वे लोग मुझे एक जमाने से पिछड़ा हुआ आदमी कहते हैं। एक पुराने ज़माने वाला—जो नए दौर में पीछे रह गया हो या पिछड़ गया हो।
ठीक है, कोई बात नहीं। मैं इस विषय पर कोई बहस नहीं करना चाहता। मेरी उम्र भी साठ के क़रीब हो रही है। दरअसल दो-तीन साल के बाद मैं रिटायर्ड हो जाऊँगा। ऐसे में मेरा दिल कितना भी फतीला हो, कितना भी जवान हो, जब उम्र का प्रभाव पड़ना शुरू हो जाएगा तो मैं उनसे किसी तरह की बहस नहीं कर पाऊँगा। वैसे मैं स्वस्थ और शक्तिशाली आदमी हूँ। कभी-कभार ब्लड प्रेशर या रक्तचाप हो जाने के अलावा कभी कुछ नहीं हुआ। ब्लड प्रेशर की बात के लिए तो मैं कुछ कह पाने में असमर्थ हूँ, क्योंकि यह एक आधुनिक रोग है। खान-पान में कुछ सावधानियाँ रखनी पड़ती हैं।
मैं कॉलेज के विद्यार्थी के रूप में टेनिस का एक खिलाड़ी था। नौकरी मिल जाने पर जब काम के सिलसिले में एक जगह से दूसरी जगह तबादला हुआ, तब गोल्फ़ खेलने लगा। रंगून हेड क्वाटर्स यानी अपने मुख्य कार्यालय यांर्को: लौटने पर थोड़ा-बहुत गोल्फ़ ही खेलता रहा। दफ़्तर की गाड़ी मिल जाने पर गोल्फ़ मैदान चला जाता था। उसके बाद आठ सौ रुपये वेतन वाले कर्मचारियों को जब सरकार कारें निकालकर बेचने लगी तो, मुझे भी एक माजदा फैमिलियर मिल गई। तब मैं अपनी कार में गोल्फ़ खेलने जाने लगा। रविवार के दिन सुबह-सुबह नाश्ता करने के बाद सारा-सारा दिन गोल्फ़ खेला करता। वापसी में थोड़ी-बहुत बीयर-शीयर पी लिया करता। घर लौटकर भोजन किया करता। कुछ गीत वीत सुना करता। जिस दिन कोई मीटिंग-वीटिंग न हो, उस दिन सारा कार्यक्रम पहले से तय किया करता था। जब अधिक व्यस्तता होती तो निर्धारित कार्यक्रम रद्द भी कर देता।
लेकिन मैं अपनी कार बहुत दिनों तक अपने पास नहीं रख पाया। यांर्को: जैसे बड़े शहर और देश की राजधानी में आठ सौ रुपये वाले मेरे जैसे वेतनभोगी भला कितने दिन तक अपनी कार बरकरार रख सकते हैं? अभी कार लिए तीन साल भी पूरे नहीं हो पाए कि मुझे कार बेचनी पड़ी। कार बिक जाने पर गोल्फ़ मैदान जाना भी छूट-सा गया। गोल्फ़ स्टिक को भी घर में श्योः के साथ टाँग कर रख नहीं पाया, बेच दी। उन लोगों की ज़ुबान में कहा जाए तो शा ब्रदर्स बनना पड़ा।
मैं सुबह-सुबह सैर किया करता था। वापस आकर अख़बार पढ़ता। नहा-धोकर भोजन करता, फिर दफ़्तर जाता। कभी-कभार साथियों-यारों, सह कर्मियों के साथ घर के बाहर भोजन किया करता। इतवार की सुबह घर वालों के साथ श्वटेंगा मंदिर जाया करता। शायद यह बढ़ती हुई उम्र का प्रभाव हो। हम दोनों पति-पत्नी का धार्मिक कार्यों की ओर अधिक झुकाव होने लगा। अपने धर्म में अधिक आस्था होने लगी।
दोपहर के समय घर में कुछ-न-कुछ पकवान तैयार किया जाता। हम खाते-पीते और फिर रिश्तेदारों और दोस्तों के यहाँ घूमने जाते। तुवना में रहने वाले अपने बड़े भैया के यहाँ और कभी-कभार सां:ध्वों में रहने वाली अपनी मौसियों के पास जाते। वे भी हमारे यहाँ आया करतीं। आने-जाने का सिलसिला बना हुआ था। आज के युग में, माता-पिता, बच्चे और भाई-बहन और दूसरे रिश्तेदार एक-दूसरे से काफ़ी दूर रहते हैं और उनका आपस में जो प्यार होना चाहिए—वह नहीं रहता। इसलिए दूरी की अनदेखी कर, आपस में प्यार-सम्मान बढ़ाने के लिए एक-दूसरे के यहाँ जाने-आने और घूमने का सिलसिला रखा जाता है। तभी लोग अपने रिश्तेदारों और सगे-संबंधियों के पास आया-जाया करते हैं। जो बराबर नहीं आ-जा सकते थे, वे महीने दो महीने में एक बार आ ही जाते थे।
जिन दिनों स्कूल की छुट्टी हो, दफ़्तर बंद हो, उन दिनों कई छोटे-मोटे घरेलू काम किए जाते हैं। इसलिए छुट्टियों में बाहरी कार्यों की वजह से फ़ुर्सत नहीं होती।
मेरा घर यांकि: में है। इसमें तीन तँग कमरों की छोटी-सी कोठी है। हम भाग्यवान हैं कि हमें तीन कमरों वाली यह कोठी मिली हुई है। माता-पिता और बच्चों को मिलाकर हम सात लोग हैं। हमारे पास एक कमरा है। तीन बेटों के लिए एक कमरा और दोनों बेटियों के लिए एक कमरा हैं। तभी घर के ख़र्चे में रियायत हो जाती है। बड़ा बेटा बी ई (पेट्रोलियम) पास है और हाल में खुली एक तेल-भूमि पर काम पाने के लिए सफल हो गया है। वह माँ-बाप की मदद पैसों से तो नहीं कर सकता, लेकिन अपने पैरों पर खड़ा होकर उसने माँ-बाप को अवश्य ही कुछ राहत पहुँचाई है। इतनी मदद ही काफ़ी है कि माँ-बाप को उसका ख़र्च अब नहीं उठाना पड़ता।
हमारा घर अब काफ़ी खुला-खुला है ओवरवेट हो रही मोटरों की तरह। जैसे ही भार हल्का हुआ, रफ़्तार तेज़ हो जाती है और इंजन को राहत मिलती है। अब घर में हाथ-पाँव न हिलाने वाले सिर्फ़ चार लोग रह गए थे।
मैं यह तो नहीं कह सकता कि बाक़ी चारों ही बेकार हैं। बाक़ी बचे दो बेटे और दो बेटियाँ। बड़ी बेटी एम०सी० वन में पढ़ रही है, जिसे आजकल आई० एम० वन कहते हैं। यह चिकित्सा वर्ग का पहला वर्ष है। मँझला लड़का एक अस्पताल टिम्वे: कु में था। छोटी बेटी जू: में थी। उसे एम०सी० वगैरह में दाख़िला नहीं मिल पाया, पर इसे भी बुरा तो नहीं कह सकते। वह ग्रेड फोर में प्रवेश पा लेने में कामयाब रही है। इसमें पा लेना भी कमाल है। इससे मास्टर्स वास्टर्स की डिग्री हासिल कर सकते हैं। भाग्य साथ है तो ट्रेनिंग वगैरह के बाद कोई नौकरी-वौकरी हाथ लग सकती है।
असली समस्या है सबसे छोटे “ज़ो मौ” की। यह गधा दसवीं कक्षा में तीन बार फेल हो चुका है। सबसे छोटा भी है। माँ भी उसे कुछ ज़्यादा ही लाड़-प्यार करती है। उसकी ज़िद भी पूरी करती है। माँ ही क्यों? बाप, यानी मैं भी उसकी उल्टी-सीधी बातों में आ जाता हूँ और उसकी ज़िद पूरी कर दिया करता हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं अपने बच्चों में से किसी को ज़्यादा और किसी को कम प्यार करता हूँ। मुझे पता है कि अपने ही बच्चों में से किसी को ज़्यादा और किसी को कम प्यार देना अन्याय है, अनुचित है। मेरी हमेशा यही कोशिश होती है कि मैं अपना प्यार बच्चों में एक बराबर बाँटा करूँ।
इन्हीं विचारों के चलते छोटे बेटे जो मौ को बड़े बेटों से अधिक प्यार न करने पर भी उसकी ज़िद पूरी करने में मैंने पत्नी का साथ दिया है। प्यार उसे ज़्यादा नहीं कर पाया, लेकिन उसकी ज़िद पूरी करने में कुछ ज़्यादा ही साथ देता रहा। इसमें कोई कुछ नहीं कर पाएगा। मैं ख़ुद भी नहीं। क्योंकि जब घर के बड़ों का ज़माना था और दादा-दादी ज़िंदा थे, तब बच्चों को भरपूर लाड़-प्यार दिया करते थे। उनकी ज़िद पूरी करने वाले चाचा-चाची थे। उन्होंने इन्हें अपने हाथों कभी नीचे नहीं बैठाया। सदा ऊपर उठाकर रखते थे। अब दादा-दादी और नाना-नानी भी नहीं रहे। चाचा-चाची विवाह के बाद अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हो जाने पर दूसरों के बच्चों से लाड़-प्यार करने की बात तो दूर, अपने बच्चों को भी ज़्यादा सिर नहीं चढ़ाते थे, इसीलिए छोटे बेटे जो मौ को हम माँ-बाप कुछ ज़्यादा ही लाड़-प्यार करते थे। इस बारे में बड़ों को भी समझा दिया गया था।
जिस साल जो मौ आठवीं कक्षा में पहुँचा, मेरी तरक़्की हुई और मेरा तबादला रंगून हो गया। प्रदेशों में हमें खुले घरों में रहने की आदत पड़ गई थी। इसलिए यांकि: वाली कोठी के तँग कमरों में रहने में कोई आनंद नहीं आ रहा था। इस बारे में हम कुछ करने में असमर्थ थे। मैं क़स्बे का रहने वाला था और पत्नी भी क़स्बे की रहने वाली थी। रंगून में हमारी कोई ज़मीन-जाएदाद तो थी नहीं। तँग कमरे नसीब होना ही बहुत था। यह अच्छे भाग्य का परिणाम था।
जब हम रंगून पहुँचे, तब जो मौ की उम्र ज़्यादा-से-ज़्यादा चौदह साल से कुछ अधिक की रही होगी। तब मेरे बड़े बेटे बसों में स्कूल जाया करते थे। एक चिकित्सा पाठ्यक्रम के पहले साल में था दूसरा ‘राजू:’ में और तीसरा ‘टीम्वे: कु’ में।
ऐसे में यह समस्या खड़ी हो उठी कि हम सबसे छोटे जानवर जो मौ को स्कूल कैसे भेजें? बड़े बेटे उच्च शिक्षा का अध्ययन कर रहे थे। कभी-कभार ऐसा भी हुआ करता था, जब पूरे दिन में किसी घंटी में क्लास में नहीं जाना पड़ता था, इसलिए वे घर में ही रह जाते थे।
ज़ो मौ जिस हाईस्कूल में पढ़ता था, वह दिन का स्कूल था। उसे ठीक समय पर स्कूल में उपस्थित होना होता था। उसका स्कूल सुबह साढ़े नौ बजे लगता था और जो शाम के साढ़े तीन बजे तक चलता था। रास्ता एक होने पर भी उसे बड़ों के साथ भेजना अव्यावहारिक था। मैं चाहता था कि वह बस से ही स्कूल जाए। पर उसकी माँ कहा करती थी कि मैं अपने सबसे छोटे बेटे को स्कूल बस में नहीं भेजना चाहती। सुरक्षा के हिसाब से मैं उस पर पूरा भरोसा नहीं कर सकती। बसें ठसाठस भरी रहती हैं और फिर आजकल के छोकरे बस के अंदर न बैठकर एक पाँव बस के पायदान पर और दूसरा पाँव नीचे लटकाते हुए अपनी जान हथेली पर रखकर सवारी करते हैं। तभी वह अपने सबसे छोटे बेटे को बस से नहीं भेजना चाहती, उसका दिल नहीं मानता। उसे बस से स्कूल भेजा भी जाए तो स्कूल तक पहुँचने के लिए दो बसें बदलनी होती हैं। इसमें पैसे भी ज़्यादा ख़र्च होंगे और बच्चे को थकान भी अधिक होगी। इसलिए पत्नी कहती कि जो मौ को फैरी से ही स्कूल जाना चाहिए।
पत्नी बहाने अच्छा बनाती है, इसलिए मैंने उनकी सलाह मान ली। सलाह कहने की बजाए, यह कहना उचित होगा कि मैंने उनकी योजना और व्यवस्था को स्वीकार लिया। अगर मैं स्वीकार नहीं करता, तब भी यही होना था।
चलिए इसमें भी कोई बुरी बात नहीं, लेकिन उसे साथ में टिफ़िन भी देना पड़ता। स्कूल की बसें अपनी बारी और समय के अनुसार हमारी तरफ़ सुबह एक बार कुछ जल्दी और दूसरी बार देर से आया करतीं। वापसी में भी एक बार जल्दी और दूसरी बार देर से छोड़तीं। पूरा चक्कर लगाकर तमाम बच्चों को इकट्ठा कर ले जाने में, सुबह जल्दी जाने वालों को भी तरह-तरह की असुविधाएँ और दिक़्क़तें होती। वापसी में भी बसों के देर से पहुँचने पर वैसी ही परेशानियाँ होतीं। इसलिए बच्चों के अभिभावक अक्सर परेशान और नाख़ुश रहते।
हमारी कोठी के सामने वाली बस एक दिन जल्दी तो दूसरे दिन देर से आती। जिस दिन वह लेट हो तो कोई ख़ास बात नहीं होती, लेकिन जिस दिन जल्दी आती, उस दिन मेरी पत्नी को बड़ी परेशानी होती। उसे सुबह-सुबह उठकर नाश्ता बनाना पड़ता और उसे टिफ़िन बस्ते में डालकर देना होता। रात में बनी सब्ज़ी को गर्म करना पड़ता, लाचारी थी। उसकी वजह से घर के दूसरे सदस्यों को अपने-अपने कार्यक्रमों में कुछ तब्दीलियाँ करनी पड़ीं।
पत्नी को शाम के समय बाज़ार दौड़ना होता। वापसी में सब कुछ पकाकर तैयार रखना होता। सुबह उठते ही सबसे पहले चूल्हे पर चावल का पतीला रखना होता। थकान तो काफ़ी होती पर वक़्त की ज़रूरत के चलते उसे आदत-सी हो गई थी।
लेकिन नई व्यवस्था में भोजन के टिफ़िन को लेकर एक नई समस्या शुरू हुई। मेरा परिवार वन-मैन इनकम वाला परिवार था, जिसमें केवल एक ही व्यक्ति कमाता है और वही आय का एकमात्र स्रोत होता है। महीने के अंतिम दिन बीतते-न-बीतते घर में पैसों की तँगी होने लगती। कहने को तो महीने के अंतिम दिनों में तँगी होती है, लेकिन सच्चाई यह थी कि पंद्रह तारीख़ के बाद ही पैसों का अकाल पड़ना शुरू हो जाता और सालन और सब्ज़ियों के स्तर में गिरावट होने लगती।
सबसे छोटा बेटा जो मौ शायद ‘अत्रा’ नक्षत्र में पैदा हुआ था। उसे तेल में तली चीज़ें बड़ी पसंद थीं। आधे महीने के बाद उसको टिफ़िन में कभी तले हुए उबले मटर, कभी बतख़ के अंडे की करी, माँस डालकर तली हुई सब्ज़ियाँ और कभी-कभार सस्ती समुद्री मछली मिलती थी—जिसकी बू दूर करने के लिए ढेर सारे मसाले डालने पड़ते थे। ऐसे में भी छोटे लाट साहब शिकायत करते रहते थे।
स्कूल में जब उसके साथी अपना-अपना टिफ़िन खोलकर एकसाथ बैठकर खाया करते, तो वहाँ कई तरह की सब्ज़ी होती। इधर उसे अपनी सब्ज़ी के कारण हमेशा शर्म उठानी पड़ती थी। उसके दोस्त उसका मज़ाक उड़ाते, इसलिए न तो वह टिफ़िन साथ ले जाना चाहता था और न ही उनके साथ बैठकर खाना चाहता था। मैं उसे समझाने की हर मुमकिन कोशिश करता। मैं उसकी समस्या भी समझना चाहता था, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ। सुबह-सुबह घर में जो कुछ भी पक जाता था उसे ही खाकर वह चला जाया करता था। दोपहर के समय जब भूख सताती तो वह कुछ ख़रीदकर खा-पी लेता था। दोपहर के समय भूख लगना स्वाभाविक है। जब मैंने उससे कहा तो वह बोला—कोई बात नहीं, मैं अपने आपको सँभाल लूँगा। कोशिश करूँगा कि भूख न लगे। उसकी इस बात पर हम कुछ नहीं कर पाए। यह उसका अपना व्यक्तिगत फ़ैसला था। हाँ, जब वह स्कूल से घर पहुँचता तो पहुँचते ही एक बड़ी-सी थाली लेकर उसमें भात-सब्ज़ी भर लेता और पेट भरकर खा लेता। खाने के बाद यहाँ-वहाँ घूमने जाता था। शाम के समय, सात या आठ बजे-भूख लग गई है, ऐसा कहकर एक बार फिर खाना खा लेता। ऐसे में वह कुछ ज़्यादा ही खा जाता। ख़ैर कोई बात नहीं। मैं इसकी भी शिकायत नहीं करता, क्योंकि कोई अभिभावक या माता-पिता ऐसे नहीं होंगे, जो यह नहीं चाहते हों कि उनके बच्चे भरपेट खाना न खाएँ।
जब वह नवीं कक्षा में पहुँचा तो उसने शुरू में ही एक बस्ता ख़रीदकर देने के लिए अपनी माँ से कहा। वैसे उसका बस्ता अभी बिल्कुल ठीक-ठाक था। कछिन प्रदेश से लौटते हुए मैंने यह बस्ता उसके लिए ख़रीदा था। पिछले साल दिसंबर महीने में ही मैंने उसे बस्ता ख़रीदकर दिया था। बीच में छुट्टियों वाला समय निकाल दिया जाए तो बड़ी मुश्किल से उसने इसे छ: महीने तक इस्तेमाल किया होगा, लेकिन अब उसकी ज़िद थी कि वह इस बस्ते को हाथ नहीं लगाएगा। उसे एक नया बस्ता ख़रीद कर देना होगा।
एक दिन हमारी कोठी के नीचे वाले मकान में उसने दो युवतियों के हाथ में नए रंग-रूप का थैला देख लिया था और तभी से वह अपनी माँ से नया बस्ता ख़रीद देने की ज़िद पर अड़ा हुआ था।
उसकी पसंद वाला बस्ता वैसे ख़ूबसूरत था। लड़कियों के कोमल हाथ में वह बस्ता भले ही अधिक समय चल जाता, लेकिन ऐसे कठोर लड़के के हाथ में ये बस्ते बिल्कुल नहीं चल सकते थे। फिर भी मैंने उसे यह बस्ता ख़रीदकर दे दिया। हालाँकि नए बस्ते की ख़रीद का विरोध करने वालों में मैं अकेला ही था। उसकी माँ, बहन और भाई सारे उसकी ओर थे।
उसकी माँ और बहनें शिकायत किया करतीं कि पिताजी ज़माने की रफ़्तार से काफ़ी पीछे हैं। आजकल के लड़के आप लोगों जैसे मोटे-मोटे थैले पसंद नहीं करते। वे हल्के और सुंदर थैले पसंद किया करते हैं। आप लोग तो अक्सर कछिन बस्ते पसंद करते हैं, जो बहुत पुराने ज़माने से चले आ रहे हैं।
मैंने कोई जवाब नहीं दिया। चुप और शांत रहा। कुछ ही दिनों बाद की बात है। दीवाली की छुट्टियों के बाद जिस दिन स्कूल खुला घर की बैठक में उसकी बड़ी बहनें और छोटा भाई किसी बात पर बहस कर रहे थे। उनकी ऊँची आवाज़ें सीढ़ियों से सुनाई दे रही थीं। आवाज़ों में माँ की आवाज़ भी शामिल थी। दोनों बहनें किसी को डाँट रही थीं। जो मौ भी चिल्ला रहा था। उसकी माँ का जैसे धैर्य टूट गया और वह निराशा में कुछ बड़बड़ा रही थी।
जब मैं ज़ोर से चिल्लाया तो दरवाज़ा खोल दिया गया। कमरे के अंदर न जाने वे क्या कर रहे थे? जैसे ही मैं वहाँ पहुँचा, पत्नी ने कहा, “अरे, आज तो तुम जल्दी आ गए। दोनों बेटियाँ और जो मौ चुपचाप अपने-अपने कमरों में चले गए। उनके चेहरे का भाव बता रहा था कि वे ख़ुश नहीं। उनसे मैंने भी कुछ नहीं पूछा। उन्होंने भी कुछ नहीं बताया।
इसी तरह एक हफ़्ता गुज़र गया।
एक दिन मैं दफ़्तर जाने से पहले घर में बैठकर अँग्रेज़ी में ख़बरें सुन रहा था। बैठक में दोनों बेटियाँ और जो मौ की तेज़ बहस की आवाज़ें ऊपर आती सुनाई दे रही थीं। हर रोज़ मेरी दोनों बेटियाँ और मेरी पत्नी मेरे लौटने का इंतज़ार किया करती थीं। वे जैसे ही मुझे देखतीं, घर के सामने का दरवाज़ा खोल दिया करतीं। लेकिन आज घर के बरामदे पर न तो पत्नी दिखाई दे रही थी न बेटियाँ। बेटियाँ शायद अभी स्कूल से लौटी नहीं थीं। माँ छोटे बेटे को भोजन कराने में व्यस्त थी।
मेरा कमरा दूसरी मंजिल पर था, इसलिए मैं सीढ़ियाँ पार कर ऊपर जाने लगा। मुझे अपने कमरे से नीचे से आती ज़ोर-ज़ोर से बातें सुनाई पड़ीं। यह सबसे छोटे बेटे जो मौ की आवाज़ थी। दोनों बेटियाँ की ओर उनकी माँ न जाने वे क्या बोल रही थी? दोनों बहनें उसे डाँट रही थीं और जो मौ अभी भी चिल्ला रहा था। उसकी माँ का भी जैसे धैर्य समाप्त हो गया हो। क्या बात है, यह जानने के लिए मैंने दरवाज़ा खोला। ना जाने घर के भीतर जाने क्या बातें कर रहे थे? जैसे ही मैं वहाँ पहुँचा, पत्नी चुप हो गई।
‘‘स्कूल जा रहा हूँ,” जो मौ ने कहा और कमरे से बाहर चला गया। जब मैंने उसकी ओर नज़रें उठाकर देखा तो उसके कंधे पर उसका नया बस्ता नहीं था। उसकी जगह एक सैनिक थैला दिखा।
‘‘ओए ज़ो मौ, तुम्हारा बस्ता कहाँ है?”
