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ज़मीन का जहाज़

zamin ka jahaz

अनुवाद : चन्द्र प्रकाश प्रभाकर 'मौतीरि'

म्या तां टिं

म्या तां टिं

ज़मीन का जहाज़

म्या तां टिं

और अधिकम्या तां टिं

    वे लोग मुझे एक जमाने से पिछड़ा हुआ आदमी कहते हैं। एक पुराने ज़माने वाला—जो नए दौर में पीछे रह गया हो या पिछड़ गया हो।

    ठीक है, कोई बात नहीं। मैं इस विषय पर कोई बहस नहीं करना चाहता। मेरी उम्र भी साठ के क़रीब हो रही है। दरअसल दो-तीन साल के बाद मैं रिटायर्ड हो जाऊँगा। ऐसे में मेरा दिल कितना भी फतीला हो, कितना भी जवान हो, जब उम्र का प्रभाव पड़ना शुरू हो जाएगा तो मैं उनसे किसी तरह की बहस नहीं कर पाऊँगा। वैसे मैं स्वस्थ और शक्तिशाली आदमी हूँ। कभी-कभार ब्लड प्रेशर या रक्तचाप हो जाने के अलावा कभी कुछ नहीं हुआ। ब्लड प्रेशर की बात के लिए तो मैं कुछ कह पाने में असमर्थ हूँ, क्योंकि यह एक आधुनिक रोग है। खान-पान में कुछ सावधानियाँ रखनी पड़ती हैं।

    मैं कॉलेज के विद्यार्थी के रूप में टेनिस का एक खिलाड़ी था। नौकरी मिल जाने पर जब काम के सिलसिले में एक जगह से दूसरी जगह तबादला हुआ, तब गोल्फ़ खेलने लगा। रंगून हेड क्वाटर्स यानी अपने मुख्य कार्यालय यांर्को: लौटने पर थोड़ा-बहुत गोल्फ़ ही खेलता रहा। दफ़्तर की गाड़ी मिल जाने पर गोल्फ़ मैदान चला जाता था। उसके बाद आठ सौ रुपये वेतन वाले कर्मचारियों को जब सरकार कारें निकालकर बेचने लगी तो, मुझे भी एक माजदा फैमिलियर मिल गई। तब मैं अपनी कार में गोल्फ़ खेलने जाने लगा। रविवार के दिन सुबह-सुबह नाश्ता करने के बाद सारा-सारा दिन गोल्फ़ खेला करता। वापसी में थोड़ी-बहुत बीयर-शीयर पी लिया करता। घर लौटकर भोजन किया करता। कुछ गीत वीत सुना करता। जिस दिन कोई मीटिंग-वीटिंग हो, उस दिन सारा कार्यक्रम पहले से तय किया करता था। जब अधिक व्यस्तता होती तो निर्धारित कार्यक्रम रद्द भी कर देता।

    लेकिन मैं अपनी कार बहुत दिनों तक अपने पास नहीं रख पाया। यांर्को: जैसे बड़े शहर और देश की राजधानी में आठ सौ रुपये वाले मेरे जैसे वेतनभोगी भला कितने दिन तक अपनी कार बरकरार रख सकते हैं? अभी कार लिए तीन साल भी पूरे नहीं हो पाए कि मुझे कार बेचनी पड़ी। कार बिक जाने पर गोल्फ़ मैदान जाना भी छूट-सा गया। गोल्फ़ स्टिक को भी घर में श्योः के साथ टाँग कर रख नहीं पाया, बेच दी। उन लोगों की ज़ुबान में कहा जाए तो शा ब्रदर्स बनना पड़ा।

    मैं सुबह-सुबह सैर किया करता था। वापस आकर अख़बार पढ़ता। नहा-धोकर भोजन करता, फिर दफ़्तर जाता। कभी-कभार साथियों-यारों, सह कर्मियों के साथ घर के बाहर भोजन किया करता। इतवार की सुबह घर वालों के साथ श्वटेंगा मंदिर जाया करता। शायद यह बढ़ती हुई उम्र का प्रभाव हो। हम दोनों पति-पत्नी का धार्मिक कार्यों की ओर अधिक झुकाव होने लगा। अपने धर्म में अधिक आस्था होने लगी।

    दोपहर के समय घर में कुछ-न-कुछ पकवान तैयार किया जाता। हम खाते-पीते और फिर रिश्तेदारों और दोस्तों के यहाँ घूमने जाते। तुवना में रहने वाले अपने बड़े भैया के यहाँ और कभी-कभार सां:ध्वों में रहने वाली अपनी मौसियों के पास जाते। वे भी हमारे यहाँ आया करतीं। आने-जाने का सिलसिला बना हुआ था। आज के युग में, माता-पिता, बच्चे और भाई-बहन और दूसरे रिश्तेदार एक-दूसरे से काफ़ी दूर रहते हैं और उनका आपस में जो प्यार होना चाहिए—वह नहीं रहता। इसलिए दूरी की अनदेखी कर, आपस में प्यार-सम्मान बढ़ाने के लिए एक-दूसरे के यहाँ जाने-आने और घूमने का सिलसिला रखा जाता है। तभी लोग अपने रिश्तेदारों और सगे-संबंधियों के पास आया-जाया करते हैं। जो बराबर नहीं आ-जा सकते थे, वे महीने दो महीने में एक बार ही जाते थे।

    जिन दिनों स्कूल की छुट्टी हो, दफ़्तर बंद हो, उन दिनों कई छोटे-मोटे घरेलू काम किए जाते हैं। इसलिए छुट्टियों में बाहरी कार्यों की वजह से फ़ुर्सत नहीं होती।

    मेरा घर यांकि: में है। इसमें तीन तँग कमरों की छोटी-सी कोठी है। हम भाग्यवान हैं कि हमें तीन कमरों वाली यह कोठी मिली हुई है। माता-पिता और बच्चों को मिलाकर हम सात लोग हैं। हमारे पास एक कमरा है। तीन बेटों के लिए एक कमरा और दोनों बेटियों के लिए एक कमरा हैं। तभी घर के ख़र्चे में रियायत हो जाती है। बड़ा बेटा बी (पेट्रोलियम) पास है और हाल में खुली एक तेल-भूमि पर काम पाने के लिए सफल हो गया है। वह माँ-बाप की मदद पैसों से तो नहीं कर सकता, लेकिन अपने पैरों पर खड़ा होकर उसने माँ-बाप को अवश्य ही कुछ राहत पहुँचाई है। इतनी मदद ही काफ़ी है कि माँ-बाप को उसका ख़र्च अब नहीं उठाना पड़ता।

    हमारा घर अब काफ़ी खुला-खुला है ओवरवेट हो रही मोटरों की तरह। जैसे ही भार हल्का हुआ, रफ़्तार तेज़ हो जाती है और इंजन को राहत मिलती है। अब घर में हाथ-पाँव हिलाने वाले सिर्फ़ चार लोग रह गए थे।

    मैं यह तो नहीं कह सकता कि बाक़ी चारों ही बेकार हैं। बाक़ी बचे दो बेटे और दो बेटियाँ। बड़ी बेटी एम०सी० वन में पढ़ रही है, जिसे आजकल आई० एम० वन कहते हैं। यह चिकित्सा वर्ग का पहला वर्ष है। मँझला लड़का एक अस्पताल टिम्वे: कु में था। छोटी बेटी जू: में थी। उसे एम०सी० वगैरह में दाख़िला नहीं मिल पाया, पर इसे भी बुरा तो नहीं कह सकते। वह ग्रेड फोर में प्रवेश पा लेने में कामयाब रही है। इसमें पा लेना भी कमाल है। इससे मास्टर्स वास्टर्स की डिग्री हासिल कर सकते हैं। भाग्य साथ है तो ट्रेनिंग वगैरह के बाद कोई नौकरी-वौकरी हाथ लग सकती है।

