गुसाईं का मन चिलम में भी नहीं लगा। मिहल की छाँह से उठकर वह फिर एक बार घट (पनचक्की) के अंदर आया। अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी अधिक गेहूँ शेष था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही उलटा-पलटा और चक्की के पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को झाड़कर एक ढेर बना दिया। बाहर आते-आते उसने फिर एक बार और खप्पर में झाँककर देखा, जैसे यह जानने के लिए कि इतनी देर में कितनी पिसाई हो चुकी है, परंतु अंदर की मिकदार में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यंत धीमी गति से ऊपर का पाट चल रहा था। घट का प्रवेश-द्वार बहुत कम ऊँचा था, ख़ूब नीचे तक झुककर वह बाहर निकला। सिर के बालों और बाँहों पर आटे की एक हल्की सफ़ेद पर्त बैठ गई थी।
खंभे का सहारा लेकर वह बुदबुदाया, “जा स्साला! सुबह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ। सूरज कहाँ का कहाँ चला गया है! कैसी अनहोनी बात!”
बात अनहोनी तो है ही। जेठ बीत रहा है। आकाश में कहीं बादलों को नामोनिशान भी नहीं। अन्य वर्षों में अब तक लोगों की धानरोपाई पूरी हो जाती थी, पर इस साल नदी-नाले सब सूखे पड़े हैं। खेतों की सिंचाई तो दरकिनार, बीज की क्यारियाँ सूखी जा रही हैं। छोटे नाले-गुलों के किनारे के घट महीनों से बंद हैं। कोसी के किनारे है गुसाईं का यह घट। पर इसकी भी चाल ऐसी कि लद्दू घोड़े की चाल को मात देती है।
चक्की के निचले खंड में ‘छच्छिर-छच्छिर’ की आवाज़ के साथ पानी को काटती हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाज़! अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज़्यादा शोर करती है। इसी मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात नहीं सुनाई देती और अब तो भले नदी पार कोई बोले, तो बात यहाँ सुनाई दे जाए!
छप...छप...छप...पुरानी फ़ौजी पैंट को घुटनों तक मोड़कर गुसाईं पानी की गूल के अंदर चलने लगा। कहीं कोई सुराख़-निकास हो, तो बंद कर दें। एक बूँद पानी भी बाहर न जाए। बूँद-बूँद की क़ीमत है इन दिनों। प्रायः आधा फर्लांग चलकर वह बाँध पर पहुँचा। नदी की पूरी चौड़ाई को घेरकर पानी का बहाव घट की गूल की ओर मोड़ दिया गया था। किनारे की मिट्टी-घास लेकर उसने बाँध में एक-दो स्थान पर निकास बंद किया और फिर गुल के किनारे-किनारे चलकर घट के पास आ गया।
अंदर जाकर उसने फिर पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को बुहारकर ढेरी में मिला दिया। खप्पर में अभी थोड़ा-बहुत गेहूँ शेष था। वह उठकर बाहर आया।
दूर रास्ते पर एक आदमी सिरे पर पिसान रखे उसकी ओर आ रहा था। गुसाईं ने उसकी सुविधा का ख्य़ाल कर वहीं से आवाज़ दे दी, “हैं हो! यहाँ लम्बर देर में आएगा। दो दिन का पिसान अभी जमा है। ऊपर उमेदसिंह के घट में देख लो।”
उस व्यक्ति ने मुड़ने से पहले एक बार और प्रयत्न किया। ऊँचे स्वर में पुकार कर बोला, “ज़रूरी है जी, पहले हमारा लम्बर नहीं लगा दोगे?”
गुसाईं होठों ही होठों में मुस्कराया, “स्साला कैसा चीख़ता है, जैसे घट की आवाज़ इतनी हो कि मैं सुन न सकूँ!” कुछ कम ऊँची आवाज़ में उसने हाथ हिलाकर उत्तर दे दिया, “यहाँ ज़रूरी का भी बाप रखा है, जी। तुम ऊपर चले जाओ।” वह आदमी लौट गया।
मिहल की छाँव में बैठकर गुसाईं ने लकड़ी के जलते कुन्दे को खोदकर चिलम सुलगाई और गुड़-गुड़ करता धुआँ उड़ाता रहा।
खस्सर-खस्सर चक्की का पाट चल रहा था।
किट-किट-किट-किट खप्पर से दाने गिराने वाली चिड़िया पाट पर टकरा रही थी।
छिच्छिर—छिच्छिर की आवाज़ के साथ मथानी पानी को काट रही थी। पत्थरों के बीच में टखने-टखने तक फैला पानी क्या आवाज़ करेगा। पानी के गर्भ से निकलकर छोटे-छोटे पत्थर भी अपना सिर उठाए आकाश को निहार रहे थे। दोपहरी ढलने पर भी इतनी तेज़ धूप! कहीं चिरैया भी नहीं बोलती। किसी प्राणी का प्रिय-अप्रिय स्वर नहीं।
सूखी नदी के किनारे बैठा गुसाईं सोचने लगा, क्यो उस व्यक्ति को लौटा दिया। लौट तो वह जाता ही घट के अंदर टच्च पड़े पिसान के थैलों को देखकर। दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता।
कभी-कभी गुसाईं को यह अकेलापन काटने लगता है। सूखी नदी के किनारे का यह अकेलापन नहीं, ज़िंदगी भर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही। जिसे अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं, पालतू कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं। क्या ठिकाना ऐसे मालिक का, जिसका घर-द्वार नहीं...बीवी—बच्चे नहीं, खाने—पीने का ठिकाना नहीं।
घुटनों तक उठी हुई पुरानी फ़ौजी पैट के मोड़ को गुसाईं ने खोला। गूल में चलते हुए वह हिस्सा थोड़ा भीग गया था। पर इस गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी। पैंट की सलवटों को ठीक करते-करते गुसाईं ने हुक्के की नली से मुँह हटाया। उसके होठों में बाएँ कोने पर हल्की-सी मुस्कान उभर आई। बीती बातों की याद...गुसाईं सोचने लगा, इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है।...नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी...बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवलदार साहब की पैट की बात उसे नहीं भूलती।
ऐसी ही फ़ौजी पैट पहनकर हवलदार धरमसिंह आया था...लॉण्ड्री की धुली, नोंकदार, क्रीजवाली पैंट। वैसी ही पैंट पहनने की महत्त्वाकांक्षा लेकर गुसाईं फ़ौज में गया था। पर फ़ौज से लौटा, तो पैंट के साथ-साथ ज़िंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया ।
पैंट के साथ और भी कितनी ही स्मृतियाँ मुखर है। उस बार की छुट्टियों की बात...
कौन महीना? हाँ, बैसाख ही था। सिर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर—फ़ौजी वर्दी पहने वह पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो चीड़-वन की आग की तरह ख़बर इधर-उधर फैल गई थी। बच्चे-बूढ़े, सभी उमसे मिलने आए थे। चाचा का गोठ एक़दम भर गया था, ठसाठस्स। बिस्तर की नई, एक़दम साफ़, जगमग, लाल-नीली धारियों वाली दरी आँगन में बिछानी पड़ी थी लोगों को बिठाने के लिए। ख़ूब याद है, आँगन का गोबर दरी में लग गया था। बच्चे-बूढे सभी आए थे। सिर्फ़ चना—गुड़ या हलद्वानी के तम्बाकू का लोभ नहीं था, कल के शर्मीले गुसाईं को इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था। पर गुसाईं की आँखें इस भीड़ में जिसे खोज रही थी, वह वहाँ नहीं थी।
नाले-पार के अपने गाँव से भैंस के कट्या को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी। पर गुसाईं उस दिन उससे मिल न सका। गाँव के छोकरे ही गुसाईं की जान को बवाल हो गए थे। बुड्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसाईं को देखकर सोबनियाँ का लड़का भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है।...दिन-रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, सिगरेट-बीड़ी या गपशप के लोभ में।
एक दिन बड़ी मुश्किल से मौक़ा मिला था उसे। लछमा को पात-पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से काँकड़ के शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था। गाँव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड़ के नीचे गुसाईं के घुटने पर सिर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी। पके, गदराए, गहरे लाल-लाल काफल! खेल-खेल में काफलों की छीना-झपटी करते गुसाईं ने लछमा की मुट्ठी भींच दी थी। टप-टप काफलों का गाढ़ा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था। लछमा ने कहा था, “इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बाँह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी।” वह खिलखिलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हँस दी थी।
पुरानी बात। क्या कहा था गुसाईं ने, याद नहीं पड़ता...तेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूँगा, मेरी सुवा!...या कुछ ऐसा ही।
पर लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई—पहाड़ी पार के रमुवाँ ने, जो तुरीनिसाण लेकर उसे ब्याहने आया था?
“जिसके आगे-पीछे भाई-बहन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोंक पर जान रखने वाले को छोकरी कैसे दे दें हम?” लछमा के बाप ने कहा था।
उसका मन जानने के लिए गुसाईं ने टेढ़े-तिरछे बात चलवाई थी।
उसी साल मंगसिर को एक ठंडी, उदास शाम को गुसाईं की यूनिट के सिपाही किसनसिंह ने क्वार्टर-मास्टर स्टोर के सामने खड़े-खड़े उससे कहा था, “हमारे गाँव के रामसिंह ने ज़िद की, तभी छुट्टियाँ बढ़ानी पड़ी। इस साल उसकी शादी थी। ख़ूब अच्छी औरत मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी ख़ूब है, एक़दम पटाखा! बड़ी हँसमुख है। तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गाँव के नज़दीक की है। लछमा—लछमा कुछ ऐसा ही नाम है।”
गुसाईं को याद नहीं पड़ता, कौन—सा बहाना बनाकर वह किसनसिंह के पास से चला आया था।...रम-डे था उस दिन। हमेशा आधा पैग लेने वाला गुसाईं उस दिन दो पैग रम लेकर अपनी चारपाई पर पड़ गया था।...हवलदार मेजर ने दूसरे दिन पेशी करवाई थी—मलेरिया प्रिकॉशन न करने के अपराध में!...सोचते-सोचते गुसाईं बुदबुदाया, “स्साला एडजुटेंट!”
गुसाईं सोचने लगा, उस साल छुट्टियों में घर से विदा होने से एक दिन पहले वह मौक़ा निकालकर लछमा से मिला था।
“गंगानाथज्यू की क़सम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी।” आँखों मे आँसू भरकर लछमा ने कहा था।
वर्षों से वह सोचता है, कभी लछमा से भेंट होगी तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित्त ज़रूर कर ले। देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज़ करने से क्या लाभ? जिस पर भी गंगनाथ का कोप हुआ, वह कभी फल-फूल नहीं पाया। पर लछमा से कब भेंट होगी, यह वह नहीं जानता। लड़कपन से संगी-साथी नौकरी-चाकरी के लिए मैंदानों में चले गए हैं। गाँव की ओर जाने का उसका मन नहीं होता। लछमा के बारे में किसी से पूछना उसे अच्छा नहीं लगता। जितने दिन नौकरी रही, वह पलटकर अपने गाँव नहीं आया। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफ़र लेने वालों की लिस्ट में नायक गुसाईं का नाम ऊपर आता रहा-लगातार पंद्रह साल तक।
पिछले बैसाख में ही वह गाँव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिज़र्व में आने पर। काले बालों को लेकर गया था, खिचड़ी बाल लेकर लौटा। लछमा का हठ उसे अकेला बना गया।
आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसाईं अपनी ज़िंदगी की किताब पढ़कर सुनाता। शब्द-अक्षर...कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने...।
पर नदी के किनारे की यह तपती रेत, पनचक्की की खटर-खेटर और मिहल की छाया में ठंडी चिलम को निष्प्रयोजन गुड़गुड़ाना गुसाईं! और चारों ओर अन्य कोई नहीं! एक़दम निर्जन, निस्तब्ध, सुनसान...।
एकाएक गुसाईं का ध्यान टूटा...
