Font by Mehr Nastaliq Web

अपना जहान

apna jahan

अभिमन्यु अनत

अभिमन्यु अनत

अपना जहान

अभिमन्यु अनत

और अधिकअभिमन्यु अनत

    घुड़दौड़ के मैदान के सामने से निकलने वाली सड़क की शुरुआत की वह हरे रंग की इमारत कभी इलाक़े का सबसे भव्य घर था। इधर कुछ वर्षों से सीमेंट की इमारतें खड़ी हो जाने पर अब उस घर की वह भव्यता जाती रही थी। उसकी पहचान अभी भी बनी हुई थी। वक़्त के साथ उदास पड़कर फाटक पर उसका नेमप्लेट आज भी अपनी पहचान इन दो शब्दों में लिए हुए था, “अपना जहान”। अपने परिवार को भी दाऊद ने हमेशा अपना जहान माना था। और आज भी इलाक़े के लोग उसे दोमंज़िला ही कह जाते थे। गाँव की अपनी ज़मीन और अपने घर को बेच कर दाऊद सुलेमान इसलिए शहर गया था, ताकि उसके दोनों लड़के गाँव के पिछड़े पड़े लड़कों से अपनी अलग पहचान बना सकें।

    शां-दे-मार्स के सामने की कोर्दरी गली में ज़मीन ख़रीदने से पहले जब उसने मरियम से कहा था कि बच्चों के हित के लिए अब उन लोगों को शहर में जा बसना चाहिए तो उसकी पत्नी तैयार नहीं हुई थी। बोली थी—

    —ना बाबा, हम शहर में नहीं ना रह सकब। हुवाँ के लोगन के ज़बान ही हमार समझ में ना आवेला।

    दाऊद सुलेमान को अपनी भोली-भाली बीवी को समझाने में तीन दिन लग गए थे। बाद में मरियम को अपनी खाविंद की यह बात जँच गई थी कि वहाँ के लोगों को भी क्रिओली नहीं आती थी। वे सभी गाँवों से वहाँ जा बसे हैं।

    उसने कहा—

    —मरियम! उन लोगों को क्रिओली बोलते सुन तुम्हें भी वह ज़ुबान जाएगी।

    दाऊद के दोनों बेटे को भी ढंग से क्रिओली नहीं आती थी। शहर बसने पर शुरू-शुरू में जमाल और रोशन की क्रिओली पर लोग हँसते रह जाते थे। जमाल जोकि उन दिनों आठ साल का था और रोशन से दो साल बड़ा था, अपनी माँ और अपने छोटे भाई से पहले शहर की भाषा बड़ी खूबी के साथ बोलने लगा था। उसकी माँ तो आज भी कोर्दर गली को कुदूरे और पोर लूई को पुलवी बोलती थी। उसके वाक्यों में भोजपुरी शब्दों की भरमार बनी रहती थी।

    अपनी बड़ी पतोहू से जब भी वह भोजपुरी लहजे में क्रिओली में बात करती तो छोटी बहू सलमा खीझ उठती। कभी कह जाती, मेरी समझ में नहीं आती तुम्हारी गँवार बोली। और कभी अपने पति पर झुँझला उठती—मैं जब तुम्हारी माँ से बात करूँ तो तुम वहाँ मौजूद रहा करो।

    मरियम आख़िरी दम तक सही ढंग से क्रिओली बोलना नहीं सीख पाई, लेकिन उसकी बड़ी पतोहू हमीदा अपनी सास से भोजपुरी सीख कर रही। उस अंतिम घड़ी में अपनी सास के हाथों को अपने हाथों में लिए बोली—नैं अम्मी! हम लोग के छोड़ के नैं जा।

    अपनी बीवी की मौत के बाद दाऊद सुलेमान की दुनिया अंधकार में डूबती चली गई। दोनों पुत्र वधुओं में सिर्फ़ हमीदा थी, जो उसका ख़याल रखती थी।

