वह सैनफ़्रांसिस्को के जिस तबक़े का आदमी था, उसके लोग ज़्यादातर अपने मनबहलाव की शुरुआत यूरोप, भारत और मिस्र की यात्रा से करते थे। उसने भी यही ठीक समझा और दौरे की समूची रूपरेखा बना डाली।
नवंबर के अंतिम दिनों में ख़राब मौसम के बावजूद जहाज़ समुद्र की लहरों को चीरता ज़िबराल्टर की ओर बढ़ा जा रहा था। स्टीमर 'एटलांटिस' के तमाम यात्री यूरोप के बेहद ख़र्चीले होटल में पहुँचे। यह होटल तमाम आधुनिक साधनों से संपन्न था।
शाम की पोशाक पहने वह बहुत कम उम्र का लग रहा था। उसके पास ही जोहानिसबर्ग का एक आदमी अपनी पत्नी के साथ खड़ा था। उसकी पत्नी महँगी पारदर्शी पोशाक पहने हुए थी। जब-जब वह साँस लेती, लगता सुगंध उड़ रही है।
पूरे दो घंटे में जाकर कहीं रात का भोजन प्राप्त हुआ। साथ ही डांस हॉल में डांस भी शुरू हो गया। वह भी लोगों के साथ रिेफ़्रेशमेंट बार की ओर बढ़ लिया, जहाँ लाल जैकिट पहने बड़ी-बड़ी आँखों वाले नीग्रो उनका इंतज़ार कर रहे थे। मेज़ों पर पैर रखे हुए होंठों में हवाना का सिगार दबाए, वे ताज़ातरीन राजनीतिक घटनाओं से लेकर स्टॉक एक्सचेंज पर बहसों में खोए हुए थे।
ज़िबराल्टर पहुँचकर सूरज की रोशनी देख सभी लोग बहुत ख़ुश हुए। मौसम वसंत के शुरुआती दिनों-सा था। यहाँ एक नया यात्री आया, जिसने आते ही अन्य यात्रियों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। शायद वह किसी एशियन राजघराने का राजकुमार था। नाटे क़द का यह आदमी उम्रदार होते हुए भी किसी युवक-सा लग रहा था।
सैनफ़्रांसिस्को से आए परिवार की लड़की राजकुमार से कुछ फ़ासले पर खड़ी थी और ग़ौर से उसकी हरकतें देख रही थी। पिछली शाम दरअसल उसका परिचय राजकुमार से हो चुका था।
नेपल्स अब नज़दीक आ रहा था। बैंडवालों ने अपने चमचमाते पीतल के वाद्ययंत्रों समेत डेक पर घेरा-सा बना लिया था। तभी लंबा-चौड़ा जहाज़ का कप्तान ब्रिज पर पहुँचा और अपना हाथ उठा-उठाकर यात्रियों को संबोधित करने लगा। सैनफ़्रांसिस्को के उस आदमी को लगा कि कप्तान अकेले उसे ही संबोधित कर रहा है। उसने सफ़र के आराम से ख़त्म होने पर कप्तान को बधाई भी दी।
सुबह-सुबह डायनिंग रूम में नाश्ता किया गया। डायनिंग रूम की खुली खिड़कियों से आकाश में छाए घने बादल और उदास मौसम साफ़ नज़र आ रहा था...पर थोड़ी देर बाद सूरज की पहली किरण के साथ समूचा मौसम बदल गया।
दुपहर को वे लोग ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच से होकर गुज़रे, जिनमें खिड़कियों की बहुतायत थी। वे संग्रहालयों में गए जहाँ सफ़ाई और प्रकाश व्यवस्था देखते ही बनती थी। इसके बाद सभी चर्च गए। दुपहर का भोजन सैन मारटियम की पहाड़ी पर किया। यहाँ कुछ गण्यमान्य लोग ही इकट्ठे हुए। तभी सैनफ़्रांसिस्को के परिवार की लड़की तो ख़ुशी से उत्साह में क़रीब-क़रीब बेहोश ही हो गई। असलियत यह थी कि उसने अख़बार में राजकुमार के रोम रवाना होने की ख़बर पढ़ ली थी।
