ज़रूरी नहीं है फूला बाई का ज़िक्र। फिर भी एक बस्ती है, जिसे सबने देखा है। पहली बार मैं भौंचक रह गया था। पुराने मकानों में अजीब-अजीब लोग रहते थे—दूर-दूर से आए हुए लोग। लगता था पिछड़ गए हैं। आगे बढ़ने की लड़ाई में लगे हुए हैं। कुछ लड़कियाँ थीं, जो वेश्याएँ थीं। कुछ लड़के—दलाल थे। दिन भर लोग ख़ामोश रहते थे—सोये हुए। शाम से हलचल शुरू होती थी। पूरी सड़क गाड़ियों, दलालों और ग्राहकों से भरी होती थी। बड़े-बड़े होटलों की बत्तियाँ चमकने लगती थीं। इनमें पाँच या तीन तारे होते थे या किसी में कोई तारा नहीं होता था। तारे दिखाई नहीं देते थे। हम उन्हें सिर्फ़ महसूस कर सकते थे।
दूर-दूर देशों के लोग यहाँ आते थे। देखकर पता चलता था कि गोरे हैं। अरब हैं। लोग ख़ास तौर पर अरबों के आने का रास्ता देखते थे। दुकानों, होटलों, लड़कियों और दलालों को अरबों का इंतिज़ार होता था। भिखारियों, बाज़ीगरों, हिजड़ों को भी अरबों का इंतिज़ार होता था। अपने-अपने कमरों की ऊँचाइयों से अरब लोग नीचे की दुनिया को देखा करते थे। यहाँ हिजड़े नाचते थे। बाज़ीगर खेल दिखाते थे। भिखारी औरतें-बच्चे भीख माँगते थे। नटों के बच्चे सर्कस करते थे। हर खेल के बाद एक ही सवाल होता था-ग़रीब...भूखा...पेट के लिए खाना...अल्ला...रफ़ीक़...रहम कर। सूखे-दुबले—फटेहाल हिंदुस्तानी अपना ख़ाली पेट पीटते थे। औरतें काले-बीमार बच्चे दिखाती थीं। अरब ...रफ़ीक़...रहमदिल अल्लाह के नाम पर ऊपर से नोट फेंकते थे। दुबले काले इंसान उन पर टूट पड़ते थे। सबमें समझौता हो गया था। नोटों को लेकर लड़ाइयाँ होती थीं...फिर नहीं होती थीं। लेकिन फिर और माँगते थे...अल्लाह के नाम पर रफ़ीक़...रहमदिल! अब अरब सिर्फ़ हँसते थे। कभी-कभी काग़ज़ के टुकड़े फेंकते थे। भीड़ एक बार फिर दौड़ पड़ती थी।
हम सब लोग ख़ुश थे। यहाँ रहना ज़रूरी था। सारी दौलत यहीं थी। सब कुछ यहीं था। सिर्फ़ रहने की जगह नहीं थी। इसका भी इंतिज़ाम हो गया था। एक कोना था... एक खाट काफ़ी थी। यहीं मैंने फूला बाई को देखा था। पचपन या साठ साल की थकी हुई काली औरत। बालों में बदरंग ख़िज़ाब लगया था। बालों की जड़ें सफ़ेद हो रही थीं। कई जगह सफ़ेद बाल छूट भी गए थे। आते-जाते एक बार उसने मुझे ग़ौर से देखा था। दूसरी बार मुस्कराई थी। तीसरी बार उसने आँख मार दी थी। मुझे क्या हुआ था, मालूम नहीं, शायद मैं घबरा गया था। इससे पहले किसी औरत ने ऐसा नहीं किया था। उस दिन से मैं होशियार हो गया था। आते-जाते हमेशा दूसरी तरफ़ देखता था। लेकिन फिर भी चीज़ें ठीक नहीं हो रही थी। किसी-न-किसी तरह फूला सामने आ जाती थी-और ज़ियादा बनी-ठनी, और ज़ियादा थकी हुई। ज़रा-सा खाँसती। फिर आँखों के कोनों से ताकती। वही मुस्कुराहट। मैं परेशान हो गया था।
मगर लोग अब भी उसी तरह चल रहे थे। सूज़र समंदर में डूब जाता था। पुराने मकानों में लड़कियाँ बन-ठन कर तैयार हो जाती थीं। टैक्सियाँ या कारें होटलों में पहुँचा देती थीं। सामने की बड़ी इमारत की बत्तियाँ चमकती रहती थीं। अमीर हिंदुस्तानियों और अरबों की गाड़ियाँ वहाँ ज़रूर आती थीं। यह इमारत होटल नहीं थी। इसके फ़्लैटों में शरीफ़ लोग रहते थे। लेकिन लड़कियाँ वहाँ भी होती थी। दलाल वहाँ भी घूमते थे। मैं अक्सर उकता जाता था। समुंदर की लहरें भी दिल नहीं बहलाती थी। गाँधी की मूर्ति आँखें बंद किए मुस्कुराती रहती थी। प्रेमी लोग लिपटते रहते थे। भिखमंगे...हिजड़े...दलाल...ठेलेवाले...सब अपना काम करते रहते थे। मगर मुझे...मुझे क्या तकलीफ़ थी, मालूम नहीं, इस समय मुझे फूला बाई का ख़याल आ जाता था।
बड़ी इमारत के एक फ़्लैट से कोई अक्सर यहीं नाम पुकारता था। फूला फ़ौरन अंदर चली जाती थी। अंदर शायद काम करती थी। फिर बाहर आ जाती थी। एक बीड़ी लेकर बैठ जाती थी। लेकिन फ़ौरन ही फिर पुकार होती थी। दम लेने की फ़ुरसत भी नहीं मिलती थी। दुकानों से समान ले-ले कर अंदर पहुँचाती थी। होटल से चाय, दुकान से पान-सिगरेट वग़ैरह। उकता कर कभी-कभी मैं सोचता था कि मेरी सही जगह क्या है! इस भीड़ में मुझे किस तरफ़ जाना है? क्या मैं भी आगे बढूँ और दलालों की दुनिया में शामिल हो जाऊँ? गाँधी की मूर्ति के पास अरबों और अमीरों के सौदे पटाना शुरू कर दूँ?
रात लेकिन हमेशा बहुत हो जाती थी। कभी आख़िरी बस मिलती थी, कभी नहीं। जूते घसीटता हुआ मैं पैदल उस ठिकाने पर पहुँच जाता था, जहाँ मेरी खटिया थी। पार्टनर कभी ड्यूटी पर होता था, कभी सोता रहता था। इधर जब से वह घर गया था, रात को लौटने पर खोली मुझे काटने दौड़ती थी। जितना ज़ियादा हो सकता था, मैं बाहर रहता था। इस समय, जब मैं स्टेशन से बाहर आया, आख़िरी बस जा चुकी थी। घड़ी में डेढ़ बज रहे थे। ख़ाली रास्ते पर मैंने चलना शुरू कर दिया था। दारू के अड्डे खुल थे। मीट-अंडे के खोमचों के पास भीड़ थीं। रंडियों की तलाश अब भी जारी थी। ठिकाने पर पहुँचते दो-ढाई बज गए। सारी जगह सुनसान लगती थी। सिर्फ़ फ्लैटों की बत्तियाँ जल रही थीं। शायद कोई नशे में चीख़ रहा था। अँधेरे गलियारों से जब मैं गुज़रा तो लगा कि कोई खड़ा है। फूला बाई थी... मैं पहचान गया। पल भर रुक कर मैं आगे निकल गया।
लेकिन चाबी मेरे पास नहीं थीं शायद कहीं गिर गई थी या कहीं रह गई थीं। मैं समझ नहीं पाया कि क्या करूँ! देर तक वहीं खड़ा रहा। फिर बाहर आ गया। फिर अंदर चला गया। इस तरह दो-तीन चक्कर हो गए। मुझे देखकर अब कुछ कुत्तों ने भोकना शुरू कर दिया। इस समय फूला बाई अँधेरे से उजाले में आ गई। मैंने देखा कि चेहरे पर बहुत-सा पाउडर लगाया गया था। बदरंग बालों में मुरझाया हुआ एक गजरा अटका हुआ था। एक अजीब-सी साड़ी पहनी थी, जो न जाने कब नर्इ रही होगी। पहली बार मुझे मालूम हुआ कि फूला भी रोज़ रात शायद ग्राहक तलाश करती थी। पहली बार उसने मुझसे कहा, 'क्या हो गया चक्कर क्यूँ लगाते हो?'
मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ! फिर भी मैंने कहा, 'मेरी किल्ली गुम हो गई। खोली पे लॉक है।'
इस समय रात पूरी तरह सुनसान थी। बड़ी इमारत के 'मसाज पार्लर' से निकल कर कोई बड़ा आदमी कार का दरवाज़ा खोल रहा था? हलके उजाले में फूला चुपचाप खड़ी रही। मैं चलने लगा, तो बोली, 'ज़रा रुको तो... कैसा ताला है तुम्हारा?'
हिचकिचा कर मैंने उसे ताले के बारे में बताया। बोली, 'ऐसा करो...हमारी किल्ली लगा के देखो ना!'
उसकी चाल में लड़खड़ाहट थी। जब इमारत से लौटी, तो हाथ में चाबियों का गुच्छा था। मैंने कई चाबियाँ लगाईं। एक भी नहीं लगी। फिर उसने कोशिश की। चाबियों पर चाबियाँ बदलती रही। पता नहीं कैसे, ताला खुल गया। मैं पल भर वैसे ही खड़ा रह गया। अंदर जा कर बत्ती जलाई। अपने आप ही फूला अंदर आ गई। इस समय मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उसकी तरफ़ देखूँ, लेकिन मैं उसे देखने लगा। वह चेहरा उस उजाले में और भी काला-थका-बूढ़ा लग रहा था। बालों का बदरंग ख़िज़ाब, झुर्रियों पर पाउडर की परते और पुती हुई लाली। मुझे क्या लगा, मालूम नहीं। शायद बहुत बुरा लगा। शायद थोड़ा दुःख हुआ।
फूला बोली, 'मैं तुमकू... आते-जाते रोज़ देखती।' अब उसके होंठ धीरे-धीरे काँपने लगे। मुँह के कोनों में लार इकट्ठा हो गई। रुक कर बोली, 'तुम कि नई...मेरी कू भोत अच्छे लगते।'
एकाएक ही मैं कुछ बोल नहीं सका। अजीब-सी चुप्पी पल भर छाई रही। अब फूला संभल गई। बोली, 'तुमकू लगता कि मेरी उमर भोत जास्ती! नईं क्या? पर मैं सच्ची बोलती, मेरी उमर जास्ती नईं है।'
मुझे मालूम नहीं था, मैं क्या कहूँ, फिर भी मैंने कहा, 'नईं, ये बात नईं। तुम मेरे को ग़लत समझा। मैं ऐसा आदमी नईं हूँ।'
उसी तरह फूला ने कहा, 'नईं, सब आदमी लोग कमती उमर की छोकरी से मोहब्बत करते। पर मैं सच्ची बोलती, मेरा उमर जास्ती नईं। तब्बेत थोड़ा बिघड़ गया, बस!'
मैंने जैसे ज़िद करते हुए कहा, 'नईं, तुम मेरे को समझा नईं, मैं वो टाइप का आदमी नईं। मैं तुमकू बहुत अच्छा समझता, पर... बोलते-बोलते में रुक गया। मालूम नहीं, क्या कह देता। फूला जैसे और संभल गई। बोली, देखो ना, मैं तुमकू भोत पसंद करती। आते-जाते हमेशा देखती। तुम अकेले...मैं अकेली। मैं तो अकेली। मैं तो तुमकू...बोले तो...मुहब्बत करती। और भी जास्ती मुहब्बत करूँगी। क्यों' तो इस वास्ते कि मेरे कू भी मुहब्बत मंगता। थोड़ा हेलप मंगता।
सुनसान रात के तीन बजे... एक अकेले कमरे में...फूला मुझसे मोहब्बत और हेल्प की भीख माँग रही थी। उसके लिपे-पुते चेहरे पर अचानक इतनी बेबसी दिखाई दी कि मुझे बहुत तकलीफ़ हुई। लेकिन मैंने कहा, 'नई बाई, तुम मेरी बात समझो। मेरे को तुमसे कोई नफ़रत नईं है। पर मैं-मैं वो टाइप का आदमी ही नईं हूँ। नई समझी?
फूला ने कुछ नहीं कहा। अब उसका काला चेहरा और ज़्यादा काला हो गया था। अब उसे कोई आशा नहीं थी। बड़ी देर तक उसी तरह चुपचाप खड़ी रही। धीरे-धीरे बोली, 'उमर जास्ती होने से क्या होता? मोहोबत नईं मंगता? हेल्प नईं मंगता?'
मैं चुप रहा। आख़िर फूला ने कहा, 'चलो, जाने दो। कोई बात नईं। पर एक बात बोलूँ क्यों?'
मैं उसी तरह उसकी तरफ़ देखता रहा। वह बोली, 'मेरे कू थोड़ा पैसा मंगता चार-पाँच रुपिया...उधारी। मैं जल्दी वापस कर देऊँगी। भरोसा करना, सच्ची बोलती।'
इस तरह फूला बाई से मेरी पहली बातचीत ख़त्म हुई। मैं अब भी उसी रास्ते आता और जाता था। बीड़ी फूँकती हुई फुला मुझे देखती थी। मुस्कुराती थी, लेकिन मुस्कराहट में अब पहले वाली बात नहीं थी। मेरे पास पैसों की बहुत कमी थी। फिर भी थोड़ा कुछ मैंने उसे दे दिया था। लेकिन बातचीत कभी नहीं हो पाती थी।
लेकिन एक रात... जब बिना कुछ खाये-पिये मैं सोने की कोशिश कर रहा था, दरवाज़े पर दस्तक हुई। सामने फूला खड़ी थी। उसके मैले आंचल में कुछ ढका हुआ था। कुछ चिड़चिड़ा कर मैंने कहा, क्या है?'
आँचल के नीचे से एक रिकाबी उसने मेरी तरफ़ बढ़ा दी। खोली में एक ख़ुश्बू-सी फैल गई। प्लेट में पुलाव या इस तरह की कोई चीज़ थी। मैं उसकी तरफ़ देखता रह गया। उसने कहा, 'सुबू को प्लेट ले जाऊँगी। ऐसा खाली पेट नई सोने का?'
