पिछले बीस साल से गाड़ी हाँकता है हिरामन। बैलगाड़ी। सीमा के उस पार मोरंगराज नेपाल से धान और लकड़ी ढो चुका है। कंट्रोल के ज़माने में चोरबाज़ारी का माल इस पार से उस पार पहुँचाया है। लेकिन कभी तो ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में!...
कंट्रोल का ज़माना! हिरामन कभी भूल सकता है उस ज़माने को! एक बार चार खेप सीमेंट और कपड़े की गाँठों से भरी गाड़ी, जोगबनी में विराटनगर पहुँचने के बाद हिरामन का कलेजा पुख़्ता हो गया था। फारबिसगंज का हर चोर-व्यापारी उसको पक्का गाड़ीवान मानता। उसके बैलों की बड़ाई बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी ख़ुद करते, अपनी भाषा में…
गाड़ी पकड़ी गई पाँचवीं बार, सीमा के इस पार तराई में।
महाजन का मुनीम उसी की गाड़ी पर गाँठों के बीच चुक्की-मुक्की लगाकर छिपा हुआ था। दारोग़ा साहब की डेढ़ हाथ लंबी चोरबत्ती की रोशनी कितनी तेज़ होती है, हिरामन जानता है। एक घंटे के लिए आदमी अंधा हो जाता है, एक छटक भी पड़ जाए आँखों पर! रोशनी के साथ कड़कती हुई आवाज़—'ऐ-य! गाड़ी रोको! साले, गोली मार देंगे…!'
बीसों गाड़ियाँ एक साथ कचकचाकर रुक गईं। हिरामन ने पहले ही कहा था—यह बीस विषावेगा! दारोग़ा साहब उसकी गाड़ी में दुबके हुए मुनीम जी पर रोशनी डालकर पिशाची हँसी हँसे, “हा-हा-हा! मुंड़ीमजी-ई-ई-ई! ही-ही-ही!...ऐ-य, साला गाड़ीवान, मुँह क्या देखता है रे-ए-ए! कंबल हटाओ इस बोरे के मुँह पर से! हाथ की छोटी लाठी से मुनीम जी के पेट में खोंचा मारते हुए कहा था, इस बोरे को! स्-स्साला!...
बहुत पुरानी अखज-अदावत होगी दारोग़ा साहब और मुनीम जी में। नहीं तो उतना रुपया क़बूलने पर भी पुलिस-दरोग़ा का मन न डोले भला! चार हज़ार तो गाड़ी पर बैठा-बैठा ही दे रहा था। लाठी से दूसरी बार खोंचा मारा दारोग़ा ने। पाँच हज़ार! फिर खोंचा—उतरो पहले।
मुनीम को गाड़ी से नीचे उतारकर दारोग़ा ने उसकी आँखों पर रोशनी डाल दी। फिर दो सिपाहियों के साथ सड़क से बीस-पच्चीस रस्सी दूर झाड़ी के पास ले गए। गाड़ीवान और गाड़ियों पर पाँच-पाँच बंदूक़ वाले सिपाहियों का पहरा!...हिरामन समझ गया, इस बार निस्तार नहीं...जेल? हिरामन को जेल का डर नहीं। लेकिन उसके बैल? न जाने कितने दिनों तक बिना चारा-पानी के सरकारी फाटक में पड़े रहेंगे—भूखे-प्यासे। फिर नीलाम हो जाएँगे। भैया और भौजी को वह मुँह नहीं दिखा सकेगा कभी...नीलाम की बोली उसके कानों के पास गूँज गई—एक-दो-तीन!...दारोग़ा और मुनीम में बात पट नहीं रही थी शायद।
हिरामन की गाड़ी के पास तैनात सिपाही ने अपनी भाषा में दूसरे सिपाही से धीमी आवाज़ में पूछा, का हो? मामला गोल होखी का? फिर खैनी-तंबाकू देने के बहाने उस सिपाही के पास चला गया।
एक-दो-तीन! तीन-चार गाड़ियों की आड़। हिरामन ने फ़ैसला कर लिया। उसने धीरे-से अपने बैलों के गले की रस्सियाँ खोल लीं; गाड़ी पर बैठे-बैठे दोनों को जुड़वाँ बाँध दिया। बैल समझ गए उन्हें क्या करना है। हिरामन उतरा, जुती हुई गाड़ी में बाँस की टिकटी लगाकर बैलों के कंधों को बेलाग किया। दोनों के कानों के पास गुदगुदी लगा दी और मन-ही-मन बोला, चलो भैयन्, जान बचेगी तो ऐसी-ऐसी सग्गड़ गाड़ी बहुत मिलेगी...एक-दो-तीन! नौ-दो-ग्यारह!...
गाड़ियों की आड़ में सड़क के किनारे दूर तक घनी झाड़ी फैली हुई थी। दम साधकर तीनों प्राणियों ने झाड़ी को पार किया—बेखटक, बे-आहट! फिर एक ले, दो ले...दुलकी चाल! दोनों बैल सीना तान कर फिर तराई के घने जंगलों में घुस गए। राह सूँघते, नदी-नाला पार करते हुए भागे पूँछ उठाकर। पीछे-पीछे हिरामन। रात-भर भागते रहे थे तीनों जन...
घर पहुँचकर दो दिन तक बेसुध पड़ा रहा हिरामन। होश में आते ही उसने कान पकड़ कर क़सम खाई थी—अब कभी ऐसी चीज़ों की लदनी नहीं लादेंगे। चोरबाज़ारी का माल? तोबा, तोबा!...पता नहीं मुनीम जी का क्या हुआ! भगवान जाने उसकी सग्गड़ गाड़ी का क्या हुआ! असली इस्पात लोहे की धुरी थी। दोनों पहिए तो नहीं, एक पहिया एकदम नया था। गाड़ी में रंगीन डोरियों के फुँदने बड़े जतन से गूँथे गए थे।
दो क़समें खाई हैं उसने—एक चोरबाज़ारी का माल नहीं लादेंगे; दूसरी, बाँस। अपने हर भाड़ेदार से वह पहले ही पूछ लेता है—चोरी-चमारीवाली चीज़ तो नहीं? और, बाँस? बाँस लादने के लिए पचास रुपए भी दे कोई, हिरामन की गाड़ी नहीं मिलेगी। दूसरे की गाड़ी देखे...
बाँस लदी हुई गाड़ी! गाड़ी से चार हाथ आगे बाँस का अगुआ निकला रहता है और पीछे की ओर चार हाथ पिछुआ! क़ाबू के बाहर रहती है गाड़ी हमेशा। सो बेक़ाबू वाली लदनी और खरैहिया। शहरवाली बात! तिस पर बाँस का अगुआ पकड़कर चलने वाला भाड़ेदार का महाभकुआ नौकर, लड़की-स्कूल की ओर देखने लगा। बस, मोड़ पर घोड़ागाड़ी से टक्कर हो गई। जब तक हिरामन बैलों की रस्सी खींचे, तब तक घोड़ागाड़ी की छतरी बाँस के अगुआ में फँस गई। घोड़ा गाड़ीवाले ने तड़ातड़ चाबुक मारते हुए गाली दी थी!...
बाँस की लदनी ही नहीं, हिरामन ने खरैहिया शहर की लदनी भी छोड़ दी। और जब फारबिसगंज से मोरंग का भाड़ा ढोना शुरू किया तो गाड़ी ही पार!...कई वर्षों तक हिरामन ने बैलों को आधीदारी पर जोता। आधा भाड़ा गाड़ीवाले का और आधा बैलवाले का। हिस्स! गाड़ीवानी करो मुफ़्त! आधीदारी की कमाई से बैलों के ही पेट नहीं भरते। पिछले साल ही उसने अपनी गाड़ी बनवाई है।
देवी मैया भला करें उस सरकस कंपनी के बाघ का! पिछले साल इसी मेले में बाघगाड़ी को ढोने वाले दोनों घोड़े मर गए। चंपानगर से फारबिसगंज मेला आने के समय सरकस कंपनी के मैनेजर ने गाड़ीवान-पट्टी में ऐलान करके कहा—सौ रुपया भाड़ा मिलेगा। एक-दो गाड़ीवान राज़ी हुए। लेकिन उनके बैल बाघगाड़ी से दस हाथ दूर ही डर से डिकरने लगे—बाँ-आँ! रस्सी तुड़ाकर भागे। हिरामन ने अपने बैलों की पीठ सहलाते हुए कहा—देखो भैयन, ऐसा मौक़ा फिर हाथ न आएगा। यही मौक़ा है अपनी गाड़ी बनवाने का, नहीं तो फिर आधीदारी...अरे, पिंजड़े में बंद बाघ का क्या डर? मोरंग की तराई में दहाड़ते हुइ बाघों को देख चुके हो। फिर पीठ पर मैं तो हूँ...
गाड़ीवानों के दल में तालियाँ पटपटा उठीं थीं एक साथ। सभी की लाज रख ली हिरामन के बैलों ने; हुमक कर आगे बढ़ गए और बाघगाड़ी में जुट गए—एक-एक करके। सिर्फ़ दाहिने बैल ने जुतने के बाद ढेर-सा पेशाब किया। हिरामन ने दो दिन तक नाक से कपड़े की पट्टी नहीं खोली थी। बड़ी गद्दी के बड़े सेठ जी की तरह नकबंधन लगाए बिना बघाइन गंध बरदाश्त नहीं कर सकता कोई।
बाघगाड़ी की गाड़ीवानी की है हिरामन ने। कभी ऐसी गुदगुदी नहीं लगी पीठ में। आज रह-रह कर उसकी गाड़ी में चंपा का फूल महक उठता है। पीठ में गुदगुदी लगने पर वह अँगोछे से पीठ झाड़ लेता है।
हिरामन को लगता है, दो वर्ष से चंपानगर मेले की भगवती मैया उस पर प्रसन्न हैं। पिछले साल बाघगाड़ी जुट गई। नगद एक सौ रुपए भाड़े के अलावा बुताद, चाह-बिस्कुट; और रास्ते-भर बंदर-भालू और जोकर का तमाशा देखा सो फोकट में!
और, इस बार यह जनानी सवारी। औरत है या चंपा का फूल! जब से गाड़ी मह-मह महक रही है।
कच्ची सड़क के एक छोटे-से खड्ड में गाड़ी का दाहिना पहिया बे-मौक़े हिचकोला खा गया। हिरामन की गाड़ी से एक हल्की 'सिस' की आवाज़ आई। हिरामन ने दाहिने बैल को दुआली से पीटते हुए कहा, साला! क्या समझता है, बोरे की लदनी है क्या?
अहा! मारो मत!
अनदेखी औरत की आवाज़ ने हिरामन को अचरज में डाल दिया। बच्चों की बोली जैसी महीन, फेनूगिलासी बोली!
***
मथुरा मोहन नौटंकी कंपनी में लैला बननेवाली हीराबाई का नाम किसने नहीं सुना होगा भला! लेकिन हिरामन की बात निराली है। उसने सात साल तक लगातार मेलों की लदनी लादी है, कभी नौटंकी-थियेटर या बाइस्कोप-सिनेमा नहीं देखा। लैला या हीराबाई का नाम भी उसने नहीं सुना कभी; देखने की क्या बात! सो मेला टूटने के पंद्रह दिन पहले आधी रात की बेला में काली ओढ़नी में लिपटी औरत को देखकर उसके मन में खटका अवश्य लगा था। बक्सा ढोने वाले नौकर से गाड़ी-भाड़ा में मोल-मोलाई करने की कोशिश की तो ओढ़नी वाली ने सिर हिलाकर मना कर दिया। हिरामन ने गाड़ी जोतते हुए नौकर से पूछा, क्यों भैया, कोई चोरी चमारी का माल-वाल तो नहीं? हिरामन को फिर अचरज हुआ। बक्सा ढोनेवाले आदमी ने हाथ के इशारे से गाड़ी हाँकने को कहा और अँधेरे में ग़ायब हो गया। हिरामन को मेले में तंबाकू बेचने वाली बूढ़ी की काली साड़ी की याद आई थी...
ऐसे में कोई क्या गाड़ी हाँके!
एक तो पीठ में गुदगुदी लग रही है, दूसरे रह-रह कर चंपा का फूल खिल जाता है उसकी गाड़ी में। बैलों को डाँटो तो इस-बिस करने लगती है उसकी सवारी...उसकी सवारी! औरत अकेली, तंबाकू बेचने वाली बूढ़ी नहीं! आवाज़ सुनने के बाद वह बार-बार मुड़कर टप्पर में एक नज़र डाल देता है; अँगोछे से पीठ झाड़ता है...भगवान जाने क्या लिखा है इस बार उसकी क़िस्मत में! गाड़ी जब पूरब की ओर मुड़ी, एक टुकड़ा चाँदनी उसकी गाड़ी में समा गया। सवारी की नाक पर एक जुगनू जगमगा उठा। हिरामन को सबकुछ रहस्यमय—अजगुत-अजगुत—लग रहा है। सामने चंपानगर से सिंधिया गाँव तक फैला हुआ मैदान!...कहीं डाकिन-पिशाचिन तो नहीं?
हिरामन की सवारी ने करवट ली। चाँदनी पूरे मुखड़े पर पड़ी तो हिरामन चीख़ते-चीख़ते रुक गया—अरे बाप! ई तो परी है!
परी की आँखें खुल गईं। हिरामन ने सामने सड़क की ओर मुँह कर लिया और बैलों को टिटकारी दी। वह जीभ को तालू से सटा कर टि-टि- टि-टि आवाज़ निकालता है। हिरामन की जीभ न जाने कब से सूखकर लकड़ी-जैसी हो गई थी!
'भैया, तुम्हारा नाम क्या है?'
हू-ब-हू फेनूगिलास!...हिरामन के रोम-रोम बज उठे। मुँह से बोली नहीं निकली। उसके दोनों बैल भी कान खड़े करके इस बोली को परखते हैं।
मेरा नाम?...नाम मेरा है हिरामन!
उसकी सवारी मुस्कुराती है...मुस्कुराहट में ख़ुशबू है।
तब तो मीता कहूँगी, भैया नहीं...मेरा नाम भी हीरा है।
इस्स! हिरामन को परतीत नहीं, 'मर्द और औरत के नाम में फ़र्क़ होता है।
हाँ जी, मेरा नाम भी हीराबाई है।
कहाँ हिरामन और कहाँ हीराबाई! बहुत फ़र्क़ है!
हिरामन ने अपने बैलों को झिड़की दी, कान चुनिया कर गप सुनने से ही तीस कोस मंज़िल कटेगी क्या? इस बाएँ नाटे के पेट में शैतानी भरी है। हिरामन ने बाएँ बैल को दुआली की हल्की झड़प दी।
मारो मत; धीरे-धीरे चलने दो। जल्दी क्या है!
हिरामन के सामने सवाल उपस्थित हुआ, वह क्या कहकर 'गप' करे हीराबाई से? 'तोहे' कहे या 'अहाँ'? उसकी भाषा में बड़ों को 'अहाँ' अर्थात 'आप' कहकर संबोधित किया जाता है, कचराही बोली में दो-चार सवाल-जवाब चल सकता है; दिल-खोल गप तो गाँव की बोली में ही की जा सकती है किसी से।
आसिन-कातिक के भोर में छा जाने वाले कुहासे से हिरामन को पुरानी चिढ़ है। बहुत बार वह सड़क भूलकर भटक चुका है। किंतु आज के भोर के इस घने कुहासे में भी वह मगन है। नदी के किनारे धन-खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध आती है। पर्व-पावन के दिन गाँव में ऐसी ही सुगंध फैली रहती है। उसकी गाड़ी में फिर चंपा का फूल खिला। उस फूल में एक परी बैठी है...जै भगवती।
हिरामन ने आँख की कनखियों से देखा, उसकी सवारी...मीता...हीराबाई की आँखें गुजुर-गुजुर उसको हेर रही हैं। हिरामन के मन में कोई अजानी रागिनी बज उठी। सारी देह सिरसिरा रही है। बोला, बैल को मारते हैं तो आपको बहुत बुरा लगता है?
***
हीराबाई ने परख लिया, हिरामन सचमुच हीरा है।
चालीस साल का हट्टा-कट्टा, काला-कलूटा, देहाती नौजवान अपनी गाड़ी और अपने बैलों के सिवाय दुनिया की किसी और बात में विशेष दिलचस्पी नहीं लेता। घर में बड़ा भाई है, खेती करता है। बाल-बच्चे वाला आदमी है। हिरामन भाई से बढ़ कर भाभी की इज़्ज़त करता है। भाभी से डरता भी है। हिरामन की भी शादी हुई थी, बचपन में ही। गौने के पहले ही दुलहिन मर गई। हिरामन को अपनी दुलहिन का चेहरा याद नहीं...दूसरी शादी? दूसरी शादी न करने के अनेक कारण हैं। भाभी की ज़िद, कुमारी लड़की से ही हिरामन की शादी करवाएगी। कुमारी का मतलब हुआ पाँच-सात साल की लड़की। कौन मानता है सरधा-क़ानून? कोई लड़कीवाला दोब्याहू को अपनी लड़की ग़रज़ में पड़ने पर ही दे सकता है। भाभी उसकी तीन सत्त करके बैठी है, सो बैठी है। भाभी के आगे भैया की भी नहीं चलती!...अब हिरामन ने तय कर लिया है, शादी नहीं करेगा। कौन बलाय मोल लेने जाए! ब्याह करके फिर गाड़ीवानी क्या करेगा कोई! और सब कुछ छूट जाए, गाड़ीवानी नहीं छोड़ सकता हिरामन।
हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी बहुत कम देखा है। पूछा, आपका घर कौन जिल्ला में पड़ता है? कानपुर नाम सुनते ही जो उसकी हँसी छूटी, तो बैल भड़क उठे। हिरामन हँसते समय सिर नीचा कर लेता है। हँसी बंद होने पर उसने कहा, वाह रे कानपुर! तब तो नाकपुर भी होगा? और जब हीराबाई ने कहा कि नाकपुर भी है, तो वह हँसते-हँसते दुहरा हो गया।
वाह रे दुनिया! क्या-क्या नाम होता है! कानपुर, नाकपुर! हिरामन ने हीराबाई के कान के फूल को ग़ौर से देखा। नाक की नकछवि के नग देखकर सिहर उठा—लहू की बूँद!
हिरामन ने हीराबई का नाम नहीं सुना कभी। नौटंकी कंपनी की औरत को वह बाईजी नहीं समझता है...कंपनी में काम करने वाली औरतों को वह देख चुका है। सरकस कंपनी की मालकिन, अपनी दोनों जवान बेटियों के साथ बाघगाड़ी के पास आती थी, बाघ को चारा-पानी देती थी, प्यार भी करती थी ख़ूब। हिरामन के बैलों को भी डबलरोटी-बिस्कुट खिलाया था बड़ी बेटी ने।
हिरामन होशियार है। कुहासा छँटते ही अपनी चादर से टप्पर में पर्दा कर दिया, बस दो घंटा! उसके बाद रास्ता चलना मुश्किल है। कातिक की सुबह की धूप आप बरदाश्त न कर सकिएगा। कजरी नदी के किनारे तेगछिया के पास गाड़ी लगा देंगे। दोपहरिया काटकर...
सामने से आती हुई गाड़ी को दूर से ही देखकर वह सतर्क हो गया। लीक और बैलों पर ध्यान लगाकर बैठ गया। राह काटते हुए गाड़ीवान ने पूछा, मेला टूट रहा है क्या भाई?
हिरामन ने जवाब दिया, वह मेले की बात नहीं जानता। उसकी गाड़ी पर 'बिदागी' (नैहर या ससुराल जाती हुई लड़की) है। न जाने किस गाँव का नाम बता दिया हिरामन ने।
छत्तापुर-पचीरा कहाँ है?
कहीं हो, यह लेकर आप क्या करिएगा? हिरामन अपनी चतुराई पर हँसा। पर्दा डाल देने पर भी पीठ में गुदगुदी लगती है।
हिरामन पर्दे के छेद से देखता है। हीराबाई एक दियासलाई की डिब्बी के बराबर आईने में अपने दाँत देख रही है...मदनपुर मेले में एक बार बैलों को नन्हीं-चित्ती कौड़ियों की माला दी थी हिरामन ने—छोटी-छोटी, नन्हीं-नन्हीं कौड़ियों की पाँत!
तेगछिया के तीनों पेड़ दूर से ही दिखलाई पड़ते हैं। हिरामन ने पर्दे को ज़रा सरकाते हुए कहा, देखिए, यही है तेगछिया। दो पेड़ जटामासी बड़ है और एक...उस फूल का क्या नाम है, आपके कुर्ते पर जैसा फूल छपा हुआ है, वैसा ही! ख़ूब महकता है; दो कोस दूर तक गंध जाती है; उस फूल को ख़मीरा तंबाकू में डालकर पीते भी हैं लोग।
और उस अमराई की आड़ से कई मकान दिखाई पड़ते हैं, वहाँ कोई गाँव है या मंदिर?
हिरामन ने बीड़ी सुलगाने के पहले पूछा, बीड़ी पीयें? आपको गंध तो नहीं लगेगी?...वही है नामलगर ड्योढ़ी। जिस राजा के मेले से हम लोग आ रहे हैं, उसी का दियाद-गोतिया है...जा रे ज़माना!'
हिरामन ने 'जा रे ज़माना' कह कर बात को चाशनी में डाल दिया। हीराबाई ने टप्पर के पर्दे को तिरछे खोंस दिया!...हीराबाई की दंतपंक्ति।
कौन ज़माना? ठुड्डी पर हाथ रख कर साग्रह बोली।
नामलगर ड्योढ़ी का ज़माना! क्या था, और क्या-से-क्या हो गया!
हिरामन गप रसाने का भेद जानता है। हीराबाई बोली, तुमने देखा था वह ज़माना?
देखा नहीं, सुना है...राज कैसे गया, बड़ी हैफ़ वाली कहानी है। सुनते हैं, घर में देवता ने जन्म ले लिया। कहिए भला, देवता आख़िर देवता है। है या नहीं? इंदरासन छोड़ कर मिरतूभुवन में जन्म ले ले तो उसका तेज़ कैसे सम्हाल सकता है कोई! सूरजमुखी फूल की तरह माथे के पास तेज़ खिला रहता। लेकिन नज़र का फेर, किसी ने नहीं पहचाना। एक बार उपलैन में लाट साहब मय लाटनी के, हवागाड़ी से आए थे। लाट ने भी नहीं, पहचाना आख़िर लटनी ने। सुरजमुखी तेज देखते ही बोल उठी 'ए मैन राजा साहब, सुनो, यह आदमी का बच्चा नहीं है, देवता है।'
हिरामन ने लाटनी की बोली की नक़ल उतारते समय ख़ूब डैम-फैट-लैट किया। हीराबाई दिल खोल कर हँसी...हँसते समय उसकी सारी देह दुलकती है!
हीराबाई ने अपनी ओढ़नी ठीक कर ली। तब हिरामन को लगा कि...लगा कि...
तब? उसके बाद क्या हुआ मीता?
इस्स! कत्था सुनने का बड़ा शौक है आपको?...लेकिन, काला आदमी, राजा क्या महाराजा भी हो जाए, रहेगा काला आदमी ही। साहेब के जैसे अक्किल कहाँ से पावेगा! हँस कर बात उड़ा दी सभी ने। तब रानी को बार-बार सपना देने लगा देवता! सेवा नहीं कर सकते तो जाने दो, नहीं रहेंगे तुम्हारे यहाँ। इसके बाद देवता का खेल शुरू हुआ। सबसे पहले दोनों दंतार हाथी मरे, फिर घोड़ा, फिर पटपटांग...।
पटपटांग क्या है?
हिरामन का मन पल-पल में बदल रहा है। मन में सतरंगा छाता धीरे-धीरे खिल रहा है, उसको लगता है, उसकी गाड़ी पर देवकुल की औरत सवार है। देवता आख़िर देवता है!
पटपटांग! धन-दौलत, माल-मवेसी सब साफ़। देवता इंद्रासन चला गया।
हीराबाई ने ओझल होते हुए मंदिर के कँगूरे की ओर देखकर लंबी साँस ली।
लेकिन देवता ने जाते-जाते कहा, इस राज में कभी एक छोड़कर दो बेटा नहीं होगा। धन हम अपने साथ ले जा रहे हैं, गुन छोड़ जाते हैं। देवता के साथ सभी देव-देवी चले गए, सिर्फ़ सरोसती मैया रह गई। उसी का मंदिर है।'
देसी घोड़े पर पाट के बोझ लादे हुए बनियों को आते देखकर हिरामन ने टप्पर के पर्दे को गिरा दिया। बैलों को ललकार कर विदेशिया नाच का वंदना गीत गाने लगा—जै मैया सरोसती, अरजी करत बानी; हमरा पर होखू सहाई हे मैया, हमरा पर होखू सहाई!
घोड़लद्दे बनियों से हिरामन ने हुलसकर पूछा, क्या भाव पटुआ ख़रीदते हैं महाजन?
लँगड़े घोड़ेवाले बनिए ने बटगमनी जवाब दिया—नीचे सताइस-अठाइस, ऊपर तीस। जैसा माल, वैसा भाव!
जवान बनिये ने पूछा, मेले का क्या हालचाल है, भाई? कौन नौटंकी कंपनी का खेल हो रहा है, रीता कंपनी या मथुरा मोहन?
मेले का हाल मेलावाला जाने? हिरामन ने फिर छतापुर-पचीरा का नाम लिया।
सूरज दो बाँस ऊपर आ गया था। हिरामन अपने बैलों से बात करने लगा—एक कोस ज़मीन! ज़रा दम बाँधकर चलो। प्यास की बेला हो गई न! याद है, उस बार तेगछिया के पास सरकस कंपनी के जोकर और बंदर नचाने वाला साहब में झगड़ा हो गया था। जोकड़वा ठीक बंदर की तरह दाँत किटकिटा कर किक्रियाने लगा था...न जाने किस-किस देस-मुलुक के आदमी आते हैं!
हिरामन ने फिर पर्दे के छेद से देखा, हीराबाई एक काग़ज़ के टुकड़े पर आँख गड़ा कर बैठी है। हिरामन का मन आज हल्के सुर में बँधा है। उसको तरह-तरह के गीतों की याद आती है। बीस-पच्चीस साल पहले, बिदेशिया, बलवाही, छोकरा-नाचने वाले एक-से-एक ग़ज़ल-खेमटा गाते थे। अब तो, भोंपा में भोंपू-भोंपू करके कौन गीत गाते हैं लोग! जा रे ज़माना! छोकरा-नाच के गीत की याद आई हिरामन को—
सजनवा बैरी हो ग'य हमारो! सजनवा...!
अरे, चिठिया हो तो सब कोई बाँचे; चिठिया हो तो...
हाय! करमवा, होय करमवा...
कोई न बाँचे हमारो, सजनवा...हो कमरवा...!
गाड़ी की बल्ली पर उँगलियों से ताल देकर गीत को काट दिया हिरामन ने। छोकरा-नाच के मनुआँ-नटुवा का मुँह हीराबाई-जैसा ही था...कहाँ चला गया वह ज़माना! हर महीने गाँव में नाचने वाले आते थे। हिरामन ने छोकरा-नाच के चलते अपनी भाभी की न जाने कितनी बोली-ठोली सुनी थी। भाई ने घर से निकल जाने को कहा था।
आज हिरामन पर माँ सरस्वती सहाय हैं, लगता है। हीराबाई बोली, वाह, कितना बढ़िया गाते हो तुम!
हिरामन का मुँह लाल हो गया। वह सिर नीचा कर के हँसने लगा।
आज तेगछिया पर रहने वाले महावीर स्वामी भी सहाय हैं हिरामन पर। तेगछिया के नीचे एक भी गाड़ी नहीं। हमेशा गाड़ी और गाड़ीवानों की भीड़ लगी रहती हैं यहाँ। सिर्फ़ एक साइकिलवाला बैठ कर सुस्ता रहा है। महावीर स्वामी को सुमर कर हिरामन ने गाड़ी रोकी। हीराबाई पर्दा हटाने लगी। हिरामन ने पहली बार आँखों से बात की हीराबाई से—साइकिलवाला इधर ही टकटकी लगाकर देख रहा है।
बैलों को खोलने के पहले बाँस की टिकटी लगाकर गाड़ी को टिका दिया। फिर साइकिलवाले की ओर बार-बार घूरते हुए पूछा, कहाँ जाना है? मेला? कहाँ से आना हो रहा है? बिसनपुर से? बस, इतनी ही दूर में थसथसा कर थक गए?...जा रे जवानी!