    असली समस्या है सबसे छोटे “ज़ो मौ” की। यह गधा दसवीं कक्षा में तीन बार फेल हो चुका है। सबसे छोटा भी है। माँ भी उसे कुछ ज़्यादा ही लाड़-प्यार करती है। उसकी ज़िद भी पूरी करती है। माँ ही क्यों? बाप, यानी मैं भी उसकी उल्टी-सीधी बातों में जाता हूँ और उसकी ज़िद पूरी कर दिया करता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं अपने बच्चों में से किसी को ज़्यादा और किसी को कम प्यार करता हूँ। मुझे पता है कि अपने ही बच्चों में से किसी को ज़्यादा और किसी को कम प्यार देना अन्याय है, अनुचित है। मेरी हमेशा यही कोशिश होती है कि मैं अपना प्यार बच्चों में एक बराबर बाँटा करूँ।

    इन्हीं विचारों के चलते छोटे बेटे जो मौ को बड़े बेटों से अधिक प्यार करने पर भी उसकी ज़िद पूरी करने में मैंने पत्नी का साथ दिया है। प्यार उसे ज़्यादा नहीं कर पाया, लेकिन उसकी ज़िद पूरी करने में कुछ ज़्यादा ही साथ देता रहा। इसमें कोई कुछ नहीं कर पाएगा। मैं ख़ुद भी नहीं। क्योंकि जब घर के बड़ों का ज़माना था और दादा-दादी ज़िंदा थे, तब बच्चों को भरपूर लाड़-प्यार दिया करते थे। उनकी ज़िद पूरी करने वाले चाचा-चाची थे। उन्होंने इन्हें अपने हाथों कभी नीचे नहीं बैठाया। सदा ऊपर उठाकर रखते थे। अब दादा-दादी और नाना-नानी भी नहीं रहे। चाचा-चाची विवाह के बाद अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हो जाने पर दूसरों के बच्चों से लाड़-प्यार करने की बात तो दूर, अपने बच्चों को भी ज़्यादा सिर नहीं चढ़ाते थे, इसीलिए छोटे बेटे जो मौ को हम माँ-बाप कुछ ज़्यादा ही लाड़-प्यार करते थे। इस बारे में बड़ों को भी समझा दिया गया था।

    जिस साल जो मौ आठवीं कक्षा में पहुँचा, मेरी तरक़्की हुई और मेरा तबादला रंगून हो गया। प्रदेशों में हमें खुले घरों में रहने की आदत पड़ गई थी। इसलिए यांकि: वाली कोठी के तँग कमरों में रहने में कोई आनंद नहीं रहा था। इस बारे में हम कुछ करने में असमर्थ थे। मैं क़स्बे का रहने वाला था और पत्नी भी क़स्बे की रहने वाली थी। रंगून में हमारी कोई ज़मीन-जाएदाद तो थी नहीं। तँग कमरे नसीब होना ही बहुत था। यह अच्छे भाग्य का परिणाम था।

    जब हम रंगून पहुँचे, तब जो मौ की उम्र ज़्यादा-से-ज़्यादा चौदह साल से कुछ अधिक की रही होगी। तब मेरे बड़े बेटे बसों में स्कूल जाया करते थे। एक चिकित्सा पाठ्यक्रम के पहले साल में था दूसरा ‘राजू:’ में और तीसरा ‘टीम्वे: कु’ में।

    ऐसे में यह समस्या खड़ी हो उठी कि हम सबसे छोटे जानवर जो मौ को स्कूल कैसे भेजें? बड़े बेटे उच्च शिक्षा का अध्ययन कर रहे थे। कभी-कभार ऐसा भी हुआ करता था, जब पूरे दिन में किसी घंटी में क्लास में नहीं जाना पड़ता था, इसलिए वे घर में ही रह जाते थे।

    ज़ो मौ जिस हाईस्कूल में पढ़ता था, वह दिन का स्कूल था। उसे ठीक समय पर स्कूल में उपस्थित होना होता था। उसका स्कूल सुबह साढ़े नौ बजे लगता था और जो शाम के साढ़े तीन बजे तक चलता था। रास्ता एक होने पर भी उसे बड़ों के साथ भेजना अव्यावहारिक था। मैं चाहता था कि वह बस से ही स्कूल जाए। पर उसकी माँ कहा करती थी कि मैं अपने सबसे छोटे बेटे को स्कूल बस में नहीं भेजना चाहती। सुरक्षा के हिसाब से मैं उस पर पूरा भरोसा नहीं कर सकती। बसें ठसाठस भरी रहती हैं और फिर आजकल के छोकरे बस के अंदर बैठकर एक पाँव बस के पायदान पर और दूसरा पाँव नीचे लटकाते हुए अपनी जान हथेली पर रखकर सवारी करते हैं। तभी वह अपने सबसे छोटे बेटे को बस से नहीं भेजना चाहती, उसका दिल नहीं मानता। उसे बस से स्कूल भेजा भी जाए तो स्कूल तक पहुँचने के लिए दो बसें बदलनी होती हैं। इसमें पैसे भी ज़्यादा ख़र्च होंगे और बच्चे को थकान भी अधिक होगी। इसलिए पत्नी कहती कि जो मौ को फैरी से ही स्कूल जाना चाहिए।

    पत्नी बहाने अच्छा बनाती है, इसलिए मैंने उनकी सलाह मान ली। सलाह कहने की बजाए, यह कहना उचित होगा कि मैंने उनकी योजना और व्यवस्था को स्वीकार लिया। अगर मैं स्वीकार नहीं करता, तब भी यही होना था।

    चलिए इसमें भी कोई बुरी बात नहीं, लेकिन उसे साथ में टिफ़िन भी देना पड़ता। स्कूल की बसें अपनी बारी और समय के अनुसार हमारी तरफ़ सुबह एक बार कुछ जल्दी और दूसरी बार देर से आया करतीं। वापसी में भी एक बार जल्दी और दूसरी बार देर से छोड़तीं। पूरा चक्कर लगाकर तमाम बच्चों को इकट्ठा कर ले जाने में, सुबह जल्दी जाने वालों को भी तरह-तरह की असुविधाएँ और दिक़्क़तें होती। वापसी में भी बसों के देर से पहुँचने पर वैसी ही परेशानियाँ होतीं। इसलिए बच्चों के अभिभावक अक्सर परेशान और नाख़ुश रहते।

    हमारी कोठी के सामने वाली बस एक दिन जल्दी तो दूसरे दिन देर से आती। जिस दिन वह लेट हो तो कोई ख़ास बात नहीं होती, लेकिन जिस दिन जल्दी आती, उस दिन मेरी पत्नी को बड़ी परेशानी होती। उसे सुबह-सुबह उठकर नाश्ता बनाना पड़ता और उसे टिफ़िन बस्ते में डालकर देना होता। रात में बनी सब्ज़ी को गर्म करना पड़ता, लाचारी थी। उसकी वजह से घर के दूसरे सदस्यों को अपने-अपने कार्यक्रमों में कुछ तब्दीलियाँ करनी पड़ीं।

    पत्नी को शाम के समय बाज़ार दौड़ना होता। वापसी में सब कुछ पकाकर तैयार रखना होता। सुबह उठते ही सबसे पहले चूल्हे पर चावल का पतीला रखना होता। थकान तो काफ़ी होती पर वक़्त की ज़रूरत के चलते उसे आदत-सी हो गई थी।

    लेकिन नई व्यवस्था में भोजन के टिफ़िन को लेकर एक नई समस्या शुरू हुई। मेरा परिवार वन-मैन इनकम वाला परिवार था, जिसमें केवल एक ही व्यक्ति कमाता है और वही आय का एकमात्र स्रोत होता है। महीने के अंतिम दिन बीतते-न-बीतते घर में पैसों की तँगी होने लगती। कहने को तो महीने के अंतिम दिनों में तँगी होती है, लेकिन सच्चाई यह थी कि पंद्रह तारीख़ के बाद ही पैसों का अकाल पड़ना शुरू हो जाता और सालन और सब्ज़ियों के स्तर में गिरावट होने लगती।