मुझे ताज्जुब हुआ था। उसको किसने बताया कि शाम मुझे खाना नहीं मिला था। इसके बाद कई बार ऐसा होने लगा। गुज़रते समय कई बार वह मेरे चेहरे को देखती। उसे बहुत कुछ मालूम हो जाता था। कई बार उसने मुझे रोका। अंदर जाकर चुपचाप कोई रिकाबी या प्लेट ले आई। लेकिन बातचीत अब भी नहीं होती थी।
लेकिन अब वह मुझे बाहर भी मिलने लगी थी। समुंदर के किनारे गाँधी की मुस्कराती मूर्ति के पास कभी-कभी बीड़ी फूँकती हुई बैठी रहती थी। धीरे-धीरे मैंने उसके पास बैठना शुरू कर दिया था। अब वह ज़्यादा थकी, ज़्यादा हारी हुई मालूम होती थी। काम अब उससे होता नहीं था। 'मसाज पार्लर' में काम बहुत करवाते थे। रात को काम होता था। दिन में भी काम होता था। 'पार्लर' में कई लड़कियाँ थीं। रात को ये अरबों और हिंदुस्तानी रईसों की 'मालिश' करती थीं। बंद कमरों के अंदर से लगातार फूला की पुकार होती रहती थी। कभी यह पहुँचाओ...कभी वह पहुँचाओ! शराब...बर्फ़...सोडा... सिगरेट...! बीच-बीच में लंबी चुप्पियाँ छा जाती थीं। खाना भी पकाना पड़ता था। बड़ी रात लड़कियाँ बहुत थक जाती थीं। फ़ौरन खाना माँगती थी। फूला को बहुत गालियाँ देती थीं। नशे में कभी-कभी मारना शुरू कर देती थीं। कहाँ का ग़ुस्सा कहाँ निकालती थीं। कोई-कोई कस्टमर खाना भी खाते थे। ये लोग ख़ूब पैसा लुटाते थे। इतना पैसा है उनके पास कि सोच भी नहीं सकते। मगर लड़कियों को बहुत कम मिलता था। 'पार्लर' के फ़्लैट का भाड़ा ही पंद्रह हज़ार रुपिया महीना था। बचा हुआ बहुत-सा रुपिया 'पार्लर' वाला ले जाता था। कुछ दलाल लोग ले जाते थे। लड़कियों के लिए थोड़ा-सा बच जाता था। बस अच्छी तरह पहन-ओढ़ लेती थीं। लड़कियाँ बड़े बेमन से काम करती थीं। कई बार बुरी तरह पीटी जाती थीं। कुछ को चरस...और पता नहीं क्या-क्या की लत लग गई थी।
दिन भर भटक कर शाम को मैं अकसर मूर्ति के चबूतरे पर बैठ जाता था। इस समय मुझे फूला का इंतिज़ार होता था। अपने दिल का सारा ग़ुबार अब मैं उसके सामने निकालने लगा था। लेकिन अकसर वह नहीं आ पाती थी। कई बार मूर्ति के पास रौशनी की जाती थी और भाषण होते थे। लेकिन टैक्सीवाले अरब अमीरों को यहाँ ले आते थे। इनके साथ हिंदुस्तानी या नेपाली लड़कियाँ होती थीं। छोटी-छोटी लड़कियों को अच्छे-अच्छे कपड़े पहना कर अरब लोग इन्हें सैर कराने लाते थे। इन सूखी-मुरझाई लड़कियों पर फ़ॉरेन की जींस और क़मीज़ें बड़ी अजीब लगती थीं। इन कपड़ों को पहली बार पहन कर ये लड़कियाँ बहुत ख़ुश दिखाई देती थीं। हिंदुस्तानी दलाल और टैक्सी ड्राइवर हाथ बांधे पीछे-पीछे चलते थे। बीच-बीच में छोटी लड़कियों को डाँट-डाँट कर बताते रहते थे कि कैसी हरकत करनी चाहिए और कैसी नहीं। रेत के किनारे के रेस्तराँ और होटल बहुत ऊँचे और महँगे थे। अरब लोग इन लड़कियों को वहाँ ज़रूर ले जाते थे। उस समय ऐसे खाने को पहली बार देखकर इन लड़कियों के आँखों में पता नहीं कैसी चमक आ जाती थी। फिर इस तरह खातीं कि बस देखते ही बनता था। अरब लोग इन लड़कियों को बहुत ख़ुश करते थे। कभी घोड़ों पर बिठाते, कभी ऊँट पर। तरह-तरह से इनकी रंगीन तसवीरें उतरवाते थे। इतनी ख़ुशियाँ एक साथ पाकर ये छोटी-छोटी लड़कियाँ उछल-उछल कर कभी यह माँगती थीं, कभी वह।
यह सब देख-देखकर फूला को बहुत ग़ुस्सा आता था। एक दिन झल्ला कर बोली, 'सुनते क्या! एक दिन इनका भी वोई हाल होगा, जो मेरा हो रया है। मेरे कू भी ये सब में भोत मज़ा आता था।'
अचानक फूला जैसे रुआँसी हो गई। हो सकता है, यह सही हो। शायद कभी फूला का भी एक ज़माना रहा हो। यह बात सच हो कि दूर-दूर से लोग फूला का पता लगा कर आते थे। दलाल लोग बड़े-बड़े ग्राहकों को हमेशा फूला के बारे में बताते थे। लेकिन फूला की इस हालत को देखकर, पता नहीं क्यों, उसकी इन बातों पर भरोसा नहीं होता था।
इधर वह कुछ ज़ियादा ही चिड़चिड़ाने लगी थी। हर चीज़... हर बात पर झल्ला उठती थी। अब सिर्फ़ लड़कियों, दलालों, पार्लरवाले को ही नहीं कोसती, सारी-सारी दुनिया को गालियाँ देती थी।
एक शाम, जब सूरज को डूबे काफ़ी समय बीत गया था, गाँधी की मुस्कुराती मूर्ति के पास हम दोनों बैठे थे। जोड़े प्यार कर रहे थे। लड़कियाँ ग्राहक तलाश कर रही थीं। हिजड़े नाच रहे थे और भिखारी भीख माँग रहे थे। फूला कुछ ज़ियादा ही चुप थी। मैं भी चुपचाप तमाम लोगों को देख रहा था, जो बहुत ख़ुश दिखाई दे रहे थे।
अचानक मैंने महसूस किया कि फूला मेरे पास सरक आई है। लेकिन मैं अनजान बना रहा। वह कुछ और पास आ गई। उसके शरीर का इतना पास होना मुझे कुछ ज़ियादा तकलीफ़ देने लगा। फिर भी मैं बैठा रहा। अब उसने हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और बोली, 'ऐसा क्या करते। चलो ना, अपुन चलेगा...किधर भी! अपुन मोहोबत करेगा।'
मैं अब भी उसी तरह बैठा रहा। उसका मुँह अब मेरे बहुत क़रीब आ गया था। उसने कहा, 'सच्ची, मैं तुमकू भोत मोहोबत करती...भोत। ऐसा क्या करते। चलो ना भी!'
अब मैं उठ कर खड़ा हो गया। मैंने कहा, 'एक बार बोला ना तुमको, मैं वो टाइप का आदमी नई हूँ। समझ में नईं आता क्या?'
मेरी आवाज़ में शायद कुछ ग़ुस्सा था। पल भर वह उसी तरह बैठी रही, फिर खड़ी हो गई। इस समय मैंने महसूस किया कि वह बहुत ज़ियादा ग़ुस्से में है। उसका काला चेहरा उस धुंधले अँधेरे में काँपने लगा। बहुत ही नंगी गालियाँ दे कर वह बोली, 'जा रे साला...जा-जा! तू क्या मोहोबत करेगा! हिजड़ा! तेरा बाबा भी मोहोबत नईं कर सकता। साला...कलेजा मंगता...कलेजा...मोहोबत के वास्ते। साला, तेरा बाप भी कभी किया। तू..तू..तू तो!'
