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मेहमान

mehmaan

राजेंद्र यादव

और अधिकराजेंद्र यादव

    वे आएँगे, इस बात का तनाव मेरे ऊपर सुबह से सवार था।

    लेकिन जब वे गए तो यह भी पता नहीं चल सका कि किसी सवारी से आए हैं या पैदल। दरवाज़े पर बहुत ही हल्के-से ठक-ठक हुई। मुझे उनका इंतज़ार था, इसलिए फ़ौरन समझ गया कि वे ही हैं। लगा जैसे नीचे एक बहुत लंबी गाड़ी खड़ी हुई है और वे उससे उतरकर ऊपर चले आए हैं। मैंने अपने हिसाब से घर काफ़ी संवार दिया था। लेकिन जब ठक्-ठक् हुई तो घबराकर चौंक उठा, साथ ही मुझे लगा कि आवाज़ में ही ऐसा कुछ महान और शालीन है कि उनके सिवाय और कोई हो ही नहीं सकता। मैंने इशारे से पत्नी को बताया, वे गए हैं। लपककर दरवाज़ा खोला। बड़ा भव्य वेश था, कुर्ता-धोती, कंधों पर क़ीमती शॉल, बड़ा प्रभावशाली मोहक चेहरा, खुली हुई आत्मीय प्रसन्न मुद्रा-शायद एक प्रभामंडल बिखेरती-सी। अपने भविष्य के व्यक्तित्व की जैसी मैं कल्पना किया करता था, ठीक वही रूप था। मैंने नमस्कार के साथ कहा, ‘‘मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।’’ लगा कुछ और कहना चाहिए था। वे बड़े ही सहज अपनेपन से मुस्कुराए। मेरे कंधे पर हल्के से हाथ रखा और भीतर गए, ‘‘सभी हैं?’’

    ‘‘जी...’’ मैंने हकलाहट रोककर कहा, ‘‘हम सब आपके इंतज़ार में ही थे। लेकिन आपके आने का पता ही नहीं चला। मैं तो सुबह से कई बार नीचे सड़क पर झाँक आया था, हर आहट पर कान लगाए बैठा था। दो बार पानवाले की दुकान तक हो आया, उसे भी कहा कि हमारे एक मेहमान आने वाले हैं, कोई आकर पूछे तो घर बता देना...’’ लेकिन हो सकता है मैंने यह सब उनसे कहा हो और सुबह से अब तक की अपनी परेशानी को दुहरा-भर लिया हो मन-ही-मन। कहा इतना ही हो, ‘‘पता तो था ही कि आप आज आएँगे। कल भी सोचा था कि शायद एक दिन पहले चले आएँ...अकेले ही हैं?’’

    ‘‘हाँ भाई, अपना कुछ ठीक थोड़े ही है।’’ उन्होंने शायद, ‘रमते-राम’ शब्द को दबा लिया। ‘‘किस दिन कहाँ होंगे, बस, इतना पता होता है।’’

    मैं आगे-आगे चलता हुआ, हाथ धोने की मुद्रा में मुट्ठियाँ मसलता-सा उन्हें लिए हुए अंदर रहा था, जैसे ग़लीचे पर ला रहा होऊँ। ‘‘कोई सामान नहीं है?’’

    ‘‘सामान?’’ वे संयत-से हँसे, ‘‘तुम्हारे यहाँ सामान लेकर आता? देख रहा हूँ, तुमने काफ़ी कुछ जमा लिया है।’’

    ‘सब आपकी कृपा है’ के भाव से मैंने हैं-हैं की मुद्रा बनाई। सामान नहीं है तो कोई बात नहीं। यह पुष्पा ससुरी कहाँ चली गई? जब भी कोई ऐसा आदमी आता है तो यह अदबदाकर रसोई में घुसी रहती है और स्टोव इत्यादि की आवाज़ पैदा करके ऐसा भाव दिखाती है, जैसे बाहरी दुनिया का इसे कुछ भी पता नहीं। इस कमबख़्त को अहसास ही नहीं है कि हमारे यहाँ कितना बड़ा आदमी आया है।

