प्रस्तुत पाठ एनसीईआरटी की कक्षा ग्यारहवीं के पाठ्यक्रम में शामिल है।
मोहन के पैर अनायास ही शिल्पकार टोले की ओर मुड़ गए। उसके मन के किसी कोने में शायद धनराम लुहार के ऑफ़र की वह अनुगूँज शेष थी जिसे वह पिछले तीन-चार दिनों से दुकान की ओर जाते हुए दूर से सुनता रहा था। निहाई पर रखे लाल गर्म लोहे पर पड़ती हथौड़े की धप्-धप् आवाज़, ठंडे लोहे पर लगती चोट से उठता उनकता स्वर और निशाना साधने से पहले ख़ाली निहाई पर पड़ती हथौड़ी की खनक जिन्हें वह दूर से ही पहचान सकता था।
लंबे बेंटवाले हँसुवे को लेकर वह घर से इस उद्देश्य से निकला था कि अपने खेतों के किनारे उग आई काँटेदार झाड़ियों को काट-छाँटकर साफ़ कर आएगा। बूढ़े वंशीधर जी के बूते का अब यह सब काम नहीं रहा। यही क्या, जन्म भर जिस पुरोहिताई के बूते पर उन्होंने घर-संसार चलाया था, वह भी अब वैसे कहाँ कर पाते हैं! यजमान लोग उनकी निष्ठा और संयम के कारण ही उनपर श्रद्धा रखते हैं लेकिन बुढ़ापे का जर्जर शरीर अब उतना कठिन श्रम और व्रत-उपवास नहीं झेल पाता। सुबह-सुबह जैसे उससे सहारा पाने की नीयत से ही उन्होंने गहरा निःश्वास लेकर कहा था—
'आज गणनाथ जाकर चंद्रदत्त जी के लिए रुद्रीपाठ करना था, अब मुश्किल ही लग रहा है। यह दो मील की सीधी चढ़ाई अब अपने बूते की नहीं। एकाएक ना भी नहीं कहा जा सकता, कुछ समझ में नहीं आता!'
मोहन उनका आशय न समझता हो ऐसी बात नहीं लेकिन पिता की तरह ऐसे अनुष्ठान कर पाने का न उसे अभ्यास ही है और न वैसी गति। पिता की बातें सुनकर भी उसने उनका भार हलका करने का कोई सुझाव नहीं दिया। जैसे हवा में बात कह दी गई थी वैसे ही अनुत्तरित रह गई।
पिता का भार हलका करने के लिए वह खेतों की ओर चला था लेकिन हँसुवे की धार पर हाथ फेरते हुए उसे लगा वह पूरी तरह कुंद हो चुकी है।
धनराम अपने बाएँ हाथ से धौंकनी फूँकता हुआ दाएँ हाथ से भट्ठी में गर्म होते लोहे को उलट-पलट रहा था और मोहन भट्ठी से दूर हटकर एक ख़ाली कनिस्तर के ऊपर बैठा उसकी कारीगरी को पारखी निगाहों से देख रहा था।
'मास्टर त्रिलोक सिंह तो अब गुज़र गए होंगे,' मोहन ने पूछा।
वे दोनों अब अपने बचपन की दुनिया में लौट आए थे। धनराम की आँखों में एक चमक-सी आ गई। वह बोला, 'मास्साब भी क्या आदमी थे लला! अभी पिछले साल हो गुज़रे। सच कहूँ, आख़िरी दम तक उनकी छड़ी का डर लगा ही रहता था।'
दोनों हो-हो कर हँस दिए। कुछ क्षणों के लिए वे दोनों ही जैसे किसी बीती हुई दुनिया में लौट गए।
...गोपाल सिंह की दुकान से हुक्के का आख़िरी कश खींचकर त्रिलोक सिंह स्कूल की चहारदीवारी में उतरते हैं।
थोड़ी देर पहले तक धमाचौकड़ी मचाते, उठा-पटक करते और बांज के पेड़ों की टहनियों पर झूलते बच्चों को जैसे साँप सूँघ गया है। कड़े स्वर में वह पूछते हैं, ‘प्रार्थना कर ली तुम लोगों ने?’
यह जानते हुए भी कि यदि प्रार्थना हो गई होती तो गोपाल सिंह की दुकान तक उनका समवेत स्वर पहुँचता ही, त्रिलोक सिंह घूर-घूरकर एक-एक लड़के को देखते हैं। फिर वही कड़कदार आवाज़, 'मोहन नहीं आया आज?’
मोहन उनका चहेता शिष्य था। पुरोहित ख़ानदान का कुशाग्र बुद्धि का बालक पढ़ने में ही नहीं, गायन में भी बेजोड़। त्रिलोक सिंह मास्टर ने उसे पूरे स्कूल का मॉनीटर बना रखा था। वहीं सुबह-सुबह 'हे प्रभो आनंददाता! ज्ञान हमको दीजिए।' का पहला स्वर उठाकर प्रार्थना शुरू करता था।
मोहन को लेकर मास्टर त्रिलोक सिंह को बड़ी उम्मीदें थीं। कक्षा में किसी छात्र को कोई सवाल न आने पर वही सवाल वे मोहन से पूछते और उनका अनुमान सही निकलता। मोहन ठीक-ठीक उत्तर देकर उन्हें संतुष्ट कर देता और तब वे उस फिसड्डी बालक को दंड देने का भार मोहन पर डाल देते।
‘पकड़ इसका कान, और लगवा इससे दस उठक-बैठक,’ वे आदेश दे देते। धनराम भी उन अनेक छात्रों में से एक था जिसने त्रिलोक सिंह मास्टर के आदेश पर अपने हमजोली मोहन के हाथों कई बार बेंत खाए थे या कान खिंचवाए थे। मोहन के प्रति थोड़ी-बहुत ईर्ष्या रहने पर भी धनराम प्रारंभ से ही उसके प्रति स्नेह और आदर का भाव रखता था। इसका एक कारण शायद यह था कि बचपन से ही मन में बैठा दी गई जातिगत हीनता के कारण धनराम ने कभी मोहन को अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा बल्कि वह इसे मोहन का अधिकार ही समझता रहा था। बीच-बीच में त्रिलोक सिंह मास्टर का यह कहना कि मोहन एक दिन बहुत बड़ा आदमी बनकर स्कूल का और उनका नाम ऊँचा करेगा, धनराम के लिए किसी और तरह से सोचने की गुंजाइश ही नहीं रखता था।
और धनराम! वह गाँव के दूसरे खेतिहर या मज़दूर परिवारों के लड़कों की तरह किसी प्रकार तीसरे दर्जे तक ही स्कूल का मुँह देख पाया था। त्रिलोक सिंह मास्टर कभी-कभार ही उस पर विशेष ध्यान देते थे। एक दिन अचानक ही उन्होंने पूछ लिया था, 'धनुवाँ! तेरह का पहाड़ा सुना तो!’
