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मोची

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जॉन गाल्सवर्दी

और अधिकजॉन गाल्सवर्दी

    मैं उसे तब से जानता था, जब मैं बहुत छोटा था। वह मेरे पिताजी के जूते बनाता था। अपने बड़े भाई के साथ वह रहता था। छोटी-सी एक गली में दो दुकानों को मिलाकर एक दुकान में बदल दिया गया था, पर अब वह दुकान नहीं रही, उसकी जगह एक बेहद आधुनिक दुकान खड़ी हो गई है।

    उसकी कारीगरी में कुछ ख़ास बात थी। शाही परिवारों के लिए बनाए गए किसी भी जूते की जोड़ी पर कोई चिन्ह अंकित नहीं होता था सिवाए, उनके अपने जर्मन नाम के गेस्लर ब्रदर्स; और खिड़की पर जूतों की केवल कुछ जोड़ियाँ रखी रहती। मुझे याद है खिड़की पर एक ही तरह की जोड़ियों को हर बार देखना मुझे खलता था, क्योंकि वह ऑर्डर के मुताबिक ही जूते बनाता था—न कम ज़्यादा। उसके बनाए जूतों के बारे में यह सोचना अकल्पनीय था कि वे पाँव में ठीक से नहीं बैठेंगे। तो क्या खिड़की पर रखे जूते उसने ख़रीदे थे। यह सोचना भी कल्पना से परे था? वह अपने घर में ऐसा कोई चमड़ा रखना सहन नहीं करता था, जिस पर वह ख़ुद काम करे। इसके अलावा, पंप शू का वह जोड़ा बेहद ख़ूबसूरत था, इतना शानदार कि बयान करना मुश्किल था। वह असली चमड़े का था। जिसकी ऊपरी तह कपड़े की थी। उन्हें देख कर ही जी ललचाने लगता था। ऊँचे-ऊँचे भूरे चमकदार जूते, हालाँकि नए थे पर लगता मानों सैकड़ों बरसों से पहने जा रहे हों, ऐसे जूते केवल वही बना सकता था, जो जूतों की आत्मा को देख लेता हो—वाक़ई जूतों का वह जोड़ा एक आदर्श नमूना था, मानों सारे जूतों की आत्मा उसमें अवतरित हो गई हो।

    दरअसल ये सारे ख़याल मुझे बाद में आए, हालाँकि जब मैं केवल चौदह बरस का था, तब से उसे जानता था और तभी से मेरे मन में उसके और उसके भाई के प्रति आदर की भावना थी। ऐसे जूते बनाना—जैसे वह बनाता था—तब भी और अब भी मेरे लिए एक अजूबा और अचरज की तरह था।

    मुझे बख़ूबी याद है, एक दिन मैंने अपना छोटा-सा पैर आगे बढ़ाकर शर्माते हुए उससे पूछा था—“मिस्टर गेस्लर क्या यह बहुत मुश्किल काम नहीं है।”

    जवाब देते वक़्त ललाई से भरी उसकी कर्कश दाढ़ी से एक मुस्कान उभर आई थी, “हाँ यह मुश्किल काम है!”

    नाटा-सा वह आदमी मानो ख़ुद भी चमड़े से बनाया गया हो, उसका पीला झुर्रियों भरा चेहरा और ललाई लिए हुए घुँघराले बाल और दाढ़ी, गालों से उसके मुँह तक गोलाई में आती हुई चेहरे की स्पष्ट रेखाएँ; कंठ से निकली एकरस भारी आवाज़। चमड़ा एक अवज्ञापूर्ण चीज़ है— कठोर और धीरे-धीरे आकार लेने वाली। उसके चेहरे की भी कुछ यही ख़ासियत थी—अपने आदर्श को अपने भीतर संजोए हुए, महज उसकी आँखों को छोड़, जो भूरी नीली थीं और जिनमें एक सादगी भरी गहराई थी।

