sab kuch upekshit paDa rahta. profesar ne pakshiyon ke darjnon pinjre ikatthe kar liye the, jinmen tote, tuiyan tote aur kanari ityadi tivtiv karte rahte. ve hamesha se hi pakshiyon ko baDa pyaar karte the. pinjre hardam khule rahte taki ve jahan tahan manamarji se uD saken. tekla shikayat karti ki ab usse inki beet saaf nahin hoti. profesar muskrakar kahte, pagli, bhagvan ke jivon mein kaisa bhed? unki to sab chizen saaf suthari hain.
unke liye itna hi kafi nahin tha. ve niymit roop se gali ke kabutron ko dana chugaya karte. paDosi nit saanjh savere unhen danon ka thaila haath mein liye bahar nikalte dekhte. ve bahut hi chhote qad ke vyakti the. peeth jhuki hui, chhitri daDhi jo ab safed se pili hone lagi thi, teDhi meDhi naak, pichka chehra. chashme ke pichhe unki bhaunhen aur bhi ghani nazar atin. ve hamesha hare rang ka phrauk kot pahne rahte. ghumavadar panjenuma plastik ke jute, jo ab bazar mein milne band ho ge the, unke panvon mein rahte. unke khichDinuma baal gol topi se idhar udhar bahar nikle rahte. ve aage vale darvaze se bahar nahin aa pate aur unki avaz sunne se pahle hi kabutar ikatthe ho jate. ve iintvale purane makanon aur charmarog chikitsalay ke asapas lage peDon par baithe rahte. wo gali jismen profesar ka makan tha, nauvi eviyet bulevarD se shuru hoti hui Dhalan se aage vistchula jati thi. garmi ke mausam ke dauran batiya patthron ke beech se ghaas nikalti thi. vahnon ka avagaman kam tha. kabhi kabhar koi arthi atshak ya tvacha ke rogiyon ki lashen Dhoti hui nazar aa jati ya kabhi kabhar pulis ki koi gaDi ratirog se piDit veshyaon ko yahan se le jati hui deekh paDti. kuchhek gharon ke pichhvaDon mein abhi tak hainDpanp hi kaam aate the. buDhe makan malik apne gharon se yada kada hi bahar nikalte the. kabutar shahr ke shorgul se bache rahte the.
profesar tekla se aksar kahte ki unke liye kabutron ko bahlana girjaghar ya kisi yahudi sabhagar mein upasna karne ke saman hai. dana chugne ke liye kabutar har roz saanjh sakare aapka intzaar karte rahen, isse achchhi puja aur kya ho sakti hai! bhagvan ke banaye praniyon ki seva karna hi sachcha dharm hai. kabutron ko dana chugane se profesar ko khushi to hoti hi thi, par ve unse sikhte bhi bahut kuch the. unhonne ek baar talmuD ke uddhran mein paDha ki kabutar yunaniyon ko bahut pasand karte the aur unhen haal hi mein us tulna ka marm achchhi tarah samajh mein aaya tha. kabutron ke paas apni jivika uparjan ke nimitt koi upakran ya hathiyar nahin hote. ve aaj din tak apne aapko logon dvara uchhale ge danon ke aasre hi svasth durust rakhe hue hain. unki ghutarghun ka sangit abhi tak qayam hai. kabutron ko har avaz ya aahat se Dar lagta hai. chhote se pille ko dekhte hi ve ek saath pankhon ko phaDaphDate hue uD jate hain. ve un mainaon ko bhi nahin bhagate, jo inka dana churati hain. yunaniyon ki tarah kabutar bhi shantipriy ya pavitra irade lekar phalte phulte rahe hain, kintu har achar vyvahar ya niyam kayde ka apvad bhi hota hai. jaise yunaniyon mein, vaise kabutron mein bhi koi na koi pariyuddhak namune milte hain, jo apni anuvanshikta ko asvikar karte hain. aise kabutar bhi the, jo dusre kabutron ko bhaga dete. chonch markar chhina jhapti karte. profesar iibashchuts ne sami virodhi tatha yunani samyavadi chhatron ki vajah se vishvavidyalay chhoD diya tha, jo apne svaarth ki khatir dusron ko utpiDit karte the.
itne varshon tak profesar ne adhyayan adhyapan kiya, puralekhon ko paDha, unki chhanabin ki aur vaigyanik patr patrikaon mein lekh likhe, par itihas darshan ke us tathya ke prati hamesha dhyaan kendrit rakha jo ye samjhaye ki manav jati kis disha mein agrasar ho rahi hai? use laDne ke liye kaun badhya kar raha hai? ek samay aisa bhi tha ki jab ghatnaon ke bhautikvadi vishleshan ki or profesar ka dhyaan adhik tha. ve lyukrashiyam, DiDrot, vogt, phyurbauk ke murid the. ve kuch samay tak karlmarks ke bhi prshansak rahe. lekin wo yuvavastha jald hi guzar gai. ab profesar dusri or unmukh hue. ye parivartan prkriti ke uddeshya ki paDtal karne, tathakathit soddeshyon ki sachchai janne aur vigyan ke varjit kshetr ki or baDhne ke liye tha. yadyapi prkriti mein nishchit pariyojana parilakshit hoti hai, par profesar ko ye avyavasthit nazar aai. hum sabhi zaruratmand the—chahe wo yunani ho, chahe iisai ya musalman ho, chahe mahan sikandar, sharlemain, chahe nepoliyan ya hitlar ho. billiyon ke dvara chuhon ka shikar karvakar, baj—sikron ke dvara khargoshon ko marvakar, bhratritv sangh dvara yunaniyon par hamla karvakar bhagvan ko kya milega? use kya siddhi praapt hogi?
tatpashchat profesar ne itihas ke adhyayan se nata toD liya. buDhape mein ve is nishkarsh par pahunche ki sahi mayne mein unhen jeev aur prani—shastr se zyada lagav hai. jiski sahj parinati ye hui ki unhonne kuch hi samay mein pashu pakshiyon par Dheron pustken praapt kar leen. unhen achchhi tarah pata tha ki wo sabalvay se piDit hain aur unki dain ankh bilkul bekar hai. phir bhi ve ek chhoti khurdbin le aaye. unke adhyayan manan ka koi vyavasayik lakshya nahin tha. ve apni atmik unnati ke liye usi lagan se paDhte, jis tarah dharmaprayan log talmuD ka paath karte hain. aur unhin ke unmaan sar hilakar gana gate. apni daDhi ka baal toDkar use yatnpurvak slaiD par rakhkar ve khurdbin se niche dekhte. har baal ki apni jatil rachna hoti hai. tekla ke khubsurat guldaste se shantimay vatavran banta, jisse profesar ki aatma punarjivit ho uthti. jab ve khurdbin ke paas baithkar apne kaam mein mashghul hote to tuiyan tote chahchahate, bolte, ghumte, kanari mithe svar mein gati, tote batachit karte, ek dusre ko bandar, ullu ya bhukkhaD kahte—tekla ki ganvai boli ke lahze mein. bhagvan ke paropakar ya uski karuna par vishvas karna itna asan nahin tha, magar uska astitv kan kan mein vyaapt tha.
tekla bhi chhote qad ki thi. chechakru. baal uske barik the, nukile, jinmen safedi jhankne lagi thi. phike rang ka pahnava aur tuti phuti chappal. billi ke unmaan, uski hari ankhen galon ke uupar se dikhai de rahi theen. uska ek paanv joDon ke dard se piDit tha, jis par vilep aur marham laga hua tha, jo kisi parichit hakim ne niःshulk diya tha. apne bhagvan ki aradhana karne ke liye wo girjaghar jane vali thi. usne profesar ke paas aakar kaha, mainne doodh garam kar diya hai.
mujhe nahin chahiye.
usmen kaufi ka ek chammach mila doon?
dhanyavad tekla, mujhe kuch nahin chahiye.
