मैं भीतर आया तो पाओलिन दे लुजी ने हाथ हिलाकर मेरा स्वागत किया। फिर कुछ देर चुप्पी छाई रही। उसका स्कार्फ़ और तौलियों का बना टोप आरामकुर्सी पर लापरवाही से पड़े थे।
“मादाम,” मैंने अपनी बात ज़रा खोलकर कही, “क्या आपको याद है कि ठीक दो साल पहले आज ही के दिन पहाड़ी की तली में बहती नदी के किनारे, वहीं जहाँ आपकी आँखें इस समय देख रही हैं, आपने क्या कहा था? क्या आपको याद है कि पैग़ंबरी मुद्रा में अपने हाथ हिलाते हुए आप मेरे पास तक आई थीं? मेरे प्रेम की स्वीकारोक्ति आपने मेरे होंठों के भीतर ही रोक दी थी और मुझे न्याय तथा स्वतंत्रता के लिए जीने और लड़ने के लिए छोड़ दिया था। मादाम, आपके जिस हाथ को मैं चूमते हुए अपने आँसुओं से भिगो देना चाहता था, उसी से आपने मुझे बाहर का रास्ता दिखाया और मैं बिना कहे लौट गया था। मैंने आपकी आज्ञा का पालन किया। दो सालों से मैं बेवक़ूफ़ कँगलों के साथ रहा हूँ, जिनके लिए लोगों के मन में घृणा और अरुचि ही होती है। जो दिखावे की सहानुभूति के हिंसक प्रदर्शन से लोगों को बहकाते हैं और जो चढ़ते सूरज को ही सलाम करते हैं।”
अपने हाथ के एक इशारे से उसने मुझे चुप कर दिया और संकेत किया कि चुप हो जाऊँ और उसकी बात सुनूँ। फिर बगीचे से उस सुगंधित कमरे में पक्षियों के कलरव के बीच दूर से आती चीख़ें सुनाई दीं, “मारो! इन शरीफ़ज़ादों को फाँसी पर चढ़ा दो। इनकी गर्दनें उतार दो।”
उसका चेहरा पीला पड़ गया।
“कोई ख़ास बात नहीं है।” मैंने कहा, “किसी कमीने को सबक़ सिखाया जा रहा होगा। ये लोग चौबीस घंटे पेरिस में घर-घर जाकर गिरफ़्तारियाँ कर रहे हैं। यह भी हो सकता है कि वे लोग यहाँ घुस आएँ। तब मैं कुछ नहीं कर पाऊँगा। हालाँकि फिर भी मैं अब एक ख़तरनाक मेहमान होता जा रहा हूँ।”
“रुको!” उसने मुझे रोक दिया।
दूसरी बार चीख़ों ने शाम की शांत हवा को चीरा। फिर एक आवाज़ चीख़ी, “रास्ते बंद कर दो, वह बदमाश भागने न पाए!”
ख़तरा जितना क़रीब आ गया था, उस अनुपात से मादाम दे लुजी कुछ अधिक ही शांत दिख रही थी।
“आओ, दूसरे माले पर चलते हैं।” उसने कहा। डरते हुए हमने दरवाज़ा खोला तो सामने से एक व्यक्ति अधनंगा भागता हुआ आता दिखा। आतंक उसके चेहरे पर बुरी तरह फैला हुआ था। उसके दाँत कसे हुए थे और घुटने आपस में टकरा रहे थे। घुटे गले से वह चीख़-सा रहा था, “मुझे बचा लो! कहीं छिपा लो! वे वहाँ हैं... उन्होंने मेरा दरवाज़ा और बगीचा उजाड़ दिया है। अब वे मेरे पीछे हैं...”
