झोंपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए थे और अंदर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव-वेदना में पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी, कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अंधकार में लय हो गया था। घीसू ने कहा—“मालूम होता है, बचेगी नहीं। सारा दिन दौड़ते हो गया, जा देख तो आ।”
माधव चिढ़कर बोला—”मरना ही है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती? देखकर क्या करूँ?”
“तू बड़ा बेदर्द है बे! साल-भर जिसके साथ सुख-चैन से रहा, उसी के साथ इतनी बेवफ़ाई!”
“तो मुझसे तो उसका तड़पना और हाथ-पाँव पटकना नहीं देखा जाता।”
चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम। घीसू एक दिन काम करता तो तीन दिन आराम करता। माधव इतना कामचोर था कि आध घंटे काम करता तो घंटे भर चिलम पीता। इसलिए उन्हें कहीं मज़दूरी नहीं मिलती थी। घर में मुठ्ठी-भर भी अनाज मौजूद हो, तो उनके लिए काम करने की क़सम थी। जब दो-चार फ़ाक़े हो जाते तो घीसू पेड़ पर चढ़कर लकड़ियाँ तोड़ लाता और माधव बाज़ार से बेच लाता और जब तक वह पैसे रहते, दोनों इधर-उधर मारे-मारे फिरते। गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे। मगर इन दोनों को उसी वक़्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी संतोष कर लेने के सिवा और कोई चारा न होता। अगर दोनो साधु होते, तो उन्हें संतोष और धैर्य के लिए, संयम और नियम की बिलकुल ज़रूरत न होती। यह तो इनकी प्रकृति थी। विचित्र जीवन था इनका! घर में मिट्टी के दो-चार बर्तन के सिवा कोई संपत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से अपनी नग्नता को ढाँके हुए जिए जाते थे। संसार की चिंताओं से मुक्त! क़र्ज़ से लदे हुए। गालियाँ भी खाते, मार भी खाते, मगर कोई ग़म नहीं। दीन इतने कि वसूली की बिलकुल आशा न रहने पर भी लोग इन्हें कुछ-न-कुछ क़र्ज़ दे देते थे। मटर, आलू की फ़सल में दूसरों के खेतों से मटर या आलू उखाड़ लाते और भून-भानकर खा लेते या दस-पाँच ऊख उखाड़ लाते और रात को चूसते। घीसू ने इसी आकाश-वृत्ति से साठ साल की उम्र काट दी और माधव भी सपूत बेटे की तरह बाप ही के पद-चिह्नों पर चल रहा था, बल्कि उसका नाम और भी उजागर कर रहा था। इस वक़्त भी दोनों अलाव के सामने बैठकर आलू भून रहे थे, जो कि किसी खेत से खोद लाए थे। घीसू की स्त्री का तो बहुत दिन हुए, देहांत हो गया था। माधव का ब्याह पिछले साल हुआ था। जब से यह औरत आई थी, उसने इस ख़ानदान में व्यवस्था की नींव डाली थी और इन दोनों बे-ग़ैरतों का दोज़ख़ भरती रहती थी। जब से वह आई, यह दोनों और भी आलसी और आरामतलब हो गए थे। बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्ब्याज भाव से दुगुनी मज़दूरी माँगते। वही औरत आज प्रसव-वेदना से मर रही थी और यह दोनों इसी इंतज़ार में थे कि वह मर जाए, तो आराम से सोएँ।
घीसू ने आलू निकालकर छीलते हुए कहा—“जाकर देख तो, क्या दशा है उसकी? चुड़ैल का फिसाद होगा, और क्या? यहाँ तो ओझा भी एक रुपया माँगता है!”
माधव को भय था, कि वह कोठरी में गया, तो घीसू आलुओं का बड़ा भाग साफ़ कर देगा। बोला- “मुझे वहाँ जाते डर लगता है।”
“डर किस बात का है, मैं तो यहाँ हूँ ही।”
“तो तुम्हीं जाकर देखो न?”
“मेरी औरत जब मरी थी, तो मैं तीन दिन तक उसके पास से हिला तक नहीं था! और फिर मुझसे लजाएगी कि नहीं? जिसका कभी मुँह नहीं देखा, आज उसका उघड़ा हुआ बदन देखूँ! उसे तन की सुध भी तो न होगी? मुझे देख लेगी तो खुलकर हाथ-पाँव भी न पटक सकेगी!”
“मैं सोचता हूँ कोई बाल-बच्चा हो गया तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में!”
“सब कुछ आ जाएगा। भगवान दें तो! जो लोग अभी एक पैसा नहीं दे रहे हैं, वे ही कल बुलाकर रुपए देंगे। मेरे नौ लड़के हुए, घर में कभी कुछ न था, मगर भगवान ने किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार ही लगाया।”
जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुक़ाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज़्यादा संपन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी। हम तो कहेंगे, घीसू किसानों से कहीं ज़्यादा विचारवान था और किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाज़ों की कुत्सित मंडली में जा मिला था। हाँ, उसमें यह शक्ति न थी, कि बैठकबाज़ों के नियम और नीति का पालन करता। इसलिए जहाँ उसकी मंडली के और लोग गाँव के सरगना और मुखिया बने हुए थे, उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। फिर भी उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम-से-कम उसे किसानों की-सी जी-तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फ़ायदा तो नहीं उठाते!
दोनों आलू निकाल-निकालकर जलते-जलते खाने लगे। कल से कुछ नहीं खाया था। इतना सब्र न था कि ठंडा हो जाने दें। कई बार दोनों की ज़बानें जल गईं। छिल जाने पर आलू का बाहरी हिस्सा ज़बान, हलक और तालू को जला देता था और उस अंगारे को मुँह में रखने से ज़्यादा ख़ैरियत इसी में थी कि वह अंदर पहुँच जाए। वहाँ उसे ठंडा करने के लिए काफ़ी सामान थे। इसलिए दोनों जल्द-जल्द निगल जाते। हालाँकि इस कोशिश में उनकी आँखों से आँसू निकल आते।
घीसू को उस वक़्त ठाकुर की बरात याद आई, जिसमें बीस साल पहले वह गया था। उस दावत में उसे जो तृप्ति मिली थी, वह उसके जीवन में एक याद रखने लायक़ बात थी, और आज भी उसकी याद ताज़ा थी, बोला—“वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना और भरपेट नहीं मिला। लड़की वालों ने सबको भर पेट पूरियाँ खिलाई थीं, सबको! छोटे-बड़े सबने पूरियाँ खाईं और असली घी की! चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई, अब क्या बताऊँ कि उस भोज में क्या स्वाद मिला। कोई रोक-टोक नहीं थी, जो चीज़ चाहो, माँगो, जितना चाहो खाओ। लोगों ने ऐसा खाया, ऐसा खाया, कि किसी से पानी न पिया गया। मगर परोसने वाले हैं कि पत्तल में गर्म-गर्म, गोल-गोल सुवासित कचौरियाँ डाल देते हैं। मना करते हैं कि नहीं चाहिए, पत्तल पर हाथ रोके हुए हैं, मगर वह हैं कि दिए जाते हैं। और जब सबने मुँह धो लिया, तो पान-इलायची भी मिली। मगर मुझे पान लेने की कहाँ सुध थी? खड़ा हुआ न जाता था। चटपट जाकर अपने कंबल पर लेट गया। ऐसा दिल-दरियाव था वह ठाकुर!”
