प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
सुकिया के हाथ की पथी कच्ची ईंटें पकने के लिए भट्टे में लगाई जा रही थीं। भट्टे के गलियारे में झरोखेदार कच्ची ईंटों की दीवार देखकर सुकिया आत्मिक सुख से भर गया था। देखते-ही-देखते हज़ारों ईंटें भट्ठे के गलियारे में समा गई थीं। ईंटों के बीच ख़ाली जगह में पत्थर का कोयला, लकड़ी, बुरादा, गन्ने की बाली भर दिए गए थे।
असगर ठेकेदार ने अपनी निगरानी में हर चीज़ तरतीब से लगवाई थी। आग लगाने से पहले भट्ठा-मालिक मुखतार सिंह ने एक-एक चीज़ का मुआयना किया था।
चौबीसों घंटे की ड्यूटी पर मज़दूरों को लगाया गया था, जो मोरियों से भट्टे में कोयला, बुरादा आदि डाल रहे थे। भट्टे का सबसे ख़तरेवाला काम था मोरी पर काम करना। थोड़ी-सी असावधानी भी मौत का कारण बन सकती थी।
भट्टे की चिमनी धुआँ उगलने लगी थी। यह धुआँ मीलों दूर से दिखाई पड़ जाता था। हरे-भरे खेतों के बीच गहरे मटमैले रंग का यह भट्ठा एक धब्बे जैसा दिखाई पड़ता था।
मानो और सुकिया महीनाभर पहले ही इस भट्टे पर आए थे, दिहाड़ी मज़दूर बनकर। हफ़्तेभर का काम देखकर असगर ठेकेदार ने सुकिया से कहा था कि साँचा ले लो और ईंट पाथने का काम शुरू करो। हज़ार ईंट के रेट से अपनी मज़दूरी लो। भट्टे पर लगभग तीस मज़दूर थे जो वहीं काम करते थे। भट्ठा-मालिक मुख्तार सिंह और असगर ठेकेदार साँझ होते ही शहर लौट जाते थे। शहर से दूर, दिनभर की गहमा-गहमी के बाद यह भट्टा अँधेरे की गोद में समा जाता था।
एक क़तार में बनी छोटी-छोटी झोंपड़ियों में टिमटिमाती ढिबरियाँ भी इस अँधेरे से लड़ नहीं पाती थीं। दड़बेनुमा झोंपड़ियों में झुककर घुसना पड़ता था। झुके-झुके ही बाहर आना होता था। भट्टे का काम ख़त्म होते ही औरतें चूल्हा-चौका सँभाल लेती थीं। कहने भर के लिए चूल्हा-चौका था। ईंटों को जोड़कर बनाए चूल्हे में जलती लकड़ियों की चिट-पिट जैसे मन में पसरी दुश्चिंताओं और तकलीफ़ों की प्रतिध्वनियाँ थीं जहाँ सब कुछ अनिश्चित था। मानो अभी तक इस भट्टे की ज़िंदगी से तालमेल नहीं बैठा पाई थी। बस, सुकिया की ज़िद के सामने वह कमज़ोर पड़ गई थी। साँझ होते ही सारा माहौल भाँय-भाँय करने लगता था। दिनभर के थके-हारे मज़दूर अपने-अपने दड़बों में घुस जाते थे। साँप-बिच्छू का डर लगा रहता था। जैसे समूचा जंगल झोपड़ी के दरवाज़े पर आकर खड़ा हो गया है। ऐसे माहौल में मानो का जी घबराने लगता था। लेकिन करे भी तो क्या, न जाने कितनी बार सुकिया से कहा था मानो ने अपने देस की सूखी रोटी भी परदेस के पकवानों से अच्छी होती है।
सुकिया के मन में एक बात बैठ गई थी। नर्क की ज़िंदगी से निकलना है तो कुछ छोड़ना भी पड़ेगा। मानो की हर बात का एक ही जवाब था उसके पास बड़े-बूढ़े कहा करे हैं कि आदमी की औक़ात घर से बाहर क़दम रखणें पे ही पता चले है। घर में तो चूहा भी सूरमा बणा रह। काँधे पर यो लंबा लट्ट धरके चलणें वाले चौधरी सहर (शहर) में सरकारी अफ़सरों के आगे सीधे खड़े न हो सके हैं। बुड्डी बकरियों की तरह मिमियाएँ हैं...और गाँव में किसी ग़रीब कू आदमी भी न समझे हैं...”
सुकिया की इन बातों से मानो कमज़ोर पड़ जाती थी। इसीलिए गाँव-देहात छोड़कर वे दोनों एक दिन असगर ठेकेदार के साथ इस भट्टे पर आ गए थे।
पहले ही महीने में सुकिया ने कुछ रुपए बचा लिए थे। कई-कई बार गिनकर तसल्ली कर ली थी। धोती की गाँठ में बाँधकर अंटी में खोस लिए थे। रुपए देखकर मानो भी ख़ुश हो गई थी। उसे लगने लगा था कि वह अपनी ज़िंदगी के ढर्रे को बदल लेगा।
सुकिया और मानो की ज़िंदगी एक निश्चित ढर्रे पर चलने लगी थी। दोनों मिलकर पहले तगारी बनाते, फिर मानो तैयार मिट्टी लाकर देती। इस काम में उनके साथ एक तीसरा मज़दूर भी आ गया था। नाम था जसदेव। छोटी उम्र का लड़का था। असगर ठेकेदार ने उसे भी उनके साथ काम पर लगा दिया था। इससे काम में गति आ गई थी। मानो भी अब फुर्ती से साँचे में ईंटें डालने लगी थी, जिससे उनकी दिहाड़ी बढ़ गई थी।
उस रोज़ मालिक मुखतार सिंह की जगह उनका बेटा सूबेसिंह भट्ठे पर आया था। मालिक कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर चले गए थे। उनकी ग़ैरहाज़िरी में सूबेसिंह का रौब-दाब भट्टे का माहौल ही बदल देता था। इन दिनों में असगर ठेकेदार भीगी बिल्ली बन जाता था। दफ़्तर के बाहर एक अर्दली की ड्यूटी लग जाती थी, जो कुर्सी पर उकड़ू बैठकर दिनभर बीड़ी पीता था, आने-जाने वालों पर निगरानी रखता था। उसकी इजाज़त के बग़ैर कोई अंदर नहीं जा सकता था।
एक रोज़ सूबेसिंह की नज़र किसनी पर पड़ गई। तीन महीने पहले ही किसनी और महेश भट्टे पर आए थे। पाँच-छः महीने पहले ही दोनों की शादी हुई थी।
सूबेसिंह ने उसे दफ़्तर की सेवा-टहल का काम दे दिया था। शुरू-शुरू में किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। लेकिन जब रोज़ ही गारे-मिट्टी का काम छोड़कर वह दफ़्तर में ही रहने लगी तो मज़दूरों में फुसफुसाहटें शुरू हो गई थीं।
तीसरे दिन सुबह जब मज़दूर काम शुरू करने के लिए झोपड़ियों से बाहर निकल रहे थे, किसनी हैंडपंप के नीचे खुले में बैठकर साबुन से रगड़-रगड़कर नहा रही थी। भट्टे पर साबुन किसी के पास नहीं था। साबुन और उससे उठते झाग पर सबकी नज़र पड़ गई थी। लेकिन बोला कोई कुछ भी नहीं था। सभी की आँखों में शंकाओं के गहरे काले बादल घिर आए थे। कानाफूसी हलके-हलके शुरू हो गई थी।
महेश गुमसुम-सा अलग-अलग रहने लगा था। साँवले रंग की भरे-पूरे जिस्म की किसनी का व्यवहार महेश के लिए दुःखदाई हो रहा था। वह दिन-भर दफ़्तर में घुसी रहती थी। उसकी खिलखिलाहटें दफ़्तर से बाहर तक सुनाई पड़ने लगी थीं। महेश ने उसे समझाने की कोशिश की थी। लेकिन वह जिस राह पर चल पड़ी थी वहाँ से लौटना मुश्किल था।
भट्टे की ज़िंदगी भी अजीब थी। गाँव-बस्ती का माहौल बन रहा था। झोंपड़ी के बाहर जलते चूल्हे और पकते खाने की महक़ से भट्ठे की नीरस ज़िंदगी में कुछ देर के लिए ही सही, ताज़गी का अहसास होता था। ज़्यादातर लोग रोटी के साथ गुड़ या फिर लाल मिर्च की चटनी ही खाते थे। दाल सब्ज़ी तो कभी-कभार ही बनती थी।
शाम होते ही हैंडपंप पर भीड़ लग जाती थी। जिस्म पर चिपकी मिट्टी को जितना उतारने की कोशिश करते, वह और उतना ही भीतर उतर जाती थी। नस-नस में कच्ची मिट्टी की महक़ बस गई थी। इस महक़ से अलग भट्टे का कोई अस्तित्व नहीं था।
किसनी और सूबेसिंह की कहानी अब काफ़ी आगे बढ़ गई थी। सूबेसिंह के अर्दली ने महेश को नशे की लत डाल दी थी। नशा करके महेश झोपड़ी में पड़ा रहता था। किसनी के पास एक ट्रांज़िस्टर भी आ गया था। सुबह-शाम भट्ठे की ख़ामोशी में ट्रांज़िस्टर की आवाज़ गूँजने लगी थी। ट्रांज़िस्टर वह इतने ज़ोर से बजाती थी कि भट्टे का वातावरण फ़िल्मी गानों की आवाज़ से गमक उठता था। शांत माहौल में संगीत-लहरियों ने खनक पैदा कर दी थी।
कड़ी मेहनत और दिन-रात भट्ठे में जलती आग के बाद जब भट्ठा खुलता था तो मज़दूर से लेकर मालिक तक की बेचैन साँसों को राहत मिलती थी। भट्टे से पकी ईंटों को बाहर निकालने का काम शुरू हो गया था। लाल-लाल पक्की ईंटों को देखकर सुकिया और मानो की ख़ुशी की इंतहा नहीं थी। ख़ासकर मानो तो ईंटों को उलट-पुलटकर देख रही थी। ख़ुद के हाथ की पथी ईंटों का रंग ही बदल गया था। उस दिन ईंटों को देखते-देखते ही मानो के मन में बिजली की तरह एक ख़याल कौंधा था। इस ख़याल के आते ही उसके भीतर जैसे एक साथ कई-कई भट्ट जल रहे थे। उसने सुकिया से पूछा था, “एक घर में कितनी ईंटें लग जाती हैं?
बहुत...कई हज़ार...लोहा, सीमेंट, लकड़ी, रेत अलग से। उसके मन में ख़याल उभरा था। उसे तत्काल कोई आधार नहीं मिल पा रहा था। वह बेचैन हो उठी थी।
उसे ख़ामोश देखकर सुकिया ने कहा, चलो, काम शुरू करना है। जसदेव बाट देख रहा होगा। सुकिया के पीछे-पीछे अनमनी ही चल दी थी मानो, लेकिन उसके दिलो-दिमाग़ पर ईंटों का लाल रंग कुछ ऐसे छा गया था कि वह उसी में उलझकर रह गई थी।
झींगुरों की झिन-झिन और बीच-बीच में सियारों की आवाज़ें रात के सन्नाटे में स्याहपन घोल रही थीं। थके-हारे मज़दूर नींद की गहरी खाइयों में लुढ़क गए थे। मानो के ख़यालों में अभी भी लाल-लाल ईंटें घूम रही थीं। इन ईंटों से बना हुआ एक छोटा-सा घर उसके ज़ेहन में बस गया था। यह ख़याल जिस शिद्दत से पुख़्ता हुआ था, नींद उतनी ही दूर चली गई थी।
दूर किसी बस्ती से हलके-हलके छनकर आती मुर्ग़े की बाँग, रात के आख़िरी पहर के अहसास के साथ ही मानो की पलकें नींद से भारी होने लगी थीं।
सुबह के ज़रूरी कामों से निबटकर जब सुकिया ने झोंपड़ी में झाँका तो वह हैरान रह गया था। इतनी देर तक मानो कभी नहीं सोती। वह परेशान हो गया था। गहरी नींद में सोई मानों का माथा उसने छूकर देखा, माथा ठंडा था। उसने राहत की साँस ली। मानो को जगाया, “इतना दिन चढ़ गया है...उठने का मन नहीं है?
