“घर की चारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है। स्कूल-कॉलेज जहाँ व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास करते हैं, वहीं नियम-क़ायदे और अनुशासन के नाम पर उसके व्यक्तित्व को कुंठित भी करते हैं—बात यह है बंधु कि हर बात का विरोध उसके भीतर ही रहता है।”
ये सब मैं किसी किताब के उदाहरण नहीं पेश कर रही। ऐसी भारी-भरकम किताबें पढ़ने का मेरा बूता ही नहीं। ये तो उन बातों और बहसों के टुकड़े हैं जो रात-दिन हमारे घर में हुआ करती हैं। हमारा घर, यानी बुद्धिजीवियों का अखाड़ा। यहाँ सिगरेट के धुएँ और कॉफ़ी के प्यालों के बीच बातों के बड़े-बड़े तूमार बाँधे जाते हैं... बड़ी-बड़ी शाब्दिक क्रांतियाँ की जाती हैं। इस घर में काम कम और बातें ज्य़ादा होती हैं। मैंने कहीं पढ़ा तो नहीं, पर अपने घर से यह लगता ज़रूर है कि बुद्धिजीवियों के लिए काम करना शायद वर्जित है। मातुश्री अपनी तीन घंटे की तफ़रीहनुमा नौकरी बजाने के बाद मुक्त। थोड़ा-बहुत पढ़ने-लिखने के बाद जो समय बचता है वह या तो बात-बहस में जाता है या फिर लोट लगाने में। उनका ख़याल है कि शरीर के निष्क्रिय होते ही मन-मस्तिष्क सक्रिय हो उठते हैं और ये दिन के चौबीस घंटों में से बारह घंटे अपना मन-मस्तिष्क ही सक्रिय बनाए रखती हैं। पिताश्री और भी दो क़दम आगे! उनका बस चले तो वे नहाएँ भी अपनी मेज़ पर ही।
जिस बात की हमारे यहाँ सबसे अधिक कताई होती है, वह है— आधुनिकता! पर ज़रा ठहरिए, आप आधुनिकता का ग़लत अर्थ मत लगाइए। यह बाल कटाने और छुरी-काँटे से खाने वाली आधुनिकता कतई नहीं। यह है ठेठ बुद्धिजीवियों की आधुनिकता। यह क्या होती है सो तो ठीक-ठीक मैं भी नहीं जानती—पर हाँ, इसमें लीक छोड़ने की बात बहुत सुनाई देती है। आप लीक की दुलत्ती झाड़ते आइए, सिर-आँखों पर लीक से चिपककर आइए, दुलत्ती खाइए।
बहसों में यों दुनिया-जहान के विषय पीसे जाते हैं पर एक विषय शायद सब लोगों को बहुत प्रिय है और वह है शादी। शादी यानी बर्बादी। हल्के-फुल्के ढंग से शुरू हुई बात एकदम बौद्धिक स्तर पर चली जाती है— विवाह संस्था एकदम खोखली हो चुकी है...पति-पत्नी का संबंध बड़ा नक़ली और ऊपर से थोपा हुआ है—और फिर धुआँधार ढंग से विवाह की धज्जियाँ उड़ाई जाती हैं। इस बहस में अक्सर स्त्रियाँ एक तरफ़ हो जातीं और पुरुष एक तरफ़, और बहस का माहौल कुछ ऐसा गर्म हो जाया करता कि मुझे पूरा विश्वास हो जाता कि अब ज़रूर एक-दो लोग तलाक़ दे बैठेंगे। पर मैंने देखा कि ऐसा कोई हादसा कभी हुआ नहीं। सारे ही मित्र लोग अपने-अपने ब्याह को ख़ूब अच्छी तरह तह-समेटकर, उस पर जमकर आसन मारे बैठे हैं। हाँ, बहस की रफ़्तार और टोन आज भी वही है।
अब सोचिए, ब्याह को कोसेंगे तो फ्री-लव और फ्री-सेक्स को तो कोसना ही पड़ेगा। इसमें पुरुष लोग उछल-उछलकर आगे रहते— कुछ इस भाव से मानो बात करते ही इनका आधा सुख तो वे ले ही लेंगे। पापा ख़ुद बड़े समर्थक! पर हुआ यों कि घर में हमेशा चुप-चुप रहने वाली दूर-दराज़ की एक दिदिया ने बिना कभी इन बहसों में भाग लिए ही इस पर पूरी तरह अमल कर डाला तो पाया कि सारी आधुनिकता अऽऽऽधम! वह तो फिर ममी ने बड़े सहज ढंग से सारी बात को सँभाला और निरर्थक विवाह के बंधन में बाँधकर दिदिया का जीवन सार्थक किया। हालाँकि यह बात बहुत पुरानी है और मैंने तो बड़ी दबी-ढँकी ज़बान से इसका ज़िक्र ही सुना है।
वैसे पापा-ममी का भी प्रेम-विवाह हुआ था। यों यह बात बिल्कुल दूसरी है कि होश सँभालने के बाद मैंने उन्हें प्रेम करते नहीं, केवल बहस करते ही देखा है। विवाह के पहले अपने इस निर्णय पर ममी को नाना से भी बहुत बहस करनी पड़ी थी और बहस का यह दौर बहुत लंबा भी चला था शायद। इसके बावजूद यह बहस-विवाह नहीं, प्रेम-विवाह ही है, जिसका ज़िक्र ममी बड़े गर्व से किया करती हैं। गर्व विवाह को लेकर नहीं, पर इस बात को लेकर है कि किस प्रकार उन्होंने नाना से मोर्चा लिया। अपने और नाना के बीच हुए संवादों को वे इतनी बार दुहरा चुकी हैं कि मुझे वे कंठस्थ-से हो गए हैं। आज भी जब वे उसकी चर्चा करती हैं तो लीक से हटकर कुछ करने का संतोष उनके चेहरे पर झलक उठता है।
बस, ऐसे ही घर में मैं पल रही हूँ—बड़े मुक्त और स्वच्छंद ढंग से। और पलते-पलते एक दिन अचानक बड़ी हो गई। बड़े होने का यह एहसास मेरे अपने भीतर से इतना नहीं फूटा, जितना बाहर से। इसके साथ भी एक दिलचस्प घटना जुड़ी हुई है। हुआ यों कि घर के ठीक सामने एक बरसाती है—एक कमरा और उसके सामने फैली छत! उसमें हर साल दो-तीन विद्यार्थी आकर रहते... छत पर घूम-घूमकर पढ़ते, पर कभी ध्यान ही नहीं गया। शायद ध्यान जाने जैसी मेरी उम्र ही नहीं थी।
इस बार देखा, वहाँ दो लड़के आए हैं। थे तो वे दो ही, पर शाम तक उनके मित्रों का एक अच्छा-ख़ासा जमघट हो जाता और सारी छत ही नहीं, सारा मोहल्ला तक गुलज़ार! हँसी-मज़ाक, गाना-बजाना और आसपास की जो भी लड़कियाँ उनकी नज़र के दायरे में आ जातीं, उन पर चुटीली फब्तियाँ। पर उनकी नज़रों का असली केंद्र हमारा घर—और स्पष्ट कहूँ तो मैं ही थी। बरामदे में निकलकर मैं कुछ भी करूँ, उधर से एक-न-एक रिमार्क हवा में उछलता हुआ टपकता और मैं भीतर तक थरथरा उठती। मुझे पहली बार लगा कि मैं हूँ—और केवल हूँ ही नहीं, किसी के आकर्षण का केंद्र हूँ। ईमानदारी से कहूँ तो अपने होने का पहला एहसास बड़ा रोमांचक लगा और अपनी ही नज़रों में मैं नई हो उठी—नई और बड़ी!
अजीब-सी स्थिति थी। जब वे फब्तियाँ कसते तो मैं ग़ुस्से से भन्ना जाती—हालाँकि उनकी फब्तियों में अशिष्टता कहीं नहीं थी।...थी तो केवल मन को सहलाने वाली एक चुहल। पर जब वे नहीं होते या होकर भी आपस में ही मशग़ूल रहते तो मैं प्रतीक्षा करती रहती... एक अनाम-सी बेचैनी भीतर-ही-भीतर कसमसाती रहती। आलम यह है कि हर हालत में ध्यान वहीं अटका रहता और मैं कमरा छोड़कर बरामदे में ही टँगी रहती।
पर इन लड़कों के इस हल्ले-गुल्ले वाले व्यवहार ने मोहल्ले वालों की नींद ज़रूर हराम कर दी। हमारा मोहल्ला यानी हाथरस—खुरजा के लालाओं की बस्ती। जिनके घरों में किशोरी लड़कियाँ थीं, वे बाँहें चढ़ा-चढ़ाकर दाँत और लात तोड़ने की धमकियाँ दे रहे थे क्योंकि सबको अपनी लड़कियों का भविष्य ख़तरे में जो दिखाई दे रहा था। मोहल्ले में इतनी सरगर्मी और मेरे ममी-पापा को कुछ पता ही नहीं। बात असल में यह है कि इन लोगों ने अपनी स्थिति एक द्वीप जैसी बना रखी है। सबके बीच रहकर भी सबसे अलग।
एक दिन मैंने ममी से कहा, “ममी, ये जो सामने लड़के आए हैं, जब देखो मुझ पर रिमार्क पास करते हैं। मैं चुपचाप नहीं सुनूँगी, मैं भी यहाँ से जवाब दूँगी।”
“कौन लड़के?”—ममी ने आश्चर्य से पूछा।
कमाल है, ममी को कुछ पता नहीं। मैंने कुछ खीज और कुछ पुलक के मिले-जुले स्वर में सारी बात बताई। पर ममी पर कोई विशेष प्रतिक्रिया ही नहीं हुई।
“बताना कौन हैं ये लड़के...”—बड़े ठंडे लहज़े में उन्होंने कहा और फिर पढ़ने लगीं। अपना छेड़ा जाना मुझे जितना सनसनीखेज़ लग रहा था, उस पर ममी की ऐसी उदासीनता मुझे अच्छी नहीं लगी। कोई और माँ होती तो फेंटा कसकर निकल जाती और उनकी सात पुश्तों को तार देती। पर ममी पर जैसे कोई असर ही नहीं।
दोपहर ढले लड़कों की मजलिस छत पर जमी तो मैंने ममी को बताया, “देखो, ये लड़के हैं जो सारे समय इधर देखते रहते हैं और मैं कुछ भी करूँ, उस पर फब्तियाँ कसते हैं।” पता नहीं मेरे कहने में ऐसा क्या था कि ममी एकटक मेरी ओर देखती रहीं, फिर धीरे से मुसकुराईं। थोड़ी देर तक छत वाले लड़कों का मुआयना करने के बाद बोलीं, “कॉलेज के लड़के मालूम होते हैं...पर ये तो एकदम बच्चे हैं।”
मन हुआ कहूँ कि मुझे बच्चे नहीं तो क्या बूढे छेड़ेंगे! पर तभी ममी बोलीं, “कल शाम को इन लोगों को चाय पर बुला लेते हैं और तुमसे दोस्ती करवा देते हैं।”
मैं तो अवाक्!
“तुम इन्हें चाय पर बुलाओगी?”—मुझे जैसे ममी की बात पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।
“हाँ, क्यों, क्या हुआ? अरे, यह तो हमारे ज़माने में होता था कि मिल तो सकते नहीं, बस दूर से ही फब्तियाँ कस-कसकर तसल्ली करो। अब तो ज़माना बदल गया।”
मैं तो इस विचार-मात्र से ही पुलकित—लगा, ममी सचमुच कोई ऊँची चीज़ है। ये लोग हमारे घर आएँगे और मुझसे दोस्ती करेंगे। एकाएक मुझे लगने लगा कि मैं बहुत अकेली हूँ और मुझे किसी की दोस्ती की सख़्त आवश्यकता है। इस मोहल्ले में मेरा किसी से विशेष मेल-जोल नहीं और घर में केवल ममी-पापा के दोस्त ही आते हैं।
दूसरा दिन मेरा बहुत ही संशय में बीता। पता नहीं ममी अपनी बात पूरी भी करती है या यों ही रौ में कह गईं और बात ख़त्म! शाम को मैंने याद दिलाने के लिए ही कहा, “ममी, तुम सचमुच ही उन लड़कों को बुलाने जाओगी?”—शब्द तो मेरे यही थे, वरना भाव तो था कि ममी, जाओ न, प्लीज़!”
और ममी सचमुच ही चली गईं। मुझे याद नहीं, ममी दो-चार बार से अधिक मोहल्ले में किसी के घर गई हों। मैं साँस रोककर उनके लौटने की प्रतीक्षा करती रही। एक विचित्र-सी थिरकन मैं अंग-प्रत्यंग में महसूस कर रही थी। कहीं ममी साथ ही लेती आईं तो? कहीं वे ममी से बदतमीज़ी से पेश आए तो? पर नहीं, वे ऐसे लगते तो नहीं हैं। कोई घंटे-भर बाद ममी लौटीं। बेहद प्रसन्न।
“मुझे देखते ही उनकी तो सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई। उन्हें लगा, अभी तक तो लोग अपने-अपने घरों से ही उनके लात-दाँत तोड़ने की धमकी दे रहे थे, मैं जैसे सीधे घर ही पहुँच गई उनकी हड्डी-पसली एक करने। पर फिर तो इतनी ख़ातिर की बेचारों ने कि बस! बड़े ही स्वीट बच्चे हैं। बाहर से आए हैं—होस्टल में जगह नहीं मिली, इसलिए कमरा लेकर रह रहे हैं। शाम को जब पापा आएँगे तब बुलवा लेंगे।”
प्रतीक्षा में समय इतना बोझिल हो जाता है, यह भी मेरा पहला अनुभव था। पापा आए तो ममी ने बड़े उमंग से सारी बात बताई। सबसे कुछ अलग करने का संतोष और गर्व उनके हर शब्द में से जैसे छलका पड़ रहा था। पापा ही कौन पीछे रहने वाले थे। उन्होंने सुना तो वे भी प्रसन्न।
“बुलाओ लड़कों को! अरे, खेलन-खाने दो और मस्ती मारने दो बच्चों को।”—ममी-पापा को अपनी आधुनिकता तुष्ट करने का एक ज़ोरदार अवसर मिल रहा था।
नौकर को भेजकर उन्हें बुलवाया गया तो अगले ही क्षण सब हाज़िर! ममी ने बड़े क़ायदे से परिचय करवाया और “हलो... हाई” का आदान-प्रदान हुआ।
“तनु बेटे, अपने दोस्तों के लिए चाय बनाओ!”
