बिरजू की माँ शकरकंद उबाल कर बैठी मन-ही-मन कुढ़ रही थी अपने आँगन में। सात साल का लड़का बिरजू शकरकंद के बदले तमाचे खा कर आँगन में लोट-पोट कर सारी देह में मिट्टी मल रहा था। चंपिया के सिर भी चुड़ैल मँडरा रही है... आधे-आँगन धूप रहते जो गई है सहुआइन की दुकान छोवा-गुड़ लाने, सो अभी तक नहीं लौटी, दीया-बाती की बेला हो गई। आए आज लौटके ज़रा! बागड़ बकरे की देह में कुकुरमाछी लगी थी, इसलिए बेचारा बागड़ रह-रह कर कूद-फाँद कर रहा था। बिरजू की माँ बागड़ पर मन का ग़ुस्सा उतारने का बहाना ढूँढ़ कर निकाल चुकी थी...पिछवाड़े की मिर्च की फूली गाछ! बागड़ के सिवा और किसने कलेवा किया होगा! बागड़ को मारने के लिए वह मिट्टी का छोटा ढेला उठा चुकी थी, कि पड़ोसिन मखनी फुआ की पुकार सुनाई पड़ी—‘क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जाएगी क्या?’
‘बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पगहिया न हो तब न, फुआ!’
गर्म ग़ुस्से में बुझी नुकीली बात फुआ की देह में धँस गई और बिरजू की माँ ने हाथ के ढेले को पास ही फेंक दिया—‘बेचारे बागड़ को कुकुरमाछी परेशान कर रही है। आ-हा, आय... आय! हर्र-र-र! आय-आय!’
बिरजू ने लेटे-ही-लेटे बागड़ को एक डंडा लगा दिया। बिरजू की माँ की इच्छा हुई कि जा कर उसी डंडे से बिरजू का भूत भगा दे, किंतु नीम के पास खड़ी पनभरनियों की खिलखिलाहट सुन कर रुक गई। बोली, ‘ठहर, तेरे बप्पा ने बड़ा हथछुट्टा बना दिया है तुझे! बड़ा हाथ चलता है लोगों पर। ठहर!’
मखनी फुआ नीम के पास झुकी कमर से घड़ा उतार कर पानी भर कर लौटती पनभरनियों में बिरजू की माँ की बहकी हुई बात का इंसाफ़ करा रही थी—‘ज़रा देखो तो इस बिरजू की माँ को! चार मन पाट (जूट) का पैसा क्या हुआ है, धरती पर पाँव ही नहीं पड़ते! निसाफ़ करो! ख़ुद अपने मुँह से आठ दिन पहले से ही गाँव की गली-गली में बोलती फिरी है, ‘हाँ, इस बार बिरजू के बप्पा ने कहा है, बैलगाड़ी पर बिठा कर बलरामपुर का नाच दिखा लाऊँगा। बैल अब अपने घर है, तो हज़ार गाड़ी मँगनी मिल जाएँगी।’ सो मैंने अभी टोक दिया, नाच देखने वाली सब तो औन-पौन कर तैयार हो रही हैं, रसोई-पानी कर रहे हैं। मेरे मुँह में आग लगे, क्यों मैं टोकने गई! सुनती हो, क्या जवाब दिया बिरजू की माँ ने?’
मखनी फुआ ने अपने पोपले मुँह के होंठों को एक ओर मोड़ कर ऐठती हुई बोली निकाली—‘अर्-र्रे-हाँ-हाँ! बि-र-र-ज्जू की मै...या के आगे नाथ औ-र्र पीछे पगहिया ना हो, तब ना-आ-आ!’
जंगी की पुतोहू बिरजू की माँ से नहीं डरती। वह ज़रा गला खोल कर ही कहती है, ‘फुआ-आ! सरबे सित्तलर्मिटी (सर्वे सेटलमेंट) के हाकिम के बासा पर फूलछाप किनारी वाली साड़ी पहन के तू भी भंटा की भेंटी चढ़ाती तो तुम्हारे नाम से भी दु-तीन बीघा धनहर ज़मीन का पर्चा कट जाता! फिर तुम्हारे घर भी आज दस मन सोनाबंग पाट होता, जोड़ा बैल ख़रीदता! फिर आगे नाथ और पीछे सैकड़ो पगहिया झूलती!’
जंगी की पुतोहू मुँहज़ोर है। रेलवे स्टेशन के पास की लड़की है। तीन ही महीने हुए, गौने की नई बहू हो कर आई है और सारे कुर्मा टोली की सभी झगड़ालू सासों से एकाध मोर्चा ले चुकी है। उसका ससुर जंगी दाग़ी चोर है, सीड़किलासी है। उसका ख़सम रंगी कुर्मा टोली का नामी लठैत। इसीलिए हमेशा सींग घुमाती फिरती है जंगी की पुतोहू!
बिरजू की माँ के आँगन में जंगी की पुतोहू की गला-खोल बोली ग़ुलेल की गोलियों की तरह दनदनाती हुई आई थी। बिरजू की माँ ने एक तीख़ा जवाब खोज कर निकाला, लेकिन मन मसोस कर रह गई।...गोबर की ढेरी में कौन ढेला फेंके!
जीभ के झाल को गले में उतार कर बिरजू की माँ ने अपनी बेटी चंपिया को आवाज़ दी—‘अरी चंपिया-या-या, आज लौटे तो तेरी मूड़ी मरोड़ कर चूल्हे में झोंकती हूँ! दिन-दिन बेचाल होती जाती है!...गाँव में तो अब ठेठर-बैसकोप का गीत गाने वाली पतुरिया-पुतोहू सब आने लगी हैं। कहीं बैठके ‘बाजे न मुरलिया’ सीख रही होगी ह-र-जा-ई-ई! अरी चंपिया-या-या!’
जंगी की पुतोहू ने बिरजू की माँ की बोली का स्वाद ले कर कमर पर घड़े को सँभाला और मटक कर बोली, ‘चल दिदिया, चल! इस मुहल्ले में लाल पान की बेगम बसती है! नहीं जानती, दोपहर-दिन और चौपहर-रात बिजली की बत्ती भक्-भक् कर जलती है!’
भक्-भक् बिजली-बत्ती की बात सुन कर न जाने क्यों सभी खिलखिला कर हँस पड़ीं। फुआ की टूटी हुई दंत-पंक्तियों के बीच से एक मीठी गाली निकली—‘शैतान की नानी!’
बिरजू की माँ की आँखों पर मानो किसी ने तेज़ टार्च की रौशनी डाल कर चौंधिया दिया।...भक्-भक् बिजली-बत्ती! तीन साल पहले सर्वे कैंप के बाद गाँव की जलन-ढाही औरतों ने एक कहानी गढ़ के फैलाई थी, चंपिया की माँ के आँगन में रात-भर बिजली-बत्ती भुकभुकाती थी! चंपिया की माँ के आँगन में नाकवाले जूते की छाप घोड़े की टाप की तरह।...जलो, जलो! और जलो! चंपिया की माँ के आँगन में चाँदी-जैसे पाट सूखते देख कर जलने वाली सब औरतें खलिहान पर सोनोली धान के बोझों को देख कर बैंगन का भुर्ता हो जाएँगी।
मिट्टी के बरतन से टपकते हुए छोवा-गुड़ को उँगलियों से चाटती हुई चंपिया आई और माँ के तमाचे खा कर चीख़ पड़ी—‘मुझे क्यों मारती है-ए-ए-ए! सहुआइन जल्दी से सौदा नहीं देती है-एँ-एँ-एँ-एँ!’
‘सहुआइन जल्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहुआइन की दुकान पर मोती झरते हैं, जो जड़ गाड़ कर बैठी हुई थी! बोल, गले पर लात दे कर कल्ला तोड़ दूँगी हरजाई, जो फिर कभी ‘बाजे न मुरलिया’ गाते सुना! चाल सीखने जाती है टीशन की छोकरियों से!’
बिरजू के माँ ने चुप हो कर अपनी आवाज़ अंदाज़ी कि उसकी बात जंगी के झोंपड़े तक साफ़-साफ़ पहुँच गई होगी।
बिरजू बीती हुई बातों को भूल कर उठ खड़ा हुआ था और धूल झाड़ते हुए बरतन से टपकते गुड़ को ललचाई निगाह से देखने लगा था।...दीदी के साथ वह भी दुकान जाता तो दीदी उसे भी गुड़ चटाती, ज़रुर! वह शकरकंद के लोभ में रहा और माँगने पर माँ ने शकरकंद के बदले... ‘ए मैया, एक अँगुली गुड़ दे दे बिरजू ने तलहथी फैलाई—दे ना मैया, एक रत्ती-भर!’
‘एक रत्ती क्यों, उठाके बरतन को फेंक आती हूँ पिछवाड़े में, जाके चाटना! नहीं बनेगी मीठी रोटी! ...मीठी रोटी खाने का मुँह होता है बिरजू की माँ ने उबले शकरकंद का सूप रोती हुई चंपिया के सामने रखते हुए कहा, ‘बैठके छिलके उतार, नहीं तो अभी...!’
दस साल की चंपिया जानती है, शकरकंद छीलते समय कम-से-कम बारह बार माँ उसे बाल पकड़ कर झकझोरेगी, छोटी-छोटी खोट निकाल कर गालियाँ देगी—‘पाँव फैलाके क्यों बैठी है उस तरह, बेलज्जी!’ चंपिया माँ के ग़ुस्से को जानती है।
बिरजू ने इस मौक़े पर थोड़ी-सी ख़ुशामद करके देखा—’मैया, मैं भी बैठ कर शकरकंद छीलूँ?’
‘नहीं?’ माँ ने झिड़की दी, ‘एक शकरकंद छीलेगा और तीन पेट में! जाके सिद्धू की बहू से कहो, एक घंटे के लिए कड़ाही माँग कर ले गई तो फिर लौटाने का नाम नहीं। जा जल्दी!’
मुँह लटका कर आँगन से निकलते-निकलते बिरजू ने शकरकंद और गुड़ पर निगाहें दौड़ाई। चंपिया ने अपने झबरे केश की ओट से माँ की ओर देखा और नज़र बचा कर चुपके से बिरजू की ओर एक शकरकंद फेंक दिया।...बिरजू भागा।
‘सूरज भगवान डूब गए। दीया-बत्ती की बेला हो गई। अभी तक गाड़ी...
‘चंपिया बीच में ही बोल उठी—‘कोयरी टोले में किसी ने गाड़ी नहीं दी मैया! बप्पा बोले, माँ से कहना सब ठीक-ठाक करके तैयार रहें। मलदहिया टोली के मियाँजान की गाड़ी लाने जा रहा हूँ।’
सुनते ही बिरजू की माँ का चेहरा उतर गया। लगा, छाते की कमानी उतर गई घोड़े से अचानक। कोयरी टोले में किसी ने गाड़ी मँगनी नहीं दी! तब मिल चुकी गाड़ी! जब अपने गाँव के लोगों की आँख में पानी नहीं तो मलदहिया टोली के मियाँजान की गाड़ी का क्या भरोसा! न तीन में न तेरह में! क्या होगा शकरकंद छील कर! रख दे उठा के!...यह मर्द नाच दिखाएगा। बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच दिखाने ले जाएगा! चढ़ चुकी बैलगाड़ी पर, देख चुकी जी-भर नाच... पैदल जाने वाली सब पहुँच कर पुरानी हो चुकी होंगी।
बिरजू छोटी कड़ाही सिर पर औंधा कर वापस आया—‘देख दिदिया, मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होता।’
चंपिया चुपचाप बैठी रही, कुछ बोली नहीं, ज़रा-सी मुस्कराई भी नहीं। बिरजू ने समझ लिया, मैया का ग़ुस्सा अभी उतरा नहीं है पूरे तौर से।
मढ़ैया के अंदर से बागड़ को बाहर भगाती हुई बिरजू की माँ बड़बड़ाई—‘कल ही पँचकौड़ी क़साई के हवाले करती हूँ राकस तुझे! हर चीज़ में मुँह लगाएगा। चंपिया, बाँध दे बागड़ को। खोल दे गले की घंटी! हमेशा टुनुर-टुनुर! मुझे ज़रा नहीं सुहाता है!’
