एक दिन सुबह तालाब के किनारे रहने वाली छछूँदर ने अपने बिल में से अपना सिर निकाला। उसकी मूँछें कड़ी और भूरी थीं और उसकी पूँछ काले वाल्ट्यूब की तरह थी। इस समय बत्तख के छोटे-छोटे बच्चे तालाब में तैर रहे थे और उनकी माँ बुड्ढी बत्तख उन्हें यह सिखा रही थी कि पानी में किस तरह सिर के बल खड़ा होना चाहिए।
“जब तक तुम सिर के बल खड़ा होना नहीं सीखोगे, तब तक तुम ऊँची सोसायटी के लायक नहीं बन सकोगे।” बत्तख उन्हें समझा रही थी और बार-बार उसे ख़ुद करके दिखला रही थी, किंतु बच्चे उसकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं दे रहे थे, क्योंकि वे इतने छोटे थे कि अभी सोसायटी का महत्व नहीं समझते थे।
“नहीं जी! अभी तो ये बच्चे हैं और फिर माँ कभी डुबोने का विचार कर सकती है!”
आह! माँ की भावनाओं से तो अभी मैं अपरिचित हूँ! वास्तव में मैं अभी अविवाहित हूँ और रहूँगी भी! यों प्रेम अच्छी चीज़ होती है, किंतु मित्रता उससे भी बड़ी चीज़ होती है!”
“यह तो ठीक है, किंतु मित्रता का कर्तव्य तुम क्या समझती हो?” एक जलपक्षी ने पूछा जो पास के एक नरकुल की डाल पर बैठा हुआ यह वार्तालाप सुन रहा था।
“हाँ, यही मैं भी जानना चाहती हूँ!” बत्तख ने कहा और अपने बच्चों को दिखाने के लिए सिर के बल खड़ी हो गई।
“कैसा पागलपन का सवाल है!” छछूँदर ने कहा—“मैं यही चाहती हूँ कि मेरा अनन्य मित्र मेरे प्रति अनन्य रहे, और क्या!’
“और तुम उसके बदले में क्या करोगी?” छोटे जलपक्षी ने पूछा और उतर कर किनारे पर बैठ गया।
“तुम्हारा सवाल मेरी समझ में नहीं आया!” छछूँदर ने जवाब दिया।
अच्छा, तो मैं इस विषय पर तुम्हें एक कहानी सुनाऊँ।” जलपक्षी ने कहा—“बहुत दिन हुए एक ईमानदार आदमी था। उसका नाम था हैन्स!”
“ठहरो, क्या वह कोई बड़ा आदमी था?” छछूँदर ने पूछा।
“नहीं, वह बड़ा आदमी नहीं था, वह ईमानदार आदमी था। हाँ, वह हृदय का बहुत साफ़ था और स्वभाव का बड़ा मीठा। वह एक छोटी-सी कुटिया में रहता था और अपनी बग़िया में काम करता था। सारे देहात में कोई इतनी अच्छी बग़िया नहीं थी। गेंदा, गुलाब, चंपा, केतकी, हुस्नेहिना, इश्कपेची—सभी उसके बाग़ में मौसम-मौसम पर फूलते थे। कभी बेला, तो कभी रातरानी, कभी हरसिंगार तो कभी जूही—इस तरह हमेशा उसकी बग़िया में रूप और सौरभ की लहरें उड़ती रहती थीं।
हैन्स के कई मित्र थे, किंतु उसकी विशेष घनिष्ठता ह्य मिलर से थी। मिलर बहुत धनी था, किंतु फिर भी वह हैन्स का इतना घनिष्ठ मित्र था कि कभी वह बिना फल-फूल लिए वहाँ से वापस नहीं जाता था। कभी वह झुक कर फलों का एक गुच्छा तोड़ लेता था, तो कभी जेब में फल तोड़ कर भर ले जाता था।
‘सच्चे मित्रों में कभी स्वार्थ का लेश भी नहीं होना चाहिए’, मिलर कहा करता था और हैन्स को गर्व था कि उसके मित्र के विचार इतने ऊँचे हैं।
कभी-कभी पड़ोसियों को इस बात से आश्चर्य होता था कि धनी मिलर कभी अपने निर्धन मित्र को कुछ भी नहीं देता था, यद्यपि उसके गोदाम में सैकड़ों बोरे आटा भरा रहता था, उसकी कई मिलें थीं और उसके पास बहुत-सी गायें थीं। मगर हैन्स कभी इन सब बातों पर ध्यान नहीं देता था। जब मिलर उससे नि:स्वार्थ मित्रता के गुण बखानता था तो हैन्स तन्मय होकर सुना करता था।
हैन्स हमेशा अपनी बग़िया में काम करता था। बसंत, ग्रीष्म और पतझड़ में वह बहुत संतुष्ट रहता था, किंतु जब जाड़ा आता था और वृक्ष फल-फूल विहीन हो जाते थे तो वह बहुत ही निर्धनता से दिन बिताता था, क्योंकि कभी-कभी उसे बिना भोजन के भी सो जाना पड़ता था। इस समय उसे अकेलापन भी बहुत अनुभव होता था, क्योंकि जाड़े में कभी मिलर उससे मिलने नहीं आता था।
“जब तक जाड़ा है, तब तक हैन्स से मिलने जाना व्यर्थ है”, मिलर पत्नी से कहा करता था— जब लोग निर्धन हों, तब उन्हें अकेले ही छोड़ देना चाहिए, व्यर्थ जाकर उनसे मिलना उन्हें संकोच में डालना है। कम से कम मेरा तो मित्रता के विषय में यही विचार है! जब बसंत आएगा, तब मैं उससे मिलने जाऊँगा। तब वह मुझे फूल उपहार में देगा और उससे उसके हृदय को कितनी प्रसन्नता होगी! मित्र की प्रसन्नता का ध्यान रखना मेरा कर्तव्य है!”
“वास्तव में तुम अपने मित्र का कितना ध्यान रखते हो!” अँगीठी के पास आरामकुर्सी पर बैठी हुई उसकी पत्नी ने कहा— “मैत्री-धर्म के विषय में राजपुरोहित के विचार भी इतने ऊँचे नहीं होंगे, यद्यपि वह तिमंजिले मकान में रहता है और उसके पास एक हीरे की अँगूठी है!”
“क्या हम लोग हैन्स को यहाँ नहीं बुला सकते?” मिलर के सबसे छोटे लड़के ने पूछा—“यदि वह कष्ट में है तो मैं उसे अपने साथ खिलाऊँगा और अपने सफ़ेद ख़रगोश दिखाऊँगा!”
“तुम कितने बेवकूफ़ लड़के हो!” मिलर ने डाँटा—”तुम्हें स्कूल भेजने से कोई फ़ायदा नहीं हुआ। तुम्हें अभी ज़रा भी अक़्ल नहीं आई। अगर हैन्स यहाँ आएगा और हमारा वैभव देखेगा तो उसे ईर्ष्या होने लगेगी और तुम जानते हो ईर्ष्या कितनी निंदित भावना है! मैं नहीं चाहता कि मेरे एकमात्र मित्र का स्वभाव बिगड़ जाए। मैं उसका मित्र हूँ और उसका ध्यान रखना मेरा कर्तव्य हैं! अगर वह यहाँ आए और मुझसे कुछ आटा उधार माँगे तो भी मैं नहीं दे सकता। आटा दूसरी चीज़ है, मित्रता दूसरी चीज़। दोनों शब्द अलग हैं, दोनों के अर्थ अलग हैं, दोनों के हिज्जे अलग हैं! कोई बेवकूफ़ भी यह समझ सकता है!”
“तुम कैसी चतुरता से बातें करते हो” मिलर की पत्नी ने कहा—“तुम्हारी बातें पादरी के उपदेश से भी ज़्यादा प्रभावोत्पादक होती है, क्योंकि इन्हें सुनते-सुनते जल्दी झपकी आने लगती है!”