    सबसे छोटा बेटा जो मौ शायद ‘अत्रा’ नक्षत्र में पैदा हुआ था। उसे तेल में तली चीज़ें बड़ी पसंद थीं। आधे महीने के बाद उसको टिफ़िन में कभी तले हुए उबले मटर, कभी बतख़ के अंडे की करी, माँस डालकर तली हुई सब्ज़ियाँ और कभी-कभार सस्ती समुद्री मछली मिलती थी—जिसकी बू दूर करने के लिए ढेर सारे मसाले डालने पड़ते थे। ऐसे में भी छोटे लाट साहब शिकायत करते रहते थे।

    स्कूल में जब उसके साथी अपना-अपना टिफ़िन खोलकर एकसाथ बैठकर खाया करते, तो वहाँ कई तरह की सब्ज़ी होती। इधर उसे अपनी सब्ज़ी के कारण हमेशा शर्म उठानी पड़ती थी। उसके दोस्त उसका मज़ाक उड़ाते, इसलिए तो वह टिफ़िन साथ ले जाना चाहता था और ही उनके साथ बैठकर खाना चाहता था। मैं उसे समझाने की हर मुमकिन कोशिश करता। मैं उसकी समस्या भी समझना चाहता था, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। सुबह-सुबह घर में जो कुछ भी पक जाता था उसे ही खाकर वह चला जाया करता था। दोपहर के समय जब भूख सताती तो वह कुछ ख़रीदकर खा-पी लेता था। दोपहर के समय भूख लगना स्वाभाविक है। जब मैंने उससे कहा तो वह बोला—कोई बात नहीं, मैं अपने आपको सँभाल लूँगा। कोशिश करूँगा कि भूख लगे। उसकी इस बात पर हम कुछ नहीं कर पाए। यह उसका अपना व्यक्तिगत फ़ैसला था। हाँ, जब वह स्कूल से घर पहुँचता तो पहुँचते ही एक बड़ी-सी थाली लेकर उसमें भात-सब्ज़ी भर लेता और पेट भरकर खा लेता। खाने के बाद यहाँ-वहाँ घूमने जाता था। शाम के समय, सात या आठ बजे-भूख लग गई है, ऐसा कहकर एक बार फिर खाना खा लेता। ऐसे में वह कुछ ज़्यादा ही खा जाता। ख़ैर कोई बात नहीं। मैं इसकी भी शिकायत नहीं करता, क्योंकि कोई अभिभावक या माता-पिता ऐसे नहीं होंगे, जो यह नहीं चाहते हों कि उनके बच्चे भरपेट खाना खाएँ।

    जब वह नवीं कक्षा में पहुँचा तो उसने शुरू में ही एक बस्ता ख़रीदकर देने के लिए अपनी माँ से कहा। वैसे उसका बस्ता अभी बिल्कुल ठीक-ठाक था। कछिन प्रदेश से लौटते हुए मैंने यह बस्ता उसके लिए ख़रीदा था। पिछले साल दिसंबर महीने में ही मैंने उसे बस्ता ख़रीदकर दिया था। बीच में छुट्टियों वाला समय निकाल दिया जाए तो बड़ी मुश्किल से उसने इसे छ: महीने तक इस्तेमाल किया होगा, लेकिन अब उसकी ज़िद थी कि वह इस बस्ते को हाथ नहीं लगाएगा। उसे एक नया बस्ता ख़रीद कर देना होगा।

    एक दिन हमारी कोठी के नीचे वाले मकान में उसने दो युवतियों के हाथ में नए रंग-रूप का थैला देख लिया था और तभी से वह अपनी माँ से नया बस्ता ख़रीद देने की ज़िद पर अड़ा हुआ था।

    उसकी पसंद वाला बस्ता वैसे ख़ूबसूरत था। लड़कियों के कोमल हाथ में वह बस्ता भले ही अधिक समय चल जाता, लेकिन ऐसे कठोर लड़के के हाथ में ये बस्ते बिल्कुल नहीं चल सकते थे। फिर भी मैंने उसे यह बस्ता ख़रीदकर दे दिया। हालाँकि नए बस्ते की ख़रीद का विरोध करने वालों में मैं अकेला ही था। उसकी माँ, बहन और भाई सारे उसकी ओर थे।

    उसकी माँ और बहनें शिकायत किया करतीं कि पिताजी ज़माने की रफ़्तार से काफ़ी पीछे हैं। आजकल के लड़के आप लोगों जैसे मोटे-मोटे थैले पसंद नहीं करते। वे हल्के और सुंदर थैले पसंद किया करते हैं। आप लोग तो अक्सर कछिन बस्ते पसंद करते हैं, जो बहुत पुराने ज़माने से चले रहे हैं।

    मैंने कोई जवाब नहीं दिया। चुप और शांत रहा। कुछ ही दिनों बाद की बात है। दीवाली की छुट्टियों के बाद जिस दिन स्कूल खुला घर की बैठक में उसकी बड़ी बहनें और छोटा भाई किसी बात पर बहस कर रहे थे। उनकी ऊँची आवाज़ें सीढ़ियों से सुनाई दे रही थीं। आवाज़ों में माँ की आवाज़ भी शामिल थी। दोनों बहनें किसी को डाँट रही थीं। जो मौ भी चिल्ला रहा था। उसकी माँ का जैसे धैर्य टूट गया और वह निराशा में कुछ बड़बड़ा रही थी।

    जब मैं ज़ोर से चिल्लाया तो दरवाज़ा खोल दिया गया। कमरे के अंदर जाने वे क्या कर रहे थे? जैसे ही मैं वहाँ पहुँचा, पत्नी ने कहा, “अरे, आज तो तुम जल्दी गए। दोनों बेटियाँ और जो मौ चुपचाप अपने-अपने कमरों में चले गए। उनके चेहरे का भाव बता रहा था कि वे ख़ुश नहीं। उनसे मैंने भी कुछ नहीं पूछा। उन्होंने भी कुछ नहीं बताया।

    इसी तरह एक हफ़्ता गुज़र गया।

    एक दिन मैं दफ़्तर जाने से पहले घर में बैठकर अँग्रेज़ी में ख़बरें सुन रहा था। बैठक में दोनों बेटियाँ और जो मौ की तेज़ बहस की आवाज़ें ऊपर आती सुनाई दे रही थीं। हर रोज़ मेरी दोनों बेटियाँ और मेरी पत्नी मेरे लौटने का इंतज़ार किया करती थीं। वे जैसे ही मुझे देखतीं, घर के सामने का दरवाज़ा खोल दिया करतीं। लेकिन आज घर के बरामदे पर तो पत्नी दिखाई दे रही थी बेटियाँ। बेटियाँ शायद अभी स्कूल से लौटी नहीं थीं। माँ छोटे बेटे को भोजन कराने में व्यस्त थी।

    मेरा कमरा दूसरी मंजिल पर था, इसलिए मैं सीढ़ियाँ पार कर ऊपर जाने लगा। मुझे अपने कमरे से नीचे से आती ज़ोर-ज़ोर से बातें सुनाई पड़ीं। यह सबसे छोटे बेटे जो मौ की आवाज़ थी। दोनों बेटियाँ की ओर उनकी माँ जाने वे क्या बोल रही थी? दोनों बहनें उसे डाँट रही थीं और जो मौ अभी भी चिल्ला रहा था। उसकी माँ का भी जैसे धैर्य समाप्त हो गया हो। क्या बात है, यह जानने के लिए मैंने दरवाज़ा खोला। ना जाने घर के भीतर जाने क्या बातें कर रहे थे? जैसे ही मैं वहाँ पहुँचा, पत्नी चुप हो गई।

    ‘‘स्कूल जा रहा हूँ,” जो मौ ने कहा और कमरे से बाहर चला गया। जब मैंने उसकी ओर नज़रें उठाकर देखा तो उसके कंधे पर उसका नया बस्ता नहीं था। उसकी जगह एक सैनिक थैला दिखा।

    ‘‘ओए ज़ो मौ, तुम्हारा बस्ता कहाँ है?”

    “है न!”