सामने पहाड़ी के बीच की पगडंडी के सिर पर बोझ लिए एक नार-आकृति उसी ओर चली आ रही थी। गुसाईं ने सोचा, यही से आवाज़ देकर उसे लौटा दे। कोसी के चिकने, काई-लगे पत्थरों पर कठिनाई से चलकर उसे वहाँ तक आकर केवल निराश लौट जाने को क्यों वह बाध्य करे! दूर से चिल्ला-चिल्लाकर पिसान स्वीकार करवाने की लोगों की आदत के कारण वह तंग हो चुका था। इस कारण आवाज़ देने को उसका मन नहीं हुआ है वह आकृति अब तक पगडंडी छोड़कर नदी के मार्ग में आ पहुँची थी।
चक्की की बदलती आवाज़ को पहचानकर गुसाईं घट के अंदर चला गया। खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था। खप्पर में एक कम अन्न वाले थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की चिड़ियों को उलटा कर दिया। किट-किट का स्वर बंद हो गया। वह जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने लगा। घट के अंदर मथानी की छिच्छिर—छच्छिर की आवाज़ भी अपेक्षाकृत कम सुनाई दे रही थी। केवल चक्की के ऊपर वाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का धीमा संगीत चल रहा था। तभी गुसाईं ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठ-स्वर, “कब बारी आएगी? रात की रोटी के लिए भी घर में आटा नहीं है।”
सिर पर पिसान रखे एक स्त्री उसे यह पूछ रही थी। गुसाईं को उसका स्वर परिचित-सा लगा। चौंककर उसने पीछे मुड़कर देखा। कपड़े में पिसान ढीला बँधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे आ गया। गुसाईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के लिए वह बाहर आने को मुड़ा; लेकिन तभी फिर अंदर जाकर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा। काठ की चिड़ियाँ किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुसाईं को अपने हृदय की धड़कन का आभास हो रहा था।
घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे हुए अन्न का चूर्ण फैल रहा था, जो अब तक गुसाईं के पूरे शरीर पर छा गया था। इस कृत्रिम सफ़ेदी के कारण वह वृद्ध-सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।
उसने दुबारा वे ही शब्द दोहराए। अब वह भी तेज़ धूप में बोझा सिर पर रखे हुए गुसाईं का उत्तर पाने को आतुर थी। शायद नकारात्मक उत्तर मिलने पर वह उलटे पाँव लौटकर किसी अन्य चक्की का सहारा लेती।
दूसरी बार के प्रश्न को गुसाईं न टाल पाया, उत्तर देना ही पड़ा, “यहाँ पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही।” उसने दबे-दबे स्वर में कह दिया।
स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की। शाम के आटे का प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पड़ी।
गुसाईं कमर झुकाकर घट से बाहर निकला। मुड़ते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका संदेह विश्वास में बदल गया था। हताश-सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और फिर अपने हाथों तथा सिर पर गिरे हुए आटे को झाड़कर वह एक-दो क़दम आगे बढ़ा। उसके अंदर की किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया। आवाज़ देकर उसे बुला लेने को उसने मुँह खोला, परंतु अवाज़ न दे सका। एक झिझक, एक असमर्थना थी, जो उसका मुँह बंद कर रही थी। वह स्त्री नदी तक पहुँच चुकी थी। गुसाईं के अंतर में तीव्र उथल-पुथल मच गई। इस बार आवेग इतना तीव्र था कि वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लड़खड़ाती आवाज़ में उसने पुकारा, लछमा!”
घबराहट के कारण वह पूरे ज़ोर से आवाज़ नहीं दे पाया था। स्त्री ने यह आवाज़ नहीं सुनी। इस बार गुसाईं ने स्वस्थ होकर पुनः पुकारा, “लछमा!”
लछमा ने पीछे मुड़कर देखा। मायके में उसे सभी इसी नाम से पुकारते थे। यह संबोधन उसके लिए स्वाभाविक था। परंतु उसे शंका शायद यह थी कि चक्कीवाला एक बार पिसान स्वीकार न करने पर भी उसे बुला रहा है। या उसे केवल भ्रम हुआ है। उसने वही से पूछा, “मुझे पुकार रहे हैं जी?”
गुसाईं ने संयत स्वर में कहा, “हाँ, ले आओ, हो जाएगा।”
लछमा क्षण-भर रुकी और फिर घट की ओर लौट आई।
अचानक साक्षात्कार होने का मौक़ा न देने की इच्छा से गुसाईं व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मिहल की छाँह में चला गया।
लछमा पिसान का थैला घट के अंदर रख आई। बाहर निकलकर उसने आँचल के कोर से मुँह पोंछा। तेज़ धूप मे चलने के कारण उसका मुँह लाल हो गया था। किसी पेड़ की छाया में विश्राम करने की इच्छा से उसने इधर-उधर देखा। मिहल के पेड़ की छाया को छोड़कर अन्य कोई बैठने लायक स्थान नहीं था। वह उसी ओर चलने लगी।
गुसाईं की उदारता के कारण ऋणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट आते-आते कहा, “तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बड़ा उपकार का काम कर दिया तुमने! ऊपर के घट में भी न जाने कितनी देर में नंबर मिलता।”
अजात संतति के प्रति दिए गए आशीर्वचनों को गुसाईं ने मन ही मन विनोद के रूप में ग्रहण किया। इस कारण उसकी मानसिक उथल-पुथल कुछ कम हो गई। लछमा उसकी ओर देखे, इससे पूर्व ही उसने कहा, “जीते रहें तेरे बाल-बच्चे लछमा। मायके कब आई?”
गुसाईं ने अंतर में घुमड़ती आँधी को रोककर यह प्रश्न इतने संयत स्वर में किया, जैसे वह भी अन्य दस आदमियों की तरह लछमा के लिए एक साधारण व्यक्ति हो।
दाड़िम की छाया में पान-पतेल झाड़कर बैठते लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसाईं की ओर देखा। कोसी की सूखी धार अचानक जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य नहीं होता, जितना अपने स्थान से केवल चार क़दम की दूरी पर गुसाईं को इस रूप में देखने पर हुआ। विस्मय से आँखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसाईं ही है।
“तुम?” जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए।
“हाँ, पिछले साल पल्टन में लौट आया था, वक़्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया।” गुसाईं ने उसकी जिज्ञासा शांत करने के लिए कहा है होठों पर मुस्कान लाने की उसने असफल कोशिश की।
कुछ क्षणों तक दोनों कुछ नहीं बोले। फिर गुसाईं ने ही पूछा, “बाल-बच्चे ठीक हैं?”
आँखें ज़मीन पर टिकाए, गर्दन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी। ज़मीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुड़ियों को एक-एक कर निरुद्देश्य तोड़ने लगी और गुसाईं पतली सीक लेकर आग को कुरेदता रहा।
बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसाईं ने पूछा, “तू अभी और कितने दिन मायके ठहरने वाली है?”
अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टप्-टप्-टप्...वह सिर नीचा किए आँसू गिराने लगी। सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंधों को गुसाईं देखता रहा। उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे।
इतनी देर बाद सहसा गुसाईं का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में काला चरेऊ (सुहाग-चिन्ह) नहीं था। हतप्रभ-सा गुसाईं उसे देखता रहा। अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुँझलाहट हो रही थी।
आज अचानक लछमा से भेंट हो जाने पर वह उन सब बातों को भूल गया, जिन्हें वह कहना चाहता था। इन क्षणों में वह केवल-मात्र श्रोता बनकर रह जाना चाहता था। गुसाईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आँसू पोंछती हुई अपना दुखड़ा रोने लगी, “जिसका भगवान् नहीं होता, उसका कोई नहीं होता। जेठ-जिठानी से किसी तरह पिंड छुड़ाकर यहाँ माँ की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोड़कर चली गईं। एक अभागा मुझे रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड़ रहा है। नहीं तो पेट पर पत्थर बाँधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता।
“यहाँ काका-काकी के साथ रह रही हो?” गुसाईं ने पूछा।
“मुश्किल पड़ने पर कोई किसी को नहीं होता जी! बाबा की जाएदाद पर उनकी आँखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं हक़ न जमा लूँ। मैंने साफ़-साफ़ कह दिया, मुझे किसी का लेना-देना नहीं है। जंगलात का लीसा ढो-ढोकर अपनी गुज़र कर लूँगी, किसी की आँख का काँटा बनकर नहीं रहूँगी।’’
गुसाईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से उसे देखता-भर रहा। दाड़िम के वृक्ष से पीठ टिकार लछमा घुटने मोड़कर बैठी थी। गुसाईं सोचने लगा, पंद्रह-सोलह साल किसी की ज़िंदगी में अंतर लाने के लिए कम नहीं होते, समय का यह अंतराल लछमा के चेहरे पर भी एक छाप छोड़ गया था, पर उसे लगा, उस छाप के नीचे वह आज भी पंद्रह वर्ष पहले की लछमा को देख रहा है।
“कितनी तेज़ धूप है, इस साल!’’ लछमा का स्वर उसके कानों में पड़ा। प्रसंग बदलने के लिए ही जैसे लछमा ने यह बात जान-बूझकर कही हो।
और अचानक उसका ध्यान उस ओर चला गया, जहाँ लछमा बैठी थी। दाड़िम की फैली-फैली अधढँकी डालों से छनकर धूप उसके शरीर पर पड़ रही थी। सूरज की एक पतली किरन न जाने कब से लछमा के माथे पर गिरी हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी। गुसाईं एकटक उसे देखता रहा।
“दोपहर तो बीत चुकी होगी?” लछमा ने प्रश्न किया तो गुसाईं का ध्यान टूटा, “हाँ, अब तो दो बजने वाले होंगे” उसने कहा, “उधर धूप लग रही हो तो इधर आ जा छाँव में।” कहता हुआ गुसाईं एक जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया।
“नहीं, यहीं ठीक है” कहकर लछमा ने गुसाईं की ओर देखा, लेकिन वह अपनी बात कहने के साथ ही दूसरी ओर देखने लगा था।
घट में कुछ देर पहले डाला हुआ पिसान समाप्ति पर था। नंबर पर रखे हुए पिसान की जगह उसने जाकर जल्दी-जल्दी लछमा का अनाज खप्पर में खाली कर दिया।
धीरे-धीरे चलकर गुसाईं गूल के किनारे तक गया। अपनी अंजुली से भर-भरकर उसने पानी पिया और फिर पास ही एक बंजर घट के अंदर जाकर पीतल और अलमुनियम के कुछ बर्तन लेकर आग के निकट लौट आया।
आस-पास पड़ी हुई सूखी लकड़ियों को बटोरकर उसने आग सुलगाई और एक कालिख पुती बटलोई में पानी रखकर जाते-जाते लछमा की ओर मुँह कर कह गया, “चाय का टैम भी हो रहा है। पानी उबल जाए, तो पत्ती डाल देना, पुड़िया में पड़ी है।”
लछमा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह उसे नदी की ओर जाने वाली पगडंडी पर जाता हुआ देखती रही।
सड़क किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसाईं को काफ़ी समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा, एक छः-सात वर्ष का बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है।
बच्चे का परिचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, “इस छोकरे को घड़ी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता-खोजता मेरी जान खाने को यहाँ भी पहुँच गया है।”
गुसांई ने लक्ष्य किया कि बच्चा बार-बार उसकी दृष्टि बचाकर माँ से किसी चीज़ के लिए ज़िद कर रहा है। एक बार झुंझलाकर लछमा ने उसे झिड़क दिया, “चुप रह! अभी लौटकर घर जाएँगे, इतनी-सी देर में मरा क्यों जा रहा है?”
