दिन-भर बैठे-बैठे मेरे सिर में पीड़ा उत्पन्न हुई। मैं अपने स्थान से उठा और अपने एक नए एकांतवासी मित्र के यहाँ मैंने जाना विचारा। जाकर मैंने देखा तो वे ध्यान-मग्न सिर नीचा किए हुए कुछ सोच रहे थे। मुझे देखकर कुछ आश्चर्य नहीं हुआ; क्योंकि यह कोई नई बात नहीं थी। उन्हें थोड़े ही दिन पूरब से इस देश में आए हुआ है। नगर में उनसे मेरे सिवा और किसी से विशेष जान-पहिचान नहीं है; और न वह विशेषत: किसी से मिलते-जुलते ही हैं। केवल मुझसे मेरे भाग्य से, वे मित्र-भाव रखते हैं। उदास तो वे हर समय रहा करते हैं। कई बेर उनसे मैंने इस उदासीनता का कारण पूछा भी; किंतु मैंने देखा कि उसके प्रकट करने में उन्हें एक प्रकार का दु:ख-सा होता है, इसी कारण मैं विशेष पूछताछ नहीं करता।
मैंने पास जाकर कहा, “मित्र! आज तुम बहुत उदास जान पड़ते हो। चलो थोड़ी दूर तक घूम आवें। चित्त बहल जाएगा।”
वे तुरंत खड़े हो गए और कहा, “चलो मित्र, मेरा भी यही जी चाहता है मैं तो तुम्हारे यहाँ जाने वाला था।”
हम दोनों उठे और नगर से पूर्व की ओर का मार्ग लिया। बाग़ के दोनों ओर की कृषि-संपन्न भूमि की शोभा का अनुभव करते और हरियाली के विस्तृत राज्य का अवलोकन करते हम लोग चले। दिन का अधिकांश अभी शेष था, इससे चित्त को स्थिरता थी। पावस की जरावस्था थी, इससे ऊपर से भी किसी प्रकार के अत्याचार की संभावना न थी। प्रस्तुत ऋतु की प्रशंसा भी हम दोनों बीच-बीच में करते जाते थे।
अहा! ऋतुओं में उदारता का अभिमान यही कर सकता है। दीन कृषकों को अन्नदान और सूर्यातप-तप्त पृथिवी को वस्त्रदान देकर यश का भागी यही होता है। इसे तो कवियों की ‘कौंसिल’ से ‘रायबहादुर’ की उपाधि मिलनी चाहिए। यद्यपि पावस की युवावस्था का समय नहीं है, किंतु उसके यश की ध्वजा फहरा रही है। स्थान-स्थान पर प्रसन्न-सलिल-पूर्ण ताल यद्यपि उसकी पूर्व उदारता का परिचय दे रहे हैं।
एतादृश भावों की उलझन में पड़कर हम लोगों का ध्यान मार्ग की शुद्धता की ओर न रहा। हम लोग नगर से बहुत दूर निकल गए। देखा तो शनै:-शनै: भूमि में परिवर्तन लक्षित होने लगा; अरुणता-मिश्रित पहाड़ी, रेतीली भूमि, जंगली बेर-मकोय की छोटी-छोटी कंटकमय झाड़ियाँ दृष्टि के अंतर्गत होने लगीं। अब हम लोगों को जान पड़ा कि हम दक्षिण की ओर झुके जा रहे हैं। संध्या भी हो चली। दिवाकर की डूबती हुई किरणों की अरुण आभा झाड़ियों पर पड़ने लगी। इधर प्राची की ओर दृष्टि गई; देखा तो चंद्रदेव पहले ही से सिंहासनारूढ़ होकर एक पहाड़ी के पीछे से झाँक रहे थे।
अब हम लोग नहीं कह सकते कि किस स्थान पर हैं। एक पगडंडी के आश्रय अब तक हम लोग चल रहे थे, जिस पर उगी हुई घास इस बात की शपथ खा के साक्षी दे रही थी कि वर्षों से मनुष्यों के चरण इस ओर नहीं पड़े हैं। कुछ दूर चलकर यह मार्ग भी तृण-सागर में लुप्त हो गया। ‘इस समय क्या कर्तव्य है?’ चित्त इसी के उत्तर की प्रतीक्षा में लगा। अंत में यह विचार स्थिर हुआ कि किसी खुले स्थान से चारों ओर देखकर यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है कि हम लोग अमुक स्थान पर हैं।
दैवात् सम्मुख ही ऊँची पहाड़ी देख पड़ी, उसी को इस कार्य के उपयुक्त स्थान हम लोगों ने विचारा। ज्यों-त्यों करके पहाड़ी के शिखर तक हम लोग गए। ऊपर आते ही भगवती जन्हू-नंदनी के दर्शन हुए। नेत्र तो सफल हुए। इतने में चारुहासिनी चंद्रिका भी अट्टहास करके खिल पड़ी। उत्तर-पूर्व की ओर दृष्टि गई। विचित्र दृश्य सम्मुख उपस्थित हुआ। जाह्नवी के तट से कुछ अंतर पर नीचे मैदान में, बहुत दूर, गिरे हुए मकानों के ढेर स्वच्छ चंद्रिका में स्पष्ट रूप से दिखाई दिए।
मैं सहसा चौंक पड़ा और ए शब्द मेरे मुख से निकल पड़े, “क्या यह वही खँडहर है जिसके विषय में यहाँ अनेक दंतकथाएँ प्रचलित हैं?” चारों ओर दृष्टि उठाकर देखने से पूर्ण रूप से निश्चय हो गया कि हो न हो, यह वही स्थान है जिसके संबंध में मैंने बहुत कुछ सुना है। मेरे मित्र मेरी ओर ताकने लगे। मैंने संक्षेप में उस खँडहर के विषय में जो कुछ सुना था, उनसे कह सुनाया। हम लोगों के चित्त में कौतूहल की उत्पत्ति हुई, उसको निकट से देखने की प्रबल इच्छा ने मार्ग ज्ञान की व्यग्रता को हृदय से बहिर्गत कर दिया। उत्तर की ओर उतरना बड़ा दुष्कर प्रतीत हुआ, क्योंकि जंगली वृक्षों और कंटकमय झाड़ियों से पहाड़ी का वह भाग आच्छादित था। पूर्व की ओर से हम लोग सुगमतापूर्वक नीचे उतरे। यहाँ से खँडहर लगभग डेढ़ मील प्रतीत होता था। हम लोगों ने पैरों को उसी ओर मोड़ा, मार्ग में घुटनों तक उगी हुई घास पग-पग पर बाधा उपस्थित करने लगी, किंतु अधिक विलंब तक यह कष्ट हम लोगों को भोगना न पड़ा, क्योंकि आगे चलकर फूटे हुए खपड़ैलों की सिटकियाँ मिलने लगीं, इधर-उधर गिरी हुई दीवारें और मिट्टी के ढूह प्रत्यक्ष होने लगे। हम लोगों ने जाना कि अब यहीं से खँडहर का आरंभ है। दीवारों की मिट्टी से स्थान क्रमश: ऊँचा होता जाता था, जिस पर से होकर हम लोग निर्भय जा रहे थे। इस निर्भयता के लिए हम लोग चंद्रमा के प्रकाश के भी अनुगृहीत हैं। सम्मुख ही एक देव मंदिर पर दृष्टि जा पड़ी, जिसका कुछ भाग तो नष्ट हो गया था, किंतु शेष प्रस्तर-विनिर्मित होने के कारण अब तक क्रूर काल के आक्रमण को सहन करता आया था। मंदिर का द्वार ज्यों-का-त्यों खड़ा था। किवाड़ सट गए थे। भीतर भगवान भवानीपति बैठे निर्जन कैलाश का आनंद ले रहे थे, द्वार पर उनका नंदी बैठा था। मैं तो प्रणाम करके वहाँ से हटा, किंतु देखा तो हमारे मित्र बड़े ध्यान से खड़े हो, उस मंदिर की ओर देख रहे हैं और मन-ही-मन कुछ सोच रहे हैं। मैंने मार्ग में भी कई बेर लक्ष्य किया था कि वे कभी-कभी ठिठक जाते और किसी वस्तु को बड़ी स्थिर दृष्टि से देखने लगते। मैं खड़ा हो गया और पुकारकर मैंने कहा, “कहो मित्र! क्या है? क्या देख रहे हो?”
मेरी बोली सुनते ही वे झट मेरे पास दौड़ आए और कहा, “कुछ नहीं, यूँही मंदिर देखने लग गया था।” मैंने फिर तो कुछ न पूछा, किंतु अपने मित्र के मुख की ओर देखता जाता था, जिस पर कि विस्मय-युक्त एक अद्भुत भाव लक्षित होता था। इस समय खँडहर के मध्य भाग में हम लोग खड़े थे। मेरा हृदय इस स्थान को इस अवस्था में देख विदीर्ण होने लगा। प्रत्येक वस्तु से उदासी बरस रही थी, इस संसार की अनित्यता की सूचना मिल रही थी। इस करुणोत्पादक दृश्य का प्रभाव मेरे हृदय पर किस सीमा तक हुआ, शब्दों द्वारा अनुभव करना असंभव है।
कहीं सड़े हुए किवाड़ भूमि पर पड़े प्रचंड काल को साष्टांग दंडवत कर रहे हैं, जिन घरों में किसी अपरिचित की परछाईं पड़ने से कुल की मर्यादा भंग होती थी, वे भीतर से बाहर तक खुले पड़े हैं। रंग-बिरंगी चूड़ियों के टुकड़े इधर-उधर पड़े काल की महिमा गा रहे हैं। मैंने इनमें से एक को हाथ में उठाया, उठाते ही यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि “वे कोमल हाथ कहाँ हैं जो इन्हें धारण करते थे?”
हाँ! यही स्थान किसी समय नर-नारियों के आमोद-प्रमोद से पूर्ण रहा होगा और बालकों के कल्लोल की ध्वनि चारों ओर से आती रही होगी, वही आज कराल काल के कठोर दाँतों के तले पिसकर चकनाचूर हो गया है! तृणों से आच्छादित गिरी हुई दीवारें, मिट्टी और ईंटों के ढूह, टूटे-फूटे चौकठे और किवाड़ इधर-उधर पड़े एक स्वर से मानो पुकार के कह रहे थे—‘दिनन को फेर होत, मेरु होत माटी को’ प्रत्येक पार्श्व से मानो यही ध्वनि आ रही थी। मेरे हृदय में करुणा का एक समुद्र उमड़ा जिसमें मेरे विचार सब मग्न होने लगे।
मैं एक स्वच्छ शिला पर, जिसका कुछ भाग तो पृथ्वीतल में धँसा था, और शेषांश बाहर था, बैठ गया। मेरे मित्र भी आकर मेरे पास बैठे। मैं तो बैठे-बैठे काल-चक्र की गति पर विचार करने लगा, मेरे मित्र भी किसी विचार ही में डूबे थे, किंतु मैं नहीं कह सकता कि वह क्या था। यह सुंदर स्थान इस शोचनीय और पतित दशा को क्योंकर प्राप्त हुआ, मेरे चित्त में तो यही प्रश्न बार-बार उठने लगा; किंतु उसका संतोषदायक उत्तर प्रदान करने वाला वहाँ कौन था? अनुमान ने यथासाध्य प्रयत्न किया, परंतु कुछ फल न हुआ। माथा घूमने लगा। न जाने कितने और किस-किस प्रकार के विचार मेरे मस्तिष्क से होकर दौड़ गए।