साइकिलवाला दुबला-पतला नौजवान मिनमिना कर कुछ बोला और बीड़ी सुलगाकर उठ खड़ा हुआ। हिरामन दुनिया-भर की निगाह से बचा कर रखना चाहता है हीराबाई को। उसने चारों ओर नज़र दौड़ाकर देख लिया—कहीं कोई गाड़ी या घोड़ा नहीं।
कजरी नदी की दुबली-पतली धारा तेगछिया के पास आकर पूरब की ओर मुड़ गई है। हीराबाई पानी में बैठी हुई भैसों और उनकी पीठ पर बैठे हुए बगुलों को देखती रही।
हिरामन बोला, जाइए, घाट पर मुँह-हाथ धो आइए!
हीराबाई गाड़ी से नीचे उतरी। हिरामन का कलेजा धड़क उठा...नहीं, नहीं! पाँव सीधे हैं, टेढ़े नहीं। लेकिन, तलुवा इतना लाल क्यों हैं? हीराबाई घाट की ओर चली गई, गाँव की बहू-बेटी की तरह सिर नीचा करके धीरे-धीरे। कौन कहेगा कि कंपनी की औरत है!...औरत नहीं, लड़की। शायद कुमारी ही है।
हिरामन टिकटी पर टिकी गाड़ी पर बैठ गया। उसने टप्पर में झाँक कर देखा। एक बार इधर-उधर देखकर हीराबाई के तकिए पर हाथ रख दिया। फिर तकिए पर केहुनी डालकर झुक गया, झुकता गया। ख़ुशबू उसकी देह में समा गई। तकिए के ग़िलाफ़ पर कढ़े फूलों को उँगलियों से छूकर उसने सूँघा, हाय रे हाय! इतनी सुगंध! हिरामन को लगा, एक साथ पाँच चिलम गाँजा फूँककर वह उठा है। हीराबाई के छोटे आईने में उसने अपना मुँह देखा। आँखें उसकी इतनी लाल क्यों हैं?
हीराबाई लौटकर आई तो उसने हँसकर कहा, अब आप गाड़ी का पहरा दीजिए, मैं आता हूँ तुरंत।
हिरामन ने अपना सफरी झोली से सहेजी हुई गंजी निकाली। गमछा झाड़कर कंधे पर लिया और हाथ में बालटी लटकाकर चला। उसके बैलों ने बारी-बारी से 'हुँक-हुँक' करके कुछ कहा। हिरामन ने जाते-जाते उलटकर कहा—हाँ,हाँ, प्यास, सभी को लगी है। लौटकर आता हूँ तो घास दूँगा, बदमासी मत करो!
बैलों ने कान हिलाए।
नहा-धोकर कब लौटा हिरामन, हीराबाई को नहीं मालूम। कजरी की धारा को देखते-देखते उसकी आँखों में रात की उचटी हुई नींद लौट आई थी। हिरामन पास के गाँव से जलपान के लिए दही-चूड़ा-चीनी ले आया है।
उठिए, नींद तोड़िए! दो मुट्ठी जलपान कर लीजिए!
हीराबाई आँख खोलकर अचरज में पड़ गई—एक हाथ में मिट्टी के नए बरतन में दही, केले के पत्ते। दूसरे हाथ में बालटी-भर पानी। आँखों में आत्मीयतापूर्ण अनुरोध!
इतनी चीज़ें कहाँ से ले आए!
इस गाँव का दही नामी है...चाह तो फारबिसगंज जाकर ही पाइएगा।
हिरामन की देह की गुदगुदी मिट गई। हीराबाई ने कहा, तुम भी पत्तल बिछाओ...क्यों? तुम नहीं खाओगे तो समेटकर रख लो अपनी झोली में। मैं भी नहीं खाऊँगी।
इस्स! हिरामन लजाकर बोला, अच्छी बात! आप पी लीजिए पहले!
पहले-पीछे क्या? तुम भी बैठो।
हिरामन का जी जुड़ा गया। हीराबाई ने अपने हाथ से उसका पत्तल बिछा दिया, पानी छींट दिया, चूड़ा निकालकर दिया। इस्स! धन्न है, धन्न है! हिरामन ने देखा, भगवती मैया भोग लगा रही है। लाल होंठों पर गोरस का परस!...पहाड़ी तोते को दूध-भात खाते देखा है?
***
दिन ढल गया।
टप्पर में सोई हीराबाई और ज़मीन पर दरी बिछा कर सोए हिरामन की नींद एक ही साथ खुली...मेले की ओर जाने वाली गाड़ियाँ तेगछिया के पास रुकी हैं। बच्चे कचर-पचर कर रहे हैं।
हिरामन हड़बड़ाकर उठा। टप्पर के अंदर झाँक कर इशारे से कहा—दिन ढल गया! गाड़ी में बैलों को जोतते समय उसने गाड़ीवानों के सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। गाड़ी हाँकते हुए बोला, सिरपुर बाज़ार के इसपिताल की डाकडरनी हैं। रोगी देखने जा रही हैं। पास ही कुड़मागाम।
हीराबाई छत्तापुर-पचीरा का नाम भूल गई। गाड़ी जब कुछ दूर आगे बढ़ आई तो उसने हँसकर पूछा, पत्तापुर-छपीरा?
हँसते-हँसते पेट में बल पड़ जाए हिरामन के—पत्तापुर-छपीरा! हा-हा। वे लोग छत्तापुर-पचीरा के ही गाड़ीवान थे, उनसे कैसे कहता! ही-ही- ही!
हीराबाई मुस्कुराती हुई गाँव की ओर देखने लगी।
सड़क तेगछिया गाँव के बीच से निकलती है। गाँव के बच्चों ने पर्देवाली गाड़ी देखी और तालियाँ बजा-बजाकर रटी हुई पंक्तियाँ दुहराने लगे—
लाली-लाली डोलिया में
लाली रे दुलहिनिया
पान खाए...!
हिरामन हँसा...दुलहिनिया...लाली-लाली डोलिया! दुलहिनिया पान खाती है, दुलहा की पगड़ी में मुँह पोंछती है। ओ दुलहिनिया, तेगछिया गाँव के बच्चों को याद रखना। लौटती बेर गुड़ का लड्डू लेती आइयो! लाख बरिस तेरा दुलहा जाए!...कितने दिनों का हौसला पूरा हुआ है हिरामन का! ऐसे कितने सपने देखे हैं उसने!...वह अपनी दुलहिन को लेकर लौट रहा है। हर गाँव के बच्चे तालियाँ बजाकर गा रहे हैं। हर आँगन से झाँककर देख रही हैं औरतें। मर्द लोग पूछते हैं— 'कहाँ की गाड़ी है, कहाँ जाएगी?' उसकी दुलहिन डोली का पर्दा थोड़ा सरकाकर देखती है। और भी कितने सपने...
गाँव से बाहर निकल कर उसने कनखियों से टप्पर के अंदर देखा, हीराबाई कुछ सोच रही है। हिरामन भी किसी सोच में पड़ गया। थोड़ी देर के बाद वह गुनगुनाने लगा—
'सजन रे झूठ मति बोलो, ख़ुदा के पास जाना है।
नहीं हाथी, नहीं घोड़ा, नहीं गाड़ी—
वहाँ पैदल ही जाना है। सजन रे...।'
हीराबाई ने पूछा, क्यों मीता? तुम्हारी अपनी बोली में कोई गीत नहीं क्या?
हिरामन अब बेखटक हीराबाई की आँखों में आँखें डाल कर बात करता है। कंपनी की औरत भी ऐसी होती है? सरकस कंपनी की मालकिन मेम थी। लेकिन हीराबाई! गाँव की बोली में गीत सुनना चाहती है। वह खुल कर मुस्कुराया—गाँव की बोली आप समझिएगा?
हूँ-ऊँ-ऊँ! हीराबाई ने गर्दन हिलाई। कान के झुमके हिल गए।
हिरामन कुछ देर तक बैलों को हाँकता रहा चुपचुचाप। फिर बोला, गीत ज़रूर ही सुनिएगा? नहीं मानिएगा? इस्स! इतना सौक गाँव का गीत सुनने का है आपको! तब लीक छोड़ानी होगी। चालू रास्ते में कैसे गीत गा सकता है कोई!
हिरामन ने बाएँ बैल की रस्सी खींचकर दाहिने को लीक से बाहर किया और बोला, हरिपुर होकर नहीं जाएँगे तब।
चालू लीक को काटते देखकर हिरामन की गाड़ी के पीछे वाले गाड़ीवान ने चिल्ला कर पूछा, काहे हो गाड़ीवान, लीक छोड़कर बेलीक कहाँ उधर?
हिरामन ने हवा में दुआली घुमाते हुए जवाब दिया—कहाँ है बेलीकी? वह सड़क नननपुर तो नहीं जाएगी। फिर अपने-आप बड़बड़ाया, इस मुलुक के लोगों की यही आदत बुरी है। राह चलते एक सौ जिरह करेंगे। अरे भाई, तुम को जाना है, जाओ।...देहाती भुच्च सब!
नननपुर की सड़क पर गाड़ी लाकर हिरामन ने बैलों की रस्सी ढीली कर दी। बैलों ने दुलकी चाल छोड़कर क़दमचाल पकड़ी।
हीराबाई ने देखा, सचमुच नननपुर की सड़क बड़ी सूनी है। हिरामन उसकी आँखों की बोली समझता है—घबराने की बात नहीं। यह सड़क भी फारबिसगंज जाएगी, राह-घाट के लोग बहुत अच्छे हैं।...एक घड़ी रात तक हम लोग पहुँच जाएँगे।
हीराबाई को फारबिसगंज पहुँचने की जल्दी नहीं। हिरामन पर उसको इतना भरोसा हो गया कि डर-भय की कोई बात नहीं उठती है मन में। हिरामन ने पहले जी-भर मुस्कुरा लिया। कौन गीत गाए वह! हीराबाई को गीत और कथा दोनों का शौक है...इस्स! महुआ घटवारिन? वह बोला, अच्छा, जब आपको इतना सौक है तो सुनिए महुआ घटवारिन का गीत। इसमें गीत भी है, कथा भी है।
...कितने दिनों के बाद भगवती ने यह हौसला भी पूरा कर दिया। जै भगवती! आज हिरामन अपने मन को ख़लास कर लेगा। वह हीराबाई की थमी हुई मुस्कुराहट को देखता रहा।
सुनिए! आज भी परमार नदी में महुआ घटवारिन के कई पुराने घाट हैं। इसी मुलुक की थी महुआ! थी तो घटवारिन, लेकिन सौ सतवंती में एक थी। उसका बाप दारू-ताड़ी पीकर दिन-रात बेहोश पड़ा रहता। उसकी सौतेली माँ साच्छात राकसनी! बहुत बड़ी नज़र-चालक। रात में गाँजा-दारू-अफ़ीम चुराकर बेचने वाले से लेकर तरह-तरह के लोगों से उसकी जान-पहचान थी। सबसे घुट्टा-भर हेल-मेल। महुआ कुमारी थी। लेकिन काम कराते-कराते उस की हड्डी निकाल दी थी राकसनी ने। जवान हो गई, कहीं शादी-ब्याह की बात भी नहीं चलाई। एक रात की बात सुनिए!
हिरामन ने धीरे-धीरे गुनगुना कर गला साफ़ किया—
हे अ-अ-अ- सावना-भादवा के-र-उमड़ल नदिया-गे-मै-यो-ओ-ओ,
ओ माँ! सावन-भादों की उमड़ी हुई नदी, भयावनी रात, बिजली कड़कती है, मैं बारी-क्वारी नन्ही बच्ची, मेरा कलेजा धड़कता है। अकेली कैसे जाऊँ घाट पर? सो भी परदेशी राही-बटोही के पैर में तेल ते लगाने के लिए! सत-माँ ने अपनी बज्जर-किवाड़ी बंद कर ली। आसमान में मेघ हड़हड़ा उठे और हरहरा कर बरसा होने लगी। महुआ रोने लगी, अपनी माँ को याद करके। आज उसकी माँ रहती तो ऐसे दुरदिन में कलेजे से सटाकर रखती अपनी महुआ बेटी को। गे मइया, इसी दिन के लिए, तुमने कोख में रखा था? महुआ अपनी माँ पर ग़ुस्साई—क्यों वह अकेली मर गई; जी-भर कर कोसती हुई बोली...
हिरामन ने लक्ष्य किया, हीराबाई तकिए पर केहुनी गड़ाकर, गीत में मगन एकटक उसकी ओर देख रही है...खोई हुई सूरत कैसी भोली लगती है!
हिरामन ने दम लेते हुए पूछा, भाखा भी समझती हैं कुछ, या ख़ाली गीत ही सुनती हैं?
हीरा बोली, सब समझती हूँ। उटगन माने उबटन...जो देह में लगाते हैं।
हिरामन ने विस्मित होकर कहा, इस्स!...सो रोने-धोने से क्या होए! सौदागर ने पूरा दाम चुका दिया था महुआ का। बाल पकड़कर घसीटता हुआ नाव पर चढ़ा और माँझी को हुकुम दिया—नाव खोलो, पाल बाँधो! पालवाली नाव परवाली चिड़िया की तरह उड़ चली। रात-भर महुआ रोती-छटपटाती रही! सौदागर के नौकरों ने बहुत डराया-धमकाया—चुप रहो, नहीं तो उठाकर पानी में फेंक देंगे। बस, महुआ को बात सूझ गई। भोर का तारा मेघ की आड़ से ज़रा बाहर आया, फिर छिप गया। इधर महुआ भी छपाक् से कूद पड़ी पानी में...सौदागर का एक नौकर महुआ को देखते ही मोहित हो गया था। महुआ की पीठ पर वह भी कूदा। उल्टी धारा में तैरना खेल नहीं, सो भी भरी भादों की नदी में। महुआ असल घटवारिन की बेटी थी। मछली भी भला थकती है पानी में! सफरी मछली-जैसी फरफराती, पानी चीरती भागी चली जा रही है। और उसके पीछे सौदागर का नौकर पुकार-पुकार कर कहता है—महुआ ज़रा थमो, तुम को पकड़ने नहीं आ रहा, तुम्हारा साथी हूँ। ज़िंदगी-भर साथ रहेंगे हम लोग। लेकिन...
हिरामन का बहुत प्रिय गीत है यह। महुआ घटवारिन गाते समय उसके सामने सावन-भादों की नदी उमड़ने लगती है, अमावस्या की रात और घने बादलों में रह-रह कर बिजली चमक उठती है। उसी चमक में लहरों से लड़ती हुई बारी-कुमारी महुआ की झलक उसे मिल जाती है। सफरी मछली की चाल और तेज़ हो जाती है। उसको लगता है, वह ख़ुद सौदागर का नौकर है। महुआ कोई बात नहीं सुनती। परतीत करती नहीं; उलटकर देखती भी नहीं। और वह थक गया है, तैरते-तैरते...
इस बार लगता है महुआ ने अपने को पकड़ा दिया। ख़ुद ही पकड़ में आ गई है। उसने महुआ को छू लिया है, पा लिया है, उसकी थकन दूर हो गई है। पंद्रह-बीस साल तक उमड़ी हुई नदी की उलटी धारा में तैरते हुए उसके मन को किनारा मिल गया है। आनंद के आँसू कोई भी रोक नहीं मानते...
उसने हीराबाई से अपनी गीली आँखें चुराने की कोशिश की। किंतु हीरा तो उसके मन में बैठी न जाने कब से सब कुछ देख रही थी। हिरामन ने अपनी काँपती हुई बोली को क़ाबू में लाकर बैलों को झिड़की दी—इस गीत में न जाने क्या है कि सुनते ही दोनों थसथसा जाते हैं। लगता है, सौ मन बोझ लाद दिया किसी ने।
हीराबाई लंबी साँस लेती है। हिरामन के अंग-अंग में उमंग समा जाती है।
तुम तो उस्ताद हो, मीता!
इस्स!
आसिन-कातिक का सूरज दो बाँस दिन रहते ही कुम्हला जाता है। सूरज डूबने से पहले ही नननपुर पहुँचना है, हिरामन अपने बैलों को समझा रहा है—क़दम खोल कर और कलेजा बाँध कर चलो...ए...छिः छिः! बढ़ के भैयन्! ले-ले-ले-ए-हे-य!
नननपुर तक वह अपने बैलों को ललकारता रहा। हर ललकार के पहले वह अपने बैलों को बीती हुई बातों की याद दिलाता—याद नहीं, चौधरी की बेटी की बरात में कितनी गाड़ियाँ थीं; सबको कैसे मात किया था! हाँ, वही क़दम निकालो। ले-ले-ले! नननपुर से फारबिसगंज तीन कोस! दो घंटे और!
नननपुर के हाट पर आजकल चाय भी बिकने लगी है। हिरामन अपने लोटे में चाय भरकर ले आया...कंपनी की औरत जानता है वह। सारा दिन, घड़ी-घड़ी भर में, चाय पीती रहती है। चाय है या जान!
हीरा हँसते-हँसते लोट-पोट हो रही है, अरे, तुम से किसने कह दिया कि क्वारे आदमी को चाय नहीं पीनी चाहिए?
हिरामन लजा गया। क्या बोले वह!...लाज की बात! लेकिन वह भोग चुका है एक बार। सरकस कंपनी की मेम के हाथ की चाय पीकर उसने देख लिया है। बड़ी गर्म तासीर!
पीजिए गुरु जी! हीरा हँसी!
इस्स!
नननपुर हाट पर ही दीया-बाती जल चुकी थी। हिरामन ने अपना सफरी लालटेन जलाकर पिछवा में लटका दिया...आजकल शहर से पाँच कोस दूर के गाँव वाले भी अपने को शहरू समझने लगे हैं। बिना रोशनी की गाड़ी को पकड़ कर चालान कर देते हैं। बारह बखेड़ा!
आप मुझे गुरु जी मत कहिए।
तुम मेरे उस्ताद हो। हमारे शास्तर में लिखा हुआ है, एक अच्छर सिखाने वाला भी गुरु और एक राग सिखाने वाला भी उस्ताद!
इस्स! शास्तर-पुरान भी जानती हैं!...मैंने क्या सिखाया? मैं क्या...?
हीरा हँस कर गुनगुनाने लगी—हे-अ-अ-अ सावना-भादवा के-र...! हिरामन अचरज के मारे गूँगा हो गया—इस्स! इतना तेज़ ज़ेहन! हू-ब-हू महुआ घटवारिन!
गाड़ी सीताधार की एक सूखी धारा की उतराई पर गड़गड़ा कर नीचे की ओर उतरी। हीराबाई ने हिरामन का कंधा धर लिया एक हाथ से। बहुत देर तक हिरामन के कंधे पर उसकी उँगलियाँ पड़ी रहीं। हिरामन ने नज़र फिरा कर कंधे पर केंद्रित करने की कोशिश की, कई बार। गाड़ी चढ़ाई पर पहुँची तो हीरा की ढीली उँगलियाँ फिर तन गईं।
सामने फारबिसगंज शहर की रोशनी झिलमिला रही है। शहर से कुछ दूर हटकर मेले की रोशनी...टप्पर में लटके लालटेन की रोशनी में छाया नाचती है आस-पास।—डबडबाई आँखों से, हर रोशनी सूरजमुखी फूल की तरह दिखाई पड़ती है।
फारबिसगंज तो हिरामन का घर-दुआर है!
न जाने कितनी बार वह फारबिसगंज आया है; मेले की लदनी लादी है। किसी औरत के साथ? हाँ, एक बार। उसकी भाभी जिस साल आई थी गौने में। इसी तरह तिरपाल से गाड़ी को चारों ओर से घेरकर बासा बनाया गया था...
हिरामन अपनी गाड़ी को तिरपाल से घेर रहा है, गाड़ीवान-पट्टी में। सुबह होते ही रीता नौटंकी कंपनी के मैनेजर से बात करके भरती हो जाएगी हीराबाई। परसों मेला खुल रहा है। इस बार मेले में पालचट्टी ख़ूब जमी है—बस, एक रात। आज रात-भर हिरामन की गाड़ी में रहेगी वह...हिरामन की गाड़ी में नहीं, घर में!
कहाँ की गाड़ी है?...कौन, हिरामन? किस मेले से? किस चीज़ की लदनी है?
गाँव-समाज के गाड़ीवान, एक-दूसरे को खोजकर, आस-पास गाड़ी लगाकर बासा डालते हैं। अपने गाँव के लालमोहर, धुन्नीराम और पलटदास वग़ैरह गाड़ीवानों के दल को देखकर हिरामन अचकचा गया। उधर पलटदास टप्पर में झाँककर भड़का। मानो बाघ पर नज़र पड़ गई। हिरामन ने इशारे से सभी को चुप किया। फिर गाड़ी की ओर कनखी मार कर फुसफुसाया—चुप! कंपनी की औरत है, नौटंकी कंपनी की।
कंपनी की-ई-ई-ई?
??...??...!
एक नहीं, अब चार हिरामन! चारों ने अचरज से एक-दूसरे को देखा...कंपनी नाम में कितना असर है! हिरामन ने लक्ष्य किया, तीनों एक साथ सटक-दम हो गए। लालमोहर ने ज़रा दूर हटकर बतियाने की इच्छा प्रकट की, इशारे से ही। हिरामन ने टप्पर की ओर मुँह करके कहा, होटिल तो नहीं खुला होगा कोई, हलवाई के यहाँ से पक्की ले आवें?
हिरामन, ज़रा इधर सुनो...मैं कुछ नहीं खाऊँगी अभी। लो, तुम खा आओ।
क्या है, पैसा? इस्स!... पैसा देकर हिरामन ने कभी फारबिसगंज में कच्ची-पक्की नहीं खाई। उसके गाँव के इतने गाड़ीवान हैं, किस दिन के लिए? वह छू नहीं सकता पैसा। उसने हीराबाई से कहा, बेकार, मेला-बाज़ार में हुज्जत मत कीजिए, पैसा रखिए। मौक़ा पा कर लालमोहर भी टप्पर के क़रीब आ गया। उसने सलाम करते हुए कहा, चार आदमी के भात में दो आदमी ख़ुशी से खा सकते हैं। बासा पर भात चढ़ा हुआ है। हें-हें-हें! हम लोग एकहि गाँव के हैं। गौंवां-गिरामित के रहते होटिल और हलवाई के यहाँ खाएगा हिरामन?
हिरामन ने लालमोहर का हाथ टीप दिया—वेसी भचर-भचर मत बको!
गाड़ी से चार रस्सी दूर जाते-जाते धुन्नीराम ने अपने कुलबुलाते हुए दिल की बात खोल दी—इस्स! तुम भी ख़ूब हो हिरामन! उस साल कंपनी का बाघ, इस बार कंपनी की जनाना!
हिरामन ने दबी आवाज़ में कहा, भाई रे, यह हम लोगों के मुलुक की ज़नाना नहीं कि लटपट बोली सुनकर भी चुप रह जाए। एक तो पच्छिम की औरत, तिस पर कंपनी की!
धुन्नीराम ने अपनी शंका प्रकट की—लेकिन कंपनी में तो सुनते हैं पतुरिया रहती हैं।
धत्! सभी ने एक साथ उसको दुरदुरा दिया, कैसा आदमी है! पतुरिया रहेगी कंपनी में भला! देखो इसकी बुद्धि!...सुना है, देखा तो नहीं है कभी!
धुन्नीराम ने अपनी ग़लती मान ली। पलटदास को बात सूझी—हिरामन भाई, ज़नाना ज़ात अकेली रहेगी गाड़ी पर? कुछ भी हो, ज़नाना आख़िर ज़नाना ही है। कोई ज़रूरत ही पड़ जाए!
यह बात सभी को अच्छी लगी। हिरामन ने कहा, बात ठीक है। पलट, तुम लौट जाओ, गाड़ी के पास ही रहना। और देखो, गपशप ज़रा होशियारी से करना, हाँ!
...हिरामन की देह से अतर-गुलाब की ख़ुशबू निकलती है। हिरामन करम साँड़ है। उस बार महीनों तक उसकी देह से बधाइन गंध नहीं गई। लालमोहर ने हिरामन की गमछी सूँघ ली—ए-ह!
हिरामन चलते-चलते रुक गया—क्या करें लालमोहर भाई, ज़रा कहो तो! बड़ी ज़िद्द करती है, कहती है, नौटंकी देखना ही होगा।
फोकट में ही?
और गाँव नहीं पहुँचेगी यह बात?
हिरामन बोला, नहीं जी! एक रात नौटंकी देखकर ज़िंदगी-भर बोली-ठोली कौन सुने!...देसी मुर्ग़ी, विलायती चाल!
धुन्नीराम ने पूछा, फोकट में देखने पर भी तुम्हारी भौजाई बात सुनाएगी?
लालमोहर के बासा के बग़ल में, एक लकड़ी की दुकान लादकर आए हुए गाड़ीवानों का बासा है। बासा के मीर-गाड़ीवान मियाँजान बूढ़े ने सफ़री गुड़गुड़ी पीते हुए पूछा, क्यों भाई, मीना बाज़ार की लदनी लादकर कौन आया है?
मीनाबाज़ार! मीनाबाज़ार तो पतुरिया-पट्टी को कहते हैं...क्या बोलता है यह बूढ़ा मियाँ? लालमोहर ने हिरामन के कान में फुसफुसा कर कहा, तुम्हारी देह महमह महकती है। सच!
लहसनवाँ लालमोहर का नौकर-गाड़ीवान है। उम्र में सबसे छोटा है। पहली बार आया है तो क्या? बाबू-बबूआनों के यहाँ बचपन से नौकरी कर चुका है। वह रह-रह कर वातावरण में कुछ सूँघता है, नाक सिकोड़कर। हिरामन ने देखा, लहसनवाँ का चेहरा तमतमा गया है...कौन आ रहा है धड़धड़ाता हुआ? कौन, पलटदास? क्या है?
पलटदास आकर खड़ा हो गया चुपचुचाप। उसका मुँह भी तमतमाया हुआ था। हिरामन ने पूछा, क्या हुआ? बोलते क्यों नहीं?
क्या जवाब दे पलटदास! हिरामन ने उसको चेतावनी दे दी थी, गपशप होशियारी से करना। वह चुपचुचाप गाड़ी की आसनी पर जाकर बैठ गया, हिरामन की जगह पर। हीराबाई ने पूछा, तुम भी हिरामन के साथ हो? पलटदास ने गरदन हिलाकर हामी भरी। हीराबाई फिर लेट गई...चेहरा-मोहरा और बोली-बानी देख-सुनकर, पलटदास का कलेजा काँपने लगा, न जाने क्यों। हाँ! रामलीला में सिया सुकुमारी इसी तरह थकी लेटी हुई थी। जै! सियावर रामचंद्र की जै!...पलटदास के मन में जै-जैकार होने लगा। वह दास-वैस्नव है, कीर्तनिया है। थकी हुई सीता महारानी के चरण टीपने की इच्छा प्रकट की उसने, हाथ की उँगलियों के इशारे से, मानो हारमोनियम की पटरियों पर नचा रहा हो। हीराबाई तमककर बैठ गई, अरे, पागल है क्या? जाओ, भागो!...
पलटदास को लगा, ग़ुस्साई हुई कंपनी की औरत की आँखों से चिनगारी निकल रही है—छटक्-छटक्! वह भागा...!
पलटदास क्या जवाब दे! वह मेला से भी भागने का उपाय सोच रहा है। बोला, कुछ नहीं। हमको व्यापारी मिल गया। अभी ही टीशन जाकर माल लादना है। भात में तो अभी देर है। मैं लौट आता हूँ तब तक।
खाते समय धुन्नीराम और लहसनवाँ ने पलटदास की टोकरी-भर निंदा की...छोटा आदमी है। कमीना है। पैसे-पैसे का हिसाब जोड़ता है। खाने-पीने के बाद लालमोहर के दल ने अपना बासा तोड़ दिया। धुन्नी और लहसनवाँ गाड़ी जोत कर हिरामन के बासा पर चले, गाड़ी की लीक धरकर। हिरामन ने चलते-चलते रुक कर, लालमोहर से कहा, 'ज़रा मेरे इस कंधे को सूँघो तो। सूँघकर देखो न?
लालमोहर ने कंधा सूँघकर आँखे मूँद लीं। मुँह से अस्फुट शब्द निकला, ए—ह!
हिरामन ने कहा, ज़रा-सा हाथ रखने पर इतनी ख़ुशबू!...समझे!
लालमोहर ने हिरामन का हाथ पकड़ लिया—कंधे पर हाथ रखा था, सच?...सुनो हिरामन, नौटंकी देखने का ऐसा मौक़ा फिर कभी हाथ नहीं लगेगा। हाँ!
तुम भी देखोगे?
लालमोहर की बत्तीसी चौराहे की रोशनी में, झिलमिला उठी।
बासा पर पहुँचकर हिरामन ने देखा, टप्पर के पास खड़ा बतिया रहा है कोई, हीराबाई से। धुन्नी और लहसनवाँ ने एक ही साथ कहा, कहाँ रह गए पीछे? बहुत देर से खोज रही है कंपनी...