    सुलेमान का संसार अँधेरे में डूबता ही गया।

    सात शयनकक्षों वाले घर में जब उससे अपना सोने वाला कमरा भी ले लिया गया तो वह चुप रहा। बड़े बेटे ने अपने छोटे भाई को ऐसा करने से रोका तो सही। पर चूँकि उसका छोटा भाई अपनी बीवी की बदौलत अब जमाल से भी अधिक हैसियत वाला बन गया था, इसलिए जमाल उससे अनुरोध तो कर सकता था, पर आदेश नहीं दे सकता था।

    घर का सबसे छोटा कमरा पाकर उसमें रह कर सुलेमान चुप रहा। बड़े बेटे से भी यह नहीं कहा कि उस कमरे में कभी हफ़्ते भर झाड़ू नहीं लगती। बिस्तर की चादर भी कभी लंबे समय तक बदली नहीं जाती।

    आज उस पूरे घर की खिड़कियों के पर्दे बदले जा रहे थे।

    कोई चार साल बाद आज वह दोमंज़िला नए रंगों से रंगा जा रहा था। जिन सात नाती-नातिनों ने इन चार सालों में अपने दादा की तो कोई झलक पाई और ना ही उनके बारे में कभी कुछ पूछा, आज वे भी घर को सजाने में लगे हुए थे। अगर किसी को कभी दाऊद सुलेमान की याद आई थी तो वह हमीदा थी। अपने खाविंद से ज़िद करके दो बार यतीमखाना पहुँचकर रही थी वह।

    चार साल बाद। आज “अपना जहान” को सुलेमान के ज़िंदा होने का एहसास हुआ था।

    हर कोई बोल रहा था।

    छोटे-बड़े सभी दौड़-धूप में शामिल थे।

    कोई हिदायत दे रहा था—यह पुरानी कुर्सी यहाँ से हटा दो। कोई अपने हिस्से का काम पूरा करके कह रहा था—गुलदस्ता ले आया मैं।

    फूलों की ख़ुशबू। रसोई से आती बिरयानी की जाफ़रानी महक।

    रोशन कभी अपने बड़े भाई को आदेश दे रहा था, कभी अपनी पत्नी को तो कभी अपने बच्चों को इस घर में इतनी ज़्यादा सक्रियता तो दोनों भाइयों की शादियों के दौरान थी और ना ही ईद के किसी मौक़े पर।

    वह सिर्फ़ हमीदा थी, जो अपनी सबसे बड़ी बेटी सुरैया के साथ बरामदे में बैठी उस अजीबोग़रीब आवाजाही को देख रही थी। कुछ हद तक उसका अपना पति भी ठीक उसी की तरह आपाधापी में सबसे कम उन्माद लिए हुए था। इस बात की तो उसे ख़ुशी थी कि इतने लम्बे अंतराल के बाद उसका बाप इस घर को लौट रहा था। अगर उसका यह लौटना उसकी अपनी मर्जी से होता या ख़ुद जमाल की दरख़्वास्त पर उसकी बात मानकर ऐसा हुआ होता तो आज जमाल भी घर के बाक़ी लोगों की तरह उमंग लिए होता।

    पर क्या यह जो कुछ देख रहा था, वह सचमुच की ख़ुशी थी? अपनी इस बात का जवाब कल रात ही में जमाल को अपनी बीवी से मिल गया था। वह बोली थी—

    यह अब्बा जान के लौटने की ख़ुशी नहीं है।

    हमीदा ने सुबह अपनी छोटी गोतनी खतीजा को अपने ससुर के मुद्दत से बंद कमरे की सफ़ाई करते देख उससे पूछा था—

    —फिर इसी कमरे में रखना है ससुर जी को क्या?

    —अरे नहीं, हम उन्हें उनका वह पहला कमरा दे रहे हैं।

    —पर वह तो सलीम का कमरा...

    —सलीम को पाकिस्तान से लौटने में अभी दो साल बाक़ी हैं।

    —पर अगले महीने छुट्टी में तो रहा है?

