प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा बारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
हरगोबिन को अचरज हुआ—तो आज भी किसी को संवदिया की ज़रूरत पड़ सकती है। इस ज़माने में जबकि गाँव-गाँव में डाकघर खुल गए हैं, संवदिया के मारफ़त संवाद क्यों भेजेगा कोई? आज तो आदमी घर बैठे ही लंका तक ख़बर भेज सकता है और वहाँ का कुशल संवाद मँगा सकता है। फिर उसकी बुलाहट क्यों हुई?
हरगोबिन बड़ी हवेली की टूटी ड्योढ़ी पारकर अंदर गया। सदा की भाँति उसने वातावरण को सूँघकर संवाद का अंदाज़ लगाया।...निश्चय ही कोई गुप्त समाचार ले जाना है। चाँद-सूरज को भी नहीं मालूम हो। परेवा पँछी तक न जाने।
पाँव लागी, बड़ी बहुरिया।
बड़ी हवेली की बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन को पीढ़ी दी और आँख के इशारे से कुछ देर चुपचाप बैठने को कहा। बड़ी हवेली अब नाममात्र को ही बड़ी हवेली है। जहाँ दिन-रात नौकर-नौकरानियों और जन-मज़दूरों की भीड़ लगी रहती थी, वहाँ आज हवेली की बड़ी बहुरिया अपने हाथ से सूपा में अनाज लेकर फटक रही है। इन हाथों में सिर्फ़ मेहँदी लगाकर ही गाँव की नाइन परिवार पालती थी। कहाँ गए वे दिन? हरगोबिन ने लंबी साँस ली।
बड़े भैया के मरने के बाद ही जैसे सब खेल ख़त्म हो गया। तीनों भाइयों ने आपस में लड़ाई-झगड़ा शुरू किया। रैयतों ने ज़मीन पर दावे करके दख़ल किया, फिर तीनों भाई गाँव छोड़कर शहर में जा बसें, रह गई बड़ी बहुरिया—कहाँ जाती बेचारी! भगवान भले आदमी को ही कष्ट देते हैं। नहीं तो एक घंटे की बीमारी में बड़े भैया क्यों मरते?...बड़ी बहुरिया की देह से ज़ेवर खींच-छीनकर बँटवारे की लीला हुई थी। हरगोबिन ने देखी है अपनी आँखों से द्रौपदी चीर-हरण लीला! बनारसी साड़ी को तीन टुकड़े करके बँटवारा किया था, निर्दय भाइयों ने। बेचारी बड़ी बहुरिया!
गाँव की मोदिआइन बूढ़ी न जाने कब से आँगन में बैठकर बड़बड़ा रही थी, उधार का सौदा खाने में बड़ा मीठा लगता है और दाम देते समय मोदिआइन की बात कड़वी लगती है। मैं आज दाम लेकर ही उठूँगी।
बड़ी बहुरिया ने कोई जवाब नहीं दिया।
हरगोबिन ने फिर लंबी साँस ली। जब तक यह मोदिआइन आँगन से नहीं टलती, बड़ी बहुरिया हरगोबिन से कुछ नहीं बोलेगी। वह अब चुप नहीं रह सका, “मोदिआइन काकी, बाक़ी-बक़ाया वसूलने का यह काबुली क़ायदा तो तुमने ख़ूब सीखा है।
'काबुली-क़ायदा', सुनते ही मोदिआइन तमककर खड़ी हो गई, चुप रह मुँह-झौंसे! निमौछिये...।
क्या करूँ काकी, भगवान ने मूँछ-दाढ़ी दी नहीं, न काबुली आगा साहब की तरह गुलज़ार दाढ़ी...।
फिर काबुली का नाम लिया तो जीभ पकड़कर खींच लूँगी।
हरगोबिन ने जीभ बाहर निकालकर दिखलाई। अर्थात् खींच ले।
पाँच साल पहले गुल मुहम्मद आगा उधार कपड़ा लगाने के लिए गाँव में आता था और मोदिआइन के ओसारे पर दुकान लगाकर बैठता था। आगा कपड़ा देते समय बहुत मीठा बोलता और वसूली के समय ज़ोर-ज़ुल्म से एक का दो वसूलता। एक बार कई उधार लेने वालों ने मिलकर काबुली की ऐसी मरम्मत कर दी कि फिर लौटकर गाँव में नहीं आया। लेकिन इसके बाद ही दुखनी मोदिआइन लाल मोदिआइन हो गई।...काबुली क्या, काबुली बादाम के नाम से भी चिढ़ने लगी मोदिआइन। गाँव के नाचने वालों ने नाच में काबुली का स्वाँग किया था। तुम अमारा मुलुक जाएगा मोदिआइन? अम काबुली बादाम-पिस्ता-अकरोट किलायगा....!
मोदिआइन बड़बड़ाती गाली देती हुई चली गई तो बड़ी बहुरिया ने हरगोबिन से कहा, “हरगोबिन भाई तुमको एक संवाद ले जाना है। आज ही बोलो, जाओगे न?
कहाँ?
मेरी माँ के पास।
हरगोबिन बड़ी बहुरिया की छलछलाई आँखों में डूब गया, कहिए क्या संवाद है?
संवाद सुनाते समय बड़ी बहुरिया सिसकने लगी। हरगोबिन की आँखें भी भर आई...बड़ी हवेली की लक्ष्मी को पहली बार इस तरह सिसकते देखा है हरगोबिन ने। वह बोला, बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।
और कितना कड़ा करूँ दिल?...माँ से कहना मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी। बच्चों की जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं...अब नहीं रह सकूँगी।....कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जाएगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरुँगी...बथुआ साग खाकर कब तक जीऊँ?किसलिए...किसके लिए?
हरगोबिन का रोम-रोम कलपने लगा। देव-देवरानियाँ भी कितने बेदर्द है। ठीक अगहनी धान के समय बाल-बच्चों को लेकर शहर से आएँगे। दस-पंद्रह दिनों में क़र्ज़ उधार की ढेरी लगाकर, वापस जाते समय दो-दो मन के हिसाब से चावल-चूड़ा ले जाएँगे। फिर आम के मौसम में आकर हाज़िर। कच्चा-पक्का आम तोड़कर बोरियों में बंद करके चले जाएँगे। फिर उलटकर कभी नहीं देखते...राक्षस है सब!
बड़ी बहुरिया आँचल के खूँट से पाँच रुपए का एक गंदा नोट निकालकर बोली, पूरा राह-ख़र्च भी नहीं जुटा सकी। आने का ख़र्च माँ से माँग लेना। उम्मीद है, भैया तुम्हारे साथ ही आएँगे।
हरगोबिन बोला, “बड़ी बहुरिया, राह-ख़र्च देने की ज़रूरत नहीं। मैं इंतज़ाम कर लूँगा।
तुम कहाँ से इंतज़ाम करोगे?
मैं आज दस बजे की गाड़ी से ही जा रहा हूँ।
बड़ी बहुरिया हाथ में नोट लेकर चुपचाप, भावशून्य दृष्टि से हरगोबिन को देखती रही। हरगोबिन हवेली से बाहर आ गया। उसने सुना, बड़ी बहुरिया कह रही थी मैं तुम्हारी राह देख रही हूँ।
संवदिया!...अर्थात संदेशवाहक।
हरगोबिन संवदिया!...संवाद पहुँचाने का काम सभी नहीं कर सकते। आदमी भगवान के घर से संवदिया बनकर आता है। संवाद के प्रत्येक शब्द को याद रखना, जिस सुर और स्वर में संवाद सुनाया गया है, ठीक उसी ढंग से जाकर सुनाना सहज काम नहीं। गाँव के लोगों की ग़लत धारणा है कि निठल्ला, कामचोर और पेटू आदमी ही संवदिया का काम करता है। न आगे नाथ, न पीछे पगहा। बिना मज़दूरी लिए ही जो गाँव-गाँव संवाद पहुँचाए, उसको और क्या कहेंगे?...औरतों का ग़ुलाम। ज़रा-सी मीठी बोली सुनकर ही नशे में आ जाए ऐसे मर्द को भी भला मर्द कहेंगे? किंतु, गाँव में कौन ऐसा है, जिसके घर की माँ-बहू-बेटी का संवाद हरगोबिन ने नहीं पहुँचाया है?...लेकिन ऐसा संवाद पहली बार ले जा रहा है वह।
गाड़ी पर सवार होते ही हरगोबिन को पुराने दिनों और संवादों की याद आने लगी। एक करुण गीत की भूली हुई कड़ी फिर उसके कानों के पास गूँजने लगी।
‘पैयाँ पडूँ दाढ़ी धरूँ...