हिरामन ने टप्पर के पास जाकर देखा। अरे, यह तो वही बक्सा ढोनेवाला नौकर, जो चंपानगर मेले में हीराबाई को गाड़ी पर बिठाकर अँधेरे में ग़ायब हो गया था।
आ गए हिरामन! अच्छी बात, इधर आओ...यह लो अपना भाड़ा और यह लो अपनी दच्छिना। पच्चीस-पच्चीस, पचास।
हिरामन को लगा, किसी ने आसमान से धकेलकर धरती पर गिरा दिया। किसी ने क्यों, इस बक्सा ढोनेवाले आदमी ने। कहाँ से आ गया? उसकी जीभ पर आई हुई बात जीभ पर ही रह गई...इस्स! दच्छिना! वह चुपचाप खड़ा रहा।
हीराबाई बोली, लो, पकड़ो! और सुनो, कल सुबह रता कंपनी में आकर मुझसे भेंट करना। पास बनवा दूँगी...बोलते क्यों नहीं?
लालमोहर ने कहा, इलाम बकसीस दे रही है मालकिन, ले लो हिरामन! हिरामन ने कटकर लालमोहर की ओर देखा...बोलने का ज़रा भी ढंग नहीं इस लालमोहरा को।
धुन्नीराम की स्वगतोक्ति सभी ने सुनी, हीराबाई ने भी, गाड़ी-बैल छोड़कर नौटंकी कैसे देख सकता है कोई गाड़ीवान, मेले में!
हिरामन ने रुपया लेते हुए कहा, क्या बोलेंगे!' उसने हँसने की चेष्टा की। कंपनी की...औरत कंपनी में जा रही है। हिरामन का क्या! बक्सा ढोनेवाला रास्ता दिखाता हुआ आगे बढ़ा, इधर से। हीराबाई जाते-जाते रुक गई। हिरामन के बैलों को संबोधित करके बोली, अच्छा, मैं चली भैयन्।
बैलों ने, भैया शब्द पर कान हिलाए।
—??...??...XX...!
***
भा-इ-यो, आज रात! दि रौता संगीत कंपनी के स्टेज पर! गुलबदन देखिए, गुलबदन! आपको यह जानकर ख़ुशी होगी कि मथुरामोहन कंपनी की मशहूर एक्ट्रेस मिस हीरादेवी, जिसकी एक-एक अदा पर हज़ार जान फ़िदा हैं, इस बार हमारी कंपनी में आ गई हैं। याद रखिए। आज की रात। मिस हीरादेवी गुलबदन...!
नौटंकीवालों के इस एलान से मेले की हर पट्टी में सरगर्मी फैल रही है...हीराबाई? मिस हीरादेवी? लैला, गुलबदन...? फिलिम एक्ट्रेस को मात करती है...तेरी बाँकी अदा पर मैं ख़ुद हूँ फ़िदा, तेरी चाहत को दिलबर बयाँ क्या करूँ! यही ख़्वाहिश है कि इ-इ-इ तू मुझ को देखा करे, और दिलोजान मैं तुम को देखा करूँ...किर्र-र्र-र्र-र्र...कड़ड़ड़ड़ड़र्र-र्र-घन-घन-धड़ाम।
हर आदमी का दिल नगाड़ा हो गया है।
लालमोहर दौड़ता-हाँफता बासा पर आया, ऐ, ऐ हिरामन, यहाँ क्या बैठे हो, चलकर देखो कैसा जै-जैकाकार हो रहा है! मय बाजा-गाजा, छापी-फाहरम के साथ हीराबाई की जै-जै कर रहा हूँ।
हिरामन हड़बड़ाकर उठा। लहसनवाँ ने कहा, धुन्नी काका, तुम बासा पर रहो, मैं भी देख आऊँ।
धुन्नी की बात कौन सुनता है! तीनों जन नौटंकी कंपनी की एलानिया पार्टी के पीछे-पीछे चलने लगे। हर नुक्कड़ पर रुककर, बाजा बंद कर के एलान किया जाना है। एलान के हर शब्द पर हिरामन पुलक उठता है। हीराबाई का नाम, नाम के साथ अदा-फिदा वग़ैरह सुनकर उसने लालमोहर की पीठ थपथपा दी, धन्न है, धन्न! है या नहीं?
लालमोहर ने कहा, अब बोलो! अब भी नौटंकी नहीं देखोगे?
सुबह से ही धुन्नीराम और लालमोहर समझा रहे थे’ समझाकर हार चुके थे। कंपनी में जाकर भेंट कर आओ। जाते-जाते पुरसिस कर गई है। लेकिन हिरामन की बस एक बात—धत्त, कौन भेंट करने जाए! कंपनी की औरत, कंपनी में गई। अब उससे क्या लेना-देना! चीन्हेगी भी नहीं!
वह मन-ही-मन रूठा हुआ था। एलान सुनने के बाद उसने लालमोहर से कहा, “ज़रूर देखना चाहिए, क्यों लालमोहर?”
दोनों आपस में सलाह करके रौता कंपनी की ओर चले। ख़ेमे के पास पहुँचकर हिरामन ने लालमोहर को इशारा किया, पूछताछ करने का भार लालमोहर के सिर। लालमोहर कचराही बोलना जानता है। लालमोहर ने एक काले कोटवाले से कहा, “बाबू साहेब, ज़रा सुनिए तो!”
काले कोटवाले ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा, “क्या है? इधर क्यों?”
लालमोहर की कचराही बोली गड़बड़ा गई। तेवर देखकर बोला, “गुलगुल…नहीं-नहीं...बुल-बुल...नहीं…”
हिरामन ने झट-से सम्हाल दिया, “हीरादेवी किधर रहती है, बता सकते हैं?”
उस आदमी की आँखें हठात् लाल हो गईं। सामने खड़े नेपाली सिपाही को पुकारकर कहा, “इन लोगों को क्यों आने दिया इधर?”
“हिरामन!” वही फेनूगिलासी आवाज़ किधर से आई? ख़ेमे के पर्दे को हटाकर हीराबाई ने बुलाया, “यहाँ आ जाओ, अंदर...देखो बहादुर! इसको पहचान लो। यह मेरा हिरामन है। समझे!”
नेपाली दरबान हिरामन की ओर देखकर ज़रा मुस्कुराया और चला गया, काले कोटवाले से जाकर कहा, “हीराबाई का आदमी है। नहीं रोकने बोला!”
लालमोहर पान ले आया नेपाली दरबान के लिए, “खाया जाए!”
“इस्स! एक नहीं, पाँच पास। चारों अठनिया! बोली, कि जब तक मेले में ही रोज़ रात में आकर देखना। सबका ख़याल रखती है! बोली कि तुम्हारे और साथी हैं, सभी के लिए पास ले जाओ। कंपनी की औरतों की बात निराली होती है! है या नहीं?”
लालमोहर ने लाल काग़ज़ के टुकड़ों को छूकर देखा, “पा-स! वाह रे हिरामन भाई!...लेकिन पाँच पास लेकर क्या होगा? पलटदास तो फिर पलटकर आया ही नहीं है अभी तक।”
हिरामन ने कहा, “जाने दो अभागे को। तक़दीर में लिखा नहीं...हाँ, पहले गुरु क़सम खानी होगी सभी को, कि गाँव-घर में यह बात एक पंछी भी न जान पाए।”
लालमोहर ने उत्तेजित होकर कहा, “कौन साला बोलेगा, गाँव में जाकर? पलटा ने अगर बदमाशी की तो दूसरी बार से फिर साथ नहीं लाऊँगा।”
हिरामन ने अपनी थैली आज हीराबाई के ज़िम्मे रख दी है। मेले का क्या ठिकाना! क़िस्म-क़िस्म के पाकिटकाट लोग हर साल आते हैं। अपने साथी-संगियों का भी क्या भरोसा! हीराबाई मान गई। हिरामन की कपड़े की काली थैली को उसने अपने चमड़े के बक्स में बंद कर दिया। बक्से के ऊपर भी कपड़े का खोल और अंदर भी झलमल रेशमी अस्तर! मन का मान-अभिमान दूर हो गया।
लालमोहर और धुन्नीराम ने मिलकर हिरामन की बुद्धि की तारीफ़ की; उसके भाग्य को सराहा बार-बार। उसके भाई और भाभी की निंदा की, दबी ज़बान से। हिरामन के जैसा हीरा भाई मिला है, इसीलिए! कोई दूसरा भाई होता तो...
लहसनवाँ का मुँह लटका हुआ है। एलान सुनते-सुनते न जाने कहाँ चला गया कि घड़ी-भर साँझ होने के बाद लौटा है। लालमोहर ने एक मालिकाना झिड़की दी है, गाली के साथ, “सोहदा कहीं का!”
धुन्नीराम ने चूल्हे पर खिचड़ी चढ़ाते हुए कहा, “पहले यह फ़ैसला कर लो कि गाड़ी के पास कौन रहेगा!”
“रहेगा कौन, यह लहसनवाँ कहाँ जाएगा?”
लहसनवाँ रो पड़ा, “हे-ए-ए मालिक, हाथ जोड़ते हैं। एक्को झलक! बस, एक झलक!”
हिरामन ने उदारतापूर्वक कहा, “अच्छा-अच्छा, एक झलक क्यों, एक घंटा देखना। मैं आ मैं जाऊँगा।”
नौटंकी शुरू होने के दो घंटे पहले ही नगाड़ा बजना शुरू हो जाता है, और नगाड़ा शुरू होते ही लोग पतंग की तरह टूटने लगते हैं। टिकटघर के पास भीड़ देखकर हिरामन को बड़ी हँसी आई, “लालमोहर, उधर देख, कैसी धक्मधुक्की कर रहे हैं लोग!”
“हिरामन भाय!”
“कौन, पलटदास! कहाँ की लदनी लाद आए?” लालमोहर ने पराए गाँव के आदमी की तरह पूछा।
पलटदास ने हाथ मलते हुए माफ़ी माँगी, “क़सूरबार हैं; जो सज़ा दो तुम लोग, सब मंज़ूर है। लेकिन सच्ची बात कहें कि सिया सुकुमारी...”
हिरामन के मन का पुरइन नगाड़े के ताल पर विकसित हो चुका है। बोला, “देखो पलटा, यह मत समझना कि गाँव-घर की ज़नाना है। देखो, तुम्हारे लिए भी पास दिया है; पास ले लो अपना, तमाशा देखो।”
लालमोहर ने कहा, “लेकिन एक शर्त पर पास मिलेगा। बीच-बीच में लहसनवाँ को भी...”
पलटदास को कुछ बताने की ज़रूरत नहीं। वह लहसनवाँ से बातचीत कर आया है अभी।
लालमोहर ने दूसरी शर्त सामने रखी, “गाँव में अगर यह बात मालूम हुई किसी तरह...”
“राम-राम!” दाँत से जीभ को काटते हुए कहा पलटदास ने।
पलटदास ने बताया “अठनिया फाटक इधर है!” फाटक पर खड़े दरबान ने हाथ से पास लेकर उनके चेहरे को बारी-बारी से देखा, बोला, “यह तो पास है। कहाँ से मिला?”
अब लालमोहर की कचराही बोली सुने कोई! उसके तेवर देखकर दरबान घबरा गया, “मिलेगा कहाँ से? अपनी कंपनी से पूछ लीजिए जाकर! चार ही नहीं, देखिए एक और है।” जेब से पाँचवा पास निकालकर दिखाया लालमोहर ने।
एक रुपयावाले फाटक पर नेपाली दरबान खड़ा था। हिरामन ने पुकारकर कहा, “ए सिपाही दाजू, सुबह को ही पहचनवा दिया और अभी भूल गए?”
नेपाली दरबान बोला, “हीराबाई का आदमी है सब। जाने दो। पास हैं तो फिर काहे को रोकता है?”
अठनिया दर्जा!
तीनों ने 'कपड़घर' को अंदर से पहली बार देखा। सामने कुर्सी-बेंचवाले दरजें हैं। पर्दे पर राम-वन-गमन की तस्वीर है। पलटदास पहचान गया। उसने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, पर्दे पर अंकित रामसिया सुकुमारी और लखनलला को। जै हो, जै हो! पलटदास की आँखें भर आईं।
हिरामन ने कहा, “लालमोहर, छापी सभी खड़े हैं या चल रहे हैं?”
लालमोहर अपने बग़ल में बैठे दर्शकों से जान-पहचान कर चुका है। उसने कहा, “खेला अभी पर्दा के भीतर है। अभी जर्भिन का दे रहा है लोग ज़माने के लिए।”
पलटदास ढोलक बजाना जानता है, इसलिए नगाड़े के ताल पर गरदन हिलाता है और दियासलाई पर ताल काटता है। बीड़ी आदान-प्रदान करके हिरामन ने भी एकाध जान-पहचान कर ली। लालमोहर के परिचित आदमी ने चादर से देह ढकते हुए कहा, “नाच शुरू होने में अभी देर है, तब तक एक नींद ले लें...सब दर्जा से अच्छा अठनिया दर्जा। सबसे पीछे सबसे ऊँची जगह पर; ज़मीन पर गरम पुआल! हे-हे! कुरसी-बेंच पर बैठकर इस सर्दी के मौसम में तमाशा देखने वाले अभी घुच-घुच कर उठेंगे चाह पीने।”
उस आदमी ने अपने संगी से कहा, “खेला शुरू होने पर जगा देना! नहीं-नहीं, खेला शुरू होने पर नहीं, हिरिया जब स्टेज पर उतरे, हमको जगा देना।”
हिरामन के कलेजे में ज़रा आँच लगी...हिरिया! बड़ा लटपटिया आदमी मालूम पड़ता है। उसने लालमोहर को आँखों के इशारे से कहा—इस आदमी से बतियाने की ज़रूरत नहीं।
...घन-घन-घन-धड़ाम! पर्दा उठ गया। हे-ए, हे-ए, हीराबाई शुरू में ही उतर गई स्टेज पर! कपड़घर खचाखच भर गया है। हिरामन का मुँह अचरज में खुल गया! लालमोहर को न जाने क्यों ऐसी हँसी आ रही है। हीराबाई के गीत के हर पद पर वह हँसता है, बेवजह।
गुलबदन दरबार लगाकर बैठी है। एलान कर रही है—जो आदमी तख़्त-हज़ारा बनाकर ला देगा, मुँहमाँगी चीज़ इनाम में दी जाएगी...अजी, है कोई ऐसा फ़नकार, तो हो जाए तैयार, बना कर लाए तख़्त-हज़ारा-आ! किड़किड़-किर्रि…! अलबत्त नाचती है! क्या गला है! मालूम है, यह आदमी कहता है कि हीराबाई पान-बीड़ी, सिगरेट-ज़र्दा कुछ नहीं खाती!...ठीक कहता है, बड़ी नेमवाली रंडी है।—कौन कहता है कि रंडी है! दाँत में मिस्सी कहाँ है? पौडर से दाँत धो लेती होगी। हरगिज़ नहीं!...कौन आदमी है, बात की बेबात करता है! कंपनी की औरत को पतुरिया कहता है! तुमको बात क्यों लगी? कौन है रंडी का भड़वा? मारो साले को! मारो! तेरी...
हो-हल्ले के बीच, हिरामन की आवाज़ कपड़घर को फाड़ रही है, “आओ, एक-एक की गरदन उतार लेंगे।”
लालमोहर दुलाली से पटापट पीटता जा रहा है सामने के लोगों को। पलटदास एक आदमी की छाती पर सवार है, “साला, सिया सुकुमारी को गाली देता है, सो भी मुसलमान होकर?”
धुन्नीराम शुरू से ही चुप था। मारपीट शुरू होते ही वह कपड़घर से निकल कर बाहर भागा।
काले कोटवाले नौटंकी के मैनेजर नेपाली सिपाही के साथ दौड़े आए। दारोग़ा साहब ने हंटर से पीट-पाट शुरू की। हंटर खाकर लालमोहर तिलमिला उठा, कचराही बोली में भाषण देने लगा, “दारोग़ा साहब, मारते हैं, मारिए। कोई हर्ज़ नहीं। लेकिन यह पास देख लीजिए, एक पास पाकिट में भी हैं। देख सकते हैं, हुज़ूर। टिकट नहीं, पास!...तब हम लोगों के सामने कंपनी की औरत को कोई बुरी बात करे तो कैसे छोड़ देंगे?”
कंपनी के मैनेजर की समझ में आ गई सारी बात। उसने दारोग़ा को समझाया—“हुज़ूर, मैं समझ गया। यह सारी बदमाशी मथुरामोहन कंपनीवालों की है। तमाशे में झगड़ा खड़ा करके कंपनी को बदनाम...नहीं हुज़ूर, इन लोगों को छोड़ दीजिए, हीराबाई के आदमी हैं। बेचारी की जान ख़तरे में हैं। हुज़ूर से कहा था न!”
हीराबाई का नाम सुनते ही दारोग़ा ने तीनों को छोड़ दिया। लेकिन तीनों की दुआली छीन ली गई। मैनेजर ने तीनों को एक रुपएवाले दरजे में कुर्सी पर बिठाया “आप लोग यहीं बैठिए। पान भिजवा देता हूँ।” कपड़घर शांत हुआ और हीराबाई स्टेज पर लौट आई।
नगाड़ा फिर घनघना उठा।
थोड़ी देर बाद तीनों को एक ही साथ धुन्नीराम का ख़याल हुआ, “अरे, धुन्नीराम कहाँ गया?”
“मालिक, ओ मालिक!” लहसनवाँ कपड़घर से बाहर चिल्लाकर पुकार रहा है, “ओ लालमोहर मा-लि-क...!”
लालमोहर ने तार स्वर में जवाब दिया, “इधर से, इधर से! एकटकिया फाटक से।” सभी दर्शकों ने लालमोहर की ओर मुड़कर देखा। लहसनवाँ को नेपाली सिपाही लालमोहर के पास ले आया। लालमोहर ने जेब से पास निकालकर दिखा दिया। लहसनवाँ ने आते ही पूछा, “मालिक, कौन आदमी क्या बोल रहा था, बोलिए तो ज़रा। चेहरा दिखला दीजिए; उसकी एक झलक!”
लोगों ने लहसनवाँ की चौड़ी और सपाट छाती देखी। जाड़े के मौसम में भी ख़ाला देह!...चेले-चाटी के साथ हैं ये लोग!
लालमोहर ने लहसनवाँ को शांत किया।
...तीनों-चारों से मत पूछे कोई नौटंकी में क्या देखा। क़िस्सा कैसे याद रहे! हिरामन को लगता था, हीराबाई शुरू से ही उसी की ओर टकटकी लगाकर देख रही है, गा रही है, नाच रही है। लालमोहर को लगता था, हीराबाई उसी की ओर देखती है; वह समझ गई है, हिरामन से भी ज़्यादा पावरवाला आदमी है लालमोहर! पलटदास क़िस्सा समझता है...क़िस्सा और क्या होगा, रमैन की ही बात। वही राम, वही सीता, वही लखनलाल और वही रावन! सिया सुकुमारी को राम जी से छीनने के लिए रावन तरह-तरह का रूप धर कर आता है। राम और सीता भी रूप बदल लेते हैं। यहाँ भी तख़्त-हज़ारा बनानेवाला माली का बेटा राम है। गुलबदन मिया सुकुमारी है। माली के लड़के का दोस्त लखनलला है और सुलतान है रावन। धुन्नीराम को बुखार है तेज़। लहसनवाँ को सबसे अच्छा जोकर का पार्ट लगा है...चिरैया तोंहके लेके ना, जइवै नरहट के बजरिया! वह उस जोकर से दोस्ती लगाना चाहता है...नहीं लगावेगा दोस्ती, जोकर साहब?
हिरामन को एक गीत की आधी कड़ी हाथ लगी है—मारे गए गुलफ़ाम! कौन था यह गुलफ़ाम? हीराबाई रोती हुई गा रही थी—अजी हाँ, मरे गए गुलफ़ाम! टिड़िड़िड़ि!...बेचारा गुलफ़ाम!
तीनों को दुआली वापस देते हुए पुलिस के सिपाही ने कहा, “लाठी-दुआली लेकर नाच देखने आते हो?”
दूसरे दिन मेले-भर में यह बात फैल गई—मथुरा मोहन कंपनी से भागकर आई है हीराबाई, इसलिए इस बार मथुरामोहन कंपनी नहीं आई हैं, उसके गुंडे आए हैं। हीराबाई भी कम नहीं। बड़ी खेलाड़ औरत है। तेरह-तेरह देहाती लठैत पाल रही है...‘वाह, मेरी जान’ भी कहे तो कोई! मजाल है!
दस दिन। दिन-रात...
दिन-भर भाड़ा ढोता हिरामन। शाम होते ही नौटंकी का नगाड़ा बजने लगता। नगाड़ा की आवाज़ सुनते ही हीराबाई की पुकार कानों के पास मँडराने लगती—भैया...मीता...हिरामन...उस्ताद गुरु जी! हमेशा कोई-न-कोई बाजा उसके मन के कोने में बजता रहता, दिन-भर—कभी हारमोनियम, कभी नगाड़ा, कभी ढोलक और कभी हीराबाई की पैजनी। उन्हीं साज़ों की गत पर हिरामन उठता-बैठता, चलता-फिरता। नौटंकी कंपनी के मैनेजर से लेकर पर्दा खींचनेवाले तक उसको पहचानते हैं...हीराबाई का आदमी है!
पलटदास हर रात नौटंकी शुरू होने के समय श्रद्धापूर्वक स्टेज को नमस्कार करता, हाथ जोड़कर। लालमोहर, एक दिन अपनी कचराही बोली सुनाने गया था हीराबाई को। हीराबाई ने पहचाना ही नहीं। तब से उसका दिल छोटा हो गया है। उसका नौकर लहसनवाँ उसके हाथ से निकल गया है, नौटंकी कंपनी में भर्ती हो गया है। जोकर से उसकी दोस्ती हो गई है। दिन-भर पानी भरता है, कपड़े धोता है। कहता है, गाँव में क्या है जो जाएँगे! लालमोहर उदास रहता है। धुन्नीराम घर चला गया है, बीमार होकर।
हिरामन आज सुबह से तीन बार लदनी लाद कर स्टेशन आ चुका है। आज न जाने क्यों उसको अपनी भौजाई की याद आ रही है...धुन्नीराम ने कुछ कह तो नहीं दिया है, बुखार की झोंक में! यहीं कितना अटर-पटर बक रहा था—गुलबदन, तख़्त-हज़ारा! लहसनवाँ मौज में है। दिन-भर हीराबाई को देखता होगा। कल कह रहा था, हिरामन मालिक, तुम्हारे अकबाल से ख़ूब मौज में हूँ। हीराबाई की साड़ी धोने के बाद कठौते का पानी अत्तरगुलाब हो जाता है। उसमें अपनी गमछी डुबाकर छोड़ देता हूँ। लो, सूँघोगे?...हर रात, किसी-न-किसी के मुँह से सुनता है वह—हीराबाई रंडी है। कितने लोगों से लड़े वह! बिना देखे ही लोग कैसे कोई बात बोलते हैं! राजा को भी लोग पीठ-पीछे गाली देते हैं!...आज वह हीराबाई से मिलकर कहेगा, नौटंकी-कंपनी में रहने से बहुत बदनाम करते हैं लोग। सरकस कंपनी में क्यों नहीं काम करतीं?...सबके सामने नाचती है, हिरामन का कलेजा दप-दप जलता रहता है उस समय। सरकस कंपनी में बाघ को नचाएगी...उसके पास जाने की हिम्मत कौन करेगा! सुरक्षित रहेगी हीराबाई!...किधर की गाड़ी आ रही है?
“हिरामन, ए हिरामन भाय!” लालमोहर की बोली सुनकर हिरामन ने गरदन मोड़कर देखा...क्या लादकर लाया है लालमोहर?
“तुमको ढूँढ़ रही है हीराबाई, इशटीशन पर। जा रही है।” एक ही साँस में सुना गया। लालमोहर की गाड़ी पर ही आई है मेले से।
“जा रही है? कहाँ? हीराबाई रेलगाड़ी से जा रही है?”
हिरामन ने गाड़ी खोल दी। माल गोदाम के चौकीदार से कहा, “भैया, ज़रा गाड़ी-बैल देखते रहिए; आ रहे हैं।”
“उस्ताद!” ज़नाना मुसाफ़िरख़ाने के फाटक के पास हीराबाई ओढ़नी से मुँह-हाथ ढँककर खड़ी थी। थैली बढ़ाती हुई बोली, “लो! हे भगवान! भेंट हो गई, चलो, मैं तो उम्मीद खो चुकी थी। तुम से अब भेंट नहीं हो सकेगी!...मैं जा रही हूँ गुरु जी!”
बक्सा ढोनेवाला आदमी आज कोट-पतलून पहनकर बाबू साहब बन गया है। मालिकों की तरह कुलियों को हुकम दे रहा है, “ज़नाना दर्जा में चढ़ाना। अच्छा!”
हिरामन हाथ में थैली लेकर चुपचाप खड़ा रहा। कुरते के अंदर से थैली निकालकर दी है हीराबाई ने...चिड़िया की देह की तरह गर्म है थैली!
“गाड़ी आ रही है।” बक्सा ढोनेवाले ने मुँह बनाते हुए हीराबाई की ओर देखा। उसके चेहरे का भाव स्पष्ट है—इतना ज़्यादा क्या है...?
हीराबाई चंचल हो गई। बोली, “हिरामन, इधर आओ, अंदर। मैं फिर लौट कर जा रही हूँ मथुरामोहन कंपनी में। अपने देश की कंपनी है...वनैली मेला आओगे न?”
हीराबाई ने हिरामन के कंधे पर हाथ रखा—इस बार दाहिने कंधे पर। फिर अपनी थैली से रुपए निकालते हुए बोली, “एक गरम चादर ख़रीद लेना।”
हिरामन की बोली फूटी, इतनी देर के बाद, “इस्स! हरदम रुपया-पैसा! रखिए रुपैया! क्या करेंगे चादर?”
हीराबाई का हाथ रुक गया। उसने हिरामन के चेहरे को ग़ौर से देखा। फिर बोली, “तुम्हारा जी बहुत छोटा हो गया है। क्यों मोता?...महुआ घटवारिन को सौदागर ने ख़रीद जो लिया है, गुरु जी!”
गला भर आया हीराबाई का। बक्सा ढोनेवाले ने बाहर से आवाज़ दी, “गाड़ी आ गई।” हिरामन कमरे से बाहर निकल आया। बक्सा ढोनेवाले ने नौटंकी के जोकर जैसा मुँह बनाकर कहा, “लाटफारम से बाहर भागो। बिना टिकट के पकड़ेगा तो तीन महीने की हवा...”
हिरामन चुपचाप फाटक से बाहर जाकर खड़ा हो गया।...टीशन की बात, रेलवे का राज! नहीं तो इस बक्सा ढोनेवाले का मुँह सीधा कर देता हिरामन।
हीराबाई ठीक सामने वाली कोठरी में चढ़ी। इस्स? इतना टान! गाड़ी में बैठकर भी हिरामन की ओर देख रही है, टुकुर-टुकुर…लालमोहन को देखकर जी जल उठता है, हमेशा पीछे-पीछे; हरदम हिस्सादारी सूझती है…
गाड़ी ने सीटी दी। हिरामन को लगा, उसके अंदर से कोई आवाज़ निकल कर सीटी के साथ ऊपर की ओर चली गई—कू-ऊ-उ! इ-स्स!
...छि-ई-ई-छक्क! गाड़ी हिली। हिरामन ने अपने दाहिने पैर के अँगूठे को बाएँ पैर की एड़ी से कुचल लिया। कलेजे की धड़कन ठीक हो गई...हीराबाई हाथ की बैंगनी साफ़ी से चेहरा पोंछती है। साफ़ी हिलाकर इशारा करती है—अब जाओ। आख़िरी डिब्बा गुज़रा; प्लेटफ़ार्म ख़ाली…सब ख़ाली...खोखले...मालगाड़ी के डिब्बे…! दुनिया ही ख़ाली हो गई मानो! हिरामन अपनी गाड़ी के पास लौट आया।
हिरामन ने लालमोहर से पूछा, “तुम कब तक लौट रहे हो गाँव?”
लालमोहर बोला, “अभी गाँव जाकर क्या करेंगे? यहाँ तो भाड़ा कमाने का मौक़ा है! हीराबाई चली गई, मेला अब टूटेगा।”
“अच्छी बात। कोई समाद देना है घर?”
लालमोहर ने हिरामन को समझाने की कोशिश की, लेकिन हिरामन ने अपनी गाड़ी गाँव की ओर जानेवाली सड़क की ओर मोड़ दी…अब मेले में क्या धरा है! खोखला मेला!
