Font by Mehr Nastaliq Web

शहतूत

shahtut

मनोज कुमार पांडेय

और अधिकमनोज कुमार पांडेय

    तुम्हारे पास बहुत सारी स्मृतियाँ हैं। तुम स्मृतियों में सिर से पैर तक डूबे हुए हो पर ये स्मृतियाँ तुमने खोज-खोज कर इकट्ठा की हैं सो तुम नहीं जानते कि इनमें से कितनी चीज़ें वास्तव में तुम्हारे साथ घटी थीं और कितनी दूसरों की स्मृति का हिस्सा हैं! या वे कौन-सी घटनाएँ हैं जो वास्तव में कभी घटी ही नहीं, किसी के भी जीवन में पर तुरंत ही तुम्हें ख़याल आता है कि तुम दावे के साथ कैसे कह सकते हो कि ये घटनाएँ किसी की भी स्मृति का हिस्सा नहीं हैं याकि किसी के भी जीवन में सचमुच नहीं घटीं। क्या तुम दुनिया भर के लोगों को जानते हो?

    तो वहाँ एक प्राइमरी स्कूल है जिसमें मैं पढ़ता हूँ स्कूल की इमारत में सिर्फ़ तीन कमरे और एक बरामदा है। बरामदा सामने है। बरामदे के पीछे एक कमरा है। बरामदे के आजू-बाजू दो कमरे हैं जो सामने की तरफ़ एक अंडाकार उभार लिए हुए हैं। इन तीन कमरों में से सिर्फ़ एक में दरवाज़ा है और एक खिड़की भी, जिसकी चौखट कोई उखाड़ ले गया है। इस कमरे की दूसरी खिड़कियों में ईंटें चुनवा दी गई हैं। बाक़ी दोनों कमरों की खिड़कियाँ इतनी बड़ी हो गई हैं कि सोचना पड़ता है कि उन कमरों में दरवाज़े से जाया जाए या खिड़कियों से। जिस एक कमरे में दरवाज़ा है और जिसकी एक खिड़की की चौखट कोई उखाड़ ले गया है, उसमें सिर्फ़ लोहे की चौखानेदार पत्तियाँ भर बची हैं। इन पत्तियों के बाहर से मैं इस कमरे में बहुत देर तक झाँकता रहता हूँ। इस कमरे में दो साबुत कुर्सियाँ हैं, एक मेज़, तीन लकड़ी की आलमारियाँ, एक झूला कुर्सी, एक काठ का घोड़ा, एक सरकसीढ़ी, कुछ नई पुरानी किताबें, दो ज़ंग खाए बक्से और उनके ऊपर बेतरतीब ढंग से रखी हुई परीक्षा वाली कॉपियाँ। इस कमरे में हमेशा ताला बंद रहता है। यह सुबह के दस साढ़े दस बजे खुलता है और इसके भीतर की दोनों कुर्सियाँ निकाली जाती हैं। एक मिसिर मास्टर के लिए और एक बालगोविन्न मास्टर के लिए। शाम को फिर ताला खुलता है—दोनों कुर्सियाँ फिर से इसी कमरे में रख दी जाती हैं और फिर से ताला बंद कर दिया जाता है। एक बार कई दिनों तक इस कमरे की चाबी मेरे पास भी रही थी पर मुझे खिड़की से झाँकना ज़्यादा अच्छा लगता है।

    स्कूल, स्कूल में नहीं स्कूल के पश्चिम के बाग़ में चलता है। आम के पेड़ों की हरी छाया में। पेड़ ख़ूब बड़े-बड़े हैं इसलिए पेड़ हमारी पहुँच में नहीं हैं। बस उनकी छाया ही हमारी पहुँच में है। स्कूल चलते-चलते बाग़ की सतह चिकनी और समतल हो गई है। इसी बाग़ में कोई पाँच पेड़ छाँट लिए जाते हैं और उन पाँच पेड़ों के नीचे पाँच कक्षाएँ चलती हैं। कक्षाओं का मुँह पेड़ की तरफ़ होता है जहाँ पेड़ की बग़ल में एक कुर्सी जाती है। मिसिर मास्टर और बालगोविन्न मास्टर जब एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाते हैं तो उनके साथ उनकी कुर्सियाँ भी जाती हैं। मास्टर पहले पहुँच जाते हैं और खड़े रहते हैं फिर पीछे-पीछे कुर्सी पहुँचती है। मास्टर कुर्सी पर बैठ जाते हैं। हम सब बच्चे भी बैठ जाते हैं। हम ज़मीन पर बैठते हैं। हम अपने बैठने के लिए घर से बोरियाँ ले कर आते हैं और लौटते समय बोरी अपने झोले में भर लेते हैं। झोला भी बोरी से बना होता है और कई बार कई लड़कों के कपड़े भी। ये बोरियाँ जाड़े में हमारे दोहरे काम आती हैं स्कूल से लौटते हुए हम इसमें आग तापने के लिए सूखी पत्तियाँ बटोर कर घर ले जाते हैं।

