खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुँची तो पौ फट रही थी। दूर-दूर आसमान के पर्दे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े उतारकर एक ओर रखे और 'श्री...राम, श्री...राम' करती पानी में हो ली। अंजलि भरकर सूर्य देवता को नमस्कार किया, अपनी उनींदी आँखों पर छींटे दिए और पानी से लिपट गई!
चनाब का पानी आज भी पहले-सा ही सर्द था, लहरें लहरों को चूम रही थीं। वह दूर—सामने कश्मीर की पहाड़ियों से बर्फ़ पिघल रही थी। उछल-उछल आते पानी के भँवरों से टकराकर कगारे गिर रहे थे, लेकिन दूर-दूर तक बिछी रेत आज न जाने क्यों ख़ामोश लगती थी! शाहनी ने कपड़े पहने, इधर-उधर देखा, कहीं किसी की परछाई तक न थी। पर नीचे रेत में अगणित पाँवों के निशान थे। वह कुछ सहम-सी उठी!
आज इस प्रभात की मीठी नीरवता में न जाने क्यों कुछ भयावना-सा लग रहा है। वह पिछले पचास वर्षों से यहाँ नहाती आ रही है। कितना लंबा अरसा है! शाहनी सोचती है, एक दिन इसी दुरिया के किनारे वह दुलहिन बनकर उतरी थी। और आज...आज शाहजी नहीं, उसका वह पढ़ा-लिखा लड़का नहीं, आज वह अकेली है, शाहजी की लंबी-चौड़ी हवेली में अकेली है। पर नहीं—यह क्या सोच रही है वह सवेरे-सवेरे! अभी भी दुनियादारी से मन नहीं फिरा उसका! शाहनी ने लंबी साँस ली और 'श्री राम, श्री राम', करती बाजरे के खेतों से होती घर की राह ली। कहीं-कहीं लिपे-पुते आँगनों पर से धुआँ उठ रहा था। टन टन—बैलों, की घंटियाँ बज उठती हैं। फिर भी...फिर भी...कुछ बँधा-बँधा-सा लग रहा है। 'जम्मीवाला' कुआँ भी आज नहीं चल रहा। ये शाहजी की ही असामियाँ हैं। शाहनी ने नज़र उठाई। यह मीलों फैले खेत अपने ही हैं। भरी-भराई नई फ़सल को देखकर शाहनी किसी अपनत्व के मोह में भीग गई। यह सब शाहजी की बरक़तें हैं। दूर-दूर गाँवों तक फैली हुई ज़मीनें, ज़मीनों में कुएँ—सब अपने हैं। साल में तीन फ़सल, ज़मीन तो सोना उगलती है। शाहनी कुएँ की और बढ़ी, आवाज़ दी, “शेरे, शेरे, हुसैना हुसैना...।”
शेरा शाहनी का स्वर पहचानता है। वह न पहचानेगा! अपनी माँ जैना के मरने के बाद वह शाहनी के पास ही पलकर बड़ा हुआ। उसने पास पड़ा गँडासा ‘शटाले’ के ढेर के नीचे सरका दिया। हाथ में हुक्का पकड़कर बोला, “ऐ हुसैना-हुसैना...” शाहनी की आवाज़ उसे कैसे हिला गई है! अभी तो वह सोच रहा था कि उस शाहनी की ऊँची हवेली की अँधेरी कोठरी में पड़ी सोने-चाँदी की संदूक़चियाँ उठाकर—कि तभी 'शेरे शेरे' शेरा ग़ुस्से से भर गया। किस पर निकाले अपना क्रोध? शाहनी पर! चीख़कर बोला “ऐ मर गईं क्या। रब्ब तुम्हें मौत दे...।”
हुसैना आटेवाली कनाली एक ओर रख, जल्दी-जल्दी बाहर निकल आई—“आती हूँ, आती हूँ—क्यों छा वेले (सुबह-सुबह) तड़पता एँ?”
अब तक शाहनी नज़दीक पहुँच चुकी थी। शेरे की तेज़ी सुन चुकी थी। प्यार से बोली, “हुसैना, यह वक़्त लड़ने का है? वह पागल है तो तू ही जिगरा कर लिया कर।”
“जिगरा!” हुसैना ने मान भरे स्वर में कहा, शाहनी, लड़का आख़िर लड़का ही है। कभी शेरे से भी पूछा है कि मुँह अँधेरे ही क्यों गालियाँ बरसाई हैं इसने?” शाहनी ने लाड़ से हुसैना की पीठ पर हाथ फेरा, हँसकर बोली, “पगली मुझे तो लड़के से बहू प्यारी है! शेरे”
“हाँ शाहनी!”
“मालूम होता है, रात को कुल्लूवाल के लोग आए हैं यहाँ?” शाहनी ने गंभीर स्वर में कहा।
शेरे ने ज़रा रुककर, घबराकर कहा, “नहीं—शाहनी...” शेरे के उत्तर की अनसुनी कर शाहनी ज़रा चिंतित स्वर से बोली, “जो कुछ भी हो रहा है, अच्छा नहीं। शेरे, आज शाहजी होते तो शायद कुछ बीच-बचाव करते। पर...” शाहनी कहते-कहते रुक गई। आज क्या हो रहा है। शाहनी को लगा जैसे जी भर-भर आ रहा है। शाहजी को बिछुड़े कई साल बीत गए, पर—पर आज कुछ पिघल रहा है—शायद पिछली स्मृतियाँ...आँसुओं को रोकने के प्रयत्न में उसने हुसैना की ओर देखा और हल्के-से हँस पड़ी। और शेरा सोच ही रहा है, क्या कह रही है शाहनी आज! आज शाहनी क्या, कोई भी कुछ नहीं कर सकता। यह होके रहेगा—क्यों न हो? हमारे ही भाई-बंदों से सूद ले-लेकर शाहजी सोने की बोरियाँ तोला करते थे। प्रतिहिंसा की आग शेरे की आँखों में उतर आई। गँड़ासे की याद हो आई। शाहनी की ओर देखा—नहीं-नहीं, शेरा इन पिछले दिनों में तीस-चालीस क़त्ल कर चुका था। पर वह ऐसा नीच नहीं... सामने बैठी शाहनी नहीं, शाहनी के हाथ उसकी आँखों में तैर गए। वह सर्दियों की रातें—कभी-कभी शाहजी की डाँट खाके वह हवेली में पड़ा रहता था। और फिर लालटेन की रोशनी में वह देखता है, शाहनी के ममता-भरे हाथ दूध का कटोरा थामे हुए ‘शेरे-शेरे, उठ, पी ले।‘ शेरे ने शाहनी के झुर्रियाँ पड़े मुँह की ओर देखा तो शाहनी धीरे-से मुस्करा रही थी। शेरा विचलित हो गया—'आख़िर शाहनी ने क्या बिगाड़ा है हमारा? शाहजी की बात शाहजी के साथ गई, वह शाहनी को ज़रूर बचाएगा। लेकिन कल रात वाला मशवरा! वह कैसे मान गया था फिरोज़ की बात! ’सब कुछ ठीक हो जाएगा...सामान बाँट लिया जाएगा!’