‘टुनुर-टुनुर’ सुनते ही बिरजू को सड़क से जाती हुई बैलगाड़ियों की याद हो आई—‘अभी बबुआन टोले की गाड़ियाँ नाच देखने जा रही थीं... झुनुर-झुनुर बैलों की झुमकी, तुमने सु...’
‘बेसी बक-बक मत करो!’ बागड़ के गले से झुमकी खोलती बोली चंपिया।
‘चंपिया, डाल दे चूल्हे में पानी! बप्पा आवे तो कहना कि अपने उड़नजहाज़ पर चढ़ कर नाच देख आएँ! मुझे नाच देखने का सौख नहीं!...मुझे जगाइयो मत कोई! मेरा माथा दुख रहा है।’
मढ़ैया के ओसारे पर बिरजू ने फिसफिसा के पूछा, ‘क्यों दिदिया, नाच में उड़नजहाज़ भी उड़ेगा?’
चटाई पर कथरी ओढ़ कर बैठती हुई चंपिया ने बिरजू को चुपचाप अपने पास बैठने का इशारा किया, मुफ़्त में मार खाएगा बेचारा!
बिरजू ने बहन की कथरी में हिस्सा बाँटते हुए चुक्की-मुक्की लगाई। जाड़े के समय इस तरह घुटने पर ठुड्डी रख कर चुक्की-मिक्की लगाना सीख चुका है वह। उसने चंपिया के कान के पास मुँह ले जा कर कहा, ‘हम लोग नाच देखने नहीं जाएँगे?...गाँव में एक पंछी भी नहीं है। सब चले गए।’
चंपिया को तिल-भर भी भरोसा नहीं। संझा तारा डूब रहा है। बप्पा अभी तक गाड़ी ले कर नहीं लौटे। एक महीना पहले से ही मैया कहती थी, बलरामपुर के नाच के दिन मीठी रोटी बनेगी, चंपिया छींट की साड़ी पहनेगी, बिरजू पैंट पहनेगा, बैलगाड़ी पर चढ़ कर...
चंपिया की भीगी पलकों पर एक बूँद आँसू आ गया।
बिरजू का भी दिल भर आया। उसने मन-ही-मन में इमली पर रहने वाले जिनबाबा को एक बैंगन कबूला, गाछ का सबसे पहला बैंगन, उसने ख़ुद जिस पौधे को रोपा है!...जल्दी से गाड़ी ले कर बप्पा को भेज दो, जिनबाबा!
मढ़ैया के अंदर बिरजू की माँ चटाई पर पड़ी करवटें ले रही थी। उँह, पहले से किसी बात का मनसूबा नहीं बाँधना चाहिए किसी को! भगवान ने मनसूबा तोड़ दिया। उसको सबसे पहले भगवान से पूछना है, यह किस चूक का फल दे रहे हो भोला बाबा! अपने जानते उसने किसी देवता-पित्तर की मान-मनौती बाक़ी नहीं रखी। सर्वे के समय ज़मीन के लिए जितनी मनौतियाँ की थीं... ठीक ही तो! महाबीर जी का रोट तो बाक़ी ही है। हाय रे दैव!... भूल-चूक माफ़ करो महाबीर बाबा! मनौती दूनी करके चढ़ाएगी बिरजू की माँ!...
बिरजू की माँ के मन में रह-रह कर जंगी की पुतोहू की बातें चुभती हैं, भक्-भक् बिजली-बत्ती!... चोरी-चमारी करने वाली की बेटी-पुतोहू जलेगी नहीं! पाँच बीघा ज़मीन क्या हासिल की है बिरजू के बप्पा ने, गाँव की भाईखौकियों की आँखों में किरकिरी पड़ गई है। खेत में पाट लगा देख कर गाँव के लोगों की छाती फटने लगी, धरती फोड़ कर पाट लगा है, बैसाखी बादलों की तरह उमड़ते आ रहे हैं पाट के पौधे! तो अलान, तो फलान! इतनी आँखों की धार भला फ़सल सहे! जहाँ पंद्रह मन पाट होना चाहिए, सिर्फ़ दस मन पाट काँटा पर तौल के ओजन हुआ भगत के यहाँ।...
‘इसमें जलने की क्या बात है भला!...बिरजू के बप्पा ने तो पहले ही कुर्मा टोली के एक-एक आदमी को समझा के कहा, ज़िंदगी-भर मज़दूरी करते रह जाओगे। सर्वे का समय आ रहा है, लाठी कड़ी करो तो दो-चार बीघे ज़मीन हासिल कर सकते हो। सो गाँव की किसी पुतखौकी का भतार सर्वे के समय बाबूसाहेब के ख़िलाफ़ खाँसा भी नहीं।...बिरजू के बप्पा को कम सहना पड़ा है! बाबूसाहेब ग़ुस्से से सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गए। उनका बड़ा बेटा घर में आग लगाने की धमकी देकर गया।...आख़िर बाबूसाहेब ने अपने सबसे छोटे लड़के को भेजा। बिरजू की माँ को ‘मौसी’ कहके पुकारा—यह ज़मीन बाबू जी ने मेरे नाम से ख़रीदी थी। मेरी पढ़ाई-लिखाई इसी ज़मीन की उपज से चलती है।...और भी कितनी बातें। ख़ूब मोहना जानता है उत्ता ज़रा-सा लड़का। ज़मींदार का बेटा है कि...’
‘चंपिया, बिरजू सो गया क्या? यहाँ आ जा बिरजू, अंदर। तू भी आ जा, चंपिया!... भला आदमी आए तो एक बार आज!’
बिरजू के साथ चंपिया अंदर चली गई।
‘ढिबरी बुझा दे।... बप्पा बुलाएँ तो जवाब मत देना। खपच्ची गिरा दे।’
‘भला आदमी रे, भला आदमी! मुँह देखो ज़रा इस मर्द का!...बिरजू की माँ दिन-रात मंझा न देती रहती तो ले चुके थे ज़मीन! रोज़ आ कर माथा पकड़ के बैठ जाएँ, मुझे ज़मीन नहीं लेनी है बिरजू की माँ, मजूरी ही अच्छी।...जवाब देती थी बिरजू की माँ ख़ूब सोच-समझके, छोड़ दो, जब तुम्हारा कलेजा ही स्थिर नहीं होता है तो क्या होगा? जोरु-ज़मीन ज़ोर के, नहीं तो किसी और के!...’
बिरजू के बाप पर बहुत तेज़ी से ग़ुस्सा चढ़ता है। चढ़ता ही जाता है।...बिरजू की माँ का भाग ही ख़राब है, जो ऐसा गोबरगणेश घरवाला उसे मिला। कौन-सा सौख-मौज दिया है उसके मर्द ने? कोल्हू के बैल की तरह खट कर सारी उम्र काट दी इसके यहाँ, कभी एक पैसे की जलेबी भी ला कर दी है उसके खसम ने!...पाट का दाम भगत के यहाँ से ले कर बाहर-ही-बाहर बैल-हट्टा चले गए। बिरजू की माँ को एक बार नमरी लोट देखने भी नहीं दिया आँख से।...बैल ख़रीद लाए। उसी दिन से गाँव में ढिंढोरा पीटने लगे, बिरजू की माँ इस बार बैलगाड़ी पर चढ़ कर जाएगी नाच देखने!...दूसरे की गाड़ी के भरोसे नाच दिखाएगा!...
अंत में उसे अपने-आप पर क्रोध हो आया। वह ख़ुद भी कुछ कम नहीं! उसकी जीभ में आग लगे! बैलगाड़ी पर चढ़ कर नाच देखने की लालसा किस कुसमय में उसके मुँह से निकली थी, भगवान जाने! फिर आज सुबह से दोपहर तक, किसी-न-किसी बहाने उसने अठारह बार बैलगाड़ी पर नाच देखने की चर्चा छेड़ी है।...लो, ख़ूब देखो नाच! कथरी के नीचे दुशाले का सपना!...कल भोरे पानी भरने के लिए जब जाएगी, पतली जीभवाली पतुरिया सब हँसती आएँगी, हँसती जाएँगी।...सभी जलते है उससे, हाँ भगवान, दाढ़ी-जार भी! दो बच्चों की माँ हो कर भी वह जस-की-तस है। उसका घरवाला उसकी बात में रहता है। वह बालों में गरी का तेल डालती है। उसकी अपनी ज़मीन है। है किसी के पास एक घूर ज़मीन भी अपने इस गाँव में! जलेंगे नहीं, तीन बीघे में धान लगा हुआ है, अगहनी। लोगों की बिखदीठ से बचे, तब तो!
बाहर बैलों की घंटियाँ सुनाई पड़ीं। तीनों सतर्क हो गए। उत्कर्ण होकर सुनते रहे।
‘अपने ही बैलों की घंटी है, क्यों री चंपिया?’
चंपिया और बिरजू ने प्राय: एक ही साथ कहा, ‘हूँ-ऊँ-ऊँ!’
‘चुप बिरजू की माँ ने फिसफिसा कर कहा, शायद गाड़ी भी है, घड़घड़ाती है न?’
‘हूँ-ऊँ-ऊँ!’ दोनों ने फिर हुँकारी भरी।
‘चुप! गाड़ी नहीं है। तू चुपके से टट्टी में छेद करके देख तो आ चंपी! भागके आ, चुपके-चुपके।’
चंपिया बिल्ली की तरह हौले-हौले पाँव से टट्टी के छेद से झाँक आई—‘हाँ मैया, गाड़ी भी है!’
बिरजू हड़बड़ा कर उठ बैठा। उसकी माँ ने उसका हाथ पकड़ कर सुला दिया—‘बोले मत!’
चंपिया भी गुदड़ी के नीचे घुस गई।
बाहर बैलगाड़ी खोलने की आवाज़ हुई। बिरजू के बाप ने बैलों को ज़ोर से डाँटा—‘हाँ-हाँ! आ गए घर! घर आने के लिए छाती फटी जाती थी!’
बिरजू की माँ ताड़ गई, ज़रुर मलदहिया टोली में गाँजे की चिलम चढ़ रही थी, आवाज़ तो बड़ी खनखनाती हुई निकल रही है।
‘चंपिया-ह!’ बाहर से पुकार कर कहा उसके बाप ने, ‘बैलों को घास दे दे, चंपिया-ह!’
अंदर से कोई जवाब नहीं आया। चंपिया के बाप ने आँगन में आ कर देखा तो न रोशनी, न चराग़, न चूल्हे में आग।...बात क्या है! नाच देखने, उतावली हो कर, पैदल ही चली गई क्या...!
बिरजू के गले में खसखसाहट हुई और उसने रोकने की पूरी कोशिश भी की, लेकिन खाँसी जब शुरु हुई तो पूरे पाँच मिनट तक वह खाँसता रहा।
‘बिरजू! बेटा बिरजमोहन!’ बिरजू के बाप ने पुचकार कर बुलाया, मैया ग़ुस्से के मारे सो गई क्या?...अरे अभी तो लोग जा ही रहे हैं।’
बिरजू की माँ के मन में आया कि कस कर जवाब दे, नहीं देखना है नाच! लौटा दो गाड़ी!
