जब वह अपने गाँव लौटा तो वही आठ साल पुराना फ़ौजी झोला उसकी पीठ पर कसा था।
उसे याद आया कि फ़ौज की ओर से मिलने वाला यह उसका पहला झोला था। जिला हेडक्वाटर्स से उसे वर्दी, बेल्ट, सितारों वाली हेलमेट और कैनवस के जूतों के साथ यह झोला दिया गया था। आने वाले सिपाही जीवन की सारी ज़रूरतों को उस झोले में भर चुकने के बाद उसने अपने अफ़सर से कुछ देर की छुट्टी माँगी थी, ताकि जाने से पहले आख़िरी बार वह घर का चक्कर लगाकर आ सके। घर नज़दीक ही था, लेकिन वहाँ पहुँचते ही सबसे पहले उसका ध्यान सुअरबाड़े की ओर गया था, जहाँ बाँस की छत से एक लकड़ी खुल गई थी। झोले को वहीं दरवाज़े पर छोड़ उसने जल्दी-जल्दी, बहुत एहतियात के साथ उस लकड़ी को रस्सी से कसकर यूँ बाँधा था, जैसे उसे सदियों तक न खुलने की मज़बूती दे रहा हो, और उसके बाद वह वापस अपने दो कमरों के छोटे से घर की ओर दौड़ गया था।
रसोईघर के दरवाज़े से होता हुआ वह कमरे में घुसा तो भीतर के नज़ारे ने उसे स्तंभित कर दिया। उसने देखा...पत्नी ने साजो-सामान से लैस उस झोले को अपनी पीठ पर कस लिया था और अब वह दीवार पर लगे आईने में अपनी इस फ़ौजी छवि का जाएजा ले रही थी। उसने इससे पहले कभी अपनी पत्नी को इतनी शरारती मुद्रा में नहीं देखा था।
कुछ देर तक वहीं चुपचाप खड़ा वह पत्नी के मूक अभिनय को देखता रहा था। उसने सिर पर उसकी लाल बिल्ले वाली वह टोपी भी लगा ली थी। जब वह कमर में बेल्ट बाँधने को झुकी थी तो आगे बढ़कर उसने पीछे से अपनी पत्नी को बाँहों में भर लिया था।
पत्नी का कोमल जिस्म उसकी बाँहों के दबाव तले पिघलता हुआ-सा महसूस हुआ था। फिर दूसरे ही क्षण वह शरमाकर उसकी गिरफ़्त से बाहर निकली थी और पीठ पर फँसे उस झोले को उतारने की कोशिश करने लगी थी। बिस्तर के कोने पर बैठा वह पत्नी की इस चंचलता पर धीरे-धीरे मुस्कुराता रहा था।
उन्होंने साथ-साथ खाना खाया था। फिर उसके कुछ ही देर बाद वह जिला हेडक्वाटर्स की ओर लौट गया था, जहाँ लाम की ओर जाने वाली बस उसका इंतज़ार कर रही थी।
गाँव की हवा के आख़िरी झोंकों का स्पर्श पाने के लिए उसके साथियों ने बस की खिड़कियों के शीशे-खोल दिए थे और उनमें से कई एक तो दबे-दबे स्वरों में अपना प्रिय गीत भी गुनगुनाने लगे थे...
यह आठ बरस पहले की बात थी और अब इतने अरसे के बाद, उसी पुराने झोले को पीठ पर कसे वह फिर से घर लौट रहा था। घिसकर तार-तार हो चुके झोले के स्ट्रैपों की मज़बूती बरकरार रखने के लिए लगाए गए लोहे के सख्त तार लगातार उसके कन्धे में गड़ रहे थे, लेकिन उसे इसकी परवाह नहीं थी। उसकी आँखों के सामने बार-बार पीठ पर झोला कसे, आईने में अपने-आपको निहारती पत्नी की वह आठ साल पुरानी छवि उभर जाती। बचपन से ही उसे पुरानी चीज़ों को संभालने और उनका ख़याल रखने की आदत थी और शायद यह इसी आदत का परिणाम था कि वह पुराना झोला अब तक उसके काम आ रहा था।
पिछले आठ सालों में सिर्फ़ एक बार वह उस झोले से अलग हुआ था। तब उसे चोरी-छिपे सैगोन शहर में घुसना था। शहर के बाहर एक भरोसेमंद बुढ़िया को थैला सौंप वह स्वयं भेस बदलकर शहर में घुस गया था। सैगोन में कई महीने उसने छिप-छिपकर गुजारे थे, कभी सड़क पर फेरी लगाते हुए तो कभी रिक्शा चालक या गोदी मज़दूर की पोशाक पहनकर। महीनों उसे फुटपाथ पर या पुलों के नीचे या होटलों के बाहर सोना पड़ा था। और एक पूरा हफ़्ता तो उसने तान सोन न्हात के बारूद डिपो में बमों के ढेर के नीचे छिपकर तफ़रीही अंदाज़ में बमों के पलीते को दाँतों के बीच चबाते हुए गुज़ारा था। लेकिन इन सारे कठिन अनुभवों के बीच भी आईने में अपने-आपको निहारती पत्नी और उसकी पीठ पर कसे झोले की वह तस्वीर लगातार उसके साथ बनी रही थी।
बाद में जब उनका दस्ता सैगोन से पीछे हट गया था तो उसने उस बुढ़िया माँ से अपना झोला वापस ले लिया था। फ़ौजी ट्रक में बैठकर जब वे विंच की ओर रवाना हुए थे तो उसने अपने झोले के साथ एक छोटी-सी गुड़िया बाँध ली थी (अपने दूसरे साथियों की तरह उसके मन में भी यह उम्मीद थी कि पत्नी के साथ आख़िरी सहवास का कोई सुखद परिणाम ज़रूर निकला होगा!)। इसके अलावा उसने झोले में कुछ मीटर लम्बे कपड़े का एक टुकड़ा और एक छोटा-सा पाना या स्पैनर भी डाल लिया था। गाँव की ज़िंदगी में कपड़े की अपनी उपयोगिता थी और स्पैनर से उसने न जाने कितने अमरीकी बमों के ‘डिटोनेटरों’ का पलीता निकाला था। झोले में कुछ दूसरा फुटकर सामान भी था। छोटे हत्थे वाला एक अमरीकी डिज़ाइन का फ़ौजी खुरपा, जो बाग़वानी में या मेढ़क पकड़ने के लिए काम में आ सकता था; पैराशूट के सफ़ेद कपड़े का एक टुकड़ा, जिसे वह अपने घर के सामने टाँगने की सोच रहा था, और एक भारी छुरी, जिसके बारे में उसके साथियों की राय थी कि यह ज़रूर किसी-न-किसी समय अमरीकी राजदूत मार्टिन के रसोईघर में इस्तेमाल की जाती रही होगी।