मानो अनमनी सी उठी। कुछ देर यूँ ही चुपचाप बैठी रही। मानो का इस तरह बैठना सुकिया को अखरने लगा था, आज क्या बात है?...जी तो ठीक है?
मानो अपने ख़यालों में गुम थी। मन की बात बाहर आने के लिए छटपटा रही थी। उसने सुकिया की ओर देखते हुए पूछा, क्यों जी... क्या हम इन पक्की ईंटो पर घर नहीं बणा सके हैं?
मानो की बात सुनकर सुकिया आश्चर्य से उसे ताकने लगा। कल की बात वह भूल चुका था। सुकिया ने गहरे अवसाद से भरकर कहा, “पक्की ईंटों का घर दो-चार रुपए में ना बणता है।...इत्ते ढेर-से नोट लगे हैं घर बणाने में। गाँठ में नहीं है पैसा, चले हाथी ख़रीदने।
महीनेभर में जो हमने इत्ती ईंटें बणा दी है...क्या अपने लिए हम ईटें ना बणा सके हैं। मानो ने मासूमियत से कहा।
यह भट्ठा मालिक का है। हम ईंटें उनके लिए बणाते हैं। हम तो मज़दूर हैं। इन ईंटों पर अपना कोई हक़ ना है। सुकिया ने अपने मन में उठते दबाव को महसूस किया।
इन ईंटों पर म्हारा कोई भी हक़ ना है...क्यूँ..., मानो ने ताज्जुब भरी कड़ुवाहट से कहा। उसके अंदर बवंडर मचल रहा था। कुछ देर की ख़ामोशी के बाद मानो बोली, “हर महीने कुछ और बचत करें...ज़्यादा ईंटें बनाएँ...तब?...तब भी अपणा घर नहीं बणा सकते? अपने भीतर कुलबुलाते सवालों को बाहर लाना चाहती थी मानो।
“इतनी मज़दूरी मिलती कहाँ है? पूरे महीने हाड़-गोड़ तोड़ के भी कितने रुपए बचे! कुल अस्सी। एक साल में एक हज़ार ईंटों के दाम अगर हमने बच्चा भी लिए तो घर बणाने लायक़ रुपया जोड़ते-जोड़ते उम्र निकल जागी। फेर भी घर ना बण पावेगा। सुकिया ने दुखी मन से कहा।
“अगर हम रात-दिन काम करें तो भी नहीं? मानो ने उत्साह में भरकर कहा।
बावली हो गई है क्या?...चल उठ...चल, काम पे जाणा है। टेम ज़्यादा हो रहा है। ठेकेदार आता ही होगा। आज पूरब की टाँग काटनी है लगार के लिए। सुकिया मानो के सवालों से घबरा गया था। उठकर बाहर जाने लगा।
कुछ भी करो...तुम चाहो तो मैं रात-दिन काम करूँगी...मुझे एक पक्की ईंटों का घर चाहिए। अपने गाँव में...लाल-सुर्ख ईंटों का घर। मानों के भीतर मन में हज़ार-हज़ार वसंत खिल उठे थे।
सुकिया और मानो को एक लक्ष्य मिल गया था। पक्की ईंटों का घर बनाना है...अपने ही हाथ की पकी ईंटों से। सुबह होते ही काम पर लग जाते हैं और शाम को भी अँधेरा होने तक जुटे रहते हैं। ठेकेदार असगर से लेकर मालिक तक उनके काम से ख़ुश थे।
सुबेसिंह किसनी को शहर भी लेकर जाने लगा था। किसनी के रंग-ढंग में बदलाव आ गया था। अब वह भट्टे पर गारे-मिट्टी का काम नहीं करती थी। महेश रोज़ रात में नशा करके मन की भड़ास निकालता था। दिन में भी अपनी झोंपड़ी में पड़ा रहता था या इधर-उधर बैठा रहता था। किसनी कई-कई दिनों तक शहर से लौटती नहीं थी। जब लौटती—थकी, निढाल और मुरझाई हुई। कपड़ों-लत्तों की अब कमी नहीं थी।
उस रोज़ सूबेसिंह ने भट्ठे पर आते ही असगर ठेकेदार से कहा था, मानो को दफ़्तर में बुलाओ, आज किसनी की तबीयत ठीक नहीं है।
असगर ठेकेदार ने रोकना चाहा था, छोटे बाबू मानो को...
बात पूरी होने से पहले ही सूबेसिंह ने उसे फटकार दिया था, तुमसे जो कहा गया है, वही करो। राय देने की कोशिश मत करो। तुम इस भट्ठे पर मुंशी हो। मुंशी ही रहो, मालिक बनने की कोशिश करोगे तो अंजाम बुरा होगा।
असगर ठेकेदार की घिघ्घी बँध गई थी। वह चुपचाप मानो को बुलाने चल दिया था। असगर ठेकेदार ने आवाज़ देकर कहा था, मानो, छोटे बाबू बुला रहे हैं दफ़्तर में।
मानो ने सुकिया की ओर देखा। उसकी आँखों में भय से उत्पन्न कातरता थी। सुकिया भी इस बुलावे पर हड़बड़ा गया था। वह जानता था। मछली को फँसाने के लिए जाल फेंका जा रहा है। ग़ुस्से और आक्रोश से नसें खिंचने लगी थीं। जसदेव ने भी सुकिया की मनःस्थिति को भाँप लिया था। वह फुर्ती से उठा। हाथ-पाँव पर लगी गीली मिट्टी छुड़ाते हुए बोला “तुम यहाँ ठहरो...मैं देखता हूँ। चलो चाचा असगर के पीछे-पीछे चल दिया।
असगर ठेकेदार जानता था कि सूबेसिंह शैतान है। लेकिन चुप रहना उसकी मज़बूरी बन गई थी। ज़िंदगी का ख़ास हिस्सा उसने भट्टे पर गुज़ारा था। भट्टे से अलग उसका कोई वजूद ही नहीं था।
असगर ठेकेदार के साथ जसदेव को आता देखकर सूबेसिंह बिफर पड़ा था। तुझे किसने बुलाया है?
जी...जो भी काम हो बताइए...मैं कर दूँगा।... जसदेव ने विनम्रता से कहा।
क्यों? तू उसका ख़सम है...या उसकी (...पर चर्बी चढ़ गई है)।” सूबेसिंह ने अपशब्दों का इस्तेमाल किया।
“बाबू जी... आप किस तरह बोल रहे हैं... जसदेव के बात पूरी करने से पहले ही एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसके गाल पर पड़ा।
“जानता नहीं...भट्टे की आग में झोंक दूँगा...किसी को पता भी नहीं चलेगा। हड्डियाँ तक नहीं मिलेगी राख से...समझा। सूबेसिंह ने उसे धकिया दिया। जसदेव गिर पड़ा था।
जब तक वह सँभल पाता। लात-घूँसो से सूबेसिंह ने उसे अधमरा कर दिया था। चीख़-पुकार सुनकर मज़दूर उनकी और दौड़ पड़े थे। मज़दूरों को एक साथ आता देखकर सूबेसिंह जीप में बैठ गया था। देखते-ही-देखते जीप शहर की ओर दौड़ गई थी। असगर ठेकेदार दफ़्तर में जा घुसा था।
सुकिया और मानो जसदेव को उठाकर झोंपड़ी में ले गए थे। वह दर्द से कराह रहा था। मानो ने उसकी चोटों पर हल्दी लगा दी थी। सुकिया ग़ुस्से में काँप रहा था। मानो के अवचेतन में असंख्य अँधेरे नाच रहे थे। वह किसनी नहीं बनना चाहती थी। इज़्ज़त की ज़िंदगी जीने की अदम्य लालसा उसमें भरी हुई थी। उसे एक घर चाहिए था—पक्की ईंटों का, जहाँ वह अपनी गृहस्थी और परिवार के सपने देखती थी।
समूचा दिन अदृश्य भय और दहशत में बीता था। जसदेव को हलका बुख़ार हो गया था। वह अपनी झोंपड़ी में पड़ा था। सुकिया उसके पास बैठा था। आज की घटना से मज़दूर डर गए थे। उन्हें लग रहा था कि सूबेसिंह किसी भी वक़्त लौटकर आ सकता है। शाम होते ही भट्टे पर सन्नाटा छा गया था। सब अपने-अपने खोल में सिमट गए थे। बूढ़ा बिलसिया जो अकसर बाहर पेड़ के नीचे देर रात तक बैठा रहता था, आज शाम होते ही अपनी झोंपड़ी में जाकर लेट गया था। उसके खाँसने की आवाज़ भी आज कुछ धीमी हो गई थी। किसनी की झोंपड़ी से ट्रांज़िस्टर की आवाज़ भी नहीं आ रही थी।
बीच-बीच में हैंडपंप की खंच-खंच ध्वनि इस ख़ामोशी में विघ्न डाल रही थी। पंप जसदेव की झोंपड़ी के ठीक सामने था। सभी को पानी के लिए इस पंप पर आना पड़ता था।
भट्टे पर दवा-दारू का कोई इंतज़ाम नहीं था। कटने-फटने पर घाव पर मिट्टी लगा देना था। कपड़ा जलाकर राख भर देना ही दवाई की जगह काम आते थे।
मानो ने अधूरे मन से चूल्हा जलाया था। रोटियाँ सेंककर सुकिया के सामने रख दी थी। सुकिया ने भी अनिच्छा से एक रोटी हलक के नीचे उतारी थी। उसकी भूख जैसे अचानक मर गई थी। मानो को लेकर उसकी चिंता बढ़ गई थी। उसने निश्चय कर लिया था वह मानो को किसनी नहीं बनने देगा।
मानो भी गुमसुम अपने आपसे ही लड़ रही थी। बार-बार उसे लग रहा था कि वह सुरक्षित नहीं है। एक सवाल उसे खाए जा रहा था—क्या औरत होने की यही सज़ा है। वह जानती थी कि सुकिया ऐसा-वैसा कुछ नहीं होने देगा। वह महेश की तरह नहीं है। भले ही यह भट्ठा छोड़ना पड़े। भट्ठा छोड़ने के ख़याल से ही वह सिहर उठी। नहीं...भट्ठा नहीं छोड़ना है। उसने अपने आपको आश्वस्त किया, अभी तो पक्की ईंटों का घर बनाना है।
मानो रोटियाँ लेकर बाहर जाने लगी तो सुकिया ने टोका, कहाँ जा रही है?
