एक
वाजिद अली शाह का समय था। लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था। छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब, सभी विलासिता में डूबे हुए थे। कोई नृत्य और गान की मजलिस सजाता था, तो कोई अफ़ीम की पीनक ही में मज़े लेता था। जीवन के प्रत्येक विभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। शासन-विभाग में, साहित्य-क्षेत्र में, सामाजिक व्यवस्था में, कला-कौशल में, उद्योग-धंधों में, आहार-व्यवहार में, सर्वत्र विलासिता व्याप्त हो रही था। राज कर्मचारी विषय-वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलाबत्तू और चिकन बनाने में, व्यावसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन का रोज़गार करने में लिप्त थे। सभी की आँखों में विलासिता का मद छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को ख़बर न थी। बटेर लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के लिए पाली बदी जा रही है। कहीं चौसर बिछी हुई है; पौ बारह का शोर मचा हुआ है। कहीं शतरंज का घोर संग्राम छिड़ा हुआ है। राजा से लेकर रंक तक इसी धुन में मस्त थे। यहाँ तक कि फ़क़ीरों को पैसे मिलते तो वे रोटियाँ न लेकर अफ़ीम खाते या शराब पीते। शतरंज ताश, गंजिफ़ा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार-शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है। ये दलीलें ज़ोरों के साथ पेश की जाती थी। (इस संप्रदाय के लोगों से दुनिया अब भी ख़ाली नहीं है।) इसलिए अगर मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रौशन अली अपना अधिकांश समय बुद्धि तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो किसी विचारशील पुरुष को क्या आपत्ति हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी जागीरें थी; जीविका की कोई चिंता न थी, घर में बैठे चखोतियाँ करते थे। आख़िर और करते ही क्या! प्रातःकाल दोनों मित्र नाश्ता करके बिसात बिछाकर बैठ जाते, मुहरे सज जाते, दाँव पेंच होने लगते। फिर ख़बर न होती थी कि कब दुपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब शाम। घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता कि खाना तैयार है। यहाँ से जवाब मिलता—चलो, आते है; दस्तरख़्वान बिछाओ। यहाँ तक कि बावरची विवश होकर कमरे में ही खाना रख जाता था, और दोनों मित्र दोनों काम साथ-साथ करते थे। मिर्ज़ा सज्जाद अली के घर में बड़ा-बूढ़ा न था, इसलिए उन्हीं के दीवानख़ाने में बाज़ियाँ होती थीं, मगर यह बात न थी कि मिर्ज़ा के घर के और लोग उनके व्यवहार से ख़ुशी हों। घरवालों का तो कहना ही क्या, मुहल्लेवाले घर के नौकर-चाकर तक नित्य द्वेष-पूर्ण टिप्पणियाँ किया करते थे—बड़ा मनहूस खेल है। घर को तबाह कर देता है। ख़ुदा न करे, किसी को इसकी चाट पड़े। आदमी दीन-दुनिया, किसी काम का नहीं रहता, न घर का न घाट का। बुरा रोग है। यहाँ तक कि मिर्ज़ा की बेगम साहब इससे इतना द्वेष था कि अवसर खोज-खोजकर पति को लताड़ती थीं। पर उन्हें इसका अवसर मुश्किल से मिलता था। वह सोती ही रहती थीं, तब तक उधर बाज़ी बिछ जाती थी। और, रात को जब सो जाती थी, तब कहीं मिर्ज़ा जी भीतर आते थे। हाँ, नौकरों पर वह अपना ग़ुस्सा उतारती रहती थीं—क्या पान माँगे हैं? कह दो, आकर ले जाएँ। खाने को भी फ़ुर्सत नहीं है? ले जाकर खाना सिर पर पटक दो, खाएँ, चाहे कुत्ते को खिलावें; पर दू-बदू वह भी कुछ न कह सकती थीं। उनको अपने पति से उतना मलाल न था, जितना मीर साहब से। उन्होंने उनका नाम मीर बिगाड़ू रख छोड़ा था। शायद मिर्ज़ा जी अपनी सफ़ाई देने के लिए सारा इल्ज़ाम मीर साहब ही के सिर पर थोप देते थे।
एक दिन बेगम साहब के सिर में दर्द होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा—जाकर मिर्ज़ा साहब को बुला ला। किसी हकीम के यहाँ से दवा लावें। दौड़, जल्दी कर। लौंडी गई तो, मिर्ज़ा जी ने कहा—चल, अभी आते हैं। बेगम साहब का मिज़ाज गर्म था। इतनी बात कहाँ कि उनके सिर में दर्द हो, और पति शतरंज खेलता रहे। चेहरा सुर्ख़ हो गया। लौंडी से कहा—जाकर कह, अभी चलिए, नहीं तो वह आप ही हकीम के यहाँ चली जाएँगी। मिर्ज़ा जी बड़ी दिलचस्प बाज़ी खेल रहे थे, दो ही क़िश्तों में मीर साहब की मात हुई जाती थी। झुँझलाकर बोले—क्या ऐसा दम लबों पर है? ज़रा सब्र नहीं होत?