इसके बाद नंगी गालियों की कोई हद नहीं रही। मैं चुपचाप उसे देखता रहा। मेरे मन में अब कोई ग़ुस्सा नहीं था। उन गालियों का मुझे बुरा भी नहीं लग रहा था। उसे देख कर मुझे कुछ तकलीफ़ हो रही थी। वह बोलती रही, मैं सुनता रहा। वह थक गई। लड़खड़ाती हुई चली गई। मैं उसी तरह धुंधले अँधेरे में खड़ा रह गया। सागर की लहरों के थपेड़े पास आते गए और लोगों का शोर कम होता गया। लेकिन अब भी मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ।
लेकिन इसके बाद फूला ने मेरी तरफ़ देखना बिलकुल बंद कर दिया। कई बार मैं पास से गुज़र जाता था, फिर भी वह मेरी तरफ़ नहीं देखती थी। क्या वह मुझसे हमेशा नाराज़ रहती थी? मुझे ऐसा नहीं लगता था। लगता था कि कोई सवाल है। शायद ज़िंदगी का सवाल! इस सवाल से अब वह अकेले ही लड़ेगी। अब उसे किसी की ज़रूरत नहीं हैं। मैं भी उसके लिए बेकार हूँ। या शायद बहुत थक गई है। अब किसी को देखना, किसी से बोलना उसे अच्छा नहीं लगता।
लेकिन मैं फूला से बोलना चाहता था। एक दिन मैं बहुत ज़्यादा दु:खी हो गया था। इधर दफ़्तरों और कंपनियों में लोगों को सिर्फ़ छह महीनों के लिए काम पर रखा जाता है। इससे काम करने वाले हमेशा टेम्परेरी रहते हैं। उनके परमानेंट होने का कोई ख़तरा नहीं होता। हर छह महीने के बाद उन्हें काम से अलग कर दिया जाता है। इसके बाद नया अपाइंटमेंट दिया जाता है। इस बार कंपनी ने मुझे नया अपाइंटमेंट देने से इनकार कर दिया। अचानक ही मैं बेकार हो गया। इतना परेशान मैं पहले कभी नहीं हुआ था। लगा कि ख़ूब रोऊँ। उस दिन बहुत मन हो रहा था कि फूला से सब कुछ कह दूँ लेकिन मूर्ति के चबूतरे पर आना उसने बंद कर दिया था। लौटते समय रास्ते में मिली ज़रूर, लेकिन देख कर भी मुझे अनदेखा कर दिया। मैं वहाँ से बार-बार गुज़रा, मगर उसने मेरी तरफ़ देखा तक नहीं। उस समय मुझे उस पर ग़ुस्सा भी आया था।
मेरा रूम पार्टनर हमेशा सोता रहता था। उसकी ड्यूटी हमेशा रात को रहती थी। मेरी उसकी बातचीत बहुत कम हो पाती थी। अब मैं अकेला ही सागर किनारे दूर-दूर तक घूमता रहता था। इस इलाक़े में—नई-नई और ऊँची-ऊँची बिल्डिंगे ख़ूब बन रही थीं। हम लोग इन्हें बस देख सकते थे। मैंने सुना था कि बिल्डर लोग एक-एक फ़्लैट के कई-कई लाख रुपए लेते हैं। बहुत-से बड़े-बड़े स्मगलर लोग बिल्डर बन जाते हैं, बहुत-से लोग लाखों रुपए दे कर ये फ़्लैट ख़रीदते हैं। फिर लाखों रुपए ख़र्च कर इन फ़्लैटों को सजाते हैं। ये सारी बातें सुनता था, लेकिन मुझे भरोसा नहीं होता था।
मैंने यह भी सुना था कि लोग बहुत जल्द अमीर हो जाते हैं। इस बात पर भी मुझे भरोसा नहीं होता था।
इन दिनों मेरे मन में फूला से बात करने की बड़ी इच्छा होती थी। दिन भर धक्के खा कर शाम जब मैं लौटता था, तो हर रोज़ मेरे पास एक नई कहानी होती थी। ये कहानियाँ अक्सर निराशा, बेइज़्ज़ती और दुःख की कहानियाँ होती थीं। काम मिलना बड़ा मुश्किल हो रहा था। हर जगह अपने-अपने लोगों को काम दिया जा रहा था। ये सब कहानियाँ मैं पहले की तरह ही फूला को सुनाना चाहता था। लेकिन अब फूला ने दिखाई देना भी बंद कर दिया था।
एक दिन जब मैं लौटा, तो बहुत ख़ुश था। अगले दो-चार दिनों में मेरा काम पर लगना पक्का हो गया था। उम्मीद थी कि इस बार छह महीने वाली नौकरी नहीं होगी, पक्का हो जाने की पूरी आशा थी। मैं इतना ख़ुश था कि किसी भी हालत में फूला से बात करना चाहता था। काफ़ी रात तक मैं मूर्तिवाले चबूतरे पर बैठा रहा। मेरे सामने हँसते-खेलते लोग गुज़र गए। मेरे सामने सूरज पानी में डूब गया। लेकिन फूला नहीं आई। यह कोई नई बात नहीं थी। रात तक बैठ कर मैं वहाँ से उठा गया। इमारत के सामने से गुज़रते-गुज़रते कई बार मैंने उधर देखा। फूला कहीं दिखाई नहीं दी। यह भी कोई नई बात नहीं थी। लेकिन इस बार मुझे कुछ अजीब-सा लगा। मुझे फिर ख़याल आया कि पिछले कई दिनों से मैंने उसे नहीं देखा है। क्या हुआ? क्या वह कहीं और चली गई? इस ख़याल से मैं कुछ परेशान हो गया। मैं किसी से फूला के बारे में पूछना चाहता था, लेकिन यहाँ कोई किसी से बात ही नहीं करता था।
दो-तीन दिन और गुज़र गए। 'मसाज पार्लर' की बत्तियाँ बड़ी रात तक चमकती रहती थीं। बार-बार आते हुए...जाते हुए...मैंने ध्यान से देखा, फूला कहीं नहीं थी। मुझे मालूम हो गया, फूला कहीं चली गई। शायद मुझे काफ़ी बुरा लगा। लेकिन मैं ऊँची इमारतों में रहने वाले लोगों की बातें सोचने लगा। लाखों रुपए ख़र्च करने वाले लोगों की बातें सोचने लगा। स्मगलरों, बिल्डरों, अरब अमीरों के साथ घूमती छोटी लड़कियों...सभी की बातें सोचने लगा। लेकिन फूला के बारे में भी सोचता रहा।
लेकिन एक रात एक और ही बात हो गई। मुझे लौटने में काफ़ी देर हो गई थी। अगले दिन मुझे काम पर बुलाया गया था। मैं थका था। लेकिन काफ़ी ख़ुश था। आख़िरी बस छूट जाने के कारण मैं पैदल चल कर ही ठिकाने पर पहुँचा था। जब मैं अँधेरी गली में दाख़िल हो रहा था, मैंने देखा कि लांड्री की दुकान के तख़्ते पर कोई औरत पड़ी है। मैं आगे निकल गया। लेकिन फिर लौट आया। हाँ, यह फूला ही थी। मैं कुछ समझ नहीं पाया। इस समय रात के दो बज रहे थे। सड़क क़रीब-क़रीब ख़ाली ही थी। लड़कियाँ और दलाल जा चुके थे। मुझे लगा कि फूला सो गई है। लेकिन मैं फिर गुज़रा और मुझे लगा कि नहीं, सोई नहीं है। शायद छोकरियों के साथ इसने भी बहुत शराब पी ली है। मैं अपनी खोली तक गया। ताला खोलने से पहले फिर लौट आया। अब मुझे लगा कि फूला बेहोश है। कुछ हिचकिचा कर मैंने आवाज़ दी, 'फूला! फूला बाई! कोई जवाब नहीं आया। अब मैं उसके एकदम पास पहुँच गया। मैंने उसे हिलाया और...और मुझे लगा कि फूला बहुत बीमार है। उसका बदन बहुत ज़्यादा गरम है और मुँह के चारों तरफ़ कै फैली हुई है। अचानक ही सब कुछ समझ में आ गया। शायद फूला कई दिनों से बीमार थी। मुझसे झगड़ते समय भी शायद बीमार थी। पार्लरवालों ने शायद आज उसे निकाल दिया। वहाँ से निकल कर वह किसी तरह तख़्ते तक पहुँची.. या शायद लोग उसे यहाँ डाल गए। इसके बाद...! इसके बाद मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ! क्या मैं फूला को उसी तरह वहाँ छोड़ दूँ और चला जाऊँ? मुझे लगा कि ऐसा नहीं हो सकता। वहाँ अँधेरी गली में कोई नहीं था, जिससे मैं कुछ कह सकता। सिर्फ़ ऊँची इमारतों की बत्तियाँ चमक रही थीं। और सड़क पर एक-दो टैक्सीवाले अपनी-अपनी टैक्सियों में सो गए थे। मैं चाहता था कि किसी को पुकारूँ, आवाज़ दूँ, लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
उस समय मैंने हिसाब लगाया कि मेरे पास कुछ कितने रुपए बचे हैं। इसके बाद मैंने एक टैक्सीवाले को जगाने की कोशिश की। मुश्किल-ही-मुश्किल थी। फिर भी मैंने सोच लिया था कि अब क्या करना है।