“जसदेव भूखा-प्यासा पड़ा है। उसे रोट्टी देणे जा रही हूँ। मानो ने सहज भाव से कहा।
बामन तेरे हाथ की रोट्टी खावेगा।...अक्ल मारी गई तेरी सुकिया ने उसे रोकना चाहा।
क्यों मेरे हाथ की रोट्टी में ज़हर लगा है? मानो ने सवाल किया। पल-भर रुककर बोली, बामन नहीं भट्ठा मज़दूर है वह...म्हारे जैसा।
चारों तरफ़ सन्नाटा था। जसदेव की झोंपड़ी में ढिबरी जल रही थी। मानो ने झोंपड़ी का दरवाज़ा ठेला जी कैसा है? भीतर जाते हुए मानो ने पूछा। जसदेव ने उठने की कोशिश की। उसके मुँह से दर्द की आह निकली।
कमबख़्त कीड़े पड़के मरेगा। हाथ-पाँव टूट-टूटकर गिरेंगे...आदमी नहीं जंगली जिनावर है। मानो ने सूबेसिंह को कोसते हुए कहा।
जसदेव चुपचाप उसे देख रहा था।
यह ले...रोट्टी खा ले। सुबे से भूखा है। दो कौर पेट में जाएँगे तो ताक़त तो आवेगी बदन में, मानो ने रोटी और गुड़ उसके आगे रख दिया था। जसदेव कुछ अनमना-सा हो गया था। भूख तो उसे लगी थी। लेकिन मन के भीतर कहीं हिचक थी। घर-परिवार से बाहर निकले ज़्यादा समय नहीं हुआ था। ख़ुद वह कुछ भी बना नहीं पाया था। शरीर का पोर-पोर टूट रहा था।
भूख नहीं है। जसदेव ने बहाना किया।
“भूख नहीं है या कोई और बात है... मानो ने जैसे उसे रंगे हाथों पकड़ लिया था।
“और क्या बात हो सकती है?... जसदेव ने सवाल किया।
तुम्हारे भइया कह रहे थे कि तुम बामन हो...इसीलिए मेरे हाथ की रोटी नहीं खाओगे। अगर यो बात है तो मैं ज़ोर ना डालूँगी...थारी मर्ज़ी...औरत हूँ...पास में कोई भूखा हो...तो रोटी का कौर गले से नीचे नहीं उतरता है।...फिर तुम तो दिन-रात साथ काम करते हो..., मेरी ख़ातिर पिटे...फिर यह बामन म्हारे बीच कहाँ से आ गया...? मानो रुआँसी हो गई थी। उसका गला रुँध गया था।
रोटी लेकर वापस लौटने के लिए मुड़ी। जसदेव में साहस नहीं था उसे रोक लेने के लिए। उनके बीच जुड़े तमाम सूत्र जैसे अचानक बिखर गए थे।
अपनी झोंपड़ी में आकर चुपचाप लेट गई थी मानो। बिना कुछ खाए। दिन-भर की घटनाएँ उसके दिमाग़ में खलबली मचा रही थीं। जसदेव भूखा है, यह अहसास उसे परेशान कर रहा था। जसदेव को लेकर उसके मन में हलचल थी। उसे लग रहा था—जैसे जसदेव का साथ उन्हें ताक़त दे रहा है। ऐसी ताक़त जो सूबेसिंह से लड़ने में हौसला दे सकती है। दो से तीन होने का सुख मानो महसूस करने लगी थी।
सुकिया भी चुपचाप लेटा हुआ था। उसकी भी नींद उड़ चुकी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था, क्या करें, इन्हीं हालात में गाँव छोड़ा था। वे ही फिर सामने खड़े थे। आख़िर जाएँ तो कहाँ? सूबेसिंह से पार पाना आसान नहीं था। सुनसान जगह है कभी भी हमला कर सकता है। या फिर मानो को...विचार आते ही वह काँप गया था। उसने करवट बदली। मानो जाग रही थी। उसे अपनी ओर खींचकर सीने से चिपटा लिया था।
जसदेव ने भी पूरी रात जागकर काटी थी। सूबेसिंह का ग़ुस्सैल चेहरा बार-बार सामने आकर दहशत पैदा कर रहा था। उसे लगने लगा था कि जैसे वह अचानक किसी षड्यंत्र में फँस गया है। उसे यह अंदाज़ा नहीं था कि सूबेसिंह मारपीट करेगा। ऐसी कल्पना भी उसे नहीं थी। वह डर गया था। उसने तय कर लिया था, कि चाहे जो हो, वह इस पचड़े में नहीं पड़ेगा।
सुबह होते ही वह असगर ठेकेदार से मिला था। असगर ही उसे शहर से अपने साथ लाया था। जसदेव ने असगर ठेकेदार से अपने मन की बात कही। ठेकेदार ने उसे समझाते हुए कहा था, अपने काम से काम रखो। क्यों इनके चक्कर में पड़ते हो।
जसदेव के बदले हुए व्यवहार को मानो ने ताड़ लिया था। लेकिन उसने कोई प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं की थी। वह सहजता से अपने काम में लगी थी। वह जानती थी कि उनके बीच एक फ़ासला आ गया है। लेकिन वह चुप थी।
सूबेसिंह को भी लगने लगा था कि मानो को फुसलाना आसान नहीं है। उसकी तमाम कोशिश निरर्थक साबित हुई थी। इसीलिए वह मानो और सुकिया को परेशान करने पर उतर आया था। उसने असगर ठेकेदार से भी कह दिया था कि उससे पूछें बग़ैर उन्हें मज़दूरी का भुगतान न करे, न कोई रियायत ही बरते उनके साथ।
मानो से कुछ छुपा नहीं था। सूबेसिंह की हरकतों पर उसकी नज़र थी। उसने अपने आप में निश्चय कर लिया था कि वह उसका मुक़ाबला करेगी। उठते-बैठते उसके मन में एक ही ख़याल था। पक्की ईंटों का घर बनवाना है। लेकिन सूबेसिंह इस ख़याल में बाधक बन रहा था।
सुकिया और मानो दिन-रात काम में जुटे थे। फिर भी हर महीने वे ज़्यादा कुछ बचा नहीं पा रहे थे। पिछले दिनों उन्होंने दुगुनी ईंटें पाथी थीं। उनके उत्साह में कोई कमी नहीं थी। एक ही उद्देश्य था—पक्की ईंटों का घर बनाना है। इसीलिए सूबेसिंह की ज़्यादतियों को वे सहन कर रहे थे। लेकिन एक तड़प थी दोनों में, जो उन्हें सँभाले हुए थी।
सूबेसिंह नित नए बहाने ढूँढ़ लेता था, उन्हें तंग करने के, एक शीत युद्ध जारी था उनके बीच, सुकिया से ईंट पाथने का साँचा वापस ले लिया गया था। उसे भट्टे की मोरी का काम दे दिया था। मोरी का काम ख़तरनाक था। मानो डर गई थी। लेकिन सुकिया ने उसे हिम्मत बँधाई थी, काम से क्यूँ डरना...।
सुकिया का साँचा जसदेव को दे दिया गया था। साँचा मिलते ही जसदेव के रंग बदल गए थे। वह मानो पर हुकुम चलाने लगा था मानो चुपचाप काम में लगी रहती थी।
कल तड़के ईंट पाथनी है। ईंटें हटाकर जगह बना दे। जसदेव आदेश देकर अपनी झोंपड़ी की ओर चला गया था। मानो ने पाथी ईंटों को दीवार की शक्ल में लगा दिया था। कच्ची ईंटों को सुखाने के लिए दो, खड़ी दो आड़ी ईंटें रखकर जालीदार दीवार बना दी थी। ईंट पाथने की जगह ख़ाली करके ही मानो लौटकर झोपड़ी में गई थी।
हैंडपंप पर भीड़ थी। सभी मज़दूर काम ख़त्म करके हाथ-मुँह धोने के लिए गए थे।
सुबह होने से पहले ही मानो उठ गई थी। उसे काम पर जाने की जल्दी थी। चारों तरफ़ अँधेरा था। सुबह होने का वह इंतज़ार करना नहीं चाहती थी। उसने जल्दी-जल्दी सुबह के काम निबटाए और ईंट पाथने के लिए निकल पड़ी थी। सूरज निकलने में अभी देर थी। जसदेव से पहले ही वह काम पर पहुँच जाती थी।
इक्का-दुक्का मज़दूर ही इधर-उधर दिखाई पड़ रहे थे। वह तेज़ क़दमों से ईंट पाथने की जगह पर पहुँच गई थी। वहाँ का दृश्य देखकर अवाक रह गई थी। सारी ईंटें टूटी-फूटी पड़ी थीं। जैसे किसी ने उन्हें बेदर्दी से रौंद डाला था। ईंटों की दयनीय अवस्था देखकर उसकी चीख़ निकल गई थी। वह दहाड़े मार-मारकर रोने लगी थी। आवाज़ सुनकर मज़दूर इकट्ठा हो गए थे।
जितने मुँह उतनी बातें, सब अपनी-अपनी अटकलें लगा रहे थे। रात में आँधी—तूफ़ान भी नहीं आया था। न ही किसी जंगली जानवर का ही यह काम हो सकता है। कई लोगों का कहना था, किसी ने जान-बूझकर ईंटें तोड़ी हैं।
मानो का हृदय फटा जा रहा था। टूटी-फूटी ईंटों को देखकर वह बौरा गई थी।
जैसे किसी ने उसके पक्की ईंटों के मकान को ही धराशाई कर दिया था।
जसदेव काफ़ी देर बाद आया था। वह निरपेक्ष भाव से चुपचाप खड़ा था। जैसे इन टूटी-फूटी ईंटों से उसका कुछ लेना देना ही न हो।
सुकिया भी हो-हल्ला सुनकर मोरी का काम छोड़कर आया था। ईंटों की हालत देखकर उसका भी दिल बैठने लगा था। उसकी जैसे हिम्मत टूट गई थी। वह फटी-फटी आँखों से ईंटों को देख रहा था। सुकिया को देखते ही मानो और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी थी। सुकिया ने मानो की आँखों से बहते तेज़ अँधड़ों को देखा और उनकी किरकिराहट अपने अंतर्मन में महसूस की। सपनों के टूट जाने की आवाज़ उसके कानों को फाड़ रही थी।
असगर ठेकेदार ने साफ़ कह दिया था। टूटी-फूटी ईंटें हमारे किस काम की? इनकी मज़दूरी हम नहीं देंगे। असगर ठेकेदार ने उनकी रही-सही उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया था। मानो ने सुकिया की ओर डबडबाई आँखों से देखा। सुकिया के चेहरे पर तूफ़ान में घर टूट जाने की पीड़ा छलछला आई थी। उसे लगने लगा था, जैसे तमाम लोग उसके ख़िलाफ़ हैं। तरह-तरह की बाधाएँ उसके सामने खड़ी की जा रही हैं। वहाँ रुकना उसके लिए कठिन हो गया था।
उसने मानो का हाथ पकड़ा, “चल! ये लोग म्हारा घर ना बणने देंगे। पक्की ईंटों के मकान का सपना उनकी पकड़ से फिसलकर और दूर चला गया था।
भट्ठे से उठते काले धुएँ ने आकाश तले एक काली चादर फैला दी थी। सब कुछ छोड़कर मानो और सुकिया चल पड़े थे। एक ख़ानाबदोश की तरह, जिन्हें एक घर चाहिए था, रहने के लिए। पीछे छूट गए थे कुछ बेतरतीब पल, पसीने के अक्स जो कभी इतिहास नहीं बन सकेंगे। ख़ानाबदोश ज़िंदगी का एक पड़ाव था यह भट्ठा।
सुकिया के पीछे-पीछे चल पड़ने से पहले मानो ने जसदेव की ओर देखा था। मानो को यक़ीन था, जसदेव उनका साथ देगा। लेकिन जसदेव को चुप देखकर उसका विश्वास टुकड़े-टुकड़े हो गया था। मानो के सीने में एक टीस उभरी थी। सर्द साँस में बदलकर मानों को छलनी कर गई थी। उसके होंठ फड़फड़ाए थे कुछ कहने के लिए लेकिन शब्द घुटकर रह गए थे। सपनों के काँच उसकी आँख में किरकिरा रहे थे। वह भारी मन से सुकिया के पीछे-पीछे चल पड़ी थी, अगले पड़ाव की तलाश में, एक दिशाहीन यात्रा पर।
sukiya ke haath ki pathi kachchi iinten pakne ke liye bhatte mein lagai ja rahi theen. bhatte ke galiyare mein jharokhedar kachchi iinton ki divar dekhkar sukiya atmik sukh se bhar gaya tha. dekhte hi dekhte hazaron iinten bhatthe ke galiyare mein sama gai theen. iinton ke beech khali jagah mein patthar ka koyala, lakDi, burada, ganne ki bali bhar diye ge the.