“है न!”
उसी समय स्कूल बस आ गई थी और आगे पूछताछ के लिए मेरे पास समय नहीं था। स्कूल बस के जाने के बाद मैं भी दफ़्तर चला आया। जाते-जाते उसकी माँ ने बताया कि बेटा बहुत ज़िद कर रहा था, इसलिए वह ख़ुद बाज़ार गई और उसके लिए नया सैनिक थैला लेकर आई थी।
मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि जब उसके पास पहले से ही दो-दो बस्ते थे तो उसने एक और नया थैला ख़रीदने की ज़िद क्यों की? अगर बच्चे ने ज़िद की भी तो उसकी माँ ने इसे पूरा क्यों किया?
“पिताजी! आप समझते क्यों नहीं? आजकल के बच्चे वे थैले इस्तेमाल नहीं करते, जो आप लोग कभी किया करते थे। आजकल के बच्चे सिपाहियों की तरह कंधे पर ख़ाकी थैले लटकाकर चलना पसंद करते हैं। स्कूल जाने वाले बच्चे भी जब ऐसी चीज़ों का इस्तेमाल कर रहे हों तो फिर आप अपने बच्चों को ही क्यों दोष दे रहे हैं?”
मैंने ज़्यादा बहस नहीं की। वैसे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ना था। नया फ़ौजी बस्ता ख़रीदा जा चुका था।
आजकल के बच्चे भी अजीब हैं। किसी ने कछिन बैग शुरू किया तो सब कछिन बैग इस्तेमाल करने लगते। किसी ने जींस बैग शुरू किया तो उन्हें फिर जींस बैग ही लेना होता है। अगर किसी ने सैनिक बस्ता अपना लिया तो सबका मन होता है कि सैनिक बस्ता ही लिया जाए। अब तो शायद फ़ौजी बैग का भी ज़माना लद गया है। हर रोज़ मैं ही हार मान लिया करता था। आजकल कमबोजा और यामनियाँ का दौर है। उधर हाल का सैनिक बैग अलमारी में बैठकर पेंशन ले रहा था।
मैंने और कुछ नहीं कहा। अगर मैं कहता तो मुझे यही सुनना पड़ता कि आप ठहरे पुराने ज़माने के लोग। इस ज़माने की बातों को भला क्या ख़ाक समझें? दसवीं में दो बार फेल हो जाने के बाद छोटे लड़के ने गिटार बजाना शुरू कर दिया। गिटार बजाने का शौक़ कभी मुझे भी था। जवानी के दिनों में मैं जिस होस्टल में रहता था, उसमें पहले करीन अंग्रेज़ रहा करते थे। मैं उन दिनों स्पैनिश गिटार बजाया करता था। इस पर गाने के बोल हुआ कहते थे ‘ओ रो समारी लव मी टेंडर महाराजा। ब्ल्यू स्टाइल।’ यह तब के मशहूर गीतों में एक था।
हम गिटार अपने कमरे में ही बजाते थे। चाँदनी रात में तीरी बेंटन हाल के सामने सीमेंट की बेंचों पर, नीम के पेड़ तले, चर्च के साये में और रात के समय अँधेरे में जब आने-जाने वाले नहीं के बराबर होते थे—हम लोग गिटार बजाया करते थे।
लेकिन अब तो ज़ो मौ जैसों का ज़माना है। यह बात मेरे गले कभी नहीं उतरती कि दोपहर के समय घर की सीढ़ियों पर बैठकर, दूसरों की कोठियों के सामने या खिड़कियों के पास या बेशर्मी से कभी-कभी सीढ़ियों के बीच सब मिलकर बैठ जाते हैं और गाने-बजाने लगते हैं। ऊपर चढ़ने का रास्ता तक नहीं छोड़ते। ऐसे में उनसे बड़ी चिरौरी करने के बाद ही लोगों को आने-जाने का रास्ता मिल पाता है।
इस जानवर की ज़िद के चलते विशेष ख़ासतौर से जमा की गई कुछ रक़म में से पत्नी ने उसे एक गिटार ख़रीद दिया था। ना जाने वह गिटार कब बजाता था, लेकिन वह तो अपने घर में उतरने-चढ़ने वाली सीढ़ियों को और न दूसरे घरों की चढ़ने-उतरने वाली सीढ़ियों को बख़्शा करता। ये लड़के दूसरे की कोठी की सीढ़ियों पर दिन-दोपहर से ही दम-दम बज़ाना शुरू कर देते थे।
मैंने जो मौ से इस बारे में बात की। मैंने उसे समझाया कि यह गिटार तुम्हारा व्यक्तिगत पसंद है—इसके लिए किसी का विरोध नहीं होना चाहिए। दोपहर के समय दूसरों की सीढ़ियों पर जमकर बैठ जाना और घंटों गिटार बजाते रहना बेहूदगी है। मैंने उसे यह भी समझाया कि अगर तुम कोई अँग्रेज़ी गाना बजा रहे हो तो वह अँग्रेज़ी में होना चाहिए। तुम लोग जो गाते-बजाते हो न वह देशी होता है न विलायती। जब दूसरा विश्वयुद्ध नहीं छिड़ा था, तब ए वन कंपनी ने कुछ गीतों की रिकार्डिंग की थी। उनमें कुछ अँग्रेज़ी शब्दावली भी थी। उन्हीं को अच्छी तरह सुनकर अपनी ज़ुबान में गाया जाए तो वे बड़े अच्छे आधुनिक गीत साबित हो सकते हैं। पर मेरी बात वे क्यों मानने लगे? मेरे पीछे वे मुँह चिढ़ाकर कहते—“यह बूढ़ा एक़दम आउटडेटेड है, सठिया गया है।”
घर में एक कैसेट रिकॉर्डर भी था। मैंने कोशिश की थी कि ये बच्चे हमारी पुरानी संगीत परंपरा अच्छी तरह समझ सकें। इसलिए उनसे जुड़े सारे कैसेट इकट्ठे भी दिए थे। इस बात को भूल जाइये कि उन्हें बर्मी संगीत अच्छा लगता है या नहीं। बजाने वाले की तैयारी ऐसी होनी चाहिए और उसके बजाने का स्तर ऐसा हो कि संगीत का थोड़ा-बहुत शौक़ रखने वाले उसके संगीत को सुन कर झेल सकें। मैंने पुराने वाद्यों से बजाए गए पुराने कलाकारों के गीतों को और नए कलाकारों की पुरानी धुनों के साथ गाए गए गीतों को एक जगह जुटा कर बच्चों को दे रखा था, ताकि वे दोनों की तुलना कर सकें और अच्छाई-बुराई को ख़ुद समझ सकें। आजकल के मशहूर पश्चिमी गायकों के गीत भी मैंने ख़रीद कर दे रखे थे।
पर वे कुछ भी सुनते नहीं थे। वे एक तरह का पॉप संगीत सुनते थे, जो न पश्चिमी था न पूर्वी और न ही बर्मी। मैंने भी यह नहीं कहा कि उन्हें ये गीत नहीं सुनने चाहिए। मैंने उनसे बर्मी रेडियो द्वारा प्रसारित पुराने गीतों को सुनने के लिए भी कहा। इन्हें सुनने के बाद ही सब तरह की चीज़ों के बारे में ज्ञान हो जाए तो अपनी पसंद-नापसंद का फैसला अलग से कर लेना चाहिए, लेकिन वे वैसे नहीं। कुछ जाने बिना वे सनक के पीछे लगे रहते हैं और बाक़ी सबको बेकार समझते हैं।
मैंने उन्हें माऊ को और टेने टेमिया पुष्प वन गीत के रिकॉर्ड सुनवाए। उनसे कहा कि ज़रा इसका स्वाद और आनन्द उठाओ। मैंने इन गीतों का गहरा मतलब भी विस्तार से समझाया। मारे थकावट के मेरी जीभ तक बाहर निकल रही थी, लेकिन शायद उनकी सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा।
इस पर मेरे बेटे जो मौ ने क्या कहा, पता है ! पिताजी ये आप क्या सुना रहे हो हमें? क्या है यह? पुष्प वन—जहाँ आशा की जगह निराशा छाई रहती है। मैंने बेटे से कहा कि मैं तुम्हें एक बार अपने ज़माने के गीत बजाकर सुनाता हूँ। मैंने बिंकटोरोटी का गाया ब्ल्यू स्टाइल, फ्रेंक सिनात्रा, थ्री लीटल वर्क्स गायक नाकिन को ही अनाना जैसे गीतों को बजाकर सुनाने का फैसला किया। एक गीत जिसका शीर्षक था—स्लो बोट टु चाईना! जब मैंने यह सुनाया तो मेरे बेटे से नहीं रहा गया और उसने मुझे टोकते हुए कहा—“पिताजी, आप कौन-सी विक्टोरिया महारानी के युग की बात करते हैं? इस ज़माने में यह सब नहीं चलता। कोई डिस्को-विस्को हो तो बात करिए।”
बेटे की बात सुनकर मैंने और आगे कुछ कहने की बात छोड़ दी। मैंने सोचा—जो होगा—सब अच्छा ही होगा।
मेरा बेटा जो मौ दूसरों के घरों में सीढ़ी के पास बैठकर रोज़ दोपहर गिटार बजाता हुआ डिस्को डाँसर बनने की कोशिश कर रहा था।
जब वह दसवीं में तीसरी बार फेल हुआ तो उसने कहना शुरू कर दिया कि अब मैं पढ़ना नहीं चाहता। यह बात उसने मुझसे सीधे-सीधे नहीं कही। उसने अपनी माँ से कही। जब से वह दूसरी बार फेल हुआ था—मैं उसके साथ कुछ सख़्ती से पेश आ रहा था।
“वह स्कूल छोड़कर क्या करने के बारे सोच रहा है?” मैंने पत्नी से पूछा।
पत्नी ने कहा—“वह पानी के जहाज़ पर नौकरी करना चाहता है। वह चाहता है कि आप उसके लिए कहीं सिफ़ारिश...!”
“ज़रा रुको! मैं भला किससे सिफ़ारिश करूँ?”
“कर नहीं सकते! जिनसे संबंधित थे, शायद उनसे!”
अगर मैं इसकी सिफ़ारिश करना भी चाहता तो भी वह यह नहीं चाहेगा कि एक जहाज़ी बनें। यह तो अच्छी बात है कि कोई अपने हौसले और बलबूते पर विदेश यात्रा का भ्रमण करे। इससे देश-प्रदेश के अनुभव और ज्ञान प्राप्त होते हैं, इन्हें हम पैसे से नहीं ख़रीद सकते। बाहर जाकर काम करने वालों के कारण देश को विदेशी मुद्रा मिलती है, यह तो अच्छा विचार है।
वैसे अगर आप एक जहाज़ी हो भी गए, आप बाहर जाकर, पैसे कमाकर एक कार भी ख़रीद लाए तो उसके बाद आप क्या करेंगे? दूसरी बार भी क्या आप जहाज़ी बनकर जाएँगे? इसकी क्या गारंटी है कि आप जब-जब कभी बाहर जाएँगे और जहाँ कहीं एक जहाज़ी के रूप में जाएँगे, वहाँ आप लाभ या हानि देखकर कोई काम करेंगे? इस बात की क्या गारंटी है कि आप जहाँ भी जाएँगे हमेशा सफल रहेंगे? इस बात की क्या गारंटी है कि बाहर जाकर आपकी नीयत बदल जाएगी और फिर आप स्वदेश वापस आएँगे? क्या यह सब विचार करने योग्य नहीं है? आप ख़ुद सोचें कि आपको एक जहाज़ी बनकर जाना चाहिए कि नहीं? आप गिटार इसलिए बजाते हैं कि दूसरे बजाते हैं। दूसरे जब जींस के बैग ख़रीदते हैं तो आप भी लेना चाहते हैं। दूसरे सैनिक बस्ता लेना चाहते हैं तो आप भी वही पाना चाहते हैं। इस बात का महत्व नहीं है कि नए थैले के पैसे ज़्यादा लग जाएँगे। दूसरों की देखादेखी बिना किसी तैयारी के जहाज़ी बनकर विदेश जाना तो और भी अनुचित है।
“नहीं भाई, मैं इसकी इज़ाज़त नहीं दे सकता।” मैंने उसकी माँ से कहा—“तुम दोबारा सोचकर तो देखो?” मैंने भी ज़िद की।
“नहीं-नहीं मैं नहीं सोच सकती, मैंने तो फैसला कर लिया है। फिर भी तुम सोच लो, अभी थोड़े ही जाना है। अगर तुम्हें ठीक लगे तो इज़ाज़त दे देना। बाद की बात बाद में देखी जाएगी।”
“नहीं-नहीं, मैंने फैसला कर लिया है। मैं इसकी इज़ाज़त नहीं दे सकता।” मैंने दो टूक बात कह डाली।
“पता है, आप तो बहुत पुराने विचार वाले हैं। कई लोगों के बेटे-बेटियाँ बाहर जाकर काम कर रहे हैं। सेठों और साहूकार के बेटे बाहर जा रहे हैं। जिसे देखो वही जहाज़ पर नौकरी करता विदेश चला जाता है। जब वे लौटते हैं तो उनके पास बेशुमार दौलत और विदेशी चीज़ें होती हैं। विदेशी गाड़ियाँ होती हैं। इसकी अपने देश में कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। तुम अपने ज़माने में कार की सवारी नहीं कर सकते थे, कोई बात नहीं। लेकिन अब तुम अपने बेटे के समय यह कर सकते हो। यह काम अपना बेटा करवा सकता है, लेकिन तुम इस मौक़े को गँवा देना चाहते हो। तुम कोई भी काम ज़बरदस्ती नहीं करा सकते और बेटे को कहीं पागलपन का दौरा चढ़ गया तो लेने के देने पड़ जाएँगे। जब बच्चे पढ़ रहे थे, तब उन्होंने कभी इस बात का एहसास नहीं किया कि उन्हें भी दूसरे लोगों की तरह विदेशी गाड़ियाँ चाहिए, विदेशी सामान चाहिए। अब जबकि वह दूसरे लोगों की देखादेखी जहाज़ी बनना चाहता है, विदेश से ढेर सारे रुपए कमाकर लाना चाहता है तो तुम इसकी अनुमति नहीं देना चाहते। जिस विदेशी कार की तुम कल्पना नहीं कर पाये तुम्हारा लड़का उस पर बैठाना चाहता है तो उसे विदेश जाने की अनुमति देनी चाहिए कि नहीं?”