हम लोग अधिक विलंब तक इस अवस्था में न रहने पाए। यह क्या? मधुसूदन! यह कौन-सा दृश्य है? जो कुछ देखा, उससे अवाक रह गया! कुछ दूर पर एक श्वेत वस्तु इसी खँडहर की ओर आती देख पड़ी! मुझे रोमांच हो आया, शरीर काँपने लगा। मैंने अपने मित्र को उस ओर आकर्षित किया और उँगली उठा के दिखाया। परंतु कहीं कुछ न देख पड़ा, मैं स्थापित मूर्ति की भाँति बैठा रहा। पुन: वही दृश्य! अबकी बार ज्योत्स्नालोक में स्पष्ट रूप से हम लोगों ने देखा कि एक श्वेत परिच्छद धारिणी स्त्री एक जल-पात्र लिए खँडहर के एक पार्श्व से होकर दूसरी ओर वेग से निकल गई और उन्हीं खँडहरों के बीच फिर न जाने कहाँ अंतर्धान हो गई। इस अदृष्टपूर्व व्यापार को देख मेरे मस्तिष्क में पसीना आ गया और कई प्रकार के भ्रम उत्पन्न होने लगे। विधाता! तेरी सृष्टि में न-जाने कितनी अद्भुत–अद्भुत वस्तु मनुष्य की सूक्ष्म विचार-दृष्टि से वंचित पड़ी हैं। यद्यपि मैंने इस स्थान विशेष के संबंध में अनेक भयानकवार्ताएँ सुन रखी थीं, किंतु मेरे हृदय पर भय का विशेष संचार न हुआ। हम लोगों को प्रेतों पर भी इतना दृढ़ विश्वास न था, नहीं तो हम दोनों का एक क्षण भी उस स्थान पर ठहरना दुष्कर हो जाता। रात्रि भी अधिक व्यतीत होती जाती थी। हम दोनों को अब यह चिंता हुई कि यह स्त्री कौन है? इसका उचित परिशोध अवश्य लगाना चाहिए।
हम दोनों अपने स्थान से उठे और जिस ओर वह स्त्री जाती हुई देख पड़ी थी उसी ओर चले। अपने चारों ओर प्रत्येक स्थान को भली प्रकार देखते, हम लोग गिरे हुए मकानों के भीतर जा-जा के श्रृगालों के स्वच्छंद विहार में बाधा डालने लगे। अभी तक तो कुछ ज्ञात न हुआ। यह बात तो हम लोगों के मन में निश्चय हो गई थी कि हो न हो, वह स्त्री खँडहर के किसी गुप्त भाग में गई है। गिरी हुई दीवारों की मिट्टी और ईंटों के ढेर से इस समय हम लोग परिवृत्त थे। बाह्य जगत की कोई वस्तु दृष्टि के अंतर्गत न थी। हम लोगों को जान पड़ता था कि किसी दूसरे संसार में खड़े हैं। वास्तव में खँडहर के एक भयानक भाग में इस समय हम लोग खड़े थे। सामने एक बड़ी ईंटों की दीवार देख पड़ी जो औरों की अपेक्षा अच्छी दशा में थी। इसमें एक खुला हुआ द्वार था। इसी द्वार से हम दोनों ने इसमें प्रवेश किया। भीतर एक विस्तृत आँगन था जिसमें बेर और बबूल के पेड़ स्वच्छंदतापूर्वक खड़े उस स्थान को मनुष्य-जाति-संबंध से मुक्त सूचित करते थे। इसमें पैर धरते ही मेरे मित्र की दशा कुछ और हो गई और वे चट बोल उठे, “मित्र! मुझे ऐसा जान पड़ता है कि जैसे मैंने इस स्थान को और कभी देखा हो, यही नहीं कह सकता, कब। प्रत्येक वस्तु यहाँ की पूर्व परिचित-सी जान पड़ती है।” मैं अपने मित्र की ओर ताकने लगा। उन्होंने आगे कुछ न कहा। मेरा चित्त इस स्थान के अनुसंधान करने को मुझे बाध्य करने लगा। इधर-उधर देखा तो एक ओर मिट्टी पड़ते-पड़ते दीवार की ऊँचाई के अर्धभाग तक वह पहुँच गई थी। इस पर से होकर हम दोनों दीवार पर चढ़ गए। दीवार के नीचे दूसरे किनारे में चतुर्दिक वेष्टित एक कोठरी दिखाई दी, मैं इसमें उतरने का यत्न करने लगा। बड़ी सावधानी से एक उभड़ी हुई ईंट पर पैर रखकर हम दोनों नीचे उतर गए। यह कोठरी ऊपर से बिलकुल खुली थी, इसलिए चंद्रमा का प्रकाश इसमें बेरोक-टोक आ रहा था। कोठरी के दाहिनी ओर एक द्वार दिखाई दिया, जिसमें एक जीर्ण किवाड़ लगा हुआ था, हम लोगों ने निकट जाकर किवाड़ को पीछे की ओर धीरे से धकेला तो जान पड़ा कि वे भीतर से बंद हैं।
मेरे तो पैर काँपने लगे। पुन: साहस को धारण कर हम लोगों ने किवाड़ के छोटे-छोटे रन्ध्रों से झाँका तो एक प्रशस्त कोठरी देख पड़ी। एक कोने में मंद-मंद एक प्रदीप जल रहा था जिसका प्रकाश द्वार तक न पहुँचता था। यदि प्रदीप उसमें न होता तो अंधकार के अतिरिक्त हम लोग और कुछ न देख पाते।
हम लोग कुछ काल तक स्थिर दृष्टि से उसी ओर देखते रहे। इतने में एक स्त्री की आकृति देख पड़ी जो हाथ में कई छोटे पात्र लिए उस कोठरी के प्रकाशित भाग में आई। अब तो किसी प्रकार का संदेह न रहा। एक बेर इच्छा हुई कि किवाड़ खटखटाएँ, किंतु कई बातों का विचार करके हम लोग ठहर गए। जिस प्रकार से हम लोग कोठरी में आए थे, धीरे-धीरे उसी प्रकार नि:शब्द दीवार से होकर फिर आँगन में आए। मेरे मित्र ने कहा, “इसका शोध अवश्य लगाओ कि यह स्त्री कौन है?” अंत में हम दोनों आड़ में, इस आशा से कि कदाचित वह फिर बाहर निकले, बैठे रहे। पौन घंटे के लगभग हम लोग इसी प्रकार बैठे रहे। इतने में वही श्वेतवसन धारिणी स्त्री आँगन में सहसा आकर खड़ी हो गई, हम लोगों को यह देखने का समय न मिला कि वह किस ओर से आर्इ।
उसका अपूर्व सौंदर्य देखकर हम लोग स्तंभित व चकित रह गए। चंद्रिका में उसके सर्वांग की सुदंरता स्पष्ट जान पड़ती थी। गौर वर्ण, शरीर किंचित क्षीण और आभूषणों से सर्वथा रहित, मुख उसका, यद्यपि उस पर उदासीनता और शोक का स्थार्इ निवास लक्षित होता था, एक अलौकिक प्रशांत कांति से देदीप्यमान हो रहा था। सौम्यता उसके अंग-अंग से प्रदर्शित होती थी। वह साक्षात देवी जान पड़ती थी।
कुछ काल तक किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर स्तब्ध लोचनों से उसी ओर हम लोग देखते रहे, अंत में हमने अपने को सँभाला और इसी अवसर को अपने कार्योपयुक्त विचारा। हम लोग अपने स्थान पर से उठे और तुरंत उस देवीरूपिणी के सम्मुख हुए। वह देखते ही वेग से पीछे हटी। मेरे मित्र ने गिड़गिड़ा के कहा, “देवी! ढिठाई क्षमा करो। मेरे भ्रमों का निवारण करो।” वह स्त्री क्षण भर तक चुप रही, फिर स्निग्ध और गंभीर स्वर से बोली, “तुम कौन हो और क्यों मुझे व्यर्थ कष्ट देते हो?” इसका उत्तर ही क्या था? मेरे मित्र ने फिर विनीत भाव से कहा, “देवी! मुझे बड़ा कौतूहल है– दया करके यहाँ का सब रहस्य कहो।”
इस पर उसने उदास स्वर से कहा, “तुम हमारा परिचय लेके क्या करोगे? इतना जान लो कि मेरे समान अभागिनी इस समय इस पृथ्वी मंडल में कोई नहीं है।”
मेरे मित्र से न रहा गया, हाथ जोड़कर उन्होंने फिर निवेदन किया, “देवी! अपने वृत्तांत से मुझे परिचित करो। इसी हेतु हम लोगों ने इतना साहस किया है। मैं भी तुम्हारे ही समान दुखिया हूँ। मेरा इस संसार में कोई नहीं है।” मैं अपने मित्र का यह भाव देखकर चकित रह गया।
स्त्री ने करुण-स्वर से कहा, “तुम मेरे नेत्रों के सम्मुख भूला-भुलाया मेरा दु:ख फिर उपस्थित करने का आग्रह कर रहे हो। अच्छा बैठो।”
मेरे मित्र निकट के एक पत्थर पर बैठ गए। मैं भी उन्हीं के पास जा बैठा। कुछ काल तक सब लोग चुप रहे, अंत में वह स्त्री बोली—
“इसके प्रथम कि मैं अपने वृत्तांत से तुम्हें परिचित करूँ, तुम्हें शपथपूर्वक यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि तुम्हारे सिवा यह रहस्य संसार में और किसी के कानों तक न पहुँचे। नहीं तो इस स्थान पर रहना दुष्कर हो जाएगा और आत्महत्या ही मेरे लिए एकमात्र उपाय शेष रह जाएगा।”
हम लोगों के नेत्र गीले हो आए। मेरे मित्र ने कहा, “देवी! मुझसे तुम किसी प्रकार का भय न करो; ईश्वर मेरा साक्षी है।”
स्त्री ने तब इस प्रकार कहना आरंभ किया –
“यह खँडहर जो तुम देखते हो, आज से 11 वर्ष पूर्व एक सुंदर ग्राम था। अधिकांश ब्राह्मण-क्षत्रियों की इसमें बस्ती थी। यह घर जिसमें हम लोग बैठे हैं चंद्रशेखर मिश्र नामी एक प्रतिष्ठित और कुलीन ब्राह्मण का निवास-स्थान था। घर में उनकी स्त्री और एक पुत्र था, इस पुत्र के सिवा उन्हें और कोई संतान न थी। आज ग्यारह वर्ष हुए कि मेरा विवाह इसी चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र के साथ हुआ था।”
इतना सुनते ही मेरे मित्र सहसा चौंक पड़े, “हे परमेश्वर! यह सब स्वप्न है या प्रत्यक्ष?” ए शब्द उनके मुख से निकले ही थे कि उनकी दशा विचित्र हो गई। उन्होंने अपने को बहुत सँभाला—और फिर सँभलकर बैठे, वह स्त्री उनका यह भाव देखकर विस्मित हुई और उसने पूछा, “क्यों, क्या है?”
मेरे मित्र ने विनीत भाव से उत्तर दिया, “कुछ नहीं, यूँही मुझे एक बात का स्मरण आया। कृपा करके आगे कहो।”
स्त्री ने फिर कहना आरंभ किया—“मेरे पिता का घर काशी में मुहल्ले में था। विवाह के एक वर्ष पश्चात् ही इस ग्राम में एक भयानक दुर्घटना उपस्थित हुई, यहीं से मेरे दुर्दमनीय दु:ख का जन्म हुआ। संध्या को सब ग्रामीण अपने-अपने कार्य से निश्चिंत होकर अपने-अपने घरों को लौटे। बालकों का कोलाहल बंद हुआ। निद्रादेवी ने ग्रामीणों के चिंता-शून्य हृदयों में अपना डेरा जमाया। आधी रात से अधिक बीत चुकी थी, कुत्ते भी थोड़ी देर तक भौंककर अंत में चुप हो रहे थे। प्रकृति निस्तब्ध हुई, सहसा ग्राम में कोलाहल मचा और धमाके के कई शब्द हुए। लोग आँखें मींचते उठे। चारपाई के नीचे पैर देते हैं तो घुटने भर पानी में खड़े!! कोलाहल सुनकर बच्चे भी जागे। एक-दूसरे का नाम ले-लेकर लोग चिल्लाने लगे। अपने-अपने घरों में से लोग बाहर निकलकर खड़े हुए। भगवती जाह्नवी को द्वार पर बहते हुए पाया!! भयानक विपत्ति! कोई उपाय नहीं। जल का वेग क्रमश: अधिक बढ़ने लगा। पैर कठिनता से ठहरते थे। फिर दृष्टि उठाकर देखा, जल ही जल दिखाई दिया। एक-एक करके सब सामग्रियाँ बहने लगीं। संयोगवश एक नाव कुछ दूर पर आती देख पड़ी। आशा! आशा!! आशा!!!