हमारो संवाद ले ले जाहु रे संवदिया-या-या!...’
बड़ी बहुरिया के संवाद का प्रत्येक शब्द उसके मन में काँटे की तरह चुभ रहा है—किसके भरोसे यहाँ रहूँगी? एक नौकर था, वह भी कल भाग गया। गाय खूँटे से बँधी भूखी प्यासी हिकर रही है। मैं किसके लिए इतना दु:ख झेलूँ?
हरगोबिन ने अपने पास बैठे हुए एक यात्री से पूछा “क्यों भाईसाहेब, थाना बिंहपुर में डाकगाड़ी रुकती है या नहीं?
यात्री ने मानो कुढ़कर कहा, “थाना बिंहपुर में सभी गाड़ियाँ रुकती हैं।
हरगोबिन ने भाँप लिया यह आदमी चिड़चिड़े स्वभाव का है, इससे कोई बातचीत नहीं जमेगी। वह फिर बड़ी बहुरिया के संवाद को मन-ही-मन दुहराने लगा...लेकिन, संवाद सुनाते समय वह अपने कलेजे को कैसे सँभाल सकेगा। बड़ी बहुरिया संवाद कहते समय जहाँ-जहाँ रोई हैं, वहाँ वह भी रोएगा!
कटिहार जंक्शन पहुँचकर उसने देखा, पंद्रह-बीस साल में बहुत कुछ बदल गया है। अब स्टेशन पर उतरकर किसी से कुछ पूछने की कोई ज़रूरत नहीं। गाड़ी पहुँची और तुरंत भोपे से आवाज़ अपने-आप निकलने लगी—‘थाना बिंहपुर, खगड़िया और बरौनी जाने वाले यात्री तीन नंबर प्लेटफ़ार्म पर चले जाएँ। गाड़ी लगी हुई है।’
हरगोबिन प्रसन्न हुआ—कटिहार पहुँचने के बाद ही मालूम होता है कि सचमुच सुराज हुआ है। इसके पहले कटिहार पहुँचकर किस गाड़ी में चढ़े और किधर जाए इस पूछताछ में ही कितनी बार उसकी गाड़ी छूट गई है।
गाड़ी बदलने के बाद फिर बड़ी बहुरिया का करुण मुखड़ा उसकी आँखों के सामने उभर गया... हरगोबिन भाई माँ से कहना, भगवान ने आँखें फेर ली लेकिन मेरी माँ तो है...किसलिए... किसके लिए...मैं बथुआ साग खाकर कब तक जीऊँ?
थाना बिंहपुर स्टेशन पर गाड़ी पहुँची तो हरगोबिन का जी भारी हो गया। इसके पहले भी कई भला-बुरा संवाद लेकर वह इस गाँव में आया है। कभी ऐसा नहीं हुआ। उसके पैर गाँव की ओर बढ़ ही नहीं रहे थे। इसी पगडंडी से बड़ी बहुरिया अपने मैके लौट आवेगी। गाँव छोड़कर चली जावेगी। फिर कभी नहीं आवेगी!
हरगोबिन का मन कलपने लगा—तब गाँव में क्या रह जाएगा? गाँव की लक्ष्मी ही गाँव छोड़कर जावेगी!...किस मुँह से वह ऐसा संवाद सुनाएगा? कैसे कहेगा कि बड़ी बहुरिया बथुआ-साग खाकर गुज़ारा कर रही है?...सुनने वाले हरगोबिन के गाँव का नाम लेकर थूकेंगे—कैसा गाँव है, जहाँ लक्ष्मी जैसी बहुरिया दु:ख भोग रही है!
अनिच्छापूर्वक हरगोबिन ने गाँव में प्रवेश किया।
हरगोबिन को देखते ही गाँव के लोगों ने पहचान लिया—जलालगढ़ गाँव का संवदिया आया है!...न जाने क्या संवाद लेकर आया है!
राम-राम भाई! कहो, कुशल समाचार ठीक है न?
राम-राम, भैयाजी! भगवान की दया से आनंदी है।
“उधर पानी बूँदी-पड़ा है?
बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने हरगोबिन को नहीं पहचाना। हरगोबिन ने अपना परिचय दिया, तो उन्होंने सबसे पहले अपनी बहन का समाचार पूछा, दीदी कैसी है?
भगवान की दया से सब राज़ी-ख़ुशी है।
मुँह-हाथ धोने के बाद हरगोबिन की बुलाहट आँगन में हुई। अब हरगोबिन काँपने लगा। उसका कलेजा धड़कने लगा...ऐसा तो कभी नहीं हुआ?...बड़ी बहुरिया की छलछलाई हुई आँखें! सिसकियों से भरा हुआ संवाद! उसने बड़ी बहुरिया की बूढ़ी माता को पाँवलागी की।
बूढ़ी माता ने पूछा “कहो बेटा, क्या समाचार है?”
मायजी, आपके आशीर्वाद से सब ठीक हैं।
कोई संवाद?
एं?...संवाद...जी, संवाद तो कोई नहीं। मैं कल सिरसिया गाँव आया था, तो सोचा कि एक बार चलकर आप लोगों का दर्शन कर लूँ।”
बूढ़ी माता हरगोबिन की बात सुनकर कुछ उदास-सी हो गई, “तो तुम कोई संवाद लेकर नहीं आए हो?
जी नहीं, कोई संवाद नहीं।...ऐसे बड़ी बहुरिया ने कहा है कि यदि छुट्टी हुई तो दशहरा के समय गंगाजी के मेले में आकर माँ से भेंट मुलाक़ात कर जाऊँगी। बूढ़ी माता चुप रही। हरगोबिन बोला, “छुट्टी कैसे मिले? सारी गृहस्थी बड़ी बहुरिया के ऊपर ही है।
बूढ़ी माता बोली, “मैं तो बबुआ से कह रही थी कि जाकर दीदी को लिवा लाओ, यहीं रहेगी। वहाँ अब क्या रह गया है? ज़मीन-जायदाद तो सब चली ही गई। तीनों देवर अब शहर में जाकर बस गए हैं। कोई खोज-ख़बर भी नहीं लेते। मेरी बेटी अकेली...।
नहीं मायजी! ज़मीन-जायदाद अभी भी कुछ कम नहीं। जो है, वही बहुत है। टूट भी गई है, है तो आख़िर बड़ी हवेली ही। ‘सवाँग’ नहीं है, यह बात ठीक है! मगर, बड़ी बहुरिया का तो सारा गाँव ही परिवार है। हमारे गाँव की लक्ष्मी है बड़ी बहुरिया।...गाँव की लक्ष्मी गाँव को छोड़कर शहर कैसे जाएगी? यों, देवर लोग हर बार आकर ले जाने की ज़िद करते हैं।
बूढ़ी माता ने अपने हाथ हरगोबिन को जलपान लाकर दिया, पहले थोड़ा जलपान कर लो, बबुआ!
जलपान करते समय हरगोबिन को लगा, बड़ी बहुरिया दालान पर बैठी उसकी राह देख रही है—भूखी-प्यासी....। रात में भोजन करते समय भी बड़ी बहुरिया मानो सामने आकर बैठ गई...क़र्ज़-उधार अब कोई देते नहीं।...एक पेट तो कुत्ता भी पालता है, लेकिन मैं?...माँ से कहना...!