रेलवे लाइन की बग़ल से बैलगाड़ी की कच्ची सड़क गई है दूर तक। हिरामन कभी रेल पर नहीं चढ़ा है। उसके मन में फिर पुरानी लालसा झाँकी—रेलगाड़ी पर सवार होकर, गीत गाते हुए जगरनाथ धाम जाने की लालसा...उलटकर अपने ख़ाली टप्पर की ओर देखने की हिम्मत नहीं होती है। पीठ में आज भी गुदगुदी लगती है। आज भी रह-रहकर चंपा का फूल खिल उठता है, उसकी गाड़ी में। एक गीत की टूटी कड़ी पर नगाड़े का ताल कट जाता है, बार-बार!...
उसने उलटकर देखा, बोरे भी नहीं, बाँस भी नहीं, बाघ भी नहीं...परी...देवी...मीता...हीरादेवी...महुआ घटवारिन—को-ई नहीं। मरे हुए मुहर्तों की गूँगी आवाज़ें मुखर होना चाहती है। हिरामन के होंठ हिल रहे हैं। शायद वह तीसरी क़सम खा रहा है—कंपनी की औरत की लदनी...
हिरामन ने हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए बोला—रेलवे लाइन की ओर उलट-उलटकर क्या देखते हो? दोनों बैलों ने क़दम खोलकर चाल पकड़ी। हिरामन गुनगुनाने लगा—अजी हाँ, मारे गए गुलफ़ाम...!
hiraman gaDivan ki peeth mein gudgudi lagti hai. . .
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hiraman ki gaDi ke paas tainat sipahi ne apni bhasha mein dusre sipahi se dhimi avaz mein puchha, ka ho? mamla gol hokhi ka? phir khaini tambaku dene ke bahane us sipahi ke paas chala gaya.
ek do teen! teen chaar gaDiyon ki aaD. hiraman ne faisla kar liya. usne dhire se apne bailon ke gale ki rassiyan khol leen; gaDi par baithe baithe donon ko juDvan baandh diya. bail samajh ge unhen kya karna hai. hiraman utra, juti hui gaDi mein baans ki tikti lagakar bailon ke kandhon ko belag kiya. donon ke kanon ke paas gudgudi laga di aur man hi man bola, chalo bhaiyan, jaan bachegi to aisi aisi saggaD gaDi bahut milegi. . . ek do teen! nau do gyarah!. . .
gaDiyon ki aaD mein saDak ke kinare door tak ghani jhaDi phaili hui thi. dam sadhkar tinon praniyon ne jhaDi ko paar kiya—bekhatak, be ahat! phir ek le, do le. . . dulki chaal! donon bail sina taan kar phir tarai ke ghane janglon mein ghus ge. raah sunghte, nadi nala paar karte hue bhage poonchh uthakar. pichhe pichhe hiraman. raat bhar bhagte rahe the tinon jan. . .
ghar pahunchakar do din tak besudh paDa raha hiraman. hosh mein aate hi usne kaan pakaD kar qasam khai thi—ab kabhi aisi chizon ki ladni nahin ladenge. chorbazari ka maal? toba, toba!. . . pata nahin munim ji ka kya hua! bhagvan jane uski saggaD gaDi ka kya hua! asli ispaat lohe ki dhuri thi. donon pahiye to nahin, ek pahiya ekdam naya tha. gaDi mein rangin Doriyon ke phundane baDe jatan se gunthe ge the.
do qasmen khai hain usne—ek chorbazari ka maal nahin ladenge; dusri, baans. apne har bhaDedar se wo pahle hi poochh leta hai—chori chamarivali cheez to nahin? aur, baans? baans ladne ke liye pachas rupe bhi de koi, hiraman ki gaDi nahin milegi. dusre ki gaDi dekhe. . .
baans ladi hui gaDi! gaDi se chaar haath aage baans ka agua nikla rahta hai aur pichhe ki or chaar haath pichhua! qabu ke bahar rahti hai gaDi hamesha. so beqabu vali ladni aur kharaihiya. shaharvali baat! tis par baans ka agua pakaDkar chalne vala bhaDedar ka mahabhakua naukar, laDki skool ki or dekhne laga. bas, moD par ghoDagaDi se takkar ho gai. jab tak hiraman bailon ki rassi khinche, tab tak ghoDagaDi ki chhatri baans ke agua mein phans gai. ghoDa gaDivale ne taDataD chabuk marte hue gali di thee!. . .
baans ki ladni hi nahin, hiraman ne kharaihiya shahr ki ladni bhi chhoD di. aur jab pharabisganj se morang ka bhaDa Dhona shuru kiya to gaDi hi paar!. . . kai varshon tak hiraman ne bailon ko adhidari par jota. aadha bhaDa gaDivale ka aur aadha bailvale ka. hiss! gaDivani karo muft! adhidari ki kamai se bailon ke hi pet nahin bharte. pichhle saal hi usne apni gaDi banvai hai.
devi maiya bhala karen us sarkas kampni ke baagh ka! pichhle saal isi mele mein baghgaDi ko Dhone vale donon ghoDe mar ge. champangar se pharabisganj mela aane ke samay sarkas kampni ke mainejar ne gaDivan patti mein ailan karke kaha—sau rupya bhaDa milega. ek do gaDivan razi hue. lekin unke bail baghgaDi se das haath door hi Dar se Dikarne lage—ban aan! rassi tuDakar bhage. hiraman ne apne bailon ki peeth sahlate hue kaha—dekho bhaiyan, aisa mauqa phir haath na ayega. yahi mauqa hai apni gaDi banvane ka, nahin to phir adhidari. . . are, pinjDe mein band baagh ka kya Dar? morang ki tarai mein dahaDte hui baghon ko dekh chuke ho. phir peeth par main to hoon. . .
gaDivanon ke dal mein taliyan patapta uthin theen ek saath. sabhi ki laaj rakh li hiraman ke bailon ne; humak kar aage baDh ge aur baghgaDi mein jut ge—ek ek karke. sirf dahine bail ne jutne ke baad Dher sa peshab kiya. hiraman ne do din tak naak se kapDe ki patti nahin kholi thi. baDi gaddi ke baDe seth ji ki tarah nakbandhan lagaye bina baghain gandh bardasht nahin kar sakta koi.
baghgaDi ki gaDivani ki hai hiraman ne. kabhi aisi gudgudi nahin lagi peeth mein. aaj rah rah kar uski gaDi mein champa ka phool mahak uthta hai. peeth mein gudgudi lagne par wo angochhe se peeth jhaaD leta hai.
hiraman ko lagta hai, do varsh se champangar mele ki bhagvati maiya us par prasann hain. pichhle saal baghgaDi jut gai. nagad ek sau rupe bhaDe ke alava butad, chaah biskut; aur raste bhar bandar bhalu aur jokar ka tamasha dekha so phokat men!
aur, is baar ye janani savari. aurat hai ya champa ka phool! jab se gaDi mah mah mahak rahi hai.
kachchi saDak ke ek chhote se khaDD mein gaDi ka dahina pahiya be mauqe hichkola kha gaya. hiraman ki gaDi se ek halki sis ki avaz aai. hiraman ne dahine bail ko duali se pitte hue kaha, sala! kya samajhta hai, bore ki ladni hai kyaa?
aha! maro mat!
andekhi aurat ki avaz ne hiraman ko achraj mein Daal diya. bachchon ki boli jaisi mahin, phenugilasi boli!
***
mathura mohan nautanki kampni mein laila bannevali hirabai ka naam kisne nahin suna hoga bhala! lekin hiraman ki baat nirali hai. usne saat saal tak lagatar melon ki ladni ladi hai, kabhi nautanki thiyetar ya baiskop sinema nahin dekha. laila ya hirabai ka naam bhi usne nahin suna kabhi; dekhne ki kya baat! so mela tutne ke pandrah din pahle aadhi raat ki bela mein kali oDhni mein lipti aurat ko dekhkar uske man mein khatka avashya laga tha. baksa Dhone vale naukar se gaDi bhaDa mein mol molai karne ki koshish ki to oDhni vali ne sir hilakar mana kar diya. hiraman ne gaDi jotte hue naukar se puchha, kyon bhaiya, koi chori chamari ka maal vaal to nahin? hiraman ko phir achraj hua. baksa Dhonevale adami ne haath ke ishare se gaDi hankne ko kaha aur andhere mein ghayab ho gaya. hiraman ko mele mein tambaku bechne vali buDhi ki kali saDi ki yaad aai thi. . .
aise mein koi kya gaDi hanke!
ek to peeth mein gudgudi lag rahi hai, dusre rah rah kar champa ka phool khil jata hai uski gaDi mein. bailon ko Danto to is bis karne lagti hai uski savari. . . uski savari! aurat akeli, tambaku bechne vali buDhi nahin! avaz sunne ke baad wo baar baar muDkar tappar mein ek nazar Daal deta hai; angochhe se peeth jhaDta hai. . . bhagvan jane kya likha hai is baar uski qismat men! gaDi jab purab ki or muDi, ek tukDa chandni uski gaDi mein sama gaya. savari ki naak par ek jugnu jagmaga utha. hiraman ko sabkuchh rahasyamay—ajgut ajgut—lag raha hai. samne champangar se sindhiya gaanv tak phaila hua maidan!. . . kahin Dakin pishachin to nahin?
hiraman ki savari ne karvat li. chandni pure mukhDe par paDi to hiraman chikhte chikhte ruk gaya—are baap! ii to pari hai!
pari ki ankhen khul gain. hiraman ne samne saDak ki or munh kar liya aur bailon ko titkari di. wo jeebh ko talu se sata kar ti ti ti ti avaz nikalta hai. hiraman ki jeebh na jane kab se sukhkar lakDi jaisi ho gai thee!
bhaiya, tumhara naam kya hai?
hu ba hu phenugilas!. . . hiraman ke rom rom baj uthe. munh se boli nahin nikli. uske donon bail bhi kaan khaDe karke is boli ko parakhte hain.
tab to mita kahungi, bhaiya nahin. . . mera naam bhi hira hai.
iss! hiraman ko partit nahin, mard aur aurat ke naam mein farq hota hai.
haan ji, mera naam bhi hirabai hai.
kahan hiraman aur kahan hirabai! bahut farq hai!
hiraman ne apne bailon ko jhiDki di, kaan chuniya kar gap sunne se hi tees kos manzil kategi kyaa? is bayen nate ke pet mein shaitani bhari hai. hiraman ne bayen bail ko duali ki halki jhaDap di.
maro mat; dhire dhire chalne do. jaldi kya hai!
hiraman ke samne saval upasthit hua, wo kya kahkar gap kare hirabai se? tohe kahe ya ahan? uski bhasha mein baDon ko ahan arthat aap kahkar sambodhit kiya jata hai, kachrahi boli mein do chaar saval javab chal sakta hai; dil khol gap to gaanv ki boli mein hi ki ja sakti hai kisi se.
aasin katik ke bhor mein chha jane vale kuhase se hiraman ko purani chiDh hai. bahut baar wo saDak bhulkar bhatak chuka hai. kintu aaj ke bhor ke is ghane kuhase mein bhi wo magan hai. nadi ke kinare dhan kheton se phule hue dhaan ke paudhon ki pavaniya gandh aati hai. parv pavan ke din gaanv mein aisi hi sugandh phaili rahti hai. uski gaDi mein phir champa ka phool khila. us phool mein ek pari baithi hai. . . jai bhagvati.
hiraman ne ankh ki kanakhiyon se dekha, uski savari. . . mita. . . hirabai ki ankhen gujur gujur usko her rahi hain. hiraman ke man mein koi ajani ragini baj uthi. sari deh sirasira rahi hai. bola, bail ko marte hain to aapko bahut bura lagta hai?
***
hirabai ne parakh liya, hiraman sachmuch hira hai.
chalis saal ka hatta katta, kala kaluta, dehati naujavan apni gaDi aur apne bailon ke sivay duniya ki kisi aur baat mein vishesh dilchaspi nahin leta. ghar mein baDa bhai hai, kheti karta hai. baal bachche vala adami hai. hiraman bhai se baDh kar bhabhi ki izzat karta hai. bhabhi se Darta bhi hai. hiraman ki bhi shadi hui thi, bachpan mein hi. gaune ke pahle hi dulhin mar gai. hiraman ko apni dulhin ka chehra yaad nahin. . . dusri shadi? dusri shadi na karne ke anek karan hain. bhabhi ki zid, kumari laDki se hi hiraman ki shadi karvayegi. kumari ka matlab hua paanch saat saal ki laDki. kaun manata hai sardha qanun? koi laDkivala dobyahu ko apni laDki gharaz mein paDne par hi de sakta hai. bhabhi uski teen satt karke baithi hai, so baithi hai. bhabhi ke aage bhaiya ki bhi nahin chalti!. . . ab hiraman ne tay kar liya hai, shadi nahin karega. kaun balay mol lene jaye! byaah karke phir gaDivani kya karega koi! aur sab kuch chhoot jaye, gaDivani nahin chhoD sakta hiraman.
hirabai ne hiraman ke jaisa nishchhal adami bahut kam dekha hai. puchha, apka ghar kaun jilla mein paDta hai? kanpur naam sunte hi jo uski hansi chhuti, to bail bhaDak uthe. hiraman hanste samay sir nicha kar leta hai. hansi band hone par usne kaha, vaah re kanpur! tab to nakpur bhi hoga? aur jab hirabai ne kaha ki nakpur bhi hai, to wo hanste hanste duhra ho gaya.
vaah re duniya! kya kya naam hota hai! kanpur, nakpur! hiraman ne hirabai ke kaan ke phool ko ghaur se dekha. naak ki nakachhavi ke nag dekhkar sihar utha—lahu ki boond!
hiraman ne hirabii ka naam nahin suna kabhi. nautanki kampni ki aurat ko wo baiji nahin samajhta hai. . . kampni mein kaam karne vali aurton ko wo dekh chuka hai. sarkas kampni ki malkin, apni donon javan betiyon ke saath baghgaDi ke paas aati thi, baagh ko chara pani deti thi, pyaar bhi karti thi khoob. hiraman ke bailon ko bhi Dabalroti biskut khilaya tha baDi beti ne.
hiraman hoshiyar hai. kuhasa chhantate hi apni chadar se tappar mein parda kar diya, bas do ghanta! uske baad rasta chalna mushkil hai. katik ki subah ki dhoop aap bardasht na kar sakiyega. kajri nadi ke kinare tegachhiya ke paas gaDi laga denge. dopahriya katkar. . .
samne se aati hui gaDi ko door se hi dekhkar wo satark ho gaya. leek aur bailon par dhyaan lagakar baith gaya. raah katte hue gaDivan ne puchha, mela toot raha hai kya bhai?
hiraman ne javab diya, wo mele ki baat nahin janta. uski gaDi par bidagi (naihar ya sasural jati hui laDki) hai. na jane kis gaanv ka naam bata diya hiraman ne.
chhattapur pachira kahan hai?
kahin ho, ye lekar aap kya kariyega? hiraman apni chaturai par hansa. parda Daal dene par bhi peeth mein gudgudi lagti hai.
hiraman parde ke chhed se dekhta hai. hirabai ek diyasalai ki Dibbi ke barabar aine mein apne daant dekh rahi hai. . . madanpur mele mein ek baar bailon ko nanhin chitti kauDiyon ki mala di thi hiraman ne—chhoti chhoti, nanhin nanhin kauDiyon ki paant!
tegachhiya ke tinon peD door se hi dikhlai paDte hain. hiraman ne parde ko zara sarkate hue kaha, dekhiye, yahi hai tegachhiya. do peD jatamasi baD hai aur ek. . . us phool ka kya naam hai, aapke kurte par jaisa phool chhapa hua hai, vaisa hee! khoob mahakta hai; do kos door tak gandh jati hai; us phool ko khamira tambaku mein Dalkar pite bhi hain log.
aur us amrai ki aaD se kai makan dikhai paDte hain, vahan koi gaanv hai ya mandir?
hiraman ne biDi sulgane ke pahle puchha, biDi piyen? aapko gandh to nahin lagegi?. . . vahi hai namalgar DyoDhi. jis raja ke mele se hum log aa rahe hain, usi ka diyad gotiya hai. . . ja re zamana!
hiraman ne ja re zamana kah kar baat ko chashni mein Daal diya. hirabai ne tappar ke parde ko tirchhe khons diya!. . . hirabai ki dantpankti.
kaun zamana? thuDDi par haath rakh kar sagrah boli.
namalgar DyoDhi ka zamana! kya tha, aur kya se kya ho gaya!
hiraman gap rasane ka bhed janta hai. hirabai boli, tumne dekha tha wo zamana?
dekha nahin, suna hai. . . raaj kaise gaya, baDi haif vali kahani hai. sunte hain, ghar mein devta ne janm le liya. kahiye bhala, devta akhir devta hai. hai ya nahin? indrasan chhoD kar mirtubhuvan mein janm le le to uska tez kaise samhal sakta hai koi! surajmukhi phool ki tarah mathe ke paas tez khila rahta. lekin nazar ka pher, kisi ne nahin pahchana. ek baar uplain mein laat sahab may latni ke, havagaDi se aaye the. laat ne bhi nahin, pahchana akhir latni ne. surajamukhi tej dekhte hi bol uthi e main raja sahab, suno, ye adami ka bachcha nahin hai, devta hai.
hiraman ne latni ki boli ki naqal utarte samay khoob Daim phait lait kiya. hirabai dil khol kar hansi. . . hanste samay uski sari deh dulakti hai!
hirabai ne apni oDhni theek kar li. tab hiraman ko laga ki. . . laga ki. . .
tab? uske baad kya hua mita?
iss! kattha sunne ka baDa shauk hai apko?. . . lekin, kala adami, raja kya maharaja bhi ho jaye, rahega kala adami hi. saheb ke jaise akkil kahan se pavega! hans kar baat uDa di sabhi ne. tab rani ko baar baar sapna dene laga devta! seva nahin kar sakte to jane do, nahin rahenge tumhare yahan. iske baad devta ka khel shuru hua. sabse pahle donon dantar hathi mare, phir ghoDa, phir pataptang. . . .
pataptang kya hai?
hiraman ka man pal pal mein badal raha hai. man mein satranga chhata dhire dhire khil raha hai, usko lagta hai, uski gaDi par devkul ki aurat savar hai. devta akhir devta hai!
pataptang! dhan daulat, maal mavesi sab saaf. devta indrasan chala gaya.
hirabai ne ojhal hote hue mandir ke kangure ki or dekhkar lambi saans li.
lekin devta ne jate jate kaha, is raaj mein kabhi ek chhoDkar do beta nahin hoga. dhan hum apne saath le ja rahe hain, gun chhoD jate hain. devta ke saath sabhi dev devi chale ge, sirf sarosti maiya rah gai. usi ka mandir hai.
desi ghoDe par paat ke bojh lade hue baniyon ko aate dekhkar hiraman ne tappar ke parde ko gira diya. bailon ko lalkar kar videshiya naach ka vandna geet gane laga—jai maiya sarosti, arji karat bani; hamra par hokhu sahai he maiya, hamra par hokhu sahai!
ghoDladde baniyon se hiraman ne hulaskar puchha, kya bhaav patua kharidte hain mahajan?
javan baniye ne puchha, mele ka kya halachal hai, bhai? kaun nautanki kampni ka khel ho raha hai, rita kampni ya mathura mohan?
mele ka haal melavala jane? hiraman ne phir chhatapur pachira ka naam liya.
suraj do baans uupar aa gaya tha. hiraman apne bailon se baat karne laga—ek kos zamin! zara dam bandhakar chalo. pyaas ki bela ho gai na! yaad hai, us baar tegachhiya ke paas sarkas kampni ke jokar aur bandar nachane vala sahab mein jhagDa ho gaya tha. jokaDva theek bandar ki tarah daant kitakita kar kikriyane laga tha. . . na jane kis kis des muluk ke adami aate hain!
hiraman ne phir parde ke chhed se dekha, hirabai ek kaghaz ke tukDe par ankh gaDa kar baithi hai. hiraman ka man aaj halke sur mein bandha hai. usko tarah tarah ke giton ki yaad aati hai. bees pachchis saal pahle, bideshiya, balvahi, chhokra nachne vale ek se ek ghazal khemta gate the. ab to, bhompa mein bhompu bhompu karke kaun geet gate hain log! ja re zamana! chhokra naach ke geet ki yaad aai hiraman ko—
sajanva bairi ho gaya hamaro! sajanva. . . !
are, chithiya ho to sab koi banche; chithiya ho to. . .
haay! karamva, hoy karamva. . .
koi na banche hamaro, sajanva. . . ho kamarva. . . !
gaDi ki balli par ungliyon se taal dekar geet ko kaat diya hiraman ne. chhokra naach ke manuan natuva ka munh hirabai jaisa hi tha. . . kahan chala gaya wo zamana! har mahine gaanv mein nachne vale aate the. hiraman ne chhokra naach ke chalte apni bhabhi ki na jane kitni boli tholi suni thi. bhai ne ghar se nikal jane ko kaha tha.
aaj hiraman par maan sarasvati sahay hain, lagta hai. hirabai boli, vaah, kitna baDhiya gate ho tum!
hiraman ka munh laal ho gaya. wo sir nicha kar ke hansne laga.
aaj tegachhiya par rahne vale mahavir svami bhi sahay hain hiraman par. tegachhiya ke niche ek bhi gaDi nahin. hamesha gaDi aur gaDivanon ki bheeD lagi rahti hain yahan. sirf ek saikilvala baith kar susta raha hai. mahavir svami ko sumar kar hiraman ne gaDi roki. hirabai parda hatane lagi. hiraman ne pahli baar ankhon se baat ki hirabai se—saikilvala idhar hi takatki lagakar dekh raha hai.
bailon ko kholne ke pahle baans ki tikti lagakar gaDi ko tika diya. phir saikilvale ki or baar baar ghurte hue puchha, kahan jana hai? mela? kahan se aana ho raha hai? bisanpur se? bas, itni hi door mein thasathsa kar thak ge?. . . ja re javani!
saikilvala dubla patla naujavan minmina kar kuch bola aur biDi sulgakar uth khaDa hua. hiraman duniya bhar ki nigah se bacha kar rakhna chahta hai hirabai ko. usne charon or nazar dauDakar dekh liya—kahin koi gaDi ya ghoDa nahin.
kajri nadi ki dubli patli dhara tegachhiya ke paas aakar purab ki or muD gai hai. hirabai pani mein baithi hui bhaison aur unki peeth par baithe hue bagulon ko dekhti rahi.
hiraman bola, jaiye, ghaat par munh haath dho aie!
hirabai gaDi se niche utri. hiraman ka kaleja dhaDak utha. . . nahin, nahin! paanv sidhe hain, teDhe nahin. lekin, taluva itna laal kyon hain? hirabai ghaat ki or chali gai, gaanv ki bahu beti ki tarah sir nicha karke dhire dhire. kaun kahega ki kampni ki aurat hai!. . . aurat nahin, laDki. shayad kumari hi hai.
hiraman tikti par tiki gaDi par baith gaya. usne tappar mein jhaank kar dekha. ek baar idhar udhar dekhkar hirabai ke takiye par haath rakh diya. phir takiye par kehuni Dalkar jhuk gaya, jhukta gaya. khushbu uski deh mein sama gai. takiye ke ghilaf par kaDhe phulon ko ungliyon se chhukar usne sungha, haay re haay! itni sugandh! hiraman ko laga, ek saath paanch chilam ganja phunkakar wo utha hai. hirabai ke chhote aine mein usne apna munh dekha. ankhen uski itni laal kyon hain?
hirabai lautkar aai to usne hansakar kaha, ab aap gaDi ka pahra dijiye, main aata hoon turant.
hiraman ne apna saphri jholi se saheji hui ganji nikali. gamchha jhaDkar kandhe par liya aur haath mein balati latkakar chala. uske bailon ne bari bari se hunk hunk karke kuch kaha. hiraman ne jate jate ulatkar kaha—han,haan, pyaas, sabhi ko lagi hai. lautkar aata hoon to ghaas dunga, badmasi mat karo!
bailon ne kaan hilaye.
nha dhokar kab lauta hiraman, hirabai ko nahin malum. kajri ki dhara ko dekhte dekhte uski ankhon mein raat ki uchti hui neend laut aai thi. hiraman paas ke gaanv se jalpan ke liye dahi chuDa chini le aaya hai.
uthiye, neend toDiye! do mutthi jalpan kar lijiye!
hirabai ankh kholkar achraj mein paD gai—ek haath mein mitti ke ne bartan mein dahi, kele ke patte. dusre haath mein balati bhar pani. ankhon mein atmiytapurn anurodh!
itni chizen kahan se le aye!
is gaanv ka dahi nami hai. . . chaah to pharabisganj jakar hi paiyega.
hiraman ki deh ki gudgudi mit gai. hirabai ne kaha, tum bhi pattal bichhao. . . kyon? tum nahin khaoge to sametkar rakh lo apni jholi mein. main bhi nahin khaungi.
iss! hiraman lajakar bola, achchhi baat! aap pi lijiye pahle!
pahle pichhe kyaa? tum bhi baitho.
hiraman ka ji juDa gaya. hirabai ne apne haath se uska pattal bichha diya, pani chheent diya, chuDa nikalkar diya. iss! dhann hai, dhann hai! hiraman ne dekha, bhagvati maiya bhog laga rahi hai. laal honthon par goras ka paras!. . . pahaDi tote ko doodh bhaat khate dekha hai?
***
din Dhal gaya.
tappar mein soi hirabai aur zamin par dari bichha kar soe hiraman ki neend ek hi saath khuli. . . mele ki or jane vali gaDiyan tegachhiya ke paas ruki hain. bachche kachar pachar kar rahe hain.
hiraman haDabDakar utha. tappar ke andar jhaank kar ishare se kaha—din Dhal gaya! gaDi mein bailon ko jotte samay usne gaDivanon ke savalon ka koi javab nahin diya. gaDi hankte hue bola, sirpur bazar ke isapital ki DakaDarni hain. rogi dekhne ja rahi hain. paas hi kuDmagam.
hirabai chhattapur pachira ka naam bhool gai. gaDi jab kuch door aage baDh aai to usne hansakar puchha, pattapur chhapira?
hanste hanste pet mein bal paD jaye hiraman ke—pattapur chhapira! ha ha. ve log chhattapur pachira ke hi gaDivan the, unse kaise kahta! hi hi hee!
hirabai muskurati hui gaanv ki or dekhne lagi.
saDak tegachhiya gaanv ke beech se nikalti hai. gaanv ke bachchon ne pardevali gaDi dekhi aur taliyan baja bajakar rati hui panktiyan duhrane lage—
lali lali Doliya mein
lali re dulahiniya
paan khaye. . . !
hiraman hansa. . . dulahiniya. . . lali lali Doliya! dulahiniya paan khati hai, dulha ki pagDi mein munh ponchhti hai. o dulahiniya, tegachhiya gaanv ke bachchon ko yaad rakhna. lautti ber guD ka laDDu leti aiyo! laakh baris tera dulha jaye!. . . kitne dinon ka hausla pura hua hai hiraman ka! aise kitne sapne dekhe hain usne!. . . wo apni dulhin ko lekar laut raha hai. har gaanv ke bachche taliyan bajakar ga rahe hain. har angan se jhankakar dekh rahi hain aurten. mard log puchhte hain— kahan ki gaDi hai, kahan jayegi? uski dulhin Doli ka parda thoDa sarkakar dekhti hai. aur bhi kitne sapne. . .
gaanv se bahar nikal kar usne kanakhiyon se tappar ke andar dekha, hirabai kuch soch rahi hai. hiraman bhi kisi soch mein paD gaya. thoDi der ke baad wo gungunane laga—
sajan re jhooth mati bolo, khuda ke paas jana hai.
nahin hathi, nahin ghoDa, nahin gaDi—
vahan paidal hi jana hai. sajan re. . . .
hirabai ne puchha, kyon mita? tumhari apni boli mein koi geet nahin kyaa?
hiraman ab bekhatak hirabai ki ankhon mein ankhen Daal kar baat karta hai. kampni ki aurat bhi aisi hoti hai? sarkas kampni ki malkin mem thi. lekin hirabai! gaanv ki boli mein geet sunna chahti hai. wo khul kar muskuraya—ganv ki boli aap samajhiyega?
hoon uun uun! hirabai ne gardan hilai. kaan ke jhumke hil ge.
hiraman kuch der tak bailon ko hankata raha chupachuchap. phir bola, geet zarur hi suniyega? nahin maniyega? iss! itna sauk gaanv ka geet sunne ka hai apko! tab leek chhoDani hogi. chalu raste mein kaise geet ga sakta hai koi!
hiraman ne bayen bail ki rassi khinchkar dahine ko leek se bahar kiya aur bola, haripur hokar nahin jayenge tab.
chalu leek ko katte dekhkar hiraman ki gaDi ke pichhe vale gaDivan ne chilla kar puchha, kahe ho gaDivan, leek chhoDkar belik kahan udhar?
hiraman ne hava mein duali ghumate hue javab diya—kahan hai beliki? wo saDak nananpur to nahin jayegi. phir apne aap baDabDaya, is muluk ke logon ki yahi aadat buri hai. raah chalte ek sau jirah karenge. are bhai, tum ko jana hai, jao. . . . dehati bhuchch sab!
nananpur ki saDak par gaDi lakar hiraman ne bailon ki rassi Dhili kar di. bailon ne dulki chaal chhoDkar qadamchal pakDi.
hirabai ne dekha, sachmuch nananpur ki saDak baDi suni hai. hiraman uski ankhon ki boli samajhta hai—ghabrane ki baat nahin. ye saDak bhi pharabisganj jayegi, raah ghaat ke log bahut achchhe hain. . . . ek ghaDi raat tak hum log pahunch jayenge.
hirabai ko pharabisganj pahunchne ki jaldi nahin. hiraman par usko itna bharosa ho gaya ki Dar bhay ki koi baat nahin uthti hai man mein. hiraman ne pahle ji bhar muskura liya. kaun geet gaye vah! hirabai ko geet aur katha donon ka shauk hai. . . iss! mahua ghatvarin? wo bola, achchha, jab aapko itna sauk hai to suniye mahua ghatvarin ka geet. ismen geet bhi hai, katha bhi hai.