“शाहनी चलो तुम्हें घर तक छोड़ आऊँ!”
शाहनी उठ खड़ी हुई। किसी गहरी सोच में चलती हुई शाहनी के पीछे-पीछे मज़बूत क़दम उठाता शेरा चल रहा है। शंकित-सा-इधर उधर देखता जा रहा है। अपने साथियों की बातें उसके कानों में गूँज रही हैं। पर क्या होगा शाहनी को मारकर?
“शाहनी!”
“हाँ शेरे।”
शेरा चाहता है कि सिर पर आने वाले ख़तरे की बात कुछ तो शाहनी को बता दे, मगर वह कैसे कहे?”
“शाहनी”
शाहनी ने सिर ऊँचा किया। आसमान धुएँ से भर गया था। “शेरे”
शेरा जानता है यह आग है। जबलपुर में आज आग लगनी थी लग गई! शाहनी कुछ न कह सकी। उसके नाते रिश्ते सब वहीं हैं।
हवेली आ गई। शाहनी ने शून्य मन से ड्योढ़ी में क़दम रखा। शेरा कब लौट गया उसे कुछ पता नहीं। दुर्बल-सी देह और अकेली, बिना किसी सहारे के! न जाने कब तक वहीं पड़ी रही शाहनी। दुपहर आई और चली गई। हवेली खुली पड़ी है। आज शाहनी नहीं उठ पा रही। जैसे उसका अधिकार आज स्वयं ही उससे छूट रहा है! शाहजी के घर की मालकिन...लेकिन नहीं, आज मोह नहीं हो रहा। मानो पत्थर हो गई हो। पड़े-पड़े साँझ हो गई, पर उठने की बात फिर भी नहीं सोच पा रही। अचानक रसूली की आवाज़ सुनकर चौंक उठी।
“शाहनी-शाहनी, सुनो ट्रकें आती हैं लेने?”
“ट्रके...?” शाहनी इसके सिवाय और कुछ न कह सकी। हाथों ने एक-दूसरे को थाम लिया। बात-की-बात में ख़बर गाँव भर में फैल गई। लाह बीबी ने अपने विकृत कंठ से कहा, शाहनी, “आज तक कभी ऐसा न हुआ, न कभी सुना। ग़ज़ब हो गया, अँधेर पड़ गया।”
शाहनी मूर्तिवत् वहीं खड़ी रही। नवाब बीबी ने स्नेह-सनी उदासी से कहा, “शाहनी, हमने तो कभी न सोचा था!”
शाहनी क्या कहे कि उसी ने ऐसा सोचा था। नीचे से पटवारी बेगू और जैलदार की बातचीत सुनाई दी। शाहनी समझी कि वक़्त आन पहुँचा। मशीन की तरह नीचे उतरी, पर ड्योढ़ी न लाँघ सकी। किसी गहरी, बहुत गहरी आवाज़ से पूछा” कौन? कौन हैं वहाँ?”
कौन नहीं है आज वहाँ? सारा गाँव है, जो उसके इशारे पर नाचता था कभी। उसकी असामियाँ हैं जिन्हें उसने अपने नाते-रिश्तों से कभी कम नहीं समझा। लेकिन नहीं, आज उसका कोई नहीं, आज वह अकेली है! यह भीड़-की-भीड़, उनमें कुल्लूवाल के जाट। वह क्या सुबह ही न समझ गई थी?
बेगू पटवारी और मसीत के मुल्ला इस्माइल ने जाने क्या सोचा। शाहनी के निकट आ खड़े हुए। बेगू आज शाहनी की ओर देख नहीं पा रहा। धीरे-से ज़रा गला साफ़ करते हुए कहा, ‘शाहनी, रब्ब को यही मंजूर था।’
शाहनी के क़दम डोल गए। चक्कर आया और दीवार के साथ लग गई। इसी दिन के लिए छोड़ गए थे शाहजी उसे? बेजान-सी शाहनी की ओर देखकर बेगू सोच रहा है, क्या गुज़र रही है शाहनी पर! मगर क्या हो सकता है! सिक्का बदल गया है...
शाहनी का घर से निकलना छोटी-सी-बात नहीं। गाँव-का-गाँव खड़ा है हवेली के दरवाज़े से लेकर उस दारे तक जिसे शाहजी ने अपने पुत्र की शादी में बनवा दिया था। गाँव के सब फ़ैसले, सब मशविरे यहीं होते रहें हैं। इस बड़ी हवेली को लूट लेने की बात भी यहीं सोची गई थी! यह नहीं कि शाहनी कुछ न जानती हो। वह जानकर भी अनजान बनी रही। उसने कभी बैर नहीं जाना। किसी का बुरा नहीं किया। लेकिन बूढ़ी शाहनी यह नहीं जानती कि सिक्का बदल गया है...
देर हो रही थी। थानेदार दाऊद ख़ाँ ज़रा अकड़कर आगे आया और ड्योढ़ी पर खड़ी जड़ निर्जीव छाया को देखकर ठिठक गया! वही शाहनी है जिसके शाहजी उसके लिए दरिया के किनारे खेमे लगवा दिया करते थे। यह तो वही शाहनी है जिसने उसकी मँगेतर को सोने के कनफूल दिए थे मुँह दिखाई में। अभी उसी दिन जब वह ‘लीग’ के सिलसिले में आया था तो उसने उद्दंडता से कहा था, 'शाहनी, भागोवाल मसीत बनेगी, तीन सौ रुपया देना पड़ेगा।' शाहनी ने अपने उसी सरल स्वभाव से तीन सौ रुपए दिए थे। और आज...?