चाय के पानी में दूध डालकर गुसाईं फिर उसी बंजर घट में गया। एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे बैठा-बैठा उसे गूँथने लगा। मिहल के पेड़ की ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन और ले लिए।
लछमा ने बटलोई में दूध-चीनी डालकर चाय तैयार कर दी थी। एक गिलास, एक अलमूनियम का मग और एक अलमुनियम के मैसटिन में गुसाईं ने चाय डालकर आपस में बाँट ली और पत्थरों से बने बे-ढंगे चूल्हे के पास बैठकर रोटियाँ बनाने का उपक्रम करने लगा।
हाथ का चाय का गिलास ज़मीन पर टिकाकर लछमा उठी। आटे की थाली अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसाईं ना न कह सका। वह खड़ा-खड़ा उसे रोटी पकाते हुए देखता रहा। गोल-गोल डिबिया-सरीखी रोटियाँ चूल्हे में खिलने लगीं। वर्षों बाद गुसाईं ने ऐसी रोटियाँ देखी थीं, जो अनिश्चित आकार की फ़ौजी लंगर की चपातियों या स्वयं उसके हाथ से बनी बे-डौल रोटियों से एकदम भिन्न थीं। आटे की लोई बनाते समय लछमा के छोटे-छोटे हाथ बड़ी तेज़ी से घूम रहे थे। कलाई में पहने हुए चांदी के कड़े जब कभी आपस में टकरा जाते, तो खन्-खन् का एक अत्यंत मधुर स्वर निकलता। चक्की के पाट पर टकराने वाली काठ की चिड़ियों का स्वर कितना नीरस हो सकता है, यह गुसाईं ने आज पहली बार अनुभव किया।
किसी काम से वह बंजर घट की ओर गया और बड़ी देर तक ख़ाली बर्तन-डिब्बों को उठाता-रखता रहा।
वह लौटकर आया, तो लछमा रोटी बनाकर बर्तनों को समेट चुकी थी और अब आटे में सने हाथों को धो रही थी।
गुसाईं ने बच्चे की ओर देखा। वह दोनों हाथों में चाय का मग थामे टकटकी लगाकर गुसाईं को देखे जा रहा था। लछमा ने आग्रह के स्वर में कहा, “चाय के साथ खानी हों, तो खा लो। फिर ठंडी हो जाएँगी।”
“मैं तो अपने टैम से ही खाऊँगा। यह तो बच्चे के लिए...” स्पष्ट कहने में उसे झिझक महसूस हो रही थी, जैसे बच्चे के संबंध में चिंतित होने की उसकी चेष्टा अनधिकार हो।
“न-न, जी! वह तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है। मैं रोटियाँ बनाकर रख आई थी,” अत्यंत संकोच के साथ लछमा ने आपत्ति प्रकट कर दी।
“हाँ, यूँही कहती है। कहाँ रखी थीं रोटियाँ घर में?” बच्चे ने रूआँसी आवाज़ में वास्तविक स्थिति स्पष्ट कर दी। वह ध्यानपूर्वक अपनी माँ और इस अपरिचित व्यक्ति की बतें सुन रहा था और रोटियों को देखकर उसका संयम ढीला पड़ गया था।
“चुप!” आँखें तरेरकर लछमा ने उसे डाँट दिया। बच्चे के इस कथन से उसकी स्थिति हास्यास्पद हो गई थी। लज्जा से उसका मुँह आरक्त हो उठा।
“बच्चा है, भूख लग आई होगी, डाँटने से क्या फ़ायदा?” गुसाईं ने बच्चे का पक्ष लेकर दो रोटियाँ उसकी ओर बढ़ा दीं। परंतु माँ की अनुमति के बिना उन्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा था। वह ललचाई दृष्टि से कभी रोटियों की ओर, कभी माँ की ओर देख लेता था।
गुसाईं के बार-बार आग्रह करने पर भी बच्चा रोटियाँ लेने में संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे झिड़क दिया, “मर! अब ले क्यों नहीं लेता? जहाँ जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा!”
इससे पहले कि बच्चा रोना शुरू कर दें, गुसाईं ने रोटियों के ऊपर एक टुकड़ा गुड़ का रखकर बच्चे के हाथों में दिया। भरी-भरी आँखों से इस अनोखे मित्र को देखकर बच्चा चुपचाप रोटी खाने लगा, और गुसाईं कौतुकपूर्ण दृष्टि से उसके हिलते हुए होठों को देखता रहा।
इस छोटे-से प्रसंग के कारण वातावरण में एक तनाव-सा आ गया था, जिसे गुसाईं और लछमा दोनों ही अनुभव कर रहे थे।
स्वयं भी एक रोटी को चाय में डुबाकर खाते-खाते गुसाईं ने जैसे इस तनाव को कम करने की कोशिश में ही मुस्कुराकर कहा, “लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है।”
लछमा ने करूण दृष्टि से उसकी ओर देखा। गुसाईं हो-होकर खोखली हँसी हँस रहा था।
“कुछ साग-सब्ज़ी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता।” गुसाईं ने बच्चे की ओर देखकर अपनी विवशता प्रकट की।
“ऐसी ही खाने-पीने वाले की तक़दीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पड़ता? दो दिन से घर में तेल-नमक नहीं है। आज थोड़े पैसे मिले हैं, आज ले जाऊँगी कुछ सौदा।”
हाथ से अपनी जेब टटोलते हुए गुसाईं ने संकोचपूर्ण स्वर में कहा, “लछमा!”
लछमा ने जिज्ञासा से उसकी ओर देखा। गुसाईं ने जेब से एक नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “ले, काम चलाने के लिए यह रख ले, मेरे पास अभी और है। परसों दफ़्तर से मनीआर्डर आया था।”
“नहीं-नहीं, जी! काम तो चल ही रहा है। मैं इस मतलब से थोड़े कह रही थी। यह तो बात चली थी, तो मैंने कहा,” कहकर लछमा ने सहायता लेने से इंकार कर दिया।
गुसाईं को लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज़ में वह बोला, “दुःख-तकलीफ़ के वक़्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूँका हमने इस ज़िंदगी में। है कोई हिसाब! पर क्या फ़ायदा! किसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!”
परंतु गुसाईं के इस तर्क के बावजूद भी लछमा अड़ी रही, बच्चे के सर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, “गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाए। अपने-पराए प्रेम से हँस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए।”
गुसाईं ने ग़ौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफ़ान का वहाँ कोई चिह्न शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बंधकर शांत हो चुका था।
रूपया लेने के लिए लछमा से अधिक आग्रह करने का उसका साहस नहीं हुआ। पर गहरे असंतोष के कारण बुझा-बुझा-सा वह धीमी चाल से चलकर वहाँ से हट गया। सहसा उसकी चाल तेज़ हो गई और घट के अंदर जाकर उसने एक बार शंकित दृष्टि से बाहर की ओर देखा। लछमा उस ओर पीठ किए बैठी थी। उसने जल्दी-जल्दी अपने नीजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के क़रीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक सांस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बांध की ओर देखने लगा। ऊपर बांध पर किसी को घुसते हुए देखकर उसने हाँक दी। शायद खेत की सिंचाई के लिए कोई पानी तोड़ना चाहता था।
बाँध की ओर जाने से पहले वह एक बार लछमा के निकट गया। पिसान पिस जाने की सूचना उसे देकर वापस लौटते हुए फिर ठिठककर खड़ा हो गया, मन की बात कहने में जैसे उसे झिझक हो रही हो। अटक-अटककर वह बोला, “लछमा...।”
लछमा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। गुसाईं को चुपचाप अपनी ओर देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा। वह न जाने क्या कहना चाहता है, इस बात की आशंका से उसके मुँह का रंग अचानक फीका होने लगा। पर गुसाईं ने झिझकते हुए केवल इतना ही कहा, “कभी चार पैसे जुड़ जाएँ, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफ़ी माँग लेना। पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए।” लछमा की बात सुनने के लिए वह नहीं रूका।
पानी तोड़ने वाले खेतिहार से झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा, सामने वाले पहाड़ की पगडंडी पर सर पर आटा लिए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी। वह उन्हें पहाड़ी के मोड़ तक पहुँचने तक टकटकी बाँधे देखता रहा।
घट के अंदर काठ की चिड़ियाँ अब भी किट-किट आवाज़ कर रही थीं, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज़ आ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!
gusain ka man chilam mein bhi nahin laga mihal ki chhanh se uthkar wo phir ek bar ghat (panchakki) ke andar aaya abhi khappar mein ek chauthai se bhi adhik gehun shesh tha khappar mein hath Dalkar usne byarth hi ulta palta aur chakki ke paton ke writt mein phaile hue aate ko jhaDkar ek Dher bana diya bahar aate aate usne phir ek bar aur khappar mein jhankakar dekha, jaise ye janne ke liye ki itni der mein kitni pisai ho chuki hai, parantu andar ki mikdar mein koi wishesh antar nahin aaya tha khass khass ki dhwani ke sath atyant dhimi gati se upar ka pat chal raha tha ghat ka prawesh dwar bahut kam uncha tha, khoob niche tak jhukkar wo bahar nikla sir ke balon aur banhon par aate ki ek halki safed part baith gai thi
khambhe ka sahara lekar wo budabudaya, “ja ssala! subah se ab tak das panseri bhi nahin hua suraj kahan ka kahan chala gaya hai! kaisi anhoni baat!”
baat anhoni to hai hi jeth beet raha hai akash mein kahin badalon ko namonishan bhi nahin any warshon ab tak logon ki dhanropai puri ho jati thi, par is sal nadi nale sab sukhe paDe hain kheton ki sinchai to darkinar, beej ki kyariyan sukhi ja rahi hain chhote nale gulon ke kinare ke ghat mahinon se band hain kosi ke kinare hai gusain ka ye ghat par iski bhi chaal aisi ki laddu ghoDe ki chaal ko mat deti hai
chakki ke nichle khanD mein ‘chhachchhir chhachchhir’ ki awaz ke sath pani ko katti hui mathani chal rahi thi kitni dhimi awaz! achchhe khate pite gwalon ke ghar mein dahi ki mathani isse zyada shor karti hai isi mathani ka wo shor hota tha ki adami ko apni baat nahin sunai deti aur ab to bhale nadi par koi bole, to baat yahan sunai de jaye!
chhap chhap chhap purani fauji pant ko ghutnon tak moDkar gusain pani ki gool ke andar chalne laga kahin koi surakh nikas ho, to band kar den ek boond pani bhi bahar na jaye boond boond ki qimat hai in dinon praya aadha pharlang chalkar wo bandh par pahuncha nadi ki puri chauDai ko gherkar pani ka bahaw ghat ki gool ki or moD diya gaya tha kinare ki mitti ghas lekar usne bandh mein ek do sthan par nikas band kiya aur phir gul ke kinare kinare chalkar ghat ke pas aa gaya
andar jakar usne phir paton ke writt mein phaile hue aate ko buharkar Dheri mein mila diya khappar mein abhi thoDa bahut gehun shesh tha wo uthkar bahar aaya
door raste par ek adami sire par pisan rakhe uski or aa raha tha gusain ne uski suwidha ka khyal kar wahin se awaz de di, “hain ho! yahan lambar der mein ayega do din ka pisan abhi jama hai upar umedsinh ke ghat mein dekh lo ”
us wekti ne muDne se pahle ek bar aur prayatn kiya unche swar mein pukar kar bola, “zaruri hai ji, pahle hamara lambar nahin laga doge?”
