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सती

sati

प्रेमचंद

और अधिकप्रेमचंद

    एक

    दो शताब्दियों से अधिक बीत गए हैं; पर चिंता देवी का नाम चला आता है। बुंदेलखंड के एक बीहड़ स्थान में आज भी मंगलवार को सहस्त्रों स्त्री-पुरुष चिंता देवी की पूजा करने आते हैं। उस दिन यह निर्जन स्थान सोहाने गीतों से गूँज उठता है। टीले और टोकरे रमणियों के रंगो-बिरंगे वस्त्रों से सुशोभित हो जाते हैं। देवी का मंदिर एक बहुत ऊँचे टीले पर बना हुआ है। उसके कलश पर लहराती हुई लाल पताका बहुत दूर से दिखाई देती है। मंदिर इतना छोटा है कि उसमें मुश्किल से एक साथ दो आदमी समा सकते हैं। भीतर कोई प्रतिमा नहीं है, केवल एक छोटी-सी वेदी बनी हुई है। नीचे से मंदिर तक पत्थर का ज़ीना है। भीड़-भाड़ में धक्का खाकर कोई नीचे गिर पड़े इसलिए ज़ीने के दोनों तरफ़ दीवार बनी हुई है। यहीं चिंता देवी सती हुई थीं; पर लोकरीति के अनुसार वह अपने मृत पति के साथ, चिता पर नहीं बैठी थीं। उनका पति हाथ जोड़े सामने खड़ा था; पर वह उसकी ओर आँख उठाकर भी देखती थीं। वह पति के शरीर के साथ नहीं, उसकी आत्मा के साथ सती हुई। उस चिता पर पति का शरीर था, उसकी मर्यादा भस्मीभूत हो रही थी।

    दो

    यमुना-तट काल्पी एक छोटा-सा सागर है। चिंता उसी नगर के एक वीर बुंदेले की कन्या थी। उसकी माता उसकी बाल्यावस्था में ही परलोक सिधार चुकी थीं। उसके पालन-पोषण का भार पिता पर पड़ा। वह संग्राम का समय था, योद्धाओं को कमर खोलने की भी फ़ुर्सत मिलती थी, वे घोड़ों की पीठ पर भोजन करते और ज़ीने ही पर झपकियाँ ले लेते थे। चिंता का बाल्यकाल पिता के साथ समर-भूमि में कटा। बाप उसे किसी खोह या वृक्ष की आड़ में छिपाकर मैदान में चला जाता। चिंता निश्शंक भाव से बैठी हुई मिट्टी के क़िले बनाती और बिगाड़ती। उसके घरौंदे क़िले होते थे; उसकी गुड़ियाँ ओढ़नी ओढ़ती थीं। वह सिपाहियों के गुड्डे बनाती और उन्हें रण-क्षेत्र में खड़ा करती थी। कभी-कभी उसका पिता संध्या-समय भी लौटता; पर चिंता को भय छू तक गया था। निर्जन स्थान में भूखी-प्यासी रात-रात भर बैठी रह जाती। उसने नेवले और सियार की कहानियाँ कभी सुनी थी। वीरों के आत्मोत्सर्ग की कहानियाँ, और वह भी योद्धाओं के मुँह से, सुन-सुनकर वह आदर्शवादिनी बन गई थी।

    एक बार तीन दिन तक चिंता को अपने पिता की ख़बर मिली। वह एक पहाड़ की खोह में बैठी मन-ही-मन एक ऐसा क़िला बना रहीं थी, जिसे शत्रु किसी भाँति जान सके। दिनभर वह उसी क़िले का नक़्शा सोचती और रात को उसी क़िले का स्वप्न देखती। तीसरे दिन संध्या समय उसके पिता के कई साथियों ने आकर उसके सामने रोना शुरू किया। चिंता ने विस्मित होकर पूछा—दादा जी कहाँ हैं? तुम लोग क्यों रोते हो?

    किसी ने इसका उत्तर दिया। वे ज़ोर से धाड़े मार-मार कर रोने लगे। चिंता समझ गई कि उसके पिता ने वीर-गति पाई। उसे तेरह वर्ष की बालिका की आँखों से आँसू की एक बूँद भी गिरी, मुख ज़रा भी मलिन हुआ, एक आह भी निकली। हँसकर बोली—अगर उन्होंने वीर-गति पाई तो तुम लोग रोते क्यों हो? योद्धाओं के लिए इससे बढ़कर और कौन सी मृत्यु हो सकती है, इससे बढ़कर उनकी वीरता का और क्या पुरस्कार मिल सकता है? यह रोने का नहीं आनंद मनाने का अवसर है।

    एक सिपाही ने चिंतित स्वर में कहा—हमें तुम्हारी चिंता है। तुम अब कहाँ रहोगी?