इतने बरसों बाद अपने झोले को पीठ पर लादकर गाँव की ओर लौटते हुए उसे काफ़ी गर्व महसूस हुआ कि वह झोला अब भी उसके साथ है। देखा जाए तो उसके लिए वह झोला उसमें रखे सामान से भी ज़्यादा क़ीमती था। उस झोले के साथ उसकी पत्नी की पुरानी यादें जुड़ी थी।
अपने गाँव की ज़िंदगी के बारे में सोचते हुए उसके मन में एक अनकही उत्सुकता छलकने लगी। शायद अब वह अपने इलाके के ‘उत्पादन दस्ते’ का सरदार चुन लिया जाए। यदि ऐसा न भी हुआ तो भी उसकी ज़िंदगी कम से कम पहले से बेहतर होगी, ऐसा उसे विश्वास था, क्योंकि लड़ाई में उनकी जीत हुई थी। उसके खेतों में अब ख़ूब धान उगेगा और वे लोग मज़े में गुज़र कर सकेंगे।
ऐसा नहीं कि लड़ाई के मोर्चे पर उसे अपनी पत्नी के बारे में सोचते हुए कभी कोई चिंता ही नहीं हुई थी। लौटते समय जब वह ट्रेन में विन्ह से थान होआ आ रहा था तो उसके सामने बैठी औरतें किसी स्त्री से बात कर रही थीं, जिसने पति के लौटने का इंतज़ार नहीं किया और दुबारा शादी कर ली। उनकी बातों को सुनते हुए वह असहज हो उठा था और उसे अपनी पत्नी की बेसाख्ता याद आई थी। साथ ही अपने पर ग़ुस्सा भी महसूस हुआ था कि इन आठ वर्षों में उसने ‘अपनी पत्नी को ख़त क्यों नहीं लिखा। लेकिन सारी असहजता के बावजूद उसे विश्वास था कि पत्नी उसकी आठ वर्षों की ख़ामोशी के बावजूद उसी तरह उसका इंतज़ार कर रही होगी।
अपने घर के बाहर फैले पेड़ों के झुरमुट को तो वह पहचान ही नहीं पाया। जब वह गया था तो पपीते का वह पौधा हाथ भर का भी नहीं था। अब वही पौधा पेड़ बन गया था और ऊपर से नीचे तक फलों से लदा था। बाक़ी पेड़ भी बड़े हो गए थे। जब वह गया था तो उसकी पत्नी ने मज़ाक में कहा था कि काश, वह जल्दी से गर्भवती होकर उन खट्टी इमलियों का भरपूर मज़ा ले सके! उसी पेड़ से अब सुनहरी रंग की लंबी-लंबी, पकी हुई इमलियाँ लटक रही थीं। उसने नज़र उठाकर अपने घर की ओर देखा तो दीवारों पर पुता पीले रंग का चूना उसे बहुत साफ़-सुथरा लगा। उसने अन्दाज़ा लगाया कि यह चूना उसकी पत्नी ने ज़रूर महीने में एक बार जिले के शहर में लगने वाले हाट में ख़रीदा होगा।
दरवाज़े को धकेलकर वह घर के अंदर घुस गया। अभी नौ ही बजे थे और कमरों में ठंडक थी। अपनी पत्नी को चौंकाने के इरादे से वह केलों के झुरमुट के बीच से दौड़ता चला आया था और अब उसका पूरा जिस्म पसीने से तर-ब-तर था। ख़ाली कमरे में ठंडे बिस्तर पर बैठते हुए उसे अचानक एक गहरे अकेलेपन का अहसास हुआ। कमरे की हर चीज़ पहले से काफ़ी बड़ी और व्यवस्थित दिखाई दे रही थी।
धान के बड़े पिटारे पर पुराना पुश्तैनी ताला लटक रहा था। उसे पता था कि उसकी पत्नी पिटारे की चाबी कहाँ रखती है, लेकिन उसने भीतर के धान का अंदाज़ लेने के लिए उसे सिर्फ़ ठकठका कर देखा। नवंबर में ताज़ा फसल कटती थी और यह फसल से पहले का आख़िरी अक्तूबर का महीना था। इस हिसाब से पिटारे में अब भी काफ़ी धान था।
पीछे तार पर कपड़े सूख रहे थे। उसने अपनी पत्नी के पुराने ब्लाउज़ पहचान लिए। एक नया स्वेटर भी था। शादी के समय वाला स्वेटर शायद घिसकर फट गया होगा।
अचानक उसकी नज़र तार पर सूखते, बच्चों के नए-नए पाजामों पर गई तो उसका दिल बल्लियों उछल पड़ा। काँपते हाथों से उसने एक पाजामा उतारा और उससे बच्चे की ऊँचाई का अंदाज़ लगाने की कोशिश करने लगा। ठीक उसी वक़्त हाथ में गुलेल थामे वह लड़का स्वयं कमरे में दाख़िल हुआ और एक अजनबी को अपना पाजामा टटोलते देखकर ठिठक गया।
वे दोनों काफ़ी देर तक नि:शब्द एक-दूसरे की ओर देखते रहे। लड़का घबराकर चिल्लाने को हुआ था, फिर अचानक रुक गया था, क्योंकि उसके सामने खड़ा अजनबी शायद चोर नहीं था। कुछ क्षणों तक सोचने के बाद उसने अंदाज़ा लगाया था कि यह व्यक्ति कहीं उसका पिता तो नहीं! उसे मालूम था कि उसकी माँ उसके पिता को बहुत याद करती है। एक बार तो उसने पिता की वर्दी भी पहन ली थी और फिर आईने में अपने-आपको देखते हुए उससे पूछा था कि वह पिता जैसी लगती है या नहीं। लड़के ने समर्थन में सिर हिला दिया था, क्योंकि उस वर्दी में माँ उसे किसी सिपाही जितनी ही चुस्त और सजीली नज़र आई थी।
ठिठककर उस अजनबी की ओर देखते हुए लड़के को लगा कि अगर वह उसका पिता ही है तो उसे सबसे पहले अपनी माँ को बुला लाना चाहिए। यह सोचकर वह बिना कुछ भी बोले तेज़ी से मुड़ा और वहाँ से बेतहाशा भाग निकला।
अचम्भे में खड़ा पिता दौड़कर जाते उस लड़के को देखता रह गया। उसे देखते उसे उस सफ़ेद कबूतर की याद हो आई, जिसे उसने सुबह ही नहर के ऊपर से उड़कर जाते देखा था। फिर अचानक उसे डर-सा महसूस हुआ कि यह सब किसी गहरी निराशा का पूर्व-संकेत तो नहीं है। हड़बड़ाहट में बाहर निकलते हुए उसका पैर दहलीज़ से टकराया, लेकिन सारी जल्दबाज़ी के बावजूद उसे केले के पेड़ों के पीछे गुम होते उस लड़के की एक झलक मात्र ही दिखाई दी।
“सुनो... सुनो...!” वह लड़के का नाम लेकर चिल्लाना चाहता था, लेकिन नाम उसे मालूम कहाँ था?
