कितनी लंबी और तीखी मार होती है फिर वह चाहे मौसम की हो या सिपाही की। चीख़कर उड़ी फड़फड़ाती हुई चील की तरह रज्जन की तकलीफ़ भरी हुई एक सदा-सी सुन पड़ी...“ओ माँ...”
नत्थू के हाथ कमर में बँधे कपड़े के छोर से बनाई छोटी-सी पोटली पर इस क़दर ढीले पड़ गए कि पोटली उसके बदन का हिस्सा जैसी न बनी होती तो ज़रूर सरक गिरती। आवाज़, बाँस जैसी तड़कती हुई तकलीफ़ भरी वह चीख़ ज्य़ादा लंबी नहीं थी लेकिन नत्थू की पसलियों के अंदर बहुत दूर तक और देर तक लकीर-सी खींचती चली गई।
कितनी लंबी और तीखी मार होती है फिर चाहे वह मौसम की हो या सिपाही की।
जून की इस बहुत तीखी और बहुत ज्य़ादा चढ़े बुख़ार की तरह बेआवाज़ धूप में नत्थू जहाँ ठिठक गया, वहाँ से सिर्फ़ कुछ क़दम आगे ही उसके मकान की पिछली दीवार थी। कच्ची मिट्टी से खड़ी की गई उस दीवार पर सफ़ेद सीपियाँ और घोंघे इस तरह उभर आए थे गोया वे वहाँ जड़ दिए गए हों। उस सफ़ेद पच्चीकारी के बीच पानी की धार से कटी मिट्टी की सँकरी खड़ी धारियाँ ज़ाहिर कर रही थी कि मौसम की अगली मार पड़ते ही दीवार गन कर गिर जाएगी। शायद इस दीवार के गिरने पर भी वैसी ही दहलाने वाली और भद्दी आवाज़ हो जैसी आवाज़ इस बार रज्जन की सुनाई दी थी। नत्थू ठहर गया था। हो सकता है वह अगली चीख़ का इंतज़ार कर रहा हो या फिर पहली ही चीख़ के अपने अंतर मे डूबने का समय लेना चाहता हो। रज्जन की आवाज़ दुबारा नहीं आई। मौसम की मार से छिली हुई दीवार की तरह ही शायद बारिश या डंडे के सिर्फ़ एक और आघात से वह भी गिरा हो तालाब की मिट्टी से बनी काली-भूरी दीवार-सा।
इतने समय में पोटली उसने दुबारा सावधानी से पकड़ ली थी। पोटली में काफ़ी तादाद में तोड़ी अरहर की फलियाँ थी। इन्हें छिलके सहित उबाल लेने के बाद थोड़े-से नमक की मदद से ख़ासे स्वादिष्ट भोजन के रूप में काम में लाया जा सकता था। खाने के मामले में उसके लिए यह मौसम लगभग समृद्धि काल होता था। हर किसी के लिए यह जानना आसान नहीं होता कि दुनिया का सबसे उम्दा खाना क्या होता है लेकिन नत्थू को यह ज़रूर मालूम था कि मिट्टी और सड़े पत्तों के बीच टपकने वाले महुए के रस भरे हुए सफ़ेद फूलों या फलों के बाद सबसे ज़ायक़ेदार खाना अरहर की उबली हुई फलियाँ होती थी। अरहर एक ऐसी बत्तमीज़ फ़सल है जो बिना किसी खाद या पानी के, बग़ैर किसी सही देख-रेख के खेत में बेतरतीबी से खड़ी रहती है और इतने लंबे अरसे तक खड़ी रहती है कि लगता है वह वहाँ हमेशा ऐसी ही बनी रहेगी। खेत की हिफ़ाजत करने वाला ही नहीं उसे चर जाने वाला जानवर भी अक्सर उसकी तरफ़ से उदासीन हो जाता था। ऐसे में झुलसाकर सुखाए आदमियों की खड़खड़ाती बेजान भीड़ की तरह खड़े उस खेत से दो पाव फलियाँ तोड़ लेना मामूली बात थी।
रज्जनलाल की उस कातर चीख़ के बाद सब ख़ामोश हो गया। सिर्फ़ एक ऐसे परिंदे की आवाज़ आती रही जिसके बारे में नत्थू ने ही नहीं, गाँव के हर आदमी ने एक ही वीभत्स और जुगुप्साजनक कहानी सुनी थी। सच तो यह है कि बहुत स्वादिष्ट महुए एकत्र करते हुए अक्सर वह परिंदा बोलता ज़रुर था और उसे वही कहानी याद भी आती थी। कहते हैं कभी एक बूढ़ी औरत ने घर के बाहर धूप मे महुए फैलाए और लकड़ी बीनने जाते वक़्त अपने एकमात्र पोते से कह गई कि वह महुओं की हिफ़ाज़त करे। धूप से सूखकर महुए बहुत कम हो गए। बुढ़िया ने वापस लौटकर समझा कि बच्चा चोरी से महुए खा गया। बुढ़िया ने बच्चे को सिल के पत्थर से मारा। बच्चा मर गया। लोगों ने बुढ़िया को बताया कि महुए चोरी नहीं गए थे, सूखकर कम हो गए थे, इसके बाद बुढ़िया एक चिड़िया बन गई और हर दोपहर आवाज़ लगाने लगी— उठो पुत्तू, पूर, पूर, पूर—
रज्जन को वे लोग सुबह कोई आठ बजे ले गए थे। उनमें से एक छोटा थानेदार था, बाक़ी सिपाही थे। रज्जन से उन्हें क्या जानना था यह शायद ही किसी को मालूम रहा हो।
रज्जन को जिस वक़्त पुलिस ले चली, उसके पीछे बच्चों की ख़ासी ही भीड़ थी लेकिन मर्द या औरत कोई नहीं था। बच्चे शायद वहाँ बहुत देर तक रहे हों। गाँव के बाहर प्रधान के खेतों से कटकर आने वाले अनाज के इकट्ठा करने की जगह और छोटे से एक कमरे के स्कूल के पीछे से होकर रास्ता कुछ बेढंगी क़ब्रों के बीच से गुज़रता हुआ एक टीले जैसी जगह की तरफ़ निकल जाता था। इस टीले पर पलाश की धूल से अँटी झाड़ियाँ और मकड़ी के जाले जैसे फूल उगाने वाली लंबी सूखी घास थी।
बच्चों और रज्जन को उधर जाते देखने वालों में नत्थू भी था। जाने कैसे उसे लगा था कि उसे वहाँ उस वक़्त दिखाई नहीं देना चाहिए। शायद उसी अपरिभाषेय आशंका के कारण उसने सोचा था कि फलियाँ तोड़ने में ज्य़ादा वक़्त लगाना चाहिए और फिर जहाँ तक बने, सीधे रास्ते घर नहीं लौटना चाहिए।
लंबा रास्ता तय करके गाँव के क़रीब आते-आते उसने यह आवाज़ सुनी, बहुत दूर से और बहुत ज्य़ादा तकलीफ़ में छटपटाती आवाज़। वह रज्जन की आवाज़ थी। कुछ ऐसी जैसे कीचड़ के बीच नोकदार लकड़ी से छेद दी गई मछली हो। रज्जन की उस चीख़ के साथ ही बबूल के झीने बेडौल दरख्त़ों के बीच से कही से उस परिंदे की आवाज़ आने लगी— उठो पुत्तू, पूर, पूर, पूर। जैसे वह कह रहा हो— बेटा उठ जाओ, महुआ कम नहीं हुआ है, पूरा है। यह चिड़िया बोलना शुरू करती है तो बोलती ही जाती है, तीखी दर्दभरी आवाज़ में, अक्सर घंटों— उठो पुत्तू, पूरे, पूर, पूर,—
रज्जन की आवाज़ के साथ बच्चों का वह हुजूम भागता हुआ स्कूल नाम के उस अधगिरे सायबान के पास आ गया। शायद उन्हें पुलिस वालों ने धमकाकर भगा दिया था। बच्चों के उस हुजूम मे ही रज्जन का बेटा भी था। स्कूल के पास ठहरकर बच्चों ने उसकी तरफ़ देखा। उनकी निगाहों में न कोई कुतूहल था न करुणा, उसे देखकर वे अपनी-अपनी व्यस्तता का साधन खोजने लगे। रज्जन का बेटा अभी तक सामान्य दिख रहा था पर वह यकायक कमज़ोर और बीमार दिखने लगा। उसका साँवला चेहरा ऐसा हो आया जैसे उस पर राख की एक परत आ जमी हो। वह धीरे से सूखे हुए गोबर के एक ढेर पर बैठ गया। बच्चों को अपनी व्यस्तता खोजने में ज्य़ादा देर नहीं लगी। एक बहुत ऊँचे बीमार आम के पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर लटके हुए सूखे-से कच्चे आम को तोड़ने के लिए वे मिट्टी और पत्थर के ढेले उछालने लगे।
वह आम शायद बहुत दिनों से वही था। या फिर एक गिर जाने पर दूसरा प्रकट हो जाता था। बच्चे लंबे अरसे से उस पर ढेले चला रहे थे। किसी को पता नहीं वह आम कभी गिरा भी था या नहीं। हाँ, बच्चों की इस कोशिश पर उस स्कूल के ऊपर रखी गई टिन की चादरें गिरते हुए ढेलों की वजह से ख़ासा शोर करती थीं। काफ़ी पत्थर गिर चुकने के बाद अंदर से स्कूल के एकमात्र अध्यापक किशन बाबू की आवाज़ें सुनाई देती थीं, “ठहर जाओ सालो।”
इस ललकार के बाद बच्चे ईंटें फेंकना बंद करके किसी और काम में लग जाते थे।
आम के उस दरख़्त पर फेंके गए दो-तीन ढेलों के बाद ही इस बार अध्यापक किशन बाबू की आवाज़ नहीं, आकृति बाहर आ गई। यह काफ़ी अनहोनी घटना थी। बच्चे सहमकर खड़े हो गए।
“भाग जाओ...” किशन बाबू भरी आवाज़ में बोले। बच्चे भाग गए। किशन बाबू स्कूल के अंदर नहीं गए। गर्द और धूप से पीलिया के रोगी जैसे दिखते क्षितिज पर आँखें गड़ाकर उस तरफ़ देखने लगे जिधर से रज्जन के चीख़ने की आवाज़ें आ रही थीं। अब वे चीख़ने की आवाज़ें नहीं कुछ ऐसी ध्वनियाँ थीं जैसे वे गले से नहीं, सीधे फेफड़े से उबलकर बाहर आ रही हों।
स्कूल के आसपास एकदम सन्नाटा था। वह स्कूल था, इस बात पर शायद ही कोई विश्वास कर सके। कच्चे फ़र्श और टीन की छत वाले उस लंबोतरे कमरे में दूसरे से चौथे दर्ज़े तक की कक्षाएँ एक साथ लगती थीं, कमरे के तीन कोनों में। और चौथे कोने में एक मेज़ के सहारे किशन बाबू बैठते थे। वे इस स्कूल के अध्यापक भी थे और पोस्टमास्टर भी। कुछ गालियों के साथ बच्चों को लगातार लिखते रहने का कोई काम देने के बाद वे सो जाते थे। कभी-कभी खीझ के साथ एक पोस्टकार्ड देने या ख़त लिखने के लिए उन्हें जागना होता था।
जागने पर किशन बाबू बहुत ज़ोर से खीझते थे। लेकिन बहुत थोड़े समय के लिए। जगाने वाला उनकी खीझ से परेशान होने के बजाए हँसता था। वे अजीब चरित्र थे। उनकी चरित्रगत विशिष्टता ही थी कि वे या तो सिर्फ़ अध्यापक के रूप में जाने जाते थे या डाकख़ाना के नाम से। पोस्टमास्टर शब्द वैसे भी सहज नहीं था पर उनके स्वभाव के कारण लोगों को उन्हें डाकख़ाना कहना अच्छा लगता था। इसकी वजह थी। ख़ासी मसख़री वजह। गांववालों का विश्वास था कि ख़त ही नहीं तार से भी ज्य़ादा जल्दी पहुँचती हैं, वे बातें जोकि किशन बाबू को बता दी जाती हैं। इसीलिए वे डाकबाबू नहीं डाकख़ाना माने जाते थे।
लेकिन इसमें क़सूर किशन बाबू का नहीं था। वे ज़िंदगी में शायद ही कभी किसी ऐसी जगह गए होंगे जहाँ कोई मनोरंजन कर सकता हो। मन लगाने के लिए उम्र बढ़ने के साथ-साथ उन्होंने वह तरीक़ा खोज लिया था, जिसे भद्दी भाषा में अक्सर लोग चुगलीख़ाना कह लेते हैं।
उस छोटे-से गाँव में यह एकमात्र सबसे सुलभ और लोकप्रिय मनोरंजन था। इस मनोरंजन की ख़ूबी यह थी कि यह अक्सर कई रोज़ निरंतर मन बहला सकता था। पड़ोस के गाँव में नौटंकी होती थी। उससे आगे एक क़स्बा पड़ता था जिसमें एक अदद सिनेमा था। मगर ये दोनों ही बहुत सीमित मनोरंजन थे। अक्सर सिनेमा या नौटंकी देखने वाले को बाद में मनोविनोद ज़ारी रखने के लिए ख़ासे झठ बोलने होते थे जो कभी-कभी पकड़े भी जाते थे। मसलन एक बार पंडित राधेश्याम ने एक सिनेमा देखा और वापस लौटकर बताया, “बड़ी गंदी तस्वीर है। उसमें खुलेआम औरत-मर्द गड़बड़ करते हैं।”
“खुलेआम गड़बड़ करते हैं?” पड़ोसियों में अचानक उत्सुकता जाग पड़ी।
“अरे बड़े गंदे होते हैं ये, मत पूछो।” पंडित ने थूका भी।
“मगर होता क्या है?” उत्सुक पड़ोसियों ने सहसा कल्पनाएँ करनी शुरू कर दी।
“अरे क्या नहीं होता, पूछो। रंडियाँ होती हैं, कुछ भी कर सकती हैं।”
“मतलब कपड़े-वपड़े सब उतारकर?”
