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घंटा

ghanta

ज्ञानरंजन

और अधिकज्ञानरंजन

    ‘पेट्रोला’ काफ़ी अंदर धँसकर था। दर्ज़ी की दुकान, साइकिल स्टैंड और मोटर ठहराने के स्थान को फाँदकर वहाँ पहुँचा जाता था। वह काफ़ी अज्ञात जगह थी। उसे केवल पुलिस अच्छी तरह जानती थी। हम लोग इसी बिल्कुल टुकड़िया जगह में बैठने लगे थे। यहाँ जितनी शांति और छूट थी अन्यत्र दुर्लभ है। हमें यहाँ पूरा चैन मिलता था। ‘पेट्रोला’ ऐसी जगह थी जिससे नागरिकों को कोई सरोकार नहीं था। जहाँ तक हम लोगों का प्रश्न है हमारी नागरिकता एक दुबले हाड़ की तरह किसी प्रकार बची हुई है। उखड़े होने के कारण लग सकता था, समय के साथ सबसे अधिक हम हैं लेकिन हक़ीक़त यह है कि बैठे-बैठे हम आपस में ही फुफकार लेते हैं, हिलते नहीं हैं। हमारे शरीर में लोथड़ों जैसी शांति भर गई है। नशे की वजह कभी-कभार थोड़ा बहुत ग़ुस्सा बन जाता है और आपसी चिल्ल-पों के बाद ऊपर आसमान में गुम हो जाता है। इस नशे की स्थिति में कभी ऐसा भी लगता है, हम सजग हो गए हैं। उद्धार का समय गया है और भेड़िया-धसान पूरी तरह पहचान लिया गया है। लेकिन हम लोगों के शरीर में संत मलूकदास इस क़दर गहरा आसन मारकर जमे हुए थे कि भेड़िया-धसान हमेशा चालू रहा। ऐसा लगता, ‘पेट्रोला’ की ज़िंदगी से बाहर चले जाना काफ़ी मुश्किल हो गया है। यह जगह एक राहत-स्थान में बदल गई थी। ‘पेट्रोला’ से निकलकर शहर के उस क्षेत्र से अपने कमरे को जब हम वापस होते तो शहर का ढाँचा दिखाई देता था। हमें पूरा विश्वास है कि हमसे अधिक शहर के ढाँचे के बारे में कम लोग जानते होंगे। मेरे साथियों को बीवी-बच्चों, समाज और देश-दुनिया से शायद ही कोई ताल्लुक़ रह गया था। वे लोग एंटी ही थे स्वाभाविक थे। अपने साथियों में मैं एकमात्र ऐसा व्यक्ति था जिसका फ़ैसला ज़िंदगी ने अभी तक नहीं किया था और जो दो लालचों के बीच अभी ग़ौर और सूझबूझ का तरीक़ा इस्तेमाल कर रहा था। यह भी बहुत हद तक मुमकिन है कि मैं हमेशा के लिए ही ऐसा चालाक व्यक्ति बन चुका हूँ— लेकिन मैं फ़िलहाल पक्का नहीं जानता।

    अक्सर ऐसा होता है कि जब मेरी सेहत घिघियाने लगती हैं, रतजगों की संख्या सीमा पार कर जाती है और मुझे यह दिखाई देता है कि भद्रता प्रगति कर रही है और इस बीच उसका रत्ती भर भी बिगाड़ नहीं हुआ है तब मैं लंबा सोता हूँ, शो-विंडो के गलियारों में घूमता हूँ, कोका-कोला पीता हूँ और हैलो-हैलो— ‘पेट्रोला’ को गोल मार जाता हूँ। मेरे साथी संभव है इस बात को थोड़ा-बहुत जानते हों लेकिन वे परवाह नहीं करते। मेरे पास कुछ ऐसे वस्त्र भी हैं जिनका शरीर से और स्वयं के पिछले जीवन से कोई मेल नहीं है और जिन्हें पहनते ही मुझे लगता है, भेष बदल गया है। मैं उन्हें तब पहनता हूँ, जब ‘पेट्रोला’ में नहीं जाना रहता। मुझे इन कॉस्ट्यूम सरीखे वस्त्रों की शर्म भी सताने लगती है लेकिन मैंने उन्हें कभी हमेशा के लिए फेंक नहीं दिया। वर्षों नहीं पहना पर सँभाल कर रखा।