बारह तक का पहाड़ा तो उसने किसी तरह याद कर लिया था लेकिन तेरह का ही पहाड़ा उसके लिए पहाड़ हो गया था।
‘तेरै एक तेरै
तेरै दुणी चौबीस’
सटाक! एक सटी उसकी पिंडलियों पर मास्साब ने लगाई थी कि वह टूट गई। ग़ुस्से में उन्होंने आदेश दिया, 'जा! नाले से एक अच्छी मज़बूत संटी तोड़कर ला, फिर तुझे तेरह का पहाड़ा याद कराता हूँ।’
त्रिलोक सिंह मास्टर का यह सामान्य नियम था। सज़ा पाने वाले को ही अपने लिए हथियार भी जुटाना होता था; और ज़ाहिर है, बलि का बकरा अपने से अधिक मास्टर के संतोष को ध्यान में रखकर टहनी का चुनाव ऐसे करता जैसे वह अपने लिए नहीं बल्कि किसी दूसरे को दंडित करने के लिए हथियार का चुनाव कर रहा हो।
धनराम की मंदबुद्धि रही हो या मन में बैठा हुआ डर कि पूरे दिन घोटा लगाने पर भी उसे तेरह का पहाड़ा याद नहीं हो पाया था। छुट्टी के समय जब मास्साब ने उससे दुबारा पहाड़ा सुनाने को कहा तो तीसरी सीढ़ी तक पहुँचते-पहुँचते वह फिर लड़खड़ा गया था। लेकिन इस बार मास्टर त्रिलोक सिंह ने उसके लाए हुए बेंत का उपयोग करने की बजाय ज़बान की चाबुक लगा दी थी, 'तेरे दिमाग़ में तो लोहा भरा है रे! विद्या का ताप कहाँ लगेगा इसमें?' अपने थैले से पाँच-छह दराँतियाँ निकालकर उन्होंने धनराम को धार लगा लाने के लिए पकड़ा दी थीं। किताबों की विद्या का ताप लगाने की सामर्थ्य धनराम के पिता की नहीं थी। धनराम हाथ-पैर चलाने लायक़ हुआ ही था कि बाप ने उसे धौंकनी फूँकने या सान लगाने के कामों में उलझाना शुरू कर दिया और फिर धीरे-धीरे हथौड़े से लेकर घन चलाने की विद्या सिखाने लगा। फ़र्क़ इतना ही था कि जहाँ मास्टर त्रिलोक सिंह उसे अपनी पसंद का बेंत चुनने की छूट दे देते थे वहाँ गंगाराम इसका चुनाव स्वयं करते थे और ज़रा—सी ग़लती होने पर छड़, बेंत, हत्था जो भी हाथ लग जाता उसी से अपना प्रसाद दे देते। एक दिन गंगाराम अचानक चल बसे तो धनराम ने सहज भाव से उनकी विरासत सँभाल ली और पास-पड़ोस के गाँव वालों को याद नहीं रहा वे कब गंगाराम के ऑफ़र को धनराम का ऑफ़र कहने लगे थे।
प्राइमरी स्कूल की सीमा लाँघते ही मोहन ने छात्रवृत्ति प्राप्त कर त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी को किसी हद तक सिद्ध कर दिया तो साधारण हैसियत वाले यजमानों की पुरोहिताई करने वाले वंशीधर तिवारी का हौसला बढ़ गया और वे भी अपने पुत्र को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का स्वप्न देखने लगे। पीढ़ियों से चले आते पैतृक धंधे ने उन्हें निराश कर दिया था। दान-दक्षिणा के बूते पर वे किसी तरह परिवार का आधा पेट भर पाते थे। मोहन पढ़-लिखकर वंश का दारिद्र्य मिटा दे यह उनकी हार्दिक इच्छा थी। लेकिन इच्छा होने भर से ही सब कुछ नहीं हो जाता। आगे की पढ़ाई के लिए जो स्कूल था वह गाँव से चार मील दूर था। दो मील की चढ़ाई के अलावा बरसात के मौसम में रास्ते में पड़ने वाली नदी की समस्या अलग थी। तो भी वंशीधर ने हिम्मत नहीं हारी और लड़के का नाम स्कूल में लिखा दिया। बालक मोहन लंबा रास्ता तय कर स्कूल जाता और छुट्टी के बाद थका-माँदा घर लौटता तो पिता पुराणों की कथाओं से विद्याव्यसनी बालकों का उदाहरण देकर उसे उत्साहित करने की कोशिश करते रहते।
वर्षा के दिनों में नदी पार करने की कठिनाई को देखते हुए वंशीधर ने नदी पार के गाँव में एक यजमान के घर पर मोहन का डेरा तय कर दिया था। घर के अन्य बच्चों की तरह मोहन खा-पीकर स्कूल जाता और छुट्टियों में नदी उतार पर होने पर गाँव लौट आता था। संयोग की बात, एक बार छुट्टी के पहले दिन जब नदी का पानी उतार पर ही था और मोहन कुछ घसियारों के साथ नदी पार कर घर आ रहा था तो पहाड़ी के दूसरी ओर भारी वर्षा होने के कारण अचानक नदी का पानी बढ़ गया। पहले नदी की धारा में झाड़-झंखाड़ और पात-पतेल आने शुरू हुए तो अनुभवी घसियारों ने तेज़ी से पानी को काटकर आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन किनारे पहुँचते-न-पहुँचते मटमैले पानी का रेला उन तक आ ही पहुँचा। वे लोग किसी प्रकार सकुशल इस पार पहुँचने में सफल हो सके। इस घटना के बाद वंशीधर घबरा गए और बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतित रहने लगे।
बिरादरी के एक संपन्न परिवार का युवक रमेश उन दिनों लखनऊ से छुट्टियों में गाँव आया हुआ था। बातों-बातों में वंशीधर ने मोहन की पढ़ाई के संबंध में उससे अपनी चिंता प्रकट की तो उसने न केवल अपनी सहानुभूति जतलाई बल्कि उन्हें सुझाव दिया कि वे मोहन को उसके साथ ही लखनऊ भेज दें। घर में जहाँ चार प्राणी हैं एक और बढ़ जाने में कोई अंतर नहीं पड़ता, बल्कि बड़े शहर में रहकर वह अच्छी तरह पढ़-लिख सकेगा।
वंशीधर को जैसे रमेश के रूप में साक्षात् भगवान मिल गए हों। उनकी आँखों में पानी छलछलाने लगा। भरे गले से वे केवल इतना ही कह पाए कि बिरादरी का यही सहारा होता है।
छुट्टियाँ शेष होने पर रमेश वापिस लौटा तो माँ-बाप और अपनी गाँव की दुनिया से बिछुड़कर सहमा-सहमा-सा मोहन भी उसके साथ लखनऊ आ पहुँचा। अब मोहन की ज़िंदगी का एक नया अध्याय शुरू हुआ। घर की दोनों महिलाओं, जिन्हें वह चाची और भाभी कह कर पुकारता था, का हाथ बँटाने के अलावा धीरे-धीरे वह मुहल्ले की सभी चाचियों और भाभियों के लिए काम-काज में हाथ बँटाने का साधन बन गया।
'मोहन! थोड़ा दही तो ला दे बाज़ार से।'
'मोहन! ये कपड़े धोबी को दे तो आ।'
'मोहन! एक किलो आलू तो ला दे।'