    मैंने बैठक को बड़े ढंग से सजाया था। सारी व्यवस्था उलट-पुलट दी थी। ऐसी कोशिश की थी कि बैठक सारे दिन उठने-बैठने-सोने की जगह लगे और ऐसा आभास हो, जैसे उनकी तरह के मेहमानों के लिए ही रखा गया स्वतंत्र कमरा है और इसका उपयोग हमेशा नहीं होता। गद्दियों के कवर, पर्दे, मेज़पोश सब बदल दिए गए थे। मेज़ पर घड़ी और किताबें रख दी गई थीं। ये किताबें अभी तक चारपाई के नीचे बंधी धूल खा रही थीं। कुछ नई किताबें माँग लाया था, पुरानी में से चुनकर निकाली थीं। बी. ए. में पढ़ी ‘गोल्डन ट्रेजेरी’ और रस्किन के निबंध मुझे मेज़ पर रखने लायक़ लगे थे। पेन, स्वान-इंक, कुछ पत्रिकाएँ, फूल खिले काँच का गोल पेपरवेट, सभी झाड़-पोंछकर रखे थे। हर चीज़ के वे हिस्से छिपा दिए थे, जो मुझे ख़ुद फूहड़ लगते थे। आज का अख़बार बड़े ढंग से मेज़ पर रख दिया था, जैसे उसे पढ़ते-पढ़ते ही मैं दरवाज़ा खोलने गया था। किसी गंभीर लेखक की मोटी-सी किताब यूँ मेज़ पर डाल दी थी कि लगे, रात को मैं इसका अध्ययन कर रहा था। रबर वाले स्लीपर भी लापरवाही से मेज़ के नीचे ‘व्यवस्थित’ कर दिए थे। मेरा सारा घर उन जैसे बड़े मेहमान के लायक़ भले ही हो, मगर मैं ऊँचे मूल्यों में संतोष खोजने वाला व्यक्ति हूँ, यह प्रभाव मैं उन पर डालना चाहता था।

    वे संतोष और हल्की थकावट से आकर कुर्सी पर बैठ गए। उन्होंने बड़े आराम से दोनों पाँव ऊपर समेट लिए और मुझे बेचैनी होने लगी कि पुष्पा अभी तक क्यों नहीं रही? मुझे अपनी बैठक, मेज़-कुर्सियाँ, सारा घर बहुत ही बेकार और साधारण लगने लगा, चाहे कुछ कर लो, यह घर एक फटीचर क्लर्क का घर लगता है, उन जैसे सम्मानित मेहमान के लायक़ बिल्कुल भी नहीं। यह अनुभूति मुझे उनके भीतर क़दम रखते ही होने लगी थी, हालाँकि हफ़्तों से मैं अपने मन को भी समझा रहा था कि जैसा बेकार सब कुछ मैं सोच रहा हूँ, वैसा सब मिलाकर शायद नहीं है। फिर बड़े लोग दूसरों की मजबूरियाँ समझते हैं और ऐसी छोटी-मोटी बातों पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते, लेकिन अब लगा, इन कुर्सियों को तो इनके घर के ईंधन के काम में लिया जाता होगा। हालाँकि फ़ौरन ही मैंने अपने को सुधार लिया। इनके यहाँ ईंधन थोड़े ही जलता होगा, बिजली और गैस के नए-से-नए साधन होंगे...लेकिन निश्चय ही ऐसे पर्दों और मेज़पोश से इनके यहाँ फ़र्श पोंछे जाते होंगे...ऐसी किताबें तो इनके यहाँ के बच्चे और नौकर पढ़ते होंगे, इनके नौकरों के घर मेरे घर से लाख दर्जे अच्छे होंगे...यह इनकी महानता ही है कि ऐसे आराम और बेतकल्लुफ़ी से आकर बैठ गए हैं...

    मैं अपनी बेचैनी छिपाने के लिए एक बार बाल्कनी में घूम आया, व्यर्थ पड़ी दियासलाई की सींक को बाहर फेंक दिया। नीचे झाँककर देखा, मकान-मालकिन बड़े बेहया ढंग से बैठी कपड़ों में साबुन लगा रही थी। इस मूर्ख को क्या पता कि ऊपर मेरे यहाँ कौन बैठा है? बड़ा अपने को लाटसाहब लगाते हैं ये लोग, यहाँ गंदा मत करो, यहाँ कोयले मत कूटो, सीढ़ियों में चारपाइयाँ मत रखो—एक दिन किराया दो तो घर छोड़ने की धमकी। तुम्हारे जैसे बीस मकान ख़रीदकर फेंक दें ये। साले अपने स्कूटर की ऐसे सफ़ाई करेंगे, जैसे ऐरावत को नहला रहे हों—इनके पास दर्जन-भर एक-से-एक ख़ूबसूरत गाड़ियाँ हैं...

    ‘‘माफ़ कीजिए, मैं अभी आया।’’ मैंने धीरे से कहा और डरते हुए-से चौके में चला गया। ‘‘पुष्पा, तुम भी अजीब औरत हो!’’ झल्लाकर गला-भिंचे स्वर में मैंने उसे झिड़का, ‘‘वे गए हैं और तुमने अभी तक साड़ी भी नहीं बदली!’’