‘चंपिया-ह! उठती क्यों नहीं? ले, धान की पँचसीस रख दे। धान की बालियों का छोटा झब्बा झोंपड़े के ओसरे पर रख कर उसने कहा, ‘दीया बालो!’
बिरजू की माँ उठ कर ओसारे पर आई—‘डेढ़ पहर रात को गाड़ी लाने की क्या ज़रुरत थी? नाच तो अब ख़त्म हो रहा होगा।’
ढिबरी की रौशनी में धान की बालियों का रंग देखते ही बिरजू की माँ के मन का सब मैल दूर हो गया।...धानी रंग उसकी आँखों से उतर कर रोम-रोम में घुल गया।
‘नाच अभी शुरु भी नहीं हुआ होगा। अभी-अभी बलमपुर के बाबू की संपनी गाड़ी मोहनपुर होटिल-बँगला से हाकिम साहब को लाने गई है। इस साल आख़िरी नाच है।...पँचसीस टट्टी में खोंस दे, अपने खेत का है।’
‘अपने खेत का? हुलसती हुई बिरजू की माँ ने पूछा, पक गए धान?’
‘नहीं, दस दिन में अगहन चढ़ते-चढ़ते लाल हो कर झुक जाएँगी सारे खेत की बालियाँ!...मलदहिया टोली पर जा रहा था, अपने खेत में धान देख कर आँखें जुड़ा गईं। सच कहता हूँ, पँचसीस तोड़ते समय उँगलियाँ काँप रही थीं मेरी!’
बिरजू ने धान की एक बाली से एक धान ले कर मुँह में डाल लिया और उसकी माँ ने एक हल्की डाँट दी—‘कैसा लुक्क्ड़ है तू रे!...इन दुश्मनों के मारे कोई नेम-धरम बचे!’
‘क्या हुआ, डाँटती क्यों है?’
‘नवान्न के पहले ही नया धान जुठा दिया, देखते नहीं?’
‘अरे, इन लोगों का सब कुछ माफ़ है। चिरई-चुरमुन हैं यह लोग! दोनों के मुँह में नवान्न के पहले नया अन्न न पड़े?’
इसके बाद चंपिया ने भी धान की बाली से दो धान लेकर दाँतों-तले दबाए—‘ओ मैया! इतना मीठा चावल!’
‘और गमकता भी है न दिदिया?’ बिरजू ने फिर मुँह में धान लिया।
‘रोटी-पोटी तैयार कर चुकी क्या?’ बिरजू के बाप ने मुस्कुराकर पूछा।
‘नहीं!’ मान-भरे सुर में बोली बिरजू की माँ, ‘जाने का ठीक-ठिकाना नहीं... और रोटी बनाती!’
‘वाह! ख़ूब हो तुम लोग!...जिसके पास बैल है, उसे गाड़ी मँगनी नहीं मिलेगी भला? गाड़ीवालों को भी कभी बैल की ज़रुरत होगी।...पूछूँगा तब कोयरी-टोला वालों से!...ले, जल्दी से रोटी बना ले।’
‘देर नहीं होगी!’
‘अरे, टोकरी भर रोटी तो तू पलक मारते बना देती है, पाँच रोटियाँ बनाने में कितनी देर लगेगी!’
अब बिरजू की माँ के होंठों पर मुस्कुराहट खुल कर खिलने लगी। उसने नज़र बचा कर देखा, बिरजू का बप्पा उसकी ओर एकटक निहार रहा है।...चंपिया और बिरजू न होते तो मन की बात हँस कर खोलने में देर न लगती। चंपिया और बिरजू ने एक-दूसरे को देखा और ख़ुशी से उनके चेहरे जगमगा उठे—‘मैया बेकार ग़ुस्सा हो रही थी न!’
‘चंपी! ज़रा घैलसार में खड़ी हो कर मखनी फुआ को आवाज़ दे तो!’
‘ऐ फू-आ-आ! सुनती हो फूआ-आ! मैया बुला रही है!’
फुआ ने कोई जवाब नहीं दिया, किंतु उसकी बड़बड़ाहट स्पष्ट सुनाई पड़ी—‘हाँ! अब फुआ को क्यों गुहारती है? सारे टोले में बस एक फुआ ही तो बिना नाथ-पगहियावाली है।’
‘अरी फुआ!’ बिरजू की माँ ने हँस कर जवाब दिया, ‘उस समय बुरा मान गई थी क्या? नाथ-पगहियावाले को आ कर देखो, दोपहर रात में गाड़ी लेकर आया है! आ जाओ फुआ, मैं मीठी रोटी पकाना नहीं जानती।’
फुआ काँखती-खाँसती आई—‘इसी के घड़ी-पहर दिन रहते ही पूछ रही थी कि नाच देखने जाएगी क्या? कहती, तो मैं पहले से ही अपनी अँगीठी यहाँ सुलगा जाती।’
बिरजू की माँ ने फुआ को अँगीठी दिखला दी और कहा, ‘घर में अनाज-दाना वग़ैरह तो कुछ है नहीं। एक बागड़ है और कुछ बरतन-बासन, सो रात-भर के लिए यहाँ तंबाकू रख जाती हूँ। अपना हुक्का ले आई हो न फुआ?’
फुआ को तंबाकू मिल जाए, तो रात-भर क्या, पाँच रात बैठ कर जाग सकती है। फुआ ने अँधेरे में टटोल कर तंबाकू का अंदाज़ किया...ओ-हो! हाथ खोल कर तंबाकू रखा है बिरजू की माँ ने! और एक वह है सहुआइन! राम कहो! उस रात को अफ़ीम की गोली की तरह एक मटर-भर तंबाकू रख कर चली गई ग़ुलाब-बाग़ मेले और कह गई कि डिब्बी-भर तंबाकू है।
बिरजू की माँ चूल्हा सुलगाने लगी। चंपिया ने शकरकंद को मसल कर गोले बनाए और बिरजू सिर पर कड़ाही औंधा कर अपने बाप को दिखलाने लगा—‘मलेटरी टोपी! इस पर दस लाठी मारने पर भी कुछ नहीं होगा!’
सभी ठठा कर हँस पड़े। बिरजू की माँ हँस कर बोली, ‘ताखे पर तीन-चार मोटे शकरकंद हैं, दे दे बिरजू को चंपिया, बेचारा शाम से ही...’
‘बेचारा मत कहो मैया, ख़ूब सचारा है’ अब चंपिया चहकने लगी, ‘तुम क्या जानो, कथरी के नीचे मुँह क्यों चल रहा था बाबू साहब का!’
‘ही-ही-ही!’
बिरजू के टूटे दूध के दाँतो की फाँक से बोली निकली, ‘बिलैक-मारटिन में पाँच शकरकंद खा लिया! हा-हा-हा!’
सभी फिर ठठाकर हँस पड़े। बिरजू की माँ ने फुआ का मन रखने के लिए पूछा, ‘एक कनवाँ गुड़ है। आधा दूँ फुआ?’
फुआ ने गदगद हो कर कहा, ‘अरी शकरकंद तो ख़ुद मीठा होता है, उतना क्यों डालेगी?’
जब तक दोनों बैल दाना-घास खा कर एक-दूसरे की देह को जीभ से चाटें, बिरजू की माँ तैयार हो गई। चंपिया ने छींट की साड़ी पहनी और बिरजू बटन के अभाव में पैंट पर पटसन की डोरी बँधवाने लगा।
बिरजू के माँ ने आँगन से निकल गाँव की ओर कान लगा कर सुनने की चेष्टा की—‘उँहुँ, इतनी देर तक भला पैदल जाने वाले रुके रहेंगे?’
पूर्णिमा का चाँद सिर पर आ गया है।...बिरजू की माँ ने असली रुपा का मँगटिक्का पहना है आज, पहली बार। बिरजू के बप्पा को हो क्या गया है, गाड़ी जोतता क्यों नहीं, मुँह की ओर एकटक देख रहा है, मानो नाच की लालपान की...
गाड़ी पर बैठते ही बिरजू की माँ की देह में एक अजीब गुदगुदी लगने लगी। उसने बाँस की बल्ली को पकड़ कर कहा, ‘गाड़ी पर अभी बहुत जगह है।...ज़रा दाहिनी सड़क से गाड़ी हाँकना।’
बैल जब दौड़ने लगे और पहिया जब चूँ-चूँ करके घरघराने लगा तो बिरजू से नहीं रहा गया—‘उड़नजहाज़ की तरह उड़ाओ बप्पा!’
गाड़ी जंगी के पिछवाड़े पहुँची। बिरजू की माँ ने कहा, ‘ज़रा जंगी से पूछो न, उसकी पुतोहू नाच देखने चली गई क्या?’
गाड़ी के रुकते ही जंगी के झोंपड़े से आती हुई रोने की आवाज़ स्पष्ट हो गई। बिरजू के बप्पा ने पूछा, ‘अरे जंगी भाई, काहे कन्न-रोहट हो रहा है आँगन में?’
जंगी घूर ताप रहा था, बोला, ‘क्या पूछते हो, रंगी बलरामपुर से लौटा नहीं, पुतोहिया नाच देखने कैसे जाए! आसरा देखते-देखते उधर गाँव की सभी औरतें चली गई।’
‘अरी टीशनवाली, तो रोती है काहे!’ बिरजू की माँ ने पुकार कर कहा, ‘आ जा झट से कपड़ा पहन कर। सारी गाड़ी पड़ी हुई है! बेचारी!...आ जा जल्दी!’
बग़ल के झोंपड़े से राधे की बेटी सुनरी ने कहा, ‘काकी, गाड़ी में जगह है? मैं भी जाऊँगी।’
बाँस की झाड़ी के उस पार लरेना खवास का घर है। उसकी बहू भी नहीं गई है। गिलट का झुमकी-कड़ा पहन कर झमकती आ रही है।
‘आ जा! जो बाक़ी रह गई हैं, सब आ जाएँ जल्दी!’
जंगी की पुतोहू, लरेना की बीवी और राधे की बेटी सुनरी, तीनों गाड़ी के पास आई। बैल ने पिछला पैर फेंका। बिरजू के बाप ने एक भद्दी गाली दी—‘साला! लताड़ मार कर लँगड़ी बनाएगा पुतोहू को!’
सभी ठठाकर हँस पड़े। बिरजू के बाप ने घूँघट में झुकी दोनों पुतोहूओं को देखा। उसे अपने खेत की झुकी हुई बालियों की याद आ गई।
जंगी की पुतोहू का गौना तीन ही मास पहले हुआ है। गौने की रंगीन साड़ी से कड़वे तेल और लठवा-सिंदूर की गंध आ रही है। बिरजू की माँ को अपने गौने की याद आई। उसने कपड़े की गठरी से तीन मीठी रोटियाँ निकाल कर कहा, ‘खा ले एक-एक करके। सिमराहा के सरकारी कूप में पानी पी लेना।’
गाड़ी गाँव से बाहर हो कर धान के खेतों के बग़ल से जाने लगी। चाँदनी, कातिक की!...खेतों से धान के झरते फूलों की गंध आती है। बाँस की झाड़ी में कहीं दुद्धी की लता फूली है। जंगी की पुतोहू ने एक बीड़ी सुलगा कर बिरजू की माँ की ओर बढ़ाई। बिरजू की माँ को अचानक याद आई चंपिया, सुनरी, लरेना की बीवी और जंगी की पुतोहू, ये चारों ही गाँव में बैसकोप का गीत गाना जानती हैं।...ख़ूब!