“लो, इस लल्लू की सुनो।”
सबने विश्वास कर लिया कि परदे पर पंडित राधेश्याम वह कुछ देखकर आए हैं, जो दुर्लभ होता है और वह भी इतने सुंदर सजे-धजे लोगों के बीच होता हुआ।
एक-दूसरे को बग़ैर बताए यकायक कई लोग अगले दिन गाँव से ग़ायब हुए और जब वापस लौटे तब पंडित राधेश्याम को उससे भी ज्य़ादा गंदी गालियाँ दे रहे थे, क्योंकि परदे पर उन्होंने जो देखा था उसमें बिस्तर पर जाने से पहले नायक और नायिका कपड़े उतारते ज़रूर दिखे लेकिन सिर्फ़ कपड़े ही। नायक-नायिका नहीं दिखे। उनके उतारे कपड़ो का ढेर बन गया तो गाँववालों ने उत्सुकता से साँस रोक ली। वे समझे कि अब बिस्तर पर दोनों दिखाई देंगे लेकिन परदे पर तुरंत अँधेरा हो गया और जब उजाला हुआ तो लोग नायिका के बाप से शिकायत करने जाते दिखे।
ऐसे माहौल में बेहतरीन मनोरंजन किशन बाबू दे सकते थे, “अरे भई सुना? नहीं सुना? छोड़ो, तब तुम्हे बताने से क्या फ़ायदा।”
किशन बाबू के इस संवाद को सुनने वाला उत्सुक से ज्य़ादा शर्मिंदा होता था क्योंकि किशन बाबू तुरंत यह भी कह देते थे, “सारा गाँव जानता है। तुम्हीं कैसे अनजान बने हो? मुझे तो स्कूल को देर हो रही है।”
यह संवाद बोलने के बाद किशन बाबू स्कूल की तरफ़ चल भी पड़ते थे। ऐसी हालत में वह वाक्य सुनने वाला इसे आशंका से लगभग बौखला जाता था कि किसी बेहद रोचक प्रसंग की हिस्सेदारी से वह वंचित रह जाएगा। तब वह यकायक प्रार्थी हो जाता था बल्कि चापलूस। कुतूहल से चिकनाई आँखों से इधर-उधर ताकता हुआ किशन बाबू से सट जाता था। “क़सम से डाकख़ाना बाबू, इधर हम ऐसे फँसे रहे कि पूछो मत।”
“तो फिर फँसे रहो बच्चू। मैं तो प्रपंच में पड़ता नहीं। सारा गाँव जानता है। नंदू की घरवाली का क़िस्सा...”
इसके बाद किशन बाबू वहाँ ठहरते नहीं थे। धीरे-धीरे अगले दिन तक गाँव का हर मर्द छोटा-मोटा किशन बाबू बन जाता था। वह यह सिद्ध करना चाहता था कि नंदू की घरवाली के कांड का प्रथम उद्घाटनकर्ता वही है। यह सिद्ध करने में वह क़िस्से को अपनी कल्पना के पूरे कौशल से गढ़ने की कोशिश करता था। इस क़िस्से को सुनने वाला इसे अपना मौलिक उद्घाटन मनवाने के लिए अगले आदमी को अपनी तरफ़ से ख़ासा नमक-मिर्च लगाकर सुनाता था। इस तरह वह क़िस्सा जो भी रहा हो, कई रोज़ तक तरह-तरह के रूप लेता हुआ लगभग समूचे गाँव का मनोरंजन बना रहता था।
इस मनोरंजन में लोगों का मन रमाने की ख़ासी ही शक्ति थी लेकिन यही गाँव की गड़बड़ी की जड़ भी था। गड़बड़ी कहीं राधे की साली की हो नाम रघुनंदन की बहू का चल पड़ता था और इस तरह जो झगड़ा उठ खड़ा होता था वह अक्सर और ज्य़ादातर रोचक होता था। मनोरंजन का चक्र पूरा होते न होते मालूम होता था कि रघुनंदन ने मंसा को पीट दिया और मंसा नंदू को गाली दे आया या नंदू ने राधे पर ईंट फेंक मारी। यह झगड़ा जल्दी शांत नहीं होता था क्योंकि झगड़ा ठंडा जल्दी पड़ जाए तो उसमें भी मनोरंजन भाव को ही व्याघात होता था। जब नंदू राधे को ईंट मारता था तो राधे गोपाल की चाची का भेद खोल देता था और रघुनंदन से पिटने वाला मंसा टिंगू के घर का परदा उघाड़ देता था। इस तरह जितनी देर ये झगड़े चलते थे मनोरंजन रस के परिपाक की संभावनाएँ बढ़ती ही जाती थीं। इसीलिए लोग एक तरफ़ तो दो आदमियों को समझा-बुझाकर चुप कराते थे पर कोई ऐसा सूत्र भी छोड़ देते थे जिससे अगले चार के बीच शाम तक दुबारा फ़साद खड़ा हो जाए।
उस गाँव में बेहद लापरवाही लेकिन रुचि के साथ खेले जा रहे इस खेल में कुछ ऐसी रहस्यजनक शक्ति भी थी कि लगता था यह खेल ख़ुद गाँव को खेल रहा है, डोरी से बँधी उस गरारी की तरह जो धागे से खुलती हुई जितनी तेज़ी से नीचे उतरती है उतनी ही फुर्ती से धागे को लपेटती हुई दुबारा ऊपर चढ़ जाती है।
गाँव का दिन अपनी तमाम बदहाली के बावजूद उतना बुरा नहीं होता, बल्कि उसमें कुछ ऐसा होता है जो आदमी को अपनी तरफ़ खींचता है, अपने से जोड़ता है चाहे वह तालाब में सड़ने के इंतज़ार में छोड़े सन के पौधों का गट्ठर हो या पानी माँगता हुआ तंबाकू का पौधा, लेकिन रात वैसी नहीं होती है। गाँव की रात में एक अनाम दहशत होती है। अँधेरे के साथ खौफ़ सख़्त रोएँ आदमी से ऐसे सटने लगते हैं जैसे कोई आदमख़ोर सूँघने की कोशिश कर रहा हो। ऐसे में आदमी या तो आग के इर्द-गिर्द आदिम कबीले की तरह वक़्त गुज़ारता है या मिट्टी के घरों की गुफाओं में सिमट जाता है।
गाँव के दिन और रात का यही फ़र्क़ इस मनोरंजक खेल के दो पहलुओं के बीच भी थी— एक पहलू लोगों की रुचि का और दूसरा उससे उपजने वाली सामाजिक उलझन का। बड़े अनजाने और अनचाहे ही इसे दूसरे पहलू की गाँठे बढ़ती गई थी। कभी-कभी वे गाँठे इतनी सख़्त हो जाती थी कि किसी असाध्य रसौली की तरह बिना कुछ जानें लिए मानती नहीं थीं।
इस गाँव नौबन में पिछले कुछ अरसे से ऐसी ही कुछ रसौलियों ने ज़बर्दस्त दर्द और तनाव पैदा कर दिया था। रिश्तों की ये रसौलियाँ कब मारक हो उठीं, यह कोई नहीं जानता पर पिछले साल ज़बरदस्त सदियों में चींटियों से लिपटी नन्हे की लाश के साथ ख़ासी गड़बड़ी शुरू हो गई। और उन रसौलियों की सड़न रज्जन और नत्थू से कैसे जुड़ गई इसका भविष्य भी उतना ही अतर्कित है जितना नन्हें की लाश से पैदा हुई गड़बड़ी का।
ऐसा किसी ने कहा कि नन्हें मारा गया है और उसके मारे जाने के पीछे होरीलाल की छोटी बहन का कोई क़िस्सा है। हीरालाल ने कुछ नहीं कहा पर उसके छोटे भाई ने संतू को लाठियों से इसलिए बुरी तरह पीट डाला कि उसका ख़याल था यह बात संतू ने ही उड़ाई है।
संतू को दोबारा होश नहीं आया। उसे चूँकि रात के अँधेरे में होरीलाल के भाई ने अकेले घेरकर मारा था इसलिए हमलावर या हमलावरों का पता नहीं चला। लेकिन एक बात बहुत तेज़ी से फैल या फैलाई गई। किसी ने कहा, संतू डकैत था और चूंकि वह डकैत था इसलिए मदनलाल के गिरोह वाले उसकी मौत का बदला लेंगे।
मुमकिन है यह बात किशन बाबू ने ही फैला दी हो लेकिन इससे और ज्य़ादा मामला उलझ गया कि मदनलाल बरसाती राम का दुश्मन था। ज़रूर मदनलाल अपने गिरोह के साथ लाला बरसाती राम पर चढ़ाई करेगा।
इतना कुछ घट जाने के बाद नत्थू और रज्जन की भूमिका शुरू हुई। सारे घटना क्रम से वे कुछ इस सहजता से जुड़ गए जैसे वे हमेशा से उस सबका हिस्सा बनने का हक़ पाकर आए हों। वे जुड़े हुए न दिखते तो ज़रुर अनहोनी बात होती।
नत्थू और रज्जन नौबन के ख़ास चरित्र थे। उनकी उस विशिष्टता को लगभग हर कोई जानता था लेकिन वह जानकारी भी उसी मनोरंजन का हिस्सा थी जिसमें स्त्री-पुरुष संबंध थे।
वे दोनों ही मुख़बिर थे। दोनों सगे भाई थे लेकिन आपस में गहरी दुश्मनी थी। रज्जन डकैतों को मुख़बिर था और नत्थू पुलिस का। ऐसा लोगों का ख़याल था। मगर नत्थू कुछ ज्य़ादा चालाक था। वह डकैतों के लिए भी मुख़बिरी करता था। डकैतों के कहीं मौजूद होने की सूचना पुलिस को देने के बाद वह उतनी ही फ़ुर्ती से डकैतों को यह ख़बर भी पहुँचा देता था कि पुलिस को उनके बारे में ख़बर हो गई है। चूंकि अक्सर दोनों ही बातें सच होती थीं इसलिए नत्थू इस काम में कहीं ज्य़ादा सफल था।
शुरू में यह काम बहुत डराता था, ख़ासतौर से नत्थू को। रज्जन भी शुरू में डरा था। वह जानता था कि जिस दुनिया में वह रह रहा था वहाँ का बेहतरीन मनोरंजन कानाफूसी, ख़तरनाक हद तक भेद खोलने वाला यंत्र था। बहुत जल्दी ही हर किसी को मालूम हो जाता था कि नौबन में कोई अकेला व्यक्ति चुपचाप कहाँ, क्या कर आया। पहली बार मीरपुर की शादी में आए सोने के ज़ेवरात की ख़बर रज्जन ने जब मदनलाल को पहुँचाई तो वापस लौटते समय डरा। लेकिन जल्दी ही उसे मालूम हो गया कि चूँकि वह डकैत मदनलाल से संबंधित माना जा रहा है इसलिए लोग उससे भी लगभग वैसा ही खौफ़ खाने लगे हैं जैसा डर वे ख़ुद मदनलाल से महसूस करते थे।
नत्थू ने पुलिस की मुख़बिरी कुछ हद तक रज्जन से चिढ़ के कारण की थी। एक दिन वह एक जंगली लटार से वे काली मोटी फलियाँ तोड़कर लौट रहा था जिनके ऊपर चिपके रोएँ बेहद खुजली पैदा करते थे। वह खुजली पैदा करने वाले उन तंतुओं को महज़ एक शरारत के लिए ला रहा था। तभी उसने रज्जन को एक बिल्कुल नए रूप में देखा था। वह ख़ासी शराब पिए हुए था और गुड़ में चने की दाल मिलाकर बनाई मिठाई का भारी-सा टुकड़ा अँगोछे में बाँधे था जिसका एक सिरा सायास विज्ञापन की तरह बाहर झाँक रहा था। रज्जन की उस दिन पहली अच्छी आमदनी हुई थी। हालाँकि यह आमदनी आसान नहीं थी फिर भी वह बहुत ख़ुश था।