माधव ने इन पदार्थों का मन-ही-मन मज़ा लेते हुए कहा—“अब हमें कोई ऐसा भोज नहीं खिलाता।”
“अब कोई क्या खिलाएगा? वह ज़माना दूसरा था। अब तो सबको किफ़ायत सूझती है। शादी-ब्याह में मत ख़र्च करो, क्रिया-कर्म में मत ख़र्च करो। पूछो, ग़रीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे? बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, ख़र्च में किफ़ायत सूझती है!”
“तुमने एक बीस पूरियाँ खाई होंगी?”
“बीस से ज़ियादा खाई थीं!”
“मैं पचास खा जाता!”
“पचास से कम मैंने न खाई होंगी। अच्छा पका था। तू तो मेरा आधा भी नहीं है।”
आलू खाकर दोनों ने पानी पिया और वहीं अलाव के सामने अपनी धोतियाँ ओढ़कर पाँव पेट में डाले सो रहे। जैसे दो बड़े-बड़े अजगर गेंडुलियाँ मारे पड़े हों। और बुधिया अभी तक कराह रही थी।
दो
सवेरे माधव ने कोठरी में जाकर देखा, तो उसकी स्त्री ठंडी हो गई थी। उसके मुँह पर मक्खियाँ भिनक रही थीं। पथराई हुई आँखें ऊपर टँगी हुई थीं। सारी देह धूल से लथपथ हो रही थी। उसके पेट में बच्चा मर गया था।
माधव भागा हुआ घीसू के पास आया। फिर दोनों ज़ोर-ज़ोर से हाय-हाय करने और छाती पीटने लगे। पड़ोस वालों ने यह रोना-धोना सुना, तो दौड़े हुए आए और पुरानी मर्यादा के अनुसार इन अभागों को समझाने लगे।
मगर ज़्यादा रोने-पीटने का अवसर न था। कफ़न की और लकड़ी की फ़िक्र करनी थी। घर में तो पैसा इस तरह ग़ायब था, जैसे चील के घोंसले में माँस?
बाप-बेटे रोते हुए गाँव के ज़मींदार के पास गए। वह इन दोनों की सूरत से नफ़रत करते थे। कई बार इन्हें अपने हाथों से पीट चुके थे। चोरी करने के लिए, वादे पर काम पर न आने के लिए। पूछा—“क्या है बे घिसुआ, रोता क्यों है? अब तो तू कहीं दिखलाई भी नहीं देता! मालूम होता है, इस गाँव में रहना नहीं चाहता।”
घीसू ने ज़मीन पर सिर रखकर आँखों में आँसू भरे हुए कहा—“सरकार! बड़ी विपत्ति में हूँ। माधव की घरवाली रात को गुज़र गई। रात-भर तड़पती रही सरकार! हम दोनों उसके सिरहाने बैठे रहे। दवा-दारू जो कुछ हो सका, सब कुछ किया, मुदा वह हमें दग़ा दे गई। अब कोई एक रोटी देने वाला भी न रहा मालिक! तबाह हो गए। घर उजड़ गया। आपका ग़ुलाम हूँ, अब आपके सिवा कौन उसकी मिट्टी पार लगाएगा। हमारे हाथ में तो जो कुछ था, वह सब तो दवा-दारू में उठ गया। सरकार ही की दया होगी, तो उसकी मिट्टी उठेगी। आपके सिवा किसके द्वार पर जाऊँ।”
ज़मींदार साहब दयालु थे। मगर घीसू पर दया करना काले कंबल पर रंग चढ़ाना था। जी में तो आया, कह दें, चल, दूर हो यहाँ से। यूँ तो बुलाने से भी नहीं आता, आज जब ग़रज़ पड़ी तो आकर ख़ुशामद कर रहा है। हरामख़ोर कहीं का, बदमाश! लेकिन यह क्रोध या दंड देने का अवसर न था।
जी में कुढ़ते हुए दो रुपए निकालकर फेंक दिए। मगर सांत्वना का एक शब्द भी मुँह से न निकला। उसकी तरफ़ ताका तक नहीं। जैसे सिर का बोझ उतारा हो।
जब ज़मींदार साहब ने दो रुपए दिए, तो गाँव के बनिए-महाजनों को इनकार का साहस कैसे होता? घीसू ज़मींदार के नाम का ढिंढोरा भी पीटना ख़ूब जानता था। किसी ने दो आने दिए, किसी ने चारे आने। एक घंटे में घीसू के पास पाँच रुपए की अच्छी रक़म जमा हो गई। कहीं से अनाज मिल गया, कहीं से लकड़ी। और दोपहर को घीसू और माधव बाज़ार से कफ़न लाने चले। इधर लोग बाँस-वाँस काटने लगे।
गाँव की नर्म दिल स्त्रियाँ आ-आकर लाश देखती थीं और उसकी बेकसी पर दो बूँद आँसू गिराकर चली जाती थीं।
तीन
बाज़ार में पहुँचकर घीसू बोला—“लकड़ी तो उसे जलाने-भर को मिल गई है, क्यों माधव!”
माधव बोला—“हाँ, लकड़ी तो बहुत है, अब कफ़न चाहिए।”
“तो चलो, कोई हलक़ा-सा कफ़न ले लें।”
“हाँ, और क्या! लाश उठते-उठते रात हो जाएगी। रात को कफ़न कौन देखता है?”
“कैसा बुरा रिवाज़ है कि जिसे जीते जी तन ढाँकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न चाहिए।”
“कफ़न लाश के साथ जल ही तो जाता है।”
“और क्या रखा रहता है? यही पाँच रुपए पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू कर लेते।”
दोनों एक-दूसरे के मन की बात ताड़ रहे थे। बाज़ार में इधर-उधर घूमते रहे। कभी इस बाज़ार की दूकान पर गए, कभी उसकी दूकान पर! तरह-तरह के कपड़े, रेशमी और सूती देखे, मगर कुछ जँचा नहीं। यहाँ तक कि शाम हो गई। तब दोनों न जाने किस दैवी प्रेरणा से एक मधुशाला के सामने जा पहुँचे। और जैसे किसी पूर्व निश्चित व्यवस्था से अंदर चले गए। वहाँ ज़रा देर तक दोनों असमंजस में खड़े रहे। फिर घीसू ने गद्दी के सामने जाकर कहा—“साहूजी, एक बोतल हमें भी देना।”
इसके बाद कुछ चिखौना आया, तली हुई मछली आईं और दोनों बरामदे में बैठकर शांतिपूर्वक पीने लगे।
कई कुज्जियाँ ताबड़तोड़ पीने के बाद दोनों सरूर में आ गए। घीसू बोला—“कफ़न लगाने से क्या मिलता? आख़िर जल ही तो जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।”
माधव आसमान की तरफ़ देखकर बोला, मानों देवताओं को अपनी निष्पापता का साक्षी बना रहा हो—“दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बामनों को हज़ारों रुपए क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!”