उसकी इस बात पर मेरे पेट में एक ज़ोरदार घूँसा-सा लगा। अगर पत्नी की बात का ठीक से मतलब निकाला जाए तो बेटा यही कहना चाहता है कि जो चीज़ें आप अपनी क़ाबलियत से बेटे-बेटियों के लिए मुहैया नहीं करा पाए, उन्हें मैं अपने बाहुबल से प्राप्त कर सकता हूँ। इसलिए उसके मार्ग में रुकावट पैदा करने की कोई ज़रूरत नहीं। इसका हमें कोई हक़ नहीं और हमें उसे जाने की अनुमति दे देनी चाहिए।
मेरे पेट में एक और ज़बरदस्त घूँसा आकर लगा। मुझे यह दर्द सहना ही था, लेकिन पत्नी ज़रा होशियार थी। मेरी कमज़ोरी को उसने दबाये रखा। उसने ऐसा कर बीच-बचाव और समझौते का रास्ता ढूँढ़ निकाला जिससे मुझे अधिक दर्द ना हो।
“मैंने तो इसलिए कहा था कि अनुमति दे दो। क्योंकि जहाँ बेटे की इच्छा पूरी होती पिता को रिटायरमेंट के बाद आराम से रहना नसीब होता। तुमने उम्र भर बीवी और बच्चों को अपनी मेहनत से खिलाया, पाला-पोसा और सम्मान दिलवाया। तुम इस परिवार को बहुत सुख नहीं दे पाये तो आराम से तो अवश्य ही रखा है। मैंने भी एक पत्नी के रूप में सारे घर की देखभाल की है। मैंने कभी एक पैसे की कंजूसी नहीं की। बेटे की ज़िद है कि मुझे तो जहाज़ी बनकर जाना है। ऐसा नहीं है कि वह अचानक उठकर चल देगा। वह कम-से-कम दसवीं पास करने के बाद ही जाएगा। अभी उसके दसवीं पास होने में देर है। यह सलाह-मशविरा इसलिए करना पड़ रहा है कि अगर वह कुछ करना चाहे तो पहले से ही सोच-समझकर अपना क़दम आगे बढ़ाए।”
मैंने कुछ नहीं कहा चुप और शांत रहा। अभी तक मैं बिल्कुल अकेला पड़ा था। उसकी तरफ़ सब थे। दसवीं कक्षा का दूसरी बार इम्तिहान देने के बाद जो मौ बाहर के अध्यापक से ट्यूशन पढ़ने जाने लगा था। अपने स्कूल के अध्यापकों से ट्यूशन नहीं ले सकता। गणित, रसायन और अंग्रेज़ी की फ़ीस हर महीने साठ रुपए से ऊपर होती थी। बस का किराया और जेब ख़र्ची भी डेढ़-दो सौ रुपए हो जाती थी। कोचिंग स्कूलों का भी अलग-अलग समय था। किसी स्कूल में सुबह जाना होता तो किसी में दोपहर को और किसी में रात को। जब मैं सुबह टहल कर घर लौटता तो वह घर पर नहीं होता था। स्कूल जाने के बाद रविवार के दिन मैं परिवार के सदस्यों के साथ किसी आश्रम में उपवास कर बिताना चाहता था, लेकिन वह कभी दिखाई नहीं देता था। जब भी पूछो किसी-न-किसी स्कूल गया होता था। शाम को दफ़्तर से घर पहुँचने पर भी वह कभी दिखाई नहीं देता था। उसे दूसरे से तीसरे और तीसरे से चौथे स्कूल जाना होता था। स्कूल से लौटकर खाना खाकर वह तेज़ी से निकल जाता था। जाते समय उसके हाथ में गिटार होता था। ज़्यादातर मौक़ों पर जब मैं सोने जाता था, तभी वह लौटा करता था। चूँकि मैं सुबह जल्दी उठकर टहला करता था, इसलिए रात को ठीक दस बजे सो जाया करता था। दरअसल मेरी और बेटे की हफ़्ते भर में दस मिनट के लिए भी भेंट नहीं होती थी।
मैं उसे स्कूल जाते देखता था। वह बरसाती छतरी या टोप वग़ैरह साथ लेकर नहीं जाता था। मैंने उसे अपनी सबसे अच्छी छतरी दी, लेकिन उसने यह कहकर लेने से मना कर दिया कि छतरी की मूठ बड़ी लंबी है और यह छतरी बस में सवार लोगों को तंग करेगी। मेरी पत्नी और बच्चे इस बात पर मेरी हँसी उड़ाते कि मैंने उसे एक टेढ़ी-मेढ़ी मूठ वाली छतरी थमा दी है।
ठीक है, मैं तो मैं ही हूँ। आज के ज़माने में टेढ़ी मूठ वाली छतरी कौन सिर पर लेता है? उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में पैदा हुए बूढ़े-बुजुर्ग ही ऐसी छतरी लेते हैं, जबकि ये बच्चे इक्कीसवीं सदी में क़दम रखने जा रहे थे।
इसलिए मेरे बेटे को ऑटोमैटिक छतरी ख़रीद दी गई, जबकि मेरे पास वही पुरानी टेढ़ी मूठ वाली छतरी थी।
दस-पंद्रह दिनों तक उसने वह छतरी ओढ़ी। स्कूल जाते-आते ऑटोमैटिक छतरी थामे रंगून के काले स्टूडेंटों की तरह। लेकिन बाक़ी के दिनों में वह छतरी के बिना ही आता-जाता दीखता रहा, इसलिए मैंने एक दिन उससे पूछा, “तुम्हारा छतरी कहीं गुम तो नहीं गई?”
“पड़ी है,” उसने बताया।
“है तो ओढ़ते क्यों नहीं? छतरी नहीं ओढ़ोगे तो हवा और बारिश में सेहत ख़राब हो सकती है।”
“नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। दरअसल छतरी हाथ में रखने में बड़ी परेशानियाँ हैं।”
“कोई परेशानी नहीं है। फिर तुम्हारी छतरी तो ऑटोमैटिक है। चाहो तो हाथ में थामो या बैग में रख लो। बारिश होने पर क्या करोगे और रंगून की बारिश का क्या भरोसा? जब चाहे तभी बरस जाए।”
“पिताजी, अगर बारिश आ धमकी तो किसी बड़ी या ऊँची इमारत से सटकर बचाव कर लिया जाएगा।”
“बरसात रुकने तक का इंतज़ार करने में बहुत समय बरबाद होता है।”
“पिताजी, यह आप क्या कह रहे हैं? रंगून की बारिश जब थमना चाहे तब थम जाती है। आती है और चली जाती है।”
पहले वह यह कहता रहा कि टेढ़े हैंडल वाली छतरी वह नहीं ओढ़ना चाहता, इसलिए उसे ऑटोमैटिक छतरी ख़रीद कर दे दी गई थी। उसने कुछ ही दिनों बाद इसे ओढ़ना बंद कर दिया। अब कह रहा है कि रंगून की बारिश जब चाहे थम जाती है। दरअसल आज के युवक छतरी तो ओढ़ते नहीं, ऐसे में मैं ये क्या कहता कि तुम्हें छतरी ओढ़नी ही होगी। ज़बरदस्ती या मार-पीटकर छतरी उढ़वाना भी तो गलत ही होता। शायद वह मेरा लिहाज़ करता था। मेरे सामने जब भी घर से निकलता छतरी ले लेता था। लेकिन जब मैं सामने नहीं होता था तो छतरी नहीं लेता था। बिना छतरी यूँ ही बारिश में टहलता रहता था। मैंने भी उससे और कुछ कहना उचित नहीं समझा। इस बीच एक और समस्या खड़ी हो गई, यह जींस पैंट से जुड़ी थी।
उसके पास कई लुंगियाँ थीं। माँ ने अपने सबसे छोटे बेटे के लिए सुंदर-सुंदर लुंगियाँ बनाकर दी थीं, लेकिन लाड़-प्यार से बनाई गई उन लुंगियों को वह नहीं पहन रहा था, क्योंकि वह उन्हें पुराने फ़ैशन वाली लुंगियाँ समझता था। इन दिनों वह यही कह रहा था कि उसे काले रंग की लुंगियाँ ख़रीद दी जाएँ। मैं तो काले रंग की लूँगी देख भी नहीं सकता था, लेकिन उसे काली कछिन लुंगी ही पसंद थी। ऐसी लुंगियाँ आज फ़ैशन की दुनिया में लोकप्रिय हैं—जिसे आजकल नौजवान पहनते हैं। मैंने मन-ही-मन सोचा, चलो इसे काले और पक्के रंग बड़े प्रिय हैं।
मैंने अपने पास पड़ी कई ताँबई, हल्की नीली और पीली लुंगी उसे दे रखी थी। रेशम की इस पीली लुंगी को लेने से मना करते हुए उसने कहा—इस तरह की लुंगी पहनने वालों को घमंडी समझा जाता है। मैं इन लुंगियों से कहीं ज़्यादा इनलिया लुंगियाँ पसंद करता हूँ, क्योंकि इनलिया झील में सैर करने वाले युवक-युवतियाँ वही लुंगियाँ पहनते हैं। रेशमी लुंगियाँ तो लोग शादी के बाद ही पहना करते हैं।
बेटे की बात सुनकर मेरे सारे तर्क ख़त्म हो गए और मुझे चुप रहना पड़ा। आज के युवक-युवतियाँ ज़माने के अनुसार अपना पहनावा पसंद करते हैं। पहले वह बैल पैंट लेना चाहता था तो माँ ने दिलवा दिया था। उसे भी उसने कुछ ही दिन पहना। छ:-सात महीने बाद कभी पहन लेता।
छ: महीने के बाद ही उसने जींस पैंट ख़रीदने की ज़िद की। उसकी माँग पर मैंने इन जींस पैटों को ध्यान से देखना शुरू किया। जिस ओर भी मेरी नज़र जाती युवक-युवतियाँ नीले रंग की जींस पैंट पहने नज़र आते, लेकिन उनका नीला रंग वास्तव में उड़ चुका होता था। वे कहते हैं कि यह पैंट अधिक समय तक चलती है। जितनी मर्जी डालो, फटती नहीं। जहाँ भी चले जाओ ये लोकप्रिय हैं। जींस पहनकर स्कूल भी जा सकता हूँ।
लगातार ज़िद करने के कारण बेटे को जींस पैंट लेकर देना पड़ा। मेरा एक दोस्त चाईनटोक गया हुआ था। मैंने उसे वन नाईन ब्राण्ड वाली एक जींस पैंट लाने को कहा था, लेकिन जब पैंट आई तो मेरे राजा बेटे को पसंद नहीं आई।
उसने कहा यह जींस पैंट तो बड़ी घटिया क़िस्म की है। कुछ ही दिनों के बाद फट जाने वाली है।
“तुम किस तरह की जींस पैंट पसंद करते हो।”
“मैं जिन जींस पैंटों को पसंद करता हूँ, उनके नाम हैं आटो, लैवाई, जींसट। अगर लैवाई न मिले तो जीचू से काम चला लेंगे।” इन ब्रांडों की जींस पैंट की क़ीमत कम नहीं थी। सस्ती पैंट की क़ीमत भी डेढ़ सौ के बीच थी। वह जिस लैवाई की बात करता था, उसकी कीमत ढाई से तीन सौ के बीच थी।
“आख़िर है तो जींस पैंट ही। इसकी कीमत भी मुनासिब है।” मैंने कहा।
“नहीं पिताजी, ये सब बर्मा में सिली हुई हैं।”
“बर्मा में इसकी सिलाई की गई है, यह बात तुम कैसे कह सकते हो?”
“यह तो सिलाई देखने से मालूम हो जाता है। लैवाई पैंट वग़ैरह देखी है आपने? पहली ही नज़र में पता चल जाता है वे विदेशों में सिली गई हैं।”
“देखो ज़ो मौ! मुझे पता है कि लैवाई जींस पैंट की इटली में सिलाई होती है। ओरिजनल बताकर थाईलैंड, ताईवान, हाँगकाँग में सिली जींस पैंटों की बात छोड़ो, रौलेक्स और ओमेगा ब्रांड की नक़ली घड़ियाँ भी हाँगकाँग और ताईवान में बिक रही हैं। तुम लोगों ने ओरिजनल चीज़ें तो देखी है नहीं। विदेश से आए नकली सामान को तुम लोग ओरिजनल समझ लेते हो। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि वहाँ भी नकली सामान बनता है। मैं उन्हें चुनना नहीं जानता, अगर तुम्हें सचमुच चुनना आता है तो तुम्हारी माँ साथ जाकर ख़रीद देगी।”
मुझे ग़ुस्सा आ गया था और मैं लगभग चिल्ला रहा था। जो मौ कुछ नहीं बोला। कुछ देर बाद वह एक जींस पैंट ले आया। यह वही नीली जींस थी, जिसके बारे में वह यह कह रहा था कि बड़ी अच्छी और मज़बूत है। जेबों पर पीतल के बटन लगे थे। मैंने क़ीमत पूछी तो उसने बताया—दो सौ अस्सी रुपए। यह भी बताया कि यह सीधे जहाज़ी से ख़रीदी गई थी। मैंने कुछ नहीं कहा, उसकी पसंद ही सब कुछ थी।
लेकिन जब भी यह जानवर जींस पैंट पहनता तो नीचे की मोहरी ऊपर उठाकर मोड़ लेता। यह बात मुझे पसंद नहीं थी। मेरी समझ में नहीं आता था कि जींस पहनते समय पाँयचे को उठाकर मोड़ते क्यों है? राजधानी रंगून में कीचड़ तो कहीं है नहीं और न इन्हें जंगलों या पहाड़ों में रहना पड़ता है। कोलतार बिछी पक्की सड़कों पर ही इन्हें चलना होता है तो फिर किस कारण जींस की मोहरी मोड़ ऊपर उठा लेते हैं, मेरी समझ में नहीं आता। देखने में यह बड़ा ही भद्दा लगता है।
“पिताजी, आजकल के नौजवान फ़िल्मी हीरो की तरह जींस को इसी तरह ऊँचा उठाए रखते हैं।” बड़ी बेटी ने बीच में पड़कर कहा था।
“फ़िल्म से क्या मतलब है तुम्हारा? फ़िल्मों का एक्टर तो कहानी के अनुसार काम करता है। फ़िल्मों में कपड़े कहानी और सिचुएशन के अनुसार पहनाए जाते हैं। इन छोकरों को फ़िल्मों की कॉपी करने की ज़रूरत क्या है?”
दोनों बेटियों के चेहरे ज़रा उतर गए। पत्नी ने कहा, “तुम भी हर जगह अपनी टाँग ज़रूर घुसेड़ देते हो। अपना-अपना ज़माना है। जब चाहें जैसा चाहें पहनने-ओढ़ने दो उन्हें। आजकल के लड़के ऐसे कपड़े ही पहनते हैं। ज़माने के अनुसार कोई पहनावा बुरा नहीं लगता।”
इसके बाद मैंने और कुछ नहीं कहा। बस चुप रह गया। अगर मैं और बहस करता तो यही समझा जाता कि मैं ज़माने के अनुसार चलने वाला आदमी नहीं। लोग मुझे आधुनिक नहीं मानते। मैं पिछड़ा हुआ हूँ, प्रगतिशील नहीं हूँ वगैरह-वगैरह...!
महीने भर बाद एक शनिवार को जब मैं दफ़्तर से घर लौटा तो हमारे घर के पास वाले बाग़ में जो मौ और उसके तीन चार साथी अपने-अपने जींस पैंटों को हाथ में थामे रेत और कीचड़ से रगड़ रहे थे। पहली नज़र में ऐसा लगा कि वे जींस पैंट धो रहे हों। लेकिन नहीं, यह कोई कपड़े धोने की जगह तो थी नहीं। लेकिन वे सब अपनी-अपनी जींस पैंटों को टूटी-फूटी ईंटों से रगड़ रहे थे। मुझे आता देखकर सभी थम गए। मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। सीधा घर की ऊपरी मंज़िल पर चला आया।
मैंने बीवी से कहा—“तुम्हारे बेटे नीचे जींस पैंटों को रेत, कीचड़ और पत्थर से रगड़ रहे हैं। पता नहीं वे क्या कर रहे हैं?”
“वे क्या कर रहे हैं, क्या पता? शायद अपनी पैंट धो रहे होंगे।”
धोने के लिए ईंटों से तो रगड़ना नहीं पड़ता। मैंने देखा कि वे ईंटें तोड़-तोड़कर उनसे पैंटों को रगड़ रहे हैं।”
तभी मँझली बेटी ने कहा, “पिताजी वे अपनी जींस को फीट-टिटिट जींस यानी बदरंग जींस बना रहे हैं। किसी नई जींस पैंट को पहनना उन्हें बकवास जान पड़ता है पिताजी! जींस पैंट या जींस जैकेट बदरंग होने के बाद ही पहनी जाती है। ऐसा उनका मानना और कहना है।”
“अरे ऐसा है क्या,” कहकर मैंने अपनी छाती पीट ली। जीन सौ रुपए में नई जींस पैंट को बदरंग करने या पुरानी दिखने के लिए उसका यह हाल कर रहे हैं, लेकिन मैं कुछ नहीं कह पा रहा। शायद इसी से मेरा रक्तचाप कुछ तेज़ हो गया हैं। कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा। उस दिन मेरा पारा चढ़ा हुआ था। दोपहर के समय में श्वटैंगों मंदिर में गया। वहाँ माला फेरी, जाप किया और फिर रात दस बजे मंदिर से लौटा।
इस साल भी जो मौ दसवीं क्लास में फेल हुआ। उसे कोई दुख नहीं था। वह वैसे ही ख़ुश और मस्त था। वह जहाज़ी बनने जा रहा था। ठीक है, बन जाए। अब वह स्कूल में नहीं रहना चाहता तो इसमें मैं क्या कर सकता हूँ? वह तीन बार फेल हो चुका है। कई-कई ट्यूशन लगाई जा चुकी हैं। उसका मन पढ़ाई में लग जाए इसलिए हम उसकी हर बात मानते रहे, हर ज़िद पूरी करते रहे। जब उसे फ़ौजी बैग चाहिए था, फ़ौजी बैग लेकर देते रहे, जब उसे ऑटोमैटिक छतरी चाहिए थी, उसे छतरी लाकर देते रहे। ऑटोमैटिक छतरी या जींस पैंट—जो भी उसने चाहा या चाहता रहा, उसे लेकर देते रहे, ताकि पढ़ाई में उसका दिल लगा रहे। उसकी हर बात मानते रहे। अपने मन को मार-मारकर भी उसकी हर ज़िद पूरी करते रहे, लेकिन वह इस साल भी पास नहीं हुआ। अब वह कैसे पास हो सकता है? मैंने अपने मित्रों से उसके बारे में बातें कर अपना मन काफ़ी हल्का कर लिया। एक तरह से अच्छा ही हुआ। पढ़ाई पूरी न कर जहाज़ी बनने की ऐसी इच्छा रखने वाले को वह काम करके भी देख लेना चाहिए। हाँ, जब वह दूर चला जाएगा तो मेरी चिंताएँ कुछ कम हो जाएगी।
उसके सारे काम पूरे करने के बाद मैं दूसरे शहर चला गया था। पंद्रह दिनों तक मैं वहीं रहा। जब कभी मैं बाहर से लौटता तो मेरी पत्नी और मेरी बेटियाँ बरामदे तक आकर मेरा स्वागत किया करतीं। जैसे ही मुझे आता देखतीं, वे दौड़कर नीचे उतर आतीं और जो सामान वगैरह मैं लाता, उठाकर ले जातीं। साथ ही, बड़े आदर से मेरा स्वागत किया करतीं।
कार सीधे मेरे बरामदे के सामने जाकर रुकी। घर का दरवाज़ा खुला और दोनों बेटियों ने मेरा सामान और सूटकेस उठा लिया। मैं सीढ़ी से ऊपर चढ़ा। कमरे में पहुँचा तो वह बंद था। अंदर से शोरगुल और हँसी-मज़ाक़ का स्वर सुनाई दे रहा था। दरवाज़े को खटखटाने और ज़ोर से पुकारते ही पत्नी ने गरम पानी की बोतल, तो किसी ने नाश्ता और किसी ने फल की टोकरी लाकर मेरे सामने रख दी सब लोग घर में थे। पत्नी भी थी। मँझला बेटा भी था और छोटा लड़का जो मौ भी। मेरी छोटी बेटी भोजन कर रही थी।
हाँ, उनके अलावा एक आगंतुक और नज़र आया। उसे देखकर मैंने अपने तेज़-तर्रार तेवर को सँभाले रखा और कुर्सी पर बैठ गया।
अतिथि मेरी बेटियों की कोई सहेली थी, ऐसा लगा। उसकी उम्र बीस साल की होगी। उसने तीन स्ट्राईपों वाली एक मर्दाना कमीज़ पहन रखी थी। ऊँचा क़द, दुबली-पतली काया और गेहूँ जैसा चमकता-दमकता रंग।
मैंने लड़की की ओर देखा। लड़की ने भी मेरी ओर सिर उठाकर देखा। आँखें मिलीं तो उसके कोमल चेहरे पर शर्म की गुलाबी रंगत तैर गई। उसने अपनी पलकें नीची कर लीं। मुझे लगा इस बूढ़े को देखकर उसको कुछ बेचैनी-सी हुई। वैसे भी मेरी बेटी की सहेलियाँ मुझसे ज़्यादा नहीं मिला करती थीं।
कुछ क्षण बाद वह तेज़ी से उठी और भोजन छोड़कर जो मौ और उसके भाइयों के कमरे की ओर चली गई। कुछ देर बाद जो मौ भी नज़रें बचाकर उसी कमरे में घुस गया। उसने शायद मुझसे आँखें ना मिलाने का फैसला कर लिया था। अरे यह क्या! अगर यह मेरी बेटी की सहेली है तो इसे चाहिए था कि बेटियों के कमरे में जाए, लेकिन यह तो जो मौ के कमरे में चली गई। मँझले ने मेरी ओर मुस्कुराते हुए कहा, “पिताजी, घर में एक नए सदस्य की बढ़ोत्तरी हो गई है। अब मुझे भी माला और तूजा के कमरे में सोना पड़ रहा है।”
पत्नी ने उसकी ओर टेढ़ी नज़रों से देखा। अब सब कुछ मेरी समझ में आ गया था।
“कहाँ की है?”
