मैं निहायत कमज़ोर, लाचार और भावुक इंसान हूँ। मरियल-सी बाँहें, लंबी-लंबी टांगें हैं, और मेरा पेट तो इतना अंदर धंसा हुआ है कि मेरी पतलून सब समय नीचे ही खिसकती रहती है। कहने का तात्पर्य यह है कि एक अच्छे लॉरी ड्राइवर बनने के लिए जो कुछ मसाला नितांत आवश्यक है, मेरे पास सब कुछ ठीक उसके विपरीत ही है। कभी आपने ध्यान से लॉरी ड्राइवरों को देखा है? सभी तो हट्टे-कट्टे, बैल बराबर कंधों वाले होते हैं। साथ ही भारी-भरकम पीठ, घने बालों से ढकी भुजाएँ और एक छोटी-मोटी तोंद। लॉरी ड्राइवर की सफलता उसके तीन अंगों की शक्ति पर ही निर्भर होती है। बाँहें, पीठ और पेट। लॉरी के हाथ-चक्के का व्यास लगभग एक हाथ लंबा होता है, पहाड़ी रास्तों के मोड़ों पर अक्सर उन्हें पूरा ही घुमाना पड़ता है और इसके लिए बांहों का मज़बूत होना ज़रूरी है। घंटों एक ही स्थिति में लॉरी की सीट पर अक्लांत बैठे रहने के लिए पीठ का पक्का होना आवश्यक है और झटके संभाल ले, ऐसी तोंद होना भी ज़रूरी है। ख़ैर इतनी तो हुई शारीरिक उपयुक्तता, रही मानसिकता तो उसके लिए मैं और भी अधिक अनुपयुक्त हूँ। लॉरी ड्राइवर के मन में किसी प्रकार की कोमलता नहीं होनी चाहिए, न भावुकता, न अपने स्वतंत्र विचार और न ही उसे कभी घर की याद सतानी चाहिए। यह धंधा ही ऐसा है, जो एक सांड को भी चौपट कर देता है। जहाँ तक लड़कियों का प्रश्न है, लॉरी ड्राइवर को एक सेलर (जहाज़ी) की भाँति होना चाहिए अर्थात् उनके बारे में नहीं के बराबर ही सोचना चाहिए, नहीं तो लगातार आने-जाने के चक्कर में वह बेचारा पागल ही हो जाएगा। लेकिन मैं सदा से ही विचारशील रहा हूँ, मेरा मस्तिष्क कभी ख़ाली नहीं रहता; मैं बहुत ही उदास प्रकृति का संवेदनशील प्राणी हूँ और मुझे लड़कियां पसंद हैं।
यद्यपि यह धंधा क़तई मेरे योग्य नहीं है, फिर भी मैं सदा से एक लॉरी ड्राइवर ही बनना चाहता था और एक यातायात कंपनी के जरिए मुझे यह नौकरी मिल ही गई। मेरा सहायक था पैलोंबी, कहना पड़ेगा, एकदम ही चुगद था। वह पूरी तौर पर एक लॉरी ड्राइवर था। यह बात नहीं कि बहुधा लॉरी ड्राइवर अकलमंद नहीं होते—किंतु पैलोंबी सौभाग्य से वज्रमूर्ख भी था। लॉरी के साथ वह एकरूप था, जैसे लॉरी का ही एक अंश हो। उम्र उसकी तीस के ऊपर ही होगी, लेकिन लगता छोकरा-सा ही था। भारी चेहरा, भरे-भरे गाल, छोटे से माथे के नीचे छोटी-छोटी आँखें और लकीर-सा मुँह जैसे ग़ुल्लक में छेद। वह बहुत कम बोलता था, हूँ, हाँ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। हाँ, यदि कोई खाने-पीने का विषय आए तभी उसकी बुद्धि फ़ौरन प्रखर हो जाती थी।
एक बार की बात है, हम लोग इत्री (ITRI) के एक होटल में गए जहाँ खाने के लिए केवल उबली हुई सेम और बेकन की छिल्लक ही मिलीं। मैंने उन्हें छुआ तक नहीं। पैलोंबी महाशय दो प्लेट उड़ा गए, फिर कुर्सी पर पीछे टिकते हुए उन्होंने मेरी ओर बड़ी भावभरी आंखों से कुछ क्षण के लिए निहारा जैसे कोई अत्यंत महत्वपूर्ण बात कहने जा रहे हों। अंत में अपने उदर पर एक बार हाथ फेरने के बाद, उन्होंने घोषणा की—‘मैं अभी चार प्लेटें और खा सकता था।’ इसी महान विचार के सृजन में उन्हें इतना समय लग गया।
ऐसे साथी के साथ, जो एक बारगी काठ का उल्लू ही हो, आप अनुमान लगा सकते हैं, मुझे इटालिया जैसी लड़की से मिल कर, पहली बार कितनी ख़ुशी हुई होगी। उस वक़्त हम लोग रोम और नेपल्स के बीच ही यात्रा कर रहे थे। कभी इंटें, कभी कच्चा लोहा, कभी लकड़ी, कभी फल, कभी-कभी भेड़ें, यही हमारे भार होते थे। टैरेसिना (Terracina) के पास एक दिन इटालिया ने हमें रोक कर रोम तक के लिए लिफ़्ट चाही। यूँ तो हमें आदेश थे कि हम किसी ऐसे यात्री को लॉरी में न बैठाएँ, किंतु उसे एक बार ऊपर से नीचे तक देख लेने के बाद हमने सोचा, इस बार इस आदेश का उल्लंघन करना ही होगा। हमने ज्योंही हामी भरी, त्यों ही वह फुदक कर अंदर आ गई। ...हिप हिप हुर्र लॉरी ड्राइवर लोग हमेशा बड़े अच्छे होते हैं।
इटालिया एक कामोत्तेजक लड़की थी, उसके लिए और कोई शब्द बना ही नहीं। लंबी पतली कमर और कूल्हों तक पहुँचते कसे जंपर में उसके उन्नत उरोज निश्चय ही कटीले थे। सुराही-सी गर्दन, भूरे बालों से घिरा सिर और बड़ी-बड़ी हरियल आँखें। यूँ तो वह लंबी थी, लेकिन उस अनुपात में उसकी टांगें छोटी थीं और उतनी सीधी भी नहीं थीं, चलते समय लगता था उसके घुटने झुके-झुके से हों। देखा जाए तो वह सुंदर नहीं थी, लेकिन उसमें सौंदर्य से भी कुछ अधिक था और मुझे इस आकर्षण का प्रमाण पहली यात्रा के दौरान ही मिल गया। वह ऐसे कि हम अभी सिस्टरना तक ही पहुँचे थे; पैलोंबी गाड़ी चला रहा था कि इटालिया ने अपना हाथ अचानक मेरे हाथ में दे दिया और उसे ज़ोर से भींचा और फिर वेलेट्री आने तक नहीं छोड़ा, जहाँ से मैंने पैलोंबी से स्थान बदला।