    स्कूल के पूरब की तरफ़ एक पुराना-सा कुआँ है। जब स्कूल खुला रहता है तो उसकी जगत पर एक रस्सी-बाल्टी रखी रहती है। हमें ख़ूब प्यास लगती है। हम जितना पानी पीते हैं उससे ज़्यादा गिराते हैं। कुएँ का पानी ख़ूब ऊपर तक है। हम इसे जादुई कुआँ कहते हैं। जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती है इसका पानी ठंडा होता चला जाता है और जैसे-जैसे जाड़ा आता है इसका पानी गर्म होता चला आता है। कुएँ के पूरब में मेहँदी के कई झाड़ थे जिन पर हम झूला झूलते थे। एक बार मैं इस पर झूल रहा था कि मिसिर मास्टर आते दिखाई पड़े। मैं जल्दी से उतरने लगा और नीचे गिरा। मिसिर मास्टर ने मुझे कई डंडे मारे पर मैं उठ नहीं पाया। थोड़ी देर में मेरा पैर ऐसे सूज आया जैसे मुझे हाथीपाँव हो गया हो। मिसिर मास्टर ने चारपाई मँगवाई और मुझे घर भिजवा दिया। हफ़्ते भर बाद जब मैं फिर से स्कूल आया तो वहाँ मेहँदी का एक भी झाड़ नहीं बचा था। उनकी जगह पर कुछ चीख़ती हुई खूँटियाँ भर थीं। तब भी जब मैं उधर से गुज़रता हूँ तो कभी स्याही गिर जाती है तो कभी क़लम। कितना भी ढूँढ़ो, वहाँ गुम हुई चीज़ें दुबारा कभी नहीं मिलती। खूँटियों के आगे जाने की हमें मनाही है। आगे जंगल शुरू हो जाता है।

    स्कूल में दो ही मास्टर हैं। एक मिसिर मास्टर, एक बालगोविन्न मास्टर। दोनों कुर्ता पहनते हैं। बालगोविन्न मास्टर की तोंद बहुत बड़ी है। जब वह चलते हैं तो उनकी तोंद आगे-पीछे होती हुई बहुत मज़ेदार लगती है। बालगोविन्न मास्टर छड़ी लेकर चलते हैं पर हमें मारने के लिए उन्हें बाँस की पतली-पतली टहनियाँ पसंद हैं जो चमड़े को चूमती हैं तो एक शाइस्ता-सी सटाक की आवाज़ होती है और जिस्म में पतली-पतली लाल रेखाएँ बन जाती हैं जो थोड़ी देर बाद जिस्म के नक़्शे पर उभरी लाल पगडंडियों-सी दिखाई देने लगती हैं बालगोविन्न मास्टर इन पगडंडियों पर बिना छड़ी लिए ही चलते हैं।

    मिसिर मास्टर ख़ूब काले हैं और काली-काली मूँछे रखते हैं। उनका घर स्कूल के पश्चिम के बाग़ के पश्चिम में है। वह अपनी मिसिराइन को ख़ूब पीटते हैं। कई बार जब वह मिसिराइन को पीट रहे होते हैं तो उनकी चीख़ें हम तक पहुँच जाती हैं। पीटने के दृश्य हम तक पहुँच जाते हैं। जिस दिन भी ऐसा होता है हम दिन भर डरे रहते हैं। क्या हमारा पिटना मिसिराइन को दिखता होगा तो वे भी ऐसे ही डर जाती होंगी? मिसिर मास्टर की मेरे पिता से ख़ूब जमती है। मेरे पिता भी मास्टर हैं सुबह मेरे पिता मिसिर मास्टर के यहाँ जाते हैं तो शाम को मिसिर मास्टर मेरे यहाँ जाते हैं। मैं पिता से भी डरता हूँ और मिसिर मास्टर से भी। मिसिर मास्टर कक्षा में जब कभी इम्तहान लेते हैं सारे बच्चों की कॉपियाँ मुझसे जँचवाते हैं और मेरी कॉपी ख़ुद जाँचते हैं। इससे क्लास में मेरा रुतबा थोड़ा बढ़ जाता है और मैं चाहता हूँ कि ये स्थिति हमेशा क़ायम रहे।