“tumhara gala sookh jayega.
yah kahan likha hai ki gala gila rakhna zaruri hai?
tekla ne koi javab nahin diya. kintu wo gai nahin. jab shrimti iibashchuts marnasann thi, tab usne man hi man qasam khai thi ki wo profesar ka khayal rakhegi. thoDi der baad ve kursi se uthe. ve ek vishesh takiye par baithte the taki unki himroiDs mein jalan na ho.
‘kya tum ab tak yahin ho, tekla?’ profesar ne munh banakar kaha, ‘tum bhi meri patni ki tarah ziddi ho. uski aatma ko shanti mile!’
‘profesar! davai ka vaqt ho gaya hai. ‘
‘kaun si davai? bevaquf! koi dil hamesha nahin dhaDak sakta. ’
profesar ne avarddhak lens da barDs auf polainD pustak ke khule pannon par rakha aur apne pakshiyon ki dekhbhal ke liye chal paDe. gali ke kabutron ko dana chugane mein unhen sachmuch khushi hoti thi. magar khule pinjron mein rahne vale pakshiyon ka khyaal rakhna baDi mehnat tatha satarkata ka kaam tha. tekla ke liye ek bhi din aisa nahin guzarta jab us par vipatti na aati ho. kabhi koi tuiyan tota kitab ya kivaD ke pichhe phans jata, usko vahan se yatnpurvak nikalna paDta. par tuiyan tote aapas mein laDte. profesar ne sabhi chiDiyon ki naslon ke liye alag alag vyavastha ki thi. lekin tekla bhool jati aur darvaza adhakhula chhoD deti. ek baar vasant ka daur tha. khiDkiyan kholi nahin ja sakti theen. phalasvarup silan bhari hava se beet ki gandh aa rahi thi. niymanusar panchhi raat ko sote the, phir bhi koi pakheru duःsvapn ke karan jaag uthta. andhere mein idhar udhar phaDaphData. roshni jalani paDti taki pakheru apne aapko maar na Dale. kuch danon ke badle ye pakheru profesar ko kya sukh pahunchate? ek tuiyan tote ne bahut sare shabd seekh liye the aur kuchhek pure vakya bhi. usne apna chakkas profesar ki ganji khopaDi ko banaya. kaan ki lolak mein chonch marta. chashme ki DanDi par chaDh jata. kabhi kabhar likhte samay unki tarjani par kalabazi karta. profesar ko gahrai se ye ehsaas hone laga tha ki ye pakshi kitne samajhdar hain. kitna asadharan hai inka achran. kitna uchch hai inka vyaktitv. itne salon se dekhte rahne ke bavjud unhen aaj bhi inki harakton se kam ashcharya nahin hota. profesar ko ye jankar baDi khushi hoti ki in jivon ko paroksh aproksh roop se itihas ka koi bodh nahin hai. ye parampara ya anya sanskaron se purnatya mukt hain. sare sahasik karyon ko turant bhula diya jata hai. har din inki ek nai shuruat hoti hai. phir bhi ek apvad avashya nazar aaya. unhonne ek baar dekha ki ek nar tuiyan tota apne sathi ke marne par gam mein ghula ja raha hai. udaas hai. pakshiyon ko akarshit karne ki prvritti, ghrina, vyavdhan, badle ki bhavna aur atmahatya ke drishtant bhi dekhe. bhagvan ya qudrat ka diya hua vivek, pankhon ki banavat, anDe dene ka kaushal aur rang badalne ki nirbhik prakriya in sab mein ek nihit uddeshya hai. ye sab kyonkar ghatit hota hai? anuvanshikta, gunsutr ya jeens? apni patni ki mrityu ke baad profesar apne aap se hi batachit karne lage the. kabhi kabhar prachin pratibhaon ke prati matbhed bhi ujagar hote rahe the. ve Darvin se kahte, nahin chaarls, nahin, tumhare siddhant ye paheli suljhane mein saksham nahi hain. shriman lemark, tumhare siddhant bhi aparyapt hain. phir se sochna zaruri hai.
us duphar apni davai lene ke baad profesar ne ek thaile mein alsi, bajra va sukhe matar bhare aur kabutron ko chugga Dalne ke liye ve bahar nikle. halanki wo mai ka mahina tha. barish ke karan thanDi thanDi hava chal rahi thi. filhal visatyula mein barsat tham gai thi aur dhoop badlon ko chirti hui nikal aai thi, paralaukik kulhaDi ke unmaan. jyon hi profesar bahar aaye charon taraph se kabutar ek saath jhapte. kuch atirek utavli mein topi ke paas pankh phaDphaDane lage. mano topi niche girane ki khatir kheej uthe hon. profesar ko malum tha ki thaile mein paryapt dane nahin hain, isliye unhonne jaldi jaldi chugga uchhalna shuru kiya. taki ve aapas mein jhagDen nahin, kintu tab tak to chhina jhapti ka daur chal paDa tha. kuch to ek dusre ke uupar chaDhkar door dhakelne ki cheshta kar rahe the. tis par gali kafi sankari thi aur kabutron ka jhunD bahut baDa tha. ve honthon hi honthon mein budabudaye, bechare pakshi kitne bhukhe hain! unhen malum tha ki kabutron ko khilane mein unki samasya kabhi nahin suljhegi. ve jitna adhik chugga Dalenge, kabutron ki sankhya utni hi baDhti rahegi. profesar ne paDha tha ki astreliya mein kabutar itne baDh ge hain ki inke vazan se kai chhaten tak Dhah paDi hain. is aviram dauD dhoop mein bhala prkriti ke niymon ki kaun avhelana kar sakta hai? aur na hi in jivon ko bhukhe marne ke liye koi chhoD sakta hai.
dhoop jis haul mein anaj ki bori rakhi thi, ve lautkar vahan aaye. pura thaila bhara aur man hi man budabudaye, asha karta hoon ki ve ruke rahenge. jab ve bahar aaye to unki aasha ke anurup pankshi vahin par hi maujud the. dhanyavad! dhanyavad! unhonne kaha aur atishay dharmotsah ki vajah se kuch pareshan bhi hue. ve idhar udhar dane uchhalne lage to unke haath paanv kaanp uthe. mutthiyon se phisalkar panvon ke paas hi gir paDe. kabutar besabri se unke kandhon par, bhujaon par pankhe phaDaphDate hue unhen nochne lage. ek sahasi kabutar to thaile par hi baithkar anaj khane ki koshish karne laga.
achanak ek patthar profesar iibashchuts ke lalat par laga, yakayak to unhen pata hi nahin chala ki ye kya hua? tab tak do patthar aur lage. ek kohni par aur dusra gardan par.
sabhi kabutar ek saath uDe, mano hava ka tufan utha ho. ve kisi tarah ghar ke andar aane mein kamyab hue. unhonne kai baar patrikaon mein paDha tha ki yunaniyon par saiksni baghichon mein aur upanagron mein gunDon dvara hamle kiye jate hain. kintu unke saath kabhi aisa nahin hua. ve asmanjas mein the ki unhen chot kahan zyada lagi hai? lalat par ya unke aham par! kya hum itne gir chuke hain? ve budabudaye. tekla khiDki se sara majara dekh rahi thi. wo ghusse mein bhunabhunati unke paas aai. phuphkarte hue un dushton ko maar badaduaen dene lagi. phir achanak dauDkar rasoi mein angochha bhigone gai. profesar ne topi utarkar lalat ke tiste gumDe ko chhukar dekha. tab tak tekla gila angochha lekar laut aai. unhen sone ke kamre mein le gai. kot utarkar litaya. upchaar karte samay bhi uska baDbaDana jari tha, “bhagvan unhen bharpur danD dena. un par falij gire! unhen koDh nikle!