    उसी समय स्कूल बस गई थी और आगे पूछताछ के लिए मेरे पास समय नहीं था। स्कूल बस के जाने के बाद मैं भी दफ़्तर चला आया। जाते-जाते उसकी माँ ने बताया कि बेटा बहुत ज़िद कर रहा था, इसलिए वह ख़ुद बाज़ार गई और उसके लिए नया सैनिक थैला लेकर आई थी।

    मेरी समझ में नहीं रहा था कि जब उसके पास पहले से ही दो-दो बस्ते थे तो उसने एक और नया थैला ख़रीदने की ज़िद क्यों की? अगर बच्चे ने ज़िद की भी तो उसकी माँ ने इसे पूरा क्यों किया?

    “पिताजी! आप समझते क्यों नहीं? आजकल के बच्चे वे थैले इस्तेमाल नहीं करते, जो आप लोग कभी किया करते थे। आजकल के बच्चे सिपाहियों की तरह कंधे पर ख़ाकी थैले लटकाकर चलना पसंद करते हैं। स्कूल जाने वाले बच्चे भी जब ऐसी चीज़ों का इस्तेमाल कर रहे हों तो फिर आप अपने बच्चों को ही क्यों दोष दे रहे हैं?”

    मैंने ज़्यादा बहस नहीं की। वैसे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना था। नया फ़ौजी बस्ता ख़रीदा जा चुका था।

    आजकल के बच्चे भी अजीब हैं। किसी ने कछिन बैग शुरू किया तो सब कछिन बैग इस्तेमाल करने लगते। किसी ने जींस बैग शुरू किया तो उन्हें फिर जींस बैग ही लेना होता है। अगर किसी ने सैनिक बस्ता अपना लिया तो सबका मन होता है कि सैनिक बस्ता ही लिया जाए। अब तो शायद फ़ौजी बैग का भी ज़माना लद गया है। हर रोज़ मैं ही हार मान लिया करता था। आजकल कमबोजा और यामनियाँ का दौर है। उधर हाल का सैनिक बैग अलमारी में बैठकर पेंशन ले रहा था।

    मैंने और कुछ नहीं कहा। अगर मैं कहता तो मुझे यही सुनना पड़ता कि आप ठहरे पुराने ज़माने के लोग। इस ज़माने की बातों को भला क्या ख़ाक समझें? दसवीं में दो बार फेल हो जाने के बाद छोटे लड़के ने गिटार बजाना शुरू कर दिया। गिटार बजाने का शौक़ कभी मुझे भी था। जवानी के दिनों में मैं जिस होस्टल में रहता था, उसमें पहले करीन अंग्रेज़ रहा करते थे। मैं उन दिनों स्पैनिश गिटार बजाया करता था। इस पर गाने के बोल हुआ कहते थे ‘ओ रो समारी लव मी टेंडर महाराजा। ब्ल्यू स्टाइल।’ यह तब के मशहूर गीतों में एक था।

    हम गिटार अपने कमरे में ही बजाते थे। चाँदनी रात में तीरी बेंटन हाल के सामने सीमेंट की बेंचों पर, नीम के पेड़ तले, चर्च के साये में और रात के समय अँधेरे में जब आने-जाने वाले नहीं के बराबर होते थे—हम लोग गिटार बजाया करते थे।

    लेकिन अब तो ज़ो मौ जैसों का ज़माना है। यह बात मेरे गले कभी नहीं उतरती कि दोपहर के समय घर की सीढ़ियों पर बैठकर, दूसरों की कोठियों के सामने या खिड़कियों के पास या बेशर्मी से कभी-कभी सीढ़ियों के बीच सब मिलकर बैठ जाते हैं और गाने-बजाने लगते हैं। ऊपर चढ़ने का रास्ता तक नहीं छोड़ते। ऐसे में उनसे बड़ी चिरौरी करने के बाद ही लोगों को आने-जाने का रास्ता मिल पाता है।

    इस जानवर की ज़िद के चलते विशेष ख़ासतौर से जमा की गई कुछ रक़म में से पत्नी ने उसे एक गिटार ख़रीद दिया था। ना जाने वह गिटार कब बजाता था, लेकिन वह तो अपने घर में उतरने-चढ़ने वाली सीढ़ियों को और दूसरे घरों की चढ़ने-उतरने वाली सीढ़ियों को बख़्शा करता। ये लड़के दूसरे की कोठी की सीढ़ियों पर दिन-दोपहर से ही दम-दम बज़ाना शुरू कर देते थे।

    मैंने जो मौ से इस बारे में बात की। मैंने उसे समझाया कि यह गिटार तुम्हारा व्यक्तिगत पसंद है—इसके लिए किसी का विरोध नहीं होना चाहिए। दोपहर के समय दूसरों की सीढ़ियों पर जमकर बैठ जाना और घंटों गिटार बजाते रहना बेहूदगी है। मैंने उसे यह भी समझाया कि अगर तुम कोई अँग्रेज़ी गाना बजा रहे हो तो वह अँग्रेज़ी में होना चाहिए। तुम लोग जो गाते-बजाते हो वह देशी होता है विलायती। जब दूसरा विश्वयुद्ध नहीं छिड़ा था, तब वन कंपनी ने कुछ गीतों की रिकार्डिंग की थी। उनमें कुछ अँग्रेज़ी शब्दावली भी थी। उन्हीं को अच्छी तरह सुनकर अपनी ज़ुबान में गाया जाए तो वे बड़े अच्छे आधुनिक गीत साबित हो सकते हैं। पर मेरी बात वे क्यों मानने लगे? मेरे पीछे वे मुँह चिढ़ाकर कहते—“यह बूढ़ा एक़दम आउटडेटेड है, सठिया गया है।”

    घर में एक कैसेट रिकॉर्डर भी था। मैंने कोशिश की थी कि ये बच्चे हमारी पुरानी संगीत परंपरा अच्छी तरह समझ सकें। इसलिए उनसे जुड़े सारे कैसेट इकट्ठे भी दिए थे। इस बात को भूल जाइये कि उन्हें बर्मी संगीत अच्छा लगता है या नहीं। बजाने वाले की तैयारी ऐसी होनी चाहिए और उसके बजाने का स्तर ऐसा हो कि संगीत का थोड़ा-बहुत शौक़ रखने वाले उसके संगीत को सुन कर झेल सकें। मैंने पुराने वाद्यों से बजाए गए पुराने कलाकारों के गीतों को और नए कलाकारों की पुरानी धुनों के साथ गाए गए गीतों को एक जगह जुटा कर बच्चों को दे रखा था, ताकि वे दोनों की तुलना कर सकें और अच्छाई-बुराई को ख़ुद समझ सकें। आजकल के मशहूर पश्चिमी गायकों के गीत भी मैंने ख़रीद कर दे रखे थे।

    पर वे कुछ भी सुनते नहीं थे। वे एक तरह का पॉप संगीत सुनते थे, जो पश्चिमी था पूर्वी और ही बर्मी। मैंने भी यह नहीं कहा कि उन्हें ये गीत नहीं सुनने चाहिए। मैंने उनसे बर्मी रेडियो द्वारा प्रसारित पुराने गीतों को सुनने के लिए भी कहा। इन्हें सुनने के बाद ही सब तरह की चीज़ों के बारे में ज्ञान हो जाए तो अपनी पसंद-नापसंद का फैसला अलग से कर लेना चाहिए, लेकिन वे वैसे नहीं। कुछ जाने बिना वे सनक के पीछे लगे रहते हैं और बाक़ी सबको बेकार समझते हैं।

    मैंने उन्हें माऊ को और टेने टेमिया पुष्प वन गीत के रिकॉर्ड सुनवाए। उनसे कहा कि ज़रा इसका स्वाद और आनन्द उठाओ। मैंने इन गीतों का गहरा मतलब भी विस्तार से समझाया। मारे थकावट के मेरी जीभ तक बाहर निकल रही थी, लेकिन शायद उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा।