“क्या यही कहानी का अन्त है?” छछूँदर ने पूछा।
“नहीं जी, यह तो अभी आरंभ है!” जलपक्षी ने कहा।
“बहुत-से लोग कार्य चतुरता से कर लेते हैं” मिलर ने उत्तर दिया—”किंतु चतुरता से सलाम बहुत कम लोग कर पाते हैं, जिससे स्पष्ट है कि बात करना अपेक्षाकृत कठिन कला है।” उसने मेज़ के पार बैठे हुए अपने छोटे बच्चे की ओर इतनी क्रोधभरी निगाह से देखा कि वह रोने लगा।
“ओह, तो तुम अच्छे कथाकार नहीं हो—युग के बिल्कुल पीछे—साहित्य में तो हर कहानीकार पहले अन्त का वर्णन करता है, फिर आरंभ का विस्तार करता है और अंत में मध्य पर लाकर कहानी समाप्त कर देता है। यही यथार्थवादी कला है। कल मैंने स्वयं एक आलोचक से ऐसा सुना था, जो मोटा चश्मा लगाए हुए घूम रहा था और एक नौजवान लेखक को यही समझा रहा था। जब कभी वह लेखक कुछ प्रतिवाद करता था तो आलोचक कहता था—‘हूँ, अभी कुछ दिन पढ़ो!”
“ख़ैर, तुम अपनी कहानी कहो। मुझे मिलर का चरित्र बड़ा गंभीर लग रहा है। बड़ा स्वाभाविक भी है। बात यह है कि मैं भी मित्रता के प्रति इतने ही ऊँचे विचार रखती हूँ।” अच्छा, तो ज्योंही जाड़ा समाप्त हुआ और बसन्ती फूल अपनी पाँखुड़ियाँ फैलाकर धूप खाने लगे, मिलर ने अपनी पत्नी से हैन्स के पास जाने का इरादा प्रकट किया।
“ओह, तुम इतना ध्यान रखते हो हैन्स का!” उसकी पत्नी बोली—“और देखो, वह फूलों की डोलची ले जाना मत भूलना!”
और मिलर वहाँ गया।
“नमस्कार हैन्स!” मिलर ने कहा।
“नमस्कार!” अपना फावड़ा रोक कर हैन्स ने कहा और बहुत ख़ुश हुआ।
“कहो जाड़ा कैसे कटा!” मिलर ने पूछा।
“ओह? तुम सदा मेरी कुशलता का ध्यान रखते हो।” हैन्स ने गद्गद स्वरों में कहा—“कुछ कष्ट अवश्य था, किंतु अब तो वसन्त आ गया है और फूल बढ़ रहे हैं!”
“हम लोग कभी-कभी सोचते थे कि तुम कैसे दिन बिता रहे होंगे?” मिलर ने कहा।
“सचमुच तुम कितने भावुक हो? मैं तो सोच रहा था, तुम मुझे भूल गए हो!”
“हैन्स! मुझे कभी-कभी तुम्हारी बातों पर आश्चर्य होता है—मित्रता कभी भुलाई भी जा सकती है। यही तो जीवन का रहस्य है! वाह, तुम्हारे फूल कितने प्यारे हैं।”
“हाँ, बहुत अच्छे हैं!” हैन्स बोला—”और क़िस्मत से कितने अधिक फूल हैं! इस वर्ष मैं इन्हें सेठ की पुत्री के हाथ बेचूँगा और अपनी बैलगाड़ी वापस ख़रीद लूँगा!”
“वापस ख़रीद लोगे? क्या तुमने उसे बेच दिया? कितनी नादानी की तुमने!”
“बात यह है,” हैन्स ने कहा—“जाड़े में मेरे पास एक पाई भी नहीं थीं, इसलिए पहले मैंने अपने चाँदी के बटन बेचे, बाद में अपना कोट बेचा, फिर अपनी चाँदी की ज़ंजीर बेची और अंत में अपनी गाड़ी बेच दी! मगर अब मैं उन सबको वापस ख़रीद लूँगा!”
“हैन्स!” मिलर ने कहा—“मैं तुम्हें अपनी गाड़ी दूँगा। उसका दायाँ हिस्सा ग़ायब है और बाएँ पहिए के आरे टूटे हुए हैं, फिर भी मैं तुम्हें दे दूँगा। मैं जानता हूँ, यह बहुत बड़ा त्याग है और बहुत से लोग मुझे इस त्याग के लिए मूर्ख भी कहेंगे, मगर मैं सांसारिक लोगों की भाँति नहीं हूँ। मैं समझता हूँ, सच्चे मित्रों का कर्तव्य त्याग है और फिर अब तो मैंने नई गाड़ी भी ख़रीद ली है। अच्छा है, अब तुम चिंता मत करो, मैं अपनी गाड़ी तुम्हें दे दूँगा!”
“वास्तव में यह तुम्हारा कितना बड़ा त्याग है!” हैन्स ने आभार स्वीकार करते हुए कहा—” और मैं उसे आसानी से बना लूँगा। मेरे पास एक बड़ा-सा तख़्ता है।”
“तख़्ता!” मिलर बोला—“ओह, मुझे भी एक तख़्ते की ज़रूरत है। मेरे आटा गोदाम की छत में एक छेद हो गया है, अगर वह नहीं बना तो सब अनाज सील जाएगा। भाग्य से तुम्हारे ही पास एक तख़्ता निकल आया, आश्चर्य है। भले काम का परिणाम सदा भला ही होता है। मैंने अपनी गाड़ी तुम्हें दे दी और तुम अपना तख़्ता मुझे दे रहे हो। यह ठीक है कि गाड़ी तख़्ते से ज़्यादा मोल की है, मगर मित्रता में इन बातों का ध्यान नहीं किया जाता। अभी निकालो तख़्ता, तो आज ही मैं अपना गोदाम ठीक कर डालूँ।”
“अवश्य!’’—हैन्स ने कहा और वह कुटिया के अंदर से तख़्ता खींच लाया और उसने उसे बाहर डाल दिया।
“ओह! यह बहुत छोटा तख़्ता है!” मिलर बोला—“शायद तुम्हारे लिए इसमें से बिल्कुल न बचे—मगर इसके लिए मैं क्या करूँ। और देखो, मैंने तुम्हें गाड़ी दी है तो तुम मुझे कुछ फूल नहीं दोगे? यह लो! टोकरी ख़ाली न रहे!”
“बिल्कुल भर दूँ!” हैन्स ने चिंतित स्वरों में पूछा—क्योंकि डोलची बहुत बड़ी थी और वह जानता था कि उसे भर देने के बाद फिर बेचने के लिए एक भी फूल नहीं बचेगा, और उसे अपने चाँदी के बटन वापस लेने थे।
“हाँ, और क्या!” मिलर ने उत्तर दिया—“मैंने तुम्हें अपनी गाड़ी दी है, अगर मैं तुमसे कुछ फूल माँग रहा हूँ तो क्या ज़्यादती कर रहा हूँ! हो सकता है मेरा विचार ठीक न हो, मगर मेरी समझ में मित्रता बिल्कुल स्वार्थहीन होनी चाहिए।”
“नहीं प्यारे मित्र! तुम्हारी ख़ुशी मेरे लिए बड़ी चीज़ है, मैं तुम्हें नाख़ुश करके अपने चाँदी के बटन नहीं लेना चाहता।” और उसने फूल चुन-चुनकर वह डोलची भर दी।
अगले दिन जब वह क्यारियाँ ठीक कर रहा था, तब उसे सड़क से मिलर की पुकार सुनाई दी। वह काम छोड़कर भागा और चहारदीवारी पर झुक कर झाँकने लगा। मिलर अपनी पीठ पर अनाज का एक बड़ा-सा बोरा लादे खड़ा था।
‘‘प्यारे हैन्स!” मिलर ने कहा—”ज़रा इसे बाजार तक पहुँचा दोगे।”
‘‘भाई, आज तो माफ़ करो!” हैन्स ने सकुचाते हुए कहा—“आज तो मैं सचमुच बहुत व्यस्त हूँ! मुझे अपनी सब लतरें चढ़ानी हैं, सब फूल के पौधे सींचने हैं और दूब तराशनी है।”
‘‘अफ़सोस है!” मिलर ने कहा—‘‘यह देखते हुए कि मैंने तुम्हें अपनी गाड़ी दी है, तुम्हारा इस प्रकार इंकार करना शोभा नहीं देता!”