“नौका आई, लोग टूट पड़े और बलपूर्वक चढ़ने का यत्न करने लगे। मल्लाहों ने भारी विपत्ति सम्मुख देखी। नाव पर अधिक बोझ होने के भय से उन्होंने तुरंत अपनी नाव बढ़ा दी। बहुत-से लोग रह गए। नौका पवनगति से गमन करने लगी। नौका दूसरे किनारे पर लगी। लोग उतरे। चंद्रशेखर मिश्र भी नाव पर से उतरे और अपने पुत्र का नाम लेके पुकारा। कोई उत्तर न मिला। उन्होंने अपने साथ ही उसे नाव पर चढ़ाया था, किंतु भीड़-भाड़ नाव पर अधिक होने के कारण वह उनसे पृथक हो गया था मिश्रजी बहुत घबराए और तुरंत नाव लेकर लौटे। देखा, बहुत से लोग रह गए थे, उनसे पूछ-ताछ किया। किसी ने कुछ पता न दिया। निराशा भयंकर रूप धारण करके उनके सामने उपस्थित हुई।”
“संध्या का समय था, मेरे पिता दरवाज़े पर बैठे थे। सहसा मिश्र जी घबराए हुए आते देख पड़े। उन्होंने आकर आद्योपरांत पूर्वोल्लिखित घटना कह सुनाई, और तुरंत उन्मत्त की भाँति वहाँ से चल दिए। लोग पुकारते ही रह गए। वे एक क्षण भी वहाँ न ठहरे। तब से फिर कभी वे दिखाई न दिए। ईश्वर जाने वे कहाँ गए! मेरे पिता भी दत्तचित होकर अनुसंधान करने लगे। उन्होंने सुना कि ग्राम के बहुत से लोग नाव पर चढ़-चढ़कर इधर-उधर भाग गए हैं। इसलिए उन्हें आशा थी। इस प्रकार ढूँढ़ते-ढूँढ़ते कई मास व्यतीत हो गए। अब तक वे समाचार की प्रतीक्षा में थे और उन्हें आशा थी, किंतु अब उन्हें चिंता हुई। चंद्रशेखर मिश्र का भी तब से कहीं कुछ समाचार न मिला। जहाँ-जहाँ मिश्र जी का संबंध था, मेरे पिता स्वयं गए; किंतु चारों ओर से निराश लौटे, किसी का कुछ अनुसंधान न लगा। एक वर्ष बीता, दो वर्ष बीते, तीसरा वर्ष आरंभ हुआ। पिता बहुत इधर-उधर दौड़े, अंत में ईश्वर और भाग्य के ऊपर छोड़कर बैठ रहे। तीसरा वर्ष भी व्यतीत हो गया।”
“मेरी अवस्था उस समय 14 वर्ष की हो चुकी थी, अब तक तो मैं निर्बोध बालिका थी। अब क्रमश: मुझे अपनी वास्तविक दशा का ज्ञान होने लगा। मेरा समय भी अहर्निश इसी चिंता में अब व्यतीत होने लगा। शरीर दिन-पर-दिन क्षीण होने लगा। मेरे देवतुल्य पिता ने यह बात जानी। वे सदा मेरे दु:ख भुलाने का यत्न करते रहते थे। अपने पास बैठाकर रामायण आदि की कथा सुनाया करते थे। पिता अब वृद्ध होने लगे, दिवारात्रि की चिंता ने उन्हें और भी वृद्ध बना दिया। घर के समस्त कार्य-संपादन का भार मेरे बड़े भाई के ऊपर पड़ा। उनकी स्त्री का स्वभाव बड़ा क्रूर था। कुछ दिन तक तो किसी प्रकार चला। अंत में वह मुझसे डाह करने लगी और कष्ट देना प्रारंभ किया, मैं चुपचाप सब सहन करती थी। धीरे-धीरे आश्वास-वाक्य के स्थान पर वह तीक्ष्ण वचनों से मेरा चित्त अधिक दु:खाने लगी। यदि कभी मैं अपने भाई से निवेदन करती तो वे भी कुछ न बोलते, आनाकानी कर जाते और मेरे पिता की, वृद्धावस्था के कारण, कुछ नहीं चल सकती थी। मेरे दु:ख को समझने वाला वहाँ कोई नहीं देख पड़ता था। मेरी माता का पहिले ही परलोकवास हो चुका था। मुझे अपनी दशा पर बड़ा दु:ख हुआ। हा! मेरा स्वामी यदि इस समय होता तो क्या मेरी यही दशा होती? पिता के घर क्या इन्हीं वचनों द्वारा मेरा सत्कार किया जाता। यही सब विचार करके मेरा हृदय फटने लगता था। अब क्रमश: मेरा हृदय मेघाच्छन्न होने लगा। मुझे संसार शून्य दिखाई देने लगा। एकांत में बैठकर मैं अपनी अवस्था पर अश्रुवर्षण करती। उसमें भी यह भय लगा रहता कि कहीं भौजाई न पहुँच जाए। एक दिन उसने मुझे इसी अवस्था में पाया तो तुरंत व्यंग्य-वचनों द्वारा आश्वासन देने लगी। मेरा शोकार्त्त हृदय अग्निशिखा की भाँति प्रज्वलित हो उठा; किंतु मौनावलंबन के सिवा अन्य उपाय ही क्या था? दिन-दिन मुझे यह दु:ख असह्य होने लगा। एक रात्रि को मैं उठी। किसी से कुछ न कहा और सूर्योदय के प्रथम ही अपने पिता का गृह मैंने परित्याग किया।”
“मैं अब यह नहीं कह सकती कि उस समय मेरा क्या विचार था। मुझे एक बेर अपने पति के स्थान को देखने की लालसा हुई। दु:ख और शोक से मेरी दशा उन्मत्त की-सी हो गई थी। संसार में मैंने दृष्टि उठा के देखा तो मुझे और कुछ न दिखलाई दिया। केवल चारों ओर दु:ख! सैकड़ों कठिनाइयाँ झेलकर अंत में मैं इस स्थान तक आ पहुँची। उस समय मेरी अवस्था केवल 16 वर्ष की थी। मैंने इस स्थान को उस समय भी प्राय: इसी दशा में पाया था। यहाँ आने पर मुझे कई चिन्ह ऐसे मिले, जिनसे मुझे यह निश्चय हो गया कि चंद्रशेखर मिश्र का घर यही है। इस स्थान को देखकर मेरे आर्त्त हृदय पर बड़ा कठोर आधात पहुँचा।”
इतना कहते-कहते हृदय के आवेग ने शब्दों को उसके हृदय ही में बंदी कर रखा, बाहर प्रकट होने न दिया। क्षणिक पर्यंत वह चुप रही, सिर नीचा किए भूमि की ओर देखती रही। इधर मेरे मित्र की दशा कुछ और ही हो रही थी, लिखित चित्र की भाँति बैठे वे एकटक ताक रहे थे, इंद्रियाँ अपना कार्य उस समय भूल गई थीं। स्त्री ने फिर कहना आरंभ किया–
“इस स्थान को देख मेरा चित्त बहुत दग्ध हुआ। हा! यदि ईश्वर चाहता तो किसी दिन मैं इसी गृह की स्वामिनी होती। आज ईश्वर ने मुझको उसे इस अवस्था में दिखलाया। उसके आगे किसका वश है? अनुसंधान करने पर मुझे दो कोठरियाँ मिलीं जो सर्वप्रकार से रक्षित और मनुष्य की दृष्टि से दुर्भेद्य थीं। लगभग चारों ओर मिट्टी पड़ जाने के कारण किसी को उनकी स्थिति का संदेह नहीं हो सकता था। मुझे बहुत सी सामग्रियाँ भी इनमें प्राप्त हुईं जो मेरी तुच्छ आवश्यकता के अनुसार बहुत थीं। मुझे यह निर्जन स्थान अपने पिता के कष्टागार से प्रियतम प्रतीत हुआ। यहीं मेरे पति के बाल्यावस्था के दिन व्यतीत हुए थे। यही स्थान मुझे प्रिय है। यहीं मैं अपने दु:खमय जीवन का शेष भाग उसी करुणालय जगदीश्वर की, जिसने मुझे इस अवस्था में डाला, आराधना में बिताऊँगी। यही विचार मैंने स्थिर किया। ईश्वर को मैंने धन्यवाद दिया, जिसने ऐसा उपयुक्त स्थान मेरे लिए ढूँढ़कर निकाला। कदाचित तुम पूछोगे कि इस अभागिनी ने अपने लिए इस प्रकार का जीवन क्यों उपयुक्त विचारा? तो उसका उत्तर है कि यह दुष्ट संसार भाँति-भाँति की वासनाओं से पूर्ण है, जो मनुष्य को उसके सत्य-पथ से विचलित कर देती हैं। दुष्ट और कुमार्गी लोगों के अत्याचार से बचा रहना भी कठिन कार्य है।”
इतना कहके वह स्त्री ठहर गर्इ। मेरे मित्र की ओर उसने देखा। वे कुछ मिनट तक काष्ठपुत्तलिका की भाँति बैठे रहे। अंत में एक लंबी ठंडी साँस भर के उन्होंने कहा, “ईश्वर! यह स्वप्न है या प्रत्यक्ष?” स्त्री उनका यह भाव देख-देखकर विस्मित हो रही थी। उसने पूछा, “क्यों! कैसा चित्त है?” मेरे मित्र ने अपने को सँभाला और उत्तर दिया, “तुम्हारी कथा का प्रभाव मेरे चित्त पर बहुत हुआ है, कृपा करके आगे कहो।”
स्त्री ने कहा, “मुझे अब कुछ कहना शेष नहीं है। आज पाँच वर्ष मुझे इस स्थान पर आए हुए, संसार में किसी मनुष्य को आज तक यह प्रकट नहीं हुआ। यहाँ प्रेतों के भय से कोई पदार्पण नहीं करता, इससे मुझे अपने को गोपन रखने में विशेष कठिनता नहीं पड़ती। संयोगवश रात्रि में किसी की दृष्टि यदि मुझ पर पड़ी भी तो चुड़ैल के भ्रम से मेरे निकट तक आने का किसी को साहस न हुआ। यह आज प्रथम ऐसा संयोग उपस्थित हुआ है, तुम्हारे साहस को मैं सराहती हूँ और प्रार्थना करती हूँ कि तुम अपने शपथ पर दृढ़ रहोगे। संसार में अब मैं प्रकट होना नहीं चाहती, प्रकट होने से मेरी बड़ी दुर्दशा होगी। मैं यहीं अपने पति के स्थान पर अपना जीवन शेष करना चाहती हूँ। इस संसार में अब मैं बहुत दिन न रहूँगी।”
मैंने देखा, मेरे मित्र का चित्त भीतर-ही-भीतर आकुल और संतप्त हो रहा था, हृदय का वेग रोककर उन्होंने प्रश्न किया, “क्यों! तुम्हें अपने पति का कुछ स्मरण है?”
स्त्री के नेत्रों से अनर्गल वारिधारा प्रवाहित हुई। बड़ी कठिनतापूर्वक उसने उत्तर दिया, “मैं उस समय बालिका थी। विवाह के समय मैंने उन्हें देखा था। वह मूर्ति यद्यपि मेरे हृदय–मंदिर में विद्यमान है, प्रचंड काल भी उसको वहाँ से हटाने में असमर्थ है।”
मेरे मित्र ने कहा, “देवी! तुमने बहुत कुछ रहस्य प्रकट किया, जो कुछ शेष है उसका वर्णन कर अब मैं इस कथा की पूर्ति करता हूँ।”
स्त्री विस्मयोत्फुल्ल लोचनों से मेरे मित्र की ओर निहारने लगी। मैं भी आश्चर्य से उन्हीं की ओर देखने लगा। उन्होंने कहना आरंभ किया—
“इस आख्यायिका में यही ज्ञात होना शेष है कि चंद्रशेखर मिश्र के पुत्र की क्या दशा हुई। चंद्रशेखर मिश्र और उनकी पत्नी क्या हुए। सुनो, नाव पर मिश्र जी ने अपने पुत्र को अपने साथ ही बैठाया। नाव पर भीड़ अधिक हो जाने के कारण वह उनसे पृथक हो गया। उन्होंने समझा कि वह नाव ही पर है, कोई चिंता नहीं। इधर मनुष्यों की धकका-मुक्की से वह लड़का नाव पर से नीचे जा रहा। ठीक उसी समय मल्लाह ने नाव खोल दी। उसने कई बेर अपने पिता को पुकारा; किंतु लोगों के कोलाहल में उन्हें कुछ सुनाई न दिया। नाव चली गर्इ। बालक वहीं खड़ा रह गया और लोग किसी प्रकार अपना-अपना प्राण लेके इधर-उधर भागे। नीचे भयानक जलप्रवाह, ऊपर अनन्त आकाश। लड़के ने एक छप्पर को बहते हुए अपनी ओर आते देखा, तुरंत वह उसी पर बैठ गया। इतने में जल का एक बहुत ऊँचा प्रबल झोंका आया। छप्पर लड़के सहित शीघ्र गति से बहने लगा। वह चुपचाप मूर्तिवत उसी पर बैठा रहा। उसे यह ध्यान नहीं कि इस प्रकार कै दिन तक वह बहता गया। वह भय और दुविधा से संज्ञाहीन हो गया था। संयोगवश एक व्यापारी की नाव, जिस पर रूई लदी थी, पूरब की ओर जा रही थी। नौका का स्वामी भी बजरे ही पर था। उसकी दृष्टि उस लड़के पर पड़ी। वह उसे नाव पर ले गया। लड़के की अवस्था उस समय मृतप्राय थी। अनेक यत्न के उपरांत वह होश में लाया गया। उस सज्जन ने लड़के की नाव पर बड़ी सेवा की। नौका बराबर चलती रही, बीच में कहीं न रुकी, कई दिनों के उपरांत कलकत्ते पहुँची।
“वह बंगाली सज्जन उस लड़के को अपने घर पर ले गया और उसे उसने अपने परिवार में सम्मिलित किया। बालक ने अपने माता-पिता के देखने की इच्छा प्रकट की। उसने उसे बहुत समझाया और शीघ्र अनुसंधान करने का वचन दिया। लड़का चुप हो रहा।
“इसी प्रकार कई मास व्यतीत हो गए। क्रमश: वह अपने पास के लोगों में हिल-मिल गया। बंगाली महाशय के एक पुत्र था। दोनों में भ्रातृ–स्नेह स्थापित हो गया। वह सज्जन उस लड़के के भावी हित की चेष्टा में तत्पर हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थापित किए हुए एक अँग्रेज़ी स्कूल में अपने पुत्र के साथ-साथ उसे भी वह शिक्षा देने लगा। क्रमश: उसे अपने घर का ध्यान कम होने लगा। वह दत्तचित्त होकर शिक्षा में अपना सारा समय देने लगा। इसी बीच कई वर्ष व्यतीत हो गए। उसके चित्त में अब अन्य प्रकार के विचारों ने निवास किया। अब पूर्व परिचित लोगों के ध्यान के लिए उसके मन में कम स्थान शेष रहा। मनुष्य का स्वभाव ही इस प्रकार का है। नौ वर्ष का समय निकल गया।”
“इसी बीच में एक बड़ी चित्ताकर्षक घटना उपस्थित हुई। बंगदेशी सज्जन के उस पुत्र का विवाह हुआ। चंद्रशेखर का पुत्र भी उस समय वहाँ उपस्थित था। उसने सब देखा; दीर्घकाल की निद्रा भंग हुई। सहसा उसे ध्यान हो आया, ‘मेरा भी विवाह हुआ है, अवश्य हुआ है।’ उसे अपने विवाह का बारम्बार ध्यान आने लगा। अपनी पाणिग्रहीता भार्या का भी उसे स्मरण हुआ। स्वदेश में लौटने को उसका चित्त आकुल होने लगा। रात्रि-दिन इसी चिंता में व्यतीत होने लगे।”
हमारे कतिपय पाठक हम पर दोषारोपण करेंगे कि ‘हें! न कभी साक्षात हुआ, न वार्तालाप हुआ, न लंबी-लंबी कोर्टशिप हुई, यह प्रेम कैसा?’ महाशय, रुष्ट न हूजिए। इस अदृष्ट प्रेम का धर्म और कर्तव्य से घनिष्ट संबंध है। इसकी उत्पत्ति केवल सदाशय और नि:स्वार्थ हृदय में ही हो सकती है। इसकी जड़ संसार के और प्रकार के प्रचलित प्रेमों से दृढ़तर और अधिक प्रशस्त है। आपको संतुष्ट करने को मैं इतना और कहे देता हूँ कि इंग्लैंड के भूतपूर्व प्रधानमंत्री लार्ड बेकन्सफील्ड का भी यही मत था।
“युवक का चित्त अधिक डाँवाडोल होने लगा। एक दिन उसने उस देवतुल्य सज्जन पुरुष से अपने चित्त की अवस्था प्रकट की और बहुत विनय के साथ विदा माँगी। आज्ञा पाकर उसने स्वदेश की ओर यात्रा की, देश में आने पर उसे विदित हुआ कि ग्राम में अब कोई नहीं है। उसने लोगों से अपने पिता-माता के विषय में पूछताछ किया। कुछ थोड़े दिन हुए वे दोनों इस नगर में थे, और अब वे तीर्थ-स्थानों में देशाटन कर रहे हैं। वह अपनी धर्मपत्नी के दर्शनों की अभिलाषा से सीधे काशी गया। वहाँ तुम्हारे पिता के घर का वह अनुसंधान करने लगा। बहुत दिनों के पश्चात तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता से उसका साक्षात हुआ, जिससे तुम्हारे संसार से सहसा लोप हो जाने की बात ज्ञात हुई। वह निराश होकर संसार में घूमने लगा।”
इतना कहकर मेरे मित्र चुप हो रहे। इधर शेष भाग सुनने को हम लोगों का चित्त ऊब रहा था, आश्चर्य से उन्हीं की ओर हम ताक रहे थे। उन्होंने फिर उस स्त्री की ओर देखकर कहा, “कदाचित तुम पूछोगी, कि इस समय अब वह कहाँ है? यह वही अभागा मनुष्य तुम्हारे सम्मुख बैठा है।”
हम दोनों के शरीर में बिजली-सी दौड़ गर्इ, वह स्त्री भूमि पर गिरने लगी, मेरे मित्र ने दौड़कर उसको सँभाला। वह किसी प्रकार उन्हीं के सहारे बैठी। कुछ क्षण के उपरांत उसने बहुत धीमे स्वर से मेरे मित्र से कहा, “अपना हाथ दिखाओ।”
उन्होंने चट अपना हाथ फैला दिया, जिस पर एक काला तिल दिखाई दिया। स्त्री कुछ काल तक उसी की ओर देखती रही, फिर मुख ढाँपकर सिर नीचा करके बैठी रही। लज्जा का प्रवेश हुआ। क्योंकि यह एक हिंदू-रमणी का उसके पति के साथ प्रथम संयोग था।
आज इतने दिनों के उपरांत मेरे मित्र का गुप्त रहस्य प्रकाशित हुआ। उस रात्रि को मैं अपने मित्र का खँडहर में अतिथि रहा। सवेरा होते ही हम सब लोग प्रसन्नचित्त नगर में आए।