asgar thekedar ne apni nigrani mein har cheez tartib se lagvai thi. aag lagane se pahle bhattha malik mukhtar sinh ne ek ek cheez ka muayna kiya tha.
chaubison ghante ki Dyuti par mazduron ko lagaya gaya tha, jo moriyon se bhatte mein koyala, burada aadi Daal rahe the. bhatte ka sabse khatrevala kaam tha mori par kaam karna. thoDi si asavadhani bhi maut ka karan ban sakti thi.
bhatte ki chimani dhuan ugalne lagi thi. ye dhuan milon door se dikhai paD jata tha. hare bhare kheton ke beech gahre matamaile rang ka ye bhattha ek dhabbe jaisa dikhai paDta tha.
mano aur sukiya mahinabhar pahle hi is bhatte par aaye the, dihaDi mazdur bankar. haftebhar ka kaam dekhkar asgar thekedar ne sukiya se kaha tha ki sancha le lo aur iint pathne ka kaam shuru karo. hazar iint ke ret se apni mazduri lo. bhatte par lagbhag tees mazdur the jo vahin kaam karte the. bhattha malik mukhtar sinh aur asgar thekedar saanjh hote hi shahr laut jate the. shahr se door, dinbhar ki gahma gahmi ke baad ye bhatta andhere ki god mein sama jata tha.
ek qatar mein bani chhoti chhoti jhompaDiyon mein timtimati Dhibariyan bhi is andhere se laD nahin pati theen. daDbenuma jhompaDiyon mein jhukkar ghusna paDta tha. jhuke jhuke hi bahar aana hota tha. bhatte ka kaam khatm hote hi aurten chulha chauka sanbhal leti theen. kahne bhar ke liye chulha chauka tha. iinton ko joDkar banaye chulhe mein jalti lakaDiyon ki chit pit jaise man mein pasri dushchintaon aur taklifon ki prtidhvaniyan theen jahan sab kuch anishchit tha. mano abhi tak is bhatte ki zindagi se talamel nahin baitha pai thi. bas, sukiya ki zid ke samne wo kamzor paD gai thi. saanjh hote hi sara mahaul bhanya bhanya karne lagta tha. dinbhar ke thake hare mazdur apne apne daDbon mein ghus jate the. saanp bichchhu ka Dar laga rahta tha. jaise samucha jangal jhopDi ke darvaze par aakar khaDa ho gaya hai. aise mahaul mein mano ka ji ghabrane lagta tha. lekin kare bhi to kya, na jane kitni baar sukiya se kaha tha mano ne apne des ki sukhi roti bhi pardes ke pakvanon se achchhi hoti hai.
sukiya ke man mein ek baat baith gai thi. nark ki zindagi se nikalna hai to kuch chhoDna bhi paDega. mano ki har baat ka ek hi javab tha uske paas baDe buDhe kaha kare hain ki adami ki auqat ghar se bahar qadam rakhnen pe hi pata chale hai. ghar mein to chuha bhi surma bana rah. kandhe par yo lamba latt dharke chalnen vale chaudhari sahar (shahr) mein sarkari afasron ke aage sidhe khaDe na ho sake hain. buDDi bakariyon ki tarah mimiyayen hain. . . aur gaanv mein kisi gharib ku adami bhi na samjhe hain. . . ”
sukiya ki in baton se mano kamzor paD jati thi. isiliye gaanv dehat chhoDkar ve donon ek din asgar thekedar ke saath is bhatte par aa ge the.
pahle hi mahine mein sukiya ne kuch rupye bacha liye the. kai kai baar ginkar tasalli kar li thi. dhoti ki gaanth mein bandhakar anti mein khos liye the. rupe dekhkar mano bhi khush ho gai thi. use lagne laga tha ki wo apni zindagi ke Dharre ko badal lega.
sukiya aur mano ki zindagi ek nishchit Dharre par chalne lagi thi. donon milkar pahle tagari banate, phir mano taiyar mitti lakar deti. is kaam mein unke saath ek tisra mazdur bhi aa gaya tha. naam tha jasdev. chhoti umr ka laDka tha. asgar thekedar ne use bhi unke saath kaam par laga diya tha. isse kaam mein gati aa gai thi. mano bhi ab furti se sanche mein iinten Dalne lagi thi, jisse unki dihaDi baDh gai thi.
us roz malik mukhtar sinh ki jagah unka beta subesinh bhatthe par aaya tha. malik kuch dinon ke liye kahin bahar chale ge the. unki ghairhaziri mein subesinh ka raub daab bhatte ka mahaul hi badal deta tha. in dinon mein asgar thekedar bhigi billi ban jata tha. daftar ke bahar ek ardali ki Dyuti lag jati thi, jo kursi par ukDu baithkar dinbhar biDi pita tha, aane jane valon par nigrani rakhta tha. uski ijazat ke baghair koi andar nahin ja sakta tha.
ek roz subesinh ki nazar kisni par paD gai. teen mahine pahle hi kisni aur mahesh bhatte par aaye the. paanch chhः mahine pahle hi donon ki shadi hui thi.
subesinh ne use daftar ki seva tahal ka kaam de diya tha. shuru shuru mein kisi ka dhyaan is or nahin gaya tha. lekin jab roz hi gare mitti ka kaam chhoDkar wo daftar mein hi rahne lagi to mazduron mein phusaphusahten shuru ho gai theen.
tisre din subah jab mazdur kaam shuru karne ke liye jhopaDiyon se bahar nikal rahe the, kisni hainDpanp ke niche khule mein baithkar sabun se ragaD ragaDkar nha rahi thi. bhatte par sabun kisi ke paas nahin tha. sabun aur usse uthte jhaag par sabki nazar paD gai thi. lekin bola koi kuch bhi nahin tha. sabhi ki ankhon mein shankaon ke gahre kale badal ghir aaye the. kanaphusi halke halke shuru ho gai thi.
mahesh gumsum sa alag alag rahne laga tha. sanvle rang ki bhare pure zism ki kisni ka vyvahar mahesh ke liye duःkhadai ho raha tha. wo din bhar daftar mein ghusi rahti thi. uski khilakhilahten daftar se bahar tak sunai paDne lagi theen. mahesh ne use samjhane ki koshish ki thi. lekin wo jis raah par chal paDi thi vahan se lautna mushkil tha.
bhatte ki zindagi bhi ajib thi. gaanv basti ka mahaul ban raha tha. jhopDi ke bahar jalte chulhe aur pakte khane ki mahq se bhatthe ki niras zindagi mein kuch der ke liye hi sahi, tazgi ka ahsas hota tha. zyadatar log roti ke saath guD ya phir laal mirch ki chatni hi khate the. daal sabzi to kabhi kabhar hi banti thi.
shaam hote hi hainDpanp par bheeD lag jati thi. zism par chipki mitti ko jitna utarne ki koshish karte, wo aur utna hi bhitar utar jati thi. nas nas mein kachchi mitti ki mahq bas gai thi. is mahq se alag bhatte ka koi astitv nahin tha.
kisni aur subesinh ki kahani ab kafi aage baDh gai thi. subesinh ke ardali ne mahesh ko nashe ki lat Daal di thi. nasha karke mahesh jhopDi mein paDa rahta tha. kisni ke paas ek tranzistar bhi aa gaya tha. subah shaam bhatthe ki khamoshi mein tranzistar ki avaz gunjne lagi thi. tranzistar wo itne zor se bajati thi ki bhatte ka vatavran filmi ganon ki avaz se gamak uthta tha. shaant mahaul mein sangit lahariyon ne khanak paida kar di thi.
kaDi mehnat aur din raat bhatthe mein jalti aag ke baad jab bhattha khulta tha to mazdur se lekar malik tak ki bechain sanson ko rahat milti thi. bhatte se paki iinton ko bahar nikalne ka kaam shuru ho gaya tha. laal laal pakki iinton ko dekhkar sukiya aur mano ki khushi ki intha nahin thi. khaskar mano to iinton ko ulat pulatkar dekh rahi thi. khud ke haath ki pathi iinton ka rang hi badal gaya tha. us din iinton ko dekhte dekhte hi mano ke man mein bijli ki tarah ek khayal kaundha tha. is khayal ke aate hi uske bhitar jaise ek saath kai kai bhatt jal rahe the. usne sukiya se puchha tha, “ek ghar mein kitni iinten lag jati hain?
bahut. . . kai hazar. . . loha, siment, lakDi, ret alag se. uske man mein khayal ubhra tha. use tatkal koi adhar nahin mil pa raha tha. wo bechain ho uthi thi.
use khamosh dekhkar sukiya ne kaha, chalo, kaam shuru karna hai. jasdev baat dekh raha hoga. sukiya ke pichhe pichhe anamni hi chal di thi mano, lekin uske dilo dimagh par iinton ka laal rang kuch aise chha gaya tha ki wo usi mein ulajhkar rah gai thi.
jhinguron ki jhin jhin aur beech beech mein siyaron ki avazen raat ke sannate mein syahpan ghol rahi theen. thake hare mazdur neend ki gahri khaiyon mein luDhak ge the. mano ke khayalon mein abhi bhi laal laal iinten ghoom rahi theen. in iinton se bana hua ek chhota sa ghar uske zehn mein bas gaya tha. ye khayal jis shiddat se pukhta hua tha, neend utni hi door chali gai thi.
door kisi basti se halke halke chhankar aati murghe ki baang, raat ke akhiri pahar ke ahsas ke saath hi mano ki palken neend se bhari hone lagi theen.
subah ke zaruri kamon se nibatkar jab sukiya ne jhopDi mein jhanka to wo hairan rah gaya tha. itni der tak mano kabhi nahin soti. wo pareshan ho gaya tha. gahri neend mein soi manon ka matha usne chhukar dekha, matha thanDa tha. usne rahat ki saans li. mano ko jagaya, “itna din chaDh gaya hai. . . uthne ka man nahin hai?
mano anamni si uthi. kuch der yoon hi chupchap baithi rahi. mano ka is tarah baithna sukiya ko akharne laga tha, aaj kya baat hai?. . . ji to theek hai?
mano apne khayalon mein gum thi. man ki baat bahar aane ke liye chhatapta rahi thi. usne sukiya ki or dekhte hue puchha, kyon ji. . . kya hum in pakki iinto par ghar nahin bana sake hain?
mano ki baat sunkar sukiya ashcharya se use takne laga. kal ki baat wo bhool chuka tha. sukiya ne gahre avsad se bharkar kaha, “pakki iinton ka ghar do chaar rupe mein na banta hai. . . . itte Dher se not lage hain ghar banane mein. gaanth mein nahin hai paisa, chale hathi kharidne.
mahinebhar mein jo hamne itti iinten bana di hai. . . kya apne liye hum iiten na bana sake hain. mano ne masumiyat se kaha.
yah bhattha malik ka hai. hum iinten unke liye banate hain. hum to mazdur hain. in iinton par apna koi haq na hai. sukiya ne apne man mein uthte dabav ko mahsus kiya.
in iinton par mhara koi bhi haq na hai. . . kyoon. . . , mano ne tajjub bhari kaDuvahat se kaha. uske andar bavanDar machal raha tha. kuch der ki khamoshi ke baad mano boli, “har mahine kuch aur bachat karen. . . zyada iinten banayen. . . tab?. . . tab bhi apna ghar nahin bana sakte? apne bhitar kulabulate savalon ko bahar lana chahti thi mano.