“नहीं भैया, ऐसा ख़याल क्यों करते हो!” हैन्स बोला। वह भाग कर टोपी पहनने गया और फिर कन्धों पर बोरा लाद कर चल दिया।
धूप बहुत कड़ी थी और सड़क पर बालू तप रही थी। छ: मील चलने पर हैन्स बेहद थक गया, लेकिन वह हिम्मत नहीं हारा, चलता ही गया और अंत में बाज़ार में पहुँच गया। कुछ देर तक इंतज़ार करने के बाद उसने खरे दामों पर बिक्री की और जल्दी से लौट आया।
जब वह सोने जा रहा था तो उसने मन में कहा—“आज बड़ा बुरा दिन बीता, मगर मुझे ख़ुशी है, मैंने मिलर का दिल नहीं दुखाया, वह मेरा मित्र है और फिर उसने मुझे अपनी गाड़ी दी है।”
दूसरे दिन तड़के मिलर हैन्स से रुपए लेने आया, मगर हैन्स इतना थका था कि वह अब भी पलंग पर पड़ा मिला।
“सच कहता हूँ” मिलर बोला—“तुम बड़े आलसी मालूम देते हो। मैंने सोचा था, गाड़ी मिल जाने पर तुम मेहनत से काम करोगे! आलस्य बहुत बड़ा दुर्गुण है! मैं नहीं चाहता कि मेरा कोई मित्र आलसो बने। माफ़ करना, मैं मुँहफट बातें करता हूँ सिर्फ़ यही सोचकर कि तुम्हारी चिंता रखना मेरा धर्म है। लल्लो-चप्पो तो कोई भी कर सकता है, मगर सच्चे मित्र का कार्य सदा अपने मित्र को दुर्गुणों से बचाना होता है।”
“मुझे बहुत दु:ख है!” हैन्स ने आँखें मलते हुए कहा—”मैं बहुत थका था!’ ‘‘अच्छा उठो!” मिलर ने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा—“चलो, ज़रा मुझे गोदाम की छत बनाने में मदद दो!”
मिलर अपने बाग़ में जाकर काम करने के लिए चिंतित था, क्योंकि उसके पौधों में दो दिन से पानी नहीं पड़ा था।
“अगर मैं कहूँ कि मैं व्यस्त हूँ तो इससे तुम्हें ठेस तो नहीं पहुँचेगी!” उसने दबी हुई आवाज़ में पूछा।
“ख़ैर, तुम्हें यह याद रखना चाहिए कि मित्रता के ही नाते मैंने तुम्हें अपनी गाड़ी दी है, लेकिन अगर तुम मेरा इतना काम भी नहीं कर सकते तो कोई हर्जा नहीं, मैं ख़ुद कर लूँगा।”
“नहीं-नहीं, भला यह कैसे हो सकता है!” हैन्स ने कहा। वह फ़ौरन तैयार होकर मिलर के साथ चल दिया।
वहाँ उसने दिन भर काम किया।
शाम के वक़्त मिलर आया।
“हैन्स, तुमने वह छेद बंद कर दिया?” मिलर ने पूछा।
“हाँ, बिल्कुल बंद हो गया”, हैन्स ने सीढ़ी से उतर कर जवाब दिया।
“आहा!” मिलर बोला—”दुनिया में दूसरों के लिए कष्ट उठाने से ज़्यादा आनंद और किसी काम में नहीं आता।”
“मुझे तो सचमुच तुम्हारे विचारों से बड़ा सुख मिलता है!” हैन्स ने कहा और माथे से पसीना पोंछ कर बोला—“मगर न जाने क्यों मेरे मन में कभी इतने ऊँचे विचार नहीं आते!”
“कोई बात नहीं, प्रयत्न करते चलो!” मिलर ने कहा—”अभी तुम्हें मित्रता क्रियात्मक रूप में आती है, धीरे-धीरे उसके सिद्धांत भी समझ लोगे! अच्छा, अब तुम जाकर आराम करो, क्योंकि कल तुम्हें मेरी भेड़ें चराने ले जानी हैं!”
इस तरह से वह कभी अपने फूलों की देख-भाल नहीं कर पाता था, क्योंकि उसका मित्र कभी न कभी आकर उसे कोई न कोई काम बता दिया करता था। हैन्स कभी-कभी बहुत परेशान हो जाता था, क्योंकि वह सोचता था कि फूल समझेंगे कि वह उन्हें भूल गया। मगर वह सदा सोचता था कि मिलर उसका घनिष्ठ मित्र है और फिर वह उसे अपनी गाड़ी देने जा रहा था, और यह कितना बड़ा त्याग था!
इस तरह से हैन्स दिन भर मिलर के लिए काम करता था और मिलर उसे रोज़ बहुत लच्छेदार शब्दों में मित्रता के सिद्धांत समझाता था, जिन्हें हैन्स एक डायरी में लिख लेता था और रात को उन पर ध्यान से मनन करता था।
एक दिन ऐसा हुआ कि रात को हैन्स अपनी अँगीठी के पास बैठा था। किसी ने ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया। रात तूफानी थी और इतने ज़ोर का अंधड़ था कि उसने समझा, हवा से किवाड़ खड़का होगा। मगर दूसरी बार, तीसरी बार किवाड़ खड़के।
“शायद कोई ग़रीब मुसाफ़िर है!” वह दरवाज़ा खोलने चला।
द्वार पर एक हाथ में लालटेन और दूसरे में एक लाठी लिए मिलर खड़ा था।
“प्यारे हैन्स!” मिलर चिल्लाया—“मैं बहुत दु:ख में हूँ। मेरा लड़का सीढ़ी से गिर गया और मैं डॉक्टर के पास जा रहा हूँ। मगर वह इतनी दूर रहता है और रात इतनी अँधेरी है कि अगर तुम चले जाओ तो ज़्यादा अच्छा हो। तुम जानते हो, ऐसे ही अवसर पर तुम अपनी मित्रता दिखा सकते हो!”
“अवश्य मैं अभी जाता हूँ! मगर तुम अपनी लालटेन मुझे दे दो! रात इतनी अँधेरी है कि मैं किसी खड्ड में न गिर पड़ूँ।!”
“मुझे बहुत दु:ख है!” मिलर बोला—”मगर यह मेरी नयी लालटेन है और अगर इसे कुछ हो गया तो मेरा बड़ा नुकसान होगा!”
“अच्छा, मैं योंही चला जाऊँगा!”
बहुत भयानक तूफ़ान था। हैन्स राह मुश्किल से देख पाता था और उसके पाँव नहीं ठहरते थे। किसी तरह तीन धण्टे में वह डॉक्टर के घर पर पहुँचा और उसने आवाज़ लगाई।
“कौन है!” डॉक्टर ने बाहर झाँका।
“मैं हूँ हैन्स, डॉक्टर!”
“क्या बात है, हैन्स!”
“मिलर का लड़का सीढ़ी से गिर गया है! आप अभी चलिए।”
“अच्छा!” डॉक्टर ने कहा और अपने जूते पहने, लालटेन ली और घोड़े पर चढ़कर चल दिया। हैन्स उसके पीछे चल पड़ा।
मगर तूफ़ान बढ़ता ही गया, पानी मूसलाधार बरसने लगा और हैन्स अपना रास्ता भूल गया। धीरे-धीरे वह ऊसर की ओर चला गया, जो पथरीला था और वहाँ एक खड्ड में गिर गया। दूसरे दिन गड़रियों को उसकी लाश मिली और वे उसे उठा लाए।
हर एक आदमी हैन्स की लाश के साथ गया, मिलर भी आया। “मैं उसका सबसे घनिष्ठ मित्र था, इसलिए मुझे सबसे आगे जगह मिलनी चाहिए।” यह कह कर काला कोट पहन कर वह सबसे आगे हो रहा और उसने जेब से एक रूमाल निकाल कर आँखों पर लगा लिया।
बाद में लौट कर वे सराय में बैठ गए और इस समय केक खाते हुए लोहार ने कहा—“हैन्स की मृत्यु बड़ी ही दु:खद रही!”
“मुझे तो बेहद दु:ख हुआ!” मिलर ने कहा—“मैंने उसे अपनी गाड़ी दी थी। वह इस बुरी हालत में है कि मैं उसे चला नहीं सकता, दूसरे उसे ख़रीद नहीं सकते। अब मैं क्या करूँ? दुनिया भी कितनी स्वार्थी है!” मिलर ने शराब पीते हुए गहरी साँस लेकर कहा।
थोड़ी देर ख़ामोशी रही। छछूँदर ने पूछा—”तब फिर?”
“तब क्या? कहानी ख़त्म!” जलपक्षी बोला।
“अरे! तो मिलर बेचारे का क्या हुआ?” छछूँदर ने कहा।
“मैं क्या जानूँ? मिलर से मुझे क्या मतलब?”
“छिः, तुमको तुमको ज़रा हमदर्दी नहीं बेचारे से...
“मिलर से हमदर्दी—इसका मतलब, तुमने कहानी का आदर्श ही नहीं समझा!”
“क्या नहीं समझा?”
“आदर्श!”