इसी तरह रात बीतती गई थी। दो अस्पतालों ने उसे लेने से इंकार कर दिया। म्युनिसिपल अस्पताल ठसाठस भरा था। मैंने बड़ी मिन्नतें की थी। नर्सों के ड्यूटी रूम में एक बिस्तर डाल कर उसे लिटा दिया गया था। सलाइन की बोतल लगा दी गई थी। बड़ी नर्स ने मुझसे कहा कि मैं बोतल की जगह दूसरी ला दूँ। अस्पताल में दवाइयाँ भी नहीं हैं। मैं बाहर से ख़रीद कर दवाइयाँ ले आऊँ। लेकिन मैं चुपचाप सुबह का इंतिज़ार कर रहा था। वार्डों में, गलियारों मे, पलंगों पर, ज़मीन पर, हर जगह मरीज़-ही-मरीज़ पड़े थे। नर्सों ने कहा था कि इंजेक्शन भी लाना होगा। बहुत-सी चीज़ों की ज़रूरत थी। लेकिन हमारे पास कुछ नहीं था। फिर भी मैं सुबह का इंतिज़ार कर रहा था। और बेंच पर बैठे-बैठे ही सुबह हो गई थी। मुझे नहीं मालूम था कि यह कैसी सुबह थी। लोगों ने चलना-फिरना और गाड़ियों ने दौड़ना शुरू कर दिया था। मैंने तमाम लोगों के बारे में सोचा था। ये लोग थोड़ी-बहुत मदद कर सकते थे। ड्यूटी रूम में जा कर मैंने एक बार फिर फूला की तरफ़ देखा था। वह अब भी बेहोश थी। चितकबरे बाल बिखरे हुए थे और वह पहले से ज़ियादा कुरूप लग रही थी। इसके बाद मैंने चलना शुरू कर दिया था।
दिन भर चलता रहा। इस जगह से उस जगह और उस जगह से उस जगह। इंडिया इंटरनेशनल कॉरपोरेशन ने मुझे काम पर लेने से इनकार कर दिया। मुझे बहुत दुःख हुआ। मेरी सारी आशाएँ मिट्टी में मिल गईं। इस बार मुझे बहुत भरोसा था, काम ज़रूर लग जाएगा। सुबह-शाम की चिंता मिट जाएगी। मुझे लगा कि मैं जैसे फूटपाथ पर आ गया हूँ। शाम होते-होते मैं लौट आया। इस समय दवाइयाँ और सलाइन की बोतलें मैंने ख़रीद ली थीं। कुछ लोगों ने थोड़े-थोड़े पैसे दे दिए थे। मैं बिलकुल थक गया था।
जब मैं अस्पताल पहुँचा, तो फूला की हालत बहुत ख़राब थी। उसके मुँह पर, कानों तक कै फैली हुई थी और बिस्तर भी कै में सना हुआ था। उसकी साँस घरघरा रही थी। लगता था कि किसी भी समय उखड़ जाएगी। लेकिन फिर भी उसकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं था। इस समय मुझे लगा कि फूला मर जाएगी। पता नहीं क्यों, मुझे यह भी लगा कि हे भगवान, फूला को इस तरह मरना नहीं चाहिए। किसी भी तरह उसे बचना चाहिए।
मैं दौड़ कर बड़ी सिस्टर के पास गया था। बड़ी मुश्किल से उसने मेरी तरफ़ ध्यान दिया था। फिर एक डॉक्टर आया था। उसने बातया था कि कै फेफड़ों में चली गई है। फूला पड़ी हुई कै करती थी और किसी ने उसकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया था। अब एक मशीन लाई गई। मशीन घर-घर चलने लगी। मुँह के अंदर नली डाल कर डॉक्टर चारों तरफ़ हिलाने लगा। अब फूला एक-एक साँस खींचने के लिए बिलबिलाने लगी। बिलबिला कर साँस खींचती थी। छटपटा कर आँखें खोल चारों तरफ़ देखती थी। अब मुझे बार-बार लगने लगा कि किसी भी तरह उसे बच जाना चाहिए। बच कर क्या होगा? बच कर कहाँ जाएगी? मुझे कुछ भी मालूम नहीं था। बस, यही लग रहा था कि उसे बचना चाहिए।
मशीन चलती रही और आवाज़ आती रही। फूला बिलबिलाती रही और आवाज़ आती रही। धीरे-धीरे रात हो गई और सभी आवाज़ें चुप हो गईं। अब मशीन हटा दी गई और बोतल फिर लगा दी गई। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? नर्स और डाक्टर कोई बताने को तैयार नहीं था कि क्या होगा! ऑक्सीजन के सारे सिलेंडर ख़ाली पड़े थे। या दो-तीन थे, जो मरीज़ों पर लगे हुए थे। मैं बैठा रहा। फिर मैं बाहर आ गया। फिर मैं सोचने लगा कि रात क्या होगा? क्या मैं वहीं कहीं सो जाऊँ? लेकिन ऐसी कोई जगह नहीं थी। रात कुछ हो गया, तो क्या फूला का दुनिया में कोई है? क्या हमारा दुनिया में कोई है? तब मुझे लगा था कि हमारा कोई नहीं है... हमीं अपने सब कुछ हैं।
अब मैं वहीं लौट आया था। जहाँ स्मगलर, अरब, अमीर, लड़कियाँ, दलाल, हिजड़े.. सब अपना काम कर रहे थे। कई सितारों वाले होटलों में बत्तियाँ जगमगा रही थीं और महँगे रेस्तरांओं में अजीब धुनें बज रही थी। 'मसाज पार्लर' के सामने ख़ूबसूरत गाड़ियाँ खड़ी थीं। आज शायद कोई ख़ास दिन था। गाँधी जी की मूर्ति को लट्टुओं से सजाया गया था और सामने कोई नेता भाषण कर रहा था। काफ़ी भीड़ लगी हुई थी। इस समय नेता गाँधी जी, पंडित जी वग़ैरह की महानता का बखान कर रहा था और एक दलाल एक कारवाले को पटाने की कोशिश कर रहा था।
तब मुझे अचानक पहली बार ख़याल आया कि मैं किस दुनिया में हूँ? किसने इसे ऐसा बना दिया है? मैं क्या करूँ? इसे ऐसा ही छोड़ कर अपनी आँखें बंद कर लूँ? चारों तरफ़ दलालों की भीड़ है। मैं भी दलालों की दुनिया में-दलालों के दलालों की दुनिया में शामिल नहीं कर सकता। मैं बेकार, बेघर, बेसहारा सही, पर मैं दलालों की दुनिया में शामिल नहीं हो सकता। नौकरी नहीं मिलेगी...कभी नहीं। कोई बात नहीं। फूला मर जाएगी, कोई बात नहीं। रास्ता मुझे मालूम नहीं, कोई बात नहीं। इन सबके लिए मेरे अंदर नफ़रत है। वह हमशा ज़िंदा रहेगी। वही मुझे रास्ता दिखाएगी।
रात भर आवाज़ें आती रहीं। रात भर बाजे बजते रहे और धूने गूँजती रहीं। रात भर बत्तियाँ जलती रहीं। रात भर..मैं सो नहीं सका या शायद सो गया और सपने देखता रहा। फूला मर गई और बाजे बजते रहे...धुने गूँजती रही...बत्तियाँ झिलमिलाती रहीं। मैं जाग कर उठ बैठा। बार-बार मैं सो गया। बार-बार फूला मरती गई।
लेकिन जब सुबह हो गई, तो फूला मरी नहीं, ज़िंदा थी। मैं सबसे पहले अस्पताल पहुँचा था। बोतल और नली को हटा दिया गया था। नर्स ने कहा कि मैं चाय-कॉफ़ी दूध भी ला कर उसे पिलाऊँ।
एक गिलास में चाय ले कर जब मैं उसके पास बैठा, तो आँखें खोल कर उसने मेरी तरफ़ देखा। मैंने चम्मच से चाय दी। उसने चुपचाप पी ली। एक बार फिर उसने मेरी तरफ़ देखा। फिर चुपचाप आँखें बंद कर ली।
लेकिन इसी समय बड़ी नर्स ने आ कर कहा मैं उसे ले जाऊँ और फ़ौरन वह जगह ख़ाली कर दूँ। इमर्जेंसी में उसे रख लिया गया था। अब जान के लिए ख़तरा नहीं है। अब ड्यूटी रूम में उसे रखा नहीं जा सकता। अस्पताल में कोई जगह नहीं है। बाक़ी दवाइयाँ मैं उसे घर ले जा कर दूँ। तब मैंने सोचा था...घर? घर ले जाऊँ? कहाँ है घर? 'मसाज पार्लर' वाले उसे रखेंगे? काफ़ी समय मैंने उसी तरह गुज़ार दिया था।
अचानक बड़ी नर्स बहुत तेज़ी से मेरे पास आई। फूला को न ले जाने के लिए उसने मुझे बहुत डाँटा। आवाज़ दे कर उसने कई वार्ड बॉय बुला लिए। आख़िरी बार उसने मुझसे कहा कि अगर मैं फूला को नहीं ले जाऊँगा, तो वह उसे बाहर डलवा देगी। इस बार मैं चुप नहीं रह सका। फूला के पास पहुँच कर मैंने कहा, 'फूला बाई...उठो! अब यहाँ से चलना है।'
फूला उठने की कोशिश करने लगी, लेकिन उठा नहीं गया। तब आगे बढ़ कर मैंने सहारा दिया। किसी तरह उठ कर बैठ गई। फिर सहारे-सहारे खड़ी हो गई। फिर घिसट-घिसट कर हम दोनों ने किसी तरह चलना शुरू कर दिया। घिसटते हुए हम अस्पताल के फाटक पर आ गए। अचानक वह ठहर गई। मैंने देखा कि कुछ कह रही है। मैंने सुनने की कोशिश की। काँपती आवाज़ में उसने कहा, 'तुम..तुम..नई आता तो...तो मर जाती!'