“itni mazduri milti kahan hai? pure mahine haaD goD toD ke bhi kitne rupe bache! kul assi. ek saal mein ek hazar iinton ke daam agar hamne bachcha bhi liye to ghar banane layaq rupya joDte joDte umr nikal jagi. pher bhi ghar na ban pavega. sukiya ne dukhi man se kaha.
“agar hum raat din kaam karen to bhi nahin? mano ne utsaah mein bharkar kaha.
bavli ho gai hai kyaa?. . . chal uth. . . chal, kaam pe jana hai. tem zyada ho raha hai. thekedar aata hi hoga. aaj purab ki taang katni hai lagar ke liye. sukiya mano ke savalon se ghabra gaya tha. uthkar bahar jane laga.
kuchh bhi karo. . . tum chaho to main raat din kaam karungi. . . mujhe ek pakki iinton ka ghar chahiye. apne gaanv mein. . . laal surkh iinton ka ghar. manon ke bhitar man mein hazar hazar vasant khil uthe the.
sukiya aur mano ko ek lakshya mil gaya tha. pakki iinton ka ghar banana hai. . . apne hi haath ki paki iinton se. subah hote hi kaam par lag jate hain aur shaam ko bhi andhera hone tak jute rahte hain. thekedar asgar se lekar malik tak unke kaam se khush the.
subesinh kisni ko shahr bhi lekar jane laga tha. kisni ke rang Dhang mein badlav aa gaya tha. ab wo bhatte par gare mitti ka kaam nahin karti thi. mahesh roz raat mein nasha karke man ki bhaDas nikalta tha. din mein bhi apni jhopDi mein paDa rahta tha ya idhar udhar baitha rahta tha. kisni kai kai dinon tak shahr se lautti nahin thi. jab lautti—thaki, niDhal aur murjhai hui. kapDon latton ki ab kami nahin thi.
us roz subesinh ne bhatthe par aate hi asgar thekedar se kaha tha, mano ko daftar mein bulao, aaj kisni ki tabiyat theek nahin hai.
asgar thekedar ne rokna chaha tha, chhote babu mano ko. . .
baat puri hone se pahle hi subesinh ne use phatkar diya tha, tumse jo kaha gaya hai, vahi karo. raay dene ki koshish mat karo. tum is bhatthe par munshi ho. munshi hi raho, malik banne ki koshish karoge to anjam bura hoga.
asgar thekedar ki ghighghi bandh gai thi. wo chupchap mano ko bulane chal diya tha. asgar thekedar ne avaz dekar kaha tha, mano, chhote babu bula rahe hain daftar mein.
mano ne sukiya ki or dekha. uski ankhon mein bhay se utpann katarta thi. sukiya bhi is bulave par haDbaDa gaya tha. wo janta tha. machhli ko phansane ke liye jaal phenka ja raha hai. ghusse aur akrosh se nasen khinchne lagi theen. jasdev ne bhi sukiya ki manःsthiti ko bhaanp liya tha. wo furti se utha. haath paanv par lagi gili mitti chhuDate hue bola “tum yahan thahro. . . main dekhta hoon. chalo chacha asgar ke pichhe pichhe chal diya.
asgar thekedar janta tha ki subesinh shaitan hai. lekin chup rahna uski mazburi ban gai thi. zindagi ka khaas hissa usne bhatte par guzara tha. bhatte se alag uska koi vajud hi nahin tha.
asgar thekedar ke saath jasdev ko aata dekhkar subesinh biphar paDa tha. tujhe kisne bulaya hai?
ji. . . jo bhi kaam ho bataiye. . . main kar dunga. . . . jasdev ne vinamrata se kaha.
kyon? tu uska khasam hai. . . ya uski (. . . par charbi chaDh gai hai). ” subesinh ne apshabdon ka istemal kiya.
“babu ji. . . aap kis tarah bol rahe hain. . . jasdev ke baat puri karne se pahle hi ek jhannatedar thappaD uske gaal par paDa.
“janta nahin. . . bhatte ki aag mein jhonk dunga. . . kisi ko pata bhi nahin chalega. haDDiyan tak nahin milegi raakh se. . . samjha. subesinh ne use dhakiya diya. jasdev gir paDa tha.
jab tak wo sanbhal pata. laat ghunso se subesinh ne use adhamra kar diya tha. cheekh pukar sunkar mazdur unki aur dauD paDe the. mazduron ko ek saath aata dekhkar subesinh jeep mein baith gaya tha. dekhte hi dekhte jeep shahr ki or dauD gai thi. asgar thekedar daftar mein ja ghusa tha.
sukiya aur mano jasdev ko uthakar jhopDi mein le ge the. wo dard se karah raha tha. mano ne uski choton par haldi laga di thi. sukiya ghusse mein kaanp raha tha. mano ke avchetan mein asankhya andhere naach rahe the. wo kisni nahin banna chahti thi. izzat ki zindagi jine ki adamya lalsa usmen bhari hui thi. use ek ghar chahiye tha— pakki iinton ka, jahan wo apni grihasthi aur parivar ke sapne dekhti thi.
samucha din adrishya bhay aur dahshat mein bita tha. jasdev ko halka bukhar ho gaya tha. wo apni jhopDi mein paDa tha. sukiya uske paas baitha tha. aaj ki ghatna se mazdur Dar ge the. unhen lag raha tha ki subesinh kisi bhi vaqt lautkar aa sakta hai. shaam hote hi bhatte par sannata chha gaya tha. sab apne apne khol mein simat ge the. buDha bilasiya jo aksar bahar peD ke niche der raat tak baitha rahta tha, aaj shaam hote hi apni jhopDi mein jakar let gaya tha. uske khansane ki avaz bhi aaj kuch dhimi ho gai thi. kisni ki jhopDi se tranzistar ki avaz bhi nahin aa rahi thi.
beech beech mein hainDpanp ki khanch khanch dhvani is khamoshi mein vighn Daal rahi thi. pamp jasdev ki jhopDi ke theek samne tha. sabhi ko pani ke liye is pamp par aana paDta tha.
bhatte par dava daru ka koi intzaam nahin tha. katne phatne par ghaav par mitti laga dena tha. kapDa jalakar raakh bhar dena hi davai ki jagah kaam aate the.
mano ne adhure man se chulha jalaya tha. rotiyan senkkar sukiya ke samne rakh di thi. sukiya ne bhi anichchha se ek roti halak ke niche utari thi. uski bhookh jaise achanak mar gai thi. mano ko lekar uski chinta baDh gai thi. usne nishchay kar liya tha wo mano ko kisni nahin banne dega.
mano bhi gumsum apne aapse hi laD rahi thi. baar baar use lag raha tha ki wo surakshit nahin hai. ek saval use khaye ja raha tha—kya aurat hone ki yahi saza hai. wo janti thi ki sukiya aisa vaisa kuch nahin hone dega. wo mahesh ki tarah nahin hai. bhale hi ye bhattha chhoDna paDe. bhattha chhoDne ke khayal se hi wo sihar uthi. nahin. . . bhattha nahin chhoDna hai. usne apne aapko ashvast kiya, abhi to pakki iinton ka ghar banana hai.
mano rotiyan lekar bahar jane lagi to sukiya ne toka, kahan ja rahi hai?
“jasdev bhukha pyasa paDa hai. use rotti dene ja rahi hoon. mano ne sahj bhaav se kaha.
baman tere haath ki rotti khavega. . . . akl mari gai teri sukiya ne use rokna chaha.
kyon mere haath ki rotti mein zahr laga hai? mano ne saval kiya. pal bhar rukkar boli, baman nahin bhattha mazdur hai wo. . . mhare jaisa.
charon taraf sannata tha. jasdev ki jhopDi mein Dhibri jal rahi thi. mano ne jhopDi ka darvaza thela ji kaisa hai? bhitar jate hue mano ne puchha. jasdev ne uthne ki koshish ki. uske munh se dard ki aah nikli.
kambakht kiDe paDke marega. haath paanv toot tutkar girenge. . . adami nahin jangli jinavar hai. mano ne subesinh ko koste hue kaha.
jasdev chupchap use dekh raha tha.
yah le. . . rotti kha le. sube se bhukha hai. do kaur pet mein jayenge to taqat to avegi badan mein, mano ne roti aur guD uske aage rakh diya tha. jasdev kuch anmana sa ho gaya tha. bhookh to use lagi thi. lekin man ke bhitar kahin hichak thi. ghar parivar se bahar nikle zyada samay nahin hua tha. khud wo kuch bhi bana nahin paya tha. sharir ka por por toot raha tha.
bhookh nahin hai. jasdev ne bahana kiya.
“bhookh nahin hai ya koi aur baat hai. . . mano ne jaise use range hathon pakaD liya tha.
“aur kya baat ho sakti hai?. . . jasdev ne saval kiya.
tumhare bhaiya kah rahe the ki tum baman ho. . . isiliye mere haath ki roti nahin khaoge. agar yo baat hai to main zor na Dalungi. . . thari marzi. . . aurat hoon. . . paas mein koi bhukha ho. . . to roti ka kaur gale se niche nahin utarta hai. . . . phir tum to din raat saath kaam karte ho. . ., meri khatir pite. . . phir ye baman mhare beech kahan se aa gaya. . . ? mano ruansi ho gai thi. uska gala rundh gaya tha.
roti lekar vapas lautne ke liye muDi. jasdev mein sahas nahin tha use rok lene ke liye. unke beech juDe tamam sootr jaise achanak bikhar ge the.
apni jhopDi mein aakar chupchap let gai thi mano. bina kuch khaye. din bhar ki ghatnayen uske dimagh mein khalbali macha rahi theen. jasdev bhukha hai, ye ahsas use pareshan kar raha tha. jasdev ko lekar uske man mein halchal thi. use lag raha tha—jaise jasdev ka saath unhen taqat de raha hai. aisi taqat jo subesinh se laDne mein hausla de sakti hai. do se teen hone ka sukh mano mahsus karne lagi thi.
sukiya bhi chupchap leta hua tha. uski bhi neend uD chuki thi. uski samajh mein nahin aa raha tha, kya karen, inhin halat mein gaanv chhoDa tha. ve hi phir samne khaDe the. akhir jayen to kahan? subesinh se paar pana asan nahin tha. sunsan jagah hai kabhi bhi hamla kar sakta hai. ya phir mano ko. . . vichar aate hi wo kaanp gaya tha. usne karvat badli. mano jaag rahi thi. use apni or khinchkar sine se chipta liya tha.
jasdev ne bhi puri raat jagkar kati thi. subesinh ka ghussail chehra baar baar samne aakar dahshat paida kar raha tha. use lagne laga tha ki jaise wo achanak kisi shaDyantr mein phans gaya hai. use ye andaza nahin tha ki subesinh marapit karega. aisi kalpana bhi use nahin thi. wo Dar gaya tha. usne tay kar liya tha, ki chahe jo ho, wo is pachDe mein nahin paDega.
subah hote hi wo asgar thekedar se mila tha. asgar hi use shahr se apne saath laya tha. jasdev ne asgar thekedar se apne man ki baat kahi. thekedar ne use samjhate hue kaha tha, apne kaam se kaam rakho. kyon inke chakkar mein paDte ho.
jasdev ke badle hue vyvahar ko mano ne taaD liya tha. lekin usne koi pratikriya zahir nahin ki thi. wo sahajta se apne kaam mein lagi thi. wo janti thi ki unke beech ek fasla aa gaya hai. lekin wo chup thi.
subesinh ko bhi lagne laga tha ki mano ko phuslana asan nahin hai. uski tamam koshish nirarthak sabit hui thi. isiliye wo mano aur sukiya ko pareshan karne par utar aaya tha. usne asgar thekedar se bhi kah diya tha ki usse puchhen baghair unhen mazduri ka bhugtan na kare, na koi riyayat hi barte unke saath.