. . . kitne dinon ke baad bhagvati ne ye hausla bhi pura kar diya. jai bhagvati! aaj hiraman apne man ko khalas kar lega. wo hirabai ki thami hui muskurahat ko dekhta raha.
suniye! aaj bhi parmar nadi mein mahua ghatvarin ke kai purane ghaat hain. isi muluk ki thi mahua! thi to ghatvarin, lekin sau satvanti mein ek thi. uska baap daru taDi pikar din raat behosh paDa rahta. uski sauteli maan sachchhat rakasni! bahut baDi nazar chalak. raat mein ganja daru afim churakar bechne vale se lekar tarah tarah ke logon se uski jaan pahchan thi. sabse ghutta bhar hel mel. mahua kumari thi. lekin kaam karate karate us ki haDDi nikal di thi rakasni ne. javan ho gai, kahin shadi byaah ki baat bhi nahin chalai. ek raat ki baat suniye!
hiraman ne dhire dhire gunguna kar gala saaf kiya—
he a a a savna bhadva ke ra umDal nadiya ge mai yo o o,
maiyo, ge raini bhayavani he e e e; taDka taDke dhaDke karej aa aa
mora ki hamahun je bari nanhi re e e. . . .
o maan! savan bhadon ki umDi hui nadi, bhayavni raat, bijli kaDakti hai, main bari kvari nanhi bachchi, mera kaleja dhaDakta hai. akeli kaise jaun ghaat par? so bhi pardeshi rahi batohi ke pair mein tel te lagane ke liye! sat maan ne apni bajjar kivaDi band kar li. asman mein megh haDahDa uthe aur harahra kar barsa hone lagi. mahua rone lagi, apni maan ko yaad karke. aaj uski maan rahti to aise durdin mein kaleje se satakar rakhti apni mahua beti ko. ge maiya, isi din ke liye, tumne kokh mein rakha tha? mahua apni maan par ghussai—kyon wo akeli mar gai; ji bhar kar kosti hui boli. . .
hiraman ne lakshya kiya, hirabai takiye par kehuni gaDakar, geet mein magan ektak uski or dekh rahi hai. . . khoi hui surat kaisi bholi lagti hai!
hiraman ne gale mein kanpkanpi paida kee—
hoon uun uun re Dainiyan maiyo mai mori ii ii, nonva chatai kahe nahin
marali sauri ghar a a. ehi dinvan khatir chhinro dhiya tenhu
posali ki nenu nududh ugtan. . .
hiraman ne dam lete hue puchha, bhakha bhi samajhti hain kuch, ya khali geet hi sunti hain?
hira boli, sab samajhti hoon. utgan mane ubtan. . . jo deh mein lagate hain.
hiraman ne vismit hokar kaha, iss!. . . so rone dhone se kya hoe! saudagar ne pura daam chuka diya tha mahua ka. baal pakaDkar ghasitta hua naav par chaDha aur manjhi ko hukum diya—nav kholo, paal bandho! palvali naav parvali chiDiya ki tarah uD chali. raat bhar mahua roti chhatpatati rahi! saudagar ke naukron ne bahut Daraya dhamkaya—chup raho, nahin to uthakar pani mein phenk denge. bas, mahua ko baat soojh gai. bhor ka tara megh ki aaD se zara bahar aaya, phir chhip gaya. idhar mahua bhi chhapak se kood paDi pani mein. . . saudagar ka ek naukar mahua ko dekhte hi mohit ho gaya tha. mahua ki peeth par wo bhi kuda. ulti dhara mein tairna khel nahin, so bhi bhari bhadon ki nadi mein. mahua asal ghatvarin ki beti thi. machhli bhi bhala thakti hai pani men! saphri machhli jaisi pharaphrati, pani chirti bhagi chali ja rahi hai. aur uske pichhe saudagar ka naukar pukar pukar kar kahta hai—mahua zara thamo, tum ko pakaDne nahin aa raha, tumhara sathi hoon. zindagi bhar saath rahenge hum log. lekin. . .
hiraman ka bahut priy geet hai ye. mahua ghatvarin gate samay uske samne savan bhadon ki nadi umaDne lagti hai, amavasya ki raat aur ghane badlon mein rah rah kar bijli chamak uthti hai. usi chamak mein lahron se laDti hui bari kumari mahua ki jhalak use mil jati hai. saphri machhli ki chaal aur tez ho jati hai. usko lagta hai, wo khud saudagar ka naukar hai. mahua koi baat nahin sunti. partit karti nahin; ulatkar dekhti bhi nahin. aur wo thak gaya hai, tairte tairte. . .
is baar lagta hai mahua ne apne ko pakDa diya. khud hi pakaD mein aa gai hai. usne mahua ko chhu liya hai, pa liya hai, uski thakan door ho gai hai. pandrah bees saal tak umDi hui nadi ki ulti dhara mein tairte hue uske man ko kinara mil gaya hai. anand ke ansu koi bhi rok nahin mante. . .
usne hirabai se apni gili ankhen churane ki koshish ki. kintu hira to uske man mein baithi na jane kab se sab kuch dekh rahi thi. hiraman ne apni kanpti hui boli ko qabu mein lakar bailon ko jhiDki di—is geet mein na jane kya hai ki sunte hi donon thasathsa jate hain. lagta hai, sau man bojh laad diya kisi ne.
hirabai lambi saans leti hai. hiraman ke ang ang mein umang sama jati hai.
tum to ustaad ho, mita!
iss!
aasin katik ka suraj do baans din rahte hi kumhla jata hai. suraj Dubne se pahle hi nananpur pahunchna hai, hiraman apne bailon ko samjha raha hai—qadam khol kar aur kaleja baandh kar chalo. . . e. . . chhiः chhiः! baDh ke bhaiyan! le le le e he ya!
nananpur tak wo apne bailon ko lalkarta raha. har lalkar ke pahle wo apne bailon ko biti hui baton ki yaad dilata—yad nahin, chaudhari ki beti ki barat mein kitni gaDiyan theen; sabko kaise maat kiya tha! haan, vahi qadam nikalo. le le le! nananpur se pharabisganj teen kos! do ghante aur!
nananpur ke haat par ajkal chaay bhi bikne lagi hai. hiraman apne lote mein chaay bharkar le aaya. . . kampni ki aurat janta hai wo. sara din, ghaDi ghaDi bhar mein, chaay piti rahti hai. chaay hai ya jaan!
hira hanste hanste lot pot ho rahi hai, are, tum se kisne kah diya ki kvare adami ko chaay nahin pini chahiye?
hiraman laja gaya. kya bole vah!. . . laaj ki baat! lekin wo bhog chuka hai ek baar. sarkas kampni ki mem ke haath ki chaay pikar usne dekh liya hai. baDi garm tasir!
pijiye guru jee! hira hansi!
iss!
nananpur haat par hi diya bati jal chuki thi. hiraman ne apna saphri lalten jalakar pichhva mein latka diya. . . ajkal shahr se paanch kos door ke gaanv vale bhi apne ko shahru samajhne lage hain. bina roshni ki gaDi ko pakaD kar chalan kar dete hain. barah bakheDa!
aap mujhe guru ji mat kahiye.
tum mere ustaad ho. hamare shastar mein likha hua hai, ek achchhar sikhane vala bhi guru aur ek raag sikhane vala bhi ustaad!
hira hans kar gungunane lagi—he a a a savna bhadva ke ra. . . ! hiraman achraj ke mare gunga ho gaya—iss! itna tez zehn! hu ba hu mahua ghatvarin!
gaDi sitadhar ki ek sukhi dhara ki utrai par gaDagDa kar niche ki or utri. hirabai ne hiraman ka kandha dhar liya ek haath se. bahut der tak hiraman ke kandhe par uski ungliyan paDi rahin. hiraman ne nazar phira kar kandhe par kendrit karne ki koshish ki, kai baar. gaDi chaDhai par pahunchi to hira ki Dhili ungliyan phir tan gain.
samne pharabisganj shahr ki roshni jhilmila rahi hai. shahr se kuch door hatkar mele ki roshni. . . tappar mein latke lalten ki roshni mein chhaya nachti hai aas paas. —DabDabai ankhon se, har roshni surajmukhi phool ki tarah dikhai paDti hai.
pharabisganj to hiraman ka ghar duar hai!
na jane kitni baar wo pharabisganj aaya hai; mele ki ladni ladi hai. kisi aurat ke saath? haan, ek baar. uski bhabhi jis saal aai thi gaune mein. isi tarah tirpal se gaDi ko charon or se gherkar basa banaya gaya tha. . .
hiraman apni gaDi ko tirpal se gher raha hai, gaDivan patti mein. subah hote hi rita nautanki kampni ke mainejar se baat karke bharti ho jayegi hirabai. parson mela khul raha hai. is baar mele mein palchatti khoob jami hai—bas, ek raat. aaj raat bhar hiraman ki gaDi mein rahegi wo. . . hiraman ki gaDi mein nahin, ghar men!
kahan ki gaDi hai?. . . kaun, hiraman? kis mele se? kis cheez ki ladni hai?
gaanv samaj ke gaDivan, ek dusre ko khojkar, aas paas gaDi lagakar basa Dalte hain. apne gaanv ke lalmohar, dhunniram aur palatdas vaghairah gaDivanon ke dal ko dekhkar hiraman achakcha gaya. udhar palatdas tappar mein jhankakar bhaDka. mano baagh par nazar paD gai. hiraman ne ishare se sabhi ko chup kiya. phir gaDi ki or kankhi maar kar phusaphusaya—chup! kampni ki aurat hai, nautanki kampni ki.
kampni ki ii ii ii?
??. . . ??. . . !
ek nahin, ab chaar hiraman! charon ne achraj se ek dusre ko dekha. . . kampni naam mein kitna asar hai! hiraman ne lakshya kiya, tinon ek saath satak dam ho ge. lalmohar ne zara door hatkar batiyane ki ichchha prakat ki, ishare se hi. hiraman ne tappar ki or munh karke kaha, hotil to nahin khula hoga koi, halvai ke yahan se pakki le aven?
hiraman, zara idhar suno. . . main kuch nahin khaungi abhi. lo, tum kha aao.
kya hai, paisa? iss!. . . paisa dekar hiraman ne kabhi pharabisganj mein kachchi pakki nahin khai. uske gaanv ke itne gaDivan hain, kis din ke liye? wo chhu nahin sakta paisa. usne hirabai se kaha, bekar, mela bazar mein hujjat mat kijiye, paisa rakhiye. mauqa pa kar lalmohar bhi tappar ke qarib aa gaya. usne salam karte hue kaha, chaar adami ke bhaat mein do adami khushi se kha sakte hain. basa par bhaat chaDha hua hai. hen hen hen! hum log ekahi gaanv ke hain. gaunvan giramit ke rahte hotil aur halvai ke yahan khayega hiraman?
hiraman ne lalmohar ka haath teep diya—vesi bhachar bhachar mat bako!
gaDi se chaar rassi door jate jate dhunniram ne apne kulabulate hue dil ki baat khol di—iss! tum bhi khoob ho hiraman! us saal kampni ka baagh, is baar kampni ki janana!
hiraman ne dabi avaz mein kaha, bhai re, ye hum logon ke muluk ki zanana nahin ki latpat boli sunkar bhi chup rah jaye. ek to pachchhim ki aurat, tis par kampni kee!
dhunniram ne apni shanka prakat ki—lekin kampni mein to sunte hain paturiya rahti hain.
dhat! sabhi ne ek saath usko duradura diya, kaisa adami hai! paturiya rahegi kampni mein bhala! dekho iski buddhi!. . . suna hai, dekha to nahin hai kabhi!
dhunniram ne apni ghalati maan li. palatdas ko baat sujhi—hiraman bhai, zanana zaat akeli rahegi gaDi par? kuch bhi ho, zanana akhir zanana hi hai. koi zarurat hi paD jaye!
ye baat sabhi ko achchhi lagi. hiraman ne kaha, baat theek hai. palat, tum laut jao, gaDi ke paas hi rahna. aur dekho, gapshap zara hoshiyari se karna, haan!
. . . hiraman ki deh se atar gulab ki khushbu nikalti hai. hiraman karam saanD hai. us baar mahinon tak uski deh se badhain gandh nahin gai. lalmohar ne hiraman ki gamchhi soongh li—e ha!
hiraman bola, nahin jee! ek raat nautanki dekhkar zindagi bhar boli tholi kaun sune!. . . desi murghi, vilayati chaal!
dhunniram ne puchha, phokat mein dekhne par bhi tumhari bhaujai baat sunayegi?
lalmohar ke basa ke baghal mein, ek lakDi ki dukan ladkar aaye hue gaDivanon ka basa hai. basa ke meer gaDivan miyanjan buDhe ne safri guDguDi pite hue puchha, kyon bhai, mina bazar ki ladni ladkar kaun aaya hai?
minabazar! minabazar to paturiya patti ko kahte hain. . . kya bolta hai ye buDha miyan? lalmohar ne hiraman ke kaan mein phusphusa kar kaha, tumhari deh mahmah mahakti hai. sach!
lahasanvan lalmohar ka naukar gaDivan hai. umr mein sabse chhota hai. pahli baar aaya hai to kyaa? babu babuanon ke yahan bachpan se naukari kar chuka hai. wo rah rah kar vatavran mein kuch sunghta hai, naak sikoDkar. hiraman ne dekha, lahasanvan ka chehra tamtama gaya hai. . . kaun aa raha hai dhaDadhData hua? kaun, palatdas? kya hai?
palatdas aakar khaDa ho gaya chupachuchap. uska munh bhi tamtamaya hua tha. hiraman ne puchha, kya hua? bolte kyon nahin?
kya javab de palatdas! hiraman ne usko chetavni de di thi, gapshap hoshiyari se karna. wo chupachuchap gaDi ki asani par jakar baith gaya, hiraman ki jagah par. hirabai ne puchha, tum bhi hiraman ke saath ho? palatdas ne gardan hilakar hami bhari. hirabai phir let gai. . . chehra mohra aur boli bani dekh sunkar, palatdas ka kaleja kanpne laga, na jane kyon. haan! ramlila mein siya sukumari isi tarah thaki leti hui thi. jai! siyavar ramchandr ki jai!. . . palatdas ke man mein jai jaikar hone laga. wo daas vaisnav hai, kirtaniya hai. thaki hui sita maharani ke charan tipne ki ichchha prakat ki usne, haath ki ungliyon ke ishare se, mano harmoniyam ki patariyon par nacha raha ho. hirabai tamakkar baith gai, are, pagal hai kyaa? jao, bhago!. . .
palatdas ko laga, ghussai hui kampni ki aurat ki ankhon se chingari nikal rahi hai—chhatak chhatak! wo bhaga. . . !
palatdas kya javab de! wo mela se bhi bhagne ka upaay soch raha hai. bola, kuchh nahin. hamko vyapari mil gaya. abhi hi tishan jakar maal ladna hai. bhaat mein to abhi der hai. main laut aata hoon tab tak.
khate samay dhunniram aur lahasanvan ne palatdas ki tokari bhar ninda ki. . . chhota adami hai. kamina hai. paise paise ka hisab joDta hai. khane pine ke baad lalmohar ke dal ne apna basa toD diya. dhunni aur lahasanvan gaDi jot kar hiraman ke basa par chale, gaDi ki leek dharkar. hiraman ne chalte chalte ruk kar, lalmohar se kaha, zara mere is kandhe ko sungho to. sunghakar dekho na?
lalmohar ne kandha sunghakar ankhe moond leen. munh se asphut shabd nikla, e—ha!
hiraman ne kaha, zara sa haath rakhne par itni khushbu!. . . samjhe!
lalmohar ne hiraman ka haath pakaD liya—kandhe par haath rakha tha, sach?. . . suno hiraman, nautanki dekhne ka aisa mauqa phir kabhi haath nahin lagega. haan!
tum bhi dekhoge?
lalmohar ki battisi chaurahe ki roshni mein, jhilmila uthi.
basa par pahunchakar hiraman ne dekha, tappar ke paas khaDa batiya raha hai koi, hirabai se. dhunni aur lahasanvan ne ek hi saath kaha, kahan rah ge pichhe? bahut der se khoj rahi hai kampni. . .
hiraman ne tappar ke paas jakar dekha. are, ye to vahi baksa Dhonevala naukar, jo champangar mele mein hirabai ko gaDi par bithakar andhere mein ghayab ho gaya tha.
a ge hiraman! achchhi baat, idhar aao. . . ye lo apna bhaDa aur ye lo apni dachchhina. pachchis pachchis, pachas.
hiraman ko laga, kisi ne asman se dhakelkar dharti par gira diya. kisi ne kyon, is baksa Dhonevale adami ne. kahan se aa gaya? uski jeebh par aai hui baat jeebh par hi rah gai. . . iss! dachchhina! wo chupchap khaDa raha.
lalmohar ne kaha, ilam baksis de rahi hai malkin, le lo hiraman! hiraman ne katkar lalmohar ki or dekha. . . bolne ka zara bhi Dhang nahin is lalmohra ko.
dhunniram ki svgatokti sabhi ne suni, hirabai ne bhi, gaDi bail chhoDkar nautanki kaise dekh sakta hai koi gaDivan, mele men!
hiraman ne rupya lete hue kaha, kya bolenge! usne hansne ki cheshta ki. kampni ki. . . aurat kampni mein ja rahi hai. hiraman ka kyaa! baksa Dhonevala rasta dikhata hua aage baDha, idhar se. hirabai jate jate ruk gai. hiraman ke bailon ko sambodhit karke boli, achchha, main chali bhaiyan.
bailon ne, bhaiya shabd par kaan hilaye.
—??. . . ??. . . xx. . . !
***
bha i yo, aaj raat! di rauta sangit kampni ke stej par! gulabdan dekhiye, gulabdan! aapko ye jankar khushi hogi ki mathuramohan kampni ki mashhur ektres mis hiradevi, jiski ek ek ada par hazar jaan fida hain, is baar hamari kampni mein aa gai hain. yaad rakhiye. aaj ki raat. mis hiradevi gulabdan. . . !
nautankivalon ke is elaan se mele ki har patti mein sargarmi phail rahi hai. . . hirabai? mis hiradevi? laila, gulabdan. . . ? philim ektres ko maat karti hai. . . teri banki ada par main khud hoon fida, teri chahat ko dilbar bayan kya karun! yahi khvahish hai ki i i i tu mujh ko dekha kare, aur dilojan main tum ko dekha karun. . . kirr rra rra rra. . . kaDaDaDaDDarr rra ghan ghan dhaDam.
har adami ka dil nagaDa ho gaya hai.
lalmohar dauDta hanfata basa par aaya, ai, ai hiraman, yahan kya baithe ho, chalkar dekho kaisa jai jaikakar ho raha hai! may baja gaja, chhapi phahram ke saath hirabai ki jai jai kar raha hoon.
hiraman haDabDakar utha. lahasanvan ne kaha, dhunni kaka, tum basa par raho, main bhi dekh auun.
dhunni ki baat kaun sunta hai! tinon jan nautanki kampni ki elaniya parti ke pichhe pichhe chalne lage. har nukkaD par rukkar, baja band kar ke elaan kiya jana hai. elaan ke har shabd par hiraman pulak uthta hai. hirabai ka naam, naam ke saath ada phida vaghairah sunkar usne lalmohar ki peeth thapthapa di, dhann hai, dhann! hai ya nahin?
lalmohar ne kaha, ab bolo! ab bhi nautanki nahin dekhoge?
subah se hi dhunniram aur lalmohar samjha rahe the’ samjhakar haar chuke the. kampni mein jakar bhent kar aao. jate jate pursis kar gai hai. lekin hiraman ki bas ek bat—dhatt, kaun bhent karne jaye! kampni ki aurat, kampni mein gai. ab usse kya lena dena! chinhegi bhi nahin!
wo man hi man rutha hua tha. elaan sunne ke baad usne lalmohar se kaha, “zarur dekhana chahiye, kyon lalmohar?”
donon aapas mein salah karke rauta kampni ki or chale. kheme ke paas pahunchakar hiraman ne lalmohar ko ishara kiya, puchhatachh karne ka bhaar lalmohar ke sir. lalmohar kachrahi bolna janta hai. lalmohar ne ek kale kotvale se kaha, “babu saheb, zara suniye to!”
kale kotvale ne naak bhaun chaDhakar kaha, “kya hai? idhar kyon?”
lalmohar ki kachrahi boli gaDbaDa gai. tevar dekhkar bola, “gulgul…nahin nahin. . . bul bul. . . nahin…”
hiraman ne jhat se samhal diya, “hiradevi kidhar rahti hai, bata sakte hain?”
us adami ki ankhen hathat laal ho gain. samne khaDe nepali sipahi ko pukarkar kaha, “in logon ko kyon aane diya idhar?”
“hiraman!” vahi phenugilasi avaz kidhar se ai? kheme ke parde ko hatakar hirabai ne bulaya, “yahan aa jao, andar. . . dekho bahadur! isko pahchan lo. ye mera hiraman hai. samjhe!”
nepali darban hiraman ki or dekhkar zara muskuraya aur chala gaya, kale kotvale se jakar kaha, “hirabai ka adami hai. nahin rokne bola!”
lalmohar paan le aaya nepali darban ke liye, “khaya jaye!”
“iss! ek nahin, paanch paas. charon athaniya! boli, ki jab tak mele mein hi roz raat mein aakar dekhana. sabka khayal rakhti hai! boli ki tumhare aur sathi hain, sabhi ke liye paas le jao. kampni ki aurton ki baat nirali hoti hai! hai ya nahin?”
lalmohar ne laal kaghaz ke tukDon ko chhukar dekha, “pa sa! vaah re hiraman bhai!. . . lekin paanch paas lekar kya hoga? palatdas to phir palatkar aaya hi nahin hai abhi tak. ”
hiraman ne kaha, “jane do abhage ko. taqdir mein likha nahin. . . haan, pahle guru qasam khani hogi sabhi ko, ki gaanv ghar mein ye baat ek panchhi bhi na jaan pae. ”
lalmohar ne uttejit hokar kaha, “kaun sala bolega, gaanv mein jakar? palta ne agar badmashi ki to dusri baar se phir saath nahin launga. ”
hiraman ne apni thaili aaj hirabai ke zimme rakh di hai. mele ka kya thikana! qism qism ke pakitkat log har saal aate hain. apne sathi sangiyon ka bhi kya bharosa! hirabai maan gai. hiraman ki kapDe ki kali thaili ko usne apne chamDe ke baks mein band kar diya. bakse ke uupar bhi kapDe ka khol aur andar bhi jhalmal reshmi astar! man ka maan abhiman door ho gaya.
lalmohar aur dhunniram ne milkar hiraman ki buddhi ki tarif kee; uske bhagya ko saraha baar baar. uske bhai aur bhabhi ki ninda ki, dabi zaban se. hiraman ke jaisa hira bhai mila hai, isiliye! koi dusra bhai hota to. . .
lahasanvan ka munh latka hua hai. elaan sunte sunte na jane kahan chala gaya ki ghaDi bhar saanjh hone ke baad lauta hai. lalmohar ne ek malikana jhiDki di hai, gali ke saath, “sohda kahin ka!”
dhunniram ne chulhe par khichDi chaDhate hue kaha, “pahle ye faisla kar lo ki gaDi ke paas kaun rahega!”
“rahega kaun, ye lahasanvan kahan jayega?”
lahasanvan ro paDa, “he e e malik, haath joDte hain. ekko jhalak! bas, ek jhalak!”
hiraman ne udaratapurvak kaha, “achchha achchha, ek jhalak kyon, ek ghanta dekhana. main aa main jaunga. ”
nautanki shuru hone ke do ghante pahle hi nagaDa bajna shuru ho jata hai, aur nagaDa shuru hote hi log patang ki tarah tutne lagte hain. tikatghar ke paas bheeD dekhkar hiraman ko baDi hansi aai, “lalmohar, udhar dekh, kaisi dhakmdhukki kar rahe hain log!”
“hiraman bhaay!”
“kaun, palatdas! kahan ki ladni laad aye?” lalmohar ne paraye gaanv ke adami ki tarah puchha.
palatdas ne haath malte hue mafi mangi, “qasurbar hain; jo saza do tum log, sab manzur hai. lekin sachchi baat kahen ki siya sukumari. . . ”
hiraman ke man ka purin nagaDe ke taal par viksit ho chuka hai. bola, “dekho palta, ye mat samajhna ki gaanv ghar ki zanana hai. dekho, tumhare liye bhi paas diya hai; paas le lo apna, tamasha dekho. ”
lalmohar ne kaha, “lekin ek shart par paas milega. beech beech mein lahasanvan ko bhi. . . ”
palatdas ko kuch batane ki zarurat nahin. wo lahasanvan se batachit kar aaya hai abhi.
lalmohar ne dusri shart samne rakhi, “gaanv mein agar ye baat malum hui kisi tarah. . . ”
“raam raam!” daant se jeebh ko katte hue kaha palatdas ne.
palatdas ne bataya “athaniya phatak idhar hai!” phatak par khaDe darban ne haath se paas lekar unke chehre ko bari bari se dekha, bola, “yah to paas hai. kahan se mila?”
ab lalmohar ki kachrahi boli sune koi! uske tevar dekhkar darban ghabra gaya, “milega kahan se? apni kampni se poochh lijiye jakar! chaar hi nahin, dekhiye ek aur hai. ” jeb se panchva paas nikalkar dikhaya lalmohar ne.
ek rupyavale phatak par nepali darban khaDa tha. hiraman ne pukarkar kaha, “e sipahi daju, subah ko hi pahachanva diya aur abhi bhool ge?”
nepali darban bola, “hirabai ka adami hai sab. jane do. paas hain to phir kahe ko rokta hai?”
athaniya darja!
tinon ne kapaDghar ko andar se pahli baar dekha. samne kursi benchvale darjen hain. parde par raam van gaman ki tasvir hai. palatdas pahchan gaya. usne haath joDkar namaskar kiya, parde par ankit ramasiya sukumari aur lakhanalla ko. jai ho, jai ho! palatdas ki ankhen bhar ain.
hiraman ne kaha, “lalmohar, chhapi sabhi khaDe hain ya chal rahe hain?”
lalmohar apne baghal mein baithe darshkon se jaan pahchan kar chuka hai. usne kaha, “khela abhi parda ke bhitar hai. abhi jarbhin ka de raha hai log zamane ke liye. ”
palatdas Dholak bajana janta hai, isliye nagaDe ke taal par gardan hilata hai aur diyasalai par taal katta hai. biDi adan pradan karke hiraman ne bhi ekaadh jaan pahchan kar li. lalmohar ke parichit adami ne chadar se deh Dhakte hue kaha, “naach shuru hone mein abhi der hai, tab tak ek neend le len. . . sab darja se achchha athaniya darja. sabse pichhe sabse uunchi jagah par; zamin par garam pual! he he! kursi bench par baithkar is sardi ke mausam mein tamasha dekhne vale abhi ghuch ghuch kar uthenge chaah pine. ”
us adami ne apne sangi se kaha, “khela shuru hone par jaga dena! nahin nahin, khela shuru hone par nahin, hiriya jab stej par utre, hamko jaga dena. ”
hiraman ke kaleje mein zara anch lagi. . . hiriya! baDa latapatiya adami malum paDta hai. usne lalmohar ko ankhon ke ishare se kaha—is adami se batiyane ki zarurat nahin.