धत्तेरे की! ममी के दोस्त आएँ तब भी तनु बेटा चाय बनाए और उसके दोस्त आएँ तब भी! पर मन मारकर उठी।
चाय-पानी होता रहा। ख़ूब हँसी-मज़ाक भी चला। वे सफ़ाई पेश करते रहे कि मोहल्ले वाले झूठ-मूठ ही उनके पीछे पड़े रहते हैं...वे तो ऐसा कुछ भी नहीं करते। “जस्ट फ़ॉर फ़न” कुछ कर दिया वरना इस सबका कोई मतलब नहीं।
पापा ने बढ़ावा देते हुए कहा, “अरे, इस उमर में तो यह सब करना ही चाहिए। हमें मौक़ा मिले तो आज भी करने से बाज न आएँ।”
हँसी की एक लहर यहाँ से वहाँ तक दौड़ गई। कोई दो घंटे बाद वे चलने लगे तो ममी ने कहा, “देखो, इसे अपना ही घर समझो। जब इच्छा हो, चले आया करो। हमारी तनु बिटिया को अच्छी कंपनी मिल जाएगी... कभी तुम लोगों से कुछ पढ़ भी लिया करेगी और देखो, कुछ खाने-पीने का मन हुआ करे तो बता दिया करना, तुम्हारे लिए बनवा दिया करूँगी।”—और वे लोग पापा के खुलेपन और ममी की आत्मीयता और स्नेह पर मुग्ध होते हुए चले गए। बस, जिससे दोस्ती करवाने के लिए उन्हें बुलाया गया था, यह बेचारी इस तमाशे की मात्र दर्शक भर ही बनी रही।
उनके जाने के बाद बड़ी देर तक उनको लेकर ही चर्चा होती रही। अपने घर की किशोरी लड़की को छेड़ने वाले लड़कों को घर बुलाकर चाय पिलाई जाए और लड़की से दोस्ती करवाई जाए, यह सारी बात ही बड़ी थ्रिलिंग और रोमांचक लग रही थी। दूसरे दिन से ममी हर आने वाले से इस घटना का उल्लेख करतीं। वर्णन करने में पटु ममी नीरस-से-नीरस बात को भी ऐसा दिलचस्प बना देती हैं, फिर यह तो बात ही बड़ी दिलचस्प थी। जो सुनता वही कहता, “वाह, यह हुई न कुछ बात। आपका बड़ा स्वस्थ दृष्टिकोण है चीज़ों के प्रति। वरना लोग बातें तो बड़ी-बड़ी करेंगे, पर बच्चों को घोटकर रखेंगे और ज़रा-सा शक-ओ-शुब्ह हो जाए तो बाक़ायदा जासूसी करेंगे। और ममी इस प्रशंसा से निहाल होती हुई कहतीं, “और नहीं तो क्या? मुक्त रहो और बच्चों को मुक्त रखो। हम लोगों को बचपन में यह मत करो, यहाँ मत जाओ—कह-कहकर कितना बाँधा गया था। हमारे बच्चे तो कम-से-कम इस घुटन के शिकार न हों।”
पर ममी का बच्चा उस समय एक दूसरी ही घुटन का शिकार हो रहा था और वह यह कि जिस नाटक की हीरोइन उसे बनना था, उसकी हीरोइन ममी बन बैठीं।
ख़ैर, इस सारी घटना का परिणाम यह हुआ कि उन लड़कों का व्यवहार एकदम ही बदल गया। जिस शराफ़त को ममी ने उन पर लाद दिया, उसके अनुरूप व्यवहार करना उनकी मजबूरी बन गई। अब जब भी वे अपनी छत पर ममी-पापा को देखते तो अदब में लपेटकर एक नमस्कार और मुझे देखते तो मुस्कान में लपेटकर एक ‘हाई’ उछाल देते। फब्तियों की जगह बाक़ायदा हमारा वार्तालाप शुरू हो गया—बड़ा खुला और बेझिझक वार्तालाप। हमारे बरामदे और छत में इतना ही फ़ासला था कि ज़ोर से बोलने पर बातचीत की जा सकती थी। हाँ, यह बात ज़रूर थी कि हमारी बातचीत सारा मोहल्ला सुनता था और काफ़ी दिलचस्पी से सुनता था। जैसे ही हम लोग चालू होते, पास-पड़ोस की खिड़कियों में चार-छह सिर और धड़ आकर चिपक जाते। मोहल्लों में लड़कियों के प्रेम-प्रसंग न हों, ऐसी बात तो थी नहीं—बाक़ायदा लड़कियों के भागने तक की घटनाएँ घट चुकी थीं। पर वह सब कुछ बड़े गुप्त और छिपे ढंग से होता था और मोहल्ले वाले जब अपनी पैनी नज़रों से ऐसे किसी रहस्य को जान लेते थे तो बड़ा संतोष उन्हें होता था। पुरुष मूँछों पर ताव देकर और स्त्रियाँ हाथ नचा-नचाकर, ख़ूब नमक-मिर्च लगाकर इन घटनाओं का यहाँ से वहाँ तक प्रचार करतीं। कुछ इस भाव से कि अरे, हमने दुनिया देखी है— हमारी आँखों में कोई नहीं धूल झोंक सकता है। पर यहाँ स्थिति ही उलट गई थी। हमारा वार्तालाप इतने खुलेआम होता था कि लोगों को खिड़कियों की ओट में छिप-छिपकर देखना-सुनना पड़ता था और सुनकर भी ऐसा कुछ उनके हाथ नहीं लगता था जिससे वे कुछ आत्मिक संतोष पाते।
पर बात को बढ़ना था और बात बढ़ी। हुआ यह कि धीरे-धीरे छत की मजलिस मेरे अपने कमरे में जमने लगी। रोज़ ही कभी दो तो कभी तीन या चार लड़के आकर जम जाते और दुनिया भर के हँसी-मज़ाक और गपशप का दौर चलता। गाना-बजाना भी होता और चाय-पानी भी। शाम को ममी-पापा के मित्र आते तो इन लोगों में से कोई-न-कोई बैठा ही होता। शुरू में जिन लोगों ने ‘मुक्त रहो और मुक्त रखो’ की बड़ी प्रशंसा की थी, उन्होंने मुक्त रहने का जो रूप देखा तो उनकी आँखों में भी कुछ अजीब-सी शंकाएँ तैरने लगीं। ममी की एकाध मित्र ने दबी ज़बान में कहा भी, “तनु तो बड़ी फ़ास्ट चल रही है।” ममी का अपना सारा उत्साह मंद पड़ गया था और लीक से हटकर कुछ करने की थ्रिल पूरी तरह झड़ चुकी थी। अब तो उन्हें इस नंगी सच्चाई को झेलना था कि उनकी निहायत ही कच्ची और नाज़ुक उम्र की लड़की तीन-चार लड़कों के बीच घिरी रहती है। और ममी की स्थिति यह थी कि वे न इस स्थिति को पूरी तरह स्वीकार कर पा रही थीं और न अपने ही द्वारा बड़े जोश में शुरू किए इस सिलसिले को नकार ही पा रही थीं।
आख़िर एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बिठाकर कहा, “तनु बेटे, ये लोग रोज़-रोज़ यहाँ आकर जम जाते हैं। आख़िर तुमको पढ़ना-लिखना भी तो है। मैं तो देख रही हूँ कि इस दोस्ती के चक्कर में तेरी पढ़ाई-लिखाई सब चौपट हुई जा रही है। इस तरह तो यह सब चलेगा नहीं।’’
“रात को पढ़ती तो हूँ।”—लापरवाही से मैंने कहा।
“ख़ाक पढ़ती है रात को, समय ही कितना मिलता है? और फिर यह रोज़-रोज़ की धमा-चौकड़ी मुझे वैसे भी पसंद नहीं। ठीक है, चार-छह दिन में कभी आ गए, गपशप कर ली पर यहाँ तो एक-न-एक रोज़ ही डटा रहता है।’’—ममी के स्वर में आक्रोश का पुट गहराता जा रहा था।
ममी की यह टोन मुझे अच्छी नहीं लगी, पर मैं चुप।
“तू तो उनसे बहुत खुल गई है, कह दे कि वे लोग भी बैठकर पढ़ें और तुझे भी पढ़ने दें। और तुझसे न कहा जाए तो मैं कह दूँगी!”
पर किसी के भी कहने की नौबत नहीं आई। कुछ तो पढ़ाई की मार से, कुछ दिल्ली के दूसरे आकर्षणों से खिंचकर होस्टल वाले लड़कों का आना कम हो गया। पर सामने के कमरे से शेखर रोज़ ही आ जाता—कभी दोपहर में तो कभी शाम! तीन-चार लोगों की उपस्थिति में उसकी जिस बात पर मैंने ध्यान नहीं दिया, वही बात अकेले में सबसे अधिक उजागर होकर आई। वह बोलता कम था, पर शब्दों के परे बहुत कुछ कहने की कोशिश करता था और एकाएक ही मैं उसकी अनकही भाषा समझने लगी थी... केवल समझने ही नहीं लगी थी, प्रत्युत्तर भी देने लगी थी। जल्दी ही मेरी समझ में आ गया कि शेखर और मेरे बीच प्रेम जैसी कोई चीज़ पनपने लगी है। यों तो शायद मैं समझ ही नहीं पाती, पर हिंदी फ़िल्में देखने के बाद इसको समझने में ख़ास मुश्किल नहीं हुई।
जब तक मन में कहीं कुछ नहीं था, सब कुछ बड़ा खुला था पर जैसे ही ‘कुछ' हुआ तो उसे औरों की नज़र से बचाने की इच्छा भी साथ हो आई। जब कभी दूसरे लड़के आते तो सीढ़ियों से ही शोर करते आते—ज़ोर-ज़ोर से बोलते। लेकिन शेखर जब भी आता रेंगता हुआ आता और फुसफुसाकर हम बातें करते। वैसे बातें बहुत ही साधारण होती थीं— स्कूल की, कॉलेज की। पर फुसफुसाकर करने में ही वे कुछ विशेष लगती थीं। प्रेम को कुछ रहस्यमय, कुछ गुपचुप बना दो तो वह बड़ा थ्रिलिंग हो जाता है वरना तो एकदम सीधा-सपाट! पर ममी के पास घर और घर वालों के हर रहस्य को जान लेने की एक छठी इंद्रिय है जिससे पापा भी काफ़ी त्रस्त रहते हैं—उससे उन्हें यह सब समझने में ज़रा भी देर नहीं लगती। शेखर कितना ही दब-छिपकर आता और ममी घर के किसी भी कोने में होतीं—फट से प्रकट हो जातीं या फिर वहीं से पूछतीं, “तनु, कौन है तुम्हारे कमरे में?”
मैंने देखा कि शेखर के इस रवैए से ममी के चेहरे पर एक अजीब-सी परेशानी झलकने लगी है। पर ममी इस बात को लेकर यों परेशान हो उठेंगी, यह तो मैं सोच भी नहीं सकती थी। जिस घर में रात-दिन तरह-तरह के प्रेम-प्रसंग ही पीसे जाते रहे हों—कुँआरों के प्रेम-प्रसंग, विवाहितों के प्रेम-प्रसंग, दो-तीन प्रेमियों से एक साथ चलने वाले प्रेम-प्रसंग—उस घर के लिए तो यह बात बहुत ही मामूली होनी चाहिए। जब लड़कों से दोस्ती की है तो एकाध से प्रेम भी हो ही सकता है। ममी ने शायद समझ लिया था कि यह स्थिति आजकल की कलात्मक फ़िल्मों की तरह चलेगी—जिनकी वे बड़ी प्रशंसक और समर्थक हैं—पर जिनमें शुरू से लेकर आख़िर तक कुछ भी सनसनीखेज़ घटता ही नहीं।
जो भी हो, ममी की इस परेशानी ने मुझे भी कहीं हल्के से विचलित ज़रूर कर दिया। ममी मेरी माँ ही नहीं, मित्र और साथिन भी हैं। दो घनिष्ठ मित्रों की तरह ही हम दुनिया-जहान की बातें करते हैं, हँसी-मज़ाक करते है। मैं चाहती थी कि वे इस बारे में भी कोई बात करें, पर उन्होंने कोई बात नहीं की। बस, जब शेखर आता तो वे अपनी स्वभावगत लापरवाही छोड़कर बड़े सजग भाव से मेरे कमरे के इर्द-गिर्द ही मंडराती रहतीं।
एक दिन ममी के साथ बाहर जाने के लिए नीचे उतरी तो दरवाज़े पर ही पड़ोस की एक भद्र महिला टकरा गई। नमस्कार और कुशलक्षेम के आदान-प्रदान के बाद वे बात के असली मुद्दे पर आईं।
“ये सामने की छत वाले लड़के आपके रिश्तेदार हैं क्या?”
“नहीं तो।”
“अच्छा? शाम को रोज़ आपके घर बैठे रहते हैं तो सोचा आपके ज़रूर कुछ लगते होंगे।
“तनु के दोस्त हैं। ममी ने कुछ ऐसी लापरवाही और नि:संकोच भाव से यह वाक्य उछाला कि बेचारी तीर निशाने पर न लगने का ग़म लिए ही लौट गई।
वे तो लौट गईं पर मुझे लगा कि इस बात का सूत्र पकड़कर ही ममी अब ज़रूर मेरी थोड़ी धुनाई कर देंगी। कहने वाली का तो कुछ न बना पर मेरा कुछ बिगाड़ने का हथियार तो ममी के हाथ में आ ही गया। बहुत दिनों से उनके अपने मन में कुछ उमड़-घुमड़ तो रहा ही है पर ममी ने इतना ही कहा- “लगता है इनके अपने घर में कोई धंधा नहीं है—जब देखो दूसरे के घर में चोंच गड़ाए बैठे रहते हैं।”
मैं आश्वस्त ही नहीं हुई, बल्कि ममी की ओर से इसे हरा सिग्नल समझ कर मैंने अपनी रफ़्तार कुछ और तेज़ कर दी। पर इतना ज़रूर किया कि शेखर के साथ तीन घंटों में से एक घंटा ज़रूर पढ़ाई में गुज़ारती। वह बहुत मन लगाकर पढ़ाता और मैं बहुत मन लगाकर पढ़ती। हाँ, बीच-बीच में वह काग़ज़ की छोटी-छोटी पर्चियों पर कुछ ऐसी पंक्तियाँ लिखकर थमा देता कि मैं भीतर तक झनझना जाती। उसके जाने के बाद भी उन पंक्तियों के वे शब्द—शब्दों के पीछे के भाव, मेरी रग-रग में सनसनाते और मैं उन्हीं में डूबी रहती।
मेरे भीतर अपनी ही एक दुनिया बनती जा रही थी—बड़ी भरी-पूरी और रंगीन। आजकल मुझे किसी की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। लगता जैसे मैं अपने में ही पूरी हूँ। हमेशा साथ रहने वाली ममी भी आउट होती जा रही हैं और शायद यही कारण है कि इधर मैंने ममी पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है। रोज़मर्रा की बातें तो होती हैं, पर केवल बातें ही होती हैं—उसके परे कहीं कुछ नहीं।
दिन गुज़रते जा रहे थे और मैं अपने में ही डूबी, अपनी दुनिया में और गहरे धँसती जा रही थी—बाहर की दुनिया से एक तरह से बेख़बर-सी!
एक दिन स्कूल से लौटी, कपड़े बदले। शोर-शराबे के साथ खाना माँगा, मीन-मेख के साथ खाया और जब कमरे में घुसी तो ममी ने लेटे-लेटे ही बुलाया- “तनु, इधर आओ।”
पास आई तो पहली बार ध्यान गया कि ममी का चेहरा तमतमा रहा है। मेरा माथा ठनका। उन्होंने साइड-टेबिल पर से एक किताब उठाई और उसमें से काग़ज़ की पाँच-छह पर्चियाँ सामने कर दीं। “तोबा!”—ममी से कुछ पढ़ना था सो जाते समय उन्हें अपनी किताब दे गई थी। ग़लती से शेखर की लिखी पर्चियाँ उसी में रह गईं।
“तो इस तरह चल रही है शेखर और तुम्हारी दोस्ती? यही पढ़ाई होती है यहाँ बैठकर—यही सब करने के लिए आता है वह यहाँ?”
मैं चुप। जानती हूँ, ग़ुस्से मे ममी को जवाब देने से बढ़कर मूर्खता और कोई नहीं।
“तुमको छूट दी... आज़ादी दी, पर इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम उसका नाजायज़ फ़ायदा उठाओ।”
मैं फिर भी चुप।
“बित्ते भर की लड़की और करतब देखो इसके। जितनी छूट दी उतने ही पैर पसरते जा रहे हैं इसके। एक झापड़ दूँगी तो सारा रोमांस झड़ जाएगा दो मिनट में...”