मीर—अरे, तो जाकर सुन ही आइए न। औरतें नाज़ुक-मिज़ाज होती ही हैं।
मिर्ज़ा—जी हाँ, चला क्यों न जाऊँ! दो क़िश्तों में आपको मात होती है।
मीर—जनाब, इस भरोसे न रहिएगा। वह चाल सोची है कि आपके मुहरे धरे रहें, और मात हो जाए, पर जाइए, सुन आइए। क्यों ख़ामख़्वाह उनका दिल दुखाइएगा?
मिर्ज़ा—इसी बात पर मात ही करके जाऊँगा।
मीर—मैं खेलूँगा ही नहीं। आप जाकर सुन आइए।
मिर्ज़ा—अरे यार जाना पड़ेगा हकीम के यहाँ। सिर-दर्द ख़ाक नहीं है; मुझे परेशान करने का बहाना है।
मीर—कुछ ही हो, उनकी ख़ातिर तो करनी ही पड़ेगी।
मिर्ज़ा—अच्छा, एक चाल और चल लूँ।
मीर—हरगिज़ नहीं, जब तक आप सुन न आवेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊँगा।
मिर्ज़ा साहब मजबूर होकर अंदर गए तो बेगम साहब ने त्योरियाँ बदलकर, लेकिन कराहते हुए कहा—तुम्हें निगोड़ी शतरंज इतनी प्यारी है! चाहे कोई मर ही जाए पर उठने का नाम नहीं लेते! नौज कोई तुम-जैसा आदमी हो!
मिर्ज़ा—क्या कहूँ, मीर साहब मानते ही न थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाकर आया हूँ।
बेगम—क्या जैसे वह ख़ुद निखट्टू हौ, वैसे ही सबको समझते है? उनके भी बाल-बच्चे हैं; या सबका सफ़ाया कर डाला?
मिर्ज़ा—बड़ा लती आदमी है। जब आ जाता है, तब मजबूर होकर मुझे भी खेलना ही पड़ता है।
बेगम—दुत्कार क्यों नहीं देते?
मिर्ज़ा—बराबर का आदमी हैं; उम्र में, दर्जे में मुझसे दो अंगुल ऊँचे। मुलाहिज़ा करना ही पड़ता है।
बेगम—तो मैं ही दुत्कारें देती हूँ। नाराज़ हो जाएँगे, हो जाएँ। कौन किसी की रोटियाँ चला देता है? रानी रूठेंगी, अपना सुहाग लेंगी।—हिरिया, जा, बाहर से शतरंज उठा ला। मीर साहब से कहना, मियाँ अब न खेलेंगे, आप तशरीफ़ ले जाइए।
मिर्ज़ा—हाँ-हाँ, कहीं ऐसा ग़ज़ब भी न करना! ज़लील करना चाहती हो क्या? ठहर हिरिया कहाँ जाती है?
बेगम—जाने क्यों नहीं देते? मेरा ही ख़ून पिए, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका! मुझे रोको, तो जानूँ!