“शाहनी!” दाऊद खाँ ने आवाज़ दी। वह थानेदार है, नहीं तो उसका उसका स्वर शायद आँखों में उतर आता।
शाहनी गुम-सुम, कुछ न बोल पाई।
“शाहनी!” ड्योढ़ी के निकट जाकर बोला, “देर हो रही है शाहनी। (धीरे-से) कुछ साथ रखना हो तो रख लो। कुछ साथ बाँध लिया है? सोना-चाँदी।”
शाहनी अस्फुट स्वर से बोली, “सोना-चाँदी!” ज़रा ठहरकर सादगी से कहा, “सोना-चाँदी! बच्चा वह सब तुम लोगों के लिए है। मेरा सोना तो एक-एक ज़मीन में बिछा है।”
दाऊद ख़ाँ लज्जित-सा हो गया।—“शाहनी, तुम अकेली हो, अपने पास कुछ होना ज़रूरी है। कुछ नक़दी ही रख लो। वक़्त का कुछ पता नहीं...।”
“वक़्त?” शाहनी अपनी गीली आँखों से हँस पड़ी—“दाऊद ख़ाँ, इससे अच्छा वक़्त देखने के लिए क्या मैं ज़िंदा रहूँगी!” किसी गहरी वेदना और तिरस्कार से कह दिया शाहनी ने।
दाऊद ख़ाँ निरुत्तर है। साहस कर बोला, “शाहनी, ...कुछ नक़दी ज़रूरी है।”
“नहीं बच्चा, मुझे इस घर से” शाहनी—का गला रुंध गया—“नक़दी प्यारी नहीं। यहाँ की नक़दी यहीं रहेगी।”
शेरा आन खड़ा हुआ पास। दूर खड़े-खड़े उसने दाउद खाँ को शाहनी के पास देखा तो शक गुज़रा कि हो ना हो कुछ मार रहा है शाहनी से। “ख़ाँ साहिब देर हो रही है...”
शाहनी चौंक पड़ी। देर—मेरे घर में मुझे देर! आँसुओं की भँवर में न जाने कहाँ से विद्रोह उमड़ पड़ा। मैं पुरखों के इस बड़े घर की रानी और यह मेरे ही अन्न पर पले हुए...नहीं, यह सब कुछ नहीं। ठीक है—देर हो रही है। देर हो रही है। शाहनी के कानो में जैसे यही गूँज रहा है—देर हो रही है—पर नहीं, शाहनी रो-रोकर नहीं, शान से निकलेगी इस पुरखों के घर से, मान से लाँघेगी यह देहरी, जिस पर एक दिन वह रानी बनकर आ खड़ी हुई थी। अपने लड़खड़ाते क़दमों को सँभालकर शाहनी ने दुपट्टे से आँखें पोछीं और ड्योढ़ी से बाहर हो गई। बड़ी-बूढ़ियाँ रो पड़ीं। उनके दुःख सुख की साथिन आज इस घर से निकल पड़ी है। किसकी तुलना हो सकती थी इसके साथ! ख़ुदा ने सब कुछ दिया था, मगर—मगर दिन बदले, वक़्त बदले...
शाहनी ने दुपट्टे से सिर ढाँपकर अपनी धुँधली आँखों में से हवेली को अंतिम बार देखा। शाहजी के मरने के बाद भी जिस कुल की अमानत को उसने सहेजकर रखा, आज वह उसे धोखा दे गई। शाहनी ने दोनों हाथ जोड़ लिए—यही अंतिम दर्शन था, यही अंतिम प्रणाम था। शाहनी की आँखें फिर कभी इस ऊँची हवेली को न देखी पाएँगी। प्यार ने ज़ोर मारा—सोचा, एक बार घूम-फिरकर पूरा घर क्यों न देख आई मैं? जी छोटा हो रहा है, पर जिनके सामने हमेशा बड़ी बनी रही है उनके सामने वह छोटी न होगी। इतना ही ठीक है। सब हो चुका। सिर झुकाया। ड्योढ़ी के आगे कुलवधू की आँखों से निकलकर कुछ बूँदें चू पड़ीं। शाहनी चल दी—ऊँचा-सा भवन पीछे खड़ा रह गया। दाऊद ख़ाँ, शेरा, पटवारी, जैलदार और छोटे-बड़े, बच्चे-बूढ़े-मर्द औरतें सब पीछे-पीछे।
ट्रकें अब तक भर चुकी थीं। शाहनी अपने को खींच रही थी। गाँववालों के गलों में जैसे धुआँ उठ रहा है। शेरे, ख़ूनी शेरे का दिल टूट रहा है। दाऊद ख़ाँ ने आगे बढ़कर ट्रक का दरवाज़ा खोला। शाहनी बढ़ी। इस्माइल ने आगे बढ़कर भारी आवाज़ से कहा, “शाहनी, कुछ कह जाओ। तुम्हारे मुँह से निकली आसीस झूठ नहीं हो सकती।” और अपने साफ़े से आँखों का पानी पोंछ लिया। शाहनी ने उठती हुई हिचकी को रोककर रुंधे-रुंधे से कहा,”रब्ब तुम्हें सलामत रक्खे बच्चा, ख़ुशियाँ बक्शे...।”
वह छोटा-सा जनसमूह रो दिया। ज़रा भी दिल में मैल नहीं शाहनी के। और हम—हम शाहनी को नहीं रख सके। शेरे ने बढ़कर शाहनी के पाँव छुए—“शाहनी, कोई कुछ नहीं कर सका, राज ही पलट गया।” शाहनी ने काँपता हुआ हाथ शेरे के सिर पर रखा और रुक-रुककर कहा, “तुम्हें भाग लगे चन्ना।” दाऊद ख़ाँ ने हाथ का संकेत किया। कुछ बड़ी-बूढ़ियाँ शाहनी के गले लगीं और ट्रक चल पड़ी।
अन्न-जल उठ गया। वह हवेली, नई बैठक, ऊँचा चौबारा, बड़ा ‘पसार’ एक-एक करके घूम रहे हैं शाहनी की आँखों में! कुछ पता नहीं, ट्रक चल रहा है या वह स्वयं चल रही है। आँखें बरस रही हैं। दाऊद ख़ाँ विचलित होकर देख रहा है इस बूढ़ी शाहनी को। कहाँ जाएगी अब वह?
“शाहनी, मन में मैल न लाना। कुछ कर सकते तो उठा न रखते! वक़्त ही ऐसा है। राज पलट गया है, सिक्का बदल गया है...”
रात को शाहनी जब कैंप में पहुँचकर ज़मीन पर पड़ी तो लेटे-लेटे आहत मन से सोचा—‘राज पलट गया है...’ सिक्का क्या बदलेगा? वह तो मैं वहीं छोड़ आई...।’
और शाहजी की शाहनी की आँखें और भी गीली हो गईं!