mano se kuch chhupa nahin tha. subesinh ki harakton par uski nazar thi. usne apne aap mein nishchay kar liya tha ki wo uska muqabala karegi. uthte baithte uske man mein ek hi khayal tha. pakki iinton ka ghar banvana hai. lekin subesinh is khayal mein badhak ban raha tha.
sukiya aur mano din raat kaam mein jute the. phir bhi har mahine ve zyada kuch bacha nahin pa rahe the. pichhle dinon unhonne duguni iinten pathi theen. unke utsaah mein koi kami nahin thi. ek hi uddeshya tha—pakki iinton ka ghar banana hai. isiliye subesinh ki zyadatiyon ko ve sahn kar rahe the. lekin ek taDap thi donon mein, jo unhen sanbhale hue thi.
subesinh nit ne bahane DhoonDh leta tha, unhen tang karne ke, ek sheet yuddh jari tha unke beech, sukiya se iint pathne ka sancha vapas le liya gaya tha. use bhatte ki mori ka kaam de diya tha. mori ka kaam khatarnak tha. mano Dar gai thi. lekin sukiya ne use himmat bandhai thi, kaam se kyoon Darna. . . .
sukiya ka sancha jasdev ko de diya gaya tha. sancha milte hi jasdev ke rang badal ge the. wo mano par hukum chalane laga tha mano chupchap kaam mein lagi rahti thi.
kal taDke iint pathni hai. iinten hatakar jagah bana de. jasdev adesh dekar apni jhopDi ki or chala gaya tha. mano ne pathi iinton ko divar ki shakl mein laga diya tha. kachchi iinton ko sukhane ke liye do, khaDi do aaDi iinten rakhkar jalidar divar bana di thi. iint pathne ki jagah khali karke hi mano lautkar jhopDi mein gai thi.
hainDpanp par bheeD thi. sabhi mazdur kaam khatm karke haath munh dhone ke liye ge the.
subah hone se pahle hi mano uth gai thi. use kaam par jane ki jaldi thi. charon taraph andhera tha. subah hone ka wo intzaar karna nahin chahti thi. usne jaldi jaldi subah ke kaam nibtaye aur iint pathne ke liye nikal paDi thi. suraj nikalne mein abhi der thi. jasdev se pahle hi wo kaam par pahunch jati thi.
ikka dukka mazdur hi idhar udhar dikhai paD rahe the. wo tez qadmon se iint pathne ki jagah par pahunch gai thi. vahan ka drishya dekhkar avak rah gai thi. sari iinten tuti phuti paDi theen. jaise kisi ne unhen bedardi se raund Dala tha. iinton ki dayniy avastha dekhkar uski cheekh nikal gai thi. wo dahaDe maar markar rone lagi thi. avaz sunkar mazdur ikattha ho ge the.
jitne munh utni baten, sab apni apni ataklen laga rahe the. raat mein andhi—tufan bhi nahin aaya tha. na hi kisi jangli janvar ka hi ye kaam ho sakta hai. kai logon ka kahna tha, kisi ne jaan bujhkar iinten toDi hain.
mano ka hriday phata ja raha tha. tuti phuti iinton ko dekhkar wo baura gai thi.
jaise kisi ne uske pakki iinton ke makan ko hi dharashai kar diya tha.
jasdev kafi der baad aaya tha. wo nirpeksh bhaav se chupchap khaDa tha. jaise in tuti phuti iinton se uska kuch lena dena hi na ho.
sukiya bhi ho halla sunkar mori ka kaam chhoDkar aaya tha. iinton ki haalat dekhkar uska bhi dil baithne laga tha. uski jaise himmat toot gai thi. wo phati phati ankhon se iinton ko dekh raha tha. sukiya ko dekhte hi mano aur zor zor se rone lagi thi. sukiya ne mano ki ankhon se bahte tez andhaDon ko dekha aur unki kirkirahat apne antarman mein mahsus ki. sapnon ke toot jane ki avaz uske kanon ko phaaD rahi thi.
asgar thekedar ne saaf kah diya tha. tuti phuti iinten hamare kis kaam kee? inki mazduri hum nahin denge. asgar thekedar ne unki rahi sahi ummidon par bhi pani pher diya tha. mano ne sukiya ki or DabDabai ankhon se dekha. sukiya ke chehre par tufan mein ghar toot jane ki piDa chhalachhla aai thi. use lagne laga tha, jaise tamam log uske khilaf hain. tarah tarah ki badhayen uske samne khaDi ki ja rahi hain. vahan rukna uske liye kathin ho gaya tha.
usne mano ka haath pakDa, “chal! ye log mhara ghar na banne denge. pakki iinton ke makan ka sapna unki pakaD se phisalkar aur door chala gaya tha.
bhatthe se uthte kale dhuen ne akash tale ek kali chadar phaila di thi. sab kuch chhoDkar mano aur sukiya chal paDe the. ek khanabdosh ki tarah, jinhen ek ghar chahiye tha, rahne ke liye. pichhe chhoot ge the kuch betartib pal, pasine ke aks jo kabhi itihas nahin ban sakenge. khanabdosh zindagi ka ek paDav tha ye bhattha.
sukiya ke pichhe pichhe chal paDne se pahle mano ne jasdev ki or dekha tha. mano ko yaqin tha, jasdev unka saath dega. lekin jasdev ko chup dekhkar uska vishvas tukDe tukDe ho gaya tha. mano ke sine mein ek tees ubhri thi. sard saans mein badalkar manon ko chhalni kar gai thi. uske honth phaDphaDaye the kuch kahne ke liye lekin shabd ghutkar rah ge the. sapnon ke kaanch uski ankh mein kirkira rahe the. wo bhari man se sukiya ke pichhe pichhe chal paDi thi, agle paDav ki talash mein, ek dishahin yatra par.
sukiya ke haath ki pathi kachchi iinten pakne ke liye bhatte mein lagai ja rahi theen. bhatte ke galiyare mein jharokhedar kachchi iinton ki divar dekhkar sukiya atmik sukh se bhar gaya tha. dekhte hi dekhte hazaron iinten bhatthe ke galiyare mein sama gai theen. iinton ke beech khali jagah mein patthar ka koyala, lakDi, burada, ganne ki bali bhar diye ge the.
asgar thekedar ne apni nigrani mein har cheez tartib se lagvai thi. aag lagane se pahle bhattha malik mukhtar sinh ne ek ek cheez ka muayna kiya tha.
chaubison ghante ki Dyuti par mazduron ko lagaya gaya tha, jo moriyon se bhatte mein koyala, burada aadi Daal rahe the. bhatte ka sabse khatrevala kaam tha mori par kaam karna. thoDi si asavadhani bhi maut ka karan ban sakti thi.
bhatte ki chimani dhuan ugalne lagi thi. ye dhuan milon door se dikhai paD jata tha. hare bhare kheton ke beech gahre matamaile rang ka ye bhattha ek dhabbe jaisa dikhai paDta tha.
mano aur sukiya mahinabhar pahle hi is bhatte par aaye the, dihaDi mazdur bankar. haftebhar ka kaam dekhkar asgar thekedar ne sukiya se kaha tha ki sancha le lo aur iint pathne ka kaam shuru karo. hazar iint ke ret se apni mazduri lo. bhatte par lagbhag tees mazdur the jo vahin kaam karte the. bhattha malik mukhtar sinh aur asgar thekedar saanjh hote hi shahr laut jate the. shahr se door, dinbhar ki gahma gahmi ke baad ye bhatta andhere ki god mein sama jata tha.
ek qatar mein bani chhoti chhoti jhompaDiyon mein timtimati Dhibariyan bhi is andhere se laD nahin pati theen. daDbenuma jhompaDiyon mein jhukkar ghusna paDta tha. jhuke jhuke hi bahar aana hota tha. bhatte ka kaam khatm hote hi aurten chulha chauka sanbhal leti theen. kahne bhar ke liye chulha chauka tha. iinton ko joDkar banaye chulhe mein jalti lakaDiyon ki chit pit jaise man mein pasri dushchintaon aur taklifon ki prtidhvaniyan theen jahan sab kuch anishchit tha. mano abhi tak is bhatte ki zindagi se talamel nahin baitha pai thi. bas, sukiya ki zid ke samne wo kamzor paD gai thi. saanjh hote hi sara mahaul bhanya bhanya karne lagta tha. dinbhar ke thake hare mazdur apne apne daDbon mein ghus jate the. saanp bichchhu ka Dar laga rahta tha. jaise samucha jangal jhopDi ke darvaze par aakar khaDa ho gaya hai. aise mahaul mein mano ka ji ghabrane lagta tha. lekin kare bhi to kya, na jane kitni baar sukiya se kaha tha mano ne apne des ki sukhi roti bhi pardes ke pakvanon se achchhi hoti hai.
sukiya ke man mein ek baat baith gai thi. nark ki zindagi se nikalna hai to kuch chhoDna bhi paDega. mano ki har baat ka ek hi javab tha uske paas baDe buDhe kaha kare hain ki adami ki auqat ghar se bahar qadam rakhnen pe hi pata chale hai. ghar mein to chuha bhi surma bana rah. kandhe par yo lamba latt dharke chalnen vale chaudhari sahar (shahr) mein sarkari afasron ke aage sidhe khaDe na ho sake hain. buDDi bakariyon ki tarah mimiyayen hain. . . aur gaanv mein kisi gharib ku adami bhi na samjhe hain. . . ”
sukiya ki in baton se mano kamzor paD jati thi. isiliye gaanv dehat chhoDkar ve donon ek din asgar thekedar ke saath is bhatte par aa ge the.
pahle hi mahine mein sukiya ne kuch rupye bacha liye the. kai kai baar ginkar tasalli kar li thi. dhoti ki gaanth mein bandhakar anti mein khos liye the. rupe dekhkar mano bhi khush ho gai thi. use lagne laga tha ki wo apni zindagi ke Dharre ko badal lega.
sukiya aur mano ki zindagi ek nishchit Dharre par chalne lagi thi. donon milkar pahle tagari banate, phir mano taiyar mitti lakar deti. is kaam mein unke saath ek tisra mazdur bhi aa gaya tha. naam tha jasdev. chhoti umr ka laDka tha. asgar thekedar ne use bhi unke saath kaam par laga diya tha. isse kaam mein gati aa gai thi. mano bhi ab furti se sanche mein iinten Dalne lagi thi, jisse unki dihaDi baDh gai thi.
us roz malik mukhtar sinh ki jagah unka beta subesinh bhatthe par aaya tha. malik kuch dinon ke liye kahin bahar chale ge the. unki ghairhaziri mein subesinh ka raub daab bhatte ka mahaul hi badal deta tha. in dinon mein asgar thekedar bhigi billi ban jata tha. daftar ke bahar ek ardali ki Dyuti lag jati thi, jo kursi par ukDu baithkar dinbhar biDi pita tha, aane jane valon par nigrani rakhta tha. uski ijazat ke baghair koi andar nahin ja sakta tha.
ek roz subesinh ki nazar kisni par paD gai. teen mahine pahle hi kisni aur mahesh bhatte par aaye the. paanch chhः mahine pahle hi donon ki shadi hui thi.
subesinh ne use daftar ki seva tahal ka kaam de diya tha. shuru shuru mein kisi ka dhyaan is or nahin gaya tha. lekin jab roz hi gare mitti ka kaam chhoDkar wo daftar mein hi rahne lagi to mazduron mein phusaphusahten shuru ho gai theen.