“bas tekla, bas.
“agar yahi hamara polainD hai to ise aag lag jani chahiye.
polainD mein achchhe log bhi rahte hain.
“talchhat, veshya, koDhi, kutte!
tekla bahar gai. shayad pulis ko bulane. kintu profesar ne paDosiyon se shikayat karte tatha chillate hue use suna. kuch der baad sab kuch shaant ho gaya. jab tekla akeli hi vapas aai to unhonne socha—nahin, wo pulis ko bulane nahin gai. wo bechaini se baDbaDati hui rasoi mein ghoom rahi thi. profesar ne apni ankhen band kar leen. “der saber tumhein apni khaal par sab kuch sahn karna paDega. main dusre piDit vyaktiyon ki apeksha kis mane mein shreshth hoon. yahi itihas hai. itne barson tak mainne yahi dimagh mein bhar rakha tha.
yahudi shabd unhonne kafi samay se bhula diya tha. aaj achanak unke dimagh mein kaundha—reshyim, ek dusht adami! wo dusht hi hai jo apna itihas banata hai.
profesar ek minat ke liye stabdh rah ge. itne salon se jis uttar ki unhen talash thi, wo ek kshan mein aspasht ho gaya. gunDon dvara un par patthar phenkne aur nyutan dvara seb ko niche girte dekhne mein paraspar kitna samya tha. surya ke ujale ki tarah sachchai unke samne prajvalit ho uthi, jo kisi bhi samay ke liye amanya nahin ho sakti. sabhi vidhanon ki ek si parinati hoti hai. har piDhi mein koi na koi adami aisa hota hi hai, jo jhooth bolta hai, khoon kharaba karta hai, danga fasad karta hai. dushtata ya barbarta kabhi ruk nahin sakti, chahe wo yuddh ke roop mein ho, chahe kranti ke roop mein. chahe apne jhanDe ke niche laDe ya dusre jhanDe ke niche laDe. chahe kuch bhi nara ho, kuch bhi vaad ho—maqsad ek hi rahta— khoon bahana, dusron ko atankit karna, utpiDit karna. ek hi uddeshya ne maisDoniya ke elekzenDar, hemilkar, changez khaan, sharlemain, shamilnitski, nepoliyan, raubraspiyar aur lenin ko sangthit kiya. itna asan.
gurutvakarshan ka siddhant bhi asan tha, isliye uske avishkar mein itna samay laga.
vlaDislav iibashchuts ko shaam hote hote neend aane lagi. unhonne apne aap se kaha, nahin, ye itna asan nahin ho sakta. tekla ne profesar ke mathe par barf ka senk kiya. purnatya ashvast hone ke liye wo Dauktar ko bulana chahti thi, par profesar ne mana kar diya. unhen Dauktar va paDosiyon ke rubaru hone mein sharm mahsus ho rahi thi. tekla ne jai ka ghol karke unhen pilaya. ve hamesha sone se pahle pinjron ki sanbhal karte, unmen taza pani bharte, dane va sabjiyan Dalte aur mitti bhi badalte, kintu us shaam profesar ne sab kaam tekla par chhoD diya. usne battiyan bujha deen. kuch tuiyan tote profesar ke kamre mein hi pinjron mein band the. kuch parde ki DanDi par so ge. halanki profesar thake hue the, phir bhi unhen turant neend nahin aai. unki durust ankh ka uupri hissa sooj gaya tha, jisse palak jhapkane mein unhen kathinai ho rahi thi. unhonne iishvar se pararthna ki ki kahin ve puri tarah se andhe na ho jayen. andha hone ki bajay to mar jana hi behtar hai. uungh aate hi unhonne sapne mein ek vichitr dharti dekhi—jahan ekdam nai prakritik chhata bikhri paDi thi, jise unhonne pahle kabhi nahin dekha—hare bhare pahaD, rahasyamyi ghatiyan, lubhavne baghiche—gahar ghumer gaachh birchhon se achchhadit aur rang birange phulon ka bichhauna. main kahan hoon?” ve neend mein baDabDaye, itli men”, “afganistan men? niche ki zamin is tarah khisak rahi thi, mano havai jahaz mein baithe hon ya antriksh mein latke hue hon. kya main prithvi ki gurutvakarshan shakti ki pahunch se pare hoon? ve duvidha mein phans ge ki akhir ye hua kyonkar? yahan to koi vayumanDal bhi nahin. ve phir budabudaye, “uphph! kahin mera dam na ghut jaye. akasmat unki neend uchat gai. samajh nahin paDa ki ve hain kahan? mathe par kuch dabav mahsus hua. haath se sparsh karte hi unhen ashcharya hua, mere sir par ye patti kyon bandhi hai? is parashn ke saath hi achanak unhen sab yaad aa gaya. “haan, itihas dushton ne hi banaya hai. mainne nyutan ke itihas ka sootr khoj liya hai. mujhe apna shodhkarya phir se prarambh karna hoga. oh. . . . unhen apne sine mein bain taraf tikha dard mahsus hua. ve lete lete hi dil ki dhaDaknen sunte rahe.
hriday shool ke liye unke paas goliyan theen, kintu ve paDhne vale kamre ki daraz mein rakhi hui theen. unki divangat patni stefni ne unhen ek chhoti si ghanti de rakhi thi. raat ko jab bhi unki tabiyat kharab ho to ve ghanti bajakar tekla ko bula len, kintu profesar ki ichchha nahin hoti ki ve ghanti bajayen, yahan tak ki raat ki hari batti tak jalane mein bhi unhen hichkichahat hoti. pakshiyon ko avaz va roshni se baDa Dar lagta tha.
unhonne socha—tekla din bhar ke kamakaj se thak gai hogi. tis par is apriy ghatna ki vajah se wo theek tarah se so bhi nahin pai hogi. gunDon ke achite akrman se wo unki apeksha zyada pareshan hui thi. chand ghaDiyon ki neend ke alava bechari ke paas aur hai hi kyaa? na koi rishtedar, na koi dost aur na koi santan. profesar ne tekla ke naam vasiyat to likh di, lekin un aprakashit panDulipiyon ka mulya hi kya tha, uske liye!
ek naya sootr. . . .
kuch der baad profesar ko laga ki sine ka dard kam ho raha hai. kintu phir achanak chhuri ghompne jaisi asahya piDa uthi, jo kandhon, pasaliyon va banhon ko jhakjhor gai. unhonne ghanti bajane ke liye haath baDhaya, par akarath. vahan pahunchne ke pahle hi unki anguliyan shithil paD gain. unhonne kabhi socha tak nahin tha ki unhen itni bhayankar piDa hogi, jaise koi tikhe panjon se unka hriday bheench raha ho. unka dil ghutne laga. hanphate samay unhen khayal aaya ki unke baad kabutron ka kya hoga?