उसके सिर्फ़ तीन दिन पहले यह सिलसिला शुरू हुआ था। रज्जन एक दोस्त की बारात से लौट रहा था। उसने कुर्ते के ऊपर पहनने वाली सदरी राधे में माँग ली थी और कुर्ता-धोती को भरसक धो लिया था।
उसके जूते में घोड़े की जैसी नाल जड़ी हुई थी, जिसकी वजह से चलते वक़्त बड़ी शानदार आवाज़ होती थी। सिर पर टोपी लगाने के बाद उसने एक लाठी भी ले ली थी। इस तरह चलते हुए वह अपने को ख़ासा महत्त्वपूर्ण व्यक्ति समझने लगा था। नौबन लौटते वक़्त रात हो गई थी। सड़क के दोनों तरफ़ खड़े काले दरख्त़ों के बीच मे छनकर चाँदनी के छोटे-बड़े धब्बे सड़क पर दूर तक छितराए हुए थे। उस सूनी सड़क पर चाँदनी के वे धब्बे कुचलते हुए आगे बढ़ने पर जूतों से जो आवाज़ होती थी उसकी ताल पर वह गाना भी गाने लगा था।
उसकी आत्मविभोर मनःस्थिति बहुत ही बेदर्दी से टूटी। बहुत बत्तमीज़ी से उसे ललकारते हुए अपने चेहरे लपेटे जिन एक दर्ज़न लोगों ने उसे अचानक घेर लिया था उन्होंने न सिर्फ़ उसे गालियाँ ही दी बल्कि उनमे से एक ने उसकी कमर के पास लाठी भी दे मारी। उस हमले में चोट से ज्य़ादा अपमान के कारण वह रो पड़ा।
उसे घेरने वाले लोग डकैत थे। अपनी हैसियत बताने के बाद उन्होंने उसे और पीटा और जब अपनी कारगुज़ारी से संतुष्ट हो गए तो उन्होंने उससे कहा कि उसके पास जो कुछ भी हो, चुपचाप हवाले कर दे।
हवाले करने लायक रज्जन के पास सिर्फ़ डेढ़ रुपए थे। कुछ मिठाई भी थी।
इतनी लूट से डकैत बहुत ज्य़ादा चिढ़ गए और उन्होंने उसे फिर पीटा। बल्कि उनमें से एक चिल्लाया, “मारकर फेंक दो साले को।”
रज्जन रोता हुआ बोला, “मुझे मारकर क्या मिलेगा दादा...”
“अबे तो फिर किसको मारकर मिलेगा? ऐं?”
इसी संवाद से रज्जन के लिए एक नया रास्ता खुल गया। उसने मुन्ना साहू का पता दे दिया और यह भी बता दिया कि पैसे उधार लेने के लिए लोग जो ज़ेवर गिरवी रखते थे उन्हें वह भूसे वाली कोठरी में रखता था।
“साले, अगर वहाँ कुछ न मिला तो काटकर फेंक देंगे।” उन्होंने जाते-जाते उसे धमकी दी और थोड़ा-सा और पीटा।
निश्चय ही डाकुओं को मुन्ना साहू के यहाँ ख़ासा माल मिला होगा क्योंकि थोड़े ही अरसे बाद उन्हीं में से दो ने जाने कैसे उसे फिर खोज लिया था। रज्जन डरकर दुबारा पिटने के लिए साहस जुटा रहा था कि उन्होंने अपना प्रस्ताव रख दिया।
सही सूचना देने और उस सूचना से लाभ होने पर बीस रुपए मिलते थे और देसी शराब के साथ उम्दा ख़ाना।
और यह सारी अय्याशी, नए रोज़गार की सारी बारीकियाँ नौबन के हर आदमी को मालूम हो गई थीं। इन्ही से खीझकर एक दिन नत्थू ने यह सब कुछ पुलिस को बता देने का फ़ैसला कर डाला था।
बहाना बनाकर लंबी यात्रा करने के बाद जब नत्थू थाने पहुँचा तो उसे लगा वह वहाँ नाहक़ आ गया था। पुलिस के पास जाने की बात सोचना उसके लिए आसान था पर उससे सामना करते वक़्त वह सचमुच घबरा गया। उसे लगा, रज्जन वह ख़ुद था और अपने आपको यहाँ सौंपने आया था। थाने का छोटा दारोग़ा उसे सामने ही खड़ा मिल गया था। वह खाना खाकर उठा था और दाँत खोदने के बाद पेड़ के नीचे चारपाई पर थोड़ी देर सो लेने की तैयारी में था। उसके सामने पड़ते ही नत्थू की शक्ल किसी अपराधी जैसी हो गई और उसका गला बिल्कुल ख़ुश्क हो गया।
“कौन है बे? यहाँ क्या कर रहा है?” दारोग़ा ने दाँत से निकली साग की पत्ती ज़ोर से थूकी।
“हुज़ूर, आपकी ख़िदमत में आया था।” नत्थू ने किसी तरह कहा।
दारोग़ा ने उसे तीखी निगाहों से घूरा। फिर चिल्लाकर मिट्टी पर पानी छिड़कते सिपाही से बोला, “अबे इसे देख तो उधर ले जाकर। ख़ासी हरामी चीज़ लग रहा है।”
सिपाही ने भी उसे उसी तरह घूरा था। थोड़ी देर बारीकी से उसका मुआयना करने के बाद बाँह के पिछले हिस्से पर पंजा गड़ाकर वह उसे अंदर की तरफ़ ले गया था। अंदर पहुँचते ही नत्थू के कुछ कहने से पहले सिपाही ने उसे अपनी तरफ़ पुतले की तरह घुमाया और छाती के बीचों-बीच इस तरह बिना कोई उत्तेजना दिखाए घूँसा मारा गोया वह किसी बालू के बस्ते पर घूँसेबाज़ी का अभ्यास कर रहा हो। घूँसा मारने के साथ ही उसने उल्टे हाथ से उसकी कनपटी पर एक थप्पड़ भी मारा। नत्थू थोड़ा झुक गया था पर थप्पड़ पड़ते ही उलटकर दीवार के पास जा गिरा था।
यह रज्जन या नत्थू ही नहीं नौबन के हर छोटे आदमी को मालूम था कि शहज़ोर से संवाद शुरू होने की भाषा आमतौर पर यही होती थी। इसलिए पहली मार की घबराहट पर उसने जल्दी ही काबू पा लिया, “हुज़ूर, दारोग़ा साहब, मैं तो बड़ी जरूरी ख़बर देने आया था।”
इस पर सिपाही कुछ हिचका, लेकिन एक ज़ोरदार ठोकर और मार लेने के बाद ही उसने पूछा, “साला, ख़बर लाया है। क्या ख़बर लाया है? ऐं?”
“हुज़ूर, वो डकैत...”
“डकैत? क्या डकैत?”
“हुज़ूर, डकैत हरीराम कल डाका डालने वाला है।”
“इसकी सुनो।” सिपाही जैसे दीवारों से ही बोला, “तेरे पास साले है ही क्या कि हरीराम तुझे लूटेगा। मक्कारी करता है। साला, किसी बेगुनाह को फँसाना चाहता है, तेरी तो...”
यह कहकर सिपाही ने उसे थोड़ा और पीटा।
“मगर मेरी बात तो सुन लीजिए, हुज़ूर। बाद में फाँसी पर चढ़ा दीजिएगा। हरीराम कुंदन को लूटने आएगा।” नत्थू ने किसी तरह कहा। यह सूचना भी उसे ख़ुद रज्जन की हरक़तों से मिल गई थी।
सिपाही ने उसे इस बार पीटा नहीं, सिर्फ़ कुछ फ़ुहश-सी गालियाँ दी और धक्का देकर दारोग़ा के पास ले आया।
“अब क्या तकलीफ़ हो गई जी?” दारोग़ा खीझ गया।
“ये हरामी कहता है कि हरीराम कल रात कुंदन के घर पर डकैती डालेगा।”
“मारो साले को और बंद कर दो।” दारोग़ा ने हुक़्म दिया।
नत्थू सचमुच ही थोड़ा और पिटा और हवालात में बंद कर दिया गया। लेकिन दूसरी रात डकैती पड़ गई। डकैती बहुत बुरी तरह पड़ी। उस रात कुंदन का साला भी आया हुआ था। वह खामपुर के थाने में मुंशी था। उसने डकैतों से थोड़ी-सी पुलिस की शेख़ी मारने की कोशिश कर दी। बल्कि हरीराम के एक साथी को पकड़कर पटक भी दिया। इसके बाद हरीराम फ़िल्मों वाला डकैत बन गया। उसने बुरी तरह लूटा भी और चलते-चलते क़तार से खड़ा करके घर के चार मर्दों को गोली भी मार दी। मरने वालों में वह मुंशी भी था।
थाने पर यह ख़बर पहुँचते ही नत्थू छोड़ दिया गया। अब वह पुलिस का विश्वसनीय सूत्र बन चुका था।
मारे जाने वालों में से चूँकि एक पुलिस का मुंशी ख़ुद था इसलिए जल्दी ही पुलिस ने दुबारा नत्थू को खोज लिया।
यहाँ से इस खेल ने एक ऐसा मोड़ ले लिया जो कहीं रज्जन और नत्थू दोनों की ज़िंदगी से जुड़ता था। हालाँकि इस काम में आमदनी बहुत अच्छी न थी लेकिन कुछ काम तो चल ही जाता था। सबसे बड़ी बात थी कि एक ख़ास क़िस्म की व्यस्तता का एहसास।
मुख़बिरी के इस धंधे की शुरुआत जहाँ नत्थू और रज्जन की आपसी दुश्मनी से हुई थी वहाँ इसमें विकास की प्रक्रिया दोनों को धीरे-धीरे एक-दूसरे के इस तरह क़रीब लाने लगी कि वे काफ़ी हद तक एक-दूसरे के पूरक या सहयोगी हो गए। नत्थू की पुलिस तक पहुँचाई जाने वाली सूचनाएँ अक्सर रज्जन से ही मिलने लगीं क्योंकि पुलिस कार्यवाही के बारे में डकैतों तक पहुँचाने वाली खबरें रज्जन नत्थू से लेने लगा।
यह भी मज़े की बात थी कि इस बेहद मशीनी अंदाज़ में होने वाली मुख़बिरी से मुख़बिर तो ख़ुश थे ही पुलिस और डकैत भी प्रसन्न थे। दरअसल इन मुख़बिरों के कारण दोनों की आसानियाँ बढ़ गई थीं। पुलिस या डाकुओं में से दोनों को पता लग जाता था कि कौन, कहाँ, कब और क्या करेगा। डकैत आते थे और इत्मीनान से लूटकर चले जाते थे। फिर पुलिस आती थी। वह उन अड्डों पर छापा मारती थी जहाँ से डकैत पहले ही भाग चुके होते थे। पुलिस शराब की ख़ाली बोतलें और अधजली सिगरेटें सील करके लौट जाती थी। अभियान दोनों में से किसी के असफल नहीं होते थे।
मगर इस बीच एक भारी गड़बड़ी हो गई। एक मंत्री का भाई अपने परिवार के साथ मोटर पर रात के वक़्त शिकार से लौट रहा था। मोटर रोककर डाकूओं ने उन्हें मार दिया और जो मिला वह लूट ले गए थे। यह मामला बहुत गंभीर था और पुलिस और डाकुओं को ही नहीं, नत्थू और रज्जन को भी पता लग गया था कि यह मामला आसान नहीं है।
नत्थू पोटली में बँधी अरहर की फलियाँ बीवी को सौंप देना चाहता था और अगली किसी कार्यवाही से पहले ही गाँव से बाहर कहीं ग़ायब हो जाना चाहता था। उसने मकान के पीछे वाले दरवाज़े पर हाथ रखना ही चाहा था कि उसे लगा अंदर कोई है।
क्या अंदर पुलिसवाले हैं?