din bhar baithe baithe mere sir mein piDa utpann hui main apne sthan se utha aur apne ek nae ekantwasi mitr ke yahan mainne jana wichara jakar mainne dekha to we dhyan magn sir nicha kiye hue kuch soch rahe the mujhe dekhkar kuch ashchary nahin hua; kyonki ye koi nai baat nahin thi unhen thoDe hi din purab se is desh mein aaye hua hai nagar mein unse mere siwa aur kisi se wishesh jaan pahichan nahin hai; aur na wo wisheshtah kisi se milte julte hi hain kewal mujhse mere bhagya se, we mitr bhaw rakhte hain udas to we har samay raha karte hain kai ber unse mainne is udasinata ka karan puchha bhee; kintu mainne dekha ki uske prakat karne mein unhen ek prakar ka duhakh sa hota hai, isi karan main wishesh puchhatachh nahin karta
mainne pas jakar kaha, mitr! aaj tum bahut udas jaan paDte ho chalo thoDi door tak ghoom awen chitt bahal jayega
we turant khaDe ho gaye aur kaha, chalo mitr, mera bhi yahi ji chahta hai main to tumhare yahan janewala tha
hum donon uthe aur nagar se poorw ki or ka marg liya bagh ke donon or ki krishai sampann bhumi ki shobha ka anubhaw karte aur hariyali ke wistrit rajy ka awlokan karte hum log chale din ka adhikansh abhi shesh tha, isse chitt ko sthirta thi pawas ki jarawastha thi, isse upar se bhi kisi prakar ke attyachar ki sambhawana na thi prastut ritu ki prashansa bhi hum donon beech beech mein karte jate the
aha! rituon mein udarta ka abhiman yahi kar sakta hai deen krishkon ko anndan aur suryatap tapt prithiwi ko wastrdan dekar yash ka bhagi yahi hota hai ise to kawiyon ki ‘kaunsil’ se ‘rayabhadur’ ki upadhi milani chahiye yadyapi pawas ki yuwawastha ka samay nahin hai, kintu uske yash ki dhwaja phahra rahi hai sthan sthan par prasann salil poorn tal yadyapi uski poorw udarta ka parichai de rahe hain
etadrish bhawon ki uljhan mein paDkar hum logon ka dhyan marg ki shuddhata ki or na raha hum log nagar se bahut door nikal gaye dekha to shanaih shanaih bhumi mein pariwartan lakshait hone laga; arunata mishrit pahaDi, retili bhumi, jangali ber makoy ki chhoti chhoti kantakmay jhaDiyan drishti ke antargat hone lagin ab hum logon ko jaan paDa ki hum dakshain ki or jhuke ja rahe hain sandhya bhi ho chali diwakar ki Dubti hui kirnon ki arun aabha jhaDiyon par paDne lagi idhar prachi ki or drishti gai; dekha to chandrdew pahle hi se sinhasnaruDh hokar ek pahaDi ke pichhe se jhank rahe the
ab hum log nahin kah sakte ki kis sthan par hain ek pagDanDi ke ashray ab tak hum log chal rahe the, jis par ugi hui ghas is baat ki shapath kha ke sakshi de rahi thi ki warshon se manushyon ke charn is or nahin paDe hain kuch door chalkar ye marg bhi trin sagar mein lupt ho gaya ‘is samay kya kartawya hai?’ chitt isi ke uttar ki pratiksha mein laga ant mein ye wichar sthir hua ki kisi khule sthan se charon or dekhkar ye gyan prapt ho sakta hai ki hum log amuk sthan par hain
daiwat sammukh hi unchi pahaDi dekh paDi, usi ko is kary ke upyukt sthan hum logon ne wichara jyon tyon karke pahaDi ke sikhar tak hum log gaye upar aate hi bhagwati janhu nandini ke darshan hue netr to saphal hue itne mein charuhasini chandrika bhi attahas karke khil paDi uttar poorw ki or drishti gai wichitr drishya sammukh upasthit hua jahnawi ke tat se kuch antar par niche maidan mein, bahut door, gire hue makanon ke Dher swachchh chandrika mein aspasht roop se dikhai diye
main sahsa chaunk paDa aur e shabd mere mukh se nikal paDe, kya ye wahi khanDahar hai jiske wishay mein yahan anek dantakthayen prachalit hain? charon or drishti uthakar dekhne se poorn roop se nishchay ho gaya ki ho na ho, ye wahi sthan hai jiske sambandh mein mainne bahut kuch suna hai mere mitr meri or takne lage mainne sankshaep mein us khanDahar ke wishay mein jo kuch suna tha, unse kah sunaya hum logon ke chitt mein kautuhal ki utpatti hui, usko nikat se dekhne ki prabal ichha ne marg gyan ki wyagrata ko hirdai se bahirgat kar diya uttar ki or utarna baDa dushkar pratit hua, kyonki jangali wrikshon aur kantakmay jhaDiyon se pahaDi ka wo bhag achchhadit tha poorw ki or se hum log sugamtapurwak niche utre yahan se khanDahar lagbhag DeDh meel pratit hota tha hum logon ne pairon ko usi or moDa, marg mein ghutnon tak ugi hui ghas pag pag par badha upasthit karne lagi, kintu adhik wilamb tak ye kasht hum logon ko bhogna na paDa, kyonki aage chalkar phute hue khapaDailon ki sitakiyan milne lagin, idhar udhar giri hui diwaren aur mitti ke Dhooh pratyaksh hone lage hum logon ne jana ki ab yahin se khanDahar ka arambh hai diwaron ki mitti se sthan kramshah uncha hota jata tha, jis par se hokar hum log nirbhay ja rahe the is nirbhayta ke liye hum log chandarma ke parkash ke bhi anugrhit hain sammukh hi ek dew mandir par drishti ja paDi, jiska kuch bhag to nasht ho gaya tha, kintu shesh prastar winirmit hone ke karan ab tak kroor kal ke akramn ko sahn karta aaya tha mandir ka dwar jyon ka tyon khaDa tha kiwaD sat gaye the bhitar bhagwan bhawanipati baithe nirjan kailash ka anand le rahe the, dwar par unka nandi baitha tha main to parnam karke wahan se hata, kintu dekha to hamare mitr baDe dhyan se khaDe ho, us mandir ki or dekh rahe hain aur man hi man kuch soch rahe hain mainne marg mein bhi kai ber lakshya kiya tha ki we kabhi kabhi thithak jate aur kisi wastu ko baDi sthir drishti se dekhne lagte main khaDa ho gaya aur pukarkar mainne kaha, kaho mitr! kya hai? kya dekh rahe ho?
meri boli sunte hi we jhat mere pas dauD aaye aur kaha, kuchh nahin, yunhi mandir dekhne lag gaya tha mainne phir to kuch na puchha, kintu apne mitr ke mukh ki or dekhta jata tha, jis par ki wismay yukt ek adbhut bhaw lakshait hota tha is samay khanDahar ke madhya bhag mein hum log khaDe the mera hirdai is sthan ko is awastha mein dekh widirn hone laga pratyek wastu se udasi baras rahi thi, is sansar ki anityata ki suchana mil rahi thi is karunotpadak drishya ka prabhaw mere hirdai par kis sima tak hua, shabdon dwara anubhaw karna asambhau hai
kahin saDe hue kiwaD bhumi par paDe prchanD kal ko sashtang danDwat kar rahe hain, jin gharon mein kisi aprichit ki parchhain paDne se kul ki maryada bhang hoti thi, we bhitar se bahar tak khule paDe hain rang birangi chuDiyon ke tukDe idhar udhar paDe kal ki mahima ga rahe hain mainne inmen se ek ko hath mein uthaya, uthate hi ye parashn upasthit hua ki we komal hath kahan hain jo inhen dharan karte the?
han! yahi sthan kisi samay nar nariyon ke aamod pramod se poorn raha hoga aur balkon ke kallol ki dhwani charon or se aati rahi hogi, wahi aaj karal kal ke kathor danton ke tale piskar chaknachur ho gaya hai! trinon se achchhadit giri hui diwaren, mitti aur inton ke Dhooh, tute phute chaukthe aur kiwaD idhar udhar paDe ek swar se mano pukar ke kah rahe the—‘dinan ko pher hot, meru hot mati ko’ pratyek parshw se mano yahi dhwani aa rahi thi mere hirdai mein karuna ka ek samudr umDa jismen mere wichar sab magn hone lage
main ek swachchh shila par, jiska kuch bhag to prithwital mein dhansa tha, aur sheshansh bahar tha, baith gaya mere mitr bhi aakar mere pas baithe main to baithe baithe kal chakr ki gati par wichar karne laga, mere mitr bhi kisi wichar hi mein Dube the, kintu main nahin kah sakta ki wo kya tha ye sundar sthan is shochaniy aur patit dasha ko kyonkar prapt hua, mere chitt mein to yahi parashn bar bar uthne laga; kintu uska santoshdayak uttar pradan karne wala wahan kaun tha? anuman ne yathasadhy prayatn kiya, parantu kuch phal na hua matha ghumne laga na jane kitne aur kis kis prakar ke wichar mere mastishk se hokar dauD gaye
hum log adhik wilamb tak is awastha mein na rahne pae ye kya? madhusudan! ye kaun sa drishya hai? jo kuch dekha, usse awak rah gaya! kuch door par ek shwet wastu isi khanDahar ki or aati dekh paDi! mujhe romanch ho aaya, sharir kanpne laga mainne apne mitr ko us or akarshait kiya aur ungli utha ke dikhaya parantu kahin kuch na dekh paDa, main sthapit murti ki bhanti baitha raha punah wahi drishya! abki bar jyotsnalok mein aspasht roop se hum logon ne dekha ki ek shwet parichchhad dharinai istri ek jal patr liye khanDahar ke ek parshw se hokar dusri or weg se nikal gai aur unhin khanDaharon ke beech phir na jane kahan antardhan ho gai is adrshtapurw wyapar ko dekh mere mastishk mein pasina aa gaya aur kai prakar ke bhram utpann hone lage widhata! teri sirishti mein na jane kitni adbhut–adbhut wastu manushya ki sookshm wichar drishti se wanchit paDi hain yadyapi mainne is sthan wishesh ke sambandh mein anek bhayanak wartayen sun rakhi theen, kintu mere hirdai par bhay ka wishesh sanchar na hua hum logon ko preton par bhi itna driDh wishwas na tha, nahin to hum donon ka ek kshan bhi us sthan par thaharna dushkar ho jata ratri bhi adhik wyatit hoti jati thi hum donon ko ab ye chinta hui ki ye istri kaun hai? iska uchit parishodh awashy lagana chahiye
hum donon apne sthan se uthe aur jis or wo istri jati hui dekh paDi thi usi or chale apne charon or pratyek sthan ko bhali prakar dekhte, hum log gire hue makanon ke bhitar ja ja ke shrrigalon ke swachchhand wihar mein badha Dalne lage abhi tak to kuch j~nat na hua ye baat to hum logon ke man mein nishchay ho gai thi ki ho na ho, wo istri khanDahar ke kisi gupt bhag mein gai hai giri hui diwaron ki mitti aur inton ke Dher se is samay hum log pariwrtt the bahy jagat ki koi wastu drishti ke antargat na thi hum logon ko jaan paDta tha ki kisi dusre sansar mein khaDe hain wastaw mein khanDahar ke ek bhayanak bhag mein is samay hum log khaDe the samne ek baDi inton ki diwar dekh paDi jo auron ki apeksha achchhi dasha mein thi ismen ek khula hua dwar tha isi dwar se hum donon ne ismen prawesh kiya bhitar ek wistrit angan tha jismen ber aur babul ke peD swachchhandtapurwak khaDe us sthan ko manushya jati sambandh se mukt suchit karte the ismen pair dharte hi mere mitr ki dasha kuch aur ho gai aur we chat bol uthe, mitr! mujhe aisa jaan paDta hai ki jaise mainne is sthan ko aur kabhi dekha ho, yahi nahin kah sakta, kab pratyek wastu yahan ki poorw parichit si jaan paDti hai main apne mitr ki or takne laga unhonne aage kuch na kaha mera chitt is sthan ke anusandhan karne ko mujhe baadhy karne laga idhar udhar dekha to ek or mitti paDte paDte diwar ki unchai ke ardhbhag tak wo pahunch gai thi is par se hokar hum donon diwar par chaDh gaye diwar ke niche dusre kinare mein chaturdik weshtit ek kothari dikhai di, main ismen utarne ka yatn karne laga baDi sawadhani se ek ubhDi hui int par pair rakhkar hum donon niche utar gaye ye kothari upar se bilkul khuli thi, isliye chandarma ka parkash ismen berok tok aa raha tha kothari ke dahini or ek dwar dikhai diya, jismen ek jeern kiwaD laga hua tha, hum logon ne nikat jakar kiwaD ko pichhe ki or dhire se dhakela to jaan paDa ki we bhitar se band hain
mere to pair kanpne lage punah sahas ko dharan kar hum logon ne kiwaD ke chhote chhote randhron se jhanka to ek prashast kothari dekh paDi ek kone mein mand mand ek pradip jal raha tha jiska parkash dwar tak na pahunchta tha yadi pradip usmen na hota to andhkar ke atirikt hum log aur kuch na dekh pate
hum log kuch kal tak sthir drishti se usi or dekhte rahe itne mein ek istri ki akriti dekh paDi jo hath mein kai chhote patr liye us kothari ke prakashit bhag mein i ab to kisi prakar ka sandeh na raha ek ber ichha hui ki kiwaD khatakhtayen, kintu kai baton ka wichar karke hum log thahar gaye jis prakar se hum log kothari mein aaye the, dhire dhire usi prakar nihshabd diwar se hokar phir angan mein aaye mere mitr ne kaha, iska shodh awashy lagao ki ye istri kaun hai? ant mein hum donon aaD mein, is aasha se ki kadachit wo phir bahar nikle, baithe rahe paun ghante ke lagbhag hum log isi prakar baithe rahe itne mein wahi shwetawsan dharinai istri angan mein sahsa aakar khaDi ho gai, hum logon ko ye dekhne ka samay na mila ki wo kis or se aari
