दो शताब्दियों से अधिक बीत गए हैं; पर चिंता देवी का नाम चला आता है। बुंदेलखंड के एक बीहड़ स्थान में आज भी मंगलवार को सहस्त्रों स्त्री-पुरुष चिंता देवी की पूजा करने आते हैं। उस दिन यह निर्जन स्थान सोहाने गीतों से गूँज उठता है। टीले और टोकरे रमणियों के रंगो-बिरंगे वस्त्रों से सुशोभित हो जाते हैं। देवी का मंदिर एक बहुत ऊँचे टीले पर बना हुआ है। उसके कलश पर लहराती हुई लाल पताका बहुत दूर से दिखाई देती है। मंदिर इतना छोटा है कि उसमें मुश्किल से एक साथ दो आदमी समा सकते हैं। भीतर कोई प्रतिमा नहीं है, केवल एक छोटी-सी वेदी बनी हुई है। नीचे से मंदिर तक पत्थर का ज़ीना है। भीड़-भाड़ में धक्का खाकर कोई नीचे न गिर पड़े इसलिए ज़ीने के दोनों तरफ़ दीवार बनी हुई है। यहीं चिंता देवी सती हुई थीं; पर लोकरीति के अनुसार वह अपने मृत पति के साथ, चिता पर नहीं बैठी थीं। उनका पति हाथ जोड़े सामने खड़ा था; पर वह उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखती थीं। वह पति के शरीर के साथ नहीं, उसकी आत्मा के साथ सती हुई। उस चिता पर पति का शरीर न था, उसकी मर्यादा भस्मीभूत हो रही थी।
दो
यमुना-तट काल्पी एक छोटा-सा सागर है। चिंता उसी नगर के एक वीर बुंदेले की कन्या थी। उसकी माता उसकी बाल्यावस्था में ही परलोक सिधार चुकी थीं। उसके पालन-पोषण का भार पिता पर पड़ा। वह संग्राम का समय था, योद्धाओं को कमर खोलने की भी फ़ुर्सत न मिलती थी, वे घोड़ों की पीठ पर भोजन करते और ज़ीने ही पर झपकियाँ ले लेते थे। चिंता का बाल्यकाल पिता के साथ समर-भूमि में कटा। बाप उसे किसी खोह या वृक्ष की आड़ में छिपाकर मैदान में चला जाता। चिंता निश्शंक भाव से बैठी हुई मिट्टी के क़िले बनाती और बिगाड़ती। उसके घरौंदे क़िले होते थे; उसकी गुड़ियाँ ओढ़नी न ओढ़ती थीं। वह सिपाहियों के गुड्डे बनाती और उन्हें रण-क्षेत्र में खड़ा करती थी। कभी-कभी उसका पिता संध्या-समय भी न लौटता; पर चिंता को भय छू तक न गया था। निर्जन स्थान में भूखी-प्यासी रात-रात भर बैठी रह जाती। उसने नेवले और सियार की कहानियाँ कभी न सुनी थी। वीरों के आत्मोत्सर्ग की कहानियाँ, और वह भी योद्धाओं के मुँह से, सुन-सुनकर वह आदर्शवादिनी बन गई थी।
एक बार तीन दिन तक चिंता को अपने पिता की ख़बर न मिली। वह एक पहाड़ की खोह में बैठी मन-ही-मन एक ऐसा क़िला बना रहीं थी, जिसे शत्रु किसी भाँति जान न सके। दिनभर वह उसी क़िले का नक़्शा सोचती और रात को उसी क़िले का स्वप्न देखती। तीसरे दिन संध्या समय उसके पिता के कई साथियों ने आकर उसके सामने रोना शुरू किया। चिंता ने विस्मित होकर पूछा—दादा जी कहाँ हैं? तुम लोग क्यों रोते हो?
किसी ने इसका उत्तर न दिया। वे ज़ोर से धाड़े मार-मार कर रोने लगे। चिंता समझ गई कि उसके पिता ने वीर-गति पाई। उसे तेरह वर्ष की बालिका की आँखों से आँसू की एक बूँद भी न गिरी, मुख ज़रा भी मलिन न हुआ, एक आह भी न निकली। हँसकर बोली—अगर उन्होंने वीर-गति पाई तो तुम लोग रोते क्यों हो? योद्धाओं के लिए इससे बढ़कर और कौन सी मृत्यु हो सकती है, इससे बढ़कर उनकी वीरता का और क्या पुरस्कार मिल सकता है? यह रोने का नहीं आनंद मनाने का अवसर है।
एक सिपाही ने चिंतित स्वर में कहा—हमें तुम्हारी चिंता है। तुम अब कहाँ रहोगी?
चिंता ने गंभीरता से कहा—इसकी तुम कुछ चिंता न करो, दादा! मैं अपने बाप की बेटी हूँ। जो कुछ उन्होंने किया, वही मैं भी करुँगी। अपनी मातृ-भूमि का शत्रुओं के पंजे से छुड़ाने में उन्होंने प्राण दे दिए। मेरे सामने भी वही आदर्श है। जाकर अपने आदमियों को सँभालिए। मेरे लिए एक घोड़ा और हथियारों का प्रबंध कर दीजिए। ईश्वर ने चाहा, तो आप लोग मुझे किसी से पीछे न पाएँगे; लेकिन यदि मुझे पीछे हटते देखना, तो तलवार के एक हाथ से इस जीवन का अंत कर देना। यही मेरी आपसे विनय है। जाइए, अब विलंब न कीजिए।
सिपाहियों को चिंता के ये वीर-वचन सुनकर कुछ भी आश्चर्य नहीं हुआ। हाँ, उन्हें यह संदेह अवश्य हुआ कि क्या यह कोमल बालिका अपने संकल्प पर दृढ़ रह सकेगी?
तीन
पाँच वर्ष बीत गए। समस्त प्रांत में चिंता देवी की धाक बैठ गई। शत्रुओं के क़दम उखड़ गए वह विजय की सजीव मूर्ति थी, उसे तीरों और गोलियों के सामने निश्शंक खड़े देखकर सिपाहियों को उत्तेजना मिलती रहती थी। उसके सामने वे कैसे क़दम पीछे हटाते? जब कोमलांगी युवती आगे बढ़े, तो कौन पुरुष क़दम पीछे हटाएगा? सुंदरियों के सम्मुख योद्धायों की वीरता अजेय हो जाती है। रमणी के वचन-बाण योद्धाओं के लिए आत्म-समर्पण के गुप्त संदेश हैं, उसकी एक ही चितवन कायरों में भी पुरुषत्व प्रवाहित कर सकती है। चिंता की छवि-कीर्ति ने मनचले सूरमाओं को चारों ओर से खींच-खींचकर उसकी सेना में सजा दिया—जान पर खेलने वाले भौंरे चारों ओर से आ-आकर इस फूल पर मँडराने लगे।
इन्हीं योद्धाओं में रत्नसिंह नाम का एक युवक राजपूत भी था।
यों तो चिंता के सैनिकों में सभी तलवार के धनी थे; बात पर जान देनेवाले, उसके शरीर पर आग में कूदने वाले, उसकी आज्ञा पाकर एक बार आकाश के तारे तोड़ लाने को भी चल पड़ते; किंतु रत्नसिंह सबसे बढ़ा हुआ था। चिंता ह्रदय में उससे प्रेम करती थी। रत्नसिंह अन्य वीरों की भाँती अक्खड़, मुँहफट या घमंडी न था। और लोग अपनी-अपनी कीर्ति को ख़ूब बढ़ा-बढ़ाकर बयान करते। आत्म-प्रशंसा करते हुए उनकी ज़बान न रुकती थी। वे जो कुछ करते चिंता को दिखाने के लिए। उनका ध्येय अपना कर्तव्य न था, चिंता थी। रत्नसिंह जो कुछ करता, शांत-भाव से। अपनी प्रंशसा करना तो दूर रहा, वह चाहे कोई शेर ही क्यों न मार आए, उसकी चर्चा तक न करता। उसकी विनयशीलता और नम्रता, संकोच की सीमा से भी बढ़ गई थी। औरों के प्रेम में विलास था; पर रत्नसिंह के प्रेम में त्याग और तप। और लोग मीठी नींद सोते थे; पर रत्नसिंह तारे गिन-गिनकर रात काटता था और सब अपने दिल में समझते थे कि चिंता मेरी होगी—केवल रत्नसिंह निराश था, और इसलिए उसे किसी से न द्वेष था, न राग। औरों को चिंता के सामने चहकते देखकर उसे उनकी वाक्पटुता पर आश्चर्य होता, प्रतिक्षण उसका निराशांधकार और भी घना हो होता जाता था। कभी-कभी व अपने बोदेपन पर झुँझला उठता—क्यों ईश्वर ने उसे उन गुणों से वंचित रखा, जो रमणियों के चित्त को मोहित करते हैं? उसे कौन पूछेगा? उसकी मनोव्यथा को कौन जानता है? पर वह मन में झुँझलाकर रह जाता था। दिखावे की उसमें सामर्थ्य ही न थी।
आधी रात से अधिक रात बीत चुकी थी। चिंता अपने खेमे में विश्राम कर रही थी सैनिकगण भी कड़ी मंज़िल मारने के बाद कुछ खा-पीकर ग़ाफ़िल पड़े हुए थे। आगे एक घना जंगल था। जंगल के उस पार शत्रुओं का एक दल डेरा डाले पड़ा था। चिंता उसके आने की ख़बर पाकर भागाभाग चली आ रही थी। उसने प्रात:काल शत्रुओं पर धावा करने का निश्चय कर लिया था। उसे विश्वास था कि शत्रुओं को मेरे आने की ख़बर न होगी; किंतु यह उसका भ्रम था। उसी की सेना का एक आदमी शत्रुओं से मिला हुआ था। यहाँ की ख़बरें वहाँ नित्य पहुँचती रहती थीं। उन्होंने चिंता से निश्चिंत होंने के लिए एक षड्यंत्र रच रखा था—उसकी गुप्त हत्या करने के लिए तीन साहसी सिपाहियों को नियुक्त कर दिया था। वे तीनों हिंस्त्र पशुओं की भाँति दबे-पाँव जंगल को पार करके आए और वृक्षों की आड़ में खड़े होकर सोचने लगे कि चिंता का स्वामी कौनसा है। सारी सेना बेख़बर सो रही थी, इससे उन्हें अपने कार्य की सिद्धि में लेश-मात्र संदेह न था। वे वृक्षों की आड़ से निकले, और ज़मीन पर मगर की तरह रेंगते हुए चिंता के खेमे की ओर चले।
सारी सेना बेख़बर सोती थी, पहरे के सिपाही थककर चूर हो जाने के कारण निद्रा में मग्न हो गए थे। केवल एक प्राणी खेमे के पीछे मारे ठंड के सिकुड़ा हुआ बैठा था। यह रत्नसिंह था। आज उसने यह कोई नई बात न की थी। पहाड़ों में उसकी रातें इसी भाँति चिंता के खेमे के पीछे बैठे-बैठे कटती थीं। घातकों की आहट पाकर उसने तलवार निकाल ली, और चौंककर उठ खड़ा हुआ। देखा—तीन आदमी झुके हुए चले आ रहे हैं! अब क्या करे? अगर शोर मचाता है, तो सेना में खलबली पड़ जाए, और अँधेरे में लोग एक दूसरे पर वार करके आपस ही में कट मरें। इधर अकेले तीन जवानों से भिड़ने मे प्राणों का भय। अधिक सोचने का मौक़ा न था। उसमें यौद्धाओं की, अविलंब निश्चय कर लेने की शक्ति थी; तुरंत तलवार खींच ली, और उन तीनों पर टूट पड़ा। कई मिनट तक तलवारें छपाछप चलती रहीं। फिर सन्नाटा हो गया। उधर वे तीनों आहत होकर गिर पड़े, इधर यह भी ज़ख़्मों से चूर होकर अचेत हो गया।
