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सिग्नल मैन

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चार्ल्स डिकेंस

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चार्ल्स डिकेंस

और अधिकचार्ल्स डिकेंस

    “हैलो? वहाँ नीचे!”

    जब उसने पुकारे जाने की आवाज़ सुनी, वह अपनी छोटी-सी कोठरी के बाहर खड़ा था, उसके हाथ में झंडी थी। जहाँ वह खड़ा था वहाँ से बिना किसी शंका के यह समझना बेहद आसान था कि आवाज़ कहाँ से आई है, पर फिर भी ऊपर देखने की बजाए, जहाँ ठीक उसके सिर के ऊपर एक नोकदार चट्टान पर मैं खड़ा था, वह घूमा और नीचे रेलवे लाइन की तरफ़ देखने लगा। उसकी इस हरकत में कुछ ख़ास था, पर क्या यह मैं समझ नहीं पा रहा था? जिस नुकीली चट्टान पर मैं खड़ा था उसकी आड़ में वह ढँक-सा गया था और मुझे भी आग उगलते सूरज से बचने के लिए आँखों को हाथ से ढँकना पड़ा, उसके बाद ही मैं उसे देख सका।

    “अरे भाई! ज़रा सुनो तो?”

    वह रेलवे लाइन की तरफ़ देख रहा था, वह मुड़ा और उसने आँखें उठाईं तो ठीक अपने ऊपर मुझे खड़ा पाया।

    ‘क्या, कोई रास्ता है जिससे मैं नीचे आकर तुमसे बात कर सकूँ?’

    कोई जवाब दिए बग़ैर वह मुझे देखता रहा और मैंने भी अपनी बात दोहराई नहीं और उसे देखता रहा, तभी ज़मीन और हवा में एक अस्पष्ट-सा कंपन हुआ, जो तत्काल तेज़ स्पंदन में बदल गया और फिर तेज़ी से सरपट भागती ट्रेन वहाँ से गुज़री, मैं झटके से पीछे हटा, मानो वह मुझे नीचे खींच लेगी, जब तेज़ी से गड़गड़ाती ट्रेन मेरे सामने से गुज़रती हुई, ढलान पर उतरने लगी तो मैंने फिर नीचे देखा वह अपनी झंडी लहरा रहा था। मैंने अपना सवाल दोहराया, वह पल भर रुका, एकटक भरपूर तौलती नजरों से उसने मुझे देखा और फिर जिस डंडी में झंडा लपेटा हुआ था, उसी से उसने मुझे सामने की तरफ़ का रास्ता दिखाया, जो

    करीब दो-तीन सौ गज दूर था।

    मैं चिल्लाया “ठीक है!” और उस तरफ़ चल पड़ा, यह गहरा और टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता था। इस टेढ़े-मेढ़े रास्ते से उतरते हुए जब मैं नीचे पहुँचा तो मैंने पाया कि वह रेल की पटरियों के बीचों-बीच खड़ा था, जहाँ से कुछ देर पहले ट्रेन गुज़री थी, लगा मानो उसे मेरे अचानक प्रकट होने का इंतज़ार हो, वह इस कदर चौकन्ना और सहमा हुआ था कि मुझे ताज्जुब हुआ।

    मैं थोड़ा और नीचे उतरा और पटरियों के एकदम क़रीब गया। वह अब सामने था, पतला दुबला दढ़ियल आदमी जिसकी भौंहें घनी थीं। उसकी चौकी इतनी सुनसान जगह पर थी, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। दोनों तरफ़ पानी से रिसती सीलन भरी नोंकदार पथरीली दीवार थी, जहाँ से कुछ भी देखना मुश्किल था सिवाय आसमां की एक पतली-सी लकीर के। वातावरण में भयावह उदासीनता और घुटन थी। उस जगह पर इतनी कम धूप आती थी कि हर तरफ़ सीलन की बदबू थी। तेज़ ठंडी हवा में मैं काँप उठा, ऐसा लगा जैसे कुदरती दुनिया कहीं पीछे छूट गई हो।

    वह हिलता, उससे पहले मैं उसके इतने क़रीब पहुँच गया कि उसे छू सकता था। तब तक वह मुझे एकटक घूरता ही रहा। मैं उसके क़रीब पहुँचा तो वह एक क़दम पीछे हटा और हाथ ऊपर उठाया।

    “यह तो एकदम सुनसान चौकी है और इसने मेरा ध्यान खींच लिया। मेरे ख़याल से शायद ही कभी कोई भूले भटके यहाँ आता होगा।” मैं बोला।

    उसने सुरंग के मुहाने के पास लाल बत्ती की तरफ़ बड़े विस्मय से देखा और चारों तरफ़ नज़र घुमाई, मानो वहाँ से कुछ ग़ायब हो गया हो और फिर मेरी तरफ़ देखा।

    “वह बत्ती भी तुम्हारी ड्यूटी में शामिल है? क्यों है ना?”