    ‘‘आ गए?’’ पहले तो वह चौंकी, फिर अपनी उसी व्यस्तता से बोली, ‘‘अभी बदलती हूँ। चाय का पानी रख दूँ...’’ लीजिए साहब, अब चाय का पानी रखा जाएगा। भीतर वे बैठे हैं और यहाँ अब चाय का पानी रखने की शुरुआत होगी। प्लेटों में मैंने मिठाई-नमकीन पहले ही रख दिए थे, उन्हें एक बार फिर से देखा, एक-एक प्लेट में इस तरह फैला-फैलाकर रख दिया कि कम लगे, फिर भी लग रहा था कि बेहद कम हैं और घर का दिवालियापन उजागर होता है। फल सुबह नाश्ते में दिए जाते हैं या खाने में-मुझे याद ही नहीं रहा था। अकेले बैठे हैं, के बोझ से फिर मैं बैठक में लपक आया।

    पलंगपोश आज ही संदूक़ से निकालकर बिछाए थे और उनकी तहों वाले निशानों को देखकर कोई भी समझ सकता था कि ये रोज़ नहीं बिछाए जाते। मैंने हाथ फेरकर सलवटें ठीक कीं। एक तरफ़ के छेद को सावधानी से दबा दिया। फिर भी संतोष नहीं हुआ-की कचोट लिए मैं बैठक में गया? वे अख़बार फैलाकर कुछ देखने लगे थे। हाँ, उन्हें तो देश-विदेश की जानकारी रखनी होती है। एक निगाह में सारी परिस्थिति भाँप जाते होंगे। हमारी तरह शुरू से आख़िर तक पढ़कर भी बात समझ में आने की शिकायत उन्हें थोड़े ही होती होगी। उनकी महत्त्वपूर्ण एकाग्रता में मैंने बाधा दी है—क्षमा-भाव से मैं कुर्सी पर ज़रा-सा टिककर बैठ गया। समझ में नहीं आया, क्या बात करूँ। ‘‘आपको तकलीफ़ तो नहीं हुई?’’ यही सवाल उस समय सूझा। बेवक़ूफ़, उनके लिए ट्रेन में बैठना, जैसे अपने कमरे में बैठना है।

    ‘‘तकलीफ़ काहे की?’’ उन्होंने अख़बार से सिर उठाया, ‘‘मुझे सब आदत है।’’

    ‘‘यहाँ उस तरह की सुविधाएँ तो नहीं हैं।’’ मैंने नम्रता से अपने और इस सारे घर के लिए माफ़ी माँगी।

    ‘‘क्या बातें करते हो? अपना ही घर है। सभी अपने-अपने घर में यूँ ही रहते हैं।’’ वे आत्मीयता से बोले, ‘‘तुम मेरे लिए कुछ भी विशेष मत करो...’’

    ‘‘जी, वो तो मैं जानता हूँ।’’ मैंने हल्के संतोष से कहा, ‘‘आप महान हैं, इसलिए ऐसा कह रहे हैं। वरना क्या मैं जानता नहीं कि आप कैसे रहते हैं, कैसे हैं और यह सब कितना तुच्छ है।’’ एक क्षण को लगा, हो सकता है जैसी बेचैनी मैं महसूस कर रहा हूँ, वे बिल्कुल भी कर रहे हों और सचमुच आराम से हों...मैं नीचे पैरों की तरफ़ देखने लगा, लो, अभी तक मैं नंगे पाँव ही घूम रहा था? जाने क्या सोचेंगे? बौखलाकर एकदम कुर्सी के पास रखे स्लीपर पहनने की इच्छा हुई। लेकिन बहुत साफ़ हो जाएगा। धीरे और बेमालूम तरीक़े से पहनूँगा...उँगलियों और अँगूठों से ऊपर सरकाते हुए मैंने पूछा, ‘‘आप नहाएँगे या मुँह-हाथ धोएँगे?’’ बात मुझे ख़ुद बहुत बेवक़ूफ़ी की लगी, हो सकता है, इस समय वे चाय ही पीते हों। कुछ तो पिलाना ही चाहिए था।

    ‘‘सब कर लेंगे भाई, यहीं तो हैं।’’ वे आत्मीयता से बोले, ‘‘पुष्पा जी नहीं दिख रहीं। तुम्हारे एकाध बच्चा भी तो है न, कहीं पढ़ता है?’’

    ‘‘जी, वह स्कूल गया है। पढ़ता है। क्या करें, यहाँ कोई अच्छा स्कूल ही नहीं है। हमने तो बहुत कोशिश की...’’ हालाँकि मैंने उसे अपनी हैसियत से ऊँचे स्कूल में दाख़िल करवा रखा था और ‘अच्छे स्कूलों’ के ख़र्चों को सोचकर उनके बारे में पता भी नहीं लगाया था। जिस स्कूल में इस समय वह था, उसे लेकर अपनी तरह मुझे गर्व भी था, लेकिन इस समय मुझे लगा, जैसे वह अनाथालय में आता हो। बोला, ‘‘दोपहर को बस छोड़ जाएगी।’’ सोचा, पता नहीं आज पुष्पा को समय भी मिलेगा या नहीं कि जाकर उसे स्कूल से लिवा लाए।

    सहसा पुष्पा ने कमरे में प्रवेश करके मुझे उबार लिया। वह चाय की ट्रे लेकर आई थी। उन्होंने ऊपर समेटे हुए पाँव एकदम नीचे कर लिए। जूते टटोलते हुए—से उठ खड़े हुए, ‘‘नमस्ते पुष्पा जी, कैसी हैं?’’