“पत्नी ने आवाज़ में मिश्री घोलते हुए कहा—“मैं तुम्हें धीरे-धीरे सारी बातें आराम से बताना चाहती थी। जिस दिन तुम बाहर गए थे, उसी दिन यहाँ आ गई थी। कहने लगी, अब मैं वापस अपने घर नहीं जाऊँगी। उस दिन तो वह यही कह रही थी मैं सिनेमा देखने गई थी तो देर हो गई और घर लौटने की हिम्मत नहीं है। वैसे उस रात यह यहाँ ग्यारह बजे आई थी। हमारी अपनी बेटियाँ भी हैं इसलिए लोगों की बेटियों से भी वैसा ही सलूक करना पड़ेगा ना। लड़की बुरी नहीं है। किसी सरकारी अफ़सर की बेटी है और कॉलेज में दूसरे साल की छात्रा है। नाम है जूलाई। अच्छा अब तुम नहा-धोकर आराम करो। सफ़र में काफ़ी थक गए होगे। हाँ, तुम्हें एक ख़बर सुनानी है, ख़ुशी की। तुम्हारे बेटे के लिए जहाज़ की टिकट मिल गई है, लेकिन बेटा कह रहा है कि माँ मेरी अभी-अभी तो शादी हुई है। मैंने अभी जूलाई के माता-पिता से बात नहीं की है, इसलिए मैंने वह टिकट वापस कर दी है। ठीक ही तो है! हमें लड़की भी उसके माता-पिता के पास वापस पहुँचानी है। लड़की का बाप बड़ा सरकारी अफसर है। शादी के बाद अपने दामाद को ऐसे ही फेंक नहीं देगा। कोई-न-कोई जुगाड़ भिड़ायेगा ही। क्यों ठीक है ना! अरे बेटे जो मौ और जूलाई यहाँ तो आओ।”
‘अच्छा तो इसका नाम जूलाई है।’ मैंने इससे आगे कुछ कहना उचित नहीं समझा। एक गहरी साँस ली। मैं लड़के का बाप होकर अगर इतना झेल सकता था तो लड़की वालों का क्या होगा? मुझे इस लड़की से पूरी साहनुभूति थी।
बाहर की ओर नज़र पड़ी तो देखा सामने बरामदे में जो मौ की लैवाई जींस पैंट झूल रही थी। उस फीके और बदरंग पैंट को देखकर मेरा जी खट्टा हो गया।
पैंट बदरंग हो जाए उसे फेंक दिया जा सकता है, लेकिन जीवन बदरंग हो जाए तो भी उसे फेंका नहीं जा सकता। इसी तरह अपनी संस्कृति गंदी कर दी जाए तो वह फेंकी नहीं जाएगी।
मेरी आँखें बरामदे में सुखाई जा रही जींस पैंट की ओर बरबस चली गई। इस जींस पैंट का रंग उड़ चुका था और कहीं-कहीं से धागे भी उधड़ रहे थे।
ve log mujhe ek jamane se pichhDa hua adami kahte hain. ek purane zamane vala—jo ne daur mein pichhe rah gaya ho ya pichhaD gaya ho.
theek hai, koi baat nahin. main is vishay par koi bahs nahin karna chahta. meri umr bhi saath ki qarib ho rahi hai. darasal do teen saal ke baad main ritayarD ho jaunga. aise mein mera dil kitna bhi phatila ho, kitna bhi javan ho, jab umr ka prabhav paDna shuru ho jayega to main unse kisi tarah ki bahs nahin kar paunga. vaise main svasth aur shaktishali adami hoon. kabhi kabhar blaD preshar ya raktachap ho jane ke alava kabhi kuch nahin hua. blaD preshar ki baat ke liye to main kuch kah pane mein asmarth hoon, kyonki ye ek adhunik rog hai. khaan paan mein kuch savdhaniyan rakhni paDti hain.
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hamara ghar ab kafi khula khula hai ovarvet ho rahi motron ki tarah. jaise hi bhaar halka hua, raftar tez ho jati hai aur injan ko rahat milti hai. ab ghar mein haath paanv na hilane vale sirf chaar log rah ge the.
main ye to nahin kah sakta ki baqi charon hi bekar hain. baqi bache do bete aur do betiyan. baDi beti em०si० van mein paDh rahi hai, jise ajkal ai० em० van kahte hain. ye chikitsa varg ka pahla varsh hai. manjhala laDka ek aspatal timveh ku mein tha. chhoti beti jooh mein thi. use em०si० vagairah mein dakhila nahin mil paya, par ise bhi bura to nahin kah sakte. wo greD phor mein pravesh pa lene mein kamyab rahi hai. ismen pa lena bhi kamal hai. isse mastars vastars ki Digri hasil kar sakte hain. bhagya saath hai to trening vagairah ke baad
koi naukari vaukri haath lag sakti hai.
asli samasya hai sabse chhote “zo mau” ki. ye gadha dasvin kaksha mein teen baar phel ho chuka hai. sabse chhota bhi hai. maan bhi use kuch zyada hi laaD pyaar karti hai. uski zid bhi puri karti hai. maan hi kyon? baap, yani main bhi uski ulti sidhi baton mein aa jata hoon aur uski zid puri kar diya karta hoon. aisa nahin hai ki main apne bachchon mein se kisi ko zyada aur kisi ko kam pyaar karta hoon. mujhe pata hai ki apne hi bachchon mein se kisi ko zyada aur kisi ko kam pyaar dena anyay hai, anuchit hai. meri hamesha yahi koshish hoti hai ki main apna pyaar bachchon mein ek barabar banta karun.
inhin vicharon ke chalte chhote bete jo mau ko baDe beton se adhik pyaar na karne par bhi uski zid puri karne mein mainne patni ka saath diya hai. pyaar use zyada nahin kar paya, lekin uski zid puri karne mein kuch zyada hi saath deta raha. ismen koi kuch nahin kar payega. main khud bhi nahin. kyonki jab ghar ke baDon ka zamana tha aur dada dadi zinda the, tab bachchon ko bharpur laaD pyaar diya karte the. unki zid puri karne vale chacha chachi the. unhonne inhen apne hathon kabhi niche nahin baithaya. sada uupar uthakar rakhte the. ab dada dadi aur nana nani bhi nahin rahe. chacha chachi vivah ke baad apne apne parivaron mein vyast ho jane par dusron ke bachchon se laaD pyaar karne ki baat to door, apne bachchon ko bhi zyada sir nahin chaDhate the, isiliye chhote bete jo mau ko hum maan baap kuch zyada hi laaD pyaar karte the. is bare mein baDon ko bhi samjha diya gaya tha.
jis saal jo mau athvin kaksha mein pahuncha, meri taraqki hui aur mera tabadla rangun ho gaya. prdeshon mein hamein khule gharon mein rahne ki aadat paD gai thi. isliye yankih vali kothi ke tang kamron mein rahne mein koi anand nahin aa raha tha. is bare mein hum kuch karne mein asmarth the. main kasbe ka rahne vala tha aur patni bhi qasbe ki rahne vali thi. rangun mein hamari koi zamin jayedad to thi nahin. tang kamre nasib hona hi bahut tha. ye achchhe bhagya ka parinam tha.
jab hum rangun pahunche, tab jo mau ki umr zyada se zyada chaudah saal se kuch adhik ki rahi hogi. tab mere baDe bete bason mein skool jaya karte the. ek chikitsa pathyakram ke pahle saal mein tha dusra ‘rajuh’ mein aur tisra ‘timveh ku’ mein.
aise mein ye samasya khaDi ho uthi ki hum sabse chhote janvar jo mau ko skool kaise bhejen? baDe bete uchch shiksha ka adhyayan kar rahe the. kabhi kabhar aisa bhi hua karta tha, jab pure din mein kisi ghanti mein klaas mein nahin jana paDta tha, isliye ve ghar mein hi rah jate the.
zo mau jis haiskul mein paDhta tha. wo din ka skool tha. use theek samay par skool mein upasthit hona hota tha. uska skool subah saDhe nau baje lagta tha aur jo shaam ke saDhe teen baje tak chalta tha. rasta ek hone par bhi use baDon ke saath bhejna avyavaharik tha. main chahta tha ki wo bas se hi skool jaye. par uski maan kaha karti thi ki main apne sabse chhote bete ko skool bas mein nahin bhejna chahti. suraksha ke hisab se main us par pura bharosa nahin kar sakti. basen thasathas bhari rahti hain aur phir ajkal ke chhokre bas ke andar na baithkar ek paanv bas ke payadan par aur dusra paanv niche latkate hue apni jaan hatheli par rakhkar savari karte hain. tabhi wo apne sabse chhote bete ko bas se nahin bhejna
chahti, uska dil nahin manata. use bas se skool bheja bhi jaye to skool tak pahunchne ke liye do basen badalni hoti hain. ismen paise bhi zyada kharch honge aur bachche ko thakan bhi adhik hogi. isliye patni kahti ki jo mau ko phairi se hi skool jana chahiye.
patni bahane achchha banati hai, isliye mainne unki salah maan li. salah kahne ki bajaye, ye kahna uchit hoga ki mainne unki yojna aur vyavastha ko svikar liya. agar main svikar nahin karta, tab bhi yahi hona tha.
chaliye ismen bhi koi buri baat nahin, lekin use saath mein tifin bhi deni paDti. skool ki basen apni bari aur samay ke anusar hamari taraf subah ek baar kuch jaldi aur dusri baar der se aaya kartin. vapsi mein bhi ek baar jaldi aur dusri baar der se chhoDtin. pura chakkar lagakar tamam bachchon ko ikatthakar le jane mein, subah jaldi jane valon ko bhi tarah tarah ki asuvidhayen aur diqqten hoti. vapsi mein bhi bason ke der se pahunchne par vaisi hi pareshaniyan hotin. isliye bachchon ke abhibhavak aksar pareshan aur nakhush rahte.
hamari kothi ke samne vali bas ek din jaldi to dusre din der se aati. jis din wo let ho to koi khaas baat nahin hoti, lekin jis din jaldi aati, us din meri patni ko baDi pareshani hoti. use subah subah uthkar nashta banana paDta aur use tifin baste mein Dalkar dena hota. raat mein bani sabzi ko garm karna paDta, lachari thi. uski vajah se ghar ke dusre sadasyon ko apne apne karyakrmon mein kuch tabdiliyan karni paDin.
patni ko shaam ke samay bazar dauDna hota. vapsi mein sab kuch pakakar taiyar rakhna hota. subah uthte hi sabse pahle chulhe par chaval ka patila rakhna hota. thakan to kafi hoti par vaqt ki zarurat ke chalte use aadat si ho gai thi.
lekin nai vyavastha mein bhojan ke tifin ko lekar ek nai samasya shuru hui. mera parivar van main inkam vala parivar tha, jismen keval ek hi vyakti kamata hai aur vahi aay ka ekmaatr srot hota hai. mahine ke antim din bitte na bitte ghar mein paison ki tangi hone lagti. kahne ko to mahine ke antim dinon mein tangi hoti hai, lekin sachchai ye thi ki pandrah tarikh ke baad hi paison ka akal paDna shuru ho jata aur salan aur sabziyon ke star mein giravat hone lagti.
sabse chhote beta jo mau shayad ‘atra’ nakshatr mein paida hua tha. use tel mein tali chizen baDi pasand theen. aadhe mahine ke baad usko tifin mein kabhi tale hue uble matar, kabhi batakh ke anDe ki kari, maans Dalkar tali hui sabziyan aur kabhi kabhar sasti samudri machhli milti thi jiski bu door karne ke liye Dher sare masale Dalne paDte the. aise mein bhi chhote laat sahab shikayat karte rahte the.
skool mein jab uske sathi apni apni tifin kholkar eksaath baithkar khaya karte, to vahan kai tarah ki sabzi hoti. idhar use apni sabzi ke karan hamesha sharm uthani paDti thi. uske dost uska mazak uDate, isliye na to wo tifin saath le jana chahta tha aur na hi unke saath baithkar khana chahta tha. main use samjhane ki har mumkin koshish karta. main uski samasya bhi samajhna chahta tha, lekin koi laabh nahin hua. subah subah ghar mein jo kuch bhi pak jata tha use hi khakar wo chala jaya karta tha. dopahar ke samay jab bhookh satati to wo kuch kharidkar kha pi leta tha. dopahar ke samay bhookh lagna svabhavik hai. jab mainne usse kaha to wo bola—koi baat nahin, main apne aapko sanbhal lunga. koshish karunga ki bhookh na lage. uski is baat par hum kuch nahin kar pae. ye uska apna vyaktigat faisla tha. haan, jab wo skool se ghar pahunchta to pahunchte hi ek baDi si thali lekar usmen bhaat sabzi bhar leta aur pet bharkar kha leta. khane ke baad yahan vahan ghumne jata tha. shaam ke samay, saat ya aath baje bhookh lag gai hai, aisa kahkar ek baar phir khana kha leta. aise mein wo kuch zyada hi kha jata. khair koi baat nahin. main iski bhi shikayat nahin karta, kyonki koi abhibhavak ya mata pita aise nahin honge, jo ye nahin chahte hon ki unke bachche bharpet khana na khayen.
jab wo navin kaksha mein pahuncha to usne shuru mein hi ek basta kharidkar dene ke liye apni maan se kaha. vaise uska basta abhi bilkul theek thaak tha. kachhin pardesh se lautte hue mainne ye basta uske liye kharida tha. pichhle saal disambar mahine mein hi mainne use basta kharidkar diya tha. beech mein chhuttiyon vala samay nikal diya jaye to baDi mushkil se usne ise chhah mahine tak istemal kiya hoga, lekin ab uski zid thi ki wo is baste ko haath nahin lagayega. use ek naya basta kharid kar dena hoga.
ek din hamari kothi ke niche vale makan mein usne do yuvatiyon ke haath mein ne rang roop ka thaila dekh liya tha aur tabhi se wo apni maan se naya basta kharid dene ki zid par aDa hua tha.
uski pasand vala basta vaise khubsurat tha. laDakiyon ke komal haath mein wo basta bhale hi adhik samay chal jata, lekin aise kathor laDke ke haath mein ye baste bilkul nahin chal sakte the. phir bhi mainne use ye basta kharidkar dediya. halanki ne baste ki kharid ka virodh karne valon mein main akela hi tha. uski maan, bahan aur bhai sare uski or the.
uski maan aur bahnen shikayat kiya kartin ki pitaji zamane ki raftar se kafi pichhe hain. ajkal ke laDke aap logon jaise mote mote thaile pasand nahin karte. ve halke aur sundar thaile pasand kiya karte hain. aap log to aksar kachhin baste pasand karte hain, jo bahut purane zamane se chale aa rahe hain.
mainne koi javab nahin diya. chup aur shaant raha. kuch hi dinon baad ki baat hai. divali ki chhuttiyon ke baad jis din skool khula ghar ki baithak mein uski baDi bahnen aur chhota bhai kisi baat par bahs kar rahe the. unki uunchi avazen siDhiyon se sunai de rahi theen. avazon mein maan ki avaz bhi shamil thi. donon bahnen kisi ko Daant rahi theen. jo mau bhi chilla raha tha. uski maan ka jaise dhairya toot gaya aur wo nirasha mein kuch baDbaDa rahi thi.
jab main zor se chillaya to darvaza khol diya gaya. kamre ke andar na jane ve kya kar rahe the? jaise hi main vahan pahuncha, patni ne kaha, “are, aaj to tum jaldi aa ge. donon betiyan aur jo mau chupchap apne apne kamron mein chale ge. unke chehre ka bhaav bata raha tha ki ve khush nahin. unse mainne bhi kuch puchha. unhonne bhi kuch nahin bataya.
isi tarah ek hafta guzar gaya.
ek din main daftar jane se pahle ghar mein baithkar angrezi mein khabren sun raha tha. baithak mein donon betiyan aur jo mau ki tez bahs ki avazen uupar aati sunai de rahi theen. har roz meri donon betiyan aur meri patni mere lautne ka intzaar kiya karti theen. ve jaise hi mujhe dekhtin, ghar ke samne ka darvaza khol diya kartin. lekin aaj ghar ke baramde par na to patni dikhai de rahi thi na betiyan. betiyan shayad abhi skool se lauti nahin theen. maan chhote bete ko bhojan karane mein vyast thi.
mera kamra dusri manjil par tha, isliye main siDhiyan paar kar uupar jane laga. mujhe apne kamre se niche se aati zor zor se baten sunai paDin. ye sabse chhote bete jo mau ki avaz thi. donon betiyan ki or unki maan na jane ve kya bol rahi thee? donon bahnen use Daant rahi theen aur jo mau abhi bhi chilla raha tha. uski maan ka bhi jaise dhairya samapt ho gaya ho. kya baat hai, ye janne ke liye mainne darvaza khola. na jane ghar ke bhitar jane kya baten kar rahe the? jaise hi main vahan pahuncha, patni chup ho gai.
‘‘skool ja raha hoon,” jo mau ne kaha aur kamre se bahar chala gaya. jab mainne uski or nazren uthakar dekha to uske kandhe par uska naya basta nahin tha. uski jagah ek sainik thaila dikha.
‘‘oe zo mau, tumhara basta kahan hai?”
“hai na!”
usi samay skool bas aa gai thi aur aage puchhatachh ke liye mere paas samay nahin tha. skool bas ke jane ke baad main bhi daftar chala aaya. jate jate uski maan ne bataya ki beta bahut zid kar raha tha, isliye wo khud bazar gai aur uske liye naya sainik thaila lekar aai thi.
meri samajh mein nahin aa raha tha ki jab uske paas pahle se hi do do baste the to usne ek aur naya thaila kharidne ki zid kyon kee? agar bachche ne zid ki bhi to uski maan ne ise pura kyon kiya?