    “हाँ है, आप नहीं जानते क्या?” बेहद दबे स्वर में उसने जवाब दिया।

    जब मैंने उसके भावहीन और उदास चेहरे को ग़ौर से देखा तो लगा मानो वह जीता जागता मनुष्य होकर कोई प्रेतात्मा हो, यह डरावना ख़याल मेरे दिमाग़ में क्यों आया, मैं नहीं जानता? पर तब से मैं इसी उधेड़बुन में रहा कि उसके दिमाग़ में कोई ख़लल तो नहीं?

    अब मेरी बारी थी, मैं भी पीछे हट गया, पर ऐसा करते वक़्त मैंने उसकी आँखों में अपने प्रति एक स्पष्ट भय देखा, इससे मेरे उस ख़याल को और हवा मिली।

    “तुम तो मेरी तरफ़ यूँ देख रहे हो”, मैंने जबरन मुस्कराते हुए कहा, “मानो तुम मुझसे भयभीत हो।”

    “मुझे अंदेशा है कि शायद मैंने पहले आपको कहीं देखा है।”

    “कहाँ?”

    उसने उस लाल बत्ती की ओर इशारा किया।

    “वहाँ?” आश्चर्य चकित हो मैंने पूछा।

    मेरी तरफ़ से सतर्क रहते हुए उसने जवाब दिया, (बिना आवाज़ किए) “हूँ।”

    “प्यारे दोस्त, मैं भला वहाँ क्या करूँगा? ख़ैर तुम चाहे जो भी सोचो पर क़सम ख़ुदा की कि मैं वहाँ कभी गया ही नहीं।”

    “हाँ, शायद ऐसा ही होगा।”

    फिर वह सहज हो गया, अब वह मेरी बातों का खुलकर जवाब देने लगा, क्या उसे यहाँ बहुत काम करना पड़ता है? हाँ, काफी ज़िम्मेदारी का काम है। हर वक़्त चौकस रहना पड़ता है। यूँ मेहनत कुछ भी नहीं, पर ज़िम्मेदारी ज़्यादा है—सिग्नल बदलना, बत्तियाँ धीमी करना, इस लोहे के हैंडल को ऊपर नीचे घुमाना, बस यही सब है।

    उन लंबे उदास दिनों के बारे में जिसके बारे में सोच-सोच कर मैं हैरान था कि कोई कैसे यहाँ समय काटता होगा, उसने सिर्फ़ इतना ही कहा कि यह सब उसकी ज़िंदगी का ढर्रा बन चुका है और उसे इसकी आदत पड़ चुकी है। यहाँ उसने संकेतों की अपनी एक भाषा ईजाद कर ली है और इस तरह अपने ख़यालों की उधेड़बुन में ही व्यस्त रहता है। उसने जोड़-बाक़ी और दशमलव का सारा हिसाब और थोड़ा-सा बीजगणित भी सीख लिया है, हालाँकि वह शुरू से ही हिसाब में कमज़ोर था।

    काम करते समय क्या यह ज़रूरी है कि हर वक़्त सीलन भरी कोठरी में ही रहा जाए, क्या पत्थर की दीवार लाँघ कर सूरज की खुली रोशनी में जाना उसे नहीं सुहाता? यह वक़्त और हालात पर निर्भर है, अच्छे मौसम में उसने बाहर निकलना भी चाहा, पर बिजली की घंटी किसी भी वक़्त बज उठने की चिंता हर वक़्त उसके दिमाग पर हावी रही, इस वजह से बाहर निकलना ख़ुशी की बजाए परेशानी ही अधिक देता है।

    मुझे वह अपनी कोठरी में ले गया। वहाँ अँगीठी थी, मेज़ थी, जिस पर दफ़्तरी रजिस्टर रखा था, जिसमें उसे लगातार कुछ दर्ज करना पड़ता था, एक टेलीग्राफ़ मशीन और एक घंटी थी, जिसका उसने कुछ देर पहले जिक़्र किया था। उसने बताया कि जब वह नौजवान था (हालाँकि मुझे संदेह था कि ऐसी जगह पर कोई भी नौजवान बना रह सकता है) वह दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी था, व्याख्यानों में भी मौजूद रहता था, पर फिर उसने वह मौक़ा गँवा दिया और जीवन में एक बार लुढ़का तो फिर संभल नहीं पाया। अब इस सबसे उसे कोई गिला भी नहीं है, कमरे में उसका बिस्तर लगा हुआ था, वह उस पर लेट गया, रात बहुत हो चुकी थी, और इतनी रात गए वहाँ एक और बिस्तर लगाना मुश्किल था।