gusain hothon hi hothon mein muskraya, “ssala kaisa chikhta hai, jaise ghat ki awaz itni ho ki main sun na sakun!” kuch kam unchi awaz mein usne hath hilakar uttar de diya, “yahan zaruri ka bhi bap rakha hai, ji tum upar chale jao ” wo adami laut gaya
mihal ki chhanw mein baithkar gusain ne lakDi ke jalte kunde ko khodkar chilam sulgai aur guD guD karta dhuan uData raha
khassar khassar chakki ka pat chal raha tha
kit kit kit kit khappar se dane girane wali chiDiya pat par takra rahi thi
chhichchhir—chhichchhir ki awaz ke sath mathani pani ko kat rahi thi pattharon ke beech mein takhne takhne tak phaila pani kya awaz karega pani ke garbh se nikalkar chhote chhote patthar bhi apna sir uthaye akash ko nihar rahe the dopahri Dhalne par bhi itni tez dhoop! kahin chiraiya bhi nahin bolti kisi parani ka priy apriy swar nahin
sukhi nadi ke kinare baitha gusain sochne laga, kyo us wekti ko lauta diya laut to wo jata hi ghat ke andar tachch paDe pisan ke thailon ko dekhkar do chaar kshan ki batachit ka aasra hi hota
kabhi kabhi gusain ko ye akelapan katne lagta hai sukhi nadi ke kinare ka ye akelapan nahin, zindagi bhar sath dene ke liye jo akelapan uske dwar par dharna dekar baith gaya hai, wahi jise apna kah sake, aise kisi parani ka swar uske liye nahin, paltu kutte billi ka swar bhi nahin kya thikana aise malik ka, jiska ghar dwar nahin biwi—bachche nahin, khane—pine ka thikana nahin
ghutnon tak uthi hui purani fauji pait ke moD ko gusain ne khola gool mein chalte hue wo hissa thoDa bheeg gaya tha par is garmi mein use bhigi pant ki ye shitalta achchhi lagi pant ki salawton ko theek karte karte gusain ne hukke ki nali se munh hataya uske hothon mein bayen kone par halki si muskan ubhar i biti baton ki yaad gusain sochne laga, isi pant ki badaulat ye akelapan use mila hai nahin, yaad karne ko man nahin karta purani bahut purani baten wo bhool gaya hai, par hawaldar sahab ki pait ki baat use nahin bhulti
aisi hi fauji pait pahankar hawaldar dharamsinh aaya tha laundry ki dhuli, nonkdar, krijwali pant waisi hi pant pahanne ki mahattwakanksha lekar gusain fauj mein gaya tha par fauj se lauta, to pant ke sath sath zindagi ka akelapan bhi uske sath aa gaya
pant ke sath aur bhi kitni hi smritiyan mukhar hai us bar ki chhuttiyon ki baat
kaun mahina? han, baisakh hi tha sir par kras khukhri ke krest wali, kali kishtinuma topi ko tirchha rakhkar— fauji wardi pahne wo pahli bar enual leew par ghar aaya, to cheeD wan ki aag ki tarah khabar idhar udhar phail gai thi bachche buDhe, sabhi umse milne aaye the chacha ka goth eqdam bhar gaya tha, thasathass bistar ki nai, eqdam saf, jagmag, lal nili dhariyon wali dari angan mein bichhani paDi thi logon ko bithane ke liye khoob yaad hai, angan ka gobar dari mein lag gaya tha bachche buDhe sabhi aaye the sirf chana—guD ya haladwani ke tambaku ka lobh nahin tha, kal ke sharmile gusain ko is nae roop mein dekhne ka kautuhal bhi tha par gusain ki ankhen is bheeD mein jise khoj rahi thi, wo wahan nahin thi
nale par ke apne ganw se bhains ke katya ko khojne ke bahane dusre din lachhma i thi par gusain us din usse mil na saka ganw ke chhokre hi gusain ki jaan ko bawal ho gaye the buDDhe narsinh pardhan un dinon theek hi kahte the, ajkal gusain ko dekhkar sobaniyan ka laDka bhi apni phati gher ki topi ko tirchhi pahanne lag gaya hai din raat billi ke bachchon ki tarah chhokre uske pichhe lage rahte the, cigarette biDi ya gapshap ke lobh mein
ek din baDi mushkil se mauqa mila tha use lachhma ko pat patel ke liye jangal jate dekhkar wo chhokron se kankaD ke shikar ka bahana banakar akele jangal ko chal diya tha ganw ki sima se bahut door, kaphal ke peD ke niche gusain ke ghutne par sir rakhkar, leti leti lachhma kaphal kha rahi thi pake, gadraye, gahre lal lal kaphal! khel khel mein kaphlon ki chhina jhapti karte gusain ne lachhma ki mutthi bheench di thi tap tap kaphlon ka gaDha lal ras uski pant par gir gaya tha lachhma ne kaha tha, “ise yahin rakh jana, meri puri banh ki kurti ismen se nikal ayegi ” wo khilakhilakar apni baat par swayan hi hans di thi
purani baat kya kaha tha gusain ne, yaad nahin paDta tere liye makhmal ki kurti la dunga, meri suwa! ya kuch aisa hi
par lachhma ko makhmal ki kurti kisne pahnai— pahaDi par ke ramuwan ne, jo turinisan lekar use byahane aaya tha?
“jiske aage pichhe bhai bahan nahin, mai bap nahin, pardesh mein banduk ki nonk par jaan rakhnewale ko chhokri kaise de den ham?” lachhma ke bap ne kaha tha
uska man janne ke liye gusain ne teDhe tirchhe baat chalwai thi
usi sal mangsir ko ek thanDi, udas sham ko gusain ki unit ke sipahi kisansinh ne quarter master store ke samne khaDe khaDe usse kaha tha, “hamare ganw ke ramsinh ne zid ki, tabhi chhuttiyan baDhani paDi is sal uski shadi thi khoob achchhi aurat mili hai, yar! shakl surat bhi khoob hai, eqdam patakha! baDi hansmukh hai tumne to dekha hi hoga, tumhare ganw ke nazdik ki hai lachhma—lachhma kuch aisa hi nam hai ”
gusain ko yaad nahin paDta, kaun—sa bahana banakar wo kisansinh ke pas se chala aaya tha rum De tha us din hamesha aadha paig lene wala gusain us din do paig rum lekar apni charpai par paD gaya tha hawaldar major ne dusre din peshi karwai thee— malaria prikaushan na karne ke apradh mein! sochte sochte gusain budabudaya, “ssala eDajutent!”
gusain sochne laga, us sal chhuttiyon mein ghar se wida hone se ek din pahle wo mauqa nikalkar lachhma se mila tha
“ganganathajyu ki qas, jaisa tum kahoge, main waisa hi karungi ” ankhon mae ansu bharkar lachhma ne kaha tha
warshon se wo sochta hai, kabhi lachhma se bhent hogi to wo awashy kahega ki wo gangnath ka jagar lagakar prayashchitt zarur kar le dewi dewtaon ki jhuthi kasmen khakar unhen naraz karne se kya labh? jis par bhi gangnath ka kop hua, wo kabhi phal phool nahin paya par lachhma se kab bhent hogi, ye wo nahin janta laDakpan se sangi sathi naukari chakari ke liye maindanon mein chale gaye hain ganw ki or jane ka uska man nahin hota lachhma ke bare mein kisi se puchhna use achchha nahin lagta jitne din naukari rahi, wo palatkar apne ganw nahin aaya ek station se dusre station ka walantiyri transphar lene walon ki list mein nayak gusain ka nam upar aata raha lagatar pandrah sal tak
pichhle baisakh mein hi wo ganw lauta, pandrah sal baad, reserw mein aane par kale balon ko lekar gaya tha, khichDi baal lekar lauta lachhma ka hath use akela bana gaya
aj is akelepan mein koi hota, jise gusain apni zindagi ki kitab paDhkar sunata shabd akshar kitna dekha, kitna suna aur kitna anubhaw kiya hai usne
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chakki ki badalti awaz ko pahchankar gusain ghat ke andar chala gaya khappar ka anaj samapt ho chuka tha khappar mein ek kam ann wale thaile ko ulatkar usne ann ka nikas rokne ke liye kath ki chiDiyon ko ulta kar diya kit kit ka swar band ho gaya wo jaldi jaldi aate ko thaile mein bharne laga ghat ke andar mathani ki chhichchhir—chhachchhir ki awaz bhi apekshakrit kam sunai de rahi thi kewal chakki ke upar wale pat ki ghisatti hui ghargharaht ka halka dhima sangit chal raha tha tabhi gusain ne suna apni peeth ke pichhe, ghat ke dwar par, is sangit se bhi madhur ek nari ka kanth swar, “kab bari ayegi? raat ki roti ke liye bhi ghar mein aata nahin hai ”
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usne dubara we hi shabd dohraye ab wo bhi tez dhoop mein bojha sir par rakhe hue gusain ka uttar pane ko aatur thi shayad nakaratmak uttar milne par wo ulte panw lautkar kisi any chakki ka sahara leti
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ghabrahat ke karan wo pure zor se awaz nahin de paya tha istri ne ye awaz nahin suni is bar gusain ne swasth hokar pun pukara, “lachhma!”
lachhma ne pichhe muDkar dekha mayke mein use sabhi isi nam se pukarte the ye sambodhan uske liye swabhawik tha parantu use shanka shayad ye thi ki chakkiwala ek bar pisan swikar na karne par bhi use bula raha hai ya use kewal bhram hua hai usne wahi se puchha, “mujhe pukar rahe hain jee?
gusain ne sanyat swar mein kaha, “han, le aao, ho jayega ”
lachhma kshan bhar ruki aur phir ghat ki or laut i
achanak sakshatkar hone ka mauqa na dene ki ichha se gusain wyastata ka pradarshan karta hua mihal ki chhanh mein chala gaya
lachhma pisan ka thaila ghat ke andar rakh i bahar nikalkar usne anchal ke kor se munh ponchha tez dhoop mae chalne ke karan uska munh lal ho gaya tha kisi peD ki chhaya mein wishram karne ki ichha se usne idhar udhar dekha mihal ke peD ki chhaya ko chhoDkar any koi baithne layak sthan nahin tha wo usi or chalne lagi
gusain ki udarta ke karan rnai si hokar hi jaise usne nikat aate aate kaha, “tumhare baal bachche jite rahen, ghatwarji! baDa upkar ka kaam kar diya tumne! upar ke ghat mein bhi na jane kitni der mein number milta ”
ajat santti ke prati diye gaye ashirwachnon ko gusain ne man hi man winod ke roop mein grahn kiya is karan uski manasik uthal puthal kuch kam ho gai lachhma uski or dekhe, isse poorw hi usne kaha, “jite rahen tere baal bachche lachhma mayke kab i?”