प्रातःकाल चिंता उठी, तो चारों जवानों को भूमि पर पड़े पाया। उसका कलेजा धक्-से हो गया। समीप जाकर देखा—तीनों आक्रमणकारियों के प्राण निकल चुके थे; पर रत्नसिंह की साँस चल रही थी। सारी घटना समझ में आ गई। नारीत्व ने वीरत्व पर विजय पाई। जिन आँखों से पिता की मृत्यु पर आँसू की एक बूँद भी न गिरी थी, उन्हीं आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उसने रत्नसिंह का सिर अपनी जाँघ पर रख लिया, और हृदयांगण मे रचे हुए स्वयंवर में उसके गले मे जयमाल डाल दी।
चार
महीने-भर न रत्नसिंह की आँखें खुलीं, और न चिंता की आँखें बंद हुईं। चिंता उसके पास से एक क्षण के लिए भी कहीं न जाती। न अपने इलाक़े की परवा थी, न शत्रुओं के बढ़ते चले आने की फ़िक्र। रत्नसिंह पर वह अपनी सारी विभूतियों को बलिदान कर चुकी थी। पूरा महीना बीत जाने के बाद रत्नसिंह की आँख खुली। देखा—चरपाई पर पड़ा हुआ है, और चिंता सामने पंखा लिए खड़ी है। क्षीण स्वर में बोला—चिंता, पंखा मुझे दे दो, तुम्हें कष्ट हो रहा है।
चिंता का हृदय इस समय स्वर्ग के अखण्ड, अपार सुख का अनुभव कर रहा था। एक महीना पहले जिस शीर्ण शरीर के सिरहाने बैठी हुई वह नैराश्य से रोया करती थी, उसे आज बोलते देखकर उसके आह्लाद का पारावार न था उसने स्नेह मधुर स्वर में कहा—प्राणनाथ, यदि यह कष्ट है, तो सुख क्या है, मैं नहीं जानती। ‘प्राणनाथ’—इस संबोधन में विलक्षण मंत्र की सी शक्ति थी! रत्नसिंह की आँखें चमक उठीं। जीर्ण मुद्रा प्रदीप्त हो गई, नसों में एक नये जीवन का संचार हो उठा, और वह जीवन कितना स्फूर्तिमय था, उसमें कितना उत्साह, कितना माधुर्य, कितना उल्लास और कितनी करुणा थी! रत्नसिंह के अंग-अंग फड़कने लगे। उसे अपनी भुजाओं में अलौकिक पराक्रम का अनुभव होने लगा। ऐसा जान पड़ा, मानो वह सारे संसार को सर कर सकता है, उड़कर आकाश पर पहुँच सकता है, पर्वतों को चीर सकता है। एक क्षण के लिए ऐसी तृप्ति हुई; मानों उसकी सारी अभिलाषाएँ पूरी हो गई हैं, मानों वह अब किसी से कुछ नहीं चाहता। शायद शिव को सामने खड़े देखकर भी वह मुँह फ़ेर लेगा, कोई वरदान न माँगेगा। उसे अब ऋद्धि को, किसी पदार्थ की इच्छा न थी। उसे गर्व हो रहा था, मानोउससे अधिक सुखी, उससे अधिक भाग्यशाली पुरुष संसार में और कोई न होगा।
चिंता अभी अपना वाक्य पूरा न कर पाई थी। उसी प्रसंग में बोली—हाँ आपको मेरे कारण अलवत्ता दुस्सह यातना भोगनी पड़ी!
रत्नसिंह ने उठने की चेष्टा कहा—बिना तप के सिद्धि नहीं मिलती।
चिंता ने रत्नसिंह को कोमल हाथों से लिटाते हुए कहा—इस सिद्धि के लिए तुमने तपस्या नहीं की थी। झुठ क्यों बोलते हो? तुम केवल एक अबला की रक्षा कर रहे थे। यदि मेरी जगह कोई दूसरी स्त्री होती, तो भी इतने ही प्राण-पण से उसकी रक्षा करते। मुझे इसका विश्वास है। मैं तुमसे सत्य कहती हूँ, मैंने आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने का प्रण कर लिया था; लेकिन तुम्हारे आत्मोत्सर्ग ने मेरे प्रण को तोड़ डाला; मेरा पालन योद्धाओं की गोद में हुआ है; मेरे ह्रदय उसी पुरुषसिंह के चरणों पर अर्पण हो सकता है, जो प्राणों की बाज़ी खेल सकता हो। रसिकों के हास-विलास, गुंडों के रूप रंग ओर फेकैतो के दाँव-घात का मेरी दृष्टि में रत्ती भर भी मूल्य नहीं। उनकी नट-विद्या को मैं केवल तमाशे की तरह देखती हूँ। तुम्हारे ही ह्रदय में मैंने सच्चा उत्सर्ग पाया, और तुहारी दासी हो गई—आज से नहीं, बहुत दिनों से।
पाँच
प्रणय की पहली रात थी। चारों ओर सन्नाटा था! केवल दोनों प्रेमियों के ह्रदयों में अभिलाशाएँ लहरा रही थी। चारों ओर अनुरागमयी चाँदनी छिटकी हुई थी और उसकी हास्यमयी छटा में वर और वधू प्रेमालाप कर रहे थे।
सहसा ख़बर आई कि शत्रुओं की एक सेना क़िले की ओर बढ़ी चली आती है। चिंता चौंक पड़ी; रत्नसिंह खड़ा हो गया, और खूँटी से लटकती हुई तलवार उतार ली।
चिंता ने उसकी ओर कातर-स्नेह की दृष्टि से देखकर कहा—कुछ आदमियों को उधर भेज दो, तुम्हारे जाने की क्या ज़रूरत है?
रत्नसिंह ने बंदूक़ कंधे पर रखते हुए कहा—मुझे भय है कि अब की वे लोग बड़ी संख्या में आ रहे हैं।
चिंता—तो मैं भी चलूँगी।
‘नहीं, मुझे आशा है, वे लोग ठहर न सकेंगे! मैं एक ही घावे में क़दम उखाड़ दूँगा। यह ईश्वर की इच्छा है कि हमारी प्रणय-रात्रि विजय-रात्रि हो!
‘न जाने क्यों मन कातर हो रहा है। जाने देने को जी नहीं चाहता!’
रत्नसिंह ने इस सरल, अनुरक्त आग्रह से विह्वल होकर चिंता को गले लगा लिया और बोले—मैं सबेरे तक लौट आऊँगा, प्रिये!
चिंता पति के गले में हाथ डालकर आँखों में आँसू भरे हुए बोली—मुझे भय है, तुम बहुत दिनों में लौटोगे। मेरा मन तुम्हारे साथ रहेगा। जाओ, पर रोज़ ख़बर भेजते रहना। तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अवसर का विचार करके धावा करना। तुम्हारी आदत है कि शत्रु को देखते ही आकुल हो जाते हो, और जान पर खेलकर टूट पड़ते हो। तुमसे मेरा यही अनुरोध है कि अवसर देखकर काम करना। जाओ, जिस तरह पीठ दिखाते हो, उसी तरह मुँह भी दिखाओ।
चिंता का ह्रदय कातर हो रहा था, वहाँ पहले केवल विजय लालसा का अधिपत्य था, अब भोग-लालसा की प्रधानता थी। वही वीर बाला, जो सिंहनी की तरह गरजकर शत्रुओं ले कलेजे कँपा देती थी, आज इतनी दुर्बल हो रही थी कि जब रत्नसिंह घोड़े पर सवार हुआ, तो आप उसकी कुशल-कामना से मन-ही-मन देवी को मनौतियाँ कर रही थी। जब तक वह वृक्षों की ओट में छिप न गया, वह खड़ी उसे देखती रही। फिर क़िले के सब से ऊँचे बुर्ज पर चढ़ गई और घंटों उसी तरफ़ ताकती रही। वहाँ शून्य था, पहाड़ियों ने कभी रत्नसिंह को अपनी ओट में छिपा लिया था; पर चिंता को ऐसा जान पड़ता था कि वह सामने चले आ रहे हैं। जब ऊषा की लोहित छवि वृक्षों की आड़ से झाँकने लगी तो उसकी मोह विस्मृति टूट गई। मालूम हुआ, चारों तरफ़ शून्य है। वह रोती हुई बुर्ज से उतरी, और शय्या में मुँह ढाँपकर रोने लगी।
छह
रत्नसिंह के साथ मुश्किल से सौ आदमी थे; किंतु सभी मँजे हुए, अवसर और संख्या को तुच्छ समझने वाले, अपनी जान के दुश्मन! वीरोल्लास से भरे हुए एक वीर-रस-पूर्ण पद गाते हुए घोड़ों को बढ़ाए चले जाते थे—
'बाँकी तेरी पाग सिपाही, इसकी रखना लाज।
तेग-तबर कुछ काम न आवे, बख्तर-ढाल व्यर्थ हो जावे।
रखियो मन में लाग, सिपाही बाँकी तेरी पाग।
इसकी रखना लाज।'
पहाड़ियाँ इन वीर स्वरों से गूँज रही थीं। घोड़ों की टाप ताल दे रही थी। यहाँ तक कि रात बीत गई, सूर्य ने अपनी लाल आँखें खोल दीं और इन वीरों पर अपनी स्वर्णच्छटा की वर्षा करने लगा।
वहीं, रक्तमय प्रकाश में शत्रुओं की सेना एक पहाड़ी पर पड़ाव डाले हुए नज़र आई।
रत्नसिंह सिर झुकाए, वियोग-व्यथित हृदय को दबाए, मंद गति से पीछे-पीछे चला जाता था। क़दम आगे बढ़ता था; पर मन पीछे हटता था। आज जीवन में पहली बार दुश्चिंताओं ने उसे आशंकित कर रखा था। कौन जानता है, लड़ाई का अंत क्या होगा! जिस स्वर्ग-सुख को छोड़कर वह आया था, उसकी स्मृतियाँ रह-रहकर उसके हृदय को मसोस रही थीं। चिंता की सजल आँखें याद आती थीं और जी चाहता था, घोड़े की रास पीछे मोड़ दें। प्रतिक्षण रणोत्साह क्षीण होता जाता था, सहसा एक सरदार ने समीप आकर कहा—भैया, वह देखो, ऊँची पहाड़ी पर शत्रु डेरे डाले पड़ा हैं। तुम्हारी अब क्या राय है? हमारी तो यह इच्छा है कि तुरंत उन पर धावा कर दें। ग़ाफ़िल पड़े हुए हैं, भाग खड़े होंगे। देर करने से वे भी सँभल जाएँगे और तब मामला नाज़ुक हो जाएगा। एक हज़ार से कम न होंगे।
रत्नसिंह ने चिंतित नेत्रों से शत्रु दल की ओर देखकर कहा—हाँ, मालूम तो होता है।
सिपाही—तो धावा कर दिया जाए न?