इस वाक्य पर मैं एकाएक तिलमिला उठी। तमक कर नज़र उठाई और ममी की तरफ़ देखा... पर यह क्या, यह तो मेरी ममी नहीं हैं। न यह तेवर ममी का है, न यह भाषा। फिर भी यह सारे वाक्य बहुत परिचित-से लगे। लगा, यह सब मैंने कहीं सुना है और खटाक से मेरे मन में कौंधा—नाना। पर नाना को मरे तो कितने साल हो गए, ये फिर ज़िंदा कैसे हो गए? और वह भी ममी के भीतर... जो होश सँभालने के बाद हमेशा उनसे झगड़ा ही करती रहीं... उनकी हर बात का विरोध ही करती रहीं।
ममी का ‘नानई’ लहज़े वाला भाषण काफ़ी देर तक चालू रहा, पर वह सब मुझे कही से भी छू नहीं रहा था—बस कोई बात झकझोर रही थी तो यही कि ममी के भीतर नाना कैसे आ बैठे?
और फिर घर में एक विचित्र-सा तनावपूर्ण मौन छा गया। ख़ासकर मेरे और ममी के बीच। नहीं, ममी तो घर में रही ही नहीं, मेरे और नाना के बीच। मैं ममी को अपनी बात समझा भी सकती हूँ, उनकी बात समझ भी सकती हूँ—पर नाना? मैं तो इस भाषा से भी अपरिचित हूँ और इस तेवर से भी—बात करने का प्रश्न ही कैसे उठता? पापा ज़रूर मेरे दोस्त हैं, पर बिल्कुल दूसरी तरह के। शतरंज खेलना, पंजा लड़ाना और जो फ़रमाइश ममी पूरी न करें, उनसे पूरी करवा लेना। बचपन में उनकी पीठ पर लदी रहती थी और आज भी बिना किसी झिझक के उनकी पीठ पर लदकर अपनी हर इच्छा पूरी करवा लेती हूँ। पर इतने ‘माई डियर दोस्त’ होने के बावजूद अपनी निजी बातें मैं ममी के साथ ही करती आई हूँ। और वहाँ एकदम सन्नाटा—ममी को पटखनी देकर नाना पूरी तरह उन पर सवार जो हैं।
शेखर को मैंने इशारे से ही लाल झंडी दिखा दी थी सो वह भी नहीं आ रहा और शाम का समय है कि मुझसे काटे नहीं कटता।
कई बार मन हुआ कि ममी से जाकर बात करूँ और साफ़-साफ़ पूछूँ कि तुम इतना बिगड़ क्यों रही हो? मेरी और शेखर की दोस्ती के बारे में तुम जानती तो हो। मैंने तो कभी कुछ छिपाया नहीं, और दोस्ती है तो यह सब तो होगा ही। तुम क्या समझ रही थीं कि हम भाई-बहन की तरह...पर तभी ख़याल आता कि ममी हैं ही कहाँ, जिनसे जाकर यह सब कहूँ।
चार दिन हो गए, मैंने शेखर की सूरत तक नहीं देखी। मेरे हल्के से इशारे से ही उस बेचारे ने तो घर क्या, छत पर आना भी छोड़ दिया। होस्टल में रहने वाले उसके साथी भी छत पर न दिखाई दिए, न घर ही आए। कोई आता तो कम-से-कम उसका हालचाल ही पूछ लेती। मैं जानती हूँ, वह बेवकूफ़ी की हद तक भावुक है। उसे तो ठीक से यह भी नहीं मालूम कि आख़िर यहाँ हुआ क्या है? लगता है ममी के ग़ुस्से की आशंका मात्र से ही सबके हौसले पस्त हो गए थे।
वैसे कल से ममी के चेहरे का तनाव कुछ ढीला ज़रूर हुआ है। तीन दिन से जमी हुई सख़्ती जैसे पिघल गई हो। पर मैंने तय कर लिया है कि बात अब ममी ही करेंगी।
सवेरे नहा-धोकर मैं दरवाज़े के पीछे अपनी यूनिफ़ॉर्म प्रेस कर रही थी। बाहर मेज़ पर ममी चाय बना रही थीं और पापा अख़बार में सिर गड़ाए बैठे थे। ममी को शायद मालूम ही नहीं पड़ा कि मैं कब नहाकर बाहर निकल आई। वे पापा से बोलीं— “जानते हो कल रात को क्या हुआ? पता नहीं, तब से मन बहुत ख़राब हो गया—उसके बाद मैं तो सो ही नहीं पाई।”
ममी के स्वर की कोमलता से मेरा हाथ जहाँ का तहाँ थम गया और कान बाहर लग गए।
“आधी रात के क़रीब मैं बाथरूम जाने के लिए उठी। सामने छत पर घुप्प अँधेरा छाया हुआ था। अचानक एक लाल सितारा-सा चमक उठा। मैं चौंकी। ग़ौर से देखा तो धीरे-धीरे एक आकृति उभर आई। शेखर छत पर खड़ा सिगरेट पी रहा था। मैं चुपचाप लौट आई। कोई दो घंटे बाद फिर गई तो देखा वह उसी तरह छत पर टहल रहा था बेचारा—मेरा मन जाने कैसा हो आया। तनु भी कैसी बुझी-बुझी रहती है...” फिर जैसे अपने को ही धिक्कारती-सी बोलीं— “पहले तो छूट दो और जब आगे बढ़ें तो खींचकर चारों खाने चित्त कर दो। यह भी कोई बात हुई भला।”
राहत की एक गहरी निःश्वास मेरे भीतर से निकल पड़ी। जाने कैसा आवेग मन में उमड़ा कि इच्छा हुई दौड़कर ममी के गले से लग जाऊँ। लगा जैसे अरसे के बाद मेरी ममी लौटकर आई हों। पर मैंने कुछ नहीं कहा। बस, अब खुलकर बात करूँगी। चार दिन से न जाने कितने प्रश्न मन में घुमड़ रहे थे। अब क्या, अब तो ममी हैं, और उनसे तो कम-से-कम सब कहा-पूछा जा सकता है।
पर घर पहुँचकर जो देखा तो अवाक्! शेखर हथेलियों में सिर थामे कुर्सी पर बैठा है और ममी उसी कुर्सी के हत्थे पर बैठी उसकी पीठ और माथा सहला रही हैं। मुझे देखते ही बड़े सहज-स्वाभाविक स्वर में बोलीं- “देखा इस पगले को। चार दिन से ये साहब कॉलेज नहीं गए हैं। न ही कुछ खाया-पिया है। अपने साथ इसका भी खाना लगवाना।”
और फिर ममी ने ख़ुद बैठकर बड़े स्नेह से मनुहार कर-करके उसे खाना खिलाया। खाने के बाद कहने पर भी शेखर ठहरा नहीं। ममी के प्रति कृतज्ञता के बोझ से झुका-झुका ही वह लौट गया और मेरे भीतर ख़ुशी का ऐसा ज्वार उमड़ा कि अब तक के सोचे सारे प्रश्न उसी में बिला गए।
सारी स्थिति को समय पर आने में समय तो लगा, पर आ गई। शेखर ने भी अब एक-दो दिन छोड़कर आना शुरू किया और आता भी तो अधिकतर हम लिखाई-पढ़ाई की ही बात करते। अपने किए पर शर्मिंदगी प्रकट करते हुए उसने ममी से वायदा किया कि वह अब कोई ऐसा काम नहीं करेगा, जिससे ममी को शिकायत हो। जिस दिन वह नहीं आता, मैं दो-तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर के लिए अपने बरामदे से ही बात कर लिया करती। घर की अनुमति और सहयोग से यों सरे-आम चलने वाले इस प्रेम-प्रसंग में मोहल्ले वालों के लिए भी कुछ नहीं रह गया था और उन्होंने इस जानलेवा ज़माने के नाम दो-चार लानतें भेजकर, किसी गुल खिलने तक के लिए अपनी दिलचस्पी को स्थगित कर दिया था।
लेकिन एक बात मैंने ज़रूर देखी। जब भी शेखर शाम को कुछ ज्य़ादा देर बैठ जाता या दोपहर में भी आता तो ममी के भीतर नाना कसमसाने लगते और उसकी प्रतिक्रिया ममी के चेहरे पर झलकने लगती। ममी भरसक कोशिश करके नाना को बोलने तो नहीं देतीं, पर उन्हें पूरी तरह हटा देना भी शायद ममी के बस की बात नहीं रह गई थी।
हाँ, यह प्रसंग मेरे और ममी के बीच में अब रोज़मर्रा की बातचीत का विषय ज़रूर बन गया था। कभी वे मज़ाक में कहतीं— “यह जो तेरा शेखर है न, बड़ा लिजलिजा-सा लड़का है। अरे, इस उम्र के लड़कों को चाहिए घूमें-फिरें, मस्ती मारें। क्या मुहर्रमी-सी सूरत बनाए मजनूँ की तरह छत पर टँगा सारे समय इधर ही ताकता रहता है।”
मैं केवल हँस देती।
कभी बड़ी भावुक होकर कहतीं— “तू क्यों नहीं समझती बेटे, कि तुझे लेकर कितनी महत्त्वाकांक्षाएँ है मेरे मन में। तेरे भविष्य को लेकर कितने सपने सँजो रखे हैं मैंने।”
मैं हँसकर कहती— “ममी, तुम भी कमाल करती हो। अपनी ज़िंदगी को लेकर भी तुम सपने देखो और मेरी ज़िंदगी के सपने भी तुम्हीं देख डालो...कुछ सपने मेरे लिए भी छोड़ दो!”
कभी वे समझाने के लहज़े में कहतीं— “देखो तनु, अभी तुम बहुत छोटी हो। अपना सारा ध्यान पढ़ने-लिखने में लगाओ और दिमाग़ से ये उल्टे-सीधे फ़ितूर निकाल डालो। ठीक है, बड़े हो जाओ तो प्रेम भी करना और शादी भी। मैं तो वैसे भी तुम्हारे लिए लड़का ढूँढ़ने वाली नहीं हूँ—अपने आप ही ढूँढ़ना, पर इतनी अकल तो आ जाए कि ढंग का चुनाव कर सको।”
अपने चुनाव के रिजेक्शन को मैं समझ जाती और पूछती— “अच्छा, ममी बताओ, जब तुमने पापा को चुना था तो वह नाना को पसंद था?”
“मेरा चुनाव! अपनी सारी पढ़ाई-लिखाई ख़त्म करके पच्चीस साल की उम्र में चुनाव किया था मैंने—ख़ूब सोच-समझकर और अकल के साथ, समझी।”
ममी अपनी बौखलाहट को ग़ुस्से मे छिपाकर कहतीं। उम्र और पढ़ाई-लिखाई, ये दो ही तो ऐसे मुद्दे हैं जिस पर ममी मुझे जब-तब डाँटती रहती हैं। पढ़ने-लिखने में मैं अच्छी थी और रही उम्र का सवाल, सो उसके लिए मन होता कि कहूँ— “ममी, तुम्हारी पीढ़ी जो काम पच्चीस साल की उम्र में करती थी, हमारी उसे पंद्रह साल की उम्र में ही करेगी, इसे तुम क्यों नहीं समझती। पर चुप रह जाती। नाना का ज़िक्र तो चल ही पड़ा है, कही वे जी-जाग उठे तो!
छमाही परीक्षाएँ पास आ गई थीं और मैंने सारा ध्यान पढ़ने में लगा दिया था। सबका आना और गाना-बजाना एकदम बंद! इन दिनों मैंने इतनी जमकर पढ़ाई की कि ममी का मन प्रसन्न हो गया। शायद कुछ आश्वस्त भी। आख़िरी पेपर देने के पश्चात् लग रहा था कि एक बोझ था, जो हट गया है। मन बेहद हल्का होकर कुछ मस्ती मारने को कर रहा था। मैंने ममी से पूछा—
“ममी, कल शेखर और दीपक पिक्चर जा रहे हैं, मैं भी साथ चली जाऊँ?” आज तक मैं इन लोगों के साथ कभी घूमने नहीं गई थी, पर इतनी पढ़ाई करने के बाद अब इतनी छूट तो मिलनी ही थी।
ममी एक क्षण मेरा चेहरा देखती रहीं, फिर बोलीं— “इधर आ, यहाँ बैठ! तुझसे कुछ बात करनी है।”
मैं जाकर बैठ गई पर यह न समझ आया कि इसमें बात करने को क्या है—हाँ कहो या ना। लेकिन ममी को बात करने का मर्ज़ जो है। उनकी तो हाँ-ना भी पचास-साठ वाक्यों में लिपटे बिना नहीं निकल सकती।
“तेरे इम्तिहान ख़त्म हुए, मैं तो ख़ुद पिक्चर का प्रोग्राम बना रही थी। कौन-सी पिक्चर देखना चाहती है?’’
“क्यों, उन लोगों के साथ जाने में क्या है?”—मेरे स्वर में इतनी खीझ भरी हुई थी कि ममी एकटक मेरा चेहरा ही देखती रह गईं।
“तनु, तुझे पूरी छूट दे रखी है बेटे, पर इतनी ही तेज़ चल कि मैं भी साथ चल सकूँ।”
“तुम साफ़ कहो न, कि जाने दोगी या नहीं? बेकार की बातें... मैं भी साथ चल सकूँ—तुम्हारे साथ चल सकने की बात भला कहाँ से आ गई!”
ममी ने पीठ सहलाते हुए कहा— “साथ तो चलना ही पड़ेगा। कभी औंधे मुँह गिरी तो उठाने वाला भी तो चाहिए न!”
मैं समझ गई कि ममी नहीं जाने देंगी, पर इस तरह प्यार से मना करती हैं तो झगड़ा भी तो नहीं किया जा सकता। बहस करने का सीधा-सा मतलब है कि उनका बघारा हुआ दर्शन सुनो—यानी पचास मिनट की एक क्लास। पर मैं क़तई नहीं समझ पाई कि जाने में आख़िर हर्ज़ क्या है? हर बात में ना-नुकुर। कहाँ तो कहती थीं कि बचपन में यह मत करो, यहाँ मत जाओ कहकर हमको बहुत डाँटा गया था और ख़ुद अब वही सब कर रही हैं। देख लिया इनकी बड़ी-बड़ी बातों को। मैं उठी और दनदनाती हुई अपने कमरे में आ गई। हाँ, एक वाक्य ज़रूर थमा आई— “ममी, जो चलेगा, वह गिरेगा भी और जो गिरेगा, वह उठेगा भी और ख़ुद ही उठेगा, उसे किसी की ज़रूरत नहीं है।”
पता नहीं, मेरी बात की उन पर प्रतिक्रिया हुई या उनके अपने मन में ही कुछ जागा कि शाम को उन्होंने ख़ुद शेखर और उसके कमरे पर आए तीनों-चारों लड़कों को बुलवाकर मेरे ही कमरे में मजलिस जमवाई और ख़ूब गर्म-गर्म खाना खिलाया। कुछ ऐसा रंग जमा कि मेरा दोपहर वाला आक्रोश धुल गया।
इम्तिहान ख़त्म हो गए थे और मौसम सुहाना था। ममी का रवैया भी अनुकल था सो दोस्ती का स्थगित हुआ सिलसिला फिर शुरू हो गया और आजकल तो जैसे उसके सिवाय कुछ रह ही नहीं गया था। पर फिर एक झटका।
उस दिन मैं अपनी सहेली के घर से लौटी तो ममी की सख़्त आवाज़ सुनाई दी— “तनु इधर आओ तो।”
आवाज़ से ही लगा कि यह ख़तरे का सिग्नल है। एक क्षण को मैं सकते में आ गई। पास गई तो चेहरा पहले की तरह सख़्त।
“तुम शेखर के कमरे में जाती हो?”—ममी ने बंदूक दाग़ी। समझ गई कि पीछे गली में से किसी ने अपना करतब कर दिखाया।
“कब से जाती हो?”