    ‘‘आप बैठे रहिए न,’’ कहते हुए मैंने बढ़कर पुष्पा के हाथ से ट्रे ले ली। उसे सावधानी से मेज़ पर रखकर उससे कहा, ‘‘तुम भी बैठो न...’’

    वह साड़ी का पल्ला सिर पर ठीक करके नमस्कार कर चुकी थी। ‘‘आपने बड़ा इंतज़ार कराया, ये तो दो हफ़्ते से परेशान थे कि आप आएँगे...’’

    उन्होंने गद्गद ढंग से मेरे कंधे पर हाथ रख दिया, ‘‘ये तो इनकी आदत है।’’

    ‘‘हाँ, यही तो मैं कहती हूँ कि रहे हैं तो आएँ। उनका घर है। उसे लेकर इतना तूफ़ान मचाने की क्या ज़रूरत है! देखिए, मैं तो आपके लिए कुछ भी ख़ास नहीं करूँगी। जैसे हम खाते, रहते हैं—उसी तरह आपको भी रहना पड़ेगा...’’

    तुम तो झाड़ू लगवाओगी इनसे...मैंने दाँत भींचकर दोहराया। मेहमान की हैसियत देखती है, उम्र। यह बात ज़रूर कहती है। कहा था, साड़ी बदल आओ, लेकिन उसी में चली रही है। कोई ख़याल ही नहीं कि कौन आया है, कहाँ से आया है?

    ‘‘हाँ, हाँ, सो तो है ही।’’ मेहमान की इस बात के जवाब में पुष्पा केतली से टिकोजी उतारती हुई कह रही थी, ‘‘हम तो देखिए, किसी के लिए कुछ कर भी नहीं सकते। साधारण-सी हैसियत वाले लोग हैं। दाल-रोटी खाते हैं, वही आपको भी दे देंगे...’’

    जी हाँ, सब बता दीजिए कि हम तो भूखें मरते हैं। ये मिठाई और नमकीन सिर्फ़ आपके लिए ले आए हैं, वरना हमें कहाँ नसीब। इनसे कहकर कोई अच्छी-सी नौकरी लूँगा और फिर इसे मिठाई और फलों से ही लाद दिया तो मेरा भी नाम नहीं। इस औरत से मैं इसीलिए परेशान हूँ कि मुझे कहीं भी सहयोग नहीं देती। हमेशा यही सिद्ध करेगी जैसे कि मैं दुनिया का सबसे बड़ा बेवक़ूफ़ और कम-हैसियत वाला आदमी हूँ, और जो हमारे यहाँ आया है वह सड़क पर सफ़ाई करने वाला जमादार! यह शायद जान-बूझकर मानने को तैयार नहीं है कि इनके हमारे यहाँ आने का क्या अर्थ है? इससे हमारी इज़्ज़त कितनी बढ़ी है? जाने कितने ऊँचे-ऊँचे तो इनके संपर्क हैं। वह तो इनकी कृपा है, जो यहाँ गए हैं, वरना अशोका और ताज में रुकने वाले आदमी हैं। इस समय यहाँ यूँ कुल्हड़-छाप चाय नहीं पी रहे होते? इस समय इनके चारों तरफ़ छह बैरे मंडरा रहे होते, सेक्रेटरी बैठा सारी हिदायतें नोट कर रहा होता, टेलीफ़ोन घनघना रहे होते...नीचे लकदक वर्दी में बैठा ड्राइवर झटके से निकलकर दरवाज़ा खोलता...और मुझे फिर लगा, जैसे नीचे सड़क पर हवाई जहाजनुमा गाड़ी खड़ी है।

    मैं कुछ-कुछ अपराधी और कुछ-कुछ झल्लाए मन से प्लेटें ट्रे में से निकाल-निकालकर बाहर रखने लगा। मिठाई-नमकीन मैं मुहल्ले की सबसे अच्छी दुकान से लाया था, लेकिन इस समय सब एकदम घटिया और बदसूरत लग रही थीं, उनमें ‘बाज़ार’ की गंध थी। प्लेट-प्याले हमारे यहाँ एक भी ऐसे नहीं हैं कि उनमें ढंग के आदमी को कुछ दिया जा सके। ट्रे में बिछी तौलिया धोबी के यहाँ एक बार धुलकर कैसी खजैली-सी हो गई है। तौलिया का एक कोना भी उठ आया है और नीचे ट्रे पर छपा कपड़ा-मिल का विज्ञापन झाँकने लगा है। सोचेंगे, सालों ने मुफ़्ती ट्रे लाकर रख छोड़ी है। मैंने फुर्ती से वह कोना दबाकर उसे ढक दिया। मुझे चाय बेस्वाद इसलिए भी लगती रही कि उनके पास कोना झड़ा कप पहुँच गया था। ख़ैरियत यही थी कि उनका ध्यान उधर नहीं गया था। वे हँस-हँसकर पुष्पा से बातें कर रहे थे। चलो, कहीं तो घर जैसा महसूस कर रहे हैं...