    उसका बड़ा भाई भी क़रीब-क़रीब उसी के समान था, हालाँकि अधिक तरल, ज़्यादा ज़र्दी लिए हुए। शुरूआत में मेरे लिए फ़र्क़ कर पाना मुश्किल था। फिर मुझे समझ गया। जब कभी मैं अपने भाई से पूछूँगा, ऐसा नहीं कहा जाता तो मैं जानता था कि यह वही है और जब ये शब्द कहे जाते तो यक़ीनन वह उसका बड़ा भाई होता।

    कई बार बरसों बीत जाते और बिल बढ़ते जाते, पर गेस्लर बंधुओं की रक़म को कोई बक़ाया नहीं रखता था। ऐसा कभी नहीं होता कि उस नीले फ़्रेम के चश्मे वाले बूटमेकर का किसी पर दो जोड़ियों से अधिक का पैसा बक़ाया हो। उसके पास जाना एक सुखद आश्वासन था कि हम अभी भी उसके ग्राहक हैं।

    उसके पास बार-बार जाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि उसके बनाए जूते बहुत टिकाऊ होते थे, उनका कोई सानी नहीं था। वे जूते ऐसे होते, मानों जूतों की आत्मा उनके भीतर सिल दी गई हो।

    वहाँ जाना किसी आम ख़रीदारी जैसा नहीं था। ऐसा नहीं था कि आप दुकान में घुसे और बस कहने लगें कि “ज़रा मुझे यह दिखाओ” या “ठीक है” कहकर उठे और चल दिए। यहाँ पूरे इत्मीनान के साथ जाना होता था, ठीक जैसे किसी गिरजाघर में प्रवेश करते हों, फिर उसकी एकमात्र काठ की कुर्सी पर बैठकर इंतज़ार करें, क्योंकि उस वक़्त वहाँ कोई नहीं होता। जल्दी ही चमड़े की भीनी गंध और अंधकार से भरी ऊपर की कुँएनुमा कोठरी से उसका या उसके बड़े भाई का चेहरा नीचे की ओर झाँकता। एक भारी भरकम आवाज़ और लकड़ी की संकरी सीढ़ियों से चप्पलों की छप्-छप् सुनाई देती, फिर वह आपके सामने खड़ा होता बिना कोट के थोड़ा झुका-झुका सा, चमड़े का एप्रेन पहने, आस्तीन ऊपर चढ़ाए, आँख झपझपाता मानो, उसे जूतों के किसी स्वप्न से जगाया गया हो या जैसे वह उल्लू की तरह दिन की रोशनी से चकित और इस व्यवधान से झुँझलाया हुआ हो।

    मैं उससे पूछता, “कैसे हो भाई गैस्लर? क्या तुम मेरे लिए रूसी चमड़े के एक जोड़ी जूते बना दोगे?”

    बग़ैर कुछ कहे वह दुकान के भीतर चला जाता और मैं उसी लकड़ी की कुर्सी पर आराम से बैठ उसके पेशे की गंध अपनी साँसों में उतारता रहता। कुछ ही देर बाद वह लौटता। उसके दुबले, उभरी नसों वाले हाथ में सुनहरे भूरे रंग के चमड़े का टुकड़ा होता। उसकी आँखें उसी पर गड़ी रहतीं और वह कहता—“कितना सुंदर टुकड़ा है!” जब मैं भी उसकी तारीफ़ कर चुका होता तो वह पूछता—“आपको जूते कब तक चाहिए?” और मैं कहता: “ओह बिना किसी दिक़्क़त के जितनी जल्दी तुम बनाकर दे सको” और वह पूछता “कल दोपहर?” या अगर उसका बड़ा भाई होता तो कहता—“मैं अपने भाई से पूछूँगा!”

    फिर मैं धीमे से कहता—“शुक्रिया मिस्टर गेस्लर, चलता हूँ, नमस्ते!”

