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झूठ-सच

jhooth sach

सियारामशरण गुप्त

और अधिकसियारामशरण गुप्त

    तीसरे खंड के कमरे में सामने की खिड़की खोलकर लिखने बैठता हूँ; कुछ दूर एक घर की छत पर कई दिन से एक दीवार उठ रही है। यहाँ एक राज है और एक मजूर स्त्री। इस जगह से दोनों काम करते दिखाई देते हैं। कभी-कभी एक तीसरा आदमी दिखाई पड़ता है,—मकान मालिक। रंग-ढंग से मालूम होता है, वह काम की देखभाल कर जाता है।

    राज कन्नी लेकर ईंटें छाँटता है और स्त्री चूना-गारा तसले में लाती है, ठीक नहीं देख सकता कि ऐसा ही होता है; पर इसके अलावा और हो क्या सकता है।

    तो राज की सूरत ठीक से देख सकता हूँ और उस स्त्री की। कपड़े दोनों के साफ़ दिखाई देते हैं। राज का कपड़ा उजला है और स्त्री की धोती नीली। यह धोती मानो किसी ने दो चार दिन पहले ही उसे ख़रीद कर दी हो। वे सफ़ेद और नीले रंग धूप में चमकते हैं। सोचता हूँ, दोनों युवक और युवती हैं। इतना ही नहीं, मैं और भी बहुत कुछ सोचता हूँ। क्या आप अनुमान नहीं कर सकते कि वह क्या है? जो मैं सोचूँगा, वही आप सोचेंगे। इस समय वहाँ उस छत पर उन दो को छोड़कर और कोई नहीं है। ऐसे में ये क्या बातें करते हैं, उन्हें मैं अनुमान से ही सवा-सोलह आने तक सही बता दूँगा। अनुमान हमारे कान का 'दूरबीन' है। वरन् दूरबीन से भी कुछ अधिक, क्योंकि विज्ञानवेत्ता सब तरह के छोटे-बड़े दूर-वीक्षण यंत्र तो बाज़ार में सुलभ कर सके हैं; पर चाहे जहाँ की बात सुना दे सकने वाले स्वतंत्र श्रुतियंत्र अब तक हमें नहीं दे सके। फिर भी मेरा काम रुकता नहीं है। यहीं बैठा मैं उस युवक और युवती की बातें सुनता हूँ!

    क्या विश्वास नहीं होता? मेरा अविश्वास करोगे, तो संसार में जाने कौन-कौन अविश्वसनीय हो उठेंगे। एक युवक है, दूसरी युवती। जानने की बात इतनी ही तो थी। इतना जानकर ही जाने कितनी रचनाएँ ऐसी रची जा चुकी हैं कि जिन्हें पढ़ने के लिए ही जन्मांतरों तक मुक्ति की कामना स्थगित रखी जा सकती है! इन सबको असत्य कैसे कहेंगे? उनकी नहीं कहता, जिन्हें यह जगत् ही माया-मरीचिका जान पड़ता है। दार्शनिक होकर उन्होंने असत्य का ही दर्शन किया है। महत् वही होंगे, जिन्हें काव्य, नाटक, उपन्यास और कहानी तक में सत्य की उपलब्धि हो सके; अतएव जो मैं उस युवक और युवती की बातें यहाँ से सुन रहा हूँ, इसमें किसी तरह का संदेह किया जाएगा। किया जाएगा, तो उसके छीटे बहुतों को कलंकित कर देंगे।

    ******

    देखो, वहाँ उस छत पर यह पतिया ज़ोर से हँस पड़ी है!

    वह साधारण मजूर है; परंतु जब लेखक किसी के प्रति आकर्षित होता है, तब यह कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि सुंदर भी वह है। दिन में ही उसकी हँसी से वहाँ चाँदनी-सी छिटक गई है।

    राज कहता है—देख पत्ती, इस तरह मत हँसा कर। यह हँसी बहुत बुरी है।

    पतिया कहती है—बुरी है तो आँखें बंद कर लो।

    “तेरे पास होने से ही आँख और कान जाने कहाँ चले जाते हैं। जी अपने आप में नहीं रहता है। मन कहता है कहीं बहुत दूर भाग चलें।”

    “तुम्हें रोकता कौन है? भाग जाओ, घर से उन्हें साथ लेकर।”

    “किसे—घर के उस कोयले को? बचने दें; कहीं से कोई चिंगारी गिरी, तो उसके साथ वहीं के वहीं 'सती' हो जाऊँगा!”