मादाम दे लुजी ने उस व्यक्ति को पहचान लिया था। वह प्लाँचो था, एक बूढ़ा दार्शनिक, जो पड़ोस में ही रहता था। मादाम ने फुसफुसाते हुए उससे पूछा, “कहीं मेरी नौकरानी की नज़र तो तुम पर नहीं पड़ गई? वह भी जैकोबिन है।
“नहीं, मुझे किसी ने नहीं देखा।”
“सब ईश्वर की कृपा है।”
वह उसे अपने सोने के कमरे में ले गई। मैं उन दोनों के पीछे-पीछे चल रहा था, सलाह-मशविरा ज़रूरी हो गया था। छिपने की कोई ऐसी जगह ढूँढ़नी ही पड़ेगी, जहाँ प्लाँचो को कुछ दिन नहीं तो कुछ घंटों के लिए ही छिपाया जा सके।
इंतज़ार के क्षणों में वह अपने को खड़ा न रख सका।
आतंक से उसे जैसे लकवा मार गया था।
वह हमें समझाने की कोशिश करता रहा कि उस पर मास्यो दे कजोत के साथ मिलकर संविधान के विरुद्ध षड्यंत्र करने का आरोप है। साथ ही 10 अगस्त को उसने पादरी तथा सम्राट के शत्रु को बचाने के लिए एक दल का गठन किया। यह सब आरोप ग़लत थे। सच्चाई यह थी कि ल्यूबिन अपनी घृणा उस पर निकाल रहा था। ल्यूबिन एक क़साई था, जिसे वह हमेशा ठीक तौलने के लिए कहता रहा। कल का वह दुकानदार आज इस गिरोह का मुखिया है।
और तभी सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की आवाज़ें आने लगी थीं। मादाम दे लुजी ने जल्दी से चटखनी चढ़ाई और उस बूढ़े को पीछे धकेल दिया। दरवाज़े पर थपथपाहट और आवाज़ से पाओलिन ने पहचान लिया कि वह उसकी नौकरानी थी, वह दरवाज़ा खोलने के लिए कह रही थी और बता रही थी कि बाहर गेट पर नगरपालिका के अधिकारी नेशनल गार्ड्स के साथ आए हैं और अहाते का निरीक्षण करना चाहते हैं।
“वे कहते हैं,” वह औरत बता रही थी, “प्लाँचो इस घर के भीतर है। मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि वह यहाँ नहीं है, मैं जानती हूँ कि आप ऐसे धूर्त को शरण नहीं देंगी, पर ये लोग मेरे शब्दों पर यक़ीन नहीं करते।”
“ठीक है, उन्हें आने दो।” दरवाज़ा खोले बिना मादाम दे लुजी ने कहा, “और घर का एक-एक कोना दिखा दो।”
यह बात सुनते ही कायर प्लाँचो पर्दे के पीछे ही बेहोश होकर गिर पड़ा। उसे होश में लाने में काफ़ी दिक़्क़त हुई। उसके चेहरे पर पानी छिड़का, तब कहीं जाकर उसने आँखें खोलीं।
जब वह होश में आ गया तो वह युवती अपने बूढ़े पड़ोसी के कानों में फुसफुसाई, “दोस्त, मुझ पर भरोसा रखो, मत भूलो की औरत बड़ी पहुँच वाली होतीं हैं।”
फिर उसने बड़ी शांति से जैसे वह रोज़ का घर का काम कर रही हो, पलंग को थोड़ा सा खिसकाया और तीन गद्दों को उस पर इस तरह रखा कि बीच में एक आदमी की जगह बन जाए।
जब वह ये सारे इंतज़ाम कर रही थी, सीढ़ियों पर से जूतों और बंदूकों की खटखट की आवाज़ें सुनाई दीं। हम तीनों के लिए यह भयानक क्षण थे। और फिर यह शोर ऊपर चढ़ता हुआ हलका हो गया। वे ऊपर की मंज़िल पर गए थे। हम जान गए कि जैकोबिन नौकरानी के मार्गदर्शन से पहले वे अटारी को छान मारेंगे। छत चरमराई। डरावने ठहाके गूँज उठे थे, जूतों और संगीनों की चोटों की आवाज़ें हम तक आ रही थीं। हमने राहत की साँस ली। पर हमारे पास बर्बाद करने के लिए एक भी क्षण नहीं था। मैंने प्लाँचो को गद्दों के बीच की ख़ाली जगह पर घुसने में मदद दी।
हमें यह करते देख मादाम दे लुजी ने नकारात्मक मुद्रा में सिर हिलाया। बिस्तर इस तरह से ऊबड़-खाबड़ हो गया कि कोई भी शक कर सकता था।
उसने ख़ुद जाकर ठीक करना चाहा पर फ़िज़ूल। वह स्वाभाविक-सा नहीं लग रहा था। “मुझे ख़ुद ही बिस्तर पर लेटना पड़ेगा,” उसने कहा। कुछ क्षणों के लिए वह सोचती रही फिर बड़ी शांति और शाही लापरवाही से उसने मेरे सामने ही अपने कपड़े उतारे और बिस्तर पर लेट गई। फिर उसने मुझसे भी अपने जूते और टाई आदि उतारने के लिए कहा।
“कोई ख़ास बात नहीं है, बस तुम्हें मेरे प्रेमी का अभिनय करना होगा। इसी तरह हम उन्हें धोखे में डाल सकेंगे।” हमारा इंतज़ाम पूरा हो गया था और उन लोगों के नीचे उतरने की आवाज़ें आने लगी थीं। वे चीख़ रहे थे—“डरपोक! चूहा!”