इस समय उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं। अचानक मैं ज़ोरों से हँस पड़ा... हँसता रहा। वह देखती रही। हँसते हुए मैंने कहा, 'तुम...बोली थीं ना...कि मैं...मोहब्बत नहीं कर सकता। अभी देखा ना, मैं कैसी मोहब्बत करता!...बोलो!
लेकिन फिर इसी समय मैं अचानक बहुत गंभीर हो गया। मैंने कहा, 'मगर.....वो टाइप का आदमी नईं हू...समझ गईं ना!
इस समय घिसटते हुए..., लड़खड़ाते हुए... हम अस्पताल से बाहर निकल रहे थे। लेकिन...हमें नहीं मालूम था...कि किधर जाना है!
zaruri nahin hai phula bai ka zikr. phir bhi ek basti hai, jise sabne dekha hai. pahli baar main bhaunchak rah gaya tha. purane makanon mein ajib ajib log rahte the—dur door se aaye hue log. lagta tha pichhaD ge hain. aage baDhne ki laDai mein lage hue hain. kuch laDkiyan theen, jo veshyayen theen. kuch laDke—dalal the. din bhar log khamosh rahte the—soye hue. shaam se halchal shuru hoti thi. puri saDak gaDiyon, dalalon aur grahkon se bhari hoti thi. baDe baDe hotlon ki battiyan chamakne lagti theen. inmen paanch ya teen tare hote the ya kisi mein koi tara nahin hota tha. tare dikhai nahin dete the. hum unhen sirf mahsus kar sakte the.
door door deshon ke log yahan aate the. dekhkar pata chalta tha ki gore hain. arab hain. log khaas taur par arbon ke aane ka rasta dekhte the. dukanon, hotlon, laDakiyon aur dalalon ko arbon ka intizar hota tha. bhikhariyon, bazigron, hijDon ko bhi arbon ka intizar hota tha. apne apne kamron ki uunchaiyon se arab log niche ki duniya ko dekha karte the. yahan hijDe nachte the. bazigar khel dikhate the. bhikhari aurten bachche bheekh mangte the. naton ke bachche sarkas karte the. har khel ke baad ek hi saval hota tha gharib. . . bhukha. . . pet ke liye khana. . . alla. . . rafiq. . . rahm kar. sukhe duble—phatehal hindustani apna khali pet pitte the. aurten kale bimar bachche dikhati theen. arab. . . rafiq. . . rahamdil allah ke naam par uupar se not phenkte the. duble kale insaan un par toot paDte the. sabmen samjhauta ho gaya tha. noton ko lekar laDaiyan hoti theen. . . phir nahin hoti theen. lekin phir aur mangte the. . . allah ke naam par rafiq. . . rahamdil! ab arab sirf hanste the. kabhi kabhi kaghaz ke tukDe phenkte the. bheeD ek baar phir dauD paDti thi.
hum sab log khush the. yahan rahna zaruri tha. sari daulat yahin thi. sab kuch yahin tha. sirf rahne ki jagah nahin thi. iska bhi intizam ho gaya tha. ek kona tha. . . ek khaat kafi thi. yahin mainne phula bai ko dekha tha. pachpan ya saath saal ki thaki hui kali aurat. balon mein badrang khizab lagya tha. balon ki jaDen safed ho rahi theen. kai jagah safed baal chhoot bhi ge the. aate jate ek baar usne mujhe ghaur se dekha tha. dusri baar muskrai thi. tisri baar usne ankh maar di thi. mujhe kya hua tha, malum nahin, shayad main ghabra gaya tha. isse pahle kisi aurat ne aisa nahin kiya tha. us din se main hoshiyar ho gaya tha. aate jate hamesha dusri taraf dekhta tha. lekin phir bhi chizen theek nahin ho rahi thi. kisi na kisi tarah phula samne aa jati thi aur ziyada bani thani, aur ziyada thaki hui. zara sa khansti. phir ankhon ke konon se takti. vahi muskurahat. main pareshan ho gaya tha.
magar log ab bhi usi tarah chal rahe the. suzar samandar mein Doob jata tha. purane makanon mein laDkiyan ban than kar taiyar ho jati theen. taiksiyan ya karen hotlon mein pahuncha deti theen. samne ki baDi imarat ki battiyan chamakti rahti theen. amir hindustaniyon aur arbon ki gaDiyan vahan zarur aati theen. ye imarat hotal nahin thi. iske flaiton mein sharif log rahte the. lekin laDkiyan vahan bhi hoti thi. dalal vahan bhi ghumte the. main aksar ukta jata tha. samundar ki lahren bhi dil nahin bahlati thi. gandhi ki murti ankhen band kiye muskurati rahti thi. premi log lipatte rahte the. bhikhmange. . . hijDe. . . dalal. . . thelevale. . . sab apna kaam karte rahte the. magar mujhe. . . mujhe kya taklif thi, malum nahin, is samay mujhe phula bai ka khayal aa jata tha.
baDi imarat ke ek flait se koi aksar yahin naam pukarta tha. phula fauran andar chali jati thi. andar shayad kaam karti thi. phir bahar aa jati thi. ek biDi lekar baith jati thi. lekin fauran hi phir pukar hoti thi. dam lene ki fursat bhi nahin milti thi. dukanon se saman le le kar andar pahunchati thi. hotal se chaay, dukan se paan sigret vaghairah. ukta kar kabhi kabhi main sochta tha ki meri sahi jagah kya hai! is bheeD mein mujhe kis taraf jana hai? kya main bhi aage baDhun aur dalalon ki duniya mein shamil ho jaun? gandhi ki murti ke paas arbon aur amiron ke saude patana shuru kar doon?
raat lekin hamesha bahut ho jati thi. kabhi akhiri bas milti thi, kabhi nahin. jute ghasitta hua main paidal us thikane par pahunch jata tha, jahan meri khatiya thi. partnar kabhi Dyuti par hota tha, kabhi sota rahta tha. idhar jab se wo ghar gaya tha, raat ko lautne par kholi mujhe katne dauDti thi. jitna ziyada ho sakta tha, main bahar rahta tha. is samay, jab main steshan se bahar aaya, akhiri bas ja chuki thi. ghaDi mein DeDh baj rahe the. khali raste par mainne chalna shuru kar diya tha. daru ke aDDe khul the. meet anDe ke khomchon ke paas bheeD theen. ranDiyon ki talash ab bhi jari thi. thikane par pahunchte do Dhai baj ge. sari jagah sunsan lagti thi. sirf phlaiton ki battiyan jal rahi theen. shayad koi nashe mein cheekh raha tha. andhere galiyaron se jab main guzra to laga ki koi khaDa hai. phula bai thi. . . main pahchan gaya. pal bhar ruk kar main aage nikal gaya.
lekin chabi mere paas nahin theen shayad kahin gir gai thi ya kahin rah gai theen. main samajh nahin paya ki kya karun! der tak vahin khaDa raha. phir bahar aa gaya. phir andar chala gaya. is tarah do teen chakkar ho ge. mujhe dekhkar ab kuch kutton ne bhokna shuru kar diya. is samay phula bai andhere se ujale mein aa gai. mainne dekha ki chehre par bahut sa pauDar lagaya gaya tha. badrang balon mein murjhaya hua ek gajra atka hua tha. ek ajib si saDi pahni thi, jo na jane kab nari rahi hogi. pahli baar mujhe malum hua ki phula bhi roz raat shayad grahak talash karti thi. pahli baar usne mujhse kaha, kya ho gaya chakkar kyoon lagate ho?
meri samajh mein nahin aaya ki kya karun! phir bhi mainne kaha, meri killi gum ho gai. kholi pe lauk hai.
is samay raat puri tarah sunsan thi. baDi imarat ke masaj parlar se nikal kar koi baDa adami kaar ka darvaza khol raha tha? halke ujale mein phula chupchap khaDi rahi. main chalne laga, to boli, zara ruko to. . . kaisa tala hai tumhara?