gusain ne antar mein ghumaDti andhi ko rokkar ye parashn itne sanyat swar mein kiya, jaise wo bhi any das adamiyon ki tarah lachhma ke liye ek sadharan wekti ho
daDim ki chhaya mein pan patel jhaDkar baithte lachhma ne shankit drishti se gusain ki or dekha kosi ki sukhi dhaar achanak jal plawit hokar bahne lagti, to bhi lachhma ko itna ashchary nahin hota, jitna apne sthan se kewal chaar qadam ki duri par gusain ko is roop mein dekhne par hua wismay se ankhen phaDkar wo use dekhe ja rahi thi, jaise ab bhi use wishwas na ho raha ho ki jo wekti uske sammukh baitha hai, wo uska poorw parichit gusain hi hai
“tum?” jane lachhma kya kahna chahti thi, shesh shabd uske kanth mein hi rah gaye
“han, pichhle sal paltan mein laut aaya tha, waqt katne ke liye ye ghat lagwa liya ” gumai ne uski jij~nasa shant karne ke liye kaha hai hothon par muskan lane ki usne asaphal koshish ki
kuch kshnon tak donon kuch nahin bole phir gusain ne hi puchha, “baal bachche theek hain?”
ankhen zamin par tikaye, gardan hilakar sanket se hi usne bachchon ki kushalta ki suchana de di zamin par gire ek daDim ke phool ko hathon mein lekar lachhma uski pankhuDiyon ko ek ek kar niruddeshy toDne lagi aur gusain patli seek lekar aag ko kuredta raha
baton ka kram banaye rakhne ke liye gusain ne puchha, “tu abhi aur kitne din mayke thaharnewali hai?”
ab lachhma ke liye apne ko rokna asambhau ho gaya tap tap tap wo sir nicha kiye ansu girane lagi siskiyon ke sath sath uske uthte girte kandhon ko gusain dekhta raha use ye nahin soojh raha tha ki wo kin shabdon mein apni sahanubhuti prakat kare
itni der baad sahsa gusain ka dhyan lachhma ke sharir ki or gaya uske gale mein kala chareu (suhag chinh) nahin tha hataprabh sa gusain use dekhta raha apni wyawaharik agyanta par use behad jhunjhlahat ho rahi thi
aj achanak lachhma se bhent ho jane par wo un sab baton ko bhool gaya, jinhen wo kahna chahta tha in kshnon mein wo kewal matr shrota bankar rah jana chahta tha gusain ki sahanubhutipurn drishti pakar lachhma ansu ponchhti hui apna dukhDa rone lagi, “jiska bhagwan nahin hota, uska koi nahin hota jeth jithani se kisi tarah pinD chhuDakar yahan man ki bimari mein i thi, wo bhi mujhe chhoDkar chali gain ek abhaga mujhe rone ko rah gaya hai, usi ke liye jina paD raha hai nahin to pet par patthar bandhakar kahin Doob marti, janjal katta
“yahan kaka kaki ke sath rah rahi ho?” gusain ne puchha
“mushkil paDne par koi kisi ko nahin hota jee! baba ki jayedad par unki ankhen lagi hain, sochte hain, kahin main haq na jama loon mainne saf saf kah diya, mujhe kisi ka lena dena nahin hai janglat ka lisa Dho Dhokar apni guzar kar lungi, kisi ki ankh ka kanta bankar nahin rahungi ’’
gusain ne kisi prakar ki maukhik sanwedana nahin prakat ki kewal sahanubhutipurn drishti se use dekhta bhar raha daDim ke wriksh se peeth tikar lachhma ghutne moDkar baithi thi gusain sochne laga, pandrah solah sal kisi ki zindagi mein antar lane ke liye kam nahin hote, samay ka ye antral lachhma ke chehre par bhi ek chhap chhoD gaya tha, par use laga, us chhap ke niche wo aaj bhi pandrah warsh pahle ki lachhma ko dekh raha hai
kitni tez dhoop hai, is sal!’’ lachhma ka swar uske kanon mein paDa prsang badalne ke liye hi jaise lachhma ne ye baat jaan bujhkar kahi ho
aur achanak uska dhyan us or chala gaya, jahan lachhma baithi thi daDim ki phaili phaili adhaDhnki Dalon se chhankar dhoop uske sharir par paD rahi thi suraj ki ek patli kiran na jane kab se lachhma ke mathe par giri hui ek lat ko sunahri rangini mein Duba rahi thi gusain ektak use dekhta raha
dopahar to beet chuki hogi? lachhma ne parashn kiya to gusain ka dhyan tuta, han, ab to do bajnewale honge usne kaha, udhar dhoop lag rahi ho to idhar aa ja chhanw mein kahta hua gusain ek jamhai lekar apne sthan se uth gaya
nahin, yahin theek hai kahkar lachhma ne gusain ki or dekha, lekin wo apni baat kahne ke sath hi dusri or dekhne laga tha
ghat mein kuch der pahle Dala hua pisan samapti par tha number par rakhe hue pisan ki jagah usne jakar jaldi jaldi lachhma ka anaj khappar mein khali kar diya
dhire dhire chalkar gusain gool ke kinare tak gaya apni anjuli se bhar bharkar usne pani piya aur phir pas hi ek banjar ghat ke andar jakar pital aur alamuniyam ke kuch bartan lekar aag ke nikat laut aaya
as pas paDi hui sukhi lakDiyon ko batorkar usne aag sulgai aur ek kalikh puti batloi mein pani rakhkar jate jate lachhma ki or munh kar kah gaya, chay ka taim bhi ho raha hai pani ubal jaye, to patti Dal dena, puDiya mein paDi hai
lachhma ne uttar nahin diya wo use nadi ki or janewali pagDanDi par jata hua dekhti rahi
saDak kinare ki dukan se doodh lekar lautte lautte gusain ko kafi samay lag gaya tha wapas aane par usne dekha, ek chhः sat warsh ka bachcha lachhma ki deh se satkar baitha hua hai
bachche ka parichai dene ki ichha se jaise lachhma ne kaha, is chhokre ko ghaDi bhar ke liye bhi chain nahin milta jane kaise puchhta khojta meri jaan khane ko yahan bhi pahunch gaya hai
gusani ne lakshya kiya ki bachcha bar bar uski drishti bachakar man se kisi cheez ke liye zid kar raha hai ek bar jhunjhlakar lachhma ne use jhiDak diya, chup rah! abhi lautkar ghar jayenge, itni si der mein mara kyon ja raha hai?
chay ke pani mein doodh Dalkar gusain phir usi banjar ghat mein gaya ek thali mein aata lekar wo gool ke kinare baitha baitha use gunthne laga mihal ke peD ki or aate samay usne sath mein do ek bartan aur le liye
lachhma ne batloi mein doodh chini Dalkar chay taiyar kar di thi ek gilas, ek almuniyam ka mag aur ek alamuniyam ke maistin mein gusain ne chay Dalkar aapas mein bant li aur pattharon se bane beDhange chulhe ke pas baithkar rotiyan banane ka upakram karne laga
hath ka chay ka gilas zamin par tikakar lachhma uthi aate ki thali apni or khiskakar usne swayan roti paka dene ki ichha aise swar mein prakat ki ki gusain na na kah saka wo khaDa khaDa use roti pakate hue dekhta raha gol gol Dibiya sarikhi rotiyan chulhe mein khilne lagin warshon baad gusain ne aisi rotiyan dekhi theen, jo anishchit akar ki fauji langar ki chapatiyon ya swayan uske hath se bani beDaul rotiyon se ekdam bhinn theen aate ki loi banate samay lachhma ke chhote chhote hath baDi tezi se ghoom rahe the kalai mein pahne hue chandi ke kaDe jab kabhi aapas mein takra jate, to khan khan ka ek atyant madhur swar nikalta chakki ke pat par takranewali kath ki chiDiyon ka swar kitna niras ho sakta hai, ye gusain ne aaj pahli bar anubhaw kiya
kisi kaam se wo banjar ghat ki or gaya aur baDi der tak khali bartan Dibbon ko uthata rakhta raha
wo lautkar aaya, to lachhma roti banakar bartanon ko samet chuki thi aur ab aate mein sane hathon ko dho rahi thi
gusain ne bachche ki or dekha wo donon hathon mein chay ka mag thame takatki lagakar gusain ko dekhe ja raha tha lachhma ne agrah ke swar mein kaha, chay ke sath khani hon, to kha lo phir thanDi ho jayengi
main to apne taim se hi khaunga ye to bachche ke liye aspasht kahne mein use jhijhak mahsus ho rahi thi, jaise bachche ke sambandh mein chintit hone ki uski cheshta andhikar ho
na na, jee! wo to abhi ghar se khakar hi aa raha hai main rotiyan banakar rakh i thi, atyant sankoch ke sath lachhma ne apatti prakat kar di
han, yunhi kahti hai kahan rakhi theen rotiyan ghar mein? bachche ne ruansi awaz mein wastawik sthiti aspasht kar di wo dhyanapurwak apni man aur is aprichit wekti ki baten sun raha tha aur rotiyon ko dekhkar uska sanyam Dhila paD gaya tha
chup! ankhen tarerkar lachhma ne use Dant diya bachche ke is kathan se uski sthiti hasyaspad ho gai thi lajja se uska munh arakt ho utha
bachcha hai, bhookh lag i hogi, Dantane se kya fayda? gusain ne bachche ka paksh lekar do rotiyan uski or baDha deen parantu man ki anumti ke bina unhen swikarne ka sahas bachche ko nahin ho raha tha wo lalchai drishti se kabhi rotiyon ki or, kabhi man ki or dekh leta tha
gusain ke bar bar agrah karne par bhi bachcha rotiyan lene mein sankoch karta raha, to lachhma ne use jhiDak diya, mar! ab le kyon nahin leta? jahan jayega, wahin apne lachchhan dikhayega!
isse pahle ki bachcha rona shuru kar den, gusain ne rotiyon ke upar ek tukDa guD ka rakhkar bachche ke hathon mein diya bhari bhari ankhon se is anokhe mitr ko dekhkar bachcha chupchap roti khane laga, aur gusain kautukpurn drishti se uske hilte hue hothon ko dekhta raha
is chhote se prsang ke karan watawarn mein ek tanaw sa aa gaya tha, jise gusain aur lachhma donon hi anubhaw kar rahe the
swayan bhi ek roti ko chay mein Dubakar khate khate gusain ne jaise is tanaw ko kam karne ki koshish mein hi muskurakar kaha, log theek hi kahte hain, aurat ke hath ki bani rotiyon mein swad hi dusra hota hai
lachhma ne karun drishti se uski or dekha gusain ho hokar khokhli hansi hans raha tha
kuch sag sabzi hoti, to bechara ek aadhi roti aur kha leta gusain ne bachche ki or dekhkar apni wiwashta prakat ki
aisi hi khane pinewale ki taqdir lekar paida hua hota to mere bhag kyon paDta? do din se ghar mein tel namak nahin hai aaj thoDe paise mile hain, aaj le jaungi kuch sauda
hath se apni jeb tatolte hue gusain ne sankochpurn swar mein kaha, lachhma!
lachhma ne jij~nasa se uski or dekha gusain ne jeb se ek not nikalkar uski or baDhate hue kaha, le, kaam chalane ke liye ye rakh le, mere pas abhi aur hai parson daftar se maniarDar aaya tha
nahin nahin, jee! kaam to chal hi raha hai main is matlab se thoDe kah rahi thi ye to baat chali thi, to mainne kaha, kahkar lachhma ne sahayata lene se inkar kar diya
gusain ko lachhma ka ye wywahar achchha nahin laga rukhi awaz mein wo bola, duःkh taklif ke waqt hi adami adami ke kaam nahin aaya, to bekar hai! ssala! kitna kamaya, kitna phunka hamne is zindagi mein hai koi hisab! par kya fayda! kisi ke kaam nahin aaya ismen ahsan ki kya baat hai? paisa to mitti hai sala! kisi ke kaam nahin aaya to mitti, ekdam mitti!