रत्नसिंह—जैसी तुम्हारी इच्छा। संख्या अधिक है, यह सोच लो।
सिपाही—इसकी परवाह नहीं। हम इससे बड़ी सेनाओं को परास्त कर चुके हैं।
रत्नसिंह—यह सच है; पर आग में कूदना ठीक नहीं।
सिपाही—भैया, तुम कहते क्या हो? सिपाही का तो जीवन ही आग में कूदने के लिए है। तुम्हारे हुक्म की देर है, फिर हमारा जीवट देखना।
रत्नसिंह—अभी हम लोग बहुत थके हुए हैं। ज़रा विश्राम कर लेना अच्छा है।
सिपाही—नहीं भैया, उन सबों को हमारी आहट मिल गई, तो ग़ज़ब हो जाएगा।
रत्न—तो फिर धावा ही कर दो।
एक क्षण में योद्धाओं ने घोड़ों की बागें उठा दीं, और अस्त्र सँभाले हुए शत्रु सेना पर लपके; किंतु पहाड़ी पर पहुँचते ही इन लोगों ने उनके विषय में जो अनुमान किया था, वह मिथ्या था। वह सजग ही न थे, स्वयं क़िले पर धावा करने की तैयारियाँ भी कर रहे थे। इन लोगों ने जब उन्हें सामने आते देखा, तो समझ गए कि भूल हुई; लेकिन अब सामना करने के सिवा चारा ही क्या था। फिर भी वे निराश न थे। रत्नसिंह जैसे कुशल योद्धा के साथ इन्हें कोई शंका न थी। वह इससे भी कठिन अवसरों पर अपने रण-कौशल से विजय-लाभ कर चुका था। क्या आज वह अपना जौहर न दिखाएगा? सारी आँखें रत्नसिंह को खोज रही थीं; पर उसका वहाँ कहीं पता न था। कहाँ चला गया? यह कोई न जानता था।
पर वह कहीं नहीं जा सकता। अपने साथियों को इस कठिन अवस्था में छोड़कर वह कहीं नहीं जा सकता—संभव नहीं, अवश्य ही वह यहीं है, और हारी हुई बाज़ी को जिताने की कोई युक्ति सोच रहा है।
एक क्षण में शत्रु इनके सामने आ पहुँचे। इतनी बहुसंख्यक सेना के सामने ये मुट्ठी-भर आदमी क्या कर सकते थे। चारों ओर से रत्नसिंह की पुकार होने लगी—भैया, तुम कहाँ हो? हमें क्या हुक्म देते हो? देखते हो, वे लोग सामने आ पहुँचे; पर तुम अभी तक मौन खड़े हो। सामने आकर हमें मार्ग दिखाओ, हमारा उत्साह बढ़ाओ!
पर अब भी रत्नसिंह न दिखाई दिया। यहाँ तक कि शत्रु-दल सिर पर आ पहुँचा, और दोनों दलों में तलवारें चलने लगीं। बुंदेलों ने प्राण हथेली पर लेकर लड़ना शुरू किया; पर एक को एक बहुत होता है; एक और दस का मुक़ाबला ही क्या? यह लड़ाई न थी, प्राणों का जुआ था। बुंदेलों में निराशा का अलौकिक बल था। ख़ूब लड़े; पर क्या मजाल कि क़दम पीछे हटें। उनमें अब ज़रा भी संगठन न था। जिससे जितना आगे बढ़ते बना, बढ़ा। अंत क्या होगा, इसकी किसी को चिंता न थी। कोई तो शत्रुओं की सफ़ें चीरता हुआ सेनापति के समीप पहुँच गया, कोई उनके हाथी पर चढ़ने की चेष्टा करते मारा गया। उनका अमानुषिक साहस देख कर शत्रुओं के मुँह से भी वाह-वाह निकलती थी; लेकिन ऐसे योद्धाओं ने नाम पाया है, विजय नहीं पाई। एक घंटे में रंगमंच का पर्दा गिर गया, तमाशा ख़त्म हो गया। एक आँधी थी, जो आई और वृक्षों को उखाड़ती हुई चली गई। संगठित रहकर ये मुट्ठी-भर आदमी दुश्मनों के दाँत खट्टे कर देते, पर जिस पर संगठन का भार था, उसका कहीं पता न था। विजयी मरहठों ने एक-एक लाश ध्यान से देखी। रत्नसिंह उनकी आँखों में खटकता था। उसी पर उनके दाँत लगे थे। रत्नसिंह के जीते जी उन्हें नींद न आती थी। लोगों ने पहाड़ी की एक-एक चट्टान का मंथन कर डाला; पर रत्न न हाथ आया। विजय हुई; पर अधूरी।
सात
चिंता के हृदय में आज न जाने क्यों भाँति-भाँति की शंकाएँ उठ रही थीं। वह कभी इतनी दुर्बल न थी। बुंदेलों की हार ही क्यों होगी, इसका कोई कारण तो वह न बता सकती थी; पर वह भावना उसके विकल हृदय से किसी तरह न निकलती थी। उस अभागिन के भाग्य में प्रेम का सुख भोगना लिखा होता, तो क्या बचपन ही में माँ मर जाती, पिता के साथ वन-वन घूमना पड़ता, खोहों और कंदराओं में रहना पड़ता! और वह आश्रय भी तो बहुत दिन न रहा। पिता भी मुँह मोड़कर चल दिए। तब से उसे एक दिन भी तो आराम से बैठना नसीब न हुआ। विधना क्या अब अपना क्रूर कौतुक छोड़ देगा? आह! उसके दुर्बल हृदय में इस समय एक विचित्र भावना उत्पन्न हुई—
ईश्वर उसके प्रियतम को आज सकुशल लाए, तो वह उसे लेकर किसी दूर के गाँव में जा बसेगी, पति देव की सेवा और अराधाना में जीवन सफल करेगी। इस संग्राम से सदा के लिए मुँह मोड़ लेगी। आज पहली बार नारीत्व का भाव उसके मन में जाग्रत हुआ।
संध्या हो गई थी, सूर्य भगवान् किसी हारे हुए सिपाही की भाँति मस्तक झुकाते कोई आड़ खोज रहे थे। सहसा एक सिपाही नंगे सिर, पाँव, निश्शस्त्र उसके सामने आकर खड़ा हो गया। चिंता पर वज्रपात हो गया। एक क्षण तक मर्माहत-सी बैठी रही। फिर उठकर घबराई हुई सैनिक के पास आई, और आतुर स्वर में पूछा—कौन-कौन बचा?
सैनिक ने कहा—कोई नहीं!
‘कोई नहीं! कोई नहीं!!’
चिंता सिर पकड़कर भूमि पर बैठ गई। सैनिक ने फिर कहा—मरहठे समीप आ पहुँचे।
‘समीप आ पहुँचे!!’
‘बहुत समीप!’
‘तो तुरंत चिता तैयार करो। समय नहीं है।’
‘अभी हम लोग तो सिर कटाने को हाज़िर ही हैं।’
‘तुम्हारी जैसी इच्छा! मेरे कर्तव्य का तो यही अंत है।’
‘क़िला बंद करके हम महीनों लड़ सकते हैं।’
“तो आकर लड़ो। मेरी लड़ाई अब किसी से नहीं।’
एक ओर अंधकार प्रकाश को पैरों-तले कुचलता चला आता था, दूसरी ओर विजयी मरहठे लहराते हुए खेतों को; और क़िले में चिता बन रही थी। ज्यों ही दीपक जले, चिता में भी आग लगी। सती चिंता, सोलहो शृंगार किए, अनुपम छवि दिखाती हुई, प्रसन्न-मुख अग्नि-मार्ग से पतिलोक की यात्रा करने जा रही थी।
आठ
चिता के चारों ओर स्त्री और पुरुष जमा थे। शत्रुओं ने क़िले को घेर लिया है, इसकी किसी को फ़िक्र न थी। शोक और संतोष से सबके चेहरे उदास और सिर झुके हुए थे। अभी कल इसी आँगन में विवाह का मंडप सजाया गया था। जहाँ इस समय चिता सुलग रही है, वहीं कल हवन-कुंड था। कल भी इसी भाँति अग्नि की लपटें उठ रही थीं, इसी भाँति लोग जमा थे; पर आज और कल के दृश्यों में कितना अंतर है! हाँ, स्थूल नेत्रों के लिए अंतर हो सकता है; पर वास्तव में यह उसी यज्ञ की पूर्णाहुति है, उसी प्रतिज्ञा का पालन है।
सहसा घोड़े की टापों की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। मालूम होता था, कोई सिपाही घोड़े को सरपट भगाता चला आ रहा है। एक क्षण में टापों की आवाज़ बंद हो गई, और एक सैनिक आँगन में दौड़ा हुआ आ पहुँचा। लोगों ने चकित होकर देखा, यह रत्नसिंह था!
रत्नसिंह चिता के पास जाकर हाँफ़ता हुआ बोला—प्रिये, मैं तो अभी जीवित हूँ, यह तुमने क्या कर डाला?
चिता में आग लग चुकी थी। चिंता की साड़ी से अग्नि की ज्वाला निकल रही थी। रत्नसिंह उन्मत्त की भाँति चिता में घुस गया, और चिंता का हाथ पकड़कर उठाने लगा। लोगों ने चारों ओर से लपक-लपककर चिता की लकड़ियाँ हटानी शुरू कीं; पर चिंता ने पति की ओर आँख उठाकर भी न देखा, केवल हाथों से उसे हट जाने का संकेत किया।
रत्नसिंह सिर पीटकर बोला—हाय प्रिये! तुम्हें क्या हो गया है? मेरी ओर देखती क्यों नहीं? मैं तो जीवित हूँ।
चिता से आवाज़ आई—तुम्हारा नाम रत्नसिंह है; पर तुम मेरे रत्नसिंह नहीं हो।
‘तुम मेरी तरफ़ देखो तो, मैं ही तुम्हारा दास, तुम्हारा उपासक, तुम्हारा पति हूँ।’
‘मेरे पति ने वीर गति पाई।’
‘हाय, कैसे समझाऊँ! अरे लोगो, किसी भाँति अग्नि शांत करो। मैं रत्नसिंह ही हूँ, प्रिये! क्या तुम मुझे पहचानती नहीं हो?’
अग्नि-शिखा चिंता के मुख तक पहुँच गई। अग्नि में कमल खिल गया। चिंता स्पष्ट स्वर में बोली—ख़ूब पहचानती हूँ। तुम मेरे रत्नसिंह नहीं। मेरा रत्नसिंह सच्चा शूर था। वह आत्मरक्षा के लिए, इस तुच्छ देह को बचाने के लिए, अपने क्षत्रिय-धर्म का परित्याग न कर सकता था। मैं जिस पुरुष के चरणों की दासी बनी थी, वह देवलोक में विराजमान है। रत्नसिंह को बदनाम मत करो। वह वीर राजपूत था, रणक्षेत्र से भागनेवाला कायर नहीं!