हरगोबिन ने थाली की ओर देखा—दाल-भात, तीन क़िस्म की भाजी, घी, पापड़, अचार।...बड़ी बहुरिया बथुआ—साग उबालकर खा रही होगी।
बूढ़ी माता ने कहा, क्यों बबुआ, खाते क्यों नहीं?
“मायजी, पेटभर जलपान जो कर लिया है।
“अरे, जवान आदमी तो पाँच बार जलपान करके भी एक थाल भात खाता है।
हरगोबिन ने कुछ नहीं खाया। खाया नहीं गया।
संवादिया डटकर खाता है और 'अफर' कर सोता है, किंतु हरगोबिन को नींद नहीं आ रही है।....यह उसने क्या किया? क्या कर दिया? वह किसलिए आया था? वह झूठ क्यों बोला?... नहीं, नहीं, सुबह उठते ही वह बूढ़ी माता को बड़ी बहुरिया का सही संवाद सुना देगा—अक्षर-अक्षर, ‘मायजी, आपकी इकलौती बेटी बहुत कष्ट में है। आज ही किसी को भेजकर बुलवा लीजिए। नहीं तो वह सचमुच कुछ कर बैठेगी। आख़िर, किसके लिए वह इतना सहेगी!...बड़ी बहुरिया ने कहा है, भाभी के बच्चों की जूठन खाकर वह एक कोने में पड़ी रहेगी...!'
रातभर हरगोबिन को नींद नहीं आई।
आँखों के सामने बड़ी बहुरिया बैठी रही—सिसकती, आँसू पोंछती हुई। सुबह उठकर उसने दिल को कड़ा किया। वह संवदिया है। उसका काम है सही-सही संवाद पहुँचाना। वह बड़ी बहुरिया का संवाद सुनाने के लिए बूढ़ी माता के पास जा बैठा । बूढ़ी माता ने पूछा, क्या है, बबुआ? कुछ कहोगे?
“मायजी, मुझे इसी गाड़ी से वापस जाना होगा। कई दिन हो गए।
“अरे, इतनी जल्दी क्या है! एकाध दिन रहकर मेहमानी कर लो।
“नहीं, मायजी! इस बार आज्ञा दीजिए। दशहरा में मैं भी बड़ी बहुरिया के साथ आऊँगा। तब डटकर पंद्रह दिनों तक मेहमानी करूँगा।
बूढ़ी माता बोली, “ऐसी जल्दी थी तो आए ही क्यों? सोचा था, बिटिया के लिए दही-चूड़ा भेजूँगी। सो दही तो नहीं हो सकेगा आज। थोड़ा चूड़ा है बासमती धान का लेते जाओ।”
चूड़ा की पोटली बग़ल में लेकर हरगोबिन आँगन से निकला तो बड़ी बहुरिया के बड़े भाई ने पूछा, “क्यों भाई, राह-ख़र्च तो है?
हरगोबिन बोला, “भैयाजी, आपकी दुआ से किसी बात की कमी नहीं।
स्टेशन पर पहुँचकर हरगोबिन ने हिसाब किया। उसके पास जितने पैसे हैं, उससे कटिहार तक का टिकट ही वह ख़रीद सकेगा। और यदि चौअन्नी नक़ली साबित हुई तो सैमापुर तक ही...बिना टिकट के वह एक स्टेशन भी नहीं जा सकेगा। डर के मारे उसकी देह का आधा ख़ून सूख जाएगा।
गाड़ी में बैठते ही उसकी हालत अजीब हो गई। वह कहाँ आया था? क्या करके जा रहा है? बड़ी बहुरिया को क्या जवाब देगा? यदि गाड़ी में निरगुन गानेवाला सूरदास नहीं आता, तो न जाने उसकी क्या हालत होती! सूरदास के गीतों को सुनकर उसका जी स्थिर हुआ, थोड़ा—
....कि आहो रामा!
नैहरा को सुख सपन भयो अब,
देश पिया को डोलिया चली-ई-ई-ई,
भाई रोओ मति, यही करम की गति...!
सूरदास चला गया तो उसके मन में बैठी हुई बड़ी बहुरिया फिर रोने लगी—किसके लिए इतना दु:ख सहूँ?
पाँच बजे भोर में वह कटिहार स्टेशन पहुँचा।
भोंपे से आवाज़ आ रही थी—बैरगादी, कुसियार और जलालगढ़ जाने वाले यात्री एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर चले जाएँ।
हरगोबिन को जलालगढ़ जाना है, किंतु वह एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर कैसे जाएगा? उसके पास तो कटिहार तक का ही टिकट है।...जलालगढ़! बीस कोस!...बड़ी बहुरिया राह देख रही होगी।...बीस कोस की मंज़िल भी कोई दूर की मंज़िल है? वह पैदल ही जाएगा।
हरगोबिन महावीर-विक्रम-बजरंगी का नाम लेकर पैदल ही चल पड़ा। दस कोस तक वह मानो 'बाई' के झोंके पर रहा। क़स्बा-शहर पहुँचकर उसने पेटभर पानी पी लिया। पोटली में नाक लगाकर उसने सूँघा—अहा! बासमती धान का चूड़ा है। माँ की सौग़ात-बेटी के लिए। नहीं, वह इससे एक मुट्ठी भी नहीं खा सकेगा...किंतु, वह क्या जवाब देगा बड़ी बहुरिया को?
उसके पैर लड़खड़ाए।...उहूँ, अभी वह कुछ नहीं सोचेगा। अभी सिर्फ़ चलना है। जल्दी पहुँचना है, गाँव।...बड़ी बहुरिया की डबडबाई हुई आँखें उसको गाँव की ओर खींच रही थीं—मैं बैठी राह ताकती रहूँगी!....
पंद्रह कोस!...माँ से कहना, अब नहीं रह सकूँगी। सोलह...सत्रह...अठारह...जलालगढ़ स्टेशन का सिगनल दिखलाई पड़ता है...गाँव का ताड़ सिर ऊँचा करके उसकी चाल को देख रहा है। उसी ताड़ के नीचे बड़ी हवेली के दालान पर चुपचाप टकटकी लगाकर राह देख रही है बड़ी बहुरिया—भूखी-प्यासी—'हमरो संवाद ले जाहु रे संवदिया-या-या!’
लेकिन, यह कहाँ चला आया हरगोबिन? यह कौन गाँव है? पहली साँझ में ही अमावस्या का अंधकार! किस राह से वह किधर जा रहा है?...नदी है! कहाँ से आ गई नदी? नदी नहीं, खेत हैं...ये झोंपड़े हैं या हाथियों का झुंड? ताड़ का पेड़ किधर गया? वह राह भूलकर न जाने कहाँ भटक गया...इस गाँव में आदमी नहीं रहते क्या?...कहीं कोई रोशनी नहीं, किससे पूछे?...कहाँ, वह रोशनी है या आँखें? वह खड़ा है या चल रहा है? वह गाड़ी में है या धरती पर?
“हरगोबिन भाई आ गए? बड़ी बहुरिया की बोली या कटिहार स्टेशन का भोंपा बोल रहा है?
हरगोबिन भाई, क्या हुआ तुमको...?
बड़ी बहुरिया?
हरगोबिन ने हाथ से टटोलकर देखा, वह बिछावन पर लेटा हुआ है। सामने बैठी छाया को छूकर बोला, बड़ी बहुरिया?”
“हरगोबिन भाई, अब जी कैसा है?...लो, एक घूँट दूध और पी लो।...मुँह खोलो...हाँ...पी जाओ। पीओ!
हरगोबिन होश में आया।...बड़ी बहुरिया का पैर पकड़ लिया, “बड़ी बहुरिया!... मुझे माफ़ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका।... तुम गाँव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। मैं तुम्हारा बेटा! बड़ी बहुरिया, तुम मेरी माँ, सारे गाँव की माँ हो! मैं अब निठल्ला बैठा नहीं रहूँगा। तुम्हारा सब काम करूँगा।...बोलो, बड़ी माँ, तुम...तुम गाँव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो...!
