अलियार जब मरा तो दो पुत्र, छोटा-सा घर और थोड़ी-सी ज़मीन छोड़कर मरा। दसवें के दिन दोनों भाई क्रिया-कर्म समाप्त करके सिर मुंडाकर आए तो आने के साथ ही बँटवारे का प्रश्न छिड़ गया। और इस समस्या के समाधान के लिए इतने ज़ोरो से लाठियाँ चलीं कि दोनों भाइयों के मुंडित मुंड फूट गए।
दोनों भाइयों ने इस प्रकार एक दूसरे का सिर फोड़कर अपना-अपना अपमान मान लिया। बड़े भाई 'मुसाफ़िर' की धारणा थी कि छोटे भाई ने सिर फोड़कर मेरा भारी अपमान किया है। छोटे भाई 'जगन' की भी यही शिकायत थी कि बड़के भइया ने बड़ी मज़बूत लाठी से मेरा अपमान किया है। दोनों ने प्रतिज्ञा की कि इस अपमान का बदला नहीं लिया, तो मेरा नाम नहीं।
किंतु अपमान के प्रतिशोध के लिए मुक़दमा लड़ने को किसी के पास पैसे नहीं थे। केवल लाठियों का भरोसा था; लेकिन इसका मौक़ा नहीं था। दोनों ही सतर्क रहते थे। ख़ैर, किसी प्रकार दोनों भाई अपने उसी घर में एक म्यान में दो तलवार की तरह रहने लगे, लेकिन एक म्यान में दो तलवारों के रहने से तलवारों का उतना नुक़सान नहीं होता जितना कि बेचारे म्यान का! दोनों का क्रोध अपने घर ही पर उतरता था। मुसाफ़िरराम को ज़रूरत हुई तो छोटे भाई के लगाए हुए कुम्हड़े और करेले की लताओं को तहस-नहस करके अपनी गोशाला बना ली। इधर जगन ने आवश्यक समझते ही बड़े भाई के भंडार-घर को तोड़कर दरवाज़े के साथ मिला दिया। घर तोड़ने की ख़बर सुनते ही मुसाफ़िरराम अपने भाई का सिर तोड़ने के लिए तैयार हो गए, किंतु गाँव वालों ने बीच-बचाव करके झगड़ा शांत कर दिया।
यह लड़ाई केवल पुरुषों तक ही थी, यह बात नहीं है। स्त्रियों में भी ऐसा घमासान वाग्युद्ध होता था जिसका ठिकाना नहीं।
हाथ चमकाकर, माथा मटकाकर, नथ हिलाकर, ऐसी-ऐसी गालियों की बौछार की जाती थी जिसका अमृतरस लूटने के लिए गाँव की सारी महिलाएँ एकत्र हो जाती थीं। मुनिया को आदमी का माँस खाना अभीष्ट नहीं था, फिर भी बड़ी तेज़ी से निनाद करके रधिया को धमकी देती थी—तेरा भतार खा जाऊँगी। रधिया भला अपनी चीज़ कैसे दे सकती थी? चट से कहती—मेरा भतार क्यों खाएगी, तेरा मुस्टंडा तो अभी जीता ही है, उसी को चबा। इसी प्रकार दोनों देवरानी-जेठानी साहित्य के नवरसों से भिन्न गाली-रस की सृष्टि करती थीं।
यह लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौज, एक-दो दिन रहता, तब तो ठीक, यहाँ तो महीने की लंबी डग मारता हुआ साल चला गया। घर और बाहर सभी इस झगड़े से ऊब उठे। गाँव वालों ने कहा—भाई, तुम लोग आपस मे क्यों इतना झगड़ा करते हो? अपनी-अपनी चीज़ें बराबर बाँट लो, बस झगड़ा ख़त्म हो गया।
दोनों ने सकार लिया, बात ठीक है।
आख़िर एक दिन गाँव वालों की पंचायत जमा हुई। सब कुछ देख-भाल कर दुखहरन पांडे ने तम्बाकू फाँकते हुए फ़ैसला सुना दिया! और तब आँगन के बीच में दीवार खींच दी गई। घर की कोठरियों को गिन-गिनकर अलग किया गया। हल, बैल, खेती-बाड़ी सब कुछ अलग-अलग हो गए। अब कोई भाई किसी से बोलना भी पसंद नहीं करता था। एक दूसरे को देखते ही घृणा से मुँह फेर लेता था।
(2)
उपर्युक्त घटना को दो वर्ष बीत गए।
बिल्ली की तरह घर-घर घूमने वाली पद्मिनी काकी एक दिन मुसाफ़िर के घर में जाकर बोली—मुँह मीठा कराओ, तो एक बात कहूँ!
रधिया ने उत्सुकता से पूछा—कौन बात है काकी, कहो न?
'तुम्हारा भतीजा होने वाला है।'
रधिया का चेहरा घृणा से सिकुड़ गया। क्रोध से जल उठी। मुँह बिचकाकर बोली—अय नौज, चूल्हे-भनसार में पड़े भतीजा, और देवी मइया के खप्पर में जाए हमारे देवर-देवरानी। इनको बेटी-बेटा हो, इससे हमको क्या और नहीं हो, इससे क्या। अगर इन लोगों का बस चले सो हम लोगों को न जाने कब फाँसी लटका दें। ये लोग जैसे अपने हैं, उससे ग़ैर ही कहीं अच्छे।
इस प्रकार रधिया ने भली-भाँति साबित कर दिया कि इससे मुझे तनिक भी ख़ुशी नहीं और पद्मिनी काकी का मुँह मीठा खाने लायक़ नहीं है।
यह बात बड़े विस्तारपूर्वक मुनिया के निकट पहुँची। रधिया जलती है, यह सुनते ही उसे एक ईर्ष्यामय आनंद हुआ। बोली—अभी से उस कलमुँही के कपार में आग लग गई, तब तो लड़का होने से वह छाती फाड़कर मर जाएगी!