uska apurw saundarya dekhkar hum log stambhit wa chakit rah gaye chandrika mein uske sarwang ki sudanrta aspasht jaan paDti thi gaur warn, sharir kinchit kshain aur abhushnon se sarwatha rahit, mukh uska, yadyapi us par udasinata aur shok ka sthari niwas lakshait hota tha, ek alaukik prashant kanti se dedipyaman ho raha tha saumyata uske ang ang se pradarshit hoti thi wo sakshat dewi jaan paDti thi
kuch kal tak kinkarttawyawimuDh hokar stabdh lochnon se usi or hum log dekhte rahe, ant mein hamne apne ko sambhala aur isi awsar ko apne karyopyukt wichara hum log apne sthan par se uthe aur turant us dewirupini ke sammukh hue wo dekhte hi weg se pichhe hati mere mitr ne giDgiDa ke kaha, dewi! Dhithai kshama karo mere bhrmon ka niwaran karo wo istri kshan bhar tak chup rahi, phir snigdh aur gambhir swar se boli, tum kaun ho aur kyon mujhe byarth kasht dete ho? iska uttar hi kya tha? mere mitr ne phir winit bhaw se kaha, dewi! mujhe baDa kautuhal hai – daya karke yahan ka sab rahasy kaho
is par usne udas swar se kaha, tum hamara parichai leke kya karoge? itna jaan lo ki mere saman abhagini is samay is prithwi manDal mein koi nahin hai
mere mitr se na raha gaya, hath joDkar unhonne phir niwedan kiya, dewi! apne writtant se mujhe parichit karo isi hetu hum logon ne itna sahas kiya hai main bhi tumhare hi saman dukhiya hoon mera is sansar mein koi nahin hai main apne mitr ka ye bhaw dekhkar chakit rah gaya
istri ne karun swar se kaha, tum mere netron ke sammukh bhula bhulaya mera duhakh phir upasthit karne ka agrah kar rahe ho achchha baitho
mere mitr nikat ke ek patthar par baith gaye main bhi unhin ke pas ja baitha kuch kal tak sab log chup rahe, ant mein wo istri boli—
iske pratham ki main apne writtant se tumhein parichit karun, tumhein shapathpurwak ye pratigya karni hogi ki tumhare siwa ye rahasy sansar mein aur kisi ke kanon tak na pahunche nahin to is sthan par rahna dushkar ho jayega aur atmahatya hi mere liye ekmatr upay shesh rah jayega
hamlogon ke netr gile ho aaye mere mitr ne kaha, dewi! mujhse tum kisi prakar ka bhay na karo; ishwar mera sakshi hai
istri ne tab is prakar kahna arambh kiya –
yah khanDahar jo tum dekhte ho, aaj se 11 warsh poorw ek sundar gram tha adhikansh brahman kshatriyon ki ismen basti thi ye ghar jismen hum log baithe hain chandrashekhar mishr nami ek pratishthit aur kulin brahman ka niwas sthan tha ghar mein unki istri aur ek putr tha, is putr ke siwa unhen aur koi santan na thi aaj gyarah warsh hue ki mera wiwah isi chandrashekhar mishr ke putr ke sath hua tha
itna sunte hi mere mitr sahsa chaunk paDe, he parmeshwar! ye sab swapn hai ya pratyaksh? e shabd unke mukh se nikle hi the ki unki dasha wichitr ho gai unhonne apne ko bahut sambhala—aur phir sanbhalakar baithe, wo istri unka ye bhaw dekhkar wismit hui aur usne puchha, kyon, kya hai?
mere mitr ne winit bhaw se uttar diya, kuchh nahin, yunhi mujhe ek baat ka smarn aaya kripa karke aage kaho
istri ne phir kahna arambh kiya—mere pita ka ghar kashi mein muhalle mein tha wiwah ke ek warsh pashchat hi is gram mein ek bhayanak durghatna upasthit hui, yahin se mere durdamniy duhakh ka janm hua sandhya ko sab gramin apne apne kary se nishchint hokar apne apne gharon ko laute balkon ka kolahal band hua nidradewi ne graminon ke chinta shunya hridyon mein apna Dera jamaya aadhi raat se adhik beet chuki thi, kutte bhi thoDi der tak bhunkakar ant mein chup ho rahe the prakrti nistabdh hui, sahsa gram mein kolahal macha aur dhamake ke kai shabd hue log ankhen minchte uthe charpai ke niche pair dete hain to ghutne bhar pani mein khaDe!! kolahal sunkar bachche bhi jage ek dusre ka nam le lekar log chillane lage apne apne gharon mein se log bahar nikalkar khaDe hue bhagwati jahnawi ko dwar par bahte hue paya!! bhayanak wipatti! koi upay nahin jal ka weg kramshah adhik baDhne laga pair kathinta se thahrte the phir drishti uthakar dekha, jal hi jal dikhai diya ek ek karke sab samagriyan bahne lagin sanyogawash ek naw kuch door par aati dekh paDi asha! asha!! asha!!!
nauka i, log toot paDe aur balpurwak chaDhne ka yatn karne lage mallahon ne bhari wipatti sammukh dekhi naw par adhik bojh hone ke bhay se unhonne turant apni naw baDha di bahut se log rah gaye nauka pawanagati se gaman karne lagi nauka dusre kinare par lagi log utre chandrashekhar mishr bhi naw par se utre aur apne putr ka nam leke pukara koi uttar na mila unhonne apne sath hi use naw par chaDhaya tha, kintu bheeD bhaD naw par adhik hone ke karan wo unse prithak ho gaya tha mishrji bahut ghabraye aur turant naw lekar laute dekha, bahut se log rah gaye the, unse poochh tachh kiya kisi ne kuch pata na diya nirasha bhayankar roop dharan karke unke samne upasthit hui
sandhya ka samay tha, mere pita darwaze par baithe the sahsa mishr ji ghabraye hue aate dekh paDe unhonne aakar adyoprant purwollikhit ghatna kah sunai, aur turant unmatt ki bhanti wahan se chal diye log pukarte hi rah gaye we ek kshan bhi wahan na thahre tab se phir kabhi we dikhai na diye ishwar jane we kahan gaye! mere pita bhi dattchit hokar anusandhan karne lage unhonne suna ki gram ke bahut se log naw par chaDh chaDhkar idhar udhar bhag gaye hain isliye unhen aasha thi is prakar DhunDhate DhunDhate kai mas wyatit ho gaye ab tak we samachar ki pratiksha mein the aur unhen aasha thi, kintu ab unhen chinta hui chandrashekhar mishr ka bhi tab se kahin kuch samachar na mila jahan jahan mishr ji ka sambandh tha, mere pita swayan gaye; kintu charon or se nirash laute, kisi ka kuch anusandhan na laga ek warsh bita, do warsh bite, tisra warsh arambh hua pita bahut idhar udhar dauDe, ant mein ishwar aur bhagya ke upar chhoDkar baith rahe tisra warsh bhi wyatit ho gaya
meri awastha us samay 14 warsh ki ho chuki thi, ab tak to main nirbodh balika thi ab kramshah mujhe apni wastawik dasha ka gyan hone laga mera samay bhi aharnish isi chinta mein ab wyatit hone laga sharir din par din kshain hone laga mere dewtulya pita ne ye baat jani we sada mere duhakh bhulane ka yatn karte rahte the apne pas baithakar ramayan aadi ki katha sunaya karte the pita ab wriddh hone lage, diwaratri ki chinta ne unhen aur bhi wriddh bana diya ghar ke samast kary sampadan ka bhaar mere baDe bhai ke upar paDa unki istri ka swbhaw baDa kroor tha kuch din tak to kisi prakar chala ant mein wo mujhse Dah karne lagi aur kasht dena prarambh kiya, main chupchap sab sahn karti thi dhire dhire ashwas waky ke sthan par wo teekshn wachnon se mera chitt adhik duhkhane lagi yadi kabhi main apne bhai se niwedan karti to we bhi kuch na bolte, anakani kar jate aur mere pita ki, wriddhawastha ke karan, kuch nahin chal sakti thi mere duhakh ko samajhne wala wahan koi nahin dekh paDta tha meri mata ka pahile hi parlokawas ho chuka tha mujhe apni dasha par baDa duhakh hua ha! mera swami yadi is samay hota to kya meri yahi dasha hoti? pita ke ghar kya inhin wachnon dwara mera satkar kiya jata yahi sab wichar karke mera hirdai phatne lagta tha ab kramshah mera hirdai meghachchhann hone laga mujhe sansar shunya dikhai dene laga ekant mein baithkar main apni awastha par ashruwarshan karti usmen bhi ye bhay laga rahta ki kahin bhaujai na pahunch jaye ek din usne mujhe isi awastha mein paya to turant wyangya wachnon dwara ashwasan dene lagi mera shokartt hirdai agnishikha ki bhanti prajwalit ho utha; kintu maunawlamban ke siwa any upay hi kya tha? din din mujhe ye duhakh asahy hone laga ek ratri ko main uthi kisi se kuch na kaha aur suryoday ke pratham hi apne pita ka grih mainne parityag kiya
main ab ye nahin kah sakti ki us samay mera kya wichar tha mujhe ek ber apne pati ke sthan ko dekhne ki lalsa hui duhakh aur shok se meri dasha unmatt ki si ho gai thi sansar mein mainne drishti utha ke dekha to mujhe aur kuch na dikhlai diya kewal charon or duhakh! saikDon kathinaiyan jhelkar ant mein main is sthan tak aa pahunchi us samay meri awastha kewal 16 warsh ki thi mainne is sthan ko us samay bhi prayah isi dasha mein paya tha yahan aane par mujhe kai chinh aise mile, jinse mujhe ye nishchay ho gaya ki chandrashekhar mishr ka ghar yahi hai is sthan ko dekhkar mere aartt hirdai par baDa kathor adhat pahuncha
itna kahte kahte hirdai ke aaweg ne shabdon ko uske hirdai hi mein bandi kar rakha, bahar prakat hone na diya kshanaik paryant wo chup rahi, sir nicha kiye bhumi ki or dekhti rahi idhar mere mitr ki dasha kuch aur hi ho rahi thi, likhit chitr ki bhanti baithe we ektak tak rahe the, indriyan apna kary us samay bhool gai theen istri ne phir kahna arambh kiya –
is sthan ko dekh mera chitt bahut dagdh hua ha! yadi ishwar chahta to kisi din main isi grih ki swamini hoti aaj ishwar ne mujhko use is awastha mein dikhlaya uske aage kiska wash hai? anusandhan karne par mujhe do kothriyan milin jo sarwaprkar se rakshait aur manushya ki drishti se durbhedy theen lagbhag charon or mitti paD jane ke karan kisi ko unki sthiti ka sandeh nahin ho sakta tha mujhe bahut si samagriyan bhi inmen prapt huin jo meri tuchchh awashyakta ke anusar bahut theen mujhe ye nirjan sthan apne pita ke kashtagar se priytam pratit hua yahin mere pati ke balyawastha ke din wyatit hue the yahi sthan mujhe priy hai yahin main apne duhakhmay jiwan ka shesh bhag usi karunalay jagdishwar ki, jisne mujhe is awastha mein Dala, aradhana mein bitaungi yahi wichar mainne sthir kiya ishwar ko mainne dhanyawad diya, jisne aisa upyukt sthan mere liye DhunDhakar nikala kadachit tum puchhoge ki is abhagini ne apne liye is prakar ka jiwan kyon upyukt wichara? to uska uttar hai ki ye dusht sansar bhanti bhanti ki wasnaon se poorn hai, jo manushya ko uske saty path se wichlit kar deti hain dusht aur kumargi logon ke attyachar se bacha rahna bhi kathin kary hai
itna kahke wo istri thahar gari mere mitr ki or usne dekha we kuch minat tak kashthputtalika ki bhanti baithe rahe ant mein ek lambi thanDi sans bhar ke unhonne kaha, ishwar! ye swapn hai ya pratyaksh? istri unka ye bhaw dekh dekhkar wismit ho rahi thi usne puchha, kyon! kaisa chitt hai? mere mitr ne apne ko sambhala aur uttar diya, tumhari katha ka prabhaw mere chitt par bahut hua hai, kripa karke aage kaho
istri ne kaha, mujhe ab kuch kahna shesh nahin hai aaj panch warsh mujhe is sthan par aaye hue, sansar mein kisi manushya ko aaj tak ye prakat nahin hua yahan preton ke bhay se koi padarpan nahin karta, isse mujhe apne ko gopan rakhne mein wishesh kathinta nahin paDti sanyogawash ratri mein kisi ki drishti yadi mujh par paDi bhi to chuDail ke bhram se mere nikat tak aane ka kisi ko sahas na hua ye aaj pratham aisa sanyog upasthit hua hai, tumhare sahas ko main sarahati hoon aur pararthna karti hoon ki tum apne shapath par driDh rahoge sansar mein ab main prakat hona nahin chahti, prakat hone se meri baDi durdasha hogi main yahin apne pati ke sthan par apna jiwan shesh karna chahti hoon is sansar mein ab main bahut din na rahungi
mainne dekha, mere mitr ka chitt bhitar hi bhitar aakul aur santapt ho raha tha, hirdai ka weg rokkar unhonne parashn kiya, kyon! tumhein apne pati ka kuch smarn hai?