गर्मी के दिन थे, चार बजे दोपहर ग्रीष्म अपने यौवन पर था। हमारे हाथ पसीने से भीग कर फिसले जा रहे थे; किंतु जब वह अपनी उन खानाबदोश हरियल आँखों से कोमलतापूर्वक मुझे निहार लेती तो मुझे लगता कि मेरा जीवन जो अब तक महज़ कोलतार की तरह अनंत पट्टी जैसा था, एक बारगी मुस्कुरा उठा है। मुझे लगा, जिसकी मुझे चाहना थी वह मुझे मिल गई—एक लड़की। सिस्टरना और वेलेट्री के बीच में पैलोंबी गाड़ी के पहियों को देखने के लिए उतरा और मैंने स्थिति का पूरा लाभ उठाते हुए उसका एक चुंबन लिया। वेलेट्री पहुँचने पर मैंने प्रसन्नतापूर्वक पैलोंबी से अपनी जगह बदली। उस दिन के लिए वह हाथों का मिलना और एक चुंबन पर्याप्त था। उसके बाद सप्ताह में कभी एक या कभी-कभी दो बार भी इटालिया हमारे साथ रोम से टैरेसिना आती-जाती रही। वह सुबह-सबेरे एक सूटकेस या फिर कोई बंडल लिए, दीवाल के पास खड़ी हमारी प्रतीक्षा करती। यदि पैलोंबी गाड़ी चला रहा होता तो वह मेरा हाथ सारे रास्ते यानी टैरेसिना तक थामे रहती। हमारे नेपल्स से लौटने पर वह टैरेसिना पर हमारा इंतज़ार करती; वह अंदर आती थी और प्रारंभ हो जाता फिर एक बार, वही हाथों का मिलन—स्पर्श साथ ही उसके राज़ी न होने पर भी, पैलोंबी की आँख बचा कर वह चोरी-चोरी चुंबन। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं पूरी तरह उसके प्रेम में डूब चुका था। कारण यह भी था कि अरसे से मैंने किसी लड़की को चूमा नहीं था और इन सब बातों में मेरा अभ्यास नहीं रहा था। इस सीमा तक कि अगर वह मेरी ओर एक ख़ास अंदाज़ से देख भर ले तो मैं इस कदर अभिभूत हो उठता था कि एक बच्चे की तरह मेरी आँखें डबडबा आती थीं। वे भले ही कोमलताजनित अश्रु थे, किंतु मुझे वह एक ऐसी कायरता लगती, जो एक सबल पुरुष को शोभा नहीं देती और मैं जी जान से उसे रोकने की असफल चेष्टा करता। जब मैं लॉरी चलाता, तब हम फुसफुसा कर धीमे-धीमे स्वर में बातें करते जाते और पैलोंबी के सोने का पूरा लाभ उठाते। मुझे याद नहीं कि हम क्या बातें करते थे; शायद वही, केवल प्रेमियों की बेतुकी बातें और ऊलजलूल क़िस्से-मज़ाक ही होंगे। इतना मुझे याद है कि समय बहुत जल्दी बीत जाता था। वह कोलतार की पट्टी जो टैरेसिना से अनंत विस्तृत अजगर का रूप मालूम होती थी, वह जैसे अब किसी जादू से घुलती जाती थी। मैं लॉरी की गति 15 से 20 मील प्रति घंटा कर देता। यहाँ तक मैं बैलगाड़ियों तक को आगे निकल जाने देता, किंतु हम यात्रा के अंत पर आ ही पहुँचते और इटालिया चली जाती। रात में मुझे और भी दिलचस्पी रहती। लॉरी स्वयं ही गति पकड़ लेती और मैं एक हाथ से चक्का थामे, एक हाथ इटालिया की कमर में डाले रखता। दूर अँधेरे में, अन्य कारों की हैडलाइट्स जलती और बुझती और मेरा मन करता कि उनके उत्तर में, अपनी लॉरी की बत्तियों से कुछ ऐसे प्रकाशमान शब्द लिख जाउँ जिनसे उन्हें भी मेरी प्रसन्नता का अनुमान लग सके; कुछ इसी प्रकार के शब्द, जैसे—‘मैं इटालिया से मुहब्बत करता हूँ और इटालिया मुझसे बहुत प्यार करती है।’
जहाँ तक पैलोंबी का प्रश्न है, या तो उसे ज़रा-सा भान तक नहीं था या वह अनजान बन रहा था। देखा जाए तो, एक बार भी उसने इटालिया के इतनी बार आने-जाने का विरोध नहीं किया। जब वह अंदर आती तो वह एक लंबी-सी नमस्ते की जगह एक छोटी-सी ‘हूँ’ कहता और ज़रा-सा खिसक कर उसके बैठने के लिए जगह बना देता। वह हमेशा हम दोनों के बीच में बैठती। मुझे अपनी आँखें सड़क पर रखनी पड़ती थीं और कभी किसी गाड़ी को (Overtake) करना होता था तो पैलोंबी को बताना पड़ता था। मैं अपने प्रेम में ऐसा खो गया था कि मैंने लॉरी के (windscreen) पर श्वेताअक्षरों में लिखवा दिया था—वीवा ला इटालिया (Viva La Italia)। तब भी पैलोंबी ने कोई ऐतराज नहीं किया। वह इस कदर मूर्ख था कि उसे उन शब्दों में छिपे दो अर्थों का भी पता न चला। हाँ, जब दूसरे लॉरी ड्राइवरों ने हमसे पूछा कि हम कब से इतने देशभक्त हो गए? तब पैलोंबी ने खुले मुँह मेरी ओर देखा; एक मुस्कान उसके चेहरे पर धीरे से फैल गई, बोला—’ये लोग समझ रहे हैं इटली और वास्तव में यह एक लड़की का नाम है...चालाक कहीं के, पर विचार ज़ोरदार रहा।’