    इस पर मेरे बेटे जो मौ ने क्या कहा, पता है ! पिताजी ये आप क्या सुना रहे हो हमें? क्या है यह? पुष्प वन—जहाँ आशा की जगह निराशा छाई रहती है। मैंने बेटे से कहा कि मैं तुम्हें एक बार अपने ज़माने के गीत बजाकर सुनाता हूँ। मैंने बिंकटोरोटी का गाया ब्ल्यू स्टाइल, फ्रेंक सिनात्रा, थ्री लीटल वर्क्स गायक नाकिन को ही अनाना जैसे गीतों को बजाकर सुनाने का फैसला किया। एक गीत जिसका शीर्षक था—स्लो बोट टु चाईना! जब मैंने यह सुनाया तो मेरे बेटे से नहीं रहा गया और उसने मुझे टोकते हुए कहा—“पिताजी, आप कौन-सी विक्टोरिया महारानी के युग की बात करते हैं? इस ज़माने में यह सब नहीं चलता। कोई डिस्को-विस्को हो तो बात करिए।”

    बेटे की बात सुनकर मैंने और आगे कुछ कहने की बात छोड़ दी। मैंने सोचा—जो होगा—सब अच्छा ही होगा।

    मेरा बेटा जो मौ दूसरों के घरों में सीढ़ी के पास बैठकर रोज़ दोपहर गिटार बजाता हुआ डिस्को डाँसर बनने की कोशिश कर रहा था।

    जब वह दसवीं में तीसरी बार फेल हुआ तो उसने कहना शुरू कर दिया कि अब मैं पढ़ना नहीं चाहता। यह बात उसने मुझसे सीधे-सीधे नहीं कही। उसने अपनी माँ से कही। जब से वह दूसरी बार फेल हुआ था—मैं उसके साथ कुछ सख़्ती से पेश रहा था।

    “वह स्कूल छोड़कर क्या करने के बारे सोच रहा है?” मैंने पत्नी से पूछा।

    पत्नी ने कहा—“वह पानी के जहाज़ पर नौकरी करना चाहता है। वह चाहता है कि आप उसके लिए कहीं सिफ़ारिश...!”

    “ज़रा रुको! मैं भला किससे सिफ़ारिश करूँ?”

    “कर नहीं सकते! जिनसे संबंधित थे, शायद उनसे!”

    अगर मैं इसकी सिफ़ारिश करना भी चाहता तो भी वह यह नहीं चाहेगा कि एक जहाज़ी बनें। यह तो अच्छी बात है कि कोई अपने हौसले और बलबूते पर विदेश यात्रा का भ्रमण करे। इससे देश-प्रदेश के अनुभव और ज्ञान प्राप्त होते हैं, इन्हें हम पैसे से नहीं ख़रीद सकते। बाहर जाकर काम करने वालों के कारण देश को विदेशी मुद्रा मिलती है, यह तो अच्छा विचार है।

    वैसे अगर आप एक जहाज़ी हो भी गए, आप बाहर जाकर, पैसे कमाकर एक कार भी ख़रीद लाए तो उसके बाद आप क्या करेंगे? दूसरी बार भी क्या आप जहाज़ी बनकर जाएँगे? इसकी क्या गारंटी है कि आप जब-जब कभी बाहर जाएँगे और जहाँ कहीं एक जहाज़ी के रूप में जाएँगे, वहाँ आप लाभ या हानि देखकर कोई काम करेंगे? इस बात की क्या गारंटी है कि आप जहाँ भी जाएँगे हमेशा सफल रहेंगे? इस बात की क्या गारंटी है कि बाहर जाकर आपकी नीयत बदल जाएगी और फिर आप स्वदेश वापस आएँगे? क्या यह सब विचार करने योग्य नहीं है? आप ख़ुद सोचें कि आपको एक जहाज़ी बनकर जाना चाहिए कि नहीं? आप गिटार इसलिए बजाते हैं कि दूसरे बजाते हैं। दूसरे जब जींस के बैग ख़रीदते हैं तो आप भी लेना चाहते हैं। दूसरे सैनिक बस्ता लेना चाहते हैं तो आप भी वही पाना चाहते हैं। इस बात का महत्व नहीं है कि नए थैले के पैसे ज़्यादा लग जाएँगे। दूसरों की देखादेखी बिना किसी तैयारी के जहाज़ी बनकर विदेश जाना तो और भी अनुचित है।

    “नहीं भाई, मैं इसकी इज़ाज़त नहीं दे सकता।” मैंने उसकी माँ से कहा—“तुम दोबारा सोचकर तो देखो?” मैंने भी ज़िद की।

    “नहीं-नहीं मैं नहीं सोच सकती, मैंने तो फैसला कर लिया है। फिर भी तुम सोच लो, अभी थोड़े ही जाना है। अगर तुम्हें ठीक लगे तो इज़ाज़त दे देना। बाद की बात बाद में देखी जाएगी।”

    “नहीं-नहीं, मैंने फैसला कर लिया है। मैं इसकी इज़ाज़त नहीं दे सकता।” मैंने दो टूक बात कह डाली।

    “पता है, आप तो बहुत पुराने विचार वाले हैं। कई लोगों के बेटे-बेटियाँ बाहर जाकर काम कर रहे हैं। सेठों और साहूकार के बेटे बाहर जा रहे हैं। जिसे देखो वही जहाज़ पर नौकरी करता विदेश चला जाता है। जब वे लौटते हैं तो उनके पास बेशुमार दौलत और विदेशी चीज़ें होती हैं। विदेशी गाड़ियाँ होती हैं। इसकी अपने देश में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। तुम अपने ज़माने में कार की सवारी नहीं कर सकते थे, कोई बात नहीं। लेकिन अब तुम अपने बेटे के समय यह कर सकते हो। यह काम अपना बेटा करवा सकता है, लेकिन तुम इस मौक़े को गँवा देना चाहते हो। तुम कोई भी काम ज़बरदस्ती नहीं करा सकते और बेटे को कहीं पागलपन का दौरा चढ़ गया तो लेने के देने पड़ जाएँगे। जब बच्चे पढ़ रहे थे, तब उन्होंने कभी इस बात का एहसास नहीं किया कि उन्हें भी दूसरे लोगों की तरह विदेशी गाड़ियाँ चाहिए, विदेशी सामान चाहिए। अब जबकि वह दूसरे लोगों की देखादेखी जहाज़ी बनना चाहता है, विदेश से ढेर सारे रुपए कमाकर लाना चाहता है तो तुम इसकी अनुमति नहीं देना चाहते। जिस विदेशी कार की तुम कल्पना नहीं कर पाये तुम्हारा लड़का उस पर बैठाना चाहता है तो उसे विदेश जाने की अनुमति देनी चाहिए कि नहीं?”

    उसकी इस बात पर मेरे पेट में एक ज़ोरदार घूँसा-सा लगा। अगर पत्नी की बात का ठीक से मतलब निकाला जाए तो बेटा यही कहना चाहता है कि जो चीज़ें आप अपनी क़ाबलियत से बेटे-बेटियों के लिए मुहैया नहीं करा पाए, उन्हें मैं अपने बाहुबल से प्राप्त कर सकता हूँ। इसलिए उसके मार्ग में रुकावट पैदा करने की कोई ज़रूरत नहीं। इसका हमें कोई हक़ नहीं और हमें उसे जाने की अनुमति दे देनी चाहिए।

    मेरे पेट में एक और ज़बरदस्त घूँसा आकर लगा। मुझे यह दर्द सहना ही था, लेकिन पत्नी ज़रा होशियार थी। मेरी कमज़ोरी को उसने दबाये रखा। उसने ऐसा कर बीच-बचाव और समझौते का रास्ता ढूँढ़ निकाला जिससे मुझे अधिक दर्द ना हो।

    “मैंने तो इसलिए कहा था कि अनुमति दे दो। क्योंकि जहाँ बेटे की इच्छा पूरी होती पिता को रिटायरमेंट के बाद आराम से रहना नसीब होता। तुमने उम्र भर बीवी और बच्चों को अपनी मेहनत से खिलाया, पाला-पोसा और सम्मान दिलवाया। तुम इस परिवार को बहुत सुख नहीं दे पाये तो आराम से तो अवश्य ही रखा है। मैंने भी एक पत्नी के रूप में सारे घर की देखभाल की है। मैंने कभी एक पैसे की कंजूसी नहीं की। बेटे की ज़िद है कि मुझे तो जहाज़ी बनकर जाना है। ऐसा नहीं है कि वह अचानक उठकर चल देगा। वह कम-से-कम दसवीं पास करने के बाद ही जाएगा। अभी उसके दसवीं पास होने में देर है। यह सलाह-मशविरा इसलिए करना पड़ रहा है कि अगर वह कुछ करना चाहे तो पहले से ही सोच-समझकर अपना क़दम आगे बढ़ाए।”