agle din subah jab tekla unke kamre mein aai to unhen baDi mushkil se pahchan saki. jo akriti use nazar aai, wo profesar ki bajay ek virup guDiya ki thi. chikni mati ke unmaan pila chehra. haDDiyan ekdam sakht. munh phata hua, vikrit naak, daDhi uupar ki or uthi hui, ek ankh ki palken chipki huin, dusri ankh adhakhuli, mano kisi ajnabi duniya se jhaank rahi ho. mom ke sadrish anguliyan takiye par pasri theen.
tekla chillane lagi. ghabraye paDosi andar aaye. kisi ne rogi vahan ke liye taqaza kiya to bahar uske bhompu ki avaz sunai di. lekin jo antrang Dauktar bhitar aaya, usne rogi ki surat dekhte hi gardan hila di ki use ab kuch bhi madad pahunchai nahin ja sakti. usne ankhen jhukakar sine par kraus ka nishan banaya.
tekla chitkar kar uthi, un janavron ne ise maar Dala. maar Dala. is par patthar phenke. haija ho un haramzadon ko. un par pagal kutte chhoDe jayen. ve dusht rakshas! satyanash ho unka.
“ve kaun hain? Dauktar ne kanpti avaz mein puchha.
“ve apne hi paulish kasai the. gunDe! janvar! khuni!
“haan, ek yahudi!
“oh!
jab profesar jivit the, tab unki koi poochh na thi. kintu unki mrityu ke pashchat unki kirti ke ambar lag ge. unki shokasbha mein vibhinn sangathnon, anek sansthaon aur vishvvidyalyon se log aaye. munh latkaye hue unki antyeshti mein shamil hue. kai pramukh prtishthanon se taar aaye ki ve apne pratinidhi bhej rahe hain.
profesar ka ghar phulon se bhar gaya. bahut sare lekhak, pradhyapak, acharya va chhaatr atyant samman ke saath unke parthiv sharir ko bhigi ankhon se dekh rahe the, kyonki profesar yunani the, isliye yunani sansthaon ne bhajan gane ke liye do gaykon ko bheja taki divangat aatma ko shanti mile. ghabrai hui chiDiyan ek divar se dusri divar par baith rahi theen. unki pankhon mein ashanti ki phaDphaDahat thi. unki chahchahahat mein udasi bhari thi. ek kitabkes se dusre kitabkes par, ek balli se dusri balli par ve baurai si uD rahi theen. tekla ne unhen apne apne pinjron mein Dalne ka prayas kiya, par wo saphal nahin hui.
do darvaze aur khiDkiyan laparvahi se khuli rah gai theen, unse kuch chiDiyan bahar nikal aai theen. ek tota chilla chillakar tekla ko ye suchit kar raha tha ki fon ki ghanti baj rahi hai. par tekla to apna hosh hi bhuli hui thi. yunani samuday ke adhikari qabristan ke agrim bhugtan ke liye taqaza kar rahe the aur ek paulish mejar jo profesar ka vidyarthi rah chuka tha, unhen iske bhishan parinam ki suchana de raha tha.
agli subah ek yunani arthi gali se nikli. kale kapDon mein Dhake shav ki sirf do ankhen dikhai de rahi theen, mano badlon se chhaye asman se vida maang rahi hon. jab shav yatra ‘tekki aivanyu se purane shahr ki or baDh rahi thi to kabutron ke jhunD uDkar chhaton par baithne lage. un kabutron ki sankhya itni adhik thi ki asman tatha imarton ke beech ki galiyan unse purampur chha gain. sankari gali to shuru se akhir tak is qadar dhundhla gai, aisa andhera phail gaya, mano suraj pura ast ho gaya ho. kabutar thoDi der ke liye thaur prlambit hue, tatpashchat ek saath satvar gati se shav yatra ko charon or se gherkar uDne lage.
jo pratinidhi arthi ke niche gol malayen lekar chal rahe the, ve ashcharyachkit hokar uupar dekhne lage. gali ke nivasi, kya buDhe, kya bimar, apni antim shraddhanjali dene ke liye sine par salib ka nishan bana rahe the. kabutron ke us apratim karishme ko sabhi ashcharya se dekh rahe the. tekla ne apne donon haath kali shaal se bahar nikale aur phaphak phaphak kar rone lagi.
kabutron ka pura samuh tab tak arthi ke saath saath chalta raha, jab tak wo brovasi gali mein nahin pahunchi. jis kavayad se kabutron ne akash mein gol ghera banaya tha, usmen unke anek pankh, dhoop tatha chhaanh ke beech mein aa rahe the. kabhi lahu ki tain laal to kabhi sise ki tarah sanvle. yadyapi un pakshiyon ki yojanabaddh uDaan na to shav yatra ke aage thi aur na pichhe. jab tak shav yatra farmanaska aur mairiynastet ke prtichchhedak tak nahin pahunchi, tab tak kabutar apni gati se uDte rahe. phir unhonne ek akhiri gola banaya aur kafi pichhe ho liye. sabhi pankhonvale mezban apne sanrakshak ki chir shanti ke liye phir uske saath saath uDne lage.
jane kyonkar un kabutron ko ye ilhaam ho gaya tha ki unke liye agli subah sharatkal ki tarah ubau va avsad bhari hogi. us dukhad sthiti ke baad aisa mahsus ho raha tha, jaise akash ko jang lag gaya ho aur wo jarjarit hokar niche jhuk aaya ho. chimani ka dhuan vapas chhat par ikattha hone laga tha. suiyon ki tarah patli patli barish ho rahi thi. raat ke andhere mein profesar ke darvaze par kisi ne svastik ka chihn bana diya tha. danon ka thaila lekar tekla bahar aai, par kuch hi kabutar niche aaye. ve sahme sahme jhijhakte hue dana chug rahe the. unhen aisa mahsus ho raha tha ki pratibandh ki avagya karne par ve pakDe jayenge. nali se jale koylon ki durgandh aa rahi thi aur asapas charon or barbadi ka abhas hone laga tha.
jab uski patni ka dehant hua, tab profesar vlaDislav iibashchuts ke paas sirf uski pustken va pakshi bache the. usne itihas ke profesar pad se tyagpatr isliye diya tha ki wo jelpolaski giroh se juDe chhatron ki dainandin harakton ke karan bahut pareshan ho gaya tha. ve chhaatr kaksha mein apni alag pahchan ke liye sone ki vishisht kasidayukt topiyan pahankar hathon mein lohe ki taDiyan ghumate hue, hardam laDne par amada rahte the. kuchhek karnon se iibashchuts ye kabhi samajh nahin pae ki in chhatron ko yahudiyon se itni nafrat kyon hai? unmen se kai chhatron ke arakt chehre, phunsiyon se bhari gardnen, chapti nasikayen aur chauDi thuDDiyan—mano yahudiyon ke prati nafrat ne unhen ek biradri mein baandh diya ho. yahudi chhatron ke liye alag siton ki maang karne vali unki avaz bhi ek si hoti.