    एक दिन ‘पेट्रोला’ से बाहर पान की दुकान तक मैं निकला कि नेम से अचानक मुलाक़ात हो गई। काफ़ी रात जा चुकी थी। नेम जब से बीमा-एजेंसी चलाने लगा है, ख़ूबसूरत हो गया है। एक समय नेम की ज़िंदगी ऐसे हालात पर पहुँच गई थी कि लगता वह भी ‘पेट्रोला’ के समूह में शामिल हो जाएगा लेकिन समय रहते ही, वह बाल-बाल बच गया। पूरी तरह सुखी और सुरक्षित होने के बाद अब वह जब भी मिलता है ‘पेट्रोला’ की ज़िंदगी पर लार टपकाना शुरू कर देता है। कहता है, “कहाँ बीमा में फँस गया। तुम लोगों के साथ की ज़िंदगी अब कहाँ नसीब होती है।” मैं समझता हूँ अब उसके पास काफ़ी पैसा है और आराम भी ख़ूब हो गया है। दो-चार मिनट मुश्किल से बीते होंगे नेम ने कुंदन सरकार के बारे में कहना शुरू कर दिया। मुझे पता था, वह कुंदन सरकार की बात ज़रूर करेगा और बहुत शीघ्रता में होने के बावजूद मुझे उसकी इस चर्चा का इंतज़ार था। वह मुझे जब भी मिला कुंदन सरकार से परिचय कराने के लिए लगभग भिड़-सा गया। अवश्य इसमें उसकी कोई ख़ुशी थी। शायद वह बताना चाहता हो, हमारी दोस्ती का पक्कापन अभी भी बना हुआ है, समय ने उसे मिटाया नहीं है।

    कुंदन सरकार वाली बात बरसों से चलती रही थी और आज तक ड्योढ़ नहीं बैठा। इस बार नेम ने फुसफुसाकर, मुस्कराकर उसके यहाँ अच्छी मदिरा का भी आश्वासन दिया। उसने दम दिया, कुंदन सरकार के साथ मुझे बोरियत नहीं होगी। “तुम लेखक और वह इंटलेक्चुअल, वाक़ई मज़ा जाएगा। सच्चाई यह थी कि काफ़ी अर्से पहले ही साहित्य मुझसे बिछुड़ गया था। अब मुश्किल से थोड़ा-बहुत चिथड़ा बक़ाया था पर नेम से यह बात मैं दबा गया। मैं जानता हूँ उससे उलझना समय की एक वाहियात बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है। नेम बिलकुल चीटा है। जाते-जाते वह चिल्लाता गया, ‘बिदकना नहीं, कल पक्का रहा। ऐसा आदमी तुमको कम मिलेगा जो अपनी पोज़ीशन को लात मारकर चलता हो। दोस्त क़िस्म का प्राणी है और टॉप तबियत। बोलो, तुम और क्या चाहते हो भाई।’ चलते-चलते वह फिर रुका और थोड़ा उत्तेजित-सा होकर बोला, “वह तुम्हारे साथ हौली चला जाएगा, कपड़े झाड़ेगा और नाक सिकोड़ेगा। कल पक्का रहा।”

    मैं सब चीज़ों को बर्दाश्त करने की तैयारी करता हुआ, शराब के उद्देश्य को पकड़कर, कुंदन सरकार, कुंदन सरकार सोचता हुआ ‘पेट्रोला’ वापस लौटा।