यह कहकर बेगम साहबा झल्लाई हुई दीवानख़ाने की तरफ़ चलीं। मिर्ज़ा बेचारे का रंग उड़ गया। बीबी की मिन्नतें करने लगे—ख़ुदा के लिए, तुम्हें हज़रत हुसैन की क़सम है। मेरी ही मैयत देखे, जो उधर जाए। लेकिन बेगम ने एक न मानी। दीवानख़ाने के द्वार तक चली गई; पर एकाएक पर-पुरुष के सामने जाते हुए पाँव बँध से गए। भीतर झाँका। संयोग से कमरा ख़ाली था। मीर साहब ने दो-एक मुहरें इधर-उधर कर दिए थे और अपनी सफ़ाई जताने के लिए बाहर टहल रहे थे। फिर क्या था, बेगम ने अंदर पहुँचकर बाज़ी उलट दी, मुहरे कुछ तख़्त के नीचे फेंक दिए, कुछ बाहर; और किवाड़े अंदर से बंद करके कुंडी लगा दी। मीर साहब दरवाज़े पर तो थे ही, मुहरे बाहर फेंके जाते देखे, चूड़ियों की झनक भी कान में पड़ी। फिर दरवाज़ा बंद हुआ, तो समझ गए बेगम साहबा बिगड़ गई। चुपके से घर की राह ली।
मिर्ज़ा ने कहा—तुमने ग़ज़ब किया!
बेगम—अब मीर साहब इधर आए, तो खड़े-खड़े निकलवा दूँगी। इतनी लौ ख़ुदा से लगाते तो वली ही जाते! आप तो शतरंज खेलें, और मैं यहाँ चूल्हे-चक्की की फ़िक्र में सिर खपाऊँ! जाते हो हकीम साहब के यहाँ कि अब भी ताम्मुल है?
मिर्ज़ा घर से निकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुँचे, और सारा वृत्तांत कहा। मीर साहब बोले—मैंने तो जब मुहरें बाहर आते देखे, तभी ताड़ गया। फ़ौरन भागा। बड़ी ग़ुस्सेवर मालूम होती हैं, मगर आपने उन्हे यों सिर पर चढ़ा रक्खा है। यह मुनासिब नहीं। उन्हें इससे क्या मतलब कि आप बाहर क्या करते हैं। घर का इंतज़ाम करना उनका काम है; दूसरी बातों से उन्हें क्या सरोकार?
मिर्ज़ा—ख़ैर, यह तो बताइए, अब कहाँ जमाव होगा?
मीर—इसका क्या ग़म है! इतना बड़ा घर पड़ा हुआ है। बस, यहीं जमे।
मिर्ज़ा—लेकिन बेगम साहबा को कैसे मनाऊँगा। जब घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतनी बिगड़ती थी; यहाँ बैठक होगी, तो शायद ज़िंदा न छोड़ेंगी।
मीर—अजी, बकने भी दीजिए; दो-चार रोज़ में आप ही ठीक हो जाएँगी। हाँ, आप इतना कीजिए कि आज से ज़रा तन जाइए।
दो
मीर साहब की बेगम किसी अज्ञात कारण से उनका घर से दूर रहना ही उपयुक्त समझती थीं। इसलिए वह उनके शतरंज प्रेम की कभी आलोचना न करती थी; बल्कि कभी-कभी मीर साहब को देर हो जाती, तो याद दिला देती थीं। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कि मेरी स्त्री अत्यंत विनयशील और गंभीर है। लेकिन जब दीवानख़ाने में बिसात बिछने लगी और मीर साहब दिन-भर घर में रहने लगे, तो बेगम साहबा को बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गई। दिन भर दरवाज़े पर झाँकने को तरस जातीं।
उधर नौकरों में काना-फूसी होने लगी। अब तक दिन-भर पड़े-पड़े मक्खियाँ मारा करते थे। घर में चाहे कोई आवे, कोई जाए, उनसे कुछ मतलब न था! अब आठों पहर की धौंस हो गई। कभी पान लाने का हुक्म होता, कभी मिठाई का और हुक्का तो किसी प्रेमी के हृदय की भाँति नित्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहिबा से जा-जाकर कहते—हुज़ूर, मियाँ की शतरंज तो हमारे जी का जंजाल हो गई! दिन भर दौड़ते-दौड़ते पैरौं में छाले पड़ गए। यह भी कोई