    चिंता ने गंभीरता से कहा—इसकी तुम कुछ चिंता करो, दादा! मैं अपने बाप की बेटी हूँ। जो कुछ उन्होंने किया, वही मैं भी करुँगी। अपनी मातृ-भूमि का शत्रुओं के पंजे से छुड़ाने में उन्होंने प्राण दे दिए। मेरे सामने भी वही आदर्श है। जाकर अपने आदमियों को सँभालिए। मेरे लिए एक घोड़ा और हथियारों का प्रबंध कर दीजिए। ईश्वर ने चाहा, तो आप लोग मुझे किसी से पीछे पाएँगे; लेकिन यदि मुझे पीछे हटते देखना, तो तलवार के एक हाथ से इस जीवन का अंत कर देना। यही मेरी आपसे विनय है। जाइए, अब विलंब कीजिए।

    सिपाहियों को चिंता के ये वीर-वचन सुनकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ। हाँ, उन्हें यह संदेह अवश्य हुआ कि क्या यह कोमल बालिका अपने संकल्प पर दृढ़ रह सकेगी?

    तीन

    पाँच वर्ष बीत गए। समस्त प्रांत में चिंता देवी की धाक बैठ गई। शत्रुओं के क़दम उखड़ गए वह विजय की सजीव मूर्ति थी, उसे तीरों और गोलियों के सामने निश्शंक खड़े देखकर सिपाहियों को उत्तेजना मिलती रहती थी। उसके सामने वे कैसे क़दम पीछे हटाते? जब कोमलांगी युवती आगे बढ़े, तो कौन पुरुष क़दम पीछे हटाएगा? सुंदरियों के सम्मुख योद्धायों की वीरता अजेय हो जाती है। रमणी के वचन-बाण योद्धाओं के लिए आत्म-समर्पण के गुप्त संदेश हैं, उसकी एक ही चितवन कायरों में भी पुरुषत्व प्रवाहित कर सकती है। चिंता की छवि-कीर्ति ने मनचले सूरमाओं को चारों ओर से खींच-खींचकर उसकी सेना में सजा दिया—जान पर खेलने वाले भौंरे चारों ओर से आ-आकर इस फूल पर मँडराने लगे।

    इन्हीं योद्धाओं में रत्नसिंह नाम का एक युवक राजपूत भी था।

    यों तो चिंता के सैनिकों में सभी तलवार के धनी थे; बात पर जान देनेवाले, उसके शरीर पर आग में कूदने वाले, उसकी आज्ञा पाकर एक बार आकाश के तारे तोड़ लाने को भी चल पड़ते; किंतु रत्नसिंह सबसे बढ़ा हुआ था। चिंता ह्रदय में उससे प्रेम करती थी। रत्नसिंह अन्य वीरों की भाँती अक्खड़, मुँहफट या घमंडी था। और लोग अपनी-अपनी कीर्ति को ख़ूब बढ़ा-बढ़ाकर बयान करते। आत्म-प्रशंसा करते हुए उनकी ज़बान रुकती थी। वे जो कुछ करते चिंता को दिखाने के लिए। उनका ध्येय अपना कर्तव्य था, चिंता थी। रत्नसिंह जो कुछ करता, शांत-भाव से। अपनी प्रंशसा करना तो दूर रहा, वह चाहे कोई शेर ही क्यों मार आए, उसकी चर्चा तक करता। उसकी विनयशीलता और नम्रता, संकोच की सीमा से भी बढ़ गई थी। औरों के प्रेम में विलास था; पर रत्नसिंह के प्रेम में त्याग और तप। और लोग मीठी नींद सोते थे; पर रत्नसिंह तारे गिन-गिनकर रात काटता था और सब अपने दिल में समझते थे कि चिंता मेरी होगी—केवल रत्नसिंह निराश था, और इसलिए उसे किसी से द्वेष था, राग। औरों को चिंता के सामने चहकते देखकर उसे उनकी वाक्पटुता पर आश्चर्य होता, प्रतिक्षण उसका निराशांधकार और भी घना हो होता जाता था। कभी-कभी अपने बोदेपन पर झुँझला उठता—क्यों ईश्वर ने उसे उन गुणों से वंचित रखा, जो रमणियों के चित्त को मोहित करते हैं? उसे कौन पूछेगा? उसकी मनोव्यथा को कौन जानता है? पर वह मन में झुँझलाकर रह जाता था। दिखावे की उसमें सामर्थ्य ही थी।