मन तो हुआ कि कहूँ जिसने जाने की ख़बर दी है, उसने बाक़ी बातें भी बता ही दी होंगी... कुछ जोड़-तोड़कर ही बताया होगा। पर ममी जिस तरह भभक रही थीं, उसमे चुप रहना ही बेहतर समझा। वैसे मुझे ममी के इस ग़ुस्से का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। दो-तीन बार यदि मैं थोड़ी-थोड़ी देर के लिए शेखर के कमरे पर चली गई तो ऐसा क्या गुनाह हो गया। पर ममी का हर काम सकारण तो होता नहीं... बस, वे तो मूड पर ही चलती हैं।
अजीब मुसीबत थी...ग़ुस्से में ममी से बात करने का कोई मतलब नहीं...और मेरी चुप्पी ममी के ग़ुस्से को और भड़का रही थी।
“याद नहीं है, मैंने शुरू में ही तुम्हें मना कर दिया था कि तुम उनके कमरे पर कभी नहीं जाओगी। तीन-तीन घंटे वह यहाँ धूनी रमाकर बैठता है, उसमें जी भरा नहीं तुम्हारा?”
दुःख, क्रोध और आतंक की परतें उनके चेहरे पर गहरी होती जा रही थीं और मैं समझ ही नहीं पा रही थी कि कैसे उन्हें सारी स्थिति समझाऊँ?
“वह तो बेचारे सामने वाली ने मुझे बुलाकर आगाह कर दिया...जानती है यह सिर आज तक किसी के सामने झुका नहीं, पर वहाँ मुझसे आँख नहीं उठाई गई। मुँह दिखाने लायक़ मत रखना हमको कहीं भी। सारी गली में थू-थू हो रही है। नाक कटाकर रख दी।”
ग़ज़ब! इस बार तो सारा मोहल्ला ही बोलने लगा ममी के भीतर से! आश्चर्य है कि जो ममी आज तक अपने आस-पास से बिल्कुल कटी हुई थी...जिसका मज़ाक ही उड़ाया करती थी...आज कैसे उसके सुर-में-सुर मिलाकर बोल रही हैं।
ममी का भाषण बदस्तूर चालू...पर मैंने तो अपने कान के स्विच ही ऑफ़ कर लिए। जब ग़ुस्सा ठंडा होगा, ममी अपने में लौट आएँगी तब समझा दूँगी— ममी, इस छोटी-सी बात को तुम नाहक़ इतना तूल दे रही हो।
पर जाने कैसी डोज़ ले आई हैं इस बार कि उनका ग़ुस्सा ठंडा ही नहीं हो रहा है और हुआ यह कि अब उनके ग़ुस्से से मुझे ग़ुस्सा चढ़ने लगा।
फिर घर में एक अजीब-सा तनाव बढ़ गया। इस बार ममी ने शायद पापा को भी सब कुछ बता दिया है। कहा तो उन्होंने कुछ नहीं—वे शुरू से ही इस सारे मामले में आउट ही रहे—पर इस बार उनके चेहरे पर भी एक अनकहा-सा तनाव दिखाई ज़रूर दे रहा है।
कोई दो महीने पहले जब इस तरह की घटना हुई थी तो मैं भीतर तक सहम गई थी, पर इस बार मैंने तय कर लिया है कि इस सारे मामले में ममी को यदि नाना बनकर ही व्यवहार करना है तो मुझे भी फिर ममी की तरह ही मोर्चा लेना होगा उनसे—और मैं ज़रूर लूँगी। दिखा तो दूँ कि मैं तुम्हारी ही बेटी हूँ और तुम्हारे ही नक़्श-ए-क़दम पर चली हूँ। ख़ुद तो लीक से हटकर चली थीं... सारी ज़िंदगी इस बात की घुट्टी पिलाती रहीं, पर मैंने जैसे ही अपना पहला क़दम रखा, घसीटकर मुझे अपनी ही खींची लीक पर लाने के दंद-फंद शुरू हो गए।
मैंने मन में ढेर-ढेर तर्क सोच डाले कि एक दिन बाक़ायदा ममी से बहस करूँगी। साफ़-साफ़ कहूँगी कि ममी, इतने ही बंधन लगाकर रखना था तो शुरू से वैसे पालतीं। क्यों झूठ-मूठ आज़ादी देने की बातें करती-सिखाती रहीं। पर इस बार मेरा भी मन सुलगकर इस तरह राख हो गया था कि मैं गुमसुम-सी अपने ही कमरे में पड़ी रहती। मन बहुत भर आता तो रो लेती! घर में सारे दिन हँसती-खिलखिलाती रहने वाली मैं एकदम चुप होकर अपने में ही सिमट गई थी। हाँ, एक वाक्य ज़रूर बार-बार दोहरा रही थी— “ममी, तुम अच्छी तरह समझ लो कि मैं भी अपने मन की ही करूँगी।” हालाँकि मेरे मन में क्या है, इसकी कोई भी रूपरेखा मेरे सामने न थी।
मुझे नहीं मालूम कि इन तीन-चार दिनों में बाहर क्या हुआ। घर-बाहर की दुनिया से कटी, अपने ही कमरे में सिमटी, मैं ममी से मोर्चा लेने के दाँव सोच रही थी।
पर आज दोपहर मुझे क़तई-क़तई अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ जब मैंने ममी को अपने बरामदे से ही चिल्लाते हुए सुना— “शेखर, कल तो तुम लोग छुट्टियों में अपने घर चले जाओगे, आज शाम अपने दोस्तों के साथ खाना इधर ही खाना।”
नहीं जानती, किस ज़द्दोज़हद से गुज़रकर ममी इस स्थिति पर पहुँची होंगी।
और रात को शेखर, दीपक और रवि के साथ खाने की मेज़ पर डटा हुआ था। ममी उतने ही प्रेम से खाना खिला रही थीं...पापा वैसे ही खुले ढंग से मज़ाक कर रहे थे, मानो बीच में कुछ घटा ही नहीं। अगल-बग़ल की खिड़कियों में दो-चार सिर चिपके हुए थे। सब कुछ पहले की तरह बहुत सहज-स्वाभाविक हो उठा था।
केवल मैं इस सारी स्थिति से एकदम तटस्थ यही सोच रही थी कि नाना पूरी तरह नाना थे—शत-प्रतिशत और इसी से ममी के लिए लड़ना कितना आसान हो गया होगा। पर इन ममी से लड़ा भी कैसे जाए जो एक पल नाना होकर जीती हैं तो एक पल ममी होकर।
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papa ne baDhawa dete hue kaha, “are, is umar mein to ye sab karna hi chahiye hamein mauqa mile to aaj bhi karne se baz na ayen ”
hansi ki ek lahr yahan se wahan tak dauD gai koi do ghante baad we chalne lage to mummy ne kaha, “dekho, ise apna hi ghar samjho jab ichha ho, chale aaya karo hamari tanu bitiya ko achchhi kampni mil jayegi kabhi tum logon se kuch paDh bhi liya karegi aur dekho, kuch khane pine ka man hua kare to bata diya karna, tumhare liye banwa diya karungi ”—aur we log papa ke khulepan aur mummy ki atmiyata aur sneh par mugdh hote hue chale gaye bus, jisse dosti karwane ke liye unhen bulaya gaya tha, ye bechari is tamashe ki matr darshak bhar hi bani rahi
unke jane ke baad baDi der tak unko lekar hi charcha hoti rahi apne ghar ki kishori laDki ko chheDne wale laDkon ko ghar bulakar chay pilai jaye aur laDki se dosti karwai jaye, ye sari baat hi baDi thriling aur romanchak lag rahi thi dusre din se mummy har aane wale se is ghatna ka ullekh kartin warnan karne mein patu mummy niras se niras baat ko bhi aisa dilchasp bana deti hain, phir ye to baat hi baDi dilchasp thi jo sunta wahi kahta, “wah, ye hui na kuch baat aapka baDa swasth drishtikon hai chizon ke prati warna log baten to baDi baDi karenge, par bachchon ko ghotkar rakhenge aur zara sa shak shubah ho jaye to baqayda jasusi karenge aur mummy is prshansa se nihal hoti hui kahtin, “aur nahin to kya? mukt raho aur bachchon ko mukt rakho hum logon ko bachpan mein ye mat karo, yahan mat jao—kah kahkar kitna bandha gaya tha hamare bachche to kam se kam is ghutan ke shikar na hon ”
par mummy ka bachcha us samay ek dusri hi ghutan ka shikar ho raha tha aur wo ye ki jis natk ki heroine use banna tha, uski heroine mummy ban baithin
khair, is sari ghatna ka parinam ye hua ki un laDkon ka wywahar ekdam hi badal gaya jis sharafat ko mummy ne un par lad diya, uske anurup wywahar karna unki mazburi ban gai ab jab bhi we apni chhat par mummy papa ko dekhte to adab mein lapetkar ek namaskar aur mujhe dekhte to muskan mein lapetkar ek ‘high’ uchhaal dete phabtiyon ki jagah baqayda hamara wartalap shuru ho gaya—baDa khula aur bejhijhak wartalap hamare baramde aur chhat mein itna hi fasla tha ki zor se bolne par batachit ki ja sakti thi han, ye baat zarur thi ki hamari batachit sara mohalla sunta tha aur kafi dilchaspi se sunta tha
jaise hi hum log chalu hote, pas paDos ki khiDakiyon mein chaar chhah sir aur dhaD aakar chipak jate mohallon mein laDakiyon ke prem prsang na hon, aisi baat to thi nahin—baqayda laDakiyon ke bhagne tak ki ghatnayen ghat chuki theen par wo sab kuch baDe gupt aur chhipe Dhang se hota tha aur mohalle wale jab apni paini nazron se aise kisi rahasy ko jaan lete the to baDa santosh unhen hota tha purush munchhon par taw dekar aur striyan hath nacha nachakar, khoob namak mirch lagakar in ghatnaon ka yahan se wahan tak parchar kartin kuch is bhaw se ki are, hamne duniya dekhi hai, hamari ankhon mein koi nahin dhool jhonk sakta hai par yahan sthiti hi ulat gai thi hamara wartalap itne khuleam hota tha ki logon ko khiDakiyon ki ot mein chhip chhipkar dekhana sunna paDta tha aur sunkar bhi aisa kuch unke hath nahin lagta tha jisse we kuch atmik santosh pate
par baat ko baDhna tha aur baat baDhi hua ye ki dhire dhire chhat ki majlis mere apne kamre mein jamne lagi roz hi kabhi do to kabhi teen ya chaar laDke aakar jam jate aur duniya bhar ke hansi mazak aur gapshap ka daur chalta gana bajana bhi hota aur chay pani bhi sham ko mummy papa ke mitr aate to in logon mein se koi na koi baitha hi hota shuru mein jin logon ne ‘mukt raho aur mukt rakho’ ki baDi prshansa ki thi, unhonne mukt rahne ka jo roop dekha to unki ankhon mein bhi kuch ajib si shankayen tairne lagin mummy ki ekadh mitr ne dabi zaban mein kaha bhi, “tanu to baDi fast chal rahi hai ” mummy ka apna sara utsah mand paD gaya tha aur leak se hatkar kuch karne ki thril puri tarah jhaD chuki thi ab to unhen is nangi sachchai ko jhelna tha ki unki nihayat hi kachchi aur nazuk umr ki laDki teen chaar laDkon ke beech ghiri rahti hai aur mummy ki sthiti ye thi ki we na is sthiti ko puri tarah swikar kar pa rahi theen aur na apne hi dwara baDe josh mein shuru kiye is silsile ko nakar hi pa rahi theen
akhir ek din unhonne mujhe apne pas bithakar kaha, “tanu bete, ye log roz roz yahan aakar jam jate hain akhir tumko paDhna likhna bhi to hai main to dekh rahi hain ki is dosti ke chakkar mein teri paDhai likhai sab chaupat hui ja rahi hai is tarah to ye sab chalega nahin ’’
“raat ko paDhti to hoon ”—laparwahi se mainne kaha
“khak paDhti hai raat ko, samay hi kitna milta hai? aur phir ye roz roz ki dhama chaukDi mujhe waise bhi pasand nahin theek hai, chaar chhah din mein kabhi aa gaye, gapshap kar li par yahan to ek na ek roz hi Data rahta hai ’’—mummy ke swar mein akrosh ka put gahrata ja raha tha
mummy ki ye tone mujhe achchhi nahin lagi, par main chup
“tu to unse bahut khul gai hai, kah de ki we log bhi baithkar paDhen aur tujhe bhi paDhne den aur tujhse na kaha jaye to main kah dungi!”
par kisi ke bhi kahne ki naubat nahin i kuch to paDhai ki mar se, kuch dilli ke dusre akarshnon se khinchkar hostel wale laDkon ka aana kam ho gaya par samne ke kamre se shekhar roz hi aa jata—kabhi dopahar mein to kabhi sham! teen chaar logon ki upasthiti mein uski jis baat par mainne dhyan nahin diya, wahi baat akele mein sabse adhik ujagar hokar i wo bolta kam tha, par shabdon ke pare bahut kuch kahne ki koshish karta tha aur ekayek hi main uski anakhi bhasha samajhne lagi thi kewal samajhne hi nahin lagi thi, pratyuttar bhi dene lagi thi jaldi hi meri samajh mein aa gaya ki shekhar aur mere beech prem jaisi koi cheez panapne lagi hai yon to shayad main samajh hi nahin pati, par hindi filmen dekhne ke baad isko samajhne mein khas mushkil nahin hui
jab tak man mein kahi kuch nahin tha, sab kuch baDa khula tha par jaise hi ‘kuchh hua to use auron ki nazar se bachane ki ichha bhi sath ho i jab kabhi dusre laDke aate to siDhiyon se hi shor karte ate—zor zor se bolte lekin shekhar jab bhi aata rengta hua aata aur phusaphusakar hum baten karte waise baten bahut hi sadharan hoti theen— school ki, college ki par phusaphusakar karne mein hi we kuch wishesh lagti theen prem ko kuch rahasyamay, kuch gupchup bana do to wo baDa thriling ho jata hai warna to ekdam sidha sapat! par mummy ke pas ghar aur ghar walon ke har rahasy ko jaan lene ki ek chhathi indriy hai jisse papa bhi kafi trast rahte hain—usse unhen ye sab samajhne mein zara bhi der nahin lagti shekhar kitna hi dab chhipkar aata aur mummy ghar ke kisi bhi kone mein hotin—phat se prakat ho jatin ya phir wahin se puchhtin, “tanu, kaun hai tumhare kamre mein?’’
mainne dekha ki shekhar ke is rawaiye se mummy ke chehre par ek ajib si pareshani jhalakne lagi hai par mummy is baat ko lekar yon pareshan ho uthengi, ye to main soch bhi nahin sakti thi jis ghar mein raat din tarah tarah ke prem prsang hi pise jate rahe hon—kunaron ke prem prsang, wiwahiton ke prem prsang, do teen premiyon se ek sath chalne wale prem prsang—us ghar ke liye to ye baat bahut hi mamuli honi chahiye jab laDkon se dosti ki hai to ekadh se prem bhi ho hi sakta hai mummy ne shayad samajh liya tha ki ye sthiti ajkal ki kalatmak filmon ki tarah chalegi—jinki we baDi prshansak aur samarthak hain—par jinmen shuru se lekar akhir tak kuch bhi sanasnikhej ghatta hi nahin
jo bhi ho, mummy ki is pareshani ne mujhe bhi kahin halke se wichlit zarur kar diya mummy meri man hi nahin, mitr aur sathin bhi hain do ghanishth mitron ki tarah hi hum duniya jahan ki baten karte hain, hansi mazak karte hai main chahti thi ki we is bare mein bhi koi baat karen, par unhonne koi baat nahin ki bus, jab shekhar aata to we apni swbhawgat laparwahi chhoDkar baDe sajag bhaw se mere kamre ke ird gird hi manDrati rahtin
ek din mummy ke sath bahar jane ke liye niche utri to darwaze par hi paDos ki ek bhadr mahila takra gai namaskar aur kushal kshaem ke adan pradan ke baad we baat ke asli mudde par ain
“ye samne ki chhat wale laDke aapke rishtedar hain kya?”