अभागे प्लाँचो को जैसे लकवा मार गया हो। वह इतनी बुरी तरह काँप रहा था कि पूरा बिस्तर हिल रहा था।
उसकी साँसें इतनी ज़ोर से चल रही थीं कि बाहर से कोई भी आदमी सुन सकता था। “कितने खेद की बात है।” मादाम दे लुजी ने हलकी आवाज़ में कहा, “अपनी थोड़ी-सी चालाकी से मैं समझती थी कि काम बन जाएगा। फिर भी कोई बात नहीं। हिम्मत तो हम नहीं छोड़ेंगे। ईश्वर हमारी रक्षा करे।”
किसी ने दरवाज़े पर ज़ोर से घूँसा मारा।
“कौन है?” पाओलिन ने पूछा।
“राष्ट्र के प्रतिनिधि”
“क्या थोड़ी देर रुक नहीं सकते?”
“जल्दी खोलो, नहीं तो हम दरवाज़ा तोड़ डालेंगे।”
'जाओ दोस्त, दरवाज़ा खोलो।”
अचानक एक जादू-सा हुआ। प्लाँचो ने काँपना और लंबी साँसें लेना बंद कर दिया।
सबसे पहले ल्यूबिन अंदर आया। वह रुमाल बाँधे हुए था। उसके पीछे-पीछे एक दर्ज़न लोग हथियार और बरछे लिए अंदर घुस आए। पहले मादाम दे लुजी और फिर मुझे घूरते हुए वे ज़ोर से चीख़े। “शी! लगता है हम आशिक़ों के एकांत में बाधक बन रहे हैं! ख़ूबसूरत लड़की, हमें माफ़ कर देना।
“फिर वह बिस्तर पर आकर बैठ गया और प्यार से उस ऊँची नस्ल की औरत की ठुड्डी ऊपर उठाते हुए बोला, “यह तो साफ़ ज़ाहिर है कि इतना सुंदर चेहरा रात-दिन भगवान की प्रार्थना करने के लिए नहीं होता। ऐसा होता तो कितने खेद की बात होती। लेकिन पहले अपने गणतंत्र का काम, बाक़ी काम बाद में। अभी तो हम देशद्रोही प्लाँचो को ढूँढ़ रहे हैं। वह यहीं है, यह मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ। मैं उसे ढूँढ़कर रहूँगा। मैं उसे फाँसी पर चढ़ा दूँगा। इससे मेरा भाग्य सुधर जाएगा।”
“तो फिर उसे ढूँढ़ो।”
उन्होंने मेज़ों और कुर्सियों के नीचे झाँका। पलंग के नीचे अपने बरछे चलाए और गद्दों पर संगीनें घोंपीं।
मैं उन्हें तहख़ाने में ले गया। वहाँ उन्होंने लकड़ी के ढेर को बिखेर दिया और शराब की कई बोतलें ख़ाली कर दीं। काफ़ी देर तक शराब पीते ऊधम मचाते रहे। जब वे पीते-पीते थक गए तो बाक़ी बची शराब की बोतलों को बंदूक के हत्थों से तोड़ते हुए ल्यूबिन ने तहख़ाने में शराब की बाढ़-सी ला दी। उनके बाहर निकलते ही मैंने लपककर गेट बंद कर दिया। फिर मैं दौड़ता हुआ मादाम दे लुजी के पास आया और उसे बताया कि ख़तरा टल गया है।
यह सुनते ही उसने गद्दे को पलटा और पुकारा, “मोस्यो प्लाँचो, मोस्यो प्लाँचो!”