    ‘‘तुम्हें ऑफ़िस नहीं जाना...?’’ उन्होंने सीधे मुझसे ही पूछा तो मैं चौंक उठा।

    ‘‘बात यह है कि मैंने आज की छुट्टी ले रखी है। सोचा, आपके आने के बहाने दफ़्तर की दुनिया से बाहर रह लेंगे।’’ मैं बिना सोचे-समझे बोल पड़ा।

    ‘‘बेकार!’’ वे नाराज़ हो गए, ‘‘ये सब तकल्लुफ़ करने की क्या ज़रूरत है? मुझे तो आज पता नहीं किस-किस से मिलना है। हो सकता है, दोपहर को खाना भी खाऊँ...’’

    ‘‘वाह, यह कैसे हो सकता है?’’ पुष्पा ने अधिकार से कहा, ‘‘आप कहीं भी बाहर नहीं खाएँगे।’’

    ‘‘देखो पुष्पा, मैं शाम को कहीं नहीं खाऊँगा, लेकिन दोपहर के लिए मुझसे ज़िद मत करो।’’ वे अपनेपन से अंतिम फ़ैसले की तरह बोले। यानी दोपहर के लिए हम लोगों ने जो इतनी चीज़ें बनाई हैं, वे बेकार ही चली गईं। वे शाम को थोड़े ही चलेंगी। शाम के लिए सब्ज़ियाँ वग़ैरह और लानी होंगी।

    ‘‘तुमने छुट्टी ले ही ली है तो चलो आज हमारे साथ ही रहो। कुछ लोगों से मिला देंगे। हो सकता है, कभी तुम्हारे काम ही जाएँ।’’ उन्होंने इतमीनान से मिठाई मुँह में डालकर चाय का घूँट भरा।

    ‘‘जी, मैं तो ख़ाली ही हूँ।’’ मैं बोला। तो ये पुष्पा जी से पुष्पा पर गए!

    ‘‘मैं दो मिनट में खाना बनाए देती हूँ, आप लोग खाकर ही निकलें।’’ पुष्पा फुर्ती से उठती हुई बोली।

    ‘‘नहीं, पुष्पा इस समय नहीं।’’ उन्होंने आग्रह किया, ‘‘मैं ज़रा हाथ-मुँह धोते ही निकलूँगा।’’

    ‘‘रहने दो फिर,’’ मैं मजबूरी के भाव से बोला। मैं नहीं चाहता था कि पुष्पा उन्हें दो मिनट वाला खाना खिलाए। ‘‘माफ़ कीजिए, अभी आता हूँ।’’ कहकर मैं जल्दी से उठा और ग़ुसलख़ाने पहुँच गया। उल्लू के पट्ठों ने कैसा छोटा-सा ग़ुसलख़ाना बनवाया है, एक खूँटी तक तो लगाई नहीं है। बोलो, नहाने वाला तुम्हारे सिर पर कपड़े लटकाएगा? भीतर से किवाड़ बंद करके ग़ुसलख़ाना मैंने झाड़ू से धो दिया। बीवी को तो इस छोटी-सी बात का ख़याल आएगा नहीं। साबुनदानी साफ़ की, तेल की शीशियाँ क़रीने से लगाईं, नया साबुन खोलकर रखा और पटरा साफ़ कर दिया। कोने से एकाध जाला झाड़ा और मुँह धोकर इस तरह निकला, जैसे इसी काम के लिए गया था। इनके यहाँ तो शानदार ग़ुसलख़ाना होगा। गरम-ठंडे पानी के टब होंगे, ग़ुसलख़ाना गर्म रखने का प्रबंध होगा। टब, वाश-बेसिन, कमोड-सब नई-से-नई डिज़ाइन के होंगे-जैसे सिनेमा और होटलों में देखे हैं। क्या करें, अपने यहाँ तो यही हैं। मैंने मजबूरी से साँस ली। पता नहीं, कभी नसीब में होगा भी या नहीं।

    पुष्पा इस बीच उनसे काफ़ी खुल गई थी और हँस-हँसकर बातें कर रही थी! जब मैं आया तो वे उसकी तरफ़ इस तरह देख रहे थे, जैसे उसकी सुंदरता को निहार रहे हों। चलो, अपनी बेवक़ूफ़ी और ग़ैर-दुनियादारी के बावजूद अगर वह उन्हें एट-होम महसूस करा सकती है तो क्या हर्ज है। लेकिन महाराज, आप मेहमान हैं, इसलिए यह दूरी बरत रही है, इज़्ज़त करने का भाव दिखा रही है, वरना यह तो आपके सिर पर सवार हो जाएगी। होंगे आप अपने घर के महान, यह एक बार अगर मुँह लग गई तो किसी की महानता नहीं रखती। आपको पता नहीं है, यह कितनी उजड्ड और गँवार है, किसी को महान मानती है, मेहमान...इसके लिए...