    कुंदन सरकार काफ़ी भनकता हुआ नाम था। शहर के तमाम लेखक और बुद्धिजीवी उस तक पहुँच चुके थे। ये सब मध्यमवर्गीय लेखक थे, जिसका खाते उसका बजाते भी ख़ूब थे। जहाँ से आदमी की पूँछ झड़ गई है, इन लोगों के उस स्थान में, कुंदन सरकार को देखते ही खुजली और अहोभाग्यपूर्ण गुदगुद होने लगता था। कुंदन सरकार और बुद्धिजीवियों के संपर्क को ताकने वाले बहुत से दर्शक चारों तरफ़ फैले हुए थे जिन्होंने शहर के जागरूक केंद्रों में कुंदन सरकार की हवा बाँध रखी थी। मैंने अपने साथियों को कुछ भी नहीं बताया और कुछ समय के लिए फूट गया। उन्हें अपना लोभ बताना मुमकिन भी नहीं था। ‘पेट्रोला’ के साथियों में अधिकाँश ऐसे थे जो कुंदन सरकार सरीखे आदमियों को अपने अमूक प्रदेश पर रखते थे। वे लोग पूरी तरह मुड़े हुए थे। केवल मैं ही था, अटका हुआ, मान-अपमान, ओहदे-पैसे और देश-समाज से विचलित होने वाला।

    कुंदन सरकार ऐसे पद पर था जहाँ रहकर आमतौर पर जनता के निकट नहीं रहा जा सकता। इसके बावजूद वह एक बेजोड़ सामाजिक प्राणी था। सरकार को पता नहीं कैसे उसने बेवकूफ़ बना रखा था। उसे साहित्यिक व्यक्तियों, कला-प्रेमियों और बुद्धिजीवियों से बातचीत करने, उनके बीच घुलने-मिलने और उन्हें शराब पिलाने की तमन्ना रहती थी। इस शहर में कई सौ कलाकार-साहित्यकार हैं पर कुंदन सरकार उनसे कभी घबराया नहीं। वह एक को हमेशा साथ रखता था। एक समय में एक। वह तजुर्बा करता चला जा रहा था। उसके साथ रहने वाले व्यक्ति को लोग कुंदन सरकार का घंटा कहते थे।

    इन दिनों कुंदन सरकार का घंटा मैं था। वह मुझ से ज़रा भी नहीं बिदका। मेरी चट्टी काफ़ी गंदी थी। अपना औघड़ रूप लेकर उसके घर में घुसते हुए मुझे लगा, यह क़तई उचित और आरामदेह जगह नहीं हो सकती लेकिन लालच का कहीं कोई जवाब नहीं है। शराब जीवन-ज्योति हो गई थी। किसी से शराब क्या पी ली समझा बहुत ठगी कर ली। यह हालत थी।

    शुरू में उसने मुझे मामूली शराब पिलाई जबकि उसके पास, निश्चित ऊँची शराब का भी स्टॉक मौजूद था। वह भाँपना चाहता था कि यह कितना उठा हुआ बुद्धिजीवी है। दूसरी बात यह कि मैं एक ख़स्ता हालत व्यक्ति था। अगर मैं मालदार बुद्धिमान होता तो कुंदन सरकार का सलूक कुछ दूसरा ही होता। कुंदन सरकार ने ख़ज़ाना खोल नहीं दिया। मेरे साथ वह लोफरैटी के ढर्रे की तरफ़ अधिक बहकता था। उसने मुझसे कई बार चालू जगहों में चलने को कहा जबकि मुझे चालू ठिकानों की जानकारी नहीं थी।

    मेरे साथ उसकी यह हालत थी कि सड़कों पर टहलते-टहलते थक जाने पर वह रिक्शा भी नहीं करता था। कई-कई दिन ऐसे निकल जाते थे कि कॉफी-चाय के अलावा कुछ भी ठोस कार्यक्रम नहीं होता। वह बीड़ी माँग-माँग कर मेरा बंडल फेंक देता जबकि उसकी जेब में उसी वक़्त बहुमूल्य विदेशी सिगरेट रखी हुई होती। मुझे इसमें क्या फ़ायदा था पर मैं पता नहीं क्यों इंतज़ार करता रहा। कुंदन सरकार के लिए ये अनुभव, मज़े और तमन्ना पूर्ति के दिन थे। क्या इसी चैतन्य चूतियापे के लिए मैं अपने साथियों को छोड़कर आया था। वह कहता भी था, “यार, खुली ज़िंदगी का ऐसा मज़ा पहले कभी नहीं आया।”