थोड़ी देर अपने आपको संयत करके उसने दरवाज़े की संध से अंदर झाँकने का फ़ैसला किया। यह काम आसान था। उसे मालूम था कि पिछला दरवाज़ा बेहद आवाज़ करेगा, ज़रा-सा छूते ही। आवाज़ें उसे साफ़ सुनाई दे रही थी वे कुछ अजीब तरह की थीं।
आख़िर उसने बहुत सावधानी से दरवाज़े की दरार से अंदर की ओर झाँका। वर्दियाँ तो वही थी। निश्चय ही वही जो पुलिसवाले पहनते हैं लेकिन मदनलाल को पहचानने में उसे भूल नहीं हुई। अजब बात थी कि वर्दियाँ दोनों की एक ही होती थीं फिर मुख़बिरी इतनी अलग क्यों थी?
उसे ज्य़ादा सोचने का वक़्त नहीं मिला क्योंकि थोड़ा-सा किनारे पड़ी चारपाई पर जो कुछ हो रहा था वह देखकर नत्थू यकायक सूखकर बदरंग हो गया।
फ़र्श पर मदनलाल अपने कुछ साथियों के साथ बैठा हुआ मुँह भर-भरकर कुछ खा रहा था। और चारपाई पर बिना किसी कपड़े के उसकी बीवी इस तरह चित लेटी थी जैसे बरसात के मौसम में मनाए जाने वाले त्योहार में चौराहे पर डालकर छड़ियों से पीटी, फटी गुड़िया।
वह दरवाज़े मे हट गया। अंदर की आवाज़ें बहुत ज़ोर से उसके दिमाग़ में बज रही थीं। झुककर उसने चुपचाप वे फलियाँ वहीं धूप में रख दीं और लौट चला।
इस बार खेल नहीं सच। वे लोग यहाँ हैं और अभी रहेंगे। मदनलाल का पूरा गिरोह। भले ही पुलिस आए और उसकी बीवी को उस बेहूदा हालत में देखकर मज़े भी ले पर पुलिस को आना होगा।
कतराने के बजाए वह सीधे टीने की तरफ़ चल पड़ा।
रज्जन के चीख़ने की आवाज़ फिर आने लगी थी लेकिन उसी के साथ किशन बाबू ने बच्चों को महात्मा गाँधी वाला पाठ ज़ोर-ज़ोर मे पढ़ाना शुरू कर दिया था। आज बहुत दिन बाद वे इस तरह पढ़ा रहे थे, शायद रज्जन की चीखों की तरफ़ से ध्यान हटाने के लिए।
बुख़ार की तरह ज़मीन और आसमान को कँपाती गर्मी में जब नत्थू टीले के दूसरी ओर उतरा तो पलकों पर बैठ गई लू के धुँधलके में उसने रज्जन को बाद में देखा, पुलिस ने उसे पहले देखा।
रज्जन बिना किसी कपड़े के धूप में ज़मीन पर लेटा था या लोट रहा था और एक सिपाही लाठी का सिरा उसकी जाँघों के बीच रह-रहकर कोंच रहा था जैसे पानी की तली नाप रहा हो।
नत्थू पर नज़र पड़ते ही वहाँ वह सब थम गया। नत्थू कुछ और तेज़ क़दम बढ़ाकर उन लोगों तक गया और निगाह मिलाए बग़ैर धीरे से एक सिपाही के कान में बोला, “मदनलाल पूरे गिरोह के साथ मेरे घर में छुपा है। जल्दी करिए हुज़ूर...”
“ये हरामी क्यों आया?” दारोग़ा ने दूर से ही पूछा।
सिपाही ने फ़ुर्ती से पास जाकर दारोग़ा को वह बात बताई। दारोग़ा थोड़ी देर इस तरह गुमसुम हो गया जैसे वह किसी बहुत जटिल अभियान की तैयारी करने लगा हो। फिर सहसा उठ पड़ा। उसने चिल्लाकर जीप वाले को पुकारा और सिपाहियों से बोला, “इस मुल्ज़िम को जीप में डालो। और इसे भी बैठा लो। जल्दी करो।” उसने नत्थू की तरफ़ इशारा किया।
नत्थू को और किसी वक़्त यह ठीक नहीं लगता पर अभी जो कुछ उसने देखा था उसके बाद ख़ुद पुलिस की जीप में बैठकर निहत्थे ही सही, गिरोह तक जाने में संकोच नहीं रह गया था। वह ख़ुद ही जीप के पिछले भाग में बैठ गया।
रज्जन को सीटों के बीच में डालकर सिपाही बहुत फ़ुर्ती से जीप में आ बैठे। दारोग़ा के बैठते ही जीप रवाना हो गई।
“चक्कर ले लो। उधर बबूल के जंगल की तरफ़ से निकलो।”
जीप गाँव के पीछे की ओर गई ज़रूर लेकिन नौबन की तरफ़ मुड़ी नहीं बल्कि थोड़ी दूर ही निकल गई। नत्थू ने इस बात पर ध्यान दिया पर उसने सोचा कि शायद पुलिस अपने ढंग में डाकुओं को घेरने की कोशिश कर रही है। तभी दारोग़ा बोला, “रोको।”
जीप रुक गई। उसने रज्जन की पसली पर जूते की नोंक चुभाकर कहा, “इसे कहो उतरे। न उतरे तो नीचे फेंक दो।”
इस तरह का आदमी शायद ज्य़ादा ही मज़बूत हो जाता होगा। क्योंकि सिपाहियों की थोड़ी-सी कोशिश से रज्जन न सिर्फ़ नीचे आ गया बल्कि लड़खड़ाता हुआ खड़ा भी हो गया।
“तू भी नीचे उतर।” दारोग़ा ने नत्थू को डाँटा। डाँट से थोड़ा शर्मिंदा होकर नत्थू भी नीचे उतर आया।
उसके नीचे उतरते ही दारोग़ा चीखा, “भाग, फ़ौरन भाग।”
नत्थू समझ नहीं पाया।
“अबे तुम लोग भागते हो या नहीं! लगाऊँ मार?” दारोग़ा फिर चीखा।
नत्थू पहले तो पीछे हटा फिर बहुत धीमी चाल में भागने लगा। अब चूँकि उसकी पीठ जीप की तरफ़ थी इसलिए वह कुछ देख नहीं सका। सिर्फ़ उसे रज्जन की ऐसी कातर आवाज़ सुन पड़ी जैसे वह भीख माँग रहा हो और उसे देखने के लिए सिर घुमाने से पहले ही उसने कान फाड़ देने वाली गोली की आवाज़ सुनी। वह पीछे मुड़कर देखना चाहता था पर तभी उसे जैसे किसी ने पीछे से भयानक धक्का दिया और सामने सीने के पास माँस का लोथड़ा-सा लटक आया। वह डगमगाया और नीचे गिर गया। परिंदे उड़कर ज़बरदस्त शोर करने लगे। गिरने के बाद जाने क्या हुआ कि उसका दर्द बिल्कुल ख़ामोश हो गया।
जीप पीछे हटी और वापस चली गई। दोनों लाशें वही पड़ी रहीं। जाने कब पुलिसवाले उनके पास एक ज़ंग लगा तमंचा फेंक गए थे। परिंदे थोड़ी देर में फिर शांत हो गए, पर उस उदास पक्षी की आवाज़ उसी तरह सुनाई देती रही—
उठो पुत्तू, पूर, पूर, पूर—
kitni lambi aur tikhi mar hoti hai phir wo chahe mausam ki ho ya sipahi ki chikhkar uDi faDfaDati hui cheel ki tarah rajjan ki taklif bhari hui ek sada si sun paDi “o man ”
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aisa kisi ne kaha ki nanhen mara gaya hai aur uske mare jane ke pichhe horilal ki chhoti bahan ka koi qissa hai hiralal ne kuch nahin kaha par uske chhote bhai ne santu ko lathiyon se isliye buri tarah peet Dala ki uska khayal tha ye baat santu ne hi uDai hai
santu ko dobara hosh nahin aaya use chunki raat ke andhere mein horilal ke bhai ne akele gherkar mara tha isliye hamlawar ya hamlawron ka pata nahin chala lekin ek baat bahut tezi se phail ya phailai gai kisi ne kaha, santu Dakait tha aur chunki wo Dakait tha isliye madanlal ke girohwale uski maut ka badla lenge
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natthu ne police ki mukhabiri kuch had tak rajjan se chiDh ke karan ki thi ek din wo ek jangali latar se we kali moti phaliyan toDkar laut raha tha jinke upar chipke roen behad khujli paida karte the wo khujli paida karnewale un tantuon ko mahz ek shararat ke liye la raha tha tabhi usne rajjan ko ek bilkul nae roop mein dekha tha wo khasi sharab piye hue tha aur guD mein chane ki dal milakar banai mithai ka bhari sa tukDa angochhe mein bandhe tha jiska ek sira sayas wij~napan ki tarah bahar jhank raha tha rajjan ki us din pahli achchhi amdani hui thi halanki ye amdani asan nahin thi phir bhi wo bahut khush tha
uske sirf teen din pahle ye silsila shuru hua tha rajjan ek dost ki barat se laut raha tha usne kurte ke upar pahannewali sadri radh mein mang li thi aur kurta dhoti ko bharsak dho liya tha
uske jute mein ghoDe ki jaisi nal jaDi hui thi, jiski wajah se chalte waqt baDi shanadar awaz hoti thi sir par topi lagane ke baad usne ek lathi bhi le li thi is tarah chalte hue wo apne ko khasa mahattwapurn wekti samajhne laga tha nauban lautte waqt raat ho gai thi saDak ke donon taraf khaDe kale darakhton ke beech mae chhankar chandni ke chhote baDe dhabbe saDak par door tak chhitraye hue the us suni saDak par chandni ke we dhabbe kuchalte hue aage baDhne par juton se jo awaz hoti thi uski tal par wo gana bhi gane laga tha
uski atmawibhor manasthiti bahut hi bedardi se tuti bahut battmizi se use lalkarte hue apne chehre lapete jin ek darzan logon ne use achanak gher liya tha unhonne na sirf use galiyan hi di balki unme se ek ne uski kamar ke pas lathi bhi de mari us hamle mein chot se jyada apman ke karan wo ro paDa
use ghernewale log Dakait the apni haisiyat batane ke baad unhonne use aur pita aur jab apni karguzari se santusht ho gaye to unhonne usse kaha ki uske pas jo kuch bhi ho, chupchap hawale kar de
hawale karne layak rajjan ke pas sirf DeDh rupae the kuch mithai bhi thi
itni loot se Dakait bahut jyada chiDh gaye aur unhonne use phir pita balki unmen se ek chillayo, “markar phenk do sale ko ”
isi sanwad se rajjan ke liye ek naya rasta khul gaya usne munna sahu ka pata de diya aur ye bhi bata diya ki paise udhaar lene ke liye log jo zewar girwi rakhte the unhen wo bhuse wali kothari mein rakhta tha
“sale, agar wahan kuch na mila to katkar phenk denge ” unhonne jate jate use dhamki di aur thoDa sa aur pita
nishchay hi dakuon ko munna sahu ke yahan khasa mal mila hoga kyonki thoDe hi arse baad unhin mein se do ne jane kaise use phir khoj liya tha rajjan Darkar dubara pitne ke liye sahas juta raha tha ki unhonne apna prastaw rakh diya
sahi suchana dene aur us suchana se labh hone par bees rupae milte the aur desi sharab ke sath umda khana
aur ye sari ayyashi, nae rozgar ki sari barikiyan nauban ke har adami ko malum ho gai theen inhi se khijhkar ek din natthu ne ye sab kuch police ko bata dene ka faisla kar Dala tha
bahana banakar lambi yatra karne ke baad jab natthu thane pahuncha to use laga wo wahan nahaq aa gaya tha police ke pas jane ki baat sochna uske liye asan tha par usse samna karte waqt wo sachmuch ghabra gaya use laga, rajjan wo khu tha aur apne aapko yahan saunpne aaya tha thane ka chhota darogha use samne hi khaDa mil gaya tha wo khana khakar utha tha aur dant khodne ke baad peD ke niche charpai par thoDi der so lene ki taiyari mein tha uske samne paDte hi natthu ki shakl kisi apradhi jaisi ho gai aur uska gala bilkul khushk ho gaya
“kaun hai be? yahan kya kar raha hai?” darogha ne dant se nikli sag ki patti zor se thuki
darogha ne use tikhi nigahon se ghura phir chillakar mitti par pani chhiDakte sipahi se bola, “abe ise dekh to udhar le jakar khasi harami cheez lag raha hai ”