    मेरी कक्षा में एक लड़का है ‘अशोक कुमार निर्मल’। उसका घर का नाम बितानू है। हम भी उसे बितानू कहते हैं और अपनी स्याहियाँ उसके कपड़े या झोले पर पोंछ देते हैं। वह शिकायत करता है तो मिसिर मास्टर हँसने लगते हैं। कहते हैं कि ‘तू क्यों रोता है बे! तेरी माई जैसे इतने लोगों का धोती है वैसे ही तेरा भी धो देगी।’ पूरी कक्षा फिसिर-फिसिर करने लगती है और बितानू का चेहरा तमतमा उठता है। अब धीरे-धीरे उसने शिकायत करनी बंद कर दी है। हम उसके साथ बदमाशी करते हैं तो वह जलती आँखों से हमें देखता है और जाने क्या-क्या बुदबुदाने लगता है! इधर उसका बुदबुदाना बढ़ता जा रहा है पर हम उसकी बुदबुदाहट की रत्ती भर भी परवाह नहीं करते हैं क्योंकि मिसिर मास्टर और कक्षा की बहुसंख्या हमारे साथ होती है। मैं अपनी कक्षा में पढ़ने में सबसे अच्छा हूँ। मुझे अधिकतर सवालों के जवाब आते हैं। पर एक दिन ऐसा हुआ कि मिसिर मास्टर ने जो सवाल दिए उनमें से पाँच में से तीन मुझे नहीं आते थे। पूरा दम लगाकर भी मैं गणित के उन सवालों को हल नहीं कर पाया। मुझे मिसिर मास्टर से डर लगा। ऐसे किसी भी मौक़े पर मिसिर मास्टर दूसरों की अपेक्षा मुझे ज़्यादा पीटते थे। कहते, ससुर बाभन का लड़का होकर तुम्हारा ये हाल है।’ या ‘पढ़ोगे नहीं ससुर तौ का निर्मलवा की तरह गदहा चराओगे?’ लड़कियों के लिए कहते, ‘इन ससुरिन को, क्या करना है! घर में रहेंगी, चूल्हा-चौका करेंगी और लड़िका जनेंगी।’ ऐसा कोई भी प्रसंग पूरी कक्षा पर भारी गुज़रता है। मैं या जो भी उनके कोप का भोजन बनता है पिट-पिटकर चकनाचूर हो जाता है और दूसरों के चेहरे बिना पिटे ही सहम जाते हैं लड़कियाँ पानी-पानी हो जाती हैं। पर बितानू कुछ दूसरी तरह का है। उसकी आँखें लाल हो जाती हैं और वहाँ आग दहकने लगती है। इसीलिए वह सबसे ज़्यादा मार खाता है।

    तो उस दिन इसी बितानू ने पाँच के पाँचों सवालों के जवाब सही-सही दिए थे और मैं पाँच में से तीन का जवाब नहीं दे पाया था, पर मेरी कॉपी तो मिसिर मास्टर सबके बाद में जाँचते हैं पहले तो मैं ही बाक़ी कॉपियाँ जाँचता हूँ तो उस दिन मैंने जान-बूझकर बितानू के तीन सवालों को ग़लत काट दिया। मेरी कॉपी मिसिर मास्टर ने देखी। तीन सवाल तो मैंने किए ही नही थे। सबके साथ-साथ मेरी भी पिटाई अच्छे से हुई बल्कि मेरी कुछ ज़्यादा ही अच्छे से, क्योंकि बाभन होने की वजह से और पिता के साथ दोस्ताना संबंधों की वजह से मिसिर मास्टर मेरे प्रति कुछ ज़्यादा ही ज़िम्मेदारी महसूस करते हैं। तो मिसिर मास्टर ने मेरे बदन का भूगोल बदल दिया। कहीं नदियाँ निकल आईं तो कहीं छोटे-छोटे पहाड़। पर इतना जैसे कम था।

    बितानू उठा और अपनी कॉपी ले कर मिसिर मास्टर के पास पहुँच गया। बोला, ‘मास्साब मेरे ये सवाल सही हैं, फिर भी राजकरन ने ग़लत काट दिया।’

    मिसिर मास्टर ने उसे उपहास के भाव से देखा और बोले, ‘तौ अब धोबी-धुर्रा बाभन में ग़लती निकालेंगे?’ फिर पता नहीं क्या सोच कर बोले, ‘ला कापी इधर ला।

    मैं तो सच पहले से ही जानता था। मिसिर मास्टर ने मेरी तरफ़ देखा और मैं मशीन की तरह उठ कर उनके पास जा पहूँचा। बस चार डंडे की सजा मिली पर दूसरे दिन बितानू ज़्यादा पिटा क्योंकि ‘निर्मल’ होने के बावजूद वह गंदे कपड़े पहन कर आया था। उस दिन के बाद से बितानू ने स्कूल आना छोड़ दिया। कक्षा में एक जगह ख़ाली हो गई और मेरे भीतर भी। मुझे लगा कि अगर उस दिन मैंने उसके सवाल ग़लत नहीं काटे होते तो बितानू स्कूल नहीं छोड़ता, पर जल्दी ही मेरा भ्रम टूट गया।

    हुआ यह कि मिसिर मास्टर के बेटे की तिलक थी। पिता गए हुए थे। मैं भी उनके साथ गया था। ख़ूब चहल-पहल थी। अचानक पता नहीं क्या सूझा कि मैंने बाएँ हाथ की तर्जनी और अँगूठे को मिला कर एक गोल घेरा बनाया और उसमें दाएँ हाथ की तर्जनी बार-बार डालने निकालने लगा। मैं यह काम पूरी तल्लीनता से कर रहा था। दो लड़के मुझे देख कर हँस रहे थे और कुछ इशारे कर रहे थे। पिता की निगाह मुझ पर गई तो उनका चेहरा कस उठा। उन्होंने मुझे बुलाया, कस कर कान उमेठा और घर जाने के लिए कहा। मैं मुँह बनाता और कान सहलाता घर चला आया।