औसत दफ़्तरी बड़े बाबू की हैसियत वाले रमेश के लिए मोहन को अपना भाई-बिरादर बतलाना अपने सम्मान के विरुद्ध जान पड़ता था और उसे घरेलू नौकर से अधिक हैसियत वह नहीं देता था, इस बात को मोहन भी समझने लगा था। थोड़ी-बहुत हीला-हवाली करने के बाद रमेश ने निकट के ही एक साधारण से स्कूल में उसका नाम लिखवा दिया। लेकिन एकदम नए वातावरण और रात-दिन के काम के बोझ के कारण गाँव का वह मेधावी छात्र शहर के स्कूली जीवन में अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया। उसका जीवन एक बँधी-बँधाई लीक पर चलता रहा। साल में एक बार गर्मियों की छुट्टी में गाँव जाने का मौक़ा भी तभी मिलता जब रमेश या उसके घर का कोई प्राणी गाँव जाने वाला होता वरना उन छुट्टियों को भी अगले दरजे की तैयारी के नाम पर उसे शहर में ही गुज़ार देना पड़ता था। अगले दरजे की तैयारी तो बहाना भर थी, सवाल रमेश और उसकी गृहस्थी की सुविधा-असुविधा का था। मोहन ने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था क्योंकि और कोई चारा भी नहीं था। घरवालों को अपनी वास्तविक स्थिति बतलाकर वह दुखी नहीं करना चाहता था। वंशीधर उसके सुनहरे भविष्य के सपने देख रहे थे।
आठवीं कक्षा की पढ़ाई समाप्त कर छुट्टियों में मोहन गाँव आया हुआ था। जब वह लौटकर लखनऊ पहुँचा तो उसने अनुभव किया कि रमेश के परिवार के सभी लोग जैसे उसकी आगे की पढ़ाई के पक्ष में नहीं हैं। बात घूम-फिरकर जिस ओर से उठती वह इसी मुद्दे पर ज़रूर ख़त्म हो जाती कि हज़ारों-लाखों बी. ए., एम.ए. मारे-मारे बेकार फिर रहे हैं। ऐसी पढ़ाई से अच्छा तो आदमी कोई हाथ का काम सीख ले। रमेश ने अपने किसी परिचित के प्रभाव से उसे एक तकनीकी स्कूल में भर्ती करा दिया। मोहन की दिनचर्या में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। वह पहले की तरह स्कूल और घरेलू काम-काज में व्यस्त रहता। धीरे-धीरे डेढ़-दो वर्ष का यह समय भी बीत गया और मोहन अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए कारख़ानों और फ़ैक्टरियों के चक्कर लगाने लगा।
* * *
वंशीधर से जब भी कोई मोहन के विषय में पूछता तो वे उत्साह के साथ उसकी पढ़ाई की बाबत बताने लगते और मन ही मन उनको विश्वास था कि वह एक दिन बड़ा अफ़सर बनकर लौटेगा। लेकिन जब उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो न सिर्फ़ गहरा दु:ख हुआ बल्कि वे लोगों को अपने स्वप्नभंग की जानकारी देने का साहस नहीं जुटा पाए।
धनराम ने भी एक दिन उनसे मोहन के बारे में पूछा था। घास का एक तिनका तोड़कर दाँत खोदते हुए उन्होंने बताया था कि उसकी सेक्रेटेरियट में नियुक्ति हो गई है और शीघ्र ही विभागीय परीक्षाएँ देकर वह बड़े पद पर पहुँच जाएगा। धनराम को त्रिलोक सिंह मास्टर की भविष्यवाणी पर पूरा यक़ीन था—ऐसा होना ही था उसने सोचा। दाँतों के बीच में तिनका दबाकर असत्य भाषण का दोष न लगने का संतोष लेकर वंशीधर आगे बढ़ गए थे। धनराम के शब्द, 'मोहन लला बचपन से ही बड़े बुद्धिमान थे’, उन्हें बहुत देर तक कचोटते रहे।
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त्रिलोक सिंह मास्टर की बातों के साथ-साथ बचपन से लेकर अब तक के जीवन के कई प्रसंगों पर मोहन और धनराम बातें करते रहे। धनराम ने मोहन के हँसुवे के फाल को बेंत से निकालकर भट्टी में तपाया और मन लगाकर उसकी धार गढ़ दी। गर्म लोहे को हवा में ठंडा होने में काफ़ी समय लग गया था, धनराम ने उसे वापिस बेंत पहनाकर मोहन को लौटाते हुए जैसे अपनी भूल-चूक के लिए माफ़ी माँगी हो—
'बेचारे पंडित जी को तो फ़ुर्सत नहीं रहती लेकिन किसी के हाथ भिजवा देते तो मैं तत्काल बना देता।'
मोहन ने उत्तर में कुछ नहीं कहा लेकिन हँसुवे को हाथ में लेकर वह फिर वहीं बैठा रहा जैसे उसे वापिस जाने की कोई जल्दी न रही हो।
सामान्य तौर से ब्राह्मण टोले के लोगों का शिल्पकार टोले में उठना-बैठना नहीं होता था। किसी काम-काज के सिलसिले में यदि शिल्पकार टोले में आना ही पड़ा तो खड़े-खड़े बातचीत निपटा ली जाती थी। ब्राह्मण टोले के लोगों को बैठने के लिए कहना भी उनकी मर्यादा के विरुद्ध समझा जाता था। पिछले कुछ वर्षों से शहर में जा रहने के बावजूद मोहन गाँव की इन मान्यताओं से अपरिचित हो ऐसा संभव नहीं था। धनराम मन-ही-मन उसके व्यवहार से असमंजस में पड़ा था लेकिन प्रकट में उसने कुछ नहीं कहा और अपना काम करता रहा।
लोहे की एक मोटी छड़ को भट्टी में गलाकर धनराम गोलाई में मोड़ने की कोशिश कर रहा था। एक हाथ से सँड़सी पकड़कर जब वह दूसरे हाथ से हथौड़े की चोट मारता तो निहाई ठीक घाट में सिरा न फँसने के कारण लोहा उचित ढंग से मुड़ नहीं पा रहा था। मोहन कुछ देर तक उसे काम करते हुए देखता रहा फिर जैसे अपना संकोच त्यागकर उसने दूसरी पकड़ से लोहे को स्थिर कर लिया और धनराम के हाथ से हथौड़ा लेकर नपी-तुली चोट मारते, अभ्यस्त हाथों से धौंकनी फूँककर लोहे को दुबारा भट्टी में गर्म करते और फिर निहाई पर रखकर उसे ठोकते-पीटते सुघड़ गोले का रूप दे डाला।
मोहन का यह हस्तक्षेप इतनी फ़ुर्ती और आकस्मिक ढंग से हुआ था कि धनराम को चूक का मौक़ा ही नहीं मिला। वह अवाक् मोहन की ओर देखता रहा। उसे मोहन की कारीगरी पर उतना आश्चर्य नहीं हुआ जितना पुरोहित ख़ानदान के एक युवक का इस तरह के काम में, उसकी भट्टी पर बैठकर, हाथ डालने पर हुआ था। वह शक्ति दृष्टि से इधर-उधर देखने लगा।