आसपास के हरे-हरे खेतों से घिरे गाँवों में रात ख़ून बरसा रही थी।
शायद राज पलटा भी खा रहा था और—सिक्का बदल रहा था...
khaddar ki chadar oDhe, haath mein mala liye shahni jab dariya ke kinare pahunchi to pau phat rahi thi. door door asman ke parde par lalima phailti ja rahi thi. shahni ne kapड़e utarkar ek or rakhe aur shri. . . raam, shri. . . raam karti pani mein ho li. anjli bharkar surya devta ko namaskar kiya, apni unindi ankhon par chhinte diye aur pani se lipat gai!
chanab ka pani aaj bhi pahle sa hi sard tha, lahren lahron ko choom rahi theen. wo dur—samne kashmir ki pahaDiyon se barf pighal rahi thi. uchhal uchhal aate pani ke bhanvaron se takrakar kagare gir rahe the, lekin door door tak bichhi ret aaj na jane kyon khamosh lagti thee! shahni ne kapड़e pahne, idhar udhar dekha, kahin kisi ki parchhai tak na thi. par niche ret mein agnit panvon ke nishan the. wo kuch saham si uthi!
aaj is parbhat ki mithi niravta mein na jane kyon kuch bhayavana sa lag raha hai. wo pichhle pachas varshon se yahan nahati aa rahi hai. kitna lamba arsa hai! shahni sochti hai, ek din isi duriya ke kinare wo dulhin bankar utri thi. aur aaj. . . aaj shahji nahin, uska wo paDha likha laDka nahin, aaj wo akeli hai, shahji ki lambi chauDi haveli mein akeli hai. par nahin—yah kya soch rahi hai wo savere savere! abhi bhi duniyadari se man nahin phira uskaa! shahni ne lambi saans li aur shri raam, shri raam, karti bajre ke kheton se hoti ghar ki raah li. kahin kahin lipe pute anganon par se dhuan uth raha tha. tan tan—bailon, ki ghantiyan baj uthti hain. phir bhi. . . phir bhi. . . kuch bandha bandha sa lag raha hai. jammivala kuan bhi aaj nahin chal raha. ye shahji ki hi asamiyan hain. shahni ne nazar uthai. ye milon phaile khet apne hi hain. bhari bharai nai fasal ko dekhkar shahni kisi apnatv ke moh mein bheeg gai. ye sab shahji ki baraqten hain. door door ganvon tak phaili hui zaminen, zaminon mein kuen—sab apne hain. saal mein teen fasal, zamin to sona ugalti hai. shahni kuen ki aur baDhi, avaz di, “shere, shere, husaina husaina. . . . ”
shera shahni ka svar pahchanta hai. wo na pahchanega! apni maan jaina ke marne ke baad wo shahni ke paas hi palkar baDa hua. usne paas paDa ganDasa ‘shatale’ ke Dher ke niche sarka diya. haath mein hukka pakaDkar bola, “ai husaina husaina. . . ” shahni ki avaz use kaise hila gai hai! abhi to wo soch raha tha ki us shahni ki unchi haveli ki andheri kothari mein paDi sone chandi ki sanduqachiyan uthakar—ki tabhi shere shere shera ghusse se bhar gaya. kis par nikale apna krodh? shahni par! chikhkar bola “ai mar gain kya. rabb tumhein maut de. . . . ”
husaina atevali kanali ek or rakh, jaldi jaldi bahar nikal i—“ati hoon, aati hun—kyon chha vele (subah subah) taDapta en?”
ab tak shahni nazdik pahunch chuki thi. shere ki tezi sun chuki thi. pyaar se boli, “husaina, ye vaqt laDne ka hai? wo pagal hai to tu hi jigara kar liya kar. ”
“jigara!” husaina ne maan bhare svar mein kaha, shahni, laDka akhir laDka hi hai. kabhi shere se bhi puchha hai ki munh andhere hi kyon galiyan barsai hain isne?” shahni ne laaD se husaina ki peeth par haath phera, hansakar boli, “pagli mujhe to laDke se bahu pyari hai! shere”
“haan shahni!”
“malum hota hai, raat ko kulluval ke log aaye hain yahan?” shahni ne gambhir svar mein kaha.
shere ne zara rukkar, ghabrakar kaha, “nahin—shahni. . . ” shere ke uttar ki anasuni kar shahni zara chintit svar se boli, “jo kuch bhi ho raha hai, achchha nahin. shere, aaj shahji hote to shayad kuch beech bachav karte. par. . . ” shahni kahte kahte ruk gai. aaj kya ho raha hai. shahni ko laga jaise ji bhar bhar aa raha hai. shahji ko bichhuDe kai saal beet gaye, par—par aaj kuch pighal raha hai—shayad pichhli smritiyan. . . ansuon ko rokne ke prayatn mein usne husaina ki or dekha aur halke se hans paDi. aur shera soch hi raha hai, kya kah rahi hai shahni aaj! aaj shahni kya, koi bhi kuch nahin kar sakta. ye hoke rahega—kyon na ho? hamare hi bhai bandon se sood le lekar shahji sone ki boriyan tola karte the. pratihinsa ki aag shere ki ankhon mein utar i. ganDase ki yaad ho i. shahni ki or dekha—nahin nahin, shera in pichhle dinon mein tees chalis qatl kar chuka tha. par wo aisa neech nahin. . . samne baithi shahni nahin, shahni ke haath uski ankhon mein tair gaye. wo sardiyon ki raten—kabhi kabhi shahji ki Daant khake wo haveli mein paDa rahta tha. aur phir lalten ki roshni mein wo dekhta hai, shahni ke mamta bhare haath doodh ka katora thame hue ‘shere shere, uth, pi le. ‘ shere ne shahni ke jhurriyan paDe munh ki or dekha to shahni dhire se muskra rahi thi. shera vichlit ho gaya—akhir shahni ne kya bigaDa hai hamara? shahji ki baat shahji ke saath gai, wo shahni ko zarur bachayega. lekin kal raat vala mashvara! wo kaise maan gaya tha phiroz ki baat! ’sab kuch theek ho jayega. . . saman baant liya jayega!’
“shahni chalo tumhein ghar tak chhoD aun!”
shahni uth khaDi hui. kisi gahri soch mein chalti hui shahni ke pichhe pichhe mazbut qadam uthata shera chal raha hai. shankit sa idhar udhar dekhta ja raha hai. apne sathiyon ki baten uske kanon mein goonj rahi hain. par kya hoga shahni ko markar?