    पिता रात में घर आए तब तक मैं सो गया था। उन्होंने मुझे बुलाने के लिए कहा तो दीदी गई और मुझे जगा लाई। पिता ने मुझे इतनी ज़ोर का थप्पड़ मारा कि मैं ज़मीन पर लोट गया। इसके बाद पिता ने कहा कि कल से स्कूल जाना बंद। मैं बहुत देर तक ज़मीन पर वैसे ही मुर्दे की तरह पड़ा रहा। फिर दीदी मुझे उठाने आई। मैंने उसका हाथ झटक दिया। ख़ुद उठा और बिस्तर पर पहुँच गया। पूरी रात मुझे नींद नहीं आई। मैं पूरी रात इस बारे में सोचता रहा कि पिता ने मुझे क्यों मारा! पर मैं किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाया। अगले कई दिनों तक स्कूल जाना बंद ही रहा। पर मैं दिन में दो बार मैदान जाने का डिब्बा उठाता और स्कूल के पूरब तरफ़ जंगल में पहुँच जाता। वहाँ बैठे-बैठे मैं स्कूल की तरफ़ ताका करता।

    एक दिन मैं ऐसे ही वहाँ छुपा बैठा था और स्कूल की तरफ़ ताक रहा था कि बालगोविन्न मास्टर लोटा लेकर अंदर आते दिखाई पड़े। बालगोविन्न मास्टर थोड़ा-सा अंदर आए, एक जगह आड़ तलाशी और धोती खोलकर बैठ गए। बालगोविन्न मास्टर मुझे देख लें इस डर से में पीछे खिसकता चला गया। जब तक वह धोती खोल बैठे रहे, डर के मारे मेरी घिग्घी बँधी रही। वह उठने ही वाले थे कि एक बड़ा-सा ढेला आकर उनकी पीठ पर पड़ा। बालगोविन्न मास्टर हकबकाकर आगे रखे लोटे पर गिर गए। लोटे का सारा पानी गिर गया। बालगोविन्न मास्टर काँखते हुए चिल्लाए, ‘कौन है ससुर?’ किसी तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया। मैं डर के मारे ज़मीन पर लेट-सा गया। बालगोविन्न मास्टर बहुत देर तक इधर-उधर देखते रहे, फिर उन्होंने बग़ल से लसोढ़े की पत्तियाँ तोड़ी और उससे अपना पिछवाड़ा साफ़ किया, इधर-उधर देखते हुए धोती पहनी और बाहर निकल गए।

    बालगोविन्न मास्टर बाहर निकल गए तो मुझे डर लगा। मैं उठ कर खड़ा हो गया और अनायास ही चारों तरफ़ देखा। चारों तरफ़ पेड़, झाड़ियाँ, फूल ही फूल। आम, महुआ, लसोढ़ा, बेर, करौंदा, कैथा, सेमल, नीम, बबूल, जंगलजलेबी, मकोय, ढिठोरी, चिलबिल और भी जाने क्या-क्या जिनके मैं नाम तक नहीं जानता। पेड़ों के ऊपर घनी लताएँ फैली हुई थीं। इतनी कि कई पेड़ दिख ही नहीं रहे थे, सिर्फ़ लताएँ दिख रही थीं। कुछ जगहों पर लताएँ भी नहीं दिख रही थीं, सिर्फ़ नीले-पीले फूल दिख रहे थे।

    मुझे सब कुछ जादू-जादू-सा लगा। मेरा डर उड़नछू हो गया। जैसे किसी सम्मोहन की क़ैद में मैं जंगल के भीतर की तरफ़ बढ़ने लगा। अंदर एक तालाब था जिसके किनारे-किनारे जलकुंभी फैली हुई थी। उसमें बैगनी रंग के गुच्छेदार फूल खिले हुए थे और अंदर की तरफ़ कमल के बड़े-बड़े पत्ते पानी की सतह पर हरे धब्बों की तरह तैर रहे थे और चारों तरफ़ ख़ूब कमल ओर कुमुदिनी के फूल खिले हुए थे। मैंने इसके पहले सचमुच का कमल नहीं देखा था। मेरे घर के ओसारे में दरवाज़े के ऊपर तीन बड़ी-बड़ी तस्वीरें टँगी हुई हैं, उन सबमें कमल के फूल हैं। एक ब्रह्माजी की तस्वीर है जिसमें वह कमल के फूल पर बैठे हुए हैं, दूसरी सरस्वती की तस्वीर है जिसमें उनके एक हाथ में कमल का फूल लटका हुआ है। ऐसे ही एक कुबेर-लक्ष्मी की तस्वीर है जिसमें दोनों एक हाथी पर बैठे हुए हैं और हाथी अपनी सूँड़ से एक कमल का फूल तोड़ रहा है। तो मेरे ध्यान में कमल के फूल से जुड़े जितने भी प्रसंग थे सब देवताओं से जुडे़ हुए थे, इसीलिए जब मैंने तालाब में कमल खिले देखे तो तालाब मुझे पवित्र किस्म का लगा। मुझे लगा कि रात में ज़रूर यहाँ परियाँ उतरती होंगी। मेरा मन हुआ कि मैं एक कमल का फूल तोड़ूँ पर कमल तालाब में काफ़ी अंदर खिले हुए थे। तालाब गहरा हो सकता था और मुझे तैरना नहीं आता।