जगन घर में आया, तो उसे भी यही समाचार सुनना पड़ा। सुनकर उसे हर्ष नहीं हुआ। घृणा से जी छोटा हो गया। अपने भाई-भौजाई होकर भी ये लोग कितने नीच हैं! बोला—वे लोग तो जन्म के जलन्त, उनकी बात को लेकर कहाँ तक क्या किया जाए?
उन दिनों पद्मिनी काकी प्रतिदिन, एक नई सनसनीदार घटना की ख़बर लेकर मुनिया के निकट उपस्थित होती थी। आज रधिया देवी मैया के मंदिर में धरना देने गई है कि तुम्हारे पेट का लड़का नष्ट हो जाए। आज एक ओझा बुलाया गया है। बड़ा नामी ओझा है। उसके मंतर का मारा हुआ पानी भी नहीं पीता। भगवान जाने क्या होगा। रोज़ इसी प्रकार की नई घटनाओं का उल्लेख करके वह मुनिया से कुछ-न-कुछ जोग-ठोट के लिए झटक ही लेती थी।
किसी प्रकार इन मारण-मोहन-उच्चाटन-वशीकरण से घोर युद्ध करता हुआ कई महीनों का सुदीर्घ समय व्यतीत हो गया। आज मुनिया को लड़का होने वाला है। उसकी वर्षों की मुराद पूरी होगी। ख़ाली गोद भर जाएगी। जगन के इष्टमित्र भी चहक रहे थे—भाई, भर-पेट खिलाना पड़ेगा, यहाँ पौने तीन सेर से छटाक-भर भी कम नहीं खाते। जगन प्रसन्नता-पुलकित होते उत्तर देता—अरे, इतना खिलाऊँगा कि खाते-खाते पेट फट जाएगा। भीतर गाँव की बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ बच्चे की सेवा-सुश्रूषा कर रही थीं। अन्य महिलाएँ स्वयंसेविकाओं की तरह दूसरे-दूसरे काम में व्यस्त थीं; किंतु न मुसाफ़िर का पता था और न रधिया का। बाहर एक आदमी ने जगन से कहा—इस समय तुम्हें सब बैर भूलकर अपने भाई को बुलाना चाहिए था। जगन ने उत्तर दिया—बुलाया भाई, पचासों दफ़े आदमी भेजा, ख़ुद गया, जब आते ही नहीं, तो क्या करूँ?
भीतर की औरतें आपस में कह रही थीं, ऐसे समय में आदमी सब लागडाट भूल जाते हैं। भाई-भौजाई होकर भी वे लोग नहीं आए।
इस समय भी मुनिया कहने से न चूकी—चूल्हे में जाएँ वे लोग, नहीं आए, यही अच्छा हुआ?
उस समय रधिया अपने घर में चिंता से चूर बैठी थी। ईर्ष्या से उसका कलेजा जल रहा था। बार-बार भगवान को दोष दे रही थी, उसे क्यों लड़का हो रहा है, मुझे क्यों नहीं हुआ?
मुसाफ़िर को तो ऐसा मालूम होता था जैसे उसका सर्वस्व लुट गया। अगर कहीं लड़का हुआ, तो मेरे घर-द्वार का भी वही मालिक होगा। आज तक उसने कभी अपने निःसंतान होने के विषय में नहीं सोचा था किंतु अब यही बात तीर की तरह उसके हृदय को बार-बार बेध रही थीं। गाल पर हाथ रखे वह इन्हीं ईर्ष्यामय विचारों में मग्न था। पड़ोस का शोर उसे ऐसा मालूम होता था, जैसे यह सब आयोजन उसी को चिढ़ाने के लिए किया गया है।
इसी समय मालूम हुआ कि जगन के यहाँ लड़की पैदा हुई है।
मुसाफ़िर ने एक लंबी साँस खींचकर कहा—जाने दो, लड़का नहीं पैदा हुआ यह अच्छा हुआ।
यह उसके मन की वह प्रवृत्ति थी, जो निराशा की डाल पर भी संतोष के घोंसले बनाती है।
(3)
समय-पंछी उड़ता हुआ छह वर्षों का पथ और भी पार कर गया।
जगन की लड़की मैना अपने द्वार पर बैठी हुई धूल के घरौंदे बनाती और बिगाड़ती नज़र आती थी। उसे देखकर मुसाफ़िर को क्रोध नहीं आता था, एक प्रकार का ममत्व जागृत हो उठता था। जी में आता था कि उस धूलि-धूसरित बालिका को गोद में उठाकर चूम ले। वह दूर से बैठकर उसकी बाल-क्रीड़ा को देखता था और फूला न समाता था। मैना को गोद में लेने की बलवती इच्छा को वह कैसे दबाता था, यह उसके सिवा और किसी को नहीं मालूम।
असाढ़ रथ द्वितीया के दिन उसी के गाँव के समीप करौंदी में मेला लगता था। उस मेले में कोई ख़ास बात नहीं थी। जगन्नाथ स्वामी के मंदिर में ख़ूब घड़ियाल-घंटा बजाकर उनकी पूजा होती थी। संध्या के समय, मनुष्यों के रथ पर लादकर, देवताओं को एक मंदिर से दूसरे मंदिर में पहुँचा दिया जाता था। आसपास के सभी गाँव वाले वहाँ एकत्र होते थे, काफ़ी भीड़ जुट जाती थी। मुसाफ़िर भी वहाँ गया था। वहाँ खिलौनों की दुकान देखकर ठिठक गया। इच्छा हुई कि मैना के लिए कुछ खिलौने लेता चलूँ। फिर सोचा—मगर इसके लिए कहीं जगन या उसकी बहू कुछ कह दें तब? उसने इच्छा को बलपूर्वक त्याग दिया और आगे बढ़ा। आगे भी खिलौने की दुकान थी, एक-से-एक अच्छे खिलौने भली-भाँति सजाकर रखे हुए थे। मुसाफ़िर रुक गया और दुकान की ओर देखने लगा। खिलौने सभी सुंदर थे, जिस पर दृष्टि जाती थी उससे आँखों को हटाना कठिन था। यदि इनमें से एक भी खिलौना मैना को मिले तो वह कितनी ख़ुश होगी। मुसाफ़िर की कल्पना की आँखों के आगे मैना उसके दिए हुए खिलौने को लेकर छाती से लगाए हुए दिखलाई पड़ने लगी। वह इसी आत्मविस्मृत दशा में दुकान के सामने जाकर खड़ा हो गया। एक खिलौना उठाकर पूछा—इसका कितना दाम है?