अंतिम शब्द निकले ही थे कि अग्नि की ज्वाला चिंता के सिर के ऊपर जा पहुँची। फिर एक क्षण में वह अनुपम रूप-राशि, वह आदर्श वीरता की उपासिका, वह सच्ची सती अग्नि-राशि में विलीन हो गई।
रत्नसिंह चुपचाप, हतबुद्धि-सा खड़ा यह शोकमय दृश्य देखता रहा। फिर अचानक एक ठंडी साँस खींचकर उसी चिता में कूद पड़ा।
ek
do shatabdiyon se adhik beet ge hain; par chinta devi ka naam chala aata hai. bundelkhanD ke ek bihaD sthaan mein aaj bhi mangalvar ko sahastron stri purush chinta devi ki puja karne aate hain. us din ye nirjan sthaan sohane giton se goonj uthta hai. tile aur tokre ramaniyon ke rango birange vastron se sushobhit ho jate hain. devi ka mandir ek bahut uunche tile par bana hua hai. uske kalash par lahrati hui laal pataka bahut door se dikhai deti hai. mandir itna chhota hai ki usmen mushkil se ek saath do adami sama sakte hain. bhitar koi pratima nahin hai, keval ek chhoti si vedi bani hui hai. niche se mandir tak patthar ka zina hai. bheeD bhaaD mein dhakka khakar koi niche na gir paDe isliye zine ke donon taraf divar bani hui hai. yahin chinta devi sati hui theen; par lokariti ke anusar wo apne mrit pati ke saath, chita par nahin baithi theen. unka pati haath joDe samne khaDa tha; par wo uski or ankh uthakar bhi na dekhti theen. wo pati ke sharir ke saath nahin, uski aatma ke saath sati hui. us chita par pati ka sharir na tha, uski maryada bhasmibhut ho rahi thi.
do
yamuna tat kalpi ek chhota sa sagar hai. chinta usi nagar ke ek veer bundele ki kanya thi. uski mata uski balyavastha mein hi parlok sidhar chuki theen. uske palan poshan ka bhaar pita par paDa. wo sangram ka samay tha, yoddhaon ko kamar kholne ki bhi fursat na milti thi, ve ghoDon ki peeth par bhojan karte aur zine hi par jhapkiyan le lete the. chinta ka balyakal pita ke saath samar bhumi mein kata. baap use kisi khoh ya vriksh ki aaD mein chhipakar maidan mein chala jata. chinta nishshank bhaav se baithi hui mitti ke qile banati aur bigaDti. uske gharaunde qile hote the; uski guDiyan oDhni na oDhti theen. wo sipahiyon ke guDDe banati aur unhen ran kshetr mein khaDa karti thi. kabhi kabhi uska pita sandhya samay bhi na lautta; par chinta ko bhay chhu tak na gaya tha. nirjan sthaan mein bhukhi pyasi raat raat bhar baithi rah jati. usne nevale aur siyar ki kahaniyan kabhi na suni thi. viron ke atmotsarg ki kahaniyan, aur wo bhi yoddhaon ke munh se, sun sunkar wo adarshvadini ban gai thi.
ek baar teen din tak chinta ko apne pita ki khabar na mili. wo ek pahaD ki khoh mein baithi man hi man ek aisa qila bana rahin thi, jise shatru kisi bhanti jaan na sake. dinbhar wo usi qile ka naqsha sochti aur raat ko usi qile ka svapn dekhti. tisre din sandhya samay uske pita ke kai sathiyon ne aakar uske samne rona shuru kiya. chinta ne vismit hokar puchha—dada ji kahan hain? tum log kyon rote ho?
kisi ne iska uttar na diya. ve zor se dhaDe maar maar kar rone lage. chinta samajh gai ki uske pita ne veer gati pai. use terah varsh ki balika ki ankhon se ansu ki ek boond bhi na giri, mukh zara bhi malin na hua, ek aah bhi na nikli. hansakar boli—agar unhonne veer gati pai to tum log rote kyon ho? yoddhaon ke liye isse baDhkar aur kaun si mrityu ho sakti hai, isse baDhkar unki virata ka aur kya puraskar mil sakta hai? ye rone ka nahin anand manane ka avsar hai.
ek sipahi ne chintit svar mein kaha—hamen tumhari chinta hai. tum ab kahan rahogi?
chinta ne gambhirta se kaha—iski tum kuch chinta na karo, dada! main apne baap ki beti hoon. jo kuch unhonne kiya, vahi main bhi karungi. apni matri bhumi ka shatruon ke panje se chhuDane mein unhonne praan de diye. mere samne bhi vahi adarsh hai. jakar apne adamiyon ko sanbhaliye. mere liye ek ghoDa aur hathiyaron ka prbandh kar dijiye. iishvar ne chaha, to aap log mujhe kisi se pichhe na payenge; lekin yadi mujhe pichhe hatte dekhana, to talvar ke ek haath se is jivan ka ant kar dena. yahi meri aapse vinay hai. jaiye, ab vilamb na kijiye.
sipahiyon ko chinta ke ye veer vachan sunkar kuch bhi ashcharya nahin hua. haan, unhen ye sandeh avashya hua ki kya ye komal balika apne sankalp par driDh rah sakegi?
teen
paanch varsh beet ge. samast praant mein chinta devi ki dhaak baith gai. shatruon ke qadam ukhaD ge wo vijay ki sajiv murti thi, use tiron aur goliyon ke samne nishshank khaDe dekhkar sipahiyon ko uttejna milti rahti thi. uske samne ve kaise qadam pichhe hatate? jab komlangi yuvati aage baDhe, to kaun purush qadam pichhe hatayega? sundariyon ke sammukh yoddhayon ki virata ajey ho jati hai. ramni ke vachan baan yoddhaon ke liye aatm samarpan ke gupt sandesh hain, uski ek hi chitvan kayron mein bhi purushatv prvahit kar sakti hai. chinta ki chhavi kirti ne manchale surmaon ko charon or se kheench khinchkar uski sena mein saja diya—jan par khelne vale bhaunre charon or se aa aakar is phool par manDrane lage.
inhin yoddhaon mein ratnsinh naam ka ek yuvak rajput bhi tha.
yon to chinta ke sainikon mein sabhi talvar ke dhani the; baat par jaan denevale, uske sharir par aag mein kudne vale, uski aagya pakar ek baar akash ke tare toD lane ko bhi chal paDte; kintu ratnsinh sabse baDha hua tha. chinta hrday mein usse prem karti thi. ratnsinh anya viron ki bhanti akkhaD, munhaphat ya ghamanDi na tha. aur log apni apni kirti ko khoob baDha baDhakar byaan karte. aatm prshansa karte hue unki zaban na rukti thi. ve jo kuch karte chinta ko dikhane ke liye. unka dhyey apna kartavya na tha, chinta thi. ratnsinh jo kuch karta, shaant bhaav se. apni pranshsa karna to door raha, wo chahe koi sher hi kyon na maar aaye, uski charcha tak na karta. uski vinayshilata aur namrata, sankoch ki sima se bhi baDh gai thi. auron ke prem mein vilas tha; par ratnsinh ke prem mein tyaag aur tap. aur log mithi neend sote the; par ratnsinh tare gin ginkar raat katta tha aur sab apne dil mein samajhte the ki chinta meri hogi—keval ratnsinh nirash tha, aur isliye use kisi se na dvesh tha, na raag. auron ko chinta ke samne chahakte dekhkar use unki vakpatuta par ashcharya hota, prtikshan uska nirashandhkar aur bhi ghana ho hota jata tha. kabhi kabhi va apne bodepan par jhunjhla uthta—kyon iishvar ne use un gunon se vanchit rakha, jo ramaniyon ke chitt ko mohit karte hain? use kaun puchhega? uski manovyatha ko kaun janta hai? par wo man mein jhunjhlakar rah jata tha. dikhave ki usmen samarthya hi na thi.
aadhi raat se adhik raat beet chuki thi. chinta apne kheme mein vishram kar rahi thi sainikgan bhi kaDi manzil marne ke baad kuch kha pikar ghafil paDe hue the. aage ek ghana jangal tha. jangal ke us paar shatruon ka ek dal Dera Dale paDa tha. chinta uske aane ki khabar pakar bhagabhag chali aa rahi thi. usne pratahkal shatruon par dhava karne ka nishchay kar liya tha. use vishvas tha ki shatruon ko mere aane ki khabar na hogi; kintu ye uska bhram tha. usi ki sena ka ek adami shatruon se mila hua tha. yahan ki khabren vahan nitya pahunchti rahti theen. unhonne chinta se nishchint honne ke liye ek shaDyantr rach rakha tha—uski gupt hatya karne ke liye teen sahasi sipahiyon ko niyukt kar diya tha. ve tinon hinstr pashuon ki bhanti dabe paanv jangal ko paar karke aaye aur vrikshon ki aaD mein khaDe hokar sochne lage ki chinta ka svami kaunsa hai. sari sena bekhbar so rahi thi, isse unhen apne karya ki siddhi mein lesh maatr sandeh na tha. ve vrikshon ki aaD se nikle, aur zamin par magar ki tarah rengte hue chinta ke kheme ki or chale.
sari sena bekhbar soti thi, pahre ke sipahi thakkar choor ho jane ke karan nidra mein magn ho ge the. keval ek prani kheme ke pichhe mare thanD ke sikuDa hua baitha tha. ye ratnsinh tha. aaj usne ye koi nai baat na ki thi. pahaDon mein uski raten isi bhanti chinta ke kheme ke pichhe baithe baithe katti theen. ghatkon ki aahat pakar usne talvar nikal li, aur chaunkkar uth khaDa hua. dekha—tin adami jhuke hue chale aa rahe hain! ab kya kare? agar shor machata hai, to sena mein khalbali paD jaye, aur andhere mein log ek dusre par vaar karke aapas hi mein kat maren. idhar akele teen javanon se bhiDne mae pranon ka bhay. adhik sochne ka mauqa na tha. usmen yauddhaon ki, avilamb nishchay kar lene ki shakti thee; turant talvar kheench li, aur un tinon par toot paDa. kai minat tak talvaren chhapachhap chalti rahin. phir sannata ho gaya. udhar ve tinon aahat hokar gir paDe, idhar ye bhi zakhmon se choor hokar achet ho gaya.
pratःkal chinta uthi, to charon javanon ko bhumi par paDe paya. uska kaleja dhak se ho gaya. samip jakar dekha—tinon akramankariyon ke praan nikal chuke the; par ratnsinh ki saans chal rahi thi. sari ghatna samajh mein aa gai. naritv ne viratv par vijay pai. jin ankhon se pita ki mrityu par ansu ki ek boond bhi na giri thi, unhin ankhon se ansuon ki jhaDi lag gai. usne ratnsinh ka sir apni jaangh par rakh liya, aur hridyangan mae rache hue svyanvar mein uske gale mae jaymal Daal di.
chaar
mahine bhar na ratnsinh ki ankhen khulin, aur na chinta ki ankhen band huin. chinta uske paas se ek kshan ke liye bhi kahin na jati. na apne ilaqe ki parva thi, na shatruon ke baDhte chale aane ki fikr. ratnsinh par wo apni sari vibhutiyon ko balidan kar chuki thi. pura mahina beet jane ke baad ratnsinh ki ankh khuli. dekha—charpai par paDa hua hai, aur chinta samne pankha liye khaDi hai. ksheen svar mein bola—chinta, pankha mujhe de do, tumhein kasht ho raha hai.