पाँच बजे होटल के रिवाज के मुताबिक वहीं चाय ली गई... धीरे-धीरे भोजन का वक़्त भी आ पहुँचा।
चलने वाला दिन इस परिवार के लिए बहुत यादगार साबित हुआ। इस दिन सूरज निकला ही नहीं। समूचा कैपरी अँधेरे में खोया हुआ था, लगता था जैसे वह कभी इस ज़मीन का हिस्सा रहा ही नहीं। स्टीमबोट के परेशानीतलब केबिन के सोफ़े पर वे पाँव सिकोड़कर बैठ गए... उबकाई आने के कारण ज़्यादातर लोग अपनी आँखें बंद ही किए थे। परिवार की औरत इस लंबी समुद्री यात्रा में ऊब चुकी थी।
छोटी लड़की डरी-सी लग रही थी। वह लगातार पीली पड़ती जा रही थी। अकसर वह अपने दाँतों के बीच नीबू का टुकड़ा फँसाए रहती। ओवरकोट और बड़ा-सा टोप पहने हुए उस परिवार का आदमी लड़की के पीछे लेटा हुआ था।
उसके चेहरे का रंग गहरा, मूँछें सफ़ेद थीं और उसके सिर का दर्द तेज़ होता जा रहा था। दरअसल, पिछली कुछ शामों से वह ज़्यादा ही पी रहा था।
कैपरी के टापू पर शाम को काफ़ी धुँघ छाई हुई थी। सैनफ़्रांसिस्को से आए आदमी के स्वागत के लिए कुछ लोग खड़े थे। किसी और को इनकी परवाह भी नहीं थी।
जवान और सुंदर नज़र आने वाला होटल का मालिक मुस्कराते हुए, अतिथियों के सामने झुका-झुका ही अभिवादन कर रहा था। सैनफ़्रांसिस्को के आदमी ने एक नज़र उसे देखा, और सोचा, यह वही शख़्स है जिसने उसे कल रात कल्पना में सोने नहीं दिया था, 'एकदम वैसा ही है वह आदमी, 'उसने सोचा 'फ्रॉक कोट, वही सिर...एकदम वही बाल...’ वह कॉरीडोर पार करता हुआ तेज़ी से अपनी पत्नी और बेटी को कल्पना और यथार्थ के इस अद्भुत संयोग के बारे में बताने के लिए चल दिया।
उसकी तबीयत ठीक नहीं थी। धीरे से... लेकिन कुछ बेहूदे ढंग से उसने खिड़की बंद कर दी। तभी होटल का एक आदमी आ पहुँचा। उसके पूछने पर उसने दुपहर के भोजन का आदेश दिया... कि उनकी मेज़ दरवाज़े से ख़ासे फ़ासले पर होनी चाहिए... वे लोकल वाइन और शैंपेन लेंगे।
सैनफ़्रांसिस्को का आदमी अब तैयारियाँ करने लगा, जैसे किसी शादी में जाना हो। इस शाम इस आदमी ने क्या सोचा और महसूसा, यह बताना बहुत ज़रूरी है। यह भी कहा जा सकता है कि इसमें कुछ भी अजीबोग़रीब नहीं था। परेशानी तो यही है कि इस ज़मीन पर हर चीज़, बड़ी आसानी के साथ उतर आती है...पर, क्या उसके ज़ेहन में कोई चीज़ गहराई से उतरी थी?
दाढ़ी बनाने के बाद वह शीशे के सामने खड़ा हो गया। देर तक ग़ौर से देखता रहा कि उसके मोती-से रंग वाले बालों में कुछ छूट तो नहीं गया है!
कितना भयानक है यह! उसके मुँह से निकला...बग़ैर यह सोचे-समझे कि 'भयानक' क्या होता है। उसने अपने हाथों की उँगलियों के जोड़ों को ग़ौर से देखा। फिर नाख़ूनों के रंग को देखते हुए एक बार फिर बड़बड़ाया।
उसने अपनी टॉर्च को कॉलर के गिर्द कसा और फिर डिनर कोट पहनते हुए कफों को सेट किया। उसने आख़िरी बार फिर अपना रूप शीशे में निहारा। फिर ख़ुशी से अपना कमरा छोड़ते हुए वह अपनी पत्नी के कमरे की ओर चल दिया। पत्नी के कमरे के पास पहुँचकर ऊँची आवाज़ में पूछा, “अभी ज़्यादा देर लगेगी क्या?