'छह आने'!
मुसाफ़िर को मानो होश हुआ। यह खिलौना मैं किसके लिए ख़रीद रहा हूँ। उसी के लिए जो मेरे बैरी की लड़की है। मगर अब क्या करता? दाम पूछ चुका था, अगर वहाँ से यूँही चल देता तो बड़ी हेठी होती।
टाल देने के लिए बोला—तीन आने में देते हो तो दे दो।
'अगर लेना ही है तो चार आने से कौड़ी कम नहीं लूँगा।'
अब तो सिर्फ़ चार पैसो पर बात अटक गई। अगर ले ही लूँ, तो क्या होगा। मेरा दुश्मन जगन है कि उसकी लड़की। बेचारी का क्या क़ुसूर। जैसे वह जगन की लड़की है वैसे ही मेरी लड़की है। बेचारी को मैंने कभी कुछ नहीं दिया। लोग अपने भतीजे-भतीजी को लाख-दो-लाख दे देते हैं, अगर मैंने एक चार आने का खिलौना ही दे दिया तो क्या दिया!
मुसाफ़िर जब खिलौने को ख़रीदकर चला तो उसके हृदय में जितना उल्लास था उतनी ही झगड़े की आशंका भी थी।
साँझ के समय घर पहुँचा। मैना उस समय अपने पिता से पाई हुई सीटी बजा-बजाकर ख़ुश हो रही थी। इसी समय मुसाफ़िर जाकर उसके सामने खड़ा हो गया। खिलौना हाथ पर रखकर कहा—देख बेटी, यह खिलौना तेरे लिए लाया हूँ, पसंद है?
मैना ख़ुशी से नाच उठी। बोली—हाँ चाचा, ख़ूब पसंद है; अबकी मेले में जाओगे तो मेरे लिए एक हाथी, एक ख़रगोश और एक कछुआ लेते आओगे?
'अच्छा लेता आऊँगा’—कहकर मुसाफ़िर ने उसे गोद में उठाकर चूम लिया।
मैना बोली—तुम बड़े अच्छे आदमी हो चाचा, तुम मेरे लिए मेले से खिलौना ला देते हो, गोद में लेकर दुलार करते हो।
मुसाफ़िर ने स्नेह से पूछा—और तेरा बाप, दुलार नहीं करता?
मैना सिर हिलाती हुई बोली—नहीं, वह दुलार नहीं करता, वह तो मुझे गोद में भी नहीं लेता।
(4)
एक दिन मुसाफ़िर गोद में मैना को लिए घर के भीतर गया तो रधिया बोली—तुम्हारे रंग-ढंग मुझे अच्छे नहीं लगते।
मुसाफ़िर न सहज उत्सुकता से पूछा—क्यों, क्या हुआ?
'पराई बेटी के पीछे काम-धंधा छोड़कर, दिन-रात पागल बने फिरते हो। अगर अपनी बेटी होती तो क्या करते। कल खेत पर भी नहीं गए, सारा दिन बाँस की गाड़ी बनाने में बिता दिया।'
मुसाफ़िर ने हँस कर कहा—पराई बेटी कैसे हुई? क्यों मैना, तू दूसरे की बेटी है?
मैना ने सिर हिलाकर कहा—नहीं।
'तब किसकी बेटी है’?
मैना उसके गले में अपनी दोनों बाहें डालकर बोली—तुम्हारी।
मुसाफ़िर मुस्कुराता हुआ गर्व से अपनी पत्नी की ओर देखकर बोला—देखती हो?
रधिया ने कहा—सब देखती हूँ; लेकिन अगर कुछ हो गया, तो यही समझ लो कि तुम्हारे सिर का बाल भी नहीं बचेगा। जो कुछ असर-कसर वाक़ी है, वह भी पूरी हो जाएगी।
मुसाफ़िर ने मैना को चूमकर कहा—मेरी बेटी को क्यों कुछ होगा, जो कुछ होना होगा, सो इसके दुश्मन को होगा। क्यों बेटी?
मैना ने सिर हिलाकर अपनी सम्मति जता दी।
रधिया ने मुँह फुलाकर कहा—एक दफ़े कपार फुटवा ही चुके, अबकी मालूम होता है मूँछे उखड़वाओगे।
मुसाफ़िर के दिल में कुछ चोट लगी। उसने सिर उठाकर कहा—तुम तो मैना को फूटी आँखों भी नहीं देख सकती। यह मेरी गोद में नहीं आए, तब तुम्हारा कलेजा ठंडा रहेगा।
रधिया तीव्र स्वर में बोली—कौन कहता है कि मैना मुझे फूटी आँखों नहीं सुहाती? बोलते कुछ लाज भी लगती है कि नहीं! लड़के-बच्चे भी किसी के दुश्मन होते हैं। मैना को देखती हूँ, तो गोद में लेने के लिए तरसकर रह जाती हूँ, मगर करूँ तो क्या, इसके माँ-बाप ऐसे हैं जिनसे दुश्मन भी भला। छोड़ देती हूँ, कौन जाने मैना को दुलार करने से हमारी मालकिनजी राँड-निपूती कहने लगें।
इसी समय मैना अपने चाचा की गर्दन झकझोरकर बोली—चाचा, चलो गाड़ी पर चढ़ाकर टहला दो।
'चल!' कहता हुआ मुसाफ़िर उसे लिए हुए घर से बाहर चला गया।
उस दिन मैना गाड़ी पर चढ़कर ख़ूब घूमी, लेकिन जब उसकी छोटी-सी गाड़ी समस्त गाँव की परिक्रमा करके लौटी, तो उसे कुछ ज्वर-सा हो आया था। मुसाफ़िर ने देखा कि उनका शरीर कुछ गर्म है। बोला—घर चली जाओ बेटी, शायद तुम्हें बुख़ार आएगा।
मैना ज़िद करने लगी—नहीं चाचा, थोड़ा और घुमा दो। थोड़ा-सा। फिर घर चली जाऊँगी।
'नहीं नहीं, अब घर जाओ।'
मैना मलीन मन गाड़ी से उतरकर घर चली गर्इ। उस दिन वह बहुत उदास हो गई थी। चाचा यदि थोड़ा और घुमा देते तो क्या होता?