    “मज़ा नहीं आया, मज़े के लिए आए हो मेरे पास कुत्ते की औलाद?” कुढ़ता हुआ मैं ग़ुस्से से कट गया। तबियत हुई, फाड़कर रख दूँ मैं इसका और अपना ढोंग। मुझे शर्म भी सताती थी—अपने साथियों को चरका देकर, उन्हें अपने से अज्ञात रखकर मैं यहाँ मौज़ के लालच में चला आया। वे लोग ख़तरनाक रास्तों पर ज़िंदगी फाँस देने के बावजूद कभी अपने को इधर-उधर हिलाते-ढुलाते नहीं। वे लोग पुख़्ता हैं और दु:खी होने वाले। लेकिन मैं कुंदन सरकार का घंटा हो जाने की वजह से दु:खी था। मैं अपने को ही फुसला रहा था, बेवकूफ़ बना रहा था। मैंने निर्णय किया कि जल्दी ही, निगला जाए उगला जाए वाली स्थिति को तमाम कर देना है। सच्चाई का क्षण निकट है और अब ठिकाना हो जाएगा।

    जल्दी ही यह अनुभव हो गया कि कुंदन सरकार का साथ देना बहुत कठिन काम है और अनावश्यक भी। रोज़ दो घंटे उसके साथ साहित्यिक बातचीत कर सकने की ताक़त अगर आप में है तो उससे अच्छी निभ सकती है। मुझे उसकी क्रानिक हालत का पता नहीं था। साहित्य उसे बवासीर की तरह परेशान करता था। कैसी भी घामड़ स्थिति हो और बातचीत का कैसा भी रुख़, साहित्य की तरफ़ उसे मोड़ने में वह समय नहीं लगाता था— एक गियर बदलकर, नया गियर लगाने में जितना समय लग सकता है, उतना समय। मेरी ऐसी साधना नहीं थी। मैं अंदर से बहुत जल्दी बोल गया। अपनी सीमा से अधिक बर्दाश्त के बावजूद ‘सत्य का क्षण’ ही गया।

    कुंदन सरकार ने एक बार मुझे विस्तार से बताया था, कलाकार को भुगतती हुई मरण-धर्मा ज़िंदगी जीनी चाहिए। तभी उसका कोहबर अनुभवों से भरा रह सकता है। उसे असंख्य नाम-पता मालूम थे, जिन्होंने अनुभव के बल पर अपने समय के तमाम प्रतिस्पर्धियों का पटरा कर दिया। साहित्य संबंधी उसकी उक्तियाँ इतनी विचित्र होतीं थीं कि सर पीट लेने की तबियत होती थी। उसका कहना था कि “समाज रूप खेत में, जीवन खाद है, लेखक किसान और साहित्य फ़सल, उसी प्रकार जैसे स्त्री धरती का रूप है, पुरुष हल और संतान फल।”

    मुझे भी बोलना पड़ा था। चुप्पी नामुमकिन थी। अगर उसे यह पता चल जाता कि मैं उकताया हुआ व्यक्ति हूँ तो इसके पहले कि मैं निर्णय लेकर ख़ुद गेट-ऑऊट होता वह मुझे सलाम कर देता। इसलिए मैं भूसे को रस लेकर चबाता रहा। “आपकी भाषा में गज़ब का चमत्कार है,” मैं कहता। वह चमककर बोलता, “चमत्कार! हक़ीक़त को आप चमत्कार बताते हैं! धन्य हैं!”

    उसने मुझे बार-बार बताया कि वह सच्चाई का पुजारी है। “तुम देखो मैं स्कॉच पी सकता हूँ फिर भी ठर्रा क्यों पीता हूँ, बीड़ी क्यों पीता हूँ, सड़कों पर पैदल क्यों भटकता हूँ, बोरा खादी क्यों पहचानता हूँ, गाड़ी होते हुए भी पैदल क्यों चलता हूँ जबकि मैं लेखक नहीं हूँ—बस बुद्धिजीवी हूँ। असली बात यह है कि मुझे सच्चाई ख़ूबसूरत लगती है और सत्य इकट्ठा कर रहा हूँ।