“ओह!” छछूँदर झुँझलाकर बोली—“मुझे क्या मालूम कि यह आदर्शवादी कहानी है। मालूम होता तो कभी न सुनती। आलोचकों की तरह कहती-छि:, तुम पलायनवादी हो—धिक्कार!” और उसने गला फाड़कर कहा—“धिक्कार!” और पूँछ झटक कर बिल में घुस गई।
आवाज़ सुनकर बत्तख दौड़ी आई।
“क्या हुआ?” उसने पूछा।
“कुछ नहीं! मैंने एक आदर्शवादी कहानी सुनाई थी—छछूँदर झुँझला गई!”
“ओह, यह बात थी!” बत्तख बोली-”भाई, अपने को ख़तरे में डालते ही क्यों हो! आजकल, और आदर्शवादी कहानी?”
ek din subah talab ke kinare rahne vali chhachhundar ne apne bil mein se apna sir nikala. uski munchhen kaDi aur bhuri theen aur uski poonchh kale valtyub ki tarah thi. is samay battakh ke chhote chhote bachche talab mein tair rahe the aur unki maan buDDhi battakh unhen ye sikha rahi thi ki pani mein kis tarah sir ke bal khaDa hona chahiye.
“jab tak tum sir ke bal khaDa hona nahin sikhoge, tab tak tum uunchi sosayti ke layak nahin ban sakoge. ” battakh unhen samjha rahi thi aur baar baar use khud karke dikhla rahi thi, kintu bachche uski or kuch bhi dhyaan nahin de rahe the, kyonki ve itne chhote the ki abhi sosayti ka mahatv nahin samajhte the.
“kaise nalayak bachche hain” chhachhundar chillai, “inhen to Dubo dena chahiye!”
“nahin jee! abhi to ye bachche hain aur phir maan kabhi Dubone ka vichar kar sakti hai!”
aah! maan ki bhavnaon se to abhi main aprichit hoon! vastav mein main abhi avivahit hoon aur rahungi bhee! yon prem achchhi cheez hoti hai, kintu mitrata usse bhi baDi cheez hoti hai!”
“yah to theek hai, kintu mitrata ka kartavya tum kya samajhti ho?” ek jalpakshi ne puchha jo paas ke ek narkul ki Daal par baitha hua ye vartalap sun raha tha.
“haan, yahi main bhi janna chahti hoon!” battakh ne kaha aur apne bachchon ko dikhane ke liye sir ke bal khaDi ho gai.
“kaisa pagalpan ka saval hai!” chhachhundar ne kaha—“main yahi chahti hoon ki mera ananya mitr mere prati ananya rahe, aur kyaa!’
“aur tum uske badle mein kya karogi?” chhote jalpakshi ne puchha aur utar kar kinare par baith gaya.
“tumhara saval meri samajh mein nahin aya!” chhachhundar ne javab diya.
achchha, to main is vishay par tumhein ek kahani sunaun. ” jalpakshi ne kaha—“bahut din hue ek iimandar adami tha. uska naam tha hains!”
“thahro, kya wo koi baDa adami tha?” chhachhundar ne puchha.
“nahin, wo baDa adami nahin tha, wo iimandar adami tha. haan, wo hriday ka bahut saaf tha aur svbhaav ka baDa mitha. wo ek chhoti si kutiya mein rahta tha aur apni baghiya mein kaam karta tha. sare dehat mein koi itni achchhi baghiya nahin thi. genda, gulab, champa, ketki, husnehina, ishkpechi—sabhi uske baagh mein mausam mausam par phulte the. kabhi bela, to kabhi ratrani, kabhi harsingar to kabhi juhi—is tarah hamesha uski baghiya mein roop aur saurabh ki lahren uDti rahti theen.
hains ke kai mitr the, kintu uski vishesh ghanishthata hya milar se thi. milar bahut dhani tha, kintu phir bhi wo hains ka itna ghanishth mitr tha ki kabhi wo bina phal phool liye vahan se vapas nahin jata tha. kabhi wo jhuk kar phalon ka ek guchchha toD leta tha, to kabhi jeb mein phal toD kar bhar le jata tha.
‘sachche mitron mein kabhi svaarth ka lesh bhi nahin hona chahiye’, milar kaha karta tha aur hains ko garv tha ki uske mitr ke vichar itne uunche hain.
kabhi kabhi paDosiyon ko is baat se ashcharya hota tha ki dhani milar kabhi apne nirdhan mitr ko kuch bhi nahin deta tha, yadyapi uske godam mein saikDon bore aata bhara rahta tha, uski kai milen theen aur uske paas bahut si gayen theen. magar hains kabhi in sab baton par dhyaan nahin deta tha. jab milar usse nihasvarth mitrata ke gun bakhanta tha to hains tanmay hokar suna karta tha.
hains hamesha apni baghiya mein kaam karta tha. basant, greeshm aur patjhaD mein wo bahut santusht rahta tha, kintu jab jaDa aata tha aur vriksh phal phool vihin ho jate the to wo bahut hi nirdhanta se din bitata tha, kyonki kabhi kabhi use bina bhojan ke bhi so jana paDta tha. is samay use akelapan bhi bahut anubhav hota tha, kyonki jaDe mein kabhi milar usse milne nahin aata tha.
“jab tak jaDa hai, tab tak hains se milne jana vyarth hai”, milar patni se kaha karta tha— jab log nirdhan hon, tab unhen akele hi chhoD dena chahiye, vyarth jakar unse milna unhen sankoch mein Dalna hai. kam se kam mera to mitrata ke vishay mein yahi vichar hai! jab basant ayega, tab main usse milne jaunga. tab wo mujhe phool uphaar mein dega aur usse uske hriday ko kitni prasannata hogi! mitr ki prasannata ka dhyaan rakhna mera kartavya hai!”
“vastav mein tum apne mitr ka kitna dhyaan rakhte ho!” angithi ke paas aramakursi par baithi hui uski patni ne kaha— “maitri dharm ke vishay mein rajapurohit ke vichar bhi itne uunche nahin honge, yadyapi wo timanjile makan mein rahta hai aur uske paas ek hire ki anguthi hai!”
“kya hum log hains ko yahan nahin bula sakte?” milar ke sabse chhote laDke ne puchha—“yadi wo kasht mein hai to main use apne saath khilaunga aur apne safed khargosh dikhaunga!”
“tum kitne bevakuf laDke ho!” milar ne Danta—”tumhen skool bhejne se koi fayda nahin hua. tumhein abhi zara bhi aql nahin aai. agar hains yahan ayega aur hamara vaibhav dekhega to use iirshya hone lagegi aur tum jante ho iirshya kitni nindit bhavna hai! main nahin chahta ki mere ekmaatr mitr ka svbhaav bigaD jaye. main uska mitr hoon aur uska dhyaan rakhna mera kartavya hain! agar wo yahan aaye aur mujhse kuch aata udhaar mange to bhi main nahin de sakta. aata dusri cheez hai, mitrata dusri cheez. donon shabd alag hain, donon ke arth alag hain, donon ke hijje alag hain! koi bevakuf bhi ye samajh sakta hai!”
“tum kaisi chaturta se baten karte ho” milar ki patni ne kaha—“tumhari baten padari ke updesh se bhi zyada prabhavotpadak hoti hai, kyonki inhen sunte sunte jaldi jhapki aane lagti hai!”
“kya yahi kahani ka ant hai?” chhachhundar ne puchha.
“nahin ji, ye to abhi arambh hai!” jalpakshi ne kaha.
“bahut se log karya chaturta se kar lete hain” milar ne uttar diya—”kintu chaturta se salam bahut kam log kar pate hain, jisse aspasht hai ki baat karna apekshakrit kathin kala hai. ” usne mez ke paar baithe hue apne chhote bachche ki or itni krodhabhri nigah se dekha ki wo rone laga.
“oh, to tum achchhe kathakar nahin ho—yug ke bilkul pichhe—sahitya mein to har kahanikar pahle ant ka varnan karta hai, phir arambh ka vistar karta hai aur ant mein madhya par lakar kahani samapt kar deta hai. yahi yatharthavadi kala hai. kal mainne svayan ek alochak se aisa suna tha, jo mota chashma lagaye hue ghoom raha tha aur ek naujavan lekhak ko yahi samjha raha tha. jab kabhi wo lekhak kuch prativad karta tha to alochak kahta tha—‘hun, abhi kuch din paDho!”
“khair, tum apni kahani kaho. mujhe milar ka charitr baDa gambhir lag raha hai. baDa svabhavik bhi hai. baat ye hai ki main bhi mitrata ke prati itne hi uunche vichar rakhti hoon. ” achchha, to jyonhi jaDa samapt hua aur basanti phool apni pankhuDiyan phailakar dhoop khane lage, milar ne apni patni se hains ke paas jane ka irada prakat kiya.