“shahni!”
“haan shere. ”
shera chahta hai ki sir par aane vale khatre ki baat kuch to shahni ko bata de, magar wo kaise kahe?”
“shahni”
shahni ne sir uncha kiya. asman dhuen se bhar gaya tha. “shere”
shera janta hai ye aag hai. jabalpur mein aaj aag lagni thi lag gai! shahni kuch na kah saki. uske nate rishte sab vahin hain.
haveli aa gai. shahni ne shunya man se DyoDhi mein qadam rakha. shera kab laut gaya use kuch pata nahin. durbal si deh aur akeli, bina kisi sahare ke! na jane kab tak vahin paDi rahi shahni. duphar i aur chali gai. haveli khuli paDi hai. aaj shahni nahin uth pa rahi. jaise uska adhikar aaj svayan hi usse chhoot raha hai! shahji ke ghar ki malkin. . . lekin nahin, aaj moh nahin ho raha. mano patthar ho gai ho. paDe paDe saanjh ho gai, par uthne ki baat phir bhi nahin soch pa rahi. achanak rasuli ki avaz sunkar chaunk uthi.
“shahni shahni, suno trken aati hain lene?”
“trke. . . ?” shahni iske sivay aur kuch na kah saki. hathon ne ek dusre ko thaam liya. baat ki baat mein khabar gaanv bhar mein phail gai. laah bibi ne apne vikrt kanth se kaha, shahni, “aaj tak kabhi aisa na hua, na kabhi suna. ghazab ho gaya, andher paD gaya. ”
shahni murtivat vahin khaDi rahi. navab bibi ne sneh sani udasi se kaha, “shahni, hamne to kabhi na socha tha!”
shahni kya kahe ki usi ne aisa socha tha. niche se patvari begu aur jailadar ki batachit sunai di. shahni samjhi ki vaqt aan pahuncha. machine ki tarah niche utri, par DyoDhi na laangh saki. kisi gahri, bahut gahri avaz se puchha” kaun? kaun hain vahan?”
kaun nahin hai aaj vahan? sara gaanv hai, jo uske ishare par nachta tha kabhi. uski asamiyan hain jinhen usne apne nate rishton se kabhi kam nahin samjha. lekin nahin, aaj uska koi nahin, aaj wo akeli hai! ye bheeD ki bheeD, unmen kulluval ke jaat. wo kya subah hi na samajh gai thee?
begu patvari aur masit ke mulla ismail ne jane kya socha. shahni ke nikat aa khaड़e hue. begu aaj shahni ki or dekh nahin pa raha. dhire se zara gala saaf karte hue kaha, ‘shahni, rabb ko yahi manjur tha. ’
shahni ke qadam Dol gaye. chakkar aaya aur divar ke saath lag gai. isi din ke liye chhoD gaye the shahji use? bejan si shahni ki or dekhkar begu soch raha hai, kya guzar rahi hai shahni par! magar kya ho sakta hai! sikka badal gaya hai. . .
shahni ka ghar se nikalna chhoti si baat nahin. gaanv ka gaanv khaDa hai haveli ke darvaze se lekar us dare tak jise shahji ne apne putr ki shadi mein banva diya tha. gaanv ke sab faisle, sab mashavire yahin hote rahen hain. is baDi haveli ko loot lene ki baat bhi yahin sochi gai thee! ye nahin ki shahni kuch na janti ho. wo jankar bhi anjan bani rahi. usne kabhi bair nahin jana. kisi ka bura nahin kiya. lekin buDhi shahni ye nahin janti ki sikka badal gaya hai. . .
der ho rahi thi. thanedar daud khaan zara akaDkar aage aaya aur DyoDhi par khaDi jaड़ nirjiv chhaya ko dekhkar thithak gaya! vahi shahni hai jiske shahji uske liye dariya ke kinare kheme lagva diya karte the. ye to vahi shahni hai jisne uski mangetar ko sone ke kanphul diye the munh dikhai mein. abhi usi din jab wo ‘league’ ke silsile mein aaya tha to usne uddanDta se kaha tha, shahni, bhagoval masit banegi, teen sau rupaya dena paDega. shahni ne apne usi saral svbhaav se teen sau rupae diye the. aur aaj. . . ?
“shahni!” daud khaan ne avaz di. wo thanedar hai, nahin to uska uska svar shayad ankhon mein utar aata.
shahni gum sum, kuch na bol pai.
“shahni!” DyoDhi ke nikat jakar bola, “der ho rahi hai shahni. (dhire se) kuch saath rakhna ho to rakh lo. kuch saath baandh liya hai? sona chandi. ”
shahni asphut svar se boli, “sona chandi!” zara thaharkar sadgi se kaha, “sona chandi! bachcha wo sab tum logon ke liye hai. mera sona to ek ek zamin mein bichha hai. ”
daud khaan lajjit sa ho gaya. —“shahni, tum akeli ho, apne paas kuch hona zaruri hai. kuch naqdi hi rakh lo. vaqt ka kuch pata nahin. . . . ”
“vaqt?” shahni apni gili ankhon se hans paDi—“daud khaan, isse achchha vakt dekhne ke liye kya main zinda rahungi!” kisi gahri vedna aur tiraskar se kah diya shahni ne.
daud khaan niruttar hai. sahas kar bola, “shahni,. . . kuch naqdi zaruri hai. ”
“nahin bachcha, mujhe is ghar se” shahni—ka gala rundh gaya—“naqdi pyari nahin. yahan ki naqdi yahin rahegi. ”
shera aan khaDa hua paas. door khaDe khaDe usne daud khaan ko shahni ke paas dekha to shak guzra ki ho na ho kuch maar raha hai shahni se. “khaan sahib der ho rahi hai. . . ”
shahni chaunk paDi. der—mere ghar mein mujhe der! ansuon ki bhanvar mein na jane kahan se vidroh umaD paDa. main purkhon ke is baDe ghar ki rani aur ye mere hi ann par play hue. . . nahin, ye sab kuch nahin. theek hai—der ho rahi hai. der ho rahi hai. shahni ke kano mein jaise yahi goonj raha hai—der ho rahi hai—par nahin, shahni ro rokar nahin, shaan se niklegi is purkhon ke ghar se, maan se langhegi ye dehri, jis par ek din wo rani bankar aa khaDi hui thi. apne laDkhaDate qadmon ko sanbhalakar shahni ne dupatte se ankhen pochhin aur DyoDhi se bahar ho gai. baDi buDhiyan ro paDin. unke duःkh sukh ki sathin aaj is ghar se nikal paDi hai. kiski tulna ho sakti thi iske saath! khuda ne sab kuch diya tha, magar—magar din badle, vakt badle. . .