खेल है कि सुबह को बैठे तो शाम ही कर दी! घड़ी आध घड़ी दिल बहलाव के लिए खेल लेना बहुत है। ख़ैर, हमें तो कोई शिकायत नहीं; हुज़ूर के ग़ुलाम हैं, जो हुक्म होगा, बजा ही लावेंगे, मगर यह खेल मनहूस है। इसका खेलनेवाला कभी पनपता नहीं; घर पर कोई-न-कोई आफ़त ज़रूर आती है। यहाँ तक कि एक के पीछे मुहल्ले-के-मुहल्ले तबाह होते देखे गए हैं। सारे मुहल्ले मे यही चर्चा होती रहती है। हुज़ूर का नमक खाते हैं, अपने आक़ा की बुराई सुन-सुनकर रंज होता है, मगर क्या करें। इस पर बेगम साहबा कहती—मैं तो ख़ुद इसको पसंद नहीं करती, पर वह किसी की सुनते ही नहीं, क्या किया जाए।
मुहल्ले में भी दो-चार पुराने ज़माने के लोग थे, वे आपस में भाँति-भाँति के अमंगल की कल्पनाएँ करने लगे—अब ख़ैरियत नहीं है। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का ख़ुदा ही हाफ़िज़ है। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं।
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा दिन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई फ़रियाद सुनने वाला न था। देहातों की सारी दौलत लखनऊ में खिची चली आती थी, और वह वेश्याओ में, भाँड़ो में और विलासता के अन्य अंगों की पूर्ति मे उड़ जाती थी। अँग्रेज़ कंपनी का ऋण दिन-दिन बढ़ता जाता था। कमली दिन-दिन भीगकर भारी होती जाती थी। देख में सुव्यवस्था न होने के कारण वार्षिक कर भी न वसूल होता था। रेज़ीडेंट बार-बार चेतावनी देता था; पर यहाँ तो लोग विलासिता के नशे में चूर थे; किसी के कानों में जूँ न रेंगती थी।
ख़ैर, मीर साहब के दीवानख़ाने में शतरंज होते कई महीने गुज़र गए। नए-नए नक़्शे हल किए जाते, नए-नए बनाए जाते, नित्य नई ब्यूह रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; तू-तू, मैं-मैं तक की नौबत आ जाती; पर शीघ्र ही दोनों मित्रों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कि बाज़ी उठा दी जाती; मिर्ज़ा जी रूठकर अपने घर चले जाते। मीर साहब अपने घर में जा बैठते। पर रातभर की निद्रा के साथ सारा मनोमालिन्य शांत हो जाता था। प्रातःकाल दोनों मित्र दीवानख़ाने में आ पहुँचते थे।
एक दिन दोनों मित्र बैठे शतरंज की दलदल में ग़ोते खा रहे थे कि इतने में घोड़े पर सवार एक बादशाही फ़ौज का अफ़सर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुँचा। मीर साहब के होश उड़ गए। यह क्या बला सिर पर आई? यह तलबी किस लिए हुई? अब ख़ैरियत नहीं नज़र आती! घर के दरवाज़े बंद कर लिए। नौकर से बोले—कह दो घर में नहीं है।
सवार—घर में नहीं, तो कहाँ है?
नौकर—यह मैं नहीं जानता। क्या काम है?
सवार—काम तुझे क्या बतालाऊँ? हुज़ूर से तलबी है। शायद फ़ौज के लिए कुछ सिपाही माँगे गए है। जागीरदार हैं कि दिल्लगी! मोर्चे पर जाना पड़ेगा तो आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा!
नौकर—अच्छा, तो जाइए, कह दिया जाएगा।
सवार—कहने की बात नहीं। कल मै ख़ुद आऊँगा, साथ ले जाने का हुक्म हुआ है।
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा काँप उठी। मिर्ज़ा जी से बोले—कहिए, जनाब, अब क्या होगा?