parantu gusain ke is tark ke bawjud bhi lachhma aDi rahi, bachche ke sar par hath pherte hue usne darshanik gambhirta se kaha, gangnath dahine rahen, to bhale bure din nibh hi jate hain, jee! pet ka kya hai, ghat ke khappar ki tarah jitna Dalo, kam ho jaye apne paraye prem se hans bol den, to wo bahut hai din katne ke liye
gusain ne ghaur se lachhma ke mukh ki or dekha warshon pahle uthe hue jwar aur tufan ka wahan koi chihn shesh nahin tha ab wo sagar jaise simaon mein bandhkar shant ho chuka tha
rupya lene ke liye lachhma se adhik agrah karne ka uska sahas nahin hua par gahre asantosh ke karan bujha bujha sa wo dhimi chaal se chalkar wahan se hat gaya sahsa uski chaal tez ho gai aur ghat ke andar jakar usne ek bar shankit drishti se bahar ki or dekha lachhma us or peeth kiye baithi thi usne jaldi jaldi apne niji aate ke teen se do Dhai ser ke qarib aata nikalkar lachhma ke aate mein mila diya aur santosh ki ek sans lekar wo hath jhaDta hua bahar aakar bandh ki or dekhne laga upar bandh par kisi ko ghuste hue dekhkar usne hank di shayad khet ki sinchai ke liye koi pani toDna chahta tha
bandh ki or jane se pahle wo ek bar lachhma ke nikat gaya pisan pis jane ki suchana use dekar wapas lautte hue phir thithakkar khaDa ho gaya, man ki baat kahne mein jaise use jhijhak ho rahi ho atak atakkar wo bola, lachhma
lachhma ne sir uthakar uski or dekha gusain ko chupchap apni or dekhte hue pakar use sankoch hone laga wo na jane kya kahna chahta hai, is baat ki ashanka se uske munh ka rang achanak phika hone laga par gusain ne jhijhakte hue kewal itna hi kaha, kabhi chaar paise juD jayen, to gangnath ka jagar lagakar bhool chook ki mafi mang lena poot pariwarwalon ko dewi dewta ke kop se bacha rahna chahiye lachhma ki baat sunne ke liye wo nahin ruka
pani toDnewale khetihar se jhagDa niptakar kuch der baad lautte hue usne dekha, samnewale pahaD ki pagDanDi par sar par aata liye lachhma apne bachche ke sath dhire dhire chali ja rahi thi wo unhen pahaDi ke moD tak pahunchne tak takatki bandhe dekhta raha
ghat ke andar kath ki chiDiyan ab bhi kit kit awaz kar rahi theen, chakki ka pat khissar khissar chal raha tha aur mathani ki pani katne ki awaz aa rahi thi, aur kahin koi swar nahin, sab sunsan, nistabdh!
gusain ka man chilam mein bhi nahin laga mihal ki chhanh se uthkar wo phir ek bar ghat (panchakki) ke andar aaya abhi khappar mein ek chauthai se bhi adhik gehun shesh tha khappar mein hath Dalkar usne byarth hi ulta palta aur chakki ke paton ke writt mein phaile hue aate ko jhaDkar ek Dher bana diya bahar aate aate usne phir ek bar aur khappar mein jhankakar dekha, jaise ye janne ke liye ki itni der mein kitni pisai ho chuki hai, parantu andar ki mikdar mein koi wishesh antar nahin aaya tha khass khass ki dhwani ke sath atyant dhimi gati se upar ka pat chal raha tha ghat ka prawesh dwar bahut kam uncha tha, khoob niche tak jhukkar wo bahar nikla sir ke balon aur banhon par aate ki ek halki safed part baith gai thi
khambhe ka sahara lekar wo budabudaya, “ja ssala! subah se ab tak das panseri bhi nahin hua suraj kahan ka kahan chala gaya hai! kaisi anhoni baat!”
baat anhoni to hai hi jeth beet raha hai akash mein kahin badalon ko namonishan bhi nahin any warshon ab tak logon ki dhanropai puri ho jati thi, par is sal nadi nale sab sukhe paDe hain kheton ki sinchai to darkinar, beej ki kyariyan sukhi ja rahi hain chhote nale gulon ke kinare ke ghat mahinon se band hain kosi ke kinare hai gusain ka ye ghat par iski bhi chaal aisi ki laddu ghoDe ki chaal ko mat deti hai
chakki ke nichle khanD mein ‘chhachchhir chhachchhir’ ki awaz ke sath pani ko katti hui mathani chal rahi thi kitni dhimi awaz! achchhe khate pite gwalon ke ghar mein dahi ki mathani isse zyada shor karti hai isi mathani ka wo shor hota tha ki adami ko apni baat nahin sunai deti aur ab to bhale nadi par koi bole, to baat yahan sunai de jaye!
chhap chhap chhap purani fauji pant ko ghutnon tak moDkar gusain pani ki gool ke andar chalne laga kahin koi surakh nikas ho, to band kar den ek boond pani bhi bahar na jaye boond boond ki qimat hai in dinon praya aadha pharlang chalkar wo bandh par pahuncha nadi ki puri chauDai ko gherkar pani ka bahaw ghat ki gool ki or moD diya gaya tha kinare ki mitti ghas lekar usne bandh mein ek do sthan par nikas band kiya aur phir gul ke kinare kinare chalkar ghat ke pas aa gaya
andar jakar usne phir paton ke writt mein phaile hue aate ko buharkar Dheri mein mila diya khappar mein abhi thoDa bahut gehun shesh tha wo uthkar bahar aaya
door raste par ek adami sire par pisan rakhe uski or aa raha tha gusain ne uski suwidha ka khyal kar wahin se awaz de di, “hain ho! yahan lambar der mein ayega do din ka pisan abhi jama hai upar umedsinh ke ghat mein dekh lo ”
us wekti ne muDne se pahle ek bar aur prayatn kiya unche swar mein pukar kar bola, “zaruri hai ji, pahle hamara lambar nahin laga doge?”
gusain hothon hi hothon mein muskraya, “ssala kaisa chikhta hai, jaise ghat ki awaz itni ho ki main sun na sakun!” kuch kam unchi awaz mein usne hath hilakar uttar de diya, “yahan zaruri ka bhi bap rakha hai, ji tum upar chale jao ” wo adami laut gaya
mihal ki chhanw mein baithkar gusain ne lakDi ke jalte kunde ko khodkar chilam sulgai aur guD guD karta dhuan uData raha
khassar khassar chakki ka pat chal raha tha
kit kit kit kit khappar se dane girane wali chiDiya pat par takra rahi thi
chhichchhir—chhichchhir ki awaz ke sath mathani pani ko kat rahi thi pattharon ke beech mein takhne takhne tak phaila pani kya awaz karega pani ke garbh se nikalkar chhote chhote patthar bhi apna sir uthaye akash ko nihar rahe the dopahri Dhalne par bhi itni tez dhoop! kahin chiraiya bhi nahin bolti kisi parani ka priy apriy swar nahin
sukhi nadi ke kinare baitha gusain sochne laga, kyo us wekti ko lauta diya laut to wo jata hi ghat ke andar tachch paDe pisan ke thailon ko dekhkar do chaar kshan ki batachit ka aasra hi hota
kabhi kabhi gusain ko ye akelapan katne lagta hai sukhi nadi ke kinare ka ye akelapan nahin, zindagi bhar sath dene ke liye jo akelapan uske dwar par dharna dekar baith gaya hai, wahi jise apna kah sake, aise kisi parani ka swar uske liye nahin, paltu kutte billi ka swar bhi nahin kya thikana aise malik ka, jiska ghar dwar nahin biwi—bachche nahin, khane—pine ka thikana nahin
ghutnon tak uthi hui purani fauji pait ke moD ko gusain ne khola gool mein chalte hue wo hissa thoDa bheeg gaya tha par is garmi mein use bhigi pant ki ye shitalta achchhi lagi pant ki salawton ko theek karte karte gusain ne hukke ki nali se munh hataya uske hothon mein bayen kone par halki si muskan ubhar i biti baton ki yaad gusain sochne laga, isi pant ki badaulat ye akelapan use mila hai nahin, yaad karne ko man nahin karta purani bahut purani baten wo bhool gaya hai, par hawaldar sahab ki pait ki baat use nahin bhulti
aisi hi fauji pait pahankar hawaldar dharamsinh aaya tha laundry ki dhuli, nonkdar, krijwali pant waisi hi pant pahanne ki mahattwakanksha lekar gusain fauj mein gaya tha par fauj se lauta, to pant ke sath sath zindagi ka akelapan bhi uske sath aa gaya
pant ke sath aur bhi kitni hi smritiyan mukhar hai us bar ki chhuttiyon ki baat
kaun mahina? han, baisakh hi tha sir par kras khukhri ke krest wali, kali kishtinuma topi ko tirchha rakhkar— fauji wardi pahne wo pahli bar enual leew par ghar aaya, to cheeD wan ki aag ki tarah khabar idhar udhar phail gai thi bachche buDhe, sabhi umse milne aaye the chacha ka goth eqdam bhar gaya tha, thasathass bistar ki nai, eqdam saf, jagmag, lal nili dhariyon wali dari angan mein bichhani paDi thi logon ko bithane ke liye khoob yaad hai, angan ka gobar dari mein lag gaya tha bachche buDhe sabhi aaye the sirf chana—guD ya haladwani ke tambaku ka lobh nahin tha, kal ke sharmile gusain ko is nae roop mein dekhne ka kautuhal bhi tha par gusain ki ankhen is bheeD mein jise khoj rahi thi, wo wahan nahin thi
nale par ke apne ganw se bhains ke katya ko khojne ke bahane dusre din lachhma i thi par gusain us din usse mil na saka ganw ke chhokre hi gusain ki jaan ko bawal ho gaye the buDDhe narsinh pardhan un dinon theek hi kahte the, ajkal gusain ko dekhkar sobaniyan ka laDka bhi apni phati gher ki topi ko tirchhi pahanne lag gaya hai din raat billi ke bachchon ki tarah chhokre uske pichhe lage rahte the, cigarette biDi ya gapshap ke lobh mein
ek din baDi mushkil se mauqa mila tha use lachhma ko pat patel ke liye jangal jate dekhkar wo chhokron se kankaD ke shikar ka bahana banakar akele jangal ko chal diya tha ganw ki sima se bahut door, kaphal ke peD ke niche gusain ke ghutne par sir rakhkar, leti leti lachhma kaphal kha rahi thi pake, gadraye, gahre lal lal kaphal! khel khel mein kaphlon ki chhina jhapti karte gusain ne lachhma ki mutthi bheench di thi tap tap kaphlon ka gaDha lal ras uski pant par gir gaya tha lachhma ne kaha tha, “ise yahin rakh jana, meri puri banh ki kurti ismen se nikal ayegi ” wo khilakhilakar apni baat par swayan hi hans di thi
purani baat kya kaha tha gusain ne, yaad nahin paDta tere liye makhmal ki kurti la dunga, meri suwa! ya kuch aisa hi
par lachhma ko makhmal ki kurti kisne pahnai— pahaDi par ke ramuwan ne, jo turinisan lekar use byahane aaya tha?