istri ke netron se anargal waridhara prwahit hui baDi kathintapurwak usne uttar diya, main us samay balika thi wiwah ke samay mainne unhen dekha tha wo murti yadyapi mere hirdai–mandir mein widyaman hai, prchanD kal bhi usko wahan se hatane mein asmarth hai
mere mitr ne kaha, dewi! tumne bahut kuch rahasy prakat kiya, jo kuch shesh hai uska warnan kar ab main is katha ki purti karta hoon
istri wismyotphull lochnon se mere mitr ki or niharne lagi main bhi ashchary se unhin ki or dekhne laga unhonne kahna arambh kiya—
is akhyayika mein yahi j~nat hona shesh hai ki chandrashekhar mishr ke putr ki kya dasha hui chandrashekhar mishr aur unki patni kya hue suno, naw par mishr ji ne apne putr ko apne sath hi baithaya naw par bheeD adhik ho jane ke karan wo unse prithak ho gaya unhonne samjha ki wo naw hi par hai, koi chinta nahin idhar manushyon ki dhakka mukki se wo laDka naw par se niche ja raha theek usi samay mallah ne naw khol di usne kai ber apne pita ko pukara; kintu logon ke kolahal mein unhen kuch sunai na diya naw chali gari balak wahin khaDa rah gaya aur log kisi prakar apna apna paran leke idhar udhar bhage niche bhayanak jalaprawah, upar anant akash laDke ne ek chhappar ko bahte hue apni or aate dekha, turant wo usi par baith gaya itne mein jal ka ek bahut uncha prabal jhonka aaya chhappar laDke sahit sheeghr gati se bahne laga wo chupchap murtiwat usi par baitha raha use ye dhyan nahin ki is prakar kai din tak wo bahta gaya wo bhay aur duwidha se sanj~nahin ho gaya tha sanyogawash ek wyapari ki naw, jis par rui ladi thi, purab ki or ja rahi thi nauka ka swami bhi bajre hi par tha uski drishti us laDke par paDi wo use naw par le gaya laDke ki awastha us samay mritapray thi anek yatn ke uprant wo hosh mein laya gaya us sajjan ne laDke ki naw par baDi sewa ki nauka barabar chalti rahi, beech mein kahin na ruki, kai dinon ke uprant kalkatte pahunchi
wah bangali sajjan us laDke ko apne ghar par le gaya aur use usne apne pariwar mein sammilit kiya balak ne apne mata pita ke dekhne ki ichha prakat ki usne use bahut samjhaya aur sheeghr anusandhan karne ka wachan diya laDka chup ho raha
isi prakar kai mas wyatit ho gaye kramshah wo apne pas ke logon mein hil mil gaya bangali mahashay ke ek putr tha donon mein bhratri–sneh sthapit ho gaya wo sajjan us laDke ke bhawi hit ki cheshta mein tatpar hua east india company ke sthapit kiye hue ek angrezi school mein apne putr ke sath sath use bhi wo shiksha dene laga kramshah use apne ghar ka dhyan kam hone laga wo dattachitt hokar shiksha mein apna sara samay dene laga isi beech kai warsh wyatit ho gaye uske chitt mein ab any prakar ke wicharon ne niwas kiya ab poorw parichit logon ke dhyan ke liye uske man mein kam sthan shesh raha manushya ka swbhaw hi is prakar ka hai nau warsh ka samay nikal gaya
isi beech mein ek baDi chittakarshak ghatna upasthit hui bangdeshi sajjan ke us putr ka wiwah hua chandrashekhar ka putr bhi us samay wahan upasthit tha usne sab dekha; dirghakal ki nidra bhang hui sahsa use dhyan ho aaya, ‘mera bhi wiwah hua hai, awashy hua hai ’ use apne wiwah ka barambar dhyan aane laga apni panigrhita bharya ka bhi use smarn hua swadesh mein lautne ko uska chitt aakul hone laga ratri din isi chinta mein wyatit hone lage
hamare katipay pathak hum par dosharopan karenge ki ‘hen! na kabhi sakshat hua, na wartalap hua, na lambi lambi kortship hui, ye prem kaisa?’ mahashay, rusht na hujiye is adrsht prem ka dharm aur kartawya se ghanisht sambandh hai iski utpatti kewal sadashay aur nihaswarth hirdai mein hi ho sakti hai iski jaD sansar ke aur prakar ke prachalit premon se driDhtar aur adhik prashast hai aapko santusht karne ko main itna aur kahe deta hoon ki england ke bhutapurw pradhanamantri lord bekansphilD ka bhi yahi mat tha
yuwak ka chitt adhik DanwaDol hone laga ek din usne us dewtulya sajjan purush se apne chitt ki awastha prakat ki aur bahut winay ke sath wida mangi aagya pakar usne swadesh ki or yatra ki, desh mein aane par use widit hua ki gram mein ab koi nahin hai usne logon se apne pita mata ke wishay mein puchhatachh kiya kuch thoDe din hue we donon is nagar mein the, aur ab we teerth sthanon mein deshatan kar rahe hain wo apni dharmpatni ke darshnon ki abhilasha se sidhe kashi gaya wahan tumhare pita ke ghar ka wo anusandhan karne laga bahut dinon ke pashchat tumhare jyeshth bhrata se uska sakshat hua, jisse tumhare sansar se sahsa lop ho jane ki baat j~nat hui wo nirash hokar sansar mein ghumne laga
itna kahkar mere mitr chup ho rahe idhar shesh bhag sunne ko hum logon ka chitt ub raha tha, ashchary se unhin ki or hum tak rahe the unhonne phir us istri ki or dekhkar kaha, kadachit tum puchhogi, ki is samay ab wo kahan hai? ye wahi abhaga manushya tumhare sammukh baitha hai
hum donon ke sharir mein bijli si dauD gari, wo istri bhumi par girne lagi, mere mitr ne dauDkar usko sambhala wo kisi prakar unhin ke sahare baithi kuch kshan ke uprant usne bahut dhime swar se mere mitr se kaha, apna hath dikhao
unhonne chat apna hath phaila diya, jis par ek kala til dikhai diya istri kuch kal tak usi ki or dekhti rahi, phir mukh Dhanpakar sir nicha karke baithi rahi lajja ka prawesh hua kyonki ye ek hindu ramni ka uske pati ke sath pratham sanyog tha
aj itne dinon ke uprant mere mitr ka gupt rahasy prakashit hua us ratri ko main apne mitr ka khanDahar mein atithi raha sawera hote hi hum sab log prasannachitt nagar mein aaye
din bhar baithe baithe mere sir mein piDa utpann hui main apne sthan se utha aur apne ek nae ekantwasi mitr ke yahan mainne jana wichara jakar mainne dekha to we dhyan magn sir nicha kiye hue kuch soch rahe the mujhe dekhkar kuch ashchary nahin hua; kyonki ye koi nai baat nahin thi unhen thoDe hi din purab se is desh mein aaye hua hai nagar mein unse mere siwa aur kisi se wishesh jaan pahichan nahin hai; aur na wo wisheshtah kisi se milte julte hi hain kewal mujhse mere bhagya se, we mitr bhaw rakhte hain udas to we har samay raha karte hain kai ber unse mainne is udasinata ka karan puchha bhee; kintu mainne dekha ki uske prakat karne mein unhen ek prakar ka duhakh sa hota hai, isi karan main wishesh puchhatachh nahin karta
mainne pas jakar kaha, mitr! aaj tum bahut udas jaan paDte ho chalo thoDi door tak ghoom awen chitt bahal jayega
we turant khaDe ho gaye aur kaha, chalo mitr, mera bhi yahi ji chahta hai main to tumhare yahan janewala tha
hum donon uthe aur nagar se poorw ki or ka marg liya bagh ke donon or ki krishai sampann bhumi ki shobha ka anubhaw karte aur hariyali ke wistrit rajy ka awlokan karte hum log chale din ka adhikansh abhi shesh tha, isse chitt ko sthirta thi pawas ki jarawastha thi, isse upar se bhi kisi prakar ke attyachar ki sambhawana na thi prastut ritu ki prashansa bhi hum donon beech beech mein karte jate the
aha! rituon mein udarta ka abhiman yahi kar sakta hai deen krishkon ko anndan aur suryatap tapt prithiwi ko wastrdan dekar yash ka bhagi yahi hota hai ise to kawiyon ki ‘kaunsil’ se ‘rayabhadur’ ki upadhi milani chahiye yadyapi pawas ki yuwawastha ka samay nahin hai, kintu uske yash ki dhwaja phahra rahi hai sthan sthan par prasann salil poorn tal yadyapi uski poorw udarta ka parichai de rahe hain
etadrish bhawon ki uljhan mein paDkar hum logon ka dhyan marg ki shuddhata ki or na raha hum log nagar se bahut door nikal gaye dekha to shanaih shanaih bhumi mein pariwartan lakshait hone laga; arunata mishrit pahaDi, retili bhumi, jangali ber makoy ki chhoti chhoti kantakmay jhaDiyan drishti ke antargat hone lagin ab hum logon ko jaan paDa ki hum dakshain ki or jhuke ja rahe hain sandhya bhi ho chali diwakar ki Dubti hui kirnon ki arun aabha jhaDiyon par paDne lagi idhar prachi ki or drishti gai; dekha to chandrdew pahle hi se sinhasnaruDh hokar ek pahaDi ke pichhe se jhank rahe the
ab hum log nahin kah sakte ki kis sthan par hain ek pagDanDi ke ashray ab tak hum log chal rahe the, jis par ugi hui ghas is baat ki shapath kha ke sakshi de rahi thi ki warshon se manushyon ke charn is or nahin paDe hain kuch door chalkar ye marg bhi trin sagar mein lupt ho gaya ‘is samay kya kartawya hai?’ chitt isi ke uttar ki pratiksha mein laga ant mein ye wichar sthir hua ki kisi khule sthan se charon or dekhkar ye gyan prapt ho sakta hai ki hum log amuk sthan par hain
daiwat sammukh hi unchi pahaDi dekh paDi, usi ko is kary ke upyukt sthan hum logon ne wichara jyon tyon karke pahaDi ke sikhar tak hum log gaye upar aate hi bhagwati janhu nandini ke darshan hue netr to saphal hue itne mein charuhasini chandrika bhi attahas karke khil paDi uttar poorw ki or drishti gai wichitr drishya sammukh upasthit hua jahnawi ke tat se kuch antar par niche maidan mein, bahut door, gire hue makanon ke Dher swachchh chandrika mein aspasht roop se dikhai diye
main sahsa chaunk paDa aur e shabd mere mukh se nikal paDe, kya ye wahi khanDahar hai jiske wishay mein yahan anek dantakthayen prachalit hain? charon or drishti uthakar dekhne se poorn roop se nishchay ho gaya ki ho na ho, ye wahi sthan hai jiske sambandh mein mainne bahut kuch suna hai mere mitr meri or takne lage mainne sankshaep mein us khanDahar ke wishay mein jo kuch suna tha, unse kah sunaya hum logon ke chitt mein kautuhal ki utpatti hui, usko nikat se dekhne ki prabal ichha ne marg gyan ki wyagrata ko hirdai se bahirgat kar diya uttar ki or utarna baDa dushkar pratit hua, kyonki jangali wrikshon aur kantakmay jhaDiyon se pahaDi ka wo bhag achchhadit tha poorw ki or se hum log sugamtapurwak niche utre yahan se khanDahar lagbhag DeDh meel pratit hota tha hum logon ne pairon ko usi or moDa, marg mein ghutnon tak ugi hui ghas pag pag par badha upasthit karne lagi, kintu adhik wilamb tak ye kasht hum logon ko bhogna na paDa, kyonki aage chalkar phute hue khapaDailon ki sitakiyan milne lagin, idhar udhar giri hui diwaren aur mitti ke Dhooh pratyaksh hone lage hum logon ne jana ki ab yahin se khanDahar ka arambh hai diwaron ki mitti se sthan kramshah uncha hota jata tha, jis par se hokar hum log nirbhay ja rahe the is nirbhayta ke liye hum log chandarma ke parkash ke bhi anugrhit hain sammukh hi ek dew mandir par drishti ja paDi, jiska kuch bhag to nasht ho gaya tha, kintu shesh prastar winirmit hone ke karan ab tak kroor kal ke akramn ko sahn karta aaya tha mandir ka dwar jyon ka tyon khaDa tha kiwaD sat gaye the bhitar bhagwan bhawanipati baithe nirjan kailash ka anand le rahe the, dwar par unka nandi baitha tha main to parnam karke wahan se hata, kintu dekha to hamare mitr baDe dhyan se khaDe ho, us mandir ki or dekh rahe hain aur man hi man kuch soch rahe hain mainne marg mein bhi kai ber lakshya kiya tha ki we kabhi kabhi thithak jate aur kisi wastu ko baDi sthir drishti se dekhne lagte main khaDa ho gaya aur pukarkar mainne kaha, kaho mitr! kya hai? kya dekh rahe ho?