मिर्ज़ा—बड़ी मुसीबत है। कहीं मेरी भी तलबी न हो।
मीर—कम्बख़्त कल आने को कह गया है।
मिर्ज़ा—आफ़त है, और क्या! कहीं मोर्चे पर जाना पड़ा, तो बेमौत मरे।
मीर—बस, यही एक तदबीर है कि घर पर मिलें ही नहीं। कल से गोमती पर कहीं वीराने नें नक़्शा जमे। वहाँ किसे ख़बर होगी? हज़रत आकर लौट जाएँगे।
मिर्ज़ा—वल्लाह, आपको ख़ूब सूझी! इसके सिवा और कोई तदबीर ही नहीं हैं।
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थीं—तुमने ख़ूब धता बताई। उसने जवाब दिया—ऐसे गावदियों को तो चुटकियों पर नचाता हूँ। इनकी सारी अक्ल और हिम्मत तो शतरंज ने चर ली। अब भूलकर भी घर पर न रहेंगे।
तीन
दूसरे दिन से दोनों मित्र मुँह-अँधेरे घर से निकल खड़े होते। बग़ल में एक छोटी-सी दरी दबाए, डिब्बे में गिलौरियाँ भरे, गोमती पार की एक पुरानी वीरान मस्जिद में चले जाते, जिसे शायद नवाब आसफ़उद्दौला ने बनवाया था। रास्ते में तंबाकू, चिलम और मदरिया ले लेते और मस्जिद में पहुँच, दरी बिछा, हुक्का भरकर शतरंज खेलने बैठ जाते थे। फिर उन्हें दीन-दुनिया की फ़िक्र न रहती थी। किश्त, शह आदि दो-एक शब्दों के सिवा मुँह से और कोई वाक्य नहीं निकलता था। कोई योगी भी समाधि में इतना एकाग्र न होता होगा। दुपहर को जब भूख मालूम होती, तो दोनों मित्र किसी नानबाई की दुकान पर जाकर खाना खा आते और एक चिलम हुक्का पीकर फिर संग्राम क्षेत्र में डट जाते। कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी ख़्याल न रहता था।
इधर देश की राजनीतिक दशा भयंकर होती जा रही थी। कंपनी की फ़ौजें लखनऊ की तरफ़ बढ़ी चली आती थीं। शहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को ले-लेकर देहातों में भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खिलाड़ियों को इसकी ज़रा भी फ़िक्र न थी। वे घर से आते, तो गलियों में होकर। डर था कि कहीं किसी बादशाही मुलाज़िम की निगाह न पड़ जाए, जो बेगार में पकड़े जाएँ। हज़ारों रुपए सालाना की जागीर मुफ़्त में ही हज़म करना चाहते थे।
एक दिन दोनों मित्र मस्जिद के खँडहर में बैठे हुए शतरंज खेल रहे थे। मिर्ज़ा की बाज़ी कुछ कमज़ोर थी। मीर साहब उन्हें किश्त-पर-किश्त दे रहे थे। इतने में कंपनी के सैनिक आते हुए दिखाई दिए। यह गोरों की फ़ौज थी, जो लखनऊ पर अधिकार जमाने के लिए आ रही थी।
मीर साहब बोले—अँग्रेज़ी फौज़ आ रही है; ख़ुदा ख़ैर करे!
मिर्ज़ा—आने दीजिए, किश्त बचाइए। लो यह किश्त!
मीर—ज़रा देखना चाहिए, यहीं आड़ में खड़े हो जाएँ।
मिर्ज़ा—देख लीजिएगा, जल्दी क्या है, फिर किश्त!
मीर—तोपख़ाना भी हैं। कोई पाँच हज़ार आदमी होंगे। कैसे-कैसे जवान है। लाल बंदरों के-से मुँह। सूरत देखकर ख़ौफ़ मालूम होता है।
मिर्ज़ा—जनाब, हीले न कीजिए। ये चकमे किसी और को दीजिएगा। यह किश्त!
मीर—आप भी अजीब आदमी है। यहाँ तो शहर पर आफ़त आई हुई है और आपको किश्त की सूझी है! कुछ इसकी भी ख़बर है कि शहर घिर गया तो घर कैसे चलेंगे?
मिर्ज़ा—जब घर चलने का वक़्त आएगा, तो देखी जाएगी—यह किश्त, बस अब की शह में मात है।
फ़ौज निकल गई। दस बजे का समय था। फिर बाज़ी बिछ गई।
मिर्ज़ा बोले—आज खाने की कैसे ठहरेगी?
मीर—अजी, आज तो रोज़ा है। क्या आपको भूख ज़्यादा मालूम होती है?
मिर्ज़ा—जी नहीं। शहर में जाने क्या हो रहा है!