जवाब में एक हलकी-सी सिसकी सुनाई दी।
“ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है,” वह चीख़-सी पड़ी, “मोस्यो प्लाँचो, मैं तो समझी कि आप मर गए।”
फिर मेरी ओर मुड़कर बोली, “देखो दोस्त, तुम हमेशा यह कहकर ख़ुश होते हो कि तुम्हें मुझसे प्यार है, पर आइंदा तुम ऐसा नहीं कहोगे।”
main bhitar aaya to paolin de luji ne haath hilakar mera svagat kiya. phir kuch der chuppi chhai rahi. uska scarf aur tauliyon ka bana top aramakursi par laparvahi se paDe the.
“madam,” mainne apni baat zara kholkar kahi, “kya aapko yaad hai ki theek do saal pahle, aaj hi ke din pahaDi ki tali mein bahti nadi ke kinare, vahin jahan apaki ankhen is samay dekh rahi hain, aapne kya kaha tha? kya aapko yaad hai ki paighambari mudra mein apne haath hilate hue aap mere paas tak i theen? mere prem ki svikarokti aapne mere honthon ke bhitar hi rok di thi aur mujhe nyaay tatha svatantrata ke liye jine aur laDne ke liye chhoD diya tha. madam, aapke jis haath ko main chumte hue apne ansuon se bhigo dena chahta tha, usi se aapne mujhe bahar ka rasta dikhaya aur main bina kahe laut gaya tha. mainne apaki aagya ka palan kiya. do salon se main bevaquf kangalon ke saath raha hoon, jinke liye logon ke man mein ghrinaa aur aruchi hi hoti hai. jo dikhave ki sahanubhuti ke hinsak pradarshan se logon ko bahkate hain aur jo chaDhte suraj ko hi salam karte hain. . . . ”
apne haath ke ek ishare se usne mujhe chup kar diya aur sanket kiya ki chup ho jaun aur uski baat sunun. phir bagiche se us sugandhit kamre mein pakshiyon ke kalrav ke beech door se aati chikhen sunai deen, “maro! in sharifzadon ko phansi par chaDha do. inki gardanen utaar do. ”
uska chehra pila paD gaya.
“koi khaas baat nahin hai. ” mainne kaha, “kisi kamine ko sabak sikhaya ja raha hoga. ye log chaubis ghante peris mein ghar ghar jakar giraftariyan kar rahe hain. ye bhi ho sakta hai ki ve log yahan ghus ayen. tab main kuch nahin kar paunga. halanki phir bhi main ab ek khatarnak mehman hota ja raha hoon. ”
“ruko!” usne mujhe rok diya.
dusri baar chikhon ne shaam ki shaant hava ko chira. phir ek avaz chikhi, “raste band kar do, wo badmash bhagne na pae!”
khatra jitna qarib aa gaya tha, us anupat se madam de luji kuch adhik hi shaant dikh rahi thi.
“ao, dusre male par chalte hain. ” usne kaha. Darte hue hamne darvaza khola to samne se ek vekti adhnanga bhagta hua aata dikha. atank uske chehre par buri tarah phaila hua tha. uske daant kase hue the aur ghutne aapas mein takra rahe the. ghute gale se wo cheekh sa raha tha, “mujhe bacha lo! kahin chhipa lo! ve vahan hain. . . unhonne mera darvaza aur bagicha ujaaD diya hai. ab ve mere pichhe hain. . . ”
madam de luji ne us vekti ko pahchan liya tha. wo plancho tha, ek buDha darshanik, jo paDos mein hi rahta tha. madam ne phusaphusate hue usse puchha, “kahin meri naukarani ki nazar to tum par nahin paD gai? wo bhi jaikobin hai.