. . . ghan ghan ghan dhaDam! parda uth gaya. he e, he e, hirabai shuru mein hi utar gai stej par! kapaDghar khachakhach bhar gaya hai. hiraman ka munh achraj mein khul gaya! lalmohar ko na jane kyon aisi hansi aa rahi hai. hirabai ke geet ke har pad par wo hansta hai, bevajah.
gulabdan darbar lagakar baithi hai. elaan kar rahi hai—jo adami takht hazara banakar la dega, munhmangi cheez inaam mein di jayegi. . . aji, hai koi aisa fankar, to ho jaye taiyar, bana kar laye takht hazara aa! kiDkiD kirri…! albatt nachti hai! kya gala hai! malum hai, ye adami kahta hai ki hirabai paan biDi, sigret zarda kuch nahin khati!. . . theek kahta hai, baDi nemvali ranDi hai. —kaun kahta hai ki ranDi hai! daant mein missi kahan hai? pauDar se daant dho leti hogi. hargiz nahin!. . . kaun adami hai, baat ki bebat karta hai! kampni ki aurat ko paturiya kahta hai! tumko baat kyon lagi? kaun hai ranDi ka bhaDva? maro sale ko! maro! teri. . .
ho halle ke beech, hiraman ki avaz kapaDghar ko phaaD rahi hai, “ao, ek ek ki gardan utaar lenge. ”
lalmohar dulali se patapat pitta ja raha hai samne ke logon ko. palatdas ek adami ki chhati par savar hai, “sala, siya sukumari ko gali deta hai, so bhi musalman hokar?”
dhunniram shuru se hi chup tha. marapit shuru hote hi wo kapaDghar se nikal kar bahar bhaga.
kale kotvale nautanki ke mainejar nepali sipahi ke saath dauDe aaye. darogha sahab ne hantar se peet paat shuru ki. hantar khakar lalmohar tilmila utha, kachrahi boli mein bhashan dene laga, “darogha sahab, marte hain, mariye. koi harz nahin. lekin ye paas dekh lijiye, ek paas pakit mein bhi hain. dekh sakte hain, huzur. tikat nahin, paas!. . . tab hum logon ke samne kampni ki aurat ko koi buri baat kare to kaise chhoD denge?”
kampni ke mainejar ki samajh mein aa gai sari baat. usne darogha ko samjhaya—“huzur, main samajh gaya. ye sari badmashi mathuramohan kampnivalon ki hai. tamashe mein jhagDa khaDa karke kampni ko badnam. . . nahin huzur, in logon ko chhoD dijiye, hirabai ke adami hain. bechari ki jaan khatre mein hain. huzur se kaha tha na!”
hirabai ka naam sunte hi darogha ne tinon ko chhoD diya. lekin tinon ki duali chheen li gai. mainejar ne tinon ko ek rupevale darje mein kursi par bithaya “aap log yahin baithiye. paan bhijva deta hoon. ” kapaDghar shaant hua aur hirabai stej par laut aai.
nagaDa phir ghanaghna utha.
thoDi der baad tinon ko ek hi saath dhunniram ka khayal hua, “are, dhunniram kahan gaya?”
“malik, o malik!” lahasanvan kapaDghar se bahar chillakar pukar raha hai, “o lalmohar ma li ka. . . !”
lalmohar ne taar svar mein javab diya, “idhar se, idhar se! ekatakiya phatak se. ” sabhi darshkon ne lalmohar ki or muDkar dekha. lahasanvan ko nepali sipahi lalmohar ke paas le aaya. lalmohar ne jeb se paas nikalkar dikha diya. lahasanvan ne aate hi puchha, “malik, kaun adami kya bol raha tha, boliye to zara. chehra dikhla dijiye; uski ek jhalak!”
logon ne lahasanvan ki chauDi aur sapat chhati dekhi. jaDe ke mausam mein bhi khala deh!. . . chele chati ke saath hain ye log!
lalmohar ne lahasanvan ko shaant kiya.
. . . tinon charon se mat puchhe koi nautanki mein kya dekha. qissa kaise yaad rahe! hiraman ko lagta tha, hirabai shuru se hi usi ki or takatki lagakar dekh rahi hai, ga rahi hai, naach rahi hai. lalmohar ko lagta tha, hirabai usi ki or dekhti hai; wo samajh gai hai, hiraman se bhi zyada pavarvala adami hai lalmohar! palatdas qissa samajhta hai. . . qissa aur kya hoga, ramain ki hi baat. vahi raam, vahi sita, vahi lakhanlal aur vahi ravan! siya sukumari ko raam ji se chhinne ke liye ravan tarah tarah ka roop dhar kar aata hai. raam aur sita bhi roop badal lete hain. yahan bhi takht hazara bananevala mali ka beta raam hai. gulabdan miya sukumari hai. mali ke laDke ka dost lakhanalla hai aur sultan hai ravan. dhunniram ko bukhar hai tez. lahasanvan ko sabse achchha jokar ka paart laga hai. . . chiraiya tonhke leke na, jaivai narhat ke bajariya! wo us jokar se dosti lagana chahta hai. . . nahin lagavega dosti, jokar sahab?
hiraman ko ek geet ki aadhi kaDi haath lagi hai—mare ge gulafam! kaun tha ye gulafam? hirabai roti hui ga rahi thi—aji haan, mare ge gulafam! tiDiDiDi!. . . bechara gulafam!
tinon ko duali vapas dete hue pulis ke sipahi ne kaha, “lathi duali lekar naach dekhne aate ho?”
dusre din mele bhar mein ye baat phail gai—mathura mohan kampni se bhagkar aai hai hirabai, isliye is baar mathuramohan kampni nahin aai hain, uske gunDe aaye hain. hirabai bhi kam nahin. baDi khelaD aurat hai. terah terah dehati lathait paal rahi hai. . . ‘vaah, meri jaan’ bhi kahe to koi! majal hai!
das din. din raat. . .
din bhar bhaDa Dhota hiraman. shaam hote hi nautanki ka nagaDa bajne lagta. nagaDa ki avaz sunte hi hirabai ki pukar kanon ke paas manDrane lagti—bhaiya. . . mita. . . hiraman. . . ustaad guru jee! hamesha koi na koi baja uske man ke kone mein bajta rahta, din bhar—kabhi harmoniyam, kabhi nagaDa, kabhi Dholak aur kabhi hirabai ki paijani. unhin sazon ki gat par hiraman uthta baithta, chalta phirta. nautanki kampni ke mainejar se lekar parda khinchnevale tak usko pahchante hain. . . hirabai ka adami hai!
palatdas har raat nautanki shuru hone ke samay shraddhapurvak stej ko namaskar karta, haath joDkar. lalmohar, ek din apni kachrahi boli sunane gaya tha hirabai ko. hirabai ne pahchana hi nahin. tab se uska dil chhota ho gaya hai. uska naukar lahasanvan uske haath se nikal gaya hai, nautanki kampni mein bharti ho gaya hai. jokar se uski dosti ho gai hai. din bhar pani bharta hai, kapDe dhota hai. kahta hai, gaanv mein kya hai jo jayenge! lalmohar udaas rahta hai. dhunniram ghar chala gaya hai, bimar hokar.
hiraman aaj subah se teen baar ladni laad kar steshan aa chuka hai. aaj na jane kyon usko apni bhaujai ki yaad aa rahi hai. . . dhunniram ne kuch kah to nahin diya hai, bukhar ki jhonk men! yahin kitna atar patar bak raha tha—gulabdan, takht hazara! lahasanvan mauj mein hai. din bhar hirabai ko dekhta hoga. kal kah raha tha, hiraman malik, tumhare akbal se khoob mauj mein hoon. hirabai ki saDi dhone ke baad kathaute ka pani attaragulab ho jata hai. usmen apni gamchhi Dubakar chhoD deta hoon. lo, sunghoge?. . . har raat, kisi na kisi ke munh se sunta hai vah—hirabai ranDi hai. kitne logon se laDe vah! bina dekhe hi log kaise koi baat bolte hain! raja ko bhi log peeth pichhe gali dete hain!. . . aaj wo hirabai se milkar kahega, nautanki kampni mein rahne se bahut badnam karte hain log. sarkas kampni mein kyon nahin kaam kartin?. . . sabke samne nachti hai, hiraman ka kaleja dap dap jalta rahta hai us samay. sarkas kampni mein baagh ko nachayegi. . . uske paas jane ki himmat kaun karega! surakshit rahegi hirabai!. . . kidhar ki gaDi aa rahi hai?
“hiraman, e hiraman bhaay!” lalmohar ki boli sunkar hiraman ne gardan moDkar dekha. . . kya ladkar laya hai lalmohar?
“tumko DhoonDh rahi hai hirabai, ishtishan par. ja rahi hai. ” ek hi saans mein suna gaya. lalmohar ki gaDi par hi aai hai mele se.
“ja rahi hai? kahan? hirabai relgaDi se ja rahi hai?”
hiraman ne gaDi khol di. maal godam ke chaukidar se kaha, “bhaiya, zara gaDi bail dekhte rahiye; aa rahe hain. ”
“ustad!” zanana musafirkhane ke phatak ke paas hirabai oDhni se munh haath Dhankakar khaDi thi. thaili baDhati hui boli, “lo! he bhagvan! bhent ho gai, chalo, main to ummid kho chuki thi. tum se ab bhent nahin ho sakegi!. . . main ja rahi hoon guru jee!”
baksa Dhonevala adami aaj kot patlun pahankar babu sahab ban gaya hai. malikon ki tarah kuliyon ko hukam de raha hai, “zanana darja mein chaDhana. achchha!”
hiraman haath mein thaili lekar chupchap khaDa raha. kurte ke andar se thaili nikalkar di hai hirabai ne. . . chiDiya ki deh ki tarah garm hai thaili!
“gaDi aa rahi hai. ” baksa Dhonevale ne munh banate hue hirabai ki or dekha. uske chehre ka bhaav aspasht hai—itna zyada kya hai. . . ?
hirabai chanchal ho gai. boli, “hiraman, idhar aao, andar. main phir laut kar ja rahi hoon mathuramohan kampni mein. apne desh ki kampni hai. . . vanaili mela aoge na?”
hirabai ne hiraman ke kandhe par haath rakha—is baar dahine kandhe par. phir apni thaili se rupe nikalte hue boli, “ek garam chadar kharid lena. ”
hiraman ki boli phuti, itni der ke baad, “iss! hardam rupya paisa! rakhiye rupaiya! kya karenge chadar?”
hirabai ka haath ruk gaya. usne hiraman ke chehre ko ghaur se dekha. phir boli, “tumhara ji bahut chhota ho gaya hai. kyon mota?. . . mahua ghatvarin ko saudagar ne kharid jo liya hai, guru jee!”
gala bhar aaya hirabai ka. baksa Dhonevale ne bahar se avaz di, “gaDi aa gai. ” hiraman kamre se bahar nikal aaya. baksa Dhonevale ne nautanki ke jokar jaisa munh banakar kaha, “latpharam se bahar bhago. bina tikat ke pakDega to teen mahine ki hava. . . ”
hiraman chupchap phatak se bahar jakar khaDa ho gaya. . . . tishan ki baat, relve ka raaj! nahin to is baksa Dhonevale ka munh sidha kar deta hiraman.
hirabai theek samne vali kothari mein chaDhi. iss? itna taan! gaDi mein baithkar bhi hiraman ki or dekh rahi hai, tukur tukur…lalmohan ko dekhkar ji jal uthta hai, hamesha pichhe pichhe; hardam hissadari sujhti hai…
gaDi ne siti di. hiraman ko laga, uske andar se koi avaz nikal kar siti ke saath uupar ki or chali gai—ku uu u! i ssa!
. . . chhi ii ii chhakk! gaDi hili. hiraman ne apne dahine pair ke anguthe ko bayen pair ki eDi se kuchal liya. kaleje ki dhaDkan theek ho gai. . . hirabai haath ki baingni safi se chehra ponchhti hai. safi hilakar ishara karti hai—ab jao. akhiri Dibba guzra; pletfarm khali…sab khali. . . khokhle. . . malgaDi ke Dibbe…! duniya hi khali ho gai mano! hiraman apni gaDi ke paas laut aaya.
hiraman ne lalmohar se puchha, “tum kab tak laut rahe ho gaanv?”
lalmohar bola, “abhi gaanv jakar kya karenge? yahan to bhaDa kamane ka mauqa hai! hirabai chali gai, mela ab tutega. ”
“achchhi baat. koi samad dena hai ghar?”
lalmohar ne hiraman ko samjhane ki koshish ki, lekin hiraman ne apni gaDi gaanv ki or janevali saDak ki or moD di…ab mele mein kya dhara hai! khokhla mela!
relve lain ki baghal se bailgaDi ki kachchi saDak gai hai door tak. hiraman kabhi rel par nahin chaDha hai. uske man mein phir purani lalsa jhanki—relgaDi par savar hokar, geet gate hue jagarnath dhaam jane ki lalsa. . . ulatkar apne khali tappar ki or dekhne ki himmat nahin hoti hai. peeth mein aaj bhi gudgudi lagti hai. aaj bhi rah rahkar champa ka phool khil uthta hai, uski gaDi mein. ek geet ki tuti kaDi par nagaDe ka taal kat jata hai, baar baar!. . .
usne ulatkar dekha, bore bhi nahin, baans bhi nahin, baagh bhi nahin. . . pari. . . devi. . . mita. . . hiradevi. . . mahua ghatvarin—ko ii nahin. mare hue muharton ki gungi avazen mukhar hona chahti hai. hiraman ke honth hil rahe hain. shayad wo tisri qasam kha raha hai—kampni ki aurat ki ladni. . .
hiraman ne hathat apne donon bailon ko jhiDki di, duali se marte hue bola—relve lain ki or ulat ulatkar kya dekhte ho? donon bailon ne qadam kholkar chaal pakDi. hiraman gungunane laga—aji haan, mare ge gulafam. . . !
hiraman gaDivan ki peeth mein gudgudi lagti hai. . .
pichhle bees saal se gaDi hankata hai hiraman. bailgaDi. sima ke us paar morangraj nepal se dhaan aur lakDi Dho chuka hai. kantrol ke zamane mein chorbazari ka maal is paar se us paar pahunchaya hai. lekin kabhi to aisi gudgudi nahin lagi peeth men!. . .
kantrol ka zamana! hiraman kabhi bhool sakta hai us zamane ko! ek baar chaar khep siment aur kapDe ki ganthon se bhari gaDi, jogabni mein viratangar pahunchne ke baad hiraman ka kaleja pukhta ho gaya tha. pharabisganj ka har chor vyapari usko pakka gaDivan manata. uske bailon ki baDai baDi gaddi ke baDe seth ji khud karte, apni bhasha men…
gaDi pakDi gai panchavin baar, sima ke is paar tarai mein.
mahajan ka munim usi ki gaDi par ganthon ke beech chukki mukki lagakar chhipa hua tha. darogha sahab ki DeDh haath lambi chorabatti ki roshni kitni tez hoti hai, hiraman janta hai. ek ghante ke liye adami andha ho jata hai, ek chhatak bhi paD jaye ankhon par! roshni ke saath kaDakti hui avaz—ai ya! gaDi roko! sale, goli maar denge…!
bison gaDiyan ek saath kachakchakar ruk gain. hiraman ne pahle hi kaha tha—yah bees vishavega! darogha sahab uski gaDi mein dubke hue munim ji par roshni Dalkar pishachi hansi hanse, “ha ha ha! munDimji ii ii ii! hi hi hee!. . . ai ya, sala gaDivan, munh kya dekhta hai re e e! kambal hatao is bore ke munh par se! haath ki chhoti lathi se munim ji ke pet mein khoncha marte hue kaha tha, is bore ko! a ssala!. . .
bahut purani akhaj adavat hogi darogha sahab aur munim ji mein. nahin to utna rupya qabulne par bhi pulis darogha ka man na Dole bhala! chaar hazar to gaDi par baitha baitha hi de raha tha. lathi se dusri baar khoncha mara darogha ne. paanch hazar! phir khoncha—utro pahle.
munim ko gaDi se niche utarkar darogha ne uski ankhon par roshni Daal di. phir do sipahiyon ke saath saDak se bees pachchis rassi door jhaDi ke paas le ge. gaDivan aur gaDiyon par paanch paanch banduq vale sipahiyon ka pahra!. . . hiraman samajh gaya, is baar nistar nahin. . . jel? hiraman ko jel ka Dar nahin. lekin uske bail? na jane kitne dinon tak bina chara pani ke sarkari phatak mein paDe rahenge—bhukhe pyase. phir nilam ho jayenge. bhaiya aur bhauji ko wo munh nahin dikha sakega kabhi. . . nilam ki boli uske kanon ke paas goonj gai—ek do teen!. . . darogha aur munim mein baat pat nahin rahi thi shayad.
hiraman ki gaDi ke paas tainat sipahi ne apni bhasha mein dusre sipahi se dhimi avaz mein puchha, ka ho? mamla gol hokhi ka? phir khaini tambaku dene ke bahane us sipahi ke paas chala gaya.
ek do teen! teen chaar gaDiyon ki aaD. hiraman ne faisla kar liya. usne dhire se apne bailon ke gale ki rassiyan khol leen; gaDi par baithe baithe donon ko juDvan baandh diya. bail samajh ge unhen kya karna hai. hiraman utra, juti hui gaDi mein baans ki tikti lagakar bailon ke kandhon ko belag kiya. donon ke kanon ke paas gudgudi laga di aur man hi man bola, chalo bhaiyan, jaan bachegi to aisi aisi saggaD gaDi bahut milegi. . . ek do teen! nau do gyarah!. . .
gaDiyon ki aaD mein saDak ke kinare door tak ghani jhaDi phaili hui thi. dam sadhkar tinon praniyon ne jhaDi ko paar kiya—bekhatak, be ahat! phir ek le, do le. . . dulki chaal! donon bail sina taan kar phir tarai ke ghane janglon mein ghus ge. raah sunghte, nadi nala paar karte hue bhage poonchh uthakar. pichhe pichhe hiraman. raat bhar bhagte rahe the tinon jan. . .
ghar pahunchakar do din tak besudh paDa raha hiraman. hosh mein aate hi usne kaan pakaD kar qasam khai thi—ab kabhi aisi chizon ki ladni nahin ladenge. chorbazari ka maal? toba, toba!. . . pata nahin munim ji ka kya hua! bhagvan jane uski saggaD gaDi ka kya hua! asli ispaat lohe ki dhuri thi. donon pahiye to nahin, ek pahiya ekdam naya tha. gaDi mein rangin Doriyon ke phundane baDe jatan se gunthe ge the.
do qasmen khai hain usne—ek chorbazari ka maal nahin ladenge; dusri, baans. apne har bhaDedar se wo pahle hi poochh leta hai—chori chamarivali cheez to nahin? aur, baans? baans ladne ke liye pachas rupe bhi de koi, hiraman ki gaDi nahin milegi. dusre ki gaDi dekhe. . .
baans ladi hui gaDi! gaDi se chaar haath aage baans ka agua nikla rahta hai aur pichhe ki or chaar haath pichhua! qabu ke bahar rahti hai gaDi hamesha. so beqabu vali ladni aur kharaihiya. shaharvali baat! tis par baans ka agua pakaDkar chalne vala bhaDedar ka mahabhakua naukar, laDki skool ki or dekhne laga. bas, moD par ghoDagaDi se takkar ho gai. jab tak hiraman bailon ki rassi khinche, tab tak ghoDagaDi ki chhatri baans ke agua mein phans gai. ghoDa gaDivale ne taDataD chabuk marte hue gali di thee!. . .
baans ki ladni hi nahin, hiraman ne kharaihiya shahr ki ladni bhi chhoD di. aur jab pharabisganj se morang ka bhaDa Dhona shuru kiya to gaDi hi paar!. . . kai varshon tak hiraman ne bailon ko adhidari par jota. aadha bhaDa gaDivale ka aur aadha bailvale ka. hiss! gaDivani karo muft! adhidari ki kamai se bailon ke hi pet nahin bharte. pichhle saal hi usne apni gaDi banvai hai.
devi maiya bhala karen us sarkas kampni ke baagh ka! pichhle saal isi mele mein baghgaDi ko Dhone vale donon ghoDe mar ge. champangar se pharabisganj mela aane ke samay sarkas kampni ke mainejar ne gaDivan patti mein ailan karke kaha—sau rupya bhaDa milega. ek do gaDivan razi hue. lekin unke bail baghgaDi se das haath door hi Dar se Dikarne lage—ban aan! rassi tuDakar bhage. hiraman ne apne bailon ki peeth sahlate hue kaha—dekho bhaiyan, aisa mauqa phir haath na ayega. yahi mauqa hai apni gaDi banvane ka, nahin to phir adhidari. . . are, pinjDe mein band baagh ka kya Dar? morang ki tarai mein dahaDte hui baghon ko dekh chuke ho. phir peeth par main to hoon. . .
gaDivanon ke dal mein taliyan patapta uthin theen ek saath. sabhi ki laaj rakh li hiraman ke bailon ne; humak kar aage baDh ge aur baghgaDi mein jut ge—ek ek karke. sirf dahine bail ne jutne ke baad Dher sa peshab kiya. hiraman ne do din tak naak se kapDe ki patti nahin kholi thi. baDi gaddi ke baDe seth ji ki tarah nakbandhan lagaye bina baghain gandh bardasht nahin kar sakta koi.
baghgaDi ki gaDivani ki hai hiraman ne. kabhi aisi gudgudi nahin lagi peeth mein. aaj rah rah kar uski gaDi mein champa ka phool mahak uthta hai. peeth mein gudgudi lagne par wo angochhe se peeth jhaaD leta hai.
hiraman ko lagta hai, do varsh se champangar mele ki bhagvati maiya us par prasann hain. pichhle saal baghgaDi jut gai. nagad ek sau rupe bhaDe ke alava butad, chaah biskut; aur raste bhar bandar bhalu aur jokar ka tamasha dekha so phokat men!
aur, is baar ye janani savari. aurat hai ya champa ka phool! jab se gaDi mah mah mahak rahi hai.
kachchi saDak ke ek chhote se khaDD mein gaDi ka dahina pahiya be mauqe hichkola kha gaya. hiraman ki gaDi se ek halki sis ki avaz aai. hiraman ne dahine bail ko duali se pitte hue kaha, sala! kya samajhta hai, bore ki ladni hai kyaa?
aha! maro mat!
andekhi aurat ki avaz ne hiraman ko achraj mein Daal diya. bachchon ki boli jaisi mahin, phenugilasi boli!
***
mathura mohan nautanki kampni mein laila bannevali hirabai ka naam kisne nahin suna hoga bhala! lekin hiraman ki baat nirali hai. usne saat saal tak lagatar melon ki ladni ladi hai, kabhi nautanki thiyetar ya baiskop sinema nahin dekha. laila ya hirabai ka naam bhi usne nahin suna kabhi; dekhne ki kya baat! so mela tutne ke pandrah din pahle aadhi raat ki bela mein kali oDhni mein lipti aurat ko dekhkar uske man mein khatka avashya laga tha. baksa Dhone vale naukar se gaDi bhaDa mein mol molai karne ki koshish ki to oDhni vali ne sir hilakar mana kar diya. hiraman ne gaDi jotte hue naukar se puchha, kyon bhaiya, koi chori chamari ka maal vaal to nahin? hiraman ko phir achraj hua. baksa Dhonevale adami ne haath ke ishare se gaDi hankne ko kaha aur andhere mein ghayab ho gaya. hiraman ko mele mein tambaku bechne vali buDhi ki kali saDi ki yaad aai thi. . .
aise mein koi kya gaDi hanke!
ek to peeth mein gudgudi lag rahi hai, dusre rah rah kar champa ka phool khil jata hai uski gaDi mein. bailon ko Danto to is bis karne lagti hai uski savari. . . uski savari! aurat akeli, tambaku bechne vali buDhi nahin! avaz sunne ke baad wo baar baar muDkar tappar mein ek nazar Daal deta hai; angochhe se peeth jhaDta hai. . . bhagvan jane kya likha hai is baar uski qismat men! gaDi jab purab ki or muDi, ek tukDa chandni uski gaDi mein sama gaya. savari ki naak par ek jugnu jagmaga utha. hiraman ko sabkuchh rahasyamay—ajgut ajgut—lag raha hai. samne champangar se sindhiya gaanv tak phaila hua maidan!. . . kahin Dakin pishachin to nahin?
hiraman ki savari ne karvat li. chandni pure mukhDe par paDi to hiraman chikhte chikhte ruk gaya—are baap! ii to pari hai!
pari ki ankhen khul gain. hiraman ne samne saDak ki or munh kar liya aur bailon ko titkari di. wo jeebh ko talu se sata kar ti ti ti ti avaz nikalta hai. hiraman ki jeebh na jane kab se sukhkar lakDi jaisi ho gai thee!
bhaiya, tumhara naam kya hai?
hu ba hu phenugilas!. . . hiraman ke rom rom baj uthe. munh se boli nahin nikli. uske donon bail bhi kaan khaDe karke is boli ko parakhte hain.
tab to mita kahungi, bhaiya nahin. . . mera naam bhi hira hai.
iss! hiraman ko partit nahin, mard aur aurat ke naam mein farq hota hai.
haan ji, mera naam bhi hirabai hai.
kahan hiraman aur kahan hirabai! bahut farq hai!
hiraman ne apne bailon ko jhiDki di, kaan chuniya kar gap sunne se hi tees kos manzil kategi kyaa? is bayen nate ke pet mein shaitani bhari hai. hiraman ne bayen bail ko duali ki halki jhaDap di.
maro mat; dhire dhire chalne do. jaldi kya hai!
hiraman ke samne saval upasthit hua, wo kya kahkar gap kare hirabai se? tohe kahe ya ahan? uski bhasha mein baDon ko ahan arthat aap kahkar sambodhit kiya jata hai, kachrahi boli mein do chaar saval javab chal sakta hai; dil khol gap to gaanv ki boli mein hi ki ja sakti hai kisi se.
aasin katik ke bhor mein chha jane vale kuhase se hiraman ko purani chiDh hai. bahut baar wo saDak bhulkar bhatak chuka hai. kintu aaj ke bhor ke is ghane kuhase mein bhi wo magan hai. nadi ke kinare dhan kheton se phule hue dhaan ke paudhon ki pavaniya gandh aati hai. parv pavan ke din gaanv mein aisi hi sugandh phaili rahti hai. uski gaDi mein phir champa ka phool khila. us phool mein ek pari baithi hai. . . jai bhagvati.
hiraman ne ankh ki kanakhiyon se dekha, uski savari. . . mita. . . hirabai ki ankhen gujur gujur usko her rahi hain. hiraman ke man mein koi ajani ragini baj uthi. sari deh sirasira rahi hai. bola, bail ko marte hain to aapko bahut bura lagta hai?