sipahi ne bhi use usi tarah ghura tha thoDi der bariki se uska muayna karne ke baad banh ke pichhle hisse par panja gaDakar wo use andar ki taraf le gaya tha andar pahunchte hi natthu ke kuch kahne se pahle sipahi ne use apni taraf putle ki tarah ghumaya aur chhati ke bichon beech is tarah bina koi uttejna dikhaye ghunsa mara goya wo kisi balu ke baste par ghunsebazi ka abhyas kar raha ho ghunsa marne ke sath hi usne ulte hath se uski kanpati par ek thappaD bhi mara natthu thoDa jhuk gaya tha par thappaD paDte hi ulatkar diwar ke pas ja gira tha
ye rajjan yo natthu hi nahin nauban ke har chhote adami ko malum tha ki shahazor se sanwad shuru hone ki bhasha aam taur par yahi hoti thi isliye pahli mar ki ghabrahat par usne jaldi hi kabu pa liya, “huzur, darogha sahab, main to baDi jaruri khabar dene aaya tha ”
is par sipahi kuch hichka, lekin ek zordar thokar aur mar lene ke baad hi usne puchha, “sala, khabar laya hai kya khabar laya hai? ain?”
“huzur, wo Dakait ”
“Dakait? kya Dakait?”
“huzur, Dakait hariram kal Daka Dalnewala hai ”
“iski suno ” sipahi jaise diwaron se hi bola, “tere pas sale hai hi kya ki hariram tujhe lutega makkari karta hai sala, kisi begunah ko phansana chahta hai, teri to ”
ye kahkar sipahi ne use thoDa aur pita
“magar meri baat to sun lijiye, huzur baad mein phansi par chaDha dijiyega hariram kundan ko lutne ayega ” natthu ne kisi tarah kaha ye suchana bhi use khu rajjan ki haraqton se mil gai thi
sipahi ne use is bar pita nahin, sirf kuch fohash si galiyan di aur dhakka dekar darogha ke pas le aaya
“ab kya taklif ho gai jee?” darogha kheejh gaya
“ye harami kahta hai ki hariram kal raat kundan ke ghar par Dakaiti Dalega ”
“maro sale ko aur band kar do ” darogha ne huqm diya
natthu sachmuch hi thoDa aur pita aur hawalat mein band kar diya gaya lekin dusri raat Dakaiti paD gai Dakaiti bahut buri tarah paDi us raat kundan ka sala bhi aaya hua tha wo khampur ke thane mein munshi tha usne Dakaiton se thoDi si police ki shekhi marne ki koshish kar di balki hariram ke ek sathi ko pakaDkar patak bhi diya iske baad hariram filmonwala Dakait ban gaya usne buri tarah luta bhi aur chalte chalte qatar se khaDa karke ghar ke chaar mardon ko goli bhi mar di marnewalon mein wo munshi bhi tha
thane par ye khabar pahunchte hi natthu chhoD diya gaya ab wo police ka wishwasniy sootr ban chuka tha
mare janewalon mein se chunki ek police ka munshi khu tha isliye jaldi hi police ne dubara natthu ko khoj liya
yahan se is khel ne ek aisa moD le liya jo kahin rajjan aur natthu donon ki zindagi se juDta tha halanki is kaam mein amdani bahut achchhi na thi lekin kuch kaam no chal hi jata tha sabse baDi baat thi ki ek khas qim ki wyastata ka ehsas
mukhabiri ke is dhandhe ki shuruat jahan natthu aur rajjan ki aapsi dushmani se hui thi wahan ismen wikas ki prakriya donon ko dhire dhire ek dusre ke is tarah qarib lane lagi ki we kafi had tak ek dusre ke purak ya sahyogi ho gaye natthu ki police tak pahunchai janewali suchnayen aksar rajjan se hi milne lagin kyonki police karyawahi ke bare mein Dakaiton tak pahunchanewali khabren rajjan natthu se lene laga
ye bhi maze ki baat thi ki is behad mashini andaz mein hone wali mukhabiri se mukhbir to khush the hi police aur Dakait bhi prasann the darasal in mukhbiron ke karan donon ki asaniyan baDh gai theen police ya dakuon mein se donon ko pata lag jata tha ki kaun, kahan, kab aur kya karega Dakait aate the aur itminan se lutkar chale jate the phir police aati thi wo un aDDon par chhapa marti thi jahan se Dakait pahle hi bhag chuke hote the police sharab ki khali botalen aur adhajli cigaretten seel karke laut jati thi abhiyan donon mein se kisi ke asaphal nahin hote the
magar is beech ek bhari gaDbaDi ho gai ek mantari ka bhai apne pariwar ke sath motor par raat ke waqt shikar se laut raha tha motor rokkar Dakuon ne unhen mar diya aur jo mila wo loot le gaye the ye mamla bahut gambhir tha aur police aur dakuon ko hi nahin, natthu aur rajjan ko bhi pata lag gaya tha ki ye mamla asan nahin hai
natthu potli mein bandhi arhar ki phaliyan biwi ko saunp dena chahta tha aur agli kisi karyawahi se pahle hi ganw se bahar kahin ghayab ho jana chahta tha usne makan ke pichhe wale darwaze par hath rakhna hi chaha tha ki use laga andar koi hai
kya andar puliswale hain?
thoDi der apne aapko sanyat karke usne darwaze ki sandh se andar jhankne ka faisla kiya ye kaam asan tha use malum tha ki pichhla darwaza behad awaz karega, jara sa chhute hi awajen use saf sunai de rahi thi we kuch ajib tarah ki theen
akhir usne bahut sawadhani se darwaze ki darar se andar ki or jhanka rwadyan to wahi thi nishchay hi wahi jo puliswale pahante hain lekin madanlal ko pahchanne mein use bhool nahin hui ajab baat thi ki wardiyan donon ki ek hi hoti theen phir mukhabiri itni alag kyon thee?
use jyada sochne ka waqt nahin mila kyonki thoDa sa kinare paDi charpai par jo kuch ho raha tha wo dekhkar natthu yakayak sukhkar badrang ho gaya
farsh par madanlal apne kuch sathiyon ke sath baitha hua munh bhar bharkar kuch kha raha tha aur charpai par bina kisi kapDe ke uski biwi is tarah chit leti thi jaise barsat ke mausam mein manaye jane wale tyohar mein chaurahe par Dalkar chhaDiyon se piti, phati guDiya
wo darwaze mae hut gaya andar ki awajen bahut zor se uske dimagh mein baj rahi theen jhukkar usne chupchap we phaliyan wahin dhoop mein rakh deen aur laut chala
is bar khel nahin sach we log yahan hain aur abhi rahenge madanlal ka pura giroh bhale hi police aaye aur uski biwi ko us behuda haalat mein dekhkar maze bhi le par police ko aana hoga
katrane ke bajaye wo sidhe tine ki taraf chal paDa
rajjan ke chikhne ki awaz phir aane lagi thi lekin usi ke sath kishan babu ne bachchon ko mahatma gandhi wala path zor zor mae paDhana shuru kar diya tha aaj bahut din baad we is tarah paDha rahe the, shayad rajjan ki chikhon ki taraf se dhyan hatane ke liye
bukhar ki tarah zamin aur asman ko kanpati garmi mein jab natthu tile ke dusri or utra to palkon par baith gai lu ke dhundhalake mein usne rajjan ko baad mein dekha, police ne use pahle dekha
rajjan bina kisi kapDe ke dhoop mein zamin par leta tha ya lot raha tha aur ek sipahi lathi ka sira uski janghon ke beech rah rahkar konch raha tha jaise pani ki tali nap raha ho
natthu par nazar paDte hi wahan wo sab tham gaya natthu kuch aur tez qadam baDhakar un logon tak gaya aur nigah milaye baghair dhire se ek sipahi ke kan mein bola, “madanlal pure giroh ke sath mere ghar mein chhupa hai jaldi kariye huzur ”
“ye harami kyon aya?” darogha ne door se hi puchha
sipahi ne furti se pas jakar darogha ko wo baat batai darogha thoDi der is tarah gumsum ho gaya jaise wo kisi bahut jatil abhiyan ki taiyari karne laga ho phir sahsa uth paDa usne chillakar jeep wale ko pukara aur sipahiyon se bola, “is mulzim ko jeep mein Dalo aur ise bhi baitha lo jaldi karo ” usne natthu ki taraf ishara kiya
natthu ko aur kisi waqt ye theek nahin lagta par abhi jo kuch usne dekha tha uske baad khu police ki jeep mein baithkar nihatthe hi sahi, giroh tak jane mein sankoch nahin rah gaya tha wo khu hi jeep ke pichhle bhag mein baith gaya
rajjan ko siton ke beech mein Dalkar sipahi bahut furti se jeep mein aa baithe darogha ke baithte hi jeep rawana ho gai
“chakkar le lo udhar babul ke jangal ki taraf se niklo ”
jeep ganw ke pichhe ki or gai zarur lekin nauban ki taraf muDi nahin balki thoDi door hi nikal gai natthu ne is baat par dhyan diya par usne socha ki shayad police apne Dhang mein dakuon ko gherne ki koshish kar rahi hai tabhi darogha bola, “roko ”
jeep ruk gai usne rajjan ki pasli par jute ki nonk chubhakar kaha, “ise kaho utre na utre to niche phenk do ”
is tarah ka adami shayad jyada hi mazbut ho jata hoga kyonki sipahiyon ki thoDi si koshish se rajjan na sirf niche aa gaya balki laDkhaData hua khaDa bhi ho gaya
“tu bhi niche utar ” darogha ne natthu ko Danta Dant se thoDa sharminda hokar natthu bhi niche utar aaya
uske niche utarte hi darogha chikha, “bhag, fauran bhag ”
natthu samajh nahin paya
“abe tum log bhagte ho ya nahin! lagaun mar?” darogha phir chikha
natthu pahle to pichhe hata phir bahut dhimi chaal mein bhagne laga ab chunki uski peeth jeep ki taraf thi isliye wo kuch dekh nahin saka sirf use rajjan ki aisi katar awaz sun paDi jaise wo bheekh mang raha ho aur use dekhne ke liye sir ghumane se pahle hi usne kan phaD dene wali goli ki awaz suni wo pichhe muDkar dekhana chahta tha par tabhi use jaise kisi ne pichhe se bhayanak dhakka diya aur samne sine ke pas mans ka lothDa sa latak aaya wo Dagmagaya aur niche gir gaya parinde uDakre zabardast shor karne lage girne ke baad jane kya hua ki uska dard bilkul khamosh ho gaya
jeep pichhe hati aur wapas chali gai donon lashen wahi paDi rahin jane kab puliswale unke pas ek zhang laga tamancha phenk gaye the parinde thoDi der mein phir shant ho gaye, par us udas pakshi ki awaz usi tarah sunai deti rahi—
utho puttu, poor, poor, poor—
kitni lambi aur tikhi mar hoti hai phir wo chahe mausam ki ho ya sipahi ki chikhkar uDi faDfaDati hui cheel ki tarah rajjan ki taklif bhari hui ek sada si sun paDi “o man ”