    मैंने कुछ नहीं कहा चुप और शांत रहा। अभी तक मैं बिल्कुल अकेला पड़ा था। उसकी तरफ़ सब थे। दसवीं कक्षा का दूसरी बार इम्तिहान देने के बाद जो मौ बाहर के अध्यापक से ट्यूशन पढ़ने जाने लगा था। अपने स्कूल के अध्यापकों से ट्यूशन नहीं ले सकता। गणित, रसायन और अंग्रेज़ी की फ़ीस हर महीने साठ रुपए से ऊपर होती थी। बस का किराया और जेब ख़र्ची भी डेढ़-दो सौ रुपए हो जाती थी। कोचिंग स्कूलों का भी अलग-अलग समय था। किसी स्कूल में सुबह जाना होता तो किसी में दोपहर को और किसी में रात को। जब मैं सुबह टहल कर घर लौटता तो वह घर पर नहीं होता था। स्कूल जाने के बाद रविवार के दिन मैं परिवार के सदस्यों के साथ किसी आश्रम में उपवास कर बिताना चाहता था, लेकिन वह कभी दिखाई नहीं देता था। जब भी पूछो किसी-न-किसी स्कूल गया होता था। शाम को दफ़्तर से घर पहुँचने पर भी वह कभी दिखाई नहीं देता था। उसे दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौथे स्कूल जाना होता था। स्कूल से लौटकर खाना खाकर वह तेज़ी से निकल जाता था। जाते समय उसके हाथ में गिटार होता था। ज़्यादातर मौक़ों पर जब मैं सोने जाता था, तभी वह लौटा करता था। चूँकि मैं सुबह जल्दी उठकर टहला करता था, इसलिए रात को ठीक दस बजे सो जाया करता था। दरअसल मेरी और बेटे की हफ़्ते भर में दस मिनट के लिए भी भेंट नहीं होती थी।

    मैं उसे स्कूल जाते देखता था। वह बरसाती छतरी या टोप वग़ैरह साथ लेकर नहीं जाता था। मैंने उसे अपनी सबसे अच्छी छतरी दी, लेकिन उसने यह कहकर लेने से मना कर दिया कि छतरी की मूठ बड़ी लंबी है और यह छतरी बस में सवार लोगों को तंग करेगी। मेरी पत्नी और बच्चे इस बात पर मेरी हँसी उड़ाते कि मैंने उसे एक टेढ़ी-मेढ़ी मूठ वाली छतरी थमा दी है।

    ठीक है, मैं तो मैं ही हूँ। आज के ज़माने में टेढ़ी मूठ वाली छतरी कौन सिर पर लेता है? उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में पैदा हुए बूढ़े-बुजुर्ग ही ऐसी छतरी लेते हैं, जबकि ये बच्चे इक्कीसवीं सदी में क़दम रखने जा रहे थे।

    इसलिए मेरे बेटे को ऑटोमैटिक छतरी ख़रीद दी गई, जबकि मेरे पास वही पुरानी टेढ़ी मूठ वाली छतरी थी।

    दस-पंद्रह दिनों तक उसने वह छतरी ओढ़ी। स्कूल जाते-आते ऑटोमैटिक छतरी थामे रंगून के काले स्टूडेंटों की तरह। लेकिन बाक़ी के दिनों में वह छतरी के बिना ही आता-जाता दीखता रहा, इसलिए मैंने एक दिन उससे पूछा, “तुम्हारा छतरी कहीं गुम तो नहीं गई?”

    “पड़ी है,” उसने बताया।

    “है तो ओढ़ते क्यों नहीं? छतरी नहीं ओढ़ोगे तो हवा और बारिश में सेहत ख़राब हो सकती है।”

    “नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। दरअसल छतरी हाथ में रखने में बड़ी परेशानियाँ हैं।”

    “कोई परेशानी नहीं है। फिर तुम्हारी छतरी तो ऑटोमैटिक है। चाहो तो हाथ में थामो या बैग में रख लो। बारिश होने पर क्या करोगे और रंगून की बारिश का क्या भरोसा? जब चाहे तभी बरस जाए।”

    “पिताजी, अगर बारिश धमकी तो किसी बड़ी या ऊँची इमारत से सटकर बचाव कर लिया जाएगा।”

    “बरसात रुकने तक का इंतज़ार करने में बहुत समय बरबाद होता है।”

    “पिताजी, यह आप क्या कह रहे हैं? रंगून की बारिश जब थमना चाहे तब थम जाती है। आती है और चली जाती है।”

    पहले वह यह कहता रहा कि टेढ़े हैंडल वाली छतरी वह नहीं ओढ़ना चाहता, इसलिए उसे ऑटोमैटिक छतरी ख़रीद कर दे दी गई थी। उसने कुछ ही दिनों बाद इसे ओढ़ना बंद कर दिया। अब कह रहा है कि रंगून की बारिश जब चाहे थम जाती है। दरअसल आज के युवक छतरी तो ओढ़ते नहीं, ऐसे में मैं ये क्या कहता कि तुम्हें छतरी ओढ़नी ही होगी। ज़बरदस्ती या मार-पीटकर छतरी उढ़वाना भी तो गलत ही होता। शायद वह मेरा लिहाज़ करता था। मेरे सामने जब भी घर से निकलता छतरी ले लेता था। लेकिन जब मैं सामने नहीं होता था तो छतरी नहीं लेता था। बिना छतरी यूँ ही बारिश में टहलता रहता था। मैंने भी उससे और कुछ कहना उचित नहीं समझा। इस बीच एक और समस्या खड़ी हो गई, यह जींस पैंट से जुड़ी थी।

    उसके पास कई लुंगियाँ थीं। माँ ने अपने सबसे छोटे बेटे के लिए सुंदर-सुंदर लुंगियाँ बनाकर दी थीं, लेकिन लाड़-प्यार से बनाई गई उन लुंगियों को वह नहीं पहन रहा था, क्योंकि वह उन्हें पुराने फ़ैशन वाली लुंगियाँ समझता था। इन दिनों वह यही कह रहा था कि उसे काले रंग की लुंगियाँ ख़रीद दी जाएँ। मैं तो काले रंग की लूँगी देख भी नहीं सकता था, लेकिन उसे काली कछिन लुंगी ही पसंद थी। ऐसी लुंगियाँ आज फ़ैशन की दुनिया में लोकप्रिय हैं—जिसे आजकल नौजवान पहनते हैं। मैंने मन-ही-मन सोचा, चलो इसे काले और पक्के रंग बड़े प्रिय हैं।

    मैंने अपने पास पड़ी कई ताँबई, हल्की नीली और पीली लुंगी उसे दे रखी थी। रेशम की इस पीली लुंगी को लेने से मना करते हुए उसने कहा—इस तरह की लुंगी पहनने वालों को घमंडी समझा जाता है। मैं इन लुंगियों से कहीं ज़्यादा इनलिया लुंगियाँ पसंद करता हूँ, क्योंकि इनलिया झील में सैर करने वाले युवक-युवतियाँ वही लुंगियाँ पहनते हैं। रेशमी लुंगियाँ तो लोग शादी के बाद ही पहना करते हैं।

    बेटे की बात सुनकर मेरे सारे तर्क ख़त्म हो गए और मुझे चुप रहना पड़ा। आज के युवक-युवतियाँ ज़माने के अनुसार अपना पहनावा पसंद करते हैं। पहले वह बैल पैंट लेना चाहता था तो माँ ने दिलवा दिया था। उसे भी उसने कुछ ही दिन पहना। छ:-सात महीने बाद कभी पहन लेता।