    चाय पी जा चुकी थी। मुझे पता है, पुष्पा ने एक बार भी इनसे किसी चीज़ को लेने का आग्रह नहीं किया होगा, जो ख़ुद ही ले लिया सो ले लिया। आप संकोच करें तो आपकी बला से। अजीब ख़ुदग़र्ज़ औरत से मेरा पाला पड़ा है। मैं अगर ज़रा हाथ खींच लूँ तो घर में कोई व्यवस्था रहे, सिलसिला। घर के ज़ियादातर काम अपने ज़िम्मे लेकर मैंने इसकी आदतें ख़राब कर दी हैं। अगर शुरू से ही सख़्ती रखता तो एकदम सीधी रहती।

    उन्होंने कंधों का चादर उतारकर कुर्सी की पीठ पर रखते हुए ग़ुसलख़ाने की ओर जाने के भाव से पूछा, ‘‘यहाँ आस-पास टेलीफ़ोन तो होगा? मुझे अपने आने की ख़बर करनी थी— दो-एक लोगों को। तुम्हारे सिवाय किसी को भी नहीं बताया है। अजी, लोग चैन लेने देते?’’

    ‘‘जी, यहाँ तो नहीं है, बाहर निकलेंगे तो बेकरीवाले के यहाँ से कर लेंगे।’’ मैं अपराधी की तरह बोला। उन्होंने सिर्फ़ मुझे ही सूचना लायक़ समझा, इस बोझ से झुककर मैंने सोचा, आप चाहें तो शाम तक यहीं टेलीफ़ोन लगवा सकते हैं। आपके परिचय-प्रभाव क्या कम हैं? आप क्या नहीं कर सकते? एक बार इच्छा प्रकट कर दें, जनरल-मैनेजर ख़ुद अपनी देखरेख में फ़ोन लगवा दे। और यह सब सोचकर उनकी मूर्ति मेरे दिमाग़ में और भी बड़ी हो गई, इसी तुलना में पुष्पा मुझे और भी फूहड़ और कमीनी लगी। साड़ी लपेटने का यह भी कोई ढंग है, लगती है जैसे साहब लोगों की आया हो। उनके ऐश्वर्यशाली वातावरण के बीच जब मैंने उसे रखकर देखा तो लगा, जैसे वह चंदा माँगने आने वाली शरणार्थी औरतों जैसी लगती है। लेकिन यह मुझे शुरू से ही लग रहा था कि वह जान-बूझकर उन्हें महान आदमी मानने से इनकार करती रही है। उसके यहाँ तो साक्षात् भगवान भी जाए तो साले को कुत्ता बनाकर रद्द कर देगी। अरे, तुम मेरी तिल-भर इज़्ज़त नहीं करतीं, सही, लेकिन जितनी इज़्ज़त मैं दूसरे की करता हूँ, उतनी तो कर ही सकती हो। ऐसा बड़ा आदमी मेरे यहाँ मेहमान है, यही सोचकर थोड़ी-बहुत इज़्ज़त मुझे भी बख़्श देतीं तो क्या टोटा पड़ जाता? लेकिन उस कूढ़-मग्ज से ऐसी उम्मीद ही बेकार है।

    वहीं खड़े-खड़े ही पुष्पा कहीं इशारा कर दे, ‘‘ग़ुसलख़ाना उधर है। चले जाइए!’’ इस डर से मैं आगे-आगे हो लिया, ‘‘इधर आइए, आपको ग़ुसलख़ाना दिखा दूँ!’’ हुँह, जैसे ताजमहल हो। लेकिन मैं उन्हें आगे-आगे वहाँ तक छोड़ आया। ‘‘मैं अभी गर्म पानी लाता हूँ।’’ मैं रसोई की तरफ़ लपका। केतली में पानी खौल रहा था। उसे बाल्टी में उड़ेलकर लाया तो भीतर वे ठंडे पानी से ही हाथ धो रहे थे। मैं घबरा उठा, ‘‘अरे-अरे, ये क्या कर रहे हैं? यह गर्म पानी है।’’

    जब उन्होंने दरवाज़ा बंद कर लिया तो मैं पुष्पा के पास आया, ‘‘वहाँ से बर्तन तो उठा लो...’’ अगली बात दबा गया, बेकार इस समय चख-चख होगी।

    ‘‘अभी उठा लेती हूँ। आप शाम के लिए सब्ज़ी लाकर रख देना।’’