“nahin, mujhe kisi ne nahin dekha. ”
“sab ishvar ki kripa hai. ”
wo use apne sone ke kamre mein le gai. main un donon ke pichhe pichhe chal raha tha, salah mashavira zaruri ho gaya tha. chhipne ki koi aisi jagah DhunDhani hi paDegi, jahan plancho ko kuch din nahin to kuch ghanton ke liye hi chhipaya ja sake.
intzaar ke kshnon mein wo apne ko khaDa na rakh saka.
atank se use jaise lakva maar gaya tha.
wo hamein samjhane ki koshish karta raha ki us par masyo de kajot ke saath milkar sanvidhan ke viruddh saDyantr karne ka aarop hai. saath hi 10 august ko usne padari tatha samrat ke shatru ko bachane ke liye ek dal ka gathan kiya. ye sab aarop ghalat the. sachchai ye thi ki lyubin apni ghrinaa us par nikal raha tha. lyubin ek qasai tha, jise wo hamesha theek taulne ke liye kahta raha. kal ka wo dukandar aaj is giroh ka mukhiya hai.
aur tabhi siDhiyon par kisi ke chaDhne ki avazen aane lagi theen. madam de luji ne jaldi se chatakhni chaDhai aur us buDhe ko pichhe dhakel diya. darvaze par thapathpahat aur avaz se paolin ne pahchan liya ki wo uski naukarani thi, wo darvaza kholne ke liye kah rahi thi aur bata rahi thi ki bahar gate par nagarpalika ke adhikari neshnal gaarDs ke saath aaye hain aur ahate ka nirikshan karna chahte hain.
“ve kahte hain,” wo aurat bata rahi thi, “plancho is ghar ke bhitar hai. main achchhi tarah janti hoon ki wo yahan nahin hai, main janti hoon ki aap aise dhoort ko sharan nahin dengi, par ye log mere shabdon par yaqin nahin karte. ”
“theek hai, unhen aane do. ” darvaza khole bina madam de luji ne kaha, “aur ghar ka ek ek kona dikha do. ”
ye baat sunte hi kayer plancho parde ke pichhe hi behosh hokar gir paDa. use hosh mein lane mein kafi diqqat hui. uske chehre par pani chhiDka, tab kahin jakar usne ankhen kholin.
jab wo hosh mein aa gaya to wo yuvati apne buDhe paDosi ke kanon mein phusaphusai, “dost, mujh par bharosa rakho, mat bhulo ki aurat baDi pahunch vali hotin hain. ”
phir usne baDi shanti se jaise wo roz ka ghar ka kaam kar rahi ho, palang ko thoDa sa khiskaya aur teen gaddon ko us par is tarah rakha ki beech mein ek adami ki jagah ban jaye.
jab wo ye sare intzaam kar rahi thi, siDhiyon par se juton aur bandukon ki khatkhat ki avazen sunai deen. hum tinon ke liye ye bhayanak kshan the. aur phir ye shor upar chaDhta hua halka ho gaya. ve upar ki manjil par gaye the. hum jaan gaye ki jaikobin naukarani ke margadarshan se pahle ve atari ko chhaan marenge. chhat charamrai. Daravne thahake goonj uthe the, juton aur sanginon ki choton ki avazen hum tak aa rahi theen. hamne rahat ki saans li. par hamare paas barbad karne ke liye ek bhi kshan nahin tha. mainne plancho ko gaddon ke beech ki khali jagah par ghusne mein madad di.
hamein ye karte dekh madam de luji ne nakaratmak mudra mein sir hilaya. bistar is tarah se ubaD khabaD ho gaya ki koi bhi shak kar sakta tha.
usne khu jakar theek karna chaha par fizul. wo svabhavik sa nahin lag raha tha. “mujhe khu hi bistar par letana paDega,” usne kaha. kuch kshnon ke liye wo sochti rahi phir baDi shanti aur shahi laparvahi se usne mere samne hi apne kapDe utare aur bistar par let gai. phir usne mujhse bhi apne jute aur tie aadi utarne ke liye kaha.