shahni ne dupatte se sir Dhanpakar apni dhundhli ankhon mein se haveli ko antim baar dekha. shahji ke marne ke baad bhi jis kul ki amanat ko usne sahejkar rakha, aaj wo use dhokha de gai. shahni ne donon haath joD liye—yahi antim darshan tha, yahi antim parnam tha. shahni ki ankhen phir kabhi is unchi haveli ko na dekhi payengi. pyaar ne zor mara—socha, ek baar ghoom phirkar pura ghar kyon na dekh i main? ji chhota ho raha hai, par jinke samne hamesha baDi bani rahi hai unke samne wo chhoti na hogi. itna hi theek hai. sab ho chuka. sir jhukaya. DyoDhi ke aage kulavdhu ki ankhon se nikalkar kuch bunden chu paDin. shahni chal di—uncha sa bhavan pichhe khaDa rah gaya. daud khaan, shera, patvari, jailadar aur chhote baDe, bachche buDhe mard aurten sab pichhe pichhe.
trken ab tak bhar chuki theen. shahni apne ko kheench rahi thi. ganvvalon ke galon mein jaise dhuan uth raha hai. shere, khuni shere ka dil toot raha hai. daud khaan ne aage baDhkar truck ka darvaza khola. shahni baDhi. ismail ne aage baDhkar bhari avaz se kaha, “shahni, kuch kah jao. tumhare munh se nikli asis jhooth nahin ho sakti. ” aur apne safe se ankhon ka pani ponchh liya. shahni ne uthti hui hichki ko rokkar rundhe rundhe se kaha,”rabb tumhein salamat rakkhe bachcha, khushiyan bakshe. . . . ”
wo chhota sa janasmuh ro diya. zara bhi dil mein mail nahin shahni ke. aur ham—ham shahni ko nahin rakh sake. shere ne baDhkar shahni ke paanv chhue—“shahni, koi kuch nahin kar saka, raaj hi palat gaya. ” shahni ne kanpta hua haath shere ke sir par rakha aur ruk rukkar kaha, “tumhen bhaag lage channa. ” daud khaan ne haath ka sanket kiya. kuch baDi buDhiyan shahni ke gale lagin aur truck chal paDi.
ann jal uth gaya. wo haveli, nai baithak, uncha chaubara, baDa ‘pasar’ ek ek karke ghoom rahe hain shahni ki ankhon men! kuch pata nahin, truck chal raha hai ya wo svayan chal rahi hai. ankhen baras rahi hain. daud khaan vichlit hokar dekh raha hai is buDhi shahni ko. kahan jayegi ab vah?
“shahni, man mein mail na lana. kuch kar sakte to utha na rakhte! vaqt hi aisa hai. raaj palat gaya hai, sikka badal gaya hai. . . ”
raat ko shahni jab kainp mein pahunchakar zamin par paDi to lete lete aahat man se socha—‘raj palat gaya hai. . . ’ sikka kya badlega? wo to main vahin chhoD i. . . . ’
aur shahji ki shahni ki ankhen aur bhi gili ho gain!
asapas ke hare hare kheton se ghire ganvon mein raat khoon barsa rahi thi.
shayad raaj palta bhi kha raha tha aur—sikka badal raha tha. . .
khaddar ki chadar oDhe, haath mein mala liye shahni jab dariya ke kinare pahunchi to pau phat rahi thi. door door asman ke parde par lalima phailti ja rahi thi. shahni ne kapड़e utarkar ek or rakhe aur shri. . . raam, shri. . . raam karti pani mein ho li. anjli bharkar surya devta ko namaskar kiya, apni unindi ankhon par chhinte diye aur pani se lipat gai!
chanab ka pani aaj bhi pahle sa hi sard tha, lahren lahron ko choom rahi theen. wo dur—samne kashmir ki pahaDiyon se barf pighal rahi thi. uchhal uchhal aate pani ke bhanvaron se takrakar kagare gir rahe the, lekin door door tak bichhi ret aaj na jane kyon khamosh lagti thee! shahni ne kapड़e pahne, idhar udhar dekha, kahin kisi ki parchhai tak na thi. par niche ret mein agnit panvon ke nishan the. wo kuch saham si uthi!
aaj is parbhat ki mithi niravta mein na jane kyon kuch bhayavana sa lag raha hai. wo pichhle pachas varshon se yahan nahati aa rahi hai. kitna lamba arsa hai! shahni sochti hai, ek din isi duriya ke kinare wo dulhin bankar utri thi. aur aaj. . . aaj shahji nahin, uska wo paDha likha laDka nahin, aaj wo akeli hai, shahji ki lambi chauDi haveli mein akeli hai. par nahin—yah kya soch rahi hai wo savere savere! abhi bhi duniyadari se man nahin phira uskaa! shahni ne lambi saans li aur shri raam, shri raam, karti bajre ke kheton se hoti ghar ki raah li. kahin kahin lipe pute anganon par se dhuan uth raha tha. tan tan—bailon, ki ghantiyan baj uthti hain. phir bhi. . . phir bhi. . . kuch bandha bandha sa lag raha hai. jammivala kuan bhi aaj nahin chal raha. ye shahji ki hi asamiyan hain. shahni ne nazar uthai. ye milon phaile khet apne hi hain. bhari bharai nai fasal ko dekhkar shahni kisi apnatv ke moh mein bheeg gai. ye sab shahji ki baraqten hain. door door ganvon tak phaili hui zaminen, zaminon mein kuen—sab apne hain. saal mein teen fasal, zamin to sona ugalti hai. shahni kuen ki aur baDhi, avaz di, “shere, shere, husaina husaina. . . . ”
shera shahni ka svar pahchanta hai. wo na pahchanega! apni maan jaina ke marne ke baad wo shahni ke paas hi palkar baDa hua. usne paas paDa ganDasa ‘shatale’ ke Dher ke niche sarka diya. haath mein hukka pakaDkar bola, “ai husaina husaina. . . ” shahni ki avaz use kaise hila gai hai! abhi to wo soch raha tha ki us shahni ki unchi haveli ki andheri kothari mein paDi sone chandi ki sanduqachiyan uthakar—ki tabhi shere shere shera ghusse se bhar gaya. kis par nikale apna krodh? shahni par! chikhkar bola “ai mar gain kya. rabb tumhein maut de. . . . ”
husaina atevali kanali ek or rakh, jaldi jaldi bahar nikal i—“ati hoon, aati hun—kyon chha vele (subah subah) taDapta en?”
ab tak shahni nazdik pahunch chuki thi. shere ki tezi sun chuki thi. pyaar se boli, “husaina, ye vaqt laDne ka hai? wo pagal hai to tu hi jigara kar liya kar. ”
“jigara!” husaina ne maan bhare svar mein kaha, shahni, laDka akhir laDka hi hai. kabhi shere se bhi puchha hai ki munh andhere hi kyon galiyan barsai hain isne?” shahni ne laaD se husaina ki peeth par haath phera, hansakar boli, “pagli mujhe to laDke se bahu pyari hai! shere”
“haan shahni!”