गाड़ी की लीक धन-खेतों के बीच हो कर गई। चारों ओर गौने की साड़ी की खसखसाहट-जैसी आवाज़ होती है।...बिरजू की माँ के माथे के मँगटिक्के पर चाँदनी छिटकती है।
‘अच्छा, अब एक बैसकोप का गीत गा तो चंपिया!...डरती है काहे? जहाँ भूल जाओगी, बग़ल में मासटरनी बैठी ही है!’
दोनों पुतोहुओं ने तो नहीं, किंतु चंपिया और सुनरी ने खखासकर कर गला साफ़ किया।
बिरजू के बाप ने बैलों को ललकारा—‘चल भैया! और ज़रा ज़ोर से!...गा रे चंपिया, नहीं तो मैं बैलों को धीरे-धीरे चलने को कहूँगा।’
जंगी की पुतोहू ने चंपिया के कान के पास घूँघट ले जा कर कुछ कहा और चंपिया ने धीमे से शुरु किया—‘चंदा की चाँदनी...’
बिरजू को गोद में ले कर बैठी उसकी माँ की इच्छा हुई कि वह भी साथ-साथ गीत गाए। बिरजू की माँ ने जंगी की पुतोहू को देखा, धीरे-धीरे गुनगुना रही है वह भी। कितनी प्यारी पुतोहू है! गौने की साड़ी से एक ख़ास क़िस्म की गंध निकलती है। ठीक ही तो कहा है उसने! बिरजू की माँ बेगम है, लालपान की बेगम! यह तो कोई बुरी बात नहीं। हाँ, वह सचमुच लाल पान की बेगम है!
बिरजू की माँ ने अपनी नाक पर दोनों आँखों को केंद्रित करने की चेष्टा करके अपने रुप की झाँकी ली, लाल साड़ी की झिलमिल किनारी, मँगटिक्का पर चाँद।...बिरजू की माँ के मन में अब और कोई लालसा नहीं। उसे नींद आ रही है।
kyon birju ki man, nach dekhne nahin jayegi kya?
birju ki man shakarkand ubaal kar baithi man hi man kuDh rahi thi apne angan mein sat sal ka laDka birju shakarkand ke badle tamache kha kar angan mein lot pot kar sari deh mein mitti mal raha tha champiya ke sir bhi chuDail manDara rahi hai aadhe angan dhoop rahte jo gai hai sahuain ki dukan chhowa guD lane, so abhi tak nahin lauti, diya bati ki bela ho gai aaye aaj lautke zara! baghaD bakre ki deh mein kukurmachhi lagi thi, isliye bechara baghaD rah rah kar kood phand kar raha tha birju ki man baghaD par man ka ghussa utarne ka bahana DhoonDh kar nikal chuki thi pichhwaDe ki mirch ki phuli gachh! baghaD ke siwa aur kisne kalewa kiya hoga! baghaD ko marne ke liye wo mitti ka chhota Dhela utha chuki thi, ki paDosin makhni phua ki pukar sunai paDi—kyon birju ki man, nach dekhne nahin jayegi kya?
birju ki man ke aage nath aur pichhe pagahiya na ho tab na, phua!
garm ghusse mein bujhi nukili baat phua ki deh mein dhans gai aur birju ki man ne hath ke Dhele ko pas hi phenk diya—bechare baghaD ko kukurmachhi pareshan kar rahi hai aa ha, aay aay! harr r r! aay aay!
birju ne lete hi lete baghaD ko ek DanDa laga diya birju ki man ki ichha hui ki ja kar usi DanDe se birju ka bhoot bhaga de, kintu neem ke pas khaDi panabharaniyon ki khilkhilahat sun kar ruk gai boli, thahar, tere bappa ne baDa hathchhutta bana diya hai tujhe! baDa hath chalta hai logon par thahr!
makhni phua neem ke pas jhuki kamar se ghaDa utar kar pani bhar kar lautti panabharaniyon mein birju ki man ki bahki hui baat ka insaf kara rahi thi—zara dekho to is birju ki man ko! chaar man pat (joot) ka paisa kya hua hai, dharti par panw hi nahin paDte! nisaf karo! khu apne munh se aath din pahle se hi ganw ki gali gali mein bolti phiri hai, han, is bar birju ke bappa ne kaha hai, bailagaड़i par bitha kar balrampur ka nach dikha launga bail ab apne ghar hai, to hazar gaDi mangni mil jayengi so mainne abhi tok diya, nach dekhnewali sab to aun paun kar taiyar ho rahi hain, rasoi pani kar rahe hain mere munh mein aag lage, kyon main tokne gai! sunti ho, kya jawab diya birju ki man ne?
makhni phua ne apne pople munh ke honthon ko ek or moD kar aithti hui boli nikali—ar rre han han! bi r r jju ki mai ya ke aage nath au rr pichhe pagahiya na ho, tab na aa aa!
jangi ki putohu birju ki man se nahin Darti wo zara gala khol kar hi kahti hai, phua aa! sarbe sittlarmiti (sarwe setalment) ke hakim ke basa par phulchhap kinariwali saDi pahan ke tu bhi bhanta ki bhenti chaDhati to tumhare nam se bhi du teen bigha dhanhar zamin ka parcha kat jata! phir tumhare ghar bhi aaj das man sonabang pat hota, joDa bail kharidta! phir aage nath aur pichhe saikDo pagahiya jhulti!
jangi ki putohu munhazor hai railway station ke pas ki laDki hai teen hi mahine hue, gaune ki nai bahu ho kar i hai aur sare kurma toli ki sabhi jhagaDalu sason se ekadh morcha le chuki hai uska sasur jangi daghi chor hai, siDakilasi hai uska khasam rangi kurma toli ka nami lathait isiliye hamesha seeng ghumati phirti hai jangi ki putohu!
birju ki man ke angan mein jangi ki putohu ki gala khol boli ghulel ki goliyon ki tarah dandanati hui i thi birju ki man ne ek tikha jawab khoj kar nikala, lekin man masos kar rah gai gobar ki Dheri mein kaun Dhela phenke!
jeebh ke jhaal ko gale mein utar kar birju ki man ne apni beti champiya ko awaz di—ari champiya ya ya, aaj laute to teri muDi maroD kar chulhe mein jhonkti hoon! din din bechal hoti jati hai! ganw mein to ab thethar baiskop ka geet ganewali paturiya putohu sab aane lagi hain kahin baithke baje na muraliya seekh rahi hogi h r ja i i! ari champiya ya ya!
jangi ki putohu ne birju ki man ki boli ka swad le kar kamar par ghaDe ko sambhala aur matak kar boli, chal didiya, chal! is muhalle mein lal pan ki begam basti hai! nahin janti, dopahar din aur chauphar raat bijli ki batti bhak bhak kar jalti hai!
bhak bhak bijli batti ki baat sun kar na jane kyon sabhi khilkhila kar hans paDin phua ki tuti hui dant panktiyon ke beech se ek mithi gali nikli—shaitan ki nani!
birju ki man ki ankhon par mano kisi ne tez tarch ki raushani Dal kar chaundhiya diya bhak bhak bijli batti! teen sal pahle sarwe kaimp ke baad ganw ki jalan Dhahi aurton ne ek kahani gaDh ke phailai thi, champiya ki man ke angan mein raat bhar bijli batti bhukabhukati thee! champiya ki man ke angan mein nakwale jute ki chhap ghoDe ki tap ki tarah jalo, jalo! aur jalo! champiya ki man ke angan mein chandi jaise pat sukhte dekh kar jalnewali sab aurten khalihan par sonoli dhan ke bojhon ko dekh kar baingan ka bhurta ho jayengi
mitti ke bartan se tapakte hue chhowa guD ko ungliyon se chatti hui champiya i aur man ke tamache kha kar cheekh paDi—mujhe kyon marti hai e e e! sahuain jaldi se sauda nahin deti hai en en en en!
sahuain jaldi sauda nahin deti ki nani! ek sahuain ki dukan par moti jharte hain, jo jaD gaD kar baithi hui thee! bol, gale par lat de kar kalla toD dungi harjai, jo phir kabhi baje na muraliya gate suna! chaal sikhne jati hai tishan ki chhokariyon se!
birju ke man ne chup ho kar apni awaz andazi ki uski baat jangi ke jhompDe tak saf saf pahunch gai hogi
birju biti hui baton ko bhool kar uth khaDa hua tha aur dhool jhaDte hue bartan se tapakte guD ko lalchai nigah se dekhne laga tha didi ke sath wo bhi dukan jata to didi use bhi guD chatati, zarur! wo shakarkand ke lobh mein raha aur mangne par man ne shakarkand ke badle e maiya, ek anguli guD de de birju ne talahthi phailai—de na maiya, ek ratti bhar!
ek ratti kyon, uthake bartan ko phenk aati hoon pichhwaDe mein, jake chatna! nahin banegi mithi roti! mithi roti khane ka munh hota hai birju ki man ne uble shakarkand ka soup roti hui champiya ke samne rakhte hue kaha, baithke chhilke utar, nahin to abhi !
das sal ki champiya janti hai, shakarkand chhilte samay kam se kam barah bar man use baal pakaD kar jhakjhoregi, chhoti chhoti khot nikal kar galiyan degi—panw phailake kyon baithi hai us tarah, belalji! champiya man ke ghusse ko janti hai
birju ne is mauqe par thoDi si khushamad karke dekha—maiya, main bhi baith kar shakarkand chhilun?
nahin? man ne jhiDki di, ek shakarkand chhilega aur teen pet mein! jake siddhu ki bahu se kaho, ek ghante ke liye kaDahi mang kar le gai to phir lautane ka nam nahin ja jaldi!
munh latka kar angan se nikalte nikalte birju ne shakarkand aur guD par nigahen dauDai champiya ne apne jhabre kesh ki ot se man ki or dekha aur nazar bacha kar chupke se birju ki or ek shakarkand phenk diya birju bhaga
suraj bhagwan Doob gaye diya batti ki bela ho gai abhi tak gaDi
champiya beech mein hi bol uthi—koyri tole mein kisi ne gaDi nahin di maiya! bappa bole, man se kahna sab theek thak karke taiyar rahen maladahiya toli ke miyanjan ki gaDi lane ja raha hoon
sunte hi birju ki man ka chehra utar gaya laga, chhate ki kamani utar gai ghoDe se achanak koyri tole mein kisi ne gaDi mangni nahin dee! tab mil chuki gaDi! jab apne ganw ke logon ki ankh mein pani nahin to maladahiya toli ke miyanjan ki gaDi ka kya bharosa! na teen mein na terah mein! kya hoga shakarkand chheel kar! rakh de utha ke! ye mard nach dikhayega bailagaड़i par chaDh kar nach dikhane le jayega! chaDh chuki bailagaड़i par, dekh chuki ji bhar nach paidal janewali sab pahunch kar purani ho chuki hongi
birju chhoti kaDahi sir par aundha kar wapas aya—dekh didiya, maletri topi! is par das lathi marne par bhi kuch nahin hota
champiya chupchap baithi rahi, kuch boli nahin, zara si muskrai bhi nahin birju ne samajh liya, maiya ka ghussa abhi utra nahin hai pure taur se
maDhaiya ke andar se baghaD ko bahar bhagati hui birju ki man baDabDai—kal hi panchkauDi qasai ke hawale karti hoon rakas tujhe! har cheez mein munh lagayega champiya, bandh de baghaD ko khol de gale ki ghanti! hamesha tunur tunur! mujhe zara nahin suhata hai!