    लीजिए साहब, यह साली ने अलग समस्या लाकर खड़ी कर दी। चुटकी बजाते विकटतम समस्याएँ खड़ी कर देना, उसके लिए कितना आसान है। हमेशा आड़े वक़्त में उसे ऐसे काम याद आते हैं। वो तो आटा पिसवा लिया था वरना उसकी भी फ़रमाइश इसी समय हो सकती थी। झल्लाहट पीकर कहा, ‘‘तुम मँगवा लेना किसी से। मुझे तो इनके साथ जाना होगा। नहीं जाऊँगा तो बुरा लगेगा।’’

    उसने बुरा-सा मुँह बनाया, यानी मैं उन्हें ज़रा-सी देर बैठाकर सब्ज़ी ला सकता हूँ। इन्हीं से सब्ज़ी लाने को कह दूँ? उनकी उपस्थिति में ही यह मुझसे कोई ऊँची-नीची बात कह सकती है, इसलिए जल्दी-से-जल्दी निकल जाने में भलाई है।

    कल ही सूट पर प्रेस करा लिया था, लेकिन पहनकर लगा, उसे धुला लेना चाहिए था। सामने शीशे में बटलर खड़ा था। धुला लेने से ही क्या होता है, कपड़ा तो वही कबाड़िया है। जाऊँ साथ? नौकर जैसा लगूँगा। अपने पास तो कहीं आने-जाने लायक़ कुछ भी नहीं है। कोट की बाँहों से क़मीज़ के गंदे कफ-कॉलर ढंकते हुए भी ख़याल रहा कि ये कोई ढके हुए थोड़े ही रहेंगे। जब भी किसी काम के लिए हाथ बढ़ाऊँगा तो दीखेंगे। जेब में कुल बारह रुपए थे, ख़ुशामद से कहा, ‘‘याद दस-पाँच रुपए दे दो न, पता नहीं कहाँ ज़रूरत पड़ जाए।’’

    ‘‘अभी तो महीना पड़ा है। मेरे पास कुल बीस...’’

    ‘‘तो वही दे दो, कहीं से मँगा लेंगे।’’ मैंने उसकी बात के बीच में ही जल्दी मचाने के ढंग पर कहा। कमबख़्त, इसी समय सारे महीने का हिसाब समझाएगी। अभी वे निकल आएँगे तो सब धरा रह जाएगा।

    वे ताजे होकर निकले थे। हम लोग इस तरह ‘संभल’ गए, जैसे नेपथ्य से निकलकर स्टेज पर गए हों। कंधे में मैल और जनाने बालों का गुच्छा उलझा था, उन्हें हाथ से साफ़ करके कमीज़ से पोंछते हुए, तेल की शीशी लिए बाहर बैठक में निकल आया। ‘‘गोले का तेल है।’’ मैंने इस तरह बोतल पेश की कि अगर चाहें तो वे लें। जवाकुसुम की शीशी कितने की आती होगी?

    ‘‘ठीक है।’’ लापरवाही से वे बोले। चुंधा-सस्ता शीशा है, मैं कहते-कहते रुक गया। उसे अपने कोट पर ही रगड़कर सामने कर दिया। उन्होंने इतमीनान से कंघा-तेल किया।

    ‘‘चलिए, आपको भी घुमा लाएँ...’’ वे हँसकर पुष्पा से बोले।

    ‘‘ये अब कहाँ...आपको तो पता नहीं, कहाँ-कहाँ जाना हो।’’ मैंने इस तरह प्रतिवाद किया, जैसे वह सचमुच ही चलने को कह सकती है। भीतर गहरी साँस ली, काश! मेरी बीवी ऐसी होती कि आप जैसे आदमी के साथ चलती, पढ़ी-लिखी और सलीक़े वाली। छुरी-काँटा पकड़ना तक तो आता नहीं है। मैं भी कहाँ जानता हूँ? लेकिन इसे तो ढंग के बाल बनाने भी तो नहीं आते।

    ‘‘आते वक़्त कुछ केले-संतरे लेते आइए...’’ लीजिए साहब, निकलते-निकलते एक फ़रमाइश दाग़ ही दी। कद्दू-काशीफल के लिए नहीं कहा? मन हुआ वापस जाकर दोनों हाथों से गला दबा दूँ...अरे, जिससे सब्ज़ी मँगाओगी, उससे यह सब नहीं मँगा सकती? क्यों मेरी फ़जीहत कराने पर तुली हो? दो-चार आने ज़ियादा ही तो दे आएगा वह?