बड़ी बहुरिया गर्म दूध में एक मुट्ठी बासमती चूड़ा डालकर मसकने लगी।...संवाद भेजने के बाद से ही वह अपनी ग़लती पर पछता रही थी।
hargobin ko achraj hua—to aaj bhi kisi ko sanvadiya ki zarurat paD sakti hai. is zamane mein jabki gaanv gaanv mein Dakghar khul ge hain, sanvadiya ke marfat sanvad kyon bhejega koi? aaj to adami ghar baithe hi lanka tak khabar bhej sakta hai aur vahan ka kushal sanvad manga sakta hai. phir uski bulahat kyon hui?
hargobin baDi haveli ki tuti DyoDhi parkar andar gaya. sada ki bhanti usne vatavran ko sunghakar sanvad ka andaz lagaya. . . . nishchay hi koi gupt samachar le jana hai. chaand suraj ko bhi nahin malum ho. pareva panchhi tak na jane.
paanv lagi, baDi bahuriya.
baDi haveli ki baDi bahuriya ne hargobin ko piDhi di aur ankh ke ishare se kuch der chupchap baithne ko kaha. baDi haveli ab namamatr ko hi baDi haveli hai. jahan din raat naukar naukraniyon aur jan mazduron ki bheeD lagi rahti thi, vahan aaj haveli ki baDi bahuriya apne haath se supa mein anaj lekar phatak rahi hai. in hathon mein sirf mehandi lagakar hi gaanv ki nain parivar palti thi. kahan ge ve din? hargobin ne lambi saans li.
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gaanv ki modiain buDhi na jane kab se angan mein baithkar baDbaDa rahi thi, udhar ka sauda khane mein baDa mitha lagta hai aur daam dete samay modiain ki baat kaDvi lagti hai. main aaj daam lekar hi uthungi.
baDi bahuriya ne koi javab nahin diya.
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kabuli kayda, sunte hi modiain tamakkar khaDi ho gai, chup rah munh jhaunse! nimauchhiye. . . .
kya karun kaki, bhagvan ne moonchh daDhi di nahin, na kabuli aaga sahab ki tarah gulzar daDhi. . . .
phir kabuli ka naam liya to jeebh pakaDkar kheench lungi.
hargobin ne jeebh bahar nikalkar dikhlai. arthat kheench le.
paanch saal pahle gul muhammad aaga udhaar kapDa lagane ke liye gaanv mein aata tha aur modiain ke osare par dukan lagakar baithta tha. aaga kapDa dete samay bahut mitha bolta aur vasuli ke samay zor zulm se ek ka do vasulta. ek baar kai udhaar lene valon ne milkar kabuli ki aisi marammat kar di ki phir lautkar gaanv mein nahin aaya. lekin iske baad hi dukhni modiain laal modiain ho gai. . . . kabuli kya, kabuli badam ke naam se bhi chiDhne lagi modiain. gaanv ke nachnevalon ne naach mein kabuli ka svaang kiya tha. tum amara muluk jayega modiain? am kabuli badam pista akrot kilayga. . . . !
modiain baDbaDati gali deti hui chali gai to baDi bahuriya ne hargobin se kaha, “hargobin bhai tumko ek sanvad le jana hai. aaj hi bolo, jaoge na?
sanvad sunate samay baDi bahuriya sisakne lagi. hargobin ki ankhen bhi bhar aai. . . baDi haveli ki lakshmi ko pahli baar is tarah sisakte dekha hai hargobin ne. wo bola, baDi bahuriya, dil ko kaDa kijiye.
aur kitna kaDa karun dil?. . . maan se kahna main bhai bhabhiyon ki naukari karke pet palungi. bachchon ki juthan khakar ek kone mein paDi rahungi, lekin yahan ab nahin. . . ab nahin rah sakungi. . . . . kahna, yadi maan mujhe yahan se nahin le jayegi to main kisi din gale mein ghaDa bandhakar pokhre mein Doob marungi. . . bathua saag khakar kab tak jiun? kisaliye. . . kiske liye?
hargobin ka rom rom kalapne laga. dev devraniyan bhi kitne bedard hai. theek agahni dhaan ke samay baal bachchon ko lekar shahr se ayenge. das pandrah dinon mein qarz udhaar ki Dheri lagakar, vapas jate samay do do man ke hisab se chaval chuDa le jayenge. phir aam ke mausam mein aakar hazir. kachcha pakka aam toDkar boriyon mein band karke chale jayenge. phir ulatkar kabhi nahin dekhte. . . rakshas hai sab!
baDi bahuriya anchal ke khoont se paanch rupe ka ek ganda not nikalkar boli, pura raah kharch bhi nahin juta saki. aane ka kharch maan se maang lena. ummid hai, bhaiya tumhare saath hi ayenge.
hargobin bola, “baDi bahuriya, raah kharch dene ki zarurat nahin. main intzaam kar lunga.
tum kahan se intzaam karoge?
main aaj das baje ki gaDi se hi ja raha hoon.
baDi bahuriya haath mein not lekar chupchap, bhavashunya drishti se hargobin ko dekhti rahi. hargobin haveli se bahar aa gaya. usne suna, baDi bahuriya kah rahi thi. main tumhari raah dekh rahi hoon.
sanvadiya!. . . arthat sandeshvahak.
hargobin sanvadiya!. . . sanvad pahunchane ka kaam sabhi nahin kar sakte. adami bhagvan ke ghar se sanvadiya bankar aata hai. sanvad ke pratyek shabd ko yaad rakhna, jis sur aur svar mein sanvad sunaya gaya hai, theek usi Dhang se jakar sunana sahj kaam nahin. gaanv ke logon ki ghalat dharna hai ki nithalla, kamachor aur petu adami hi sanvadiya ka kaam karta hai. na aage naath, na pichhe pagha. bina mazduri liye hi jo gaanv gaanv sanvad pahunchaye, usko aur kya kahenge?. . . aurton ka ghulam. zara si mithi boli sunkar hi nashe mein aa jaye aise mard ko bhi bhala mard kahenge? kintu, gaanv mein kaun aisa hai, jiske ghar ki maan bahu beti ka sanvad hargobin ne nahin pahunchaya hai?. . . lekin aisa sanvad pahli baar le ja raha hai wo.
gaDi par savar hote hi hargobin ko purane dinon aur sanvadon ki yaad aane lagi. ek karun geet ki bhuli hui kaDi phir uske kanon ke paas gunjne lagi.
‘paiyan paDun daDhi dharun. . .
hamaro sanvad le le jahu re sanvadiya ya ya!. . . ’
baDi bahuriya ke sanvad ka pratyek shabd uske man mein kante ki tarah chubh raha hai—kiske bharose yahan rahungi? ek naukar tha, wo bhi kal bhaag gaya. gaay khunte se bandhi bhukhi pyasi hikar rahi hai. main kiske liye itna duhakh jhelun?
hargobin ne apne paas baithe hue ek yatri se puchha “kyon bhaisaheb, thana binhpur mein DakgaDi rukti hai ya nahin?
yatri ne mano kuDhkar kaha, “thana binhpur mein sabhi gaDiyan rukti hain.
hargobin ne bhaanp liya ye adami chiDchiDe svbhaav ka hai, isse koi batachit nahin jamegi. wo phir baDi bahuriya ke sanvad ko man hi man duhrane laga. . . lekin, sanvad sunate samay wo apne kaleje ko kaise sanbhal sakega. baDi bahuriya sanvad kahte samay jahan jahan roi hain, vahan wo bhi roega!
katihar jankshan pahunchakar usne dekha, pandrah bees saal mein bahut kuch badal gaya hai. ab steshan par utarkar kisi se kuch puchhne ki koi zarurat nahin. gaDi pahunchi aur turant bhope se avaz apne aap nikalne lagi—‘thana binhpur, khagaDiya aur barauni jane vale yatri teen nambar pletfarm par chale jayen. gaDi lagi hui hai. ’
hargobin prasann hua—katihar pahunchne ke baad hi malum hota hai ki sachmuch suraj hua hai. iske pahle katihar pahunchakar kis gaDi mein chaDhe aur kidhar jaye is puchhatachh mein hi kitni baar uski gaDi chhoot gai hai.