धनराम की संकोच, असमंजस और धर्म संकट की स्थिति से उदासीन मोहन संतुष्ट भाव से अपने लोहे के छल्ले की त्रुटिहीन गोलाई को जाँच रहा था। उसने धनराम की और अपनी कारीगरी की स्वीकृति पाने की मुद्रा में देखा। उसकी आँखों में एक सर्जक की चमक थी—जिसमें न स्पर्धा थी और न ही किसी प्रकार की हार-जीत का भाव।
mohan ke pair anayas hi shilpakar tole ki or muD ge. uske man ke kisi kone mein shayad dhanram luhar ke aufar ki wo anugunj shesh thi jise wo pichhle teen chaar dinon se dukan ki or jate hue door se sunta raha tha. nihai par rakhe laal garm lohe par paDti hathauDe ki dhap dhap avaz, thanDe lohe par lagti chot se uthta unakta svar aur nishana sadhne se pahle khali nihai par paDti hathauDi ki khanak jinhen wo door se hi pahchan sakta tha.
lambe bentvale hansuve ko lekar wo ghar se is uddeshya se nikla tha ki apne kheton ke kinare ug aai kantedar jhaDiyon ko kaat chhantakar saaf kar ayega. buDhe vanshidhar ji ke bute ka ab ye sab kaam nahin raha. yahi kya, janm bhar jis purohitai ke bute par unhonne ghar sansar chalaya tha, wo bhi ab vaise kahan kar pate hain! yajman log unki nishtha aur sanyam ke karan hi unpar shraddha rakhte hain lekin buDhape ka jarjar sharir ab utna kathin shram aur vart upvaas nahin jhel pata. subah subah jaise usse sahara pane ki niyat se hi unhonne gahra niःshvas lekar kaha tha—
aaj gannath jakar chandrdatt ji ke liye rudripath karna tha, ab mushkil hi lag raha hai. ye do meel ki sidhi chaDhai ab apne bute ki nahin. ekayek na bhi nahin kaha ja sakta, kuch samajh mein nahin ata!
mohan unka ashay na samajhta ho aisi baat nahin lekin pita ki tarah aise anushthan kar pane ka na use abhyas hi hai aur na vaisi gati. pita ki baten sunkar bhi usne unka bhaar halka karne ka koi sujhav nahin diya. jaise hava mein baat kah di gai thi vaise hi anuttarit rah gai.
pita ka bhaar halka karne ke liye wo kheton ki or chala tha lekin hansuve ki dhaar par haath pherte hue use laga wo puri tarah kund ho chuki hai.
dhanram apne bayen haath se dhaunkni phunkta hua dayen haath se bhatthi mein garam hote lohe ko ulat palat raha tha aur mohan bhatthi se door hatkar ek khali kanistar ke uupar baitha uski karigari ko parkhi nigahon se dekh raha tha.
mastar trilok sinh to ab guzar ge honge, mohan ne puchha.
ve donon ab apne bachpan ki duniya mein laut aaye the. dhanram ki ankhon mein ek chamak si aa gai. wo bola, massab bhi kya adami the lala! abhi pichhle saal ho guzre. sach kahun, akhiri dam tak unki chhaDi ka Dar laga hi rahta tha.
donon ho ho kar hans diye. kuch kshnon ke liye ve donon hi jaise kisi biti hui duniya mein laut ge.
. . . gopal sinh ki dukan se hukke ka akhiri kash khinchkar trilok sinh skool ki chaharadivari mein utarte hain.
thoDi der pahle tak dhamachaukDi machate, utha patak karte aur baanj ke peDon ki tahaniyon par jhulte bachchon ko jaise saanp soongh gaya hai. kaDe svar mein wo puchhte hain, ‘pararthna kar li tum logon ne?’
ye jante hue bhi ki yadi pararthna ho gai hoti to gopal sinh ki dukan tak unka samvet svar pahunchta hi, trilok sinh ghoor ghurkar ek ek laDke ko dekhte hain. phir vahi kaDakdar avaz, mohan nahin aaya aaj?’
mohan unka chaheta shishya tha. purohit khandan ka kushagr buddhi ka balak paDhne mein hi nahin, gayan mein bhi bejoD. trilok sinh mastar ne use pure skool ka maunitar bana rakha tha. vahin subah subah he prbho ananddata! gyaan hamko dijiye. ka pahla svar uthakar pararthna shuru karta tha.
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‘pakaD iska kaan, aur lagva isse das uthak baithak,’ ve adesh de dete. dhanram bhi un anek chhatron mein se ek tha jisne trilok sinh mastar ke adesh par apne hamjoli mohan ke hathon kai baar bent khaye the ya kaan khinchvaye the. mohan ke prati thoDi bahut iirshya rahne par bhi dhanram prarambh se hi uske prati sneh aur aadar ka bhaav rakhta tha. iska ek karan shayad ye tha ki bachpan se hi man mein baitha di gai jatigat hinta ke karan dhanram ne kabhi mohan ko apna prtidvandvi nahin samjha balki wo ise mohan ka adhikar hi samajhta raha tha. beech beech mein trilok sinh mastar ka ye kahna ki mohan ek din bahut baDa adami bankar skool ka aur unka naam uncha karega, dhanram ke liye kisi aur tarah se sochne ki gunjaish hi nahin rakhta tha.
aur dhanram! wo gaanv ke dusre khetihar ya mazdur parivaron ke laDkon ki tarah kisi prakar tisre darje tak hi skool ka munh dekh paya tha. trilok sinh mastar kabhi kabhar hi us par vishesh dhyaan dete the. ek din achanak hi unhonne poochh liya tha, dhanuvan! terah ka pahaDa suna to!’
barah tak ka pahaDa to usne kisi tarah yaad kar liya tha lekin terah ka hi pahaDa uske liye pahaD ho gaya tha.