(5)
दूसरे दिन मुसाफ़िर दिन-भर मैना को नहीं देख सका। मालूम हुआ कि उसे ज्वर हो आया है। मुसाफ़िर दिन-भर बहुत ही उदास रहा। खेत पर भी नहीं जा सका। बैल भूखे थे, उन्हें सानी देने की भी याद नहीं रही। मालूम होता था जैसे वह निर्वासित कर दिया गया है। मैना के बिना उसे अपना जीवन सुनसान और भयावना प्रतीत होता था। वह जहाँ बैठा था, दिन भर वहीं बैठा रह गया। रात हुई तो रधिया आकर बोली—आज खाओगे नहीं क्या?
'ना, आज भूख नहीं है।'
'तुम तो मुफ़्त में अपनी जान गँवा रहे हो, जिन लोगों के लिए प्राण हत रहे हो उन्हें तो तुम्हारी परवाह नहीं है। यह किसी से नहीं हुआ कि तनिक बुलाकर दिखला देते। हाय री बच्ची, कल ही भली-चंगी थी, आज न-जाने कैसे क्या हो गया। मेरा तो जी चाहता है कि जाकर एक बार देख आती।
मुसाफ़िर प्रसन्न होकर बोला—चली जाओ न, देखती आना।
रधिया ने कहा—जाती तो; लेकिन महारानीजी से डर लगता है कि कहीं डाइन कहके बदनाम न कर दे। और तुम्हारा सपूत भाई भी कम नहीं है। ना, मैं नहीं जाऊँगी, तुम्हीं जाओ।
'तुम्हारे जाने से लोग बुरा मानेंगे, तो क्या मेरे जाने से भला मानेंगे?'
'तो जाने दो, मगर चलो खा लो। ऐसे कब तक रहोगे?'
'जब तक मन करेगा।'
'भगवान लोगों को दुख देते हैं, तो क्या सभी खाना छोड़ देते है? दुनिया का काम तो सभी को करना ही पड़ता है।'
'खाऊँगा तो ज़रूर; लेकिन अभी भूख नहीं है।'
रधिया निराश होकर चली गई। मुसाफ़िर वहाँ बैठा-बैठा क्या सोच रहा था, यह वहीं जाने; लेकिन जब रात भीग गई, दस से ऊपर हो गए और रात्रि के सन्नाटे में कुत्तों का भोंकना जारी हो गया तब मुसाफ़िर जगन के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। दीवार से कान लगाकर, बहुत देर तक मैना की बोली सुनने की चेष्टा की; किंतु निष्फल ही रहा। अंत में निराश होकर घर लौट पाया और चुपचाप सो गया।
मैना तीन-चार दिनों तक तो बुख़ार में डूबी रही, पाँचवे दिन सन्निपात हो गया। बचने की आशा जाती रही। मुसाफ़िर यह सब सुनता था और मन-ही-मन हाय करके रह जाता था।
आख़िर एक दिन मुनिया के क्रंदन से जगन का घर गूँज उठा। मुसाफ़िर के हाथ-पाँव फूल गए। वह पागल की तरह दौड़ा हुया जगन के आँगन में पहुँच गया। घबराया हुआ बोला—जगन, जगन, क्या हुआ? जगन रोता हुआ घर से निकला—भैया, हम लुट गए, भैया, मैना!...
मुसाफ़िर भी कातर भाव से हाहाकार करके रो उठा, हाय मेरी बच्ची!
जब लोग मैना की लाश को उठाकर ले चले, उस समय मुनिया भी सिर के बाल खोले पागलों की तरह रोती हुई जा रही थी। हाय रे! मेरी भली-सी बच्ची को लेकर तुम लोग कहाँ जा रहे हो? लाओ, उसे मुझे दो, वह दूध पीकर चुपचाप सो जाएगी। हाय रे, मेरी बच्ची! सुनो... सुनो तो...
इसी समय रधिया अपने घर से दौड़ती हुई निकली और मुनिया को पकड़ लिया। उसे अपनी छाती से लगाकर बोली—न रोओ बहन, न रोओ।
भगवान ने हम लोगों को दुःख दिया है तो सहना ही पड़ेगा!
उस समय तक शव ले जाने वाले आँखों की ओट हो चुके थे।
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(2)
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(3)
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chhah ane!
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tal dene ke liye bola—tin aane mein dete ho to de do
agar lena hi hai to chaar aane se kauDi kam nahin lunga
ab to sirf chaar paiso par baat atak gai agar le hi loon, to kya hoga mera dushman jagan hai ki uski laDki bechari ka kya qusur jaise wo jagan ki laDki hai waise hi meri laDki hai bechari ko mainne kabhi kuch nahin diya log apne bhatije bhatiji ko lakh do lakh de dete hain, agar mainne ek chaar aane ka khilauna hi de diya to kya diya!
musafi jab khilaune ko kharidkar chala to uske hirdai mein jitna ullas tha utni hi jhagDe ki ashanka bhi thi
sanjh ke samay ghar pahuncha maina us samay apne pita se pai hui siti baja bajakar khush ho rahi thi isi samay musafi jakar uske samne khaDa ho gaya khilauna hath par rakhkar kaha—dekh beti, ye khilauna tere liye laya hoon, pasand hai?
maina khushi se nach uthi boli—han chacha, khoob pasand hai; abki mele mein jaoge to mere liye ek hathi, ek khargosh aur ek kachhuwa lete aoge?