    पतिया फिर से हँस पड़ती है। राज कहता है—फिर उसी तरह हँसती है! रुक जा। नीचे मालिक गए हैं। सुन लिया, तो एकदम काले-पानी की सज़ा बोल देंगे।

    “मेरा मालिक कोई नहीं है।”

    नीचे से आवाज़ आती है—“क्या हो रहा है यह? सब देख रहा हूँ। आज की मजूरी दी जाएगी।”

    जानता हूँ, हज़ारीलाल की आवाज़ है। यह छत उन्हीं की है। ये उन लोगों में से है, जो अपने को सर्वज्ञ समझते हैं। बात करते हैं, तो उसे पूरी ही नहीं होने देते। जानते हैं, भगवान् ने जीभ उन्हीं को दी है, और सब को केवल कान दिए है।

    पतिया और राज एक दूसरे को देखकर आँखों-ही-आँखों मे मुस्काए। इसके बाद राज ने कन्नी हाथ में लेकर ईंट पर ठोकर दी और मूँज की बनी कुंड़ई सिर पर रखकर पतिया ने तसला अपनी ओर खींचा।

    धीमे स्वर में राज ने कहा—तेरे मालिक नहीं है? कोई तो होगा। बता, कौन है?

    अब नीचे सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने का शब्द सुनाई दिया। पतिया ने कुछ कहकर तसले में चिपका हुआ चूना खुरचा और उसे राज के ऊपर छिड़कती हुई झट से नीचे उतर गई। राज के मुख पर संतोष की रेखा दिखाई दी। पतिया के उस व्यवहार में अपने प्रश्न का एक उत्तर उसने पा लिया था।

    थोड़ी देर बाद जिस समय हज़ारीलाल ऊपर आकर खड़े हुए, उस समय राज अपने काम में इस तरह जुटा था कि उनकी ओर देखने तक का अवसर उसे नहीं मिला। पतिया सिर से चूने का तसला उतार रही थी। उसे राज के आगे रखकर उसने सिर का वस्त्र सँभाल लिया।

    हज़ारीलाल ने कुछ काम होने की शिकायत तो की; पर उस शिकायत में बल था। जैसे यह ज़ाबिते की कार्रवाई हुई हो। असल में कामकाज देखने वह नहीं आए थे। कुछ और ही देख जाने का उद्देश्य उनका था। वह संभवतः पूरा नहीं हुआ है। उन्होंने राज से कुछ काम की और कुछ बिना काम की बातें कीं, कुछ देर तक यों ही खड़े भी रहे। अंत में लाचार होकर जब नीचे उतरने लगे, तब उन्होंने यह निश्चय कर लिया था कि अबकी बार 'चलि औचक चुपचाप' यहाँ का काम देखा जाएगा।

    हज़ारीलाल नीचे उतरे और पतिया की वही हँसी फिर वहाँ छिटक पड़ी।

    साँझ हो आई है! काम बंद करके वे दोनों छत से उतर रहे हैं। मुझे भी अब अपनी खिड़की बंद करनी पड़ेगी।

    ******

    घूमते समय हज़ारीलाल से भेंट हो गई थी। उनसे भी मालूम हुआ कि उनकी छत पर कुछ काम लगा है। कुछ झूठ थोड़े कहा था। मालूम हुआ राज का नाम है काशीराम। हाँ, पतिया का नाम रधिया निकला। बहुत अंतर नहीं पड़ता। मैं पतिया ही कहूँगा। कोई कवि हों, तो वह भी बिना छंदोमय के ऐसा ही कर सकते हैं।

    विशेष बात मैंने उनसे नहीं की। यह ठीक नहीं जान पड़ता कि अपनी बातों की सच्चाई का प्रमाण-पत्र उनसे चाहा जाए। मेरे कहने से ही कोई बात झूठ और हज़ारीलाल के कहने से ही सच हो, यह हो कैसे सकता है।

    लिखने के कमरे की खिड़की मैंने बंद कर रखी है, काशीराम और पतिया उस छत पर से चले गए है, तब भी मेरा निज का काम रुकना नहीं चाहता। जाने नए-नए कितने रूपों में वे दोनों मेरे सामने उपस्थित हो रहे हैं। प्रयत्न करता हूँ; पर नींद नहीं आती। आँखें बंद कर लेने पर वे और भी स्पष्ट हो उठते हैं। अँधेरा है, सुनसान है, सब ओर सन्नाटा है। तब भी कवि सूर की भाँति रूप और दृश्य का नया सागर-सा मेरे चारों ओर उमड़ उठा है! मेरे मस्तक में गर्मी है। विश्राम नहीं मिलने पाता। सोचता हूँ, इससे बचने का उपाय ही क्या? लेखक बनना है, तो यह सब मुसीबत भी झेलनी होगी। बहुत रात गए किसी तरह नींद आती भी है; किंतु ये काशीराम और पतिया मेरा साथ नहीं छोड़ते।