पापा, सिर्फ़ पाँच मिनट। बेटी ने जवाब दिया।
...इसके बाद वह लाल दरी पर चलता हुआ धीरे-धीरे लाइब्रेरी की ओर बढ़ लिया। हल्के सलेटी रंग की स्कर्ट पहने एक बूढ़ी औरत तेज़ी से उसके आगे से निकल गई उसे शायद डिनर के लिए तैयार होने में देर हो गई थी। होटल के नौकर भी तेज़ी से इधर-उधर आ-जा रहे थे...वह इस तरह चलता रहा, जैसे उसे इन सबकी कोई परवाह ही न हो।
शीशे के दरवाज़े वाले डाइनिंग रूम में मेहमान पहले ही इकट्ठे हो चुके थे। कुछ ने भोजन शुरू भी कर दिया था। वह इजिप्शियन सिगरेट और माचिसों वाली मेज़ के सामने रुका और एक महिला से सिगार लेते हुए उसने तीन लीरा मेज़ पर उछाल दिए। अब वह लाइब्रेरी की ओर चल दिया।
लाइब्रेरी में एक जर्मन अख़बार पढ़ने में तन्मय था। उसने जर्मन पर एक टेढ़ी नज़र डाली और चमड़े की आर्मचेयर पर बैठ गया। कसी हुई कॉलर उसके गले को घोटे दे रही थी। उसने अपना सिर झटका और अख़बार के शीर्षक पढ़ने लगा। कुछ पंक्तियाँ बाल्कन युद्ध के विषय में पढ़कर उसने अपनी आदत के मुताबिक पेज पलट दिया। धीरे-धीरे उसे लगा कि आँखों के आगे धुँघलका-सा छाता जा रहा है। उसके गले की नसें भी फूलने लगीं...और आँखें बाहर निकलने को हो आईं। उसने हवा लेने की गर्ज से आगे की ओर बढ़ने की कोशिश की और... फिर अचानक उसके मुँह से अजीबोग़रीब आवाज़ निकलने लगी। कंधे ढीले छोड़ते हुए उसने काँपना शुरू कर दिया...उसकी क़मीज़ बाहर निकल आई। आख़िरकार सँभलने की काफ़ी कोशिश करने के बावजूद वह फ़र्श पर गिर ही पड़ा। जर्मन उसकी यह हालत देखकर तेज़ी से बाहर की ओर पलटा और अलार्म बजा दिया।
सभी लोग अपना-अपना खाना छोड़कर तेज़ी से लाइब्रेरी की तरफ़ भागे और 'क्या हुआ-क्या हुआ' कहने लगे। तभी होटल का मालिक मेहमानों के बीच में रास्ता बनाता हुआ बमुश्किल वहाँ आ पहुँचा, कुछ नहीं हुआ, सैनफ़्रांसिस्को के महाशय बेहोश हो गए बस।
निचले कॉरीडोर में ले जाकर छोटे किंतु ठंडे कमरे में बिस्तर पर उसे अभी लिटाया ही था कि उसकी बेटी बेतहाशा भागती हुई आई। उसके बाल कंधों तक झूल रहे थे। उसकी स्कर्ट और ड्रेसिंग गाउन क़रीब-क़रीब अधखुले-से थे। इसके बाद उसकी पत्नी वहाँ पहुँची, जो डिनर के लिए लगभग तैयार थी। उसके चेहरे पर आतंक छाया हुआ था।
कुछ लोग वापस डायनिंग हॉल में आकर भोजन करने लगे थे। वे सभी अपने-आप में ख़ामोश थे।
उधर सैनफ़्रांसिस्को का आदमी एक सस्ते लोहे की पलंग पर गुमसुम पड़ा था। मद्धिम रोशनी का बल्ब हल्का प्रकाश फेंक रहा था। और उसके माथे पर बर्फ़ रखकर ठंडक पहुँचाने की कोशिश की जा रही थी। पर धीरे-धीरे उसका चेहरा पीला पड़ने लगा...
...और अब वह ख़त्म हो चुका था।
तभी होटल का मालिक वहाँ आ पहुँचा। उसने डॉक्टर से कुछ बातचीत की और ख़ामोश हो गया। मृतक की पत्नी ने कहा कि लाश पहले उसके कमरे में पहुँचाई जानी चाहिए।
नहीं मैडम, यह एकदम नामुमकिन है! उसने विनम्रता से जर्मन भाषा में कहा।
लड़की जो अब तक भौचक-सी अपने पिता के शव को देखे जा रही थी, ज़मीन पर पसर गई और मुँह पर रुमाल ढाँपे ज़ोर-ज़ोर से रो पड़ी। उसकी माँ के आँसू एकदम सूख गए और वह अपने हाथ उठाकर कहने लगी कि अब मेरी इज़्ज़त नहीं की जा रही।
रात को जब होटल सो चुका था, एक वेटर ने रूम नं० 43 की खिड़की खोली, खिड़की बगीचे के कोने की तरफ़ थी। वेटर ने रोशनी का रुख मोड़ा और दरवाज़े की ओर नज़र मारकर लौट गया। शव अँधेरे में पड़ा रहा।
कॉरीडोर में बैठे होटल के नौकर कुछ बना रहे थे। तभी स्लीपर पहने लुइजी ने प्रवेश किया। उसने फुसफुसाते हुए कुछ पूछा और कमरे की ओर हाथ का इशारा किया। फिर वह फुसफुसाने के अंदाज़ में ही चीख़ा...नौकरों के गले जैसे घोट ही दिए गए थे। उसने इसके तुरंत बाद एक-दूसरे के कंधों पर एक-दूसरे के सिरों को टिकाया और कमरे की ओर बढ़ लिया। दरवाज़ा खोला और कुछ पूछा, फिर कुछ क्षण बाद वह ख़ुद ही दुखी स्वर में बोला, हाँ, अंदर आ जाओ!