“nahin to ”
“achchha? sham ko roz aapke ghar baithe rahte hain to socha aapke zarur kuch lagte honge
“tanu ke dost hain mummy ne kuch aisi laparwahi aur nihsankoch bhaw se ye waky uchhala ki bechari teer nishane par na lagne ka gham liye hi laut gai
we to laut gain par mujhe laga ki is baat ka sootr pakaDkar hi mummy ab zarur meri thoDi dhunai kar dengi kahne wali ka to kuch na bana par mera kuch bigaDne ka hathiyar to mummy ke hath mein aa hi gaya bahut dinon se unke apne man mein kuch umaD ghumaD to raha hi hai par mummy ne itna hi kaha “lagta hai inke apne ghar mein koi dhandha nahin hai—jab dekho dusre ke ghar mein chonch gaDaye baithe rahte hain ”
main ashwast hi nahin hui, balki mummy ki or se ise hara signal samajh kar mainne apni raftar kuch aur tez kar di par itna zarur kiya ki shekhar ke sath teen ghanton mein se ek ghanta zarur paDhai mein guzarti wo bahut man lagakar paDhata aur main bahut man lagakar paDhti han, beech beech mein wo kaghaz ki chhoti chhoti parchiyon par kuch aisi panktiyan likhkar thama deta ki main bhitar tak jhanjhana jati uske jane ke baad bhi un panktiyon ke we shabd— bdon ke pichhe ke bhaw, meri rag rag mein sansanate aur main unhin mein Dubi rahti
mere bhitar apni hi ek duniya banti ja rahi thi—baDi bhari puri aur rangin ajkal mujhe kisi ki zarurat hi mahsus nahin hoti lagta jaise main apne mein hi puri hoon hamesha sath rahne wali mummy bhi out hoti ja rahi hain aur shayad yahi karan hai ki idhar mainne mummy par dhyan dena hi chhoD diya hai rozmarra ki baten to hoti hain, par kewal baten hi hoti hain—uske pare kahin kuch nahin
din guzarte ja rahe the aur main apne mein hi Dubi, apni duniya mein aur gahre dhansti ja rahi thi—bahar ki duniya se ek tarah se beख़bar see!
ek din school se lauti, kapDe badle shor sharabe ke sath khana manga, meen mekh ke sath khaya aur jab kamre mein ghusi to mummy ne lete lete hi bulaya “tanu, idhar aao ”
pas i to pahli bar dhyan gaya ki mummy ka chehra tamtama raha hai mera matha thanka unhonne saiD tebil par se ek kitab uthai aur usmen se kaghaz ki panch chhah parchiyan samne kar deen “toba!”—mummy se kuch paDhna tha so jate samay unhen apni kitab de gai thi ghalati se shekhar ki likhi parchiyan usi mein rah gain
“to is tarah chal rahi hai shekhar aur tumhari dosti? yahi paDhai hoti hai yahan baithkar—yahi sab karne ke liye aata hai wo yahan?”
main chup janti hoon, ghusse mae mummy ko jawab dene se baDhkar murkhata aur koi nahin
“tumko chhoot di azadi di, par iska ye matlab to nahin ki tum uska najayaz fayda uthao ”
main phir bhi chup
“bitte bhar ki laDki aur kartab dekho iske jitni chhoot di utne hi pair pasarte ja rahe hain iske ek jhapaD dungi to sara romans jhaD jayega do minat mein ”
is waky par main ekayek tilmila uthi tamak kar nazar uthai aur mummy ki taraf dekha par ye kya, ye to meri mummy nahin hain na ye tewar mummy ka hai, na ye bhasha phir bhi ye sare waky bahut parichit se lage laga, ye sab mainne kahin suna hai aur khatak se mere man mein kaundha—nana par nana ko mare to kitne sal ho gaye, ye phir jinda kaise ho gaye? aur wo bhi mummy ke bhitar jo hosh sambhalne ke baad hamesha unse jhagDa hi karti rahin unki har baat ka wirodh hi karti rahin
mummy ka ‘nani’ lahze wala bhashan kafi der tak chalu raha, par wo sab mujhe kahi se bhi chhu nahin raha tha—bus koi baat jhakjhor rahi thi to yahi ki mummy ke bhitar nana kaise aa baithe?
aur phir ghar mein ek wichitr sa tanawapurn maun chha gaya khaskar mere aur mummy ke beech nahin, mummy to ghar mein rahi hi nahin, mere aur nana ke beech main mummy ko apni baat samjha bhi sakti hoon, unki baat samajh bhi sakti hun—par nana? main to is bhasha se bhi aprichit hoon aur is tewar se bhi—bat karne ka parashn hi kaise uthta? papa zarur mere dost hain, par bilkul dusri tarah ke shatranj khelna, panja laDana aur jo farmaish mummy puri na karen, unse puri karwa lena bachpan mein unki peeth par ladi rahti thi aur aaj bhi bina kisi jhijhak ke unki peeth par ladkar apni har ichha puri karwa leti hoon par itne ‘mai Dear dost’ hone ke bawjud apni niji baten main mummy ke sath hi karti i hoon aur wahan ekdam sannata—mummy ko patakhni dekar nana puri tarah un par sawar jo hain
shekhar ko mainne ishare se hi lal jhanDi dikha di thi so wo bhi nahin aa raha aur sham ka samay hai ki mujhse kate nahin katta
kai bar man hua ki mummy se jakar baat karun aur saf saf puchhun ki tum itna bigaD kyon rahi ho? meri aur shekhar ki dosti ke bare mein tum janti to ho mainne to kabhi kuch chhipaya nahin, aur dosti hai to ye sab to hoga hi tum kya samajh rahi theen ki hum bhai bahan ki tarah par tabhi khayal aata ki mummy hain hi kahan, jinse jakar ye sab kahun
chaar din ho gaye, mainne shekhar ki surat tak nahin dekhi mere halke se ishare se hi us bechare ne to ghar kya, chhat par aana bhi chhoD diya hostel mein rahne wale uske sathi bhi chhat par na dikhai diye, na ghar hi aaye koi aata to kam se kam uska halachal hi poochh leti main janti hoon, wo bewakufi ki had tak bhawuk hai use to theek se ye bhi nahin malum ki akhir yahan hua kya hai? lagta hai mummy ke ghusse ki ashanka matr se hi sabke hausale past ho gaye the
waise kal se mummy ke chehre ka tanaw kuch Dhila zarur hua hai teen din se jami hui sakhti jaise pighal gai ho par mainne tay kar liya hai ki baat ab mummy hi karengi
sabere nha dhokar main darwaze ke pichhe apni yuniphaurm press kar rahi thi bahar mez par mummy chay bana rahi theen aur papa akhbar mein sir gaDaye baithe the mummy ko shayad malum hi nahin paDa ki main kab nahakar bahar nikal i we papa se bolin “jante ho kal raat ko kya hua? pata nahin, tab se man bahut kharab ho gaya—uske baad main to so hi nahin pai ”
mummy ke swar ki komalta se mera hath jahan ka tahan tham gaya aur kan bahar lag gaye
“adhi raat ke qarib main bathrum jane ke liye uthi samne chhat par ghupp andhera chhaya hua tha achanak ek lal sitara sa chamak utha main chaunki ghaur se dekha to dhire dhire ek akriti ubhar i shekhar chhat par khaDa cigarette pi raha tha main chupchap laut i koi do ghante baad phir gai to dekha wo usi tarah chhat par tahal raha tha bechara—mera man jane kaisa ho aaya tanu bhi kaisi bujhi bujhi rahti hai ” phir jaise apne ko hi dhikkarti si bolin “pahle to chhoot do aur jab aage baDhen to khinchkar charon khane chitt kar do ye bhi koi baat hui bhala ”
rahat ki ek gahri niःshwas mere bhitar se nikal paDi jane kaisa aaweg man mein umDa ki ichha hui dauDkar mummy ke gale se lag jaun laga jaise arse ke baad meri mummy lautkar i hon par mainne kuch nahin kaha bus, ab khulkar baat karungi chaar din se na jane kitne parashn man mein ghumaD rahe the ab kya, ab to mummy hain, aur unse to kam se kam sab kaha puchha ja sakta hai
par ghar pahunchakar jo dekha to awak! shekhar hatheliyon mein sir thame kursi par baitha hai aur mummy usi kursi ke hatthe par baithi uski peeth aur matha sahla rahi hain mujhe dekhte hi baDe sahj swabhawik swar mein bolin “dekha is pagle ko chaar din se ye sahab college nahin gaye hain na hi kuch khaya piya hai apne sath iska bhi khana lagwana ”
aur phir mummy ne khu baithkar baDe sneh se manuhar kar karke use khana khilaya khane ke baad kahne par bhi shekhar thahra nahin mummy ke prati kritagyta ke bojh se jhuka jhuka hi wo laut gaya aur mere bhitar khushi ka aisa jwar umDa ki ab tak ke soche sare parashn usi mein bila gaye
sari sthiti ko samay par aane mein samay to laga, par aa gai shekhar ne bhi ab ek do din chhoDkar aana shuru kiya aur aata bhi to adhiktar hum likhai paDhai ki hi baat karte apne kiye par sharmindgi prakat karte hue usne mummy se wayada kiya ki wo ab koi aisa kaam nahin karega, jisse mummy ko shikayat ho jis din wo nahin aata, main do teen bar thoDi thoDi der ke liye apne baramde se hi baat kar liya karti ghar ki anumti aur sahyog se yon sare aam chalne wale is prem prsang mein mohalle walon ke liye bhi kuch nahin rah gaya tha aur unhonne is janalewa zamane ke nam do chaar lanten bhejkar, kisi gul khilne tak ke liye apni dilchaspi ko sthagit kar diya tha
lekin ek baat mainne zarur dekhi jab bhi shekhar sham ko kuch jyada der baith jata ya dopahar mein bhi aata to mummy ke bhitar nana kasamsane lagte aur uski pratikriya mummy ke chehre par jhalakne lagti mummy bharsak koshish karke nana ko bolne to nahin detin, par unhen puri tarah hata dena bhi shayad mummy ke bus ki baat nahin rah gai thi
han, ye prsang mere aur mummy ke beech mein ab rozmarra ki batachit ka wishay zarur ban gaya tha kabhi we mazak mein kahtin “yah jo tera shekhar hai na, baDa lijlija sa laDka hai are, is umr ke laDkon ko chahiye ghumen phiren, masti maren kya muharrami si surat banaye majnun ki tarah chhat par tanga sare samay idhar hi takta rahta hai ”
main kewal hans deti
kabhi baDi bhawuk hokar kahtin “tu kyon nahin samajhti bete, ki tujhe lekar kitni mahattwakankshayen hai mere man mein tere bhawishya ko lekar kitne sapne sanjo rakhe hain mainne ”
main hansakar kahti “mummy, tum bhi kamal karti ho apni zindagi ko lekar bhi tum sapne dekho aur meri zindagi ke sapne bhi tumhin dekh Dalo kuch sapne mere liye bhi chhoD do!”
kabhi we samjhane ke lahze mein kahtin “dekho tanu, abhi tum bahut chhoti ho apna sara dhyan paDhne likhne mein lagao aur dimagh se ye ulte sidhe fitur nikal Dalo theek hai, baDe ho jao to prem bhi karna aur shadi bhi main to waise bhi tumhare liye laDka DhunDhane wali nahin hun—apne aap hi DhunDh़na, par itni akal to aa jaye ki Dhang ka chunaw kar sako ”
apne chunaw ke rijekshan ko main samajh jati aur puchhti “achchha, mummy batao, jab tumne papa ko chuna tha to wo nana ko pasand tha?”
“mera chunaw! apni sari paDhai likhai khatm karke pachchis sal ki umr mein chunaw kiya tha mainne—khub soch samajhkar aur akal ke sath, samjhi ”
mummy apni baukhalahat ko ghusse mae chhipakar kahtin umr aur paDhai likhai, ye do hi to aise mudde hain jis par mummy mujhe jab tab Dantti rahti hain paDhne likhne mein main achchhi thi aur rahi umr ka sawal, so uske liye man hota ki kahun “mummy, tumhari piDhi jo kaam pachchis sal ki umr mein karti thi, hamari use pandrah sal ki umr mein hi karegi, ise tum kyon nahin samajhti par chup rah jati nana ka zikr to chal hi paDa hai, kahi we ji jag uthe to!
chhamahi parikshayen pas aa gai theen aur mainne sara dhyan paDhne mein laga diya tha sabka aana aur gana bajana ekdam band! in dinon mainne itni jamkar paDhai ki ki mummy ka man prasann ho gaya shayad kuch ashwast bhi akhiri paper dene ke pashchat lag raha tha ki ek bojh tha, jo hat gaya hai man behad halka hokar kuch masti marne ko kar raha tha
mainne mummy se puchha “mummy, kal shekhar aur dipak picture ja rahe hain, main bhi sath chali jaun?” aaj tak main in logon ke sath kabhi ghumne nahin gai thi, par itni paDhai karne ke baad ab itni chhoot to milani hi thi
mummy ek kshan mera chehra dekhti rahin, phir bolin “idhar aa, yahan baith! tujhse kuch baat karni hai ”
main jakar baith gai par ye na samajh aaya ki ismen baat karne ko kya hai—han kaho ya na lekin mummy ko baat karne ka marz jo hai unki to han na bhi pachas sath wakyon mein lipte bina nahin nikal sakti
“tere imtihan khatm hue, main to khu picture ka program bana rahi thi kaun si picture dekhana chahti hai?’’
“kyon, un logon ke sath jane mein kya hai?”—mere swar mein itni kheejh bhari hui thi ki mummy ektak mera chehra hi dekhti rah gain
“tanu, tujhe puri chhoot de rakhi hai bete, par itni hi tez chal ki main bhi sath chal sakun ”
“tum saf kaho na, ki jane dogi ya nahin? bekar ki baten main bhi sath chal sakun—tumhare sath chal sakne ki baat bhala kahan se aa gai!”
mummy ne peeth sahlate hue kaha “sath to chalna hi paDega kabhi aundhe munh giri to uthane wala bhi to chahiye n!”
main samajh gai ki mummy nahin jane dengi, par is tarah pyar se mana karti hain to jhagDa bhi to nahin kiya ja sakta bahs karne ka sidha sa matlab hai ki unka baghara hua darshan suno—yani pachas minat ki ek class par main qati nahin samajh pai ki jane mein akhir harz kya hai? har baat mein na nukur kahan to kahti theen ki bachpan mein ye mat karo, yahan mat jao kahkar hamko bahut Danta gaya tha aur khu ab wahi sab kar rahi hain dekh liya inki baDi baDi baton ko main uthi aur dandanati hui apne kamre mein aa gai han, ek waky zarur thama i “mummy, jo chalega, wo girega bhi aur jo girega, wo uthega bhi aur khu hi uthega, use kisi ki zarurat nahin hai ”
pata nahin, meri baat ki un par pratikriya hui ya unke apne man mein hi kuch jaga ki sham ko unhonne khu shekhar aur uske kamre par aaye tinon charon laDkon ko bulwakar mere hi kamre mein majlis jamwai aur khoob garm garm khana khilaya kuch aisa rang jama ki mera dopahar wala akrosh dhul gaya
imtihan khatm ho gaye the aur mausam suhana tha mummy ka rawaiya bhi anukal tha so dosti ka sthagit hua silsila phir shuru ho gaya aur ajkal to jaise uske siway kuch rah hi nahin gaya tha par phir ek jhatka
us din main apni saheli ke ghar se lauti to mummy ki sakht awaz sunai di “tanu idhar aao to ”
awaz se hi laga ki ye khatre ka signal hai ek kshan ko main sakte mein aa gai pas gai to chehra pahle ki tarah sakht
“tum shekhar ke kamre mein jati ho?”—mummy ne banduk dagi samajh gai ki pichhe gali mein se kisi ne apna kartab kar dikhaya
“kab se jati ho?”
man to hua ki kahun jisne jane ki khabar di hai, usne baqi baten bhi bata hi di hongi kuch joD toDkar hi bataya hoga par mummy jis tarah bhabhak rahi theen, usme chup rahna hi behtar samjha waise mujhe mummy ke is ghusse ka koi karan samajh mein nahin aa raha tha do teen bar yadi main thoDi thoDi der ke liye shekhar ke kamre par chali gai to aisa kya gunah ho gaya par mummy ka har kaam sakaran to hota nahin bus, we to mood par hi chalti hain
ajib musibat thi ghusse mein mummy se baat karne ka koi matlab nahin aur meri chuppi mummy ke ghusse ko aur bhaDka rahi thi
“yaad nahin hai, mainne shuru mein hi tumhein mana kar diya tha ki tum unke kamre par kabhi nahin jaogi teen teen ghante wo yahan dhuni ramakar baithta hai, usmen ji bhara nahin tumhara?”
duःkh, krodh aur atank ki parten unke chehre par gahri hoti ja rahi theen aur main samajh hi nahin pa rahi thi ki kaise unhen sari sthiti samjhaun?