    —वह जाएगा तो देखा जाएगा। मुझे तो लगता है कि ससुर जी अपने इसी कमरे में रहने की माँग करेंगे।

    हमीदा मुस्कुरा कर वहाँ से टल गई थी।

    सुलेमान के इस कमरे में रहने के दिनों में हमीदा कभी-कभार कमरे की सफ़ाई कर जाती थी। एक बार कमरे की सफ़ाई के दौरान ही उसने अपने ससुर से सवाल किया था।

    —अब्बा! अब आपको ऐसा नहीं लगता कि अपनी सारी जाएदाद दोनों बेटों के नाम कर जाने में आपने जल्दबाज़ी कर दी?

    कुछ ठहर कर सुलेमान ने इस प्रश्न का उत्तर दिया था।

    —तुम्हारी सास की इच्छा पूरी की मैंने।

    —यह तो मैं जानती हूँ, पर क्या ऐसा करके आप पछता नहीं रहे?

    —वैसे भी हज के लिए निकलने से पहले मुझे अपने को इस बोझ से रिहा तो करना ही था।

    यह कह जाने के बाद सुलेमान को यह एहसास हुआ कि उसने अपने को जाएदाद के बोझ से रिहा करके अपने को बेटों के सिर बोझ बना दिया था, पर हमीदा से बोला नहीं। बोला ज़रूर पर कुछ और ही।

    —कम से कम इस बात का तो संतोष है मुझे कि जाएदाद देते समय की मेरी शर्तों को मेरे दोनों लड़के आज भी रखे हुए हैं। ये दोनों, बच्चों के साथ इसी छत के नीचे मिल-मिलाकर जीते रहें, बस मेरी तो खुदा से यही दुआ रहती है।

    उस रात हमीदा अपने पति से भी सवाल करने से नहीं चूकी थी।

    —तुम बड़े भाई होकर छोटे भाई के सामने चुप्पी साधे रहते हो और वह मनमानी करता रहता है। आख़िर ऐसा कब तक होता रहेगा?

    जमाल से एक बार फिर अपनी बीवी के सवाल का जवाब नहीं बन पड़ा था।

    उसी चुप्पी से उकता कर हमीदा ने आगे कहा था—

    —बड़ी दुकान की ज़िम्मेवारी तुमने उसे सौंप दी। और वह है कि तुम्हारी छोटी दुकान से कम आय तुम्हारे सामने लाता है। कपड़ों की फैक्टरी में भी उसी की धाक है। उसके दो बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं। तुम्हारे दोनों लड़के सरकारी दफ़्तरों की ख़ाक छान रहे हैं। तुमने हमारी सुरैया को सीनियर कैम्ब्रिज से आगे पढ़ने ही नहीं दिया जबकि उसकी आयशा फ्रांस में डॉक्टरी पढ़ रही है।

    —क्या उसके बच्चे हमारे बच्चे नहीं?

    —बस, इसके आगे तुम्हें कुछ आता ही नहीं। तुम अपने छोटे भाई को बहुत अधिक छूट दिए बैठे हो। अब्बाजान भी ऐसा ही कहते हैं।

    कोई दो महीने बाद दाऊद सुलेमान ने पहले अपने छोटे लड़के को डाँटते हुए कहा था—

    —दो कारों के होते तीसरी कार ख़रीदने की क्या ज़रूरत थी? तुम्हारी फिज़ूलखर्ची बढ़ती ही जा रही है। फ़ैक्टरी के मैनेजर का भी यही कहना है कि वहाँ भी अनावश्यक नई मशीन लगाकर तुमने फ़ैक्टरी की आर्थिक स्थिति बिगाड़ दी है।

    उसी दिन जमाल को भी अपने बाप से खरी-खोटी सुननी पड़ी थी।

    —हालत को इससे अधिक नाज़ुक मत होने दो। तुम अब भी सख्ती के साथ पेश नहीं आओगे तो पूरा व्यवसाय डूब जाएगा। और फिर रोशन को फ़ैक्टरी में कुछ ज़्यादा ही अधिकार हासिल हो गया है। मुझे यह भी बताया गया है कि बहुत ही सफ़ाई के साथ वह घोटाला करने में लगा हुआ है।