tunur tunur sunte hi birju ko saDak se jati hui bailgaDiyon ki yaad ho i—abhi babuan tole ki gaDiyan nach dekhne ja rahi theen jhunur jhunur bailon ki jhumki, tumne su
besi bak bak mat karo! baghaD ke gale se jhumki kholti boli champiya
champiya, Dal de chulhe mein pani! bappa aawe to kahna ki apne uDanajhaz par chaDh kar nach dekh ayen! mujhe nach dekhne ka saukh nahin! mujhe jagaiyo mat koi! mera matha dukh raha hai
maDhaiya ke osare par birju ne phisaphisa ke puchha, kyon didiya, nach mein uDanajhaz bhi uDega?
chatai par kathri oDh kar baithti hui champiya ne birju ko chupchap apne pas baithne ka ishara kiya, muft mein mar khayega bechara!
birju ne bahan ki kathri mein hissa bantte hue chukki mukki lagai jaDe ke samay is tarah ghutne par thuDDi rakh kar chukki mikki lagana seekh chuka hai wo usne champiya ke kan ke pas munh le ja kar kaha, hum log nach dekhne nahin jayenge? ganw mein ek panchhi bhi nahin hai sab chale gaye
champiya ko til bhar bhi bharosa nahin sanjha tara Doob raha hai bappa abhi tak gaDi le kar nahin laute ek mahina pahle se hi maiya kahti thi, balrampur ke nach ke din mithi roti banegi, champiya chheent ki saDi pahnegi, birju paint pahnega, bailagaड़i par chaDh kar
champiya ki bhigi palkon par ek boond ansu aa gaya
birju ka bhi dil bhar aaya usne man hi man mein imli par rahnewale jinbaba ko ek baingan kabula, gachh ka sabse pahla baingan, usne khu jis paudhe ko ropa hai! jaldi se gaDi le kar bappa ko bhej do, jinbaba!
maDhaiya ke andar birju ki man chatai par paDi karawten le rahi thi unh, pahle se kisi baat ka mansuba nahin bandhna chahiye kisi ko! bhagwan ne mansuba toD diya usko sabse pahle bhagwan se puchhna hai, ye kis chook ka phal de rahe ho bhola baba! apne jante usne kisi dewta pittar ki man manauti baqi nahin rakhi sarwe ke samay zamin ke liye jitni manautiyan ki theen theek hi to! mahabir ji ka rot to baqi hi hai hay re daiw! bhool chook maf karo mahabir baba! manauti duni karke chaDhayegi birju ki man!
birju ki man ke man mein rah rah kar jangi ki putohu ki baten chubhti hain, bhak bhak bijli batti! chori chamari karnewali ki beti putohu jalegi nahin! panch bigha zamin kya hasil ki hai birju ke bappa ne, ganw ki bhaikhaukiyon ki ankhon mein kirakiri paD gai hai khet mein pat laga dekh kar ganw ke logon ki chhati phatne lagi, dharti phoD kar pat laga hai, baisakhi badlon ki tarah umaDte aa rahe hain pat ke paudhe! to alan, to phalan! itni ankhon ki dhaar bhala fasal sahe! jahan pandrah man pat hona chahiye, sirf das man pat kanta par taul ke ojan hua bhagat ke yahan
ismen jalne ki kya baat hai bhala! birju ke bappa ne to pahle hi kurma toli ke ek ek adami ko samjha ke kaha, jindgi bhar mazduri karte rah jaoge sarwe ka samay aa raha hai, lathi kaDi karo to do chaar bighe zamin hasil kar sakte ho so ganw ki kisi putkhauki ka bhatar sarwe ke samay babusaheb ke khilaf khansa bhi nahin birju ke bappa ko kam sahna paDa hai! babusaheb ghusse se sarkas nach ke bagh ki tarah humaDte rah gaye unka baDa beta ghar mein aag lagane ki dhamki dekar gaya akhir babusaheb ne apne sabse chhote laDke ko bheja birju ki man ko mausi kahke pukara—yah zamin babu ji ne mere nam se kharidi thi meri paDhai likhai isi zamin ki upaj se chalti hai aur bhi kitni baten khoob mohana janta hai utta zara sa laDka zamindar ka beta hai ki ’
champiya, birju so gaya kya? yahan aa ja birju, andar tu bhi aa ja, champiya! bhala adami aaye to ek bar aaj!
birju ke sath champiya andar chali gai
Dhibri bujha de bappa bulayen to jawab mat dena khapachchi gira de
bhala adami re, bhala adami! munh dekho zara is mard ka! birju ki man din raat manjha na deti rahti to le chuke the zamin! roz aa kar matha pakaD ke baith jayen, mujhe zamin nahin leni hai birju ki man, majuri hi achchhi jawab deti thi birju ki man khoob soch samajhke, chhoD do, jab tumhara kaleja hi sthir nahin hota hai to kya hoga? joru zamin zor ke, nahin to kisi aur ke! ’
birju ke bap par bahut tezi se ghussa chaDhta hai chaDhta hi jata hai birju ki man ka bhag hi kharab hai, jo aisa gobaragnesh gharwala use mila kaun sa saukh mauj diya hai uske mard ne? kolhu ke bail ki tarah khat kar sari umr kat di iske yahan, kabhi ek paise ki jalebi bhi la kar di hai uske khasam ne! pat ka dam bhagat ke yahan se le kar bahar hi bahar bail hatta chale gaye birju ki man ko ek bar namri lot dekhne bhi nahin diya ankh se bail kharid laye usi din se ganw mein DhinDhora pitne lage, birju ki man is bar bailagaड़i par chaDh kar jayegi nach dekhne! dusre ki gaDi ke bharose nach dikhayega!
ant mein use apne aap par krodh ho aaya wo khu bhi kuch kam nahin! uski jeebh mein aag lage! bailagaड़i par chaDh kar nach dekhne ki lalsa kis kusmay mein uske munh se nikli thi, bhagwan jane! phir aaj subah se dopahar tak, kisi na kisi bahane usne atharah bar bailagaड़i par nach dekhne ki charcha chheDi hai lo, khoob dekho nach! kathri ke niche dushale ka sapna! kal bhore pani bharne ke liye jab jayegi, patli jibhwali paturiya sab hansti ayengi, hansti jayengi sabhi jalte hai usse, han bhagwan, daDhijar bhee! do bachchon ki man ho kar bhi wo jas ki tas hai uska gharwala uski baat mein rahta hai wo balon mein gari ka tel Dalti hai uski apni zamin hai hai kisi ke pas ek ghoor zamin bhi apne is ganw mein! jalenge nahin, teen bighe mein dhan laga hua hai, agahni logon ki bikhdith se bache, tab to!
bahar bailon ki ghantiyan sunai paDin tinon satark ho gaye utkarn hokar sunte rahe
apne hi bailon ki ghanti hai, kyon ri champiya?
champiya aur birju ne prayah ek hi sath kaha, hoon un un!
chup birju ki man ne phisaphisa kar kaha, shayad gaDi bhi hai, ghaDaghDati hai n?
hoon un un! donon ne phir hunkari bhari
chup! gaDi nahin hai tu chupke se tatti mein chhed karke dekh to aa champi! bhagke aa, chupke chupke
champiya billi ki tarah haule haule panw se tatti ke chhed se jhank i—han maiya, gaDi bhi hai!
birju haDbaDa kar uth baitha uski man ne uska hath pakaD kar sula diya—bole mat!
champiya bhi gudDi ke niche ghus gai
bahar bailagaड़i kholne ki awaz hui birju ke bap ne bailon ko zor se Danta—han han! aa gaye ghar! ghar aane ke liye chhati phati jati thee!
birju ki man taD gai, zarur maladahiya toli mein ganje ki chilam chaDh rahi thi, awaz to baDi khankhanati hui nikal rahi hai
champiya h! bahar se pukar kar kaha uske bap ne, bailon ko ghas de de, champiya h!
andar se koi jawab nahin aaya champiya ke bap ne angan mein aa kar dekha to na raushani, na charagh, na chulhe mein aag baat kya hai! nach dekhne, utawli ho kar, paidal hi chali gai kya !
birju ke gale mein khasakhsahat hui aur usne rokne ki puri koshish bhi ki, lekin khansi jab shuru hui to pure panch minat tak wo khansata raha
birju! beta birajmohan! birju ke bap ne puchkar kar bulaya, maiya ghusse ke mare so gai kya? are abhi to log ja hi rahe hain
birju ki man ke man mein aaya ki kas kar jawab de, nahin dekhana hai nach! lauta do gaDi!
champiya h! uthti kyon nahin? le, dhan ki panchasis rakh de dhan ki baliyon ka chhota jhabba jhompDe ke osre par rakh kar usne kaha, diya balo!
birju ki man uth kar osare par i—DeDh pahar raat ko gaDi lane ki kya zarurat thee? nach to ab khatm ho raha hoga
Dhibri ki raushani mein dhan ki baliyon ka rang dekhte hi birju ki man ke man ka sab mail door ho gaya dhani rang uski ankhon se utar kar rom rom mein ghul gaya
nach abhi shuru bhi nahin hua hoga abhi abhi balampur ke babu ki sampni gaDi mohanpur hotil bangla se hakim sahab ko lane gai hai is sal akhiri nach hai panchasis tatti mein khons de, apne khet ka hai
apne khet ka? hulasti hui birju ki man ne puchha, pak gaye dhan?
nahin, das din mein aghan chaDhte chaDhte lal ho kar jhuk jayengi sare khet ki baliyan! maladahiya toli par ja raha tha, apne khet mein dhan dekh kar ankhen juDa gain sach kahta hoon, panchasis toDte samay ungliyan kanp rahi theen meri!
birju ne dhan ki ek bali se ek dhan le kar munh mein Dal liya aur uski man ne ek halki Dant di—kaisa lukkD hai tu re! in dushmnon ke mare koi nem dharam bache!
kya hua, Dantti kyon hai?
nawann ke pahle hi naya dhan jutha diya, dekhte nahin?
are, in logon ka sab kuch maf hai chiri churmun hain ye log! donon ke munh mein nawann ke pahle naya ann na paDe?
iske baad champiya ne bhi dhan ki bali se do dhan lekar danton tale dabaye—o maiya! itna mitha chawal!
aur gamakta bhi hai na didiya? birju ne phir munh mein dhan liya
roti poti taiyar kar chuki kya? birju ke bap ne muskurakar puchha
nahin! man bhare sur mein boli birju ki man, jane ka theek thikana nahin aur roti banati!
wah! khoob ho tum log! jiske pas bail hai, use gaDi mangni nahin milegi bhala? gaDiwalon ko bhi kabhi bail ki zarurat hogi puchhunga tab koyri tola walon se! le, jaldi se roti bana le
der nahin hogi!
are, tokari bhar roti to tu palak marte bana deti hai, panch rotiyan banane mein kitni der lagegi!
ab birju ki man ke honthon par muskurahat khul kar khilne lagi usne nazar bacha kar dekha, birju ka bappa uski or ektak nihar raha hai champiya aur birju na hote to man ki baat hans kar kholne mein der na lagti champiya aur birju ne ek dusre ko dekha aur khushi se unke chehre jagmaga uthe—maiya bekar ghussa ho rahi thi n!
champi! zara ghailsar mein khaDi ho kar makhni phua ko awaz de to!
ai phu aa aa! sunti ho phua aa! maiya bula rahi hai!
phua ne koi jawab nahin diya, kintu uski baDabDahat aspasht sunai paDi—han! ab phua ko kyon guharti hai? sare tole mein bus ek phua hi to bina nath pagahiyawali hai
ari phua! birju ki man ne hans kar jawab diya, us samay bura man gai thi kya? nath pagahiyawale ko aa kar dekho, dopahar raat mein gaDi lekar aaya hai! aa jao phua, main mithi roti pakana nahin janti
phua kankhati khansti i—isi ke ghaDi pahar din rahte hi poochh rahi thi ki nach dekhne jayegi kya? kahti, to main pahle se hi apni angihti yahan sulga jati
birju ki man ne phua ko angihti dikhla di aur kaha, ghar mein anaj dana waghairah to kuch hai nahin ek baghaD hai aur kuch bartan basan, so raat bhar ke liye yahan tambaku rakh jati hoon apna hukka le i ho na phua?