“pitaji! aap samajhte kyon nahin? ajkal ke bachche ve thaile istemal nahin karte, jo aap log kabhi kiya karte the. ajkal ke bachche sipahiyon ki tarah kandhe par khaki thaile latkakar chalna pasand karte hain. skool jane vale bachche bhi jab aisi chizon ka istemal kar rahe hon to phir aap apne bachchon ko hi kyon dosh de rahe hain?”
mainne zyada bahs nahin ki. vaise bhi koi farq nahin paDna tha. naya fauji basta kharida ja chuka tha.
ajkal ke bachche bhi ajib hain. kisi ne kachhin baig shuru kiya to sab kachhin baig istemal karne lagte. kisi ne jeens baig shuru kiya to unhen phir jeens baig hi lena hota hai. agar kisi ne sainik basta apna liya to sabka man hota hai ki sainik basta hi liya jaye. ab to shayad fauji baig ka bhi zamana lad gaya hai. har roz main hi haar maan liya karta tha. ajkal kamboja aur yamaniyan ka daur hai. udhar haal ka sainik baig almari mein baithkar penshan le raha tha.
mainne aur kuch nahin kaha. agar main kahta to mujhe yahi suna paDta ki aap thahre purane zamane ke log. is zamane ki baton ko bhala kya khaak samjhen? dasvin mein do baar phel ho jane ke baad chhote laDke ne gitar bajana shuru kar diya. gitar bajane ka shauq kabhi mujhe bhi tha. javani ke dinon mein main jis hostal mein rahta tha, usmen pahle karin angrez raha karte the. main un dinon spainish gitar bajaya karta tha. is par gane ke bol hua kahte the ‘o ro samari lav mi tenDar maharaja. blyu stail. ’ ye tab ke mashhur giton mein ek tha.
hum gitar apne kamre mein hi bajate the. chandni raat mein tiri bentan haal ke samne siment ki benchon par, neem ke peD tale, charch ke saye mein aur raat ke samay andhere mein jab aane jane vale nahin ke barabar hote the—ham log gitar bajaya karte the.
lekin ab to zo mau jaison ka zamana hai. ye baat mere gale kabhi nahin utarti ki dopahar ke samay ghar ki siDhiyon par baithkar, dusron ki kothiyon ke samne ya khiDakiyon ke paas ya besharmi se kabhi kabhi siDhiyon ke beech sab milkar baith jate hain aur gane bajane lagte hain. uupar chaDhne ka rasta tak nahin chhoDte. aise mein unse baDi chirauri karne ke baad hi logon ko aane jane ka rasta mil pata hai.
is janvar ki zid ke chalte vishesh khastaur se jama ki gai kuch raqam mein se patni ne use ek gitar kharid di thi. na jane wo gitar kab bajata tha, lekin wo to apne ghar mein utarne chaDhne vali siDhiyon ko aur na dusre gharon ki chaDhne utarne vali siDhiyon ko bakhsha karta. ye laDke dusre ki kothi ki siDhiyon par din dopahar se hi dam dam bazana shurukar dete the.
mainne jo mau se is bare mein baat ki. mainne use samjhaya ki ye gitar tumhara vyaktigat pasand hai—iske liye kisi ka virodh nahin hona chahiye. dopahar ke samay dusron ki siDhiyon par jamkar baith jana aur ghanton gitar bajate rahna behudgi hai. mainne use ye bhi samjhaya ki agar tum koi angrezi gana baja rahe hai na vilayati. jab dusra vishvayuddh nahin chhiDa tha, tab e van kampni ne kuch giton ki rikarDing ki thi. unmen kuch angrezi shabdavali bhi thi. unhin ko achchhi tarah sunkar apni zuban mein gaya jaye to ve baDe achchhe adhunik geet sabit ho sakte hain. par meri baat ve kyon manne lage? mere pichhe ve munh chiDhakar kahte—“yah buDha eqdam autDeteD hai, sathiya gaya hai. ”
ghar mein ek kaiset rikaurDar bhi tha. mainne koshish ki thi ki ye bachche hamari purani sangit parampara achchhi tarah samajh saken. isliye unse juDe sare kaiset ikatthe bhi diye the. is baat ko bhool jaiye ki unhen barmi sangit achchha lagta hai ya nahin. bajane vale ki taiyari aisi honi chahiye aur uske bajane ka star aisa ho ki sangit ka thoDa bahut shok rakhne vale uske sangit ko sun kar jhel saken. mainne purane vadyon se bajaye ge purane kalakaron ke giton ko aur ne kalakaron ki purani dhunon ke saath gaye ge giton ko ek jagah juta kar bachchon ko de rakha tha, taki ve donon ki tulna kar saken aur achchhai burai ko khud samajh saken. ajkal ke mashhur pashchimi gaykon ke geet bhi mainne kharid kar de rakhe the.
par ve kuch bhi sunte nahin the. ve ek tarah ka paup sangit sunte the, jo na pashchimi tha na purvi aur na hi barmi. mainne bhi ye nahin kaha ki unhen ye geet nahin sunne chahiye. mainne unse barmi reDiyo dvara prasarit purane giton ko sunne ke liye bhi kaha. inhen sunne ke baad hi sab tarah ki chizon ke bare mein gyaan ho jaye to apni pasand napsand ka phaisla alag se kar lena chahiye, lekin ve vaise nahin. kuch jane bina ve sanak ke pichhe lage rahte hain aur baqi sabko bekar samajhte hain.
mainne unhen mau ko aur tene temiya pushp van geet ke rikaurD sunvaye. unse kaha ki zara iska svaad aur anand uthao. mainne in giton ka gahra matlab bhi vistar se samjhaya. mare thakavat ke meri jeebh tak bahar nikal rahi thi, lekin shayad unki sehat par koi asar nahin paDa.
is par mere bete jo mau ne kya kaha, pata hai ! pitaji ye aap kya suna rahe ho hamen? kya hai yah? pushp van jahan aasha ki jagah nirasha chhai rahti hai. mainne bete se kaha ki main tumhein ek baar apne zamane ke geet bajakar sunata hoon. mainne binktoroti ka gaya blyu stail, phrenk sinatra, thri lital varks gayak nakin ko hi anana jaise giton ko bajakar sunane ka phaisla kiya. ek geet jiska shirshak tha—slo bot tu chaina! jab mainne ye sunaya to mere bete se nahin raha gaya aur usne mujhe tokte hue kaha—”pitaji, aap kaun si viktoriya maharani ke yug ki baat karte hain? is zamane mein ye sab nahin chalta. koi Disko visko ho to baat kariye. ”
bete ki baat sunkar mainne aur aage kuch kahne ki baat chhoD di. mainne socha—jo hoga—sab achchha hi hoga.
mera beta jo mau dusron ke gharon mein siDhi ke paas baithkar roz dopahar gitar bajata hua Disko Dansar banne ki koshish kar raha tha.
jab wo dasvin mein tisri baar phel hua to usne kahna shuru kar diya ki ab main paDhna nahin chahta. ye baat usne mujhse sidhe sidhe nahin kahi. usne apni maan se kahi. jab se wo dusri baar phel hua tha—main uske saath kuch sakhti se pesh aa raha tha.
“vah skool chhoDkar kya karne ke bare soch raha hai?” mainne patni se puchha.
patni ne kaha—”vah pani ke jahaz par naukari karna chahta hai. wo chahta hai ki aap uske liye kahin sifarish. . . !”
agar main iski sifarish karna bhi chahta to bhi wo ye nahin chahega ki ek jahazi banen. ye to achchhi baat hai ki koi apne hausale aur balbute par videsh yatra ka bhrman kare. isse desh pardesh ke anubhav aur gyaan praapt hote hain, inhen hum paise se nahin kharid sakte. bahar jakar kaam karne valon ke karan desh ko videshi mudra milti hai, ye to achchha vichar hai.
vaise agar aap ek jahazi ho bhi ge, aap bahar jakar, paise kamakar ek kaar bhi kharid laye to uske baad aap kya karenge? dusri baar bhi kya aap jahazi bankar jayenge? iski kya garanti hai ki aap jab jab kabhi bahar jayenge aur jahan kahin ek jahazi ke roop mein jayenge, vahan aap laabh ya hani dekhkar koi kaam karenge? is baat ki kya garanti hai ki aap jahan bhi jayenge hamesha saphal rahenge? is baat ki kya garanti hai ki bahar jakar apaki niyat badal jayegi aur phir aap svadesh vapas ayenge? kya ye sab vichar karne yogya nahin hai? aap khud sochen ki aapko ek jahazi bankar jana chahiye ki nahin? aap gitar isliye bajate hain ki dusre bajate hain. dusre jab jeens ke baig kharidte hain to aap bhi lena chahte hain. dusre sainik basta lena chahte hain to aap bhi vahi pana chahte hain. is baat ka mahatv nahin hai ki ne thaile ke paise zyada lag jayenge. dusron ki dekhadekhi bina kisi taiyari ke jahazi bankar videsh jana to aur bhi anuchit hai.
“nahin bhai, main iski izazat nahin de sakta. ” mainne uski maan se kaha—“tum dobara sochkar to dekho?” mainne bhi zid ki.
“nahin nahin main nahin soch sakti, mainne to phaisla kar liya hai. phir bhi tum soch lo, abhi thoDe hi jana hai. agar tumhein theek lage to izazat de dena. baad ki baat baad mein dekhi jayegi. ”
“nahin nahin, mainne phaisla kar liya hai. main iski izazat nahin de sakta. ” mainne do took baat kah Dali.
“pata hai, aap to bahut purane vichar vale hain. kai logon ke bete betiyan bahar jakar kaam kar rahe hain. sethon aur sahukar ke bete bahar ja rahe hain. jise dekho vahi jahaz par naukari karta videsh chala jata hai. jab ve lautte hain to unke paas beshumar daulat aur videshi chizen hoti hain. videshi gaDiyan hoti hain. iski apne desh mein koi kalpana bhi nahin kar sakta. tum apne zamane mein kaar ki savari nahin kar sakte the, koi baat nahin. lekin ab tum apne bete ke samay ye kar sakte ho. ye kaam apna beta karva sakta hai, lekin tum is
mauqe ko ganva dena chahte ho. tum koi bhi kaam zabardasti nahin kara sakte aur bete ko kahin pagalpan ka daura chaDh gaya to lene ke dene paD jayenge. jab bachch paDh rahe the, tab unhonne kabhi is baat ka ehsaas nahin kiya ki unhen bhi dusre logon ki tarah videshi gaDiyan chahiye, videshi saman chahiye. ab jab ki wo dusre logon ki dekhadekhi jahazi banna chahta hai, videsh se Dher sare rupe kamakar lana chahta hai to tum iski anumti nahin dena chahte. jis videshi kaar ki tum kalpana nahin kar paye tumhara laDka us par baithana chahta hai to use videsh jane ki anumti deni chahiye ki nahin?”
uski is baat par mere pet mein ek zordar ghunsa sa laga. agar patni ki baat ka theek se matlab nikala jaye to beta yahi kahna chahta hai ki jo chizen aap apni qabaliyat se bete betiyon ke liye muhaiya nahin kara pae, unhen main apne bahubal se praapt kar sakta hoon. isliye uske maarg mein rukavat paida karne ki koi zarurat nahin. iska hamein koi haq nahin aur hamein use jane ki anumti de deni chahiye.
mere pet mein ek aur zabardast ghunsa aakar laga. mujhe ye dard sahna hi tha, lekin patni zara hoshiyar thi. meri kamzori ko usne dabaye rakha. usne aisa kar beech bachav aur samjhaute ka rasta DhoonDh nikala jisse mujhe adhik dard na ho.
“mainne to isliye kaha tha ki anumti de do. kyonki jahan bete ki ichchha puri hoti pita ko ritayarment ke baad aram se rahna nasib hota. tumne umr bhar bivi aur bachchon ko apni mehnat se khilaya, pala posa aur samman dilvaya. tum is parivar ko bahut sukh nahin de paye to aram se to avashya ho rakha hai. mainne bhi ek patni ke roop mein sare ghar ki dekhbhal ki hai. mainne kabhi ek paise ki kanjusi nahin ki. bete ki zid hai ki mujhe to jahazi bankar jana hai. aisa nahin hai ki wo achanak uthkar chal dega. wo kam se kam dasvin paas karne ke baad hi jayega. abhi uske dasvin paas hone mein der hai. ye salah mashavira isliye karna paD raha hai ki agar wo kuch karna chahe to pahle se hi soch samajhkar apna qadam aage baDhaye. ”
mainne kuch nahin kaha chup aur shaant raha. abhi tak main bilkul akela paDa tha. uski taraf sab the. dasvin kaksha ka dusri baar imtihan dene ke baad jo mau bahar ke adhyapak se tyushan paDhne jane laga tha. apne skool ke adhyapkon ke se tyushan nahin le sakta. ganit, rasayan aur angrezi ki fees har mahine saath rupe se uupar hoti thi. bas ka kiraya aur jeb kharchi bhi DeDh do sau rupe ho jati thi. koching skulon ka bhi alag alag samay tha. kisi skool mein subah jana hota to kisi mein dopahar ko aur kisi mein raat ko. jab main subah tahal kar ghar lautta to wo ghar par nahin hota tha. skool jane ke baad ravivar ke din main parivar ke sadasyon ke saath kisi ashram mein upvaas kar bitana chahta tha, lekin wo kabhi dikhai nahin deta tha. jab bhi puchho kisi na kisi skool gaya hota tha. shaam ko daftar se ghar pahunchne par bhi wo kabhi dikhai nahin deta tha. use dusre se tisre aur tisre se chauthe skool jana hota tha. skool se lautkar khana khakar wo tezi se nikal jata tha. jate samay uske haath mein gitar hoti thi. zyadatar mauqon par jab main sone jata tha, tabhi wo lauta karta tha. chunki main subah jaldi uthkar tahla karta tha, isliye raat ko theek das baje so jaya karta tha. darasal meri aur bete ki hafte bhar mein das minat ke liye bhi bhent nahin hoti thi.
main use skool jate dekhta tha. wo barsati chhatri ya top vaghairah saath lekar nahin jata tha. mainne use apni sabse achchhi chhatri di, lekin usne ye kahkar lene se mana kar diya ki chhatri ki mooth baDi lambi hai aur ye chhatri bas mein savar logon ko tang karegi. meri patni aur bachche is baat par meri hansi uDate ki mainne use ek teDhi meDhi mooth vali chhatri thama di hai.
theek hai, main to main hi hoon. aaj ke zamane mein teDhi mooth vali chhatri kaun sir par leta hai? unnisvin shatabdi ke ant mein paida hue bunDhe bujurg hi aisi chhatri lete hain, jabki ye bachche ikkisvin sadi mein qadam rakhne ja rahe the.
isliye mere bete ko automaitik chhatri kharid di gai, jabki mere paas vahi purani teDhi mooth vali chhatri thi.
das pandrah dinon tak usne wo chhatri oDhi. skool jate aate automaitik chhatri thame rangun ke kale stuDenton ki tarah. lekin baqi ke dinon mein wo chhatri ke bina hi aata jata dikhta raha, isliye mainne ek din usse puchha, “tumhara chhatri kahin gum to nahin gai?”
“paDi hai,” usne bataya.
“hai to oDhte kyon nahin? chhatri nahin oDhoge to hava aur barish mein sehat kharab ho sakti hai. ”
“koi pareshani nahin hai. phir tumhari chhatri to automaitik hai. chaho to haath mein thamo ya baig mein rakh lo. barish hone par kya karoge aur rangun ki barish ka kya bharosa? jab chahe tabhi baras jaye. ”
“pitaji, agar barish aa dhamki to kisi baDi ya uunchi imarat se satkar bachav kar liya jayega. ”
“barsat rukne tak ka intzaar karne mein bahut samay barbad hota hai. ”
“pitaji, ye aap kya kah rahe hain? rangun ki barish jab thamna chahe tab tham jati hai. aati hai aur chali jati hai. ”
pahle wo ye kahta raha ki teDhe hainDal vali chhatri wo nahin oDhna chahta, isliye use automaitik chhatri kharid kar de di gai thi. usne kuch hi dinon baad ise oDhna band kar diya. ab kah raha hai ki rangun ki barish jab chahe tham jati hai. darasal aaj ke yuvak chhatri to oDhte nahin, aise mein main ye kya kahta ki tumhein chhatri oDhni hi hogi. zabardasti ya maar pitkar chhatri uDhvana bhi to galat hi hota. shayad wo mera lihaz karta tha. mere samne jab bhi ghar se nikalta chhatri le leta tha. lekin jab main samne nahin hota tha to
chhatri nahin leta tha. bina chhatri yoon hi barish mein tahalta rahta tha. mainne bhi usse aur kuch kahna uchit nahin samjha. is beech ek aur samasya khaDi ho gai ye jeens paint se juDi thi.
uske paas kai lungiyan theen. maan ne apne sabse chhote bete ke liye sundar sundar lungiyan banakar di theen, lekin laaD pyaar se banai gai un lungiyon ko wo nahin pahan raha tha, kyonki wo unhen purane faishan vali lungiyan samajhta tha. in dinon wo yahi kah raha tha ki use kale rang ki lungiyan kharid di jayen. main to kale rang ki lungi dekh bhi nahin sakta tha, lekin use kali kachhin lungi hi pasand thi.
aisi lungiyan aaj faishan ki duniya mein lokapriy hain—jise ajkal naujavan pahante hain. mainne man hi man socha, chalo ise kale aur pakke rang baDe priy hain. mainne apne paas paDi kai tanbai, halki nili aur pili lungi use de rakhi thi. resham ki is pili lungi ko lene se mana karte hue usne kaha is tarah ki lungi pahanne valon ko ghamanDi samjha jata hai. main in lungiyon se kahin zyada inaliya lungiyan pasand karta hoon, kyonki inaliya jheel mein sair karne vale yuvak yuvatiyan vahi lungiyan pahante hain. reshmi lungiyan to log shadi ke baad hi pahna
karte hain.
bete ki baat sunkar mere sare tark khatm ho ge aur mujhe chup rahna paDa. aaj ke yuvak yuvatiyan zamane ke anusar apna pahnava pasand karte hain. pahle wo bail paint lena chahta tha to maan ne dilva diya tha. use bhi usne kuch hi din pahna. chhah saat mahine baad kabhi pahan leta.
chhah mahine ke baad hi usne jeens paint kharidne ki zid ki. uski maang par mainne in jeens paiton ko dhyaan se dekhana shuru kiya. jis or bhi meri nazar jati yuvak yuvatiyan nile rang ki jeens paint pahne nazar aate, lekin unka nila rang vastav mein uD chuka hota tha. ve kahte hain ki ye paint adhik samay tak chalti hai. jitni marji Dalo, phatti nahin. jahan bhi chale jao ye lokapriy hain. jeens pahankar skool bhi ja sakta hoon.
lagatar zid karne ke karan bete ko jeens paint lekar dena paDa. mera ek dost chaintok gaya hua tha. mainne use van nain braanD vali ek jeens paint lane ko kaha tha, lekin jab paint aai to mere raja bete ko pasand nahin aai.
usne kaha ye jeens paint to baDi ghatiya qism ki hai. kuch hi dinon ke baad phat jane vali hai.
“tum kis tarah ki jeens paint pasand karte ho. ”
“main jin jeens painton ko pasand karta hoon, unke naam hain aato, laivai, jinsat. agar laivai na mile to jichu se kaam chala lenge. ” in branDon ki jeens paint ki qimat kam nahin thi. sasti paint ki qimat bhi DeDh sau ke beech thi. wo jis laivai ki baat karta tha, uski kimat Dhai se teen sau ke beech thi.
“akhir hai to jeens paint hi. iski kimat bhi munasib hai. ” mainne kaha.
“nahin pitaji, ye sab barma mein sili hui hain. ”
“barma mein iski silai ki gai hai, ye baat tum kaise kah sakte ho?”
“yah to silai dekhne se malum ho jata hai. laivai paint vaghairah dekhi hai apne? pahli hi nazar mein pata chal jata hai ve videshon mein sili gai hain. ”
“dekho zo mau! mujhe pata hai ki livi jeens paint ki itli mein silai hoti hai. orijnal batakar thailainD, taivan, hangakang mein sili jeens painton ki baat chhoDo, rauleks aur omega braanD ki naqli ghaDiyan bhi hangakang aur taivan mein bik rahi hain. tum logon ne orijnal chizen to dekhi hai nahin. videsh se aaye nakli saman ko tum log orijnal samajh lete ho. tumhein malum hona chahiye ki vahan bhi naqli saman banta hai. main unhen chunna nahin janta, agar tumhein sachmuch chunna aata hai to tumhari maan saath jakar kharid degi. ”
mujhe ghussa aa gaya tha aur main lagbhag chilla raha tha. jo mau kuch nahin bola. kuch der baad wo ek jeens paint le aaya. ye vahi nili jeens thi, jiske bare mein wo ye kah raha tha ki baDi achchhi aur mazbut hai. jebon par pital ke batan lage the. mainne qimat puchhi to usne bataya—do sau assi rupe. ye bhi bataya ki ye sidhe jahazi se kharidi gai thi. mainne kuch nahin kaha, uski pasand hi sab kuch thi.
lekin jab bhi ye janvar jeens paint pahanta to niche ki mohri uupar uthakar moD leta. ye baat mujhe pasand nahin thi. meri samajh mein nahin aata tha ki jeens pahante samay panyache ko uthakar moDte kyon hai? rajdhani rangun mein kichaD to kahin hai nahin aur na inhen janglon ya pahaDon mein rahna paDta hai. koltar bichhi pakki saDkon par hi inhen chalna hota hai to phir kis karan jeens ki mohri moD uupar utha lete hain, meri samajh mein nahin aata. dekhne mein ye baDa hi bhadda lagta hai.