    और कुछ ही दिन बाद रोशन की बीवी खतीजा ने अपना रंग ज़माना शुरू किया था। अपने दो बच्चों के बाद उसने अपनी बहन को भी अपनी ओर से पढ़ने के लिए फ्रांस भेज दिया। फिर तो उस दिन को ज़्यादा देर नहीं हुई जब सुलेमान को कहना ही पड़ा—

    —देखो रोशन! मैंने बहुत मेहनत और क़ुरबानी के बाद यह सारा कुछ हासिल किया था। इन्हें इस तरह लुटाने का हक तुम्हें नहीं मिलता।

    और एक दिन बिन नींद वाली रात में उसने अपने आपसे पूछा। क्या मरियम का यह पूछा जाना सही था कि आख़िर इतना बड़ा घर बनाना ज़रूरी था? वह रोज़ वाला चूहा उसकी चारपाई पर चढ़ आया। रोज़ वाला चक्कर काट कर लौट गया। गोया मरियम के सवाल का दाऊद को जवाब मिल गया।

    उसने अपने आप से कहा—ज़रूरी था वरना पड़ोस की सफ़ेद बिल्ली अपने बच्चों को हमारी सीढ़ियों के नीचे जन्म कैसे देती? उसके बच्चे यहाँ पल रहे चूहों से चोर-पुलिस का खेल कैसे खेलते? कबूतर या गौरैया अपने घोंसले कहाँ बनाते? हर जुम्मे को पड़ोस के कुत्ते बिरयानी की हड्डियाँ खाने किसके द्वार जाते?

    फिर तो वह दिन भी आकर ही रहा, जब दाऊद को उस यतीमखाने के अपने दोस्त, वहाँ के निदेशक को फोन करना ही पड़ा।

    —रोहित! मेरा नाम अपने यतीमों की फहरिश्त में दर्ज़ कर लो। कल मैं पहुँच रहा हूँ।

    जब दोनों दोस्त, “विश्राम” के अहाते में मिले थे तो रोहित ने अपने दोस्त से गलबाँही के बाद कहा था—

    —जिसकी सबसे अधिक रहमत रही, इस जगह पर आज...।

    दाऊद ने अपने दोस्त को इससे आगे कहने नहीं दिया था। ख़ुद बोल गया था।

    —मैं तो बार-बार कहता था यार कि कितना सुकून है यहाँ। बस सुकून के लिए आया हूँ। “अपना जहान” छोड़कर तुम्हारे जहान में।

    लेकिन इस सचमुच के शांत वातावरण में भी दाऊद सुलेमान को बहुत दिनों तक वह शांति नहीं मिल पाई, जिसकी तलाश में वह यहाँ पहुँचा था। छ: महीने भी नहीं गुज़रे थे कि जमाल और हमीदा अपने मायूस चेहरों के साथ उस तक पहुँचे। बोलने की हिम्मत जमाल में नहीं हो पाई थी, इसलिए हमीदा को वह बात बतानी पड़ी थी।

    —अब्बा! मरियम टेक्सटाइल से तीन सौ मज़दूरों को नौकरी से हटाना पड़ा। चेहरे पर बिना कोई भाव लाये दाऊद ने कहा था—

    —यह नौबत तो आनी ही थी।

    एक लंबी ख़ामोशी के बाद उसने कहा था—

    —मेरी मरियम को इस बात का फन था कि उसकी फ़ैक्टरी सात सौ ग़रीबों के परिवारों को जीवन दिए हुई थी। चलो अच्छा ही हुआ कि आज यह सुनने को वह हमारे बीच नहीं कि उसकी फ़ैक्टरी ने तीन सौ परिवारों से रोज़ी छीन ली।

    साल बीत कर रहा। ईद का त्योहार दोबारा गया। जमाल हमीदा के साथ फिर “विश्राम” पहुँचा। हमीदा ही अपने ससुर को घर लौटने के लिए मनाती रही।