और जब रूम नं० 43 की खिड़कियों का रंग सफ़ेद हो गया, केले के पेड़ के पत्ते हवा में फड़फड़ाने लगे, केसरी के आसपास का रंग पीला होने लगा, सभी घुमंतू अपने-अपने कामों में लग गए तो एक बड़ा संदूक लाया गया।
छोटी बाँहों का पुराना कोट पहने लाल आँखों वाला गाड़ीवान लगातार चाबुक मारते हुए अपने छोटे लेकिन शक्तिवान घोड़े को दौड़ाए चला जा रहा था। उसके सिर में काफ़ी दर्द था। इसी वजह से वह ख़ामोश था, पर उसकी बगल में रखे संदूक में पड़े सैनफ़्रांसिस्को के आदमी के शव ने उसे अचानक होने वाली आमदनी से ख़ुश कर दिया था।
घाट के पास हेड डोरमैन गाड़ीवान से आगे निकल गया। वह मृतक की पत्नी और बेटी को ऑटो में लेकर आया था।
मृतक का शव अपने गंतव्य के रास्ते पर था। एक नई दुनिया का समुद्र-तट, जहाँ एक क़ब्र उसके इंतज़ार में थी। संयोग की बात यह थी कि यह वही जहाज़ था, जो सैनफ़्रांसिस्को के उस परिवार को पूरी शान से लेकर आया था।
विलासमय केबिनों, डाइनिंग रूम और हॉलों में प्रकाश और उल्लास फैला हुआ था। लोग बढ़िया और चुस्त कपड़े पहने और ऑरकेस्ट्रा की धुनों में मस्त थे। सभी बेख़बर होकर संगीत की लहरों के साथ-साथ एक-दूसरे में खोए हुए प्रेमीयुगल आनंददायी आदान-प्रदान कर रहे थे। वे सभी बेख़बर थे कि दूसरी तरफ़ समुद्र के बीचोबीच जहाज़ ने समुद्री तूफ़ान और अँधेरे के साथ कितना संघर्ष किया है।
wo sainafransisko ke jis tabqe ka adami tha, uske log zyadatar apne manbahlav ki shuruat europe, bharat aur misr ki yatra se karte the. usne bhi yahi theek samjha aur daure ki samuchi ruparekha bana Dali.
november ke antim dinon mein kharab mausam ke bavjud jahaz samudr ki lahron ko chirta zibraltar ki or baDha ja raha tha. steamer etlantis ke tamam yatri europe ke behad kharchile hotel mein pahunche. ye hotel tamam adhunik sadhnon se sanpann tha.
shaam ki poshak pahne wo bahut kam umr ka lag raha tha. uske paas hi johanisbarg ka ek adami apni patni ke saath khaDa tha. uski patni mahngi paradarshi poshak pahne hue thi. jab jab wo saans leti, lagta sugandh uD rahi hai.
pure do ghante mein jakar kahin raat ka bhojan praapt hua. saath hi Daans hall mein Daans bhi shuru ho gaya. wo bhi logon ke saath riefrshment baar ki or baDh liya, jahan laal jaikit pahne baDi baDi ankhon vale nigro unka intzaar kar rahe the. mezon par pair rakhe hue honthon mein havana ka cigar dabaye, ve tazatrin rajnitik ghatnaon se lekar staak exchange par bahson mein khoe hue the.
zibraltar pahunchakar suraj ki roshni dekh sabhi log bahut khush hue. mausam vasant ke shuruati dinon sa tha. yahan ek naya yatri aaya, jisne aate hi any yatriyon ka dhyaan apni or kheench liya. shayad wo kisi asian rajaghrane ka rajakumar tha. nate qad ka ye adami umrdaar hote hue bhi kisi yuvak sa lag raha tha.
sainafransisko se aaye parivar ki laDki rajakumar se kuch fasle par khaDi thi aur ghaur se uski harkaten dekh rahi thi. pichhli shaam darasal uska parichai rajakumar se ho chuka tha.
nepals ab naज़dik aa raha tha. bainDvalon ne apne chamchamate pital ke vadyyantron samet Dek par ghera sa bana liya tha. tabhi lamba chauDa jahaz ka kaptan bridge par pahuncha aur apna haath utha uthakar yatriyon ko sambodhit karne laga. sainafransisko ke us adami ko laga ki kaptan akele use hi sambodhit kar raha hai. usne saफ़r ke aram se khatm hone par kaptan ko badhai bhi di.
subah subah Dayning room mein nashta kiya gaya. Dayning room ki khuli khiDkiyon se akash mein chhaye ghane badal aur udaas mausam saaf nazar aa raha tha. . . par thoDi der baad suraj ki pahli kiran ke saath samucha mausam badal gaya.