gaDi badalne ke baad phir baDi bahuriya ka karun mukhDa uski ankhon ke samne ubhar gaya. . . hargobin bhai maan se kahna, bhagvan ne ankhen pher li lekin meri maan to hai. . . kisaliye. . . kiske liye. . . main bathua saag khakar kab tak jiun?
thana binhpur steshan par gaDi pahunchi to hargobin ka ji bhari ho gaya. iske pahle bhi kai bhala bura sanvad lekar wo is gaanv mein aaya hai. kabhi aisa nahin hua. uske pair gaanv ki or baDh hi nahin rahe the. isi pagDanDi se baDi bahuriya apne maike laut avegi. gaanv chhoDkar chali javegi. phir kabhi nahin avegi!
hargobin ka man kalapne laga—tab gaanv mein kya rah jayega? gaanv ki lakshmi hi gaanv chhoDkar javegi!. . . kis munh se wo aisa sanvad sunayega? kaise kahega ki baDi bahuriya bathua saag khakar guzara kar rahi hai?. . . sunne vale hargobin ke gaanv ka naam lekar thukenge—kaisa gaanv hai, jahan lakshmi jaisi bahuriya dukh bhog rahi hai!
anichchhapurvak hargobin ne gaanv mein pravesh kiya.
hargobin ko dekhte hi gaanv ke logon ne pahchan liya jalalgaDh gaanv ka sanvadiya aaya hai!. . . na jane kya sanvad lekar aaya hai!
raam raam bhai! kaho, kushal samachar theek hai na?
raam raam, bhaiyaji! bhagvan ki daya se anandi hai.
“udhar pani bundi paDa hai?
baDi bahuriya ke baDe bhai ne hargobin ko nahin pahchana. hargobin ne apna parichay diya, to unhonne sabse pahle apni bahan ka samachar puchha, didi kaisi hai?
bhagvan ki daya se sab razi khushi hai.
munh haath dhone ke baad hargobin ki bulahat angan mein hui. ab hargobin kanpne laga. uska kaleja dhaDakne laga. . . aisa to kabhi nahin hua?. . . baDi bahuriya ki chhallai hui ankhen! sisakiyon se bhara hua sanvad! usne baDi bahuriya ki buDhi mata ko panvlagi ki.
buDhi mata ne puchha “kaho beta, kya samachar hai?”
mayji, aapke ashirvad se sab theek hain.
koi sanvad?
en?. . . sanvad. . . ji, sanvad to koi nahin. main kal sirasiya gaanv aaya tha, to socha ki ek baar chalkar aap logon ka darshan kar loon. ”
buDhi mata hargobin ki baat sunkar kuch udaas si ho gai, “to tum koi sanvad lekar nahin
aaye ho?
ji nahin, koi sanvad nahin. . . . aise baDi bahuriya ne kaha hai ki yadi chhutti hui to dashahra ke samay gangaji ke mele mein aakar maan se bhent mulaqat kar jaungi. buDhi mata chup rahi. hargobin bola, “chhutti kaise mile? sari grihasthi baDi bahuriya ke uupar hi hai.
buDhi mata boli, “main to babua se kah rahi thi ki jakar didi ko liva lao, yahin rahegi. vahan ab kya rah gaya hai? zamin jayadad to sab chali hi gai. tinon devar ab shahr mein jakar bas ge hain. koi khoj khabar bhi nahin lete. meri beti akeli. . . .
nahin mayji! zamin jayadad abhi bhi kuch kam nahin. jo hai, vahi bahut hai. toot bhi gai hai, hai to akhir baDi haveli hi. ‘savang’ nahin hai, ye baat theek hai! magar, baDi bahuriya ka to sara gaanv hi parivar hai. hamare gaanv ki lakshmi hai baDi bahuriya. . . . gaanv ki lakshmi gaanv ko chhoDkar shahr kaise jayegi? yon, devar log har baar aakar le jane ki zid karte hain.
buDhi mata ne apne haath hargobin ko jalpan lakar diya, pahle thoDa jalpan kar lo, babua!
jalpan karte samay hargobin ko laga, baDi bahuriya dalan par baithi uski raah dekh rahi hai—bhukhi pyasi. . . . . raat mein bhojan karte samay bhi baDi bahuriya mano samne aakar baith gai. . . qarz udhaar ab koi dete nahin. . . . ek pet to kutta bhi palta hai, lekin main?. . . maan se kahna. . . !
hargobin ne thali ki or dekha—dal bhaat, teen qism ki bhaji, ghi, papaD, achar. . . . baDi bahuriya bathua—sag ubalkar kha rahi hogi.
buDhi mata ne kaha, kyon babua, khate kyon nahin?
“mayji, petbhar jalpan jo kar liya hai.
“are, javan adami to paanch baar jalpan karke bhi ek thaal bhaat khata hai.
hargobin ne kuch nahin khaya. khaya nahin gaya.
sanvadiya Datkar khata hai aur aphar kar sota hai, kintu hargobin ko neend nahin aa rahi hai.
. . . . ye usne kya kiya? kya kar diya? wo kisaliye aaya tha? wo jhooth kyon bola?. . . nahin, nahin, subah uthte hi wo buDhi mata ko baDi bahuriya ka sahi sanvad suna dega—akshar akshar, ‘mayji, apaki iklauti beti bahut kasht mein hai. aaj hi kisi ko bhejkar bulva lijiye. nahin to wo sachmuch kuch kar baithegi. akhir, kiske liye wo itna sahegi!. . . baDi bahuriya ne kaha hai, bhabhi ke bachchon ki juthan khakar wo ek kone mein paDi rahegi. . . !
ratbhar hargobin ko neend nahin aai.
ankhon ke samne baDi bahuriya baithi rahi—sisakti, ansu ponchhti hui. subah uthkar usne dil ko kaDa kiya. wo sanvadiya hai. uska kaam hai sahi sahi sanvad pahunchana. wo baDi bahuriya ka sanvad sunane ke liye buDhi mata ke paas ja baitha. buDhi mata ne puchha, kya hai, babua? kuch kahoge?
“mayji, mujhe isi gaDi se vapas jana hoga. kai din ho ge.
“are, itni jaldi kya hai! ekaadh din rahkar mehmani kar lo.
“nahin, mayji! is baar aagya dijiye. dashahra mein main bhi baDi bahuriya ke saath auunga. tab Datkar pandrah dinon tak mehmani karunga.
buDhi mata boli, “aisi jaldi thi to aaye hi kyon? socha tha, bitiya ke liye dahi chuDa bhejungi. so dahi to nahin ho sakega aaj. thoDa chuDa hai basmati dhaan ka lete jao. ”
chuDa ki potli baghal mein lekar hargobin angan se nikla to baDi bahuriya ke baDe bhai ne puchha, “kyon bhai, raah kharch to hai?
hargobin bola, “bhaiyaji, apaki dua se kisi baat ki kami nahin.
steshan par pahunchakar hargobin ne hisab kiya. uske paas jitne paise hain, usse katihar tak ka tikat hi wo kharid sakega. aur yadi chauanni naqli sabit hui to saimapur tak hi. . . bina tikat ke wo ek steshan bhi nahin ja sakega. Dar ke mare uski deh ka aadha khoon sookh jayega.
gaDi mein baithte hi uski haalat ajib ho gai. wo kahan aaya tha? kya karke ja raha hai? baDi bahuriya ko kya javab dega? yadi gaDi mein nirgun ganevala surdas nahin aata, to na jane uski kya haalat hoti! surdas ke giton ko sunkar uska ji sthir hua, thoDa—
. . . . ki aaho rama!
naihra ko sukh sapan bhayo ab,
desh piya ko Doliya chali ii ii ii,
bhai roo mati, yahi karam ki gati. . . !
surdas chala gaya to uske man mein baithi hui baDi bahuriya phir rone lagi—kiske liye itna
duhakh sahun?
paanch baje bhor mein wo katihar steshan pahuncha.
bhompe se avaz aa rahi thi—bairgadi, kusiyar aur jalalgaDh jane vale yatri ek nambar pletfarm par chale jayen.