    तभी मैंने देखा कि एक तरफ़ से धुआँ उठ रहा है। मैं धीरे-धीरे वहाँ पहुँचा तो देखा कि ओमप्रकाश और बितानू आग में से कुछ निकाल रहे हैं ओमप्रकाश मुझसे एक कक्षा आगे पाँचवी में पढ़ता है। मैं उन दोनों तक पहुँचता उसके पहले ही बितानू ने मुझे देख लिया और उठकर खड़ा हो गया।

    मुझे लगा कि दोनों मुझे देखकर सकपका से गए। पर बितानू ने कहा, ‘वहाँ क्यों खड़े हो पंडित? यहाँ आओ।’

    मैं असमंजस में रहा! फिर धीरे-धीरे चल कर उनके पास जाकर खड़ा हो गया। सामने गणित की रफ़ कॉपी का पन्ना पड़ा हुआ था। उस पर तीन भुनी मछलियाँ रखी हुईं थीं। काग़ज़ पर एक कोने में थोड़ा सा पिसा नमक रखा था। बितानू ने पूछा, ‘खाओगे पंडित?’

    मैंने कहा, ‘छिः तुम लोग पापी हो।’

    ओमप्रकाश हँसने लगा। उसने कहा, ‘अच्छा पंडित जी हम लोग तो पापी हैं ही पर मछली तो आज आपको भी खानी पड़ेगी। नहीं तो मैं बालगोविन्न मास्टर को बता दूँगा कि उनको ढेला तुमने मारा था।’

    मैं चौंक गया। ‘इसका मतलब उनको ढेला तुम लोगो ने मारा था।’ मैंने कहा।

    ‘तो क्या हुआ! हम दो हैं और तुम अकेले। दो की बात में ज़्यादा दम होता है।’ ये बितानू था।

    उसके दो वाले तर्क से मैं गड़बड़ा गया। फिर भी मैंने कहा, ‘मैं यह भी बताऊँगा कि तुम दोनों यहाँ यह सब करते हो।’

    बितानू बोला, ‘देख बे पंडित, जा बता दे। मैं तो पहले से ही स्कूल नहीं आता, तेरा मास्टर मेरा क्या उखाड़ेगा!’

    दोनों तन कर खड़े हो गए। मुझमें वह हिम्मत नहीं बची कि मैं उन दोनों की शिकायत करने के बारे में सोचता। दोनों मुझसे ज़्यादा ताकतवर। और शिकायत करके भी क्या होगा, सही बात है कि बितानू तो पहले से ही स्कूल छोड़ चुका है और फिर पिता ने मुझे भी तो स्कूल आने से मना किया है। पिता पूछेंगे कि तुम वहाँ क्या कर रहे थे तो मैं क्या जवाब दूँगा! अब बचा ओमप्रकाश, वह तो स्कूल भी जाता है, ऊपर से मुझसे ऊपर की कक्षा में पढ़ता है। अगर उसने मेरी शिकायत कर दी तो...

    तो मैंने कहा, ‘देखो तुम लोग मेरे बारे में कुछ मत बताना। मैं भी तुम दोनों के बारे में कुछ नहीं बताऊँगा।’

    बितानू बोला, ‘हम तो बताएँगे।’ शायद वह मेरे डर को भाँप गया था।

    मैं बहुत देर तक न-नुकुर करता रहा। वे दोनों मुझे धमकाते रहे।

    आख़िरकार मैंने मिनमिनाते हुए कहा, ‘अच्छा थोड़ी-सी दो। अच्छी नहीं लगेगी तो नहीं खाऊँगा।’

    ओमप्रकाश ने मछली का एक टुकड़ा निकाला, उसमें नमक छुवाया और मेरे मुँह में डाल दिया। मुझे उबकाई-सी आई। आँखों में आँसू आने को हुए, पर मैं उबकाई और आँसू दोनों पी गया। देर तक वह टुकड़ा मेरे मुँह में वैसे का वैसे ही पड़ा रहा। फिर उसका नमक मेरे मुँह में घुला। उसमें एक अजीब-सी महक थी। मेरे रोएँ सन्न भाव से खड़े हो गए जैसे किसी अनपेक्षित का इंतज़ार कर रहे हों। फिर मछली का टुकड़ा मेरे मुँह में बिखर गया। मैं दम साधे उसे महसूस करने की कोशिश कर रहा था। टुकड़ा और घुला। थोड़ा और। और। फिर मैंने उससे एक टुकड़ा और माँगा।

    बितानू बोला, ‘शाबास पंडित, मजा आया न!’