“pitaji, ajkal ke naujavan filmi hiro ki tarah jeens ko isi tarah uncha uthaye rakhte hain. ” baDi beti ne beech mein paDkar kaha tha.
“film se kya matlab hai tumhara? filmon ka ektar to kahani ke anusar kaam karta hai. filmon mein kapDe kahani aur sichueshan ke anusar pahnaye jate hain. in chhokron ko filmon ki kaupi karne ki zarurat kya hai?”
donon betiyon ke chehre zara utar ge. patni ne kaha, “tum bhi har jagah apni taang zarur ghuseD dete ho. apna apna zamana hai. jab chahen jaisa chahen pahanne oDhne do unhen. ajkal ke laDke aise kapDe hi pahante hain. zamane ke anusar koi pahnava bura nahin lagta. ”
iske baad mainne aur kuch nahin kaha. bas chup rah gaya. agar main aur bahs karta to yahi samjha jata ki main zamane ke anusar chalne vala adami nahin. log mujhe adhunik nahin mante. main pichhDa hua hoon, pragtishil nahin hoon vagairah vagairah. . . !
mahine bhar baad ek shanivar ko jab main daftar se ghar lauta to hamare ghar ke paas vale baagh mein jo mau aur uske teen chaar sathi apne apne jeens painton ko haath mein thame ret aur kichaD se ragaD rahe the. pahli nazar mein aisa laga ki ve jeens paint dho rahe hon. lekin nahin, ye koi kapDe dhone ki jagah to thi nahin. lekin ve sab apni apni jeens painton ko tuti phuti iinton se ragaD rahe the. mujhe aata dekhkar sabhi tham ge. mainne unse kuch nahin puchha. sidha ghar ki uupri manzil par chala aaya.
mainne bivi se kaha—“tumhare bete niche jeens painton ko ret, kichaD aur patthar se ragaD rahe hain. pata nahin ve kya kar rahe hain?”
dhone ke liye iinton se to ragaDna nahin paDta. mainne dekha ki ve iinten toD toDkar unse painton ko ragaD rahe hain. ”
tabhi manjhali beti ne kaha, “pitaji ve apni jeens ko pheet titit jeens yani badrang jeens bana rahe hain. kisi nai jeens paint ko pahanna unhen bakvas jaan paDta hai pitaji! jeens paint ya jeens jaiket badrang hone ke baad hi pahni jati hai. aisa unka manna aur kahna hai. ”
“are aisa hai kya,” kahkar mainne apni chhati peet li. jeen sau rupe mein nai jeens paint ko badrang karne ya purani dikhne ke liye uska ye haal kar rahe hain, lekin main kuch nahin kah pa raha. shayad isi se mera raktachap kuch tez ho gaya hain. kuch bhi achchha nahin lag raha. us din mera para chaDha hua tha. dopahar ke samay mein shvtaingon mandir mein gaya. vahan mala pheri, jaap kiya aur phir raat das baje mandir se lauta.
is saal bhi zo mau dasvin klaas mein phel hua. use koi dukh nahin tha. wo vaise hi khush aur mast tha. wo jahazi banne ja raha tha. theek hai, ban jaye. ab wo skool mein nahin rahna chahta to ismen main kya kar sakta hoon? wo teen baar phel ho chuka hai. kai kai tyushan lagai ja chuki hain. uska man paDhai mein lag jaye isliye hum uski har baat mante rahe, har zid puri karte rahe. jab use fauji baig chahiye tha, fauji baig lekar dete rahe, jab use automaitik chhatri chahiye thi, use chhatri lakar dete rahe. automaitik chhatri ya jeens paint—jo bhi usne chaha ya chahta raha, use lekar dete rahe, taki paDhai mein uska dil laga rahe. uski har baat mante rahe. apne man ko maar markar bhi uski har zid puri karte rahe, lekin wo is saal bhi paas nahin hua. ab wo kaise paas ho sakta hai? mainne apne mitron se uske bare mein baten kar apna man kafi halka kar liya. ek tarah se achchha hi hua. paDhai puri na kar jahazi banne ki aisi ichchha rakhne vale ko wo kaam karke bhi dekh lena chahiye. haan, jab wo door chala jayega to meri chintayen kuch kam ho jayegi.
uske sare kaam pure karne ke baad main dusre shahr chala gaya tha. pandrah dinon tak main vahin raha. jab kabhi main bahar se lautta to meri patni aur meri betiyan baramde tak aakar mera svagat kiya kartin. jaise hi mujhe aata dekhtin, ve dauDkar niche utar atin aur jo saman vagairah main lata, uthakar le jatin. saath hi, baDe aadar se mera svagat kiya kartin.
kaar sidhe mere baramte ke samne jakar ruki. ghar ka darvaza khula aur donon betiyon ne mera saman aur sutkes utha liya. main siDhi se uupar chaDha. kamre mein pahuncha to wo band tha. andar se shorgul aur hansi mazaq ka svar sunai de raha tha. darvaze ko khatkhatane aur zor se pukarte hi patni ne garam pani ki botal, to kisi ne nashta aur kisi ne phal ki tokari lakar mere samne rakh di sab log ghar mein the. patni bhi thi. manjhala beta bhi tha aur chhota laDka zo mau bhi. meri chhoti beti bhojan kar rahi thi.
haan, unke alava ek agantuk aur nazar aaya. use dekhkar mainne apne tez tarrar tevar ko sanbhale rakha aur kursi par baith gaya.
atithi meri betiyon ki koi saheli thi, aisa laga. uski umr bees saal ki hogi. usne teen straipon vali ek mardana qamiz pahan rakhi thi. uncha qad, dubli patli kaya aur gehun jaisa chamakta damakta rang.
mainne laDki ki or dekha. laDki ne bhi meri or sir uthakar dekha. ankhen milin to uske komal chehre par sharm ki gulabi rangat tair gai. usne apni palken nichi kar leen. mujhe laga is buDhe ko dekhkar usko kuch bechaini si hui. vaise bhi meri beti ki saheliyan mujhse zyada nahin mila karti theen.
kuch kshan baad wo tezi se uthi aur bhojan chhoDkar jo mau aur uske bhaiyon ke kamre ki or chali gai. kuch der baad jo mau bhi nazren bachakar usi kamre mein ghus gaya. usne shayad mujhse ankhen na milane ka faisla kar liya tha. are ye kyaa! agar ye meri beti ki saheli hai to ise chahiye tha ki betiyon ke kamre mein jaye, lekin ye to jo mau ke kamre mein chali gai. manjhale ne meri or muskurate hue kaha, “pitaji, ghar mein ek ne sadasya ki baDhottri ho gai hai. ab mujhe bhi mala aur tuja ke kamre mein sona paD raha hai. ”
patni ne uski or teDhi nazron se dekha. ab sab kuch meri samajh mein aa gaya tha.
“kahan ki hai?”
“patni ne avaz mein mishri gholte hue kaha—“main tumhein dhire dhire sari baten aram se batana chahti thi. jis din tum bahar ge the, usi din yahan aa gai thi. kahne lagi, ab main vapas apne ghar nahin jaungi. us din to wo yahi kah rahi thi main sinema dekhne gai thi to der ho gai aur ghar lautne ki himmat nahin hai. vaise us raat ye yahan gyarah baje aai thi. hamari apni betiyan bhi hain isliye logon ki betiyon se bhi vaisa hi saluk karna paDega na. laDki buri nahin hai. kisi sarkari afsar ki beti hai aur kaulej mein dusre saal ki chhatra hai. naam hai julai. achchha ab tum nha dhokar aram karo. safar mein kafi thak ge hoge. haan, tumhein ek khabar sunani hai, khushi ki. tumhare bete ke liye jahaz ki tikat mil gai hai, lekin beta kah raha hai ki maan meri abhi abhi to shadi hui hai. mainne abhi julai ke mata pita se baat nahin ki hai, isliye mainne wo tikat vapas kar di hai. theek hi to hai! hamein laDki bhi uske mata pita ke paas vapas pahunchani hai. laDki ka baap baDa sarkari aphsar hai. shadi ke baad apne damad ko aise hi phenk nahin dega. koi na koi jugaD bhiDayega hi. kyon theek hai na! are bete jo mau aur julai yahan to aao. ”
‘achchha to iska naam julai hai. ’ mainne isse aage kuch kahna uchit nahin samjha. ek gahri saans li. main laDke ka baap hokar agar itna jhel sakta tha to laDki valon ka kya hoga? mujhe is laDki se puri sahanubhuti thi.
bahar ki or nazar paDi to dekha samne baramde mein jo mau ki laivai jeens paint jhool rahi thi. us phike aur badrang paint ko dekhkar mera ji khatta ho gaya.
paint badrang ho jaye use phenk diya ja sakta hai, lekin jivan badrang ho jaye to bhi use phenka nahin ja sakta. isi tarah apni sanskriti gandi kar di jaye to wo phenki nahin jayegi.
meri ankhen baramde mein sukhai ja rahi jeens paint ki or barbas chali gai. is jeens paint ka rang uD chuka tha aur kahin kahin se dhage bhi udhaD rahe the.
ve log mujhe ek jamane se pichhDa hua adami kahte hain. ek purane zamane vala—jo ne daur mein pichhe rah gaya ho ya pichhaD gaya ho.
theek hai, koi baat nahin. main is vishay par koi bahs nahin karna chahta. meri umr bhi saath ki qarib ho rahi hai. darasal do teen saal ke baad main ritayarD ho jaunga. aise mein mera dil kitna bhi phatila ho, kitna bhi javan ho, jab umr ka prabhav paDna shuru ho jayega to main unse kisi tarah ki bahs nahin kar paunga. vaise main svasth aur shaktishali adami hoon. kabhi kabhar blaD preshar ya raktachap ho jane ke alava kabhi kuch nahin hua. blaD preshar ki baat ke liye to main kuch kah pane mein asmarth hoon, kyonki ye ek adhunik rog hai. khaan paan mein kuch savdhaniyan rakhni paDti hain.
main kaulej ke vidyarthi ke roop mein tenis ka ek khilaDi tha. naukari mil jane par jab kaam ke silsile mein ek jagah se dusri jagah tabadla hua, tab golf khelne laga. rangun heD kvatars yani apne mukhya karyalay yaanh lautne par thoDa bahut golf hi khelta raha. daftar ki gaDi mil jane par golf maidan chala jata tha. uske baad aath sau rupye vetan vale karmchariyon ko jab sarkar karen nikalkar bechne lagi to, mujhe bhi ek majda phaimiliyar mil gai. tab main apni kaar mein golf khelne jane laga. ravivar ke din subah subah nashta karne ke baad sara sara din golf khela karta. vapsi mein thoDi bahut biyar shiyar pi liya karta. ghar lautkar bhojan kiya karta. kuch geet veet suna karta. jis din koi miting viting na ho, us din sara karyakram pahle se tay kiya karta tha. jab adhik vyastata hoti to nirdharit karyakram radd bhi kar deta.
lekin main apni kaar bahut dinon tak apne paas nahin rakh paya. yaanh jaise baDe shahr aur desh ki rajdhani mein aath sau rupye vale mere jaise vetanbhogi bhala kitne din tak apni kaar barakrar rakh sakte hain? abhi kaar liye teen saal bhi pure nahin ho pae ki mujhe kaar bechni paDi. kaar bik jane par golf maidan jana bhi chhoot sa gaya. golf stik ko bhi ghar mein shyoः ke saath taang kar rakh nahin paya, bech di. un logon zuban mein kaha jaye to sha brdars banna paDa.
main subah subah sair kiya karta tha. vapas aakar akhbar paDhta. nha dhokar bhojan karta, phir daftar jata. kabhi kabhar sathiyon yaron, sah karmiyon ke saath ghar ke bahar bhojan kiya karta. itvaar ki subah ghar valon ke saath shvtenga mandir jaya karta. shayad ye baDhti hui umr ka prabhav ho. hum donon pati patni ka dharmik karyon ki or adhik jhukav hone laga. apne dharm mein adhik astha hone lagi.
dopahar ke samay ghar mein kuch na kuch pakvan taiyar kiya jata. hum khate pite aur phir rishtedaron aur doston ke yahan ghumne jate. tuvna mein rahne vale apne baDe bhaiya ke yahan aur kabhi kabhar sanhadhvon mein rahne vali apni mausiyon ke paas jate. ve bhi hamare yahan aaya kartin. aane jane ka silsila bana hua tha. aaj ke yug mein, mata pita, bachche aur bhai bahan aur dusre rishtedar ek dusre se kafi door rahte hain aur unka aapas mein jo pyaar hona chahiye—vah nahin rahta. isliye duri ki andekhi kar, aapas mein pyaar samman baDhane ke liye dusre ke yahan jane aane aur ghumne ka silsila rakha jata hai. tabhi log apne rishtedaron aur sage sambandhiyon ke paas aaya jaya karte hain. jo barabar nahin aa ja sakte the, ve mahine do mahine mein ek baar aa hi jate the.
jin dinon skool ki chhutti ho, daftar band ho, un dinon kai chhote mote gharelu kaam kiye jate hain. isliye chhuttiyon mein bahari karyon ki vajah se fursat nahin hoti.
mera ghar yanki mein hai. ismen teen tang kamron ki chhoti si kothi hai. hum bhagyavan hain ki hamein teen kamron vali ye kothi mili hui hai. mata pita aur bachchon ko milakar hum saat log hain. hamare paas ek kamra hai. teen beton ke liye ek kamra aur donon betiyon ke liye ek kamra hain. tabhi ghar ke kharche mein riyayat ho jati hai. baDa beta bi ii (petroliyam) paas hai aur haal mein khuli ek tel bhumi par kaam pane ke liye saphal ho gaya hai. wo maan baap ki madad paison se to nahin kar sakta, lekin apne pairon par khaDa hokar usne maan baap ko avashya hi kuch rahat pahunchai hai. itni madad hi kafi hai ki maan baap ko uska kharch ab nahin uthana paDta.
hamara ghar ab kafi khula khula hai ovarvet ho rahi motron ki tarah. jaise hi bhaar halka hua, raftar tez ho jati hai aur injan ko rahat milti hai. ab ghar mein haath paanv na hilane vale sirf chaar log rah ge the.
main ye to nahin kah sakta ki baqi charon hi bekar hain. baqi bache do bete aur do betiyan. baDi beti em०si० van mein paDh rahi hai, jise ajkal ai० em० van kahte hain. ye chikitsa varg ka pahla varsh hai. manjhala laDka ek aspatal timveh ku mein tha. chhoti beti jooh mein thi. use em०si० vagairah mein dakhila nahin mil paya, par ise bhi bura to nahin kah sakte. wo greD phor mein pravesh pa lene mein kamyab rahi hai. ismen pa lena bhi kamal hai. isse mastars vastars ki Digri hasil kar sakte hain. bhagya saath hai to trening vagairah ke baad
koi naukari vaukri haath lag sakti hai.
asli samasya hai sabse chhote “zo mau” ki. ye gadha dasvin kaksha mein teen baar phel ho chuka hai. sabse chhota bhi hai. maan bhi use kuch zyada hi laaD pyaar karti hai. uski zid bhi puri karti hai. maan hi kyon? baap, yani main bhi uski ulti sidhi baton mein aa jata hoon aur uski zid puri kar diya karta hoon. aisa nahin hai ki main apne bachchon mein se kisi ko zyada aur kisi ko kam pyaar karta hoon. mujhe pata hai ki apne hi bachchon mein se kisi ko zyada aur kisi ko kam pyaar dena anyay hai, anuchit hai. meri hamesha yahi koshish hoti hai ki main apna pyaar bachchon mein ek barabar banta karun.
inhin vicharon ke chalte chhote bete jo mau ko baDe beton se adhik pyaar na karne par bhi uski zid puri karne mein mainne patni ka saath diya hai. pyaar use zyada nahin kar paya, lekin uski zid puri karne mein kuch zyada hi saath deta raha. ismen koi kuch nahin kar payega. main khud bhi nahin. kyonki jab ghar ke baDon ka zamana tha aur dada dadi zinda the, tab bachchon ko bharpur laaD pyaar diya karte the. unki zid puri karne vale chacha chachi the. unhonne inhen apne hathon kabhi niche nahin baithaya. sada uupar uthakar rakhte the. ab dada dadi aur nana nani bhi nahin rahe. chacha chachi vivah ke baad apne apne parivaron mein vyast ho jane par dusron ke bachchon se laaD pyaar karne ki baat to door, apne bachchon ko bhi zyada sir nahin chaDhate the, isiliye chhote bete jo mau ko hum maan baap kuch zyada hi laaD pyaar karte the. is bare mein baDon ko bhi samjha diya gaya tha.
jis saal jo mau athvin kaksha mein pahuncha, meri taraqki hui aur mera tabadla rangun ho gaya. prdeshon mein hamein khule gharon mein rahne ki aadat paD gai thi. isliye yankih vali kothi ke tang kamron mein rahne mein koi anand nahin aa raha tha. is bare mein hum kuch karne mein asmarth the. main kasbe ka rahne vala tha aur patni bhi qasbe ki rahne vali thi. rangun mein hamari koi zamin jayedad to thi nahin. tang kamre nasib hona hi bahut tha. ye achchhe bhagya ka parinam tha.
jab hum rangun pahunche, tab jo mau ki umr zyada se zyada chaudah saal se kuch adhik ki rahi hogi. tab mere baDe bete bason mein skool jaya karte the. ek chikitsa pathyakram ke pahle saal mein tha dusra ‘rajuh’ mein aur tisra ‘timveh ku’ mein.
aise mein ye samasya khaDi ho uthi ki hum sabse chhote janvar jo mau ko skool kaise bhejen? baDe bete uchch shiksha ka adhyayan kar rahe the. kabhi kabhar aisa bhi hua karta tha, jab pure din mein kisi ghanti mein klaas mein nahin jana paDta tha, isliye ve ghar mein hi rah jate the.
zo mau jis haiskul mein paDhta tha. wo din ka skool tha. use theek samay par skool mein upasthit hona hota tha. uska skool subah saDhe nau baje lagta tha aur jo shaam ke saDhe teen baje tak chalta tha. rasta ek hone par bhi use baDon ke saath bhejna avyavaharik tha. main chahta tha ki wo bas se hi skool jaye. par uski maan kaha karti thi ki main apne sabse chhote bete ko skool bas mein nahin bhejna chahti. suraksha ke hisab se main us par pura bharosa nahin kar sakti. basen thasathas bhari rahti hain aur phir ajkal ke chhokre bas ke andar na baithkar ek paanv bas ke payadan par aur dusra paanv niche latkate hue apni jaan hatheli par rakhkar savari karte hain. tabhi wo apne sabse chhote bete ko bas se nahin bhejna
chahti, uska dil nahin manata. use bas se skool bheja bhi jaye to skool tak pahunchne ke liye do basen badalni hoti hain. ismen paise bhi zyada kharch honge aur bachche ko thakan bhi adhik hogi. isliye patni kahti ki jo mau ko phairi se hi skool jana chahiye.