tisre din subah jab mazdur kaam shuru karne ke liye jhopaDiyon se bahar nikal rahe the, kisni hainDpanp ke niche khule mein baithkar sabun se ragaD ragaDkar nha rahi thi. bhatte par sabun kisi ke paas nahin tha. sabun aur usse uthte jhaag par sabki nazar paD gai thi. lekin bola koi kuch bhi nahin tha. sabhi ki ankhon mein shankaon ke gahre kale badal ghir aaye the. kanaphusi halke halke shuru ho gai thi.
mahesh gumsum sa alag alag rahne laga tha. sanvle rang ki bhare pure zism ki kisni ka vyvahar mahesh ke liye duःkhadai ho raha tha. wo din bhar daftar mein ghusi rahti thi. uski khilakhilahten daftar se bahar tak sunai paDne lagi theen. mahesh ne use samjhane ki koshish ki thi. lekin wo jis raah par chal paDi thi vahan se lautna mushkil tha.
bhatte ki zindagi bhi ajib thi. gaanv basti ka mahaul ban raha tha. jhopDi ke bahar jalte chulhe aur pakte khane ki mahq se bhatthe ki niras zindagi mein kuch der ke liye hi sahi, tazgi ka ahsas hota tha. zyadatar log roti ke saath guD ya phir laal mirch ki chatni hi khate the. daal sabzi to kabhi kabhar hi banti thi.
shaam hote hi hainDpanp par bheeD lag jati thi. zism par chipki mitti ko jitna utarne ki koshish karte, wo aur utna hi bhitar utar jati thi. nas nas mein kachchi mitti ki mahq bas gai thi. is mahq se alag bhatte ka koi astitv nahin tha.
kisni aur subesinh ki kahani ab kafi aage baDh gai thi. subesinh ke ardali ne mahesh ko nashe ki lat Daal di thi. nasha karke mahesh jhopDi mein paDa rahta tha. kisni ke paas ek tranzistar bhi aa gaya tha. subah shaam bhatthe ki khamoshi mein tranzistar ki avaz gunjne lagi thi. tranzistar wo itne zor se bajati thi ki bhatte ka vatavran filmi ganon ki avaz se gamak uthta tha. shaant mahaul mein sangit lahariyon ne khanak paida kar di thi.
kaDi mehnat aur din raat bhatthe mein jalti aag ke baad jab bhattha khulta tha to mazdur se lekar malik tak ki bechain sanson ko rahat milti thi. bhatte se paki iinton ko bahar nikalne ka kaam shuru ho gaya tha. laal laal pakki iinton ko dekhkar sukiya aur mano ki khushi ki intha nahin thi. khaskar mano to iinton ko ulat pulatkar dekh rahi thi. khud ke haath ki pathi iinton ka rang hi badal gaya tha. us din iinton ko dekhte dekhte hi mano ke man mein bijli ki tarah ek khayal kaundha tha. is khayal ke aate hi uske bhitar jaise ek saath kai kai bhatt jal rahe the. usne sukiya se puchha tha, “ek ghar mein kitni iinten lag jati hain?
bahut. . . kai hazar. . . loha, siment, lakDi, ret alag se. uske man mein khayal ubhra tha. use tatkal koi adhar nahin mil pa raha tha. wo bechain ho uthi thi.
use khamosh dekhkar sukiya ne kaha, chalo, kaam shuru karna hai. jasdev baat dekh raha hoga. sukiya ke pichhe pichhe anamni hi chal di thi mano, lekin uske dilo dimagh par iinton ka laal rang kuch aise chha gaya tha ki wo usi mein ulajhkar rah gai thi.
jhinguron ki jhin jhin aur beech beech mein siyaron ki avazen raat ke sannate mein syahpan ghol rahi theen. thake hare mazdur neend ki gahri khaiyon mein luDhak ge the. mano ke khayalon mein abhi bhi laal laal iinten ghoom rahi theen. in iinton se bana hua ek chhota sa ghar uske zehn mein bas gaya tha. ye khayal jis shiddat se pukhta hua tha, neend utni hi door chali gai thi.
door kisi basti se halke halke chhankar aati murghe ki baang, raat ke akhiri pahar ke ahsas ke saath hi mano ki palken neend se bhari hone lagi theen.
subah ke zaruri kamon se nibatkar jab sukiya ne jhopDi mein jhanka to wo hairan rah gaya tha. itni der tak mano kabhi nahin soti. wo pareshan ho gaya tha. gahri neend mein soi manon ka matha usne chhukar dekha, matha thanDa tha. usne rahat ki saans li. mano ko jagaya, “itna din chaDh gaya hai. . . uthne ka man nahin hai?
mano anamni si uthi. kuch der yoon hi chupchap baithi rahi. mano ka is tarah baithna sukiya ko akharne laga tha, aaj kya baat hai?. . . ji to theek hai?
mano apne khayalon mein gum thi. man ki baat bahar aane ke liye chhatapta rahi thi. usne sukiya ki or dekhte hue puchha, kyon ji. . . kya hum in pakki iinto par ghar nahin bana sake hain?
mano ki baat sunkar sukiya ashcharya se use takne laga. kal ki baat wo bhool chuka tha. sukiya ne gahre avsad se bharkar kaha, “pakki iinton ka ghar do chaar rupe mein na banta hai. . . . itte Dher se not lage hain ghar banane mein. gaanth mein nahin hai paisa, chale hathi kharidne.
mahinebhar mein jo hamne itti iinten bana di hai. . . kya apne liye hum iiten na bana sake hain. mano ne masumiyat se kaha.
yah bhattha malik ka hai. hum iinten unke liye banate hain. hum to mazdur hain. in iinton par apna koi haq na hai. sukiya ne apne man mein uthte dabav ko mahsus kiya.
in iinton par mhara koi bhi haq na hai. . . kyoon. . . , mano ne tajjub bhari kaDuvahat se kaha. uske andar bavanDar machal raha tha. kuch der ki khamoshi ke baad mano boli, “har mahine kuch aur bachat karen. . . zyada iinten banayen. . . tab?. . . tab bhi apna ghar nahin bana sakte? apne bhitar kulabulate savalon ko bahar lana chahti thi mano.
“itni mazduri milti kahan hai? pure mahine haaD goD toD ke bhi kitne rupe bache! kul assi. ek saal mein ek hazar iinton ke daam agar hamne bachcha bhi liye to ghar banane layaq rupya joDte joDte umr nikal jagi. pher bhi ghar na ban pavega. sukiya ne dukhi man se kaha.
“agar hum raat din kaam karen to bhi nahin? mano ne utsaah mein bharkar kaha.
bavli ho gai hai kyaa?. . . chal uth. . . chal, kaam pe jana hai. tem zyada ho raha hai. thekedar aata hi hoga. aaj purab ki taang katni hai lagar ke liye. sukiya mano ke savalon se ghabra gaya tha. uthkar bahar jane laga.
kuchh bhi karo. . . tum chaho to main raat din kaam karungi. . . mujhe ek pakki iinton ka ghar chahiye. apne gaanv mein. . . laal surkh iinton ka ghar. manon ke bhitar man mein hazar hazar vasant khil uthe the.
sukiya aur mano ko ek lakshya mil gaya tha. pakki iinton ka ghar banana hai. . . apne hi haath ki paki iinton se. subah hote hi kaam par lag jate hain aur shaam ko bhi andhera hone tak jute rahte hain. thekedar asgar se lekar malik tak unke kaam se khush the.
subesinh kisni ko shahr bhi lekar jane laga tha. kisni ke rang Dhang mein badlav aa gaya tha. ab wo bhatte par gare mitti ka kaam nahin karti thi. mahesh roz raat mein nasha karke man ki bhaDas nikalta tha. din mein bhi apni jhopDi mein paDa rahta tha ya idhar udhar baitha rahta tha. kisni kai kai dinon tak shahr se lautti nahin thi. jab lautti—thaki, niDhal aur murjhai hui. kapDon latton ki ab kami nahin thi.
us roz subesinh ne bhatthe par aate hi asgar thekedar se kaha tha, mano ko daftar mein bulao, aaj kisni ki tabiyat theek nahin hai.
asgar thekedar ne rokna chaha tha, chhote babu mano ko. . .
baat puri hone se pahle hi subesinh ne use phatkar diya tha, tumse jo kaha gaya hai, vahi karo. raay dene ki koshish mat karo. tum is bhatthe par munshi ho. munshi hi raho, malik banne ki koshish karoge to anjam bura hoga.
asgar thekedar ki ghighghi bandh gai thi. wo chupchap mano ko bulane chal diya tha. asgar thekedar ne avaz dekar kaha tha, mano, chhote babu bula rahe hain daftar mein.
mano ne sukiya ki or dekha. uski ankhon mein bhay se utpann katarta thi. sukiya bhi is bulave par haDbaDa gaya tha. wo janta tha. machhli ko phansane ke liye jaal phenka ja raha hai. ghusse aur akrosh se nasen khinchne lagi theen. jasdev ne bhi sukiya ki manःsthiti ko bhaanp liya tha. wo furti se utha. haath paanv par lagi gili mitti chhuDate hue bola “tum yahan thahro. . . main dekhta hoon. chalo chacha asgar ke pichhe pichhe chal diya.
asgar thekedar janta tha ki subesinh shaitan hai. lekin chup rahna uski mazburi ban gai thi. zindagi ka khaas hissa usne bhatte par guzara tha. bhatte se alag uska koi vajud hi nahin tha.
asgar thekedar ke saath jasdev ko aata dekhkar subesinh biphar paDa tha. tujhe kisne bulaya hai?
ji. . . jo bhi kaam ho bataiye. . . main kar dunga. . . . jasdev ne vinamrata se kaha.
kyon? tu uska khasam hai. . . ya uski (. . . par charbi chaDh gai hai). ” subesinh ne apshabdon ka istemal kiya.
“babu ji. . . aap kis tarah bol rahe hain. . . jasdev ke baat puri karne se pahle hi ek jhannatedar thappaD uske gaal par paDa.
“janta nahin. . . bhatte ki aag mein jhonk dunga. . . kisi ko pata bhi nahin chalega. haDDiyan tak nahin milegi raakh se. . . samjha. subesinh ne use dhakiya diya. jasdev gir paDa tha.
jab tak wo sanbhal pata. laat ghunso se subesinh ne use adhamra kar diya tha. cheekh pukar sunkar mazdur unki aur dauD paDe the. mazduron ko ek saath aata dekhkar subesinh jeep mein baith gaya tha. dekhte hi dekhte jeep shahr ki or dauD gai thi. asgar thekedar daftar mein ja ghusa tha.
sukiya aur mano jasdev ko uthakar jhopDi mein le ge the. wo dard se karah raha tha. mano ne uski choton par haldi laga di thi. sukiya ghusse mein kaanp raha tha. mano ke avchetan mein asankhya andhere naach rahe the. wo kisni nahin banna chahti thi. izzat ki zindagi jine ki adamya lalsa usmen bhari hui thi. use ek ghar chahiye tha— pakki iinton ka, jahan wo apni grihasthi aur parivar ke sapne dekhti thi.
samucha din adrishya bhay aur dahshat mein bita tha. jasdev ko halka bukhar ho gaya tha. wo apni jhopDi mein paDa tha. sukiya uske paas baitha tha. aaj ki ghatna se mazdur Dar ge the. unhen lag raha tha ki subesinh kisi bhi vaqt lautkar aa sakta hai. shaam hote hi bhatte par sannata chha gaya tha. sab apne apne khol mein simat ge the. buDha bilasiya jo aksar bahar peD ke niche der raat tak baitha rahta tha, aaj shaam hote hi apni jhopDi mein jakar let gaya tha. uske khansane ki avaz bhi aaj kuch dhimi ho gai thi. kisni ki jhopDi se tranzistar ki avaz bhi nahin aa rahi thi.
beech beech mein hainDpanp ki khanch khanch dhvani is khamoshi mein vighn Daal rahi thi. pamp jasdev ki jhopDi ke theek samne tha. sabhi ko pani ke liye is pamp par aana paDta tha.
bhatte par dava daru ka koi intzaam nahin tha. katne phatne par ghaav par mitti laga dena tha. kapDa jalakar raakh bhar dena hi davai ki jagah kaam aate the.
mano ne adhure man se chulha jalaya tha. rotiyan senkkar sukiya ke samne rakh di thi. sukiya ne bhi anichchha se ek roti halak ke niche utari thi. uski bhookh jaise achanak mar gai thi. mano ko lekar uski chinta baDh gai thi. usne nishchay kar liya tha wo mano ko kisni nahin banne dega.
mano bhi gumsum apne aapse hi laD rahi thi. baar baar use lag raha tha ki wo surakshit nahin hai. ek saval use khaye ja raha tha—kya aurat hone ki yahi saza hai. wo janti thi ki sukiya aisa vaisa kuch nahin hone dega. wo mahesh ki tarah nahin hai. bhale hi ye bhattha chhoDna paDe. bhattha chhoDne ke khayal se hi wo sihar uthi. nahin. . . bhattha nahin chhoDna hai. usne apne aapko ashvast kiya, abhi to pakki iinton ka ghar banana hai.
mano rotiyan lekar bahar jane lagi to sukiya ne toka, kahan ja rahi hai?