“koi khaas baat nahin hai, bus tumhein mere premi ka abhinay karna hoga. isi tarah hum unhen dhokhe mein Daal sakenge. ” hamara intzaam pura ho gaya tha aur un logon ke niche utarne ki avazen aane lagi theen. ve cheekh rahe the—“Darpok! chuha!”
abhage plancho ko jaise lakva maar gaya ho. wo itni buri tarah kaanp raha tha ki pura bistar hil raha tha.
uski sansen itni zor se chal rahi theen ki bahar se koi bhi adami sun sakta tha. “kitne khed ki baat hai. ” madam de luji ne halki avaz mein kaha, “apni thoDi si chalaki se main samajhti thi ki kaam ban jayega. phir bhi koi baat nahin. himmat to hum nahin chhoDenge. ishvar hamari rakhsha kare. ”
kisi ne darvaze par zor se ghunsa mara.
“kaun hai?” paolin ne puchha.
“rashtra ke pratinidhi”
“kya thoDi der ruk nahin sakte?”
“jaldi kholo, nahin to hum darvaza toD Dalenge. ”
jao dost, darvaza kholo. ”
achanak ek jadu sa hua. plancho ne kanpna aur lambi sansen lena band kar diya.
sabse pahle lyubin andar aaya. wo rumal bandhe hue tha. uske pichhe pichhe ek darzan log hathiyar aur barchhe liye andar ghus aaye. pahle madam de luji aur phir mujhe ghurte hue ve zor se chikhe. “shee! lagta hai hum ashiqon ke ekaant mein badhak ban rahe hain! khubsurat laDki, hamein maaf kar dena.
“phir wo bistar par aakar baith gaya aur pyaar se us unchi nasl ki aurat ki thuDDi upar uthate hue bola, “yah to saaf zahir hai ki itna sundar chehra raat din bhagvan ki pararthna karne ke liye nahin hota. aisa hota to kitne khed ki baat hoti. lekin pahle apne ganatantr ka kaam, baqi kaam baad mein. abhi to hum deshadrohi plancho ko DhoonDh rahe hain. wo yahin hai, ye main nishchit roop se kah sakta hoon. main use DhunDhakar rahunga. main use phansi par chaDha dunga. isse mera bhagya sudhar jayega. ”
“to phir use DhunDho. ”
unhonne mezon aur kursiyon ke niche jhanka. palang ke niche apne barchhe chalaye aur gaddon par sanginen ghompin.
main unhen tahkhane mein le gaya. vahan unhonne lakDi ke Dher ko bikher diya aur sharab ki kai botalen khali kar deen. kafi der tak sharab pite udham machate rahe. jab ve pite pite thak gaye to baqi bachi sharab ki botalon ko banduk ke hatthon se toDte hue lyubin ne tahkhane mein sharab ki baaDh si la di. unke bahar nikalte hi mainne lapakkar gate band kar diya. phir main dauDta hua madam de luji ke paas aaya aur use bataya ki khatra tal gaya hai.
ye sunte hi usne gadde ko palta aur pukara, “mosyo plancho, mosyo plancho!”
javab mein ek halki si siski sunai di.
“ishvar ka laakh laakh shukr hai,” wo cheekh si paDi, “mosyo plancho, main to samjhi ki aap mar gaye. ”
phir meri or muDkar boli, “dekho dost, tum hamesha ye kahkar khush hote ho ki tumhein mujhse pyaar hai, par ainda tum aisa nahin kahoge. ”
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jab wo ye sare intzaam kar rahi thi, siDhiyon par se juton aur bandukon ki khatkhat ki avazen sunai deen. hum tinon ke liye ye bhayanak kshan the. aur phir ye shor upar chaDhta hua halka ho gaya. ve upar ki manjil par gaye the. hum jaan gaye ki jaikobin naukarani ke margadarshan se pahle ve atari ko chhaan marenge. chhat charamrai. Daravne thahake goonj uthe the, juton aur sanginon ki choton ki avazen hum tak aa rahi theen. hamne rahat ki saans li. par hamare paas barbad karne ke liye ek bhi kshan nahin tha. mainne plancho ko gaddon ke beech ki khali jagah par ghusne mein madad di.
hamein ye karte dekh madam de luji ne nakaratmak mudra mein sir hilaya. bistar is tarah se ubaD khabaD ho gaya ki koi bhi shak kar sakta tha.
usne khu jakar theek karna chaha par fizul. wo svabhavik sa nahin lag raha tha. “mujhe khu hi bistar par letana paDega,” usne kaha. kuch kshnon ke liye wo sochti rahi phir baDi shanti aur shahi laparvahi se usne mere samne hi apne kapDe utare aur bistar par let gai. phir usne mujhse bhi apne jute aur tie aadi utarne ke liye kaha.