    आधी रात से अधिक रात बीत चुकी थी। चिंता अपने खेमे में विश्राम कर रही थी सैनिकगण भी कड़ी मंज़िल मारने के बाद कुछ खा-पीकर ग़ाफ़िल पड़े हुए थे। आगे एक घना जंगल था। जंगल के उस पार शत्रुओं का एक दल डेरा डाले पड़ा था। चिंता उसके आने की ख़बर पाकर भागाभाग चली रही थी। उसने प्रात:काल शत्रुओं पर धावा करने का निश्चय कर लिया था। उसे विश्वास था कि शत्रुओं को मेरे आने की ख़बर होगी; किंतु यह उसका भ्रम था। उसी की सेना का एक आदमी शत्रुओं से मिला हुआ था। यहाँ की ख़बरें वहाँ नित्य पहुँचती रहती थीं। उन्होंने चिंता से निश्चिंत होंने के लिए एक षड्यंत्र रच रखा था—उसकी गुप्त हत्या करने के लिए तीन साहसी सिपाहियों को नियुक्त कर दिया था। वे तीनों हिंस्त्र पशुओं की भाँति दबे-पाँव जंगल को पार करके आए और वृक्षों की आड़ में खड़े होकर सोचने लगे कि चिंता का स्वामी कौनसा है। सारी सेना बेख़बर सो रही थी, इससे उन्हें अपने कार्य की सिद्धि में लेश-मात्र संदेह था। वे वृक्षों की आड़ से निकले, और ज़मीन पर मगर की तरह रेंगते हुए चिंता के खेमे की ओर चले।

    सारी सेना बेख़बर सोती थी, पहरे के सिपाही थककर चूर हो जाने के कारण निद्रा में मग्न हो गए थे। केवल एक प्राणी खेमे के पीछे मारे ठंड के सिकुड़ा हुआ बैठा था। यह रत्नसिंह था। आज उसने यह कोई नई बात की थी। पहाड़ों में उसकी रातें इसी भाँति चिंता के खेमे के पीछे बैठे-बैठे कटती थीं। घातकों की आहट पाकर उसने तलवार निकाल ली, और चौंककर उठ खड़ा हुआ। देखा—तीन आदमी झुके हुए चले रहे हैं! अब क्या करे? अगर शोर मचाता है, तो सेना में खलबली पड़ जाए, और अँधेरे में लोग एक दूसरे पर वार करके आपस ही में कट मरें। इधर अकेले तीन जवानों से भिड़ने मे प्राणों का भय। अधिक सोचने का मौक़ा था। उसमें यौद्धाओं की, अविलंब निश्चय कर लेने की शक्ति थी; तुरंत तलवार खींच ली, और उन तीनों पर टूट पड़ा। कई मिनट तक तलवारें छपाछप चलती रहीं। फिर सन्नाटा हो गया। उधर वे तीनों आहत होकर गिर पड़े, इधर यह भी ज़ख़्मों से चूर होकर अचेत हो गया।

    प्रातःकाल चिंता उठी, तो चारों जवानों को भूमि पर पड़े पाया। उसका कलेजा धक्-से हो गया। समीप जाकर देखा—तीनों आक्रमणकारियों के प्राण निकल चुके थे; पर रत्नसिंह की साँस चल रही थी। सारी घटना समझ में गई। नारीत्व ने वीरत्व पर विजय पाई। जिन आँखों से पिता की मृत्यु पर आँसू की एक बूँद भी गिरी थी, उन्हीं आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उसने रत्नसिंह का सिर अपनी जाँघ पर रख लिया, और हृदयांगण मे रचे हुए स्वयंवर में उसके गले मे जयमाल डाल दी।