    आख़िर में जमाल बोल सका था—

    —वह दिन भी दूर नहीं अब्बा कि फ़ैक्टरी बंद हो जाए।

    —यह नौबत आने से पहले मेरी साँसों का चलना बंद हो जाना चाहिए।

    हमीदा गिड़गिड़ा उठी थी—

    —अब आपको घर लौट चलना ही होगा अब्बा।

    एक हल्की मुस्कान के बाद दाऊद ने मन ही मन कहा—घर? कैसा घर? फिर वह सोच उठा अपने यतीमखाने के बारे में। अंतर था उसकी अपनी इमारत और इस इमारत में। उसकी तो घर कहे जाने वाली अपनी इमारत में यहाँ से अधिक दीवारें थीं। वहाँ दो भाई दो दीवारों के इधर-उधर रहते हैं, जबकि यहाँ अलग-अलग मज़हबों के भाई चार दीवारों के भीतर भी एकसाथ रहते हैं। किसी का अपना होकर भी यह सभी मज़दूरों का अपना जहान था।

    —नहीं हमीदा, वह आलीशान घर बिक गया होता तो मुझे इतना दुख नहीं होता, जितना फ़ैक्टरी की हालत जानकर हो रहा है।

    —अब मुझे लगता है कि सबसे बड़ा क़सूर मेरा ही है।

    —तुम्हारा क़सूर बस इतना ही है जमाल कि तुमने अपने छोटे भाई पर अपने से अधिक यक़ीन किया। ख़ैर! तुम चाहो तो अभी से मरियम टैक्सटाइल को डूबने से रोका जा सकता है।

    –दोनों दुकानों में से एक को बेचकर शायद...।

    —नहीं बेटे, विरासत को बेचने की बात मत सोचो। गाँव की विरासत को बेचकर शहर नहीं आता तो आज यह सारा कुछ झेलने को नहीं मिलता। तुम दोनों को शहरी ज़िंदगी और गाँव के लोगों से बेहतर तालीम देने का ख़्वाब देखा था।

    जाने कितने महीने बाद सुलेमान को अपने बड़े बेटे का फ़ोन मिला।

    —अब्बा! बैंक एक भी रुपया फ़ैक्टरी को देने के लिए तैयार नहीं।

    दो महीने बाद फिर से फ़ोन आया था।

    —अब्बा! अब एक ही उपाय बाक़ी है। बैंक का कर्ज़ भरने के लिए फ़ैक्टरी को बेचना ही पड़ेगा।

    —नहीं जमाल, मरियम टैक्सटाइल महज़ एक फ़ैक्टरी नहीं। वह तुम्हारी विरासत है, तुम्हारी माँ की रूह है उसमें।

    जमाल से फ़ोन पर बात कर चुकने के बाद सुलेमान ने ब्रिटिश अमेरिकन बीमा कंपनी को फ़ोन किया था। तीन दिन पहले भी वह वहाँ के मैनेजर से फ़ोन पर बात कर चुका था। पता चला था कि मैनेजर मीटिंग में व्यस्त था। सुलेमान ने सहायक मैनेजर से बात की थी। संतोषजनक उत्तर पाकर वह उसी क्षण “विश्राम” मुख्य दफ़्तर को बढ़ गया था। अपने दोस्त के साथ पीते हुए उसने उसके सामने अपनी भीतर की बन आई उम्मीद को रखते हुए कहा था।

    —दोस्त! सोचा था बिन ख़ास मेहनत की अपनी आख़िरी कमाई यतीमखाने को दे जाऊँगा, पर...।

    —पहले ही तुम इस जगह को बहुत दे चुके हो। मैं चाहता हूँ कि तुम अपने बच्चों को एक मौक़ा और दो...।

    —नहीं रोहित, मैं अपने बच्चों को मौक़ा नहीं दे रहा। मैं तो मरियम की याद को मुरझाने से बचाना चाहता हूँ। यहाँ के दो सौ व्यक्ति तो यूँ भी भूखे नहीं मरेंगे, जबकि मरियम टैक्सटाइल के छ: सौ कामगारों के बाल-बच्चों के मुँह के निवाले छिन जाने का सवाल है। वैसे भी मरियम टैक्सटाइल मेरे लिए एक मस्जिद के बराबर है।