वह लौटकर बिस्तर पर बैठ गया। बैठते-बैठते उसे दीवार पर टँगे टेढ़े आईने में अपना सकपकाया चेहरा दिखाई दिया तो सारी घबराहट के बावजूद उसके चेहरे पर मुस्कुराहट उभर आई।
बिस्तर पर फैले कंबल और तकिये में से एक हलकी-हलकी ख़ुशबू उठ रही थी। नीचे पैरों तले ठंडी ज़मीन थी। उस ठंडक को पैरों से महसूस करते हुए उसे यक़ीन आया कि यह सब सपना नहीं, बल्कि वह सचमुच अपने घर में, अपने ही बिस्तर पर बैठा है। कनखियों से आईने में अपने-आपको देखते हुए उसने एक राहत की साँस ली। इस क्षण को अपनी कल्पनाओं में वह इससे पहले भी न जाने कितनी बार जी चुका था।
उसे लगा कि पिछले आठ वर्षों में उसने जो कुछ खोया था, वह सब उसे मिल गया है। और इस सबके ऊपर वह लड़का था, आठ वर्षों की लंबाई तक फैले आसमान पर किसी सफ़ेद कबूतर की तरह उड़ता हुआ। उसका नाम उसे मालूम नहीं था, लेकिन फिर भी उसके चेहरे का एक-एक नक्श जैसे उसका पहचाना हुआ था।
इस बीच बाहर खेतों में दूसरी औरतों के बीच खड़ी उसकी पत्नी को किसी ने ख़बर दी थी कि एक सिपाही उसके घर की ओर जाता देखा गया है। वह उलझन में पड़ गई थी कि यह सिपाही कौन हो सकता था? उसका पति या फिर कोई और? अगर वह सिपाही उसका पति नहीं था, तब भी तो उससे उसका मिलना ज़रूरी था। हो सकता था वह बुरी ख़बर या मृत्यु का संदेश लाया हो, क्योंकि पिछले आठ वर्षों में पति का एक भी ख़त उसे नहीं मिला था।
सिपाही के बारे में सोचते हुए उसे कुछ घबराहट-सी हुई, लेकिन फिर भी उस वक़्त सब-कुछ छोड़कर घर लौटना उसके लिए नामुमकिन था। दरअसल जिस जगह पर वह अन्य औरतों के साथ काम कर रही थी, उसी के नज़दीक मिट्टी में सुबह एक अमरीकी बम निकला था, जिसके फटने से एक सिपाही के साथ दो औरतें ज़ख्मी हो गई थीं। धमाके से पहले किसी का ध्यान बम की ओर नहीं गया था, लेकिन बम के फटते ही चारों ओर भगदड़ मच गई थी। ज़ख्मियों को अस्पताल पहुँचाया गया था और खुदाई का काम फिर से शुरू हुआ ही था कि कुछ मज़दूरों ने चिल्लाकर उसे अपनी ओर बुलाया था। वह उस टोली की अगुआ थी और खुदाई का काम उसी की देखरेख में चल रहा था। चिल्लाते हुए मज़दूरों ने बताया था कि खुदाई के मलबे के पास अभी-अभी उन्हें पहले से भी बड़ा एक और अनफटा बम मिला है।
लोगों में फिर से भगदड़ मची थी तो उसने भोंपू की मदद से सबको शांत करने की कोशिश की थी। उसके प्रति आदर और सहानुभूति का भाव महसूस करते हुए लोग जहाँ-के-तहाँ खड़े हो गए थे। क्या ज़िंदगी है बेचारी की, वे सब शायद सोच रहे थे। पति की आठ सालों से कोई ख़बर नहीं, हालाँकि अब सैगोन को आज़ाद हुए भी छ: महीने होने को आए। लेकिन अब भी बेचारी कितनी लगन से काम कर रही है! भागने वाले मज़दूरों के गिरोह भी भोंपू पर उसकी आवाज़ सुनकर वापस लौट आए थे।
लोगों को शांत करने के बाद वह तेज़ी से बम की ओर बढ़ी थी। उसे पता था कि सबकी निगाहें उसी पर टिकी हुई हैं। बम की ऊपरी सतह से मिट्टी साफ़ करते हुए उसे ज़रा भी डर महसूस नहीं हुआ, हालाँकि उसे समझ में नहीं आ रहा था कि इतने बड़े बम का सामना कैसे क्या किया जाए?
तभी उसने बम पर लिखे अक्षर पढ़े थे तो उसका दिल दहल गया था। वह दो डिटोनेटरों वाला एम के 52 था, जिसे सुरंगें बिछाकर पीछे हटती अमरीकी फ़ौज ने ज़मीन में गाड़ दिया था। इसी बम की मार ने उसके गाँव के कई हिस्सों को उजाड़ डाला था। दोनों सिरों पर लगे डिटोनेटरों में से किसी एक के भी दबने से बम फटकर चारों तरफ़ मौत की तबाही फैला सकता था।
ठीक यही वह क्षण था, जब उसका बेटा दौड़ा चला आया था और टीले पर खड़ा होकर हाथ के इशारे से उसे बुलाने लगा था। वह अपनी जगह से हिल नहीं पाई थी, लेकिन बम की उपस्थिति से बेख़बर लड़का सीधा उसकी ओर दौड़ता चला आ रहा था। शायद वह अपनी माँ को सब कुछ बताने के बाद ही चैन से साँस ले सकता था।
बेटे की बदहवासी को भाँपते हुए किसी भी अन्य माँ की तरह वह हड़बड़ाई थी और उसे एक निश्चित दूरी पर रोक देने के इरादे से वह बम को वहीं छोड़कर लड़के के पास तक दौड़ गई थी।
“माँ...माँ!” लड़के ने बमुश्किल हकलाते हुए कहा था, “पापा लौट आए हैं!”
ज़रा देर के लिए उसे समूची दुनिया चक्कर खाती हुई सी लगी थी, लेकिन फिर दूसरे ही क्षण उसने अपने-आपको संभाल लिया था और संतुलित स्वर में लड़के से कहा था, “अच्छा!...तब तुम वापस जाओ। तुम्हारे पापा तुम्हारे लिए कोई-न-कोई तोहफ़ा ज़रूर लाए होंगे!”