duphar ko ve log unchi unchi imaraton ke beech se hokar guzre, jinmen khiDkiyon ki bahutayat thi. ve sangrhalyon mein gaye jahan safai aur parkash vyavastha dekhte hi banti thi. iske baad sabhi church gaye. duphar ka bhojan sain maratiyam ki pahaDi par kiya. yahan kuch ganymanya log hi ikatthe hue. tabhi sainafransisko ke parivar ki laDki to khushi se utsaah mein qarib qarib behosh hi ho gai. asliyat ye thi ki usne akhbar mein rajakumar ke rom ravana hone ki khabar paDh li thi.
paanch baje hotel ke rivaj ke mutabik vahin chaay li gai. . . dhire dhire bhojan ka vaक़t bhi aa pahuncha.
chalne vala din is parivar ke liye bahut yadgar sabit hua. is din suraj nikla hi nahin. samucha kaipri andhere mein khoya hua tha, lagta tha jaise wo kabhi is zamin ka hissa raha hi nahin. stimbot ke pareshanitlab kebin ke sofe par ve paanv sikoDkar baith gaye. . . ubkai aane ke karan zyadatar log apni ankhen band hi kiye the. parivar ki aurat is lambi samudri yatra mein ub chuki thi.
chhoti laDki Dari si lag rahi thi. wo lagatar pili paDti ja rahi thi. aksar wo apne danton ke beech nibu ka tukDa phansaye rahti. overcoat aur baDa sa top pahne hue us parivar ka adami laDki ke pichhe leta hua tha.
uske chehre ka rang gahra, munchhen safed theen aur uske sir ka dard tez hota ja raha tha. darasal, pichhli kuch shamon se wo zyada hi pi raha tha.
kaipri ke tapu par shaam ko kafi dhungh chhai hui thi. sainafransisko se aaye adami ke svagat ke liye kuch log khaDe the. kisi aur ko inki parvah bhi nahin thi.
javan aur sundar nazar aane vala hotel ka malik muskrate hue, atithiyon ke samne jhuka jhuka hi abhivadan kar raha tha. sainafransisko ke adami ne ek nazar use dekha, aur socha, ye vahi shakhs hai jisne use kal raat kalpana mein sone nahin diya tha, ekdam vaisa hi hai wo adami, usne socha phrauk coat, vahi sir. . . ekdam vahi baal. . . . ’ wo corridor paar karta hua tezi se apni patni aur beti ko kalpana aur yatharth ke is adbhut sanyog ke bare mein batane ke liye chal diya.
uski tabiyat theek nahin thi. dhire se. . . lekin kuch behude Dhang se usne khiDki band kar di. tabhi hotel ka ek adami aa pahuncha. uske puchhne par usne duphar ke bhojan ka adesh diya. . . ki unki mez darvaze se khase fasle par honi chahiye. . . ve local wine aur champagne lenge.
sainafransisko ka adami ab taiyariyan karne laga, jaise kisi shadi mein jana ho. is shaam is adami ne kya socha aur mahsusa, ye batana bahut zaruri hai. ye bhi kaha ja sakta hai ki ismen kuch bhi ajiboghrib nahin tha. pareshani to yahi hai ki is zamin par har cheez, baDi asani ke saath utar aati hai. . . par, kya uske zehn mein koi cheez gahrai se utri thee?
daDhi banane ke baad wo shishe ke samne khaDa ho gaya. der tak ghaur se dekhta raha ki uske moti se rang vale balon mein kuch chhoot to nahin gaya hai!
kitna bhayanak hai yah! uske munh se nikla. . . baghair ye soche samjhe ki bhayanak kya hota hai. usne apne hathon ki ungliyon ke joDon ko ghaur se dekha. phir nakhunon ke rang ko dekhte hue ek baar phir baDabDaya.
usne apni torch ko collar ke gird kasa aur phir dinner coat pahante hue kaphon ko set kiya. usne akhiri baar phir apna roop shishe mein nihara. phir khushi se apna kamra chhoDte hue wo apni patni ke kamre ki or chal diya. patni ke kamre ke paas pahunchakar unchi avaz mein puchha, “abhi zyada der lagegi kyaa?
papa, sirf paanch minat. beti ne javab diya.
. . . iske baad wo laal dari par chalta hua dhire dhire library ki or baDh liya. halke saleti rang ki skirt pahne ek buDhi aurat tezi se uske aage se nikal gai use shayad dinner ke liye taiyar hone mein der ho gai thi. hotel ke naukar bhi tezi se idhar udhar aa ja rahe the. . . wo is tarah chalta raha, jaise use in sabki koi parvah hi na ho.
shishe ke darvaze vale Daining room mein mehman pahle hi ikatthe ho chuke the. kuch ne bhojan shuru bhi kar diya tha. wo ijipshiyan cigarette aur machison vali mez ke samne ruka aur ek mahila se cigar lete hue usne teen lira mez par uchhaal diye. ab wo library ki or chal diya.