    —मैं जानता हूँ सुलेमान, मेरे सामने ही तो तुम्हारे और मरियम के बीच यह बहस छिड़ी थी। तुम अपने गाँव की बची हुई ज़मीन के टुकड़े पर मस्जिद बनाना चाह रहे थे और मरियम तुमसे फ़ैक्टरी की माँग करती रही थी।

    —और ज़िंदगी में पहली बार मैं उसकी बात को अपनी बात से अधिक महत्त्व दे बैठा था।

    —तब तुम ख़ुश थे, आज...।

    —आज भी मैं ख़ुश हूँ उस वक़्त मैं मरियम की जीत पर ख़ुश था, आज अपनी जीत पर। मैंने सपने में मरियम से वायदा किया है कि उसकी जिस यादगार को उसके बच्चे धूमिल करके नेस्तनाबूद करने जा रहे थे, मैं उसे बचा कर रहूँगा।

    —मुझे तुम्हारे और मरियम के बीच की एक बात और याद गई। जब तुम अपना बीमा करवा रहे थे तो सारे जीवन काल के लाभ को ठुकरा कर तुमने उसे अपनी मौत के बाद मरियम और बच्चों के हित में लिखवाना चाहा था।

    —हाँ दोस्त! और मरियम ने मुझे मजबूर किया था कि मैं उसे पच्चीस साल से अधिक की पॉलिसी बनाऊँ और जीते जी मैं उस लाभ को हासिल कर लूँ। उसका यह भी हठ था कि मेरे बाद ही कोई दूसरा उसका हकदार बने, मेरे होते नहीं।

    —तो यह दूसरी बार था कि तुमने अपनी ज़िद को छोड़कर अपनी बीवी की बात मानी थी।

    —मेरी वे दो हारें जो वक़्त के साथ मेरी जीत बनीं।

    अपने बच्चों से चार साल दूर रहकर आज दाऊद सुलेमान बस द्वारा कोर्दरी गली के अपने घर पहुँचा। उसके दोनों लड़कों ने रात में उससे फ़ोन पर बातें की थीं। दोनों उसे अपनी-अपनी कार में लेने यतीमखाने पहुँचना चाहते थे। दाऊद ने दोनों से एक ही बात कही थी।

    —वहाँ से यहाँ बस के जरिए आया था। यहाँ से वहाँ भी बस के जरिए पहुँचूँगा। छोटे बेटे ने साहस बटोर कर यह भी पूछ लिया था।

    —हो पाया पूरी रक़म का बंदोबस्त?

    —दाऊद ने इस सवाल का कोई जवाब नहीं दिया था। सुबह उसकी बड़ी बहू हमीदा ने उसे फ़ोन करके उससे माँग की थी कि वह बस से आएँ।

    —अब्बा! जमाल आपको लेने जाएगा।

    —उस घर की तुम ही हो जो सबसे ज़्यादा याद आती हो बेटी, फिर भी मैं अपनी जिद पर अड़ा रहूँगा।

    फ़ोन रख कर दाऊद सुलेमान ने अपने आपसे कहा था—अपनी ज़िद छोड़कर हार में भी जीत का एहसास तो एक ही व्यक्ति से पा सका हूँ। वह भी ज़िंदगी में सिर्फ़ दो ही बार। अब इस जहान में कोई है ही नहीं जिसके आगे मैं अपनी ज़िद छोड़कर हार मान लूँ।

    “विश्राम” में दाऊद को एक ख़ास कमरा मिला हुआ था, पर वह उसमें बिरले ही रहता। इतनी लंबी अवधि के बाद अपने खानदान के लोगों से मिलने से पहले उसने कुछ समय एकांत में बिताना चाहा। उस ख़ास कमरे में पहुँच कर वह चारपाई पर लेट गया। बंद रहने के कारण कमरा गर्म था। उस ठंडे में वह गर्मी उसे अच्छी लगी। सामने की दीवार पर लगे आईने में वह अपने चेहरे को देखता रहा। हज से लौटने के बाद जब उसने दाढ़ी बनानी छोड़नी शुरू की थी तो मरियम को उसके चेहरे पर दाढ़ी अच्छी नहीं लगी थी। बोली थी—

    —बिन दाढ़ी के तुम अधिक अच्छे लगते थे।

    दाऊद झट बोल उठा था—

    —कहो तो निकाल दूँ?