“jiske aage pichhe bhai bahan nahin, mai bap nahin, pardesh mein banduk ki nonk par jaan rakhnewale ko chhokri kaise de den ham?” lachhma ke bap ne kaha tha
uska man janne ke liye gusain ne teDhe tirchhe baat chalwai thi
usi sal mangsir ko ek thanDi, udas sham ko gusain ki unit ke sipahi kisansinh ne quarter master store ke samne khaDe khaDe usse kaha tha, “hamare ganw ke ramsinh ne zid ki, tabhi chhuttiyan baDhani paDi is sal uski shadi thi khoob achchhi aurat mili hai, yar! shakl surat bhi khoob hai, eqdam patakha! baDi hansmukh hai tumne to dekha hi hoga, tumhare ganw ke nazdik ki hai lachhma—lachhma kuch aisa hi nam hai ”
gusain ko yaad nahin paDta, kaun—sa bahana banakar wo kisansinh ke pas se chala aaya tha rum De tha us din hamesha aadha paig lene wala gusain us din do paig rum lekar apni charpai par paD gaya tha hawaldar major ne dusre din peshi karwai thee— malaria prikaushan na karne ke apradh mein! sochte sochte gusain budabudaya, “ssala eDajutent!”
gusain sochne laga, us sal chhuttiyon mein ghar se wida hone se ek din pahle wo mauqa nikalkar lachhma se mila tha
“ganganathajyu ki qas, jaisa tum kahoge, main waisa hi karungi ” ankhon mae ansu bharkar lachhma ne kaha tha
warshon se wo sochta hai, kabhi lachhma se bhent hogi to wo awashy kahega ki wo gangnath ka jagar lagakar prayashchitt zarur kar le dewi dewtaon ki jhuthi kasmen khakar unhen naraz karne se kya labh? jis par bhi gangnath ka kop hua, wo kabhi phal phool nahin paya par lachhma se kab bhent hogi, ye wo nahin janta laDakpan se sangi sathi naukari chakari ke liye maindanon mein chale gaye hain ganw ki or jane ka uska man nahin hota lachhma ke bare mein kisi se puchhna use achchha nahin lagta jitne din naukari rahi, wo palatkar apne ganw nahin aaya ek station se dusre station ka walantiyri transphar lene walon ki list mein nayak gusain ka nam upar aata raha lagatar pandrah sal tak
pichhle baisakh mein hi wo ganw lauta, pandrah sal baad, reserw mein aane par kale balon ko lekar gaya tha, khichDi baal lekar lauta lachhma ka hath use akela bana gaya
aj is akelepan mein koi hota, jise gusain apni zindagi ki kitab paDhkar sunata shabd akshar kitna dekha, kitna suna aur kitna anubhaw kiya hai usne
par nadi ke kinare ki ye tapti ret, panchakki ki khatar khetar aur mihal ki chhaya mein thanDi chilam ko nishprayojan guDaguDana gusain! aur charon or any koi nahin! eqdam nirjan, nistabdh, sunsan
ekayek gusain ka dhyan tuta
samne pahaDi ke beech ki pagDanDi ke sir par bojh liye ek nar akriti usi or chali aa rahi thi gusain ne socha, yahi se awaz dekar use lauta de kosi ke chikne, kai lage pattharon par kathinai se chalkar use wahan tak aakar kewal nirash laut jane ko kyon wo baadhy kare! door se chilla chillakar pisan swikar karwane ki logon ki aadat ke karan wo tang ho chuka tha is karan awaz dene ko uska man nahin hua hai wo akriti ab tak pagDanDi chhoDkar nadi ke marg mein aa pahunchi thi
chakki ki badalti awaz ko pahchankar gusain ghat ke andar chala gaya khappar ka anaj samapt ho chuka tha khappar mein ek kam ann wale thaile ko ulatkar usne ann ka nikas rokne ke liye kath ki chiDiyon ko ulta kar diya kit kit ka swar band ho gaya wo jaldi jaldi aate ko thaile mein bharne laga ghat ke andar mathani ki chhichchhir—chhachchhir ki awaz bhi apekshakrit kam sunai de rahi thi kewal chakki ke upar wale pat ki ghisatti hui ghargharaht ka halka dhima sangit chal raha tha tabhi gusain ne suna apni peeth ke pichhe, ghat ke dwar par, is sangit se bhi madhur ek nari ka kanth swar, “kab bari ayegi? raat ki roti ke liye bhi ghar mein aata nahin hai ”
sir par pisan rakhe ek istri use ye poochh rahi thi gusain ko uska swar parichit sa laga chaunkkar usne pichhe muDkar dekha kapDe mein pisan Dhila bandha hone ke karan bojh ka ek sira uske mukh ke aage aa gaya gusain use theek se nahin dekh paya, lekin tab bhi uska man jaise ashankit ho utha apni shanka ka samadhan karne ke liye wo bahar aane ko muDa; lekin tabhi phir andar jakar pisan ke thailon ko idhar udhar rakhne laga kath ki chiDiyan kit kit bol rahi theen aur usi gati ke sath gusain ko apne hirdai ki dhaDkan ka abhas ho raha tha
ghat ke chhote kamre mein charon or pise hue ann ka choorn phail raha tha, jo ab tak gusain ke pure sharir par chha gaya tha is kritrim saphedi ke karan wo wriddh sa dikhai de raha tha istri ne use nahin pahchana
usne dubara we hi shabd dohraye ab wo bhi tez dhoop mein bojha sir par rakhe hue gusain ka uttar pane ko aatur thi shayad nakaratmak uttar milne par wo ulte panw lautkar kisi any chakki ka sahara leti
dusri bar ke parashn ko gusain na tal paya, uttar dena hi paDa, “yahan pahle hi tila laga hai, der to hogi hi ” usne dabe dabe swar mein kah diya
istri ne kisi prakar ki anunay winay nahin ki sham ke aate ka parbandh karne ke liye wo dusri chakki ka sahara lene ko laut paDi
gumai kamar jhukakar ghat se bahar nikla muDte samay istri ki ek jhalak dekhkar uska sandeh wishwas mein badal gaya tha hatash sa wo kuch kshnon tak use jate hue dekhta raha aur phir apne hathon tatha sir par gire hue aate ko jhaDkar wo ek do qadam aage baDha uske andar ki kisi agyat shakti ne jaise use wapas jati hui us istri ko bulane ko baadhy kar diya awaz dekar use bula lene ko usne munh khola, parantu awaz na de saka ek jhijhak, ek asmarthna thi, jo uska munh band kar rahi thi wo istri nadi tak pahunch chuki thi gusain ke antar mein teewr uthal puthal mach gai is bar aaweg itna teewr tha ki wo swayan ko nahin rok paya, laDkhaDati awaz mein usne pukara, lachhma!”
ghabrahat ke karan wo pure zor se awaz nahin de paya tha istri ne ye awaz nahin suni is bar gusain ne swasth hokar pun pukara, “lachhma!”
lachhma ne pichhe muDkar dekha mayke mein use sabhi isi nam se pukarte the ye sambodhan uske liye swabhawik tha parantu use shanka shayad ye thi ki chakkiwala ek bar pisan swikar na karne par bhi use bula raha hai ya use kewal bhram hua hai usne wahi se puchha, “mujhe pukar rahe hain jee?
gusain ne sanyat swar mein kaha, “han, le aao, ho jayega ”
lachhma kshan bhar ruki aur phir ghat ki or laut i
achanak sakshatkar hone ka mauqa na dene ki ichha se gusain wyastata ka pradarshan karta hua mihal ki chhanh mein chala gaya
lachhma pisan ka thaila ghat ke andar rakh i bahar nikalkar usne anchal ke kor se munh ponchha tez dhoop mae chalne ke karan uska munh lal ho gaya tha kisi peD ki chhaya mein wishram karne ki ichha se usne idhar udhar dekha mihal ke peD ki chhaya ko chhoDkar any koi baithne layak sthan nahin tha wo usi or chalne lagi
gusain ki udarta ke karan rnai si hokar hi jaise usne nikat aate aate kaha, “tumhare baal bachche jite rahen, ghatwarji! baDa upkar ka kaam kar diya tumne! upar ke ghat mein bhi na jane kitni der mein number milta ”
ajat santti ke prati diye gaye ashirwachnon ko gusain ne man hi man winod ke roop mein grahn kiya is karan uski manasik uthal puthal kuch kam ho gai lachhma uski or dekhe, isse poorw hi usne kaha, “jite rahen tere baal bachche lachhma mayke kab i?”
gusain ne antar mein ghumaDti andhi ko rokkar ye parashn itne sanyat swar mein kiya, jaise wo bhi any das adamiyon ki tarah lachhma ke liye ek sadharan wekti ho
daDim ki chhaya mein pan patel jhaDkar baithte lachhma ne shankit drishti se gusain ki or dekha kosi ki sukhi dhaar achanak jal plawit hokar bahne lagti, to bhi lachhma ko itna ashchary nahin hota, jitna apne sthan se kewal chaar qadam ki duri par gusain ko is roop mein dekhne par hua wismay se ankhen phaDkar wo use dekhe ja rahi thi, jaise ab bhi use wishwas na ho raha ho ki jo wekti uske sammukh baitha hai, wo uska poorw parichit gusain hi hai
“tum?” jane lachhma kya kahna chahti thi, shesh shabd uske kanth mein hi rah gaye
“han, pichhle sal paltan mein laut aaya tha, waqt katne ke liye ye ghat lagwa liya ” gumai ne uski jij~nasa shant karne ke liye kaha hai hothon par muskan lane ki usne asaphal koshish ki
kuch kshnon tak donon kuch nahin bole phir gusain ne hi puchha, “baal bachche theek hain?”
ankhen zamin par tikaye, gardan hilakar sanket se hi usne bachchon ki kushalta ki suchana de di zamin par gire ek daDim ke phool ko hathon mein lekar lachhma uski pankhuDiyon ko ek ek kar niruddeshy toDne lagi aur gusain patli seek lekar aag ko kuredta raha
baton ka kram banaye rakhne ke liye gusain ne puchha, “tu abhi aur kitne din mayke thaharnewali hai?”