hargobin ko jalalgaDh jana hai, kintu wo ek nambar pletfarm par kaise jayega? uske paas to katihar tak ka hi tikat hai. . . . jalalgaDh! bees kos!. . . baDi bahuriya raah dekh rahi hogi. . . . bees kos ki manzil bhi koi door ki manzil hai? wo paidal hi jayega.
hargobin mahavir vikram bajrangi ka naam lekar paidal hi chal paDa. das kos tak wo mano bai ke jhonke par raha. qasba shahr pahunchakar usne petbhar pani pi liya. potli mein naak lagakar usne sungha—aha! basmati dhaan ka chuDa hai. maan ki saugat beti ke liye. nahin, wo isse ek mutthi bhi nahin kha sakega. . . kintu, wo kya javab dega baDi bahuriya ko?
uske pair laDkhaDaye. . . . uhun, abhi wo kuch nahin sochega. abhi sirf chalna hai. jaldi pahunchna
hai, gaanv. . . . baDi bahuriya ki DabaDbayi hui ankhen usko gaanv ki or kheench rahi thin—main baithi raah takti rahungi!. . . .
pandrah kos!. . . maan se kahna, ab nahin rah sakungi. solah. . . satrah. . . atharah. . . jalalgaDh steshan ka signal dikhlai paDta hai. . . gaanv ka taaD sir uncha karke uski chaal ko dekh raha hai. usi taaD ke niche baDi haveli ke dalan par chupchap takatki lagakar raah dekh rahi hai baDi bahuriya—bhukhi pyasi hamro sanvad le jahu re sanvadiya ya ya!’
lekin, ye kahan chala aaya hargobin? ye kaun gaanv hai? pahli saanjh mein hi amavasya ka andhkar! kis raah se wo kidhar ja raha hai?. . . nadi hai! kahan se aa gai nadi? nadi nahin, khet hain. . . ye jhompDe hain ya hathiyon ka jhunD? taaD ka peD kidhar gaya? wo raah bhulkar na jane kahan bhatak gaya. . . is gaanv mein adami nahin rahte kyaa?. . . kahin koi roshni nahin, kisse puchhe?. . . kahan, wo roshni hai ya ankhen? wo khaDa hai ya chal raha hai? wo gaDi mein hai ya dharti par?
“hargobin bhai aa ge? baDi bahuriya ki boli ya katihar steshan ka bhompa bol raha hai?
hargobin bhai, kya hua tumko. . . ?
baDi bahuriya?
hargobin ne haath se tatolkar dekha, wo bichhavan par leta hua hai. samne baithi chhaya ko chhukar bola, baDi bahuriya?”
“hargobin bhai, ab ji kaisa hai?. . . lo, ek ghoont doodh aur pi lo. . . . munh kholo. . . haan. . . pi jao. pio!
hargobin hosh mein aaya. . . . baDi bahuriya ka pair pakaD liya, “baDi bahuriya!. . . mujhe maaf karo. main tumhara sanvad nahin kah saka. . . . tum gaanv chhoDkar mat jao. tumko koi kasht nahin hone dunga. main tumhara beta! baDi bahuriya, tum meri maan, sare gaanv ki maan ho! main ab nithalla baitha nahin rahunga. tumhara sab kaam karunga. . . . bolo, baDi maan, tum. . . tum gaanv chhoDkar chali to nahin jaogi? bolo. . . !
baDi bahuriya garam doodh mein ek mutthi basmati chuDa Dalkar masakne lagi. . . . sanvad bhejne ke baad se hi wo apni ghalati par pachhta rahi thi.
hargobin ko achraj hua—to aaj bhi kisi ko sanvadiya ki zarurat paD sakti hai. is zamane mein jabki gaanv gaanv mein Dakghar khul ge hain, sanvadiya ke marfat sanvad kyon bhejega koi? aaj to adami ghar baithe hi lanka tak khabar bhej sakta hai aur vahan ka kushal sanvad manga sakta hai. phir uski bulahat kyon hui?
hargobin baDi haveli ki tuti DyoDhi parkar andar gaya. sada ki bhanti usne vatavran ko sunghakar sanvad ka andaz lagaya. . . . nishchay hi koi gupt samachar le jana hai. chaand suraj ko bhi nahin malum ho. pareva panchhi tak na jane.
paanv lagi, baDi bahuriya.
baDi haveli ki baDi bahuriya ne hargobin ko piDhi di aur ankh ke ishare se kuch der chupchap baithne ko kaha. baDi haveli ab namamatr ko hi baDi haveli hai. jahan din raat naukar naukraniyon aur jan mazduron ki bheeD lagi rahti thi, vahan aaj haveli ki baDi bahuriya apne haath se supa mein anaj lekar phatak rahi hai. in hathon mein sirf mehandi lagakar hi gaanv ki nain parivar palti thi. kahan ge ve din? hargobin ne lambi saans li.
baDe bhaiya ke marne ke baad hi jaise sab khel khatm ho gaya. tinon bhaiyon ne aapas mein laDai jhagDa shuru kiya. raiyton ne zamin par dave karke dakhal kiya, phir tinon bhai gaanv chhoDkar shahr mein ja basen, rah gai baDi bahuriya—kahan jati bechari! bhagvan bhale adami ko hi kasht dete hain. nahin to ek ghante ki bimari mein baDe bhaiya kyon marte?. . . baDi bahuriya ki deh se zevar kheench chhinkar bantvare ki lila hui thi. hargobin ne dekhi hai apni ankhon se draupadi cheer haran lila! banarsi saDi ko teen tukDe karke bantvara kiya tha, nirday bhaiyon ne. bechari baDi bahuriya!
gaanv ki modiain buDhi na jane kab se angan mein baithkar baDbaDa rahi thi, udhar ka sauda khane mein baDa mitha lagta hai aur daam dete samay modiain ki baat kaDvi lagti hai. main aaj daam lekar hi uthungi.
baDi bahuriya ne koi javab nahin diya.
hargobin ne phir lambi saans li. jab tak ye modiain angan se nahin talti, baDi bahuriya hargobin se kuch nahin bolegi. wo ab chup nahin rah saka, “modiain kaki, baqi baqaya vasulne ka ye kabuli kayda to tumne khoob sikha hai.
kabuli kayda, sunte hi modiain tamakkar khaDi ho gai, chup rah munh jhaunse! nimauchhiye. . . .
kya karun kaki, bhagvan ne moonchh daDhi di nahin, na kabuli aaga sahab ki tarah gulzar daDhi. . . .
phir kabuli ka naam liya to jeebh pakaDkar kheench lungi.
hargobin ne jeebh bahar nikalkar dikhlai. arthat kheench le.
paanch saal pahle gul muhammad aaga udhaar kapDa lagane ke liye gaanv mein aata tha aur modiain ke osare par dukan lagakar baithta tha. aaga kapDa dete samay bahut mitha bolta aur vasuli ke samay zor zulm se ek ka do vasulta. ek baar kai udhaar lene valon ne milkar kabuli ki aisi marammat kar di ki phir lautkar gaanv mein nahin aaya. lekin iske baad hi dukhni modiain laal modiain ho gai. . . . kabuli kya, kabuli badam ke naam se bhi chiDhne lagi modiain. gaanv ke nachnevalon ne naach mein kabuli ka svaang kiya tha. tum amara muluk jayega modiain? am kabuli badam pista akrot kilayga. . . . !
modiain baDbaDati gali deti hui chali gai to baDi bahuriya ne hargobin se kaha, “hargobin bhai tumko ek sanvad le jana hai. aaj hi bolo, jaoge na?
sanvad sunate samay baDi bahuriya sisakne lagi. hargobin ki ankhen bhi bhar aai. . . baDi haveli ki lakshmi ko pahli baar is tarah sisakte dekha hai hargobin ne. wo bola, baDi bahuriya, dil ko kaDa kijiye.