    छ: महीने के बाद ही उसने जींस पैंट ख़रीदने की ज़िद की। उसकी माँग पर मैंने इन जींस पैटों को ध्यान से देखना शुरू किया। जिस ओर भी मेरी नज़र जाती युवक-युवतियाँ नीले रंग की जींस पैंट पहने नज़र आते, लेकिन उनका नीला रंग वास्तव में उड़ चुका होता था। वे कहते हैं कि यह पैंट अधिक समय तक चलती है। जितनी मर्जी डालो, फटती नहीं। जहाँ भी चले जाओ ये लोकप्रिय हैं। जींस पहनकर स्कूल भी जा सकता हूँ।

    लगातार ज़िद करने के कारण बेटे को जींस पैंट लेकर देना पड़ा। मेरा एक दोस्त चाईनटोक गया हुआ था। मैंने उसे वन नाईन ब्राण्ड वाली एक जींस पैंट लाने को कहा था, लेकिन जब पैंट आई तो मेरे राजा बेटे को पसंद नहीं आई।

    उसने कहा यह जींस पैंट तो बड़ी घटिया क़िस्म की है। कुछ ही दिनों के बाद फट जाने वाली है।

    “तुम किस तरह की जींस पैंट पसंद करते हो।”

    “मैं जिन जींस पैंटों को पसंद करता हूँ, उनके नाम हैं आटो, लैवाई, जींसट। अगर लैवाई मिले तो जीचू से काम चला लेंगे।” इन ब्रांडों की जींस पैंट की क़ीमत कम नहीं थी। सस्ती पैंट की क़ीमत भी डेढ़ सौ के बीच थी। वह जिस लैवाई की बात करता था, उसकी कीमत ढाई से तीन सौ के बीच थी।

    “आख़िर है तो जींस पैंट ही। इसकी कीमत भी मुनासिब है।” मैंने कहा।

    “नहीं पिताजी, ये सब बर्मा में सिली हुई हैं।”

    “बर्मा में इसकी सिलाई की गई है, यह बात तुम कैसे कह सकते हो?”

    “यह तो सिलाई देखने से मालूम हो जाता है। लैवाई पैंट वग़ैरह देखी है आपने? पहली ही नज़र में पता चल जाता है वे विदेशों में सिली गई हैं।”

    “देखो ज़ो मौ! मुझे पता है कि लैवाई जींस पैंट की इटली में सिलाई होती है। ओरिजनल बताकर थाईलैंड, ताईवान, हाँगकाँग में सिली जींस पैंटों की बात छोड़ो, रौलेक्स और ओमेगा ब्रांड की नक़ली घड़ियाँ भी हाँगकाँग और ताईवान में बिक रही हैं। तुम लोगों ने ओरिजनल चीज़ें तो देखी है नहीं। विदेश से आए नकली सामान को तुम लोग ओरिजनल समझ लेते हो। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि वहाँ भी नकली सामान बनता है। मैं उन्हें चुनना नहीं जानता, अगर तुम्हें सचमुच चुनना आता है तो तुम्हारी माँ साथ जाकर ख़रीद देगी।”

    मुझे ग़ुस्सा गया था और मैं लगभग चिल्ला रहा था। जो मौ कुछ नहीं बोला। कुछ देर बाद वह एक जींस पैंट ले आया। यह वही नीली जींस थी, जिसके बारे में वह यह कह रहा था कि बड़ी अच्छी और मज़बूत है। जेबों पर पीतल के बटन लगे थे। मैंने क़ीमत पूछी तो उसने बताया—दो सौ अस्सी रुपए। यह भी बताया कि यह सीधे जहाज़ी से ख़रीदी गई थी। मैंने कुछ नहीं कहा, उसकी पसंद ही सब कुछ थी।

    लेकिन जब भी यह जानवर जींस पैंट पहनता तो नीचे की मोहरी ऊपर उठाकर मोड़ लेता। यह बात मुझे पसंद नहीं थी। मेरी समझ में नहीं आता था कि जींस पहनते समय पाँयचे को उठाकर मोड़ते क्यों है? राजधानी रंगून में कीचड़ तो कहीं है नहीं और इन्हें जंगलों या पहाड़ों में रहना पड़ता है। कोलतार बिछी पक्की सड़कों पर ही इन्हें चलना होता है तो फिर किस कारण जींस की मोहरी मोड़ ऊपर उठा लेते हैं, मेरी समझ में नहीं आता। देखने में यह बड़ा ही भद्दा लगता है।

    “पिताजी, आजकल के नौजवान फ़िल्मी हीरो की तरह जींस को इसी तरह ऊँचा उठाए रखते हैं।” बड़ी बेटी ने बीच में पड़कर कहा था।

    “फ़िल्म से क्या मतलब है तुम्हारा? फ़िल्मों का एक्टर तो कहानी के अनुसार काम करता है। फ़िल्मों में कपड़े कहानी और सिचुएशन के अनुसार पहनाए जाते हैं। इन छोकरों को फ़िल्मों की कॉपी करने की ज़रूरत क्या है?”

    दोनों बेटियों के चेहरे ज़रा उतर गए। पत्नी ने कहा, “तुम भी हर जगह अपनी टाँग ज़रूर घुसेड़ देते हो। अपना-अपना ज़माना है। जब चाहें जैसा चाहें पहनने-ओढ़ने दो उन्हें। आजकल के लड़के ऐसे कपड़े ही पहनते हैं। ज़माने के अनुसार कोई पहनावा बुरा नहीं लगता।”

    इसके बाद मैंने और कुछ नहीं कहा। बस चुप रह गया। अगर मैं और बहस करता तो यही समझा जाता कि मैं ज़माने के अनुसार चलने वाला आदमी नहीं। लोग मुझे आधुनिक नहीं मानते। मैं पिछड़ा हुआ हूँ, प्रगतिशील नहीं हूँ वगैरह-वगैरह...!

    महीने भर बाद एक शनिवार को जब मैं दफ़्तर से घर लौटा तो हमारे घर के पास वाले बाग़ में जो मौ और उसके तीन चार साथी अपने-अपने जींस पैंटों को हाथ में थामे रेत और कीचड़ से रगड़ रहे थे। पहली नज़र में ऐसा लगा कि वे जींस पैंट धो रहे हों। लेकिन नहीं, यह कोई कपड़े धोने की जगह तो थी नहीं। लेकिन वे सब अपनी-अपनी जींस पैंटों को टूटी-फूटी ईंटों से रगड़ रहे थे। मुझे आता देखकर सभी थम गए। मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। सीधा घर की ऊपरी मंज़िल पर चला आया।

    मैंने बीवी से कहा—“तुम्हारे बेटे नीचे जींस पैंटों को रेत, कीचड़ और पत्थर से रगड़ रहे हैं। पता नहीं वे क्या कर रहे हैं?”