chinta ka hriday is samay svarg ke akhanD, apar sukh ka anubhav kar raha tha. ek mahina pahle jis sheern sharir ke sirhane baithi hui wo nairashya se roya karti thi, use aaj bolte dekhkar uske ahlad ka paravar na tha usne sneh madhur svar mein kaha—prannath, yadi ye kasht hai, to sukh kya hai, main nahin janti. ‘prannath’—is sambodhan mein vilakshan mantr ki si shakti thee! ratnsinh ki ankhen chamak uthin. jeern mudra pradipt ho gai, nason mein ek naye jivan ka sanchar ho utha, aur wo jivan kitna sphurtimay tha, usmen kitna utsaah, kitna madhurya, kitna ullaas aur kitni karuna thee! ratnsinh ke ang ang phaDakne lage. use apni bhujaon mein alaukik parakram ka anubhav hone laga. aisa jaan paDa, mano wo sare sansar ko sar kar sakta hai, uDkar akash par pahunch sakta hai, parvton ko cheer sakta hai. ek kshan ke liye aisi tripti hui; manon uski sari abhilashayen puri ho gai hain, manon wo ab kisi se kuch nahin chahta. shayad shiv ko samne khaDe dekhkar bhi wo munh fer lega, koi vardan na mangega. use ab riddhi ko, kisi padarth ki ichchha na thi. use garv ho raha tha, manousse adhik sukhi, usse adhik bhagyashali purush sansar mein aur koi na hoga.
chinta abhi apna vakya pura na kar pai thi. usi prsang mein boli—han aapko mere karan alvatta dussah yatana bhogni paDi!
ratnsinh ne uthne ki cheshta kaha—bina tap ke siddhi nahin milti.
chinta ne ratnsinh ko komal hathon se litate hue kaha—is siddhi ke liye tumne tapasya nahin ki thi. jhuth kyon bolte ho? tum keval ek abla ki raksha kar rahe the. yadi meri jagah koi dusri stri hoti, to bhi itne hi praan pan se uski raksha karte. mujhe iska vishvas hai. main tumse satya kahti hoon, mainne ajivan brahmcharini rahne ka pran kar liya tha; lekin tumhare atmotsarg ne mere pran ko toD Dala; mera palan yoddhaon ki god mein hua hai; mere hrday usi purushsinh ke charnon par arpan ho sakta hai, jo pranon ki bazi khel sakta ho. rasikon ke haas vilas, gunDon ke roop rang or phekaito ke daanv ghaat ka meri drishti mein ratti bhar bhi mulya nahin. unki nat vidya ko main keval tamashe ki tarah dekhti hoon. tumhare hi hrday mein mainne sachcha utsarg paya, aur tuhari dasi ho gai—aj se nahin, bahut dinon se.
paanch
prnay ki pahli raat thi. charon or sannata tha! keval donon premiyon ke hradyon mein abhilashayen lahra rahi thi. charon or anuragamyi chandni chhitki hui thi aur uski hasyamyi chhata mein var aur vadhu premalap kar rahe the.
sahsa khabar aai ki shatruon ki ek sena qile ki or baDhi chali aati hai. chinta chaunk paDi; ratnsinh khaDa ho gaya, aur khunti se latakti hui talvar utaar li.
chinta ne uski or katar sneh ki drishti se dekhkar kaha—kuchh adamiyon ko udhar bhej do, tumhare jane ki kya zarurat hai?
ratnsinh ne banduq kandhe par rakhte hue kaha—mujhe bhay hai ki ab ki ve log baDi sankhya mein aa rahe hain.
chinta—to main bhi chalungi.
‘nahin, mujhe aasha hai, ve log thahar na sakenge! main ek hi ghave mein qadam ukhaaD dunga. ye iishvar ki ichchha hai ki hamari prnay ratri vijay ratri ho!
‘na jane kyon man katar ho raha hai. jane dene ko ji nahin chahta!’
ratnsinh ne is saral, anurakt agrah se vihval hokar chinta ko gale laga liya aur bole—main sabere tak laut auunga, priye!
chinta pati ke gale mein haath Dalkar ankhon mein ansu bhare hue boli—mujhe bhay hai, tum bahut dinon mein lautoge. mera man tumhare saath rahega. jao, par roz khabar bhejte rahna. tumhare pairon paDti hoon, avsar ka vichar karke dhava karna. tumhari aadat hai ki shatru ko dekhte hi aakul ho jate ho, aur jaan par khelkar toot paDte ho. tumse mera yahi anurodh hai ki avsar dekhkar kaam karna. jao, jis tarah peeth dikhate ho, usi tarah munh bhi dikhao.
chinta ka hrday katar ho raha tha, vahan pahle keval vijay lalsa ka adhipatya tha, ab bhog lalsa ki pradhanta thi. vahi veer bala, jo sinhni ki tarah garajkar shatruon le kaleje kanpa deti thi, aaj itni durbal ho rahi thi ki jab ratnsinh ghoDe par savar hua, to aap uski kushal kamna se man hi man devi ko manautiyan kar rahi thi. jab tak wo vrikshon ki ot mein chhip na gaya, wo khaDi use dekhti rahi. phir qile ke sab se uunche burj par chaDh gai aur ghanton usi taraf takti rahi. vahan shunya tha, pahaDiyon ne kabhi ratnsinh ko apni ot mein chhipa liya tha; par chinta ko aisa jaan paDta tha ki wo samne chale aa rahe hain. jab uusha ki lohit chhavi vrikshon ki aaD se jhankne lagi to uski moh vismriti toot gai. malum hua, charon taraf shunya hai. wo roti hui burj se utri, aur shayya mein munh Dhanpakar rone lagi.
chhah
ratnsinh ke saath mushkil se sau adami the; kintu sabhi manje hue, avsar aur sankhya ko tuchchh samajhne vale, apni jaan ke dushman! virollas se bhare hue ek veer ras poorn pad gate hue ghoDon ko baDhaye chale jate the—
banki teri paag sipahi, iski rakhna laaj.
teg tabar kuch kaam na aave, bakhtar Dhaal vyarth ho jave.
rakhiyo man mein laag, sipahi banki teri paag.
iski rakhna laaj.
pahaDiyan in veer svron se goonj rahi theen. ghoDon ki taap taal de rahi thi. yahan tak ki raat beet gai, surya ne apni laal ankhen khol deen aur in viron par apni svarnachchhta ki varsha karne laga.
vahin, raktmay parkash mein shatruon ki sena ek pahaDi par paDav Dale hue nazar aai.
ratnsinh sir jhukaye, viyog vyathit hriday ko dabaye, mand gati se pichhe pichhe chala jata tha. qadam aage baDhta tha; par man pichhe hatta tha. aaj jivan mein pahli baar dushchintaon ne use ashankit kar rakha tha. kaun janta hai, laDai ka ant kya hoga! jis svarg sukh ko chhoDkar wo aaya tha, uski smritiyan rah rahkar uske hriday ko masos rahi theen. chinta ki sajal ankhen yaad aati theen aur ji chahta tha, ghoDe ki raas pichhe moD den. prtikshan ranotsah ksheen hota jata tha, sahsa ek sardar ne samip aakar kaha—bhaiya, wo dekho, uunchi pahaDi par shatru Dere Dale paDa hain. tumhari ab kya raay hai? hamari to ye ichchha hai ki turant un par dhava kar den. ghafil paDe hue hain, bhaag khaDe honge. der karne se ve bhi sanbhal jayenge aur tab mamla nazuk ho jayega. ek hazar se kam na honge.
ratnsinh ne chintit netron se shatru dal ki or dekhkar kaha—han, malum to hota hai.
sipahi—to dhava kar diya jaye na?
ratnsinh—jaisi tumhari ichchha. sankhya adhik hai, ye soch lo.
sipahi—iski parvah nahin. hum isse baDi senaon ko parast kar chuke hain.
ratnsinh—yah sach hai; par aag mein kudna theek nahin.
sipahi—bhaiya, tum kahte kya ho? sipahi ka to jivan hi aag mein kudne ke liye hai. tumhare hukm ki der hai, phir hamara jivat dekhana.
ratnsinh—abhi hum log bahut thake hue hain. zara vishram kar lena achchha hai.
sipahi—nahin bhaiya, un sabon ko hamari aahat mil gai, to ghazab ho jayega.
ratn—to phir dhava hi kar do.
ek kshan mein yoddhaon ne ghoDon ki bagen utha deen, aur astra sanbhale hue shatru sena par lapke; kintu pahaDi par pahunchte hi in logon ne unke vishay mein jo anuman kiya tha, wo mithya tha. wo sajag hi na the, svayan qile par dhava karne ki taiyariyan bhi kar rahe the. in logon ne jab unhen samne aate dekha, to samajh ge ki bhool hui; lekin ab samna karne ke siva chara hi kya tha. phir bhi ve nirash na the. ratnsinh jaise kushal yoddha ke saath inhen koi shanka na thi. wo isse bhi kathin avasron par apne ran kaushal se vijay laabh kar chuka tha. kya aaj wo apna jauhar na dikhayega? sari ankhen ratnsinh ko khoj rahi theen; par uska vahan kahin pata na tha. kahan chala gaya? ye koi na janta tha.
par wo kahin nahin ja sakta. apne sathiyon ko is kathin avastha mein chhoDkar wo kahin nahin ja sakta—sambhav nahin, avashya hi wo yahin hai, aur hari hui bazi ko jitane ki koi yukti soch raha hai.
ek kshan mein shatru inke samne aa pahunche. itni bahusankhyak sena ke samne ye mutthi bhar adami kya kar sakte the. charon or se ratnsinh ki pukar hone lagi—bhaiya, tum kahan ho? hamein kya hukm dete ho? dekhte ho, ve log samne aa pahunche; par tum abhi tak maun khaDe ho. samne aakar hamein maarg dikhao, hamara utsaah baDhao!
par ab bhi ratnsinh na dikhai diya. yahan tak ki shatru dal sir par aa pahuncha, aur donon dalon mein talvaren chalne lagin. bundelon ne praan hatheli par lekar laDna shuru kiya; par ek ko ek bahut hota hai; ek aur das ka muqabala hi kyaa? ye laDai na thi, pranon ka jua tha. bundelon mein nirasha ka alaukik bal tha. khoob laDe; par kya majal ki qadam pichhe haten. unmen ab zara bhi sangthan na tha. jisse jitna aage baDhte bana, baDha. ant kya hoga, iski kisi ko chinta na thi. koi to shatruon ki safen chirta hua senapati ke samip pahunch gaya, koi unke hathi par chaDhne ki cheshta karte mara gaya. unka amanushik sahas dekh kar shatruon ke munh se bhi vaah vaah nikalti thee; lekin aise yoddhaon ne naam paya hai, vijay nahin pai. ek ghante mein rangmanch ka parda gir gaya, tamasha khatm ho gaya. ek andhi thi, jo aai aur vrikshon ko ukhaDti hui chali gai. sangthit rahkar ye mutthi bhar adami dushmnon ke daant khatte kar dete, par jis par sangthan ka bhaar tha, uska kahin pata na tha. vijyi marahthon ne ek ek laash dhyaan se dekhi. ratnsinh unki ankhon mein khatakta tha. usi par unke daant lage the. ratnsinh ke jite ji unhen neend na aati thi. logon ne pahaDi ki ek ek chattan ka manthan kar Dala; par ratn na haath aaya. vijay hui; par adhuri.