“koi khaas baat nahin hai, bus tumhein mere premi ka abhinay karna hoga. isi tarah hum unhen dhokhe mein Daal sakenge. ” hamara intzaam pura ho gaya tha aur un logon ke niche utarne ki avazen aane lagi theen. ve cheekh rahe the—“Darpok! chuha!”
abhage plancho ko jaise lakva maar gaya ho. wo itni buri tarah kaanp raha tha ki pura bistar hil raha tha.
uski sansen itni zor se chal rahi theen ki bahar se koi bhi adami sun sakta tha. “kitne khed ki baat hai. ” madam de luji ne halki avaz mein kaha, “apni thoDi si chalaki se main samajhti thi ki kaam ban jayega. phir bhi koi baat nahin. himmat to hum nahin chhoDenge. ishvar hamari rakhsha kare. ”
kisi ne darvaze par zor se ghunsa mara.
“kaun hai?” paolin ne puchha.
“rashtra ke pratinidhi”
“kya thoDi der ruk nahin sakte?”
“jaldi kholo, nahin to hum darvaza toD Dalenge. ”
jao dost, darvaza kholo. ”
achanak ek jadu sa hua. plancho ne kanpna aur lambi sansen lena band kar diya.
sabse pahle lyubin andar aaya. wo rumal bandhe hue tha. uske pichhe pichhe ek darzan log hathiyar aur barchhe liye andar ghus aaye. pahle madam de luji aur phir mujhe ghurte hue ve zor se chikhe. “shee! lagta hai hum ashiqon ke ekaant mein badhak ban rahe hain! khubsurat laDki, hamein maaf kar dena.
“phir wo bistar par aakar baith gaya aur pyaar se us unchi nasl ki aurat ki thuDDi upar uthate hue bola, “yah to saaf zahir hai ki itna sundar chehra raat din bhagvan ki pararthna karne ke liye nahin hota. aisa hota to kitne khed ki baat hoti. lekin pahle apne ganatantr ka kaam, baqi kaam baad mein. abhi to hum deshadrohi plancho ko DhoonDh rahe hain. wo yahin hai, ye main nishchit roop se kah sakta hoon. main use DhunDhakar rahunga. main use phansi par chaDha dunga. isse mera bhagya sudhar jayega. ”
“to phir use DhunDho. ”
unhonne mezon aur kursiyon ke niche jhanka. palang ke niche apne barchhe chalaye aur gaddon par sanginen ghompin.
main unhen tahkhane mein le gaya. vahan unhonne lakDi ke Dher ko bikher diya aur sharab ki kai botalen khali kar deen. kafi der tak sharab pite udham machate rahe. jab ve pite pite thak gaye to baqi bachi sharab ki botalon ko banduk ke hatthon se toDte hue lyubin ne tahkhane mein sharab ki baaDh si la di. unke bahar nikalte hi mainne lapakkar gate band kar diya. phir main dauDta hua madam de luji ke paas aaya aur use bataya ki khatra tal gaya hai.
ye sunte hi usne gadde ko palta aur pukara, “mosyo plancho, mosyo plancho!”
javab mein ek halki si siski sunai di.
“ishvar ka laakh laakh shukr hai,” wo cheekh si paDi, “mosyo plancho, main to samjhi ki aap mar gaye. ”
phir meri or muDkar boli, “dekho dost, tum hamesha ye kahkar khush hote ho ki tumhein mujhse pyaar hai, par ainda tum aisa nahin kahoge. ”
- पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 84-88)
- संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
- रचनाकार : अनातोले फ़्रांस
- प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
- संस्करण : 2008
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