‘terai ek terai
terai duni chaubis’
satak! ek sati uski pinDaliyon par massab ne lagai thi ki wo toot gai. ghusse mein unhonne adesh diya, ja! nale se ek achchhi mazbut santi toDkar la, phir tujhe terah ka pahaDa yaad karata hoon. ’
trilok sinh mastar ka ye samanya niyam tha. saza pane vale ko hi apne liye hathiyar bhi jutana hota tha; aur zahir hai, bali ka bakra apne se adhik mastar ke santosh ko dhyaan mein rakhkar tahni ka chunav aise karta jaise wo apne liye nahin balki kisi dusre ko danDit karne ke liye hathiyar ka chunav kar raha ho.
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vanshidhar ko jaise ramesh ke roop mein sakshat bhagvan mil ge hon. unki ankhon mein pani chhalachhlane laga. bhare gale se ve keval itna hi kah pae ki biradri ka yahi sahara hota hai.
chhuttiyan shesh hone par ramesh vapis lauta to maan baap aur apni gaanv ki duniya se bichhuDkar sahma sahma sa mohan bhi uske saath lakhanuu aa pahuncha. ab mohan ki zindagi ka ek naya adhyay shuru hua. ghar ki donon mahilaon, jinhen wo chachi aur bhabhi kah kar pukarta tha, ka haath bantane ke alava dhire dhire wo muhalle ki sabhi chachiyon aur bhabhiyon ke liye kaam kaaj mein haath bantane ka sadhan ban gaya.
mohan! thoDa dahi to la de bazar se.
mohan! ye kapDe dhobi ko de to aa.
mohan! ek kilo aalu to la de.
ausat daftri baDe babu ki haisiyat vale ramesh ke liye mohan ko apna bhai biradar batlana apne samman ke viruddh jaan paDta tha aur use gharelu naukar se adhik haisiyat wo nahin deta tha, is baat ko mohan bhi samajhne laga tha. thoDi bahut hila havali karne ke baad ramesh ne nikat ke hi ek sadharan se skool mein uska naam likhva diya. lekin ekdam ne vatavran aur raat din ke kaam ke bojh ke karan gaanv ka wo medhavi chhaatr shahr ke skuli jivan mein apni koi pahchan nahin bana paya. uska jivan ek bandhi bandhai leek par chalta raha. saal mein ek baar garamiyon ki chhutti mein gaanv jane ka mauqa bhi tabhi milta jab ramesh ya uske ghar ka koi prani gaanv jane vala hota varna un chhuttiyon ko bhi agle darje ki taiyari ke naam par use shahr mein hi guzar dena paDta tha. agle darje ki taiyari to bahana bhar thi, saval ramesh aur uski grihasthi ki suvidha asuvidha ka tha. mohan ne paristhitiyon se samjhauta kar liya tha kyonki aur koi chara bhi nahin tha. gharvalon ko apni vastavik sthiti batlakar wo dukhi nahin karna chahta tha. vanshidhar uske sunahre bhavishya ke sapne dekh rahe the.
athvin kaksha ki paDhai samapt kar chhuttiyon mein mohan gaanv aaya hua tha. jab wo lautkar lakhanuu pahuncha to usne anubhav kiya ki ramesh ke parivar ke sabhi log jaise uski aage ki paDhai ke paksh mein nahin hain. baat ghoom phirkar jis or se uthti wo isi mudde par zarur khatm ho jati ki hazaron lakhon bi. e., em. e. mare mare bekar phir rahe hain. aisi paDhai se achchha to adami koi haath ka kaam seekh le. ramesh ne apne kisi parichit ke prabhav se use ek takniki skool mein bharti kara diya. mohan ki dincharya mein koi vishesh antar nahin aaya tha. wo pahle ki tarah skool aur gharelu kaam kaaj mein vyast rahta. dhire dhire DeDh do varsh ka ye samay bhi beet gaya aur mohan apne pairon par khaDa hone ke liye karkhanon aur faiktariyon ke chakkar lagane laga.
vanshidhar se jab bhi koi mohan ke vishay mein puchhta to ve utsaah ke saath uski paDhai ki babat batane lagte aur man hi man unko vishvas tha ki wo ek din baDa afsar bankar lautega. lekin jab unhen vastavikta ka gyaan hua to na sirf gahra duhakh hua balki ve logon ko apne svapnbhang ki jankari dene ka sahas nahin juta pae.
dhanram ne bhi ek din unse mohan ke bare mein puchha tha. ghaas ka ek tinka toDkar daant khodte hue unhonne bataya tha ki uski sekreteriyat mein niyukti ho gai hai aur sheeghr hi vibhagiy parikshayen dekar wo baDe pad par pahunch jayega. dhanram ko trilok sinh mastar ki bhavishyvani par pura yaqin tha—aisa hona hi tha usne socha. danton ke beech mein tinka dabakar asatya bhashan ka dosh na lagne ka santosh lekar vanshidhar aage baDh ge the. dhanram ke shabd, mohan lala bachpan se hi baDe buddhiman the’, unhen bahut der tak kachotte rahe.
trilok sinh mastar ki baton ke saath saath bachpan se lekar ab tak ke jivan ke kai prsangon par mohan aur dhanram baten karte rahe. dhanram ne mohan ke hansuve ke phaal ko bent se nikalkar bhatti mein tapaya aur man lagakar uski dhaar gaDh di. garam lohe ko hava mein thanDa hone mein kafi samay lag gaya tha, dhanram ne use vapis bent pahnakar mohan ko lautate hue jaise apni bhool chook ke liye mafi mangi ho—
bechare panDit ji ko to fursat nahin rahti lekin kisi ke haath bhijva dete to main tatkal bana deta.
mohan ne uttar mein kuch nahin kaha lekin hansuve ko haath mein lekar wo phir vahin baitha raha jaise use vapis jane ki koi jaldi na rahi ho.
samanya taur se brahman tole ke logon ka shilpakar tole mein uthna baithna nahin hota tha. kisi kaam kaaj ke silsile mein yadi shilpakar tole mein aana hi paDa to khaDe khaDe batachit nipta li jati thi. brahman tole ke logon ko baithne ke liye kahna bhi unki maryada ke viruddh samjha jata tha. pichhle kuch varshon se shahr mein ja rahne ke bavjud mohan gaanv ki in manytaon se aprichit ho aisa sambhav nahin tha. dhanram man hi man uske vyvahar se asmanjas mein paDa tha lekin prakat mein usne kuch nahin kaha aur apna kaam karta raha.