natthu ke hath kamar mein bandhe kapDe ke chhor se banai chhoti si potli par is qadar Dhile paD gaye ki potli uske badan ka hissa jaisi na bani hoti to zarur sarak girti awaz, boss jaisi tuDakti hui taklif bhari wo cheekh jyada lambi nahin thi lekin natthu ki pasliyon ke andar bahut door tak aur der tak lakir si khinchti chali gai
kitni lambi aur tikhi mar hoti hai phir chahe wo mausam ki ho ya sipahi ki
june ki is bahut tikhi aur bahut jyada chaDhe bukhar ki tarah beawaz dhoop mein natthu jahan thithak gaya, wahan se sirf kuch qadam aage hi uske makan ki pichhli diwar thi kachchi mitti se khaDi ki gai us diwar par safed sipiyan aur ghonghe is tarah ubhar aaye the gaya we wahan jaD diye gaye hon us safed pachchikari ke beech pani ki dhaar se kati mitti ki sekri khaDi dhariyan zahir kar rahi thi ki mausam ki agli mar paDte hi diwar gun kar gir jayegi shayad is diwar ke girne par bhi waisi hi dahlanewali aur bhaddi awaz ho jaisi awaz is bar rajjan ki sunai di thi natthu thahar gaya tha ho sakta hai wo agli cheekh ka intज़ar kar raha ho ya phir pahli hi cheekh ke apne antar mae Dubne ka samay lena chahta ho rajjan ki awaz dubara nahin i mausam ki mar se chhili hui diwar ki tarah hi shayad barish ya DanDe ke sirf ek aur aghat se wo bhi gira ho talab ki mitti se bani kali bhuri diwar sa
itne samay mein potli usne dubara sawadhani se pakaD li thi potli mein kafi tadad mein toDi arhar ki phaliyan thi inhen chhilke sahit ubaal lene ke baad thoDe se namak ki madad se khase swadisht bhojan ke roop mein kaam mein laya ja sakta tha khane ke mamle mein uske liye ye mausam lagbhag samrddhi kal hota tha har kisi ke liye ye janna asan nahin hota ki duniya ka sabse umda khana kya hota hai lekin natthu ko ye zarur malum tha ki mitti aur saDe patton ke beech tapakne wale mahuwe ke ras bhare hue safed phulon ya phalon ke baad sabse zayqedar khana arhar ki ubli hui phaliyan hoti thi arhar ek aisi battmiz fasal hai jo bina kisi khad ya pani ke, baghair kisi sahi dekh rekh ke khet mein betartibi se khaDi rahti hai aur itne lambe arse tak khaDi rahti hai ki lagta hai wo wahan hamesha aisi hi bani rahegi khet ki hifajat karnewala hi nahin use char janewala janwar bhi aksar uski taraf se udasin ho jata tha aise mein jhulsakar sukhaye adamiyon ki khaDkhaDati bejan bheeD ki tarah khaDe us khet se do paw phaliyan toD lena mamuli baat thi
rajjanlal ki us katar cheekh ke baad sab khamosh ho gaya sirf ek aise parinde ki awaz aati rahi jiske bare mein natthu ne hi nahin, ganw ke har adami ne ek hi wibhats aur jugupsajnak kahani suni thi sach to ye hai ki bahut swadisht mahuwe ekatr karte hue aksar wo parinda bolta zarur tha aur use wahi kahani yaad bhi aati thi kahte hain kabhi ek buDhi aurat ne ghar ke bahar dhoop mae mahuwe phailaye aur lakDi binne jate waqt apne ekmatr pote se kah gai ki wo mahuon ki hifazat kare dhoop se sukhkar mahuwe bahut kam ho gaye buDhiya ne wapas lautkar samjha ki bachcha chori se mahuwe kha gaya buDhiya ne bachche ko sil ke patthar se mara bachcha mar gaya logon ne buDhiya ko bataya ki mahuwe chori nahin gaye the, sukhkar kam ho gaye the, iske baad buDhiya ek chiDiya ban gai aur har dopahar awaz lagane lagi— utho puttu, poor, poor, poor—
rajjan ko we log subah koi aath baje le gaye the unmen se ek chhota thanedar tha, baqi sipahi the rajjan se unhen kya janna tha ye shayad hi kisi ko malum raha ho
rajjan ko jis waqt police le chali, uske pichhe bachchon ki khasi hi bheeD thi lekin mard ya aurat koi nahin tha bachche shayad wahan bahut der tak rahe hon ganw ke bahar pardhan ke kheton se katkar aane wale anaj ke ikattha karne ki jagah aur chhote se ek kamre ke school ke pichhe se hokar rasta kuch beDhangi qabron ke beech se guzarta hua ek tile jaisi jagah ki taraf nikal jata tha is tile par palash ki dhool se anti jhaDiyan aur makDi ke jale jaise phool uganewali lambi sukhi ghas thi
bachchon aur rajjan ko udhar jate dekhnewalon mein natthu bhi tha jane kaise use laga tha ki use wahan us waqt dikhai nahin dena chahiye shayad usi aparibhashey ashanka ke karan usne socha tha ki phaliyan toDne mein jyada waqt lagana chahiye aur phir jahan tak bane, sidhe raste ghar nahin lautna chahiye
lamba rasta tay karke ganw ke qarib aate aate usne ye awaz suni, bahut door se aur bahut jyada taklif mein chhatpatati awaz wo rajjan ki awaz thi kuch aisi jaise kichaD ke beech nokadar lakDi se chhed di gai machhli ho rajjan ki us cheekh ke sath hi babul ke jhine beDaul darakhton ke beech se kahi se us parinde ki awaz aane lagi— utho puttu, poor, poor, poor jaise wo kah raha ho— beta uth jao, mahua kam nahin hua hai, pura hai ye chiDiya bolna shuru karti hai to bolti hi jati hai, tikhi dardabhri awaz mein, aksar ghanton— utho puttu, pure, poor, poor,—
rajjan ki awaz ke sath bachchon ka wo hujum bhagta hua school nam ke us adhagire sayaban ke pas aa gaya shayad unhen police walon ne dhamkakar bhaga diya tha bachchon ke us hujum mae hi rajjan ka beta bhi tha school ke pas thaharkar bachchon ne uski taraf dekha unki nigahon mein na koi kutuhal tha na karuna, use dekhkar we apni apni wyastata ka sadhan khojne lage rajjan ka beta abhi tak samany dikh raha tha par wo yakayak kamzor aur bimar dikhne laga uska sanwla chehra aisa ho aaya jaise us par rakh ki ek parat aa jami ho wo dhire se sukhe hue gobar ke ek Dher par baith gaya bachchon ko apni wyastata khojne mein jyada der nahin lagi ek bahut unche bimar aam ke peD ki sabse unchi Dal par latke hue sukhe se kachche aam ko toDne ke liye we mitti aur patthar ke Dhele uchhalne lage
wo aam shayad bahut dinon se wahi tha ya phir ek gir jane par dusra prakat ho jata tha bachche lambe arse se us par Dhele chala rahe the kisi ko pata nahin wo aam kabhi gira bhi tha ya nahin han, bachchon ki is koshish par us school ke upar rakhi gai tin ki chadaren girte hue Dhelon ki wajah se khasa shor karti theen kafi patthar gir chukne ke baad andar se school ke ekmatr adhyapak kishan babu ki awajen sunai deti theen, “thahr jao salo ”
is lalkar ke baad bachche inten phenkna band karke kisi aur kaam mein lag jate the
am ke us darkhat par phenke gaye do teen Dhelon ke baad hi is bar adhyapak kishan babu ki awaz nahin, akriti bahar aa gai ye kafi anhoni ghatna thi bachche sahamkar khaDe ho gaye
“bhag jao ” kishan babu bhari awaz mein bole bachche bhag gaye kishan babu school ke andar nahin gaye gard aur dhoop se piliya ke rogi jaise dikhte kshaitij par ankhen gaDakar us taraf dekhne lage jidhar se rajjan ke chikhne ki awajen aa rahi theen ab we chikhne ki awajen nahin kuch aisi dhwaniyan theen jaise we gale se nahin, sidhe phephDe se ubalkar bahar aa rahi hon
school ke asapas eqdam sannata tha wo school tha, is baat par shayad hi koi wishwas kar sake kachche farsh aur teen ki chhat wale us lambotre kamre mein dusre se chauthe darje tak ki kakshayen ek sath lagti theen, kamre ke teen konon mein aur chauthe kone mein ek mez ke sahare kishan babu baithte the we is school ke adhyapak bhi the aur postamastar bhi kuch galiyon ke sath bachchon ko lagatar likhte rahne ka koi kaam dene ke baad we so jate the kabhi kabhi kheejh ke sath ek postakarD dene ya khat likhne ke liye unhen jagna hota tha
jagne par kishan babu bahut zor se khijhte the lekin bahut thoDe samay ke liye jaganewala unki kheejh se pareshan hone ke bajaye hansta tha we ajib charitr the unki charitrgat wishishtata hi thi ki we ya to sirf adhyapak ke roop mein jane jate the ya Dakkhana ke nam se postamastar shabd waise bhi sahj nahin tha par unke swbhaw ke karan logon ko unhen Dakkhana kahna achchha lagta tha iski wajah thi khasi masakhri wajah ganwwalon ka wishwas tha ki khat hi nahin tar se bhi jyada jaldi pahunchti hain, we baten joki kishan babu ko bata di jati hain isiliye we Dakababu nahin Dakkhana mane jate the
lekin ismen qasu kishan babu ka nahin tha we zindagi mein shayad hi kabhi kisi aisi jagah gaye honge jahan koi manoranjan kar sakta ho man lagane ke liye umr baDhne ke sath sath unhonne wo tariqa khoj liya tha, jise bhaddi bhasha mein aksar log chuglikhana kah lete hain
us chhote se ganw mein ye ekmatr sabse sulabh aur lokapriy manoranjan tha is manoranjan ki khubi ye thi ki ye aksar kai roz nirantar man bahla sakta tha paDos ke ganw mein nautangi hoti thi usse aage ek qasba paDta tha jismen ek adad cinema tha magar ye donon hi bahut simit manoranjan the aksar cinema ya nautangi dekhnewale ko baad mein manowinod zari rakhne ke liye khase jhath bolne hote the jo kabhi kabhi pakDe bhi jate the masalan ek bar panDit radheshyam ne ek cinema dekha aur wapas lautkar bataya, “baDi gandi taswir hai usmen khuleam aurat mard gaDbaD karte hain ”
“khuleam gaDbaD karte hain?” paDosiyon mein achanak utsukta jag paDi
“are baDe gande hote hain ye, mat puchho ” panDit ne thuka bhi
“magar hota kya hai?” utsuk paDosiyon ne sahsa kalpnayen karni shuru kar di
“are kya nahin hota, puchho ranDiyan hoti hain, kuch bhi kar sakti hain ”
“matlab kapDe wapDe sab utarkar?”