पति हो या कोई और, वह इस हालत में उस जगह को छोड़कर नहीं जा सकती थी। लेकिन घर में पति के लिए अब एक मिनट का इंतज़ार करना भी असंभव हो गया था। पता नहीं लाम पर पिछले आठ वर्ष उसने कैसे गुज़ारे थे! ज़रा देर रुककर उसने कुछ सोचा था और फिर कंधे पर उसी झोले को कसकर वह पत्नी को ढूँढ़ने के इरादे से घर से बाहर निकल आया था। खेतों के पास जमी भीड़ को देखकर वह भी उसी ओर आ गया। एक बूढ़े ने उसे देखकर ‘कौन है?’ पुकारा, और फिर ज़रा देर में ही सबने उसे पहचान लिया था। आठ सालों की विस्मृति के बावजूद वे उसे उसके प्यार के नाम से पुकारने लगे थे। सबकी निगाहें फ़ौजी लिबास पर टिकी थीं और वे हँस रहे थे, उसका कंधा थपथपा रहे थे और उससे तरह-तरह के सवाल पूछ रहे थे। फिर उसकी पत्नी की ओर इशारा कर उन्होंने ज़ोर-ज़ोर की आवाज़ें देकर उसे बुलाने की कोशिश की।
एक मिनट गुज़र गया।
उसने अपना झोला नीचे रखकर पत्नी के नज़दीक जाने का उपक्रम किया, लेकिन इससे पहले ही वह दौड़कर उसके पास चली आई।
“वहाँ एक एम के 52 है!” पत्नी के पहले शब्द थे।
“तो?...” वह कुछ हिचकिचाया, “उसे ठंडा करना है?”
“लेकिन हमें पहली बार इस तरह का बम मिला है...” पत्नी का स्वर डरा हुआ था।
“तो क्या हुआ!...बहुत आसान है उसे ठंडा करना। जैसे टिन का डिब्बा खोलते हैं, बिल्कुल वैसे ही। बस, स्पैनर को छ: बार घुमाओ...” उसने हँसकर दाँत दिखाए।
इन आठ बरसों में उसकी बोली में दक्षिणी प्रांतों वाला लहजा साफ़ झलकने लगा था। लेकिन उसकी पत्नी को समझने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई, बल्कि वह उसकी ख़ामोशी तक को समझ पा रही थी।
“तो चलो फिर...”
पत्नी के उत्तर देने से पहले ही उसने अपना झोला खोल लिया था और उसमें से पहले खुरपा, फिर छुरी और आख़िरकार वह स्पैनर बाहर निकाला था। स्पैनर को हाथ में लेकर झोला बंद करते-करते वह बोला, “ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि फ़ौजी ट्रेनिंग यहाँ भी काम आएगी!”
ख़तरे के घेरे के बाहर, खोदी जाने वाली नहर के दोनों ओर लोगों की भीड़ जमा हो गई थी। उसे लगा कि सबकी निगाहें उसी पर जमी हुई हैं।
जैसे ही उसने उस जानलेवा बम के डिटोनेटर के पेच में अपना स्पैनर फँसाया (वामको नदी पर उसके तीन साथी इसी एम के 52 के डिटोनेटर को खोलते हुए मारे गए थे) उसका मन हुआ कि पत्नी से पूछे, “लड़के का नाम क्या है?”
अक्तूबर की उजली धूप में पंख फड़फड़ाता वही सफ़ेद कबूतर फिर एक बार उसके ज़ेहन में कौंध गया। उसे पहले ही पत्नी से लड़के का नाम पूछ लेना चाहिए था, लेकिन पत्नी ने इस एम के 52 के चक्कर में उसे गड़बड़ा दिया था। ख़ैर, अब तो उसे नाम मालूम हो ही जाएगा।
बहुत सावधानी के साथ वह पहले डिटोनेटर का पेंच घुमाने लगा।
jab wo apne gaanv lauta to vahi aath saal purana fauji jhola uski peeth par kasa tha.
use yaad aaya ki fauj ki or se milne vala ye uska pahla jhola tha. jila heDakvarts se use vardi, belt, sitaron vali helmet aur kainvas ke juton ke saath ye jhola diya gaya tha. aane vale sipahi jivan ki sari zarurton ko us jhole mein bhar chukne ke baad usne apne afsar se kuch der ki chhutti mangi thi, taki jane se pahle akhiri baar wo ghar ka chakkar lagakar aa sake. ghar nazdik hi tha, lekin vahan pahunchte hi sabse pahle uska dhyaan suarbaDe ki or gaya tha, jahan baans ki chhat se ek lakDi khul gai thi. jhole ko vahin darvaze par chhoD usne jaldi jaldi, bahut ehtiyat ke saath us lakDi ko rassi se kaskar yoon bandha tha, jaise use sadiyon tak na khulne ki mazbuti de raha ho, aur uske baad wo vapas apne do kamron ke chhote se ghar ki or dauD gaya tha.
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pichhe taar par kapDe sookh rahe the. usne apni patni ke purane blauz pahchan liye. ek naya svetar bhi tha. shadi ke samay vala svetar shayad ghiskar phat gaya hoga.
achanak uski nazar taar par sukhte, bachchon ke ne ne pajamon par gai to uska dil balliyon uchhal paDa. kanpte hathon se usne ek pajama utara aur usse bachche ki uunchai ka andaz lagane ki koshish karne laga. theek usi vaqt haath mein gulel thame wo laDka svayan kamre mein dakhil hua aur ek ajnabi ko apna pajama tatolte dekhkar thithak gaya.
ve donon kafi der tak nihshabd ek dusre ki or dekhte rahe. laDka ghabrakar chillane ko hua tha, phir achanak ruk gaya tha, kyonki uske samne khaDa ajnabi shayad chor nahin tha. kuch kshnon tak sochne ke baad usne andaz lagaya tha ki ye vyakti kahin uska pita to nahin! use malum tha ki uski maan uske pita ko bahut yaad karti hai. ek baar to usne pita ki vardi bhi pahan li thi aur phir aine mein apne aapko dekhte hue usse puchha tha ki wo pita jaisi lagti hai ya nahin. laDke ne samarthan mein sir hila diya tha, kyonki us vardi mein maan use kisi sipahi jitni hi chust aur sajili nazar aai thi.
thithakkar us ajnabi ki or dekhte hue laDke ko laga ki agar wo uska pita hi hai to use sabse pahle apni maan ko bula lana chahiye. ye sochkar wo bina kuch bhi bole tezi se muDa aur vahan se betahasha bhaag nikla.
achambhe mein khaDa pita dauDkar jate us laDke ko dekhta rah gaya. use dekhte use us safed kabutar ki yaad ho aai, jise usne subah hi nahr ke uupar se uDkar jate dekha tha. phir achanak use Dar sa mahsus hua ki ye sab kisi gahri nirasha ka poorv sanket to nahin hai. haDbaDahat mein bahar nikalte hue uska pair dahliz se takraya, lekin sari jaldbazi ke bavjud use kele ke peDon ke pichhe gum hote us laDke ki ek jhalak maatr hi dikhai di.