    धीमे-धीमे स्वर में उसने जो कुछ भी बताया कुल मिलाकर उसका यही सार था, वह बीच-बीच में मुझे ‘सर’ कह कर बुलाता। खासकर तब जब वह अपनी जवानी के दिनों की बातें करता, मानो वह यह साबित करना चाह रहा हो कि मैं जो कुछ उसे समझ रहा हूँ उस लिहाज़ से वह कुछ भी नहीं है। जब हम बातें कर रहे थे, बीच-बीच में कई बार घंटी बजी और उसे संदेश पढ़कर जवाब भेजने पड़े। एक बार जब वहाँ से ट्रेन गुज़री तो वह बाहर गया, उसने झंडी दिखाई और ट्रेन के ड्राइवर से कुछ चिल्ला कर कहा भी, मैंने पाया कि काम निपटाते वक़्त वह बेहद सतर्क और मुस्तैद रहता, जब तक काम निपट जाता, वह एकदम ख़ामोश रहता।

    देखा जाए तो इस नौकरी के लिए वह एकदम भरोसेमंद आदमी था, पर हालात कुछ ऐसे बने कि...जब वह मुझसे बात कर रहा था तो बेवजह घंटी की तरफ़ देखने लगता, जब वह बज भी नहीं रही होती। एक बार तो उसने कोठरी का दरवाज़ा भी खोला (जिसे सीलन की बदबू रोकने के लिए बंद कर रखा था) और वह बाहर जाकर सुरंग के मुहाने पर लगी लाल बत्ती की तरफ़ भी देखने लगा। दोनों ही मौकों पर जब वह लौट कर अँगीठी के निकट आया तो उसके चेहरे पर वही अजीब-सा भाव था, जिसे मैंने पहले भी देखा था और जिसे समझ पाना मुश्किल था।

    जाने के लिए जब मैं उठा तो मैंने उससे कहा: “तुम्हें देख कर मुझे लगा है कि आज मैं एक ऐसे शख़्स से मिला हूँ, जो अपनी दुनिया में ख़ुश और संतुष्ट है।” (मैं मानता हूँ यह मैंने महज उसका हौसला बढ़ाने के लिए कहा था)।

    “हाँ मैं ख़ुद भी यही समझता था”, वह उसी धीमे स्वर में बोला, “पर अब मैं परेशान हूँ, सर मैं बहुत परेशान हूँ”।

    “क्या बात है? तुम्हें क्या परेशानी है?”

    “उसे बताना मुश्किल है सर, बहुत मुश्किल, अगर आप फिर कभी आएँ तो मैं बताने की कोशिश करूँगा।”

    “मैं ज़रूर तुमसे दोबारा मिलना चाहता हूँ। बताओ हम कब मिल सकते हैं?”

    “सर, सुबह मेरी ड्यूटी ख़त्म होती है, फिर रात दस बजे मैं काम पर आऊँगा।”

    “ठीक है, मैं ग्यारह बजे तुमसे आकर मिलूँगा”।

    उसने मेरा शुक्रिया अदा किया और मुझे छोड़ने दरवाज़े तक आया।

    “सर, जब तक आप ऊपर नहीं पहुँच जाते मैं अपनी सफ़ेद बत्ती दिखाता रहूँगा।” उसने अपनी उसी धीमी आवाज़ में कहा, “पर बीच रास्ते में और ऊपर पहुँचने के बाद भी कोई आवाज़ मत दीजिएगा।”

    उसका हाव-भाव कुछ ऐसा था कि मुझे वह जगह और भी रहस्यमय लगने लगी और मेरे जिस्म में कँपकपी-सी दौड़ गई। बहरहाल मैंने इतना ही कहा “ठीक है”।

    “और कल जब आप नीचे आएँ, तब भी कोई आवाज़ दीजिएगा। जाने से पहले मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ, आख़िर आपने आज इस तरह क्यों पुकारा था, हैलो! वहाँ नीचे!”

    “मुझे याद नहीं, मैं क्या बोला था, हाँ, शायद कुछ ऐसा ही पुकारा था...”

    “शायद नहीं, सर, यक़ीनन यही शब्द आपने कहे थे, मैं अच्छी तरह जानता हूँ।”

    “हाँ ठीक है, यही शब्द होंगे, मैंने कहा होगा क्योंकि मैंने तुम्हें नीचे खड़े देखा था।”

    “क्या और कोई वजह नहीं थी?”

    “और क्या वजह हो सकती है?”

    “क्या आपको ऐसा नहीं महसूस हुआ कि कोई दैवी शक्ति आपको यही शब्द कहने के लिए बाध्य कर रही थी।”

    “नहीं?”