    “वे क्या कर रहे हैं, क्या पता? शायद अपनी पैंट धो रहे होंगे।”

    धोने के लिए ईंटों से तो रगड़ना नहीं पड़ता। मैंने देखा कि वे ईंटें तोड़-तोड़कर उनसे पैंटों को रगड़ रहे हैं।”

    तभी मँझली बेटी ने कहा, “पिताजी वे अपनी जींस को फीट-टिटिट जींस यानी बदरंग जींस बना रहे हैं। किसी नई जींस पैंट को पहनना उन्हें बकवास जान पड़ता है पिताजी! जींस पैंट या जींस जैकेट बदरंग होने के बाद ही पहनी जाती है। ऐसा उनका मानना और कहना है।”

    “अरे ऐसा है क्या,” कहकर मैंने अपनी छाती पीट ली। जीन सौ रुपए में नई जींस पैंट को बदरंग करने या पुरानी दिखने के लिए उसका यह हाल कर रहे हैं, लेकिन मैं कुछ नहीं कह पा रहा। शायद इसी से मेरा रक्तचाप कुछ तेज़ हो गया हैं। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। उस दिन मेरा पारा चढ़ा हुआ था। दोपहर के समय में श्वटैंगों मंदिर में गया। वहाँ माला फेरी, जाप किया और फिर रात दस बजे मंदिर से लौटा।

    इस साल भी जो मौ दसवीं क्लास में फेल हुआ। उसे कोई दुख नहीं था। वह वैसे ही ख़ुश और मस्त था। वह जहाज़ी बनने जा रहा था। ठीक है, बन जाए। अब वह स्कूल में नहीं रहना चाहता तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? वह तीन बार फेल हो चुका है। कई-कई ट्यूशन लगाई जा चुकी हैं। उसका मन पढ़ाई में लग जाए इसलिए हम उसकी हर बात मानते रहे, हर ज़िद पूरी करते रहे। जब उसे फ़ौजी बैग चाहिए था, फ़ौजी बैग लेकर देते रहे, जब उसे ऑटोमैटिक छतरी चाहिए थी, उसे छतरी लाकर देते रहे। ऑटोमैटिक छतरी या जींस पैंट—जो भी उसने चाहा या चाहता रहा, उसे लेकर देते रहे, ताकि पढ़ाई में उसका दिल लगा रहे। उसकी हर बात मानते रहे। अपने मन को मार-मारकर भी उसकी हर ज़िद पूरी करते रहे, लेकिन वह इस साल भी पास नहीं हुआ। अब वह कैसे पास हो सकता है? मैंने अपने मित्रों से उसके बारे में बातें कर अपना मन काफ़ी हल्का कर लिया। एक तरह से अच्छा ही हुआ। पढ़ाई पूरी कर जहाज़ी बनने की ऐसी इच्छा रखने वाले को वह काम करके भी देख लेना चाहिए। हाँ, जब वह दूर चला जाएगा तो मेरी चिंताएँ कुछ कम हो जाएगी।

    उसके सारे काम पूरे करने के बाद मैं दूसरे शहर चला गया था। पंद्रह दिनों तक मैं वहीं रहा। जब कभी मैं बाहर से लौटता तो मेरी पत्नी और मेरी बेटियाँ बरामदे तक आकर मेरा स्वागत किया करतीं। जैसे ही मुझे आता देखतीं, वे दौड़कर नीचे उतर आतीं और जो सामान वगैरह मैं लाता, उठाकर ले जातीं। साथ ही, बड़े आदर से मेरा स्वागत किया करतीं।

    कार सीधे मेरे बरामदे के सामने जाकर रुकी। घर का दरवाज़ा खुला और दोनों बेटियों ने मेरा सामान और सूटकेस उठा लिया। मैं सीढ़ी से ऊपर चढ़ा। कमरे में पहुँचा तो वह बंद था। अंदर से शोरगुल और हँसी-मज़ाक़ का स्वर सुनाई दे रहा था। दरवाज़े को खटखटाने और ज़ोर से पुकारते ही पत्नी ने गरम पानी की बोतल, तो किसी ने नाश्ता और किसी ने फल की टोकरी लाकर मेरे सामने रख दी सब लोग घर में थे। पत्नी भी थी। मँझला बेटा भी था और छोटा लड़का जो मौ भी। मेरी छोटी बेटी भोजन कर रही थी।

    हाँ, उनके अलावा एक आगंतुक और नज़र आया। उसे देखकर मैंने अपने तेज़-तर्रार तेवर को सँभाले रखा और कुर्सी पर बैठ गया।

    अतिथि मेरी बेटियों की कोई सहेली थी, ऐसा लगा। उसकी उम्र बीस साल की होगी। उसने तीन स्ट्राईपों वाली एक मर्दाना कमीज़ पहन रखी थी। ऊँचा क़द, दुबली-पतली काया और गेहूँ जैसा चमकता-दमकता रंग।

    मैंने लड़की की ओर देखा। लड़की ने भी मेरी ओर सिर उठाकर देखा। आँखें मिलीं तो उसके कोमल चेहरे पर शर्म की गुलाबी रंगत तैर गई। उसने अपनी पलकें नीची कर लीं। मुझे लगा इस बूढ़े को देखकर उसको कुछ बेचैनी-सी हुई। वैसे भी मेरी बेटी की सहेलियाँ मुझसे ज़्यादा नहीं मिला करती थीं।

    कुछ क्षण बाद वह तेज़ी से उठी और भोजन छोड़कर जो मौ और उसके भाइयों के कमरे की ओर चली गई। कुछ देर बाद जो मौ भी नज़रें बचाकर उसी कमरे में घुस गया। उसने शायद मुझसे आँखें ना मिलाने का फैसला कर लिया था। अरे यह क्या! अगर यह मेरी बेटी की सहेली है तो इसे चाहिए था कि बेटियों के कमरे में जाए, लेकिन यह तो जो मौ के कमरे में चली गई। मँझले ने मेरी ओर मुस्कुराते हुए कहा, “पिताजी, घर में एक नए सदस्य की बढ़ोत्तरी हो गई है। अब मुझे भी माला और तूजा के कमरे में सोना पड़ रहा है।”

    पत्नी ने उसकी ओर टेढ़ी नज़रों से देखा। अब सब कुछ मेरी समझ में गया था।

    “कहाँ की है?”

    “पत्नी ने आवाज़ में मिश्री घोलते हुए कहा—“मैं तुम्हें धीरे-धीरे सारी बातें आराम से बताना चाहती थी। जिस दिन तुम बाहर गए थे, उसी दिन यहाँ गई थी। कहने लगी, अब मैं वापस अपने घर नहीं जाऊँगी। उस दिन तो वह यही कह रही थी मैं सिनेमा देखने गई थी तो देर हो गई और घर लौटने की हिम्मत नहीं है। वैसे उस रात यह यहाँ ग्यारह बजे आई थी। हमारी अपनी बेटियाँ भी हैं इसलिए लोगों की बेटियों से भी वैसा ही सलूक करना पड़ेगा ना। लड़की बुरी नहीं है। किसी सरकारी अफ़सर की बेटी है और कॉलेज में दूसरे साल की छात्रा है। नाम है जूलाई। अच्छा अब तुम नहा-धोकर आराम करो। सफ़र में काफ़ी थक गए होगे। हाँ, तुम्हें एक ख़बर सुनानी है, ख़ुशी की। तुम्हारे बेटे के लिए जहाज़ की टिकट मिल गई है, लेकिन बेटा कह रहा है कि माँ मेरी अभी-अभी तो शादी हुई है। मैंने अभी जूलाई के माता-पिता से बात नहीं की है, इसलिए मैंने वह टिकट वापस कर दी है। ठीक ही तो है! हमें लड़की भी उसके माता-पिता के पास वापस पहुँचानी है। लड़की का बाप बड़ा सरकारी अफसर है। शादी के बाद अपने दामाद को ऐसे ही फेंक नहीं देगा। कोई-न-कोई जुगाड़ भिड़ायेगा ही। क्यों ठीक है ना! अरे बेटे जो मौ और जूलाई यहाँ तो आओ।”

    ‘अच्छा तो इसका नाम जूलाई है।’ मैंने इससे आगे कुछ कहना उचित नहीं समझा। एक गहरी साँस ली। मैं लड़के का बाप होकर अगर इतना झेल सकता था तो लड़की वालों का क्या होगा? मुझे इस लड़की से पूरी साहनुभूति थी।

    बाहर की ओर नज़र पड़ी तो देखा सामने बरामदे में जो मौ की लैवाई जींस पैंट झूल रही थी। उस फीके और बदरंग पैंट को देखकर मेरा जी खट्टा हो गया।

    पैंट बदरंग हो जाए उसे फेंक दिया जा सकता है, लेकिन जीवन बदरंग हो जाए तो भी उसे फेंका नहीं जा सकता। इसी तरह अपनी संस्कृति गंदी कर दी जाए तो वह फेंकी नहीं जाएगी।

    मेरी आँखें बरामदे में सुखाई जा रही जींस पैंट की ओर बरबस चली गई। इस जींस पैंट का रंग उड़ चुका था और कहीं-कहीं से धागे भी उधड़ रहे थे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 303)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : म्यां तां टिं
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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