“wah to bechare samne walon ne mujhe bulakar agah kar diya janti hai ye sir aaj tak kisi ke samne jhuka nahin, par wahan mujhse ankh nahin uthai gai munh dikhane layaq mat rakhna hamko kahin bhi sari gali mein thu thu ho rahi hai nak katakar rakh di ”
ghazab!
is bar to sara mohalla hi bolne laga mummy ke bhitar se! ashchary hai ki jo mummy aaj tak apne aas pas se bilkul kati hui thi jiska mazak hi uDaya karti thi aaj kaise uske sur mein sur milakar bol rahi hain
mummy ka bhashan badastur chalu par mainne to apne kan ke switch hi off kar liye jab ghussa thanDa hoga, mummy apne mein laut ayengi tab samjha dungi mummy, is chhoti si baat ko tum nahaq itna tool de rahi ho
par jane kaisi Doz le i hain is bar ki unka ghussa thanDa hi nahin ho raha hai aur hua ye ki ab unke ghusse se mujhe ghussa chaDhne laga
phir ghar mein ek ajib sa tanaw baDh gaya is bar mummy ne shayad papa ko bhi sab kuch bata diya hai kaha to unhonne kuch nahin—we shuru se hi is sare mamle mein out hi rahe—par is bar unke chehre par bhi ek anakha sa tanaw dikhai zarur de raha hai
koi do mahine pahle jab is tarah ki ghatna hui thi to main bhitar tak saham gai thi, par is bar mainne tay kar liya hai ki is sare mamle mein mummy ko yadi nana bankar hi wywahar karna hai to mujhe bhi phir mummy ki tarah hi morcha lena hoga unse—aur main zarur lungi dikha to doon ki main tumhari hi beti hoon aur tumhare hi naqshe qadam par chali hoon khu to leak se hatkar chali theen sari zindagi is baat ki ghutti pilati rahin, par mainne jaise hi apna pahla qadam rakha, ghasitkar mujhe apni hi khinchi leak par lane ke dand phand shuru ho gaye
mainne man mein Dher Dher tark soch Dale ki ek din baqayda mummy se bahs karungi saf saf kahungi ki mummy, itne hi bandhan lagakar rakhna tha to shuru se waise paltin kyon jhooth mooth azadi dene ki baten karti sikhati rahin par is bar mera bhi man sulagkar is tarah rakh ho gaya tha ki main gumsum si apne hi kamre mein paDi rahti man bahut bhar aata to ro leti! ghar mein sare din hansti khilkhilati rahne wali main ekdam chup hokar apne mein hi simat gai thi han, ek waky zarur bar bar dohra rahi thi “mummy, tum achchhi tarah samajh lo ki main bhi apne man ki hi karungi ” halanki mere man mein kya hai, iski koi bhi ruparekha mere samne na thi
mujhe nahin malum ki in teen chaar dinon mein bahar kya hua ghar bahar ki duniya se kati, apne hi kamre mein simti, main mummy se morcha lene ke danw soch rahi thi
par aaj dopahar mujhe qati qati apne kanon par wishwas nahin hua jab mainne mummy ko apne baramde se hi chillate hue suna “shekhar, kal to tum log chhuttiyon mein apne ghar chale jaoge, aaj sham apne doston ke sath khana idhar hi khana ”
nahin janti, kis zaddozhad se guzarkar mummy is sthiti par pahunchi hongi
aur raat ko shekhar, dipak aur rawi ke sath khane ki mez par Data hua tha mummy utne hi prem se khana khila rahi theen papa waise hi khule Dhang se mazak kar rahe the, mano beech mein kuch ghata hi nahin agal baghal ki khiDakiyon mein do chaar sir chipke hue the sab kuch pahle ki tarah bahut sahj swabhawik ho utha tha
kewal main is sari sthiti se ekdam tatasth yahi soch rahi thi ki nana puri tarah nana the—shat pratishat aur isi se mummy ke liye laDna kitna asan ho gaya hoga par in mummy se laDa bhi kaise jaye jo ek pal nana hokar jiti hain to ek pal mummy hokar
“ghar ki charadiwari adami ko suraksha deti hai par sath hi use ek sima mein bandhti bhi hai school college jahan wekti ke mastishk ka wikas karte hain, wahin niyam qayde aur anushasan ke nam par uske wyaktitw ko kunthit bhi karte hain—bat ye hai bandhu ki har baat ka wirodh uske bhitar hi rahta hai ”
ye sab main kisi kitab ke udaharn nahin pesh kar rahi aisi bhari bharkam kitaben paDhne ka mera buta hi nahin ye to un baton aur bahson ke tukDe hain jo raat din hamare ghar mein hua karti hain hamara ghar, yani buddhijiwiyon ka akhaDa yahan cigarette ke dhuen aur coffe ke pyalon ke beech baton ke baDe baDe tumar bandhe jate hain baDi baDi shabdik krantiyan ki jati hain is ghar mein kaam kam aur baten jyada hoti hain mainne kahin paDha to nahin, par apne ghar se ye lagta zarur hai ki buddhijiwiyon ke liye kaam karna shayad warjit hai matushri apni teen ghante ki tafrihanuma naukari bajane ke baad mukt thoDa bahut paDhne likhne ke baad jo samay bachta hai wo ya to baat bahs mein jata hai ya phir lot lagane mein unka khayal hai ki sharir ke nishkriy hote hi man mastishk sakriy ho uthte hain aur ye din ke chaubis ghanton mein se barah ghante apna man mastishk hi sakriy banaye rakhti hain pitashri aur bhi do qadam aage! unka bus chale to we nahayen bhi apni mez par hi
jis baat ki hamare yahan sabse adhik katai hoti hai, wo hai adhunikta! par zara thahariye, aap adhunikta ka ghalat arth mat lagaiye ye baal katane aur chhuri kante se khane wali adhunikta kati nahin ye hai theth buddhijiwiyon ki adhunikta ye kya hoti hai so to theek theek main bhi nahin janti—par han, ismen leak chhoDne ki baat bahut sunai deti hai aap leak ki dulatti jhaDte aiye, sir ankhon par leak se chipakkar aiye, dulatti khaiye
bahson mein yon duniya jahan ke wishay pise jate hain par ek wishay shayad sab logon ko bahut priy hai aur wo hai shadi shadi yani barbadi halke phulke Dhang se shuru hui baat ekdam bauddhik star par chali jati hai wiwah sanstha ekdam khokhli ho chuki hai pati patni ka sambandh baDa naqli aur upar se thopa hua hai—aur phir dhuandhar Dhang se wiwah ki dhajjiyan uDai jati hain is bahs mein aksar striyan ek taraf ho jatin aur purush ek taraf, aur bahs ka mahaul kuch aisa garm ho jaya karta ki mujhe pura wishwas ho jata ki ab zarur ek do log talaq de baithenge par mainne dekha ki aisa koi hadasa kabhi hua nahin sare hi mitr log apne apne byah ko khoob achchhi tarah tah sametkar, us par jamkar aasan mare baithe hain han, bahs ki raftar aur tone aaj bhi wahi hai
ab sochiye, byah ko kosenge to phri lawa aur phri sex ko to posna hi paDega ismen purush log uchhal uchhalkar aage rahte kuch is bhaw se mano baat karte hi inka aadha sukh to we le hi lenge papa khu baDe samarthak! par hua yon ki ghar mein hamesha chup chup rahne wali door daraz ki ek didiya ne bina kabhi in bahson mein bhag liye hi is par puri tarah amal kar Dala to paya ki sari adhunikta aऽऽऽdham! wo to phir mummy ne baDe sahj Dhang se sari baat ko sambhala aur nirarthak wiwah ke bandhan mein bandhakar didiya ka jiwan sarthak kiya halanki ye baat bahut purani hai aur mainne to baDi dabi Dhanki zaban se iska zikr hi suna hai
waise papa mummy ka bhi prem wiwah hua tha yon ye baat bilkul dusri hai ki hosh sambhalne ke baad mainne unhen prem karte nahin, kewal bahs karte hi dekha hai wiwah ke pahle apne is nirnay par mummy ko nana se bhi bahut bahs karni paDi thi aur bahs ka ye daur bahut lamba bhi chala tha shayad iske bawjud ye bahs wiwah nahin, prem wiwah hi hai, jiska zikr mummy baDe garw se kiya karti hain garw wiwah ko lekar nahin, par is baat ko lekar hai ki kis prakar unhonne nana se morcha liya apne aur nana ke beech hue sanwadon ko we itni bar duhra chuki hain ki mujhe we kanthasth se ho gaye hain aaj bhi jab we uski charcha karti hain to leak se hatkar kuch karne ka santosh unke chehre par jhalak uthta hai
bus, aise hi ghar mein main pal rahi hun—baDe mukt aur swachchhand Dhang se aur palte palte ek din achanak baDi ho gai baDe hone ka ye ehsas mere apne bhitar se itna nahin phuta, jitna bahar se iske sath bhi ek dilchasp ghatna juDi hui hai hua yon ki ghar ke theek samne ek barsati hai—ek kamra aur uske samne phaili chhat! usmen har sal do teen widyarthi aakar rahte chhat par ghoom ghumkar paDhte, par kabhi dhyan hi nahin gaya shayad dhyan jane jaisi meri umr hi nahin thi
is bar dekha, wahan do laDke aaye hain the to we do hi, par sham tak unke mitron ka ek achchha khasa jamghat ho jata aur sari chhat hi nahin, sara mohalla tak gulzar! hansi mazak, gana bajana aur asapas ki jo bhi laDkiyan unki nazar ke dayre mein aa jatin, un par chutili phabtiyan par unki nazron ka asli kendr hamara ghar—aur aspasht kahun to main hi thi baramde mein nikalkar main kuch bhi karun, udhar se ek na ek remark hawa mein uchhalta hua tapakta aur main bhitar tak tharthara uthti mujhe pahli bar laga ki main hun—aur kewal hoon hi nahin, kisi ke akarshan ka kendr hoon imandari se kahun to apne hone ka pahla ehsas baDa romanchak laga aur apni hi nazron mein main nai ho uthi—nai aur baDi!
ajib si sthiti thi jab we phabtiyan kaste to main ghusse se bhanna jati—halanki unki phabtiyon mein ashishtata kahin nahin thi thi to kewal man ko sahlane wali ek chuhal par jab we nahin hote ya hokar bhi aapas mein hi mashghul rahte to main pratiksha karti rahti ek anam si bechaini bhitar hi bhitar kasmasati rahti aalam ye hai ki har haalat mein dhyan wahin atka rahta aur main kamra chhoDkar baramde mein hi tangi rahti
par in laDkon ke is halle gulle wale wywahar ne mohalle walon ki neend zarur haram kar di hamara mohalla yani hathras—khurja ke lalaon ki basti jinke gharon mein kishori laDkiyan theen, we banhen chaDha chaDhakar dant aur lat toDne ki dhamkiyan de rahe the kyonki sabko apni laDakiyon ka bhawishya khatre mein jo dikhai de raha tha mohalle mein itni sargarmi aur mere mummy papa ko kuch pata hi nahin baat asal mein ye hai ki in logon ne apni sthiti ek dweep jaisi bana rakhi hai sabke beech rahkar bhi sabse alag
ek din mainne mummy se kaha, “mummy, ye jo samne laDke aaye hain, jab dekho mujh par remark pas karte hain main chupchap nahin sunungi, main bhi yahan se jawab dungi ”
“kaun laDke?”—mummy ne ashchary se puchha
kamal hai, mummy ko kuch pata nahin mainne kuch kheej aur kuch pulak ke mile jule swar mein sari baat batai par mummy par koi wishesh pratikriya hi nahin hui
“batana kaun hain ye laDke ”—baDe thanDe lahze mein unhonne kaha aur phir paDhne lagin apna chheDa jana mujhe jitna sanasnikhej lag raha tha, us par mummy ki aisi udasinata mujhe achchhi nahin lagi koi aur man hoti to phenta kaskar nikal jati aur unki sat pushton ko tar deti par mummy par jaise koi asar hi nahin
dopahar Dhale laDkon ki majlis chhat par jami to mainne mummy ko bataya, dekho, ye laDke hain jo sare samay idhar dekhte rahte hain aur main kuch bhi karun, us par phabtiyan kaste hain ” pata nahin mere kahne mein aisa kya tha ki mummy ektak meri or dekhti rahin, phir dhire se musakurain thoDi der tak chhat wale laDkon ka muayna karne ke baad bolin, “college ke laDke malum hote hain par ye to ekdam bachche hain ”
man hua kahun ki mujhe bachche nahin to kya buDhe chheDenge! par tabhi mummy bolin, “kal sham ko in logon ko chay par bula lete hain aur tumse dosti karwa dete hain ”
main to awak!