“oh, tum itna dhyaan rakhte ho hains ka!” uski patni boli—“aur dekho, wo phulon ki Dolchi le jana mat bhulna!”
aur milar vahan gaya.
“namaskar hains!” milar ne kaha.
“namaskar!” apna phavDa rok kar hains ne kaha aur bahut khush hua.
“kaho jaDa kaise kata!” milar ne puchha.
“oh? tum sada meri kushalta ka dhyaan rakhte ho. ” hains ne gadgad svron mein kaha—“kuchh kasht avashya tha, kintu ab to vasant aa gaya hai aur phool baDh rahe hain!”
“ham log kabhi kabhi sochte the ki tum kaise din bita rahe honge?” milar ne kaha.
“sachmuch tum kitne bhavuk ho? main to soch raha tha, tum mujhe bhool ge ho!”
“hains! mujhe kabhi kabhi tumhari baton par ashcharya hota hai—mitrata kabhi bhulai bhi ja sakti hai. yahi to jivan ka rahasya hai! vaah, tumhare phool kitne pyare hain. ”
“haan, bahut achchhe hain!” hains bola—”aur qismat se kitne adhik phool hain! is varsh main inhen seth ki putri ke haath bechunga aur apni bailgaDi vapas kharid lunga!”
“vapas kharid loge? kya tumne use bech diya? kitni nadani ki tumne!”
“baat ye hai,” hains ne kaha—“jaDe mein mere paas ek pai bhi nahin theen, isliye pahle mainne apne chandi ke batan beche, baad mein apna kot becha, phir apni chandi ki zanjir bechi aur ant mein apni gaDi bech dee! magar ab main un sabko vapas kharid lunga!”
“hains!” milar ne kaha—“main tumhein apni gaDi dunga. uska dayan hissa ghayab hai aur bayen pahiye ke aare tute hue hain, phir bhi main tumhein de dunga. main janta hoon, ye bahut baDa tyaag hai aur bahut se log mujhe is tyaag ke liye moorkh bhi kahenge, magar main sansarik logon ki bhanti nahin hoon. main samajhta hoon, sachche mitron ka kartavya tyaag hai aur phir ab to mainne nai gaDi bhi kharid li hai. achchha hai, ab tum chinta mat karo, main apni gaDi tumhein de dunga!”
“vastav mein ye tumhara kitna baDa tyaag hai!” hains ne abhar svikar karte hue kaha—” aur main use asani se bana lunga. mere paas ek baDa sa takhta hai. ”
“takhta!” milar bola—“oh, mujhe bhi ek takhte ki zarurat hai. mere aata godam ki chhat mein ek chhed ho gaya hai, agar wo nahin bana to sab anaj seel jayega. bhagya se tumhare hi paas ek takhta nikal aaya, ashcharya hai. bhale kaam ka parinam sada bhala hi hota hai. mainne apni gaDi tumhein de di aur tum apna takhta mujhe de rahe ho. ye theek hai ki gaDi takhte se zyada mol ki hai, magar mitrata mein in baton ka dhyaan nahin kiya jata. abhi nikalo takhta, to aaj hi main apna godam theek kar Dalun. ”
“avashya!’’—hains ne kaha aur wo kutiya ke andar se takhta kheench laya aur usne use bahar Daal diya.
“oh! ye bahut chhota takhta hai!” milar bola—“shayad tumhare liye ismen se bilkul na bache—magar iske liye main kya karun. aur dekho, mainne tumhein gaDi di hai to tum mujhe kuch phool nahin doge? ye lo! tokari khali na rahe!”
“bilkul bhar doon!” hains ne chintit svron mein puchha—kyonki Dolchi bahut baDi thi aur wo janta tha ki use bhar dene ke baad phir bechne ke liye ek bhi phool nahin bachega, aur use apne chandi ke batan vapas lene the.
“haan, aur kyaa!” milar ne uttar diya—“mainne tumhein apni gaDi di hai, agar main tumse kuch phool maang raha hoon to kya zyadti kar raha hoon! ho sakta hai mera vichar theek na ho, magar meri samajh mein mitrata bilkul svarthhin honi chahiye. ”
“nahin pyare mitr! tumhari khushi mere liye baDi cheez hai, main tumhein nakhush karke apne chandi ke batan nahin lena chahta. ” aur usne phool chun chunkar wo Dolchi bhar di.
agle din jab wo kyariyan theek kar raha tha, tab use saDak se milar ki pukar sunai di. wo kaam chhoDkar bhaga aur chaharadivari par jhuk kar jhankne laga. milar apni peeth par anaj ka ek baDa sa bora lade khaDa tha.
‘‘pyare hains!” milar ne kaha—”zara ise bajar tak pahuncha doge. ”
‘‘bhai, aaj to maaf karo!” hains ne sakuchate hue kaha—“aj to main sachmuch bahut vyast hoon! mujhe apni sab latren chaDhani hain, sab phool ke paudhe sinchne hain aur doob tarashni hai. ”
‘‘afsos hai!” milar ne kaha—‘‘yah dekhte hue ki mainne tumhein apni gaDi di hai, tumhara is prakar inkaar karna shobha nahin deta!”
“nahin bhaiya, aisa khayal kyon karte ho!” hains bola. wo bhaag kar topi pahanne gaya aur phir kandhon par bora laad kar chal diya.
dhoop bahut kaDi thi aur saDak par balu tap rahi thi. chhah meel chalne par hains behad thak gaya, lekin wo himmat nahin hara, chalta hi gaya aur ant mein bazar mein pahunch gaya. kuch der tak intzaar karne ke baad usne khare damon par bikri ki aur jaldi se laut aaya.
jab wo sone ja raha tha to usne man mein kaha—“aj baDa bura din bita, magar mujhe khushi hai, mainne milar ka dil nahin dukhaya, wo mera mitr hai aur phir usne mujhe apni gaDi di hai. ”
dusre din taDke milar hains se rupe lene aaya, magar hains itna thaka tha ki wo ab bhi palang par paDa mila.
“sach kahta hoon” milar bola—“tum baDe aalsi malum dete ho. mainne socha tha, gaDi mil jane par tum mehnat se kaam karoge! alasya bahut baDa durgun hai! main nahin chahta ki mera koi mitr aalso bane. maaf karna, main munhaphat baten karta hoon sirf yahi sochkar ki tumhari chinta rakhna mera dharm hai. lallo chappo to koi bhi kar sakta hai, magar sachche mitr ka karya sada apne mitr ko durgunon se bachana hota hai. ”
“mujhe bahut duhakh hai!” hains ne ankhen malte hue kaha—”main bahut thaka tha!’ ‘‘achchha utho!” milar ne uski peeth thapthapate hue kaha—“chalo, zara mujhe godam ki chhat banane mein madad do!”
milar apne baagh mein jakar kaam karne ke liye chintit tha, kyonki uske paudhon mein do din se pani nahin paDa tha.
“agar main kahun ki main vyast hoon to isse tumhein thes to nahin pahunchegi!” usne dabi hui avaz mein puchha.
“khair, tumhein ye yaad rakhna chahiye ki mitrata ke hi nate mainne tumhein apni gaDi di hai, lekin agar tum mera itna kaam bhi nahin kar sakte to koi harja nahin, main khud kar lunga. ”
“nahin nahin, bhala ye kaise ho sakta hai!” hains ne kaha. wo fauran taiyar hokar milar ke saath chal diya.
vahan usne din bhar kaam kiya.
shaam ke vaqt milar aaya.
“hains, tumne wo chhed band kar diya?” milar ne puchha.
“haan, bilkul band ho gaya”, hains ne siDhi se utar kar javab diya.
“aha!” milar bola—”duniya mein dusron ke liye kasht uthane se zyada anand aur kisi kaam mein nahin aata. ”
“mujhe to sachmuch tumhare vicharon se baDa sukh milta hai!” hains ne kaha aur mathe se pasina ponchh kar bola—“magar na jane kyon mere man mein kabhi itne uunche vichar nahin ate!”