    “नमस्ते!” वह कहता पर उसकी नज़रें हाथ में थमे चमड़े पर ही टिकी रहतीं। मैं उसके दरवाज़े की तरफ़ मुड़ता, मुझे सीढ़ियाँ चढ़ते उसकी चप्पलों की आवाज़ सुनाई देती, जो उसे जूतों की उसी ख़्वाबों की दुनिया में ले जाती, पर यदि ऐसा कोई नया जूता बनवाना हो, जो उसने अभी तक मेरे लिए बनाया होता तो वह जैसे एक बड़े अनुष्ठान में लग जाता। मुझे मेरे जूते से विमुख कर देर तक उसे हाथ में पकड़े रहता। लगातार स्नेह भरी पारखी नज़रों से निहारता रहता, मानों उस घड़ी को याद करने की कोशिश कर रहा हो, जब जतन से उन्हें बनाया गया था। उसके हाव-भाव में एक उलाहना भी होता कि आख़िर किसने इतने उत्कृष्ट नमूने को इस हाल तक पहुँचाया है। फिर काग़ज़ के एक टुकड़े पर मेरा पैर रखवाकर वह पेंसिल से दो-तीन बार पैर के घेरे का निशान बनाता, उसकी अधीर उँगलियाँ मेरे अँगूठे और पैरों को छूती रहतीं, मानो पूरी तरह मेरी ज़रूरत की आत्मा में पैठ गई हों।

    मैं उस दिन को नहीं भूल सकता, जब मैंने यूँ ही उससे कह दिया “भाई गेस्लर आपको पता है, आपने जो पिछला जूता बनाकर दिया, वह चरमराता है।”

    कुछ कहे बग़ैर उसने पल भर मेरी ओर देखा, मानो उम्मीद कर रहा हो कि या तो मैं अपना कथन वापस लूँ या अपनी बात का सबूत दूँ।

    “ऐसा तो नहीं होना चाहिए था।” वह बोला।

    “हाँ, पर ऐसा हुआ है।”

    “क्या तुमने उन्हें भिगोया था?”

    “मेरे ख़याल से तो नहीं।”

    इस पर उसने अपनी नज़रें झुका लीं, मानो उन जूतों को याद करने की कोशिश कर रहा हो, मुझको बेहद अफ़सोस हुआ कि मैंने क्यों इतनी गंभीर बात कर दी।

    “जूते वापस भेज दो!” वह बोला, “मैं देखूँगा।”

    अपने चरमराते जूतों के प्रति एक दया भाव मेरे भीतर उमड़ा, मैं बख़ूबी कल्पना कर सकता था कि दुख भरी लंबी आतुरता के साथ जाने कितनी देर वह जूतों पर लगाएगा।

    “कुछ जूते”, उसने धीमे से कहा, “पैदायशी ख़राब होते हैं, यदि उन्हें ठीक कर सका तो आपके बिल में उसके पैसे नहीं जोडूँगा।”

    एक बार, महज़ एक बार मैं उसकी दुकान में बेध्यानी से ऐसे जूते पहनकर गया जो जल्दबाज़ी में किसी नामी दुकान से ख़रीद लिए थे। उसने बिना कोई चमड़ा दिखाए मेरा आर्डर ले लिया। मेरे जूतों की घटिया बनावट पर उसकी आँखें किस क़दर टिकी हुई थीं। मैं अच्छी तरह महसूस कर रहा था। आख़िर उससे रहा गया और वह बोल ही पड़ा।

    “ये मेरे बनाए जूते तो नहीं हैं।”

    उसके लहज़े में ग़ुस्सा था, दुख और ही तिरस्कार का भाव, पर कुछ ऐसा ज़रूर था, जो लहू को सर्द कर दे। उसने हाथ अंदर डालकर उँगली से बाएँ बूट को दबाया, जहाँ जूते को फैशनेबल बनाने के लिए अतिरिक्त कारीगरी की गई थी, पर वहाँ जूता काटता था।

    “यहाँ यह आपको काटता है ना!” उसने पूछा, “ये जो बड़ी कंपनियाँ हैं इनमें आत्म-सम्मान नहीं होता।” फिर मानो उसके दिमाग़ में कुछ बैठ गया हो और वह ज़ोर-ज़ोर से और कड़वाहट से बोलने लगा। यह पहली मर्तबा था, जब मैंने उसे अपने पेशे की परिस्थितियों और दिक्कतों के बारे में बोलते सुना।