“बड़े आदमियों के पास धन है, फूँके। हमारे पास फूँकने को क्या है?”
“लेकिन लोगों को जवाब क्या दोगे? लोग पूछेंगे नहीं, कफ़न कहाँ है?”
घीसू हँसा—“अबे, कह देंगे कि रुपए कमर से खिसक गए। बहुत ढूँढ़ा, मिले नहीं। लोगों को विश्वास न आएगा, लेकिन फिर वही रुपए देंगे।”
माधव भी हँसा, इस अनपेक्षित सौभाग्य पर बोला—“बड़ी अच्छी थी बेचारी! मरी तो ख़ूब खिला-पिलाकर!”
आधी बोतल से ज़्यादा उड़ गई। घीसू ने दो सेर पूरियाँ मँगाई। चटनी, अचार, कलेजियाँ। शराबख़ाने के सामने ही दूकान थी। माधव लपककर दो पत्तलों में सारे सामान ले आया। पूरा डेढ़ रुपया ख़र्च हो गया। सिर्फ़ थोड़े से पैसे बच रहे।
दोनों इस वक़्त इस शान में बैठे पूरियाँ खा रहे थे जैसे जंगल में कोई शेर अपना शिकार उड़ा रहा हो। न जवाबदेही का ख़ौफ़ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन भावनाओं को उन्होंने बहुत पहले ही जीत लिया था।
घीसू दार्शनिक भाव से बोला—“हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा?”
माधव ने श्रद्धा से सिर झुकाकर तसदीक़ की—“ज़रूर से ज़रूर होगा। भगवान, तुम अंतर्यामी हो। उसे बैकुंठ ले जाना। हम दोनों हृदय से आशीर्वाद दे रहे हैं। आज जो भोजन मिला वह कभी उम्र-भर न मिला था।”
एक क्षण के बाद माधव के मन में एक शंका जागी। बोला—“क्यों दादा, हम लोग भी एक-न-एक दिन वहाँ जाएँगे ही?”
घीसू ने इस भोले-भाले सवाल का कुछ उत्तर न दिया। वह परलोक की बातें सोचकर इस आनंद में बाधा न डालना चाहता था।
“जो वहाँ वह हम लोगों से पूछे कि तुमने हमें कफ़न क्यों नहीं दिया तो क्या कहोगे?”
“कहेंगे तुम्हारा सिर!”
“पूछेगी तो ज़रूर!”
“तू कैसे जानता है कि उसे कफ़न न मिलेगा? तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूँ? उसको कफ़न मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा!”
माधव को विश्वास न आया। बोला—“कौन देगा? रुपए तो तुमने चट कर दिए। वह तो मुझसे पूछेगी। उसकी माँग में तो सेंदुर मैंने डाला था।”
“कौन देगा, बताते क्यों नहीं?”
“वही लोग देंगे, जिन्होंने अबकी दिया। हाँ, अबकी रुपए हमारे हाथ न आएँगे।”
ज्यों-ज्यों अँधेरा बढ़ता था और सितारों की चमक तेज़ होती थी, मधुशाला की रौनक भी बढ़ती जाती थी। कोई गाता था, कोई डींग मारता था, कोई अपने संगी के गले लिपटा जाता था। कोई अपने दोस्त के मुँह में कुल्हड़ लगाए देता था।
वहाँ के वातावरण में सुरूर था, हवा में नशा। कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे। शराब से ज़्यादा यहाँ की हवा उन पर नशा करती थी। जीवन की बाधाएँ यहाँ खींच लाती थीं और कुछ देर के लिए यह भूल जाते थे कि वे जीते हैं या मरते हैं। या न जीते हैं, न मरते हैं।
और यह दोनों बाप-बेटे अब भी मज़े ले-लेकर चुसकियाँ ले रहे थे। सबकी निगाहें इनकी ओर जमी हुई थीं। दोनों कितने भाग्य के बली हैं! पूरी बोतल बीच में है।
भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूरियों का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था। और देने के गौरव, आनंद और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।
घीसू ने कहा—“ले जा, ख़ूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गई। मगर तेरा आशीर्वाद उसे ज़रूर पहुँचेगा। रोएँ-रोएँ से आशीर्वाद दो, बड़ी गाढ़ी कमाई के पैसे हैं!”
माधव ने फिर आसमान की तरफ़ देखकर कहा—“वह बैकुंठ में जाएगी दादा, बैकुंठ की रानी बनेगी।”
घीसू खड़ा हो गया और जैसे उल्लास की लहरों में तैरता हुआ बोला—“हाँ, बेटा बैकुंठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी ज़िंदगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई। वह न बैकुंठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएँगे, जो ग़रीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चढ़ाते हैं?
श्रद्धालुता का यह रंग तुरंत ही बदल गया। अस्थिरता नशे की ख़ासियत है। दु:ख और निराशा का दौरा हुआ।
माधव बोला—“मगर दादा, बेचारी ने ज़िंदगी में बड़ा दुख भोगा। कितना दुख झेलकर मरी!”
वह आँखों पर हाथ रखकर रोने लगा। चीखें मार-मारकर।
घीसू ने समझाया—“क्यों रोता है बेटा, ख़ुश हो कि वह माया-जाल से मुक्त हो गई, जंजाल से छूट गई। बड़ी भाग्यवान थी, जो इतनी जल्द माया-मोह के बंधन तोड़ दिए।
और दोनों खड़े होकर गाने लगे—
“ठगिनी क्यों नैना झमकावे! ठगिनी!”
पियक्कड़ों की आँखें इनकी ओर लगी हुई थीं और यह दोनों अपने दिल में मस्त गाए जाते थे। फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बनाए, अभिनय भी किए। और आख़िर नशे में मदमस्त होकर वहीं गिर पड़े।
ek
jhompDe ke dvaar par baap aur beta donon ek bujhe hue alav ke samne chupchap baithe hue the aur andar bete ki javan bivi budhiya prasav vedna mein pachhaD kha rahi thi. rah rahkar uske munh se aisi dil hila dene vali avaz nikalti thi, ki donon kaleja thaam lete the. jaDon ki raat thi, prkriti sannate mein Dubi hui, sara gaanv andhkar mein lay ho gaya tha. ghisu ne kaha—“malum hota hai, bachegi nahin. sara din dauDte ho gaya, ja dekh to aa. ”
madhav chiDhkar bola—”marna hi hai to jaldi mar kyon nahin jati? dekhkar kya karun?”