    चार

    महीने-भर रत्नसिंह की आँखें खुलीं, और चिंता की आँखें बंद हुईं। चिंता उसके पास से एक क्षण के लिए भी कहीं जाती। अपने इलाक़े की परवा थी, शत्रुओं के बढ़ते चले आने की फ़िक्र। रत्नसिंह पर वह अपनी सारी विभूतियों को बलिदान कर चुकी थी। पूरा महीना बीत जाने के बाद रत्नसिंह की आँख खुली। देखा—चरपाई पर पड़ा हुआ है, और चिंता सामने पंखा लिए खड़ी है। क्षीण स्वर में बोला—चिंता, पंखा मुझे दे दो, तुम्हें कष्ट हो रहा है।

    चिंता का हृदय इस समय स्वर्ग के अखण्ड, अपार सुख का अनुभव कर रहा था। एक महीना पहले जिस शीर्ण शरीर के सिरहाने बैठी हुई वह नैराश्य से रोया करती थी, उसे आज बोलते देखकर उसके आह्लाद का पारावार था उसने स्नेह मधुर स्वर में कहा—प्राणनाथ, यदि यह कष्ट है, तो सुख क्या है, मैं नहीं जानती। ‘प्राणनाथ’—इस संबोधन में विलक्षण मंत्र की सी शक्ति थी! रत्नसिंह की आँखें चमक उठीं। जीर्ण मुद्रा प्रदीप्त हो गई, नसों में एक नये जीवन का संचार हो उठा, और वह जीवन कितना स्फूर्तिमय था, उसमें कितना उत्साह, कितना माधुर्य, कितना उल्लास और कितनी करुणा थी! रत्नसिंह के अंग-अंग फड़कने लगे। उसे अपनी भुजाओं में अलौकिक पराक्रम का अनुभव होने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो वह सारे संसार को सर कर सकता है, उड़कर आकाश पर पहुँच सकता है, पर्वतों को चीर सकता है। एक क्षण के लिए ऐसी तृप्ति हुई; मानों उसकी सारी अभिलाषाएँ पूरी हो गई हैं, मानों वह अब किसी से कुछ नहीं चाहता। शायद शिव को सामने खड़े देखकर भी वह मुँह फ़ेर लेगा, कोई वरदान माँगेगा। उसे अब ऋद्धि को, किसी पदार्थ की इच्छा थी। उसे गर्व हो रहा था, मानोउससे अधिक सुखी, उससे अधिक भाग्यशाली पुरुष संसार में और कोई होगा।

    चिंता अभी अपना वाक्य पूरा कर पाई थी। उसी प्रसंग में बोली—हाँ आपको मेरे कारण अलवत्ता दुस्सह यातना भोगनी पड़ी!

    रत्नसिंह ने उठने की चेष्टा कहा—बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती।

    चिंता ने रत्नसिंह को कोमल हाथों से लिटाते हुए कहा—इस सिद्धि के लिए तुमने तपस्या नहीं की थी। झुठ क्यों बोलते हो? तुम केवल एक अबला की रक्षा कर रहे थे। यदि मेरी जगह कोई दूसरी स्त्री होती, तो भी इतने ही प्राण-पण से उसकी रक्षा करते। मुझे इसका विश्वास है। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, मैंने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का प्रण कर लिया था; लेकिन तुम्हारे आत्मोत्सर्ग ने मेरे प्रण को तोड़ डाला; मेरा पालन योद्धाओं की गोद में हुआ है; मेरे ह्रदय उसी पुरुषसिंह के चरणों पर अर्पण हो सकता है, जो प्राणों की बाज़ी खेल सकता हो। रसिकों के हास-विलास, गुंडों के रूप रंग ओर फेकैतो के दाँव-घात का मेरी दृष्टि में रत्ती भर भी मूल्य नहीं। उनकी नट-विद्या को मैं केवल तमाशे की तरह देखती हूँ। तुम्हारे ही ह्रदय में मैंने सच्चा उत्सर्ग पाया, और तुहारी दासी हो गई—आज से नहीं, बहुत दिनों से।

    पाँच

    प्रणय की पहली रात थी। चारों ओर सन्नाटा था! केवल दोनों प्रेमियों के ह्रदयों में अभिलाशाएँ लहरा रही थी। चारों ओर अनुरागमयी चाँदनी छिटकी हुई थी और उसकी हास्यमयी छटा में वर और वधू प्रेमालाप कर रहे थे।

    सहसा ख़बर आई कि शत्रुओं की एक सेना क़िले की ओर बढ़ी चली आती है। चिंता चौंक पड़ी; रत्नसिंह खड़ा हो गया, और खूँटी से लटकती हुई तलवार उतार ली।

    चिंता ने उसकी ओर कातर-स्नेह की दृष्टि से देखकर कहा—कुछ आदमियों को उधर भेज दो, तुम्हारे जाने की क्या ज़रूरत है?