    इस पर मरियम बोली थी—

    —अब तुम हाजी हो, दाढ़ी ज़रूरी है। लेकिन तुम्हारी दाढ़ी के बावजूद मैं तुम्हें उसी पहले वाले रूप में देखती हूँ, जब लोग तुम्हें राजकपूर कहा करते। दाऊद ने अपने हाथ को दाढ़ी पर रखकर सिर्फ़ अपने को मूँछों के साथ देखा, पर अब वह बात नहीं थी जो सात बार “आवारा” देखने के दिनों में थी।

    “अपना जहान” के सभी लोग बेताबी के साथ उस व्यक्ति की राह देख रहे थे। बहुत दिनों बाद आज उसके इस घर के मालिक होने का एहसास सभी को हुआ। बहुत दिनों बाद कोई अपने बाप को इस आँगन में बैठाने की अधीरता लिए हुए था तो कोई ससुर को और कोई अपने दादा को।

    उसने कहा था कि वह शाम को पाँच बजे तक पहुँच जाएगा।

    जमाल ने अपने हाथ की घड़ी की ओर देखा। उसे लगा कि उसकी घड़ी सही समय नहीं बता रही थी। उसने रोशन से पूछा—

    —वक़्त क्या हुआ है?

    —साढ़े पाँच।

    जमाल यह तय नहीं कर पाया कि दोनों भाइयों में किसकी घड़ी पंद्रह मिनट आगे और किसकी पीछे थी।

    बिरयानी के देग को आँगन के चूल्हे से उतार कर रसोई के भीतर रख आने के बाद हमीदा खतीजा के साथ फिर से आँगन में गई। पहली बार जब हमीदा ने इलैक्ट्रिक कुकर पर बिरयानी पकाई थी तो उसका ससुर खाते हुए बोल गया था—

    —लकड़ी की आग में पकने वाली बिरयानी कुछ और ही होती है।

    फिर तो मरियम के कहने पर उसके जीते जी कभी भी बिरयानी कुकर पर नहीं पकी। लेकिन उसके बाद रसोई के भीतर की सहूलियत को छोड़ बाहर पकाने की ज़रूरत दोनों बहुओं ने कभी नहीं समझी। आज रोशन की हिदायत पर आँगन में बिरयानी पकी थी। अपने देवर और पति के बीच पहुँचकर हमीदा ने कहा—

    —अब्बा को तो अब तक जाना चाहिए था।

    उसका अब्बा अब भी बस स्टॉप पर खड़ा सोचे जा रहा था। क्या सचमुच वह “अपने जहान” में अपने जहान के बीच जा रहा था? “विश्राम” के फाटक तक उसे छोड़ते समय अभी चंद मिनट पहले रोहित ने उससे कहा था—

    —मैं एक बार फिर तुमसे यह कह रहा हूँ दोस्त कि चार मिलियन रुपए की इस भारी रक़म को तुम जुए पर रख रहे हो। मुझे अभी भी इस बात का यक़ीन नहीं कि इससे मरियम टैक्सटाइल फिर से ज़िंदा हो सकती है?

    अपने कोट की भीतरी जेब के भीतर बीमे का वह चैक दाऊद को इस्पाती वजन-सा लगा। उसने अपनी मरियम को याद करके उससे पूछा—

    —तुम क्या कहती हो मरियम?

    तभी शहर जाने वाली बस उसके सामने आकर रुक गई। रास्ते की उस दूसरी ओर वह दूसरी बस रुकी जो “विश्राम” की ओर जा रही थी। दोनों से सवारियाँ उतरीं और दोनों पर सवारियाँ चढ़ने आगे बढ़ीं। दाऊद सुलेमान के भी क़दम उठे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 414)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : अभिमन्यु अनत
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    Rekhta Gujarati Utsav I Vadodara - 5th Jan 25 I Mumbai - 11th Jan 25 I Bhavnagar - 19th Jan 25

    Register for free