vlaDislav iibashchuts mamuli penshan lekar ritayar ho ge, jisse makan ka kiraya va bhojan ka kharch nikalna bhi mushkil tha. kintu buDhape mein ek vyakti ko aur kya chahiye? kamzor ankhonvali uski polish naukarani tekla ek khetihar mahila thi. profesar ne kafi samay pahle hi uski tanakhvah band kar di thi. donon ke hi daant nadarad. isliye tekla donon vaqt soop bana leti. kisi ko bhi ne kapDe va ne juton ki zarurat nahin thi. divangat shrimti iibashchuts ki purani poshaken, soot va pharvale gande kot kafi matra mein paDe hue the, jinhen kitanashak goliyon ne ab tak bacha rakha tha.
pichhle kuch varshon mein profesar ka pustakalaya itna baDh gaya ki sabhi almariyan kitabon se thasathas bhar gain. yahan tak ki kapDon ki almariyon mein, petiyon mein, tahkhane mein, atariyon par kitaben hi kitaben. hastalikhit panDulipiyan bhi. jab tak shrimti iibashchuts jivit rahi, tab tak wo kitabon ko saliqe se rakhti, saaf karti, unki marammat bhi karti, bekar panDulipiyon ko stov mein jala deti, kintu uski mrityu upraant sab kuch upekshit paDa rahta. profesar ne pakshiyon ke darjnon pinjre ikatthe kar liye the, jinmen tote, tuiyan tote aur kanari ityadi tivtiv karte rahte. ve hamesha se hi pakshiyon ko baDa pyaar karte the. pinjre hardam khule rahte taki ve jahan tahan manamarji se uD saken. tekla shikayat karti ki ab usse inki beet saaf nahin hoti. profesar muskrakar kahte, pagli, bhagvan ke jivon mein kaisa bhed? unki to sab chizen saaf suthari hain.
unke liye itna hi kafi nahin tha. ve niymit roop se gali ke kabutron ko dana chugaya karte. paDosi nit saanjh savere unhen danon ka thaila haath mein liye bahar nikalte dekhte. ve bahut hi chhote qad ke vyakti the. peeth jhuki hui, chhitri daDhi jo ab safed se pili hone lagi thi, teDhi meDhi naak, pichka chehra. chashme ke pichhe unki bhaunhen aur bhi ghani nazar atin. ve hamesha hare rang ka phrauk kot pahne rahte. ghumavadar panjenuma plastik ke jute, jo ab bazar mein milne band ho ge the, unke panvon mein rahte. unke khichDinuma baal gol topi se idhar udhar bahar nikle rahte. ve aage vale darvaze se bahar nahin aa pate aur unki avaz sunne se pahle hi kabutar ikatthe ho jate. ve iintvale purane makanon aur charmarog chikitsalay ke asapas lage peDon par baithe rahte. wo gali jismen profesar ka makan tha, nauvi eviyet bulevarD se shuru hoti hui Dhalan se aage vistchula jati thi. garmi ke mausam ke dauran batiya patthron ke beech se ghaas nikalti thi. vahnon ka avagaman kam tha. kabhi kabhar koi arthi atshak ya tvacha ke rogiyon ki lashen Dhoti hui nazar aa jati ya kabhi kabhar pulis ki koi gaDi ratirog se piDit veshyaon ko yahan se le jati hui deekh paDti. kuchhek gharon ke pichhvaDon mein abhi tak hainDpanp hi kaam aate the. buDhe makan malik apne gharon se yada kada hi bahar nikalte the. kabutar shahr ke shorgul se bache rahte the.
profesar tekla se aksar kahte ki unke liye kabutron ko bahlana girjaghar ya kisi yahudi sabhagar mein upasna karne ke saman hai. dana chugne ke liye kabutar har roz saanjh sakare aapka intzaar karte rahen, isse achchhi puja aur kya ho sakti hai! bhagvan ke banaye praniyon ki seva karna hi sachcha dharm hai. kabutron ko dana chugane se profesar ko khushi to hoti hi thi, par ve unse sikhte bhi bahut kuch the. unhonne ek baar talmuD ke uddhran mein paDha ki kabutar yunaniyon ko bahut pasand karte the aur unhen haal hi mein us tulna ka marm achchhi tarah samajh mein aaya tha. kabutron ke paas apni jivika uparjan ke nimitt koi upakran ya hathiyar nahin hote. ve aaj din tak apne aapko logon dvara uchhale ge danon ke aasre hi svasth durust rakhe hue hain. unki ghutarghun ka sangit abhi tak qayam hai. kabutron ko har avaz ya aahat se Dar lagta hai. chhote se pille ko dekhte hi ve ek saath pankhon ko phaDaphDate hue uD jate hain. ve un mainaon ko bhi nahin bhagate, jo inka dana churati hain. yunaniyon ki tarah kabutar bhi shantipriy ya pavitra irade lekar phalte phulte rahe hain, kintu har achar vyvahar ya niyam kayde ka apvad bhi hota hai. jaise yunaniyon mein, vaise kabutron mein bhi koi na koi pariyuddhak namune milte hain, jo apni anuvanshikta ko asvikar karte hain. aise kabutar bhi the, jo dusre kabutron ko bhaga dete. chonch markar chhina jhapti karte. profesar iibashchuts ne sami virodhi tatha yunani samyavadi chhatron ki vajah se vishvavidyalay chhoD diya tha, jo apne svaarth ki khatir dusron ko utpiDit karte the.
itne varshon tak profesar ne adhyayan adhyapan kiya, puralekhon ko paDha, unki chhanabin ki aur vaigyanik patr patrikaon mein lekh likhe, par itihas darshan ke us tathya ke prati hamesha dhyaan kendrit rakha jo ye samjhaye ki manav jati kis disha mein agrasar ho rahi hai? use laDne ke liye kaun badhya kar raha hai? ek samay aisa bhi tha ki jab ghatnaon ke bhautikvadi vishleshan ki or profesar ka dhyaan adhik tha. ve lyukrashiyam, DiDrot, vogt, phyurbauk ke murid the. ve kuch samay tak karlmarks ke bhi prshansak rahe. lekin wo yuvavastha jald hi guzar gai. ab profesar dusri or unmukh hue. ye parivartan prkriti ke uddeshya ki paDtal karne, tathakathit soddeshyon ki sachchai janne aur vigyan ke varjit kshetr ki or baDhne ke liye tha. yadyapi prkriti mein nishchit pariyojana parilakshit hoti hai, par profesar ko ye avyavasthit nazar aai. hum sabhi zaruratmand the—chahe wo yunani ho, chahe iisai ya musalman ho, chahe mahan sikandar, sharlemain, chahe nepoliyan ya hitlar ho. billiyon ke dvara chuhon ka shikar karvakar, baj—sikron ke dvara khargoshon ko marvakar, bhratritv sangh dvara yunaniyon par hamla karvakar bhagvan ko kya milega? use kya siddhi praapt hogi?