ab lachhma ke liye apne ko rokna asambhau ho gaya tap tap tap wo sir nicha kiye ansu girane lagi siskiyon ke sath sath uske uthte girte kandhon ko gusain dekhta raha use ye nahin soojh raha tha ki wo kin shabdon mein apni sahanubhuti prakat kare
itni der baad sahsa gusain ka dhyan lachhma ke sharir ki or gaya uske gale mein kala chareu (suhag chinh) nahin tha hataprabh sa gusain use dekhta raha apni wyawaharik agyanta par use behad jhunjhlahat ho rahi thi
aj achanak lachhma se bhent ho jane par wo un sab baton ko bhool gaya, jinhen wo kahna chahta tha in kshnon mein wo kewal matr shrota bankar rah jana chahta tha gusain ki sahanubhutipurn drishti pakar lachhma ansu ponchhti hui apna dukhDa rone lagi, “jiska bhagwan nahin hota, uska koi nahin hota jeth jithani se kisi tarah pinD chhuDakar yahan man ki bimari mein i thi, wo bhi mujhe chhoDkar chali gain ek abhaga mujhe rone ko rah gaya hai, usi ke liye jina paD raha hai nahin to pet par patthar bandhakar kahin Doob marti, janjal katta
“yahan kaka kaki ke sath rah rahi ho?” gusain ne puchha
“mushkil paDne par koi kisi ko nahin hota jee! baba ki jayedad par unki ankhen lagi hain, sochte hain, kahin main haq na jama loon mainne saf saf kah diya, mujhe kisi ka lena dena nahin hai janglat ka lisa Dho Dhokar apni guzar kar lungi, kisi ki ankh ka kanta bankar nahin rahungi ’’
gusain ne kisi prakar ki maukhik sanwedana nahin prakat ki kewal sahanubhutipurn drishti se use dekhta bhar raha daDim ke wriksh se peeth tikar lachhma ghutne moDkar baithi thi gusain sochne laga, pandrah solah sal kisi ki zindagi mein antar lane ke liye kam nahin hote, samay ka ye antral lachhma ke chehre par bhi ek chhap chhoD gaya tha, par use laga, us chhap ke niche wo aaj bhi pandrah warsh pahle ki lachhma ko dekh raha hai
kitni tez dhoop hai, is sal!’’ lachhma ka swar uske kanon mein paDa prsang badalne ke liye hi jaise lachhma ne ye baat jaan bujhkar kahi ho
aur achanak uska dhyan us or chala gaya, jahan lachhma baithi thi daDim ki phaili phaili adhaDhnki Dalon se chhankar dhoop uske sharir par paD rahi thi suraj ki ek patli kiran na jane kab se lachhma ke mathe par giri hui ek lat ko sunahri rangini mein Duba rahi thi gusain ektak use dekhta raha
dopahar to beet chuki hogi? lachhma ne parashn kiya to gusain ka dhyan tuta, han, ab to do bajnewale honge usne kaha, udhar dhoop lag rahi ho to idhar aa ja chhanw mein kahta hua gusain ek jamhai lekar apne sthan se uth gaya
nahin, yahin theek hai kahkar lachhma ne gusain ki or dekha, lekin wo apni baat kahne ke sath hi dusri or dekhne laga tha
ghat mein kuch der pahle Dala hua pisan samapti par tha number par rakhe hue pisan ki jagah usne jakar jaldi jaldi lachhma ka anaj khappar mein khali kar diya
dhire dhire chalkar gusain gool ke kinare tak gaya apni anjuli se bhar bharkar usne pani piya aur phir pas hi ek banjar ghat ke andar jakar pital aur alamuniyam ke kuch bartan lekar aag ke nikat laut aaya
as pas paDi hui sukhi lakDiyon ko batorkar usne aag sulgai aur ek kalikh puti batloi mein pani rakhkar jate jate lachhma ki or munh kar kah gaya, chay ka taim bhi ho raha hai pani ubal jaye, to patti Dal dena, puDiya mein paDi hai
lachhma ne uttar nahin diya wo use nadi ki or janewali pagDanDi par jata hua dekhti rahi
saDak kinare ki dukan se doodh lekar lautte lautte gusain ko kafi samay lag gaya tha wapas aane par usne dekha, ek chhः sat warsh ka bachcha lachhma ki deh se satkar baitha hua hai
bachche ka parichai dene ki ichha se jaise lachhma ne kaha, is chhokre ko ghaDi bhar ke liye bhi chain nahin milta jane kaise puchhta khojta meri jaan khane ko yahan bhi pahunch gaya hai
gusani ne lakshya kiya ki bachcha bar bar uski drishti bachakar man se kisi cheez ke liye zid kar raha hai ek bar jhunjhlakar lachhma ne use jhiDak diya, chup rah! abhi lautkar ghar jayenge, itni si der mein mara kyon ja raha hai?
chay ke pani mein doodh Dalkar gusain phir usi banjar ghat mein gaya ek thali mein aata lekar wo gool ke kinare baitha baitha use gunthne laga mihal ke peD ki or aate samay usne sath mein do ek bartan aur le liye
lachhma ne batloi mein doodh chini Dalkar chay taiyar kar di thi ek gilas, ek almuniyam ka mag aur ek alamuniyam ke maistin mein gusain ne chay Dalkar aapas mein bant li aur pattharon se bane beDhange chulhe ke pas baithkar rotiyan banane ka upakram karne laga
hath ka chay ka gilas zamin par tikakar lachhma uthi aate ki thali apni or khiskakar usne swayan roti paka dene ki ichha aise swar mein prakat ki ki gusain na na kah saka wo khaDa khaDa use roti pakate hue dekhta raha gol gol Dibiya sarikhi rotiyan chulhe mein khilne lagin warshon baad gusain ne aisi rotiyan dekhi theen, jo anishchit akar ki fauji langar ki chapatiyon ya swayan uske hath se bani beDaul rotiyon se ekdam bhinn theen aate ki loi banate samay lachhma ke chhote chhote hath baDi tezi se ghoom rahe the kalai mein pahne hue chandi ke kaDe jab kabhi aapas mein takra jate, to khan khan ka ek atyant madhur swar nikalta chakki ke pat par takranewali kath ki chiDiyon ka swar kitna niras ho sakta hai, ye gusain ne aaj pahli bar anubhaw kiya
kisi kaam se wo banjar ghat ki or gaya aur baDi der tak khali bartan Dibbon ko uthata rakhta raha
wo lautkar aaya, to lachhma roti banakar bartanon ko samet chuki thi aur ab aate mein sane hathon ko dho rahi thi
gusain ne bachche ki or dekha wo donon hathon mein chay ka mag thame takatki lagakar gusain ko dekhe ja raha tha lachhma ne agrah ke swar mein kaha, chay ke sath khani hon, to kha lo phir thanDi ho jayengi
main to apne taim se hi khaunga ye to bachche ke liye aspasht kahne mein use jhijhak mahsus ho rahi thi, jaise bachche ke sambandh mein chintit hone ki uski cheshta andhikar ho
na na, jee! wo to abhi ghar se khakar hi aa raha hai main rotiyan banakar rakh i thi, atyant sankoch ke sath lachhma ne apatti prakat kar di
han, yunhi kahti hai kahan rakhi theen rotiyan ghar mein? bachche ne ruansi awaz mein wastawik sthiti aspasht kar di wo dhyanapurwak apni man aur is aprichit wekti ki baten sun raha tha aur rotiyon ko dekhkar uska sanyam Dhila paD gaya tha
chup! ankhen tarerkar lachhma ne use Dant diya bachche ke is kathan se uski sthiti hasyaspad ho gai thi lajja se uska munh arakt ho utha
bachcha hai, bhookh lag i hogi, Dantane se kya fayda? gusain ne bachche ka paksh lekar do rotiyan uski or baDha deen parantu man ki anumti ke bina unhen swikarne ka sahas bachche ko nahin ho raha tha wo lalchai drishti se kabhi rotiyon ki or, kabhi man ki or dekh leta tha
gusain ke bar bar agrah karne par bhi bachcha rotiyan lene mein sankoch karta raha, to lachhma ne use jhiDak diya, mar! ab le kyon nahin leta? jahan jayega, wahin apne lachchhan dikhayega!
isse pahle ki bachcha rona shuru kar den, gusain ne rotiyon ke upar ek tukDa guD ka rakhkar bachche ke hathon mein diya bhari bhari ankhon se is anokhe mitr ko dekhkar bachcha chupchap roti khane laga, aur gusain kautukpurn drishti se uske hilte hue hothon ko dekhta raha
is chhote se prsang ke karan watawarn mein ek tanaw sa aa gaya tha, jise gusain aur lachhma donon hi anubhaw kar rahe the
swayan bhi ek roti ko chay mein Dubakar khate khate gusain ne jaise is tanaw ko kam karne ki koshish mein hi muskurakar kaha, log theek hi kahte hain, aurat ke hath ki bani rotiyon mein swad hi dusra hota hai
lachhma ne karun drishti se uski or dekha gusain ho hokar khokhli hansi hans raha tha
kuch sag sabzi hoti, to bechara ek aadhi roti aur kha leta gusain ne bachche ki or dekhkar apni wiwashta prakat ki
aisi hi khane pinewale ki taqdir lekar paida hua hota to mere bhag kyon paDta? do din se ghar mein tel namak nahin hai aaj thoDe paise mile hain, aaj le jaungi kuch sauda
hath se apni jeb tatolte hue gusain ne sankochpurn swar mein kaha, lachhma!
lachhma ne jij~nasa se uski or dekha gusain ne jeb se ek not nikalkar uski or baDhate hue kaha, le, kaam chalane ke liye ye rakh le, mere pas abhi aur hai parson daftar se maniarDar aaya tha
nahin nahin, jee! kaam to chal hi raha hai main is matlab se thoDe kah rahi thi ye to baat chali thi, to mainne kaha, kahkar lachhma ne sahayata lene se inkar kar diya
gusain ko lachhma ka ye wywahar achchha nahin laga rukhi awaz mein wo bola, duःkh taklif ke waqt hi adami adami ke kaam nahin aaya, to bekar hai! ssala! kitna kamaya, kitna phunka hamne is zindagi mein hai koi hisab! par kya fayda! kisi ke kaam nahin aaya ismen ahsan ki kya baat hai? paisa to mitti hai sala! kisi ke kaam nahin aaya to mitti, ekdam mitti!
parantu gusain ke is tark ke bawjud bhi lachhma aDi rahi, bachche ke sar par hath pherte hue usne darshanik gambhirta se kaha, gangnath dahine rahen, to bhale bure din nibh hi jate hain, jee! pet ka kya hai, ghat ke khappar ki tarah jitna Dalo, kam ho jaye apne paraye prem se hans bol den, to wo bahut hai din katne ke liye
gusain ne ghaur se lachhma ke mukh ki or dekha warshon pahle uthe hue jwar aur tufan ka wahan koi chihn shesh nahin tha ab wo sagar jaise simaon mein bandhkar shant ho chuka tha
rupya lene ke liye lachhma se adhik agrah karne ka uska sahas nahin hua par gahre asantosh ke karan bujha bujha sa wo dhimi chaal se chalkar wahan se hat gaya sahsa uski chaal tez ho gai aur ghat ke andar jakar usne ek bar shankit drishti se bahar ki or dekha lachhma us or peeth kiye baithi thi usne jaldi jaldi apne niji aate ke teen se do Dhai ser ke qarib aata nikalkar lachhma ke aate mein mila diya aur santosh ki ek sans lekar wo hath jhaDta hua bahar aakar bandh ki or dekhne laga upar bandh par kisi ko ghuste hue dekhkar usne hank di shayad khet ki sinchai ke liye koi pani toDna chahta tha
bandh ki or jane se pahle wo ek bar lachhma ke nikat gaya pisan pis jane ki suchana use dekar wapas lautte hue phir thithakkar khaDa ho gaya, man ki baat kahne mein jaise use jhijhak ho rahi ho atak atakkar wo bola, lachhma
lachhma ne sir uthakar uski or dekha gusain ko chupchap apni or dekhte hue pakar use sankoch hone laga wo na jane kya kahna chahta hai, is baat ki ashanka se uske munh ka rang achanak phika hone laga par gusain ne jhijhakte hue kewal itna hi kaha, kabhi chaar paise juD jayen, to gangnath ka jagar lagakar bhool chook ki mafi mang lena poot pariwarwalon ko dewi dewta ke kop se bacha rahna chahiye lachhma ki baat sunne ke liye wo nahin ruka
pani toDnewale khetihar se jhagDa niptakar kuch der baad lautte hue usne dekha, samnewale pahaD ki pagDanDi par sar par aata liye lachhma apne bachche ke sath dhire dhire chali ja rahi thi wo unhen pahaDi ke moD tak pahunchne tak takatki bandhe dekhta raha
ghat ke andar kath ki chiDiyan ab bhi kit kit awaz kar rahi theen, chakki ka pat khissar khissar chal raha tha aur mathani ki pani katne ki awaz aa rahi thi, aur kahin koi swar nahin, sab sunsan, nistabdh!
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।