lohe ki ek moti chhaD ko bhatti mein galakar dhanram golai mein moDne ki koshish kar raha tha. ek haath se sanDasi pakaDkar jab wo dusre haath se hathauDe ki chot marta to nihai theek ghaat mein sira na phansne ke karan loha uchit Dhang se muD nahin pa raha tha. mohan kuch der tak use kaam karte hue dekhta raha phir jaise apna sankoch tyagkar usne dusri pakaD se lohe ko sthir kar liya aur dhanram ke haath se hathauDa lekar napi tuli chot marte, abhyast hathon se dhaunkni phunkakar lohe ko dubara bhatti mein garam karte aur phir nihai par rakhkar use thokte pitte sughaD gole ka roop de Dala.
mohan ka ye hastakshep itni furti aur akasmik Dhang se hua tha ki dhanram ko chook ka mauqa hi nahin mila. wo avak mohan ki or dekhta raha. use mohan ki karigari par utna ashcharya nahin hua jitna purohit khandan ke ek yuvak ka is tarah ke kaam mein, uski bhatti par baithkar, haath Dalne par hua tha. wo shakti drishti se idhar udhar dekhne laga.
dhanram ki sankoch, asmanjas aur dharm sankat ki sthiti se udasin mohan santusht bhaav se apne lohe ke chhalle ki trutihin golai ko jaanch raha tha. usne dhanram ki aur apni karigari ki svikriti pane ki mudra mein dekha. uski ankhon mein ek sarjak ki chamak thee— jismen na spardha thi aur na hi kisi prakar ki haar jeet ka bhaav.
mohan ke pair anayas hi shilpakar tole ki or muD ge. uske man ke kisi kone mein shayad dhanram luhar ke aufar ki wo anugunj shesh thi jise wo pichhle teen chaar dinon se dukan ki or jate hue door se sunta raha tha. nihai par rakhe laal garm lohe par paDti hathauDe ki dhap dhap avaz, thanDe lohe par lagti chot se uthta unakta svar aur nishana sadhne se pahle khali nihai par paDti hathauDi ki khanak jinhen wo door se hi pahchan sakta tha.
lambe bentvale hansuve ko lekar wo ghar se is uddeshya se nikla tha ki apne kheton ke kinare ug aai kantedar jhaDiyon ko kaat chhantakar saaf kar ayega. buDhe vanshidhar ji ke bute ka ab ye sab kaam nahin raha. yahi kya, janm bhar jis purohitai ke bute par unhonne ghar sansar chalaya tha, wo bhi ab vaise kahan kar pate hain! yajman log unki nishtha aur sanyam ke karan hi unpar shraddha rakhte hain lekin buDhape ka jarjar sharir ab utna kathin shram aur vart upvaas nahin jhel pata. subah subah jaise usse sahara pane ki niyat se hi unhonne gahra niःshvas lekar kaha tha—
aaj gannath jakar chandrdatt ji ke liye rudripath karna tha, ab mushkil hi lag raha hai. ye do meel ki sidhi chaDhai ab apne bute ki nahin. ekayek na bhi nahin kaha ja sakta, kuch samajh mein nahin ata!
mohan unka ashay na samajhta ho aisi baat nahin lekin pita ki tarah aise anushthan kar pane ka na use abhyas hi hai aur na vaisi gati. pita ki baten sunkar bhi usne unka bhaar halka karne ka koi sujhav nahin diya. jaise hava mein baat kah di gai thi vaise hi anuttarit rah gai.
pita ka bhaar halka karne ke liye wo kheton ki or chala tha lekin hansuve ki dhaar par haath pherte hue use laga wo puri tarah kund ho chuki hai.
dhanram apne bayen haath se dhaunkni phunkta hua dayen haath se bhatthi mein garam hote lohe ko ulat palat raha tha aur mohan bhatthi se door hatkar ek khali kanistar ke uupar baitha uski karigari ko parkhi nigahon se dekh raha tha.
mastar trilok sinh to ab guzar ge honge, mohan ne puchha.
ve donon ab apne bachpan ki duniya mein laut aaye the. dhanram ki ankhon mein ek chamak si aa gai. wo bola, massab bhi kya adami the lala! abhi pichhle saal ho guzre. sach kahun, akhiri dam tak unki chhaDi ka Dar laga hi rahta tha.
donon ho ho kar hans diye. kuch kshnon ke liye ve donon hi jaise kisi biti hui duniya mein laut ge.
. . . gopal sinh ki dukan se hukke ka akhiri kash khinchkar trilok sinh skool ki chaharadivari mein utarte hain.
thoDi der pahle tak dhamachaukDi machate, utha patak karte aur baanj ke peDon ki tahaniyon par jhulte bachchon ko jaise saanp soongh gaya hai. kaDe svar mein wo puchhte hain, ‘pararthna kar li tum logon ne?’
ye jante hue bhi ki yadi pararthna ho gai hoti to gopal sinh ki dukan tak unka samvet svar pahunchta hi, trilok sinh ghoor ghurkar ek ek laDke ko dekhte hain. phir vahi kaDakdar avaz, mohan nahin aaya aaj?’
mohan unka chaheta shishya tha. purohit khandan ka kushagr buddhi ka balak paDhne mein hi nahin, gayan mein bhi bejoD. trilok sinh mastar ne use pure skool ka maunitar bana rakha tha. vahin subah subah he prbho ananddata! gyaan hamko dijiye. ka pahla svar uthakar pararthna shuru karta tha.
mohan ko lekar mastar trilok sinh ko baDi ummiden theen. kaksha mein kisi chhaatr ko koi saval na aane par vahi saval ve mohan se puchhte aur unka anuman sahi nikalta. mohan theek theek uttar dekar unhen santusht kar deta aur tab ve us phisaDDi balak ko danD dene ka bhaar mohan par Daal dete.