    किसी तरह वह अंतिम दिन गया। ज़ुकाम ने मेरी तबियत झोंक रखी थी। नाक की हालत टोटी जैसी हो गई थी। एक अजीब चिड़चिड़-चिड़चिड़ मची हुई थी। ज़ुकाम की वजह से अंतिम दिन और पक्का हो गया। उधर यह अजीब इत्तिफ़ाक़ था कि कुंदन सरकार की जेबों में उसी दिन मुद्रा मेरे लिए लहर मार रही थी। उस दिन उसने ख़ूब ख़र्च किया। सुबह के शुरू होकर शाम तक हम पीते घूमते रहे। मेरे मन में भी था, अधिक से अधिक खसोट लो कुंदन सरकार को, दूसरी सुबह नहीं आने वाली है इस चूतिए के साथ। जब शाम हुई और बत्तियाँ जलीं वह मुझे ऐसे रेस्तराँ में ले गया जहाँ मैं कभी नहीं गया था। वह इतनी शरीफ़ जगह थी कि मैं वहाँ जा भी नहीं सकता था। यद्यपि यह एक आर्थिक मामला था फिर भी शरीफ़ जगहें मुझसे सही नहीं जातीं, वहाँ मैं उत्तेजित हो उठता हूँ और उल्टी आने लगती है। उस दिन की बात लगता है कुछ और ही थी। छत्ते में शहद की तरह नशा शरीर में छना हुआ था और शरीर वृक्ष की तरह बिना गिरे हुए झूम रहा था।

    रेस्तराँ का हॉल भरा हुआ था। मद्धिम रोशनी थी तथा मर्द-औरतों की संख्या बराबर लगती थी। चारों तरफ़ ख़ुशबुएँ गँजी हुई थीं और थोड़ा इधर-उधर होने पर वे बदल जाती थीं। हमे दो कुर्सियों का एक टेबुल मिल गया। कुंदन सरकार के कोट में एक ज़िन का अद्धा था। बैठने के तुरंत बाद वह ताक में लग गया। मैं इस जगह में काफ़ी फँसा हुआ महसूस कर रहा था धीरे-धीरे मेरी साँस बेहतर हो गई और मैं सावधान होकर जानकारी करने लगा। मैंने एक साथ ऐसी स्त्रियाँ और आदमी कभी नहीं देखे थे। मेरा दिमाग़ दारू और ज़ुकाम में सने रहने के बाद भी कहीं थोड़ा बच गया था। यहाँ पर थोड़ी देर मुझे अपनी भारत-भूमि का ध्यान आता रहा।

    कुंदन सरकार ने बताया, इस रेस्तराँ में अधिकतर सैनिक अधिकारी और उनके परिवार के लोग ही आते हैं। मुझे तत्काल विश्वास हो गया कि यहाँ बैठे हुए लोग सैनिक अधिकारी ही हो सकते हैं। इस जगह का असल संसार से कोई वास्ता नहीं लगता था। यहाँ कोई भी व्यक्ति ग़ुस्सैल, गंभीर और दु:खी नहीं नज़र रहा था। सब स्वस्थ, तर और चिकने चेहरे थे। कुंदन सरकार भी इसी तर संसार का सदस्य लग रहा था। एक उजड़े व्यक्ति को बिठाकर शराब पिला देने भर से क्या उसका स्थान इस संसार से काटा जा सकता है?

    मैंने ध्यान दिया हॉल में दो प्रकार की महिलाएँ थीं। कुछ बिलकुल डाँगर चिरईजान और कुछ जिन्हें देखकर लगता बाल्टी भर के हगती होंगी। मोटी औरतें पुरुषों के प्रति सबसे अधिक ललकपन दिखा रही थीं। पुरुष भी पीछे नहीं थे। चीज़ों को चखते हुए वे दूसरों की औरतों का शील सभ्यता-पूर्वक चाट रहे थे। वे अपने अलावा दूसरों को वहाँ अनुपस्थित समझ रहे थे। कही वे इस दुर्गंध के भी शिकार थे कि रेस्तराँ का यह हॉल उनके लिए वातावरण बनाता है और यह दुनिया उनकी शोभा के लिए बनी है। मादर...मेरा दिमाग़ एक़दम से कड़क हो गया, आख़िर तुम लोग कब तक ग़ुलाम बने रहोगे और कब तक हम इकसठ-बासठ करते रहेंगे।

    अब तक कुंदन सरकार टाँगों के बीच ज़िन की सील तोड़कर उसे अधपिए पानी के गिलासों में डाल चुका था। ज़िन अब पानी की तरह टेबल पर रखी थी और वह उसे धीरे-धीरे पी रहा था। तभी डायस पर साज़-संगीत शुरू हुआ। साज़-संगीत जैसे सियार बोल रहे हों, हुआँ-हुआँ और हत्यापूर्ण चीत्कार हो रहा हो। बहुत घाल-मेल था उसमें। मैं नहीं जानता कि यह शराब थी अथवा मेरा शुद्ध रूप, पर मुझे साज़ की आवाज़ों से मतली आने लगी। मैंने सोचा, अंदर की कड़वाहटें, अचानक स्वादिष्ट ज़ायक़े में तबदील हो जाएँ, इसके पहले मुझे कुछ कर डालना चाहिए। ज़रा-सा सुस्ताने लगो दुनिया गले के नीचे खिसकना शुरू कर देती है। मैं निगलना नहीं चाहता, उगलना चाहता हूँ। नशे ने मुझे बचा रखा था, नहीं तो इस वक़्त मुझे पता है, कसमसाकर, अधिक से अधिक दो-चार गालियाँ बकता और ‘सो-सो’ हो जाता। फ़िलहाल मेरा दिमाग़ एक बाग़ी मस्ती से भरा हुआ था।

    मैंने ग़ौर किया कि पहले से स्थिति बेहतर अवश्य हुई है। पहले मैं केवल मुस्कराता था। जैसे संसार एक चुतियापा है और मैं उसे समझ गया हूँ। हालत यहाँ तक पहुँची कि इस मुस्कराहट के कारण मैं घोंघा समझा जाने लगा था। इस शाकाहारी मुस्कराहट से सत्ता का तो कुछ बिगड़ता नहीं। दमदार मुस्कराहट तो राजा की होती है, महंत की होती है, औरत की होती है और ख़तरों से मुक्त जिनका चमन है उनकी होती हैं। मुस्कराहट गई तो अब उल्टी आने लगी है। तोड़-फोड़ मचने लगती है। भरपूर तरीक़े से ऐसा ही होता रहे, यह भी आसान नहीं है क्योंकि लोकतंत्र का रोमांस और नागरिक भावना को पता नहीं कब अंदर ऐसा कचर दिया गया है कि तोड़-फोड़ तो दरकिनार हो जाते हैं बस बचा रह जाता है एक कुनकुना बुदबुद।

    मैंने शीघ्रता से अपनी गिलास उठाई और पी गया। मुझे भय हुआ आज की उल्टी और बेचैनी और फटती हुई तबियत कहीं भाग जाए— कहीं मुस्कुराहट के दिन जाएँ। मुस्कराहट को जड़ से खोद डालना है। मैंने कुंदन सरकार की तरफ़ देखा, आज मेरा आख़िरी दिन है— आज के बाद मैं तुम्हारा घंटा नहीं रहूँगा, कुंदन सरकार! कुंदन सरकार को इसका क्या पता, वह इत्मिनान से पी रहा था। फिर भी शहर में अभी बहुत से लोग बचे थे, उसका घंटा बनाने के लिए।

    कुंदन सरकार ने घड़ी देखी, बेयरा से कुछ खाने को मँगवाया और मुझे धीमे से बताया, “समय हो गया है, अब छोकरी आएगी गाना गाने।”

    “ठीक है छोकरी को आने दो,” मैंने कहा।

    कुंदन सरकार ने बची-खुची शराब भी गिलासों में निकाल दी और मैं कुर्सी ठीक करके, डायस की तरफ़ चेहरा किए इस तरह से बैठ गया जैसे सामने फ़िल्म होने वाली हो। मेरी नज़र के सामने एक महिला की गमले बराबर ऊँची, काली खोपड़ी गई थी, इसलिए मैंने कुर्सी ठीक की। इसी बीच कुछ मज़बूत और सुंदर गुंडे आए और हॉल का पूरा चक्कर मारकर वापस कहीं अंदर चले गए। शायद वे जाँच-पड़ताल करने आए रहे होंगे। सबसे पहले मैंने सोचा, ये लोग माल के चक्कर में है, पर नहीं, वे लोग केवल ज़िम्मेदारी दिखाते हुए चले गए। जैसे फ़ौज ख़ास मक़सद में, जनता के लिए सड़कों पर परेड करती