    मैं अनसुनी किए एक तरफ़ हटकर खड़ा रहा। यह बेख़बर अपने मसूड़े दिखाती उनसे जल्दी आने को कहती रही। इसके चेहरे का भाव कितना सख़्त है। वह कहीं और खाकर आने का अनुरोध कर रही थी।

    सड़क पर मैं उनकी बौनी छाया की तरह चल रहा था। काश, सड़क पर निकलते ही गंदी नालियाँ, ख़ाली टीन, काग़ज़ के थैले पड़े होते, आस-पास के बच्चे कुछ तमीज़दार ढंग से कपड़े पहने होते और औरतें पेटीकोट-ब्लाउज़ पर कुछ और भी डाल लेतीं, कुत्ते झबरे और ख़ूबसूरत होते। बाहर निकलकर मैंने कुछ इस तरह देखा था, जैसे उनकी जहाज़गाड़ी को तलाश कर रहा हूँ। इस गाड़ी का अहसास मेरे दिमाग़ पर लगातार ख़ुदा हुआ था।

    बेकरी वाले की दुकान पर मैंने भरसक लापरवाही और आत्मविश्वास से कहा था, ‘‘भाई, एकाध फ़ोन करेंगे...’’ कभी दस पैसे का बिस्कुट भी लेने आने वाले इस ‘आदमी’ को बेकरी वाले ने भी आश्चर्य से देखा था। वह फ़ोन की तरफ़ इशारा करके उसी संजीदगी से सामने खड़े किसी नौकरनुमा के लिए पहिया घुमा-घुमाकर स्लाइसें तराशता रहा।

    घड़ी पर लहराती कुर्ते की भव्य आस्तीन वाले हाथ से टेलीफ़ोन उठाकर वे डायल घुमाने लगे। साले, तुझे क्या पता कि मेरे साथ कौन है? जिन टॉफ़ी और बिस्कुटों को सारे दिन खड़े-खड़े बेचा करता है, उनकी चार-छह तो मिलें होंगी इनकी। मिल होती हैं या फ़ैक्टरी? तुझ जैसे नौकर इनके ऑफ़िस में घुसने की हिम्मत नहीं कर पाते होंगे। हो सकता है किसी मिनिस्टर-कमिश्नर से ही बोल रहे हों, ‘‘नहीं जी, मुझे यहीं ठहरना था। अपना ही घर है।’’ पता नहीं उधर कौन है? एक अच्छी-सी नौकरी मुझे नहीं दिला सकते? दो-तीन फ़ोन किए। मैंने जल्दी से रुपया निकालकर दुकान वाले की तरफ़ बढ़ा दिया। ‘‘अरे, अरे रे...’’ वे कहते ही रह गए। उनकी जेकेट के बटन ही नहीं खुले थे। इतने बड़े आदमी, जिनके एक इशारे पर बड़ी-से-बड़ी सवारी सामने आकर खड़ी हो जाती हो, उनके सामने स्कूटर या बस की बात बड़ी टुच्ची लगेगी। टैक्सी ही ठीक रहेगी। पता नहीं, कहाँ-कहाँ जाएँ, कितना मीटर बने...देखी जाएगी। सुबह का खाना ही खाते तो दस-पंद्रह रुपए ठंडे हो जाते। यही समझूँगा कि वही रुपए यहाँ ख़र्च कर रहा हूँ। हो सकता है मुझे देने ही दें...और देना पड़ भी गया तो यह इनवेस्टमेंट है...मैंने टैक्सी को संकेत किया...

    उनके बार-बार आग्रह के बावजूद मैं उनकी बग़ल में बैठकर ड्राइवर के साथ ही बैठ गया। दिल्ली की टैक्सियों की हालत भीतर से इतनी ख़राब है, यह मैंने पहली ही बार देखा। फटी गंदी गद्दियाँ, खटर-खटर, चूँ-चूँ की आवाज़ें...पहिए चाहे जिस स्पीड से चलें, लेकिन मीटर पर पैसे स्पूतनिक की स्पीड से आते हैं। हर बार पैसे बदलने पर मेरे दिल में खट होता था।

    बैठे-बैठे व्यर्थ ही पुष्पा पर ग़ुस्सा आने लगा, साली कमीनी! मैंने यूँ ही सोचा। समझ में नहीं रहा था कि उनसे क्या बात करूँ? कुछ नहीं, कुछ नहीं, इन बीवी-बच्चों और गृहस्थी ने किसी भी लायक़ नहीं छोड़ा। लगा, जो कुछ भी बोलूँगा, वह निहायत ही छिछला और व्यर्थ होगा। सोचेंगे, रहा यह टकियल क्लर्क ही। पता नहीं कैसे, उस क्षण मैं पीछे वाले मेहमान को एकदम भूल गया। गँवार, जाहिल, घुन्नी...मैं अगर जूती बराबर नहीं हूँ तो कोई बात नहीं, लेकिन यह तो कमीनेपन की हद है कि किसी को एक दिन को मेहमान मानकर उसकी ख़ातिर कर सके! मान लो, एक दिन को कोई बड़ा आदमी अपने यहाँ ही गया तब तो...

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानियाँ (पृष्ठ 193)
    • संपादक : श्रीकृष्णलाल
    • रचनाकार : राजेंद्र यादव
    • प्रकाशन : साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड

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