“suno. . . suno. . . !” wo laDke ka naam lekar chillana chahta tha, lekin naam use malum kahan tha?
wo lautkar bistar par baith gaya. baithte baithte use divar par tange teDhe aine mein apna sakapkaya chehra dikhai diya to sari ghabrahat ke bavjud uske chehre par muskurahat ubhar aai.
bistar par phaile kambal aur takiye mein se ek halki halki khushbu uth rahi thi. niche pairon tale thanDi zamin thi. us thanDak ko pairon se mahsus karte hue use yaqin aaya ki ye sab sapna nahin, balki wo sachmuch apne ghar mein, apne hi bistar par baitha hai. kanakhiyon se aine mein apne aapko dekhte hue usne ek rahat ki saans li. is kshan ko apni kalpnaon mein wo isse pahle bhi na jane kitni baar ji chuka tha.
use laga ki pichhle aath varshon mein usne jo kuch khoya tha, wo sab use mil gaya hai. aur is sabke uupar wo laDka tha, aath varshon ki lambai tak phaile asman par kisi safed kabutar ki tarah uDta hua. uska naam use malum nahin tha, lekin phir bhi uske chehre ka ek ek naksh jaise uska pahchana hua tha.
is beech bahar kheton mein dusri aurton ke beech khaDi uski patni ko kisi ne khabar di thi ki ek sipahi uske ghar ki or jata dekha gaya hai. wo uljhan mein paD gai thi ki ye sipahi kaun ho sakta tha? uska pati ya phir koi aur? agar wo sipahi uska pati nahin tha, tab bhi to usse uska milna zaruri tha. ho sakta tha wo buri khabar ya mrityu ka sandesh laya ho, kyonki pichhle aath varshon mein pati ka ek bhi khat use nahin mila tha.
sipahi ke bare mein sochte hue use kuch ghabrahat si hui, lekin phir bhi us vaqt sab kuch chhoDkar ghar lautna uske liye namumkin tha. darasal jis jagah par wo anya aurton ke saath kaam kar rahi thi, usi ke nazdik mitti mein subah ek amriki bam nikla tha, jiske phatne se ek sipahi ke saath do aurten zakhmi ho gai theen. dhamake se pahle kisi ka dhyaan bam ki or nahin gaya tha, lekin bam ke phatte hi charon or bhagdaD mach gai thi. zakhmiyon ko aspatal pahunchaya gaya tha aur khudai ka kaam phir se shuru hua hi tha ki kuch mazduron ne chillakar use apni or bulaya tha. wo us toli ki agua thi aur khudai ka kaam usi ki dekhrekh mein chal raha tha. chillate hue mazduron ne bataya tha ki khudai ke malbe ke paas abhi abhi unhen pahle se bhi baDa ek aur anaphta bam mila hai.
logon mein phir se bhagdaD machi thi to usne bhompu ki madad se sabko shaant karne ki koshish ki thi. uske prati aadar aur sahanubhuti ka bhaav mahsus karte hue log jahan ke tahan khaDe ho ge the. kya zindagi hai bechari ki, ve sab shayad soch rahe the. pati ki aath salon se koi khabar nahin, halanki ab saigon ko azad hue bhi chhah mahine hone ko aaye. lekin ab bhi bechari kitni lagan se kaam kar rahi hai! bhagne vale mazduron ke giroh bhi bhompu par uski avaz sunkar vapas laut aaye the.
logon ko shaant karne ke baad wo teji se bam ki or baDhi thi. use pata tha ki sabki nigahen usi par tiki hui hain. bam ki uupri satah se mitti saaf karte hue use zara bhi Dar mahsus nahin hua, halanki use samajh mein nahin aa raha tha ki itne baDe bam ka samna kaise kya kiya jaye?
tabhi usne bam par likhe akshar paDhe the to uska dil dahal gaya tha. wo do Ditonetron vala em ke 52 tha, jise surangen bichhakar pichhe hatti amriki fauj ne zamin mein gaaD diya tha. isi bam ki maar ne uske gaanv ke kai hisson ko ujaaD Dala tha. donon siron par lage Ditonetron mein se kisi ek ke bhi dabne se bam phatkar charon taraf maut ki tabahi phaila sakta tha.
theek yahi wo kshan tha, jab uska beta dauDa chala aaya tha aur tile par khaDa hokar haath ke ishare se use bulane laga tha. wo apni jagah se hil nahin pai thi, lekin bam ki upasthiti se bekhbar laDka sidha uski or dauDta chala aa raha tha. shayad wo apni maan ko sab kuch batane ke baad hi chain se saans le sakta tha.
bete ki badahvasi ko bhanpte hue kisi bhi anya maan ki tarah wo haDabDai thi aur use ek nishchit duri par rok dene ke irade se wo bam ko vahin chhoDkar laDke ke paas tak dauD gai thi.
“maan. . . maan!” laDke ne bamushkil haklate hue kaha tha, “papa laut aaye hain!”
zara der ke liye use samuchi duniya chakkar khati hui si lagi thi, lekin phir dusre hi kshan usne apne aapko sambhal liya tha aur santulit svar mein laDke se kaha tha, “achchha!. . . tab tum vapas jao. tumhare papa tumhare liye koi na koi tohfa zarur laye honge!”
pati ho ya koi aur, wo is haalat mein us jagah ko chhoDkar nahin ja sakti thi. lekin ghar mein pati ke liye ab ek minat ka intzaar karna bhi asambhav ho gaya tha. pata nahin laam par pichhle aath varsh usne kaise guzare the! zara der rukkar usne kuch socha tha aur phir kandhe par usi jhole ko kaskar wo patni ko DhunDhane ke irade se ghar se bahar nikal aaya tha. kheton ke paas jami bheeD ko dekhkar wo bhi usi or aa gaya. ek buDhe ne use dekhkar ‘kaun hai?’ pukara, aur phir zara der mein hi sabne use pahchan liya tha. aath salon ki vismriti ke bavjud ve use uske pyaar ke naam se pukarne lage the. sabki nigahen fauji libas par tiki theen aur ve hans rahe the, uska kandha thapthapa rahe the aur usse tarah tarah ke saval poochh rahe the. phir uski patni ki or ishara kar unhonne zor zor ki avazen dekar use bulane ki koshish ki.
ek minat guzar gaya.
usne apna jhola niche rakhkar patni ke nazdik jane ka upakram kiya, lekin isse pahle hi wo dauDkar uske paas chali aai.
“vahan ek em ke 52 hai!” patni ke pahle shabd the.
“to?. . . ” wo kuch hichakichaya, “use thanDa karna hai?”
“lekin hamein pahli baar is tarah ka bam mila hai. . . ” patni ka svar Dara hua tha.
“to kya hua!. . . bahut asan hai use thanDa karna. jaise tin ka Dibba kholte hain, bilkul vaise hi. bas, spainar ko chhah baar ghumao. . . ” usne hansakar daant dikhaye.
in aath barson mein uski boli mein dakshini pranton vala lahja saaf jhalakne laga tha. lekin uski patni ko samajhne mein koi diqqat nahin hui, balki wo uski khamoshi tak ko samajh pa rahi thi.