patni bahane achchha banati hai, isliye mainne unki salah maan li. salah kahne ki bajaye, ye kahna uchit hoga ki mainne unki yojna aur vyavastha ko svikar liya. agar main svikar nahin karta, tab bhi yahi hona tha.
chaliye ismen bhi koi buri baat nahin, lekin use saath mein tifin bhi deni paDti. skool ki basen apni bari aur samay ke anusar hamari taraf subah ek baar kuch jaldi aur dusri baar der se aaya kartin. vapsi mein bhi ek baar jaldi aur dusri baar der se chhoDtin. pura chakkar lagakar tamam bachchon ko ikatthakar le jane mein, subah jaldi jane valon ko bhi tarah tarah ki asuvidhayen aur diqqten hoti. vapsi mein bhi bason ke der se pahunchne par vaisi hi pareshaniyan hotin. isliye bachchon ke abhibhavak aksar pareshan aur nakhush rahte.
hamari kothi ke samne vali bas ek din jaldi to dusre din der se aati. jis din wo let ho to koi khaas baat nahin hoti, lekin jis din jaldi aati, us din meri patni ko baDi pareshani hoti. use subah subah uthkar nashta banana paDta aur use tifin baste mein Dalkar dena hota. raat mein bani sabzi ko garm karna paDta, lachari thi. uski vajah se ghar ke dusre sadasyon ko apne apne karyakrmon mein kuch tabdiliyan karni paDin.
patni ko shaam ke samay bazar dauDna hota. vapsi mein sab kuch pakakar taiyar rakhna hota. subah uthte hi sabse pahle chulhe par chaval ka patila rakhna hota. thakan to kafi hoti par vaqt ki zarurat ke chalte use aadat si ho gai thi.
lekin nai vyavastha mein bhojan ke tifin ko lekar ek nai samasya shuru hui. mera parivar van main inkam vala parivar tha, jismen keval ek hi vyakti kamata hai aur vahi aay ka ekmaatr srot hota hai. mahine ke antim din bitte na bitte ghar mein paison ki tangi hone lagti. kahne ko to mahine ke antim dinon mein tangi hoti hai, lekin sachchai ye thi ki pandrah tarikh ke baad hi paison ka akal paDna shuru ho jata aur salan aur sabziyon ke star mein giravat hone lagti.
sabse chhote beta jo mau shayad ‘atra’ nakshatr mein paida hua tha. use tel mein tali chizen baDi pasand theen. aadhe mahine ke baad usko tifin mein kabhi tale hue uble matar, kabhi batakh ke anDe ki kari, maans Dalkar tali hui sabziyan aur kabhi kabhar sasti samudri machhli milti thi jiski bu door karne ke liye Dher sare masale Dalne paDte the. aise mein bhi chhote laat sahab shikayat karte rahte the.
skool mein jab uske sathi apni apni tifin kholkar eksaath baithkar khaya karte, to vahan kai tarah ki sabzi hoti. idhar use apni sabzi ke karan hamesha sharm uthani paDti thi. uske dost uska mazak uDate, isliye na to wo tifin saath le jana chahta tha aur na hi unke saath baithkar khana chahta tha. main use samjhane ki har mumkin koshish karta. main uski samasya bhi samajhna chahta tha, lekin koi laabh nahin hua. subah subah ghar mein jo kuch bhi pak jata tha use hi khakar wo chala jaya karta tha. dopahar ke samay jab bhookh satati to wo kuch kharidkar kha pi leta tha. dopahar ke samay bhookh lagna svabhavik hai. jab mainne usse kaha to wo bola—koi baat nahin, main apne aapko sanbhal lunga. koshish karunga ki bhookh na lage. uski is baat par hum kuch nahin kar pae. ye uska apna vyaktigat faisla tha. haan, jab wo skool se ghar pahunchta to pahunchte hi ek baDi si thali lekar usmen bhaat sabzi bhar leta aur pet bharkar kha leta. khane ke baad yahan vahan ghumne jata tha. shaam ke samay, saat ya aath baje bhookh lag gai hai, aisa kahkar ek baar phir khana kha leta. aise mein wo kuch zyada hi kha jata. khair koi baat nahin. main iski bhi shikayat nahin karta, kyonki koi abhibhavak ya mata pita aise nahin honge, jo ye nahin chahte hon ki unke bachche bharpet khana na khayen.
jab wo navin kaksha mein pahuncha to usne shuru mein hi ek basta kharidkar dene ke liye apni maan se kaha. vaise uska basta abhi bilkul theek thaak tha. kachhin pardesh se lautte hue mainne ye basta uske liye kharida tha. pichhle saal disambar mahine mein hi mainne use basta kharidkar diya tha. beech mein chhuttiyon vala samay nikal diya jaye to baDi mushkil se usne ise chhah mahine tak istemal kiya hoga, lekin ab uski zid thi ki wo is baste ko haath nahin lagayega. use ek naya basta kharid kar dena hoga.
ek din hamari kothi ke niche vale makan mein usne do yuvatiyon ke haath mein ne rang roop ka thaila dekh liya tha aur tabhi se wo apni maan se naya basta kharid dene ki zid par aDa hua tha.
uski pasand vala basta vaise khubsurat tha. laDakiyon ke komal haath mein wo basta bhale hi adhik samay chal jata, lekin aise kathor laDke ke haath mein ye baste bilkul nahin chal sakte the. phir bhi mainne use ye basta kharidkar dediya. halanki ne baste ki kharid ka virodh karne valon mein main akela hi tha. uski maan, bahan aur bhai sare uski or the.
uski maan aur bahnen shikayat kiya kartin ki pitaji zamane ki raftar se kafi pichhe hain. ajkal ke laDke aap logon jaise mote mote thaile pasand nahin karte. ve halke aur sundar thaile pasand kiya karte hain. aap log to aksar kachhin baste pasand karte hain, jo bahut purane zamane se chale aa rahe hain.
mainne koi javab nahin diya. chup aur shaant raha. kuch hi dinon baad ki baat hai. divali ki chhuttiyon ke baad jis din skool khula ghar ki baithak mein uski baDi bahnen aur chhota bhai kisi baat par bahs kar rahe the. unki uunchi avazen siDhiyon se sunai de rahi theen. avazon mein maan ki avaz bhi shamil thi. donon bahnen kisi ko Daant rahi theen. jo mau bhi chilla raha tha. uski maan ka jaise dhairya toot gaya aur wo nirasha mein kuch baDbaDa rahi thi.
jab main zor se chillaya to darvaza khol diya gaya. kamre ke andar na jane ve kya kar rahe the? jaise hi main vahan pahuncha, patni ne kaha, “are, aaj to tum jaldi aa ge. donon betiyan aur jo mau chupchap apne apne kamron mein chale ge. unke chehre ka bhaav bata raha tha ki ve khush nahin. unse mainne bhi kuch puchha. unhonne bhi kuch nahin bataya.
isi tarah ek hafta guzar gaya.
ek din main daftar jane se pahle ghar mein baithkar angrezi mein khabren sun raha tha. baithak mein donon betiyan aur jo mau ki tez bahs ki avazen uupar aati sunai de rahi theen. har roz meri donon betiyan aur meri patni mere lautne ka intzaar kiya karti theen. ve jaise hi mujhe dekhtin, ghar ke samne ka darvaza khol diya kartin. lekin aaj ghar ke baramde par na to patni dikhai de rahi thi na betiyan. betiyan shayad abhi skool se lauti nahin theen. maan chhote bete ko bhojan karane mein vyast thi.
mera kamra dusri manjil par tha, isliye main siDhiyan paar kar uupar jane laga. mujhe apne kamre se niche se aati zor zor se baten sunai paDin. ye sabse chhote bete jo mau ki avaz thi. donon betiyan ki or unki maan na jane ve kya bol rahi thee? donon bahnen use Daant rahi theen aur jo mau abhi bhi chilla raha tha. uski maan ka bhi jaise dhairya samapt ho gaya ho. kya baat hai, ye janne ke liye mainne darvaza khola. na jane ghar ke bhitar jane kya baten kar rahe the? jaise hi main vahan pahuncha, patni chup ho gai.
‘‘skool ja raha hoon,” jo mau ne kaha aur kamre se bahar chala gaya. jab mainne uski or nazren uthakar dekha to uske kandhe par uska naya basta nahin tha. uski jagah ek sainik thaila dikha.
‘‘oe zo mau, tumhara basta kahan hai?”
“hai na!”
usi samay skool bas aa gai thi aur aage puchhatachh ke liye mere paas samay nahin tha. skool bas ke jane ke baad main bhi daftar chala aaya. jate jate uski maan ne bataya ki beta bahut zid kar raha tha, isliye wo khud bazar gai aur uske liye naya sainik thaila lekar aai thi.
meri samajh mein nahin aa raha tha ki jab uske paas pahle se hi do do baste the to usne ek aur naya thaila kharidne ki zid kyon kee? agar bachche ne zid ki bhi to uski maan ne ise pura kyon kiya?
“pitaji! aap samajhte kyon nahin? ajkal ke bachche ve thaile istemal nahin karte, jo aap log kabhi kiya karte the. ajkal ke bachche sipahiyon ki tarah kandhe par khaki thaile latkakar chalna pasand karte hain. skool jane vale bachche bhi jab aisi chizon ka istemal kar rahe hon to phir aap apne bachchon ko hi kyon dosh de rahe hain?”
mainne zyada bahs nahin ki. vaise bhi koi farq nahin paDna tha. naya fauji basta kharida ja chuka tha.
ajkal ke bachche bhi ajib hain. kisi ne kachhin baig shuru kiya to sab kachhin baig istemal karne lagte. kisi ne jeens baig shuru kiya to unhen phir jeens baig hi lena hota hai. agar kisi ne sainik basta apna liya to sabka man hota hai ki sainik basta hi liya jaye. ab to shayad fauji baig ka bhi zamana lad gaya hai. har roz main hi haar maan liya karta tha. ajkal kamboja aur yamaniyan ka daur hai. udhar haal ka sainik baig almari mein baithkar penshan le raha tha.
mainne aur kuch nahin kaha. agar main kahta to mujhe yahi suna paDta ki aap thahre purane zamane ke log. is zamane ki baton ko bhala kya khaak samjhen? dasvin mein do baar phel ho jane ke baad chhote laDke ne gitar bajana shuru kar diya. gitar bajane ka shauq kabhi mujhe bhi tha. javani ke dinon mein main jis hostal mein rahta tha, usmen pahle karin angrez raha karte the. main un dinon spainish gitar bajaya karta tha. is par gane ke bol hua kahte the ‘o ro samari lav mi tenDar maharaja. blyu stail. ’ ye tab ke mashhur giton mein ek tha.
hum gitar apne kamre mein hi bajate the. chandni raat mein tiri bentan haal ke samne siment ki benchon par, neem ke peD tale, charch ke saye mein aur raat ke samay andhere mein jab aane jane vale nahin ke barabar hote the—ham log gitar bajaya karte the.
lekin ab to zo mau jaison ka zamana hai. ye baat mere gale kabhi nahin utarti ki dopahar ke samay ghar ki siDhiyon par baithkar, dusron ki kothiyon ke samne ya khiDakiyon ke paas ya besharmi se kabhi kabhi siDhiyon ke beech sab milkar baith jate hain aur gane bajane lagte hain. uupar chaDhne ka rasta tak nahin chhoDte. aise mein unse baDi chirauri karne ke baad hi logon ko aane jane ka rasta mil pata hai.
is janvar ki zid ke chalte vishesh khastaur se jama ki gai kuch raqam mein se patni ne use ek gitar kharid di thi. na jane wo gitar kab bajata tha, lekin wo to apne ghar mein utarne chaDhne vali siDhiyon ko aur na dusre gharon ki chaDhne utarne vali siDhiyon ko bakhsha karta. ye laDke dusre ki kothi ki siDhiyon par din dopahar se hi dam dam bazana shurukar dete the.
mainne jo mau se is bare mein baat ki. mainne use samjhaya ki ye gitar tumhara vyaktigat pasand hai—iske liye kisi ka virodh nahin hona chahiye. dopahar ke samay dusron ki siDhiyon par jamkar baith jana aur ghanton gitar bajate rahna behudgi hai. mainne use ye bhi samjhaya ki agar tum koi angrezi gana baja rahe hai na vilayati. jab dusra vishvayuddh nahin chhiDa tha, tab e van kampni ne kuch giton ki rikarDing ki thi. unmen kuch angrezi shabdavali bhi thi. unhin ko achchhi tarah sunkar apni zuban mein gaya jaye to ve baDe achchhe adhunik geet sabit ho sakte hain. par meri baat ve kyon manne lage? mere pichhe ve munh chiDhakar kahte—“yah buDha eqdam autDeteD hai, sathiya gaya hai. ”
ghar mein ek kaiset rikaurDar bhi tha. mainne koshish ki thi ki ye bachche hamari purani sangit parampara achchhi tarah samajh saken. isliye unse juDe sare kaiset ikatthe bhi diye the. is baat ko bhool jaiye ki unhen barmi sangit achchha lagta hai ya nahin. bajane vale ki taiyari aisi honi chahiye aur uske bajane ka star aisa ho ki sangit ka thoDa bahut shok rakhne vale uske sangit ko sun kar jhel saken. mainne purane vadyon se bajaye ge purane kalakaron ke giton ko aur ne kalakaron ki purani dhunon ke saath gaye ge giton ko ek jagah juta kar bachchon ko de rakha tha, taki ve donon ki tulna kar saken aur achchhai burai ko khud samajh saken. ajkal ke mashhur pashchimi gaykon ke geet bhi mainne kharid kar de rakhe the.
par ve kuch bhi sunte nahin the. ve ek tarah ka paup sangit sunte the, jo na pashchimi tha na purvi aur na hi barmi. mainne bhi ye nahin kaha ki unhen ye geet nahin sunne chahiye. mainne unse barmi reDiyo dvara prasarit purane giton ko sunne ke liye bhi kaha. inhen sunne ke baad hi sab tarah ki chizon ke bare mein gyaan ho jaye to apni pasand napsand ka phaisla alag se kar lena chahiye, lekin ve vaise nahin. kuch jane bina ve sanak ke pichhe lage rahte hain aur baqi sabko bekar samajhte hain.
mainne unhen mau ko aur tene temiya pushp van geet ke rikaurD sunvaye. unse kaha ki zara iska svaad aur anand uthao. mainne in giton ka gahra matlab bhi vistar se samjhaya. mare thakavat ke meri jeebh tak bahar nikal rahi thi, lekin shayad unki sehat par koi asar nahin paDa.
is par mere bete jo mau ne kya kaha, pata hai ! pitaji ye aap kya suna rahe ho hamen? kya hai yah? pushp van jahan aasha ki jagah nirasha chhai rahti hai. mainne bete se kaha ki main tumhein ek baar apne zamane ke geet bajakar sunata hoon. mainne binktoroti ka gaya blyu stail, phrenk sinatra, thri lital varks gayak nakin ko hi anana jaise giton ko bajakar sunane ka phaisla kiya. ek geet jiska shirshak tha—slo bot tu chaina! jab mainne ye sunaya to mere bete se nahin raha gaya aur usne mujhe tokte hue kaha—”pitaji, aap kaun si viktoriya maharani ke yug ki baat karte hain? is zamane mein ye sab nahin chalta. koi Disko visko ho to baat kariye. ”
bete ki baat sunkar mainne aur aage kuch kahne ki baat chhoD di. mainne socha—jo hoga—sab achchha hi hoga.
mera beta jo mau dusron ke gharon mein siDhi ke paas baithkar roz dopahar gitar bajata hua Disko Dansar banne ki koshish kar raha tha.
jab wo dasvin mein tisri baar phel hua to usne kahna shuru kar diya ki ab main paDhna nahin chahta. ye baat usne mujhse sidhe sidhe nahin kahi. usne apni maan se kahi. jab se wo dusri baar phel hua tha—main uske saath kuch sakhti se pesh aa raha tha.
“vah skool chhoDkar kya karne ke bare soch raha hai?” mainne patni se puchha.
patni ne kaha—”vah pani ke jahaz par naukari karna chahta hai. wo chahta hai ki aap uske liye kahin sifarish. . . !”
agar main iski sifarish karna bhi chahta to bhi wo ye nahin chahega ki ek jahazi banen. ye to achchhi baat hai ki koi apne hausale aur balbute par videsh yatra ka bhrman kare. isse desh pardesh ke anubhav aur gyaan praapt hote hain, inhen hum paise se nahin kharid sakte. bahar jakar kaam karne valon ke karan desh ko videshi mudra milti hai, ye to achchha vichar hai.
vaise agar aap ek jahazi ho bhi ge, aap bahar jakar, paise kamakar ek kaar bhi kharid laye to uske baad aap kya karenge? dusri baar bhi kya aap jahazi bankar jayenge? iski kya garanti hai ki aap jab jab kabhi bahar jayenge aur jahan kahin ek jahazi ke roop mein jayenge, vahan aap laabh ya hani dekhkar koi kaam karenge? is baat ki kya garanti hai ki aap jahan bhi jayenge hamesha saphal rahenge? is baat ki kya garanti hai ki bahar jakar apaki niyat badal jayegi aur phir aap svadesh vapas ayenge? kya ye sab vichar karne yogya nahin hai? aap khud sochen ki aapko ek jahazi bankar jana chahiye ki nahin? aap gitar isliye bajate hain ki dusre bajate hain. dusre jab jeens ke baig kharidte hain to aap bhi lena chahte hain. dusre sainik basta lena chahte hain to aap bhi vahi pana chahte hain. is baat ka mahatv nahin hai ki ne thaile ke paise zyada lag jayenge. dusron ki dekhadekhi bina kisi taiyari ke jahazi bankar videsh jana to aur bhi anuchit hai.
“nahin bhai, main iski izazat nahin de sakta. ” mainne uski maan se kaha—“tum dobara sochkar to dekho?” mainne bhi zid ki.
“nahin nahin main nahin soch sakti, mainne to phaisla kar liya hai. phir bhi tum soch lo, abhi thoDe hi jana hai. agar tumhein theek lage to izazat de dena. baad ki baat baad mein dekhi jayegi. ”
“nahin nahin, mainne phaisla kar liya hai. main iski izazat nahin de sakta. ” mainne do took baat kah Dali.
“pata hai, aap to bahut purane vichar vale hain. kai logon ke bete betiyan bahar jakar kaam kar rahe hain. sethon aur sahukar ke bete bahar ja rahe hain. jise dekho vahi jahaz par naukari karta videsh chala jata hai. jab ve lautte hain to unke paas beshumar daulat aur videshi chizen hoti hain. videshi gaDiyan hoti hain. iski apne desh mein koi kalpana bhi nahin kar sakta. tum apne zamane mein kaar ki savari nahin kar sakte the, koi baat nahin. lekin ab tum apne bete ke samay ye kar sakte ho. ye kaam apna beta karva sakta hai, lekin tum is
mauqe ko ganva dena chahte ho. tum koi bhi kaam zabardasti nahin kara sakte aur bete ko kahin pagalpan ka daura chaDh gaya to lene ke dene paD jayenge. jab bachch paDh rahe the, tab unhonne kabhi is baat ka ehsaas nahin kiya ki unhen bhi dusre logon ki tarah videshi gaDiyan chahiye, videshi saman chahiye. ab jab ki wo dusre logon ki dekhadekhi jahazi banna chahta hai, videsh se Dher sare rupe kamakar lana chahta hai to tum iski anumti nahin dena chahte. jis videshi kaar ki tum kalpana nahin kar paye tumhara laDka us par baithana chahta hai to use videsh jane ki anumti deni chahiye ki nahin?”
uski is baat par mere pet mein ek zordar ghunsa sa laga. agar patni ki baat ka theek se matlab nikala jaye to beta yahi kahna chahta hai ki jo chizen aap apni qabaliyat se bete betiyon ke liye muhaiya nahin kara pae, unhen main apne bahubal se praapt kar sakta hoon. isliye uske maarg mein rukavat paida karne ki koi zarurat nahin. iska hamein koi haq nahin aur hamein use jane ki anumti de deni chahiye.
mere pet mein ek aur zabardast ghunsa aakar laga. mujhe ye dard sahna hi tha, lekin patni zara hoshiyar thi. meri kamzori ko usne dabaye rakha. usne aisa kar beech bachav aur samjhaute ka rasta DhoonDh nikala jisse mujhe adhik dard na ho.