aur kitna kaDa karun dil?. . . maan se kahna main bhai bhabhiyon ki naukari karke pet palungi. bachchon ki juthan khakar ek kone mein paDi rahungi, lekin yahan ab nahin. . . ab nahin rah sakungi. . . . . kahna, yadi maan mujhe yahan se nahin le jayegi to main kisi din gale mein ghaDa bandhakar pokhre mein Doob marungi. . . bathua saag khakar kab tak jiun? kisaliye. . . kiske liye?
hargobin ka rom rom kalapne laga. dev devraniyan bhi kitne bedard hai. theek agahni dhaan ke samay baal bachchon ko lekar shahr se ayenge. das pandrah dinon mein qarz udhaar ki Dheri lagakar, vapas jate samay do do man ke hisab se chaval chuDa le jayenge. phir aam ke mausam mein aakar hazir. kachcha pakka aam toDkar boriyon mein band karke chale jayenge. phir ulatkar kabhi nahin dekhte. . . rakshas hai sab!
baDi bahuriya anchal ke khoont se paanch rupe ka ek ganda not nikalkar boli, pura raah kharch bhi nahin juta saki. aane ka kharch maan se maang lena. ummid hai, bhaiya tumhare saath hi ayenge.
hargobin bola, “baDi bahuriya, raah kharch dene ki zarurat nahin. main intzaam kar lunga.
tum kahan se intzaam karoge?
main aaj das baje ki gaDi se hi ja raha hoon.
baDi bahuriya haath mein not lekar chupchap, bhavashunya drishti se hargobin ko dekhti rahi. hargobin haveli se bahar aa gaya. usne suna, baDi bahuriya kah rahi thi. main tumhari raah dekh rahi hoon.
sanvadiya!. . . arthat sandeshvahak.
hargobin sanvadiya!. . . sanvad pahunchane ka kaam sabhi nahin kar sakte. adami bhagvan ke ghar se sanvadiya bankar aata hai. sanvad ke pratyek shabd ko yaad rakhna, jis sur aur svar mein sanvad sunaya gaya hai, theek usi Dhang se jakar sunana sahj kaam nahin. gaanv ke logon ki ghalat dharna hai ki nithalla, kamachor aur petu adami hi sanvadiya ka kaam karta hai. na aage naath, na pichhe pagha. bina mazduri liye hi jo gaanv gaanv sanvad pahunchaye, usko aur kya kahenge?. . . aurton ka ghulam. zara si mithi boli sunkar hi nashe mein aa jaye aise mard ko bhi bhala mard kahenge? kintu, gaanv mein kaun aisa hai, jiske ghar ki maan bahu beti ka sanvad hargobin ne nahin pahunchaya hai?. . . lekin aisa sanvad pahli baar le ja raha hai wo.
gaDi par savar hote hi hargobin ko purane dinon aur sanvadon ki yaad aane lagi. ek karun geet ki bhuli hui kaDi phir uske kanon ke paas gunjne lagi.
‘paiyan paDun daDhi dharun. . .
hamaro sanvad le le jahu re sanvadiya ya ya!. . . ’
baDi bahuriya ke sanvad ka pratyek shabd uske man mein kante ki tarah chubh raha hai—kiske bharose yahan rahungi? ek naukar tha, wo bhi kal bhaag gaya. gaay khunte se bandhi bhukhi pyasi hikar rahi hai. main kiske liye itna duhakh jhelun?
hargobin ne apne paas baithe hue ek yatri se puchha “kyon bhaisaheb, thana binhpur mein DakgaDi rukti hai ya nahin?
yatri ne mano kuDhkar kaha, “thana binhpur mein sabhi gaDiyan rukti hain.
hargobin ne bhaanp liya ye adami chiDchiDe svbhaav ka hai, isse koi batachit nahin jamegi. wo phir baDi bahuriya ke sanvad ko man hi man duhrane laga. . . lekin, sanvad sunate samay wo apne kaleje ko kaise sanbhal sakega. baDi bahuriya sanvad kahte samay jahan jahan roi hain, vahan wo bhi roega!
katihar jankshan pahunchakar usne dekha, pandrah bees saal mein bahut kuch badal gaya hai. ab steshan par utarkar kisi se kuch puchhne ki koi zarurat nahin. gaDi pahunchi aur turant bhope se avaz apne aap nikalne lagi—‘thana binhpur, khagaDiya aur barauni jane vale yatri teen nambar pletfarm par chale jayen. gaDi lagi hui hai. ’
hargobin prasann hua—katihar pahunchne ke baad hi malum hota hai ki sachmuch suraj hua hai. iske pahle katihar pahunchakar kis gaDi mein chaDhe aur kidhar jaye is puchhatachh mein hi kitni baar uski gaDi chhoot gai hai.
gaDi badalne ke baad phir baDi bahuriya ka karun mukhDa uski ankhon ke samne ubhar gaya. . . hargobin bhai maan se kahna, bhagvan ne ankhen pher li lekin meri maan to hai. . . kisaliye. . . kiske liye. . . main bathua saag khakar kab tak jiun?
thana binhpur steshan par gaDi pahunchi to hargobin ka ji bhari ho gaya. iske pahle bhi kai bhala bura sanvad lekar wo is gaanv mein aaya hai. kabhi aisa nahin hua. uske pair gaanv ki or baDh hi nahin rahe the. isi pagDanDi se baDi bahuriya apne maike laut avegi. gaanv chhoDkar chali javegi. phir kabhi nahin avegi!
hargobin ka man kalapne laga—tab gaanv mein kya rah jayega? gaanv ki lakshmi hi gaanv chhoDkar javegi!. . . kis munh se wo aisa sanvad sunayega? kaise kahega ki baDi bahuriya bathua saag khakar guzara kar rahi hai?. . . sunne vale hargobin ke gaanv ka naam lekar thukenge—kaisa gaanv hai, jahan lakshmi jaisi bahuriya dukh bhog rahi hai!
anichchhapurvak hargobin ne gaanv mein pravesh kiya.
hargobin ko dekhte hi gaanv ke logon ne pahchan liya jalalgaDh gaanv ka sanvadiya aaya hai!. . . na jane kya sanvad lekar aaya hai!
raam raam bhai! kaho, kushal samachar theek hai na?
raam raam, bhaiyaji! bhagvan ki daya se anandi hai.
“udhar pani bundi paDa hai?
baDi bahuriya ke baDe bhai ne hargobin ko nahin pahchana. hargobin ne apna parichay diya, to unhonne sabse pahle apni bahan ka samachar puchha, didi kaisi hai?
bhagvan ki daya se sab razi khushi hai.
munh haath dhone ke baad hargobin ki bulahat angan mein hui. ab hargobin kanpne laga. uska kaleja dhaDakne laga. . . aisa to kabhi nahin hua?. . . baDi bahuriya ki chhallai hui ankhen! sisakiyon se bhara hua sanvad! usne baDi bahuriya ki buDhi mata ko panvlagi ki.
buDhi mata ne puchha “kaho beta, kya samachar hai?”
mayji, aapke ashirvad se sab theek hain.
koi sanvad?
en?. . . sanvad. . . ji, sanvad to koi nahin. main kal sirasiya gaanv aaya tha, to socha ki ek baar chalkar aap logon ka darshan kar loon. ”
buDhi mata hargobin ki baat sunkar kuch udaas si ho gai, “to tum koi sanvad lekar nahin
aaye ho?
ji nahin, koi sanvad nahin. . . . aise baDi bahuriya ne kaha hai ki yadi chhutti hui to dashahra ke samay gangaji ke mele mein aakar maan se bhent mulaqat kar jaungi. buDhi mata chup rahi. hargobin bola, “chhutti kaise mile? sari grihasthi baDi bahuriya ke uupar hi hai.
buDhi mata boli, “main to babua se kah rahi thi ki jakar didi ko liva lao, yahin rahegi. vahan ab kya rah gaya hai? zamin jayadad to sab chali hi gai. tinon devar ab shahr mein jakar bas ge hain. koi khoj khabar bhi nahin lete. meri beti akeli. . . .
nahin mayji! zamin jayadad abhi bhi kuch kam nahin. jo hai, vahi bahut hai. toot bhi gai hai, hai to akhir baDi haveli hi. ‘savang’ nahin hai, ye baat theek hai! magar, baDi bahuriya ka to sara gaanv hi parivar hai. hamare gaanv ki lakshmi hai baDi bahuriya. . . . gaanv ki lakshmi gaanv ko chhoDkar shahr kaise jayegi? yon, devar log har baar aakar le jane ki zid karte hain.
buDhi mata ne apne haath hargobin ko jalpan lakar diya, pahle thoDa jalpan kar lo, babua!
jalpan karte samay hargobin ko laga, baDi bahuriya dalan par baithi uski raah dekh rahi hai—bhukhi pyasi. . . . . raat mein bhojan karte samay bhi baDi bahuriya mano samne aakar baith gai. . . qarz udhaar ab koi dete nahin. . . . ek pet to kutta bhi palta hai, lekin main?. . . maan se kahna. . . !
hargobin ne thali ki or dekha—dal bhaat, teen qism ki bhaji, ghi, papaD, achar. . . . baDi bahuriya bathua—sag ubalkar kha rahi hogi.
buDhi mata ne kaha, kyon babua, khate kyon nahin?