    गुड नाइट कह कर उसने बत्ती ऊपर कर दी। मैं नीचे रेलवे लाइन के किनारे-किनारे चलता रहा, जब तक सही रास्ता मिल गया। नीचे उतरने से ऊपर चढ़ना ख़ासा आसान लगा, और मैं अपनी सराय में बिना किसी जोखिम के पहुँच गया।

    अगली रात मुलाकात के लिए तय वक़्त पर, मैंने उसी ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर दोबारा क़दम रखा, उसी क्षण दूर कहीं ग्यारह का गजर बजा, वह नीचे मेरा इंतज़ार कर रहा था, उसके हाथ में दूधिया रोशनी वाली बत्ती थी। मैंने आवाज़ नहीं दी, पर नजदीक पहुँचते ही मैंने पूछा,

    “क्या मैं अब कुछ कह सकता हूँ?”

    “बिल्कुल सर”।

    एक-दूसरे को अभिवादन कर हम साथ-साथ कोठरी तक आए, अंदर जाकर उसने दरवाज़ा बंद कर लिया, हम अँगीठी के करीब आकर बैठ गए।

    “सर, मैंने तय कर लिया है”, जैसे ही हम बैठे फुसफुसाहट के स्वर में उसने कहना शुरू किया, “आपको दोबारा नहीं पूछना पड़ेगा कि मेरी परेशानी क्या है, दरअसल कल शाम मैं आपको कोई और ही समझ बैठा था, उसी ने मुझे परेशान कर रखा था।”

    —“बस इस वजह से?”

    नहीं, उस दूसरे शख़्स से परेशान था जो मैं आपको समझ बैठा था।”

    “कौन है वह?”

    “मैं नहीं जानता।”

    “मेरी तरह है कोई?”

    “मैं नहीं जानता, मैंने कभी उसका चेहरा नहीं देखा, उसका बायाँ हाथ चेहरे के सामने होता है और दायाँ हाथ हवा में लहराता रहता है, उत्तेजना से—इस तरह।”

    मैं ग़ौर से उसके हाथ के इशारे को देखता रहा, यह बेहद उत्तेजना और भावावेश में किया गया हाथ का इशारा था: “ख़ुदा के वास्ते रास्ते से हट जाओ।”

    ‘‘एक पूर्णमासी की रात में”, वह बताने लगा, “मैं यहाँ बैठा था, जब मैंने चीख़ती हुई यह आवाज़ सुनी।”

    “हैलो! वहाँ नीचे!” मैं चौंक गया, दरवाज़े से देखा कि कोई सुरंग के नज़दीक लाल बत्ती के मुहाने खड़ा हाथ हिला रहा है। ठीक वैसे ही जैसे मैंने अभी-अभी आपको दिखाया, चिल्लाने से आवाज़ फट गई थी, “देखो, ज़रा संभलो!” और फिर “हैलो! वहाँ नीचे। देखो, हट जाओ!” मैंने अपनी लालटेन उठाई और लाल रोशनी को तेज़ कर चिल्लाते हुए उस आदमी की तरफ़ भागा:

    “क्या बात है? क्या हो गया?”

    वह आकृति सुरंग के घुप्प अँधेरे में खड़ी थी, जब मैं उसके कुछ क़रीब पहुँचा तो देखा उसकी कमीज़ की आस्तीन उसके चेहरे पर लहरा रही थी। मैं सीधे उसके निकट गया और हाथ बढ़ाकर उसकी क़मीज़ पकड़ना ही चाहता था कि वह छाया ओझल हो गई।”

    “कहाँ, सुरंग में?” मैंने पूछा।

    “पता नहीं, मैं सुरंग के भीतर पाँच सौ गज तक भागते हुए गया। मैंने लैंप की रोशनी को ऊपर उठाकर देखा। दूर कुछ धुँधली आकृतियाँ दिखाई दे रहीं थीं। मैं लौट कर तेज़ी से बाहर की तरफ़ भागा और अपनी लाल रोशनी में चारों तरफ़ देखा। फिर लोहे की सीढ़ियों से ऊपर बनी गैलरी में भी खड़े होकर देखा। मैं नीचे उतरा और भाग कर यहाँ गया, मैंने दोनों तरफ़ तार देकर पूछा, “कुछ गड़बड़ है क्या” दोनों तरफ़ से जवाब आया: “सब ठीक है”।

    अपने भीतर उठ रही कँपकँपी पर क़ाबू पाते हुए मैंने उसे समझाया कि उस आकृति को देखना आँखों का धोखा भी तो हो सकता है। ऐसे कई क़िस्से सुनने में आए हैं, जहाँ आँखों की किसी नस की बीमारी की वजह से रोगी को किसी चीज़ का भ्रम हो जाता है और इसे उन लोगों पर कई प्रयोगों से साबित भी किया गया है। जहाँ तक उस काल्पनिक पुकार का सवाल है तो पलभर ज़रा ध्यान से इस सुनसान वादी में हवा को सुनो जो टेलीफ़ोन के तारों से टकरा कर एक अजीब तरह की आवाज़ पैदा कर रही है!”