“to chalo phir. . .
patni ke uttar dene se pahle hi usne apna jhola khol liya tha aur usmen se pahle khurpa, phir chhuri aur akhirkar wo spainar bahar nikala tha. spainar ko haath mein lekar jhola band karte karte wo bola, “zara bhi andaz nahin tha ki fauji trening yahan bhi kaam ayegi!”
khatre ke ghere ke bahar, khodi jane vali nahr ke donon or logon ki bheeD jama ho gai thi. use laga ki sabki nigahen usi par jami hui hain.
jaise hi usne us janaleva bam ke Ditonetar ke pech mein apna spainar phansaya (vamko nadi par uske teen sathi isi em ke 52 ke Ditonetar ko kholte hue mare ge the) uska man hua ki patni se puchhe, “laDke ka naam kya hai?”
aktubar ki ujli dhoop mein pankh phaDaphData vahi safed kabutar phir ek baar uske zehn mein kaundh gaya. use pahle hi patni se laDke ka naam poochh lena chahiye tha, lekin patni ne is em ke 52 ke chakkar mein use gaDbaDa diya tha. khair, ab to use naam malum ho hi jayega.
bahut savadhani ke saath wo pahle Ditonetar ka pench ghumane laga.
jab wo apne gaanv lauta to vahi aath saal purana fauji jhola uski peeth par kasa tha.
use yaad aaya ki fauj ki or se milne vala ye uska pahla jhola tha. jila heDakvarts se use vardi, belt, sitaron vali helmet aur kainvas ke juton ke saath ye jhola diya gaya tha. aane vale sipahi jivan ki sari zarurton ko us jhole mein bhar chukne ke baad usne apne afsar se kuch der ki chhutti mangi thi, taki jane se pahle akhiri baar wo ghar ka chakkar lagakar aa sake. ghar nazdik hi tha, lekin vahan pahunchte hi sabse pahle uska dhyaan suarbaDe ki or gaya tha, jahan baans ki chhat se ek lakDi khul gai thi. jhole ko vahin darvaze par chhoD usne jaldi jaldi, bahut ehtiyat ke saath us lakDi ko rassi se kaskar yoon bandha tha, jaise use sadiyon tak na khulne ki mazbuti de raha ho, aur uske baad wo vapas apne do kamron ke chhote se ghar ki or dauD gaya tha.
rasoighar ke darvaze se hota hua wo kamre mein ghusa to bhitar ke nazare ne use stambhit kar diya. usne dekha. . . patni ne sajo saman se lais us jhole ko apni peeth par kas liya tha aur ab wo divar par lage aine mein apni is fauji chhavi ka jayeja le rahi thi. usne isse pahle kabhi apni patni ko itni shararti mudra mein nahin dekha tha.
kuch der tak vahin chupchap khaDa wo patni ke mukabhinay ko dekhta raha tha. usne sir par uski laal bille vali wo topi bhi laga li thi. jab wo kamar mein belt bandhne ko jhuki thi to aage baDhkar usne pichhe se apni patni ko banhon mein bhar liya tha.
patni ka komal jism uski banhon ke dabav tale pighalta hua sa mahsus hua tha. phir dusre hi kshan wo sharmakar uski giraft se bahar nikli thi aur peeth par phanse us jhole ko utarne ki koshish karne lagi thi. bistar ke kone par baitha wo patni ki is chanchalta par dhire dhire muskurata raha tha.
unhonne saath saath khana khaya tha. phir uske kuch hi der baad wo jila heDakvarts ki or laut gaya tha, jahan laam ki or jane vali bas uska intzaar kar rahi thi.
gaanv ki hava ke akhiri jhonkon ka sparsh pane ke liye uske sathiyon ne bas ki khiDakiyon ke shishe khol diye the aur unmen se kai ek to dabe dabe svron mein apna priy geet bhi gungunane lage the. . .
ye aath baras pahle ki baat thi aur ab itne arse ke baad, usi purane jhole ko peeth par kase wo phir se ghar laut raha tha. ghiskar taar taar ho chuke jhole ke straipon ki mazbuti barakrar rakhne ke liye lagaye ge lohe ke sakht taar lagatar uske kandhe mein gaD rahe the, lekin use iski parvah nahin thi. uski ankhon ke samne baar baar peeth par jhola kase, aine mein apne aapko niharti patni ki wo aath saal purani chhavi ubhar jati. bachpan se hi use purani chizon ko sambhalne aur unka khayal rakhne ki aadat thi aur shayad ye isi aadat ka parinam tha ki wo purana jhola ab tak uske kaam aa raha tha.
pichhle aath salon mein sirf ek baar wo us jhole se alag hua tha. tab use chori chhipe saigon shahr mein ghusna tha. shahr ke bahar ek bharosemand buDhiya ko thaila saump wo svayan bhes badalkar shahr mein ghus gaya tha. saigon mein kai mahine usne chhip chhipkar gujare the, kabhi saDak par pheri lagate hue to kabhi riksha chalak ya godi mazdur ki poshak pahankar. mahinon use phutpath par ya pulon ke niche ya hotlon ke bahar sona paDa tha. aur ek pura hafta to usne taan son nhaat ke barud Dipo mein bamon ke Dher ke niche chhipkar tafrihi andaz mein bamon ke palite ko danton ke beech chabate hue guzara tha. lekin in sare kathin anubhvon ke beech bhi aine mein apne aapko niharti patni aur uski peeth par kase
jhole ki wo tasvir lagatar uske saath bani rahi thi.
baad mein jab unka dasta saigon se pichhe hat gaya tha to usne us buDhiya maan se apna jhola vapas le liya tha. fauji trak mein baithkar jab ve vinch ki or ravana hue the to usne apne jhole ke saath ek chhoti si guDiya baandh li thi (apne dusre sathiyon ki tarah uske man mein bhi ye ummid thi ki patni ke saath akhiri sahvas ka koi sukhad parinam zarur nikla hoga!). iske alava usne jhole mein kuch mitar lambe kapDe ka ek tukDa aur ek chhota sa pana ya spainar bhi Daal liya tha. gaanv ki zindagi mein kapDe ki apni upyogita thi aur spainar se usne na jane kitne amriki bamon ke ‘Ditonetron’ ka palita nikala tha. jhole mein kuch dusra phutkar saman bhi tha. chhote hatthe vala ek amriki Dizain ka fauji khurpa, jo bagvani mein ya meDhak pakaDne ke liye kaam mein aa sakta tha; pairashut ke safed kapDe ka ek tukDa, jise wo apne ghar ke samne tangane ki soch raha tha, aur ek bhari chhuri, jiske bare mein uske sathiyon ki raay thi ki ye zarur kisi na kisi samay amriki rajadut martin ke rasoighar mein istemal ki jati rahi hogi.