library mein ek german akhbar paDhne mein tanmay tha. usne german par ek teDhi nazar Dali aur chamDe ki armcheyar par baith gaya. kasi hui collar uske gale ko ghote de rahi thi. usne apna sir jhatka aur akhbar ke shirshak paDhne laga. kuch panktiyan balkan yudh ke vishay mein paDhkar usne apni aadat ke mutabik pej palat diya. dhire dhire use laga ki ankhon ke aage dhunghalaka sa chhata ja raha hai. uske gale ki nasen bhi phulne lagin. . . aur ankhen bahar nikalne ko ho ain. usne hava lene ki garj se aage ki or baDhne ki koshish ki aur. . . phir achanak uske munh se ajiboghrib avaz nikalne lagi. kandhe Dhile chhoDte hue usne kanpna shuru kar diya. . . uski qamiz bahar nikal i. akhiraka sambhalne ki kafi koshish karne ke bavjud wo farsh par gir hi paDa. german uski ye haalat dekhkar tezi se bahar ki or palta aur alarm baja diya.
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nichle corridor mein le jakar chhote kintu thanDe kamre mein bistar par use abhi litaya hi tha ki uski beti betahasha bhagti hui i. uske baal kandhon tak jhool rahe the. uski skirt aur dressing gown qarib qarib adhakhule se the. iske baad uski patni vahan pahunchi, jo dinner ke liye lagbhag taiyar thi. uske chehre par atank chhaya hua tha.
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udhar sainafransisko ka adami ek saste lohe ki palang par gumsum paDa tha. maddhim roshni ka bulb halka parkash phenk raha tha. aur uske mathe par barf rakhkar thanDak pahunchane ki koshish ki ja rahi thi. par dhire dhire uska chehra pila paDne laga. . .
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tabhi hotel ka malik vahan aa pahuncha. usne doctor se kuch batachit ki aur khamosh ho gaya. mritak ki patni ne kaha ki laash pahle uske kamre mein pahunchai jani chahiye.
nahin maiDam, ye ekdam namumkin hai! usne vinamrata se german bhasha mein kaha.
laDki jo ab tak bhauchak si apne pita ke shau ko dekhe ja rahi thi, zamin par pasar gai aur munh par rumal Dhanpe zor zor se ro paDi. uski maan ke ansu ekdam sookh gaye aur wo apne haath uthakar kahne lagi ki ab meri izzat nahin ki ja rahi.
raat ko jab hotel so chuka tha, ek waiter ne room nan० 43 ki khiDki kholi, khiDki bagiche ke kone ki taraf thi. waiter ne roshni ka rukh moDa aur darvaze ki or nazar markar laut gaya. shau andhere mein paDa raha.
corridor mein baithe hotel ke naukar kuch bana rahe the. tabhi sleeper pahne luiji ne pravesh kiya. usne phusaphusate hue kuch puchha aur kamre ki or haath ka ishara kiya. phir wo phusaphusane ke andaz mein hi chikha. . . naukaron ke gale jaise ghot hi diye gaye the. usne iske turant baad ek dusre ke kandhon par ek dusre ke siron ko tikaya aur kamre ki or baDh liya. darvaza khola aur kuch puchha, phir kuch kshan baad wo khu hi dukhi svar mein bola, haan, andar aa jao!
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nepals ab naज़dik aa raha tha. bainDvalon ne apne chamchamate pital ke vadyyantron samet Dek par ghera sa bana liya tha. tabhi lamba chauDa jahaz ka kaptan bridge par pahuncha aur apna haath utha uthakar yatriyon ko sambodhit karne laga. sainafransisko ke us adami ko laga ki kaptan akele use hi sambodhit kar raha hai. usne saफ़r ke aram se khatm hone par kaptan ko badhai bhi di.
subah subah Dayning room mein nashta kiya gaya. Dayning room ki khuli khiDkiyon se akash mein chhaye ghane badal aur udaas mausam saaf nazar aa raha tha. . . par thoDi der baad suraj ki pahli kiran ke saath samucha mausam badal gaya.
duphar ko ve log unchi unchi imaraton ke beech se hokar guzre, jinmen khiDkiyon ki bahutayat thi. ve sangrhalyon mein gaye jahan safai aur parkash vyavastha dekhte hi banti thi. iske baad sabhi church gaye. duphar ka bhojan sain maratiyam ki pahaDi par kiya. yahan kuch ganymanya log hi ikatthe hue. tabhi sainafransisko ke parivar ki laDki to khushi se utsaah mein qarib qarib behosh hi ho gai. asliyat ye thi ki usne akhbar mein rajakumar ke rom ravana hone ki khabar paDh li thi.
paanch baje hotel ke rivaj ke mutabik vahin chaay li gai. . . dhire dhire bhojan ka vaक़t bhi aa pahuncha.