    रत्नसिंह ने बंदूक़ कंधे पर रखते हुए कहा—मुझे भय है कि अब की वे लोग बड़ी संख्या में रहे हैं।

    चिंता—तो मैं भी चलूँगी।

    ‘नहीं, मुझे आशा है, वे लोग ठहर सकेंगे! मैं एक ही घावे में क़दम उखाड़ दूँगा। यह ईश्वर की इच्छा है कि हमारी प्रणय-रात्रि विजय-रात्रि हो!

    ‘न जाने क्यों मन कातर हो रहा है। जाने देने को जी नहीं चाहता!’

    रत्नसिंह ने इस सरल, अनुरक्त आग्रह से विह्वल होकर चिंता को गले लगा लिया और बोले—मैं सबेरे तक लौट आऊँगा, प्रिये!

    चिंता पति के गले में हाथ डालकर आँखों में आँसू भरे हुए बोली—मुझे भय है, तुम बहुत दिनों में लौटोगे। मेरा मन तुम्हारे साथ रहेगा। जाओ, पर रोज़ ख़बर भेजते रहना। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अवसर का विचार करके धावा करना। तुम्हारी आदत है कि शत्रु को देखते ही आकुल हो जाते हो, और जान पर खेलकर टूट पड़ते हो। तुमसे मेरा यही अनुरोध है कि अवसर देखकर काम करना। जाओ, जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह भी दिखाओ।

    चिंता का ह्रदय कातर हो रहा था, वहाँ पहले केवल विजय लालसा का अधिपत्य था, अब भोग-लालसा की प्रधानता थी। वही वीर बाला, जो सिंहनी की तरह गरजकर शत्रुओं ले कलेजे कँपा देती थी, आज इतनी दुर्बल हो रही थी कि जब रत्नसिंह घोड़े पर सवार हुआ, तो आप उसकी कुशल-कामना से मन-ही-मन देवी को मनौतियाँ कर रही थी। जब तक वह वृक्षों की ओट में छिप गया, वह खड़ी उसे देखती रही। फिर क़िले के सब से ऊँचे बुर्ज पर चढ़ गई और घंटों उसी तरफ़ ताकती रही। वहाँ शून्य था, पहाड़ियों ने कभी रत्नसिंह को अपनी ओट में छिपा लिया था; पर चिंता को ऐसा जान पड़ता था कि वह सामने चले रहे हैं। जब ऊषा की लोहित छवि वृक्षों की आड़ से झाँकने लगी तो उसकी मोह विस्मृति टूट गई। मालूम हुआ, चारों तरफ़ शून्य है। वह रोती हुई बुर्ज से उतरी, और शय्या में मुँह ढाँपकर रोने लगी।

    छह

    रत्नसिंह के साथ मुश्किल से सौ आदमी थे; किंतु सभी मँजे हुए, अवसर और संख्या को तुच्छ समझने वाले, अपनी जान के दुश्मन! वीरोल्लास से भरे हुए एक वीर-रस-पूर्ण पद गाते हुए घोड़ों को बढ़ाए चले जाते थे—

    'बाँकी तेरी पाग सिपाही, इसकी रखना लाज।

    तेग-तबर कुछ काम आवे, बख्तर-ढाल व्यर्थ हो जावे।

    रखियो मन में लाग, सिपाही बाँकी तेरी पाग।

    इसकी रखना लाज।'

    पहाड़ियाँ इन वीर स्वरों से गूँज रही थीं। घोड़ों की टाप ताल दे रही थी। यहाँ तक कि रात बीत गई, सूर्य ने अपनी लाल आँखें खोल दीं और इन वीरों पर अपनी स्वर्णच्छटा की वर्षा करने लगा।