achchha leta aunga’—kahkar musafi ne use god mein uthakar choom liya
maina boli—tum baDe achchhe adami ho chacha, tum mere liye mele se khilauna la dete ho, god mein lekar dular karte ho
musafi ne sneh se puchha—aur tera bap, dular nahin karta?
maina sir hilati hui boli—nahin, wo dular nahin karta, wo to mujhe god mein bhi nahin leta
(4)
ek din musafi god mein maina ko liye ghar ke bhitar gaya to radhiya boli—tumhare rang Dhang mujhe achchhe nahin lagte
musafi na sahj utsukta se puchha—kyon, kya hua?
parai beti ke pichhe kaam dhandha chhoDkar, din raat pagal bane phirte ho agar apni beti hoti to kya karte kal khet par bhi nahin gaye, sara din bans ki gaDi banane mein bita diya
musafi ne hans kar kaha—parai beti kaise hui? kyon maina, tu dusre ki beti hai?
maina ne sir hilakar kaha—nahin
tab kiski beti hai’?
maina uske gale mein apni donon bahen Dalkar boli—tumhari
musafi muskurata hua garw se apni patni ki or dekhkar bola—dekhti ho?
radhiya ne kaha—sab dekhti hoon; lekin agar kuch ho gaya, to yahi samajh lo ki tumhare sir ka baal bhi nahin bachega jo kuch asar kasar waqi hai, wo bhi puri ho jayegi
musafi ne maina ko chumkar kaha—meri beti ko kyon kuch hoga, jo kuch hona hoga, so iske dushman ko hoga kyon beti?
maina ne sir hilakar apni sammati jata di
radhiya ne munh phulakar kaha—ek dafe kapar phutwa hi chuke, abki malum hota hai munchhe ukhaDwaoge
musafi ke dil mein kuch chot lagi usne sir uthakar kaha—tum to maina ko phuti ankhon bhi nahin dekh sakti ye meri god mein nahin aaye, tab tumhara kaleja thanDa rahega
radhiya teewr swar mein boli—kaun kahta hai ki maina mujhe phuti ankhon nahin suhati? bolte kuch laj bhi lagti hai ki nahin! laDke bachche bhi kisi ke dushman hote hain maina ko dekhti hoon, to god mein lene ke liye taraskar rah jati hoon, magar karun to kya, iske man bap aise hain jinse dushman bhi bhala chhoD deti hoon, kaun jane maina ko dular karne se hamari malakinji ranD niputi kahne lagen
isi samay maina apne chacha ki gardan jhakjhorkar boli—chacha, chalo gaDi par chaDhakar tahla do
chal! kahta hua musafi use liye hue ghar se bahar chala gaya
us din maina gaDi par chaDhkar khoob ghumi, lekin jab uski chhoti si gaDi samast ganw ki parikrama karke lauti, to use kuch jwar sa ho aaya tha musafi ne dekha ki unka sharir kuch garm hai bola—ghar chali jao beti, shayad tumhein bukhar ayega
maina zid karne lagi—nahin chacha, thoDa aur ghuma do thoDa sa phir ghar chali jaungi
nahin nahin, ab ghar jao
maina malin man gaDi se utarkar ghar chali gari us din wo bahut udas ho gai thi chacha yadi thoDa aur ghuma dete to kya hota?
(5)
dusre din musafi din bhar maina ko nahin dekh saka malum hua ki use jwar ho aaya hai musafi din bhar bahut hi udas raha khet par bhi nahin ja saka bail bhukhe the, unhen sani dene ki bhi yaad nahin rahi malum hota tha jaise wo nirwasit kar diya gaya hai maina ke bina use apna jiwan sunsan aur bhayawana pratit hota tha wo jahan baitha tha, din bhar wahin baitha rah gaya raat hui to radhiya aakar boli—aj khaoge nahin kya?
na, aaj bhookh nahin hai
tum to muft mein apni jaan ganwa rahe ho, jin logon ke liye paran hat rahe ho unhen to tumhari parwah nahin hai ye kisi se nahin hua ki tanik bulakar dikhla dete hay ri bachchi, kal hi bhali changi thi, aaj na jane kaise kya ho gaya mera to ji chahta hai ki jakar ek bar dekh aati
radhiya ne kaha—jati to; lekin maharaniji se Dar lagta hai ki kahin Dain kahke badnam na kar de aur tumhara saput bhai bhi kam nahin hai na, main nahin jaungi, tumhin jao
tumhare jane se log bura manenge, to kya mere jane se bhala manenge?
to jane do, magar chalo kha lo aise kab tak rahoge?
jab tak man karega
bhagwan logon ko dukh dete hain, to kya sabhi khana chhoD dete hai? duniya ka kaam to sabhi ko karna hi paDta hai
khaunga to zarur; lekin abhi bhookh nahin hai
radhiya nirash hokar chali gai musafi wahan baitha baitha kya soch raha tha, ye wahin jane; lekin jab raat bheeg gai, das se upar ho gaye aur ratri ke sannate mein kutton ka bhonkna jari ho gaya tab musafi jagan ke dwar par jakar khaDa ho gaya diwar se kan lagakar, bahut der tak maina ki boli sunne ki cheshta kee; kintu nishphal hi raha ant mein nirash hokar ghar laut paya aur chupchap so gaya
maina teen chaar dinon tak to bukhar mein Dubi rahi, panchawe din sannipat ho gaya bachne ki aasha jati rahi musafi ye sab sunta tha aur man hi man hay karke rah jata tha
akhir ek din muniya ke krandan se jagan ka ghar goonj utha musafi ke hath panw phool gaye wo pagal ki tarah dauDa huya jagan ke angan mein pahunch gaya ghabraya hua bola—jagan, jagan, kya hua? jagan rota hua ghar se nikla—bhaiya, hum lut gaye, bhaiya, maina!
musafi bhi katar bhaw se hahakar karke ro utha, hay meri bachchi!
jab log maina ki lash ko uthakar le chale, us samay muniya bhi sir ke baal khole paglon ki tarah roti hui ja rahi thi hay re! meri bhali si bachchi ko lekar tum log kahan ja rahe ho? lao, use mujhe do, wo doodh pikar chupchap so jayegi hay re, meri bachchi! suno suno to
isi samay radhiya apne ghar se dauDti hui nikli aur muniya ko pakaD liya use apni chhati se lagakar boli—n rowo bahan, na rowo
bhagwan ne hum logon ko duःkh diya hai to sahna hi paDega!