“koi baat nahin, prayatn karte chalo!” milar ne kaha—”abhi tumhein mitrata kriyatmak roop mein aati hai, dhire dhire uske siddhant bhi samajh loge! achchha, ab tum jakar aram karo, kyonki kal tumhein meri bheDen charane le jani hain!”
is tarah se wo kabhi apne phulon ki dekh bhaal nahin kar pata tha, kyonki uska mitr kabhi na kabhi aakar use koi na koi kaam bata diya karta tha. hains kabhi kabhi bahut pareshan ho jata tha, kyonki wo sochta tha ki phool samjhenge ki wo unhen bhool gaya. magar wo sada sochta tha ki milar uska ghanishth mitr hai aur phir wo use apni gaDi dene ja raha tha, aur ye kitna baDa tyaag tha!
is tarah se hains din bhar milar ke liye kaam karta tha aur milar use roz bahut lachchhedar shabdon mein mitrata ke siddhant samjhata tha, jinhen hains ek Dayri mein likh leta tha aur raat ko un par dhyaan se manan karta tha.
ek din aisa hua ki raat ko hains apni angithi ke paas baitha tha. kisi ne zor se darvaza khatkhataya. raat tuphani thi aur itne zor ka andhaD tha ki usne samjha, hava se kivaD khaDka hoga. magar dusri baar, tisri baar kivaD khaDke.
“shayad koi gharib musafir hai!” wo darvaza kholne chala.
dvaar par ek haath mein lalten aur dusre mein ek lathi liye milar khaDa tha.
“pyare hains!” milar chillaya—“main bahut duhakh mein hoon. mera laDka siDhi se gir gaya aur main Dauktar ke paas ja raha hoon. magar wo itni door rahta hai aur raat itni andheri hai ki agar tum chale jao to zyada achchha ho. tum jante ho, aise hi avsar par tum apni mitrata dikha sakte ho!”
“avashya main abhi jata hoon! magar tum apni lalten mujhe de do! raat itni andheri hai ki main kisi khaDD mein na gir paDun. !”
“mujhe bahut duhakh hai!” milar bola—”magar ye meri nayi lalten hai aur agar ise kuch ho gaya to mera baDa nuksan hoga!”
“achchha, main yonhi chala jaunga!”
bahut bhayanak tufan tha. hains raah mushkil se dekh pata tha aur uske paanv nahin thahrte the. kisi tarah teen dhante mein wo Dauktar ke ghar par pahuncha aur usne avaz lagai.
“kaun hai!” Dauktar ne bahar jhanka.
“main hoon hains, Dauktar!”
“kya baat hai, hains!”
“milar ka laDka siDhi se gir gaya hai! aap abhi chaliye. ”
“achchha!” Dauktar ne kaha aur apne jute pahne, lalten li aur ghoDe par chaDhkar chal diya. hains uske pichhe chal paDa.
magar tufan baDhta hi gaya, pani musladhar barasne laga aur hains apna rasta bhool gaya. dhire dhire wo uusar ki or chala gaya, jo pathrila tha aur vahan ek khaDD mein gir gaya. dusre din gaDariyon ko uski laash mili aur ve use utha laye.
har ek adami hains ki laash ke saath gaya, milar bhi aaya. “main uska sabse ghanishth mitr tha, isliye mujhe sabse aage jagah milani chahiye. ” ye kah kar kala kot pahan kar wo sabse aage ho raha aur usne jeb se ek rumal nikal kar ankhon par laga liya.
baad mein laut kar ve saray mein baith ge aur is samay kek khate hue lohar ne kaha—“hains ki mrityu baDi hi duhkhad rahi!”
“mujhe to behad duhakh hua!” milar ne kaha—“mainne use apni gaDi di thi. wo is buri haalat mein hai ki main use chala nahin sakta, dusre use kharid nahin sakte. ab main kya karun? duniya bhi kitni svarthi hai!” milar ne sharab pite hue gahri saans lekar kaha.
thoDi der khamoshi rahi. chhachhundar ne puchha—”tab phir?”
“tab kyaa? kahani khatm!” jalpakshi bola.
“are! to milar bechare ka kya hua?” chhachhundar ne kaha.
“main kya janun? milar se mujhe kya matlab?”
“chhiः, tumko tumko zara hamdardi nahin bechare se. . .
“milar se hamdardi—iska matlab, tumne kahani ka adarsh hi nahin samjha!”
“kya nahin samjha?”
“adarsh!”
“oh!” chhachhundar jhunjhlakar boli—“mujhe kya malum ki ye adarshavadi kahani hai. malum hota to kabhi na sunti. alochkon ki tarah kahti chhih, tum palayanvadi ho—dhikkar!” aur usne gala phaDkar kaha—“dhikkar!” aur poonchh jhatak kar bil mein ghus gai.
avaz sunkar battakh dauDi aai.
“kya hua?” usne puchha.
“kuchh nahin! mainne ek adarshavadi kahani sunai thi—chhachhundar jhunjhla gai!”
“oh, ye baat thee!” battakh boli ”bhai, apne ko khatre mein Dalte hi kyon ho! ajkal, aur adarshavadi kahani?”
ek din subah talab ke kinare rahne vali chhachhundar ne apne bil mein se apna sir nikala. uski munchhen kaDi aur bhuri theen aur uski poonchh kale valtyub ki tarah thi. is samay battakh ke chhote chhote bachche talab mein tair rahe the aur unki maan buDDhi battakh unhen ye sikha rahi thi ki pani mein kis tarah sir ke bal khaDa hona chahiye.
“jab tak tum sir ke bal khaDa hona nahin sikhoge, tab tak tum uunchi sosayti ke layak nahin ban sakoge. ” battakh unhen samjha rahi thi aur baar baar use khud karke dikhla rahi thi, kintu bachche uski or kuch bhi dhyaan nahin de rahe the, kyonki ve itne chhote the ki abhi sosayti ka mahatv nahin samajhte the.
“kaise nalayak bachche hain” chhachhundar chillai, “inhen to Dubo dena chahiye!”
“nahin jee! abhi to ye bachche hain aur phir maan kabhi Dubone ka vichar kar sakti hai!”
aah! maan ki bhavnaon se to abhi main aprichit hoon! vastav mein main abhi avivahit hoon aur rahungi bhee! yon prem achchhi cheez hoti hai, kintu mitrata usse bhi baDi cheez hoti hai!”
“yah to theek hai, kintu mitrata ka kartavya tum kya samajhti ho?” ek jalpakshi ne puchha jo paas ke ek narkul ki Daal par baitha hua ye vartalap sun raha tha.
“haan, yahi main bhi janna chahti hoon!” battakh ne kaha aur apne bachchon ko dikhane ke liye sir ke bal khaDi ho gai.
“kaisa pagalpan ka saval hai!” chhachhundar ne kaha—“main yahi chahti hoon ki mera ananya mitr mere prati ananya rahe, aur kyaa!’
“aur tum uske badle mein kya karogi?” chhote jalpakshi ne puchha aur utar kar kinare par baith gaya.
“tumhara saval meri samajh mein nahin aya!” chhachhundar ne javab diya.
achchha, to main is vishay par tumhein ek kahani sunaun. ” jalpakshi ne kaha—“bahut din hue ek iimandar adami tha. uska naam tha hains!”
“thahro, kya wo koi baDa adami tha?” chhachhundar ne puchha.
“nahin, wo baDa adami nahin tha, wo iimandar adami tha. haan, wo hriday ka bahut saaf tha aur svbhaav ka baDa mitha. wo ek chhoti si kutiya mein rahta tha aur apni baghiya mein kaam karta tha. sare dehat mein koi itni achchhi baghiya nahin thi. genda, gulab, champa, ketki, husnehina, ishkpechi—sabhi uske baagh mein mausam mausam par phulte the. kabhi bela, to kabhi ratrani, kabhi harsingar to kabhi juhi—is tarah hamesha uski baghiya mein roop aur saurabh ki lahren uDti rahti theen.
hains ke kai mitr the, kintu uski vishesh ghanishthata hya milar se thi. milar bahut dhani tha, kintu phir bhi wo hains ka itna ghanishth mitr tha ki kabhi wo bina phal phool liye vahan se vapas nahin jata tha. kabhi wo jhuk kar phalon ka ek guchchha toD leta tha, to kabhi jeb mein phal toD kar bhar le jata tha.
‘sachche mitron mein kabhi svaarth ka lesh bhi nahin hona chahiye’, milar kaha karta tha aur hains ko garv tha ki uske mitr ke vichar itne uunche hain.
kabhi kabhi paDosiyon ko is baat se ashcharya hota tha ki dhani milar kabhi apne nirdhan mitr ko kuch bhi nahin deta tha, yadyapi uske godam mein saikDon bore aata bhara rahta tha, uski kai milen theen aur uske paas bahut si gayen theen. magar hains kabhi in sab baton par dhyaan nahin deta tha. jab milar usse nihasvarth mitrata ke gun bakhanta tha to hains tanmay hokar suna karta tha.
hains hamesha apni baghiya mein kaam karta tha. basant, greeshm aur patjhaD mein wo bahut santusht rahta tha, kintu jab jaDa aata tha aur vriksh phal phool vihin ho jate the to wo bahut hi nirdhanta se din bitata tha, kyonki kabhi kabhi use bina bhojan ke bhi so jana paDta tha. is samay use akelapan bhi bahut anubhav hota tha, kyonki jaDe mein kabhi milar usse milne nahin aata tha.