“tu baDa bedard hai be! saal bhar jiske saath sukh chain se raha, usi ke saath itni bevafai!”
chamaron ka kunba tha aur sare gaanv mein badnam. ghisu ek din kaam karta to teen din aram karta. madhav itna kamachor tha ki aadh ghante kaam karta to ghante bhar chilam pita. isliye unhen kahin mazduri nahin milti thi. ghar mein muththi bhar bhi anaj maujud ho, to unke liye kaam karne ki qasam thi. jab do chaar faqe ho jate to ghisu peD par chaDhkar lakDiyan toD lata aur madhav bazar se bech lata aur jab tak wo paise rahte, donon idhar udhar mare mare phirte. gaanv mein kaam ki kami na thi. kisanon ka gaanv tha, mehnati adami ke liye pachas kaam the. magar in donon ko usi vaqt bulate, jab do adamiyon se ek ka kaam pakar bhi santosh kar lene ke siva aur koi chara na hota. agar dono sadhu hote, to unhen santosh aur dhairya ke liye, sanyam aur niyam ki bilkul zarurat na hoti. ye to inki prkriti thi. vichitr jivan tha inkaa! ghar mein mitti ke do chaar bartan ke siva koi sampatti nahin. phate chithDon se apni nagnta ko Dhanke hue jiye jate the. sansar ki chintaon se mukt! qarz se lade hue. galiyan bhi khate, maar bhi khate, magar koi gham nahin. deen itne ki vasuli ki bilkul aasha na rahne par bhi log inhen kuch na kuch qarz de dete the. matar, aalu ki fasal mein dusron ke kheton se matar ya aalu ukhaaD late aur bhoon bhankar kha lete ya das paanch uukh ukhaaD late aur raat ko chuste. ghisu ne isi akash vritti se saath saal ki umr kaat di aur madhav bhi saput bete ki tarah baap hi ke pad chihnon par chal raha tha, balki uska naam aur bhi ujagar kar raha tha. is vaqt bhi donon alav ke samne baithkar aalu bhoon rahe the, jo ki kisi khet se khod laye the. ghisu ki stri ka to bahut din hue, dehant ho gaya tha. madhav ka byaah pichhle saal hua tha. jab se ye aurat aai thi, usne is khandan mein vyavastha ki neenv Dali thi aur in donon be ghairton ka dozakh bharti rahti thi. jab se wo aai, ye donon aur bhi aalsi aur aramatlab ho ge the. balki kuch akaDne bhi lage the. koi karya karne ko bulata, to nirbyaj bhaav se duguni mazduri mangte. vahi aurat aaj prasav vedna se mar rahi thi aur ye donon isi intzaar mein the ki wo mar jaye, to aram se soen.
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“Dar kis baat ka hai, main to yahan hoon hi. ”
“to tumhin jakar dekho na?”
“meri aurat jab mari thi, to main teen din tak uske paas se hila tak nahin tha! aur phir mujhse lajayegi ki nahin? jiska kabhi munh nahin dekha, aaj uska ughDa hua badan dekhun! use tan ki sudh bhi to na hogi? mujhe dekh legi to khulkar haath paanv bhi na patak sakegi!”
“main sochta hoon koi baal bachcha ho gaya to kya hoga? sonth, guD, tel, kuch bhi to nahin hai ghar men!”
“sab kuch aa jayega. bhagvan den to! jo log abhi ek paisa nahin de rahe hain, ve hi kal bulakar rupe denge. mere nau laDke hue, ghar mein kabhi kuch na tha, magar bhagvan ne kisi na kisi tarah beDa paar hi lagaya. ”
jis samaj mein raat din mehnat karne valon ki haalat unki haalat se kuch bahut achchhi na thi, aur kisanon ke muqable mein ve log, jo kisanon ki durbaltaon se laabh uthana jante the, kahin zyada sampann the, vahan is tarah ki manovritti ka paida ho jana koi achraj ki baat na thi. hum to kahenge, ghisu kisanon se kahin zyada vicharavan tha aur kisanon ke vichar shunya samuh mein shamil hone ke badle baithakbazon ki kutsit manDli mein ja mila tha. haan, usmen ye shakti na thi, ki baithakbazon ke niyam aur niti ka palan karta. isliye jahan uski manDli ke aur log gaanv ke saragna aur mukhiya bane hue the, us par sara gaanv ungli uthata tha. phir bhi use ye taskin to thi hi ki agar wo phatehal hai to kam se kam use kisanon ki si ji toD mehnat to nahin karni paDti, aur uski saralta aur nirihata se dusre log beja fayda to nahin uthate!
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madhav ne in padarthon ka man hi man maza lete hue kaha—“ab hamein koi aisa bhoj nahin khilata. ”
“ab koi kya khilayega? wo zamana dusra tha. ab to sabko kifayat sujhti hai. shadi byaah mein mat kharch karo, kriya karm mein mat kharch karo. puchho, gharibon ka maal bator batorkar kahan rakhoge? batorne mein to kami nahin hai. haan, kharch mein kifayat sujhti hai!”
“tumne ek bees puriyan khai hongi?”
“bees se ziyada khai theen!”
“main pachas kha jata!”
“pachas se kam mainne na khai hongi. achchha paka tha. tu to mera aadha bhi nahin hai. ”
aalu khakar donon ne pani piya aur vahin alav ke samne apni dhotiyan oDhkar paanv pet mein Dale so rahe. jaise do baDe baDe ajgar genDuliyan mare paDe hon. aur budhiya abhi tak karah rahi thi.
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savere madhav ne kothari mein jakar dekha, to uski stri thanDi ho gai thi. uske munh par makkhiyan bhinak rahi theen. pathrai hui ankhen uupar tangi hui theen. sari deh dhool se lathpath ho rahi thi. uske pet mein bachcha mar gaya tha.
madhav bhaga hua ghisu ke paas aaya. phir donon zor zor se haay haay karne aur chhati pitne lage. paDos valon ne ye rona dhona suna, to dauDe hue aaye aur purani maryada ke anusar in abhagon ko samjhane lage.
magar zyada rone pitne ka avsar na tha. kafan ki aur lakDi ki fikr karni thi. ghar mein to paisa is tarah ghayab tha, jaise cheel ke ghonsle mein maans?