इसी प्रकार कई महीने बीत गए। तभी एक दिन टैरेसिना पर इटालिया को छोड़ने के बाद जैसे ही हम नेपल्स पहुँचे, हमें आदेश मिला कि फ़ौरन लॉरी ख़ाली करके हमें वापस रोम पहुँचना है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें रात नेपल्स में नहीं काटनी थी। सीधे रोम चल देना था। मैं झल्ला गया। सबेरे ही मुझे इटालिया से मिलना था, लेकिन ऑर्डर तो ऑर्डर ही था। मैंने चक्का संभाला; पैलोंबी ख़र्राटे मारने लगा। नेपल्स से इत्री तक सड़क घुमावदार और ख़तरनाक मोड़ों से भरी पड़ी है और तब तक सब कुशलपूर्वक रहा भी क्योंकि रात में थके-माँदे लॉरी ड्राइवरों को जब नींद आने लगती है तो ये घुमाव उसे जबरन जगाए रखते हैं और उसके सबसे अच्छे साथी सिद्ध होते हैं। लेकिन इत्री के बाद संतरों के बग़ीचों के बीच से निकलते हुए मुझे नींद आने लगी और नींद को भगाने के लिए मैं इटालिया के बारे में सोचने लगा। धीरे-धीरे मेरे विचार घने होने लगे; जैसे जंगल में वृक्षों की शाखाएँ धीरे-धीरे बढ़कर आपस में उलझ जाती हैं और फिर सब अंधकार हो जाता है। मुझे याद है मैंने स्वयं से ही कहा—“मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मैं उसके बारे में सोचकर अपनी नींद पर क़ाबू पा सकता हूँ। वह न होती तो अब तक ज़रूर सो जाता। और वास्तव में, तब तक मैं, सो ही चुका था। यह बातें मैंने स्वप्न में ही अपने से कही थी, ऐसे स्वप्न में जो गहरी नींद में ही आते हैं। उसी क्षण मुझे लगा लॉरी ने सड़क छोड़ दी है और फिर वह एक गड्ढे में धंस गई है। अपने पीछे मुझे ट्रेलर के उलटने का धक्का और खड़खड़ आवाज़ सुनाई दी। हम लोग धीमी गति से ही जा रहे थे सो हमें चोटें तो नहीं लगी पर हम कठिनाई से बाहर निकले। देखा, ट्रेलर के चारों पहिए हवा में थे और उस पर लदी साफ़ की हुई खालें ढेर-की-ढेर बनी गड्ढे में पड़ी थीं।
रात अँधेरी थी, चाँद नहीं था, किंतु आकाश नक्षत्रों से भरापूरा था। भगवान की दया से हम लोग टैरेसिना के पास ही थे। दाहिनी ओर एक ऊँची पहाड़ी थी और बाईं ओर अँगूरों के बाग़ीचों के पार था काला, शांत समंदर।
पैलोंबी के मुँह से इतना भर निकला—“हूँ! तुम्हारे हाथों ये तो होना ही था।” और फिर वह सहायक जुटाने के लिए टैरेसिना की ओर पैदल ही चल पड़ा। टैरेसिना थोड़ी ही दूर था, लेकिन पैलोंबी हमेशा खाने की बाबत ही सोचता था और जब उसने देखा कि हम लोग शहर से थोड़ी ही दूरी पर हैं, उसकी क्षुधा और भी तीव्र हो गई। उसका विचार था, पहले किसी होटल में चला जाए, क्योंकि ब्रेकडाउन लॉरी सुबह होने से पहले नहीं पहुँच सकेगी।
आधी रात बीत चुकी थी, शहर में बम गिरने के कारण स्थान-स्थान पर गड्ढे दिखाई पड़ रहे थे। हमें किसी होटल की तलाश थी और काफ़ी दूर ढूँढ़ने के बाद हमें एक होटल मिला, वह भी तभी बंद हो रहा था। ख़ैर वहाँ से हम एक छोटी-सी गली से मुड़ गए जो शायद समुद्र की ओर जा निकलती थी। उसी गली में कुछ दूरी तय करने पर हमें एक रोशनी और उसके ऊपर लगा साइन बोर्ड दिखाई दिया। आशा ने हमारे क़दमों को गति दी। वह होटल ही था, उसकी झिलमिली आधी बंद थी, जैसे वह भी अभी बंद होने वाला हो। काँच के दरवाज़े के पार हम झांक सकते थे। “अरे देखो, यह भी बंद निकला” कहते हुए पैलोंबी अंदर झाँकने के लिए झुका। मैंने भी उसका अनुसरण किया। एक बड़ा सा कमरा था, जैसा ऐसे शहरों की सरायों में होते हैं। साथ ही कुछ मेज़ें और एक ओर काउंटर। सारी कुर्सियां मेज़ों के ऊपर उलट कर रखी हुई थीं और वहाँ इटालिया थी, उसके हाथ में एक झाड़ू थी और अपनी कमर में एक बड़ा सा झाड़न बांधे वह कमरे में जल्दी-जल्दी झाड़ू लगा रही थी। कमरे के अंत में (Counter) के पीछे एक कुबड़ा व्यक्ति खड़ा था। मैंने पहले भी कई कुबड़े देखे हैं, लेकिन इतना अधिक कुबड़ा आदमी कभी नहीं देखा था। उसका चेहरा ठीक उसकी हथेलियों के बीच तक आता था और उसका कूबड़ उसके सिर से भी ऊँचा उठा हुआ था। वह इटालिया की ओर अपनी काली, बदसूरत और भूखी आँखों से ताक रहा था। वह बड़ी लचकती हुई सी झाड़ू लगा रही थी। फिर कुबड़े ने बग़ैर अपनी जगह से हिले, उसे न जाने क्या कहा कि वह उसके पास गई, झाड़ू उसने काउंटर के सहारे टिका दी। फिर उसके गले में दोनों हाथ डाल, इटालिया ने उसे बड़े प्यार से एक दीर्घ चुम्बन दिया। इसके बाद उसने पुन: अपनी झाड़ू उठाई और नाचती हुई सारे कमरे में चक्कर लगाने लगी। कुबड़ा अपने काउंटर से उतरकर कमरे के बीच में आ खड़ा हुआ। हमने देखा, वह अवश्य जहाज़ी रहा होगा, क्योंकि उसने मछुआरों की तरह नीले कपड़े की बनी हुई नीचे से मुड़ी हुई पेंट और खुले गले की क़मीज़ पहन रखी थी। साथ में सैंडिलें। वह एक ही विचार मन में लिए, वहाँ से शीघ्रता से पीछे हट गए। कुबड़े ने काँच का दरवाज़ा खोला और अंदर से झिलमिली बंद कर दी।
“यह भी कभी सोचा था किसी ने?...मैंने अपने क्रोध को पीते हुए कहा और पैलोंबी ने उत्तर दिया, ‘हाँ’ उसके स्वर में ऐसी कटुता थी कि मुझे आश्चर्य हुआ। हम लोग वापस गैरेज में गए और सारी रात लॉरी को फिर से सड़क पर लाने और उस पर वह साफ़ की हुई खालें लादने में बीत गई। लेकिन सूर्योदय के समय जब हम रोम की दिशा में जा रहे थे, पैलोंबी, कदाचित् पहली बार ख़ुद-ब-ख़ुद बातें करने लगा—“तुमने देखा”, वह बोला, “उस साली ने मेरे साथ कितना बुरा किया?”