“malum hota hai, raat ko kulluval ke log aaye hain yahan?” shahni ne gambhir svar mein kaha.
shere ne zara rukkar, ghabrakar kaha, “nahin—shahni. . . ” shere ke uttar ki anasuni kar shahni zara chintit svar se boli, “jo kuch bhi ho raha hai, achchha nahin. shere, aaj shahji hote to shayad kuch beech bachav karte. par. . . ” shahni kahte kahte ruk gai. aaj kya ho raha hai. shahni ko laga jaise ji bhar bhar aa raha hai. shahji ko bichhuDe kai saal beet gaye, par—par aaj kuch pighal raha hai—shayad pichhli smritiyan. . . ansuon ko rokne ke prayatn mein usne husaina ki or dekha aur halke se hans paDi. aur shera soch hi raha hai, kya kah rahi hai shahni aaj! aaj shahni kya, koi bhi kuch nahin kar sakta. ye hoke rahega—kyon na ho? hamare hi bhai bandon se sood le lekar shahji sone ki boriyan tola karte the. pratihinsa ki aag shere ki ankhon mein utar i. ganDase ki yaad ho i. shahni ki or dekha—nahin nahin, shera in pichhle dinon mein tees chalis qatl kar chuka tha. par wo aisa neech nahin. . . samne baithi shahni nahin, shahni ke haath uski ankhon mein tair gaye. wo sardiyon ki raten—kabhi kabhi shahji ki Daant khake wo haveli mein paDa rahta tha. aur phir lalten ki roshni mein wo dekhta hai, shahni ke mamta bhare haath doodh ka katora thame hue ‘shere shere, uth, pi le. ‘ shere ne shahni ke jhurriyan paDe munh ki or dekha to shahni dhire se muskra rahi thi. shera vichlit ho gaya—akhir shahni ne kya bigaDa hai hamara? shahji ki baat shahji ke saath gai, wo shahni ko zarur bachayega. lekin kal raat vala mashvara! wo kaise maan gaya tha phiroz ki baat! ’sab kuch theek ho jayega. . . saman baant liya jayega!’
“shahni chalo tumhein ghar tak chhoD aun!”
shahni uth khaDi hui. kisi gahri soch mein chalti hui shahni ke pichhe pichhe mazbut qadam uthata shera chal raha hai. shankit sa idhar udhar dekhta ja raha hai. apne sathiyon ki baten uske kanon mein goonj rahi hain. par kya hoga shahni ko markar?
“shahni!”
“haan shere. ”
shera chahta hai ki sir par aane vale khatre ki baat kuch to shahni ko bata de, magar wo kaise kahe?”
“shahni”
shahni ne sir uncha kiya. asman dhuen se bhar gaya tha. “shere”
shera janta hai ye aag hai. jabalpur mein aaj aag lagni thi lag gai! shahni kuch na kah saki. uske nate rishte sab vahin hain.
haveli aa gai. shahni ne shunya man se DyoDhi mein qadam rakha. shera kab laut gaya use kuch pata nahin. durbal si deh aur akeli, bina kisi sahare ke! na jane kab tak vahin paDi rahi shahni. duphar i aur chali gai. haveli khuli paDi hai. aaj shahni nahin uth pa rahi. jaise uska adhikar aaj svayan hi usse chhoot raha hai! shahji ke ghar ki malkin. . . lekin nahin, aaj moh nahin ho raha. mano patthar ho gai ho. paDe paDe saanjh ho gai, par uthne ki baat phir bhi nahin soch pa rahi. achanak rasuli ki avaz sunkar chaunk uthi.
“shahni shahni, suno trken aati hain lene?”
“trke. . . ?” shahni iske sivay aur kuch na kah saki. hathon ne ek dusre ko thaam liya. baat ki baat mein khabar gaanv bhar mein phail gai. laah bibi ne apne vikrt kanth se kaha, shahni, “aaj tak kabhi aisa na hua, na kabhi suna. ghazab ho gaya, andher paD gaya. ”
shahni murtivat vahin khaDi rahi. navab bibi ne sneh sani udasi se kaha, “shahni, hamne to kabhi na socha tha!”
shahni kya kahe ki usi ne aisa socha tha. niche se patvari begu aur jailadar ki batachit sunai di. shahni samjhi ki vaqt aan pahuncha. machine ki tarah niche utri, par DyoDhi na laangh saki. kisi gahri, bahut gahri avaz se puchha” kaun? kaun hain vahan?”
kaun nahin hai aaj vahan? sara gaanv hai, jo uske ishare par nachta tha kabhi. uski asamiyan hain jinhen usne apne nate rishton se kabhi kam nahin samjha. lekin nahin, aaj uska koi nahin, aaj wo akeli hai! ye bheeD ki bheeD, unmen kulluval ke jaat. wo kya subah hi na samajh gai thee?
begu patvari aur masit ke mulla ismail ne jane kya socha. shahni ke nikat aa khaड़e hue. begu aaj shahni ki or dekh nahin pa raha. dhire se zara gala saaf karte hue kaha, ‘shahni, rabb ko yahi manjur tha. ’
shahni ke qadam Dol gaye. chakkar aaya aur divar ke saath lag gai. isi din ke liye chhoD gaye the shahji use? bejan si shahni ki or dekhkar begu soch raha hai, kya guzar rahi hai shahni par! magar kya ho sakta hai! sikka badal gaya hai. . .
shahni ka ghar se nikalna chhoti si baat nahin. gaanv ka gaanv khaDa hai haveli ke darvaze se lekar us dare tak jise shahji ne apne putr ki shadi mein banva diya tha. gaanv ke sab faisle, sab mashavire yahin hote rahen hain. is baDi haveli ko loot lene ki baat bhi yahin sochi gai thee! ye nahin ki shahni kuch na janti ho. wo jankar bhi anjan bani rahi. usne kabhi bair nahin jana. kisi ka bura nahin kiya. lekin buDhi shahni ye nahin janti ki sikka badal gaya hai. . .
der ho rahi thi. thanedar daud khaan zara akaDkar aage aaya aur DyoDhi par khaDi jaड़ nirjiv chhaya ko dekhkar thithak gaya! vahi shahni hai jiske shahji uske liye dariya ke kinare kheme lagva diya karte the. ye to vahi shahni hai jisne uski mangetar ko sone ke kanphul diye the munh dikhai mein. abhi usi din jab wo ‘league’ ke silsile mein aaya tha to usne uddanDta se kaha tha, shahni, bhagoval masit banegi, teen sau rupaya dena paDega. shahni ne apne usi saral svbhaav se teen sau rupae diye the. aur aaj. . . ?