    जा पहुँचा हूँ पतिया के घर पर। छोटी-सी झोपड़ी है। गली में गंदगी इतनी कि उस तक पहुँचना भी दूभर हो उठा! घरों के नाबदान गली में पसर कर खुली वायु का सेवन करते हैं। किसी तरह कर्म-कौशल से ही इस झोंपड़ी के भीतर पहुँच सका हूँ। इसी में वह सुंदरी रहती है। बहुत विस्मय नहीं हुआ। कमल और कीच की बात बहुत सुन रखी थी। दोनों के निकट संबंध का प्रमाण प्रत्यक्ष में यहीं दिखाई दिया।

    एक कोठरी में पतिया की माँ खाट पर पड़ी है। हाल में ही वह बहुत कड़ी बीमारी भोग चुकी थी। कमज़ोरी अब भी इतनी है कि चल-फिर नहीं सकती। उसकी आँखों में नींद थी। खटिया पर लेटे-लेटे उसने पुकारा—पतिया!—पतिया दूसरे घर में कुछ कर रही थी। वहीं से उसने कहा—“चिल्लाती क्यों हो, आती तो हूँ।”

    थोड़ी देर बाद आकर वह माँ के सिरहाने खड़ी हो गई! बोली—अभी-अभी चिल्ला रही थीं, जैसे घर में आग लग गई हो। अब मुखार-बिंद क्यों नहीं खुलता?

    “कुछ नहीं। कहती थी, गर्मी बहुत है, खुले मे लिटा दे तो”—

    “क्यों नहीं। खस की टट्टियाँ लगा दूँगी, दो-चार नौकर बुलवाकर रात भर पंखा डुलवाऊँगी। नहीं तो सोओगी किस तरह?—कहकर पतिया झन्नाती हुई वहाँ से चली गर्इ। माँ ने ओठों-ही-ओठों में जाने क्या कहा, कुछ समझ नहीं पड़ा।

    धीमे से किवाड़ खुलने की आवाज़ आई। माँ ने पूछा—कौन है?

    “मैं काशीराम।”

    आकर वह खड़ा हो गया। इतनी रात गए उसका आना नया था। माँ की बीमारी में इधर वह रात-रात भर रह चुका है।

    माँ बोली—आओ बेटा, आओ। अरी पतिया, सुन री! काशीराम आया है। कहाँ गई है, एक बोरा तो बिछा जा।

    पतिया ने जैसे सुना ही नहीं। माँ बड़बड़ाने लगी—ऐसे कुलच्छन है इसके। इसी से इसके भाग फूटे हैं बेटा।

    थोड़ी देर में पतिया ने आकर कहा—चिल्लाकर क्यों मुहल्ले में डोंडी पीटती हो? आए हैं, तो कोई बुलाने गया था? हमारे यहाँ बैठने के लिए मेज़-कुर्सी नहीं है। बड़े भारी राजा-नवाब तो हैं, जो ज़मीन पर नहीं बैठ सकते।

    काशीराम को बुरा नहीं लगा। वरन् जान पड़ा, जैसे वह प्रसन्न ही हुआ हो। बैठ वह पहले ही चुका था। उसने माँ की तबिअत का हाल पूछा, बहुत जल्द अच्छे हो जाने की सांत्वना दी और इधर-उधर की दूसरी बातें चलाई।

    पतिया वहाँ से चली गई थी। माँ ने शिकायत की—क्या कहूँ बेटा, यह कलमुँही मरती भी नहीं है।

    “चाँद के-से टुकड़े को कलमुँही कहती हो माँ?”

    “एक बार नहीं, हज़ार बार। इसी से तो इसके भाग फूटे है।”

    “कलमुँही देखनी हो, तो मैं तुम्हारी बहू को यहाँ लाऊँ?”