saat
chinta ke hriday mein aaj na jane kyon bhanti bhanti ki shankayen uth rahi theen. wo kabhi itni durbal na thi. bundelon ki haar hi kyon hogi, iska koi karan to wo na bata sakti thee; par wo bhavna uske vikal hriday se kisi tarah na nikalti thi. us abhagin ke bhagya mein prem ka sukh bhogna likha hota, to kya bachpan hi mein maan mar jati, pita ke saath van van ghumna paDta, khohon aur kandraon mein rahna paDta! aur wo ashray bhi to bahut din na raha. pita bhi munh moDkar chal diye. tab se use ek din bhi to aram se baithna nasib na hua. vidhna kya ab apna kroor kautuk chhoD dega? aah! uske durbal hriday mein is samay ek vichitr bhavna utpann hui—
iishvar uske priytam ko aaj sakushal laye, to wo use lekar kisi door ke gaanv mein ja basegi, pati dev ki seva aur aradhana mein jivan saphal karegi. is sangram se sada ke liye munh moD legi. aaj pahli baar naritv ka bhaav uske man mein jagrat hua.
sandhya ho gai thi, surya bhagvan kisi hare hue sipahi ki bhanti mastak jhukate koi aaD khoj rahe the. sahsa ek sipahi nange sir, paanv, nishshastr uske samne aakar khaDa ho gaya. chinta par vajrapat ho gaya. ek kshan tak marmahat si baithi rahi. phir uthkar ghabrai hui sainik ke paas aai, aur aatur svar mein puchha—kaun kaun bacha?
sainik ne kaha—koi nahin!
‘koi nahin! koi nahin!!’
chinta sir pakaDkar bhumi par baith gai. sainik ne phir kaha—marahthe samip aa pahunche.
‘samip aa pahunche!!’
‘bahut samip!’
‘to turant chita taiyar karo. samay nahin hai. ’
‘abhi hum log to sir katane ko hazir hi hain. ’
‘tumhari jaisi ichchhaa! mere kartavya ka to yahi ant hai. ’
‘qila band karke hum mahinon laD sakte hain. ’
“to aakar laDo. meri laDai ab kisi se nahin. ’
ek or andhkar parkash ko pairon tale kuchalta chala aata tha, dusri or vijyi marahthe lahrate hue kheton ko; aur qile mein chita ban rahi thi. jyon hi dipak jale, chita mein bhi aag lagi. sati chinta, solho shringar kiye, anupam chhavi dikhati hui, prasann mukh agni maarg se patilok ki yatra karne ja rahi thi.
aath
chita ke charon or stri aur purush jama the. shatruon ne qile ko gher liya hai, iski kisi ko fikr na thi. shok aur santosh se sabke chehre udaas aur sir jhuke hue the. abhi kal isi angan mein vivah ka manDap sajaya gaya tha. jahan is samay chita sulag rahi hai, vahin kal havan kunD tha. kal bhi isi bhanti agni ki lapten uth rahi theen, isi bhanti log jama the; par aaj aur kal ke drishyon mein kitna antar hai! haan, sthool netron ke liye antar ho sakta hai; par vastav mein ye usi yagya ki purnahuti hai, usi prtigya ka palan hai.
sahsa ghoDe ki tapon ki avazen sunai dene lagin. malum hota tha, koi sipahi ghoDe ko sarpat bhagata chala aa raha hai. ek kshan mein tapon ki avaz band ho gai, aur ek sainik angan mein dauDa hua aa pahuncha. logon ne chakit hokar dekha, ye ratnsinh tha!
ratnsinh chita ke paas jakar hanfata hua bola—priye, main to abhi jivit hoon, ye tumne kya kar Dala?
chita mein aag lag chuki thi. chinta ki saDi se agni ki jvala nikal rahi thi. ratnsinh unmatt ki bhanti chita mein ghus gaya, aur chinta ka haath pakaDkar uthane laga. logon ne charon or se lapak lapakkar chita ki lakDiyan hatani shuru keen; par chinta ne pati ki or ankh uthakar bhi na dekha, keval hathon se use hat jane ka sanket kiya.
ratnsinh sir pitkar bola—hay priye! tumhein kya ho gaya hai? meri or dekhti kyon nahin? main to jivit hoon.
chita se avaz ai—tumhara naam ratnsinh hai; par tum mere ratnsinh nahin ho.
‘tum meri taraf dekho to, main hi tumhara daas, tumhara upasak, tumhara pati hoon. ’
‘mere pati ne veer gati pai. ’
‘haay, kaise samjhaun! are logo, kisi bhanti agni shaant karo. main ratnsinh hi hoon, priye! kya tum mujhe pahchanti nahin ho?’
agni shikha chinta ke mukh tak pahunch gai. agni mein kamal khil gaya. chinta aspasht svar mein boli—khub pahchanti hoon. tum mere ratnsinh nahin. mera ratnsinh sachcha shoor tha. wo atmaraksha ke liye, is tuchchh deh ko bachane ke liye, apne kshatriy dharm ka parityag na kar sakta tha. main jis purush ke charnon ki dasi bani thi, wo devlok mein virajman hai. ratnsinh ko badnam mat karo. wo veer rajput tha, ranakshetr se bhagnevala kayar nahin!
antim shabd nikle hi the ki agni ki jvala chinta ke sir ke uupar ja pahunchi. phir ek kshan mein wo anupam roop rashi, wo adarsh virata ki upasika, wo sachchi sati agni rashi mein vilin ho gai.
ratnsinh chupchap, hatbuddhi sa khaDa ye shokmay drishya dekhta raha. phir achanak ek thanDi saans khinchkar usi chita mein kood paDa.
ek
do shatabdiyon se adhik beet ge hain; par chinta devi ka naam chala aata hai. bundelkhanD ke ek bihaD sthaan mein aaj bhi mangalvar ko sahastron stri purush chinta devi ki puja karne aate hain. us din ye nirjan sthaan sohane giton se goonj uthta hai. tile aur tokre ramaniyon ke rango birange vastron se sushobhit ho jate hain. devi ka mandir ek bahut uunche tile par bana hua hai. uske kalash par lahrati hui laal pataka bahut door se dikhai deti hai. mandir itna chhota hai ki usmen mushkil se ek saath do adami sama sakte hain. bhitar koi pratima nahin hai, keval ek chhoti si vedi bani hui hai. niche se mandir tak patthar ka zina hai. bheeD bhaaD mein dhakka khakar koi niche na gir paDe isliye zine ke donon taraf divar bani hui hai. yahin chinta devi sati hui theen; par lokariti ke anusar wo apne mrit pati ke saath, chita par nahin baithi theen. unka pati haath joDe samne khaDa tha; par wo uski or ankh uthakar bhi na dekhti theen. wo pati ke sharir ke saath nahin, uski aatma ke saath sati hui. us chita par pati ka sharir na tha, uski maryada bhasmibhut ho rahi thi.
do
yamuna tat kalpi ek chhota sa sagar hai. chinta usi nagar ke ek veer bundele ki kanya thi. uski mata uski balyavastha mein hi parlok sidhar chuki theen. uske palan poshan ka bhaar pita par paDa. wo sangram ka samay tha, yoddhaon ko kamar kholne ki bhi fursat na milti thi, ve ghoDon ki peeth par bhojan karte aur zine hi par jhapkiyan le lete the. chinta ka balyakal pita ke saath samar bhumi mein kata. baap use kisi khoh ya vriksh ki aaD mein chhipakar maidan mein chala jata. chinta nishshank bhaav se baithi hui mitti ke qile banati aur bigaDti. uske gharaunde qile hote the; uski guDiyan oDhni na oDhti theen. wo sipahiyon ke guDDe banati aur unhen ran kshetr mein khaDa karti thi. kabhi kabhi uska pita sandhya samay bhi na lautta; par chinta ko bhay chhu tak na gaya tha. nirjan sthaan mein bhukhi pyasi raat raat bhar baithi rah jati. usne nevale aur siyar ki kahaniyan kabhi na suni thi. viron ke atmotsarg ki kahaniyan, aur wo bhi yoddhaon ke munh se, sun sunkar wo adarshvadini ban gai thi.
ek baar teen din tak chinta ko apne pita ki khabar na mili. wo ek pahaD ki khoh mein baithi man hi man ek aisa qila bana rahin thi, jise shatru kisi bhanti jaan na sake. dinbhar wo usi qile ka naqsha sochti aur raat ko usi qile ka svapn dekhti. tisre din sandhya samay uske pita ke kai sathiyon ne aakar uske samne rona shuru kiya. chinta ne vismit hokar puchha—dada ji kahan hain? tum log kyon rote ho?
kisi ne iska uttar na diya. ve zor se dhaDe maar maar kar rone lage. chinta samajh gai ki uske pita ne veer gati pai. use terah varsh ki balika ki ankhon se ansu ki ek boond bhi na giri, mukh zara bhi malin na hua, ek aah bhi na nikli. hansakar boli—agar unhonne veer gati pai to tum log rote kyon ho? yoddhaon ke liye isse baDhkar aur kaun si mrityu ho sakti hai, isse baDhkar unki virata ka aur kya puraskar mil sakta hai? ye rone ka nahin anand manane ka avsar hai.
ek sipahi ne chintit svar mein kaha—hamen tumhari chinta hai. tum ab kahan rahogi?
chinta ne gambhirta se kaha—iski tum kuch chinta na karo, dada! main apne baap ki beti hoon. jo kuch unhonne kiya, vahi main bhi karungi. apni matri bhumi ka shatruon ke panje se chhuDane mein unhonne praan de diye. mere samne bhi vahi adarsh hai. jakar apne adamiyon ko sanbhaliye. mere liye ek ghoDa aur hathiyaron ka prbandh kar dijiye. iishvar ne chaha, to aap log mujhe kisi se pichhe na payenge; lekin yadi mujhe pichhe hatte dekhana, to talvar ke ek haath se is jivan ka ant kar dena. yahi meri aapse vinay hai. jaiye, ab vilamb na kijiye.
sipahiyon ko chinta ke ye veer vachan sunkar kuch bhi ashcharya nahin hua. haan, unhen ye sandeh avashya hua ki kya ye komal balika apne sankalp par driDh rah sakegi?
teen
paanch varsh beet ge. samast praant mein chinta devi ki dhaak baith gai. shatruon ke qadam ukhaD ge wo vijay ki sajiv murti thi, use tiron aur goliyon ke samne nishshank khaDe dekhkar sipahiyon ko uttejna milti rahti thi. uske samne ve kaise qadam pichhe hatate? jab komlangi yuvati aage baDhe, to kaun purush qadam pichhe hatayega? sundariyon ke sammukh yoddhayon ki virata ajey ho jati hai. ramni ke vachan baan yoddhaon ke liye aatm samarpan ke gupt sandesh hain, uski ek hi chitvan kayron mein bhi purushatv prvahit kar sakti hai. chinta ki chhavi kirti ne manchale surmaon ko charon or se kheench khinchkar uski sena mein saja diya—jan par khelne vale bhaunre charon or se aa aakar is phool par manDrane lage.