us samay tak shau le jane wale ankhon ki ot ho chuke the
aliyar jab mara to do putr, chhota sa ghar aur thoDi si zamin chhoDkar mara daswen ke din donon bhai kriya karm samapt karke sir munDakar aaye to aane ke sath hi bantware ka parashn chhiD gaya aur is samasya ke samadhan ke liye itne zoro se lathiyan chalin ki donon bhaiyon ke munDit munD phoot gaye
donon bhaiyon ne is prakar ek dusre ka sir phoDkar apna apna apman man liya baDe bhai musafi ki dharana thi ki chhote bhai ne sir phoDkar mera bhari apman kiya hai chhote bhai jagan ki bhi yahi shikayat thi ki baDke bhaiya ne baDi mazbut lathi se mera apman kiya hai donon ne prtigya ki ki is apman ka badla nahin liya, to mera nam nahin
kintu apman ke pratishodh ke liye muqadma laDne ko kisi ke pas paise nahin the kewal lathiyon ka bharosa tha; lekin iska mauqa nahin tha donon hi satark rahte the khair, kisi prakar donon bhai apne usi ghar mein ek myan mein do talwar ki tarah rahne lage, lekin ek myan mein do talwaron ke rahne se talwaron ka utna nuqsan nahin hota jitna ki bechare myan ka! donon ka krodh apne ghar hi par utarta tha musafirram ko zarurat hui to chhote bhai ke lagaye hue kumhDe aur karele ki lataon ko tahas nahas karke apni goshala bana li idhar jagan ne awashyak samajhte hi baDe bhai ke bhanDar ghar ko toDkar darwaze ke sath mila diya ghar toDne ki khabar sunte hi musafirram apne bhai ka sir toDne ke liye taiyar ho gaye, kintu ganw walon ne beech bachaw karke jhagDa shant kar diya
ye laDai kewal purushon tak hi thi, ye baat nahin hai striyon mein bhi aisa ghamasan wagyuddh hota tha jiska thikana nahin
hath chamkakar, matha matkakar, nath hilakar, aisi aisi galiyon ki bauchhar ki jati thi jiska amritras lutne ke liye ganw ki sari mahilayen ekatr ho jati theen muniya ko adami ka mans khana abhisht nahin tha, phir bhi baDi tezi se ninad karke radhiya ko dhamki deti thi—tera bhatar kha jaungi radhiya bhala apni cheez kaise de sakti thee? chat se kahti—mera bhatar kyon khayegi, tera mustanDa to abhi jita hi hai, usi ko chaba isi prakar donon dewrani jethani sahity ke nawarson se bhinn gali ras ki sirishti karti theen
ye laDai jhagDa, gali galauj, ek do din rahta, tab to theek, yahan to mahine ki lambi Dag marta hua sal chala gaya ghar aur bahar sabhi is jhagDe se ub uthe ganw walon ne kaha—bhai, tum log aapas mae kyon itna jhagDa karte ho? apni apni chizen barabar bant lo, bus jhagDa khatm ho gaya
donon ne sakar liya, baat theek hai
akhir ek din ganw walon ki panchayat jama hui sab kuch dekh bhaal kar dukhahran panDe ne tambaku phankate hue faisla suna diya! aur tab angan ke beech mein diwar kheench di gai ghar ki kothariyon ko gin ginkar alag kiya gaya hal, bail, kheti baDi sab kuch alag alag ho gaye ab koi bhai kisi se bolna bhi pasand nahin karta tha ek dusre ko dekhte hi ghrina se munh pher leta tha
(2)
uparyukt ghatna ko do warsh beet gaye
billi ki tarah ghar ghar ghumne wali padmini kaki ek din musafi ke ghar mein jakar boli—munh mitha karao, to ek baat kahun!
radhiya ne utsukta se puchha—kaun baat hai kaki, kaho n?
tumhara bhatija hone wala hai
radhiya ka chehra ghrina se sikuD gaya krodh se jal uthi munh bichkakar boli—ay nauj, chulhe bhansar mein paDe bhatija, aur dewi maiya ke khappar mein jaye hamare dewar dewrani inko beti beta ho, isse hamko kya aur nahin ho, isse kya agar in logon ka bus chale so hum logon ko na jane kab phansi latka den ye log jaise apne hain, usse ghair hi kahin achchhe
is prakar radhiya ne bhali bhanti sabit kar diya ki isse mujhe tanik bhi khushi nahin aur padmini kaki ka munh mitha khane layaq nahin hai
ye baat baDe wistarpurwak muniya ke nikat pahunchi radhiya jalti hai, ye sunte hi use ek irshyamay anand hua boli—abhi se us kalamunhi ke kapar mein aag lag gai, tab to laDka hone se wo chhati phaDkar mar jayegi!
jagan ghar mein aaya, to use bhi yahi samachar sunna paDa sunkar use harsh nahin hua ghrina se ji chhota ho gaya apne bhai bhaujai hokar bhi ye log kitne neech hain! bola—we log to janm ke jalant, unki baat ko lekar kahan tak kya kiya jaye?