meri boli sunte hi we jhat mere pas dauD aaye aur kaha, kuchh nahin, yunhi mandir dekhne lag gaya tha mainne phir to kuch na puchha, kintu apne mitr ke mukh ki or dekhta jata tha, jis par ki wismay yukt ek adbhut bhaw lakshait hota tha is samay khanDahar ke madhya bhag mein hum log khaDe the mera hirdai is sthan ko is awastha mein dekh widirn hone laga pratyek wastu se udasi baras rahi thi, is sansar ki anityata ki suchana mil rahi thi is karunotpadak drishya ka prabhaw mere hirdai par kis sima tak hua, shabdon dwara anubhaw karna asambhau hai
kahin saDe hue kiwaD bhumi par paDe prchanD kal ko sashtang danDwat kar rahe hain, jin gharon mein kisi aprichit ki parchhain paDne se kul ki maryada bhang hoti thi, we bhitar se bahar tak khule paDe hain rang birangi chuDiyon ke tukDe idhar udhar paDe kal ki mahima ga rahe hain mainne inmen se ek ko hath mein uthaya, uthate hi ye parashn upasthit hua ki we komal hath kahan hain jo inhen dharan karte the?
han! yahi sthan kisi samay nar nariyon ke aamod pramod se poorn raha hoga aur balkon ke kallol ki dhwani charon or se aati rahi hogi, wahi aaj karal kal ke kathor danton ke tale piskar chaknachur ho gaya hai! trinon se achchhadit giri hui diwaren, mitti aur inton ke Dhooh, tute phute chaukthe aur kiwaD idhar udhar paDe ek swar se mano pukar ke kah rahe the—‘dinan ko pher hot, meru hot mati ko’ pratyek parshw se mano yahi dhwani aa rahi thi mere hirdai mein karuna ka ek samudr umDa jismen mere wichar sab magn hone lage
main ek swachchh shila par, jiska kuch bhag to prithwital mein dhansa tha, aur sheshansh bahar tha, baith gaya mere mitr bhi aakar mere pas baithe main to baithe baithe kal chakr ki gati par wichar karne laga, mere mitr bhi kisi wichar hi mein Dube the, kintu main nahin kah sakta ki wo kya tha ye sundar sthan is shochaniy aur patit dasha ko kyonkar prapt hua, mere chitt mein to yahi parashn bar bar uthne laga; kintu uska santoshdayak uttar pradan karne wala wahan kaun tha? anuman ne yathasadhy prayatn kiya, parantu kuch phal na hua matha ghumne laga na jane kitne aur kis kis prakar ke wichar mere mastishk se hokar dauD gaye
hum log adhik wilamb tak is awastha mein na rahne pae ye kya? madhusudan! ye kaun sa drishya hai? jo kuch dekha, usse awak rah gaya! kuch door par ek shwet wastu isi khanDahar ki or aati dekh paDi! mujhe romanch ho aaya, sharir kanpne laga mainne apne mitr ko us or akarshait kiya aur ungli utha ke dikhaya parantu kahin kuch na dekh paDa, main sthapit murti ki bhanti baitha raha punah wahi drishya! abki bar jyotsnalok mein aspasht roop se hum logon ne dekha ki ek shwet parichchhad dharinai istri ek jal patr liye khanDahar ke ek parshw se hokar dusri or weg se nikal gai aur unhin khanDaharon ke beech phir na jane kahan antardhan ho gai is adrshtapurw wyapar ko dekh mere mastishk mein pasina aa gaya aur kai prakar ke bhram utpann hone lage widhata! teri sirishti mein na jane kitni adbhut–adbhut wastu manushya ki sookshm wichar drishti se wanchit paDi hain yadyapi mainne is sthan wishesh ke sambandh mein anek bhayanak wartayen sun rakhi theen, kintu mere hirdai par bhay ka wishesh sanchar na hua hum logon ko preton par bhi itna driDh wishwas na tha, nahin to hum donon ka ek kshan bhi us sthan par thaharna dushkar ho jata ratri bhi adhik wyatit hoti jati thi hum donon ko ab ye chinta hui ki ye istri kaun hai? iska uchit parishodh awashy lagana chahiye
hum donon apne sthan se uthe aur jis or wo istri jati hui dekh paDi thi usi or chale apne charon or pratyek sthan ko bhali prakar dekhte, hum log gire hue makanon ke bhitar ja ja ke shrrigalon ke swachchhand wihar mein badha Dalne lage abhi tak to kuch j~nat na hua ye baat to hum logon ke man mein nishchay ho gai thi ki ho na ho, wo istri khanDahar ke kisi gupt bhag mein gai hai giri hui diwaron ki mitti aur inton ke Dher se is samay hum log pariwrtt the bahy jagat ki koi wastu drishti ke antargat na thi hum logon ko jaan paDta tha ki kisi dusre sansar mein khaDe hain wastaw mein khanDahar ke ek bhayanak bhag mein is samay hum log khaDe the samne ek baDi inton ki diwar dekh paDi jo auron ki apeksha achchhi dasha mein thi ismen ek khula hua dwar tha isi dwar se hum donon ne ismen prawesh kiya bhitar ek wistrit angan tha jismen ber aur babul ke peD swachchhandtapurwak khaDe us sthan ko manushya jati sambandh se mukt suchit karte the ismen pair dharte hi mere mitr ki dasha kuch aur ho gai aur we chat bol uthe, mitr! mujhe aisa jaan paDta hai ki jaise mainne is sthan ko aur kabhi dekha ho, yahi nahin kah sakta, kab pratyek wastu yahan ki poorw parichit si jaan paDti hai main apne mitr ki or takne laga unhonne aage kuch na kaha mera chitt is sthan ke anusandhan karne ko mujhe baadhy karne laga idhar udhar dekha to ek or mitti paDte paDte diwar ki unchai ke ardhbhag tak wo pahunch gai thi is par se hokar hum donon diwar par chaDh gaye diwar ke niche dusre kinare mein chaturdik weshtit ek kothari dikhai di, main ismen utarne ka yatn karne laga baDi sawadhani se ek ubhDi hui int par pair rakhkar hum donon niche utar gaye ye kothari upar se bilkul khuli thi, isliye chandarma ka parkash ismen berok tok aa raha tha kothari ke dahini or ek dwar dikhai diya, jismen ek jeern kiwaD laga hua tha, hum logon ne nikat jakar kiwaD ko pichhe ki or dhire se dhakela to jaan paDa ki we bhitar se band hain
mere to pair kanpne lage punah sahas ko dharan kar hum logon ne kiwaD ke chhote chhote randhron se jhanka to ek prashast kothari dekh paDi ek kone mein mand mand ek pradip jal raha tha jiska parkash dwar tak na pahunchta tha yadi pradip usmen na hota to andhkar ke atirikt hum log aur kuch na dekh pate
hum log kuch kal tak sthir drishti se usi or dekhte rahe itne mein ek istri ki akriti dekh paDi jo hath mein kai chhote patr liye us kothari ke prakashit bhag mein i ab to kisi prakar ka sandeh na raha ek ber ichha hui ki kiwaD khatakhtayen, kintu kai baton ka wichar karke hum log thahar gaye jis prakar se hum log kothari mein aaye the, dhire dhire usi prakar nihshabd diwar se hokar phir angan mein aaye mere mitr ne kaha, iska shodh awashy lagao ki ye istri kaun hai? ant mein hum donon aaD mein, is aasha se ki kadachit wo phir bahar nikle, baithe rahe paun ghante ke lagbhag hum log isi prakar baithe rahe itne mein wahi shwetawsan dharinai istri angan mein sahsa aakar khaDi ho gai, hum logon ko ye dekhne ka samay na mila ki wo kis or se aari
uska apurw saundarya dekhkar hum log stambhit wa chakit rah gaye chandrika mein uske sarwang ki sudanrta aspasht jaan paDti thi gaur warn, sharir kinchit kshain aur abhushnon se sarwatha rahit, mukh uska, yadyapi us par udasinata aur shok ka sthari niwas lakshait hota tha, ek alaukik prashant kanti se dedipyaman ho raha tha saumyata uske ang ang se pradarshit hoti thi wo sakshat dewi jaan paDti thi
kuch kal tak kinkarttawyawimuDh hokar stabdh lochnon se usi or hum log dekhte rahe, ant mein hamne apne ko sambhala aur isi awsar ko apne karyopyukt wichara hum log apne sthan par se uthe aur turant us dewirupini ke sammukh hue wo dekhte hi weg se pichhe hati mere mitr ne giDgiDa ke kaha, dewi! Dhithai kshama karo mere bhrmon ka niwaran karo wo istri kshan bhar tak chup rahi, phir snigdh aur gambhir swar se boli, tum kaun ho aur kyon mujhe byarth kasht dete ho? iska uttar hi kya tha? mere mitr ne phir winit bhaw se kaha, dewi! mujhe baDa kautuhal hai – daya karke yahan ka sab rahasy kaho
is par usne udas swar se kaha, tum hamara parichai leke kya karoge? itna jaan lo ki mere saman abhagini is samay is prithwi manDal mein koi nahin hai
mere mitr se na raha gaya, hath joDkar unhonne phir niwedan kiya, dewi! apne writtant se mujhe parichit karo isi hetu hum logon ne itna sahas kiya hai main bhi tumhare hi saman dukhiya hoon mera is sansar mein koi nahin hai main apne mitr ka ye bhaw dekhkar chakit rah gaya
istri ne karun swar se kaha, tum mere netron ke sammukh bhula bhulaya mera duhakh phir upasthit karne ka agrah kar rahe ho achchha baitho
mere mitr nikat ke ek patthar par baith gaye main bhi unhin ke pas ja baitha kuch kal tak sab log chup rahe, ant mein wo istri boli—
iske pratham ki main apne writtant se tumhein parichit karun, tumhein shapathpurwak ye pratigya karni hogi ki tumhare siwa ye rahasy sansar mein aur kisi ke kanon tak na pahunche nahin to is sthan par rahna dushkar ho jayega aur atmahatya hi mere liye ekmatr upay shesh rah jayega
hamlogon ke netr gile ho aaye mere mitr ne kaha, dewi! mujhse tum kisi prakar ka bhay na karo; ishwar mera sakshi hai
istri ne tab is prakar kahna arambh kiya –
yah khanDahar jo tum dekhte ho, aaj se 11 warsh poorw ek sundar gram tha adhikansh brahman kshatriyon ki ismen basti thi ye ghar jismen hum log baithe hain chandrashekhar mishr nami ek pratishthit aur kulin brahman ka niwas sthan tha ghar mein unki istri aur ek putr tha, is putr ke siwa unhen aur koi santan na thi aaj gyarah warsh hue ki mera wiwah isi chandrashekhar mishr ke putr ke sath hua tha
itna sunte hi mere mitr sahsa chaunk paDe, he parmeshwar! ye sab swapn hai ya pratyaksh? e shabd unke mukh se nikle hi the ki unki dasha wichitr ho gai unhonne apne ko bahut sambhala—aur phir sanbhalakar baithe, wo istri unka ye bhaw dekhkar wismit hui aur usne puchha, kyon, kya hai?
mere mitr ne winit bhaw se uttar diya, kuchh nahin, yunhi mujhe ek baat ka smarn aaya kripa karke aage kaho
istri ne phir kahna arambh kiya—mere pita ka ghar kashi mein muhalle mein tha wiwah ke ek warsh pashchat hi is gram mein ek bhayanak durghatna upasthit hui, yahin se mere durdamniy duhakh ka janm hua sandhya ko sab gramin apne apne kary se nishchint hokar apne apne gharon ko laute balkon ka kolahal band hua nidradewi ne graminon ke chinta shunya hridyon mein apna Dera jamaya aadhi raat se adhik beet chuki thi, kutte bhi thoDi der tak bhunkakar ant mein chup ho rahe the prakrti nistabdh hui, sahsa gram mein kolahal macha aur dhamake ke kai shabd hue log ankhen minchte uthe charpai ke niche pair dete hain to ghutne bhar pani mein khaDe!! kolahal sunkar bachche bhi jage ek dusre ka nam le lekar log chillane lage apne apne gharon mein se log bahar nikalkar khaDe hue bhagwati jahnawi ko dwar par bahte hue paya!! bhayanak wipatti! koi upay nahin jal ka weg kramshah adhik baDhne laga pair kathinta se thahrte the phir drishti uthakar dekha, jal hi jal dikhai diya ek ek karke sab samagriyan bahne lagin sanyogawash ek naw kuch door par aati dekh paDi asha! asha!! asha!!!