chalne vala din is parivar ke liye bahut yadgar sabit hua. is din suraj nikla hi nahin. samucha kaipri andhere mein khoya hua tha, lagta tha jaise wo kabhi is zamin ka hissa raha hi nahin. stimbot ke pareshanitlab kebin ke sofe par ve paanv sikoDkar baith gaye. . . ubkai aane ke karan zyadatar log apni ankhen band hi kiye the. parivar ki aurat is lambi samudri yatra mein ub chuki thi.
chhoti laDki Dari si lag rahi thi. wo lagatar pili paDti ja rahi thi. aksar wo apne danton ke beech nibu ka tukDa phansaye rahti. overcoat aur baDa sa top pahne hue us parivar ka adami laDki ke pichhe leta hua tha.
uske chehre ka rang gahra, munchhen safed theen aur uske sir ka dard tez hota ja raha tha. darasal, pichhli kuch shamon se wo zyada hi pi raha tha.
kaipri ke tapu par shaam ko kafi dhungh chhai hui thi. sainafransisko se aaye adami ke svagat ke liye kuch log khaDe the. kisi aur ko inki parvah bhi nahin thi.
javan aur sundar nazar aane vala hotel ka malik muskrate hue, atithiyon ke samne jhuka jhuka hi abhivadan kar raha tha. sainafransisko ke adami ne ek nazar use dekha, aur socha, ye vahi shakhs hai jisne use kal raat kalpana mein sone nahin diya tha, ekdam vaisa hi hai wo adami, usne socha phrauk coat, vahi sir. . . ekdam vahi baal. . . . ’ wo corridor paar karta hua tezi se apni patni aur beti ko kalpana aur yatharth ke is adbhut sanyog ke bare mein batane ke liye chal diya.
uski tabiyat theek nahin thi. dhire se. . . lekin kuch behude Dhang se usne khiDki band kar di. tabhi hotel ka ek adami aa pahuncha. uske puchhne par usne duphar ke bhojan ka adesh diya. . . ki unki mez darvaze se khase fasle par honi chahiye. . . ve local wine aur champagne lenge.
sainafransisko ka adami ab taiyariyan karne laga, jaise kisi shadi mein jana ho. is shaam is adami ne kya socha aur mahsusa, ye batana bahut zaruri hai. ye bhi kaha ja sakta hai ki ismen kuch bhi ajiboghrib nahin tha. pareshani to yahi hai ki is zamin par har cheez, baDi asani ke saath utar aati hai. . . par, kya uske zehn mein koi cheez gahrai se utri thee?
daDhi banane ke baad wo shishe ke samne khaDa ho gaya. der tak ghaur se dekhta raha ki uske moti se rang vale balon mein kuch chhoot to nahin gaya hai!
kitna bhayanak hai yah! uske munh se nikla. . . baghair ye soche samjhe ki bhayanak kya hota hai. usne apne hathon ki ungliyon ke joDon ko ghaur se dekha. phir nakhunon ke rang ko dekhte hue ek baar phir baDabDaya.
usne apni torch ko collar ke gird kasa aur phir dinner coat pahante hue kaphon ko set kiya. usne akhiri baar phir apna roop shishe mein nihara. phir khushi se apna kamra chhoDte hue wo apni patni ke kamre ki or chal diya. patni ke kamre ke paas pahunchakar unchi avaz mein puchha, “abhi zyada der lagegi kyaa?
papa, sirf paanch minat. beti ne javab diya.
. . . iske baad wo laal dari par chalta hua dhire dhire library ki or baDh liya. halke saleti rang ki skirt pahne ek buDhi aurat tezi se uske aage se nikal gai use shayad dinner ke liye taiyar hone mein der ho gai thi. hotel ke naukar bhi tezi se idhar udhar aa ja rahe the. . . wo is tarah chalta raha, jaise use in sabki koi parvah hi na ho.
shishe ke darvaze vale Daining room mein mehman pahle hi ikatthe ho chuke the. kuch ne bhojan shuru bhi kar diya tha. wo ijipshiyan cigarette aur machison vali mez ke samne ruka aur ek mahila se cigar lete hue usne teen lira mez par uchhaal diye. ab wo library ki or chal diya.
library mein ek german akhbar paDhne mein tanmay tha. usne german par ek teDhi nazar Dali aur chamDe ki armcheyar par baith gaya. kasi hui collar uske gale ko ghote de rahi thi. usne apna sir jhatka aur akhbar ke shirshak paDhne laga. kuch panktiyan balkan yudh ke vishay mein paDhkar usne apni aadat ke mutabik pej palat diya. dhire dhire use laga ki ankhon ke aage dhunghalaka sa chhata ja raha hai. uske gale ki nasen bhi phulne lagin. . . aur ankhen bahar nikalne ko ho ain. usne hava lene ki garj se aage ki or baDhne ki koshish ki aur. . . phir achanak uske munh se ajiboghrib avaz nikalne lagi. kandhe Dhile chhoDte hue usne kanpna shuru kar diya. . . uski qamiz bahar nikal i. akhiraka sambhalne ki kafi koshish karne ke bavjud wo farsh par gir hi paDa. german uski ye haalat dekhkar tezi se bahar ki or palta aur alarm baja diya.