    “उन्हें सब कुछ हासिल हो जाता है” उसने कहा, “वे काम के बूते पर नहीं, प्रचार के दम पर सब हासिल कर लेते हैं। वे हमारे ग्राहक छीन लेते हैं। यही वजह है कि आज मेरे पास काम नहीं है” उसके झुर्रीदार चेहरे पर मैंने वह सब देखा, जो कभी नहीं देखा था। बेइंतहा तकलीफ़, कड़ुवाहट और संघर्ष—अचानक उसकी लाल दाढ़ी में सफ़ेदी लहराने लगी थी।

    अपनी ओर से मैं इतना ही कर सकता था कि उसे वे परिस्थितियाँ बताता, जिनमें उन घटिया जूतों को ख़रीदने के लिए विवश हो गया था। पर उन कुछ पलों में उसके चेहरे और स्वर ने मुझे इतना गहरे प्रभावित किया कि मैंने कई जोड़ी जूते बनाने का ऑर्डर दे डाला और उसके बाद यह तो होना ही था। वे जूते जैसे घिसने का नाम ही नहीं लेते थे। क़रीब दो बरसों तक मेरा अंत:करण उसके पास जाने से मुझे रोकता रहा।

    आख़िर जब मैं गया तो यह देखकर बड़ा अचरज हुआ कि उसकी दुकान की दो छोटी खिड़कियों में से एक खिड़की के बाहर किसी दूसरे के नाम का कोई बोर्ड लगा हुआ था—वह भी जूते बनाने वाला ही था—शाही परिवारों के जूते। अब सिर्फ़ एक खिड़की पर वही जाने पहचाने जूते रखे थे—वे अलग से नहीं लग रहे थे। भीतर भी, दुकान की वह कुँआनुमा संकरी कोठरी पहले से अधिक अंधकार और गंध से भर गई थी। इस बार हमेशा से कुछ ज़्यादा ही वक़्त लगा। काफ़ी देर बाद वही चेहरा नीचे झाँकता दिखाई दिया, फिर चप्पलों की वही छप्- छप् गूँजने लगी, आख़िरकार वह मेरे सामने था, जंग खाए टूटे पुराने चश्मे में से झाँकता हुआ। उसने पूछा—“आप मिस्टर...हैं ना?”

    “हाँ मिस्टर गेस्लर,” मैंने कुछ हिचकिचाते हुए कहा, “क्या बतलाऊँ, आपके जूते इतने अच्छे हैं कि घिसते ही नहीं, देखिए ये जूते भी अभी चल रहे हैं” और मैंने अपना पैर आगे कर दिया, उसने उन्हें देखा।

    “हाँ” वह बोला, “पर लगता है लोगों को अब टिकाऊ जूतों की ज़रूरत नहीं रही।”

    उसकी उलाहने भरी नज़रों और आवाज़ से छुटकारा पाने के लिए मैं झट से बोला—“यह तुमने अपनी दुकान को क्या कर डाला है?”

    वह शांत स्वर में बोला, “बहुत महँगा पड़ रहा था। क्या आपको कोई जूते चाहिए?”

    मैंने तीन जोड़ी जूतों का आर्डर दिया। हालाँकि मुझे ज़रूरत सिर्फ़ दो की ही थी और जल्दी से मैं वहाँ से निकल आया। जाने क्यों मुझे लगा कि उसके ज़ेहन में कहीं यह बात है कि उसे या सच कहें तो जूतों के प्रति उसके सम्मोहन के खिलाफ़ जो साजिश चल रही है, उसमें मैं भी शामिल हूँ। यूँ कोई इन चीज़ों की इतनी परवाह नहीं करता; पर फिर ऐसा हुआ कि मैं कई महीनों तक वहाँ नहीं गया। जब मैं गया तो मेरे मन में बस यही ख़याल था, “ओह मैं भला उस बूढ़े को कैसे छोड़ सकता हूँ—शायद इस बार उसके बड़े भाई से पाला पड़े!”