    मैं हँसने लगा। इसके बाद मैं भी उनका साझीदार हो गया।

    अगले कई दिनों तक मैं रोज़ मैदान जाने का डिब्बा लेकर वहाँ पहुँचता रहा। ओमप्रकाश अपने साथ मछली फाँसने वाली कटिया ले कर आता। कटिया चार-पाँच मीटर लंबे ताँत के तार की बनी होती, जिसके एक छोर पर वह वहीं छुपाई गई बाँस की टहनी लगा देता। दूसरे छोर पर एक पतला-सा लोहे का तारनुमा बंसी लगी होती जिसका अगला हिस्सा हुक की तरह मुड़ा होता। वह वहीं तालाब के किनारे की नमी से केंचुए इकट्ठा करता और हुक में केंचुए फँसा देता। वह कई-कई कटिया लगाकर स्कूल चला जाता। जब इंटरवल होता तो वह तालाब की तरफ़ लपकता। मैं पहले से ही वहाँ पहुँचा होता।

    वहीं पर मैंने पहली बार अंडे खाए। बीड़ी का सुट्टा मारा। फिर एक दिन अम्मा ने कहा कि मैं पिता के स्कूल के लिए निकल जाने के बाद स्कूल चला जाया करूँ। इसमें कोई दिक़्क़त नहीं थी क्योंकि पिता का स्कूल दूर था और वह पहले ही निकल जाते थे। मेरा स्कूल घर के सामने ही था सो मैं आराम से बाद में जा सकता था। अम्मा ने ज़रूर पिता की सहमति से ही ऐसा किया होगा। अम्मा बताती तब भी उन्हें तो मिसिर मास्टर से पता चल ही जाना था।

    कितना अच्छा होता कि स्कूल घर से दूर होता। कितना अच्छा होता कि स्कूल के मिसिर मास्टर, बालगोविन्न मास्टर और पिता एक दूसरे को जानते होते। हम घर में भी पिटते और स्कूल में भी। दोनों जगहों पर हम संदिग्ध थे और हमें ठोंक-पीटकर अच्छा बनाने का पवित्र अभियान चलाया जा रहा था।

    मैं स्कूल जाने लगा तो धीरे-धीरे मेरी दोस्ती ओमप्रकाश और बितानू से बढ़ती गई। स्कूल में मेरा वक़्त ओमप्रकाश के साथ बीतता और इंटरवल में बितानू हम दोनों का तालाब पर इंतज़ार करता कभी मछली, कभी चिड़िया के अंडे, कभी आलू कभी कुमुदिनी की जड़ तो कभी अरहर और मटर की फलियों के साथ।

    ओमप्रकाश के साथ उसकी बहन भी स्कूल आती थी। वह मुझे बहुत सुंदर लगती थी। उसके बाएँ गाल पर चवन्नी बराबर एक बड़ा-सा मस्सा था। मस्सा मुझे बहुत अच्छा लगता था और मुझे उसकी तरफ़ खींचता था। मेरा मन उसे छूने का करता। मैं उसे देर-देर तक चुपके-चुपके निहारता था। मैंने एक दिन ओमप्रकाश से कह ही दिया,

    ‘ओम भाई, तुम्हारी बहन मुझे बहुत अच्छी लगती है।’

    उसने कहा, ‘मुझे भी तुम्हारी दीदी बहुत अच्छी लगती है। चलो बदल लेते हैं। तुम अपनी दीदी मुझे दे दो और मेरी बहन ले लो।’

    दीदी वहीं बग़ल के मिडिल स्कूल में आठवीं में पढ़ती थी। वह जाने कहाँ पीछे दुबकी थी और हमारी बातें सुन रही थी। दीदी अचानक प्रकट हुई और इसके पहले कि हम कुछ समझ पाते उसने मेरे और ओमप्रकाश के सिरों को पकड़ कर आपस में लड़ा दिया। हम दोनों की आँखों के आगे अँधेरा छा गया। दीदी ने हम दोनों की ख़ूब ताबड़तोड़ ढंग से पिटाई की। हम दोनों पस्त होकर वहीं पड़े रहे और दीदी ने घर जा कर सब कुछ बता दिया।

    घर पहुँचा तो दादी डंडा लिए मेरा इंतज़ार कर रही थी। ख़ूब पिटाई हुई। दूसरे दिन स्कूल में भी मेरी और ओमप्रकाश की जम कर पिटाई हुई। कई दिनों बाद दादी ने प्यार से समझाया कि उसका क्या जाता! मान लो ऐसा हो जाए तो बाभन की लड़की पाकर उसकी तो इज़्ज़त बढ़ जाएगी पर तुम्हारे तो पूरे खानदान की नाक कट जाएगी कि तुम्हारी बहन किसी सूद-बहरी के साथ चली गई। अरे ऐसी बातों पर तो गर्दन तक कट जाती हैं और तू है कि... कुल का कलंक बन कर पैदा हुआ है।