***
hirabai ne parakh liya, hiraman sachmuch hira hai.
chalis saal ka hatta katta, kala kaluta, dehati naujavan apni gaDi aur apne bailon ke sivay duniya ki kisi aur baat mein vishesh dilchaspi nahin leta. ghar mein baDa bhai hai, kheti karta hai. baal bachche vala adami hai. hiraman bhai se baDh kar bhabhi ki izzat karta hai. bhabhi se Darta bhi hai. hiraman ki bhi shadi hui thi, bachpan mein hi. gaune ke pahle hi dulhin mar gai. hiraman ko apni dulhin ka chehra yaad nahin. . . dusri shadi? dusri shadi na karne ke anek karan hain. bhabhi ki zid, kumari laDki se hi hiraman ki shadi karvayegi. kumari ka matlab hua paanch saat saal ki laDki. kaun manata hai sardha qanun? koi laDkivala dobyahu ko apni laDki gharaz mein paDne par hi de sakta hai. bhabhi uski teen satt karke baithi hai, so baithi hai. bhabhi ke aage bhaiya ki bhi nahin chalti!. . . ab hiraman ne tay kar liya hai, shadi nahin karega. kaun balay mol lene jaye! byaah karke phir gaDivani kya karega koi! aur sab kuch chhoot jaye, gaDivani nahin chhoD sakta hiraman.
hirabai ne hiraman ke jaisa nishchhal adami bahut kam dekha hai. puchha, apka ghar kaun jilla mein paDta hai? kanpur naam sunte hi jo uski hansi chhuti, to bail bhaDak uthe. hiraman hanste samay sir nicha kar leta hai. hansi band hone par usne kaha, vaah re kanpur! tab to nakpur bhi hoga? aur jab hirabai ne kaha ki nakpur bhi hai, to wo hanste hanste duhra ho gaya.
vaah re duniya! kya kya naam hota hai! kanpur, nakpur! hiraman ne hirabai ke kaan ke phool ko ghaur se dekha. naak ki nakachhavi ke nag dekhkar sihar utha—lahu ki boond!
hiraman ne hirabii ka naam nahin suna kabhi. nautanki kampni ki aurat ko wo baiji nahin samajhta hai. . . kampni mein kaam karne vali aurton ko wo dekh chuka hai. sarkas kampni ki malkin, apni donon javan betiyon ke saath baghgaDi ke paas aati thi, baagh ko chara pani deti thi, pyaar bhi karti thi khoob. hiraman ke bailon ko bhi Dabalroti biskut khilaya tha baDi beti ne.
hiraman hoshiyar hai. kuhasa chhantate hi apni chadar se tappar mein parda kar diya, bas do ghanta! uske baad rasta chalna mushkil hai. katik ki subah ki dhoop aap bardasht na kar sakiyega. kajri nadi ke kinare tegachhiya ke paas gaDi laga denge. dopahriya katkar. . .
samne se aati hui gaDi ko door se hi dekhkar wo satark ho gaya. leek aur bailon par dhyaan lagakar baith gaya. raah katte hue gaDivan ne puchha, mela toot raha hai kya bhai?
hiraman ne javab diya, wo mele ki baat nahin janta. uski gaDi par bidagi (naihar ya sasural jati hui laDki) hai. na jane kis gaanv ka naam bata diya hiraman ne.
chhattapur pachira kahan hai?
kahin ho, ye lekar aap kya kariyega? hiraman apni chaturai par hansa. parda Daal dene par bhi peeth mein gudgudi lagti hai.
hiraman parde ke chhed se dekhta hai. hirabai ek diyasalai ki Dibbi ke barabar aine mein apne daant dekh rahi hai. . . madanpur mele mein ek baar bailon ko nanhin chitti kauDiyon ki mala di thi hiraman ne—chhoti chhoti, nanhin nanhin kauDiyon ki paant!
tegachhiya ke tinon peD door se hi dikhlai paDte hain. hiraman ne parde ko zara sarkate hue kaha, dekhiye, yahi hai tegachhiya. do peD jatamasi baD hai aur ek. . . us phool ka kya naam hai, aapke kurte par jaisa phool chhapa hua hai, vaisa hee! khoob mahakta hai; do kos door tak gandh jati hai; us phool ko khamira tambaku mein Dalkar pite bhi hain log.
aur us amrai ki aaD se kai makan dikhai paDte hain, vahan koi gaanv hai ya mandir?
hiraman ne biDi sulgane ke pahle puchha, biDi piyen? aapko gandh to nahin lagegi?. . . vahi hai namalgar DyoDhi. jis raja ke mele se hum log aa rahe hain, usi ka diyad gotiya hai. . . ja re zamana!
hiraman ne ja re zamana kah kar baat ko chashni mein Daal diya. hirabai ne tappar ke parde ko tirchhe khons diya!. . . hirabai ki dantpankti.
kaun zamana? thuDDi par haath rakh kar sagrah boli.
namalgar DyoDhi ka zamana! kya tha, aur kya se kya ho gaya!
hiraman gap rasane ka bhed janta hai. hirabai boli, tumne dekha tha wo zamana?
dekha nahin, suna hai. . . raaj kaise gaya, baDi haif vali kahani hai. sunte hain, ghar mein devta ne janm le liya. kahiye bhala, devta akhir devta hai. hai ya nahin? indrasan chhoD kar mirtubhuvan mein janm le le to uska tez kaise samhal sakta hai koi! surajmukhi phool ki tarah mathe ke paas tez khila rahta. lekin nazar ka pher, kisi ne nahin pahchana. ek baar uplain mein laat sahab may latni ke, havagaDi se aaye the. laat ne bhi nahin, pahchana akhir latni ne. surajamukhi tej dekhte hi bol uthi e main raja sahab, suno, ye adami ka bachcha nahin hai, devta hai.
hiraman ne latni ki boli ki naqal utarte samay khoob Daim phait lait kiya. hirabai dil khol kar hansi. . . hanste samay uski sari deh dulakti hai!
hirabai ne apni oDhni theek kar li. tab hiraman ko laga ki. . . laga ki. . .
tab? uske baad kya hua mita?
iss! kattha sunne ka baDa shauk hai apko?. . . lekin, kala adami, raja kya maharaja bhi ho jaye, rahega kala adami hi. saheb ke jaise akkil kahan se pavega! hans kar baat uDa di sabhi ne. tab rani ko baar baar sapna dene laga devta! seva nahin kar sakte to jane do, nahin rahenge tumhare yahan. iske baad devta ka khel shuru hua. sabse pahle donon dantar hathi mare, phir ghoDa, phir pataptang. . . .
pataptang kya hai?
hiraman ka man pal pal mein badal raha hai. man mein satranga chhata dhire dhire khil raha hai, usko lagta hai, uski gaDi par devkul ki aurat savar hai. devta akhir devta hai!
pataptang! dhan daulat, maal mavesi sab saaf. devta indrasan chala gaya.
hirabai ne ojhal hote hue mandir ke kangure ki or dekhkar lambi saans li.
lekin devta ne jate jate kaha, is raaj mein kabhi ek chhoDkar do beta nahin hoga. dhan hum apne saath le ja rahe hain, gun chhoD jate hain. devta ke saath sabhi dev devi chale ge, sirf sarosti maiya rah gai. usi ka mandir hai.
desi ghoDe par paat ke bojh lade hue baniyon ko aate dekhkar hiraman ne tappar ke parde ko gira diya. bailon ko lalkar kar videshiya naach ka vandna geet gane laga—jai maiya sarosti, arji karat bani; hamra par hokhu sahai he maiya, hamra par hokhu sahai!
ghoDladde baniyon se hiraman ne hulaskar puchha, kya bhaav patua kharidte hain mahajan?
javan baniye ne puchha, mele ka kya halachal hai, bhai? kaun nautanki kampni ka khel ho raha hai, rita kampni ya mathura mohan?
mele ka haal melavala jane? hiraman ne phir chhatapur pachira ka naam liya.
suraj do baans uupar aa gaya tha. hiraman apne bailon se baat karne laga—ek kos zamin! zara dam bandhakar chalo. pyaas ki bela ho gai na! yaad hai, us baar tegachhiya ke paas sarkas kampni ke jokar aur bandar nachane vala sahab mein jhagDa ho gaya tha. jokaDva theek bandar ki tarah daant kitakita kar kikriyane laga tha. . . na jane kis kis des muluk ke adami aate hain!
hiraman ne phir parde ke chhed se dekha, hirabai ek kaghaz ke tukDe par ankh gaDa kar baithi hai. hiraman ka man aaj halke sur mein bandha hai. usko tarah tarah ke giton ki yaad aati hai. bees pachchis saal pahle, bideshiya, balvahi, chhokra nachne vale ek se ek ghazal khemta gate the. ab to, bhompa mein bhompu bhompu karke kaun geet gate hain log! ja re zamana! chhokra naach ke geet ki yaad aai hiraman ko—
sajanva bairi ho gaya hamaro! sajanva. . . !
are, chithiya ho to sab koi banche; chithiya ho to. . .
haay! karamva, hoy karamva. . .
koi na banche hamaro, sajanva. . . ho kamarva. . . !
gaDi ki balli par ungliyon se taal dekar geet ko kaat diya hiraman ne. chhokra naach ke manuan natuva ka munh hirabai jaisa hi tha. . . kahan chala gaya wo zamana! har mahine gaanv mein nachne vale aate the. hiraman ne chhokra naach ke chalte apni bhabhi ki na jane kitni boli tholi suni thi. bhai ne ghar se nikal jane ko kaha tha.
aaj hiraman par maan sarasvati sahay hain, lagta hai. hirabai boli, vaah, kitna baDhiya gate ho tum!
hiraman ka munh laal ho gaya. wo sir nicha kar ke hansne laga.
aaj tegachhiya par rahne vale mahavir svami bhi sahay hain hiraman par. tegachhiya ke niche ek bhi gaDi nahin. hamesha gaDi aur gaDivanon ki bheeD lagi rahti hain yahan. sirf ek saikilvala baith kar susta raha hai. mahavir svami ko sumar kar hiraman ne gaDi roki. hirabai parda hatane lagi. hiraman ne pahli baar ankhon se baat ki hirabai se—saikilvala idhar hi takatki lagakar dekh raha hai.
bailon ko kholne ke pahle baans ki tikti lagakar gaDi ko tika diya. phir saikilvale ki or baar baar ghurte hue puchha, kahan jana hai? mela? kahan se aana ho raha hai? bisanpur se? bas, itni hi door mein thasathsa kar thak ge?. . . ja re javani!
saikilvala dubla patla naujavan minmina kar kuch bola aur biDi sulgakar uth khaDa hua. hiraman duniya bhar ki nigah se bacha kar rakhna chahta hai hirabai ko. usne charon or nazar dauDakar dekh liya—kahin koi gaDi ya ghoDa nahin.
kajri nadi ki dubli patli dhara tegachhiya ke paas aakar purab ki or muD gai hai. hirabai pani mein baithi hui bhaison aur unki peeth par baithe hue bagulon ko dekhti rahi.
hiraman bola, jaiye, ghaat par munh haath dho aie!
hirabai gaDi se niche utri. hiraman ka kaleja dhaDak utha. . . nahin, nahin! paanv sidhe hain, teDhe nahin. lekin, taluva itna laal kyon hain? hirabai ghaat ki or chali gai, gaanv ki bahu beti ki tarah sir nicha karke dhire dhire. kaun kahega ki kampni ki aurat hai!. . . aurat nahin, laDki. shayad kumari hi hai.
hiraman tikti par tiki gaDi par baith gaya. usne tappar mein jhaank kar dekha. ek baar idhar udhar dekhkar hirabai ke takiye par haath rakh diya. phir takiye par kehuni Dalkar jhuk gaya, jhukta gaya. khushbu uski deh mein sama gai. takiye ke ghilaf par kaDhe phulon ko ungliyon se chhukar usne sungha, haay re haay! itni sugandh! hiraman ko laga, ek saath paanch chilam ganja phunkakar wo utha hai. hirabai ke chhote aine mein usne apna munh dekha. ankhen uski itni laal kyon hain?
hirabai lautkar aai to usne hansakar kaha, ab aap gaDi ka pahra dijiye, main aata hoon turant.
hiraman ne apna saphri jholi se saheji hui ganji nikali. gamchha jhaDkar kandhe par liya aur haath mein balati latkakar chala. uske bailon ne bari bari se hunk hunk karke kuch kaha. hiraman ne jate jate ulatkar kaha—han,haan, pyaas, sabhi ko lagi hai. lautkar aata hoon to ghaas dunga, badmasi mat karo!
bailon ne kaan hilaye.
nha dhokar kab lauta hiraman, hirabai ko nahin malum. kajri ki dhara ko dekhte dekhte uski ankhon mein raat ki uchti hui neend laut aai thi. hiraman paas ke gaanv se jalpan ke liye dahi chuDa chini le aaya hai.
uthiye, neend toDiye! do mutthi jalpan kar lijiye!
hirabai ankh kholkar achraj mein paD gai—ek haath mein mitti ke ne bartan mein dahi, kele ke patte. dusre haath mein balati bhar pani. ankhon mein atmiytapurn anurodh!
itni chizen kahan se le aye!
is gaanv ka dahi nami hai. . . chaah to pharabisganj jakar hi paiyega.
hiraman ki deh ki gudgudi mit gai. hirabai ne kaha, tum bhi pattal bichhao. . . kyon? tum nahin khaoge to sametkar rakh lo apni jholi mein. main bhi nahin khaungi.
iss! hiraman lajakar bola, achchhi baat! aap pi lijiye pahle!
pahle pichhe kyaa? tum bhi baitho.
hiraman ka ji juDa gaya. hirabai ne apne haath se uska pattal bichha diya, pani chheent diya, chuDa nikalkar diya. iss! dhann hai, dhann hai! hiraman ne dekha, bhagvati maiya bhog laga rahi hai. laal honthon par goras ka paras!. . . pahaDi tote ko doodh bhaat khate dekha hai?
***
din Dhal gaya.
tappar mein soi hirabai aur zamin par dari bichha kar soe hiraman ki neend ek hi saath khuli. . . mele ki or jane vali gaDiyan tegachhiya ke paas ruki hain. bachche kachar pachar kar rahe hain.
hiraman haDabDakar utha. tappar ke andar jhaank kar ishare se kaha—din Dhal gaya! gaDi mein bailon ko jotte samay usne gaDivanon ke savalon ka koi javab nahin diya. gaDi hankte hue bola, sirpur bazar ke isapital ki DakaDarni hain. rogi dekhne ja rahi hain. paas hi kuDmagam.
hirabai chhattapur pachira ka naam bhool gai. gaDi jab kuch door aage baDh aai to usne hansakar puchha, pattapur chhapira?
hanste hanste pet mein bal paD jaye hiraman ke—pattapur chhapira! ha ha. ve log chhattapur pachira ke hi gaDivan the, unse kaise kahta! hi hi hee!
hirabai muskurati hui gaanv ki or dekhne lagi.
saDak tegachhiya gaanv ke beech se nikalti hai. gaanv ke bachchon ne pardevali gaDi dekhi aur taliyan baja bajakar rati hui panktiyan duhrane lage—
lali lali Doliya mein
lali re dulahiniya
paan khaye. . . !
hiraman hansa. . . dulahiniya. . . lali lali Doliya! dulahiniya paan khati hai, dulha ki pagDi mein munh ponchhti hai. o dulahiniya, tegachhiya gaanv ke bachchon ko yaad rakhna. lautti ber guD ka laDDu leti aiyo! laakh baris tera dulha jaye!. . . kitne dinon ka hausla pura hua hai hiraman ka! aise kitne sapne dekhe hain usne!. . . wo apni dulhin ko lekar laut raha hai. har gaanv ke bachche taliyan bajakar ga rahe hain. har angan se jhankakar dekh rahi hain aurten. mard log puchhte hain— kahan ki gaDi hai, kahan jayegi? uski dulhin Doli ka parda thoDa sarkakar dekhti hai. aur bhi kitne sapne. . .
gaanv se bahar nikal kar usne kanakhiyon se tappar ke andar dekha, hirabai kuch soch rahi hai. hiraman bhi kisi soch mein paD gaya. thoDi der ke baad wo gungunane laga—
sajan re jhooth mati bolo, khuda ke paas jana hai.
nahin hathi, nahin ghoDa, nahin gaDi—
vahan paidal hi jana hai. sajan re. . . .
hirabai ne puchha, kyon mita? tumhari apni boli mein koi geet nahin kyaa?
hiraman ab bekhatak hirabai ki ankhon mein ankhen Daal kar baat karta hai. kampni ki aurat bhi aisi hoti hai? sarkas kampni ki malkin mem thi. lekin hirabai! gaanv ki boli mein geet sunna chahti hai. wo khul kar muskuraya—ganv ki boli aap samajhiyega?
hoon uun uun! hirabai ne gardan hilai. kaan ke jhumke hil ge.
hiraman kuch der tak bailon ko hankata raha chupachuchap. phir bola, geet zarur hi suniyega? nahin maniyega? iss! itna sauk gaanv ka geet sunne ka hai apko! tab leek chhoDani hogi. chalu raste mein kaise geet ga sakta hai koi!
hiraman ne bayen bail ki rassi khinchkar dahine ko leek se bahar kiya aur bola, haripur hokar nahin jayenge tab.
chalu leek ko katte dekhkar hiraman ki gaDi ke pichhe vale gaDivan ne chilla kar puchha, kahe ho gaDivan, leek chhoDkar belik kahan udhar?
hiraman ne hava mein duali ghumate hue javab diya—kahan hai beliki? wo saDak nananpur to nahin jayegi. phir apne aap baDabDaya, is muluk ke logon ki yahi aadat buri hai. raah chalte ek sau jirah karenge. are bhai, tum ko jana hai, jao. . . . dehati bhuchch sab!
nananpur ki saDak par gaDi lakar hiraman ne bailon ki rassi Dhili kar di. bailon ne dulki chaal chhoDkar qadamchal pakDi.
hirabai ne dekha, sachmuch nananpur ki saDak baDi suni hai. hiraman uski ankhon ki boli samajhta hai—ghabrane ki baat nahin. ye saDak bhi pharabisganj jayegi, raah ghaat ke log bahut achchhe hain. . . . ek ghaDi raat tak hum log pahunch jayenge.
hirabai ko pharabisganj pahunchne ki jaldi nahin. hiraman par usko itna bharosa ho gaya ki Dar bhay ki koi baat nahin uthti hai man mein. hiraman ne pahle ji bhar muskura liya. kaun geet gaye vah! hirabai ko geet aur katha donon ka shauk hai. . . iss! mahua ghatvarin? wo bola, achchha, jab aapko itna sauk hai to suniye mahua ghatvarin ka geet. ismen geet bhi hai, katha bhi hai.
. . . kitne dinon ke baad bhagvati ne ye hausla bhi pura kar diya. jai bhagvati! aaj hiraman apne man ko khalas kar lega. wo hirabai ki thami hui muskurahat ko dekhta raha.
suniye! aaj bhi parmar nadi mein mahua ghatvarin ke kai purane ghaat hain. isi muluk ki thi mahua! thi to ghatvarin, lekin sau satvanti mein ek thi. uska baap daru taDi pikar din raat behosh paDa rahta. uski sauteli maan sachchhat rakasni! bahut baDi nazar chalak. raat mein ganja daru afim churakar bechne vale se lekar tarah tarah ke logon se uski jaan pahchan thi. sabse ghutta bhar hel mel. mahua kumari thi. lekin kaam karate karate us ki haDDi nikal di thi rakasni ne. javan ho gai, kahin shadi byaah ki baat bhi nahin chalai. ek raat ki baat suniye!
hiraman ne dhire dhire gunguna kar gala saaf kiya—
he a a a savna bhadva ke ra umDal nadiya ge mai yo o o,
maiyo, ge raini bhayavani he e e e; taDka taDke dhaDke karej aa aa
mora ki hamahun je bari nanhi re e e. . . .
o maan! savan bhadon ki umDi hui nadi, bhayavni raat, bijli kaDakti hai, main bari kvari nanhi bachchi, mera kaleja dhaDakta hai. akeli kaise jaun ghaat par? so bhi pardeshi rahi batohi ke pair mein tel te lagane ke liye! sat maan ne apni bajjar kivaDi band kar li. asman mein megh haDahDa uthe aur harahra kar barsa hone lagi. mahua rone lagi, apni maan ko yaad karke. aaj uski maan rahti to aise durdin mein kaleje se satakar rakhti apni mahua beti ko. ge maiya, isi din ke liye, tumne kokh mein rakha tha? mahua apni maan par ghussai—kyon wo akeli mar gai; ji bhar kar kosti hui boli. . .
hiraman ne lakshya kiya, hirabai takiye par kehuni gaDakar, geet mein magan ektak uski or dekh rahi hai. . . khoi hui surat kaisi bholi lagti hai!
hiraman ne gale mein kanpkanpi paida kee—
hoon uun uun re Dainiyan maiyo mai mori ii ii, nonva chatai kahe nahin
marali sauri ghar a a. ehi dinvan khatir chhinro dhiya tenhu
posali ki nenu nududh ugtan. . .
hiraman ne dam lete hue puchha, bhakha bhi samajhti hain kuch, ya khali geet hi sunti hain?
hira boli, sab samajhti hoon. utgan mane ubtan. . . jo deh mein lagate hain.
hiraman ne vismit hokar kaha, iss!. . . so rone dhone se kya hoe! saudagar ne pura daam chuka diya tha mahua ka. baal pakaDkar ghasitta hua naav par chaDha aur manjhi ko hukum diya—nav kholo, paal bandho! palvali naav parvali chiDiya ki tarah uD chali. raat bhar mahua roti chhatpatati rahi! saudagar ke naukron ne bahut Daraya dhamkaya—chup raho, nahin to uthakar pani mein phenk denge. bas, mahua ko baat soojh gai. bhor ka tara megh ki aaD se zara bahar aaya, phir chhip gaya. idhar mahua bhi chhapak se kood paDi pani mein. . . saudagar ka ek naukar mahua ko dekhte hi mohit ho gaya tha. mahua ki peeth par wo bhi kuda. ulti dhara mein tairna khel nahin, so bhi bhari bhadon ki nadi mein. mahua asal ghatvarin ki beti thi. machhli bhi bhala thakti hai pani men! saphri machhli jaisi pharaphrati, pani chirti bhagi chali ja rahi hai. aur uske pichhe saudagar ka naukar pukar pukar kar kahta hai—mahua zara thamo, tum ko pakaDne nahin aa raha, tumhara sathi hoon. zindagi bhar saath rahenge hum log. lekin. . .
hiraman ka bahut priy geet hai ye. mahua ghatvarin gate samay uske samne savan bhadon ki nadi umaDne lagti hai, amavasya ki raat aur ghane badlon mein rah rah kar bijli chamak uthti hai. usi chamak mein lahron se laDti hui bari kumari mahua ki jhalak use mil jati hai. saphri machhli ki chaal aur tez ho jati hai. usko lagta hai, wo khud saudagar ka naukar hai. mahua koi baat nahin sunti. partit karti nahin; ulatkar dekhti bhi nahin. aur wo thak gaya hai, tairte tairte. . .
is baar lagta hai mahua ne apne ko pakDa diya. khud hi pakaD mein aa gai hai. usne mahua ko chhu liya hai, pa liya hai, uski thakan door ho gai hai. pandrah bees saal tak umDi hui nadi ki ulti dhara mein tairte hue uske man ko kinara mil gaya hai. anand ke ansu koi bhi rok nahin mante. . .
usne hirabai se apni gili ankhen churane ki koshish ki. kintu hira to uske man mein baithi na jane kab se sab kuch dekh rahi thi. hiraman ne apni kanpti hui boli ko qabu mein lakar bailon ko jhiDki di—is geet mein na jane kya hai ki sunte hi donon thasathsa jate hain. lagta hai, sau man bojh laad diya kisi ne.
hirabai lambi saans leti hai. hiraman ke ang ang mein umang sama jati hai.
tum to ustaad ho, mita!
iss!
aasin katik ka suraj do baans din rahte hi kumhla jata hai. suraj Dubne se pahle hi nananpur pahunchna hai, hiraman apne bailon ko samjha raha hai—qadam khol kar aur kaleja baandh kar chalo. . . e. . . chhiः chhiः! baDh ke bhaiyan! le le le e he ya!
nananpur tak wo apne bailon ko lalkarta raha. har lalkar ke pahle wo apne bailon ko biti hui baton ki yaad dilata—yad nahin, chaudhari ki beti ki barat mein kitni gaDiyan theen; sabko kaise maat kiya tha! haan, vahi qadam nikalo. le le le! nananpur se pharabisganj teen kos! do ghante aur!
nananpur ke haat par ajkal chaay bhi bikne lagi hai. hiraman apne lote mein chaay bharkar le aaya. . . kampni ki aurat janta hai wo. sara din, ghaDi ghaDi bhar mein, chaay piti rahti hai. chaay hai ya jaan!
hira hanste hanste lot pot ho rahi hai, are, tum se kisne kah diya ki kvare adami ko chaay nahin pini chahiye?
hiraman laja gaya. kya bole vah!. . . laaj ki baat! lekin wo bhog chuka hai ek baar. sarkas kampni ki mem ke haath ki chaay pikar usne dekh liya hai. baDi garm tasir!
pijiye guru jee! hira hansi!
iss!
nananpur haat par hi diya bati jal chuki thi. hiraman ne apna saphri lalten jalakar pichhva mein latka diya. . . ajkal shahr se paanch kos door ke gaanv vale bhi apne ko shahru samajhne lage hain. bina roshni ki gaDi ko pakaD kar chalan kar dete hain. barah bakheDa!
aap mujhe guru ji mat kahiye.
tum mere ustaad ho. hamare shastar mein likha hua hai, ek achchhar sikhane vala bhi guru aur ek raag sikhane vala bhi ustaad!
hira hans kar gungunane lagi—he a a a savna bhadva ke ra. . . ! hiraman achraj ke mare gunga ho gaya—iss! itna tez zehn! hu ba hu mahua ghatvarin!
gaDi sitadhar ki ek sukhi dhara ki utrai par gaDagDa kar niche ki or utri. hirabai ne hiraman ka kandha dhar liya ek haath se. bahut der tak hiraman ke kandhe par uski ungliyan paDi rahin. hiraman ne nazar phira kar kandhe par kendrit karne ki koshish ki, kai baar. gaDi chaDhai par pahunchi to hira ki Dhili ungliyan phir tan gain.
samne pharabisganj shahr ki roshni jhilmila rahi hai. shahr se kuch door hatkar mele ki roshni. . . tappar mein latke lalten ki roshni mein chhaya nachti hai aas paas. —DabDabai ankhon se, har roshni surajmukhi phool ki tarah dikhai paDti hai.
pharabisganj to hiraman ka ghar duar hai!
na jane kitni baar wo pharabisganj aaya hai; mele ki ladni ladi hai. kisi aurat ke saath? haan, ek baar. uski bhabhi jis saal aai thi gaune mein. isi tarah tirpal se gaDi ko charon or se gherkar basa banaya gaya tha. . .
hiraman apni gaDi ko tirpal se gher raha hai, gaDivan patti mein. subah hote hi rita nautanki kampni ke mainejar se baat karke bharti ho jayegi hirabai. parson mela khul raha hai. is baar mele mein palchatti khoob jami hai—bas, ek raat. aaj raat bhar hiraman ki gaDi mein rahegi wo. . . hiraman ki gaDi mein nahin, ghar men!
kahan ki gaDi hai?. . . kaun, hiraman? kis mele se? kis cheez ki ladni hai?
gaanv samaj ke gaDivan, ek dusre ko khojkar, aas paas gaDi lagakar basa Dalte hain. apne gaanv ke lalmohar, dhunniram aur palatdas vaghairah gaDivanon ke dal ko dekhkar hiraman achakcha gaya. udhar palatdas tappar mein jhankakar bhaDka. mano baagh par nazar paD gai. hiraman ne ishare se sabhi ko chup kiya. phir gaDi ki or kankhi maar kar phusaphusaya—chup! kampni ki aurat hai, nautanki kampni ki.
kampni ki ii ii ii?
??. . . ??. . . !
ek nahin, ab chaar hiraman! charon ne achraj se ek dusre ko dekha. . . kampni naam mein kitna asar hai! hiraman ne lakshya kiya, tinon ek saath satak dam ho ge. lalmohar ne zara door hatkar batiyane ki ichchha prakat ki, ishare se hi. hiraman ne tappar ki or munh karke kaha, hotil to nahin khula hoga koi, halvai ke yahan se pakki le aven?
hiraman, zara idhar suno. . . main kuch nahin khaungi abhi. lo, tum kha aao.
kya hai, paisa? iss!. . . paisa dekar hiraman ne kabhi pharabisganj mein kachchi pakki nahin khai. uske gaanv ke itne gaDivan hain, kis din ke liye? wo chhu nahin sakta paisa. usne hirabai se kaha, bekar, mela bazar mein hujjat mat kijiye, paisa rakhiye. mauqa pa kar lalmohar bhi tappar ke qarib aa gaya. usne salam karte hue kaha, chaar adami ke bhaat mein do adami khushi se kha sakte hain. basa par bhaat chaDha hua hai. hen hen hen! hum log ekahi gaanv ke hain. gaunvan giramit ke rahte hotil aur halvai ke yahan khayega hiraman?
hiraman ne lalmohar ka haath teep diya—vesi bhachar bhachar mat bako!
gaDi se chaar rassi door jate jate dhunniram ne apne kulabulate hue dil ki baat khol di—iss! tum bhi khoob ho hiraman! us saal kampni ka baagh, is baar kampni ki janana!
hiraman ne dabi avaz mein kaha, bhai re, ye hum logon ke muluk ki zanana nahin ki latpat boli sunkar bhi chup rah jaye. ek to pachchhim ki aurat, tis par kampni kee!
dhunniram ne apni shanka prakat ki—lekin kampni mein to sunte hain paturiya rahti hain.
dhat! sabhi ne ek saath usko duradura diya, kaisa adami hai! paturiya rahegi kampni mein bhala! dekho iski buddhi!. . . suna hai, dekha to nahin hai kabhi!
dhunniram ne apni ghalati maan li. palatdas ko baat sujhi—hiraman bhai, zanana zaat akeli rahegi gaDi par? kuch bhi ho, zanana akhir zanana hi hai. koi zarurat hi paD jaye!
ye baat sabhi ko achchhi lagi. hiraman ne kaha, baat theek hai. palat, tum laut jao, gaDi ke paas hi rahna. aur dekho, gapshap zara hoshiyari se karna, haan!