    कुछ पल बाद हम जब दोबारा बैठे तो वह बोला कि सालों तक तमाम सर्द रातें उसने यहाँ अकेले बिताई हैं, क्या वह हवा और तारों की आवाज़ को नहीं पहचानता? फिर उसने मुझे टोका कि अभी उसकी बात पूरी नहीं हुई है।

    मैंने माफ़ी माँगी, वह हल्के से मेरी बाँह छूते हुए बोलने लगा:

    “उस घटना के छह घंटे के भीतर इस लाइन पर एक अजीबोग़रीब दुर्घटना घटी और दस घंटे बाद मृतकों और घायलों को उस सुरंग में से ठीक उसी जगह पर लाया गया, जहाँ वह आकृति दिखाई दी थी।’

    विस्मय भरी सिहरन मेरे बदन में फैल गई, पर मैंने उस पर क़ाबू पाने की कोशिश करते हुए कहा, “इसमें कोई शक नहीं कि यह एक अजीब इत्तफ़ाक है।” यह कह मैंने उसे तसल्ली देनी चाही, पर बहस की कोई गुँजाइश ही नहीं थी, क्योंकि ऐसे इत्तफ़ाकों का बार-बार घटना असंभव था और ऐसे किसी भी मुद्दे पर बात करते समय इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी था। फिर भी मैं बोला (हालाँकि मैं जानता था, यह उसे नागवार गुज़रेगा) कि कोई भी समझदार आदमी जीवन के सामान्य मसलों पर ग़ौर करते समय इस तरह के इत्तफ़ाकों पर ध्यान नहीं देता, उसने फिर गुज़ारिश की कि उसकी बात अभी पूरी नहीं हुई है।

    बीच में टोकने के लिए मैंने फिर से माफ़ी माँगी।

    “यह साल भर पहले की बात है”, उसने फिर से मेरे कंधे पर हाथ रख लिया और बताने लगा, “छह या सात महीने गुज़र चुके थे और मैं उस सदमे से उबर चुका था, तब एक सुबह जब दिन निकला ही था, मैं इस दरवाज़े पर खड़ा लाल बत्ती को देख रहा था कि मैंने दोबारा उस काली छाया को देखा, वह एकटक मेरी ओर देख रही थी’’, वह रुक गया और एकटक मुझे घूरने लगा।

    “क्या उसने तुम्हें पुकारा था?”

    “नहीं, वह ख़ामोश थी।”

    “उसने अपना हाथ हिलाया था?”

    “नहीं, हाथों से उसने अपना चेहरा ढाँप रखा था और वह बिजली के खंभे पर झुकी हुई थी, यूँ।”

    एक बार फिर मैंने उसके इशारे को ग़ौर से देखा, यह बिल्कुल किसी के विलाप प्रकट करने की मुद्रा था। मैंने ऐसी मुद्रा क़ब्रों पर अंकित तस्वीरों में देखी “क्या तुम उसके निकट गए?”

    “मैं अंदर आकर बैठ गया, पहले तो इसलिए कि मैं इस पर सोचना चाहता था, दूसरे उसे देख कर मेरे होश उड़ गए थे। मैं दोबारा जब दरवाज़े पर गया तो दिन चढ़ आया था और वह छाया वहाँ नहीं थी।”

    “पर उसके बाद कुछ नहीं घटा?”

    उसने अपनी उँगलियों से मेरी बाँह को दो-तीन बार छुआ, हर बार वह एक डरावने ढंग से सिर हिलाता।

    “उसी दिन जब सुरंग में से गाड़ी आई, तो मैंने पाया कि डिब्बे की मेरी तरफ़ खुलने वाली एक खिड़की के भीतर कई हाथ और सिर जैसा कुछ दिख रहा था और कुछ हिल रहा था। मैंने तुरंत ड्राइवर को संकेत दिया, रुको। उसने ब्रेक लगाए, पर फिर भी ट्रेन सौ-डेढ़ सौ गज दूर रेंगती चली गई। मैं उसके पीछे भागा और क़रीब पहुँचा तो मैंने भयावह चीखें और रुदन सुना। एक ख़ूबसूरत जवान औरत की डिब्बे में मौक़े पर ही मृत्यु हो गई थी। बाद में उसे यहाँ लाया गया और यही हम दोनों के बीच की इस जगह पर लिटाया गया।”

    अनजाने में ही मैंने अपनी कुर्सी पीछे खिसका ली।

    “बिल्कुल सर, ऐसा ही हुआ, बिल्कुल सच, जो घटा मैं वही बयान कर रहा हूँ ।”

    मुझे कुछ नहीं सूझा कि मैं क्या कहूँ, मेरा हलक सूख रहा था। तारों पर से गुज़रती हवा भी मानो इस कहानी को सुन चीत्कार करती हुई वहाँ से निकलती जान पड़ती थी। उसने दोबारा कहना शुरू किया, “सर अब आप ही बताएँ और सोचे कि मेरा दिमाग़ कितना परेशान है, वह छाया हफ़्ता भर पहले फिर आई थी, तब से वह बार-बार रही है।”

    “क्या बत्ती के पास?”