मीर—शहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे। हुज़ूर नवाब साहब भी ऐशगाह में होंगे।
दोनों सज्जन फिर जो खेलने बैठे, तो तीन बज गए। अब की मिर्ज़ा जी की बाज़ी कमज़ोर थी। चार का गजर बज ही रहा था कि फ़ौज की वापसी की आहट मिली। नवाब वाजिद अली शाह पकड़ लिए गए थे, और सेना उन्हें किसी अज्ञात स्थान को लिए जा रही थी। शहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूँद भी ख़ून नहीं गिरा था। आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह ख़ून बहे बिना, न हुई होगी। यह वह अहिंसा न थी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते है। यह कायरपन था, जिस पर बड़े से बड़े कायर आँसू बहाते है। अवध के विशाल देश का नवाब बंदी बना चला जाता था, और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अधःपतन की चरम सीमा थी।
मिर्ज़ा ने कहा—हुज़ूर नवाब साहब को ज़लिमों ने क़ैद कर लिया है।
मीर—होगा, यह लीजिए शह!
मिर्ज़ा—जनाब, जरा ठहरिए। इस वक़्त इधर तबीयत ठीक नहीं लगती। बेचारे नवाब साहब इस वक़्त ख़ून के आँसू रो रहे होंगे।
मीर—रोया ही चाहे, यह ऐश वहाँ कहाँ नसीब होगा? यह किश्त।
मिर्ज़ा—किसी के दिन बराबर नहीं जाते। कितनी दर्दनाक हालत है।
मीर—हाँ; सो तो है ही, यह लो फिर किश्त! बस, अब की किश्त में मात है, बच नहीं सकते।
मिर्ज़ा—ख़ुदा की क़सम, आप बड़े बे दर्द है। इतना बड़ा हादसा देखकर भी आपको दुःख नहीं होता। हाय, ग़रीब वाजिद अली शाह!
मीर—पहले अपने बादशाह को तो बचाइए, फिर नवाब का मातम कीजिएगा। यह किश्त और मात! लाना हाथ!
बादशाह को लिए हुए सेना सामने से निकल गई। उनके जाते ही मिर्ज़ा ने फिर बाज़ी बिछा ली। हार की चोट बुरी होती है। मीर ने कहा—आइए, नवाब साहब के मातम में मरसिया कह डालें। लेकिन मिर्ज़ा की राजभक्ति अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी। वह हार का बदला चुकाने के लिए अधीर हो गए थे।
पाँच
शाम हो गई। खंडहर में चमगादड़ो ने चीख़ना शुरू किया। अबाबीलें आ-आकर अपने घोंसलों में चिपटीं। पर दोनों खिलाड़ी डटे हुए थे, मानो दो ख़ून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहें हो। मिर्ज़ा जी तीन बाज़ियाँ लगातार हार चुके थे; इस चौथी बाज़ी का भी रंग अच्छा न था। वह बार-बार जीतने का दृढ़ निश्चय करके सँभलकर खेलते थे; लेकिन एक न एक चाल ऐसी बेढब आ पड़ती थी, जिससे बाज़ी ख़राब हो जाती थी। हर बार हार के साथ प्रतिकार की भावना और भी उग्र होती जाती थी। उधर मीर साहब मारे उमंग के ग़ज़ले गाते थे, चुटकियाँ लेते थे, मानो कोई गुप्त धन पा गए हों। मिर्ज़ा सुन-सुनकर झुँझलाते और हार की झेंप मिटाने कि लिए उनकी दाद देते थे। ज्यों-ज्यों बाज़ी कमज़ोर पड़ती थी, धैर्य हाथ से निकलता जाता था। यहाँ तक कि वह बात-बात पर झुँझलाने लगे—जनाब, आप चाल बदला न कीजिए। यह क्या कि एक चाल चले और फिर उसे बदल दिया। जो कुछ चलना हो, एक बार चल लीजिए, यह आप मुहरे पर हाथ क्यों रखे रहते हैं? मुहरे छोड़ दीजिए। जब तक आपको चाल न सूझे, मुहरा छुइए ही नहीं। आप एक-एक चाल आध-आध घंटे में चलते है। इसकी सनद नहीं। जिसे एक चाल चलने में पाँच मिनट से ज़्यादा लगे, उसकी मात समझी जाए। फिर आपने चाल बदली! चुपके से मुहरा वहीं रख दीजिए।
मीर साहब की फ़र्ज़ी पिटता था। बोले—मैंने चाल चली ही कब थी?