phua ko tambaku mil jaye, to raat bhar kya, panch raat baith kar jag sakti hai phua ne andhere mein tatol kar tambaku ka andaj kiya o ho! hath khol kar tambaku rakha hai birju ki man ne! aur ek wo hai sahuain! ram kaho! us raat ko afim ki goli ki tarah ek matar bhar tambaku rakh kar chali gai gulab bag mele aur kah gai ki Dibbi bhar tambaku hai
birju ki man chulha sulgane lagi champiya ne shakarkand ko masal kar gole banaye aur birju sir par kaDahi aundha kar apne bap ko dikhlane laga—maletri topi! is par das lathi marne par bhi kuch nahin hoga!
sabhi thatha kar hans paDe birju ki man hans kar boli, takhe par teen chaar mote shakarkand hain, de de birju ko champiya, bechara sham se hi
bechara mat kaho maiya, khoob sachara hai ab champiya chahakne lagi, tum kya jano, kathri ke niche munh kyon chal raha tha babu sahab ka!
hi hi hee!
birju ke tute doodh ke danto ki phank se boli nikli, bilaik martin mein panch shakarkand kha liya! ha ha ha!
sabhi phir thathakar hans paDe birju ki man ne phua ka man rakhne ke liye puchha, ek kanwan guD hai aadha doon phua?
phua ne gadgad ho kar kaha, ari shakarkand to khu mitha hota hai, utna kyon Dalegi?
jab tak donon bail dana ghas kha kar ek dusre ki deh ko jeebh se chaten, birju ki man taiyar ho gai champiya ne chheent ki saDi pahni aur birju button ke abhaw mein paint par patsan ki Dori bandhwane laga
birju ke man ne angan se nikal ganw ki or kan laga kar sunne ki cheshta ki—unhun, itni der tak bhala paidal janewale ruke rahenge?
purnaima ka chand sir par aa gaya hai birju ki man ne asli rupa ka mangtikka pahna hai aaj, pahli bar birju ke bappa ko ho kya gaya hai, gaDi jotta kyon nahin, munh ki or ektak dekh raha hai, mano nach ki lalpan ki
gaDi par baithte hi birju ki man ki deh mein ek ajib gudgudi lagne lagi usne bans ki balli ko pakaD kar kaha, gaDi par abhi bahut jagah hai zara dahini saDak se gaDi hankna
bail jab dauDne lage aur pahiya jab choon choon karke gharaghrane laga to birju se nahin raha gaya—uDanajhaz ki tarah uDao bappa!
gaDi jangi ke pichhwaDe pahunchi birju ki man ne kaha, zara jangi se puchho na, uski putohu nach dekhne chali gai kya?
gaDi ke rukte hi jangi ke jhompDe se aati hui rone ki awaz aspasht ho gai birju ke bappa ne puchha, are jangi bhai, kahe kann rohat ho raha hai angan mein?
jangi ghoor tap raha tha, bola, kya puchhte ho, rangi balrampur se lauta nahin, putohiya nach dekhne kaise jaye! aasra dekhte dekhte udhar ganw ki sabhi aurten chali gai
ari tishanwali, to roti hai kahe! birju ki man ne pukar kar kaha, a ja jhat se kapDa pahan kar sari gaDi paDi hui hai! bechari! aa ja jaldi!
baghal ke jhompDe se radhe ki beti sunri ne kaha, kaki, gaDi mein jagah hai? main bhi jaungi
bans ki jhaDi ke us par larena khawas ka ghar hai uski bahu bhi nahin gai hai gilat ka jhumki kaDa pahan kar jhamakti aa rahi hai
a ja! jo baqi rah gai hain, sab aa jayen jaldi!
jangi ki putohu, larena ki biwi aur radhe ki beti sunri, tinon gaDi ke pas i bail ne pichhla pair phenka birju ke bap ne ek bhaddi gali di—sala! lataD mar kar langDi banayega putohu ko!
sabhi thathakar hans paDe birju ke bap ne ghunghat mein jhuki donon putohuon ko dekha use apne khet ki jhuki hui baliyon ki yaad aa gai
jangi ki putohu ka gauna teen hi mas pahle hua hai gaune ki rangin saDi se kaDwe tel aur lathwa sindur ki gandh aa rahi hai birju ki man ko apne gaune ki yaad i usne kapDe ki gathri se teen mithi rotiyan nikal kar kaha, kha le ek ek karke simraha ke sarkari koop mein pani pi lena
gaDi ganw se bahar ho kar dhan ke kheton ke baghal se jane lagi chandni, katik kee! kheton se dhan ke jharte phulon ki gandh aati hai bans ki jhaDi mein kahin duddhi ki lata phuli hai jangi ki putohu ne ek biDi sulga kar birju ki man ki or baDhai birju ki man ko achanak yaad i champiya, sunri, larena ki biwi aur jangi ki putohu, ye charon hi ganw mein baiskop ka geet gana janti hain khoob!
gaDi ki leak dhankheton ke beech ho kar gai charon or gaune ki saDi ki khasakhsahat jaisi awaz hoti hai birju ki man ke mathe ke mangtikke par chandni chhitakti hai
achchha, ab ek baiskop ka geet ga to champiya! Darti hai kahe? jahan bhool jaogi, baghal mein masatarni baithi hi hai!
donon putohuon ne to nahin, kintu champiya aur sunri ne khankhar kar gala saf kiya
birju ke bap ne bailon ko lalkara—chal bhaiya! aur zara zor se! ga re champiya, nahin to main bailon ko dhire dhire chalne ko kahunga
jangi ki putohu ne champiya ke kan ke pas ghunghat le ja kar kuch kaha aur champiya ne dhime se shuru kiya—chanda ki chandni
birju ko god mein le kar baithi uski man ki ichha hui ki wo bhi sath sath geet gaye birju ki man ne jangi ki putohu ko dekha, dhire dhire gunguna rahi hai wo bhi kitni pyari putohu hai! gaune ki saDi se ek khas qim ki gandh nikalti hai theek hi to kaha hai usne! birju ki man begam hai, lalpan ki begam! ye to koi buri baat nahin han, wo sachmuch lal pan ki begam hai!
birju ki man ne apni nak par donon ankhon ko kendrit karne ki cheshta karke apne rup ki jhanki li, lal saDi ki jhilmil kinari, mangtikka par chand birju ki man ke man mein ab aur koi lalsa nahin use neend aa rahi hai
kyon birju ki man, nach dekhne nahin jayegi kya?
birju ki man shakarkand ubaal kar baithi man hi man kuDh rahi thi apne angan mein sat sal ka laDka birju shakarkand ke badle tamache kha kar angan mein lot pot kar sari deh mein mitti mal raha tha champiya ke sir bhi chuDail manDara rahi hai aadhe angan dhoop rahte jo gai hai sahuain ki dukan chhowa guD lane, so abhi tak nahin lauti, diya bati ki bela ho gai aaye aaj lautke zara! baghaD bakre ki deh mein kukurmachhi lagi thi, isliye bechara baghaD rah rah kar kood phand kar raha tha birju ki man baghaD par man ka ghussa utarne ka bahana DhoonDh kar nikal chuki thi pichhwaDe ki mirch ki phuli gachh! baghaD ke siwa aur kisne kalewa kiya hoga! baghaD ko marne ke liye wo mitti ka chhota Dhela utha chuki thi, ki paDosin makhni phua ki pukar sunai paDi—kyon birju ki man, nach dekhne nahin jayegi kya?
birju ki man ke aage nath aur pichhe pagahiya na ho tab na, phua!
garm ghusse mein bujhi nukili baat phua ki deh mein dhans gai aur birju ki man ne hath ke Dhele ko pas hi phenk diya—bechare baghaD ko kukurmachhi pareshan kar rahi hai aa ha, aay aay! harr r r! aay aay!
birju ne lete hi lete baghaD ko ek DanDa laga diya birju ki man ki ichha hui ki ja kar usi DanDe se birju ka bhoot bhaga de, kintu neem ke pas khaDi panabharaniyon ki khilkhilahat sun kar ruk gai boli, thahar, tere bappa ne baDa hathchhutta bana diya hai tujhe! baDa hath chalta hai logon par thahr!
makhni phua neem ke pas jhuki kamar se ghaDa utar kar pani bhar kar lautti panabharaniyon mein birju ki man ki bahki hui baat ka insaf kara rahi thi—zara dekho to is birju ki man ko! chaar man pat (joot) ka paisa kya hua hai, dharti par panw hi nahin paDte! nisaf karo! khu apne munh se aath din pahle se hi ganw ki gali gali mein bolti phiri hai, han, is bar birju ke bappa ne kaha hai, bailagaड़i par bitha kar balrampur ka nach dikha launga bail ab apne ghar hai, to hazar gaDi mangni mil jayengi so mainne abhi tok diya, nach dekhnewali sab to aun paun kar taiyar ho rahi hain, rasoi pani kar rahe hain mere munh mein aag lage, kyon main tokne gai! sunti ho, kya jawab diya birju ki man ne?
makhni phua ne apne pople munh ke honthon ko ek or moD kar aithti hui boli nikali—ar rre han han! bi r r jju ki mai ya ke aage nath au rr pichhe pagahiya na ho, tab na aa aa!
jangi ki putohu birju ki man se nahin Darti wo zara gala khol kar hi kahti hai, phua aa! sarbe sittlarmiti (sarwe setalment) ke hakim ke basa par phulchhap kinariwali saDi pahan ke tu bhi bhanta ki bhenti chaDhati to tumhare nam se bhi du teen bigha dhanhar zamin ka parcha kat jata! phir tumhare ghar bhi aaj das man sonabang pat hota, joDa bail kharidta! phir aage nath aur pichhe saikDo pagahiya jhulti!
jangi ki putohu munhazor hai railway station ke pas ki laDki hai teen hi mahine hue, gaune ki nai bahu ho kar i hai aur sare kurma toli ki sabhi jhagaDalu sason se ekadh morcha le chuki hai uska sasur jangi daghi chor hai, siDakilasi hai uska khasam rangi kurma toli ka nami lathait isiliye hamesha seeng ghumati phirti hai jangi ki putohu!
birju ki man ke angan mein jangi ki putohu ki gala khol boli ghulel ki goliyon ki tarah dandanati hui i thi birju ki man ne ek tikha jawab khoj kar nikala, lekin man masos kar rah gai gobar ki Dheri mein kaun Dhela phenke!
jeebh ke jhaal ko gale mein utar kar birju ki man ne apni beti champiya ko awaz di—ari champiya ya ya, aaj laute to teri muDi maroD kar chulhe mein jhonkti hoon! din din bechal hoti jati hai! ganw mein to ab thethar baiskop ka geet ganewali paturiya putohu sab aane lagi hain kahin baithke baje na muraliya seekh rahi hogi h r ja i i! ari champiya ya ya!
jangi ki putohu ne birju ki man ki boli ka swad le kar kamar par ghaDe ko sambhala aur matak kar boli, chal didiya, chal! is muhalle mein lal pan ki begam basti hai! nahin janti, dopahar din aur chauphar raat bijli ki batti bhak bhak kar jalti hai!
bhak bhak bijli batti ki baat sun kar na jane kyon sabhi khilkhila kar hans paDin phua ki tuti hui dant panktiyon ke beech se ek mithi gali nikli—shaitan ki nani!