    मैं जानता था कि उसका बड़ा भाई लेशमात्र भी कटु या तिरस्कार भरे स्वर में नहीं बोल सकता।

    वाक़ई दुकान में जब मुझे बड़े भाई की आकृति दिखाई दी, तो मैंने राहत महसूस की। वह चमड़े के एक टुकड़े पर काम कर रहा था।

    “हेलो मिस्टर गेस्लर कैसे हैं आप?” मैंने पूछा। वह उठा और ग़ौर से मुझे देखने लगा।

    “मैं ठीक हूँ,” उसने धीमे से कहा, “पर मेरे बड़े भाई का देहांत हो गया।”

    तब मैंने देखा कि यह तो वह ख़ुद था—कितना बूढ़ा और कमज़ोर हो गया था। इससे पहले मैंने कभी उसे अपने भाई का ज़िक्र करते नहीं सुना था। मुझे गहरा धक्का लगा, मैंने आहिस्ता से कहा, “यह तो बहुत बुरा हुआ।”

    “हाँ,” वह बोला, “वह नेकदिल इंसान था, अच्छे जूते बनाता था, पर अब वह नहीं रहा।” फिर उसने अपने सिर पर हाथ रखा, जहाँ से अचानक उसके बाल इतने झड़ गए थे—उसके अभागे भाई की ही तरह। मुझे लगा शायद वह इस तरह अपने भाई की मृत्यु का कारण बता रहा था। “भाई उस दूसरी दुकान खोने का ग़म नहीं सह पाया। खैर, क्या आपको जूते चाहिए?” उसने हाथ में पकड़ा चमड़ा उठाकर दिखाया, “यह बहुत ख़ूबसूरत टुकड़ा है!”

    मैंने कई जोड़ी जूतों का आर्डर दिया। बहुत दिनों बाद मुझे वे जूते मिले जो बेहद शानदार थे। उन्हें ऐसे वैसे नहीं पहना जा सकता था, उसके कुछ दिनों बाद मैं विदेश चला गया। लौटकर लंदन आने में एक बरस से भी ज़्यादा वक़्त गुजर गया। लौटने के बाद सबसे पहले मैं अपने उसी बूढ़े मित्र की दुकान पर गया। मैं जब गया था, वह साठ बरस का था। अब जिसे मैं देख रहा था, वह पचहत्तर से भी ज़्यादा का दिख रहा था—भूख से बेहाल, थका-मांदा, भयभीत और इस बार वाक़ई उसने मुझे नहीं पहचाना।

    “ओह, मिस्टर गेस्लर,” मैंने कहा, मन-ही-मन मैं दुखी था; “तुम्हारे जूते तो वाक़ई कमाल के हैं! देखो, मैं विदेश में पूरे समय यही जूते पहनता रहा और अभी भी ये अच्छे हैं—ज़रा भी ख़राब नहीं हुए हैं, हैं न?”

    काफ़ी देर वह जूतों को देखता रहा—रशियन चमड़े से बने जूते। उसके चेहरे पर एक चमक-सी लौट आई। अपना हाथ जूते के ऊपरी भाग में डालते हुए वह बोला—

    “क्या यहाँ से काटते हैं? मुझे याद है इन जूतों को बनाने में मुझे काफ़ी परेशानी हुई थी।”

    मैंने उसे यक़ीन दिलाया कि वे हर तरह से सही नाप के हैं और ठीक बैठते हैं।

    “क्या आपको जूते बनवाने हैं?” उसने पूछा, “मैं जल्द ही बनाकर दूँगा, यूँ भी मंदी का वक़्त चल रहा है।”

    मैंने कहा—“ज़रूर, ज़रूर! मुझे हर तरह के जूते चाहिए!”

    “मैं बिल्कुल नए मॉडल के जूते बनाऊँगा! आपके पैर थोड़े बड़े होंगे।” और बहुत ही धीमी गति से उसने मेरे पैर को टटोला और अँगूठे को महसूस किया। इस पूरे वक़्त सिर्फ़ एक बार ऊपर देखकर वह बोला—

    “क्या मैंने आपको बताया कि मेरे भाई का देहांत हो गया है?”