“jab tak jaDa hai, tab tak hains se milne jana vyarth hai”, milar patni se kaha karta tha— jab log nirdhan hon, tab unhen akele hi chhoD dena chahiye, vyarth jakar unse milna unhen sankoch mein Dalna hai. kam se kam mera to mitrata ke vishay mein yahi vichar hai! jab basant ayega, tab main usse milne jaunga. tab wo mujhe phool uphaar mein dega aur usse uske hriday ko kitni prasannata hogi! mitr ki prasannata ka dhyaan rakhna mera kartavya hai!”
“vastav mein tum apne mitr ka kitna dhyaan rakhte ho!” angithi ke paas aramakursi par baithi hui uski patni ne kaha— “maitri dharm ke vishay mein rajapurohit ke vichar bhi itne uunche nahin honge, yadyapi wo timanjile makan mein rahta hai aur uske paas ek hire ki anguthi hai!”
“kya hum log hains ko yahan nahin bula sakte?” milar ke sabse chhote laDke ne puchha—“yadi wo kasht mein hai to main use apne saath khilaunga aur apne safed khargosh dikhaunga!”
“tum kitne bevakuf laDke ho!” milar ne Danta—”tumhen skool bhejne se koi fayda nahin hua. tumhein abhi zara bhi aql nahin aai. agar hains yahan ayega aur hamara vaibhav dekhega to use iirshya hone lagegi aur tum jante ho iirshya kitni nindit bhavna hai! main nahin chahta ki mere ekmaatr mitr ka svbhaav bigaD jaye. main uska mitr hoon aur uska dhyaan rakhna mera kartavya hain! agar wo yahan aaye aur mujhse kuch aata udhaar mange to bhi main nahin de sakta. aata dusri cheez hai, mitrata dusri cheez. donon shabd alag hain, donon ke arth alag hain, donon ke hijje alag hain! koi bevakuf bhi ye samajh sakta hai!”
“tum kaisi chaturta se baten karte ho” milar ki patni ne kaha—“tumhari baten padari ke updesh se bhi zyada prabhavotpadak hoti hai, kyonki inhen sunte sunte jaldi jhapki aane lagti hai!”
“kya yahi kahani ka ant hai?” chhachhundar ne puchha.
“nahin ji, ye to abhi arambh hai!” jalpakshi ne kaha.
“bahut se log karya chaturta se kar lete hain” milar ne uttar diya—”kintu chaturta se salam bahut kam log kar pate hain, jisse aspasht hai ki baat karna apekshakrit kathin kala hai. ” usne mez ke paar baithe hue apne chhote bachche ki or itni krodhabhri nigah se dekha ki wo rone laga.
“oh, to tum achchhe kathakar nahin ho—yug ke bilkul pichhe—sahitya mein to har kahanikar pahle ant ka varnan karta hai, phir arambh ka vistar karta hai aur ant mein madhya par lakar kahani samapt kar deta hai. yahi yatharthavadi kala hai. kal mainne svayan ek alochak se aisa suna tha, jo mota chashma lagaye hue ghoom raha tha aur ek naujavan lekhak ko yahi samjha raha tha. jab kabhi wo lekhak kuch prativad karta tha to alochak kahta tha—‘hun, abhi kuch din paDho!”
“khair, tum apni kahani kaho. mujhe milar ka charitr baDa gambhir lag raha hai. baDa svabhavik bhi hai. baat ye hai ki main bhi mitrata ke prati itne hi uunche vichar rakhti hoon. ” achchha, to jyonhi jaDa samapt hua aur basanti phool apni pankhuDiyan phailakar dhoop khane lage, milar ne apni patni se hains ke paas jane ka irada prakat kiya.
“oh, tum itna dhyaan rakhte ho hains ka!” uski patni boli—“aur dekho, wo phulon ki Dolchi le jana mat bhulna!”
aur milar vahan gaya.
“namaskar hains!” milar ne kaha.
“namaskar!” apna phavDa rok kar hains ne kaha aur bahut khush hua.
“kaho jaDa kaise kata!” milar ne puchha.
“oh? tum sada meri kushalta ka dhyaan rakhte ho. ” hains ne gadgad svron mein kaha—“kuchh kasht avashya tha, kintu ab to vasant aa gaya hai aur phool baDh rahe hain!”
“ham log kabhi kabhi sochte the ki tum kaise din bita rahe honge?” milar ne kaha.
“sachmuch tum kitne bhavuk ho? main to soch raha tha, tum mujhe bhool ge ho!”
“hains! mujhe kabhi kabhi tumhari baton par ashcharya hota hai—mitrata kabhi bhulai bhi ja sakti hai. yahi to jivan ka rahasya hai! vaah, tumhare phool kitne pyare hain. ”
“haan, bahut achchhe hain!” hains bola—”aur qismat se kitne adhik phool hain! is varsh main inhen seth ki putri ke haath bechunga aur apni bailgaDi vapas kharid lunga!”
“vapas kharid loge? kya tumne use bech diya? kitni nadani ki tumne!”
“baat ye hai,” hains ne kaha—“jaDe mein mere paas ek pai bhi nahin theen, isliye pahle mainne apne chandi ke batan beche, baad mein apna kot becha, phir apni chandi ki zanjir bechi aur ant mein apni gaDi bech dee! magar ab main un sabko vapas kharid lunga!”
“hains!” milar ne kaha—“main tumhein apni gaDi dunga. uska dayan hissa ghayab hai aur bayen pahiye ke aare tute hue hain, phir bhi main tumhein de dunga. main janta hoon, ye bahut baDa tyaag hai aur bahut se log mujhe is tyaag ke liye moorkh bhi kahenge, magar main sansarik logon ki bhanti nahin hoon. main samajhta hoon, sachche mitron ka kartavya tyaag hai aur phir ab to mainne nai gaDi bhi kharid li hai. achchha hai, ab tum chinta mat karo, main apni gaDi tumhein de dunga!”
“vastav mein ye tumhara kitna baDa tyaag hai!” hains ne abhar svikar karte hue kaha—” aur main use asani se bana lunga. mere paas ek baDa sa takhta hai. ”
“takhta!” milar bola—“oh, mujhe bhi ek takhte ki zarurat hai. mere aata godam ki chhat mein ek chhed ho gaya hai, agar wo nahin bana to sab anaj seel jayega. bhagya se tumhare hi paas ek takhta nikal aaya, ashcharya hai. bhale kaam ka parinam sada bhala hi hota hai. mainne apni gaDi tumhein de di aur tum apna takhta mujhe de rahe ho. ye theek hai ki gaDi takhte se zyada mol ki hai, magar mitrata mein in baton ka dhyaan nahin kiya jata. abhi nikalo takhta, to aaj hi main apna godam theek kar Dalun. ”
“avashya!’’—hains ne kaha aur wo kutiya ke andar se takhta kheench laya aur usne use bahar Daal diya.
“oh! ye bahut chhota takhta hai!” milar bola—“shayad tumhare liye ismen se bilkul na bache—magar iske liye main kya karun. aur dekho, mainne tumhein gaDi di hai to tum mujhe kuch phool nahin doge? ye lo! tokari khali na rahe!”
“bilkul bhar doon!” hains ne chintit svron mein puchha—kyonki Dolchi bahut baDi thi aur wo janta tha ki use bhar dene ke baad phir bechne ke liye ek bhi phool nahin bachega, aur use apne chandi ke batan vapas lene the.
“haan, aur kyaa!” milar ne uttar diya—“mainne tumhein apni gaDi di hai, agar main tumse kuch phool maang raha hoon to kya zyadti kar raha hoon! ho sakta hai mera vichar theek na ho, magar meri samajh mein mitrata bilkul svarthhin honi chahiye. ”
“nahin pyare mitr! tumhari khushi mere liye baDi cheez hai, main tumhein nakhush karke apne chandi ke batan nahin lena chahta. ” aur usne phool chun chunkar wo Dolchi bhar di.
agle din jab wo kyariyan theek kar raha tha, tab use saDak se milar ki pukar sunai di. wo kaam chhoDkar bhaga aur chaharadivari par jhuk kar jhankne laga. milar apni peeth par anaj ka ek baDa sa bora lade khaDa tha.