“jasdev bhukha pyasa paDa hai. use rotti dene ja rahi hoon. mano ne sahj bhaav se kaha.
baman tere haath ki rotti khavega. . . . akl mari gai teri sukiya ne use rokna chaha.
kyon mere haath ki rotti mein zahr laga hai? mano ne saval kiya. pal bhar rukkar boli, baman nahin bhattha mazdur hai wo. . . mhare jaisa.
charon taraf sannata tha. jasdev ki jhopDi mein Dhibri jal rahi thi. mano ne jhopDi ka darvaza thela ji kaisa hai? bhitar jate hue mano ne puchha. jasdev ne uthne ki koshish ki. uske munh se dard ki aah nikli.
kambakht kiDe paDke marega. haath paanv toot tutkar girenge. . . adami nahin jangli jinavar hai. mano ne subesinh ko koste hue kaha.
jasdev chupchap use dekh raha tha.
yah le. . . rotti kha le. sube se bhukha hai. do kaur pet mein jayenge to taqat to avegi badan mein, mano ne roti aur guD uske aage rakh diya tha. jasdev kuch anmana sa ho gaya tha. bhookh to use lagi thi. lekin man ke bhitar kahin hichak thi. ghar parivar se bahar nikle zyada samay nahin hua tha. khud wo kuch bhi bana nahin paya tha. sharir ka por por toot raha tha.
bhookh nahin hai. jasdev ne bahana kiya.
“bhookh nahin hai ya koi aur baat hai. . . mano ne jaise use range hathon pakaD liya tha.
“aur kya baat ho sakti hai?. . . jasdev ne saval kiya.
tumhare bhaiya kah rahe the ki tum baman ho. . . isiliye mere haath ki roti nahin khaoge. agar yo baat hai to main zor na Dalungi. . . thari marzi. . . aurat hoon. . . paas mein koi bhukha ho. . . to roti ka kaur gale se niche nahin utarta hai. . . . phir tum to din raat saath kaam karte ho. . ., meri khatir pite. . . phir ye baman mhare beech kahan se aa gaya. . . ? mano ruansi ho gai thi. uska gala rundh gaya tha.
roti lekar vapas lautne ke liye muDi. jasdev mein sahas nahin tha use rok lene ke liye. unke beech juDe tamam sootr jaise achanak bikhar ge the.
apni jhopDi mein aakar chupchap let gai thi mano. bina kuch khaye. din bhar ki ghatnayen uske dimagh mein khalbali macha rahi theen. jasdev bhukha hai, ye ahsas use pareshan kar raha tha. jasdev ko lekar uske man mein halchal thi. use lag raha tha—jaise jasdev ka saath unhen taqat de raha hai. aisi taqat jo subesinh se laDne mein hausla de sakti hai. do se teen hone ka sukh mano mahsus karne lagi thi.
sukiya bhi chupchap leta hua tha. uski bhi neend uD chuki thi. uski samajh mein nahin aa raha tha, kya karen, inhin halat mein gaanv chhoDa tha. ve hi phir samne khaDe the. akhir jayen to kahan? subesinh se paar pana asan nahin tha. sunsan jagah hai kabhi bhi hamla kar sakta hai. ya phir mano ko. . . vichar aate hi wo kaanp gaya tha. usne karvat badli. mano jaag rahi thi. use apni or khinchkar sine se chipta liya tha.
jasdev ne bhi puri raat jagkar kati thi. subesinh ka ghussail chehra baar baar samne aakar dahshat paida kar raha tha. use lagne laga tha ki jaise wo achanak kisi shaDyantr mein phans gaya hai. use ye andaza nahin tha ki subesinh marapit karega. aisi kalpana bhi use nahin thi. wo Dar gaya tha. usne tay kar liya tha, ki chahe jo ho, wo is pachDe mein nahin paDega.
subah hote hi wo asgar thekedar se mila tha. asgar hi use shahr se apne saath laya tha. jasdev ne asgar thekedar se apne man ki baat kahi. thekedar ne use samjhate hue kaha tha, apne kaam se kaam rakho. kyon inke chakkar mein paDte ho.
jasdev ke badle hue vyvahar ko mano ne taaD liya tha. lekin usne koi pratikriya zahir nahin ki thi. wo sahajta se apne kaam mein lagi thi. wo janti thi ki unke beech ek fasla aa gaya hai. lekin wo chup thi.
subesinh ko bhi lagne laga tha ki mano ko phuslana asan nahin hai. uski tamam koshish nirarthak sabit hui thi. isiliye wo mano aur sukiya ko pareshan karne par utar aaya tha. usne asgar thekedar se bhi kah diya tha ki usse puchhen baghair unhen mazduri ka bhugtan na kare, na koi riyayat hi barte unke saath.
mano se kuch chhupa nahin tha. subesinh ki harakton par uski nazar thi. usne apne aap mein nishchay kar liya tha ki wo uska muqabala karegi. uthte baithte uske man mein ek hi khayal tha. pakki iinton ka ghar banvana hai. lekin subesinh is khayal mein badhak ban raha tha.
sukiya aur mano din raat kaam mein jute the. phir bhi har mahine ve zyada kuch bacha nahin pa rahe the. pichhle dinon unhonne duguni iinten pathi theen. unke utsaah mein koi kami nahin thi. ek hi uddeshya tha—pakki iinton ka ghar banana hai. isiliye subesinh ki zyadatiyon ko ve sahn kar rahe the. lekin ek taDap thi donon mein, jo unhen sanbhale hue thi.
subesinh nit ne bahane DhoonDh leta tha, unhen tang karne ke, ek sheet yuddh jari tha unke beech, sukiya se iint pathne ka sancha vapas le liya gaya tha. use bhatte ki mori ka kaam de diya tha. mori ka kaam khatarnak tha. mano Dar gai thi. lekin sukiya ne use himmat bandhai thi, kaam se kyoon Darna. . . .
sukiya ka sancha jasdev ko de diya gaya tha. sancha milte hi jasdev ke rang badal ge the. wo mano par hukum chalane laga tha mano chupchap kaam mein lagi rahti thi.
kal taDke iint pathni hai. iinten hatakar jagah bana de. jasdev adesh dekar apni jhopDi ki or chala gaya tha. mano ne pathi iinton ko divar ki shakl mein laga diya tha. kachchi iinton ko sukhane ke liye do, khaDi do aaDi iinten rakhkar jalidar divar bana di thi. iint pathne ki jagah khali karke hi mano lautkar jhopDi mein gai thi.
hainDpanp par bheeD thi. sabhi mazdur kaam khatm karke haath munh dhone ke liye ge the.
subah hone se pahle hi mano uth gai thi. use kaam par jane ki jaldi thi. charon taraph andhera tha. subah hone ka wo intzaar karna nahin chahti thi. usne jaldi jaldi subah ke kaam nibtaye aur iint pathne ke liye nikal paDi thi. suraj nikalne mein abhi der thi. jasdev se pahle hi wo kaam par pahunch jati thi.
ikka dukka mazdur hi idhar udhar dikhai paD rahe the. wo tez qadmon se iint pathne ki jagah par pahunch gai thi. vahan ka drishya dekhkar avak rah gai thi. sari iinten tuti phuti paDi theen. jaise kisi ne unhen bedardi se raund Dala tha. iinton ki dayniy avastha dekhkar uski cheekh nikal gai thi. wo dahaDe maar markar rone lagi thi. avaz sunkar mazdur ikattha ho ge the.
jitne munh utni baten, sab apni apni ataklen laga rahe the. raat mein andhi—tufan bhi nahin aaya tha. na hi kisi jangli janvar ka hi ye kaam ho sakta hai. kai logon ka kahna tha, kisi ne jaan bujhkar iinten toDi hain.
mano ka hriday phata ja raha tha. tuti phuti iinton ko dekhkar wo baura gai thi.
jaise kisi ne uske pakki iinton ke makan ko hi dharashai kar diya tha.
jasdev kafi der baad aaya tha. wo nirpeksh bhaav se chupchap khaDa tha. jaise in tuti phuti iinton se uska kuch lena dena hi na ho.
sukiya bhi ho halla sunkar mori ka kaam chhoDkar aaya tha. iinton ki haalat dekhkar uska bhi dil baithne laga tha. uski jaise himmat toot gai thi. wo phati phati ankhon se iinton ko dekh raha tha. sukiya ko dekhte hi mano aur zor zor se rone lagi thi. sukiya ne mano ki ankhon se bahte tez andhaDon ko dekha aur unki kirkirahat apne antarman mein mahsus ki. sapnon ke toot jane ki avaz uske kanon ko phaaD rahi thi.
asgar thekedar ne saaf kah diya tha. tuti phuti iinten hamare kis kaam kee? inki mazduri hum nahin denge. asgar thekedar ne unki rahi sahi ummidon par bhi pani pher diya tha. mano ne sukiya ki or DabDabai ankhon se dekha. sukiya ke chehre par tufan mein ghar toot jane ki piDa chhalachhla aai thi. use lagne laga tha, jaise tamam log uske khilaf hain. tarah tarah ki badhayen uske samne khaDi ki ja rahi hain. vahan rukna uske liye kathin ho gaya tha.
usne mano ka haath pakDa, “chal! ye log mhara ghar na banne denge. pakki iinton ke makan ka sapna unki pakaD se phisalkar aur door chala gaya tha.
bhatthe se uthte kale dhuen ne akash tale ek kali chadar phaila di thi. sab kuch chhoDkar mano aur sukiya chal paDe the. ek khanabdosh ki tarah, jinhen ek ghar chahiye tha, rahne ke liye. pichhe chhoot ge the kuch betartib pal, pasine ke aks jo kabhi itihas nahin ban sakenge. khanabdosh zindagi ka ek paDav tha ye bhattha.
sukiya ke pichhe pichhe chal paDne se pahle mano ne jasdev ki or dekha tha. mano ko yaqin tha, jasdev unka saath dega. lekin jasdev ko chup dekhkar uska vishvas tukDe tukDe ho gaya tha. mano ke sine mein ek tees ubhri thi. sard saans mein badalkar manon ko chhalni kar gai thi. uske honth phaDphaDaye the kuch kahne ke liye lekin shabd ghutkar rah ge the. sapnon ke kaanch uski ankh mein kirkira rahe the. wo bhari man se sukiya ke pichhe pichhe chal paDi thi, agle paDav ki talash mein, ek dishahin yatra par.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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