“क्या मतलब?” मैंने बड़े अचरज से पूछा और वह अपनी धीमी, कमज़ोर आवाज़ में कहता गया—“मुझसे इतने वादे करने के बाद, आते-जाते, सारे रास्ते मेरा हाथ थामे रहने के बाद और जबकि मैं उससे कह चुका था, मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ और एक प्रकार से हम दोनों एक-दूसरे को वचन दे चुके थे—और तुमने देखा? उस कुबड़े के साथ।”
उसकी बातें सुनकर मेरी आधी साँस ऊपर और आधी साँस नीचे रह गई। मैं ख़ामोश रहा। पैलोंबी कहता रहा—“मैंने उसे इतने अच्छे-अच्छे उपहार दिए थे—मूंगे का हार, एक रेशमी रूमाल, चमड़े की जूतियाँ...मैं तुमसे सच कहता हूँ, मुझे उससे बेहद प्यार था और यों भी वह सब प्रकार से मेरे ही योग्य लड़की थी...अंत में, ऐसी कृतघ्न, ऐसी हृदयहीन, ऐसी हरामज़ादी निकली...।”
और उगते सूरज के धुँधले प्रकाश में जैसे-जैसे हम रोम के निकट आते गए वह अस्फुट स्वर में बोलता रहा, जैसे स्वयं से ही कहे जा रहा हो। और मैं सोचे बिना नहीं रह सका कि इटालिया ने कैसा हम दोनों को उल्लू बनाया, केवल अपना रेल का किराया बचाने के लिए। पैलोंबी की बकवास से मुझे खिजलाहट होने लगी थी, क्योंकि जो कुछ वह कह रहा था, ठीक वही सब मैं भी कहना चाहता था। दूसरे, वह, जो कभी अपना मुँह भी नहीं खोलता था इतनी बातें करता और भी अधिक बेवक़ूफ़, अहमक लग रहा था। यहाँ तक कि मैं बहशियाना अंदाज़ में चिल्ला पड़ा—“भगवान के लिए उस चुड़ैल के बारे में बातें करना बंद करो। मुझे नींद आ रही है।” और वह बेचारा बोला—“तुम्हें पता है, कुछ बातें ऐसी चोट पहुँचा जाती हैं कि...” और फिर रोम पहुँचने तक वह चुप ही रहा।
उसके बाद कई महीने तक वह सब समय बहुत दुःखी-सा रहता और मैं, मेरे लिए सड़क फिर एक बार वही सड़क बन गई। अनादि, अनंत तक कोलतार की निर्जीव जिसे दिन में दो बार लीलना और उगलना पड़ता था और जब इटालिया ने नेपल्स के रास्ते में, लंबे-सड़क, एक शराब की दुकान खोल ली और उसका नाम “लॉरी ड्राइवर विश्राम गृह” रख दिया, तब मुझे अपनी नौकरी से त्यागपत्र देना ही पड़ा।
वह एक ऐसा विश्राम गृह था, जिसके लिए किसी को मीलों जाना भी भला लगेगा लेकिन हम कभी वहाँ नहीं गए। किंतु फिर भी इटालिया का काउंटर के पीछे खड़े रहना, कुबड़े का उसे बीयर की बोतलें और गिलास पकड़ाते जाना, उसे निहारते रहना, मेरे लिए बड़ा कष्टकर होता और मुझे वह नौकरी छोड़नी ही पड़ी। वैसे वह लॉरी जिसके विंड स्क्रीन पर ‘वाईवा ला इटालिया’ लिखा हुआ है और जिसके चक्के के पीछे पैलोंबी बैठा रहता है। अब भी उसी सड़क पर दौड़ रही है।
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garmi ke din the, chaar baje dopahar greeshm apne yauvan par tha. hamare haath pasine se bheeg kar phisle ja rahe the; kintu jab wo apni un khanabadosh hariyal ankhon se komaltapurvak mujhe nihar leti to mujhe lagta ki mera jivan jo ab tak mahz koltar ki tarah anant patti jaisa tha, ek baragi muskura utha hai. mujhe laga, jiski mujhe chahna thi wo mujhe mil gai—ek laDki. sistarna aur veletri ke beech mein pailombi gaDi ke pahiyon ko dekhne ke liye utra aur mainne sthiti ka pura laabh uthate hue uska ek chumban liya. veletri pahunchne par mainne prasannatapurvak pailombi se apni jagah badli. us din ke liye wo hathon ka milna aur ek chumban paryapt tha. uske baad saptah mein kabhi ek ya kabhi kabhi do baar bhi italiya hamare saath rom se teresina aati jati rahi. wo subah sabere ek sutkes ya phir koi banDal liye, dival ke paas khaDi hamari prtiksha karti. yadi pailombi gaDi chala raha hota to wo mera haath sare raste yani tairesina tak thame rahti. hamare nepils se lautne par wo tairesina par hamara intzaar karti; wo andar aati thi aur prarambh ho jata phir ek baar, vahi hathon ka milan sparsh saath hi usak razi na hone par bhi, pailombi ki ankh bacha kar wo chori chori chumban. kahne ka tatparya ye hai ki main puri tarah uske prem mein Doob chuka tha. karan ye bhi tha ki arse se mainne kisi laDki ko chuma nahin tha aur in sab baton mein mera abhyas nahin raha tha. is sima tak ki agar wo meri or ek khaas andaz se dekh bhar le to main is kadar abhibhut ho uthta tha ki ek bachche ki tarah meri ankhen DabDaba aati theen. ve bhale hi komaltajnit ashru the, kintu mujhe wo ek aisi kayarta lagti, jo ek sabal purush ko shobha nahin deti aur main ji jaan se use rokne ki asaphal cheshta karta. jab main lauri chalata, tab hum phusphusa kar dhime dhime svar mein baten karte jate aur pailombi ke sone ka pura laabh uthate. mujhe yaad nahin ki hum kya baten karte the; shayad vahi, keval premiyon ki betuki baten aur uulajlul qisse mazak hi honge. itna mujhe yaad hai ki samay bahut jaldi beet jata tha. wo koltar ki patti jo tairesina se anant vistrit ajgar ka roop malum hoti thi, wo jaise ab kisi jadu se ghulti jati thi. main lauri ki gati 15 se 20 meel prati ghanta kar deta. yahan tak main bailgaDiyon tak ko aage nikal jane deta, kintu hum yatra ke ant par aa hi pahunchte aur italiya chali jati. raat mein mujhe aur bhi dilchaspi rahti. lauri svayan hi gati pakaD leti aur main ek haath se chakka thame, ek haath italiya ki kamar mein Dale rakhta. door andhere mein, anya karon ki haiDlaits jalti aur bujhti aur mera man karta ki unke uttar mein, apni lauri ki battiyon se kuch aise prakashaman shabd likh jaun jinse unhen bhi meri prasannata ka anuman lag sake; kuch isi prakar ke shabd, jaise—‘main italiya se muhabbat karta hoon aur italiya mujhse bahut pyaar karti hai. ’