tatpashchat profesar ne itihas ke adhyayan se nata toD liya. buDhape mein ve is nishkarsh par pahunche ki sahi mayne mein unhen jeev aur prani—shastr se zyada lagav hai. jiski sahj parinati ye hui ki unhonne kuch hi samay mein pashu pakshiyon par Dheron pustken praapt kar leen. unhen achchhi tarah pata tha ki wo sabalvay se piDit hain aur unki dain ankh bilkul bekar hai. phir bhi ve ek chhoti khurdbin le aaye. unke adhyayan manan ka koi vyavasayik lakshya nahin tha. ve apni atmik unnati ke liye usi lagan se paDhte, jis tarah dharmaprayan log talmuD ka paath karte hain. aur unhin ke unmaan sar hilakar gana gate. apni daDhi ka baal toDkar use yatnpurvak slaiD par rakhkar ve khurdbin se niche dekhte. har baal ki apni jatil rachna hoti hai. tekla ke khubsurat guldaste se shantimay vatavran banta, jisse profesar ki aatma punarjivit ho uthti. jab ve khurdbin ke paas baithkar apne kaam mein mashghul hote to tuiyan tote chahchahate, bolte, ghumte, kanari mithe svar mein gati, tote batachit karte, ek dusre ko bandar, ullu ya bhukkhaD kahte—tekla ki ganvai boli ke lahze mein. bhagvan ke paropakar ya uski karuna par vishvas karna itna asan nahin tha, magar uska astitv kan kan mein vyaapt tha.
tekla bhi chhote qad ki thi. chechakru. baal uske barik the, nukile, jinmen safedi jhankne lagi thi. phike rang ka pahnava aur tuti phuti chappal. billi ke unmaan, uski hari ankhen galon ke uupar se dikhai de rahi theen. uska ek paanv joDon ke dard se piDit tha, jis par vilep aur marham laga hua tha, jo kisi parichit hakim ne niःshulk diya tha. apne bhagvan ki aradhana karne ke liye wo girjaghar jane vali thi. usne profesar ke paas aakar kaha, mainne doodh garam kar diya hai.
mujhe nahin chahiye.
usmen kaufi ka ek chammach mila doon?
dhanyavad tekla, mujhe kuch nahin chahiye.
“tumhara gala sookh jayega.
yah kahan likha hai ki gala gila rakhna zaruri hai?
tekla ne koi javab nahin diya. kintu wo gai nahin. jab shrimti iibashchuts marnasann thi, tab usne man hi man qasam khai thi ki wo profesar ka khayal rakhegi. thoDi der baad ve kursi se uthe. ve ek vishesh takiye par baithte the taki unki himroiDs mein jalan na ho.
‘kya tum ab tak yahin ho, tekla?’ profesar ne munh banakar kaha, ‘tum bhi meri patni ki tarah ziddi ho. uski aatma ko shanti mile!’
‘profesar! davai ka vaqt ho gaya hai. ‘
‘kaun si davai? bevaquf! koi dil hamesha nahin dhaDak sakta. ’
profesar ne avarddhak lens da barDs auf polainD pustak ke khule pannon par rakha aur apne pakshiyon ki dekhbhal ke liye chal paDe. gali ke kabutron ko dana chugane mein unhen sachmuch khushi hoti thi. magar khule pinjron mein rahne vale pakshiyon ka khyaal rakhna baDi mehnat tatha satarkata ka kaam tha. tekla ke liye ek bhi din aisa nahin guzarta jab us par vipatti na aati ho. kabhi koi tuiyan tota kitab ya kivaD ke pichhe phans jata, usko vahan se yatnpurvak nikalna paDta. par tuiyan tote aapas mein laDte. profesar ne sabhi chiDiyon ki naslon ke liye alag alag vyavastha ki thi. lekin tekla bhool jati aur darvaza adhakhula chhoD deti. ek baar vasant ka daur tha. khiDkiyan kholi nahin ja sakti theen. phalasvarup silan bhari hava se beet ki gandh aa rahi thi. niymanusar panchhi raat ko sote the, phir bhi koi pakheru duःsvapn ke karan jaag uthta. andhere mein idhar udhar phaDaphData. roshni jalani paDti taki pakheru apne aapko maar na Dale. kuch danon ke badle ye pakheru profesar ko kya sukh pahunchate? ek tuiyan tote ne bahut sare shabd seekh liye the aur kuchhek pure vakya bhi. usne apna chakkas profesar ki ganji khopaDi ko banaya. kaan ki lolak mein chonch marta. chashme ki DanDi par chaDh jata. kabhi kabhar likhte samay unki tarjani par kalabazi karta. profesar ko gahrai se ye ehsaas hone laga tha ki ye pakshi kitne samajhdar hain. kitna asadharan hai inka achran. kitna uchch hai inka vyaktitv. itne salon se dekhte rahne ke bavjud unhen aaj bhi inki harakton se kam ashcharya nahin hota. profesar ko ye jankar baDi khushi hoti ki in jivon ko paroksh aproksh roop se itihas ka koi bodh nahin hai. ye parampara ya anya sanskaron se purnatya mukt hain. sare sahasik karyon ko turant bhula diya jata hai. har din inki ek nai shuruat hoti hai. phir bhi ek apvad avashya nazar aaya. unhonne ek baar dekha ki ek nar tuiyan tota apne sathi ke marne par gam mein ghula ja raha hai. udaas hai. pakshiyon ko akarshit karne ki prvritti, ghrina, vyavdhan, badle ki bhavna aur atmahatya ke drishtant bhi dekhe. bhagvan ya qudrat ka diya hua vivek, pankhon ki banavat, anDe dene ka kaushal aur rang badalne ki nirbhik prakriya in sab mein ek nihit uddeshya hai. ye sab kyonkar ghatit hota hai? anuvanshikta, gunsutr ya jeens? apni patni ki mrityu ke baad profesar apne aap se hi batachit karne lage the. kabhi kabhar prachin pratibhaon ke prati matbhed bhi ujagar hote rahe the. ve Darvin se kahte, nahin chaarls, nahin, tumhare siddhant ye paheli suljhane mein saksham nahi hain. shriman lemark, tumhare siddhant bhi aparyapt hain. phir se sochna zaruri hai.
us duphar apni davai lene ke baad profesar ne ek thaile mein alsi, bajra va sukhe matar bhare aur kabutron ko chugga Dalne ke liye ve bahar nikle. halanki wo mai ka mahina tha. barish ke karan thanDi thanDi hava chal rahi thi. filhal visatyula mein barsat tham gai thi aur dhoop badlon ko chirti hui nikal aai thi, paralaukik kulhaDi ke unmaan. jyon hi profesar bahar aaye charon taraph se kabutar ek saath jhapte. kuch atirek utavli mein topi ke paas pankh phaDphaDane lage. mano topi niche girane ki khatir kheej uthe hon. profesar ko malum tha ki thaile mein paryapt dane nahin hain, isliye unhonne jaldi jaldi chugga uchhalna shuru kiya. taki ve aapas mein jhagDen nahin, kintu tab tak to chhina jhapti ka daur chal paDa tha. kuch to ek dusre ke uupar chaDhkar door dhakelne ki cheshta kar rahe the. tis par gali kafi sankari thi aur kabutron ka jhunD bahut baDa tha. ve honthon hi honthon mein budabudaye, bechare pakshi kitne bhukhe hain! unhen malum tha ki kabutron ko khilane mein unki samasya kabhi nahin suljhegi. ve jitna adhik chugga Dalenge, kabutron ki sankhya utni hi baDhti rahegi. profesar ne paDha tha ki astreliya mein kabutar itne baDh ge hain ki inke vazan se kai chhaten tak Dhah paDi hain. is aviram dauD dhoop mein bhala prkriti ke niymon ki kaun avhelana kar sakta hai? aur na hi in jivon ko bhukhe marne ke liye koi chhoD sakta hai.