    “हाँ उस ख़तरे वाली बत्ती के पास।”

    “वह क्या करती दिखाई देती है?”

    वह लगातार बेहद उत्तेजना और भावावेश में वही इशारा करती है, “ख़ुदा के वास्ते रास्ते से हट जाओ!”

    वह कहता चला गया, “मेरा चैन और आराम छिन चुका है, वह छाया हर पल मुझे पुकारती है, बेहद वेदना में तड़पते हुए चिल्लाती है, “वहाँ नीचे! देखो, ज़रा संभलो!”

    वह लगातार हाथ हिलाकर इशारा करती है, वह घंटी बजा देती है...

    मैंने इस बात पर उसे पकड़ लिया, “क्या उसने कल शाम तुम्हारी घंटी बजाई थी, जब मैं यहाँ था और तुम दरवाज़े तक गए थे?”

    “हाँ, दो बार।”

    “देखो” मैंने कहा, “तुम्हारी कल्पना किस कदर तुम्हें भ्रमित कर रही है।”

    मेरी आँखें घंटी की तरफ़ ही थीं और कान भी घंटी की तरफ़ ही लगे हुए थे और यदि मैं एक ज़िंदा इंसान हूँ तो पूरे यकीन के साथ कह सकता हूँ कि उस दौरान घंटी कतई नहीं बजी थी। सिवाय उन क्षणों में जब तुम स्टेशन को रूटीन क़िस्म के संदेश भेजते रहे थे।”

    उसने अपना सिर हिलाया। “इस बारे में मैंने आज तक कभी कोई ग़लती नहीं की सर, मैं कभी छाया की घंटी को स्टेशन से भेजी घंटी समझ ही नहीं सकता, क्योंकि छाया की घंटी में एक अजीब-सा कंपन होता है, और इसमें कोई ताज्जुब भी नहीं अगर आपने उसे नहीं सुना हो, पर मैंने उसे सुना था।”

    ‘और क्या जब तुमने बाहर झाँका तो वह छाया दिखाई दी थी?”

    “हाँ, वह थी।”

    “दोनों बार?”

    उसने पूरे विश्वास से कहा: “हाँ, दोनों बार।”

    “क्या तुम अभी मेरे साथ बाहर आओगे, और हम उसे देखें? उसने अपना निचला होंठ ऐसे काटा, मानो बाहर आने की उसकी इच्छा हो पर फिर भी वह उठा।

    मैंने दरवाज़ा खोला और सीढ़ी पर खड़ा रहा, जबकि वह दहलीज़ पर खड़ा था। बाहर ख़तरे की बत्ती जल रही थी। सुरंग का भयावह मुहाना खुला था, पत्थरों की दीवार थी, आसमां पर तारे चमक रहे थे। “क्या वह तुम्हें दिख रही है?’’ मैंने उसके चेहरे पर नज़र गड़ाते हुए पूछा, उसकी आँखें खुली थीं, पर उनमें खिंचाव था। ख़ुद मेरी आँखों में खिंचाव गया था, क्योंकि मैं भी नज़रें गड़ाकर उसी जगह को देख रहा था।

    “नहीं, वह नहीं है” वह बोला।

    “देख लिया” मैंने कहा।

    हम फिर भीतर गए, दरवाज़ा बंद कर अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठ गए। मैं इस मौक़े का पूरा फ़ायदा उठाना चाहता था, पर उसने फिर ऐसी बात शुरू कर दी कि मुझे लगा हम दोनों के बीच कोई तर्कसंगत बात होनी मुमकिन ही नहीं है, उसकी बात सुनकर मुझे अपनी हालत काफ़ी कमज़ोर जान पड़ी।

    “सर, अब तक आप बख़ूबी समझ गए होंगे”, उसने कहना शुरू किया, क्या चीज़ मुझे इस कदर परेशान कर रही है, यही कि उस छाया का क्या मतलब है?”

    “मैं कुछ नहीं समझ पा रहा हूँ” मैंने कहा।

    “यह चेतावनी किस बारे में है?” आग की ओर देखते हुए उसने कहा ख़तरा कहाँ है?” किस तरह का खतरा है? ख़तरा पटरियों पर मंडरा रहा है, ज़रूर कुछ होने वाला है। दो बार जो पहले घट चुका है, तीसरी बार उस पर संदेह नहीं किया जा सकता। यह बहुत यातनादायी है, मैं भला क्या कर सकता हूँ?”