sabhi log apna apna khana chhoDkar tezi se library ki taraf bhage aur kya hua kya hua kahne lage. tabhi hotel ka malik mehmanon ke beech mein rasta banata hua bamushkil vahan aa pahuncha, kuchh nahin hua, sainafransisko ke mahashay behosh ho gaye bus.
nichle corridor mein le jakar chhote kintu thanDe kamre mein bistar par use abhi litaya hi tha ki uski beti betahasha bhagti hui i. uske baal kandhon tak jhool rahe the. uski skirt aur dressing gown qarib qarib adhakhule se the. iske baad uski patni vahan pahunchi, jo dinner ke liye lagbhag taiyar thi. uske chehre par atank chhaya hua tha.
kuch log vapas Dayning hall mein aakar bhojan karne lage the. ve sabhi apne aap mein khamosh the.
udhar sainafransisko ka adami ek saste lohe ki palang par gumsum paDa tha. maddhim roshni ka bulb halka parkash phenk raha tha. aur uske mathe par barf rakhkar thanDak pahunchane ki koshish ki ja rahi thi. par dhire dhire uska chehra pila paDne laga. . .
. . . aur ab wo khatm ho chuka tha.
tabhi hotel ka malik vahan aa pahuncha. usne doctor se kuch batachit ki aur khamosh ho gaya. mritak ki patni ne kaha ki laash pahle uske kamre mein pahunchai jani chahiye.
nahin maiDam, ye ekdam namumkin hai! usne vinamrata se german bhasha mein kaha.
laDki jo ab tak bhauchak si apne pita ke shau ko dekhe ja rahi thi, zamin par pasar gai aur munh par rumal Dhanpe zor zor se ro paDi. uski maan ke ansu ekdam sookh gaye aur wo apne haath uthakar kahne lagi ki ab meri izzat nahin ki ja rahi.
raat ko jab hotel so chuka tha, ek waiter ne room nan० 43 ki khiDki kholi, khiDki bagiche ke kone ki taraf thi. waiter ne roshni ka rukh moDa aur darvaze ki or nazar markar laut gaya. shau andhere mein paDa raha.
corridor mein baithe hotel ke naukar kuch bana rahe the. tabhi sleeper pahne luiji ne pravesh kiya. usne phusaphusate hue kuch puchha aur kamre ki or haath ka ishara kiya. phir wo phusaphusane ke andaz mein hi chikha. . . naukaron ke gale jaise ghot hi diye gaye the. usne iske turant baad ek dusre ke kandhon par ek dusre ke siron ko tikaya aur kamre ki or baDh liya. darvaza khola aur kuch puchha, phir kuch kshan baad wo khu hi dukhi svar mein bola, haan, andar aa jao!
aur jab room nan० 43 ki khiDkiyon ka rang safed ho gaya, kele ke peD ke patte hava mein phaDphaDane lage, kesari ke asapas ka rang pila hone laga, sabhi ghumantu apne apne kamon mein lag gaye to ek baDa sanduk laya gaya.
chhoti banhon ka purana coat pahne laal ankhon vala gaDivan lagatar chabuk marte hue apne chhote lekin shaktivan ghoDe ko dauDaye chala ja raha tha. uske sir mein kafi dard tha. isi vajah se wo khamosh tha, par uski bagal mein rakhe sanduk mein paDe sainafransisko ke adami ke shau ne use achanak hone vali amdani se khush kar diya tha.
ghaat ke paas head Dormain gaDivan se aage nikal gaya. wo mritak ki patni aur beti ko ऑto mein lekar aaya tha.
mritak ka shau apne gantavy ke raste par tha. ek nai duniya ka samudr tat, jahan ek क़br uske intzaar mein thi. sanyog ki baat ye thi ki ye vahi jahaz tha, jo sainafransisko ke us parivar ko puri shaan se lekar aaya tha.
vilasamay kebinon, Daining room aur haulon mein parkash aur ullaas phaila hua tha. log baDhiya aur chust kapDe pahne aur aurkestra ki dhunon mein mast the. sabhi beख़bar hokar sangit ki lahron ke saath saath ek dusre mein khoe hue premiyugal ananddayi adan pradan kar rahe the. ve sabhi beख़bar the ki dusri taraf samudr ke bichobich jahaz ne samudri tufan aur andhere ke saath kitna sangharsh kiya hai.
स्रोत :
पुस्तक : नोबेल पुरस्कार विजेताओं की 51 कहानियाँ (पृष्ठ 119-124)
संपादक : सुरेन्द्र तिवारी
रचनाकार : इवान बुनिन
प्रकाशन : आर्य प्रकाशन मंडल, सरस्वती भण्डार, दिल्ली
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