dhoop jis haul mein anaj ki bori rakhi thi, ve lautkar vahan aaye. pura thaila bhara aur man hi man budabudaye, asha karta hoon ki ve ruke rahenge. jab ve bahar aaye to unki aasha ke anurup pankshi vahin par hi maujud the. dhanyavad! dhanyavad! unhonne kaha aur atishay dharmotsah ki vajah se kuch pareshan bhi hue. ve idhar udhar dane uchhalne lage to unke haath paanv kaanp uthe. mutthiyon se phisalkar panvon ke paas hi gir paDe. kabutar besabri se unke kandhon par, bhujaon par pankhe phaDaphDate hue unhen nochne lage. ek sahasi kabutar to thaile par hi baithkar anaj khane ki koshish karne laga.
achanak ek patthar profesar iibashchuts ke lalat par laga, yakayak to unhen pata hi nahin chala ki ye kya hua? tab tak do patthar aur lage. ek kohni par aur dusra gardan par.
sabhi kabutar ek saath uDe, mano hava ka tufan utha ho. ve kisi tarah ghar ke andar aane mein kamyab hue. unhonne kai baar patrikaon mein paDha tha ki yunaniyon par saiksni baghichon mein aur upanagron mein gunDon dvara hamle kiye jate hain. kintu unke saath kabhi aisa nahin hua. ve asmanjas mein the ki unhen chot kahan zyada lagi hai? lalat par ya unke aham par! kya hum itne gir chuke hain? ve budabudaye. tekla khiDki se sara majara dekh rahi thi. wo ghusse mein bhunabhunati unke paas aai. phuphkarte hue un dushton ko maar badaduaen dene lagi. phir achanak dauDkar rasoi mein angochha bhigone gai. profesar ne topi utarkar lalat ke tiste gumDe ko chhukar dekha. tab tak tekla gila angochha lekar laut aai. unhen sone ke kamre mein le gai. kot utarkar litaya. upchaar karte samay bhi uska baDbaDana jari tha, “bhagvan unhen bharpur danD dena. un par falij gire! unhen koDh nikle!
“bas tekla, bas.
“agar yahi hamara polainD hai to ise aag lag jani chahiye.
polainD mein achchhe log bhi rahte hain.
“talchhat, veshya, koDhi, kutte!
tekla bahar gai. shayad pulis ko bulane. kintu profesar ne paDosiyon se shikayat karte tatha chillate hue use suna. kuch der baad sab kuch shaant ho gaya. jab tekla akeli hi vapas aai to unhonne socha—nahin, wo pulis ko bulane nahin gai. wo bechaini se baDbaDati hui rasoi mein ghoom rahi thi. profesar ne apni ankhen band kar leen. “der saber tumhein apni khaal par sab kuch sahn karna paDega. main dusre piDit vyaktiyon ki apeksha kis mane mein shreshth hoon. yahi itihas hai. itne barson tak mainne yahi dimagh mein bhar rakha tha.
yahudi shabd unhonne kafi samay se bhula diya tha. aaj achanak unke dimagh mein kaundha—reshyim, ek dusht adami! wo dusht hi hai jo apna itihas banata hai.
profesar ek minat ke liye stabdh rah ge. itne salon se jis uttar ki unhen talash thi, wo ek kshan mein aspasht ho gaya. gunDon dvara un par patthar phenkne aur nyutan dvara seb ko niche girte dekhne mein paraspar kitna samya tha. surya ke ujale ki tarah sachchai unke samne prajvalit ho uthi, jo kisi bhi samay ke liye amanya nahin ho sakti. sabhi vidhanon ki ek si parinati hoti hai. har piDhi mein koi na koi adami aisa hota hi hai, jo jhooth bolta hai, khoon kharaba karta hai, danga fasad karta hai. dushtata ya barbarta kabhi ruk nahin sakti, chahe wo yuddh ke roop mein ho, chahe kranti ke roop mein. chahe apne jhanDe ke niche laDe ya dusre jhanDe ke niche laDe. chahe kuch bhi nara ho, kuch bhi vaad ho—maqsad ek hi rahta— khoon bahana, dusron ko atankit karna, utpiDit karna. ek hi uddeshya ne maisDoniya ke elekzenDar, hemilkar, changez khaan, sharlemain, shamilnitski, nepoliyan, raubraspiyar aur lenin ko sangthit kiya. itna asan.
gurutvakarshan ka siddhant bhi asan tha, isliye uske avishkar mein itna samay laga.
vlaDislav iibashchuts ko shaam hote hote neend aane lagi. unhonne apne aap se kaha, nahin, ye itna asan nahin ho sakta. tekla ne profesar ke mathe par barf ka senk kiya. purnatya ashvast hone ke liye wo Dauktar ko bulana chahti thi, par profesar ne mana kar diya. unhen Dauktar va paDosiyon ke rubaru hone mein sharm mahsus ho rahi thi. tekla ne jai ka ghol karke unhen pilaya. ve hamesha sone se pahle pinjron ki sanbhal karte, unmen taza pani bharte, dane va sabjiyan Dalte aur mitti bhi badalte, kintu us shaam profesar ne sab kaam tekla par chhoD diya. usne battiyan bujha deen. kuch tuiyan tote profesar ke kamre mein hi pinjron mein band the. kuch parde ki DanDi par so ge. halanki profesar thake hue the, phir bhi unhen turant neend nahin aai. unki durust ankh ka uupri hissa sooj gaya tha, jisse palak jhapkane mein unhen kathinai ho rahi thi. unhonne iishvar se pararthna ki ki kahin ve puri tarah se andhe na ho jayen. andha hone ki bajay to mar jana hi behtar hai. uungh aate hi unhonne sapne mein ek vichitr dharti dekhi—jahan ekdam nai prakritik chhata bikhri paDi thi, jise unhonne pahle kabhi nahin dekha—hare bhare pahaD, rahasyamyi ghatiyan, lubhavne baghiche—gahar ghumer gaachh birchhon se achchhadit aur rang birange phulon ka bichhauna. main kahan hoon?” ve neend mein baDabDaye, itli men”, “afganistan men? niche ki zamin is tarah khisak rahi thi, mano havai jahaz mein baithe hon ya antriksh mein latke hue hon. kya main prithvi ki gurutvakarshan shakti ki pahunch se pare hoon? ve duvidha mein phans ge ki akhir ye hua kyonkar? yahan to koi vayumanDal bhi nahin. ve phir budabudaye, “uphph! kahin mera dam na ghut jaye. akasmat unki neend uchat gai. samajh nahin paDa ki ve hain kahan? mathe par kuch dabav mahsus hua. haath se sparsh karte hi unhen ashcharya hua, mere sir par ye patti kyon bandhi hai? is parashn ke saath hi achanak unhen sab yaad aa gaya. “haan, itihas dushton ne hi banaya hai. mainne nyutan ke itihas ka sootr khoj liya hai. mujhe apna shodhkarya phir se prarambh karna hoga. oh. . . . unhen apne sine mein bain taraf tikha dard mahsus hua. ve lete lete hi dil ki dhaDaknen sunte rahe.
hriday shool ke liye unke paas goliyan theen, kintu ve paDhne vale kamre ki daraz mein rakhi hui theen. unki divangat patni stefni ne unhen ek chhoti si ghanti de rakhi thi. raat ko jab bhi unki tabiyat kharab ho to ve ghanti bajakar tekla ko bula len, kintu profesar ki ichchha nahin hoti ki ve ghanti bajayen, yahan tak ki raat ki hari batti tak jalane mein bhi unhen hichkichahat hoti. pakshiyon ko avaz va roshni se baDa Dar lagta tha.