    इसके बाद हम पर स्कूल में नज़र रखी जाने लगी। घर पर लगातार सुनने को मिलता कि अच्छे लड़के सूद-बहरी की संगत नहीं किया करते। ऐसा करने से उनका मन गंदा हो जाता है और उनके भीतर तमाम गंदी आदतें जाती हैं। स्कूल में भी मिसिर मास्टर की निगाहों में आने से बचना होता था। सो हमारे मिलने की एकमात्र जगह जंगल था।

    ओमप्रकाश इस बीच बेवजह पिटने लगा था। कई बार मिसिर मास्टर उसके नाम को लेकर उसकी फ़ज़ीहत करते। ‘ससुर अँधेरे की औलाद नाम ओम प्रकाश!’ फिर एक दिन उसे मिसिर मास्टर ने कुएँ पर जाने और रस्सी-बाल्टी छूने से मना कर दिया। ओमप्रकाश नहीं माना तो मिसिर मास्टर ने उसे ज़मीन पर गिराकर लातों और डंडों से ख़ूब पीटा। ओमप्रकाश की समझ में जब कुछ नही आया तो उसने मिसिर मास्टर की कलाई में दाँत गड़ा दिया। मिसिर मास्टर ने चिल्ला कर उसे छोड़ दिया। ओमप्रकाश थोड़ा दूर गया और वहाँ से ईंट का एक टुकड़ा उठा कर मिसिर मास्टर के सिर पर दे मारा। मिसिर मास्टर सिर थाम कर बैठ गए तो ओमप्रकाश ने उन्हें माँ की गाली दी और घर भाग गया। दूसरे दिन ओमप्रकाश के घर वाले आकर सरेआम मिसिर मास्टर की माँ बहन कर गए। इसके बाद ओमप्रकाश और उसकी बहन दोनों का स्कूल आना बंद हो गया।

    पंद्रह-बीस दिन बाद एक दिन कुएँ में मरा हुआ कुत्ता तैरता दिखा। दो दिन तक लगातार कुएँ का पानी निकलवाया गया। मिसिर मास्टर ने घर से लाकर गंगाजल डाला पर दस दिन बाद ही कुएँ में मरा हुआ बछड़ा पाया गया। इसके बाद कुएँ में एक बदबू फैल गई जो बढ़ती ही गई। इसके बावजूद छोटे-छोटे बच्चे जाते और उसमें ईंट के टुकड़े उछालते तो एक छपाक की आवाज़ होती और पानी के कुछ छींटे बाहर जाते। पानी में कीड़े पड़ गए थे। कई बार पानी के साथ कीड़े भी बाहर जाते। बाद में इस कुएँ में कूड़ा फेंका जाने लगा। धीरे-धीरे पानी ग़ायब हो गया और बजबजाता हुआ कीचड़ भर बचा जिसमें घिनौने कीड़े रेंगते जोंकें कई बार ऊपर तक चली आतीं और कुएँ की जगत पर फिसलती दिखाईं देतीं। कुएँ के ऊपर से जो हवा गुज़रती उसमें एक ज़हरीली बदबू फैल जाती। एक-एक कर कुएँ में कई ऐसे बच्चे पाए गए जिनकी नाल तक नहीं काटी गई थी। इनके बारे में पता ही तब चलता है जब कुएँ के ऊपर कौव्वे या गिद्ध मँडराने लगते हैं।

    ओमप्रकाश के जाने के बाद बितानू ने भी तालाब पर आना बंद कर दिया। मैं अकेला पड़ गया हूँ। मिसिर मास्टर लगभग रोज़ मुझे पीटते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ओमप्रकाश और उसके घर वालों से गाली उन्होंने मेरी वजह से खाई। मैं अकेला पड़ गया हूँ पर इस बीच मुझे वर्जित का चस्का लग चुका है। मैं पेड़ पर नहीं चढ़ पाता। मैं मछली नहीं फँसा पाता। बीड़ी पिए भी बहुत दिन हो गए हैं पर मैं जंगल में अकेले ही भटका करता हूँ। पूरे जंगल का स्वाद मुझे पता है। मछली सही इमली, अमोला, करौंदा, कैथा, झरबेरी या बढ़हल की फुलौरियों का स्वाद मुँह में पानी ला देता है। जब इमली में फलियाँ नहीं लगी होती हैं तो कई बार मैं इमली की नरम-नवेली पत्तियाँ खाता हूँ। उनमें भी इमली जैसा ताज़ा खट्टापन होता है। मैंने एक घास भी खोज निकाली है जो तालाब के किनारे की नम जगहों पर पनपती है। इसकी गुच्छेदार पत्तियाँ इमली से भी ज़्यादा खट्टी होती हैं। उनको खाने से कई बार दाँत इतने खट्टे हो जाते हैं कि रोटी चबाना तक मुश्किल होता है। पर सबसे ज़्यादा फ़िदा मैं शहतूतों पर हुआ हूँ। तालाब के किनारे-किनारे शहतूतों का एक जंगल जैसा है। यहाँ शहतूतों के बीसियों पेड़ उगे हैं जब उन पर फल आते हैं तो ये फल इतने हरे होते हैं कि उन्हें पत्तियों से अलग देख पाना भी मुश्किल होता है। फिर उन फलों पर एक लाली उतरने लगती है। उधर लाली दिखी नहीं कि मेरे मुँह में पानी आना शुरू हो जाता है और काले फलों के दिखाई देते ही मैं उस पर बेसब्री से टूट पड़ता हूँ छोटे-छोटे फल जीभ के ज़रा-सा दबाव पर ही मुँह में घुल जाते हैं खाते-खाते जीभ लाल हो जाती है। कई बार कपड़ों पर भी दाग़ पड़ जाते हैं जिन्हें बितानू की माई छुड़ाती है।