inhin yoddhaon mein ratnsinh naam ka ek yuvak rajput bhi tha.
yon to chinta ke sainikon mein sabhi talvar ke dhani the; baat par jaan denevale, uske sharir par aag mein kudne vale, uski aagya pakar ek baar akash ke tare toD lane ko bhi chal paDte; kintu ratnsinh sabse baDha hua tha. chinta hrday mein usse prem karti thi. ratnsinh anya viron ki bhanti akkhaD, munhaphat ya ghamanDi na tha. aur log apni apni kirti ko khoob baDha baDhakar byaan karte. aatm prshansa karte hue unki zaban na rukti thi. ve jo kuch karte chinta ko dikhane ke liye. unka dhyey apna kartavya na tha, chinta thi. ratnsinh jo kuch karta, shaant bhaav se. apni pranshsa karna to door raha, wo chahe koi sher hi kyon na maar aaye, uski charcha tak na karta. uski vinayshilata aur namrata, sankoch ki sima se bhi baDh gai thi. auron ke prem mein vilas tha; par ratnsinh ke prem mein tyaag aur tap. aur log mithi neend sote the; par ratnsinh tare gin ginkar raat katta tha aur sab apne dil mein samajhte the ki chinta meri hogi—keval ratnsinh nirash tha, aur isliye use kisi se na dvesh tha, na raag. auron ko chinta ke samne chahakte dekhkar use unki vakpatuta par ashcharya hota, prtikshan uska nirashandhkar aur bhi ghana ho hota jata tha. kabhi kabhi va apne bodepan par jhunjhla uthta—kyon iishvar ne use un gunon se vanchit rakha, jo ramaniyon ke chitt ko mohit karte hain? use kaun puchhega? uski manovyatha ko kaun janta hai? par wo man mein jhunjhlakar rah jata tha. dikhave ki usmen samarthya hi na thi.
aadhi raat se adhik raat beet chuki thi. chinta apne kheme mein vishram kar rahi thi sainikgan bhi kaDi manzil marne ke baad kuch kha pikar ghafil paDe hue the. aage ek ghana jangal tha. jangal ke us paar shatruon ka ek dal Dera Dale paDa tha. chinta uske aane ki khabar pakar bhagabhag chali aa rahi thi. usne pratahkal shatruon par dhava karne ka nishchay kar liya tha. use vishvas tha ki shatruon ko mere aane ki khabar na hogi; kintu ye uska bhram tha. usi ki sena ka ek adami shatruon se mila hua tha. yahan ki khabren vahan nitya pahunchti rahti theen. unhonne chinta se nishchint honne ke liye ek shaDyantr rach rakha tha—uski gupt hatya karne ke liye teen sahasi sipahiyon ko niyukt kar diya tha. ve tinon hinstr pashuon ki bhanti dabe paanv jangal ko paar karke aaye aur vrikshon ki aaD mein khaDe hokar sochne lage ki chinta ka svami kaunsa hai. sari sena bekhbar so rahi thi, isse unhen apne karya ki siddhi mein lesh maatr sandeh na tha. ve vrikshon ki aaD se nikle, aur zamin par magar ki tarah rengte hue chinta ke kheme ki or chale.
sari sena bekhbar soti thi, pahre ke sipahi thakkar choor ho jane ke karan nidra mein magn ho ge the. keval ek prani kheme ke pichhe mare thanD ke sikuDa hua baitha tha. ye ratnsinh tha. aaj usne ye koi nai baat na ki thi. pahaDon mein uski raten isi bhanti chinta ke kheme ke pichhe baithe baithe katti theen. ghatkon ki aahat pakar usne talvar nikal li, aur chaunkkar uth khaDa hua. dekha—tin adami jhuke hue chale aa rahe hain! ab kya kare? agar shor machata hai, to sena mein khalbali paD jaye, aur andhere mein log ek dusre par vaar karke aapas hi mein kat maren. idhar akele teen javanon se bhiDne mae pranon ka bhay. adhik sochne ka mauqa na tha. usmen yauddhaon ki, avilamb nishchay kar lene ki shakti thee; turant talvar kheench li, aur un tinon par toot paDa. kai minat tak talvaren chhapachhap chalti rahin. phir sannata ho gaya. udhar ve tinon aahat hokar gir paDe, idhar ye bhi zakhmon se choor hokar achet ho gaya.
pratःkal chinta uthi, to charon javanon ko bhumi par paDe paya. uska kaleja dhak se ho gaya. samip jakar dekha—tinon akramankariyon ke praan nikal chuke the; par ratnsinh ki saans chal rahi thi. sari ghatna samajh mein aa gai. naritv ne viratv par vijay pai. jin ankhon se pita ki mrityu par ansu ki ek boond bhi na giri thi, unhin ankhon se ansuon ki jhaDi lag gai. usne ratnsinh ka sir apni jaangh par rakh liya, aur hridyangan mae rache hue svyanvar mein uske gale mae jaymal Daal di.
chaar
mahine bhar na ratnsinh ki ankhen khulin, aur na chinta ki ankhen band huin. chinta uske paas se ek kshan ke liye bhi kahin na jati. na apne ilaqe ki parva thi, na shatruon ke baDhte chale aane ki fikr. ratnsinh par wo apni sari vibhutiyon ko balidan kar chuki thi. pura mahina beet jane ke baad ratnsinh ki ankh khuli. dekha—charpai par paDa hua hai, aur chinta samne pankha liye khaDi hai. ksheen svar mein bola—chinta, pankha mujhe de do, tumhein kasht ho raha hai.
chinta ka hriday is samay svarg ke akhanD, apar sukh ka anubhav kar raha tha. ek mahina pahle jis sheern sharir ke sirhane baithi hui wo nairashya se roya karti thi, use aaj bolte dekhkar uske ahlad ka paravar na tha usne sneh madhur svar mein kaha—prannath, yadi ye kasht hai, to sukh kya hai, main nahin janti. ‘prannath’—is sambodhan mein vilakshan mantr ki si shakti thee! ratnsinh ki ankhen chamak uthin. jeern mudra pradipt ho gai, nason mein ek naye jivan ka sanchar ho utha, aur wo jivan kitna sphurtimay tha, usmen kitna utsaah, kitna madhurya, kitna ullaas aur kitni karuna thee! ratnsinh ke ang ang phaDakne lage. use apni bhujaon mein alaukik parakram ka anubhav hone laga. aisa jaan paDa, mano wo sare sansar ko sar kar sakta hai, uDkar akash par pahunch sakta hai, parvton ko cheer sakta hai. ek kshan ke liye aisi tripti hui; manon uski sari abhilashayen puri ho gai hain, manon wo ab kisi se kuch nahin chahta. shayad shiv ko samne khaDe dekhkar bhi wo munh fer lega, koi vardan na mangega. use ab riddhi ko, kisi padarth ki ichchha na thi. use garv ho raha tha, manousse adhik sukhi, usse adhik bhagyashali purush sansar mein aur koi na hoga.
chinta abhi apna vakya pura na kar pai thi. usi prsang mein boli—han aapko mere karan alvatta dussah yatana bhogni paDi!
ratnsinh ne uthne ki cheshta kaha—bina tap ke siddhi nahin milti.
chinta ne ratnsinh ko komal hathon se litate hue kaha—is siddhi ke liye tumne tapasya nahin ki thi. jhuth kyon bolte ho? tum keval ek abla ki raksha kar rahe the. yadi meri jagah koi dusri stri hoti, to bhi itne hi praan pan se uski raksha karte. mujhe iska vishvas hai. main tumse satya kahti hoon, mainne ajivan brahmcharini rahne ka pran kar liya tha; lekin tumhare atmotsarg ne mere pran ko toD Dala; mera palan yoddhaon ki god mein hua hai; mere hrday usi purushsinh ke charnon par arpan ho sakta hai, jo pranon ki bazi khel sakta ho. rasikon ke haas vilas, gunDon ke roop rang or phekaito ke daanv ghaat ka meri drishti mein ratti bhar bhi mulya nahin. unki nat vidya ko main keval tamashe ki tarah dekhti hoon. tumhare hi hrday mein mainne sachcha utsarg paya, aur tuhari dasi ho gai—aj se nahin, bahut dinon se.
paanch
prnay ki pahli raat thi. charon or sannata tha! keval donon premiyon ke hradyon mein abhilashayen lahra rahi thi. charon or anuragamyi chandni chhitki hui thi aur uski hasyamyi chhata mein var aur vadhu premalap kar rahe the.
sahsa khabar aai ki shatruon ki ek sena qile ki or baDhi chali aati hai. chinta chaunk paDi; ratnsinh khaDa ho gaya, aur khunti se latakti hui talvar utaar li.
chinta ne uski or katar sneh ki drishti se dekhkar kaha—kuchh adamiyon ko udhar bhej do, tumhare jane ki kya zarurat hai?
ratnsinh ne banduq kandhe par rakhte hue kaha—mujhe bhay hai ki ab ki ve log baDi sankhya mein aa rahe hain.
chinta—to main bhi chalungi.
‘nahin, mujhe aasha hai, ve log thahar na sakenge! main ek hi ghave mein qadam ukhaaD dunga. ye iishvar ki ichchha hai ki hamari prnay ratri vijay ratri ho!
‘na jane kyon man katar ho raha hai. jane dene ko ji nahin chahta!’
ratnsinh ne is saral, anurakt agrah se vihval hokar chinta ko gale laga liya aur bole—main sabere tak laut auunga, priye!
chinta pati ke gale mein haath Dalkar ankhon mein ansu bhare hue boli—mujhe bhay hai, tum bahut dinon mein lautoge. mera man tumhare saath rahega. jao, par roz khabar bhejte rahna. tumhare pairon paDti hoon, avsar ka vichar karke dhava karna. tumhari aadat hai ki shatru ko dekhte hi aakul ho jate ho, aur jaan par khelkar toot paDte ho. tumse mera yahi anurodh hai ki avsar dekhkar kaam karna. jao, jis tarah peeth dikhate ho, usi tarah munh bhi dikhao.
chinta ka hrday katar ho raha tha, vahan pahle keval vijay lalsa ka adhipatya tha, ab bhog lalsa ki pradhanta thi. vahi veer bala, jo sinhni ki tarah garajkar shatruon le kaleje kanpa deti thi, aaj itni durbal ho rahi thi ki jab ratnsinh ghoDe par savar hua, to aap uski kushal kamna se man hi man devi ko manautiyan kar rahi thi. jab tak wo vrikshon ki ot mein chhip na gaya, wo khaDi use dekhti rahi. phir qile ke sab se uunche burj par chaDh gai aur ghanton usi taraf takti rahi. vahan shunya tha, pahaDiyon ne kabhi ratnsinh ko apni ot mein chhipa liya tha; par chinta ko aisa jaan paDta tha ki wo samne chale aa rahe hain. jab uusha ki lohit chhavi vrikshon ki aaD se jhankne lagi to uski moh vismriti toot gai. malum hua, charon taraf shunya hai. wo roti hui burj se utri, aur shayya mein munh Dhanpakar rone lagi.
chhah
ratnsinh ke saath mushkil se sau adami the; kintu sabhi manje hue, avsar aur sankhya ko tuchchh samajhne vale, apni jaan ke dushman! virollas se bhare hue ek veer ras poorn pad gate hue ghoDon ko baDhaye chale jate the—
banki teri paag sipahi, iski rakhna laaj.