    उसने अपना रूमाल निकाला और माथे पर से पसीने की बूँदें पोंछीं।

    “यदि मैं दोनों तरफ़ ‘ख़तरे’ का तार भेजता हूँ तो मेरे पास इसकी कोई वजह नहीं है।” अपनी हथेलियों का पसीना पोंछते हुए वह बोलता रहा, “इससे मेरी परेशानी बढ़ जाएगी और कोई फ़ायदा नहीं होगा। वे लोग सोचेंगे मैं पागल हूँ। यह कुछ इस तरह होगा—संदेश: ‘ख़तरा! सावधान रहें!’ जवाब: ‘क्या ख़तरा?

    कहाँ?’ संदेश: ‘पता नहीं, पर ख़ुदा के वास्ते सावधान रहें!’ वे लोग मुझे बरख़ास्त कर देंगे, और वे करेंगे भी क्या?”

    उसकी दिमाग़ी हालत को देख मुझे उस पर तरस रहा था। यह एक बेहद ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ आदमी की मानसिक यातना थी, जो जीवन बचाने की कठिन ज़िम्मेदारी के अहसास से सहनशीलता की तमाम सीमाओं को पार कर चुका था।

    “जब वह छाया पहली बार ख़तरे की बत्ती के पास खड़ी थी” वह बोलता गया, “अपने काले घने बालों को माथे पर से हटाते हुए वह बहुत उत्तेजना के साथ हाथ हिला रही थी, वह मुझे बता क्यों नहीं देती कि दुर्घटना कहाँ होने वाली है? और उसे कैसे रोका जा सकता है? दूसरी बार तो उसने चेहरा भी ढाँप रखा था। इसकी बजाए क्यों नहीं मुझे बताया कि वह मरने वाली है। उसे घर पर ही रोक लिया जाए? यदि वह दोनों बार केवल मुझे आगाह करने आई थी कि ये चेतावनियाँ सच हैं, तो शायद अब तीसरी के लिए मुझे तैयार कर रही है। मुझे वह सीधे-सीधे सावधान क्यों नहीं कर देती? मैं अकेला ग़रीब सिग्नल मैन भला इस सुनसान चौकी पर कर भी क्या सकता हूँ? हे ईश्वर, मेरी मदद करो! क्यों नहीं वह किसी ऐसे शख़्स के पास जाती, जिसकी बात को लोग सुनते हों और जिसके पास कुछ करने का अधिकार हो!”

    जब मैंने उसे इस हालत में देखा, तो मुझे लगा कि इस बेचारे ग़रीब के लिए ही नहीं, जनता की भलाई के लिए भी इसे इस हालत से उबारना होगा। इसलिए तथ्य और भ्रम की सारी बहस को दरकिनार कर मैंने उसे समझाया कि वह अपने काम को बड़ी ख़ूबी से अंजाम दे रहा है और उसे ऐसा करना भी चाहिए। वह अपना कर्तव्य भी बख़ूबी जानता है। भले ही वह इस आकृति के खेल को समझ पा रहा हो। अपनी इस कोशिश से मुझे वह सफलता मिली जो तर्क से उसे समझाने पर नहीं मिलती। इस बात से उसे राहत महसूस हुई। ज्यों-ज्यों रात गहराती गई उसके काम की भागदौड़ भी बढ़ने लगी। दो बजे मैंने उससे विदा ली। मैं तो पूरी रात उसके साथ बिताने को तैयार था, पर वह नहीं माना।

    रास्ते से नीचे उतरते हुए मैंने दो बार उस लाल बत्ती को मुड़कर देखा। मैं उन दो हादसों और मृत लड़की के बारे में सोचता रहा। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगा। पर सबसे ज़्यादा फ़िक्र मुझे इस बात की थी कि इस रहस्यमय वारदात को सुनने के बाद अब मुझे क्या करना चाहिए? इसमें कोई शक नहीं था कि वह एक बेहद समझदार, मेहनती और निष्ठावान कर्मचारी था। पर इस मानसिक हालत में वह कब तक अपने को ठीक-ठाक रख सकेगा? हालांकि वह मामूली नौकरी थी, पर फिर भी काफी ज़िम्मेदारी से भरी हुई थी।

    मुझे बार-बार ऐसा महसूस हो रहा था कि उसने मुझे जो कुछ बताया है, यदि वह सब मैं उसके अफ़सरों को जाकर बता देता तो यह विश्वासघात होगा। इससे पहले उसी के साथ सीधे-सीधे बात कर बीच का कोई रास्ता निकलना होगा। आख़िरकार मैंने तय किया कि आस-पास के किसी चिकित्सक के पास उसे ले जाकर उसकी राय लेना ठीक रहेगा। तब तक मैं उसका राज़ अपने तक ही रखूँगा। उसने मुझे बताया था कि उसकी ड्यूटी का समय बदलेगा और सूर्योदय के एक दो घंटे बाद उसकी छुट्टी हो जाएगी। मैंने उस समय उससे मिलना तय कर लिया था।