    उसे देखना बेहद यातनादायी था, वह बहुत कमज़ोर हो गया था, बाहर आकर मैंने राहत महसूस की।

    मैं उन जूतों की बात भूल ही चुका था कि अचानक एक शाम वे पहुँचे। जब मैंने पार्सल खोला तो एक के बाद एक, चार जोड़ी जूते निकले। आकार, नमूने, चमड़े की क्वालिटी, फिटिंग हर लिहाज़ से अब तक बनाए गए जूतों से बेहतर और लाजवाब। आम मौक़े पर पहने जाने वाले एक बूट में मुझे उसका बिल मिला। उसने हमेशा के जितना ही दाम लगाया था, पर मुझे थोड़ा झटका लगा, क्योंकि वह कभी तिमाही की आख़िरी तारीख़ से पहले बिल नहीं भेजता था। मैं भागते हुए नीचे गया, चेक बनाया और फ़ौरन पोस्ट कर दिया।

    हफ़्ते भर बाद मैं उस रास्ते से गुज़र रहा था तो सोचा उसे जाकर बताऊँ कि उसके जूते कितने शानदार और सही नाप के बने हैं, पर जब मैं वहाँ पहुँचा, जहाँ उसकी दुकान थी तो उसका नाम नदारद था। खिड़की पर अब भी वही सलीकेदार पंप शू रखे थे—असली चमड़े और कपड़े की ऊपरी तह वाले।

    विचलित-सा मैं भीतर गया, दोनों दुकानों को दोबारा एक ही में मिला दिया गया था। एक अँग्रेज़ युवक मुझे मिला।

    “मिस्टर गेस्लर अंदर हैं?” मैंने पूछा। उसने मुझे अजीब और अकृतज्ञ नज़रों से घूरा।

    “नहीं सर,” वह बोला, “नहीं, मिस्टर गेस्लर नहीं हैं, पर हम आपकी हर तरह से सेवा कर सकते हैं, यह दुकान हमने ख़रीद ली है। आपने बाहर हमारा बोर्ड देख ही लिया होगा। हम नामी-गिरामी लोगों के लिए जूते बनाते हैं।”

    “हाँ, हाँ,” मैंने कहा, “पर मिस्टर गेस्लर?”

    “ओह!” वह बोला, “उनका देहांत हो गया।”

    “क्या देहांत हो गया! पर मुझे उन्होंने पिछले हफ़्ते ही ये जूते भेजे हैं।”

    “ओह!” वह बोला, “बेचारा बूढ़ा भूख से ही मर गया।”

    “भूख से धीमी मृत्यु डॉक्टर यही कहते हैं! आप जानते हैं, वह दिन-रात भूखा रहता था और काम करता था। अपने अलावा किसी को भी जूतों पर हाथ लगाने नहीं देता था। जब उसे ऑर्डर मिलता तो उसे पूरा करने में रात-दिन एक कर देता। अब लोग भला क्यों इंतज़ार करते। उसके सभी ग्राहक छूट गए। वह वहाँ बैठा लगातार काम करता रहता। वह कहता—पूरे लंदन में उससे बेहतर जूते कोई नहीं बनाता! पर आप ही सोचिए, प्रतिस्पर्धा कितनी बढ़ गई है! उसने कोई प्रचार भी नहीं किया, उसके पास बेहतरीन चमड़ा था, पर वह अकेले ही सारा काम करता था, खैर! छोड़िए, इस तरह के आदर्श में क्या रखा है?”

    “पर भूख से मर जाना!”

    “यह थोड़ा अतिशयोक्तिपूर्ण लग सकता है, पर मैं जानता हूँ दिन-रात अपनी आख़िरी साँस तक वह जूतों पर लगा रहा।” उसे देखता रहता था, उसे खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती थी। जेब में एक कौड़ी तक थी, सब कुछ गिरवी चढ़ गया था। पर उसने चमड़ा नहीं छोड़ा, जाने कैसे वह इतने दिन जीवित रहा। वह लगातार फ़ाक़े करता रहा। वह एक अजीब इंसान था, पर हाँ, वह जूते बहुत बढ़िया बनाता था।”

    “हाँ” मैं बोला, “वह बढ़िया जूते बनाता था!”

    स्रोत :
    • पुस्तक : विश्व की श्रेष्ठ कहानियाँ (खण्ड-2) (पृष्ठ 39)
    • संपादक : ममता कालिया
    • रचनाकार : जॉन गॉल्ज़वर्दी
    • प्रकाशन : लोकभारती प्रकाशन
    • संस्करण : 2005
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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