itne barson baad apne jhole ko peeth par ladkar gaanv ki or lautte hue use kafi garv mahsus hua ki wo jhola ab bhi uske saath hai. dekha jaye to uske liye wo jhola usmen rakhe saman se bhi zyada qimti tha. us jhole ke saath uski patni ki purani yaden juDi thi.
apne gaanv ki zindagi ke bare mein sochte hue uske man mein ek anakhi utsukta chhalakne lagi. shayad ab wo apne ilake ke ‘utpadan daste’ ka sardar chun liya jaye. yadi aisa na bhi hua to bhi uski zindagi kam se kam pahle se behtar hogi, aisa use vishvas tha, kyonki laDai mein unki jeet hui thi. uske kheton mein ab khoob dhaan ugega aur ve log maze mein guzar kar sakenge.
aisa nahin ki laDai ke morche par use apni patni ke bare mein sochte hue kabhi koi chinta hi nahin hui thi. lautte samay jab wo tren mein vinh se thaan hoa aa raha tha to uske samne baithi aurten kisi stri se baat kar rahi theen, jisne pati ke lautne ka intzaar nahin kiya aur dubara shadi kar li. unki baton ko sunte hue wo ashaj ho utha tha aur use apni patni ki besakhta yaad aai thi. saath hi apne par ghussa bhi mahsus hua tha ki in aath varshon mein usne ‘apni patni ko khat kyon nahin likha. lekin sari ashajta ke bavjud use vishvas tha ki patni uski aath varshon ki khamoshi ke bavjud usi tarah uska intzaar kar rahi hogi.
apne ghar ke bahar phaile peDon ke jhurmut ko to wo pahchan hi nahin paya. jab wo gaya tha to papite ka wo paudha haath bhar ka bhi nahin tha. ab vahi paudha peD ban gaya tha aur uupar se niche tak phalon se lada tha. baqi peD bhi baDe ho ge the. jab wo gaya tha to uski patni ne mazak mein kaha tha ki kaash, wo jaldi se garbhavti hokar un khatti imaliyon ka bharpur maza le sake! usi peD se ab sunahri rang ki lambi lambi, paki hui imliyan latak rahi theen. usne nazar uthakar apne ghar ki or dekha to divaron par puta pile rang ka chuna use bahut saaf suthra laga. usne andaja lagaya ki ye chuna uski patni ne zarur mahine mein ek baar jile ke shahr mein lagne vale haat mein kharida hoga.
darvaze ko dhakelkar wo ghar ke andar ghus gaya. abhi nau hi baje the aur kamron mein thanDak thi. apni patni ko chaunkane ke irade se wo kelon ke jhurmut ke beech se dauDta chala aaya tha aur ab uska pura jism pasine se tar ba tar tha. khali kamre mein thanDe bistar par baithte hue use achanak ek gahre akelepan ka ahsas hua. kamre ki har cheez pahle se kafi baDi aur vyavasthit dikhai de rahi thi.
dhaan ke baDe pitare par purana pushtaini tala latak raha tha. use pata tha ki uski patni pitare ki chabi kahan rakhti hai, lekin usne bhitar ke dhaan ka andaz lene ke liye use sirf thakathka kar dekha. navambar mein taza phasal katti thi aur ye phasal se pahle ka akhiri aktubar ka mahina tha. is hisab se pitare mein ab bhi kafi dhaan tha.
pichhe taar par kapDe sookh rahe the. usne apni patni ke purane blauz pahchan liye. ek naya svetar bhi tha. shadi ke samay vala svetar shayad ghiskar phat gaya hoga.
achanak uski nazar taar par sukhte, bachchon ke ne ne pajamon par gai to uska dil balliyon uchhal paDa. kanpte hathon se usne ek pajama utara aur usse bachche ki uunchai ka andaz lagane ki koshish karne laga. theek usi vaqt haath mein gulel thame wo laDka svayan kamre mein dakhil hua aur ek ajnabi ko apna pajama tatolte dekhkar thithak gaya.
ve donon kafi der tak nihshabd ek dusre ki or dekhte rahe. laDka ghabrakar chillane ko hua tha, phir achanak ruk gaya tha, kyonki uske samne khaDa ajnabi shayad chor nahin tha. kuch kshnon tak sochne ke baad usne andaz lagaya tha ki ye vyakti kahin uska pita to nahin! use malum tha ki uski maan uske pita ko bahut yaad karti hai. ek baar to usne pita ki vardi bhi pahan li thi aur phir aine mein apne aapko dekhte hue usse puchha tha ki wo pita jaisi lagti hai ya nahin. laDke ne samarthan mein sir hila diya tha, kyonki us vardi mein maan use kisi sipahi jitni hi chust aur sajili nazar aai thi.
thithakkar us ajnabi ki or dekhte hue laDke ko laga ki agar wo uska pita hi hai to use sabse pahle apni maan ko bula lana chahiye. ye sochkar wo bina kuch bhi bole tezi se muDa aur vahan se betahasha bhaag nikla.
achambhe mein khaDa pita dauDkar jate us laDke ko dekhta rah gaya. use dekhte use us safed kabutar ki yaad ho aai, jise usne subah hi nahr ke uupar se uDkar jate dekha tha. phir achanak use Dar sa mahsus hua ki ye sab kisi gahri nirasha ka poorv sanket to nahin hai. haDbaDahat mein bahar nikalte hue uska pair dahliz se takraya, lekin sari jaldbazi ke bavjud use kele ke peDon ke pichhe gum hote us laDke ki ek jhalak maatr hi dikhai di.
“suno. . . suno. . . !” wo laDke ka naam lekar chillana chahta tha, lekin naam use malum kahan tha?
wo lautkar bistar par baith gaya. baithte baithte use divar par tange teDhe aine mein apna sakapkaya chehra dikhai diya to sari ghabrahat ke bavjud uske chehre par muskurahat ubhar aai.
bistar par phaile kambal aur takiye mein se ek halki halki khushbu uth rahi thi. niche pairon tale thanDi zamin thi. us thanDak ko pairon se mahsus karte hue use yaqin aaya ki ye sab sapna nahin, balki wo sachmuch apne ghar mein, apne hi bistar par baitha hai. kanakhiyon se aine mein apne aapko dekhte hue usne ek rahat ki saans li. is kshan ko apni kalpnaon mein wo isse pahle bhi na jane kitni baar ji chuka tha.
use laga ki pichhle aath varshon mein usne jo kuch khoya tha, wo sab use mil gaya hai. aur is sabke uupar wo laDka tha, aath varshon ki lambai tak phaile asman par kisi safed kabutar ki tarah uDta hua. uska naam use malum nahin tha, lekin phir bhi uske chehre ka ek ek naksh jaise uska pahchana hua tha.
is beech bahar kheton mein dusri aurton ke beech khaDi uski patni ko kisi ne khabar di thi ki ek sipahi uske ghar ki or jata dekha gaya hai. wo uljhan mein paD gai thi ki ye sipahi kaun ho sakta tha? uska pati ya phir koi aur? agar wo sipahi uska pati nahin tha, tab bhi to usse uska milna zaruri tha. ho sakta tha wo buri khabar ya mrityu ka sandesh laya ho, kyonki pichhle aath varshon mein pati ka ek bhi khat use nahin mila tha.