hichkicha kar mainne use tale ke bare mein bataya. boli, aisa karo. . . hamari killi laga ke dekho na!
uski chaal mein laDkhaDahat thi. jab imarat se lauti, to haath mein chabiyon ka guchchha tha. mainne kai chabiyan lagain. ek bhi nahin lagi. phir usne koshish ki. chabiyon par chabiyan badalti rahi. pata nahin kaise, tala khul gaya. main pal bhar vaise hi khaDa rah gaya. andar ja kar batti jalai. apne aap hi phula andar aa gai. is samay meri himmat nahin ho rahi thi ki uski taraf dekhun, lekin main use dekhne laga. wo chehra us ujale mein aur bhi kala thaka buDha lag raha tha. balon ka badrang khizab, jhurriyon par pauDar ki parte aur puti hui lali. mujhe kya laga, malum nahin. shayad bahut bura laga. shayad thoDa duःkha hua.
phula boli, main tumku. . . aate jate roz dekhti. ab uske honth dhire dhire kanpne lage. munh ke konon mein laar ikattha ho gai. ruk kar boli, tum ki nai. . . meri ku bhot achchhe lagte.
ekayek hi main kuch bol nahin saka. ajib si chuppi pal bhar chhai rahi. ab phula sambhal gai. boli, tumku lagta ki meri umar bhot jasti! nain kyaa? par main sachchi bolti, meri umar jasti nain hai.
mujhe malum nahin tha, main kya kahun, phir bhi mainne kaha, nain, ye baat nain. tum mere ko ghalat samjha. main aisa adami nain hoon.
usi tarah phula ne kaha, nain, sab adami log kamti umar ki chhokri se mohabbat karte. par main sachchi bolti, mera umar jasti nain. tabbet thoDa bighaD gaya, bas!
mainne jaise zid karte hue kaha, nain, tum mere ko samjha nain, main wo taip ka adami nain. main tumku bahut achchha samajhta, par. . . bolte bolte mein ruk gaya. malum nahin, kya kah deta. phula jaise aur sambhal gai. boli, dekho na, main tumku bhot pasand karti. aate jate hamesha dekhti. tum akele. . . main akeli. main to akeli. main to tumku. . . bole to. . . muhabbat karti. aur bhi jasti muhabbat karungi. kyon to is vaste ki mere ku bhi muhabbat mangta. thoDa helap mangta.
sunsan raat ke teen baje. . . ek akele kamre mein. . . phula mujhse mohabbat aur help ki bheekh maang rahi thi. uske lipe pute chehre par achanak itni bebasi dikhai di ki mujhe bahut taklif hui. lekin mainne kaha, nai bai, tum meri baat samjho. mere ko tumse koi nafrat nain hai. par main main wo taip ka adami hi nain hoon. nai samjhi?
phula ne kuch nahin kaha. ab uska kala chehra aur zyada kala ho gaya tha. ab use koi aasha nahin thi. baDi der tak usi tarah chupchap khaDi rahi. dhire dhire boli, umar jasti hone se kya hota? mohobat nain mangta? help nain mangta?
main chup raha. akhir phula ne kaha, chalo, jane do. koi baat nain. par ek baat bolun kyon?
main usi tarah uski taraf dekhta raha. wo boli, mere ku thoDa paisa mangta chaar paanch rupiya. . . udhari. main jaldi vapas kar deungi. bharosa karna, sachchi bolti.
is tarah phula bai se meri pahli batachit khatm hui. main ab bhi usi raste aata aur jata tha. biDi phunkti hui phula mujhe dekhti thi. muskurati thi, lekin muskrahat mein ab pahle vali baat nahin thi. mere paas paison ki bahut kami thi. phir bhi thoDa kuch mainne use de diya tha. lekin batachit kabhi nahin ho pati thi.
lekin ek raat. . . jab bina kuch khaye piye main sone ki koshish kar raha tha, darvaze par dastak hui. samne phula khaDi thi. uske maile anchal mein kuch Dhaka hua tha. kuch chiDchiDa kar mainne kaha, kya hai?
anchal ke niche se ek rikabi usne meri taraf baDha di. kholi mein ek khushbu si phail gai. plet mein pulav ya is tarah ki koi cheez thi. main uski taraf dekhta rah gaya. usne kaha, subu ko plet le jaungi. aisa khali pet nai sone ka?
mujhe tajjub hua tha. usko kisne bataya ki shaam mujhe khana nahin mila tha. iske baad kai baar aisa hone laga. guzarte samay kai baar wo mere chehre ko dekhti. use bahut kuch malum ho jata tha. kai baar usne mujhe roka. andar jakar chupchap koi rikabi ya plet le aai. lekin batachit ab bhi nahin hoti thi.
lekin ab wo mujhe bahar bhi milne lagi thi. samundar ke kinare gandhi ki muskrati murti ke paas kabhi kabhi biDi phunkti hui baithi rahti thi. dhire dhire mainne uske paas baithna shuru kar diya tha. ab wo zyada thaki, zyada hari hui malum hoti thi. kaam ab usse hota nahin tha. masaj parlar mein kaam bahut karvate the. raat ko kaam hota tha. din mein bhi kaam hota tha. parlar mein kai laDkiyan theen. raat ko ye arbon aur hindustani raison ki malish karti theen. band kamron ke andar se lagatar phula ki pukar hoti rahti thi. kabhi ye pahunchao. . . kabhi wo pahunchao! sharab. . . barf. . . soDa. . . sigret. . . ! beech beech mein lambi chuppiyan chha jati theen. khana bhi pakana paDta tha. baDi raat laDkiyan bahut thak jati theen. fauran khana mangti thi. phula ko bahut galiyan deti theen. nashe mein kabhi kabhi marana shuru kar deti theen. kahan ka ghussa kahan nikalti theen. koi koi kastmar khana bhi khate the. ye log khoob paisa lutate the. itna paisa hai unke paas ki soch bhi nahin sakte. magar laDakiyon ko bahut kam milta tha. parlar ke flait ka bhaDa hi pandrah hazar rupiya mahina tha. bacha hua bahut sa rupiya parlar vala le jata tha. kuch dalal log le jate the. laDakiyon ke liye thoDa sa bach jata tha. bas achchhi tarah pahan oDh leti theen. laDkiyan baDe beman se kaam karti theen. kai baar buri tarah piti jati theen. kuch ko charas. . . aur pata nahin kya kya ki lat lag gai thi.
din bhar bhatak kar shaam ko main aksar murti ke chabutre par baith jata tha. is samay mujhe phula ka intizar hota tha. apne dil ka sara ghubar ab main uske samne nikalne laga tha. lekin aksar wo nahin aa pati thi. kai baar murti ke paas raushani ki jati thi aur bhashan hote the. lekin taiksivale arab amiron ko yahan le aate the. inke saath hindustani ya nepali laDkiyan hoti theen. chhoti chhoti laDakiyon ko achchhe achchhe kapDe pahna kar arab log inhen sair karane late the. in sukhi murjhai laDakiyon par fauren ki jeens aur qamizen baDi ajib lagti theen. in kapDon ko pahli baar pahan kar ye laDkiyan bahut khush dikhai deti theen. hindustani dalal aur taiksi Draivar haath bandhe pichhe pichhe chalte the. beech beech mein chhoti laDakiyon ko Daant Daant kar batate rahte the ki kaisi harkat karni chahiye aur kaisi nahin. ret ke kinare ke restaran aur hotal bahut uunche aur mahnge the. arab log in laDakiyon ko vahan zarur le jate the. us samay aise khane ko pahli baar dekhkar in laDakiyon ke ankhon mein pata nahin kaisi chamak aa jati thi. phir is tarah khatin ki bas dekhte hi banta tha. arab log in laDakiyon ko bahut khush karte the. kabhi ghoDon par bithate, kabhi uunt par. tarah tarah se inki rangin tasviren utarvate the. itni khushiyan ek saath pakar ye chhoti chhoti laDkiyan uchhal uchhal kar kabhi ye mangti theen, kabhi wo.
ye sab dekh dekhkar phula ko bahut ghussa aata tha. ek din jhalla kar boli, sunte kyaa! ek din inka bhi voi haal hoga, jo mera ho raya hai. mere ku bhi ye sab mein bhot maza aata tha.