    “उसकी क्या कहते हो बेटा, वह देवता है। ऐसी बहू सबको नहीं मिलती।”

    “मिलती तो नहीं है। जिसने पाप किए होते हैं, उसी को मिलती है।”—कहकर काशीराम अपने-आप हँस पड़ा।

    जाते समय अकेले में काशीराम का पतिया से सामना हो गया। धीरे से हँसकर बोली—देवता के पास जा रहे हो? ख़ूब अच्छी तरह पूजा-आरती करना।

    पतिया की मुस्कुराहट अँधेरे में नक्षत्र की तरह झिलमिला उठी। इसके बाद दोनों ही एक साथ अदृश्य हो गए।

    रात गहरी होने के साथ-साथ सब ओर सन्नाटा फैलता गया। बीच-बीच में माँ की बकझक सुनाई पड़ती थी—अरी कहाँ गई री। इतने सबेरे सो गई, पीने के लिए तो पानी रख जाती। प्यास के मारे गला घुँटा जाता है। अरी ओ, सुन तो!

    किसी ने नहीं सुना, कोई उसके पास नहीं आया।

    ******

    उठकर जिस समय खटिया पर बैठा-बैठा आँखें मलता हूँ, उस समय उजली धूप छत पर फैली हुई है। रात को ग़ायब हुए काशीराम और पतिया, दोनों ही, अपने स्थान पर कभी के काम-काज में जुटे हैं।

    देखता हूँ, नई कृति की सामग्री मिलती ही जा रही है। स्वप्न में भी और जागृति में भी। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। ऐसे लोग हो सकते हैं, जो जागृति की बात तो मानेंगे; किंतु स्वप्न को अस्वीकार कर देंगे। यह विचार ऐसा है कि दिन को तो मान लिया जाए और रात के लिए कहा जाए यह असत्य है! यदि एक सत्य है, तो दूसरे को भी वैसा ही कहना पड़ेगा।

    वहाँ वे दोनों, काशीराम और पतिया, ईंट, चूना और गारे के साथ जूझते है, और इधर मैं उन्हें बहुत दूर एकांत में ले पहुँचा हूँ। साधारण जन उन्हें उसी जगह देखते हैं। उनमें लेखक की अंतर्दृष्टि कहाँ? जहाँ छत पर वे दिखाई देते हैं, सचमुच में वहाँ से वे ला-पता हैं। कोई जानता नहीं है कि गए कहाँ हैं। उस छत पर काम कई दिन से रुका है। इस बीच में उन दोनों में क्या-क्या बात हुई, पहली रात उनकी किस जगह कटी, आगे चलकर पुलिस की आँख में उन्होंने किस तरह धूल डाली, और भी बहुत-सी बातें हैं, जिन्हें मैंने अच्छी तरह जान लिया है। वह नारी उस पुरुष का अपहरण पूर्णतया कर चुकी है। जो पुरुष के द्वारा नारी के अपहरण की बात पढ़ते रहते हैं, वे शंका करेंगे; पर वास्तव में बात वैसी है नहीं। पुरुषों के द्वारा नारी का अपहरण असाधारण होने से ही पत्रों में उस तरह प्रकाशित किया है।

    अपहरण!—यही मेरे नए ग्रंथ का नाम होगा; पर यह बाद में सोचा जाएगा। इस समय तो मैं देख रहा हूँ कि वे दोनों किसी दूर के शहर में जाकर, एक नए घर में टिक चुके हैं। काशीराम दिन में जब काम की खोज में बाहर चला जाता है, तब डेरे में बैठी-बैठी पतिया आस-पास के किराएदारों में अपनी मधुर मुस्कुराहट से घनिष्टता का भाव उत्पन्न करती है। यहाँ ईंट चूने के साथ जूझते हुए भी ये इतने आगे निकल चुके हैं, इसे स्वयं तक नहीं जानते!

    और आज सचमुच वह छत सूनी पड़ी है। यहाँ कई दिन पहले जो शून्यता मैंने देख ली थी, उसे दूसरे लोग आज देखते हैं। काशीराम और पतिया काम पर नहीं आए। कई दिन इस तरह निकल जाते है; किंतु वे दिखाई नहीं पड़ते। अचानक उस छत का काम रुक गया है, यह दूसरे लोग भी देख रहे है। वहाँ छत का काम रुका है, परंतु मेरे निर्माण में कोई बाधा नहीं पड़ी। उसमें तेज़ी ही आई है।

    ******

    आज हज़ारीलाल के पास चला गया था। मैंने पूछा—तुम्हारे काशीराम और रधिया का क्या हाल है?