birju ki man ki ankhon par mano kisi ne tez tarch ki raushani Dal kar chaundhiya diya bhak bhak bijli batti! teen sal pahle sarwe kaimp ke baad ganw ki jalan Dhahi aurton ne ek kahani gaDh ke phailai thi, champiya ki man ke angan mein raat bhar bijli batti bhukabhukati thee! champiya ki man ke angan mein nakwale jute ki chhap ghoDe ki tap ki tarah jalo, jalo! aur jalo! champiya ki man ke angan mein chandi jaise pat sukhte dekh kar jalnewali sab aurten khalihan par sonoli dhan ke bojhon ko dekh kar baingan ka bhurta ho jayengi
mitti ke bartan se tapakte hue chhowa guD ko ungliyon se chatti hui champiya i aur man ke tamache kha kar cheekh paDi—mujhe kyon marti hai e e e! sahuain jaldi se sauda nahin deti hai en en en en!
sahuain jaldi sauda nahin deti ki nani! ek sahuain ki dukan par moti jharte hain, jo jaD gaD kar baithi hui thee! bol, gale par lat de kar kalla toD dungi harjai, jo phir kabhi baje na muraliya gate suna! chaal sikhne jati hai tishan ki chhokariyon se!
birju ke man ne chup ho kar apni awaz andazi ki uski baat jangi ke jhompDe tak saf saf pahunch gai hogi
birju biti hui baton ko bhool kar uth khaDa hua tha aur dhool jhaDte hue bartan se tapakte guD ko lalchai nigah se dekhne laga tha didi ke sath wo bhi dukan jata to didi use bhi guD chatati, zarur! wo shakarkand ke lobh mein raha aur mangne par man ne shakarkand ke badle e maiya, ek anguli guD de de birju ne talahthi phailai—de na maiya, ek ratti bhar!
ek ratti kyon, uthake bartan ko phenk aati hoon pichhwaDe mein, jake chatna! nahin banegi mithi roti! mithi roti khane ka munh hota hai birju ki man ne uble shakarkand ka soup roti hui champiya ke samne rakhte hue kaha, baithke chhilke utar, nahin to abhi !
das sal ki champiya janti hai, shakarkand chhilte samay kam se kam barah bar man use baal pakaD kar jhakjhoregi, chhoti chhoti khot nikal kar galiyan degi—panw phailake kyon baithi hai us tarah, belalji! champiya man ke ghusse ko janti hai
birju ne is mauqe par thoDi si khushamad karke dekha—maiya, main bhi baith kar shakarkand chhilun?
nahin? man ne jhiDki di, ek shakarkand chhilega aur teen pet mein! jake siddhu ki bahu se kaho, ek ghante ke liye kaDahi mang kar le gai to phir lautane ka nam nahin ja jaldi!
munh latka kar angan se nikalte nikalte birju ne shakarkand aur guD par nigahen dauDai champiya ne apne jhabre kesh ki ot se man ki or dekha aur nazar bacha kar chupke se birju ki or ek shakarkand phenk diya birju bhaga
suraj bhagwan Doob gaye diya batti ki bela ho gai abhi tak gaDi
champiya beech mein hi bol uthi—koyri tole mein kisi ne gaDi nahin di maiya! bappa bole, man se kahna sab theek thak karke taiyar rahen maladahiya toli ke miyanjan ki gaDi lane ja raha hoon
sunte hi birju ki man ka chehra utar gaya laga, chhate ki kamani utar gai ghoDe se achanak koyri tole mein kisi ne gaDi mangni nahin dee! tab mil chuki gaDi! jab apne ganw ke logon ki ankh mein pani nahin to maladahiya toli ke miyanjan ki gaDi ka kya bharosa! na teen mein na terah mein! kya hoga shakarkand chheel kar! rakh de utha ke! ye mard nach dikhayega bailagaड़i par chaDh kar nach dikhane le jayega! chaDh chuki bailagaड़i par, dekh chuki ji bhar nach paidal janewali sab pahunch kar purani ho chuki hongi
birju chhoti kaDahi sir par aundha kar wapas aya—dekh didiya, maletri topi! is par das lathi marne par bhi kuch nahin hota
champiya chupchap baithi rahi, kuch boli nahin, zara si muskrai bhi nahin birju ne samajh liya, maiya ka ghussa abhi utra nahin hai pure taur se
maDhaiya ke andar se baghaD ko bahar bhagati hui birju ki man baDabDai—kal hi panchkauDi qasai ke hawale karti hoon rakas tujhe! har cheez mein munh lagayega champiya, bandh de baghaD ko khol de gale ki ghanti! hamesha tunur tunur! mujhe zara nahin suhata hai!
tunur tunur sunte hi birju ko saDak se jati hui bailgaDiyon ki yaad ho i—abhi babuan tole ki gaDiyan nach dekhne ja rahi theen jhunur jhunur bailon ki jhumki, tumne su
besi bak bak mat karo! baghaD ke gale se jhumki kholti boli champiya
champiya, Dal de chulhe mein pani! bappa aawe to kahna ki apne uDanajhaz par chaDh kar nach dekh ayen! mujhe nach dekhne ka saukh nahin! mujhe jagaiyo mat koi! mera matha dukh raha hai
maDhaiya ke osare par birju ne phisaphisa ke puchha, kyon didiya, nach mein uDanajhaz bhi uDega?
chatai par kathri oDh kar baithti hui champiya ne birju ko chupchap apne pas baithne ka ishara kiya, muft mein mar khayega bechara!
birju ne bahan ki kathri mein hissa bantte hue chukki mukki lagai jaDe ke samay is tarah ghutne par thuDDi rakh kar chukki mikki lagana seekh chuka hai wo usne champiya ke kan ke pas munh le ja kar kaha, hum log nach dekhne nahin jayenge? ganw mein ek panchhi bhi nahin hai sab chale gaye
champiya ko til bhar bhi bharosa nahin sanjha tara Doob raha hai bappa abhi tak gaDi le kar nahin laute ek mahina pahle se hi maiya kahti thi, balrampur ke nach ke din mithi roti banegi, champiya chheent ki saDi pahnegi, birju paint pahnega, bailagaड़i par chaDh kar
champiya ki bhigi palkon par ek boond ansu aa gaya
birju ka bhi dil bhar aaya usne man hi man mein imli par rahnewale jinbaba ko ek baingan kabula, gachh ka sabse pahla baingan, usne khu jis paudhe ko ropa hai! jaldi se gaDi le kar bappa ko bhej do, jinbaba!
maDhaiya ke andar birju ki man chatai par paDi karawten le rahi thi unh, pahle se kisi baat ka mansuba nahin bandhna chahiye kisi ko! bhagwan ne mansuba toD diya usko sabse pahle bhagwan se puchhna hai, ye kis chook ka phal de rahe ho bhola baba! apne jante usne kisi dewta pittar ki man manauti baqi nahin rakhi sarwe ke samay zamin ke liye jitni manautiyan ki theen theek hi to! mahabir ji ka rot to baqi hi hai hay re daiw! bhool chook maf karo mahabir baba! manauti duni karke chaDhayegi birju ki man!
birju ki man ke man mein rah rah kar jangi ki putohu ki baten chubhti hain, bhak bhak bijli batti! chori chamari karnewali ki beti putohu jalegi nahin! panch bigha zamin kya hasil ki hai birju ke bappa ne, ganw ki bhaikhaukiyon ki ankhon mein kirakiri paD gai hai khet mein pat laga dekh kar ganw ke logon ki chhati phatne lagi, dharti phoD kar pat laga hai, baisakhi badlon ki tarah umaDte aa rahe hain pat ke paudhe! to alan, to phalan! itni ankhon ki dhaar bhala fasal sahe! jahan pandrah man pat hona chahiye, sirf das man pat kanta par taul ke ojan hua bhagat ke yahan
ismen jalne ki kya baat hai bhala! birju ke bappa ne to pahle hi kurma toli ke ek ek adami ko samjha ke kaha, jindgi bhar mazduri karte rah jaoge sarwe ka samay aa raha hai, lathi kaDi karo to do chaar bighe zamin hasil kar sakte ho so ganw ki kisi putkhauki ka bhatar sarwe ke samay babusaheb ke khilaf khansa bhi nahin birju ke bappa ko kam sahna paDa hai! babusaheb ghusse se sarkas nach ke bagh ki tarah humaDte rah gaye unka baDa beta ghar mein aag lagane ki dhamki dekar gaya akhir babusaheb ne apne sabse chhote laDke ko bheja birju ki man ko mausi kahke pukara—yah zamin babu ji ne mere nam se kharidi thi meri paDhai likhai isi zamin ki upaj se chalti hai aur bhi kitni baten khoob mohana janta hai utta zara sa laDka zamindar ka beta hai ki ’
champiya, birju so gaya kya? yahan aa ja birju, andar tu bhi aa ja, champiya! bhala adami aaye to ek bar aaj!
birju ke sath champiya andar chali gai
Dhibri bujha de bappa bulayen to jawab mat dena khapachchi gira de
bhala adami re, bhala adami! munh dekho zara is mard ka! birju ki man din raat manjha na deti rahti to le chuke the zamin! roz aa kar matha pakaD ke baith jayen, mujhe zamin nahin leni hai birju ki man, majuri hi achchhi jawab deti thi birju ki man khoob soch samajhke, chhoD do, jab tumhara kaleja hi sthir nahin hota hai to kya hoga? joru zamin zor ke, nahin to kisi aur ke! ’
birju ke bap par bahut tezi se ghussa chaDhta hai chaDhta hi jata hai birju ki man ka bhag hi kharab hai, jo aisa gobaragnesh gharwala use mila kaun sa saukh mauj diya hai uske mard ne? kolhu ke bail ki tarah khat kar sari umr kat di iske yahan, kabhi ek paise ki jalebi bhi la kar di hai uske khasam ne! pat ka dam bhagat ke yahan se le kar bahar hi bahar bail hatta chale gaye birju ki man ko ek bar namri lot dekhne bhi nahin diya ankh se bail kharid laye usi din se ganw mein DhinDhora pitne lage, birju ki man is bar bailagaड़i par chaDh kar jayegi nach dekhne! dusre ki gaDi ke bharose nach dikhayega!
ant mein use apne aap par krodh ho aaya wo khu bhi kuch kam nahin! uski jeebh mein aag lage! bailagaड़i par chaDh kar nach dekhne ki lalsa kis kusmay mein uske munh se nikli thi, bhagwan jane! phir aaj subah se dopahar tak, kisi na kisi bahane usne atharah bar bailagaड़i par nach dekhne ki charcha chheDi hai lo, khoob dekho nach! kathri ke niche dushale ka sapna! kal bhore pani bharne ke liye jab jayegi, patli jibhwali paturiya sab hansti ayengi, hansti jayengi sabhi jalte hai usse, han bhagwan, daDhijar bhee! do bachchon ki man ho kar bhi wo jas ki tas hai uska gharwala uski baat mein rahta hai wo balon mein gari ka tel Dalti hai uski apni zamin hai hai kisi ke pas ek ghoor zamin bhi apne is ganw mein! jalenge nahin, teen bighe mein dhan laga hua hai, agahni logon ki bikhdith se bache, tab to!
bahar bailon ki ghantiyan sunai paDin tinon satark ho gaye utkarn hokar sunte rahe
apne hi bailon ki ghanti hai, kyon ri champiya?
champiya aur birju ne prayah ek hi sath kaha, hoon un un!
chup birju ki man ne phisaphisa kar kaha, shayad gaDi bhi hai, ghaDaghDati hai n?