baap bete rote hue gaanv ke zamindar ke paas ge. wo in donon ki surat se nafrat karte the. kai baar inhen apne hathon se peet chuke the. chori karne ke liye, vade par kaam par na aane ke liye. puchha—“kya hai be ghisua, rota kyon hai? ab to tu kahin dikhlai bhi nahin deta! malum hota hai, is gaanv mein rahna nahin chahta. ”
ghisu ne zamin par sir rakhkar ankhon mein ansu bhare hue kaha—“sarkar! baDi vipatti mein hoon. madhav ki gharvali raat ko guzar gai. raat bhar taDapti rahi sarkar! hum donon uske sirhane baithe rahe. dava daru jo kuch ho saka, sab kuch kiya, muda wo hamein dagha de gai. ab koi ek roti dene vala bhi na raha malik! tabah ho ge. ghar ujaD gaya. aapka ghulam hoon, ab aapke siva kaun uski mitti paar lagayega. hamare haath mein to jo kuch tha, wo sab to dava daru mein uth gaya. sarkar hi ki daya hogi, to uski mitti uthegi. aapke siva kiske dvaar par jaun. ”
zamindar sahab dayalu the. magar ghisu par daya karna kale kambal par rang chaDhana tha. ji mein to aaya, kah den, chal, door ho yahan se. yoon to bulane se bhi nahin aata, aaj jab gharaz paDi to aakar khushamad kar raha hai. haramkhor kahin ka, badmash! lekin ye krodh ya danD dene ka avsar na tha.
ji mein kuDhte hue do rupe nikalkar phenk diye. magar santvna ka ek shabd bhi munh se na nikla. uski taraf taka tak nahin. jaise sir ka bojh utara ho.
jab zamindar sahab ne do rupe diye, to gaanv ke baniye mahajnon ko inkaar ka sahas kaise hota? ghisu zamindar ke naam ka DhinDhora bhi pitna khoob janta tha. kisi ne do aane diye, kisi ne chare aane. ek ghante mein ghisu ke paas paanch rupe ki achchhi raqam jama ho gai. kahin se anaj mil gaya, kahin se lakDi. aur dopahar ko ghisu aur madhav bazar se kafan lane chale. idhar log baans vaans katne lage.
gaanv ki narm dil striyan aa aakar laash dekhti theen aur uski bekasi par do boond ansu girakar chali jati theen.
teen
bazar mein pahunchakar ghisu bola—“lakDi to use jalane bhar ko mil gai hai, kyon madhav!”
madhav bola—“han, lakDi to bahut hai, ab kafan chahiye. ”
“to chalo, koi halqa sa kafan le len. ”
“haan, aur kyaa! laash uthte uthte raat ho jayegi. raat ko kafan kaun dekhta hai?”
“kaisa bura rivaz hai ki jise jite ji tan Dhankne ko chithDa bhi na mile, use marne par naya kafan chahiye. ”
“kafan laash ke saath jal hi to jata hai. ”
“aur kya rakha rahta hai? yahi paanch rupe pahle milte, to kuch dava daru kar lete. ”
donon ek dusre ke man ki baat taaD rahe the. bazar mein idhar udhar ghumte rahe. kabhi is bazar ki dukan par ge, kabhi uski dukan par! tarah tarah ke kapDe, reshmi aur suti dekhe, magar kuch jancha nahin. yahan tak ki shaam ho gai. tab donon na jane kis daivi prerna se ek madhushala ke samne ja pahunche. aur jaise kisi poorv nishchit vyavastha se andar chale ge. vahan zara der tak donon asmanjas mein khaDe rahe. phir ghisu ne gaddi ke samne jakar kaha—“sahuji, ek botal hamein bhi dena. ”
iske baad kuch chikhauna aaya, tali hui machhli ain aur donon baramde mein baithkar shantipurvak pine lage.
kai kujjiyan tabaDtoD pine ke baad donon sarur mein aa ge. ghisu bola—“kafan lagane se kya milta? akhir jal hi to jata. kuch bahu ke saath to na jata. ”
madhav asman ki taraf dekhkar bola, manon devtaon ko apni nishpapta ka sakshi bana raha ho—“duniya ka dastur hai, nahin log bamnon ko hazaron rupe kyon de dete hain? kaun dekhta hai, parlok mein milta hai ya nahin!”
“baDe adamiyon ke paas dhan hai, phunke. hamare paas phunkne ko kya hai?”
ghisu hansa—“abe, kah denge ki rupe kamar se khisak ge. bahut DhunDha, mile nahin. logon ko vishvas na ayega, lekin phir vahi rupe denge. ”
madhav bhi hansa, is anpekshit saubhagya par bola—“baDi achchhi thi bechari! mari to khoob khila pilakar!”
aadhi botal se zyada uD gai. ghisu ne do ser puriyan mangai. chatni, achar, kalejiyan. sharabkhane ke samne hi dukan thi. madhav lapakkar do pattlon mein sare saman le aaya. pura DeDh rupya kharch ho gaya. sirf thoDe se paise bach rahe.
donon is vaqt is shaan mein baithe puriyan kha rahe the jaise jangal mein koi sher apna shikar uDa raha ho. na javabadehi ka khauf tha, na badnami ki fikr. in bhavnaon ko unhonne bahut pahle hi jeet liya tha.
ghisu darshanik bhaav se bola—“hamari aatma prasann ho rahi hai to kya use punn na hoga?”
madhav ne shraddha se sir jhukakar tasdiq ki—“zarur se zarur hoga. bhagvan, tum antaryami ho. use baikunth le jana. hum donon hriday se ashirvad de rahe hain. aaj jo bhojan mila wo kabhi umr bhar na mila tha. ”
ek kshan ke baad madhav ke man mein ek shanka jagi. bola—“kyon dada, hum log bhi ek na ek din vahan jayenge hee?”
ghisu ne is bhole bhale saval ka kuch uttar na diya. wo parlok ki baten sochkar is anand mein badha na Dalna chahta tha.
“jo vahan wo hum logon se puchhe ki tumne hamein kafan kyon nahin diya to kya kahoge?”
“kahenge tumhara sir!”
“puchhegi to zarur!”
“tu kaise janta hai ki use kafan na milega? tu mujhe aisa gadha samajhta hai? saath saal kya duniya mein ghaas khodta raha hoon? usko kafan milega aur bahut achchha milega!”
madhav ko vishvas na aaya. bola—“kaun dega? rupe to tumne chat kar diye. wo to mujhse puchhegi. uski maang mein to sendur mainne Dala tha. ”
jyon jyon andhera baDhta tha aur sitaron ki chamak tez hoti thi, madhushala ki raunak bhi baDhti jati thi. koi gata tha, koi Deeng marta tha, koi apne sangi ke gale lipta jata tha. koi apne dost ke munh mein kulhaD lagaye deta tha.
vahan ke vatavran mein surur tha, hava mein nasha. kitne to yahan aakar ek chullu mein mast ho jate the. sharab se zyada yahan ki hava un par nasha karti thi. jivan ki badhayen yahan kheench lati theen aur kuch der ke liye ye bhool jate the ki ve jite hain ya marte hain. ya na jite hain, na marte hain.
aur ye donon baap bete ab bhi maze le lekar chusakiyan le rahe the. sabki nigahen inki or jami hui theen. donon kitne bhagya ke bali hain! puri botal beech mein hai.