un dinon padmini kaki pratidin, ek nai sanasnidar ghatna ki khabar lekar muniya ke nikat upasthit hoti thi aaj radhiya dewi maiya ke mandir mein dharna dene gai hai ki tumhare pet ka laDka nasht ho jaye aaj ek ojha bulaya gaya hai baDa nami ojha hai uske mantar ka mara hua pani bhi nahin pita bhagwan jane kya hoga roz isi prakar ki nai ghatnaon ka ullekh karke wo muniya se kuch na kuch jog thot ke liye jhatak hi leti thi
kisi prakar in maran mohan uchchatan washikarn se ghor yudh karta hua kai mahinon ka sudirgh samay wyatit ho gaya aaj muniya ko laDka hone wala hai uski warshon ki murad puri hogi khali god bhar jayegi jagan ke ishtmitr bhi chahak rahe the—bhai, bhar pet khilana paDega, yahan paune teen ser se chhatak bhar bhi kam nahin khate jagan prasannata pulkit hote uttar deta—are, itna khilaunga ki khate khate pet phat jayega bhitar ganw ki baDi buDhi striyan bachche ki sewa sushrusha kar rahi theen any mahilayen swyansewikaon ki tarah dusre dusre kaam mein wyast theen; kintu na musafi ka pata tha aur na radhiya ka bahar ek adami ne jagan se kaha—is samay tumhein sab bair bhulkar apne bhai ko bulana chahiye tha jagan ne uttar diya—bulaya bhai, pachason dafe adami bheja, khu gaya, jab aate hi nahin, to kya karun?
bhitar ki aurten aapas mein kah rahi theen, aise samay mein adami sab lagDat bhool jate hain bhai bhaujai hokar bhi we log nahin aaye
is samay bhi muniya kahne se na chuki—chulhe mein jayen we log, nahin aaye, yahi achchha hua?
us samay radhiya apne ghar mein chinta se choor baithi thi irshya se uska kaleja jal raha tha bar bar bhagwan ko dosh de rahi thi, use kyon laDka ho raha hai, mujhe kyon nahin hua?
musafi ko to aisa malum hota tha jaise uska sarwasw lut gaya agar kahin laDka hua, to mere ghar dwar ka bhi wahi malik hoga aaj tak usne kabhi apne niःsantan hone ke wishay mein nahin socha tha kintu ab yahi baat teer ki tarah uske hirdai ko bar bar bedh rahi theen gal par hath rakhe wo inhin irshyamay wicharon mein magn tha paDos ka shor use aisa malum hota tha, jaise ye sab ayojan usi ko chiDhane ke liye kiya gaya hai
isi samay malum hua ki jagan ke yahan laDki paida hui hai
musafi ne ek lambi sans khinchkar kaha—jane do, laDka nahin paida hua ye achchha hua
ye uske man ki wo prawrtti thi, jo nirasha ki Dal par bhi santosh ke ghonsle banati hai
(3)
samay panchhi uDta hua chhah warshon ka path aur bhi par kar gaya
jagan ki laDki maina apne dwar par baithi hui dhool ke gharaunde banati aur bigaDti nazar aati thi use dekhkar musafi ko krodh nahin aata tha, ek prakar ka mamatw jagrit ho uthta tha ji mein aata tha ki us dhuli dhusarit balika ko god mein uthakar choom le wo door se baithkar uski baal kriDa ko dekhta tha aur phula na samata tha maina ko god mein lene ki balawti ichha ko wo kaise dabata tha, ye uske siwa aur kisi ko nahin malum
asaDh rath dwitiya ke din usi ke ganw ke samip karaundi mein mela lagta tha us mele mein koi khas baat nahin thi jagannath swami ke mandir mein khoob ghaDiyal ghanta bajakar unki puja hoti thi sandhya ke samay, manushyon ke rath par ladkar, dewtaon ko ek mandir se dusre mandir mein pahuncha diya jata tha asapas ke sabhi ganw wale wahan ekatr hote the, kafi bheeD jut jati thi musafi bhi wahan gaya tha wahan khilaunon ki dukan dekhkar thithak gaya ichha hui ki maina ke liye kuch khilaune leta chalun phir socha—magar iske liye kahin jagan ya uski bahu kuch kah den tab? usne ichha ko balpurwak tyag diya aur aage baDha aage bhi khilaune ki dukan thi, ek se ek achchhe khilaune bhali bhanti sajakar rakhe hue the musafi ruk gaya aur dukan ki or dekhne laga khilaune sabhi sundar the, jis par drishti jati thi usse ankhon ko hatana kathin tha yadi inmen se ek bhi khilauna maina ko mile to wo kitni khush hogi musafi ki kalpana ki ankhon ke aage maina uske diye hue khilaune ko lekar chhati se lagaye hue dikhlai paDne lagi wo isi atmawismrit dasha mein dukan ke samne jakar khaDa ho gaya ek khilauna uthakar puchha—iska kitna dam hai?
chhah ane!
musafi ko mano hosh hua ye khilauna main kiske liye kharid raha hoon usi ke liye jo mere bairi ki laDki hai magar ab kya karta? dam poochh chuka tha, agar wahan se yunhi chal deta to baDi hethi hoti
tal dene ke liye bola—tin aane mein dete ho to de do
agar lena hi hai to chaar aane se kauDi kam nahin lunga
ab to sirf chaar paiso par baat atak gai agar le hi loon, to kya hoga mera dushman jagan hai ki uski laDki bechari ka kya qusur jaise wo jagan ki laDki hai waise hi meri laDki hai bechari ko mainne kabhi kuch nahin diya log apne bhatije bhatiji ko lakh do lakh de dete hain, agar mainne ek chaar aane ka khilauna hi de diya to kya diya!
musafi jab khilaune ko kharidkar chala to uske hirdai mein jitna ullas tha utni hi jhagDe ki ashanka bhi thi
sanjh ke samay ghar pahuncha maina us samay apne pita se pai hui siti baja bajakar khush ho rahi thi isi samay musafi jakar uske samne khaDa ho gaya khilauna hath par rakhkar kaha—dekh beti, ye khilauna tere liye laya hoon, pasand hai?
maina khushi se nach uthi boli—han chacha, khoob pasand hai; abki mele mein jaoge to mere liye ek hathi, ek khargosh aur ek kachhuwa lete aoge?
achchha leta aunga’—kahkar musafi ne use god mein uthakar choom liya
maina boli—tum baDe achchhe adami ho chacha, tum mere liye mele se khilauna la dete ho, god mein lekar dular karte ho
musafi ne sneh se puchha—aur tera bap, dular nahin karta?
maina sir hilati hui boli—nahin, wo dular nahin karta, wo to mujhe god mein bhi nahin leta
(4)
ek din musafi god mein maina ko liye ghar ke bhitar gaya to radhiya boli—tumhare rang Dhang mujhe achchhe nahin lagte
musafi na sahj utsukta se puchha—kyon, kya hua?