unhonne socha—tekla din bhar ke kamakaj se thak gai hogi. tis par is apriy ghatna ki vajah se wo theek tarah se so bhi nahin pai hogi. gunDon ke achite akrman se wo unki apeksha zyada pareshan hui thi. chand ghaDiyon ki neend ke alava bechari ke paas aur hai hi kyaa? na koi rishtedar, na koi dost aur na koi santan. profesar ne tekla ke naam vasiyat to likh di, lekin un aprakashit panDulipiyon ka mulya hi kya tha, uske liye!
ek naya sootr. . . .
kuch der baad profesar ko laga ki sine ka dard kam ho raha hai. kintu phir achanak chhuri ghompne jaisi asahya piDa uthi, jo kandhon, pasaliyon va banhon ko jhakjhor gai. unhonne ghanti bajane ke liye haath baDhaya, par akarath. vahan pahunchne ke pahle hi unki anguliyan shithil paD gain. unhonne kabhi socha tak nahin tha ki unhen itni bhayankar piDa hogi, jaise koi tikhe panjon se unka hriday bheench raha ho. unka dil ghutne laga. hanphate samay unhen khayal aaya ki unke baad kabutron ka kya hoga?
agle din subah jab tekla unke kamre mein aai to unhen baDi mushkil se pahchan saki. jo akriti use nazar aai, wo profesar ki bajay ek virup guDiya ki thi. chikni mati ke unmaan pila chehra. haDDiyan ekdam sakht. munh phata hua, vikrit naak, daDhi uupar ki or uthi hui, ek ankh ki palken chipki huin, dusri ankh adhakhuli, mano kisi ajnabi duniya se jhaank rahi ho. mom ke sadrish anguliyan takiye par pasri theen.
tekla chillane lagi. ghabraye paDosi andar aaye. kisi ne rogi vahan ke liye taqaza kiya to bahar uske bhompu ki avaz sunai di. lekin jo antrang Dauktar bhitar aaya, usne rogi ki surat dekhte hi gardan hila di ki use ab kuch bhi madad pahunchai nahin ja sakti. usne ankhen jhukakar sine par kraus ka nishan banaya.
tekla chitkar kar uthi, un janavron ne ise maar Dala. maar Dala. is par patthar phenke. haija ho un haramzadon ko. un par pagal kutte chhoDe jayen. ve dusht rakshas! satyanash ho unka.
“ve kaun hain? Dauktar ne kanpti avaz mein puchha.
“ve apne hi paulish kasai the. gunDe! janvar! khuni!
“haan, ek yahudi!
“oh!
jab profesar jivit the, tab unki koi poochh na thi. kintu unki mrityu ke pashchat unki kirti ke ambar lag ge. unki shokasbha mein vibhinn sangathnon, anek sansthaon aur vishvvidyalyon se log aaye. munh latkaye hue unki antyeshti mein shamil hue. kai pramukh prtishthanon se taar aaye ki ve apne pratinidhi bhej rahe hain.
profesar ka ghar phulon se bhar gaya. bahut sare lekhak, pradhyapak, acharya va chhaatr atyant samman ke saath unke parthiv sharir ko bhigi ankhon se dekh rahe the, kyonki profesar yunani the, isliye yunani sansthaon ne bhajan gane ke liye do gaykon ko bheja taki divangat aatma ko shanti mile. ghabrai hui chiDiyan ek divar se dusri divar par baith rahi theen. unki pankhon mein ashanti ki phaDphaDahat thi. unki chahchahahat mein udasi bhari thi. ek kitabkes se dusre kitabkes par, ek balli se dusri balli par ve baurai si uD rahi theen. tekla ne unhen apne apne pinjron mein Dalne ka prayas kiya, par wo saphal nahin hui.
do darvaze aur khiDkiyan laparvahi se khuli rah gai theen, unse kuch chiDiyan bahar nikal aai theen. ek tota chilla chillakar tekla ko ye suchit kar raha tha ki fon ki ghanti baj rahi hai. par tekla to apna hosh hi bhuli hui thi. yunani samuday ke adhikari qabristan ke agrim bhugtan ke liye taqaza kar rahe the aur ek paulish mejar jo profesar ka vidyarthi rah chuka tha, unhen iske bhishan parinam ki suchana de raha tha.
agli subah ek yunani arthi gali se nikli. kale kapDon mein Dhake shav ki sirf do ankhen dikhai de rahi theen, mano badlon se chhaye asman se vida maang rahi hon. jab shav yatra ‘tekki aivanyu se purane shahr ki or baDh rahi thi to kabutron ke jhunD uDkar chhaton par baithne lage. un kabutron ki sankhya itni adhik thi ki asman tatha imarton ke beech ki galiyan unse purampur chha gain. sankari gali to shuru se akhir tak is qadar dhundhla gai, aisa andhera phail gaya, mano suraj pura ast ho gaya ho. kabutar thoDi der ke liye thaur prlambit hue, tatpashchat ek saath satvar gati se shav yatra ko charon or se gherkar uDne lage.
jo pratinidhi arthi ke niche gol malayen lekar chal rahe the, ve ashcharyachkit hokar uupar dekhne lage. gali ke nivasi, kya buDhe, kya bimar, apni antim shraddhanjali dene ke liye sine par salib ka nishan bana rahe the. kabutron ke us apratim karishme ko sabhi ashcharya se dekh rahe the. tekla ne apne donon haath kali shaal se bahar nikale aur phaphak phaphak kar rone lagi.
kabutron ka pura samuh tab tak arthi ke saath saath chalta raha, jab tak wo brovasi gali mein nahin pahunchi. jis kavayad se kabutron ne akash mein gol ghera banaya tha, usmen unke anek pankh, dhoop tatha chhaanh ke beech mein aa rahe the. kabhi lahu ki tain laal to kabhi sise ki tarah sanvle. yadyapi un pakshiyon ki yojanabaddh uDaan na to shav yatra ke aage thi aur na pichhe. jab tak shav yatra farmanaska aur mairiynastet ke prtichchhedak tak nahin pahunchi, tab tak kabutar apni gati se uDte rahe. phir unhonne ek akhiri gola banaya aur kafi pichhe ho liye. sabhi pankhonvale mezban apne sanrakshak ki chir shanti ke liye phir uske saath saath uDne lage.
jane kyonkar un kabutron ko ye ilhaam ho gaya tha ki unke liye agli subah sharatkal ki tarah ubau va avsad bhari hogi. us dukhad sthiti ke baad aisa mahsus ho raha tha, jaise akash ko jang lag gaya ho aur wo jarjarit hokar niche jhuk aaya ho. chimani ka dhuan vapas chhat par ikattha hone laga tha. suiyon ki tarah patli patli barish ho rahi thi. raat ke andhere mein profesar ke darvaze par kisi ne svastik ka chihn bana diya tha. danon ka thaila lekar tekla bahar aai, par kuch hi kabutar niche aaye. ve sahme sahme jhijhakte hue dana chug rahe the. unhen aisa mahsus ho raha tha ki pratibandh ki avagya karne par ve pakDe jayenge. nali se jale koylon ki durgandh aa rahi thi aur asapas charon or barbadi ka abhas hone laga tha.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 206)
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