    बोले—पता नहीं। कई दिनों से काम बंद है।

    मैंने मुस्कुराकर कहा—वही तो। कई दिन से छत सूनी दिखाई पड़ती है।

    हज़ारीलाल कहने लगे—हाँ, तुम उस ऊपर वाले कमरे में बैठते हो। एक दिन अपनी छत पर से जान पड़ा था कि तुम होगे। कहो, आजकल क्या लिखा जा रहा है? इधर तुम्हारी तारीफ़ बहुत सुनी है।

    मैंने कहा—'तारीफ़ सुनी है'—यह मेरे लिए तो तारीफ़ नहीं हुई। इतने निकट से उसे तुम देख नहीं सके, उसे तुमने सुना भर है!

    हज़ारीलाल ने कुछ लज्जित होने का भाव दिखाया। कहने लगे—हाँ भाई, तुम्हारी किसी चीज़ को अभी तक पढ़ा तो नहीं है। क्या करूँ काम-काज के मारे फ़ुर्सत नहीं मिलती।

    “फ़ुर्सत नहीं मिलती, फिर भी दुकान पर तुम्हारे यहाँ घंटों पौबारह की धूम रहती है। तुम्हें बधाई!”

    “बात यह है कि खेलने से जी हरा रहता है। और यह भी कि तुम-जैसे बड़े लेखकों की बातें हम-जैसे की समझ में नहीं आती।”

    किस बड़े लेखक की चीज़ तुमने पढ़ी थी, मैं भी तो सुनूँ।”

    जान पड़ा, हज़ारीलाल जैसे अब तक अपना गला ही गर्म कर रहे थे। अब कोई बात वे सुनाएँगे। बोले—यों ही उनकी एक पुस्तक हाथ में गई थी। पुस्तक का विज्ञापन अख़बारों में इतने मोटे-मोटे अक्षरों में हो रहा था, जैसे कहीं महायुद्ध छिड़ा हो। सब पढ़े-लिखे लोगों में उसी की चर्चा। सो ऐसे-ही-ऐसे में एक मित्र के कमरे में वह दिखाई दे गई। मैंने पढ़ने के लिए उसे चाहा, तो मित्र की तो यह हालत, जैसे मैं उनकी हवेली लूट लूँगा। हिम्मत के साथ उनका सामना करके किसी तरह पुस्तक उठा ही लाया; परंतु जाने दूँ। प्रशंसा करूँ तो वाह-वाह और निंदा करूँ तो वाह-वाह! लेखक की भलाई दोनों बातों में है। 'भाव-कुभाव अनख आलसहूँ—सभी ओर मंगल-ही-मंगल।

    मैंने पूछा—पुस्तक का नाम तो बताओ, लेखक का नाम तक नहीं लेना चाहते।

    कहने लगे—गुरु का नाम लेने की मनाई है। उस पुस्तक से बहुत बड़ी शिक्षा ले चुका हूँ, इसलिए किसी तरह उसका नाम नहीं लूँगा। और नाम तो एक झूठी या बनावटी बात है। भूकंप का, उल्कापात का, अग्निकांड का आज तक किसी ने नामकरण किया है? वह भूकंप है, वह उल्कापात है, वह अग्निकांड है, वह पुस्तक है—केवल इतना कह देने से काम निकल जाता है।

    कुछ ठहरकर हँसते हुए ही कहने लगे—पुस्तक के संबंध में प्रारंभ में ही लेखक ने प्रतिज्ञा की थी—मैं सत्य का यथार्थ और नग्न निदर्शन करूँगा!—मेरी उत्सुकता बढ़ गई। पढ़ने वाले को इसके अतिरिक्त और चाहिए क्या? उस दिन अपने खिलाड़ी साथियों को भी निराश करके मुझे लौटा देना पड़ा। पुस्तक लेकर पढ़ने बैठा, तो प्रारंभ में ही माथा ठनका! देखा—यह किन शोहदों के बीच में जा पहुँचा हूँ। एक कोई मायाविनी है, सब उसी के आस-पास चक्कर काट रहे हैं। लेखक की उन्हीं बातों में रुचि, उन्हीं बातों में उसका आनंद, और उन्हीं बातों में उसका रस। सत्य और यथार्थ का तो वह द्रष्टा ही ठहरा! वर्णांधता की बात डाक्टरों के मुँह से सुनी थी; परंतु गुणांधता का पता उसी बार चला। कुत्सित, कुरूप और घृण्य के प्रति ही लेखक का आकर्षण दिखाई दिया। शराब के भद्र दलाल देखे हैं, परंतु किताब भी वैसे ही, वरन् उससे हज़ारगुनी बुरी, दलाली इस युग में करने चलेगी, यह उसी दिन मालूम हुआ। थोड़ी देर तक ही पुस्तक हाथ में रह सकी। जब सहन करना पूर्णतया असंभव हो उठा, तब वहीं से नीचे के नाबदान में उसे छोड़ दिया। जहाँ की चीज़ थी, वहीं पहुँच गई। परंतु क्या कहूँ, इसी बात को लेकर उसी दिन से मेरे उन मित्र महोदय ने मुझसे बोलना तक बंद रखा है। बताइए, इसमें मेरा क्या दोष। तभी से किसी पुस्तक को छूते हुए डरता हूँ। इसी का फल है, जो आज तुम्हारे सामने लज्जित होना पड़ा कि तुम्हारी भी कोई चीज़ अब तक मैंने नहीं देखी।