“mainne to isliye kaha tha ki anumti de do. kyonki jahan bete ki ichchha puri hoti pita ko ritayarment ke baad aram se rahna nasib hota. tumne umr bhar bivi aur bachchon ko apni mehnat se khilaya, pala posa aur samman dilvaya. tum is parivar ko bahut sukh nahin de paye to aram se to avashya ho rakha hai. mainne bhi ek patni ke roop mein sare ghar ki dekhbhal ki hai. mainne kabhi ek paise ki kanjusi nahin ki. bete ki zid hai ki mujhe to jahazi bankar jana hai. aisa nahin hai ki wo achanak uthkar chal dega. wo kam se kam dasvin paas karne ke baad hi jayega. abhi uske dasvin paas hone mein der hai. ye salah mashavira isliye karna paD raha hai ki agar wo kuch karna chahe to pahle se hi soch samajhkar apna qadam aage baDhaye. ”
mainne kuch nahin kaha chup aur shaant raha. abhi tak main bilkul akela paDa tha. uski taraf sab the. dasvin kaksha ka dusri baar imtihan dene ke baad jo mau bahar ke adhyapak se tyushan paDhne jane laga tha. apne skool ke adhyapkon ke se tyushan nahin le sakta. ganit, rasayan aur angrezi ki fees har mahine saath rupe se uupar hoti thi. bas ka kiraya aur jeb kharchi bhi DeDh do sau rupe ho jati thi. koching skulon ka bhi alag alag samay tha. kisi skool mein subah jana hota to kisi mein dopahar ko aur kisi mein raat ko. jab main subah tahal kar ghar lautta to wo ghar par nahin hota tha. skool jane ke baad ravivar ke din main parivar ke sadasyon ke saath kisi ashram mein upvaas kar bitana chahta tha, lekin wo kabhi dikhai nahin deta tha. jab bhi puchho kisi na kisi skool gaya hota tha. shaam ko daftar se ghar pahunchne par bhi wo kabhi dikhai nahin deta tha. use dusre se tisre aur tisre se chauthe skool jana hota tha. skool se lautkar khana khakar wo tezi se nikal jata tha. jate samay uske haath mein gitar hoti thi. zyadatar mauqon par jab main sone jata tha, tabhi wo lauta karta tha. chunki main subah jaldi uthkar tahla karta tha, isliye raat ko theek das baje so jaya karta tha. darasal meri aur bete ki hafte bhar mein das minat ke liye bhi bhent nahin hoti thi.
main use skool jate dekhta tha. wo barsati chhatri ya top vaghairah saath lekar nahin jata tha. mainne use apni sabse achchhi chhatri di, lekin usne ye kahkar lene se mana kar diya ki chhatri ki mooth baDi lambi hai aur ye chhatri bas mein savar logon ko tang karegi. meri patni aur bachche is baat par meri hansi uDate ki mainne use ek teDhi meDhi mooth vali chhatri thama di hai.
theek hai, main to main hi hoon. aaj ke zamane mein teDhi mooth vali chhatri kaun sir par leta hai? unnisvin shatabdi ke ant mein paida hue bunDhe bujurg hi aisi chhatri lete hain, jabki ye bachche ikkisvin sadi mein qadam rakhne ja rahe the.
isliye mere bete ko automaitik chhatri kharid di gai, jabki mere paas vahi purani teDhi mooth vali chhatri thi.
das pandrah dinon tak usne wo chhatri oDhi. skool jate aate automaitik chhatri thame rangun ke kale stuDenton ki tarah. lekin baqi ke dinon mein wo chhatri ke bina hi aata jata dikhta raha, isliye mainne ek din usse puchha, “tumhara chhatri kahin gum to nahin gai?”
“paDi hai,” usne bataya.
“hai to oDhte kyon nahin? chhatri nahin oDhoge to hava aur barish mein sehat kharab ho sakti hai. ”
“koi pareshani nahin hai. phir tumhari chhatri to automaitik hai. chaho to haath mein thamo ya baig mein rakh lo. barish hone par kya karoge aur rangun ki barish ka kya bharosa? jab chahe tabhi baras jaye. ”
“pitaji, agar barish aa dhamki to kisi baDi ya uunchi imarat se satkar bachav kar liya jayega. ”
“barsat rukne tak ka intzaar karne mein bahut samay barbad hota hai. ”
“pitaji, ye aap kya kah rahe hain? rangun ki barish jab thamna chahe tab tham jati hai. aati hai aur chali jati hai. ”
pahle wo ye kahta raha ki teDhe hainDal vali chhatri wo nahin oDhna chahta, isliye use automaitik chhatri kharid kar de di gai thi. usne kuch hi dinon baad ise oDhna band kar diya. ab kah raha hai ki rangun ki barish jab chahe tham jati hai. darasal aaj ke yuvak chhatri to oDhte nahin, aise mein main ye kya kahta ki tumhein chhatri oDhni hi hogi. zabardasti ya maar pitkar chhatri uDhvana bhi to galat hi hota. shayad wo mera lihaz karta tha. mere samne jab bhi ghar se nikalta chhatri le leta tha. lekin jab main samne nahin hota tha to
chhatri nahin leta tha. bina chhatri yoon hi barish mein tahalta rahta tha. mainne bhi usse aur kuch kahna uchit nahin samjha. is beech ek aur samasya khaDi ho gai ye jeens paint se juDi thi.
uske paas kai lungiyan theen. maan ne apne sabse chhote bete ke liye sundar sundar lungiyan banakar di theen, lekin laaD pyaar se banai gai un lungiyon ko wo nahin pahan raha tha, kyonki wo unhen purane faishan vali lungiyan samajhta tha. in dinon wo yahi kah raha tha ki use kale rang ki lungiyan kharid di jayen. main to kale rang ki lungi dekh bhi nahin sakta tha, lekin use kali kachhin lungi hi pasand thi.
aisi lungiyan aaj faishan ki duniya mein lokapriy hain—jise ajkal naujavan pahante hain. mainne man hi man socha, chalo ise kale aur pakke rang baDe priy hain. mainne apne paas paDi kai tanbai, halki nili aur pili lungi use de rakhi thi. resham ki is pili lungi ko lene se mana karte hue usne kaha is tarah ki lungi pahanne valon ko ghamanDi samjha jata hai. main in lungiyon se kahin zyada inaliya lungiyan pasand karta hoon, kyonki inaliya jheel mein sair karne vale yuvak yuvatiyan vahi lungiyan pahante hain. reshmi lungiyan to log shadi ke baad hi pahna
karte hain.
bete ki baat sunkar mere sare tark khatm ho ge aur mujhe chup rahna paDa. aaj ke yuvak yuvatiyan zamane ke anusar apna pahnava pasand karte hain. pahle wo bail paint lena chahta tha to maan ne dilva diya tha. use bhi usne kuch hi din pahna. chhah saat mahine baad kabhi pahan leta.
chhah mahine ke baad hi usne jeens paint kharidne ki zid ki. uski maang par mainne in jeens paiton ko dhyaan se dekhana shuru kiya. jis or bhi meri nazar jati yuvak yuvatiyan nile rang ki jeens paint pahne nazar aate, lekin unka nila rang vastav mein uD chuka hota tha. ve kahte hain ki ye paint adhik samay tak chalti hai. jitni marji Dalo, phatti nahin. jahan bhi chale jao ye lokapriy hain. jeens pahankar skool bhi ja sakta hoon.
lagatar zid karne ke karan bete ko jeens paint lekar dena paDa. mera ek dost chaintok gaya hua tha. mainne use van nain braanD vali ek jeens paint lane ko kaha tha, lekin jab paint aai to mere raja bete ko pasand nahin aai.
usne kaha ye jeens paint to baDi ghatiya qism ki hai. kuch hi dinon ke baad phat jane vali hai.
“tum kis tarah ki jeens paint pasand karte ho. ”
“main jin jeens painton ko pasand karta hoon, unke naam hain aato, laivai, jinsat. agar laivai na mile to jichu se kaam chala lenge. ” in branDon ki jeens paint ki qimat kam nahin thi. sasti paint ki qimat bhi DeDh sau ke beech thi. wo jis laivai ki baat karta tha, uski kimat Dhai se teen sau ke beech thi.
“akhir hai to jeens paint hi. iski kimat bhi munasib hai. ” mainne kaha.
“nahin pitaji, ye sab barma mein sili hui hain. ”
“barma mein iski silai ki gai hai, ye baat tum kaise kah sakte ho?”
“yah to silai dekhne se malum ho jata hai. laivai paint vaghairah dekhi hai apne? pahli hi nazar mein pata chal jata hai ve videshon mein sili gai hain. ”
“dekho zo mau! mujhe pata hai ki livi jeens paint ki itli mein silai hoti hai. orijnal batakar thailainD, taivan, hangakang mein sili jeens painton ki baat chhoDo, rauleks aur omega braanD ki naqli ghaDiyan bhi hangakang aur taivan mein bik rahi hain. tum logon ne orijnal chizen to dekhi hai nahin. videsh se aaye nakli saman ko tum log orijnal samajh lete ho. tumhein malum hona chahiye ki vahan bhi naqli saman banta hai. main unhen chunna nahin janta, agar tumhein sachmuch chunna aata hai to tumhari maan saath jakar kharid degi. ”
mujhe ghussa aa gaya tha aur main lagbhag chilla raha tha. jo mau kuch nahin bola. kuch der baad wo ek jeens paint le aaya. ye vahi nili jeens thi, jiske bare mein wo ye kah raha tha ki baDi achchhi aur mazbut hai. jebon par pital ke batan lage the. mainne qimat puchhi to usne bataya—do sau assi rupe. ye bhi bataya ki ye sidhe jahazi se kharidi gai thi. mainne kuch nahin kaha, uski pasand hi sab kuch thi.
lekin jab bhi ye janvar jeens paint pahanta to niche ki mohri uupar uthakar moD leta. ye baat mujhe pasand nahin thi. meri samajh mein nahin aata tha ki jeens pahante samay panyache ko uthakar moDte kyon hai? rajdhani rangun mein kichaD to kahin hai nahin aur na inhen janglon ya pahaDon mein rahna paDta hai. koltar bichhi pakki saDkon par hi inhen chalna hota hai to phir kis karan jeens ki mohri moD uupar utha lete hain, meri samajh mein nahin aata. dekhne mein ye baDa hi bhadda lagta hai.
“pitaji, ajkal ke naujavan filmi hiro ki tarah jeens ko isi tarah uncha uthaye rakhte hain. ” baDi beti ne beech mein paDkar kaha tha.
“film se kya matlab hai tumhara? filmon ka ektar to kahani ke anusar kaam karta hai. filmon mein kapDe kahani aur sichueshan ke anusar pahnaye jate hain. in chhokron ko filmon ki kaupi karne ki zarurat kya hai?”
donon betiyon ke chehre zara utar ge. patni ne kaha, “tum bhi har jagah apni taang zarur ghuseD dete ho. apna apna zamana hai. jab chahen jaisa chahen pahanne oDhne do unhen. ajkal ke laDke aise kapDe hi pahante hain. zamane ke anusar koi pahnava bura nahin lagta. ”
iske baad mainne aur kuch nahin kaha. bas chup rah gaya. agar main aur bahs karta to yahi samjha jata ki main zamane ke anusar chalne vala adami nahin. log mujhe adhunik nahin mante. main pichhDa hua hoon, pragtishil nahin hoon vagairah vagairah. . . !
mahine bhar baad ek shanivar ko jab main daftar se ghar lauta to hamare ghar ke paas vale baagh mein jo mau aur uske teen chaar sathi apne apne jeens painton ko haath mein thame ret aur kichaD se ragaD rahe the. pahli nazar mein aisa laga ki ve jeens paint dho rahe hon. lekin nahin, ye koi kapDe dhone ki jagah to thi nahin. lekin ve sab apni apni jeens painton ko tuti phuti iinton se ragaD rahe the. mujhe aata dekhkar sabhi tham ge. mainne unse kuch nahin puchha. sidha ghar ki uupri manzil par chala aaya.
mainne bivi se kaha—“tumhare bete niche jeens painton ko ret, kichaD aur patthar se ragaD rahe hain. pata nahin ve kya kar rahe hain?”
dhone ke liye iinton se to ragaDna nahin paDta. mainne dekha ki ve iinten toD toDkar unse painton ko ragaD rahe hain. ”
tabhi manjhali beti ne kaha, “pitaji ve apni jeens ko pheet titit jeens yani badrang jeens bana rahe hain. kisi nai jeens paint ko pahanna unhen bakvas jaan paDta hai pitaji! jeens paint ya jeens jaiket badrang hone ke baad hi pahni jati hai. aisa unka manna aur kahna hai. ”
“are aisa hai kya,” kahkar mainne apni chhati peet li. jeen sau rupe mein nai jeens paint ko badrang karne ya purani dikhne ke liye uska ye haal kar rahe hain, lekin main kuch nahin kah pa raha. shayad isi se mera raktachap kuch tez ho gaya hain. kuch bhi achchha nahin lag raha. us din mera para chaDha hua tha. dopahar ke samay mein shvtaingon mandir mein gaya. vahan mala pheri, jaap kiya aur phir raat das baje mandir se lauta.
is saal bhi zo mau dasvin klaas mein phel hua. use koi dukh nahin tha. wo vaise hi khush aur mast tha. wo jahazi banne ja raha tha. theek hai, ban jaye. ab wo skool mein nahin rahna chahta to ismen main kya kar sakta hoon? wo teen baar phel ho chuka hai. kai kai tyushan lagai ja chuki hain. uska man paDhai mein lag jaye isliye hum uski har baat mante rahe, har zid puri karte rahe. jab use fauji baig chahiye tha, fauji baig lekar dete rahe, jab use automaitik chhatri chahiye thi, use chhatri lakar dete rahe. automaitik chhatri ya jeens paint—jo bhi usne chaha ya chahta raha, use lekar dete rahe, taki paDhai mein uska dil laga rahe. uski har baat mante rahe. apne man ko maar markar bhi uski har zid puri karte rahe, lekin wo is saal bhi paas nahin hua. ab wo kaise paas ho sakta hai? mainne apne mitron se uske bare mein baten kar apna man kafi halka kar liya. ek tarah se achchha hi hua. paDhai puri na kar jahazi banne ki aisi ichchha rakhne vale ko wo kaam karke bhi dekh lena chahiye. haan, jab wo door chala jayega to meri chintayen kuch kam ho jayegi.
uske sare kaam pure karne ke baad main dusre shahr chala gaya tha. pandrah dinon tak main vahin raha. jab kabhi main bahar se lautta to meri patni aur meri betiyan baramde tak aakar mera svagat kiya kartin. jaise hi mujhe aata dekhtin, ve dauDkar niche utar atin aur jo saman vagairah main lata, uthakar le jatin. saath hi, baDe aadar se mera svagat kiya kartin.
kaar sidhe mere baramte ke samne jakar ruki. ghar ka darvaza khula aur donon betiyon ne mera saman aur sutkes utha liya. main siDhi se uupar chaDha. kamre mein pahuncha to wo band tha. andar se shorgul aur hansi mazaq ka svar sunai de raha tha. darvaze ko khatkhatane aur zor se pukarte hi patni ne garam pani ki botal, to kisi ne nashta aur kisi ne phal ki tokari lakar mere samne rakh di sab log ghar mein the. patni bhi thi. manjhala beta bhi tha aur chhota laDka zo mau bhi. meri chhoti beti bhojan kar rahi thi.
haan, unke alava ek agantuk aur nazar aaya. use dekhkar mainne apne tez tarrar tevar ko sanbhale rakha aur kursi par baith gaya.
atithi meri betiyon ki koi saheli thi, aisa laga. uski umr bees saal ki hogi. usne teen straipon vali ek mardana qamiz pahan rakhi thi. uncha qad, dubli patli kaya aur gehun jaisa chamakta damakta rang.
mainne laDki ki or dekha. laDki ne bhi meri or sir uthakar dekha. ankhen milin to uske komal chehre par sharm ki gulabi rangat tair gai. usne apni palken nichi kar leen. mujhe laga is buDhe ko dekhkar usko kuch bechaini si hui. vaise bhi meri beti ki saheliyan mujhse zyada nahin mila karti theen.
kuch kshan baad wo tezi se uthi aur bhojan chhoDkar jo mau aur uske bhaiyon ke kamre ki or chali gai. kuch der baad jo mau bhi nazren bachakar usi kamre mein ghus gaya. usne shayad mujhse ankhen na milane ka faisla kar liya tha. are ye kyaa! agar ye meri beti ki saheli hai to ise chahiye tha ki betiyon ke kamre mein jaye, lekin ye to jo mau ke kamre mein chali gai. manjhale ne meri or muskurate hue kaha, “pitaji, ghar mein ek ne sadasya ki baDhottri ho gai hai. ab mujhe bhi mala aur tuja ke kamre mein sona paD raha hai. ”
patni ne uski or teDhi nazron se dekha. ab sab kuch meri samajh mein aa gaya tha.
“kahan ki hai?”
“patni ne avaz mein mishri gholte hue kaha—“main tumhein dhire dhire sari baten aram se batana chahti thi. jis din tum bahar ge the, usi din yahan aa gai thi. kahne lagi, ab main vapas apne ghar nahin jaungi. us din to wo yahi kah rahi thi main sinema dekhne gai thi to der ho gai aur ghar lautne ki himmat nahin hai. vaise us raat ye yahan gyarah baje aai thi. hamari apni betiyan bhi hain isliye logon ki betiyon se bhi vaisa hi saluk karna paDega na. laDki buri nahin hai. kisi sarkari afsar ki beti hai aur kaulej mein dusre saal ki chhatra hai. naam hai julai. achchha ab tum nha dhokar aram karo. safar mein kafi thak ge hoge. haan, tumhein ek khabar sunani hai, khushi ki. tumhare bete ke liye jahaz ki tikat mil gai hai, lekin beta kah raha hai ki maan meri abhi abhi to shadi hui hai. mainne abhi julai ke mata pita se baat nahin ki hai, isliye mainne wo tikat vapas kar di hai. theek hi to hai! hamein laDki bhi uske mata pita ke paas vapas pahunchani hai. laDki ka baap baDa sarkari aphsar hai. shadi ke baad apne damad ko aise hi phenk nahin dega. koi na koi jugaD bhiDayega hi. kyon theek hai na! are bete jo mau aur julai yahan to aao. ”
‘achchha to iska naam julai hai. ’ mainne isse aage kuch kahna uchit nahin samjha. ek gahri saans li. main laDke ka baap hokar agar itna jhel sakta tha to laDki valon ka kya hoga? mujhe is laDki se puri sahanubhuti thi.
bahar ki or nazar paDi to dekha samne baramde mein jo mau ki laivai jeens paint jhool rahi thi. us phike aur badrang paint ko dekhkar mera ji khatta ho gaya.
paint badrang ho jaye use phenk diya ja sakta hai, lekin jivan badrang ho jaye to bhi use phenka nahin ja sakta. isi tarah apni sanskriti gandi kar di jaye to wo phenki nahin jayegi.
meri ankhen baramde mein sukhai ja rahi jeens paint ki or barbas chali gai. is jeens paint ka rang uD chuka tha aur kahin kahin se dhage bhi udhaD rahe the.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 303)
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