“lo, is lallu ki suno ”
sabne wishwas kar liya ki parde par panDit radheshyam wo kuch dekhkar aaye hain, jo durlabh hota hai aur wo bhi itne sundar saje dhaje logon ke beech hota hua
ek dusre ko baghair bataye yakayak kai log agle din ganw se ghayab hue aur jab wapas laute tab panDit radheshyam ko usse bhi jyada gandi galiyan de rahe the, kyonki parde par unhonne jo dekha tha usmen bistar par jane se pahle nayak aur nayika kapDe utarte zarur dikhe lekin sirf kapDe hi nayak nayika nahin dikhe unke utare kapDo ka Dher ban gaya to ganwwalon ne utsukta se sans rok li we samjhe ki ab bistar par donon dikhai denge lekin parde par turant andhera ho gaya aur jab ujala hua to log nayika ke bap se shikayat karne jate dikhe
kishan babu ke is sanwad ko sunnewala utsuk se jyada sharminda hota tha kyonki kishan babu turant ye bhi kah dete the, “sara ganw janta hai tumhi kaise anjan bane ho? mujhe to school ko der ho rahi hai ”
ye sanwad bolne ke baad kishan babu school ki taraf chal bhi paDte the aisi haalat mein wo waky sunne wala ise ashanka se lagbhag baukhla jata tha ki kisi behad rochak prsang ki hissedari se wo wanchit rah jayega tab wo yakayak prarthi ho jata tha balki chaplus kutuhal se chiknai ankhon se idhar udhar takta hua kishan babu se sat jata tha “qas se Dakkhana babu, idhar hum aise phanse rahe ki puchho mat ”
“to phir phanse raho bachchu main to prapanch mein paDta nahin sara ganw janta hai nandu ki gharwali ka qissa ”
iske baad kishan babu wahan thahrte nahin the dhire dhire agle din tak ganw ka har mard chhota mota kishan babu ban jata tha wo ye siddh karna chahta tha ki nandu ki gharwali ke kanD ka pratham udghatankarta wahi hai ye siddh karne mein wo qisse ko apni kalpana ke pure kaushal se gaDhne ki koshish karta tha is qisse ko sunnewala ise apna maulik udghatan manwane ke liye agle adami ko apni taraf se khasa namak mirch lagakar sunata tha is tarah wo qissa jo bhi raha ho, kai roz tak tarah tarah ke roop leta hua lagbhag samuche ganw ka manoranjan bana rahta tha
is manoranjan mein logon ka man ramane ki khasi hi shakti thi lekin yahi ganw ki gaDbaDi ki jaD bhi tha gaDbaDi kahin radhe ki sali ki ho nam raghunandan ki bahu ka chal paDta tha aur is tarah jo jhagDa uth khaDa hota tha wo aksar aur jyadatar rochak hota tha manoranjan ka chakr pura hote na hote malum hota tha ki raghunandan ne mansa ko peet diya aur mansa nandu ko gali de aaya ya nandu ne radhe par int phenk mari ye jhagDa jaldi shant nahin hota tha kyonki jhagDa thanDa jaldi paD jay to usmen bhi manoranjan bhaw ko hi wyaghat hota tha jab nandu radhe ko int marta tha to radhe gopal ki chachi ka bhed khol deta tha aur raghunandan se pitnewala mansa tingu ke ghar ka parda ughaD deta tha is tarah jitni der ye jhagDe chalte the manoranjan ras ke paripak ki sambhawnayen baDhti hi jati theen isiliye log ek taraf to do adamiyon ko samjha bujhakar chup karate the par koi aisa sootr bhi chhoD dete the jisse agle chaar ke beech sham tak dubara fasad khaDa ho jaye
us ganw mein behad laparwahi lekin ruchi ke sath khele ja rahe is khel mein kuch aisi rahasyajnak shakti bhi thi ki lagta tha ye khel khu ganw ko khel raha hai, Dori se bandhi us garari ki tarah jo dhage se khulti hui jitni teji se niche utarti hai utni hi phurti se dhage ko lapetti hui dubara upar chaDh jati hai
ganw ka din apni tamam badhali ke bawjud utna bura nahin hota, balki usmen kuch aisa hota hai jo adami ko apni taraf khinchta hai, apne se joDta hai chahe wo talab mein saDne ke intज़ar mein chhoDe san ke paudhon ka gatthar ho ya pani mangta hua tambaku ka paudha, lekin raat waisi nahin hoti hai ganw ki raat mein ek anam dahshat hoti hai andhere ke sath khauf sakht roen adami se aise satne lagte hain jaise koi adamkhor sunghne ki koshish kar raha ho aise mein adami ya to aag ke ird gird aadim kabile ki tarah waqt guzarta hai ya mitti ke gharon ki guphaon mein simat jata hai
ganw ke din aur raat ka yahi farq is manoranjak khel ke do pahluon ke beech bhi thee— ek pahlu logon ki ruchi ka aur dusra usse upajnewali samajik uljhan ka baDe anjane aur anchahe hi ise dusre pahlu ki ganthe baDhti gai thi kabhi kabhi we ganthe itni sakht ho jati thi ki kisi asadhy rasauli ki tarah bina kuch janen liye manti nahin theen
is ganw nauban mein pichhle kuch arse se aisi hi kuch rasauliyon ne zabardast dard aur tanaw paida kar diya tha rishton ki ye rasauliyan kab marak ho uthin, ye koi nahin janta par pichhle sal zabardast sadiyon mein chintiyon se lipti nannhe ki lash ke sath khasi gaDbaDi shuru ho gai aur un rasauliyon ki saDan rajjan aur natthu se kaise juD gai iska bhawishya bhi utna hi atarkit hai jitna nanhen ki lash se paida hui gaDbaDi ka
aisa kisi ne kaha ki nanhen mara gaya hai aur uske mare jane ke pichhe horilal ki chhoti bahan ka koi qissa hai hiralal ne kuch nahin kaha par uske chhote bhai ne santu ko lathiyon se isliye buri tarah peet Dala ki uska khayal tha ye baat santu ne hi uDai hai
santu ko dobara hosh nahin aaya use chunki raat ke andhere mein horilal ke bhai ne akele gherkar mara tha isliye hamlawar ya hamlawron ka pata nahin chala lekin ek baat bahut tezi se phail ya phailai gai kisi ne kaha, santu Dakait tha aur chunki wo Dakait tha isliye madanlal ke girohwale uski maut ka badla lenge
mumkin hai ye baat kishan babu ne hi phaila di ho lekin isse aur jyada mamla ulajh gaya ki madanlal barsati ram ka dushman tha zarur madanlal apne giroh ke sath lala barsati ram par chaDhai karega
itna kuch ghat jane ke baad natthu aur rajjan ki bhumika shuru hui sare ghatna kram se we kuch is sahajta se juD gaye jaise we hamesha se us sabka hissa banne ka haq pakar aaye hon we juDe hue na dikhte to zarur anhoni baat hoti
natthu aur rajjan nauban ke khas charitr the unki us wishishtata ko lagbhag har koi janta tha lekin wo jankari bhi usi manoranjan ka hissa thi jismen istri purush sambandh the
we donon hi mukhbir the donon sage bhai the lekin aapas mein gahri dushmani thi rajjan Dakaiton ko mukhbir tha aur natthu police ka aisa logon ka khayal tha magar natthu kuch jyada chalak tha wo Dakaiton ke liye bhi mukhabiri karta tha Dakaiton ke kahin maujud hone ki suchana police ko dene ke baad wo utni hi furti se Dakaiton ko ye khabar bhi pahuncha deta tha ki police ko unke bare mein khabar ho gai hai chunki aksar donon hi baten sach hoti theen isliye natthu is kaam mein kahin jyada saphal tha
shuru mein ye kaam bahut Darata tha, khastaur se natthu ko rajjan bhi shuru mein Dara tha wo janta tha ki jis duniya mein wo rah raha tha wahan ka behtarin manoranjan kanaphusi, khatarnak had tak bhed kholnewala yantr tha bahut jaldi hi har kisi ko malum ho jata tha ki nauban mein koi akela wekti chupchap kahan, kya kar aaya pahli bar mirpur ki shadi mein aaye sone ke zewrat ki khabar rajjan ne jab madanlal ko pahunchai to wapas lautte samay Dara lekin jaldi hi use malum ho gaya ki chunki wo Dakait madanlal se sambandhit mana ja raha hai isliye log usse bhi lagbhag waisa hi khauf khane lage hain jaisa Dar we khu madanlal se mahsus karte the
natthu ne police ki mukhabiri kuch had tak rajjan se chiDh ke karan ki thi ek din wo ek jangali latar se we kali moti phaliyan toDkar laut raha tha jinke upar chipke roen behad khujli paida karte the wo khujli paida karnewale un tantuon ko mahz ek shararat ke liye la raha tha tabhi usne rajjan ko ek bilkul nae roop mein dekha tha wo khasi sharab piye hue tha aur guD mein chane ki dal milakar banai mithai ka bhari sa tukDa angochhe mein bandhe tha jiska ek sira sayas wij~napan ki tarah bahar jhank raha tha rajjan ki us din pahli achchhi amdani hui thi halanki ye amdani asan nahin thi phir bhi wo bahut khush tha
uske sirf teen din pahle ye silsila shuru hua tha rajjan ek dost ki barat se laut raha tha usne kurte ke upar pahannewali sadri radh mein mang li thi aur kurta dhoti ko bharsak dho liya tha
uske jute mein ghoDe ki jaisi nal jaDi hui thi, jiski wajah se chalte waqt baDi shanadar awaz hoti thi sir par topi lagane ke baad usne ek lathi bhi le li thi is tarah chalte hue wo apne ko khasa mahattwapurn wekti samajhne laga tha nauban lautte waqt raat ho gai thi saDak ke donon taraf khaDe kale darakhton ke beech mae chhankar chandni ke chhote baDe dhabbe saDak par door tak chhitraye hue the us suni saDak par chandni ke we dhabbe kuchalte hue aage baDhne par juton se jo awaz hoti thi uski tal par wo gana bhi gane laga tha
uski atmawibhor manasthiti bahut hi bedardi se tuti bahut battmizi se use lalkarte hue apne chehre lapete jin ek darzan logon ne use achanak gher liya tha unhonne na sirf use galiyan hi di balki unme se ek ne uski kamar ke pas lathi bhi de mari us hamle mein chot se jyada apman ke karan wo ro paDa
use ghernewale log Dakait the apni haisiyat batane ke baad unhonne use aur pita aur jab apni karguzari se santusht ho gaye to unhonne usse kaha ki uske pas jo kuch bhi ho, chupchap hawale kar de
hawale karne layak rajjan ke pas sirf DeDh rupae the kuch mithai bhi thi
itni loot se Dakait bahut jyada chiDh gaye aur unhonne use phir pita balki unmen se ek chillayo, “markar phenk do sale ko ”
isi sanwad se rajjan ke liye ek naya rasta khul gaya usne munna sahu ka pata de diya aur ye bhi bata diya ki paise udhaar lene ke liye log jo zewar girwi rakhte the unhen wo bhuse wali kothari mein rakhta tha
“sale, agar wahan kuch na mila to katkar phenk denge ” unhonne jate jate use dhamki di aur thoDa sa aur pita
nishchay hi dakuon ko munna sahu ke yahan khasa mal mila hoga kyonki thoDe hi arse baad unhin mein se do ne jane kaise use phir khoj liya tha rajjan Darkar dubara pitne ke liye sahas juta raha tha ki unhonne apna prastaw rakh diya
sahi suchana dene aur us suchana se labh hone par bees rupae milte the aur desi sharab ke sath umda khana
aur ye sari ayyashi, nae rozgar ki sari barikiyan nauban ke har adami ko malum ho gai theen inhi se khijhkar ek din natthu ne ye sab kuch police ko bata dene ka faisla kar Dala tha
bahana banakar lambi yatra karne ke baad jab natthu thane pahuncha to use laga wo wahan nahaq aa gaya tha police ke pas jane ki baat sochna uske liye asan tha par usse samna karte waqt wo sachmuch ghabra gaya use laga, rajjan wo khu tha aur apne aapko yahan saunpne aaya tha thane ka chhota darogha use samne hi khaDa mil gaya tha wo khana khakar utha tha aur dant khodne ke baad peD ke niche charpai par thoDi der so lene ki taiyari mein tha uske samne paDte hi natthu ki shakl kisi apradhi jaisi ho gai aur uska gala bilkul khushk ho gaya
“kaun hai be? yahan kya kar raha hai?” darogha ne dant se nikli sag ki patti zor se thuki
darogha ne use tikhi nigahon se ghura phir chillakar mitti par pani chhiDakte sipahi se bola, “abe ise dekh to udhar le jakar khasi harami cheez lag raha hai ”
sipahi ne bhi use usi tarah ghura tha thoDi der bariki se uska muayna karne ke baad banh ke pichhle hisse par panja gaDakar wo use andar ki taraf le gaya tha andar pahunchte hi natthu ke kuch kahne se pahle sipahi ne use apni taraf putle ki tarah ghumaya aur chhati ke bichon beech is tarah bina koi uttejna dikhaye ghunsa mara goya wo kisi balu ke baste par ghunsebazi ka abhyas kar raha ho ghunsa marne ke sath hi usne ulte hath se uski kanpati par ek thappaD bhi mara natthu thoDa jhuk gaya tha par thappaD paDte hi ulatkar diwar ke pas ja gira tha
ye rajjan yo natthu hi nahin nauban ke har chhote adami ko malum tha ki shahazor se sanwad shuru hone ki bhasha aam taur par yahi hoti thi isliye pahli mar ki ghabrahat par usne jaldi hi kabu pa liya, “huzur, darogha sahab, main to baDi jaruri khabar dene aaya tha ”
is par sipahi kuch hichka, lekin ek zordar thokar aur mar lene ke baad hi usne puchha, “sala, khabar laya hai kya khabar laya hai? ain?”