jahan tak pailombi ka parashn hai, ya to use zara sa bhaan tak nahin tha ya wo anjan ban raha tha. dekha jaye to, ek baar bhi usne italiya ke itni baar aane jane ka virodh nahin kiya. jab wo andar aati to wo ek lambi si namaste ki jagah ek chhoti si ‘hoon’ kahta aur zara sa khisak kar uske baithne ke liye jagah bana deta. wo hamesha hum donon ke beech mein baithti. mujhe apni ankhen saDak par rakhni paDti theen aur kabhi kisi gaDi ko (overtake) karna hota tha to pailombi ko batana paDta tha. main apne prem mein aisa kho gaya tha ki mainne lauri ke (windscreen) par shvetaakshron mein likhva diya tha—viva la italiya (viva la italia). tab bhi pailombi ne koi aitraj nahin kiya. wo is kadar moorkh tha ki use un shabdon mein chhipe do arthon ka bhi pata na chala. haan, jab dusre lauri Draivron ne hamse puchha ki hum kab se itne deshabhakt ho ge? tab pailombi ne khule munh meri or dekha; ek muskan uske chehre par dhire se phail gai, bola—’ye log samajh rahe hain itli aur vastav mein ye ek laDki ka naam hai. . . chalak kahin ke, par vichar zordar raha. ’
isi prakar kai mahine beet ge. tabhi ek din tairesina par italiya ko chhoDne ke baad jaise hi hum nepils pahunche, hamein adesh mila ki fauran lauri khali karke hamein vapas rom pahunchna hai. iska arth ye hua ki hamein raat nepils mein nahin katni thi. sidhe rom chal dena tha. main jhalla gaya. sabere hi mujhe italiya se milna tha, lekin aurDar to aurDar hi tha. mainne chakka sambhala; pailombi kharrate marne laga. nepils se itri tak saDak ghumavadar aur khatarnak moDon se bhari paDi hai aur tab tak sab kushalpurvak raha bhi kyonki raat mein thake mande lauri Draivron ko jab neend aane lagti hai to ye ghumav use jabran jagaye rakhte hain aur uske sabse achchhe sathi siddh hote hain. lekin itri ke baad santron ke baghichon ke beech se nikalte hue mujhe neend aane lagi aur neend ko bhagane ke liye main italiya ke bare mein sochne laga. dhire dhire mere vichar ghane hone lage; jaise jangal mein vrikshon ki shakhayen dhire dhire baDhkar aapas mein ulajh jati hain aur phir sab andhkar ho jata hai. mujhe yaad hai mainne svayan se hi kaha—“main kitna bhagyashali hoon ki main uske bare mein sochkar apni neend par qabu pa sakta hoon. wo na hoti to ab tak zarur so jata. aur vastav mein, tab tak main, so hi chuka tha. ye baten mainne svapn mein hi apne se kahi thi, aise svapn mein jo gahri neend mein hi aate hain. usi kshan mujhe laga lauri ne saDak chhoD di hai aur phir wo ek gaDDhe mein dhans gai hai. apne pichhe mujhe trelar ke ulatne ka dhakka aur khaDkhaD avaz sunai di. hum log dhimi gati se hi ja rahe the so hamein choten to nahin lagi par hum kathinai se bahar nikle. dekha, trelar ke charon pahiye hava mein the aur us par ladi saaf ki hui khalen Dher ki Dher bani gaDDhe mein paDi theen.
raat andheri thi, chaand nahin tha, kintu akash nakshatron se bharapura tha. bhagvan ki daya se hum log tairesina ke paas hi the. dahini or ek uunchi pahaDi thi aur bain or anguron ke bagichon ke paar tha kala, shaant samandar.
pailombi ke munh se itna bhar nikla—”hun! tumhare hathon ye to hona hi tha. ” aur phir wo sahayak jutane ke liye tairesina ki or paidal hi chal paDa. tairisina thoDi hi door tha, lekin pailombi hamesha khane ki babat hi sochta tha aur jab usne dekha ki hum log shahr se thoDi hi door par hain, uski kshudha aur bhi teevr ho gai. uska vichar tha, pahle kisi hotal mein chala jaye, kyonki brekDaun lauri subah hone se pahle nahin pahunch sakegi.
aadhi raat beech chuki thi, shahr mein bam girne ke karan sthaan sthaan par gaDDhe dikhai paD rahe the. hamein kisi hotal ki talash thi aur kafi door DhunDhane ke baad hamein ek hotal mila, wo bhi tabhi band ho raha tha. khair vahan se hum ek chhoti si gali se muD ge jo shayad samudr ki or ja nikalti thi. usi gali mein kuch duri tay karne par hamein ek roshni aur uske uupar laga sain borD dikhai diya. aasha ne hamare qadmon ko gati di. wo hotal hi tha, uski jhilmili aadhi band thi, jaise wo bhi abhi band hone vala ho. kaanch ke darvaze ke paar hum jhaank sakte the. “are dekho, ye bhi band nikla” kahte hue pailombi andar jhankne ke liye jhuka. mainne bhi uska anusran kiya. ek baDa sa kamra tha, jaisa aise shahron ki sarayon mein hote hain. saath hi kuch mezen aur ek or kauntar. sari kursiyan mezon ke uupar ulat kar rakhi hui theen aur vahan italiya thi, uske haath mein ek jhaDu thi aur apni kamar mein ek baDa sa jhaDan bandhe wo kamre mein jaldi jaldi jhaDu laga rahi thi. kamre ke ant mein (counter) ke pichhe ek kubDa vyakti khaDa tha. mainne pahle bhi kai kubDe dekhe hain, lekin itna adhik kubDa adami kabhi nahin dekha tha. uska chehra theek uski hatheliyon ke beech tak aata tha aur uski kubar uske sir se bhi uncha utha hua tha. wo italiya ki or apni kali, badsurat aur bhukhi ankhon se taak raha tha. wo baDi lachakti hui si jhaaD laga rahi thi. phir kubDe ne baghair apni jagah se hile, use na jane kya kaha ki wo uske paas gai, jhaaD usne kauntar ke sahare tika di. phir uske gale mein donon haath Daal, italiya ne use baDe pyaar se ek deergh chumban diya. iske baad usne punah apni jhaaD uthai aur nachti hui sare kamre mein chakkar lagane lagi. kubDa apne kauntar se utarkar kamre ke beech mein aa khaDa hua. hamne dekha, wo avashya jahazi raha hoga, kyonki usne machhuaron ki tarah nile kapDe ki bani hui niche se muDi hui pent aur khule gale ki qamiz pahan rakhi thi. saath mein sainDilen. wo ek hi vichar man mein liye, vahan se shighrata se pichhe hat ge. kubDe ne kaanch ka darvaza khola aur andar se jhilmili band kar di.
“yah bhi kabhi socha tha kisi ne?. . . mainne apne krodh ko pite hue kaha aur pailombi ne uttar diya, ‘haan’ uske svar mein aisi katuta thi ki mujhe ashcharya hua. hum log vapas gairej mein ge aur sari raat lauri ko phir se saDak par lane aur us par wo saaph ki hui khalen ladne mein beet gai. lekin suryoday ke samay jab hum rom ki disha mein ja rahe the, pailaubi, kadachit pahli baar khud ba khud baten karne laga—“tumne dekha”, wo bola, “us sali ne mere saath kitna bura kiya?”