“shahni!” daud khaan ne avaz di. wo thanedar hai, nahin to uska uska svar shayad ankhon mein utar aata.
shahni gum sum, kuch na bol pai.
“shahni!” DyoDhi ke nikat jakar bola, “der ho rahi hai shahni. (dhire se) kuch saath rakhna ho to rakh lo. kuch saath baandh liya hai? sona chandi. ”
shahni asphut svar se boli, “sona chandi!” zara thaharkar sadgi se kaha, “sona chandi! bachcha wo sab tum logon ke liye hai. mera sona to ek ek zamin mein bichha hai. ”
daud khaan lajjit sa ho gaya. —“shahni, tum akeli ho, apne paas kuch hona zaruri hai. kuch naqdi hi rakh lo. vaqt ka kuch pata nahin. . . . ”
“vaqt?” shahni apni gili ankhon se hans paDi—“daud khaan, isse achchha vakt dekhne ke liye kya main zinda rahungi!” kisi gahri vedna aur tiraskar se kah diya shahni ne.
daud khaan niruttar hai. sahas kar bola, “shahni,. . . kuch naqdi zaruri hai. ”
“nahin bachcha, mujhe is ghar se” shahni—ka gala rundh gaya—“naqdi pyari nahin. yahan ki naqdi yahin rahegi. ”
shera aan khaDa hua paas. door khaDe khaDe usne daud khaan ko shahni ke paas dekha to shak guzra ki ho na ho kuch maar raha hai shahni se. “khaan sahib der ho rahi hai. . . ”
shahni chaunk paDi. der—mere ghar mein mujhe der! ansuon ki bhanvar mein na jane kahan se vidroh umaD paDa. main purkhon ke is baDe ghar ki rani aur ye mere hi ann par play hue. . . nahin, ye sab kuch nahin. theek hai—der ho rahi hai. der ho rahi hai. shahni ke kano mein jaise yahi goonj raha hai—der ho rahi hai—par nahin, shahni ro rokar nahin, shaan se niklegi is purkhon ke ghar se, maan se langhegi ye dehri, jis par ek din wo rani bankar aa khaDi hui thi. apne laDkhaDate qadmon ko sanbhalakar shahni ne dupatte se ankhen pochhin aur DyoDhi se bahar ho gai. baDi buDhiyan ro paDin. unke duःkh sukh ki sathin aaj is ghar se nikal paDi hai. kiski tulna ho sakti thi iske saath! khuda ne sab kuch diya tha, magar—magar din badle, vakt badle. . .
shahni ne dupatte se sir Dhanpakar apni dhundhli ankhon mein se haveli ko antim baar dekha. shahji ke marne ke baad bhi jis kul ki amanat ko usne sahejkar rakha, aaj wo use dhokha de gai. shahni ne donon haath joD liye—yahi antim darshan tha, yahi antim parnam tha. shahni ki ankhen phir kabhi is unchi haveli ko na dekhi payengi. pyaar ne zor mara—socha, ek baar ghoom phirkar pura ghar kyon na dekh i main? ji chhota ho raha hai, par jinke samne hamesha baDi bani rahi hai unke samne wo chhoti na hogi. itna hi theek hai. sab ho chuka. sir jhukaya. DyoDhi ke aage kulavdhu ki ankhon se nikalkar kuch bunden chu paDin. shahni chal di—uncha sa bhavan pichhe khaDa rah gaya. daud khaan, shera, patvari, jailadar aur chhote baDe, bachche buDhe mard aurten sab pichhe pichhe.
trken ab tak bhar chuki theen. shahni apne ko kheench rahi thi. ganvvalon ke galon mein jaise dhuan uth raha hai. shere, khuni shere ka dil toot raha hai. daud khaan ne aage baDhkar truck ka darvaza khola. shahni baDhi. ismail ne aage baDhkar bhari avaz se kaha, “shahni, kuch kah jao. tumhare munh se nikli asis jhooth nahin ho sakti. ” aur apne safe se ankhon ka pani ponchh liya. shahni ne uthti hui hichki ko rokkar rundhe rundhe se kaha,”rabb tumhein salamat rakkhe bachcha, khushiyan bakshe. . . . ”
wo chhota sa janasmuh ro diya. zara bhi dil mein mail nahin shahni ke. aur ham—ham shahni ko nahin rakh sake. shere ne baDhkar shahni ke paanv chhue—“shahni, koi kuch nahin kar saka, raaj hi palat gaya. ” shahni ne kanpta hua haath shere ke sir par rakha aur ruk rukkar kaha, “tumhen bhaag lage channa. ” daud khaan ne haath ka sanket kiya. kuch baDi buDhiyan shahni ke gale lagin aur truck chal paDi.
ann jal uth gaya. wo haveli, nai baithak, uncha chaubara, baDa ‘pasar’ ek ek karke ghoom rahe hain shahni ki ankhon men! kuch pata nahin, truck chal raha hai ya wo svayan chal rahi hai. ankhen baras rahi hain. daud khaan vichlit hokar dekh raha hai is buDhi shahni ko. kahan jayegi ab vah?
“shahni, man mein mail na lana. kuch kar sakte to utha na rakhte! vaqt hi aisa hai. raaj palat gaya hai, sikka badal gaya hai. . . ”
raat ko shahni jab kainp mein pahunchakar zamin par paDi to lete lete aahat man se socha—‘raj palat gaya hai. . . ’ sikka kya badlega? wo to main vahin chhoD i. . . . ’
aur shahji ki shahni ki ankhen aur bhi gili ho gain!
asapas ke hare hare kheton se ghire ganvon mein raat khoon barsa rahi thi.
shayad raaj palta bhi kha raha tha aur—sikka badal raha tha. . .
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।