    ऐसे ही धीरे-धीरे तुम्हें लगने लगता है कि तुम्हारी दुनिया के समानांतर स्मृतियों की भी एक जीती-जागती दुनिया है जहाँ तुम बितानू, ओमप्रकाश और मछलियों की तलाश में भटकते हो। तुम मानते हो कि वहाँ एक सचमुच का स्कूल है जिसमें मिसिर मास्टर ओर बालगोविन्न मास्टर पढ़ाते हैं और जहाँ से तुम भागे हुए हो। तुम्हें पता नहीं कि कुएँ की दुर्गंध शहतूतों में समा चुकी है इसीलिए तुम्हें अभी भी लगता है कि शहतूत दुनिया के सबसे स्वादिष्ट फल हैं।

    तुम महानगर में रहते हो। महानगर में आजकल तपती हुई गर्मी पड़ रही है। तुम कई दिनों से एक बाबू से मिलने जा रहे हो जिसने तुम्हारा काम लटका रखा है। धूप और गर्मी बर्दाश्त नहीं होती तो जल्दी पहुँचने के लिए अपनी जेब सहलाते हुए तुम रिक्शा करते हो। तुम ओमप्रकाश की याद में इतने डूबे हुए हो कि तुम्हें पता भी नहीं चल पाता कि जिस रिक्शे पर तुम बैठे हुए हो उसे ओमप्रकाश चला रहा है। रिक्शे से उतर कर तुम ऑफ़िस जाते हो तो तुम्हें पता चलता है कि जिस बाबू ने तुम्हारा काम रोक रखा है उसका तबादला हो गया है और उसकी जगह पर अशोक कुमार निर्मल बैठा हुआ है। तुम उसे देख कर ख़ुश हो जाते हो पर वह तुम्हारी यादों में इतना डूबा हुआ है कि तुम्हें पहचान ही नहीं पाता। तुम्हे लगता है कि यह दुनिया एक जंगल है। तब तुम तालाब खोजने लगते हो। तुम्हें तालाब नहीं मिलता, तुम्हें एक नल मिलता है। नल का पानी इतना गर्म है कि तुम्हारे हाथों पर छाले पड़ जाते हैं और तुम्हारा चेहरा शहतूतों की तरह काला पड़ जाता है। तुम्हें शहतूतों की याद आती है। तभी तुम देखते हो कि नल का पानी जहाँ जा कर इकट्ठा होता है उसके बग़ल में शहतूत का एक पेड़ है जो फलों से लदा हुआ है। तुम उसके नज़दीक जाते हो तो पेड़ तुम्हें अपने घेरे में ले लेता है और तुम्हें छाँट-छाँटकर अपने सबसे मीठे फल देने लगता है। अब तुम बड़े हो गए हो। तुम फलों को घर लाओगे, उन्हें धोओगे तब खाओगे पर तुम ऐसा नहीं करते। पता नहीं एक बचपना तुम्हारे भीतर बचा हुआ है या पेड़ ही बेसब्र हो उठता है कि वह तुम्हारी अँजुरी शहतूतों से भर देता है। तुम एक साथ सारे शहतूत अपने मुँह में भर लेते हो। अचानक तुम्हें ज़ोर की उबकाई आती है। तुम्हें लगता है कि तुमने अपने मुँह में रोएँदार गुजगुजे कीड़े भर लिए हैं। पेड़ तुम्हारा माथा सहलाना चाहता है पर तुम बाहर भागते हो। तुम फिर से नल पर जाओगे और कुल्ला करोगे और आज के बाद शहतूतों की तरफ़ पलटकर भी नहीं देखोगे। आगे हो सकता है कि तुम किसी ऐसे जंगल में जा करबस जाओ जहाँ शहतूत क्या मछली, मेहँदी, इमली, बढ़हल या कमल जैसी चीज़ें सपनों में भी तुम तक पहुँच सकें।

    मैं इसी बात से तो डरता हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शहतूत (पृष्ठ 60)
    • रचनाकार : मनोज कुमार पांडेय
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2009
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए