गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नज़र दौड़ाई-दो बक्स, डोलची, बालटी–“यह डिब्बा कैसा है, गनेशी?” उन्होंने पूछा। गनेशी बिस्तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दुःख, कुछ लज्जा से बोला-“घरवाली ने साथ को कुछ बेसन के लड्डू रख दिए हैं। कहा, बाबू जी को पसंद थे। अब कहाँ हम गरीब लोग, आपकी कुछ खातिर कर पाएँगे।” घर जाने की खुशी में भी गजाधर बाबू ने एक विषाद का अनुभव किया, जैसे एक परिचित, स्नेही, आदरमय, सहज संसार से उनका नाता टूट रहा हो।
“कभी-कभी हम लोगों की भी खबर लेते रहिएगा।” गनेशी बिस्तर में रस्सी बाँधता हुआ बोला।
“कभी कुछ ज़रूरत हो तो लिखना गनेशी! इस अगहन तक बिटिया की शादी कर दो।”
गनेशी ने अँगोछे के छोर से आँखें पोंछीं— “अब आप लोग सहारा न देंगे, तो कौन देगा? आप यहाँ रहते तो शादी में कुछ हौसला रहता।”
गजाधर बाबू चलने को तैयार बैठे थे। रेलवे क्वार्टर का यह कमरा, जिसमें उन्होंने कितने वर्ष बिताए थे, उनका सामान हट जाने से कुरूप और नग्न लग रहा था। आँगन में रोपे पौधे भी जान-पहचान के लोग ले गए थे और जगह-जगह मिट्टी बिखरी हुई थी, पर पत्नी, बाल-बच्चों के साथ रहने की कल्पना में यह बिछोह एक दुर्बल लहर की तरह उठकर विलीन हो गया।
गजाधर बाबू खुश थे, बहुत खुश। पैंतीस साल की नौकरी के बाद वह रिटायर होकर जा रहे थे। इन वर्षों में अधिकांश समय उन्होंने अकेले रहकर काटा था। उन अकेले क्षणों में उन्होंने इसी समय की कल्पना की थी, जब वह अपने परिवार के साथ रह सकेंगे। इसी आशा के सहारे वह अपने अभाव का बोझ ढो रहे थे। संसार की दृष्टि में उनका जीवन सफल कहा जा सकता था। उन्होंने शहर में एक मकान बनवा लिया था, बड़े लड़के अमर और लड़की कांति की शादियाँ कर दी थीं, दो बच्चे ऊँची कक्षाओं में पढ़ रहे थे। गजाधर बाबू नौकरी के कारण प्रायः छोटे स्टेशनों पर रहे और उनके बच्चे और पत्नी शहर में, जिससे पढ़ाई में बाधा न हो। गजाधर बाबू स्वभाव से बहुत स्नेही व्यक्ति थे और स्नेह के आकांक्षी भी। जब परिवार साथ था, ड्यूटी से लौटकर बच्चों से हँसते-बोलते, पत्नी से कुछ मनोविनोद करते। उन सबके चले जाने से उनके जीवन में गहन सूनापन भर उठा। ख़ाली क्षणों में उनसे घर में टिका न जाता। कवि प्रकृति के न होने पर भी उन्हें पत्नी की स्नेहपूर्ण बातें याद आती रहतीं। दोपहर में गर्मी होने पर भी, वह दो बजे तक आग जलाए रहती और उनके स्टेशन से वापस आने पर गरम-गरम रोटियाँ सेंकती, उनके खा चुकने और मना करने पर भी थोड़ा-सा कुछ और थाली में परोस देती और बड़े प्यार से आग्रह करती। जब वह थके-हारे बाहर से आते, तो उनकी आहट पा वह रसोई के द्वार पर निकल आती और उनकी सलज्ज आँखें मुस्करा उठतीं। गजाधर बाबू को तब हर छोटी बात भी याद आती और वह उदास हो उठते “अब कितने वर्षों बाद वह अवसर आया था, जब वह फिर उसी स्नेह और आदर के मध्य रहने जा रहे थे।
टोपी उतारकर गजाधर बाबू ने चारपाई पर रख दी, जूते खोलकर नीचे खिसका दिए, अंदर से रह-रहकर क़हक़हों की आवाज़ आ रही थी। इतवार का दिन था और उनके सब बच्चे इकट्ठे होकर नाश्ता कर रहे थे। गजाधर बाबू के सूखे चेहरे पर स्निग्ध मुसकान आ गई, उसी तरह मुसकराते हुए वह बिना खाँसे अंदर चले आए। उन्होंने देखा कि नरेंद्र कमर पर हाथ रखे शायद गत रात्रि की फ़िल्म में देखे गए किसी नृत्य की नक़ल कर रहा था और बसंती हँस-हँसकर दुहरी हो रही थी। अमर की बहू को अपने तन-बदन, आँचल या घूँघट का कोई होश न था और वह उन्मुक्त रूप से हँस रही थी। गजाधर बाबू को देखते ही नरेंद्र धप-से बैठ गया और चाय का प्याला उठाकर मुँह से लगा लिया। बहू को होश आया और उसने झट से माथा ढक लिया, केवल बसंती का शरीर रह-रहकर हँसी दबाने के प्रयत्न में हिलता रहा।
गजाधर बाबू ने मुसकराते हुए उन लोगों को देखा। फिर कहा— “क्यों नरेंद्र, क्या नक़ल हो रही है?” “कुछ नहीं बाबू जी!” नरेंद्र ने सिटपिटाकर कहा। गजाधर बाबू ने चाहा था कि वह भी इस मनोविनोद में भाग लेते, पर उनके आते ही जैसे सब कुंठित हो चुप हो गए। उससे उनके मन में थोड़ी-सी खिन्नता उपज आई। बैठते हुए बोले— “बसंती, चाय मुझे भी देना। तुम्हारी अम्मा की पूजा अभी चल रही है। क्या?”
बसंती ने माँ की कोठरी की ओर देखा— “अभी आती ही होंगी,” और प्याले में उनके लिए चाय छानने लगी। बहू चुपचाप पहले ही चली गई थी, अब नरेंद्र भी चाय का आखिरी पूँट पीकर उठ खड़ा हुआ, केवल बसंती, पिता के लिहाज़ में, चौके में बैठी माँ की राह देखने लगी। गजाधर बाबू ने एक घूँट चाय पी, फिर कहा— “बिट्टी-चाय तो फीका है।”
“लाइए, चीनी और डाल दें।” बसंती बोली।
“रहने दो, तुम्हारी अम्मा जब आएगी, तभी पी लूंगा।”
थोड़ी देर में उनकी पत्नी हाथ में अर्घ्य का लोटा लिए निकली और अशुद्ध स्तुति कहते हुए तुलसी में डाल दिया। उन्हें देखते ही बसंती भी उठ गई। पत्नी ने आकर गजाधर बाबू को देखा और कहा— “अरे, आप अकेले बैठे हैं— ये सब कहाँ गए?” गजाधर बाबू के मन में फाँस-सी करक उठी— “अपने-अपने काम में लग गए हैं—आखिर बच्चे ही हैं।”
पत्नी आकर चौके में बैठ गई, उन्होंने नाक-भौं चढ़ाकर चारों ओर जूठे बर्तनों को देखा। फिर कहा—“सारे में जूठे बर्तन पड़े हैं। इस घर में धर्म-कर्म कुछ नहीं। पूजा करके सीधे चौके में घुसो।” फिर उन्होंने नौकर को पुकारा, जब उत्तर न मिला तो एक बार और उच्च स्वर में, फिर पति की ओर देखकर बोलीं— “बहू ने भेजा होगा बाज़ार।” और एक लंबी साँस लेकर चुप हो गई।
गजाधर बाबू बैठकर चाय और नाश्ते का इंतज़ार करते रहे। उन्हें अचानक ही गनेशी की याद आ गई। रोज़ सुबह, पैसेंजर आने से पहले वह गरम-गरम पूरियाँ और जलेबी बनाता था। गजाधर बाबू जब तक उठकर तैयार होते, उनके लिए जलेबियाँ और चाय लाकर रख देता था। चाय भी कितनी बढ़िया, काँच के गिलास में ऊपर तक भरी लबालब, पूरे ढाई चम्मच चीनी और गाढ़ी मलाई। पैसेंजर भले ही रानीपुर लेट पहुँचे, गनेशी ने चाय पहुँचाने में कभी देर नहीं की। क्या मजाल कि कभी उससे कुछ कहना पड़े।
पत्नी का शिकायत-भरा स्वर सुन उनके विचारों में व्याघात पहुँचा। वह कह रही थीं—“सारा दिन इसी खिचखिच में निकल जाता है। इस गृहस्थी का धंधा पीटते-पीटते उमर बीत गई। कोई ज़रा हाथ भी नहीं बँटाता।”
“बहू क्या किया करती है?” गजाधर बाबू ने पूछा।
“पड़ी रहती है। बसंती को तो, फिर कहो कि कॉलेज जाना होता है।”
गजाधर बाबू ने जोश में आकर बसंती को आवाज़ दी। बसंती भाभी के कमरे से निकली तो गजाधर बाबू ने कहा—“बसंती, आज से शाम का खाना बनाने की ज़िम्मेदारी तुम पर है। सुबह का भोजन तुम्हारी भाभी बनाएगी।”
बसंती मुँह लटकाकर बोली—“ बाबू जी, पढ़ना भी तो होता है।”
गजाधर बाबू ने प्यार से समझाया—“तुम सुबह पढ़ लिया करो। तुम्हारी माँ बूढ़ी हुई, उनके शरीर में अब वह शक्ति नहीं बची है। तुम हो, तुम्हारी भाभी हैं, दोनों को मिलकर काम में हाथ बँटाना चाहिए।”
बसंती चुप रही। उसके जाने के बाद उसकी माँ ने धीरे से कहा—“पढ़ने का तो बहाना है। कभी जी ही नहीं लगता। लगे कैसे? शीला से ही फुरसत नहीं, बड़े-बड़े लड़के हैं उनके घर में, हर वक्त वहाँ घुसा रहना, मुझे नहीं सुहाता। मना करूँ तो सुनती नहीं।”
नाश्ता कर गजाधर बाबू बैठक में चले गए। घर छोटा था और ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि उसमें गजाधर बाबू के रहने के लिए कोई स्थान न बचा था। जैसे किसी मेहमान के लिए कुछ अस्थायी प्रबंध कर दिया जाता है, उसी प्रकार बैठक में कुर्सियों को दीवार से सटाकर बीच में गजाधर बाबू के लिए पतली-सी चारपाई डाल दी गई थी। गजाधर बाबू उस कमरे में पड़े-पड़े, कभी-कभी अनायास ही, इस अस्थायित्व का अनुभव करने लगते। उन्हें याद हो आती उन रेलगाड़ियों की, जो आतीं और थोड़ी देर रुककर किसी और लक्ष्य की ओर चली जातीं।
घर छोटा होने के कारण बैठक में ही अब अपना प्रबंध किया था। उनकी पत्नी के पास अंदर एक छोटा कमरा अवश्य था, पर वह एक ओर अचारों के मर्तबान, दाल, चावल के कनस्तर और घी के डिब्बों से घिरा था; दूसरी ओर पुरानी रज़ाइयाँ, दरियों में लिपटी और रस्सी से बँधी रखी थीं, उसके पास एक बड़े-से टीन के बक्स में घर भर के गरम कपड़े थे। बीच में एक अलगनी बँधी हुई थी, जिस पर प्रायः बसंती के कपड़े लापरवाही से पड़े रहते थे। वह भरसक उस कमरे में नहीं जाते थे। घर का दूसरा कमरा अमर और उसकी बहू के पास था, तीसरा कमरा, जो सामने की ओर था, बैठक था। गजाधर बाबू के आने से पहले उसमें अमर की ससुराल से आया बेंत की तीन कुर्सियों का सेट पड़ा था, कुर्सियों पर नीली गद्दियाँ और बहू के हाथों के कड़े कुशन थे।
जब कभी उनकी पत्नी को कोई लंबी शिकायत करनी होती, तो अपनी चटाई बैठक में डाल पड़ जाती थीं। वह एक दिन चटाई लेकर आ गईं। गजाधर बाबू ने घर-गृहस्थी की बातें छेड़ीं, वह घर का रवैया देख रहे थे। बहुत हल्के-से उन्होंने कहा कि अब हाथ में पैसा कम रहेगा, कुछ ख़र्च कम होना चाहिए।
“सभी खर्च तो वाज़िब-वाज़िब हैं, किसका पेट काटूँ? यही जोड़-गाँठ करते-करते बूढ़ी हो गई, न मन का पहना, न ओढ़ा।”
गजाधर बाबू ने आहत, विस्मित दृष्टि से पत्नी को देखा। उनसे अपनी हैसियत छिपी न थी। उनकी पत्नी तंगी का अनुभव कर उसका उल्लेख करतीं, यह स्वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव गजाधर बाबू को बहुत खटका। उनसे यदि राय-बात की जाती कि प्रबंध कैसे हो, तो उन्हें चिंता कम, संतोष अधिक होता। लेकिन उनसे तो केवल शिकायत की जाती थी, जैसे परिवार की सब परेशानियों के लिए वही ज़िम्मेदार थे।
“तुम्हें किस बात की कमी है अमर की माँ-घर में बहू है, लड़के-बच्चे हैं, सिर्फ़ रुपये से ही आदमी अमीर नहीं होता।” गजाधर बाबू ने कहा और कहने के साथ ही अनुभव किया यह उनकी आंतरिक अभिव्यक्ति थी— ऐसी कि उनकी पत्नी नहीं समझ सकतीं। “हाँ, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है, देखो क्या होता है?” कहकर पत्नी ने आँखें मूंदीं और सो गईं। गजाधर बाबू बैठे हुए पत्नी को देखते रह गए। यही थी क्या उनकी पत्नी, जिसके हाथों के कोमल स्पर्श, जिसकी मुसकान की याद में उन्होंने संपूर्ण जीवन काट दिया था? उन्हें लगा कि वह लावण्यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गई है और उसकी जगह आज जो स्त्री है, वह उनकी मन और प्राणों के लिए नितांत अपरिचित है। गाढ़ी नींद में डूबी उनकी पत्नी का भारी-सा शरीर बहुत बेडौल और कुरूप लग रहा था, चेहरा श्रीहीन और रूखा था। गजाधर बाबू देर तक निस्संग दृष्टि से पत्नी को देखते रहे और फिर लेटकर छत की ओर ताकने लगे।
अंदर कुछ गिरा और उनकी पत्नी हड़बड़ाकर उठ बैठीं— “लो, बिल्ली ने कुछ गिरा दिया शायद,” और वह अंदर भागीं। थोड़ी देर में लौटकर आईं तो उनका मुँह फूला हुआ था— “देखा बहू को, चौका खुला छोड़ आई, बिल्ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी तो खाने को हैं, अब क्या खिलाऊँगी?” वह साँस लेने को रुकीं और बोलीं— “एक तरकारी और चार पराँठे बनाने में सारा डिब्बा घी उड़ेल कर रख दिया। ज़रा-सा दर्द नहीं है, कमाने वाला हाड़ तोड़े और यहाँ चीज़ें लुटें। मुझे तो मालूम था कि यह सब काम किसी के बस का नहीं है।”
गजाधर बाबू को लगा कि पत्नी कुछ और बोलेगी तो उनके कान झनझना उठेगे। ओंठ भींच, करवट लेकर उन्होंने पत्नी की ओर पीठ कर ली।
रात का भोजन बसंती ने जानबूझकर ऐसा बनाया था कि कौर तक निगला न जा सके। गजाधर बाबू चुपचाप खाकर उठ गए, पर नरेंद्र थाली सरकाकर उठ खड़ा हुआ और बोला— “मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता।” बसंती तुनककर बोली— “तो न खाओ, कौन तुम्हारी ख़ुशामद करता है।”
“तुमसे खाना बनाने को कहा किसने था?” नरेंद्र चिल्लाया।
“बाबू जी ने।”
“बाबू जी को बैठे-बैठे यही सूझता है।”
बसंती को उठाकर माँ ने नरेंद्र को मनाया और अपने हाथ से कुछ बनाकर खिलाया। गजाधर बाबू ने बाद में पत्नी से कहा— “इतनी बड़ी लड़की हो गई और उसे खाना बनाने तक का शऊर नहीं आया!”
“अरे, आता तो सब कुछ है, करना नहीं चाहती।” पत्नी ने उत्तर दिया। अगली शाम माँ को रसोई में देख, कपड़े बदलकर बसंती बाहर आई, तो बैठक से गजाधर बाबू ने टोक दिया— “कहाँ जा रही हो?”
“पड़ोस में, शीला के घर।” बसंती ने कहा।
“कोई ज़रूरत नहीं है, अंदर जाकर पढ़ो।” गजाधर बाबू ने कड़े स्वर में कहा। कुछ देर अनिश्चित खड़े रहकर बसंती अंदर चली गई। गजाधर बाबू शाम को रोज़ टहलने चले जाते थे, लौटकर आए तो पत्नी ने कहा— “क्या कह दिया बसंती से? शाम से मुँह लपेटे पड़ी है। खाना भी नहीं खाया।”
गजाधर बाबू खिन्न हो आए। पत्नी की बात का उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। उन्होंने मन में निश्चय कर लिया कि बसंती की शादी जल्दी ही कर देनी है। उस दिन के बाद बसंती पिता से बची-बची रहने लगी। जाना होता तो पिछवाड़े से जाती। गजाधर बाबू ने दो-एक बार पत्नी से पूछा तो उत्तर मिला-“रूठी हुई है।” गजाधर बाबू को रोष हुआ। लड़की के इतने मिज़ाज, जाने को रोक दिया तो पिता से बोलेगी नहीं। फिर उनकी पत्नी ने ही सूचना दी कि अमर अलग रहने की सोच रहा है।
“क्यों?” गजाधर बाबू ने चकित होकर पूछा।
पत्नी ने साफ़-साफ़ उत्तर नहीं दिया। अमर और उसकी बहू की शिकायतें बहुत थीं। उनका कहना था कि गजाधर बाबू हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं, कोई आने-जाने वाला हो तो कहीं बिठाने की जगह नहीं। अमर को अब भी वह छोटा-सा समझते थे और मौक़े-बेमौक़े टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था और सास जब-तब फूहड़पन पर ताने देती रहती थीं। “हमारे आने से पहले भी कभी ऐसी बात हुई थी?” गजाधर बाबू ने पूछा। पत्नी ने सिर हिलाकर बताया कि नहीं। पहले अमर घर का मालिक बनकर रहता था, बहू को कोई रोक-टोक न थी, अमर के दोस्तों का प्रायः यहीं अड्डा जमा रहता था और अंदर से नाश्ता-चाय तैयार होकर जाता रहता था। बसंती को भी वही अच्छा लगता था।
गजाधर बाबू ने बहुत धीरे से कहा— “अमर से कहो, जल्दबाज़ी की कोई ज़रूरत नहीं है।”
अगले दिन वह सुबह घूमकर लौटे तो उन्होंने पाया कि बैठक में उनकी चारपाई नहीं है। अंदर जाकर पूछने ही वाले थे कि उनकी दृष्टि रसोई के अंदर बैठी पत्नी पर पड़ी। उन्होंने यह कहने को मुँह खोला कि बहू कहाँ है; पर कुछ याद कर चुप हो गए। पत्नी की कोठरी में झाँका तो अचार, रज़ाइयाँ और कनस्तरों के मध्य अपनी चारपाई लगी पाई। गजाधर बाबू ने कोट उतारा और कहीं टाँगने को दीवार पर नज़र दौड़ाई। फिर उसे मोड़कर अलगनी के कुछ कपड़े खिसकाकर, एक किनारे टाँग दिया। कुछ खाए बिना ही अपनी चारपाई पर लेट गए। कुछ भी हो, तन आख़िरकार बूढ़ा ही था। सुबह-शाम कुछ दूर टहलने अवश्य चले जाते, पर आते-जाते थक उठते थे। गजाधर बाबू को अपना बड़ा-सा क्वार्टर याद आ गया। निश्चिंत जीवन, सुबह पैसेंजर ट्रेन आने पर स्टेशन की चहल-पहल, चिर-परिचित चेहरे और पटरी पर रेल के पहियों की खट्-खट्, जो उनके लिए मधुर संगीत की तरह थी। तूफ़ान और डाकगाड़ी के इंजनों की चिंघाड़ उनकी अकेली रातों की साथी थी। सेठ रामजीमल के मिल के कुछ लोग कभी-कभी पास आ बैठते, वही उनका दायरा था, वही उनके साथी। वह जीवन अब उन्हें एक खोई निधि-सा प्रतीत हुआ। उन्हें लगा कि वह ज़िंदगी द्वारा ठगे गए हैं। उन्होंने जो कुछ चाहा, उसमें से उन्हें एक बूंद भी न मिली।
लेटे हुए वह घर के अंदर से आते विविध स्वरों को सुनते रहे। बहू और सास की छोटी-सी झड़प, बालटी पर खुले नल की आवाज़, रसोई के बर्तनों की खटपट और उसी में दो गौरेयों का वार्तालाप-और अचानक ही उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब घर की किसी बात में दखल न देंगे। यदि गृहस्वामी के लिए पूरे घर में एक चारपाई की जगह नहीं है, तो यहीं पड़े रहेंगे। अगर कहीं और डाल दी गई तो वहाँ चले जाएँगे। यदि बच्चों के जीवन में उनके लिए कहीं स्थान नहीं, तो अपने ही घर में परदेसी की तरह पड़े रहेंगे और उस दिन के बाद सचमुच गजाधर बाबू कुछ नहीं बोले। नरेंद्र रुपए माँगने आया तो बिना कारण पूछे उसे रुपये दे दिए— बसंती काफ़ी अँधेरा हो जाने के बाद भी पड़ोस में रही तो भी उन्होंने कुछ नहीं कहा— पर उन्हें सबसे बड़ा ग़म यह था कि उनकी पत्नी ने भी उनमें कुछ परिवर्तन लक्ष्य नहीं किया। वह मन-ही-मन कितना भार ढो रहे हैं, इससे वह अनजान ही बनी रहीं, बल्कि उन्हें पति के घर के मामले में हस्तक्षेप न करने के कारण शांति ही थी। कभी-कभी वह कह भी उठतीं, “ठीक ही है, आप बीच में न पड़ा कीजिए, बच्चे बड़े हो गए हैं, हमारा जो कर्तव्य था, कर रहे हैं। पढ़ा रहे हैं, शादी कर देंगे।”
गजाधर बाबू ने आहत दृष्टि से पत्नी को देखा। उन्होंने अनुभव किया कि वह पत्नी और बच्चों के लिए केवल धनोपार्जन के निमित्त-मात्र हैं। जिस व्यक्ति के अस्तित्व से पत्नी माँग में सिंदूर डालने की अधिकारिणी है, समाज में उसकी प्रतिष्ठा है, उसके सामने वह दो वक्त भोजन की थाली रख देने से सारे कर्तव्यों से छुट्टी पा जाती है। वह घी और चीनी के डिब्बों में इतनी रमी हुई है कि अब वही उसकी संपूर्ण दुनिया बन गई है। गजाधर बाबू उनके जीवन के केंद्र नहीं हो सकते, उन्हें तो अब उनकी शादी के लिए भी उत्साह बुझ गया। किसी बात में हस्तक्षेप न करने के निश्चय के बाद भी उनका अस्तित्व उस वातावरण का एक भाग न बन सका। उनकी उपस्थिति उस घर में ऐसी असंगत लगने लगी थी, जैसे सजी हुई बैठक में उनकी चारपाई थी। उनकी सारी ख़ुशी एक गहरी उदासीनता में डूब गई।
इतने सब निश्चयों के बावजूद भी एक दिन बीच में दखल दे बैठे। पत्नी स्वभावानुसार नौकर की शिकायत कर रही थीं—“कितना कामचोर है, बाज़ार की भी चीज़ में पैसा बनाता है, खाने बैठता है, तो खाता ही चला जाता है।” गजाधर बाबू को बराबर यह महसूस होता रहता था कि उनके घर का रहन-सहन और ख़र्च उनकी हैसियत से कहीं ज़्यादा है। पत्नी की बात सुनकर कहने लगे कि नौकर का ख़र्च बिलकुल बेकार है। छोटा-मोटा काम हैं, घर में तीन मर्द हैं, कोई-न-कोई कर ही देगा। उन्होंने उसी दिन नौकर का हिसाब कर दिया। अमर दफ़्तर से आया तो नौकर को पुकारने लगा। अमर की बहू बोली— “बाबू जी ने नौकर छुड़ा दिया है।”
“क्यों?”
“कहते हैं ख़र्च बहुत है।”
यह वार्तालाप बहुत सीधा-सा था, पर जिस टोन में बहू बोली, गजाधर बाबू को खटक गया। उस दिन जी भारी होने के कारण गजाधर बाबू टहलने नहीं गए थे। आलस्य में उठकर बत्ती भी नहीं जलाई थी इस बात से बेख़बर नरेंद्र माँ से कहने लगा— “अम्माँ, तुम बाबू जी से कहती क्यों नहीं? बैठे-बिठाए कुछ नहीं तो नौकर ही छुड़ा दिया। अगर बाबू जी यह समझें कि मैं साइकिल पर गेहूँ रख आटा पिसाने जाऊँगा, तो मुझसे यह नहीं होगा।” “हाँ अम्माँ” बसंती का स्वर था— “मैं कॉलेज भी जाऊँ और लौटकर घर में झाडू भी लगाऊँ, यह मेरे बस की बात नहीं है।”
“बूढ़े आदमी हैं”—अमर भुनभुनाया— “चुपचाप पड़े रहें। हर चीज़ में दखल क्यों देते हैं?” पत्नी ने बड़े व्यंग्य से कहा—“और कुछ नहीं सूझा, तो तुम्हारी बहू को ही चौके में भेज दिया। वह गई तो पंद्रह दिन का राशन पाँच दिन में बनाकर रख दिया।” बहू कुछ कहे, इससे पहले वह चौके में घुस गईं। कुछ देर में अपनी कोठरी में आईं और बिजली जलाई तो गजाधर बाबू को लेटे देख बड़ी सिटपिटाईं। गजाधर बाबू की मुख-मुद्रा से वह उनमें भावों का अनुमान न लगा सकीं। वह चुप आँखें बंद किए लेटे रहे।
गजाधर बाबू चिट्ठी हाथ में लिए अंदर आए और पत्नी को पुकारा। वह भीगे हाथ लिए निकलीं और आँचल से पोंछती हुई पास आ खड़ी हुईं। गजाधर बाबू ने बिना किसी भूमिका के कहा— “मुझे सेठ रामजीमल की चीनी मिल में नौकरी मिल गई है। खाली बैठे रहने से तो चार पैसे घर में आएँ, वही अच्छा है। उन्होंने तो पहले ही कहा था, मैंने ही मना कर दिया था। फिर कुछ रुककर, जैसे बुझी हुई आग में एक चिनगारी चमक उठे, उन्होंने धीमे स्वर में कहा— “मैंने सोचा था कि बरसों तुम सबसे अलग रहने के बाद अवकाश पाकर परिवार के साथ रहूँगा। खैर, परसों जाना है। तुम भी चलोगी?” “मैं?” पत्नी ने सकपकाकर कहा— “मैं चलूँगी तो यहाँ का क्या होगा? इतनी बड़ी गृहस्थी, फिर सयानी लड़की।”
बात बीच में काटकर गजाधर बाबू ने हताश स्वर में कहा—“ठीक है, तुम यहीं रहो। मैंने तो ऐसे ही कहा था।” और गहरे मौन में डूब गए।
नरेंद्र ने बड़ी तत्परता से बिस्तर बाँधा और रिक्शा बुला लाया। गजाधर बाबू का टीन का बक्स और पतला-सा बिस्तर उस पर रख दिया गया। नाश्ते के लिए लड्डू और मठरी की डलिया हाथ में लिए गजाधर बाबू रिक्शे पर बैठ गए। एक दृष्टि उन्होंने अपने परिवार पर डाली। फिर दूसरी ओर देखने लगे और रिक्शा चल पड़ा।
उनके जाने के बाद सब अंदर लौट आए। बहू ने अमर से पूछा—“सिनेमा ले चलिएगा न?” बसंती ने उछलकर कहा—“भइया, हमें भी।”
गजाधर बाबू की पत्नी सीधे चौके में चली गई। बची हुई मठरियों को कटोरदान में रखकर अपने कमरे में लाई और कनस्तरों के पास रख दिया, फिर बाहर आकर कहा—“अरे नरेंद्र, बाबूजी की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नहीं है।”
gajadhar babu ne kamre mein jama saman par ek nazar dauDai do baks, Dolchi, balati–“yah Dibba kaisa hai, ganeshi?” unhonne puchha ganeshi bistar bandhta hua, kuch garw, kuch duःkh, kuch lajja se bola “gharwali ne sath ko kuch besan ke laDDu rakh diye hain kaha, babu ji ko pasand the ab kahan hum garib log, apaki kuch khatir kar payenge ” ghar jane ki khushi mein bhi gajadhar babu ne ek wishad ka anubhaw kiya, jaise ek parichit, snehi, adarmay, sahj sansar se unka nata toot raha ho
“kabhi kabhi hum logon ki bhi khabar lete rahiyega ” ganeshi bistar mein rassi bandhta hua bola
“kabhi kuch zarurat ho to likhna ganeshi! is aghan tak bitiya ki shadi kar do ”
ganeshi ne angochhe ke chhor se ankhen ponchhin “ab aap log sahara na denge, to kaun dega? aap yahan rahte to shadi mein kuch hausla rahta ”
gajadhar babu chalne ko taiyar baithe the railway quarter ka ye kamra, jismen unhonne kitne warsh bitaye the, unka saman hat jane se kurup aur nagn lag raha tha angan mein rope paudhe bhi jaan pahchan ke log le gaye the aur jagah jagah mitti bikhri hui thi, par patni, baal bachchon ke sath rahne ki kalpana mein ye bichhoh ek durbal lahr ki tarah uthkar wilin ho gaya
gajadhar babu khush the, bahut khush paintis sal ki naukari ke baad wo retire hokar ja rahe the in warshon mein adhikansh samay unhonne akele rahkar kata tha un akele kshnon mein unhonne isi samay ki kalpana ki thi, jab wo apne pariwar ke sath rah sakenge isi aasha ke sahare wo apne abhaw ka bojh Dho rahe the sansar ki drishti mein unka jiwan saphal kaha ja sakta tha unhonne shahr mein ek makan banwa liya tha, baDe laDke amar aur laDki kanti ki shadiyan kar di theen, do bachche unchi kakshaon mein paDh rahe the gajadhar babu naukari ke karan praya chhote steshnon par rahe aur unke bachche aur patni shahr mein, jisse paDhai mein badha na ho gajadhar babu swbhaw se bahut snehi wekti the aur sneh ke akankshai bhi jab pariwar sath tha, duty se lautkar bachchon se hanste bolte, patni se kuch manowinod karte un sabke chale jane se unke jiwan mein gahan sunapan bhar utha khali kshnon mein unse ghar mein tika na jata kawi prakrti ke na hone par bhi unhen patni ki snehpurn baten yaad aati rahtin dopahar mein garmi hone par bhi, wo do baje tak aag jalaye rahti aur unke station se wapas aane par garam garam rotiyan senkti, unke kha chukne aur mana karne par bhi thoDa sa kuch aur thali mein paros deti aur baDe pyar se agrah karti jab wo thake hare bahar se aate, to unki aahat pa wo rasoi ke dwar par nikal aati aur unki salajj ankhen muskra uthtin gajadhar babu ko tab har chhoti baat bhi yaad aati aur wo udas ho uthte“ab kitne warshon baad wo awsar aaya tha, jab wo phir usi sneh aur aadar ke madhya rahne ja rahe the
topi utarkar gajadhar babu ne charpai par rakh di, jute kholkar niche khiska diye, andar se rah rahkar qahqahon ki awaz aa rahi thi itwar ka din tha aur unke sab bachche ikatthe hokar nashta kar rahe the gajadhar babu ke sukhe chehre par snigdh muskan aa gai, usi tarah musakrate hue wo bina khanse andar chale aaye unhonne dekha ki narendr kamar par hath rakhe shayad gat ratri ki film mein dekhe gaye kisi nrity ki naqal kar raha tha aur basanti hans hansakar duhri ho rahi thi amar ki bahu ko apne tan badan, anchal ya punghat ka koi hosh na tha aur wo unmukt roop se hans rahi thi gajadhar babu ko dekhte hi narendr dhap se baith gaya aur chay ka pyala uthakar munh se laga liya bahu ko hosh aaya aur usne jhat se matha Dhak liya, kewal basanti ka sharir rah rahkar hansi dabane ke prayatn mein hilta raha
gajadhar babu ne musakrate hue un logon ko dekha phir kaha “kyon narendr, kya naqal ho rahi hai?” “kuchh nahin babu jee!” narendr ne sitapitakar kaha gajadhar babu ne chaha tha ki wo bhi is manowinod mein bhag lete, par unke aate hi jaise sab kunthit ho chup ho gaye usse unke man mein thoDi si khinnata upaj i baithte hue bole “basanti, chay mujhe bhi dena tumhari amma ki puja abhi chal rahi hai kya?”
basanti ne man ki kothari ki or dekha “abhi aati hi hongi,” aur pyale mein unke liye chay chhanne lagi bahu chupchap pahle hi chali gai thi, ab narendr bhi chay ka akhiri poont pikar uth khaDa hua, kewal basanti, pita ke lihaz mein, chauke mein baithi man ki rah dekhne lagi gajadhar babu ne ek poont chay pi, phir kaha bitti chay to phika hai ”
“laiye, chini aur Dal den ” basanti boli
“rahne do, tumhari amma jab ayegi, tabhi pi lunga ”
thoDi der mein unki patni hath mein arghy ka lota liye nikli aur ashuddh istuti kahte hue tulsi mein Dal diya unhen dekhte hi basanti bhi uth gai patni ne aakar gajadhar babu ko dekha aur kaha “are, aap akele baithe hain ye sab kahan gaye?” gajadhar babu ke man mein phans si karak uthi “apne apne kaam mein lag gaye hain—akhir bachche hi hain ”
patni aakar chauke mein baith gai, unhonne nak bhaun chaDhakar charon or juthe bartanon ko dekha phir kaha “sare mein juthe bartan paDe hain is ghar mein dharm karm kuch nahin puja karke sidhe chauke mein ghuso ”
phir unhonne naukar ko pukara, jab uttar na mila to ek bar aur uchch swar mein, phir pati ki or dekhkar bolin “bahu ne bheja hoga bazar ” aur ek lambi sans lekar chup ho gai
gajadhar babu baithkar chay aur nashte ka intज़ar karte rahe unhen achanak hi ganeshi ki yaad aa gai roz subah, passenger aane se pahle wo garam garam puriyan aur jalebi banata tha gajadhar babu jab tak uthkar taiyar hote, unke liye jalebiyan aur chay lakar rakh deta tha chay bhi kitni baDhiya, kanch ke gilas mein upar tak bhari labalb, pure Dhai chammach chini aur gaDhi malai passenger bhale hi ranipur let pahunche, ganeshi ne chay pahunchane mein kabhi der nahin ki kya majal ki kabhi usse kuch kahna paDe
patni ka shikayat bhara swar sun unke wicharon mein wyaghat pahuncha wo kah rahi theen “sara din isi khichkhich mein nikal jata hai is grihasthi ka dhandha pitte pitte umar beet gai koi zara hath bhi nahin bantata ”
“bahu kya kiya karti hai?” gajadhar babu ne puchha
“paDi rahti hai basanti ko to, phir kaho ki college jana hota hai ”
gajadhar babu ne josh mein aakar basanti ko awaz di basanti bhabhi ke kamre se nikli to gajadhar babu ne kaha “basanti, aaj se sham ka khana banane ki zimmedari tum par hai subah ka bhojan tumhari bhabhi banayegi ”
basanti munh latkakar boli “ babu ji, paDhna bhi to hota hai ”
gajadhar babu ne pyar se samjhaya “tum subah paDh liya karo tumhari man buDhi hui, unke sharir mein ab wo shakti nahin bachi hai tum ho, tumhari bhabhi hain, donon ko milkar kaam mein hath bantana chahiye ”
basanti chup rahi uske jane ke baad uski man ne dhire se kaha “paDhne ka to bahana hai kabhi ji hi nahin lagta lage kaise? shila se hi phursat nahin, baDe baDe laDke hain unke ghar mein, har wakt wahan ghusa rahna, mujhe nahin suhata mana karun to sunti nahin ”
nashta kar gajadhar babu baithak mein chale gaye ghar chhota tha aur aisi wyawastha ho chuki thi ki usmen gajadhar babu ke rahne ke liye koi sthan na bacha tha jaise kisi mehman ke liye kuch asthayi parbandh kar diya jata hai, usi prakar baithak mein kursiyon ko diwar se satakar beech mein gajadhar babu ke liye patli si charpai Dal di gai thi gajadhar babu us kamre mein paDe paDe, kabhi kabhi anayas hi, is asthayitw ka anubhaw karne lagte unhen yaad ho aati un relgaDiyon ki, jo atin aur thoDi der rukkar kisi aur lakshya ki or chali jatin
ghar chhota hone ke karan baithak mein hi ab apna parbandh kiya tha unki patni ke pas andar ek chhota kamra awashy tha, par wo ek or acharon ke martaban, dal, chawal ke kanastar aur ghi ke Dibbon se ghira tha; dusri or purani razaiyan, dariyon mein lipti aur rassi se bandhi rakhi theen, uske pas ek baDe se teen ke baks mein ghar bhar ke garam kapDe the beech mein ek algani bandhi hui thi, jis par praya basanti ke kapDe laparwahi se paDe rahte the wo bharsak us kamre mein nahin jate the ghar ka dusra kamra amar aur uski bahu ke pas tha, tisra kamra, jo samne ki or tha, baithak tha gajadhar babu ke aane se pahle usmen amar ki sasural se aaya bent ki teen kursiyon ka set paDa tha, kursiyon par nili gaddiyan aur bahu ke hathon ke kaDe kushan the
jab kabhi unki patni ko koi lambi shikayat karni hoti, to apni chatai baithak mein Dal paD jati theen wo ek din chatai lekar aa gain gajadhar babu ne ghar grihasthi ki baten chheDin, wo ghar ka rawaiya dekh rahe the bahut halke se unhonne kaha ki ab hath mein paisa kam rahega, kuch kharch kam hona chahiye
“sabhi kharch to wazib wazib hain, kiska pet kaDhun? yahi joD ganth karte karte buDhi ho gai, na man ka pahna, na oDha ”
gajadhar babu ne aahat, wismit drishti se patni ko dekha unse apni haisiyat chhipi na thi unki patni tangi ka anubhaw kar uska ullekh kartin, ye swabhawik tha, lekin unmen sahanubhuti ka poorn abhaw gajadhar babu ko bahut khatka unse yadi ray baat ki jati ki parbandh kaise ho, to unhen chinta kam, santosh adhik hota lekin unse to kewal shikayat ki jati thi, jaise pariwar ki sab pareshaniyon ke liye wahi zimmedar the
“tumhen kis baat ki kami hai amar ki man ghar mein bahu hai, laDke bachche hain, sirf rupye se hi adami amir nahin hota ” gajadhar babu ne kaha aur kahne ke sath hi anubhaw kiya ye unki antrik abhiwyakti thi aisi ki unki patni nahin samajh saktin “han, baDa sukh hai na bahu se aaj rasoi karne gai hai, dekho kya hota hai?” kahkar patni ne ankhen mundin aur so gain gajadhar babu baithe hue patni ko dekhte rah gaye yahi thi kya unki patni, jiske hathon ke komal sparsh, jiski muskan ki yaad mein unhonne sampurn jiwan kat diya tha? unhen laga ki wo lawanyamyi yuwati jiwan ki rah mein kahin kho gai hai aur uski jagah aaj jo istri hai, wo unki man aur pranon ke liye nitant aprichit hai gaDhi neend mein Dubi unki patni ka bhari sa sharir bahut beDaul aur kurup lag raha tha, chehra shrihin aur rukha tha gajadhar babu der tak nissang drishti se patni ko dekhte rahe aur phir letkar chhat ki or takne lage
andar kuch gira aur unki patni haDabDakar uth baithin “lo, billi ne kuch gira diya shayad,” aur wo andar bhagin thoDi der mein lautkar ain to unka munh phula hua tha “dekha bahu ko, chauka khula chhoD i, billi ne dal ki patili gira di sabhi to khane ko hain, ab kya khilaungi?” wo sans lene ko rukin aur bolin “ek tarkari aur chaar paranthe banane mein sara Dibba ghi uDel kar rakh diya zara sa dard nahin hai, kamanewala haD toDe aur yahan chijen luten mujhe to malum tha ki ye sab kaam kisi ke bus ka nahin hai ”
gajadhar babu ko laga ki patni kuch aur bolegi to unke kan jhanjhana uthege awnth bheench, karwat lekar unhonne patni ki or peeth kar li
raat ka bhojan basanti ne janbujhkar aisa banaya tha ki kaur tak nigla na ja sake gajadhar babu chupchap khakar uth gaye, par narendr thali sarkakar uth khaDa hua aur bola “main aisa khana nahin kha sakta ” basanti tunakkar boli “to na khao, kaun tumhari khushamad karta hai ”
“tumse khana banane ko kaha kisne tha?” narendr chillaya
“babu ji ne ”
“babu ji ko baithe baithe yahi sujhta hai ”
basanti ko uthakar man ne narendr ko manaya aur apne hath se kuch banakar khilaya gajadhar babu ne baad mein patni se kaha “itni baDi laDki ho gai aur use khana banane tak ka shaur nahin aya!”
“are, aata to sab kuch hai, karna nahin chahti ” patni ne uttar diya agli sham man ko rasoi mein dekh, kapDe badalkar basanti bahar i, to baithak se gajadhar babu ne tok diya “kahan ja rahi ho?”
“paDos mein, shila ke ghar ” basanti ne kaha
“koi zarurat nahin hai, andar jakar paDho gajadhar babu ne kaDe swar mein kaha kuch der anishchit khaDe rahkar basanti andar chali gai gajadhar babu sham ko roz tahalne chale jate the, lautkar aaye to patni ne kaha “kya kah diya basanti se ? sham se munh lapete paDi hai khana bhi nahin khaya ”
gajadhar babu khinn ho aaye patni ki baat ka unhonne kuch uttar nahin diya unhonne man mein nishchay kar liya ki basanti ki shadi jaldi hi kar deni hai us din ke baad basanti pita se bachi bachi rahne lagi jana hota to pichhwaDe se jati gajadhar babu ne do ek bar patni se puchha to uttar mila “ruthi hui hai ” gajadhar babu ko rosh hua laDki ke itne mizaj, jane ko rok diya to pita se bolegi nahin phir unki patni ne hi suchana di ki amar alag rahne ki soch raha hai
“kyon?” gajadhar babu ne chakit hokar puchha
patni ne saf saf uttar nahin diya amar aur uski bahu ki shikayaten bahut theen unka kahna tha ki gajadhar babu hamesha baithak mein hi paDe rahte hain, koi aane janewala ho to kahin bithane ki jagah nahin amar ko ab bhi wo chhota sa samajhte the aur mauq bemauq tok dete the bahu ko kaam karna paDta tha aur sas jab tab phuhaDapan par tane deti rahti theen “hamare aane se pahle bhi kabhi aisi baat hui thee?” gajadhar babu ne puchha patni ne sir hilakar bataya ki nahin pahle amar ghar ka malik bankar rahta tha, bahu ko koi rok tok na thi, amar ke doston ka praya yahin aDDa jama rahta tha aur andar se nashta chay taiyar hokar jata rahta tha basanti ko bhi wahi achchha lagta tha
gajadhar babu ne bahut dhire se kaha “amar se kaho, jaldabaज़i ki koi zarurat nahin hai ”
agle din wo subah ghumkar laute to unhonne paya ki baithak mein unki charpai nahin hai andar jakar puchhne hi wale the ki unki drishti rasoi ke andar baithi patni par paDi unhonne ye kahne ko munh khola ki bahu kahan hai; par kuch yaad kar chup ho gaye patni ki kothari mein jhanka to achar, razaiyan aur kanastron ke madhya apni charpai lagi pai gajadhar babu ne coat utara aur kahin tangane ko diwar par nazar dauDai phir use moDkar algani ke kuch kapDe khiskakar, ek kinare tang diya kuch khaye bina hi apni charpai par let gaye kuch bhi ho, tan akhiraka buDha hi tha subah sham kuch door tahalne awashy chale jate, par aate jate thak uthte the gajadhar babu ko apna baDa sa quarter yaad aa gaya nishchint jiwan, subah passenger train aane par station ki chahl pahal, chir parichit chehre aur patri par rail ke pahiyon ki khat khat, jo unke liye madhur sangit ki tarah thi tufan aur DakgaDi ke enginon ki chinghaD unki akeli raton ki sathi thi seth ramjimal ke mil ke kuch log kabhi kabhi pas aa baithte, wahi unka dayara tha, wahi unke sathi wo jiwan ab unhen ek khoi nidhi sa pratit hua unhen laga ki wo zindagi dwara thage gaye hain unhonne jo kuch chaha, usmen se unhen ek boond bhi na mili
lete hue wo ghar ke andar se aate wiwidh swron ko sunte rahe bahu aur sas ki chhoti si jhaDap, balati par khule nal ki awaz, rasoi ke bartanon ki khatpat aur usi mein do gaureyon ka wartalap aur achanak hi unhonne nishchay kar liya ki ab ghar ki kisi baat mein dakhal na denge yadi grihaswami ke liye pure ghar mein ek charpai ki jagah nahin hai, to yahin paDe rahenge agar kahin aur Dal di gai to wahan chale jayenge yadi bachchon ke jiwan mein unke liye kahin sthan nahin, to apne hi ghar mein pardesi ki tarah paDe rahenge aur us din ke baad sachmuch gajadhar babu kuch nahin bole narendr rupye mangne aaya to bina karan puchhe use rupye de diye basanti kafi andhera ho jane ke baad bhi paDos mein rahi to bhi unhonne kuch nahin kaha par unhen sabse baDa gum ye tha ki unki patni ne bhi unmen kuch pariwartan lakshya nahin kiya wo man hi man kitna bhaar Dho rahe hain, isse wo anjan hi bani rahin, balki unhen pati ke ghar ke mamle mein hastakshaep na karne ke karan shanti hi thi kabhi kabhi wo kah bhi uthtin, “theek hi hai, aap beech mein na paDa kijiye, bachche baDe ho gaye hain, hamara jo kartawya tha, kar rahe hain paDha rahe hain, shadi kar denge ”
gajadhar babu ne aahat drishti se patni ko dekha unhonne anubhaw kiya ki wo patni aur bachchon ke liye kewal dhanoparjan ke nimitt matr hain jis wekti ke astitw se patni mang mein sindur Dalne ki adhikarini hai, samaj mein uski pratishtha hai, uske samne wo do wakt bhojan ki thali rakh dene se sare kartawyon se chhutti pa jati hai wo ghi aur chini ke Dibbon mein itni rami hui hai ki ab wahi uski sampurn duniya ban gai hai gajadhar babu unke jiwan ke kendr nahin ho sakte, unhen to ab unki shadi ke liye bhi utsah bujh gaya kisi baat mein hastakshaep na karne ke nishchay ke baad bhi unka astitw us watawarn ka ek bhag na ban saka unki upasthiti us ghar mein aisi asangat lagne lagi thi, jaise saji hui baithak mein unki charpai thi unki sari khushi ek gahri udasinata mein Doob gai
itne sab nishchyon ke bawjud bhi ek din beech mein dakhal de baithe patni swbhawanusar naukar ki shikayat kar rahi thin—“kitna kamachor hai, bazar ki bhi cheez mein paisa banata hai, khane baithta hai, to khata hi chala jata hai ” gajadhar babu ko barabar ye mahsus hota rahta tha ki unke ghar ka rahan sahn aur kharch unki haisiyat se kahin jyada hai patni ki baat sunkar kahne lage ki naukar ka kharch bilkul bekar hai chhota mota kaam hain, ghar mein teen mard hain, koi na koi kar hi dega unhonne usi din naukar ka hisab kar diya amar daphtar se aaya to naukar ko pukarne laga amar ki bahu boli “babu ji ne naukar chhuDa diya hai ”
“kyon?”
“kahte hain kharch bahut hai ”
ye wartalap bahut sidha sa tha, par jis tone mein bahu boli, gajadhar babu ko khatak gaya us din ji bhari hone ke karan gajadhar babu tahalne nahin gaye the alasy mein uthkar batti bhi nahin jalai thi is baat se beख़bar narendr man se kahne laga “amman, tum babu ji se kahti kyon nahin? baithe bithaye kuch nahin to naukar hi chhuDa diya agar babu ji ye samjhen ki main cycle par gehun rakh aata pisane jaunga, to mujhse ye nahin hoga ” “han amman” basanti ka swar tha “main college bhi jaun aur lautkar ghar mein jhaDu bhi lagaun, ye mere bus ki baat nahin hai ”
“buDhe adami hain”—amar bhunabhunaya “chupchap paDe rahen har cheez mein dakhal kyon dete hain?” patni ne baDe wyangy se kaha—“aur kuch nahin sujha, to tumhari bahu ko hi chauke mein bhej diya wo gai to pandrah din ka rashan panch din mein banakar rakh diya ” bahu kuch kahe, isse pahle wo chauke mein ghus gain kuch der mein apni kothari mein ain aur bijli jalai to gajadhar babu ko lete dekh baDi sitapitain gajadhar babu ki mukh mudra se wo unmen bhawon ka anuman na laga sakin wo chup ankhen band kiye lete rahe
gajadhar babu chitthi hath mein liye andar aaye aur patni ko pukara wo bhige hath liye niklin aur anchal se ponchhti hui pas aa khaDi huin gajadhar babu ne bina kisi bhumika ke kaha “mujhe seth ramjimal ki chini mil mein naukari mil gai hai khali baithe rahne se to chaar paise ghar mein ayen, wahi achchha hai unhonne to pahle hi kaha tha, mainne hi mana kar diya tha phir kuch rukkar, jaise bujhi hui aag mein ek chingari chamak uthe, unhonne dhime swar mein kaha “mainne socha tha ki barson tum sabse alag rahne ke baad awkash pakar pariwar ke sath rahunga khair, parson jana hai tum bhi chalogi?” “main?” patni ne sakapkakar kaha “main chalungi to yahan ka kya hoga? itni baDi grihasthi, phir sayani laDki ”
baat beech mein katkar gajadhar babu ne hatash swar mein kaha—“thik hai, tum yahin raho mainne to aise hi kaha tha ” aur gahre maun mein Doob gaye
narendr ne baDi tatparta se bistar bandha aur rickshaw bula laya gajadhar babu ka teen ka baks aur patla sa bistar us par rakh diya gaya nashte ke liye laDDu aur mathri ki Daliya hath mein liye gajadhar babu rikshe par baith gaye ek drishti unhonne apne pariwar par Dali phir dusri or dekhne lage aur rickshaw chal paDa
unke jane ke baad sab andar laut aaye bahu ne amar se puchha—“cinema le chaliyega n?” basanti ne uchhalkar kaha—“bhaiya, hamein bhi ”
gajadhar babu ki patni sidhe chauke mein chali gai bachi hui mathariyon ko katordan mein rakhkar apne kamre mein lai aur kanastron ke pas rakh diya, phir bahar aakar kaha—“are narendr, babuji ki charpai kamre se nikal de usmen chalne tak ki jagah nahin hai ”
gajadhar babu ne kamre mein jama saman par ek nazar dauDai do baks, Dolchi, balati–“yah Dibba kaisa hai, ganeshi?” unhonne puchha ganeshi bistar bandhta hua, kuch garw, kuch duःkh, kuch lajja se bola “gharwali ne sath ko kuch besan ke laDDu rakh diye hain kaha, babu ji ko pasand the ab kahan hum garib log, apaki kuch khatir kar payenge ” ghar jane ki khushi mein bhi gajadhar babu ne ek wishad ka anubhaw kiya, jaise ek parichit, snehi, adarmay, sahj sansar se unka nata toot raha ho
“kabhi kabhi hum logon ki bhi khabar lete rahiyega ” ganeshi bistar mein rassi bandhta hua bola
“kabhi kuch zarurat ho to likhna ganeshi! is aghan tak bitiya ki shadi kar do ”
ganeshi ne angochhe ke chhor se ankhen ponchhin “ab aap log sahara na denge, to kaun dega? aap yahan rahte to shadi mein kuch hausla rahta ”
gajadhar babu chalne ko taiyar baithe the railway quarter ka ye kamra, jismen unhonne kitne warsh bitaye the, unka saman hat jane se kurup aur nagn lag raha tha angan mein rope paudhe bhi jaan pahchan ke log le gaye the aur jagah jagah mitti bikhri hui thi, par patni, baal bachchon ke sath rahne ki kalpana mein ye bichhoh ek durbal lahr ki tarah uthkar wilin ho gaya
gajadhar babu khush the, bahut khush paintis sal ki naukari ke baad wo retire hokar ja rahe the in warshon mein adhikansh samay unhonne akele rahkar kata tha un akele kshnon mein unhonne isi samay ki kalpana ki thi, jab wo apne pariwar ke sath rah sakenge isi aasha ke sahare wo apne abhaw ka bojh Dho rahe the sansar ki drishti mein unka jiwan saphal kaha ja sakta tha unhonne shahr mein ek makan banwa liya tha, baDe laDke amar aur laDki kanti ki shadiyan kar di theen, do bachche unchi kakshaon mein paDh rahe the gajadhar babu naukari ke karan praya chhote steshnon par rahe aur unke bachche aur patni shahr mein, jisse paDhai mein badha na ho gajadhar babu swbhaw se bahut snehi wekti the aur sneh ke akankshai bhi jab pariwar sath tha, duty se lautkar bachchon se hanste bolte, patni se kuch manowinod karte un sabke chale jane se unke jiwan mein gahan sunapan bhar utha khali kshnon mein unse ghar mein tika na jata kawi prakrti ke na hone par bhi unhen patni ki snehpurn baten yaad aati rahtin dopahar mein garmi hone par bhi, wo do baje tak aag jalaye rahti aur unke station se wapas aane par garam garam rotiyan senkti, unke kha chukne aur mana karne par bhi thoDa sa kuch aur thali mein paros deti aur baDe pyar se agrah karti jab wo thake hare bahar se aate, to unki aahat pa wo rasoi ke dwar par nikal aati aur unki salajj ankhen muskra uthtin gajadhar babu ko tab har chhoti baat bhi yaad aati aur wo udas ho uthte“ab kitne warshon baad wo awsar aaya tha, jab wo phir usi sneh aur aadar ke madhya rahne ja rahe the
topi utarkar gajadhar babu ne charpai par rakh di, jute kholkar niche khiska diye, andar se rah rahkar qahqahon ki awaz aa rahi thi itwar ka din tha aur unke sab bachche ikatthe hokar nashta kar rahe the gajadhar babu ke sukhe chehre par snigdh muskan aa gai, usi tarah musakrate hue wo bina khanse andar chale aaye unhonne dekha ki narendr kamar par hath rakhe shayad gat ratri ki film mein dekhe gaye kisi nrity ki naqal kar raha tha aur basanti hans hansakar duhri ho rahi thi amar ki bahu ko apne tan badan, anchal ya punghat ka koi hosh na tha aur wo unmukt roop se hans rahi thi gajadhar babu ko dekhte hi narendr dhap se baith gaya aur chay ka pyala uthakar munh se laga liya bahu ko hosh aaya aur usne jhat se matha Dhak liya, kewal basanti ka sharir rah rahkar hansi dabane ke prayatn mein hilta raha
gajadhar babu ne musakrate hue un logon ko dekha phir kaha “kyon narendr, kya naqal ho rahi hai?” “kuchh nahin babu jee!” narendr ne sitapitakar kaha gajadhar babu ne chaha tha ki wo bhi is manowinod mein bhag lete, par unke aate hi jaise sab kunthit ho chup ho gaye usse unke man mein thoDi si khinnata upaj i baithte hue bole “basanti, chay mujhe bhi dena tumhari amma ki puja abhi chal rahi hai kya?”
basanti ne man ki kothari ki or dekha “abhi aati hi hongi,” aur pyale mein unke liye chay chhanne lagi bahu chupchap pahle hi chali gai thi, ab narendr bhi chay ka akhiri poont pikar uth khaDa hua, kewal basanti, pita ke lihaz mein, chauke mein baithi man ki rah dekhne lagi gajadhar babu ne ek poont chay pi, phir kaha bitti chay to phika hai ”
“laiye, chini aur Dal den ” basanti boli
“rahne do, tumhari amma jab ayegi, tabhi pi lunga ”
thoDi der mein unki patni hath mein arghy ka lota liye nikli aur ashuddh istuti kahte hue tulsi mein Dal diya unhen dekhte hi basanti bhi uth gai patni ne aakar gajadhar babu ko dekha aur kaha “are, aap akele baithe hain ye sab kahan gaye?” gajadhar babu ke man mein phans si karak uthi “apne apne kaam mein lag gaye hain—akhir bachche hi hain ”
patni aakar chauke mein baith gai, unhonne nak bhaun chaDhakar charon or juthe bartanon ko dekha phir kaha “sare mein juthe bartan paDe hain is ghar mein dharm karm kuch nahin puja karke sidhe chauke mein ghuso ”
phir unhonne naukar ko pukara, jab uttar na mila to ek bar aur uchch swar mein, phir pati ki or dekhkar bolin “bahu ne bheja hoga bazar ” aur ek lambi sans lekar chup ho gai
gajadhar babu baithkar chay aur nashte ka intज़ar karte rahe unhen achanak hi ganeshi ki yaad aa gai roz subah, passenger aane se pahle wo garam garam puriyan aur jalebi banata tha gajadhar babu jab tak uthkar taiyar hote, unke liye jalebiyan aur chay lakar rakh deta tha chay bhi kitni baDhiya, kanch ke gilas mein upar tak bhari labalb, pure Dhai chammach chini aur gaDhi malai passenger bhale hi ranipur let pahunche, ganeshi ne chay pahunchane mein kabhi der nahin ki kya majal ki kabhi usse kuch kahna paDe
patni ka shikayat bhara swar sun unke wicharon mein wyaghat pahuncha wo kah rahi theen “sara din isi khichkhich mein nikal jata hai is grihasthi ka dhandha pitte pitte umar beet gai koi zara hath bhi nahin bantata ”
“bahu kya kiya karti hai?” gajadhar babu ne puchha
“paDi rahti hai basanti ko to, phir kaho ki college jana hota hai ”
gajadhar babu ne josh mein aakar basanti ko awaz di basanti bhabhi ke kamre se nikli to gajadhar babu ne kaha “basanti, aaj se sham ka khana banane ki zimmedari tum par hai subah ka bhojan tumhari bhabhi banayegi ”
basanti munh latkakar boli “ babu ji, paDhna bhi to hota hai ”
gajadhar babu ne pyar se samjhaya “tum subah paDh liya karo tumhari man buDhi hui, unke sharir mein ab wo shakti nahin bachi hai tum ho, tumhari bhabhi hain, donon ko milkar kaam mein hath bantana chahiye ”
basanti chup rahi uske jane ke baad uski man ne dhire se kaha “paDhne ka to bahana hai kabhi ji hi nahin lagta lage kaise? shila se hi phursat nahin, baDe baDe laDke hain unke ghar mein, har wakt wahan ghusa rahna, mujhe nahin suhata mana karun to sunti nahin ”
nashta kar gajadhar babu baithak mein chale gaye ghar chhota tha aur aisi wyawastha ho chuki thi ki usmen gajadhar babu ke rahne ke liye koi sthan na bacha tha jaise kisi mehman ke liye kuch asthayi parbandh kar diya jata hai, usi prakar baithak mein kursiyon ko diwar se satakar beech mein gajadhar babu ke liye patli si charpai Dal di gai thi gajadhar babu us kamre mein paDe paDe, kabhi kabhi anayas hi, is asthayitw ka anubhaw karne lagte unhen yaad ho aati un relgaDiyon ki, jo atin aur thoDi der rukkar kisi aur lakshya ki or chali jatin
ghar chhota hone ke karan baithak mein hi ab apna parbandh kiya tha unki patni ke pas andar ek chhota kamra awashy tha, par wo ek or acharon ke martaban, dal, chawal ke kanastar aur ghi ke Dibbon se ghira tha; dusri or purani razaiyan, dariyon mein lipti aur rassi se bandhi rakhi theen, uske pas ek baDe se teen ke baks mein ghar bhar ke garam kapDe the beech mein ek algani bandhi hui thi, jis par praya basanti ke kapDe laparwahi se paDe rahte the wo bharsak us kamre mein nahin jate the ghar ka dusra kamra amar aur uski bahu ke pas tha, tisra kamra, jo samne ki or tha, baithak tha gajadhar babu ke aane se pahle usmen amar ki sasural se aaya bent ki teen kursiyon ka set paDa tha, kursiyon par nili gaddiyan aur bahu ke hathon ke kaDe kushan the
jab kabhi unki patni ko koi lambi shikayat karni hoti, to apni chatai baithak mein Dal paD jati theen wo ek din chatai lekar aa gain gajadhar babu ne ghar grihasthi ki baten chheDin, wo ghar ka rawaiya dekh rahe the bahut halke se unhonne kaha ki ab hath mein paisa kam rahega, kuch kharch kam hona chahiye
“sabhi kharch to wazib wazib hain, kiska pet kaDhun? yahi joD ganth karte karte buDhi ho gai, na man ka pahna, na oDha ”
gajadhar babu ne aahat, wismit drishti se patni ko dekha unse apni haisiyat chhipi na thi unki patni tangi ka anubhaw kar uska ullekh kartin, ye swabhawik tha, lekin unmen sahanubhuti ka poorn abhaw gajadhar babu ko bahut khatka unse yadi ray baat ki jati ki parbandh kaise ho, to unhen chinta kam, santosh adhik hota lekin unse to kewal shikayat ki jati thi, jaise pariwar ki sab pareshaniyon ke liye wahi zimmedar the
“tumhen kis baat ki kami hai amar ki man ghar mein bahu hai, laDke bachche hain, sirf rupye se hi adami amir nahin hota ” gajadhar babu ne kaha aur kahne ke sath hi anubhaw kiya ye unki antrik abhiwyakti thi aisi ki unki patni nahin samajh saktin “han, baDa sukh hai na bahu se aaj rasoi karne gai hai, dekho kya hota hai?” kahkar patni ne ankhen mundin aur so gain gajadhar babu baithe hue patni ko dekhte rah gaye yahi thi kya unki patni, jiske hathon ke komal sparsh, jiski muskan ki yaad mein unhonne sampurn jiwan kat diya tha? unhen laga ki wo lawanyamyi yuwati jiwan ki rah mein kahin kho gai hai aur uski jagah aaj jo istri hai, wo unki man aur pranon ke liye nitant aprichit hai gaDhi neend mein Dubi unki patni ka bhari sa sharir bahut beDaul aur kurup lag raha tha, chehra shrihin aur rukha tha gajadhar babu der tak nissang drishti se patni ko dekhte rahe aur phir letkar chhat ki or takne lage
andar kuch gira aur unki patni haDabDakar uth baithin “lo, billi ne kuch gira diya shayad,” aur wo andar bhagin thoDi der mein lautkar ain to unka munh phula hua tha “dekha bahu ko, chauka khula chhoD i, billi ne dal ki patili gira di sabhi to khane ko hain, ab kya khilaungi?” wo sans lene ko rukin aur bolin “ek tarkari aur chaar paranthe banane mein sara Dibba ghi uDel kar rakh diya zara sa dard nahin hai, kamanewala haD toDe aur yahan chijen luten mujhe to malum tha ki ye sab kaam kisi ke bus ka nahin hai ”
gajadhar babu ko laga ki patni kuch aur bolegi to unke kan jhanjhana uthege awnth bheench, karwat lekar unhonne patni ki or peeth kar li
raat ka bhojan basanti ne janbujhkar aisa banaya tha ki kaur tak nigla na ja sake gajadhar babu chupchap khakar uth gaye, par narendr thali sarkakar uth khaDa hua aur bola “main aisa khana nahin kha sakta ” basanti tunakkar boli “to na khao, kaun tumhari khushamad karta hai ”
“tumse khana banane ko kaha kisne tha?” narendr chillaya
“babu ji ne ”
“babu ji ko baithe baithe yahi sujhta hai ”
basanti ko uthakar man ne narendr ko manaya aur apne hath se kuch banakar khilaya gajadhar babu ne baad mein patni se kaha “itni baDi laDki ho gai aur use khana banane tak ka shaur nahin aya!”
“are, aata to sab kuch hai, karna nahin chahti ” patni ne uttar diya agli sham man ko rasoi mein dekh, kapDe badalkar basanti bahar i, to baithak se gajadhar babu ne tok diya “kahan ja rahi ho?”
“paDos mein, shila ke ghar ” basanti ne kaha
“koi zarurat nahin hai, andar jakar paDho gajadhar babu ne kaDe swar mein kaha kuch der anishchit khaDe rahkar basanti andar chali gai gajadhar babu sham ko roz tahalne chale jate the, lautkar aaye to patni ne kaha “kya kah diya basanti se ? sham se munh lapete paDi hai khana bhi nahin khaya ”
gajadhar babu khinn ho aaye patni ki baat ka unhonne kuch uttar nahin diya unhonne man mein nishchay kar liya ki basanti ki shadi jaldi hi kar deni hai us din ke baad basanti pita se bachi bachi rahne lagi jana hota to pichhwaDe se jati gajadhar babu ne do ek bar patni se puchha to uttar mila “ruthi hui hai ” gajadhar babu ko rosh hua laDki ke itne mizaj, jane ko rok diya to pita se bolegi nahin phir unki patni ne hi suchana di ki amar alag rahne ki soch raha hai
“kyon?” gajadhar babu ne chakit hokar puchha
patni ne saf saf uttar nahin diya amar aur uski bahu ki shikayaten bahut theen unka kahna tha ki gajadhar babu hamesha baithak mein hi paDe rahte hain, koi aane janewala ho to kahin bithane ki jagah nahin amar ko ab bhi wo chhota sa samajhte the aur mauq bemauq tok dete the bahu ko kaam karna paDta tha aur sas jab tab phuhaDapan par tane deti rahti theen “hamare aane se pahle bhi kabhi aisi baat hui thee?” gajadhar babu ne puchha patni ne sir hilakar bataya ki nahin pahle amar ghar ka malik bankar rahta tha, bahu ko koi rok tok na thi, amar ke doston ka praya yahin aDDa jama rahta tha aur andar se nashta chay taiyar hokar jata rahta tha basanti ko bhi wahi achchha lagta tha
gajadhar babu ne bahut dhire se kaha “amar se kaho, jaldabaज़i ki koi zarurat nahin hai ”
agle din wo subah ghumkar laute to unhonne paya ki baithak mein unki charpai nahin hai andar jakar puchhne hi wale the ki unki drishti rasoi ke andar baithi patni par paDi unhonne ye kahne ko munh khola ki bahu kahan hai; par kuch yaad kar chup ho gaye patni ki kothari mein jhanka to achar, razaiyan aur kanastron ke madhya apni charpai lagi pai gajadhar babu ne coat utara aur kahin tangane ko diwar par nazar dauDai phir use moDkar algani ke kuch kapDe khiskakar, ek kinare tang diya kuch khaye bina hi apni charpai par let gaye kuch bhi ho, tan akhiraka buDha hi tha subah sham kuch door tahalne awashy chale jate, par aate jate thak uthte the gajadhar babu ko apna baDa sa quarter yaad aa gaya nishchint jiwan, subah passenger train aane par station ki chahl pahal, chir parichit chehre aur patri par rail ke pahiyon ki khat khat, jo unke liye madhur sangit ki tarah thi tufan aur DakgaDi ke enginon ki chinghaD unki akeli raton ki sathi thi seth ramjimal ke mil ke kuch log kabhi kabhi pas aa baithte, wahi unka dayara tha, wahi unke sathi wo jiwan ab unhen ek khoi nidhi sa pratit hua unhen laga ki wo zindagi dwara thage gaye hain unhonne jo kuch chaha, usmen se unhen ek boond bhi na mili
lete hue wo ghar ke andar se aate wiwidh swron ko sunte rahe bahu aur sas ki chhoti si jhaDap, balati par khule nal ki awaz, rasoi ke bartanon ki khatpat aur usi mein do gaureyon ka wartalap aur achanak hi unhonne nishchay kar liya ki ab ghar ki kisi baat mein dakhal na denge yadi grihaswami ke liye pure ghar mein ek charpai ki jagah nahin hai, to yahin paDe rahenge agar kahin aur Dal di gai to wahan chale jayenge yadi bachchon ke jiwan mein unke liye kahin sthan nahin, to apne hi ghar mein pardesi ki tarah paDe rahenge aur us din ke baad sachmuch gajadhar babu kuch nahin bole narendr rupye mangne aaya to bina karan puchhe use rupye de diye basanti kafi andhera ho jane ke baad bhi paDos mein rahi to bhi unhonne kuch nahin kaha par unhen sabse baDa gum ye tha ki unki patni ne bhi unmen kuch pariwartan lakshya nahin kiya wo man hi man kitna bhaar Dho rahe hain, isse wo anjan hi bani rahin, balki unhen pati ke ghar ke mamle mein hastakshaep na karne ke karan shanti hi thi kabhi kabhi wo kah bhi uthtin, “theek hi hai, aap beech mein na paDa kijiye, bachche baDe ho gaye hain, hamara jo kartawya tha, kar rahe hain paDha rahe hain, shadi kar denge ”
gajadhar babu ne aahat drishti se patni ko dekha unhonne anubhaw kiya ki wo patni aur bachchon ke liye kewal dhanoparjan ke nimitt matr hain jis wekti ke astitw se patni mang mein sindur Dalne ki adhikarini hai, samaj mein uski pratishtha hai, uske samne wo do wakt bhojan ki thali rakh dene se sare kartawyon se chhutti pa jati hai wo ghi aur chini ke Dibbon mein itni rami hui hai ki ab wahi uski sampurn duniya ban gai hai gajadhar babu unke jiwan ke kendr nahin ho sakte, unhen to ab unki shadi ke liye bhi utsah bujh gaya kisi baat mein hastakshaep na karne ke nishchay ke baad bhi unka astitw us watawarn ka ek bhag na ban saka unki upasthiti us ghar mein aisi asangat lagne lagi thi, jaise saji hui baithak mein unki charpai thi unki sari khushi ek gahri udasinata mein Doob gai
itne sab nishchyon ke bawjud bhi ek din beech mein dakhal de baithe patni swbhawanusar naukar ki shikayat kar rahi thin—“kitna kamachor hai, bazar ki bhi cheez mein paisa banata hai, khane baithta hai, to khata hi chala jata hai ” gajadhar babu ko barabar ye mahsus hota rahta tha ki unke ghar ka rahan sahn aur kharch unki haisiyat se kahin jyada hai patni ki baat sunkar kahne lage ki naukar ka kharch bilkul bekar hai chhota mota kaam hain, ghar mein teen mard hain, koi na koi kar hi dega unhonne usi din naukar ka hisab kar diya amar daphtar se aaya to naukar ko pukarne laga amar ki bahu boli “babu ji ne naukar chhuDa diya hai ”
“kyon?”
“kahte hain kharch bahut hai ”
ye wartalap bahut sidha sa tha, par jis tone mein bahu boli, gajadhar babu ko khatak gaya us din ji bhari hone ke karan gajadhar babu tahalne nahin gaye the alasy mein uthkar batti bhi nahin jalai thi is baat se beख़bar narendr man se kahne laga “amman, tum babu ji se kahti kyon nahin? baithe bithaye kuch nahin to naukar hi chhuDa diya agar babu ji ye samjhen ki main cycle par gehun rakh aata pisane jaunga, to mujhse ye nahin hoga ” “han amman” basanti ka swar tha “main college bhi jaun aur lautkar ghar mein jhaDu bhi lagaun, ye mere bus ki baat nahin hai ”
“buDhe adami hain”—amar bhunabhunaya “chupchap paDe rahen har cheez mein dakhal kyon dete hain?” patni ne baDe wyangy se kaha—“aur kuch nahin sujha, to tumhari bahu ko hi chauke mein bhej diya wo gai to pandrah din ka rashan panch din mein banakar rakh diya ” bahu kuch kahe, isse pahle wo chauke mein ghus gain kuch der mein apni kothari mein ain aur bijli jalai to gajadhar babu ko lete dekh baDi sitapitain gajadhar babu ki mukh mudra se wo unmen bhawon ka anuman na laga sakin wo chup ankhen band kiye lete rahe
gajadhar babu chitthi hath mein liye andar aaye aur patni ko pukara wo bhige hath liye niklin aur anchal se ponchhti hui pas aa khaDi huin gajadhar babu ne bina kisi bhumika ke kaha “mujhe seth ramjimal ki chini mil mein naukari mil gai hai khali baithe rahne se to chaar paise ghar mein ayen, wahi achchha hai unhonne to pahle hi kaha tha, mainne hi mana kar diya tha phir kuch rukkar, jaise bujhi hui aag mein ek chingari chamak uthe, unhonne dhime swar mein kaha “mainne socha tha ki barson tum sabse alag rahne ke baad awkash pakar pariwar ke sath rahunga khair, parson jana hai tum bhi chalogi?” “main?” patni ne sakapkakar kaha “main chalungi to yahan ka kya hoga? itni baDi grihasthi, phir sayani laDki ”
baat beech mein katkar gajadhar babu ne hatash swar mein kaha—“thik hai, tum yahin raho mainne to aise hi kaha tha ” aur gahre maun mein Doob gaye
narendr ne baDi tatparta se bistar bandha aur rickshaw bula laya gajadhar babu ka teen ka baks aur patla sa bistar us par rakh diya gaya nashte ke liye laDDu aur mathri ki Daliya hath mein liye gajadhar babu rikshe par baith gaye ek drishti unhonne apne pariwar par Dali phir dusri or dekhne lage aur rickshaw chal paDa
unke jane ke baad sab andar laut aaye bahu ne amar se puchha—“cinema le chaliyega n?” basanti ne uchhalkar kaha—“bhaiya, hamein bhi ”
gajadhar babu ki patni sidhe chauke mein chali gai bachi hui mathariyon ko katordan mein rakhkar apne kamre mein lai aur kanastron ke pas rakh diya, phir bahar aakar kaha—“are narendr, babuji ki charpai kamre se nikal de usmen chalne tak ki jagah nahin hai ”
स्रोत :
पुस्तक : बीसवीं सदी का हिंदी महिला लेखन (पार्ट-3) (पृष्ठ 109)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।