“kya matlab?” mainne baDe achraj se puchha aur wo apni dhimi, kamzor avaz mein kahta gaya—“mujhse itne vade karne ke baad, aate jate, sare raste mera haath thame rahne ke baad aur jabki main usse kah chuka tha, main usse vivah karna chahta hoon aur ek prakar se hum donon ek dusre ko vachan de chuke the—aur tumne dekha? us kubDe ke saath. ”
uski baten sunkar meri aadhi saans uupar aur aadhi saans niche rah gai. main khamosh raha. pailombi kahta raha—”mainne use itne achchhe achchhe uphaar diye the—munge ka haar, ek reshmi rumal, chamDe ki jutiyan. . . main tumse sach kahta hoon, mujhe usse behad pyaar tha aur yon bhi wo sab prakar se mere hi yogya laDki thi. . . ant mein, aisi kritaghn, aisi hridayhin, aisi haramzadi nikli. . . .
aur ugte suraj ke dhundhale parkash mein jaise jaise hum rom ke nikat aate ge wo asphut svar mein bolta raha, jaise svayan se hi kahe ja raha ho. aur main soche bina nahin rah saka ki italiya ne kaisa hum donon ko ullu banaya, keval apna rel ka kiraya bachane ke liye. pailombi ki bakvas se mujhe khijlahat hone lagi thi, kyonki jo kuch wo kah raha tha, theek vahi sab main bhi kahna chahta tha. dusre, wo, jo kabhi apna munh bhi nahin kholta tha itni baten karta aur bhi adhik bevaquf, ahmak lag raha tha. yahan tak ki main bahashiyana andaz mein chilla paDa—”bhagvan ke liye us chuDail ke bare mein baten karna band karo. mujhe neend aa rahi hai. ” aur wo bechara bola—“tumhen pata hai, kuch baten aisi chot pahuncha jati hain ki. . . ” aur phir rom pahunchne tak wo chup hi raha.
uske baad kai mahine tak wo sab samay bahut dukhi sa rahta aur main, mere liye saDak phir ek baar vahi saDak ban gai. anadi, anant tak koltar ki nirjiv jise din mein do baar lilna aur ugalna paDta tha aur jab italiya ne nepils ke raste mein, lambe saDak, ek sharab ki dukan khol li aur uska naam “lauri Draivar vishram grih” rakh diya, tab mujhe apni naukari se tyagpatr dena hi paDa.
wo ek aisa vishram grih tha, jiske liye kisi ko milon jana bhi bhala lagega lekin hum kabhi vahan nahin ge. kintu phir bhi italiya ka kauntar ke pichhe khaDe rahna, kubDe ka use biyar ki botlen aur gilas pakDate jana, use niharte rahna, mere liye baDa kashtakar hota aur mujhe wo naukari chhoDni hi paDi. vaise wo lauri ziske vinD skreen par ‘vaiva la italiya’ likha hua hai aur jiske chakke ke pichhe pailombi baitha rahta hai. ab bhi usi saDak par dauD rahi hai.
main nihayat kamzor, lachar aur bhavuk insaan hoon. mariyal si banhen, lambi lambi tangen hain, aur mera pet to itna andar dhansa hua hai ki meri patlun sab samay niche hi khisakti rahti hai. kahne ka tatparya ye hai ki ek achchhe lauri Draivar banne ke liye jo kuch masala nitant avashyak hai, mere paas sab kuch theek uske viprit hi hai. kabhi aapne dhyaan se lauri Draivron ko dekha hai? sabhi to hatte katte, bail barabar kandhon vale hote hain. saath hi bhari bharkam peeth, ghane balon se Dhanki bhujayen aur ek chhoti moti tond. lauri Draivar ki saphalta uske teen angon ki shakti par hi nirbhar hoti hai. banhen, peeth aur pet. lauri ke haath chakke ka vyaas lagbhag ek haath lamba hota hai, pahaDi raston ke moDon par aksar unhen pura hi ghumana paDta hai aur iske liye banhon ka majbut hona zaruri hai. ghanton ek hi sthiti mein lauri ki seet par aklant baithe rahne ke liye peeth ka pakka hona avashyak hai aur jhatke sambhal le, aisi tond hona bhi zaruri hai. khair itni to hui sharirik upyuktata, rahi manasikta to uske liye main aur bhi adhik anupyukt hoon. lauri Draivar ke man mein kisi prakar ki komalta nahin honi chahiye, na bhavukta, na apne svtantr vichar aur na hi use kabhi ghar yaad satani chahiye. ye dhandha hi aisa hai, jo ek saanD ko bhi chaupat kar deta
hai. jahan tak laDakiyon ka parashn hai, lauri Draivar ko ek selar (jahazi) ki bhanti hona chahiye arthat unke bare mein nahin ke barabar hi sochna chahiye, nahin to lagatar aane jane ke chakkar mein wo bechara pagal hi ho jayega. lekin main sada se hi vicharashil raha hoon, mera mastishk kabhi khali nahin rahta; main bahut hi udaas prkriti ka sanvedanshil prani hoon aur mujhe laDkiyan pasand hain.
yadyapi ye dhandha qatii mere yogya nahin hai, phir bhi main sada se ek lauri Draivar hi banna chahta tha aur ek yatayat kampni ke jariye mujhe ye naukari mil hi gai. mera sahayak tha pailombi, kahna paDega, ekdam hi chugad tha. wo puri taur par ek lauri Draivar tha. ye baat nahin ki bahudha lauri Draivar akalmand nahin hote—kintu paulombi saubhagya se bajrmurkh bhi tha. lauri ke saath wo ekrup tha, jaise lauri ka hi ek ansh ho. umr uski tees ke uupar hi hogi, lekin lagta chhokDa sa hi tha. bhari chehra, bhare bhare gaal, chhote se mathe ke niche chhoti chhoti ankhen aur lakir sa munh jaise ghullak mein chhed. wo bahut kam bolta tha, hoon, haan ke atirikt kuch bhi nahin. haan, yadi koi khane pine ka vishay aaye tabhi uski buddhi fauran prakhar ho jati thi.
ek baar ki baat hai, hum log itri (itri) ke ek hotal mein ge jahan khane ke liye keval ubli hui sem aur bekan ki chhillak hi milin. mainne unhen chhua tak nahin. pailombi mahashay do plet uDa ge, phir kursi par pichhe tikte hue unhonne meri or baDi bhavabhri ankhon se kuch kshan ke liye nihara jaise koi atyant mahatvpurn baat kahne ja rahe hon. ant mein apne udar par ek baar haath pherne ke baad, unhonne ghoshna ki—’main abhi chaar pleten aur kha sakta tha. ’ isi mahan vichar ke srijan mein unhen itna samay lag gaya.
aise sathi ke saath, jo ek baragi kaath ka ullu hi ho, aap anuman laga sakte hain, mujhe italiya jaisi laDki se mil kar, pahli baar kitni khushi hui hogi. us vaqt hum log rom aur nepils ke beech hi yatra kar rahe the. kabhi inten, kabhi kachcha loha, kabhi lakDi, kabhi phal, kabhi kabhi bheDen, yahi hamare bhaar hote the. tairasina (terracina) ke paas ek din italiya ne hamein rok kar rom tak ke liye lift chahi. yoon to hamein adesh the ki hum kisi aise yatri ko lauri mein na baithayen, kintu use ek baar uupar se niche tak dekh lene ke baad hamne socha, is baar is adesh ka ullanghan karna hi hoga. hamne jyonhi hami bhari, tyon hi wo phudak kar andar aa gai. . . . hip hip hurr lauri Draivar log hamesha baDe achchhe hote hain.