nauka i, log toot paDe aur balpurwak chaDhne ka yatn karne lage mallahon ne bhari wipatti sammukh dekhi naw par adhik bojh hone ke bhay se unhonne turant apni naw baDha di bahut se log rah gaye nauka pawanagati se gaman karne lagi nauka dusre kinare par lagi log utre chandrashekhar mishr bhi naw par se utre aur apne putr ka nam leke pukara koi uttar na mila unhonne apne sath hi use naw par chaDhaya tha, kintu bheeD bhaD naw par adhik hone ke karan wo unse prithak ho gaya tha mishrji bahut ghabraye aur turant naw lekar laute dekha, bahut se log rah gaye the, unse poochh tachh kiya kisi ne kuch pata na diya nirasha bhayankar roop dharan karke unke samne upasthit hui
sandhya ka samay tha, mere pita darwaze par baithe the sahsa mishr ji ghabraye hue aate dekh paDe unhonne aakar adyoprant purwollikhit ghatna kah sunai, aur turant unmatt ki bhanti wahan se chal diye log pukarte hi rah gaye we ek kshan bhi wahan na thahre tab se phir kabhi we dikhai na diye ishwar jane we kahan gaye! mere pita bhi dattchit hokar anusandhan karne lage unhonne suna ki gram ke bahut se log naw par chaDh chaDhkar idhar udhar bhag gaye hain isliye unhen aasha thi is prakar DhunDhate DhunDhate kai mas wyatit ho gaye ab tak we samachar ki pratiksha mein the aur unhen aasha thi, kintu ab unhen chinta hui chandrashekhar mishr ka bhi tab se kahin kuch samachar na mila jahan jahan mishr ji ka sambandh tha, mere pita swayan gaye; kintu charon or se nirash laute, kisi ka kuch anusandhan na laga ek warsh bita, do warsh bite, tisra warsh arambh hua pita bahut idhar udhar dauDe, ant mein ishwar aur bhagya ke upar chhoDkar baith rahe tisra warsh bhi wyatit ho gaya
meri awastha us samay 14 warsh ki ho chuki thi, ab tak to main nirbodh balika thi ab kramshah mujhe apni wastawik dasha ka gyan hone laga mera samay bhi aharnish isi chinta mein ab wyatit hone laga sharir din par din kshain hone laga mere dewtulya pita ne ye baat jani we sada mere duhakh bhulane ka yatn karte rahte the apne pas baithakar ramayan aadi ki katha sunaya karte the pita ab wriddh hone lage, diwaratri ki chinta ne unhen aur bhi wriddh bana diya ghar ke samast kary sampadan ka bhaar mere baDe bhai ke upar paDa unki istri ka swbhaw baDa kroor tha kuch din tak to kisi prakar chala ant mein wo mujhse Dah karne lagi aur kasht dena prarambh kiya, main chupchap sab sahn karti thi dhire dhire ashwas waky ke sthan par wo teekshn wachnon se mera chitt adhik duhkhane lagi yadi kabhi main apne bhai se niwedan karti to we bhi kuch na bolte, anakani kar jate aur mere pita ki, wriddhawastha ke karan, kuch nahin chal sakti thi mere duhakh ko samajhne wala wahan koi nahin dekh paDta tha meri mata ka pahile hi parlokawas ho chuka tha mujhe apni dasha par baDa duhakh hua ha! mera swami yadi is samay hota to kya meri yahi dasha hoti? pita ke ghar kya inhin wachnon dwara mera satkar kiya jata yahi sab wichar karke mera hirdai phatne lagta tha ab kramshah mera hirdai meghachchhann hone laga mujhe sansar shunya dikhai dene laga ekant mein baithkar main apni awastha par ashruwarshan karti usmen bhi ye bhay laga rahta ki kahin bhaujai na pahunch jaye ek din usne mujhe isi awastha mein paya to turant wyangya wachnon dwara ashwasan dene lagi mera shokartt hirdai agnishikha ki bhanti prajwalit ho utha; kintu maunawlamban ke siwa any upay hi kya tha? din din mujhe ye duhakh asahy hone laga ek ratri ko main uthi kisi se kuch na kaha aur suryoday ke pratham hi apne pita ka grih mainne parityag kiya
main ab ye nahin kah sakti ki us samay mera kya wichar tha mujhe ek ber apne pati ke sthan ko dekhne ki lalsa hui duhakh aur shok se meri dasha unmatt ki si ho gai thi sansar mein mainne drishti utha ke dekha to mujhe aur kuch na dikhlai diya kewal charon or duhakh! saikDon kathinaiyan jhelkar ant mein main is sthan tak aa pahunchi us samay meri awastha kewal 16 warsh ki thi mainne is sthan ko us samay bhi prayah isi dasha mein paya tha yahan aane par mujhe kai chinh aise mile, jinse mujhe ye nishchay ho gaya ki chandrashekhar mishr ka ghar yahi hai is sthan ko dekhkar mere aartt hirdai par baDa kathor adhat pahuncha
itna kahte kahte hirdai ke aaweg ne shabdon ko uske hirdai hi mein bandi kar rakha, bahar prakat hone na diya kshanaik paryant wo chup rahi, sir nicha kiye bhumi ki or dekhti rahi idhar mere mitr ki dasha kuch aur hi ho rahi thi, likhit chitr ki bhanti baithe we ektak tak rahe the, indriyan apna kary us samay bhool gai theen istri ne phir kahna arambh kiya –
is sthan ko dekh mera chitt bahut dagdh hua ha! yadi ishwar chahta to kisi din main isi grih ki swamini hoti aaj ishwar ne mujhko use is awastha mein dikhlaya uske aage kiska wash hai? anusandhan karne par mujhe do kothriyan milin jo sarwaprkar se rakshait aur manushya ki drishti se durbhedy theen lagbhag charon or mitti paD jane ke karan kisi ko unki sthiti ka sandeh nahin ho sakta tha mujhe bahut si samagriyan bhi inmen prapt huin jo meri tuchchh awashyakta ke anusar bahut theen mujhe ye nirjan sthan apne pita ke kashtagar se priytam pratit hua yahin mere pati ke balyawastha ke din wyatit hue the yahi sthan mujhe priy hai yahin main apne duhakhmay jiwan ka shesh bhag usi karunalay jagdishwar ki, jisne mujhe is awastha mein Dala, aradhana mein bitaungi yahi wichar mainne sthir kiya ishwar ko mainne dhanyawad diya, jisne aisa upyukt sthan mere liye DhunDhakar nikala kadachit tum puchhoge ki is abhagini ne apne liye is prakar ka jiwan kyon upyukt wichara? to uska uttar hai ki ye dusht sansar bhanti bhanti ki wasnaon se poorn hai, jo manushya ko uske saty path se wichlit kar deti hain dusht aur kumargi logon ke attyachar se bacha rahna bhi kathin kary hai
itna kahke wo istri thahar gari mere mitr ki or usne dekha we kuch minat tak kashthputtalika ki bhanti baithe rahe ant mein ek lambi thanDi sans bhar ke unhonne kaha, ishwar! ye swapn hai ya pratyaksh? istri unka ye bhaw dekh dekhkar wismit ho rahi thi usne puchha, kyon! kaisa chitt hai? mere mitr ne apne ko sambhala aur uttar diya, tumhari katha ka prabhaw mere chitt par bahut hua hai, kripa karke aage kaho
istri ne kaha, mujhe ab kuch kahna shesh nahin hai aaj panch warsh mujhe is sthan par aaye hue, sansar mein kisi manushya ko aaj tak ye prakat nahin hua yahan preton ke bhay se koi padarpan nahin karta, isse mujhe apne ko gopan rakhne mein wishesh kathinta nahin paDti sanyogawash ratri mein kisi ki drishti yadi mujh par paDi bhi to chuDail ke bhram se mere nikat tak aane ka kisi ko sahas na hua ye aaj pratham aisa sanyog upasthit hua hai, tumhare sahas ko main sarahati hoon aur pararthna karti hoon ki tum apne shapath par driDh rahoge sansar mein ab main prakat hona nahin chahti, prakat hone se meri baDi durdasha hogi main yahin apne pati ke sthan par apna jiwan shesh karna chahti hoon is sansar mein ab main bahut din na rahungi
mainne dekha, mere mitr ka chitt bhitar hi bhitar aakul aur santapt ho raha tha, hirdai ka weg rokkar unhonne parashn kiya, kyon! tumhein apne pati ka kuch smarn hai?
istri ke netron se anargal waridhara prwahit hui baDi kathintapurwak usne uttar diya, main us samay balika thi wiwah ke samay mainne unhen dekha tha wo murti yadyapi mere hirdai–mandir mein widyaman hai, prchanD kal bhi usko wahan se hatane mein asmarth hai
mere mitr ne kaha, dewi! tumne bahut kuch rahasy prakat kiya, jo kuch shesh hai uska warnan kar ab main is katha ki purti karta hoon
istri wismyotphull lochnon se mere mitr ki or niharne lagi main bhi ashchary se unhin ki or dekhne laga unhonne kahna arambh kiya—
is akhyayika mein yahi j~nat hona shesh hai ki chandrashekhar mishr ke putr ki kya dasha hui chandrashekhar mishr aur unki patni kya hue suno, naw par mishr ji ne apne putr ko apne sath hi baithaya naw par bheeD adhik ho jane ke karan wo unse prithak ho gaya unhonne samjha ki wo naw hi par hai, koi chinta nahin idhar manushyon ki dhakka mukki se wo laDka naw par se niche ja raha theek usi samay mallah ne naw khol di usne kai ber apne pita ko pukara; kintu logon ke kolahal mein unhen kuch sunai na diya naw chali gari balak wahin khaDa rah gaya aur log kisi prakar apna apna paran leke idhar udhar bhage niche bhayanak jalaprawah, upar anant akash laDke ne ek chhappar ko bahte hue apni or aate dekha, turant wo usi par baith gaya itne mein jal ka ek bahut uncha prabal jhonka aaya chhappar laDke sahit sheeghr gati se bahne laga wo chupchap murtiwat usi par baitha raha use ye dhyan nahin ki is prakar kai din tak wo bahta gaya wo bhay aur duwidha se sanj~nahin ho gaya tha sanyogawash ek wyapari ki naw, jis par rui ladi thi, purab ki or ja rahi thi nauka ka swami bhi bajre hi par tha uski drishti us laDke par paDi wo use naw par le gaya laDke ki awastha us samay mritapray thi anek yatn ke uprant wo hosh mein laya gaya us sajjan ne laDke ki naw par baDi sewa ki nauka barabar chalti rahi, beech mein kahin na ruki, kai dinon ke uprant kalkatte pahunchi
wah bangali sajjan us laDke ko apne ghar par le gaya aur use usne apne pariwar mein sammilit kiya balak ne apne mata pita ke dekhne ki ichha prakat ki usne use bahut samjhaya aur sheeghr anusandhan karne ka wachan diya laDka chup ho raha
isi prakar kai mas wyatit ho gaye kramshah wo apne pas ke logon mein hil mil gaya bangali mahashay ke ek putr tha donon mein bhratri–sneh sthapit ho gaya wo sajjan us laDke ke bhawi hit ki cheshta mein tatpar hua east india company ke sthapit kiye hue ek angrezi school mein apne putr ke sath sath use bhi wo shiksha dene laga kramshah use apne ghar ka dhyan kam hone laga wo dattachitt hokar shiksha mein apna sara samay dene laga isi beech kai warsh wyatit ho gaye uske chitt mein ab any prakar ke wicharon ne niwas kiya ab poorw parichit logon ke dhyan ke liye uske man mein kam sthan shesh raha manushya ka swbhaw hi is prakar ka hai nau warsh ka samay nikal gaya
isi beech mein ek baDi chittakarshak ghatna upasthit hui bangdeshi sajjan ke us putr ka wiwah hua chandrashekhar ka putr bhi us samay wahan upasthit tha usne sab dekha; dirghakal ki nidra bhang hui sahsa use dhyan ho aaya, ‘mera bhi wiwah hua hai, awashy hua hai ’ use apne wiwah ka barambar dhyan aane laga apni panigrhita bharya ka bhi use smarn hua swadesh mein lautne ko uska chitt aakul hone laga ratri din isi chinta mein wyatit hone lage
hamare katipay pathak hum par dosharopan karenge ki ‘hen! na kabhi sakshat hua, na wartalap hua, na lambi lambi kortship hui, ye prem kaisa?’ mahashay, rusht na hujiye is adrsht prem ka dharm aur kartawya se ghanisht sambandh hai iski utpatti kewal sadashay aur nihaswarth hirdai mein hi ho sakti hai iski jaD sansar ke aur prakar ke prachalit premon se driDhtar aur adhik prashast hai aapko santusht karne ko main itna aur kahe deta hoon ki england ke bhutapurw pradhanamantri lord bekansphilD ka bhi yahi mat tha
yuwak ka chitt adhik DanwaDol hone laga ek din usne us dewtulya sajjan purush se apne chitt ki awastha prakat ki aur bahut winay ke sath wida mangi aagya pakar usne swadesh ki or yatra ki, desh mein aane par use widit hua ki gram mein ab koi nahin hai usne logon se apne pita mata ke wishay mein puchhatachh kiya kuch thoDe din hue we donon is nagar mein the, aur ab we teerth sthanon mein deshatan kar rahe hain wo apni dharmpatni ke darshnon ki abhilasha se sidhe kashi gaya wahan tumhare pita ke ghar ka wo anusandhan karne laga bahut dinon ke pashchat tumhare jyeshth bhrata se uska sakshat hua, jisse tumhare sansar se sahsa lop ho jane ki baat j~nat hui wo nirash hokar sansar mein ghumne laga
itna kahkar mere mitr chup ho rahe idhar shesh bhag sunne ko hum logon ka chitt ub raha tha, ashchary se unhin ki or hum tak rahe the unhonne phir us istri ki or dekhkar kaha, kadachit tum puchhogi, ki is samay ab wo kahan hai? ye wahi abhaga manushya tumhare sammukh baitha hai
hum donon ke sharir mein bijli si dauD gari, wo istri bhumi par girne lagi, mere mitr ne dauDkar usko sambhala wo kisi prakar unhin ke sahare baithi kuch kshan ke uprant usne bahut dhime swar se mere mitr se kaha, apna hath dikhao
unhonne chat apna hath phaila diya, jis par ek kala til dikhai diya istri kuch kal tak usi ki or dekhti rahi, phir mukh Dhanpakar sir nicha karke baithi rahi lajja ka prawesh hua kyonki ye ek hindu ramni ka uske pati ke sath pratham sanyog tha
aj itne dinon ke uprant mere mitr ka gupt rahasy prakashit hua us ratri ko main apne mitr ka khanDahar mein atithi raha sawera hote hi hum sab log prasannachitt nagar mein aaye
स्रोत :
पुस्तक : इंदुमती व हिन्दी की अन्य पहली-पहली कहानियाँ (पृष्ठ 92)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।