“tum inhen chay par bulaogi?”—mujhe jaise mummy ki baat par wishwas hi nahin ho raha tha
“han, kyon, kya hua? are, ye to hamare zamane mein hota tha ki mil to sakte nahin, bus door se hi phabtiyan kas kaskar tasalli karo ab to zamana badal gaya ”
main to is wichar matr se hi pulkit—laga, mummy sachmuch koi unchi cheez hai ye log hamare ghar ayenge aur mujhse dosti karenge ekayek mujhe lagne laga ki main bahut akeli hoon aur mujhe kisi ki dosti ki sakht awashyakta hai is mohalle mein mera kisi se wishesh mel jol nahin aur ghar mein kewal mummy papa ke dost hi aate hain
dusra din mera bahut hi sanshay mein bita pata nahin mummy apni baat puri bhi karti hai ya yon hi rau mein kah gain aur baat khatm! sham ko mainne yaad dilane ke liye hi kaha, “mummy, tum sachmuch hi un laDkon ko bulane jaogi?”—shabd to mere yahi the, warna bhaw to tha ki mummy, jao na, pleez!”
aur mummy sachmuch hi chali gain mujhe yaad nahin, mummy do chaar bar se adhik mohalle mein kisi ke ghar gai hon main sans rokkar unke lautne ki pratiksha karti rahi ek wichitr si thirkan main ang pratyang mein mahsus kar rahi thi kahin mummy sath hi leti ain to? kahin we mummy se badatmizi se pesh aaye to? par nahin, we aise lagte to nahin hain koi ghante bhar baad mummy lautin behad prasann
“mujhe dekhte hi unki to sitti pitti hi gum ho gai unhen laga, abhi tak to log apne apne gharon se hi unke lat dant toDne ki dhamki de rahe the, main jaise sidhe ghar hi pahunch gai unki haDDi pasli ek karne par phir to itni khatir ki becharon ne ki bus! baDe hi sweet bachche hain bahar se aaye hain—hostel mein jagah nahin mili, isliye kamra lekar rah rahe hain sham ko jab papa ayenge tab bulwa lenge ”
pratiksha mein samay itna bojhil ho jata hai, ye bhi mera pahla anubhaw tha papa aaye to mummy ne baDe umang se sari baat batai sabse kuch alag karne ka santosh aur garw unke har shabd mein se jaise chhalka paD raha tha papa hi kaun pichhe rahnewale the unhonne suna to we bhi prasann
“bulao laDkon ko! are, khelan khane do aur masti marne do bachchon ko ”—mummy papa ko apni adhunikta tusht karne ka ek zordar awsar mil raha tha
naukar ko bhejkar unhen bulwaya gaya to agle hi kshan sab hazir! mummy ne baDe qayde se parichai karwaya aur “halo high” ka adan pradan hua
“tanu bete, apne doston ke liye chay banao!”
dhattere kee! mummy ke dost ayen tab bhi tanu beta chay banaye aur uske dost ayen tab bhee! par man markar uthi
chay pani hota raha khoob hansi mazak bhi chala we safai pesh karte rahe ki mohalle wale jhooth mooth hi unke pichhe paDe rahte hain we to aisa kuch bhi nahin karte “jast faur fan” kuch kar diya warna is sabka koi matlab nahin
papa ne baDhawa dete hue kaha, “are, is umar mein to ye sab karna hi chahiye hamein mauqa mile to aaj bhi karne se baz na ayen ”
hansi ki ek lahr yahan se wahan tak dauD gai koi do ghante baad we chalne lage to mummy ne kaha, “dekho, ise apna hi ghar samjho jab ichha ho, chale aaya karo hamari tanu bitiya ko achchhi kampni mil jayegi kabhi tum logon se kuch paDh bhi liya karegi aur dekho, kuch khane pine ka man hua kare to bata diya karna, tumhare liye banwa diya karungi ”—aur we log papa ke khulepan aur mummy ki atmiyata aur sneh par mugdh hote hue chale gaye bus, jisse dosti karwane ke liye unhen bulaya gaya tha, ye bechari is tamashe ki matr darshak bhar hi bani rahi
unke jane ke baad baDi der tak unko lekar hi charcha hoti rahi apne ghar ki kishori laDki ko chheDne wale laDkon ko ghar bulakar chay pilai jaye aur laDki se dosti karwai jaye, ye sari baat hi baDi thriling aur romanchak lag rahi thi dusre din se mummy har aane wale se is ghatna ka ullekh kartin warnan karne mein patu mummy niras se niras baat ko bhi aisa dilchasp bana deti hain, phir ye to baat hi baDi dilchasp thi jo sunta wahi kahta, “wah, ye hui na kuch baat aapka baDa swasth drishtikon hai chizon ke prati warna log baten to baDi baDi karenge, par bachchon ko ghotkar rakhenge aur zara sa shak shubah ho jaye to baqayda jasusi karenge aur mummy is prshansa se nihal hoti hui kahtin, “aur nahin to kya? mukt raho aur bachchon ko mukt rakho hum logon ko bachpan mein ye mat karo, yahan mat jao—kah kahkar kitna bandha gaya tha hamare bachche to kam se kam is ghutan ke shikar na hon ”
par mummy ka bachcha us samay ek dusri hi ghutan ka shikar ho raha tha aur wo ye ki jis natk ki heroine use banna tha, uski heroine mummy ban baithin
khair, is sari ghatna ka parinam ye hua ki un laDkon ka wywahar ekdam hi badal gaya jis sharafat ko mummy ne un par lad diya, uske anurup wywahar karna unki mazburi ban gai ab jab bhi we apni chhat par mummy papa ko dekhte to adab mein lapetkar ek namaskar aur mujhe dekhte to muskan mein lapetkar ek ‘high’ uchhaal dete phabtiyon ki jagah baqayda hamara wartalap shuru ho gaya—baDa khula aur bejhijhak wartalap hamare baramde aur chhat mein itna hi fasla tha ki zor se bolne par batachit ki ja sakti thi han, ye baat zarur thi ki hamari batachit sara mohalla sunta tha aur kafi dilchaspi se sunta tha
jaise hi hum log chalu hote, pas paDos ki khiDakiyon mein chaar chhah sir aur dhaD aakar chipak jate mohallon mein laDakiyon ke prem prsang na hon, aisi baat to thi nahin—baqayda laDakiyon ke bhagne tak ki ghatnayen ghat chuki theen par wo sab kuch baDe gupt aur chhipe Dhang se hota tha aur mohalle wale jab apni paini nazron se aise kisi rahasy ko jaan lete the to baDa santosh unhen hota tha purush munchhon par taw dekar aur striyan hath nacha nachakar, khoob namak mirch lagakar in ghatnaon ka yahan se wahan tak parchar kartin kuch is bhaw se ki are, hamne duniya dekhi hai, hamari ankhon mein koi nahin dhool jhonk sakta hai par yahan sthiti hi ulat gai thi hamara wartalap itne khuleam hota tha ki logon ko khiDakiyon ki ot mein chhip chhipkar dekhana sunna paDta tha aur sunkar bhi aisa kuch unke hath nahin lagta tha jisse we kuch atmik santosh pate
par baat ko baDhna tha aur baat baDhi hua ye ki dhire dhire chhat ki majlis mere apne kamre mein jamne lagi roz hi kabhi do to kabhi teen ya chaar laDke aakar jam jate aur duniya bhar ke hansi mazak aur gapshap ka daur chalta gana bajana bhi hota aur chay pani bhi sham ko mummy papa ke mitr aate to in logon mein se koi na koi baitha hi hota shuru mein jin logon ne ‘mukt raho aur mukt rakho’ ki baDi prshansa ki thi, unhonne mukt rahne ka jo roop dekha to unki ankhon mein bhi kuch ajib si shankayen tairne lagin mummy ki ekadh mitr ne dabi zaban mein kaha bhi, “tanu to baDi fast chal rahi hai ” mummy ka apna sara utsah mand paD gaya tha aur leak se hatkar kuch karne ki thril puri tarah jhaD chuki thi ab to unhen is nangi sachchai ko jhelna tha ki unki nihayat hi kachchi aur nazuk umr ki laDki teen chaar laDkon ke beech ghiri rahti hai aur mummy ki sthiti ye thi ki we na is sthiti ko puri tarah swikar kar pa rahi theen aur na apne hi dwara baDe josh mein shuru kiye is silsile ko nakar hi pa rahi theen
akhir ek din unhonne mujhe apne pas bithakar kaha, “tanu bete, ye log roz roz yahan aakar jam jate hain akhir tumko paDhna likhna bhi to hai main to dekh rahi hain ki is dosti ke chakkar mein teri paDhai likhai sab chaupat hui ja rahi hai is tarah to ye sab chalega nahin ’’
“raat ko paDhti to hoon ”—laparwahi se mainne kaha
“khak paDhti hai raat ko, samay hi kitna milta hai? aur phir ye roz roz ki dhama chaukDi mujhe waise bhi pasand nahin theek hai, chaar chhah din mein kabhi aa gaye, gapshap kar li par yahan to ek na ek roz hi Data rahta hai ’’—mummy ke swar mein akrosh ka put gahrata ja raha tha
mummy ki ye tone mujhe achchhi nahin lagi, par main chup
“tu to unse bahut khul gai hai, kah de ki we log bhi baithkar paDhen aur tujhe bhi paDhne den aur tujhse na kaha jaye to main kah dungi!”
par kisi ke bhi kahne ki naubat nahin i kuch to paDhai ki mar se, kuch dilli ke dusre akarshnon se khinchkar hostel wale laDkon ka aana kam ho gaya par samne ke kamre se shekhar roz hi aa jata—kabhi dopahar mein to kabhi sham! teen chaar logon ki upasthiti mein uski jis baat par mainne dhyan nahin diya, wahi baat akele mein sabse adhik ujagar hokar i wo bolta kam tha, par shabdon ke pare bahut kuch kahne ki koshish karta tha aur ekayek hi main uski anakhi bhasha samajhne lagi thi kewal samajhne hi nahin lagi thi, pratyuttar bhi dene lagi thi jaldi hi meri samajh mein aa gaya ki shekhar aur mere beech prem jaisi koi cheez panapne lagi hai yon to shayad main samajh hi nahin pati, par hindi filmen dekhne ke baad isko samajhne mein khas mushkil nahin hui
jab tak man mein kahi kuch nahin tha, sab kuch baDa khula tha par jaise hi ‘kuchh hua to use auron ki nazar se bachane ki ichha bhi sath ho i jab kabhi dusre laDke aate to siDhiyon se hi shor karte ate—zor zor se bolte lekin shekhar jab bhi aata rengta hua aata aur phusaphusakar hum baten karte waise baten bahut hi sadharan hoti theen— school ki, college ki par phusaphusakar karne mein hi we kuch wishesh lagti theen prem ko kuch rahasyamay, kuch gupchup bana do to wo baDa thriling ho jata hai warna to ekdam sidha sapat! par mummy ke pas ghar aur ghar walon ke har rahasy ko jaan lene ki ek chhathi indriy hai jisse papa bhi kafi trast rahte hain—usse unhen ye sab samajhne mein zara bhi der nahin lagti shekhar kitna hi dab chhipkar aata aur mummy ghar ke kisi bhi kone mein hotin—phat se prakat ho jatin ya phir wahin se puchhtin, “tanu, kaun hai tumhare kamre mein?’’
mainne dekha ki shekhar ke is rawaiye se mummy ke chehre par ek ajib si pareshani jhalakne lagi hai par mummy is baat ko lekar yon pareshan ho uthengi, ye to main soch bhi nahin sakti thi jis ghar mein raat din tarah tarah ke prem prsang hi pise jate rahe hon—kunaron ke prem prsang, wiwahiton ke prem prsang, do teen premiyon se ek sath chalne wale prem prsang—us ghar ke liye to ye baat bahut hi mamuli honi chahiye jab laDkon se dosti ki hai to ekadh se prem bhi ho hi sakta hai mummy ne shayad samajh liya tha ki ye sthiti ajkal ki kalatmak filmon ki tarah chalegi—jinki we baDi prshansak aur samarthak hain—par jinmen shuru se lekar akhir tak kuch bhi sanasnikhej ghatta hi nahin
jo bhi ho, mummy ki is pareshani ne mujhe bhi kahin halke se wichlit zarur kar diya mummy meri man hi nahin, mitr aur sathin bhi hain do ghanishth mitron ki tarah hi hum duniya jahan ki baten karte hain, hansi mazak karte hai main chahti thi ki we is bare mein bhi koi baat karen, par unhonne koi baat nahin ki bus, jab shekhar aata to we apni swbhawgat laparwahi chhoDkar baDe sajag bhaw se mere kamre ke ird gird hi manDrati rahtin
ek din mummy ke sath bahar jane ke liye niche utri to darwaze par hi paDos ki ek bhadr mahila takra gai namaskar aur kushal kshaem ke adan pradan ke baad we baat ke asli mudde par ain
“ye samne ki chhat wale laDke aapke rishtedar hain kya?”
“nahin to ”
“achchha? sham ko roz aapke ghar baithe rahte hain to socha aapke zarur kuch lagte honge
“tanu ke dost hain mummy ne kuch aisi laparwahi aur nihsankoch bhaw se ye waky uchhala ki bechari teer nishane par na lagne ka gham liye hi laut gai
we to laut gain par mujhe laga ki is baat ka sootr pakaDkar hi mummy ab zarur meri thoDi dhunai kar dengi kahne wali ka to kuch na bana par mera kuch bigaDne ka hathiyar to mummy ke hath mein aa hi gaya bahut dinon se unke apne man mein kuch umaD ghumaD to raha hi hai par mummy ne itna hi kaha “lagta hai inke apne ghar mein koi dhandha nahin hai—jab dekho dusre ke ghar mein chonch gaDaye baithe rahte hain ”
main ashwast hi nahin hui, balki mummy ki or se ise hara signal samajh kar mainne apni raftar kuch aur tez kar di par itna zarur kiya ki shekhar ke sath teen ghanton mein se ek ghanta zarur paDhai mein guzarti wo bahut man lagakar paDhata aur main bahut man lagakar paDhti han, beech beech mein wo kaghaz ki chhoti chhoti parchiyon par kuch aisi panktiyan likhkar thama deta ki main bhitar tak jhanjhana jati uske jane ke baad bhi un panktiyon ke we shabd— bdon ke pichhe ke bhaw, meri rag rag mein sansanate aur main unhin mein Dubi rahti
mere bhitar apni hi ek duniya banti ja rahi thi—baDi bhari puri aur rangin ajkal mujhe kisi ki zarurat hi mahsus nahin hoti lagta jaise main apne mein hi puri hoon hamesha sath rahne wali mummy bhi out hoti ja rahi hain aur shayad yahi karan hai ki idhar mainne mummy par dhyan dena hi chhoD diya hai rozmarra ki baten to hoti hain, par kewal baten hi hoti hain—uske pare kahin kuch nahin
din guzarte ja rahe the aur main apne mein hi Dubi, apni duniya mein aur gahre dhansti ja rahi thi—bahar ki duniya se ek tarah se beख़bar see!
ek din school se lauti, kapDe badle shor sharabe ke sath khana manga, meen mekh ke sath khaya aur jab kamre mein ghusi to mummy ne lete lete hi bulaya “tanu, idhar aao ”
pas i to pahli bar dhyan gaya ki mummy ka chehra tamtama raha hai mera matha thanka unhonne saiD tebil par se ek kitab uthai aur usmen se kaghaz ki panch chhah parchiyan samne kar deen “toba!”—mummy se kuch paDhna tha so jate samay unhen apni kitab de gai thi ghalati se shekhar ki likhi parchiyan usi mein rah gain
“to is tarah chal rahi hai shekhar aur tumhari dosti? yahi paDhai hoti hai yahan baithkar—yahi sab karne ke liye aata hai wo yahan?”
main chup janti hoon, ghusse mae mummy ko jawab dene se baDhkar murkhata aur koi nahin
“tumko chhoot di azadi di, par iska ye matlab to nahin ki tum uska najayaz fayda uthao ”
main phir bhi chup
“bitte bhar ki laDki aur kartab dekho iske jitni chhoot di utne hi pair pasarte ja rahe hain iske ek jhapaD dungi to sara romans jhaD jayega do minat mein ”
is waky par main ekayek tilmila uthi tamak kar nazar uthai aur mummy ki taraf dekha par ye kya, ye to meri mummy nahin hain na ye tewar mummy ka hai, na ye bhasha phir bhi ye sare waky bahut parichit se lage laga, ye sab mainne kahin suna hai aur khatak se mere man mein kaundha—nana par nana ko mare to kitne sal ho gaye, ye phir jinda kaise ho gaye? aur wo bhi mummy ke bhitar jo hosh sambhalne ke baad hamesha unse jhagDa hi karti rahin unki har baat ka wirodh hi karti rahin
mummy ka ‘nani’ lahze wala bhashan kafi der tak chalu raha, par wo sab mujhe kahi se bhi chhu nahin raha tha—bus koi baat jhakjhor rahi thi to yahi ki mummy ke bhitar nana kaise aa baithe?