bharpet khakar madhav ne bachi hui puriyon ka pattal uthakar ek bhikhari ko de diya, jo khaDa inki or bhukhi ankhon se dekh raha tha. aur dene ke gaurav, anand aur ullaas ka apne jivan mein pahli baar anubhav kiya.
ghisu ne kaha—“le ja, khoob kha aur ashirvad de! jiski kamai hai, wo to mar gai. magar tera ashirvad use zarur pahunchega. roen roen se ashirvad do, baDi gaDhi kamai ke paise hain!”
madhav ne phir asman ki taraf dekhkar kaha—“vah baikunth mein jayegi dada, baikunth ki rani banegi. ”
ghisu khaDa ho gaya aur jaise ullaas ki lahron mein tairta hua bola—“han, beta baikunth mein jayegi. kisi ko sataya nahin, kisi ko dabaya nahin. marte marte hamari zindagi ki sabse baDi lalsa puri kar gai. wo na baikunth jayegi to kya ye mote mote log jayenge, jo gharibon ko donon hathon se lutte hain, aur apne paap ko dhone ke liye ganga mein nahate hain aur mandiron mein jal chaDhate hain?
shraddhaluta ka ye rang turant hi badal gaya. asthirta nashe ki khasiyat hai. duhakh aur nirasha ka daura hua.
madhav bola—“magar dada, bechari ne zindagi mein baDa dukh bhoga. kitna dukh jhelkar mari!”
wo ankhon par haath rakhkar rone laga. chikhen maar markar.
ghisu ne samjhaya—“kyon rota hai beta, khush ho ki wo maya jaal se mukt ho gai, janjal se chhoot gai. baDi bhagyavan thi, jo itni jald maya moh ke bandhan toD diye.
aur donon khaDe hokar gane lage—
“thagini kyon naina jhamkave! thagini!”
piyakkDon ki ankhen inki or lagi hui theen aur ye donon apne dil mein mast gaye jate the. phir donon nachne lage. uchhle bhi, kude bhi. gire bhi, matke bhi. bhaav bhi banaye, abhinay bhi kiye. aur akhir nashe mein madmast hokar vahin gir paDe.
ek
jhompDe ke dvaar par baap aur beta donon ek bujhe hue alav ke samne chupchap baithe hue the aur andar bete ki javan bivi budhiya prasav vedna mein pachhaD kha rahi thi. rah rahkar uske munh se aisi dil hila dene vali avaz nikalti thi, ki donon kaleja thaam lete the. jaDon ki raat thi, prkriti sannate mein Dubi hui, sara gaanv andhkar mein lay ho gaya tha. ghisu ne kaha—“malum hota hai, bachegi nahin. sara din dauDte ho gaya, ja dekh to aa. ”
madhav chiDhkar bola—”marna hi hai to jaldi mar kyon nahin jati? dekhkar kya karun?”
“tu baDa bedard hai be! saal bhar jiske saath sukh chain se raha, usi ke saath itni bevafai!”
chamaron ka kunba tha aur sare gaanv mein badnam. ghisu ek din kaam karta to teen din aram karta. madhav itna kamachor tha ki aadh ghante kaam karta to ghante bhar chilam pita. isliye unhen kahin mazduri nahin milti thi. ghar mein muththi bhar bhi anaj maujud ho, to unke liye kaam karne ki qasam thi. jab do chaar faqe ho jate to ghisu peD par chaDhkar lakDiyan toD lata aur madhav bazar se bech lata aur jab tak wo paise rahte, donon idhar udhar mare mare phirte. gaanv mein kaam ki kami na thi. kisanon ka gaanv tha, mehnati adami ke liye pachas kaam the. magar in donon ko usi vaqt bulate, jab do adamiyon se ek ka kaam pakar bhi santosh kar lene ke siva aur koi chara na hota. agar dono sadhu hote, to unhen santosh aur dhairya ke liye, sanyam aur niyam ki bilkul zarurat na hoti. ye to inki prkriti thi. vichitr jivan tha inkaa! ghar mein mitti ke do chaar bartan ke siva koi sampatti nahin. phate chithDon se apni nagnta ko Dhanke hue jiye jate the. sansar ki chintaon se mukt! qarz se lade hue. galiyan bhi khate, maar bhi khate, magar koi gham nahin. deen itne ki vasuli ki bilkul aasha na rahne par bhi log inhen kuch na kuch qarz de dete the. matar, aalu ki fasal mein dusron ke kheton se matar ya aalu ukhaaD late aur bhoon bhankar kha lete ya das paanch uukh ukhaaD late aur raat ko chuste. ghisu ne isi akash vritti se saath saal ki umr kaat di aur madhav bhi saput bete ki tarah baap hi ke pad chihnon par chal raha tha, balki uska naam aur bhi ujagar kar raha tha. is vaqt bhi donon alav ke samne baithkar aalu bhoon rahe the, jo ki kisi khet se khod laye the. ghisu ki stri ka to bahut din hue, dehant ho gaya tha. madhav ka byaah pichhle saal hua tha. jab se ye aurat aai thi, usne is khandan mein vyavastha ki neenv Dali thi aur in donon be ghairton ka dozakh bharti rahti thi. jab se wo aai, ye donon aur bhi aalsi aur aramatlab ho ge the. balki kuch akaDne bhi lage the. koi karya karne ko bulata, to nirbyaj bhaav se duguni mazduri mangte. vahi aurat aaj prasav vedna se mar rahi thi aur ye donon isi intzaar mein the ki wo mar jaye, to aram se soen.
ghisu ne aalu nikalkar chhilte hue kaha—“jakar dekh to, kya dasha hai uski? chuDail ka phisad hoga, aur kyaa? yahan to ojha bhi ek rupya mangta hai!”
madhav ko bhay tha, ki wo kothari mein gaya, to ghisu aluon ka baDa bhaag saaf kar dega. bola “mujhe vahan jate Dar lagta hai. ”
“Dar kis baat ka hai, main to yahan hoon hi. ”
“to tumhin jakar dekho na?”
“meri aurat jab mari thi, to main teen din tak uske paas se hila tak nahin tha! aur phir mujhse lajayegi ki nahin? jiska kabhi munh nahin dekha, aaj uska ughDa hua badan dekhun! use tan ki sudh bhi to na hogi? mujhe dekh legi to khulkar haath paanv bhi na patak sakegi!”
“main sochta hoon koi baal bachcha ho gaya to kya hoga? sonth, guD, tel, kuch bhi to nahin hai ghar men!”