. . . hiraman ki deh se atar gulab ki khushbu nikalti hai. hiraman karam saanD hai. us baar mahinon tak uski deh se badhain gandh nahin gai. lalmohar ne hiraman ki gamchhi soongh li—e ha!
hiraman bola, nahin jee! ek raat nautanki dekhkar zindagi bhar boli tholi kaun sune!. . . desi murghi, vilayati chaal!
dhunniram ne puchha, phokat mein dekhne par bhi tumhari bhaujai baat sunayegi?
lalmohar ke basa ke baghal mein, ek lakDi ki dukan ladkar aaye hue gaDivanon ka basa hai. basa ke meer gaDivan miyanjan buDhe ne safri guDguDi pite hue puchha, kyon bhai, mina bazar ki ladni ladkar kaun aaya hai?
minabazar! minabazar to paturiya patti ko kahte hain. . . kya bolta hai ye buDha miyan? lalmohar ne hiraman ke kaan mein phusphusa kar kaha, tumhari deh mahmah mahakti hai. sach!
lahasanvan lalmohar ka naukar gaDivan hai. umr mein sabse chhota hai. pahli baar aaya hai to kyaa? babu babuanon ke yahan bachpan se naukari kar chuka hai. wo rah rah kar vatavran mein kuch sunghta hai, naak sikoDkar. hiraman ne dekha, lahasanvan ka chehra tamtama gaya hai. . . kaun aa raha hai dhaDadhData hua? kaun, palatdas? kya hai?
palatdas aakar khaDa ho gaya chupachuchap. uska munh bhi tamtamaya hua tha. hiraman ne puchha, kya hua? bolte kyon nahin?
kya javab de palatdas! hiraman ne usko chetavni de di thi, gapshap hoshiyari se karna. wo chupachuchap gaDi ki asani par jakar baith gaya, hiraman ki jagah par. hirabai ne puchha, tum bhi hiraman ke saath ho? palatdas ne gardan hilakar hami bhari. hirabai phir let gai. . . chehra mohra aur boli bani dekh sunkar, palatdas ka kaleja kanpne laga, na jane kyon. haan! ramlila mein siya sukumari isi tarah thaki leti hui thi. jai! siyavar ramchandr ki jai!. . . palatdas ke man mein jai jaikar hone laga. wo daas vaisnav hai, kirtaniya hai. thaki hui sita maharani ke charan tipne ki ichchha prakat ki usne, haath ki ungliyon ke ishare se, mano harmoniyam ki patariyon par nacha raha ho. hirabai tamakkar baith gai, are, pagal hai kyaa? jao, bhago!. . .
palatdas ko laga, ghussai hui kampni ki aurat ki ankhon se chingari nikal rahi hai—chhatak chhatak! wo bhaga. . . !
palatdas kya javab de! wo mela se bhi bhagne ka upaay soch raha hai. bola, kuchh nahin. hamko vyapari mil gaya. abhi hi tishan jakar maal ladna hai. bhaat mein to abhi der hai. main laut aata hoon tab tak.
khate samay dhunniram aur lahasanvan ne palatdas ki tokari bhar ninda ki. . . chhota adami hai. kamina hai. paise paise ka hisab joDta hai. khane pine ke baad lalmohar ke dal ne apna basa toD diya. dhunni aur lahasanvan gaDi jot kar hiraman ke basa par chale, gaDi ki leek dharkar. hiraman ne chalte chalte ruk kar, lalmohar se kaha, zara mere is kandhe ko sungho to. sunghakar dekho na?
lalmohar ne kandha sunghakar ankhe moond leen. munh se asphut shabd nikla, e—ha!
hiraman ne kaha, zara sa haath rakhne par itni khushbu!. . . samjhe!
lalmohar ne hiraman ka haath pakaD liya—kandhe par haath rakha tha, sach?. . . suno hiraman, nautanki dekhne ka aisa mauqa phir kabhi haath nahin lagega. haan!
tum bhi dekhoge?
lalmohar ki battisi chaurahe ki roshni mein, jhilmila uthi.
basa par pahunchakar hiraman ne dekha, tappar ke paas khaDa batiya raha hai koi, hirabai se. dhunni aur lahasanvan ne ek hi saath kaha, kahan rah ge pichhe? bahut der se khoj rahi hai kampni. . .
hiraman ne tappar ke paas jakar dekha. are, ye to vahi baksa Dhonevala naukar, jo champangar mele mein hirabai ko gaDi par bithakar andhere mein ghayab ho gaya tha.
a ge hiraman! achchhi baat, idhar aao. . . ye lo apna bhaDa aur ye lo apni dachchhina. pachchis pachchis, pachas.
hiraman ko laga, kisi ne asman se dhakelkar dharti par gira diya. kisi ne kyon, is baksa Dhonevale adami ne. kahan se aa gaya? uski jeebh par aai hui baat jeebh par hi rah gai. . . iss! dachchhina! wo chupchap khaDa raha.
lalmohar ne kaha, ilam baksis de rahi hai malkin, le lo hiraman! hiraman ne katkar lalmohar ki or dekha. . . bolne ka zara bhi Dhang nahin is lalmohra ko.
dhunniram ki svgatokti sabhi ne suni, hirabai ne bhi, gaDi bail chhoDkar nautanki kaise dekh sakta hai koi gaDivan, mele men!
hiraman ne rupya lete hue kaha, kya bolenge! usne hansne ki cheshta ki. kampni ki. . . aurat kampni mein ja rahi hai. hiraman ka kyaa! baksa Dhonevala rasta dikhata hua aage baDha, idhar se. hirabai jate jate ruk gai. hiraman ke bailon ko sambodhit karke boli, achchha, main chali bhaiyan.
bailon ne, bhaiya shabd par kaan hilaye.
—??. . . ??. . . xx. . . !
***
bha i yo, aaj raat! di rauta sangit kampni ke stej par! gulabdan dekhiye, gulabdan! aapko ye jankar khushi hogi ki mathuramohan kampni ki mashhur ektres mis hiradevi, jiski ek ek ada par hazar jaan fida hain, is baar hamari kampni mein aa gai hain. yaad rakhiye. aaj ki raat. mis hiradevi gulabdan. . . !
nautankivalon ke is elaan se mele ki har patti mein sargarmi phail rahi hai. . . hirabai? mis hiradevi? laila, gulabdan. . . ? philim ektres ko maat karti hai. . . teri banki ada par main khud hoon fida, teri chahat ko dilbar bayan kya karun! yahi khvahish hai ki i i i tu mujh ko dekha kare, aur dilojan main tum ko dekha karun. . . kirr rra rra rra. . . kaDaDaDaDDarr rra ghan ghan dhaDam.
har adami ka dil nagaDa ho gaya hai.
lalmohar dauDta hanfata basa par aaya, ai, ai hiraman, yahan kya baithe ho, chalkar dekho kaisa jai jaikakar ho raha hai! may baja gaja, chhapi phahram ke saath hirabai ki jai jai kar raha hoon.
hiraman haDabDakar utha. lahasanvan ne kaha, dhunni kaka, tum basa par raho, main bhi dekh auun.
dhunni ki baat kaun sunta hai! tinon jan nautanki kampni ki elaniya parti ke pichhe pichhe chalne lage. har nukkaD par rukkar, baja band kar ke elaan kiya jana hai. elaan ke har shabd par hiraman pulak uthta hai. hirabai ka naam, naam ke saath ada phida vaghairah sunkar usne lalmohar ki peeth thapthapa di, dhann hai, dhann! hai ya nahin?
lalmohar ne kaha, ab bolo! ab bhi nautanki nahin dekhoge?
subah se hi dhunniram aur lalmohar samjha rahe the’ samjhakar haar chuke the. kampni mein jakar bhent kar aao. jate jate pursis kar gai hai. lekin hiraman ki bas ek bat—dhatt, kaun bhent karne jaye! kampni ki aurat, kampni mein gai. ab usse kya lena dena! chinhegi bhi nahin!
wo man hi man rutha hua tha. elaan sunne ke baad usne lalmohar se kaha, “zarur dekhana chahiye, kyon lalmohar?”
donon aapas mein salah karke rauta kampni ki or chale. kheme ke paas pahunchakar hiraman ne lalmohar ko ishara kiya, puchhatachh karne ka bhaar lalmohar ke sir. lalmohar kachrahi bolna janta hai. lalmohar ne ek kale kotvale se kaha, “babu saheb, zara suniye to!”
kale kotvale ne naak bhaun chaDhakar kaha, “kya hai? idhar kyon?”
lalmohar ki kachrahi boli gaDbaDa gai. tevar dekhkar bola, “gulgul…nahin nahin. . . bul bul. . . nahin…”
hiraman ne jhat se samhal diya, “hiradevi kidhar rahti hai, bata sakte hain?”
us adami ki ankhen hathat laal ho gain. samne khaDe nepali sipahi ko pukarkar kaha, “in logon ko kyon aane diya idhar?”
“hiraman!” vahi phenugilasi avaz kidhar se ai? kheme ke parde ko hatakar hirabai ne bulaya, “yahan aa jao, andar. . . dekho bahadur! isko pahchan lo. ye mera hiraman hai. samjhe!”
nepali darban hiraman ki or dekhkar zara muskuraya aur chala gaya, kale kotvale se jakar kaha, “hirabai ka adami hai. nahin rokne bola!”
lalmohar paan le aaya nepali darban ke liye, “khaya jaye!”
“iss! ek nahin, paanch paas. charon athaniya! boli, ki jab tak mele mein hi roz raat mein aakar dekhana. sabka khayal rakhti hai! boli ki tumhare aur sathi hain, sabhi ke liye paas le jao. kampni ki aurton ki baat nirali hoti hai! hai ya nahin?”
lalmohar ne laal kaghaz ke tukDon ko chhukar dekha, “pa sa! vaah re hiraman bhai!. . . lekin paanch paas lekar kya hoga? palatdas to phir palatkar aaya hi nahin hai abhi tak. ”
hiraman ne kaha, “jane do abhage ko. taqdir mein likha nahin. . . haan, pahle guru qasam khani hogi sabhi ko, ki gaanv ghar mein ye baat ek panchhi bhi na jaan pae. ”
lalmohar ne uttejit hokar kaha, “kaun sala bolega, gaanv mein jakar? palta ne agar badmashi ki to dusri baar se phir saath nahin launga. ”
hiraman ne apni thaili aaj hirabai ke zimme rakh di hai. mele ka kya thikana! qism qism ke pakitkat log har saal aate hain. apne sathi sangiyon ka bhi kya bharosa! hirabai maan gai. hiraman ki kapDe ki kali thaili ko usne apne chamDe ke baks mein band kar diya. bakse ke uupar bhi kapDe ka khol aur andar bhi jhalmal reshmi astar! man ka maan abhiman door ho gaya.
lalmohar aur dhunniram ne milkar hiraman ki buddhi ki tarif kee; uske bhagya ko saraha baar baar. uske bhai aur bhabhi ki ninda ki, dabi zaban se. hiraman ke jaisa hira bhai mila hai, isiliye! koi dusra bhai hota to. . .
lahasanvan ka munh latka hua hai. elaan sunte sunte na jane kahan chala gaya ki ghaDi bhar saanjh hone ke baad lauta hai. lalmohar ne ek malikana jhiDki di hai, gali ke saath, “sohda kahin ka!”
dhunniram ne chulhe par khichDi chaDhate hue kaha, “pahle ye faisla kar lo ki gaDi ke paas kaun rahega!”
“rahega kaun, ye lahasanvan kahan jayega?”
lahasanvan ro paDa, “he e e malik, haath joDte hain. ekko jhalak! bas, ek jhalak!”
hiraman ne udaratapurvak kaha, “achchha achchha, ek jhalak kyon, ek ghanta dekhana. main aa main jaunga. ”
nautanki shuru hone ke do ghante pahle hi nagaDa bajna shuru ho jata hai, aur nagaDa shuru hote hi log patang ki tarah tutne lagte hain. tikatghar ke paas bheeD dekhkar hiraman ko baDi hansi aai, “lalmohar, udhar dekh, kaisi dhakmdhukki kar rahe hain log!”
“hiraman bhaay!”
“kaun, palatdas! kahan ki ladni laad aye?” lalmohar ne paraye gaanv ke adami ki tarah puchha.
palatdas ne haath malte hue mafi mangi, “qasurbar hain; jo saza do tum log, sab manzur hai. lekin sachchi baat kahen ki siya sukumari. . . ”
hiraman ke man ka purin nagaDe ke taal par viksit ho chuka hai. bola, “dekho palta, ye mat samajhna ki gaanv ghar ki zanana hai. dekho, tumhare liye bhi paas diya hai; paas le lo apna, tamasha dekho. ”
lalmohar ne kaha, “lekin ek shart par paas milega. beech beech mein lahasanvan ko bhi. . . ”
palatdas ko kuch batane ki zarurat nahin. wo lahasanvan se batachit kar aaya hai abhi.
lalmohar ne dusri shart samne rakhi, “gaanv mein agar ye baat malum hui kisi tarah. . . ”
“raam raam!” daant se jeebh ko katte hue kaha palatdas ne.
palatdas ne bataya “athaniya phatak idhar hai!” phatak par khaDe darban ne haath se paas lekar unke chehre ko bari bari se dekha, bola, “yah to paas hai. kahan se mila?”
ab lalmohar ki kachrahi boli sune koi! uske tevar dekhkar darban ghabra gaya, “milega kahan se? apni kampni se poochh lijiye jakar! chaar hi nahin, dekhiye ek aur hai. ” jeb se panchva paas nikalkar dikhaya lalmohar ne.
ek rupyavale phatak par nepali darban khaDa tha. hiraman ne pukarkar kaha, “e sipahi daju, subah ko hi pahachanva diya aur abhi bhool ge?”
nepali darban bola, “hirabai ka adami hai sab. jane do. paas hain to phir kahe ko rokta hai?”
athaniya darja!
tinon ne kapaDghar ko andar se pahli baar dekha. samne kursi benchvale darjen hain. parde par raam van gaman ki tasvir hai. palatdas pahchan gaya. usne haath joDkar namaskar kiya, parde par ankit ramasiya sukumari aur lakhanalla ko. jai ho, jai ho! palatdas ki ankhen bhar ain.
hiraman ne kaha, “lalmohar, chhapi sabhi khaDe hain ya chal rahe hain?”
lalmohar apne baghal mein baithe darshkon se jaan pahchan kar chuka hai. usne kaha, “khela abhi parda ke bhitar hai. abhi jarbhin ka de raha hai log zamane ke liye. ”
palatdas Dholak bajana janta hai, isliye nagaDe ke taal par gardan hilata hai aur diyasalai par taal katta hai. biDi adan pradan karke hiraman ne bhi ekaadh jaan pahchan kar li. lalmohar ke parichit adami ne chadar se deh Dhakte hue kaha, “naach shuru hone mein abhi der hai, tab tak ek neend le len. . . sab darja se achchha athaniya darja. sabse pichhe sabse uunchi jagah par; zamin par garam pual! he he! kursi bench par baithkar is sardi ke mausam mein tamasha dekhne vale abhi ghuch ghuch kar uthenge chaah pine. ”
us adami ne apne sangi se kaha, “khela shuru hone par jaga dena! nahin nahin, khela shuru hone par nahin, hiriya jab stej par utre, hamko jaga dena. ”
hiraman ke kaleje mein zara anch lagi. . . hiriya! baDa latapatiya adami malum paDta hai. usne lalmohar ko ankhon ke ishare se kaha—is adami se batiyane ki zarurat nahin.
. . . ghan ghan ghan dhaDam! parda uth gaya. he e, he e, hirabai shuru mein hi utar gai stej par! kapaDghar khachakhach bhar gaya hai. hiraman ka munh achraj mein khul gaya! lalmohar ko na jane kyon aisi hansi aa rahi hai. hirabai ke geet ke har pad par wo hansta hai, bevajah.
gulabdan darbar lagakar baithi hai. elaan kar rahi hai—jo adami takht hazara banakar la dega, munhmangi cheez inaam mein di jayegi. . . aji, hai koi aisa fankar, to ho jaye taiyar, bana kar laye takht hazara aa! kiDkiD kirri…! albatt nachti hai! kya gala hai! malum hai, ye adami kahta hai ki hirabai paan biDi, sigret zarda kuch nahin khati!. . . theek kahta hai, baDi nemvali ranDi hai. —kaun kahta hai ki ranDi hai! daant mein missi kahan hai? pauDar se daant dho leti hogi. hargiz nahin!. . . kaun adami hai, baat ki bebat karta hai! kampni ki aurat ko paturiya kahta hai! tumko baat kyon lagi? kaun hai ranDi ka bhaDva? maro sale ko! maro! teri. . .
ho halle ke beech, hiraman ki avaz kapaDghar ko phaaD rahi hai, “ao, ek ek ki gardan utaar lenge. ”
lalmohar dulali se patapat pitta ja raha hai samne ke logon ko. palatdas ek adami ki chhati par savar hai, “sala, siya sukumari ko gali deta hai, so bhi musalman hokar?”
dhunniram shuru se hi chup tha. marapit shuru hote hi wo kapaDghar se nikal kar bahar bhaga.
kale kotvale nautanki ke mainejar nepali sipahi ke saath dauDe aaye. darogha sahab ne hantar se peet paat shuru ki. hantar khakar lalmohar tilmila utha, kachrahi boli mein bhashan dene laga, “darogha sahab, marte hain, mariye. koi harz nahin. lekin ye paas dekh lijiye, ek paas pakit mein bhi hain. dekh sakte hain, huzur. tikat nahin, paas!. . . tab hum logon ke samne kampni ki aurat ko koi buri baat kare to kaise chhoD denge?”
kampni ke mainejar ki samajh mein aa gai sari baat. usne darogha ko samjhaya—“huzur, main samajh gaya. ye sari badmashi mathuramohan kampnivalon ki hai. tamashe mein jhagDa khaDa karke kampni ko badnam. . . nahin huzur, in logon ko chhoD dijiye, hirabai ke adami hain. bechari ki jaan khatre mein hain. huzur se kaha tha na!”
hirabai ka naam sunte hi darogha ne tinon ko chhoD diya. lekin tinon ki duali chheen li gai. mainejar ne tinon ko ek rupevale darje mein kursi par bithaya “aap log yahin baithiye. paan bhijva deta hoon. ” kapaDghar shaant hua aur hirabai stej par laut aai.
nagaDa phir ghanaghna utha.
thoDi der baad tinon ko ek hi saath dhunniram ka khayal hua, “are, dhunniram kahan gaya?”
“malik, o malik!” lahasanvan kapaDghar se bahar chillakar pukar raha hai, “o lalmohar ma li ka. . . !”
lalmohar ne taar svar mein javab diya, “idhar se, idhar se! ekatakiya phatak se. ” sabhi darshkon ne lalmohar ki or muDkar dekha. lahasanvan ko nepali sipahi lalmohar ke paas le aaya. lalmohar ne jeb se paas nikalkar dikha diya. lahasanvan ne aate hi puchha, “malik, kaun adami kya bol raha tha, boliye to zara. chehra dikhla dijiye; uski ek jhalak!”
logon ne lahasanvan ki chauDi aur sapat chhati dekhi. jaDe ke mausam mein bhi khala deh!. . . chele chati ke saath hain ye log!
lalmohar ne lahasanvan ko shaant kiya.
. . . tinon charon se mat puchhe koi nautanki mein kya dekha. qissa kaise yaad rahe! hiraman ko lagta tha, hirabai shuru se hi usi ki or takatki lagakar dekh rahi hai, ga rahi hai, naach rahi hai. lalmohar ko lagta tha, hirabai usi ki or dekhti hai; wo samajh gai hai, hiraman se bhi zyada pavarvala adami hai lalmohar! palatdas qissa samajhta hai. . . qissa aur kya hoga, ramain ki hi baat. vahi raam, vahi sita, vahi lakhanlal aur vahi ravan! siya sukumari ko raam ji se chhinne ke liye ravan tarah tarah ka roop dhar kar aata hai. raam aur sita bhi roop badal lete hain. yahan bhi takht hazara bananevala mali ka beta raam hai. gulabdan miya sukumari hai. mali ke laDke ka dost lakhanalla hai aur sultan hai ravan. dhunniram ko bukhar hai tez. lahasanvan ko sabse achchha jokar ka paart laga hai. . . chiraiya tonhke leke na, jaivai narhat ke bajariya! wo us jokar se dosti lagana chahta hai. . . nahin lagavega dosti, jokar sahab?
hiraman ko ek geet ki aadhi kaDi haath lagi hai—mare ge gulafam! kaun tha ye gulafam? hirabai roti hui ga rahi thi—aji haan, mare ge gulafam! tiDiDiDi!. . . bechara gulafam!
tinon ko duali vapas dete hue pulis ke sipahi ne kaha, “lathi duali lekar naach dekhne aate ho?”
dusre din mele bhar mein ye baat phail gai—mathura mohan kampni se bhagkar aai hai hirabai, isliye is baar mathuramohan kampni nahin aai hain, uske gunDe aaye hain. hirabai bhi kam nahin. baDi khelaD aurat hai. terah terah dehati lathait paal rahi hai. . . ‘vaah, meri jaan’ bhi kahe to koi! majal hai!
das din. din raat. . .
din bhar bhaDa Dhota hiraman. shaam hote hi nautanki ka nagaDa bajne lagta. nagaDa ki avaz sunte hi hirabai ki pukar kanon ke paas manDrane lagti—bhaiya. . . mita. . . hiraman. . . ustaad guru jee! hamesha koi na koi baja uske man ke kone mein bajta rahta, din bhar—kabhi harmoniyam, kabhi nagaDa, kabhi Dholak aur kabhi hirabai ki paijani. unhin sazon ki gat par hiraman uthta baithta, chalta phirta. nautanki kampni ke mainejar se lekar parda khinchnevale tak usko pahchante hain. . . hirabai ka adami hai!
palatdas har raat nautanki shuru hone ke samay shraddhapurvak stej ko namaskar karta, haath joDkar. lalmohar, ek din apni kachrahi boli sunane gaya tha hirabai ko. hirabai ne pahchana hi nahin. tab se uska dil chhota ho gaya hai. uska naukar lahasanvan uske haath se nikal gaya hai, nautanki kampni mein bharti ho gaya hai. jokar se uski dosti ho gai hai. din bhar pani bharta hai, kapDe dhota hai. kahta hai, gaanv mein kya hai jo jayenge! lalmohar udaas rahta hai. dhunniram ghar chala gaya hai, bimar hokar.
hiraman aaj subah se teen baar ladni laad kar steshan aa chuka hai. aaj na jane kyon usko apni bhaujai ki yaad aa rahi hai. . . dhunniram ne kuch kah to nahin diya hai, bukhar ki jhonk men! yahin kitna atar patar bak raha tha—gulabdan, takht hazara! lahasanvan mauj mein hai. din bhar hirabai ko dekhta hoga. kal kah raha tha, hiraman malik, tumhare akbal se khoob mauj mein hoon. hirabai ki saDi dhone ke baad kathaute ka pani attaragulab ho jata hai. usmen apni gamchhi Dubakar chhoD deta hoon. lo, sunghoge?. . . har raat, kisi na kisi ke munh se sunta hai vah—hirabai ranDi hai. kitne logon se laDe vah! bina dekhe hi log kaise koi baat bolte hain! raja ko bhi log peeth pichhe gali dete hain!. . . aaj wo hirabai se milkar kahega, nautanki kampni mein rahne se bahut badnam karte hain log. sarkas kampni mein kyon nahin kaam kartin?. . . sabke samne nachti hai, hiraman ka kaleja dap dap jalta rahta hai us samay. sarkas kampni mein baagh ko nachayegi. . . uske paas jane ki himmat kaun karega! surakshit rahegi hirabai!. . . kidhar ki gaDi aa rahi hai?
“hiraman, e hiraman bhaay!” lalmohar ki boli sunkar hiraman ne gardan moDkar dekha. . . kya ladkar laya hai lalmohar?
“tumko DhoonDh rahi hai hirabai, ishtishan par. ja rahi hai. ” ek hi saans mein suna gaya. lalmohar ki gaDi par hi aai hai mele se.
“ja rahi hai? kahan? hirabai relgaDi se ja rahi hai?”
hiraman ne gaDi khol di. maal godam ke chaukidar se kaha, “bhaiya, zara gaDi bail dekhte rahiye; aa rahe hain. ”
“ustad!” zanana musafirkhane ke phatak ke paas hirabai oDhni se munh haath Dhankakar khaDi thi. thaili baDhati hui boli, “lo! he bhagvan! bhent ho gai, chalo, main to ummid kho chuki thi. tum se ab bhent nahin ho sakegi!. . . main ja rahi hoon guru jee!”
baksa Dhonevala adami aaj kot patlun pahankar babu sahab ban gaya hai. malikon ki tarah kuliyon ko hukam de raha hai, “zanana darja mein chaDhana. achchha!”
hiraman haath mein thaili lekar chupchap khaDa raha. kurte ke andar se thaili nikalkar di hai hirabai ne. . . chiDiya ki deh ki tarah garm hai thaili!
“gaDi aa rahi hai. ” baksa Dhonevale ne munh banate hue hirabai ki or dekha. uske chehre ka bhaav aspasht hai—itna zyada kya hai. . . ?
hirabai chanchal ho gai. boli, “hiraman, idhar aao, andar. main phir laut kar ja rahi hoon mathuramohan kampni mein. apne desh ki kampni hai. . . vanaili mela aoge na?”
hirabai ne hiraman ke kandhe par haath rakha—is baar dahine kandhe par. phir apni thaili se rupe nikalte hue boli, “ek garam chadar kharid lena. ”
hiraman ki boli phuti, itni der ke baad, “iss! hardam rupya paisa! rakhiye rupaiya! kya karenge chadar?”
hirabai ka haath ruk gaya. usne hiraman ke chehre ko ghaur se dekha. phir boli, “tumhara ji bahut chhota ho gaya hai. kyon mota?. . . mahua ghatvarin ko saudagar ne kharid jo liya hai, guru jee!”
gala bhar aaya hirabai ka. baksa Dhonevale ne bahar se avaz di, “gaDi aa gai. ” hiraman kamre se bahar nikal aaya. baksa Dhonevale ne nautanki ke jokar jaisa munh banakar kaha, “latpharam se bahar bhago. bina tikat ke pakDega to teen mahine ki hava. . . ”
hiraman chupchap phatak se bahar jakar khaDa ho gaya. . . . tishan ki baat, relve ka raaj! nahin to is baksa Dhonevale ka munh sidha kar deta hiraman.
hirabai theek samne vali kothari mein chaDhi. iss? itna taan! gaDi mein baithkar bhi hiraman ki or dekh rahi hai, tukur tukur…lalmohan ko dekhkar ji jal uthta hai, hamesha pichhe pichhe; hardam hissadari sujhti hai…
gaDi ne siti di. hiraman ko laga, uske andar se koi avaz nikal kar siti ke saath uupar ki or chali gai—ku uu u! i ssa!
. . . chhi ii ii chhakk! gaDi hili. hiraman ne apne dahine pair ke anguthe ko bayen pair ki eDi se kuchal liya. kaleje ki dhaDkan theek ho gai. . . hirabai haath ki baingni safi se chehra ponchhti hai. safi hilakar ishara karti hai—ab jao. akhiri Dibba guzra; pletfarm khali…sab khali. . . khokhle. . . malgaDi ke Dibbe…! duniya hi khali ho gai mano! hiraman apni gaDi ke paas laut aaya.
hiraman ne lalmohar se puchha, “tum kab tak laut rahe ho gaanv?”
lalmohar bola, “abhi gaanv jakar kya karenge? yahan to bhaDa kamane ka mauqa hai! hirabai chali gai, mela ab tutega. ”
“achchhi baat. koi samad dena hai ghar?”
lalmohar ne hiraman ko samjhane ki koshish ki, lekin hiraman ne apni gaDi gaanv ki or janevali saDak ki or moD di…ab mele mein kya dhara hai! khokhla mela!
relve lain ki baghal se bailgaDi ki kachchi saDak gai hai door tak. hiraman kabhi rel par nahin chaDha hai. uske man mein phir purani lalsa jhanki—relgaDi par savar hokar, geet gate hue jagarnath dhaam jane ki lalsa. . . ulatkar apne khali tappar ki or dekhne ki himmat nahin hoti hai. peeth mein aaj bhi gudgudi lagti hai. aaj bhi rah rahkar champa ka phool khil uthta hai, uski gaDi mein. ek geet ki tuti kaDi par nagaDe ka taal kat jata hai, baar baar!. . .
usne ulatkar dekha, bore bhi nahin, baans bhi nahin, baagh bhi nahin. . . pari. . . devi. . . mita. . . hiradevi. . . mahua ghatvarin—ko ii nahin. mare hue muharton ki gungi avazen mukhar hona chahti hai. hiraman ke honth hil rahe hain. shayad wo tisri qasam kha raha hai—kampni ki aurat ki ladni. . .
hiraman ne hathat apne donon bailon ko jhiDki di, duali se marte hue bola—relve lain ki or ulat ulatkar kya dekhte ho? donon bailon ne qadam kholkar chaal pakDi. hiraman gungunane laga—aji haan, mare ge gulafam. . . !
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।