aur phir ghar mein ek wichitr sa tanawapurn maun chha gaya khaskar mere aur mummy ke beech nahin, mummy to ghar mein rahi hi nahin, mere aur nana ke beech main mummy ko apni baat samjha bhi sakti hoon, unki baat samajh bhi sakti hun—par nana? main to is bhasha se bhi aprichit hoon aur is tewar se bhi—bat karne ka parashn hi kaise uthta? papa zarur mere dost hain, par bilkul dusri tarah ke shatranj khelna, panja laDana aur jo farmaish mummy puri na karen, unse puri karwa lena bachpan mein unki peeth par ladi rahti thi aur aaj bhi bina kisi jhijhak ke unki peeth par ladkar apni har ichha puri karwa leti hoon par itne ‘mai Dear dost’ hone ke bawjud apni niji baten main mummy ke sath hi karti i hoon aur wahan ekdam sannata—mummy ko patakhni dekar nana puri tarah un par sawar jo hain
shekhar ko mainne ishare se hi lal jhanDi dikha di thi so wo bhi nahin aa raha aur sham ka samay hai ki mujhse kate nahin katta
kai bar man hua ki mummy se jakar baat karun aur saf saf puchhun ki tum itna bigaD kyon rahi ho? meri aur shekhar ki dosti ke bare mein tum janti to ho mainne to kabhi kuch chhipaya nahin, aur dosti hai to ye sab to hoga hi tum kya samajh rahi theen ki hum bhai bahan ki tarah par tabhi khayal aata ki mummy hain hi kahan, jinse jakar ye sab kahun
chaar din ho gaye, mainne shekhar ki surat tak nahin dekhi mere halke se ishare se hi us bechare ne to ghar kya, chhat par aana bhi chhoD diya hostel mein rahne wale uske sathi bhi chhat par na dikhai diye, na ghar hi aaye koi aata to kam se kam uska halachal hi poochh leti main janti hoon, wo bewakufi ki had tak bhawuk hai use to theek se ye bhi nahin malum ki akhir yahan hua kya hai? lagta hai mummy ke ghusse ki ashanka matr se hi sabke hausale past ho gaye the
waise kal se mummy ke chehre ka tanaw kuch Dhila zarur hua hai teen din se jami hui sakhti jaise pighal gai ho par mainne tay kar liya hai ki baat ab mummy hi karengi
sabere nha dhokar main darwaze ke pichhe apni yuniphaurm press kar rahi thi bahar mez par mummy chay bana rahi theen aur papa akhbar mein sir gaDaye baithe the mummy ko shayad malum hi nahin paDa ki main kab nahakar bahar nikal i we papa se bolin “jante ho kal raat ko kya hua? pata nahin, tab se man bahut kharab ho gaya—uske baad main to so hi nahin pai ”
mummy ke swar ki komalta se mera hath jahan ka tahan tham gaya aur kan bahar lag gaye
“adhi raat ke qarib main bathrum jane ke liye uthi samne chhat par ghupp andhera chhaya hua tha achanak ek lal sitara sa chamak utha main chaunki ghaur se dekha to dhire dhire ek akriti ubhar i shekhar chhat par khaDa cigarette pi raha tha main chupchap laut i koi do ghante baad phir gai to dekha wo usi tarah chhat par tahal raha tha bechara—mera man jane kaisa ho aaya tanu bhi kaisi bujhi bujhi rahti hai ” phir jaise apne ko hi dhikkarti si bolin “pahle to chhoot do aur jab aage baDhen to khinchkar charon khane chitt kar do ye bhi koi baat hui bhala ”
rahat ki ek gahri niःshwas mere bhitar se nikal paDi jane kaisa aaweg man mein umDa ki ichha hui dauDkar mummy ke gale se lag jaun laga jaise arse ke baad meri mummy lautkar i hon par mainne kuch nahin kaha bus, ab khulkar baat karungi chaar din se na jane kitne parashn man mein ghumaD rahe the ab kya, ab to mummy hain, aur unse to kam se kam sab kaha puchha ja sakta hai
par ghar pahunchakar jo dekha to awak! shekhar hatheliyon mein sir thame kursi par baitha hai aur mummy usi kursi ke hatthe par baithi uski peeth aur matha sahla rahi hain mujhe dekhte hi baDe sahj swabhawik swar mein bolin “dekha is pagle ko chaar din se ye sahab college nahin gaye hain na hi kuch khaya piya hai apne sath iska bhi khana lagwana ”
aur phir mummy ne khu baithkar baDe sneh se manuhar kar karke use khana khilaya khane ke baad kahne par bhi shekhar thahra nahin mummy ke prati kritagyta ke bojh se jhuka jhuka hi wo laut gaya aur mere bhitar khushi ka aisa jwar umDa ki ab tak ke soche sare parashn usi mein bila gaye
sari sthiti ko samay par aane mein samay to laga, par aa gai shekhar ne bhi ab ek do din chhoDkar aana shuru kiya aur aata bhi to adhiktar hum likhai paDhai ki hi baat karte apne kiye par sharmindgi prakat karte hue usne mummy se wayada kiya ki wo ab koi aisa kaam nahin karega, jisse mummy ko shikayat ho jis din wo nahin aata, main do teen bar thoDi thoDi der ke liye apne baramde se hi baat kar liya karti ghar ki anumti aur sahyog se yon sare aam chalne wale is prem prsang mein mohalle walon ke liye bhi kuch nahin rah gaya tha aur unhonne is janalewa zamane ke nam do chaar lanten bhejkar, kisi gul khilne tak ke liye apni dilchaspi ko sthagit kar diya tha
lekin ek baat mainne zarur dekhi jab bhi shekhar sham ko kuch jyada der baith jata ya dopahar mein bhi aata to mummy ke bhitar nana kasamsane lagte aur uski pratikriya mummy ke chehre par jhalakne lagti mummy bharsak koshish karke nana ko bolne to nahin detin, par unhen puri tarah hata dena bhi shayad mummy ke bus ki baat nahin rah gai thi
han, ye prsang mere aur mummy ke beech mein ab rozmarra ki batachit ka wishay zarur ban gaya tha kabhi we mazak mein kahtin “yah jo tera shekhar hai na, baDa lijlija sa laDka hai are, is umr ke laDkon ko chahiye ghumen phiren, masti maren kya muharrami si surat banaye majnun ki tarah chhat par tanga sare samay idhar hi takta rahta hai ”
main kewal hans deti
kabhi baDi bhawuk hokar kahtin “tu kyon nahin samajhti bete, ki tujhe lekar kitni mahattwakankshayen hai mere man mein tere bhawishya ko lekar kitne sapne sanjo rakhe hain mainne ”
main hansakar kahti “mummy, tum bhi kamal karti ho apni zindagi ko lekar bhi tum sapne dekho aur meri zindagi ke sapne bhi tumhin dekh Dalo kuch sapne mere liye bhi chhoD do!”
kabhi we samjhane ke lahze mein kahtin “dekho tanu, abhi tum bahut chhoti ho apna sara dhyan paDhne likhne mein lagao aur dimagh se ye ulte sidhe fitur nikal Dalo theek hai, baDe ho jao to prem bhi karna aur shadi bhi main to waise bhi tumhare liye laDka DhunDhane wali nahin hun—apne aap hi DhunDh़na, par itni akal to aa jaye ki Dhang ka chunaw kar sako ”
apne chunaw ke rijekshan ko main samajh jati aur puchhti “achchha, mummy batao, jab tumne papa ko chuna tha to wo nana ko pasand tha?”
“mera chunaw! apni sari paDhai likhai khatm karke pachchis sal ki umr mein chunaw kiya tha mainne—khub soch samajhkar aur akal ke sath, samjhi ”
mummy apni baukhalahat ko ghusse mae chhipakar kahtin umr aur paDhai likhai, ye do hi to aise mudde hain jis par mummy mujhe jab tab Dantti rahti hain paDhne likhne mein main achchhi thi aur rahi umr ka sawal, so uske liye man hota ki kahun “mummy, tumhari piDhi jo kaam pachchis sal ki umr mein karti thi, hamari use pandrah sal ki umr mein hi karegi, ise tum kyon nahin samajhti par chup rah jati nana ka zikr to chal hi paDa hai, kahi we ji jag uthe to!
chhamahi parikshayen pas aa gai theen aur mainne sara dhyan paDhne mein laga diya tha sabka aana aur gana bajana ekdam band! in dinon mainne itni jamkar paDhai ki ki mummy ka man prasann ho gaya shayad kuch ashwast bhi akhiri paper dene ke pashchat lag raha tha ki ek bojh tha, jo hat gaya hai man behad halka hokar kuch masti marne ko kar raha tha
mainne mummy se puchha “mummy, kal shekhar aur dipak picture ja rahe hain, main bhi sath chali jaun?” aaj tak main in logon ke sath kabhi ghumne nahin gai thi, par itni paDhai karne ke baad ab itni chhoot to milani hi thi
mummy ek kshan mera chehra dekhti rahin, phir bolin “idhar aa, yahan baith! tujhse kuch baat karni hai ”
main jakar baith gai par ye na samajh aaya ki ismen baat karne ko kya hai—han kaho ya na lekin mummy ko baat karne ka marz jo hai unki to han na bhi pachas sath wakyon mein lipte bina nahin nikal sakti
“tere imtihan khatm hue, main to khu picture ka program bana rahi thi kaun si picture dekhana chahti hai?’’
“kyon, un logon ke sath jane mein kya hai?”—mere swar mein itni kheejh bhari hui thi ki mummy ektak mera chehra hi dekhti rah gain
“tanu, tujhe puri chhoot de rakhi hai bete, par itni hi tez chal ki main bhi sath chal sakun ”
“tum saf kaho na, ki jane dogi ya nahin? bekar ki baten main bhi sath chal sakun—tumhare sath chal sakne ki baat bhala kahan se aa gai!”
mummy ne peeth sahlate hue kaha “sath to chalna hi paDega kabhi aundhe munh giri to uthane wala bhi to chahiye n!”
main samajh gai ki mummy nahin jane dengi, par is tarah pyar se mana karti hain to jhagDa bhi to nahin kiya ja sakta bahs karne ka sidha sa matlab hai ki unka baghara hua darshan suno—yani pachas minat ki ek class par main qati nahin samajh pai ki jane mein akhir harz kya hai? har baat mein na nukur kahan to kahti theen ki bachpan mein ye mat karo, yahan mat jao kahkar hamko bahut Danta gaya tha aur khu ab wahi sab kar rahi hain dekh liya inki baDi baDi baton ko main uthi aur dandanati hui apne kamre mein aa gai han, ek waky zarur thama i “mummy, jo chalega, wo girega bhi aur jo girega, wo uthega bhi aur khu hi uthega, use kisi ki zarurat nahin hai ”
pata nahin, meri baat ki un par pratikriya hui ya unke apne man mein hi kuch jaga ki sham ko unhonne khu shekhar aur uske kamre par aaye tinon charon laDkon ko bulwakar mere hi kamre mein majlis jamwai aur khoob garm garm khana khilaya kuch aisa rang jama ki mera dopahar wala akrosh dhul gaya
imtihan khatm ho gaye the aur mausam suhana tha mummy ka rawaiya bhi anukal tha so dosti ka sthagit hua silsila phir shuru ho gaya aur ajkal to jaise uske siway kuch rah hi nahin gaya tha par phir ek jhatka
us din main apni saheli ke ghar se lauti to mummy ki sakht awaz sunai di “tanu idhar aao to ”
awaz se hi laga ki ye khatre ka signal hai ek kshan ko main sakte mein aa gai pas gai to chehra pahle ki tarah sakht
“tum shekhar ke kamre mein jati ho?”—mummy ne banduk dagi samajh gai ki pichhe gali mein se kisi ne apna kartab kar dikhaya
“kab se jati ho?”
man to hua ki kahun jisne jane ki khabar di hai, usne baqi baten bhi bata hi di hongi kuch joD toDkar hi bataya hoga par mummy jis tarah bhabhak rahi theen, usme chup rahna hi behtar samjha waise mujhe mummy ke is ghusse ka koi karan samajh mein nahin aa raha tha do teen bar yadi main thoDi thoDi der ke liye shekhar ke kamre par chali gai to aisa kya gunah ho gaya par mummy ka har kaam sakaran to hota nahin bus, we to mood par hi chalti hain
ajib musibat thi ghusse mein mummy se baat karne ka koi matlab nahin aur meri chuppi mummy ke ghusse ko aur bhaDka rahi thi
“yaad nahin hai, mainne shuru mein hi tumhein mana kar diya tha ki tum unke kamre par kabhi nahin jaogi teen teen ghante wo yahan dhuni ramakar baithta hai, usmen ji bhara nahin tumhara?”
duःkh, krodh aur atank ki parten unke chehre par gahri hoti ja rahi theen aur main samajh hi nahin pa rahi thi ki kaise unhen sari sthiti samjhaun?
“wah to bechare samne walon ne mujhe bulakar agah kar diya janti hai ye sir aaj tak kisi ke samne jhuka nahin, par wahan mujhse ankh nahin uthai gai munh dikhane layaq mat rakhna hamko kahin bhi sari gali mein thu thu ho rahi hai nak katakar rakh di ”
ghazab!
is bar to sara mohalla hi bolne laga mummy ke bhitar se! ashchary hai ki jo mummy aaj tak apne aas pas se bilkul kati hui thi jiska mazak hi uDaya karti thi aaj kaise uske sur mein sur milakar bol rahi hain
mummy ka bhashan badastur chalu par mainne to apne kan ke switch hi off kar liye jab ghussa thanDa hoga, mummy apne mein laut ayengi tab samjha dungi mummy, is chhoti si baat ko tum nahaq itna tool de rahi ho
par jane kaisi Doz le i hain is bar ki unka ghussa thanDa hi nahin ho raha hai aur hua ye ki ab unke ghusse se mujhe ghussa chaDhne laga
phir ghar mein ek ajib sa tanaw baDh gaya is bar mummy ne shayad papa ko bhi sab kuch bata diya hai kaha to unhonne kuch nahin—we shuru se hi is sare mamle mein out hi rahe—par is bar unke chehre par bhi ek anakha sa tanaw dikhai zarur de raha hai
koi do mahine pahle jab is tarah ki ghatna hui thi to main bhitar tak saham gai thi, par is bar mainne tay kar liya hai ki is sare mamle mein mummy ko yadi nana bankar hi wywahar karna hai to mujhe bhi phir mummy ki tarah hi morcha lena hoga unse—aur main zarur lungi dikha to doon ki main tumhari hi beti hoon aur tumhare hi naqshe qadam par chali hoon khu to leak se hatkar chali theen sari zindagi is baat ki ghutti pilati rahin, par mainne jaise hi apna pahla qadam rakha, ghasitkar mujhe apni hi khinchi leak par lane ke dand phand shuru ho gaye
mainne man mein Dher Dher tark soch Dale ki ek din baqayda mummy se bahs karungi saf saf kahungi ki mummy, itne hi bandhan lagakar rakhna tha to shuru se waise paltin kyon jhooth mooth azadi dene ki baten karti sikhati rahin par is bar mera bhi man sulagkar is tarah rakh ho gaya tha ki main gumsum si apne hi kamre mein paDi rahti man bahut bhar aata to ro leti! ghar mein sare din hansti khilkhilati rahne wali main ekdam chup hokar apne mein hi simat gai thi han, ek waky zarur bar bar dohra rahi thi “mummy, tum achchhi tarah samajh lo ki main bhi apne man ki hi karungi ” halanki mere man mein kya hai, iski koi bhi ruparekha mere samne na thi
mujhe nahin malum ki in teen chaar dinon mein bahar kya hua ghar bahar ki duniya se kati, apne hi kamre mein simti, main mummy se morcha lene ke danw soch rahi thi
par aaj dopahar mujhe qati qati apne kanon par wishwas nahin hua jab mainne mummy ko apne baramde se hi chillate hue suna “shekhar, kal to tum log chhuttiyon mein apne ghar chale jaoge, aaj sham apne doston ke sath khana idhar hi khana ”
nahin janti, kis zaddozhad se guzarkar mummy is sthiti par pahunchi hongi
aur raat ko shekhar, dipak aur rawi ke sath khane ki mez par Data hua tha mummy utne hi prem se khana khila rahi theen papa waise hi khule Dhang se mazak kar rahe the, mano beech mein kuch ghata hi nahin agal baghal ki khiDakiyon mein do chaar sir chipke hue the sab kuch pahle ki tarah bahut sahj swabhawik ho utha tha
kewal main is sari sthiti se ekdam tatasth yahi soch rahi thi ki nana puri tarah nana the—shat pratishat aur isi se mummy ke liye laDna kitna asan ho gaya hoga par in mummy se laDa bhi kaise jaye jo ek pal nana hokar jiti hain to ek pal mummy hokar
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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