“sab kuch aa jayega. bhagvan den to! jo log abhi ek paisa nahin de rahe hain, ve hi kal bulakar rupe denge. mere nau laDke hue, ghar mein kabhi kuch na tha, magar bhagvan ne kisi na kisi tarah beDa paar hi lagaya. ”
jis samaj mein raat din mehnat karne valon ki haalat unki haalat se kuch bahut achchhi na thi, aur kisanon ke muqable mein ve log, jo kisanon ki durbaltaon se laabh uthana jante the, kahin zyada sampann the, vahan is tarah ki manovritti ka paida ho jana koi achraj ki baat na thi. hum to kahenge, ghisu kisanon se kahin zyada vicharavan tha aur kisanon ke vichar shunya samuh mein shamil hone ke badle baithakbazon ki kutsit manDli mein ja mila tha. haan, usmen ye shakti na thi, ki baithakbazon ke niyam aur niti ka palan karta. isliye jahan uski manDli ke aur log gaanv ke saragna aur mukhiya bane hue the, us par sara gaanv ungli uthata tha. phir bhi use ye taskin to thi hi ki agar wo phatehal hai to kam se kam use kisanon ki si ji toD mehnat to nahin karni paDti, aur uski saralta aur nirihata se dusre log beja fayda to nahin uthate!
donon aalu nikal nikalkar jalte jalte khane lage. kal se kuch nahin khaya tha. itna sabr na tha ki thanDa ho jane den. kai baar donon ki zabanen jal gain. chhil jane par aalu ka bahari hissa zaban, halak aur talu ko jala deta tha aur us angare ko munh mein rakhne se zyada khairiyat isi mein thi ki wo andar pahunch jaye. vahan use thanDa karne ke liye kafi saman the. isliye donon jald jald nigal jate. halanki is koshish mein unki ankhon se ansu nikal aate.
ghisu ko us vaqt thakur ki barat yaad aai, jismen bees saal pahle wo gaya tha. us davat mein use jo tripti mili thi, wo uske jivan mein ek yaad rakhne layaq baat thi, aur aaj bhi uski yaad taza thi, bola—“vah bhoj nahin bhulta. tab se phir us tarah ka khana aur bharpet nahin mila. laDki valon ne sabko bhar pet puriyan khilai theen, sabko! chhote baDe sabne puriyan khain aur asli ghi kee! chatni, rayata, teen tarah ke sukhe saag, ek rasedar tarkari, dahi, chatni, mithai, ab kya bataun ki us bhoj mein kya svaad mila. koi rok tok nahin thi, jo cheez chaho, mango, jitna chaho khao. logon ne aisa khaya, aisa khaya, ki kisi se pani na piya gaya. magar parosne vale hain ki pattal mein garm garm, gol gol suvasit kachauriyan Daal dete hain. mana karte hain ki nahin chahiye, pattal par haath roke hue hain, magar wo hain ki diye jate hain. aur jab sabne munh dho liya, to paan ilaychi bhi mili. magar mujhe paan lene ki kahan sudh thee? khaDa hua na jata tha. chatpat jakar apne kambal par let gaya. aisa dil dariyav tha wo thakur!”
madhav ne in padarthon ka man hi man maza lete hue kaha—“ab hamein koi aisa bhoj nahin khilata. ”
“ab koi kya khilayega? wo zamana dusra tha. ab to sabko kifayat sujhti hai. shadi byaah mein mat kharch karo, kriya karm mein mat kharch karo. puchho, gharibon ka maal bator batorkar kahan rakhoge? batorne mein to kami nahin hai. haan, kharch mein kifayat sujhti hai!”
“tumne ek bees puriyan khai hongi?”
“bees se ziyada khai theen!”
“main pachas kha jata!”
“pachas se kam mainne na khai hongi. achchha paka tha. tu to mera aadha bhi nahin hai. ”
aalu khakar donon ne pani piya aur vahin alav ke samne apni dhotiyan oDhkar paanv pet mein Dale so rahe. jaise do baDe baDe ajgar genDuliyan mare paDe hon. aur budhiya abhi tak karah rahi thi.
do
savere madhav ne kothari mein jakar dekha, to uski stri thanDi ho gai thi. uske munh par makkhiyan bhinak rahi theen. pathrai hui ankhen uupar tangi hui theen. sari deh dhool se lathpath ho rahi thi. uske pet mein bachcha mar gaya tha.
madhav bhaga hua ghisu ke paas aaya. phir donon zor zor se haay haay karne aur chhati pitne lage. paDos valon ne ye rona dhona suna, to dauDe hue aaye aur purani maryada ke anusar in abhagon ko samjhane lage.
magar zyada rone pitne ka avsar na tha. kafan ki aur lakDi ki fikr karni thi. ghar mein to paisa is tarah ghayab tha, jaise cheel ke ghonsle mein maans?
baap bete rote hue gaanv ke zamindar ke paas ge. wo in donon ki surat se nafrat karte the. kai baar inhen apne hathon se peet chuke the. chori karne ke liye, vade par kaam par na aane ke liye. puchha—“kya hai be ghisua, rota kyon hai? ab to tu kahin dikhlai bhi nahin deta! malum hota hai, is gaanv mein rahna nahin chahta. ”
ghisu ne zamin par sir rakhkar ankhon mein ansu bhare hue kaha—“sarkar! baDi vipatti mein hoon. madhav ki gharvali raat ko guzar gai. raat bhar taDapti rahi sarkar! hum donon uske sirhane baithe rahe. dava daru jo kuch ho saka, sab kuch kiya, muda wo hamein dagha de gai. ab koi ek roti dene vala bhi na raha malik! tabah ho ge. ghar ujaD gaya. aapka ghulam hoon, ab aapke siva kaun uski mitti paar lagayega. hamare haath mein to jo kuch tha, wo sab to dava daru mein uth gaya. sarkar hi ki daya hogi, to uski mitti uthegi. aapke siva kiske dvaar par jaun. ”
zamindar sahab dayalu the. magar ghisu par daya karna kale kambal par rang chaDhana tha. ji mein to aaya, kah den, chal, door ho yahan se. yoon to bulane se bhi nahin aata, aaj jab gharaz paDi to aakar khushamad kar raha hai. haramkhor kahin ka, badmash! lekin ye krodh ya danD dene ka avsar na tha.
ji mein kuDhte hue do rupe nikalkar phenk diye. magar santvna ka ek shabd bhi munh se na nikla. uski taraf taka tak nahin. jaise sir ka bojh utara ho.
jab zamindar sahab ne do rupe diye, to gaanv ke baniye mahajnon ko inkaar ka sahas kaise hota? ghisu zamindar ke naam ka DhinDhora bhi pitna khoob janta tha. kisi ne do aane diye, kisi ne chare aane. ek ghante mein ghisu ke paas paanch rupe ki achchhi raqam jama ho gai. kahin se anaj mil gaya, kahin se lakDi. aur dopahar ko ghisu aur madhav bazar se kafan lane chale. idhar log baans vaans katne lage.
gaanv ki narm dil striyan aa aakar laash dekhti theen aur uski bekasi par do boond ansu girakar chali jati theen.
teen
bazar mein pahunchakar ghisu bola—“lakDi to use jalane bhar ko mil gai hai, kyon madhav!”
madhav bola—“han, lakDi to bahut hai, ab kafan chahiye. ”
“to chalo, koi halqa sa kafan le len. ”
“haan, aur kyaa! laash uthte uthte raat ho jayegi. raat ko kafan kaun dekhta hai?”