italiya ek kayottejak laDki thi, uske liye aur koi shabd bana hi nahin. lambi patli kamar aur kulhon tak pahunchte kase jampar mein uske unnat uroj nishchay hi katile the. surahi si gardan, bhure balon se ghira sir aur baDi baDi hariyal ankhen. yoon to wo lambi thi, lekin us anupat mein uski tangen chhoti theen aur utni sidhi bhi nahin theen, chalte samay lagta tha uske ghutne jhuke jhuke se hon. dekha jaye to wo sundar nahin thi, lekin usmen saundarya se bhi kuch adhik tha aur mujhe is akarshan ka prmaan pahli yatra ke dauran hi mil gaya. wo aise ki hum abhi sistarna tak hi pahunche the; pailombi gaDi chala raha tha ki italiya ne apna haath achanak mere haath mein de diya aur use zor se bhincha aur phir beletri aane tak nahin chhoDa, jahan se mainne pailombi se sthaan badla.
garmi ke din the, chaar baje dopahar greeshm apne yauvan par tha. hamare haath pasine se bheeg kar phisle ja rahe the; kintu jab wo apni un khanabadosh hariyal ankhon se komaltapurvak mujhe nihar leti to mujhe lagta ki mera jivan jo ab tak mahz koltar ki tarah anant patti jaisa tha, ek baragi muskura utha hai. mujhe laga, jiski mujhe chahna thi wo mujhe mil gai—ek laDki. sistarna aur veletri ke beech mein pailombi gaDi ke pahiyon ko dekhne ke liye utra aur mainne sthiti ka pura laabh uthate hue uska ek chumban liya. veletri pahunchne par mainne prasannatapurvak pailombi se apni jagah badli. us din ke liye wo hathon ka milna aur ek chumban paryapt tha. uske baad saptah mein kabhi ek ya kabhi kabhi do baar bhi italiya hamare saath rom se teresina aati jati rahi. wo subah sabere ek sutkes ya phir koi banDal liye, dival ke paas khaDi hamari prtiksha karti. yadi pailombi gaDi chala raha hota to wo mera haath sare raste yani tairesina tak thame rahti. hamare nepils se lautne par wo tairesina par hamara intzaar karti; wo andar aati thi aur prarambh ho jata phir ek baar, vahi hathon ka milan sparsh saath hi usak razi na hone par bhi, pailombi ki ankh bacha kar wo chori chori chumban. kahne ka tatparya ye hai ki main puri tarah uske prem mein Doob chuka tha. karan ye bhi tha ki arse se mainne kisi laDki ko chuma nahin tha aur in sab baton mein mera abhyas nahin raha tha. is sima tak ki agar wo meri or ek khaas andaz se dekh bhar le to main is kadar abhibhut ho uthta tha ki ek bachche ki tarah meri ankhen DabDaba aati theen. ve bhale hi komaltajnit ashru the, kintu mujhe wo ek aisi kayarta lagti, jo ek sabal purush ko shobha nahin deti aur main ji jaan se use rokne ki asaphal cheshta karta. jab main lauri chalata, tab hum phusphusa kar dhime dhime svar mein baten karte jate aur pailombi ke sone ka pura laabh uthate. mujhe yaad nahin ki hum kya baten karte the; shayad vahi, keval premiyon ki betuki baten aur uulajlul qisse mazak hi honge. itna mujhe yaad hai ki samay bahut jaldi beet jata tha. wo koltar ki patti jo tairesina se anant vistrit ajgar ka roop malum hoti thi, wo jaise ab kisi jadu se ghulti jati thi. main lauri ki gati 15 se 20 meel prati ghanta kar deta. yahan tak main bailgaDiyon tak ko aage nikal jane deta, kintu hum yatra ke ant par aa hi pahunchte aur italiya chali jati. raat mein mujhe aur bhi dilchaspi rahti. lauri svayan hi gati pakaD leti aur main ek haath se chakka thame, ek haath italiya ki kamar mein Dale rakhta. door andhere mein, anya karon ki haiDlaits jalti aur bujhti aur mera man karta ki unke uttar mein, apni lauri ki battiyon se kuch aise prakashaman shabd likh jaun jinse unhen bhi meri prasannata ka anuman lag sake; kuch isi prakar ke shabd, jaise—‘main italiya se muhabbat karta hoon aur italiya mujhse bahut pyaar karti hai. ’
jahan tak pailombi ka parashn hai, ya to use zara sa bhaan tak nahin tha ya wo anjan ban raha tha. dekha jaye to, ek baar bhi usne italiya ke itni baar aane jane ka virodh nahin kiya. jab wo andar aati to wo ek lambi si namaste ki jagah ek chhoti si ‘hoon’ kahta aur zara sa khisak kar uske baithne ke liye jagah bana deta. wo hamesha hum donon ke beech mein baithti. mujhe apni ankhen saDak par rakhni paDti theen aur kabhi kisi gaDi ko (overtake) karna hota tha to pailombi ko batana paDta tha. main apne prem mein aisa kho gaya tha ki mainne lauri ke (windscreen) par shvetaakshron mein likhva diya tha—viva la italiya (viva la italia). tab bhi pailombi ne koi aitraj nahin kiya. wo is kadar moorkh tha ki use un shabdon mein chhipe do arthon ka bhi pata na chala. haan, jab dusre lauri Draivron ne hamse puchha ki hum kab se itne deshabhakt ho ge? tab pailombi ne khule munh meri or dekha; ek muskan uske chehre par dhire se phail gai, bola—’ye log samajh rahe hain itli aur vastav mein ye ek laDki ka naam hai. . . chalak kahin ke, par vichar zordar raha. ’
isi prakar kai mahine beet ge. tabhi ek din tairesina par italiya ko chhoDne ke baad jaise hi hum nepils pahunche, hamein adesh mila ki fauran lauri khali karke hamein vapas rom pahunchna hai. iska arth ye hua ki hamein raat nepils mein nahin katni thi. sidhe rom chal dena tha. main jhalla gaya. sabere hi mujhe italiya se milna tha, lekin aurDar to aurDar hi tha. mainne chakka sambhala; pailombi kharrate marne laga. nepils se itri tak saDak ghumavadar aur khatarnak moDon se bhari paDi hai aur tab tak sab kushalpurvak raha bhi kyonki raat mein thake mande lauri Draivron ko jab neend aane lagti hai to ye ghumav use jabran jagaye rakhte hain aur uske sabse achchhe sathi siddh hote hain. lekin itri ke baad santron ke baghichon ke beech se nikalte hue mujhe neend aane lagi aur neend ko bhagane ke liye main italiya ke bare mein sochne laga. dhire dhire mere vichar ghane hone lage; jaise jangal mein vrikshon ki shakhayen dhire dhire baDhkar aapas mein ulajh jati hain aur phir sab andhkar ho jata hai. mujhe yaad hai mainne svayan se hi kaha—“main kitna bhagyashali hoon ki main uske bare mein sochkar apni neend par qabu pa sakta hoon. wo na hoti to ab tak zarur so jata. aur vastav mein, tab tak main, so hi chuka tha. ye baten mainne svapn mein hi apne se kahi thi, aise svapn mein jo gahri neend mein hi aate hain. usi kshan mujhe laga lauri ne saDak chhoD di hai aur phir wo ek gaDDhe mein dhans gai hai. apne pichhe mujhe trelar ke ulatne ka dhakka aur khaDkhaD avaz sunai di. hum log dhimi gati se hi ja rahe the so hamein choten to nahin lagi par hum kathinai se bahar nikle. dekha, trelar ke charon pahiye hava mein the aur us par ladi saaf ki hui khalen Dher ki Dher bani gaDDhe mein paDi theen.