    वहीं, रक्तमय प्रकाश में शत्रुओं की सेना एक पहाड़ी पर पड़ाव डाले हुए नज़र आई।

    रत्नसिंह सिर झुकाए, वियोग-व्यथित हृदय को दबाए, मंद गति से पीछे-पीछे चला जाता था। क़दम आगे बढ़ता था; पर मन पीछे हटता था। आज जीवन में पहली बार दुश्चिंताओं ने उसे आशंकित कर रखा था। कौन जानता है, लड़ाई का अंत क्या होगा! जिस स्वर्ग-सुख को छोड़कर वह आया था, उसकी स्मृतियाँ रह-रहकर उसके हृदय को मसोस रही थीं। चिंता की सजल आँखें याद आती थीं और जी चाहता था, घोड़े की रास पीछे मोड़ दें। प्रतिक्षण रणोत्साह क्षीण होता जाता था, सहसा एक सरदार ने समीप आकर कहा—भैया, वह देखो, ऊँची पहाड़ी पर शत्रु डेरे डाले पड़ा हैं। तुम्हारी अब क्या राय है? हमारी तो यह इच्छा है कि तुरंत उन पर धावा कर दें। ग़ाफ़िल पड़े हुए हैं, भाग खड़े होंगे। देर करने से वे भी सँभल जाएँगे और तब मामला नाज़ुक हो जाएगा। एक हज़ार से कम होंगे।

    रत्नसिंह ने चिंतित नेत्रों से शत्रु दल की ओर देखकर कहा—हाँ, मालूम तो होता है।

    सिपाही—तो धावा कर दिया जाए न?

    रत्नसिंह—जैसी तुम्हारी इच्छा। संख्या अधिक है, यह सोच लो।

    सिपाही—इसकी परवाह नहीं। हम इससे बड़ी सेनाओं को परास्त कर चुके हैं।

    रत्नसिंह—यह सच है; पर आग में कूदना ठीक नहीं।

    सिपाही—भैया, तुम कहते क्या हो? सिपाही का तो जीवन ही आग में कूदने के लिए है। तुम्हारे हुक्म की देर है, फिर हमारा जीवट देखना।

    रत्नसिंह—अभी हम लोग बहुत थके हुए हैं। ज़रा विश्राम कर लेना अच्छा है।

    सिपाही—नहीं भैया, उन सबों को हमारी आहट मिल गई, तो ग़ज़ब हो जाएगा।

    रत्न—तो फिर धावा ही कर दो।

    एक क्षण में योद्धाओं ने घोड़ों की बागें उठा दीं, और अस्त्र सँभाले हुए शत्रु सेना पर लपके; किंतु पहाड़ी पर पहुँचते ही इन लोगों ने उनके विषय में जो अनुमान किया था, वह मिथ्या था। वह सजग ही थे, स्वयं क़िले पर धावा करने की तैयारियाँ भी कर रहे थे। इन लोगों ने जब उन्हें सामने आते देखा, तो समझ गए कि भूल हुई; लेकिन अब सामना करने के सिवा चारा ही क्या था। फिर भी वे निराश थे। रत्नसिंह जैसे कुशल योद्धा के साथ इन्हें कोई शंका थी। वह इससे भी कठिन अवसरों पर अपने रण-कौशल से विजय-लाभ कर चुका था। क्या आज वह अपना जौहर दिखाएगा? सारी आँखें रत्नसिंह को खोज रही थीं; पर उसका वहाँ कहीं पता था। कहाँ चला गया? यह कोई जानता था।

    पर वह कहीं नहीं जा सकता। अपने साथियों को इस कठिन अवस्था में छोड़कर वह कहीं नहीं जा सकता—संभव नहीं, अवश्य ही वह यहीं है, और हारी हुई बाज़ी को जिताने की कोई युक्ति सोच रहा है।

    एक क्षण में शत्रु इनके सामने पहुँचे। इतनी बहुसंख्यक सेना के सामने ये मुट्ठी-भर आदमी क्या कर सकते थे। चारों ओर से रत्नसिंह की पुकार होने लगी—भैया, तुम कहाँ हो? हमें क्या हुक्म देते हो? देखते हो, वे लोग सामने पहुँचे; पर तुम अभी तक मौन खड़े हो। सामने आकर हमें मार्ग दिखाओ, हमारा उत्साह बढ़ाओ!