“huzur, wo Dakait ”
“Dakait? kya Dakait?”
“huzur, Dakait hariram kal Daka Dalnewala hai ”
“iski suno ” sipahi jaise diwaron se hi bola, “tere pas sale hai hi kya ki hariram tujhe lutega makkari karta hai sala, kisi begunah ko phansana chahta hai, teri to ”
ye kahkar sipahi ne use thoDa aur pita
“magar meri baat to sun lijiye, huzur baad mein phansi par chaDha dijiyega hariram kundan ko lutne ayega ” natthu ne kisi tarah kaha ye suchana bhi use khu rajjan ki haraqton se mil gai thi
sipahi ne use is bar pita nahin, sirf kuch fohash si galiyan di aur dhakka dekar darogha ke pas le aaya
“ab kya taklif ho gai jee?” darogha kheejh gaya
“ye harami kahta hai ki hariram kal raat kundan ke ghar par Dakaiti Dalega ”
“maro sale ko aur band kar do ” darogha ne huqm diya
natthu sachmuch hi thoDa aur pita aur hawalat mein band kar diya gaya lekin dusri raat Dakaiti paD gai Dakaiti bahut buri tarah paDi us raat kundan ka sala bhi aaya hua tha wo khampur ke thane mein munshi tha usne Dakaiton se thoDi si police ki shekhi marne ki koshish kar di balki hariram ke ek sathi ko pakaDkar patak bhi diya iske baad hariram filmonwala Dakait ban gaya usne buri tarah luta bhi aur chalte chalte qatar se khaDa karke ghar ke chaar mardon ko goli bhi mar di marnewalon mein wo munshi bhi tha
thane par ye khabar pahunchte hi natthu chhoD diya gaya ab wo police ka wishwasniy sootr ban chuka tha
mare janewalon mein se chunki ek police ka munshi khu tha isliye jaldi hi police ne dubara natthu ko khoj liya
yahan se is khel ne ek aisa moD le liya jo kahin rajjan aur natthu donon ki zindagi se juDta tha halanki is kaam mein amdani bahut achchhi na thi lekin kuch kaam no chal hi jata tha sabse baDi baat thi ki ek khas qim ki wyastata ka ehsas
mukhabiri ke is dhandhe ki shuruat jahan natthu aur rajjan ki aapsi dushmani se hui thi wahan ismen wikas ki prakriya donon ko dhire dhire ek dusre ke is tarah qarib lane lagi ki we kafi had tak ek dusre ke purak ya sahyogi ho gaye natthu ki police tak pahunchai janewali suchnayen aksar rajjan se hi milne lagin kyonki police karyawahi ke bare mein Dakaiton tak pahunchanewali khabren rajjan natthu se lene laga
ye bhi maze ki baat thi ki is behad mashini andaz mein hone wali mukhabiri se mukhbir to khush the hi police aur Dakait bhi prasann the darasal in mukhbiron ke karan donon ki asaniyan baDh gai theen police ya dakuon mein se donon ko pata lag jata tha ki kaun, kahan, kab aur kya karega Dakait aate the aur itminan se lutkar chale jate the phir police aati thi wo un aDDon par chhapa marti thi jahan se Dakait pahle hi bhag chuke hote the police sharab ki khali botalen aur adhajli cigaretten seel karke laut jati thi abhiyan donon mein se kisi ke asaphal nahin hote the
magar is beech ek bhari gaDbaDi ho gai ek mantari ka bhai apne pariwar ke sath motor par raat ke waqt shikar se laut raha tha motor rokkar Dakuon ne unhen mar diya aur jo mila wo loot le gaye the ye mamla bahut gambhir tha aur police aur dakuon ko hi nahin, natthu aur rajjan ko bhi pata lag gaya tha ki ye mamla asan nahin hai
natthu potli mein bandhi arhar ki phaliyan biwi ko saunp dena chahta tha aur agli kisi karyawahi se pahle hi ganw se bahar kahin ghayab ho jana chahta tha usne makan ke pichhe wale darwaze par hath rakhna hi chaha tha ki use laga andar koi hai
kya andar puliswale hain?
thoDi der apne aapko sanyat karke usne darwaze ki sandh se andar jhankne ka faisla kiya ye kaam asan tha use malum tha ki pichhla darwaza behad awaz karega, jara sa chhute hi awajen use saf sunai de rahi thi we kuch ajib tarah ki theen
akhir usne bahut sawadhani se darwaze ki darar se andar ki or jhanka rwadyan to wahi thi nishchay hi wahi jo puliswale pahante hain lekin madanlal ko pahchanne mein use bhool nahin hui ajab baat thi ki wardiyan donon ki ek hi hoti theen phir mukhabiri itni alag kyon thee?
use jyada sochne ka waqt nahin mila kyonki thoDa sa kinare paDi charpai par jo kuch ho raha tha wo dekhkar natthu yakayak sukhkar badrang ho gaya
farsh par madanlal apne kuch sathiyon ke sath baitha hua munh bhar bharkar kuch kha raha tha aur charpai par bina kisi kapDe ke uski biwi is tarah chit leti thi jaise barsat ke mausam mein manaye jane wale tyohar mein chaurahe par Dalkar chhaDiyon se piti, phati guDiya
wo darwaze mae hut gaya andar ki awajen bahut zor se uske dimagh mein baj rahi theen jhukkar usne chupchap we phaliyan wahin dhoop mein rakh deen aur laut chala
is bar khel nahin sach we log yahan hain aur abhi rahenge madanlal ka pura giroh bhale hi police aaye aur uski biwi ko us behuda haalat mein dekhkar maze bhi le par police ko aana hoga
katrane ke bajaye wo sidhe tine ki taraf chal paDa
rajjan ke chikhne ki awaz phir aane lagi thi lekin usi ke sath kishan babu ne bachchon ko mahatma gandhi wala path zor zor mae paDhana shuru kar diya tha aaj bahut din baad we is tarah paDha rahe the, shayad rajjan ki chikhon ki taraf se dhyan hatane ke liye
bukhar ki tarah zamin aur asman ko kanpati garmi mein jab natthu tile ke dusri or utra to palkon par baith gai lu ke dhundhalake mein usne rajjan ko baad mein dekha, police ne use pahle dekha
rajjan bina kisi kapDe ke dhoop mein zamin par leta tha ya lot raha tha aur ek sipahi lathi ka sira uski janghon ke beech rah rahkar konch raha tha jaise pani ki tali nap raha ho
natthu par nazar paDte hi wahan wo sab tham gaya natthu kuch aur tez qadam baDhakar un logon tak gaya aur nigah milaye baghair dhire se ek sipahi ke kan mein bola, “madanlal pure giroh ke sath mere ghar mein chhupa hai jaldi kariye huzur ”
“ye harami kyon aya?” darogha ne door se hi puchha
sipahi ne furti se pas jakar darogha ko wo baat batai darogha thoDi der is tarah gumsum ho gaya jaise wo kisi bahut jatil abhiyan ki taiyari karne laga ho phir sahsa uth paDa usne chillakar jeep wale ko pukara aur sipahiyon se bola, “is mulzim ko jeep mein Dalo aur ise bhi baitha lo jaldi karo ” usne natthu ki taraf ishara kiya
natthu ko aur kisi waqt ye theek nahin lagta par abhi jo kuch usne dekha tha uske baad khu police ki jeep mein baithkar nihatthe hi sahi, giroh tak jane mein sankoch nahin rah gaya tha wo khu hi jeep ke pichhle bhag mein baith gaya
rajjan ko siton ke beech mein Dalkar sipahi bahut furti se jeep mein aa baithe darogha ke baithte hi jeep rawana ho gai
“chakkar le lo udhar babul ke jangal ki taraf se niklo ”
jeep ganw ke pichhe ki or gai zarur lekin nauban ki taraf muDi nahin balki thoDi door hi nikal gai natthu ne is baat par dhyan diya par usne socha ki shayad police apne Dhang mein dakuon ko gherne ki koshish kar rahi hai tabhi darogha bola, “roko ”
jeep ruk gai usne rajjan ki pasli par jute ki nonk chubhakar kaha, “ise kaho utre na utre to niche phenk do ”
is tarah ka adami shayad jyada hi mazbut ho jata hoga kyonki sipahiyon ki thoDi si koshish se rajjan na sirf niche aa gaya balki laDkhaData hua khaDa bhi ho gaya
“tu bhi niche utar ” darogha ne natthu ko Danta Dant se thoDa sharminda hokar natthu bhi niche utar aaya
uske niche utarte hi darogha chikha, “bhag, fauran bhag ”
natthu samajh nahin paya
“abe tum log bhagte ho ya nahin! lagaun mar?” darogha phir chikha
natthu pahle to pichhe hata phir bahut dhimi chaal mein bhagne laga ab chunki uski peeth jeep ki taraf thi isliye wo kuch dekh nahin saka sirf use rajjan ki aisi katar awaz sun paDi jaise wo bheekh mang raha ho aur use dekhne ke liye sir ghumane se pahle hi usne kan phaD dene wali goli ki awaz suni wo pichhe muDkar dekhana chahta tha par tabhi use jaise kisi ne pichhe se bhayanak dhakka diya aur samne sine ke pas mans ka lothDa sa latak aaya wo Dagmagaya aur niche gir gaya parinde uDakre zabardast shor karne lage girne ke baad jane kya hua ki uska dard bilkul khamosh ho gaya
jeep pichhe hati aur wapas chali gai donon lashen wahi paDi rahin jane kab puliswale unke pas ek zhang laga tamancha phenk gaye the parinde thoDi der mein phir shant ho gaye, par us udas pakshi ki awaz usi tarah sunai deti rahi—
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।