“kaisa bura rivaz hai ki jise jite ji tan Dhankne ko chithDa bhi na mile, use marne par naya kafan chahiye. ”
“kafan laash ke saath jal hi to jata hai. ”
“aur kya rakha rahta hai? yahi paanch rupe pahle milte, to kuch dava daru kar lete. ”
donon ek dusre ke man ki baat taaD rahe the. bazar mein idhar udhar ghumte rahe. kabhi is bazar ki dukan par ge, kabhi uski dukan par! tarah tarah ke kapDe, reshmi aur suti dekhe, magar kuch jancha nahin. yahan tak ki shaam ho gai. tab donon na jane kis daivi prerna se ek madhushala ke samne ja pahunche. aur jaise kisi poorv nishchit vyavastha se andar chale ge. vahan zara der tak donon asmanjas mein khaDe rahe. phir ghisu ne gaddi ke samne jakar kaha—“sahuji, ek botal hamein bhi dena. ”
iske baad kuch chikhauna aaya, tali hui machhli ain aur donon baramde mein baithkar shantipurvak pine lage.
kai kujjiyan tabaDtoD pine ke baad donon sarur mein aa ge. ghisu bola—“kafan lagane se kya milta? akhir jal hi to jata. kuch bahu ke saath to na jata. ”
madhav asman ki taraf dekhkar bola, manon devtaon ko apni nishpapta ka sakshi bana raha ho—“duniya ka dastur hai, nahin log bamnon ko hazaron rupe kyon de dete hain? kaun dekhta hai, parlok mein milta hai ya nahin!”
“baDe adamiyon ke paas dhan hai, phunke. hamare paas phunkne ko kya hai?”
ghisu hansa—“abe, kah denge ki rupe kamar se khisak ge. bahut DhunDha, mile nahin. logon ko vishvas na ayega, lekin phir vahi rupe denge. ”
madhav bhi hansa, is anpekshit saubhagya par bola—“baDi achchhi thi bechari! mari to khoob khila pilakar!”
aadhi botal se zyada uD gai. ghisu ne do ser puriyan mangai. chatni, achar, kalejiyan. sharabkhane ke samne hi dukan thi. madhav lapakkar do pattlon mein sare saman le aaya. pura DeDh rupya kharch ho gaya. sirf thoDe se paise bach rahe.
donon is vaqt is shaan mein baithe puriyan kha rahe the jaise jangal mein koi sher apna shikar uDa raha ho. na javabadehi ka khauf tha, na badnami ki fikr. in bhavnaon ko unhonne bahut pahle hi jeet liya tha.
ghisu darshanik bhaav se bola—“hamari aatma prasann ho rahi hai to kya use punn na hoga?”
madhav ne shraddha se sir jhukakar tasdiq ki—“zarur se zarur hoga. bhagvan, tum antaryami ho. use baikunth le jana. hum donon hriday se ashirvad de rahe hain. aaj jo bhojan mila wo kabhi umr bhar na mila tha. ”
ek kshan ke baad madhav ke man mein ek shanka jagi. bola—“kyon dada, hum log bhi ek na ek din vahan jayenge hee?”
ghisu ne is bhole bhale saval ka kuch uttar na diya. wo parlok ki baten sochkar is anand mein badha na Dalna chahta tha.
“jo vahan wo hum logon se puchhe ki tumne hamein kafan kyon nahin diya to kya kahoge?”
“kahenge tumhara sir!”
“puchhegi to zarur!”
“tu kaise janta hai ki use kafan na milega? tu mujhe aisa gadha samajhta hai? saath saal kya duniya mein ghaas khodta raha hoon? usko kafan milega aur bahut achchha milega!”
madhav ko vishvas na aaya. bola—“kaun dega? rupe to tumne chat kar diye. wo to mujhse puchhegi. uski maang mein to sendur mainne Dala tha. ”
jyon jyon andhera baDhta tha aur sitaron ki chamak tez hoti thi, madhushala ki raunak bhi baDhti jati thi. koi gata tha, koi Deeng marta tha, koi apne sangi ke gale lipta jata tha. koi apne dost ke munh mein kulhaD lagaye deta tha.
vahan ke vatavran mein surur tha, hava mein nasha. kitne to yahan aakar ek chullu mein mast ho jate the. sharab se zyada yahan ki hava un par nasha karti thi. jivan ki badhayen yahan kheench lati theen aur kuch der ke liye ye bhool jate the ki ve jite hain ya marte hain. ya na jite hain, na marte hain.
aur ye donon baap bete ab bhi maze le lekar chusakiyan le rahe the. sabki nigahen inki or jami hui theen. donon kitne bhagya ke bali hain! puri botal beech mein hai.
bharpet khakar madhav ne bachi hui puriyon ka pattal uthakar ek bhikhari ko de diya, jo khaDa inki or bhukhi ankhon se dekh raha tha. aur dene ke gaurav, anand aur ullaas ka apne jivan mein pahli baar anubhav kiya.
ghisu ne kaha—“le ja, khoob kha aur ashirvad de! jiski kamai hai, wo to mar gai. magar tera ashirvad use zarur pahunchega. roen roen se ashirvad do, baDi gaDhi kamai ke paise hain!”
madhav ne phir asman ki taraf dekhkar kaha—“vah baikunth mein jayegi dada, baikunth ki rani banegi. ”
ghisu khaDa ho gaya aur jaise ullaas ki lahron mein tairta hua bola—“han, beta baikunth mein jayegi. kisi ko sataya nahin, kisi ko dabaya nahin. marte marte hamari zindagi ki sabse baDi lalsa puri kar gai. wo na baikunth jayegi to kya ye mote mote log jayenge, jo gharibon ko donon hathon se lutte hain, aur apne paap ko dhone ke liye ganga mein nahate hain aur mandiron mein jal chaDhate hain?
shraddhaluta ka ye rang turant hi badal gaya. asthirta nashe ki khasiyat hai. duhakh aur nirasha ka daura hua.
madhav bola—“magar dada, bechari ne zindagi mein baDa dukh bhoga. kitna dukh jhelkar mari!”
wo ankhon par haath rakhkar rone laga. chikhen maar markar.
ghisu ne samjhaya—“kyon rota hai beta, khush ho ki wo maya jaal se mukt ho gai, janjal se chhoot gai. baDi bhagyavan thi, jo itni jald maya moh ke bandhan toD diye.
aur donon khaDe hokar gane lage—
“thagini kyon naina jhamkave! thagini!”
piyakkDon ki ankhen inki or lagi hui theen aur ye donon apne dil mein mast gaye jate the. phir donon nachne lage. uchhle bhi, kude bhi. gire bhi, matke bhi. bhaav bhi banaye, abhinay bhi kiye. aur akhir nashe mein madmast hokar vahin gir paDe.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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