    अगले दिन शाम बड़ी ख़ुशगवार थी। मैं उसका लुत्फ़ उठाने के लिए जल्दी ही निकल पड़ा, सूरज अभी डूबा नहीं था। मैंने सोचा घंटे भर तक सैर करूँगा, आधा घंटा जाने के लिए आधा घंटा लौटने के लिए, तब तक उससे मिलने का वक़्त भी हो जाएगा।

    सैर शुरू करने से पहले अनायास ही मैंने पहाड़ी के किनारे से नीचे झाँका, जहाँ से मैंने पहली बार उसे देखा था। मैं बयान नहीं कर सकता मैं इस कदर रोमांचित हो उठा, जब मैंने सुरंग के मुँह पर एक आदमी को वैसा ही इशारा करते देखा, उसकी क़मीज़ की आस्तीन उसकी आँखों पर रही थी वह उत्तेजना में अपना दायाँ हाथ हिला रहा था।

    पर दूसरे ही पल एक अनाम-सा आतंक मुझ पर हावी हो गया, क्योंकि पल भर बाद ही मैंने देखा कि वह सचमुच एक आदमी की आकृति थी। वह आदमी कुछ दूर खड़ी एक भीड़ को यह सब अभिनय करके दिखा रहा था। ख़तरे की बत्ती अभी तक नहीं जलाई गई थी, पर खंभे के नीचे कड़ी और तिरपाल की सहायता से एक मचान बनाई गई थी, जो मैंने पहले नहीं देखी थी, वह बमुश्किल एक बिस्तर जितनी थी।

    मुझे तुरंत अंदेशा हुआ ज़रूर कोई हादसा हुआ है, मैं तंग गली से उतर कर तेज़ी से नीचे आया।

    “क्या बात है?” मैंने लोगों से पूछा।

    “सर, आज सुबह सिग्नल मैन मारा गया।”

    “उस कोठरी में रहता है वह तो नहीं?”

    “हाँ वही, सर?”

    “क्या वही जिसे मैं जानता हूँ?”

    “सर अगर आप उसे जानते हैं तो देखकर पहचान लेंगे” उस व्यक्ति ने कहा और तिरपाल का कोना उठा दिया।

    “ओह! यह सब कैसे हो गया?” मैंने पूछा।

    “सर, वह इंजिन से कट गया। इंग्लैंड में कोई और इस काम को उससे बेहतर नहीं कर सकता था। पर पता नहीं क्यों वह बाहर से आती हुई रेल के बारे में सावधान नहीं था, यह हादसा दिन की रोशनी में हुआ। उसने बत्ती जला रखी थी और हाथ में लालटेन थी। इंजिन जब सुरंग से बाहर निकला, इसकी पीठ उस तरफ़ थी और वह कुचला गया। अभी उस गाड़ी का ड्राइवर हाथ के इशारे से सबको दिखा रहा था।”

    “टॉम, इन साहब को भी दिखाओ।”

    वह आदमी जिसने काले कपड़े पहन रखे थे, एक बार फिर सुरंग के भीतर तक गया और बताने लगा,

    “सुरंग में मोड़ पर ही मैंने उसे देखा, गाड़ी की गति को कम करने का समय ही नहीं था और मैं जानता था। वह काफ़ी एहतियात बरतने वाला कर्मचारी है, पर जब मैंने देखा कि वह इंजिन की सीटी पर ध्यान ही नहीं दे रहा है तो मैंने सीटी बंद कर दी और अपनी पूरी शक्ति से चिल्लाने लगा”।

    “तुमने क्या कहा?”

    “मैंने कहा, वहाँ नीचे, देखो ज़रा, संभलो! ख़ुदा के वास्ते रास्ते से हट जाओ!” मैं सन्न रह गया।

    ओह सर, यह बहुत भयानक था, मैं लगातार बिना रुके चिल्ला-चिल्लाकर इशारा करता रहा, मैंने अपना यह हाथ आँखों पर रख लिया, ताकि मैं कुछ देख सकूँ और आख़िर तक मैं हाथ हिलाता रहा; पर कोई फ़ायदा हुआ।”

    अब इस क़िस्से को और ज़्यादा फैलाते हुए मैं सिर्फ़ यही कहूँगा कि यह कैसा संजोग था कि उस सिग्नल मैन ने अपनी मौत से पहले इंजिन ड्राइवर के केवल शब्दों को बल्कि उसके इशारे तक को मेरे सामने दोहराया था। यह मौत का कैसा पूर्वाभास था!

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 3)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : चार्ल्स डिकेन्स
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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