hoon un un! donon ne phir hunkari bhari
chup! gaDi nahin hai tu chupke se tatti mein chhed karke dekh to aa champi! bhagke aa, chupke chupke
champiya billi ki tarah haule haule panw se tatti ke chhed se jhank i—han maiya, gaDi bhi hai!
birju haDbaDa kar uth baitha uski man ne uska hath pakaD kar sula diya—bole mat!
champiya bhi gudDi ke niche ghus gai
bahar bailagaड़i kholne ki awaz hui birju ke bap ne bailon ko zor se Danta—han han! aa gaye ghar! ghar aane ke liye chhati phati jati thee!
birju ki man taD gai, zarur maladahiya toli mein ganje ki chilam chaDh rahi thi, awaz to baDi khankhanati hui nikal rahi hai
champiya h! bahar se pukar kar kaha uske bap ne, bailon ko ghas de de, champiya h!
andar se koi jawab nahin aaya champiya ke bap ne angan mein aa kar dekha to na raushani, na charagh, na chulhe mein aag baat kya hai! nach dekhne, utawli ho kar, paidal hi chali gai kya !
birju ke gale mein khasakhsahat hui aur usne rokne ki puri koshish bhi ki, lekin khansi jab shuru hui to pure panch minat tak wo khansata raha
birju! beta birajmohan! birju ke bap ne puchkar kar bulaya, maiya ghusse ke mare so gai kya? are abhi to log ja hi rahe hain
birju ki man ke man mein aaya ki kas kar jawab de, nahin dekhana hai nach! lauta do gaDi!
champiya h! uthti kyon nahin? le, dhan ki panchasis rakh de dhan ki baliyon ka chhota jhabba jhompDe ke osre par rakh kar usne kaha, diya balo!
birju ki man uth kar osare par i—DeDh pahar raat ko gaDi lane ki kya zarurat thee? nach to ab khatm ho raha hoga
Dhibri ki raushani mein dhan ki baliyon ka rang dekhte hi birju ki man ke man ka sab mail door ho gaya dhani rang uski ankhon se utar kar rom rom mein ghul gaya
nach abhi shuru bhi nahin hua hoga abhi abhi balampur ke babu ki sampni gaDi mohanpur hotil bangla se hakim sahab ko lane gai hai is sal akhiri nach hai panchasis tatti mein khons de, apne khet ka hai
apne khet ka? hulasti hui birju ki man ne puchha, pak gaye dhan?
nahin, das din mein aghan chaDhte chaDhte lal ho kar jhuk jayengi sare khet ki baliyan! maladahiya toli par ja raha tha, apne khet mein dhan dekh kar ankhen juDa gain sach kahta hoon, panchasis toDte samay ungliyan kanp rahi theen meri!
birju ne dhan ki ek bali se ek dhan le kar munh mein Dal liya aur uski man ne ek halki Dant di—kaisa lukkD hai tu re! in dushmnon ke mare koi nem dharam bache!
kya hua, Dantti kyon hai?
nawann ke pahle hi naya dhan jutha diya, dekhte nahin?
are, in logon ka sab kuch maf hai chiri churmun hain ye log! donon ke munh mein nawann ke pahle naya ann na paDe?
iske baad champiya ne bhi dhan ki bali se do dhan lekar danton tale dabaye—o maiya! itna mitha chawal!
aur gamakta bhi hai na didiya? birju ne phir munh mein dhan liya
roti poti taiyar kar chuki kya? birju ke bap ne muskurakar puchha
nahin! man bhare sur mein boli birju ki man, jane ka theek thikana nahin aur roti banati!
wah! khoob ho tum log! jiske pas bail hai, use gaDi mangni nahin milegi bhala? gaDiwalon ko bhi kabhi bail ki zarurat hogi puchhunga tab koyri tola walon se! le, jaldi se roti bana le
der nahin hogi!
are, tokari bhar roti to tu palak marte bana deti hai, panch rotiyan banane mein kitni der lagegi!
ab birju ki man ke honthon par muskurahat khul kar khilne lagi usne nazar bacha kar dekha, birju ka bappa uski or ektak nihar raha hai champiya aur birju na hote to man ki baat hans kar kholne mein der na lagti champiya aur birju ne ek dusre ko dekha aur khushi se unke chehre jagmaga uthe—maiya bekar ghussa ho rahi thi n!
champi! zara ghailsar mein khaDi ho kar makhni phua ko awaz de to!
ai phu aa aa! sunti ho phua aa! maiya bula rahi hai!
phua ne koi jawab nahin diya, kintu uski baDabDahat aspasht sunai paDi—han! ab phua ko kyon guharti hai? sare tole mein bus ek phua hi to bina nath pagahiyawali hai
ari phua! birju ki man ne hans kar jawab diya, us samay bura man gai thi kya? nath pagahiyawale ko aa kar dekho, dopahar raat mein gaDi lekar aaya hai! aa jao phua, main mithi roti pakana nahin janti
phua kankhati khansti i—isi ke ghaDi pahar din rahte hi poochh rahi thi ki nach dekhne jayegi kya? kahti, to main pahle se hi apni angihti yahan sulga jati
birju ki man ne phua ko angihti dikhla di aur kaha, ghar mein anaj dana waghairah to kuch hai nahin ek baghaD hai aur kuch bartan basan, so raat bhar ke liye yahan tambaku rakh jati hoon apna hukka le i ho na phua?
phua ko tambaku mil jaye, to raat bhar kya, panch raat baith kar jag sakti hai phua ne andhere mein tatol kar tambaku ka andaj kiya o ho! hath khol kar tambaku rakha hai birju ki man ne! aur ek wo hai sahuain! ram kaho! us raat ko afim ki goli ki tarah ek matar bhar tambaku rakh kar chali gai gulab bag mele aur kah gai ki Dibbi bhar tambaku hai
birju ki man chulha sulgane lagi champiya ne shakarkand ko masal kar gole banaye aur birju sir par kaDahi aundha kar apne bap ko dikhlane laga—maletri topi! is par das lathi marne par bhi kuch nahin hoga!
sabhi thatha kar hans paDe birju ki man hans kar boli, takhe par teen chaar mote shakarkand hain, de de birju ko champiya, bechara sham se hi
bechara mat kaho maiya, khoob sachara hai ab champiya chahakne lagi, tum kya jano, kathri ke niche munh kyon chal raha tha babu sahab ka!
hi hi hee!
birju ke tute doodh ke danto ki phank se boli nikli, bilaik martin mein panch shakarkand kha liya! ha ha ha!
sabhi phir thathakar hans paDe birju ki man ne phua ka man rakhne ke liye puchha, ek kanwan guD hai aadha doon phua?
phua ne gadgad ho kar kaha, ari shakarkand to khu mitha hota hai, utna kyon Dalegi?
jab tak donon bail dana ghas kha kar ek dusre ki deh ko jeebh se chaten, birju ki man taiyar ho gai champiya ne chheent ki saDi pahni aur birju button ke abhaw mein paint par patsan ki Dori bandhwane laga
birju ke man ne angan se nikal ganw ki or kan laga kar sunne ki cheshta ki—unhun, itni der tak bhala paidal janewale ruke rahenge?
purnaima ka chand sir par aa gaya hai birju ki man ne asli rupa ka mangtikka pahna hai aaj, pahli bar birju ke bappa ko ho kya gaya hai, gaDi jotta kyon nahin, munh ki or ektak dekh raha hai, mano nach ki lalpan ki
gaDi par baithte hi birju ki man ki deh mein ek ajib gudgudi lagne lagi usne bans ki balli ko pakaD kar kaha, gaDi par abhi bahut jagah hai zara dahini saDak se gaDi hankna
bail jab dauDne lage aur pahiya jab choon choon karke gharaghrane laga to birju se nahin raha gaya—uDanajhaz ki tarah uDao bappa!
gaDi jangi ke pichhwaDe pahunchi birju ki man ne kaha, zara jangi se puchho na, uski putohu nach dekhne chali gai kya?
gaDi ke rukte hi jangi ke jhompDe se aati hui rone ki awaz aspasht ho gai birju ke bappa ne puchha, are jangi bhai, kahe kann rohat ho raha hai angan mein?
jangi ghoor tap raha tha, bola, kya puchhte ho, rangi balrampur se lauta nahin, putohiya nach dekhne kaise jaye! aasra dekhte dekhte udhar ganw ki sabhi aurten chali gai
ari tishanwali, to roti hai kahe! birju ki man ne pukar kar kaha, a ja jhat se kapDa pahan kar sari gaDi paDi hui hai! bechari! aa ja jaldi!
baghal ke jhompDe se radhe ki beti sunri ne kaha, kaki, gaDi mein jagah hai? main bhi jaungi
bans ki jhaDi ke us par larena khawas ka ghar hai uski bahu bhi nahin gai hai gilat ka jhumki kaDa pahan kar jhamakti aa rahi hai
a ja! jo baqi rah gai hain, sab aa jayen jaldi!
jangi ki putohu, larena ki biwi aur radhe ki beti sunri, tinon gaDi ke pas i bail ne pichhla pair phenka birju ke bap ne ek bhaddi gali di—sala! lataD mar kar langDi banayega putohu ko!
sabhi thathakar hans paDe birju ke bap ne ghunghat mein jhuki donon putohuon ko dekha use apne khet ki jhuki hui baliyon ki yaad aa gai
jangi ki putohu ka gauna teen hi mas pahle hua hai gaune ki rangin saDi se kaDwe tel aur lathwa sindur ki gandh aa rahi hai birju ki man ko apne gaune ki yaad i usne kapDe ki gathri se teen mithi rotiyan nikal kar kaha, kha le ek ek karke simraha ke sarkari koop mein pani pi lena
gaDi ganw se bahar ho kar dhan ke kheton ke baghal se jane lagi chandni, katik kee! kheton se dhan ke jharte phulon ki gandh aati hai bans ki jhaDi mein kahin duddhi ki lata phuli hai jangi ki putohu ne ek biDi sulga kar birju ki man ki or baDhai birju ki man ko achanak yaad i champiya, sunri, larena ki biwi aur jangi ki putohu, ye charon hi ganw mein baiskop ka geet gana janti hain khoob!
gaDi ki leak dhankheton ke beech ho kar gai charon or gaune ki saDi ki khasakhsahat jaisi awaz hoti hai birju ki man ke mathe ke mangtikke par chandni chhitakti hai
achchha, ab ek baiskop ka geet ga to champiya! Darti hai kahe? jahan bhool jaogi, baghal mein masatarni baithi hi hai!
donon putohuon ne to nahin, kintu champiya aur sunri ne khankhar kar gala saf kiya
birju ke bap ne bailon ko lalkara—chal bhaiya! aur zara zor se! ga re champiya, nahin to main bailon ko dhire dhire chalne ko kahunga
jangi ki putohu ne champiya ke kan ke pas ghunghat le ja kar kuch kaha aur champiya ne dhime se shuru kiya—chanda ki chandni
birju ko god mein le kar baithi uski man ki ichha hui ki wo bhi sath sath geet gaye birju ki man ne jangi ki putohu ko dekha, dhire dhire gunguna rahi hai wo bhi kitni pyari putohu hai! gaune ki saDi se ek khas qim ki gandh nikalti hai theek hi to kaha hai usne! birju ki man begam hai, lalpan ki begam! ye to koi buri baat nahin han, wo sachmuch lal pan ki begam hai!
birju ki man ne apni nak par donon ankhon ko kendrit karne ki cheshta karke apne rup ki jhanki li, lal saDi ki jhilmil kinari, mangtikka par chand birju ki man ke man mein ab aur koi lalsa nahin use neend aa rahi hai
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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