parai beti ke pichhe kaam dhandha chhoDkar, din raat pagal bane phirte ho agar apni beti hoti to kya karte kal khet par bhi nahin gaye, sara din bans ki gaDi banane mein bita diya
musafi ne hans kar kaha—parai beti kaise hui? kyon maina, tu dusre ki beti hai?
maina ne sir hilakar kaha—nahin
tab kiski beti hai’?
maina uske gale mein apni donon bahen Dalkar boli—tumhari
musafi muskurata hua garw se apni patni ki or dekhkar bola—dekhti ho?
radhiya ne kaha—sab dekhti hoon; lekin agar kuch ho gaya, to yahi samajh lo ki tumhare sir ka baal bhi nahin bachega jo kuch asar kasar waqi hai, wo bhi puri ho jayegi
musafi ne maina ko chumkar kaha—meri beti ko kyon kuch hoga, jo kuch hona hoga, so iske dushman ko hoga kyon beti?
maina ne sir hilakar apni sammati jata di
radhiya ne munh phulakar kaha—ek dafe kapar phutwa hi chuke, abki malum hota hai munchhe ukhaDwaoge
musafi ke dil mein kuch chot lagi usne sir uthakar kaha—tum to maina ko phuti ankhon bhi nahin dekh sakti ye meri god mein nahin aaye, tab tumhara kaleja thanDa rahega
radhiya teewr swar mein boli—kaun kahta hai ki maina mujhe phuti ankhon nahin suhati? bolte kuch laj bhi lagti hai ki nahin! laDke bachche bhi kisi ke dushman hote hain maina ko dekhti hoon, to god mein lene ke liye taraskar rah jati hoon, magar karun to kya, iske man bap aise hain jinse dushman bhi bhala chhoD deti hoon, kaun jane maina ko dular karne se hamari malakinji ranD niputi kahne lagen
isi samay maina apne chacha ki gardan jhakjhorkar boli—chacha, chalo gaDi par chaDhakar tahla do
chal! kahta hua musafi use liye hue ghar se bahar chala gaya
us din maina gaDi par chaDhkar khoob ghumi, lekin jab uski chhoti si gaDi samast ganw ki parikrama karke lauti, to use kuch jwar sa ho aaya tha musafi ne dekha ki unka sharir kuch garm hai bola—ghar chali jao beti, shayad tumhein bukhar ayega
maina zid karne lagi—nahin chacha, thoDa aur ghuma do thoDa sa phir ghar chali jaungi
nahin nahin, ab ghar jao
maina malin man gaDi se utarkar ghar chali gari us din wo bahut udas ho gai thi chacha yadi thoDa aur ghuma dete to kya hota?
(5)
dusre din musafi din bhar maina ko nahin dekh saka malum hua ki use jwar ho aaya hai musafi din bhar bahut hi udas raha khet par bhi nahin ja saka bail bhukhe the, unhen sani dene ki bhi yaad nahin rahi malum hota tha jaise wo nirwasit kar diya gaya hai maina ke bina use apna jiwan sunsan aur bhayawana pratit hota tha wo jahan baitha tha, din bhar wahin baitha rah gaya raat hui to radhiya aakar boli—aj khaoge nahin kya?
na, aaj bhookh nahin hai
tum to muft mein apni jaan ganwa rahe ho, jin logon ke liye paran hat rahe ho unhen to tumhari parwah nahin hai ye kisi se nahin hua ki tanik bulakar dikhla dete hay ri bachchi, kal hi bhali changi thi, aaj na jane kaise kya ho gaya mera to ji chahta hai ki jakar ek bar dekh aati
radhiya ne kaha—jati to; lekin maharaniji se Dar lagta hai ki kahin Dain kahke badnam na kar de aur tumhara saput bhai bhi kam nahin hai na, main nahin jaungi, tumhin jao
tumhare jane se log bura manenge, to kya mere jane se bhala manenge?
to jane do, magar chalo kha lo aise kab tak rahoge?
jab tak man karega
bhagwan logon ko dukh dete hain, to kya sabhi khana chhoD dete hai? duniya ka kaam to sabhi ko karna hi paDta hai
khaunga to zarur; lekin abhi bhookh nahin hai
radhiya nirash hokar chali gai musafi wahan baitha baitha kya soch raha tha, ye wahin jane; lekin jab raat bheeg gai, das se upar ho gaye aur ratri ke sannate mein kutton ka bhonkna jari ho gaya tab musafi jagan ke dwar par jakar khaDa ho gaya diwar se kan lagakar, bahut der tak maina ki boli sunne ki cheshta kee; kintu nishphal hi raha ant mein nirash hokar ghar laut paya aur chupchap so gaya
maina teen chaar dinon tak to bukhar mein Dubi rahi, panchawe din sannipat ho gaya bachne ki aasha jati rahi musafi ye sab sunta tha aur man hi man hay karke rah jata tha
akhir ek din muniya ke krandan se jagan ka ghar goonj utha musafi ke hath panw phool gaye wo pagal ki tarah dauDa huya jagan ke angan mein pahunch gaya ghabraya hua bola—jagan, jagan, kya hua? jagan rota hua ghar se nikla—bhaiya, hum lut gaye, bhaiya, maina!
musafi bhi katar bhaw se hahakar karke ro utha, hay meri bachchi!
jab log maina ki lash ko uthakar le chale, us samay muniya bhi sir ke baal khole paglon ki tarah roti hui ja rahi thi hay re! meri bhali si bachchi ko lekar tum log kahan ja rahe ho? lao, use mujhe do, wo doodh pikar chupchap so jayegi hay re, meri bachchi! suno suno to
isi samay radhiya apne ghar se dauDti hui nikli aur muniya ko pakaD liya use apni chhati se lagakar boli—n rowo bahan, na rowo
bhagwan ne hum logon ko duःkh diya hai to sahna hi paDega!
us samay tak shau le jane wale ankhon ki ot ho chuke the
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।