    पर अब भी रत्नसिंह दिखाई दिया। यहाँ तक कि शत्रु-दल सिर पर पहुँचा, और दोनों दलों में तलवारें चलने लगीं। बुंदेलों ने प्राण हथेली पर लेकर लड़ना शुरू किया; पर एक को एक बहुत होता है; एक और दस का मुक़ाबला ही क्या? यह लड़ाई थी, प्राणों का जुआ था। बुंदेलों में निराशा का अलौकिक बल था। ख़ूब लड़े; पर क्या मजाल कि क़दम पीछे हटें। उनमें अब ज़रा भी संगठन था। जिससे जितना आगे बढ़ते बना, बढ़ा। अंत क्या होगा, इसकी किसी को चिंता थी। कोई तो शत्रुओं की सफ़ें चीरता हुआ सेनापति के समीप पहुँच गया, कोई उनके हाथी पर चढ़ने की चेष्टा करते मारा गया। उनका अमानुषिक साहस देख कर शत्रुओं के मुँह से भी वाह-वाह निकलती थी; लेकिन ऐसे योद्धाओं ने नाम पाया है, विजय नहीं पाई। एक घंटे में रंगमंच का पर्दा गिर गया, तमाशा ख़त्म हो गया। एक आँधी थी, जो आई और वृक्षों को उखाड़ती हुई चली गई। संगठित रहकर ये मुट्ठी-भर आदमी दुश्मनों के दाँत खट्टे कर देते, पर जिस पर संगठन का भार था, उसका कहीं पता था। विजयी मरहठों ने एक-एक लाश ध्यान से देखी। रत्नसिंह उनकी आँखों में खटकता था। उसी पर उनके दाँत लगे थे। रत्नसिंह के जीते जी उन्हें नींद आती थी। लोगों ने पहाड़ी की एक-एक चट्टान का मंथन कर डाला; पर रत्न हाथ आया। विजय हुई; पर अधूरी।

    सात

    चिंता के हृदय में आज जाने क्यों भाँति-भाँति की शंकाएँ उठ रही थीं। वह कभी इतनी दुर्बल थी। बुंदेलों की हार ही क्यों होगी, इसका कोई कारण तो वह बता सकती थी; पर वह भावना उसके विकल हृदय से किसी तरह निकलती थी। उस अभागिन के भाग्य में प्रेम का सुख भोगना लिखा होता, तो क्या बचपन ही में माँ मर जाती, पिता के साथ वन-वन घूमना पड़ता, खोहों और कंदराओं में रहना पड़ता! और वह आश्रय भी तो बहुत दिन रहा। पिता भी मुँह मोड़कर चल दिए। तब से उसे एक दिन भी तो आराम से बैठना नसीब हुआ। विधना क्या अब अपना क्रूर कौतुक छोड़ देगा? आह! उसके दुर्बल हृदय में इस समय एक विचित्र भावना उत्पन्न हुई—

    ईश्वर उसके प्रियतम को आज सकुशल लाए, तो वह उसे लेकर किसी दूर के गाँव में जा बसेगी, पति देव की सेवा और अराधाना में जीवन सफल करेगी। इस संग्राम से सदा के लिए मुँह मोड़ लेगी। आज पहली बार नारीत्व का भाव उसके मन में जाग्रत हुआ।

    संध्या हो गई थी, सूर्य भगवान् किसी हारे हुए सिपाही की भाँति मस्तक झुकाते कोई आड़ खोज रहे थे। सहसा एक सिपाही नंगे सिर, पाँव, निश्शस्त्र उसके सामने आकर खड़ा हो गया। चिंता पर वज्रपात हो गया। एक क्षण तक मर्माहत-सी बैठी रही। फिर उठकर घबराई हुई सैनिक के पास आई, और आतुर स्वर में पूछा—कौन-कौन बचा?

    सैनिक ने कहा—कोई नहीं!

    ‘कोई नहीं! कोई नहीं!!’

    चिंता सिर पकड़कर भूमि पर बैठ गई। सैनिक ने फिर कहा—मरहठे समीप पहुँचे।

    ‘समीप पहुँचे!!’

    ‘बहुत समीप!’