“mayji, petbhar jalpan jo kar liya hai.
“are, javan adami to paanch baar jalpan karke bhi ek thaal bhaat khata hai.
hargobin ne kuch nahin khaya. khaya nahin gaya.
sanvadiya Datkar khata hai aur aphar kar sota hai, kintu hargobin ko neend nahin aa rahi hai.
. . . . ye usne kya kiya? kya kar diya? wo kisaliye aaya tha? wo jhooth kyon bola?. . . nahin, nahin, subah uthte hi wo buDhi mata ko baDi bahuriya ka sahi sanvad suna dega—akshar akshar, ‘mayji, apaki iklauti beti bahut kasht mein hai. aaj hi kisi ko bhejkar bulva lijiye. nahin to wo sachmuch kuch kar baithegi. akhir, kiske liye wo itna sahegi!. . . baDi bahuriya ne kaha hai, bhabhi ke bachchon ki juthan khakar wo ek kone mein paDi rahegi. . . !
ratbhar hargobin ko neend nahin aai.
ankhon ke samne baDi bahuriya baithi rahi—sisakti, ansu ponchhti hui. subah uthkar usne dil ko kaDa kiya. wo sanvadiya hai. uska kaam hai sahi sahi sanvad pahunchana. wo baDi bahuriya ka sanvad sunane ke liye buDhi mata ke paas ja baitha. buDhi mata ne puchha, kya hai, babua? kuch kahoge?
“mayji, mujhe isi gaDi se vapas jana hoga. kai din ho ge.
“are, itni jaldi kya hai! ekaadh din rahkar mehmani kar lo.
“nahin, mayji! is baar aagya dijiye. dashahra mein main bhi baDi bahuriya ke saath auunga. tab Datkar pandrah dinon tak mehmani karunga.
buDhi mata boli, “aisi jaldi thi to aaye hi kyon? socha tha, bitiya ke liye dahi chuDa bhejungi. so dahi to nahin ho sakega aaj. thoDa chuDa hai basmati dhaan ka lete jao. ”
chuDa ki potli baghal mein lekar hargobin angan se nikla to baDi bahuriya ke baDe bhai ne puchha, “kyon bhai, raah kharch to hai?
hargobin bola, “bhaiyaji, apaki dua se kisi baat ki kami nahin.
steshan par pahunchakar hargobin ne hisab kiya. uske paas jitne paise hain, usse katihar tak ka tikat hi wo kharid sakega. aur yadi chauanni naqli sabit hui to saimapur tak hi. . . bina tikat ke wo ek steshan bhi nahin ja sakega. Dar ke mare uski deh ka aadha khoon sookh jayega.
gaDi mein baithte hi uski haalat ajib ho gai. wo kahan aaya tha? kya karke ja raha hai? baDi bahuriya ko kya javab dega? yadi gaDi mein nirgun ganevala surdas nahin aata, to na jane uski kya haalat hoti! surdas ke giton ko sunkar uska ji sthir hua, thoDa—
. . . . ki aaho rama!
naihra ko sukh sapan bhayo ab,
desh piya ko Doliya chali ii ii ii,
bhai roo mati, yahi karam ki gati. . . !
surdas chala gaya to uske man mein baithi hui baDi bahuriya phir rone lagi—kiske liye itna
duhakh sahun?
paanch baje bhor mein wo katihar steshan pahuncha.
bhompe se avaz aa rahi thi—bairgadi, kusiyar aur jalalgaDh jane vale yatri ek nambar pletfarm par chale jayen.
hargobin ko jalalgaDh jana hai, kintu wo ek nambar pletfarm par kaise jayega? uske paas to katihar tak ka hi tikat hai. . . . jalalgaDh! bees kos!. . . baDi bahuriya raah dekh rahi hogi. . . . bees kos ki manzil bhi koi door ki manzil hai? wo paidal hi jayega.
hargobin mahavir vikram bajrangi ka naam lekar paidal hi chal paDa. das kos tak wo mano bai ke jhonke par raha. qasba shahr pahunchakar usne petbhar pani pi liya. potli mein naak lagakar usne sungha—aha! basmati dhaan ka chuDa hai. maan ki saugat beti ke liye. nahin, wo isse ek mutthi bhi nahin kha sakega. . . kintu, wo kya javab dega baDi bahuriya ko?
uske pair laDkhaDaye. . . . uhun, abhi wo kuch nahin sochega. abhi sirf chalna hai. jaldi pahunchna
hai, gaanv. . . . baDi bahuriya ki DabaDbayi hui ankhen usko gaanv ki or kheench rahi thin—main baithi raah takti rahungi!. . . .
pandrah kos!. . . maan se kahna, ab nahin rah sakungi. solah. . . satrah. . . atharah. . . jalalgaDh steshan ka signal dikhlai paDta hai. . . gaanv ka taaD sir uncha karke uski chaal ko dekh raha hai. usi taaD ke niche baDi haveli ke dalan par chupchap takatki lagakar raah dekh rahi hai baDi bahuriya—bhukhi pyasi hamro sanvad le jahu re sanvadiya ya ya!’
lekin, ye kahan chala aaya hargobin? ye kaun gaanv hai? pahli saanjh mein hi amavasya ka andhkar! kis raah se wo kidhar ja raha hai?. . . nadi hai! kahan se aa gai nadi? nadi nahin, khet hain. . . ye jhompDe hain ya hathiyon ka jhunD? taaD ka peD kidhar gaya? wo raah bhulkar na jane kahan bhatak gaya. . . is gaanv mein adami nahin rahte kyaa?. . . kahin koi roshni nahin, kisse puchhe?. . . kahan, wo roshni hai ya ankhen? wo khaDa hai ya chal raha hai? wo gaDi mein hai ya dharti par?
“hargobin bhai aa ge? baDi bahuriya ki boli ya katihar steshan ka bhompa bol raha hai?
hargobin bhai, kya hua tumko. . . ?
baDi bahuriya?
hargobin ne haath se tatolkar dekha, wo bichhavan par leta hua hai. samne baithi chhaya ko chhukar bola, baDi bahuriya?”
“hargobin bhai, ab ji kaisa hai?. . . lo, ek ghoont doodh aur pi lo. . . . munh kholo. . . haan. . . pi jao. pio!
hargobin hosh mein aaya. . . . baDi bahuriya ka pair pakaD liya, “baDi bahuriya!. . . mujhe maaf karo. main tumhara sanvad nahin kah saka. . . . tum gaanv chhoDkar mat jao. tumko koi kasht nahin hone dunga. main tumhara beta! baDi bahuriya, tum meri maan, sare gaanv ki maan ho! main ab nithalla baitha nahin rahunga. tumhara sab kaam karunga. . . . bolo, baDi maan, tum. . . tum gaanv chhoDkar chali to nahin jaogi? bolo. . . !
baDi bahuriya garam doodh mein ek mutthi basmati chuDa Dalkar masakne lagi. . . . sanvad bhejne ke baad se hi wo apni ghalati par pachhta rahi thi.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
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