    ग़ुस्सा होकर ही घर लौटा। जान पड़ा कि मेरे नए ग्रंथ की पूर्वालोचना करने के लिए ही हज़ारीलाल ने यह क़िस्सा गढ़ा है। उत्तर देने के लिए अब कितनी ही बातें मेरे मन में टूट पड़ी हैं। उन्हें ओज से, अलंकार के अस्त्रों से, सजाकर मैंने पंक्तिबद्ध किया; परंतु सामने प्रतिद्वंद्वी होने से आग लगी अकेली लकड़ी की भाँति अपने-आप दग्ध होकर शांत हो जाना पड़ा है। अंत में यही निश्चय रहा कि हज़ारीलाल की ख़बर अपने नए ग्रंथ में लेनी पड़ेगी। यही नाम ज्यों-का-त्यों रख कर।

    हज़ारीलाल कहाँ? आकर्षण तो उस मायाविनी के प्रति है। उस दूर के शहर में उस नए मकान के बीच जहाँ वे दोनों आजकल टिके हैं, वहीं इस समय एक भयंकर कांड होने जा रहा है। काशीराम खटिया पर लेटा हुआ है। चारों और रात का सन्नाटा। कमरे में काशीराम के घुरकने की आवाज़ को छोड़कर जैसे और कोई पदार्थ जीवित नहीं। मिट्टी के दीये की लौ तक निस्पंद है। इस समय पतिया के हाथ में अचानक एक छुरी चमक उठती है। उस चमक में जैसे छुरी का भीषण भय काँप गया हो। और इसके बाद ही एक चीत्कार, रक्त की एक धारा, थोड़ी देर के लिए तड़फड़ाहट और फिर सब कुछ सदा के लिए शांत। अब उस राक्षसी का कहीं पता तक नहीं, वह अपने नए प्रेमी के साथ सुरक्षित है।

    सब कुछ स्पष्ट हो चुका है। अब बदला जाएगा, रचना का नाम होगा—'राक्षसी'। हज़ारीलाल को छोड़ दिया जाए, तो भी हानि नहीं। पर इस समय कुछ लिखा नहीं जा रहा है। एक बात लिखने बैठता हूँ, और बस बातें दिमाग़ में कोलाहल करती हैं। किसे कहाँ जगह दूँ, समझ में नहीं आता। अभी कुछ ठहरने की आवश्यकता है। विचारों के इस उफ़ान में कितना कुछ उफ़नकर नीचे की आग में गिरा जा रहा है। गिरा जा रहा है, तो गिर जाने दो। इसके बाद भी पात्र में इतना बचेगा कि उससे 'राक्षसी' में किसी तरह की कमी पड़ेगी।

    ******

    इधर कई दिनों से हज़ारीलाल के साथ बहुत मिलना-जुलना हो रहा है। वह बुरा हो सकता है; परंतु उस बुराई से भी कुछ-न-कुछ मिलेगा ही। इस खाद से लेखक की उर्वरा-शक्ति बढ़ेगी।

    आज बहुत दिनों बाद हज़ारीलाल के यहाँ काशीराम दिखाई पड़ा। अवस्था उसकी बहुत अच्छी थी। शरीर का जैसे सारा रक्त निकल गया हो। चेहरा सूखा हुआ, दुबला-दुबला, बरसों के रोगी की तरह। स्वीकार करना पड़ेगा, उसे देखकर, दया-जैसी ही किसी वस्तु का अनुभव हुआ।

    मुझे देखकर हज़ारीलाल ने