    ‘तो तुरंत चिता तैयार करो। समय नहीं है।’

    ‘अभी हम लोग तो सिर कटाने को हाज़िर ही हैं।’

    ‘तुम्हारी जैसी इच्छा! मेरे कर्तव्य का तो यही अंत है।’

    ‘क़िला बंद करके हम महीनों लड़ सकते हैं।’

    “तो आकर लड़ो। मेरी लड़ाई अब किसी से नहीं।’

    एक ओर अंधकार प्रकाश को पैरों-तले कुचलता चला आता था, दूसरी ओर विजयी मरहठे लहराते हुए खेतों को; और क़िले में चिता बन रही थी। ज्यों ही दीपक जले, चिता में भी आग लगी। सती चिंता, सोलहो शृंगार किए, अनुपम छवि दिखाती हुई, प्रसन्न-मुख अग्नि-मार्ग से पतिलोक की यात्रा करने जा रही थी।

    आठ

    चिता के चारों ओर स्त्री और पुरुष जमा थे। शत्रुओं ने क़िले को घेर लिया है, इसकी किसी को फ़िक्र थी। शोक और संतोष से सबके चेहरे उदास और सिर झुके हुए थे। अभी कल इसी आँगन में विवाह का मंडप सजाया गया था। जहाँ इस समय चिता सुलग रही है, वहीं कल हवन-कुंड था। कल भी इसी भाँति अग्नि की लपटें उठ रही थीं, इसी भाँति लोग जमा थे; पर आज और कल के दृश्यों में कितना अंतर है! हाँ, स्थूल नेत्रों के लिए अंतर हो सकता है; पर वास्तव में यह उसी यज्ञ की पूर्णाहुति है, उसी प्रतिज्ञा का पालन है।

    सहसा घोड़े की टापों की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। मालूम होता था, कोई सिपाही घोड़े को सरपट भगाता चला रहा है। एक क्षण में टापों की आवाज़ बंद हो गई, और एक सैनिक आँगन में दौड़ा हुआ पहुँचा। लोगों ने चकित होकर देखा, यह रत्नसिंह था!

    रत्नसिंह चिता के पास जाकर हाँफ़ता हुआ बोला—प्रिये, मैं तो अभी जीवित हूँ, यह तुमने क्या कर डाला?

    चिता में आग लग चुकी थी। चिंता की साड़ी से अग्नि की ज्वाला निकल रही थी। रत्नसिंह उन्मत्त की भाँति चिता में घुस गया, और चिंता का हाथ पकड़कर उठाने लगा। लोगों ने चारों ओर से लपक-लपककर चिता की लकड़ियाँ हटानी शुरू कीं; पर चिंता ने पति की ओर आँख उठाकर भी देखा, केवल हाथों से उसे हट जाने का संकेत किया।

    रत्नसिंह सिर पीटकर बोला—हाय प्रिये! तुम्हें क्या हो गया है? मेरी ओर देखती क्यों नहीं? मैं तो जीवित हूँ।

    चिता से आवाज़ आई—तुम्हारा नाम रत्नसिंह है; पर तुम मेरे रत्नसिंह नहीं हो।

    ‘तुम मेरी तरफ़ देखो तो, मैं ही तुम्हारा दास, तुम्हारा उपासक, तुम्हारा पति हूँ।’

    ‘मेरे पति ने वीर गति पाई।’

    ‘हाय, कैसे समझाऊँ! अरे लोगो, किसी भाँति अग्नि शांत करो। मैं रत्नसिंह ही हूँ, प्रिये! क्या तुम मुझे पहचानती नहीं हो?’

    अग्नि-शिखा चिंता के मुख तक पहुँच गई। अग्नि में कमल खिल गया। चिंता स्पष्ट स्वर में बोली—ख़ूब पहचानती हूँ। तुम मेरे रत्नसिंह नहीं। मेरा रत्नसिंह सच्चा शूर था। वह आत्मरक्षा के लिए, इस तुच्छ देह को बचाने के लिए, अपने क्षत्रिय-धर्म का परित्याग कर सकता था। मैं जिस पुरुष के चरणों की दासी बनी थी, वह देवलोक में विराजमान है। रत्नसिंह को बदनाम मत करो। वह वीर राजपूत था, रणक्षेत्र से भागनेवाला कायर नहीं!

    अंतिम शब्द निकले ही थे कि अग्नि की ज्वाला चिंता के सिर के ऊपर जा पहुँची। फिर एक क्षण में वह अनुपम रूप-राशि, वह आदर्श वीरता की उपासिका, वह सच्ची सती अग्नि-राशि में विलीन हो गई।

    रत्नसिंह चुपचाप, हतबुद्धि-सा खड़ा यह शोकमय दृश्य देखता रहा। फिर अचानक एक ठंडी साँस खींचकर उसी चिता में कूद पड़ा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ (पृष्ठ 98)
    • रचनाकार : प्रेमचंद
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संज़ लाहौर

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