‘‘pyare hains!” milar ne kaha—”zara ise bajar tak pahuncha doge. ”
‘‘bhai, aaj to maaf karo!” hains ne sakuchate hue kaha—“aj to main sachmuch bahut vyast hoon! mujhe apni sab latren chaDhani hain, sab phool ke paudhe sinchne hain aur doob tarashni hai. ”
‘‘afsos hai!” milar ne kaha—‘‘yah dekhte hue ki mainne tumhein apni gaDi di hai, tumhara is prakar inkaar karna shobha nahin deta!”
“nahin bhaiya, aisa khayal kyon karte ho!” hains bola. wo bhaag kar topi pahanne gaya aur phir kandhon par bora laad kar chal diya.
dhoop bahut kaDi thi aur saDak par balu tap rahi thi. chhah meel chalne par hains behad thak gaya, lekin wo himmat nahin hara, chalta hi gaya aur ant mein bazar mein pahunch gaya. kuch der tak intzaar karne ke baad usne khare damon par bikri ki aur jaldi se laut aaya.
jab wo sone ja raha tha to usne man mein kaha—“aj baDa bura din bita, magar mujhe khushi hai, mainne milar ka dil nahin dukhaya, wo mera mitr hai aur phir usne mujhe apni gaDi di hai. ”
dusre din taDke milar hains se rupe lene aaya, magar hains itna thaka tha ki wo ab bhi palang par paDa mila.
“sach kahta hoon” milar bola—“tum baDe aalsi malum dete ho. mainne socha tha, gaDi mil jane par tum mehnat se kaam karoge! alasya bahut baDa durgun hai! main nahin chahta ki mera koi mitr aalso bane. maaf karna, main munhaphat baten karta hoon sirf yahi sochkar ki tumhari chinta rakhna mera dharm hai. lallo chappo to koi bhi kar sakta hai, magar sachche mitr ka karya sada apne mitr ko durgunon se bachana hota hai. ”
“mujhe bahut duhakh hai!” hains ne ankhen malte hue kaha—”main bahut thaka tha!’ ‘‘achchha utho!” milar ne uski peeth thapthapate hue kaha—“chalo, zara mujhe godam ki chhat banane mein madad do!”
milar apne baagh mein jakar kaam karne ke liye chintit tha, kyonki uske paudhon mein do din se pani nahin paDa tha.
“agar main kahun ki main vyast hoon to isse tumhein thes to nahin pahunchegi!” usne dabi hui avaz mein puchha.
“khair, tumhein ye yaad rakhna chahiye ki mitrata ke hi nate mainne tumhein apni gaDi di hai, lekin agar tum mera itna kaam bhi nahin kar sakte to koi harja nahin, main khud kar lunga. ”
“nahin nahin, bhala ye kaise ho sakta hai!” hains ne kaha. wo fauran taiyar hokar milar ke saath chal diya.
vahan usne din bhar kaam kiya.
shaam ke vaqt milar aaya.
“hains, tumne wo chhed band kar diya?” milar ne puchha.
“haan, bilkul band ho gaya”, hains ne siDhi se utar kar javab diya.
“aha!” milar bola—”duniya mein dusron ke liye kasht uthane se zyada anand aur kisi kaam mein nahin aata. ”
“mujhe to sachmuch tumhare vicharon se baDa sukh milta hai!” hains ne kaha aur mathe se pasina ponchh kar bola—“magar na jane kyon mere man mein kabhi itne uunche vichar nahin ate!”
“koi baat nahin, prayatn karte chalo!” milar ne kaha—”abhi tumhein mitrata kriyatmak roop mein aati hai, dhire dhire uske siddhant bhi samajh loge! achchha, ab tum jakar aram karo, kyonki kal tumhein meri bheDen charane le jani hain!”
is tarah se wo kabhi apne phulon ki dekh bhaal nahin kar pata tha, kyonki uska mitr kabhi na kabhi aakar use koi na koi kaam bata diya karta tha. hains kabhi kabhi bahut pareshan ho jata tha, kyonki wo sochta tha ki phool samjhenge ki wo unhen bhool gaya. magar wo sada sochta tha ki milar uska ghanishth mitr hai aur phir wo use apni gaDi dene ja raha tha, aur ye kitna baDa tyaag tha!
is tarah se hains din bhar milar ke liye kaam karta tha aur milar use roz bahut lachchhedar shabdon mein mitrata ke siddhant samjhata tha, jinhen hains ek Dayri mein likh leta tha aur raat ko un par dhyaan se manan karta tha.
ek din aisa hua ki raat ko hains apni angithi ke paas baitha tha. kisi ne zor se darvaza khatkhataya. raat tuphani thi aur itne zor ka andhaD tha ki usne samjha, hava se kivaD khaDka hoga. magar dusri baar, tisri baar kivaD khaDke.
“shayad koi gharib musafir hai!” wo darvaza kholne chala.
dvaar par ek haath mein lalten aur dusre mein ek lathi liye milar khaDa tha.
“pyare hains!” milar chillaya—“main bahut duhakh mein hoon. mera laDka siDhi se gir gaya aur main Dauktar ke paas ja raha hoon. magar wo itni door rahta hai aur raat itni andheri hai ki agar tum chale jao to zyada achchha ho. tum jante ho, aise hi avsar par tum apni mitrata dikha sakte ho!”
“avashya main abhi jata hoon! magar tum apni lalten mujhe de do! raat itni andheri hai ki main kisi khaDD mein na gir paDun. !”
“mujhe bahut duhakh hai!” milar bola—”magar ye meri nayi lalten hai aur agar ise kuch ho gaya to mera baDa nuksan hoga!”
“achchha, main yonhi chala jaunga!”
bahut bhayanak tufan tha. hains raah mushkil se dekh pata tha aur uske paanv nahin thahrte the. kisi tarah teen dhante mein wo Dauktar ke ghar par pahuncha aur usne avaz lagai.
“kaun hai!” Dauktar ne bahar jhanka.
“main hoon hains, Dauktar!”
“kya baat hai, hains!”
“milar ka laDka siDhi se gir gaya hai! aap abhi chaliye. ”
“achchha!” Dauktar ne kaha aur apne jute pahne, lalten li aur ghoDe par chaDhkar chal diya. hains uske pichhe chal paDa.
magar tufan baDhta hi gaya, pani musladhar barasne laga aur hains apna rasta bhool gaya. dhire dhire wo uusar ki or chala gaya, jo pathrila tha aur vahan ek khaDD mein gir gaya. dusre din gaDariyon ko uski laash mili aur ve use utha laye.
har ek adami hains ki laash ke saath gaya, milar bhi aaya. “main uska sabse ghanishth mitr tha, isliye mujhe sabse aage jagah milani chahiye. ” ye kah kar kala kot pahan kar wo sabse aage ho raha aur usne jeb se ek rumal nikal kar ankhon par laga liya.
baad mein laut kar ve saray mein baith ge aur is samay kek khate hue lohar ne kaha—“hains ki mrityu baDi hi duhkhad rahi!”
“mujhe to behad duhakh hua!” milar ne kaha—“mainne use apni gaDi di thi. wo is buri haalat mein hai ki main use chala nahin sakta, dusre use kharid nahin sakte. ab main kya karun? duniya bhi kitni svarthi hai!” milar ne sharab pite hue gahri saans lekar kaha.
thoDi der khamoshi rahi. chhachhundar ne puchha—”tab phir?”
“tab kyaa? kahani khatm!” jalpakshi bola.
“are! to milar bechare ka kya hua?” chhachhundar ne kaha.
“main kya janun? milar se mujhe kya matlab?”
“chhiः, tumko tumko zara hamdardi nahin bechare se. . .
“milar se hamdardi—iska matlab, tumne kahani ka adarsh hi nahin samjha!”
“kya nahin samjha?”
“adarsh!”
“oh!” chhachhundar jhunjhlakar boli—“mujhe kya malum ki ye adarshavadi kahani hai. malum hota to kabhi na sunti. alochkon ki tarah kahti chhih, tum palayanvadi ho—dhikkar!” aur usne gala phaDkar kaha—“dhikkar!” aur poonchh jhatak kar bil mein ghus gai.
avaz sunkar battakh dauDi aai.
“kya hua?” usne puchha.
“kuchh nahin! mainne ek adarshavadi kahani sunai thi—chhachhundar jhunjhla gai!”
“oh, ye baat thee!” battakh boli ”bhai, apne ko khatre mein Dalte hi kyon ho! ajkal, aur adarshavadi kahani?”
स्रोत :
पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 15)
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