raat andheri thi, chaand nahin tha, kintu akash nakshatron se bharapura tha. bhagvan ki daya se hum log tairesina ke paas hi the. dahini or ek uunchi pahaDi thi aur bain or anguron ke bagichon ke paar tha kala, shaant samandar.
pailombi ke munh se itna bhar nikla—”hun! tumhare hathon ye to hona hi tha. ” aur phir wo sahayak jutane ke liye tairesina ki or paidal hi chal paDa. tairisina thoDi hi door tha, lekin pailombi hamesha khane ki babat hi sochta tha aur jab usne dekha ki hum log shahr se thoDi hi door par hain, uski kshudha aur bhi teevr ho gai. uska vichar tha, pahle kisi hotal mein chala jaye, kyonki brekDaun lauri subah hone se pahle nahin pahunch sakegi.
aadhi raat beech chuki thi, shahr mein bam girne ke karan sthaan sthaan par gaDDhe dikhai paD rahe the. hamein kisi hotal ki talash thi aur kafi door DhunDhane ke baad hamein ek hotal mila, wo bhi tabhi band ho raha tha. khair vahan se hum ek chhoti si gali se muD ge jo shayad samudr ki or ja nikalti thi. usi gali mein kuch duri tay karne par hamein ek roshni aur uske uupar laga sain borD dikhai diya. aasha ne hamare qadmon ko gati di. wo hotal hi tha, uski jhilmili aadhi band thi, jaise wo bhi abhi band hone vala ho. kaanch ke darvaze ke paar hum jhaank sakte the. “are dekho, ye bhi band nikla” kahte hue pailombi andar jhankne ke liye jhuka. mainne bhi uska anusran kiya. ek baDa sa kamra tha, jaisa aise shahron ki sarayon mein hote hain. saath hi kuch mezen aur ek or kauntar. sari kursiyan mezon ke uupar ulat kar rakhi hui theen aur vahan italiya thi, uske haath mein ek jhaDu thi aur apni kamar mein ek baDa sa jhaDan bandhe wo kamre mein jaldi jaldi jhaDu laga rahi thi. kamre ke ant mein (counter) ke pichhe ek kubDa vyakti khaDa tha. mainne pahle bhi kai kubDe dekhe hain, lekin itna adhik kubDa adami kabhi nahin dekha tha. uska chehra theek uski hatheliyon ke beech tak aata tha aur uski kubar uske sir se bhi uncha utha hua tha. wo italiya ki or apni kali, badsurat aur bhukhi ankhon se taak raha tha. wo baDi lachakti hui si jhaaD laga rahi thi. phir kubDe ne baghair apni jagah se hile, use na jane kya kaha ki wo uske paas gai, jhaaD usne kauntar ke sahare tika di. phir uske gale mein donon haath Daal, italiya ne use baDe pyaar se ek deergh chumban diya. iske baad usne punah apni jhaaD uthai aur nachti hui sare kamre mein chakkar lagane lagi. kubDa apne kauntar se utarkar kamre ke beech mein aa khaDa hua. hamne dekha, wo avashya jahazi raha hoga, kyonki usne machhuaron ki tarah nile kapDe ki bani hui niche se muDi hui pent aur khule gale ki qamiz pahan rakhi thi. saath mein sainDilen. wo ek hi vichar man mein liye, vahan se shighrata se pichhe hat ge. kubDe ne kaanch ka darvaza khola aur andar se jhilmili band kar di.
“yah bhi kabhi socha tha kisi ne?. . . mainne apne krodh ko pite hue kaha aur pailombi ne uttar diya, ‘haan’ uske svar mein aisi katuta thi ki mujhe ashcharya hua. hum log vapas gairej mein ge aur sari raat lauri ko phir se saDak par lane aur us par wo saaph ki hui khalen ladne mein beet gai. lekin suryoday ke samay jab hum rom ki disha mein ja rahe the, pailaubi, kadachit pahli baar khud ba khud baten karne laga—“tumne dekha”, wo bola, “us sali ne mere saath kitna bura kiya?”
“kya matlab?” mainne baDe achraj se puchha aur wo apni dhimi, kamzor avaz mein kahta gaya—“mujhse itne vade karne ke baad, aate jate, sare raste mera haath thame rahne ke baad aur jabki main usse kah chuka tha, main usse vivah karna chahta hoon aur ek prakar se hum donon ek dusre ko vachan de chuke the—aur tumne dekha? us kubDe ke saath. ”
uski baten sunkar meri aadhi saans uupar aur aadhi saans niche rah gai. main khamosh raha. pailombi kahta raha—”mainne use itne achchhe achchhe uphaar diye the—munge ka haar, ek reshmi rumal, chamDe ki jutiyan. . . main tumse sach kahta hoon, mujhe usse behad pyaar tha aur yon bhi wo sab prakar se mere hi yogya laDki thi. . . ant mein, aisi kritaghn, aisi hridayhin, aisi haramzadi nikli. . . .
aur ugte suraj ke dhundhale parkash mein jaise jaise hum rom ke nikat aate ge wo asphut svar mein bolta raha, jaise svayan se hi kahe ja raha ho. aur main soche bina nahin rah saka ki italiya ne kaisa hum donon ko ullu banaya, keval apna rel ka kiraya bachane ke liye. pailombi ki bakvas se mujhe khijlahat hone lagi thi, kyonki jo kuch wo kah raha tha, theek vahi sab main bhi kahna chahta tha. dusre, wo, jo kabhi apna munh bhi nahin kholta tha itni baten karta aur bhi adhik bevaquf, ahmak lag raha tha. yahan tak ki main bahashiyana andaz mein chilla paDa—”bhagvan ke liye us chuDail ke bare mein baten karna band karo. mujhe neend aa rahi hai. ” aur wo bechara bola—“tumhen pata hai, kuch baten aisi chot pahuncha jati hain ki. . . ” aur phir rom pahunchne tak wo chup hi raha.
uske baad kai mahine tak wo sab samay bahut dukhi sa rahta aur main, mere liye saDak phir ek baar vahi saDak ban gai. anadi, anant tak koltar ki nirjiv jise din mein do baar lilna aur ugalna paDta tha aur jab italiya ne nepils ke raste mein, lambe saDak, ek sharab ki dukan khol li aur uska naam “lauri Draivar vishram grih” rakh diya, tab mujhe apni naukari se tyagpatr dena hi paDa.
wo ek aisa vishram grih tha, jiske liye kisi ko milon jana bhi bhala lagega lekin hum kabhi vahan nahin ge. kintu phir bhi italiya ka kauntar ke pichhe khaDe rahna, kubDe ka use biyar ki botlen aur gilas pakDate jana, use niharte rahna, mere liye baDa kashtakar hota aur mujhe wo naukari chhoDni hi paDi. vaise wo lauri ziske vinD skreen par ‘vaiva la italiya’ likha hua hai aur jiske chakke ke pichhe pailombi baitha rahta hai. ab bhi usi saDak par dauD rahi hai.
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 124)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।