‘pakaD iska kaan, aur lagva isse das uthak baithak,’ ve adesh de dete. dhanram bhi un anek chhatron mein se ek tha jisne trilok sinh mastar ke adesh par apne hamjoli mohan ke hathon kai baar bent khaye the ya kaan khinchvaye the. mohan ke prati thoDi bahut iirshya rahne par bhi dhanram prarambh se hi uske prati sneh aur aadar ka bhaav rakhta tha. iska ek karan shayad ye tha ki bachpan se hi man mein baitha di gai jatigat hinta ke karan dhanram ne kabhi mohan ko apna prtidvandvi nahin samjha balki wo ise mohan ka adhikar hi samajhta raha tha. beech beech mein trilok sinh mastar ka ye kahna ki mohan ek din bahut baDa adami bankar skool ka aur unka naam uncha karega, dhanram ke liye kisi aur tarah se sochne ki gunjaish hi nahin rakhta tha.
aur dhanram! wo gaanv ke dusre khetihar ya mazdur parivaron ke laDkon ki tarah kisi prakar tisre darje tak hi skool ka munh dekh paya tha. trilok sinh mastar kabhi kabhar hi us par vishesh dhyaan dete the. ek din achanak hi unhonne poochh liya tha, dhanuvan! terah ka pahaDa suna to!’
barah tak ka pahaDa to usne kisi tarah yaad kar liya tha lekin terah ka hi pahaDa uske liye pahaD ho gaya tha.
‘terai ek terai
terai duni chaubis’
satak! ek sati uski pinDaliyon par massab ne lagai thi ki wo toot gai. ghusse mein unhonne adesh diya, ja! nale se ek achchhi mazbut santi toDkar la, phir tujhe terah ka pahaDa yaad karata hoon. ’
trilok sinh mastar ka ye samanya niyam tha. saza pane vale ko hi apne liye hathiyar bhi jutana hota tha; aur zahir hai, bali ka bakra apne se adhik mastar ke santosh ko dhyaan mein rakhkar tahni ka chunav aise karta jaise wo apne liye nahin balki kisi dusre ko danDit karne ke liye hathiyar ka chunav kar raha ho.
dhanram ki mandbuddhi rahi ho ya man mein baitha hua Dar ki pure din ghota lagane par bhi use terah ka pahaDa yaad nahin ho paya tha. chhutti ke samay jab massab ne usse dubara pahaDa sunane ko kaha to tisri siDhi tak pahunchte pahunchte wo phir laDkhaDa gaya tha. lekin is baar mastar trilok sinh ne uske laye hue bent ka upyog karne ki bajay zaban ki chabuk laga di thi, tere dimagh mein to loha bhara hai re! vidya ka taap kahan lagega ismen? apne thaile se paanch chhah darantiyan nikalkar unhonne dhanram ko dhaar laga lane ke liye pakDa di theen. kitabon ki vidya ka taap lagane ki samarthya dhanram ke pita ki nahin thi. dhanram haath pair chalane layaq hua hi tha ki baap ne use dhaunkni phunkne ya saan lagane ke kamon mein uljhana shuru kar diya aur phir dhire dhire hathauDe se lekar ghan chalane ki vidya sikhane laga. farq itna hi tha ki jahan mastar trilok sinh use apni pasand ka bent chunne ki chhoot de dete the vahan gangaram iska chunav svayan karte the aur zara—si ghalati hone par chhaD, bent, hattha jo bhi haath lag jata usi se apna parsad de dete. ek din gangaram achanak chal base to dhanram ne sahj bhaav se unki virasat sanbhal li aur paas paDos ke gaanv valon ko yaad nahin raha ve kab gangaram ke aufar ko dhanram ka aufar kahne lage the.
praimri skool ki sima langhate hi mohan ne chhatrvritti praapt kar trilok sinh mastar ki bhavishyvani ko kisi had tak siddh kar diya to sadharan haisiyat vale yajmanon ki purohitai karne vale vanshidhar tivari ka hausla baDh gaya aur ve bhi apne putr ko paDha likhakar baDa adami banane ka svapn dekhne lage. piDhiyon se chale aate paitrik dhandhe ne unhen nirash kar diya tha. daan dakshina ke bute par ve kisi tarah parivar ka aadha pet bhar pate the. mohan paDh likhkar vansh ka daridrya mita de ye unki hardik ichchha thi. lekin ichchha hone bhar se hi sab kuch nahin ho jata. aage ki paDhai ke liye jo skool tha wo gaanv se chaar meel door tha. do meel ki chaDhai ke alava barsat ke mausam mein raste mein paDne vali nadi ki samasya alag thi. to bhi vanshidhar ne himmat nahin hari aur laDke ka naam skool mein likha diya. balak mohan lamba rasta tay kar skool jata aur chhutti ke baad thaka manda ghar lautta to pita puranon ki kathaon se vidyavyasni balkon ka udahran dekar use utsahit karne ki koshish karte rahte.
varsha ke dinon mein nadi paar karne ki kathinai ko dekhte hue vanshidhar ne nadi paar ke gaanv mein ek yajman ke ghar par mohan ka Dera tay kar diya tha. ghar ke anya bachchon ki tarah mohan kha pikar skool jata aur chhuttiyon mein nadi utaar par hone par gaanv laut aata tha. sanyog ki baat, ek baar chhutti ke pahle din jab nadi ka pani utaar par hi tha aur mohan kuch ghasiyaron ke saath nadi paar kar ghar aa raha tha to pahaDi ke dusri or bhari varsha hone ke karan achanak nadi ka pani baDh gaya. pahle nadi ki dhara mein jhaaD jhankhaD aur paat patel aane shuru hue to anubhvi ghasiyaron ne tezi se pani ko katkar aage baDhne ki koshish ki lekin kinare pahunchte na pahunchte matamaile pani ka rela un tak aa hi pahuncha. ve log kisi prakar sakushal is paar pahunchne mein saphal ho sake. is ghatna ke baad vanshidhar ghabra ge aur bachche ke bhavishya ko lekar chintit rahne lage.
biradri ke ek sampann parivar ka yuvak ramesh un dinon lakhanuu se chhuttiyon mein gaanv aaya hua tha. baton baton mein vanshidhar ne mohan ki paDhai ke sambandh mein usse apni chinta prakat ki to usne na keval apni sahanubhuti jatlai balki unhen sujhav diya ki ve mohan ko uske saath hi lakhanuu bhej den. ghar mein jahan chaar prani hain ek aur baDh jane mein koi antar nahin paDta, balki baDe shahr mein rahkar wo achchhi tarah paDh likh sakega.
vanshidhar ko jaise ramesh ke roop mein sakshat bhagvan mil ge hon. unki ankhon mein pani chhalachhlane laga. bhare gale se ve keval itna hi kah pae ki biradri ka yahi sahara hota hai.
chhuttiyan shesh hone par ramesh vapis lauta to maan baap aur apni gaanv ki duniya se bichhuDkar sahma sahma sa mohan bhi uske saath lakhanuu aa pahuncha. ab mohan ki zindagi ka ek naya adhyay shuru hua. ghar ki donon mahilaon, jinhen wo chachi aur bhabhi kah kar pukarta tha, ka haath bantane ke alava dhire dhire wo muhalle ki sabhi chachiyon aur bhabhiyon ke liye kaam kaaj mein haath bantane ka sadhan ban gaya.