मिर्ज़ा—आप चाल चल चुके हैं। मुहरा वहीं रख दीजिए—
उसी घर में!
मीर—उस घर में क्यों रखूँ? मैंने हाथ से मुहरा छोड़ा ही कब था?
मिर्ज़ा—मुहरा आप क़यामत तक न छोड़ें, तो क्या चाल ही न होगी? फ़र्ज़ी पिटते देखा तो धाँधली करने लगे।
मीर—धाँधली आप करते हैं। हार-जीत तक़दीर से होती है; धाँधली करने से कोई नहीं जीतता?
मिर्ज़ा—तो इस बाज़ी में आपकी मात हो गई।
मीर—मुझे क्यों मात होने लगी?
मिर्ज़ा—तो आप मुहरा उसी घर में रख दीजिए, जहाँ पहले रखा था।
मीर—वहाँ क्यों रखूँ? नहीं रखता।
मिर्ज़ा—क्यों न रखिएगा? आपको रखना होगा।
तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टेक पर अड़े थे। न यह दबता था, न वह। अप्रासंगिक बातें होने लगीं। मिर्ज़ा बोले—किसी ने ख़ानदान में शतरंज खेली होती, तब तो इसके क़ायदे जानते। वो तो हमेशा घास छीला किये, आप शतरंज क्या खेलिएगा? रियासत और ही चीज़ है। जागीर मिल जाने ही से कोई रईस नहीं हो जाता।
मीर—क्या! घास आपके अब्बाजान छीलते होंगे। यहाँ तो पीढ़ियों से शतरंज खेलते चले आते है।
मिर्ज़ा—अजी, जाइए भी, ग़ाज़ीउद्दीन हैदर के यहाँ बावर्ची का काम करते-करते उम्र गुज़र गई, आज रईस बनने चले हैं। रईस बनना कुछ दिल्लगी नहीं है।
मीर—क्यों अपने बुज़ुर्गों के मुँह पर कालिख लगाते हो—वे बावर्ची का काम करते होंगे। यहाँ तो बादशाह के दस्तरख़्वान पर खाना खाने चले आए हैं।
मिर्ज़ा—अरे चल चरकटे, बहुत बढ़कर बातें न कर!
मीर—ज़बान सँभालिए, वरना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूँ। यहाँ तो किसी ने आँखे दिखाई कि उसकी आँखें निकाली। है हौसला?
मिर्ज़ा—आप मेरा हौसला देखना चाहते है, तो फिर आइए, आज दो-दो हाथ हो जाएँ, इधर या उधर।
मीर—तो यहाँ तुमसे दबने वाला कौन है?
दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें निकाल लीं। नवाबी ज़माना था सभी तलवार, पेश-क़ब्ज़ कटार वगैरह बाँधते थे। दोनों विलासी थे; पर कायर न थे। उनमें राजनीतिक भावों का अधःपतन हो गया था। बादशाह के लिए, बादशाह के लिए क्यों मरे; पर व्यक्तिगत वीरता का अभाव न था। दोनों ने पैंतरे बदले, तलवारें चमकी, छपाछप की आवाज़ें आई। दोनों ज़ख़्मी होकर गिरे, और दोनों ने वहीं तड़प-तड़पकर जानें दे दी। अपने बादशाह के लिए जिनकी आँखों से एक बूँद आँसू न निकला, उन्हीं दोनों ने शतरंज के वज़ीर की रक्षा में प्राण दे दिए।
अँधेरा हो चला था। बाज़ी बिछी हुई थी। दोनों बादशाह अपने-अपने सिहांसन पर बैठे मानों इन दोनों वीरों की मृत्यु पर रो रहे थे।
चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। खँडहर की टूटी हुई मेहराबे, गिरी हुई दीवारें और धूल-धूसरित मीनारें इन लाशों को देखतीं और सिर धुनती थीं।
- पुस्तक : मानसरोवर (भाग-3) (पृष्ठ 255)
- रचनाकार : प्रेमचंद
- प्रकाशन : सरस्वती प्रेस, बनारस
- संस्करण : 1947
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.