sipahi ke bare mein sochte hue use kuch ghabrahat si hui, lekin phir bhi us vaqt sab kuch chhoDkar ghar lautna uske liye namumkin tha. darasal jis jagah par wo anya aurton ke saath kaam kar rahi thi, usi ke nazdik mitti mein subah ek amriki bam nikla tha, jiske phatne se ek sipahi ke saath do aurten zakhmi ho gai theen. dhamake se pahle kisi ka dhyaan bam ki or nahin gaya tha, lekin bam ke phatte hi charon or bhagdaD mach gai thi. zakhmiyon ko aspatal pahunchaya gaya tha aur khudai ka kaam phir se shuru hua hi tha ki kuch mazduron ne chillakar use apni or bulaya tha. wo us toli ki agua thi aur khudai ka kaam usi ki dekhrekh mein chal raha tha. chillate hue mazduron ne bataya tha ki khudai ke malbe ke paas abhi abhi unhen pahle se bhi baDa ek aur anaphta bam mila hai.
logon mein phir se bhagdaD machi thi to usne bhompu ki madad se sabko shaant karne ki koshish ki thi. uske prati aadar aur sahanubhuti ka bhaav mahsus karte hue log jahan ke tahan khaDe ho ge the. kya zindagi hai bechari ki, ve sab shayad soch rahe the. pati ki aath salon se koi khabar nahin, halanki ab saigon ko azad hue bhi chhah mahine hone ko aaye. lekin ab bhi bechari kitni lagan se kaam kar rahi hai! bhagne vale mazduron ke giroh bhi bhompu par uski avaz sunkar vapas laut aaye the.
logon ko shaant karne ke baad wo teji se bam ki or baDhi thi. use pata tha ki sabki nigahen usi par tiki hui hain. bam ki uupri satah se mitti saaf karte hue use zara bhi Dar mahsus nahin hua, halanki use samajh mein nahin aa raha tha ki itne baDe bam ka samna kaise kya kiya jaye?
tabhi usne bam par likhe akshar paDhe the to uska dil dahal gaya tha. wo do Ditonetron vala em ke 52 tha, jise surangen bichhakar pichhe hatti amriki fauj ne zamin mein gaaD diya tha. isi bam ki maar ne uske gaanv ke kai hisson ko ujaaD Dala tha. donon siron par lage Ditonetron mein se kisi ek ke bhi dabne se bam phatkar charon taraf maut ki tabahi phaila sakta tha.
theek yahi wo kshan tha, jab uska beta dauDa chala aaya tha aur tile par khaDa hokar haath ke ishare se use bulane laga tha. wo apni jagah se hil nahin pai thi, lekin bam ki upasthiti se bekhbar laDka sidha uski or dauDta chala aa raha tha. shayad wo apni maan ko sab kuch batane ke baad hi chain se saans le sakta tha.
bete ki badahvasi ko bhanpte hue kisi bhi anya maan ki tarah wo haDabDai thi aur use ek nishchit duri par rok dene ke irade se wo bam ko vahin chhoDkar laDke ke paas tak dauD gai thi.
“maan. . . maan!” laDke ne bamushkil haklate hue kaha tha, “papa laut aaye hain!”
zara der ke liye use samuchi duniya chakkar khati hui si lagi thi, lekin phir dusre hi kshan usne apne aapko sambhal liya tha aur santulit svar mein laDke se kaha tha, “achchha!. . . tab tum vapas jao. tumhare papa tumhare liye koi na koi tohfa zarur laye honge!”
pati ho ya koi aur, wo is haalat mein us jagah ko chhoDkar nahin ja sakti thi. lekin ghar mein pati ke liye ab ek minat ka intzaar karna bhi asambhav ho gaya tha. pata nahin laam par pichhle aath varsh usne kaise guzare the! zara der rukkar usne kuch socha tha aur phir kandhe par usi jhole ko kaskar wo patni ko DhunDhane ke irade se ghar se bahar nikal aaya tha. kheton ke paas jami bheeD ko dekhkar wo bhi usi or aa gaya. ek buDhe ne use dekhkar ‘kaun hai?’ pukara, aur phir zara der mein hi sabne use pahchan liya tha. aath salon ki vismriti ke bavjud ve use uske pyaar ke naam se pukarne lage the. sabki nigahen fauji libas par tiki theen aur ve hans rahe the, uska kandha thapthapa rahe the aur usse tarah tarah ke saval poochh rahe the. phir uski patni ki or ishara kar unhonne zor zor ki avazen dekar use bulane ki koshish ki.
ek minat guzar gaya.
usne apna jhola niche rakhkar patni ke nazdik jane ka upakram kiya, lekin isse pahle hi wo dauDkar uske paas chali aai.
“vahan ek em ke 52 hai!” patni ke pahle shabd the.
“to?. . . ” wo kuch hichakichaya, “use thanDa karna hai?”
“lekin hamein pahli baar is tarah ka bam mila hai. . . ” patni ka svar Dara hua tha.
“to kya hua!. . . bahut asan hai use thanDa karna. jaise tin ka Dibba kholte hain, bilkul vaise hi. bas, spainar ko chhah baar ghumao. . . ” usne hansakar daant dikhaye.
in aath barson mein uski boli mein dakshini pranton vala lahja saaf jhalakne laga tha. lekin uski patni ko samajhne mein koi diqqat nahin hui, balki wo uski khamoshi tak ko samajh pa rahi thi.
“to chalo phir. . .
patni ke uttar dene se pahle hi usne apna jhola khol liya tha aur usmen se pahle khurpa, phir chhuri aur akhirkar wo spainar bahar nikala tha. spainar ko haath mein lekar jhola band karte karte wo bola, “zara bhi andaz nahin tha ki fauji trening yahan bhi kaam ayegi!”
khatre ke ghere ke bahar, khodi jane vali nahr ke donon or logon ki bheeD jama ho gai thi. use laga ki sabki nigahen usi par jami hui hain.
jaise hi usne us janaleva bam ke Ditonetar ke pech mein apna spainar phansaya (vamko nadi par uske teen sathi isi em ke 52 ke Ditonetar ko kholte hue mare ge the) uska man hua ki patni se puchhe, “laDke ka naam kya hai?”
aktubar ki ujli dhoop mein pankh phaDaphData vahi safed kabutar phir ek baar uske zehn mein kaundh gaya. use pahle hi patni se laDke ka naam poochh lena chahiye tha, lekin patni ne is em ke 52 ke chakkar mein use gaDbaDa diya tha. khair, ab to use naam malum ho hi jayega.
bahut savadhani ke saath wo pahle Ditonetar ka pench ghumane laga.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 359)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।