teg tabar kuch kaam na aave, bakhtar Dhaal vyarth ho jave.
rakhiyo man mein laag, sipahi banki teri paag.
iski rakhna laaj.
pahaDiyan in veer svron se goonj rahi theen. ghoDon ki taap taal de rahi thi. yahan tak ki raat beet gai, surya ne apni laal ankhen khol deen aur in viron par apni svarnachchhta ki varsha karne laga.
vahin, raktmay parkash mein shatruon ki sena ek pahaDi par paDav Dale hue nazar aai.
ratnsinh sir jhukaye, viyog vyathit hriday ko dabaye, mand gati se pichhe pichhe chala jata tha. qadam aage baDhta tha; par man pichhe hatta tha. aaj jivan mein pahli baar dushchintaon ne use ashankit kar rakha tha. kaun janta hai, laDai ka ant kya hoga! jis svarg sukh ko chhoDkar wo aaya tha, uski smritiyan rah rahkar uske hriday ko masos rahi theen. chinta ki sajal ankhen yaad aati theen aur ji chahta tha, ghoDe ki raas pichhe moD den. prtikshan ranotsah ksheen hota jata tha, sahsa ek sardar ne samip aakar kaha—bhaiya, wo dekho, uunchi pahaDi par shatru Dere Dale paDa hain. tumhari ab kya raay hai? hamari to ye ichchha hai ki turant un par dhava kar den. ghafil paDe hue hain, bhaag khaDe honge. der karne se ve bhi sanbhal jayenge aur tab mamla nazuk ho jayega. ek hazar se kam na honge.
ratnsinh ne chintit netron se shatru dal ki or dekhkar kaha—han, malum to hota hai.
sipahi—to dhava kar diya jaye na?
ratnsinh—jaisi tumhari ichchha. sankhya adhik hai, ye soch lo.
sipahi—iski parvah nahin. hum isse baDi senaon ko parast kar chuke hain.
ratnsinh—yah sach hai; par aag mein kudna theek nahin.
sipahi—bhaiya, tum kahte kya ho? sipahi ka to jivan hi aag mein kudne ke liye hai. tumhare hukm ki der hai, phir hamara jivat dekhana.
ratnsinh—abhi hum log bahut thake hue hain. zara vishram kar lena achchha hai.
sipahi—nahin bhaiya, un sabon ko hamari aahat mil gai, to ghazab ho jayega.
ratn—to phir dhava hi kar do.
ek kshan mein yoddhaon ne ghoDon ki bagen utha deen, aur astra sanbhale hue shatru sena par lapke; kintu pahaDi par pahunchte hi in logon ne unke vishay mein jo anuman kiya tha, wo mithya tha. wo sajag hi na the, svayan qile par dhava karne ki taiyariyan bhi kar rahe the. in logon ne jab unhen samne aate dekha, to samajh ge ki bhool hui; lekin ab samna karne ke siva chara hi kya tha. phir bhi ve nirash na the. ratnsinh jaise kushal yoddha ke saath inhen koi shanka na thi. wo isse bhi kathin avasron par apne ran kaushal se vijay laabh kar chuka tha. kya aaj wo apna jauhar na dikhayega? sari ankhen ratnsinh ko khoj rahi theen; par uska vahan kahin pata na tha. kahan chala gaya? ye koi na janta tha.
par wo kahin nahin ja sakta. apne sathiyon ko is kathin avastha mein chhoDkar wo kahin nahin ja sakta—sambhav nahin, avashya hi wo yahin hai, aur hari hui bazi ko jitane ki koi yukti soch raha hai.
ek kshan mein shatru inke samne aa pahunche. itni bahusankhyak sena ke samne ye mutthi bhar adami kya kar sakte the. charon or se ratnsinh ki pukar hone lagi—bhaiya, tum kahan ho? hamein kya hukm dete ho? dekhte ho, ve log samne aa pahunche; par tum abhi tak maun khaDe ho. samne aakar hamein maarg dikhao, hamara utsaah baDhao!
par ab bhi ratnsinh na dikhai diya. yahan tak ki shatru dal sir par aa pahuncha, aur donon dalon mein talvaren chalne lagin. bundelon ne praan hatheli par lekar laDna shuru kiya; par ek ko ek bahut hota hai; ek aur das ka muqabala hi kyaa? ye laDai na thi, pranon ka jua tha. bundelon mein nirasha ka alaukik bal tha. khoob laDe; par kya majal ki qadam pichhe haten. unmen ab zara bhi sangthan na tha. jisse jitna aage baDhte bana, baDha. ant kya hoga, iski kisi ko chinta na thi. koi to shatruon ki safen chirta hua senapati ke samip pahunch gaya, koi unke hathi par chaDhne ki cheshta karte mara gaya. unka amanushik sahas dekh kar shatruon ke munh se bhi vaah vaah nikalti thee; lekin aise yoddhaon ne naam paya hai, vijay nahin pai. ek ghante mein rangmanch ka parda gir gaya, tamasha khatm ho gaya. ek andhi thi, jo aai aur vrikshon ko ukhaDti hui chali gai. sangthit rahkar ye mutthi bhar adami dushmnon ke daant khatte kar dete, par jis par sangthan ka bhaar tha, uska kahin pata na tha. vijyi marahthon ne ek ek laash dhyaan se dekhi. ratnsinh unki ankhon mein khatakta tha. usi par unke daant lage the. ratnsinh ke jite ji unhen neend na aati thi. logon ne pahaDi ki ek ek chattan ka manthan kar Dala; par ratn na haath aaya. vijay hui; par adhuri.
saat
chinta ke hriday mein aaj na jane kyon bhanti bhanti ki shankayen uth rahi theen. wo kabhi itni durbal na thi. bundelon ki haar hi kyon hogi, iska koi karan to wo na bata sakti thee; par wo bhavna uske vikal hriday se kisi tarah na nikalti thi. us abhagin ke bhagya mein prem ka sukh bhogna likha hota, to kya bachpan hi mein maan mar jati, pita ke saath van van ghumna paDta, khohon aur kandraon mein rahna paDta! aur wo ashray bhi to bahut din na raha. pita bhi munh moDkar chal diye. tab se use ek din bhi to aram se baithna nasib na hua. vidhna kya ab apna kroor kautuk chhoD dega? aah! uske durbal hriday mein is samay ek vichitr bhavna utpann hui—
iishvar uske priytam ko aaj sakushal laye, to wo use lekar kisi door ke gaanv mein ja basegi, pati dev ki seva aur aradhana mein jivan saphal karegi. is sangram se sada ke liye munh moD legi. aaj pahli baar naritv ka bhaav uske man mein jagrat hua.
sandhya ho gai thi, surya bhagvan kisi hare hue sipahi ki bhanti mastak jhukate koi aaD khoj rahe the. sahsa ek sipahi nange sir, paanv, nishshastr uske samne aakar khaDa ho gaya. chinta par vajrapat ho gaya. ek kshan tak marmahat si baithi rahi. phir uthkar ghabrai hui sainik ke paas aai, aur aatur svar mein puchha—kaun kaun bacha?
sainik ne kaha—koi nahin!
‘koi nahin! koi nahin!!’
chinta sir pakaDkar bhumi par baith gai. sainik ne phir kaha—marahthe samip aa pahunche.
‘samip aa pahunche!!’
‘bahut samip!’
‘to turant chita taiyar karo. samay nahin hai. ’
‘abhi hum log to sir katane ko hazir hi hain. ’
‘tumhari jaisi ichchhaa! mere kartavya ka to yahi ant hai. ’
‘qila band karke hum mahinon laD sakte hain. ’
“to aakar laDo. meri laDai ab kisi se nahin. ’
ek or andhkar parkash ko pairon tale kuchalta chala aata tha, dusri or vijyi marahthe lahrate hue kheton ko; aur qile mein chita ban rahi thi. jyon hi dipak jale, chita mein bhi aag lagi. sati chinta, solho shringar kiye, anupam chhavi dikhati hui, prasann mukh agni maarg se patilok ki yatra karne ja rahi thi.
aath
chita ke charon or stri aur purush jama the. shatruon ne qile ko gher liya hai, iski kisi ko fikr na thi. shok aur santosh se sabke chehre udaas aur sir jhuke hue the. abhi kal isi angan mein vivah ka manDap sajaya gaya tha. jahan is samay chita sulag rahi hai, vahin kal havan kunD tha. kal bhi isi bhanti agni ki lapten uth rahi theen, isi bhanti log jama the; par aaj aur kal ke drishyon mein kitna antar hai! haan, sthool netron ke liye antar ho sakta hai; par vastav mein ye usi yagya ki purnahuti hai, usi prtigya ka palan hai.
sahsa ghoDe ki tapon ki avazen sunai dene lagin. malum hota tha, koi sipahi ghoDe ko sarpat bhagata chala aa raha hai. ek kshan mein tapon ki avaz band ho gai, aur ek sainik angan mein dauDa hua aa pahuncha. logon ne chakit hokar dekha, ye ratnsinh tha!
ratnsinh chita ke paas jakar hanfata hua bola—priye, main to abhi jivit hoon, ye tumne kya kar Dala?
chita mein aag lag chuki thi. chinta ki saDi se agni ki jvala nikal rahi thi. ratnsinh unmatt ki bhanti chita mein ghus gaya, aur chinta ka haath pakaDkar uthane laga. logon ne charon or se lapak lapakkar chita ki lakDiyan hatani shuru keen; par chinta ne pati ki or ankh uthakar bhi na dekha, keval hathon se use hat jane ka sanket kiya.
ratnsinh sir pitkar bola—hay priye! tumhein kya ho gaya hai? meri or dekhti kyon nahin? main to jivit hoon.
chita se avaz ai—tumhara naam ratnsinh hai; par tum mere ratnsinh nahin ho.
‘tum meri taraf dekho to, main hi tumhara daas, tumhara upasak, tumhara pati hoon. ’
‘mere pati ne veer gati pai. ’
‘haay, kaise samjhaun! are logo, kisi bhanti agni shaant karo. main ratnsinh hi hoon, priye! kya tum mujhe pahchanti nahin ho?’
agni shikha chinta ke mukh tak pahunch gai. agni mein kamal khil gaya. chinta aspasht svar mein boli—khub pahchanti hoon. tum mere ratnsinh nahin. mera ratnsinh sachcha shoor tha. wo atmaraksha ke liye, is tuchchh deh ko bachane ke liye, apne kshatriy dharm ka parityag na kar sakta tha. main jis purush ke charnon ki dasi bani thi, wo devlok mein virajman hai. ratnsinh ko badnam mat karo. wo veer rajput tha, ranakshetr se bhagnevala kayar nahin!
antim shabd nikle hi the ki agni ki jvala chinta ke sir ke uupar ja pahunchi. phir ek kshan mein wo anupam roop rashi, wo adarsh virata ki upasika, wo sachchi sati agni rashi mein vilin ho gai.
ratnsinh chupchap, hatbuddhi sa khaDa ye shokmay drishya dekhta raha. phir achanak ek thanDi saans khinchkar usi chita mein kood paDa.
स्रोत :
पुस्तक : प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ (पृष्ठ 98)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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