mohan! thoDa dahi to la de bazar se.
mohan! ye kapDe dhobi ko de to aa.
mohan! ek kilo aalu to la de.
ausat daftri baDe babu ki haisiyat vale ramesh ke liye mohan ko apna bhai biradar batlana apne samman ke viruddh jaan paDta tha aur use gharelu naukar se adhik haisiyat wo nahin deta tha, is baat ko mohan bhi samajhne laga tha. thoDi bahut hila havali karne ke baad ramesh ne nikat ke hi ek sadharan se skool mein uska naam likhva diya. lekin ekdam ne vatavran aur raat din ke kaam ke bojh ke karan gaanv ka wo medhavi chhaatr shahr ke skuli jivan mein apni koi pahchan nahin bana paya. uska jivan ek bandhi bandhai leek par chalta raha. saal mein ek baar garamiyon ki chhutti mein gaanv jane ka mauqa bhi tabhi milta jab ramesh ya uske ghar ka koi prani gaanv jane vala hota varna un chhuttiyon ko bhi agle darje ki taiyari ke naam par use shahr mein hi guzar dena paDta tha. agle darje ki taiyari to bahana bhar thi, saval ramesh aur uski grihasthi ki suvidha asuvidha ka tha. mohan ne paristhitiyon se samjhauta kar liya tha kyonki aur koi chara bhi nahin tha. gharvalon ko apni vastavik sthiti batlakar wo dukhi nahin karna chahta tha. vanshidhar uske sunahre bhavishya ke sapne dekh rahe the.
athvin kaksha ki paDhai samapt kar chhuttiyon mein mohan gaanv aaya hua tha. jab wo lautkar lakhanuu pahuncha to usne anubhav kiya ki ramesh ke parivar ke sabhi log jaise uski aage ki paDhai ke paksh mein nahin hain. baat ghoom phirkar jis or se uthti wo isi mudde par zarur khatm ho jati ki hazaron lakhon bi. e., em. e. mare mare bekar phir rahe hain. aisi paDhai se achchha to adami koi haath ka kaam seekh le. ramesh ne apne kisi parichit ke prabhav se use ek takniki skool mein bharti kara diya. mohan ki dincharya mein koi vishesh antar nahin aaya tha. wo pahle ki tarah skool aur gharelu kaam kaaj mein vyast rahta. dhire dhire DeDh do varsh ka ye samay bhi beet gaya aur mohan apne pairon par khaDa hone ke liye karkhanon aur faiktariyon ke chakkar lagane laga.
vanshidhar se jab bhi koi mohan ke vishay mein puchhta to ve utsaah ke saath uski paDhai ki babat batane lagte aur man hi man unko vishvas tha ki wo ek din baDa afsar bankar lautega. lekin jab unhen vastavikta ka gyaan hua to na sirf gahra duhakh hua balki ve logon ko apne svapnbhang ki jankari dene ka sahas nahin juta pae.
dhanram ne bhi ek din unse mohan ke bare mein puchha tha. ghaas ka ek tinka toDkar daant khodte hue unhonne bataya tha ki uski sekreteriyat mein niyukti ho gai hai aur sheeghr hi vibhagiy parikshayen dekar wo baDe pad par pahunch jayega. dhanram ko trilok sinh mastar ki bhavishyvani par pura yaqin tha—aisa hona hi tha usne socha. danton ke beech mein tinka dabakar asatya bhashan ka dosh na lagne ka santosh lekar vanshidhar aage baDh ge the. dhanram ke shabd, mohan lala bachpan se hi baDe buddhiman the’, unhen bahut der tak kachotte rahe.
trilok sinh mastar ki baton ke saath saath bachpan se lekar ab tak ke jivan ke kai prsangon par mohan aur dhanram baten karte rahe. dhanram ne mohan ke hansuve ke phaal ko bent se nikalkar bhatti mein tapaya aur man lagakar uski dhaar gaDh di. garam lohe ko hava mein thanDa hone mein kafi samay lag gaya tha, dhanram ne use vapis bent pahnakar mohan ko lautate hue jaise apni bhool chook ke liye mafi mangi ho—
bechare panDit ji ko to fursat nahin rahti lekin kisi ke haath bhijva dete to main tatkal bana deta.
mohan ne uttar mein kuch nahin kaha lekin hansuve ko haath mein lekar wo phir vahin baitha raha jaise use vapis jane ki koi jaldi na rahi ho.
samanya taur se brahman tole ke logon ka shilpakar tole mein uthna baithna nahin hota tha. kisi kaam kaaj ke silsile mein yadi shilpakar tole mein aana hi paDa to khaDe khaDe batachit nipta li jati thi. brahman tole ke logon ko baithne ke liye kahna bhi unki maryada ke viruddh samjha jata tha. pichhle kuch varshon se shahr mein ja rahne ke bavjud mohan gaanv ki in manytaon se aprichit ho aisa sambhav nahin tha. dhanram man hi man uske vyvahar se asmanjas mein paDa tha lekin prakat mein usne kuch nahin kaha aur apna kaam karta raha.
lohe ki ek moti chhaD ko bhatti mein galakar dhanram golai mein moDne ki koshish kar raha tha. ek haath se sanDasi pakaDkar jab wo dusre haath se hathauDe ki chot marta to nihai theek ghaat mein sira na phansne ke karan loha uchit Dhang se muD nahin pa raha tha. mohan kuch der tak use kaam karte hue dekhta raha phir jaise apna sankoch tyagkar usne dusri pakaD se lohe ko sthir kar liya aur dhanram ke haath se hathauDa lekar napi tuli chot marte, abhyast hathon se dhaunkni phunkakar lohe ko dubara bhatti mein garam karte aur phir nihai par rakhkar use thokte pitte sughaD gole ka roop de Dala.
mohan ka ye hastakshep itni furti aur akasmik Dhang se hua tha ki dhanram ko chook ka mauqa hi nahin mila. wo avak mohan ki or dekhta raha. use mohan ki karigari par utna ashcharya nahin hua jitna purohit khandan ke ek yuvak ka is tarah ke kaam mein, uski bhatti par baithkar, haath Dalne par hua tha. wo shakti drishti se idhar udhar dekhne laga.
dhanram ki sankoch, asmanjas aur dharm sankat ki sthiti se udasin mohan santusht bhaav se apne lohe ke chhalle ki trutihin golai ko jaanch raha tha. usne dhanram ki aur apni karigari ki svikriti pane ki mudra mein dekha. uski ankhon mein ek sarjak ki chamak thee— jismen na spardha thi aur na hi kisi prakar ki haar jeet ka bhaav.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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