achanak phula jaise ruansi ho gai. ho sakta hai, ye sahi ho. shayad kabhi phula ka bhi ek zamana raha ho. ye baat sach ho ki door door se log phula ka pata laga kar aate the. dalal log baDe baDe grahkon ko hamesha phula ke bare mein batate the. lekin phula ki is haalat ko dekhkar, pata nahin kyon, uski in baton par bharosa nahin hota tha.
idhar wo kuch ziyada hi chiDachiDane lagi thi. har cheez. . . har baat par jhalla uthti thi. ab sirf laDakiyon, dalalon, parlarvale ko hi nahin kosti, sari sari duniya ko galiyan deti thi.
ek shaam, jab suraj ko Dube kafi samay beet gaya tha, gandhi ki muskurati murti ke paas hum donon baithe the. joDe pyaar kar rahe the. laDkiyan grahak talash kar rahi theen. hijDe naach rahe the aur bhikhari bheekh maang rahe the. phula kuch ziyada hi chup thi. main bhi chupchap tamam logon ko dekh raha tha, jo bahut khush dikhai de rahe the.
achanak mainne mahsus kiya ki phula mere paas sarak aai hai. lekin main anjan bana raha. wo kuch aur paas aa gai. uske sharir ka itna paas hona mujhe kuch ziyada taklif dene laga. phir bhi main baitha raha. ab usne haath mere kandhe par rakh diya aur boli, aisa kya karte. chalo na, apun chalega. . . kidhar bhee! apun mohobat karega.
main ab bhi usi tarah baitha raha. uska munh ab mere bahut qarib aa gaya tha. usne kaha, sachchi, main tumku bhot mohobat karti. . . bhot. aisa kya karte. chalo na bhee!
ab main uth kar khaDa ho gaya. mainne kaha, ek baar bola na tumko, main wo taip ka adami nai hoon. samajh mein nain aata kyaa?
meri avaz mein shayad kuch ghussa tha. pal bhar wo usi tarah baithi rahi, phir khaDi ho gai. is samay mainne mahsus kiya ki wo bahut ziyada ghusse mein hai. uska kala chehra us dhundhle andhere mein kanpne laga. bahut hi nangi galiyan de kar wo boli, ja re sala. . . ja ja! tu kya mohobat karega! hijDa! tera baba bhi mohobat nain kar sakta. sala. . . kaleja mangta. . . kaleja. . . mohobat ke vaste. sala, tera baap bhi kabhi kiya. tu. . tu. . tu to!
iske baad nangi galiyon ki koi had nahin rahi. main chupchap use dekhta raha. mere man mein ab koi ghussa nahin tha. un galiyon ka mujhe bura bhi nahin lag raha tha. use dekh kar mujhe kuch taklif ho rahi thi. wo bolti rahi, main sunta raha. wo thak gai. laDkhaDati hui chali gai. main usi tarah dhundhle andhere mein khaDa rah gaya. sagar ki lahron ke thapeDe paas aate ge aur logon ka shor kam hota gaya. lekin ab bhi meri samajh mein nahin aaya ki kya karun.
lekin iske baad phula ne meri taraf dekhana bilkul band kar diya. kai baar main paas se guzar jata tha, phir bhi wo meri taraf nahin dekhti thi. kya wo mujhse hamesha naraz rahti thee? mujhe aisa nahin lagta tha. lagta tha ki koi saval hai. shayad zindagi ka saval! is saval se ab wo akele hi laDegi. ab use kisi ki zarurat nahin hain. main bhi uske liye bekar hoon. ya shayad bahut thak gai hai. ab kisi ko dekhana, kisi se bolna use achchha nahin lagta.
lekin main phula se bolna chahta tha. ek din main bahut zyada duhkhi ho gaya tha. idhar daftron aur kampaniyon mein logon ko sirf chhah mahinon ke liye kaam par rakha jata hai. isse kaam karne vale hamesha tempreri rahte hain. unke parmanent hone ka koi khatra nahin hota. har chhah mahine ke baad unhen kaam se alag kar diya jata hai. iske baad naya apaintment diya jata hai. is baar kampni ne mujhe naya apaintment dene se inkaar kar diya. achanak hi main bekar ho gaya. itna pareshan main pahle kabhi nahin hua tha. laga ki khoob roun. us din bahut man ho raha tha ki phula se sab kuch kah doon lekin murti ke chabutre par aana usne band kar diya tha. lautte samay raste mein mili zarur, lekin dekh kar bhi mujhe andekha kar diya. main vahan se baar baar guzra, magar usne meri taraf dekha tak nahin. us samay mujhe us par ghussa bhi aaya tha.
mera room partnar hamesha sota rahta tha. uski Dyuti hamesha raat ko rahti thi. meri uski batachit bahut kam ho pati thi. ab main akela hi sagar kinare door door tak ghumta rahta tha. is ilaqe men—nai nai aur uunchi uunchi bilDinge khoob ban rahi theen. hum log inhen bas dekh sakte the. mainne suna tha ki bilDar log ek ek flait ke kai kai laakh rupe lete hain. bahut se baDe baDe smaglar log bilDar ban jate hain, bahut se log lakhon rupe de kar ye flait kharidte hain. phir lakhon rupe kharch kar in flaiton ko sajate hain. ye sari baten sunta tha, lekin mujhe bharosa nahin hota tha.
mainne ye bhi suna tha ki log bahut jald amir ho jate hain. is baat par bhi mujhe bharosa nahin hota tha.
in dinon mere man mein phula se baat karne ki baDi ichchha hoti thi. din bhar dhakke kha kar shaam jab main lautta tha, to har roz mere paas ek nai kahani hoti thi. ye kahaniyan aksar nirasha, beizzti aur duःkha ki kahaniyan hoti theen. kaam milna baDa mushkil ho raha tha. har jagah apne apne logon ko kaam diya ja raha tha. ye sab kahaniyan main pahle ki tarah hi phula ko sunana chahta tha. lekin ab phula ne dikhai dena bhi band kar diya tha.
ek din jab main lauta, to bahut khush tha. agle do chaar dinon mein mera kaam par lagna pakka ho gaya tha. ummid thi ki is baar chhah mahine vali naukari nahin hogi, pakka ho jane ki puri aasha thi. main itna khush tha ki kisi bhi haalat mein phula se baat karna chahta tha. kafi raat tak main murtivale chabutre par baitha raha. mere samne hanste khelte log guzar ge. mere samne suraj pani mein Doob gaya. lekin phula nahin aai. ye koi nai baat nahin thi. raat tak baith kar main vahan se utha gaya. imarat ke samne se guzarte guzarte kai baar mainne udhar dekha. phula kahin dikhai nahin di. ye bhi koi nai baat nahin thi. lekin is baar mujhe kuch ajib sa laga. mujhe phir khayal aaya ki pichhle kai dinon se mainne use nahin dekha hai. kya hua? kya wo kahin aur chali gai? is khayal se main kuch pareshan ho gaya. main kisi se phula ke bare mein puchhna chahta tha, lekin yahan koi kisi se baat hi nahin karta tha.
do teen din aur guzar ge. masaj parlar ki battiyan baDi raat tak chamakti rahti theen. baar baar aate hue. . . jate hue. . . mainne dhyaan se dekha, phula kahin nahin thi. mujhe malum ho gaya, phula kahin chali gai. shayad mujhe kafi bura laga. lekin main uunchi imarton mein rahne vale logon ki baten sochne laga. lakhon rupe kharch karne vale logon ki baten sochne laga. smagalron, bilDron, arab amiron ke saath ghumti chhoti laDakiyon. . . sabhi ki baten sochne laga. lekin phula ke bare mein bhi sochta raha.
lekin ek raat ek aur hi baat ho gai. mujhe lautne mein kafi der ho gai thi. agle din mujhe kaam par bulaya gaya tha. main thaka tha. lekin kafi khush tha. akhiri bas chhoot jane ke karan main paidal chal kar hi thikane par pahuncha tha. jab main andheri gali mein dakhil ho raha tha, mainne dekha ki lanDri ki dukan ke takhte par koi aurat paDi hai. main aage nikal gaya. lekin phir laut aaya. haan, ye phula hi thi. main kuch samajh nahin paya. is samay raat ke do baj rahe the. saDak qarib qarib khali hi thi. laDkiyan aur dalal ja chuke the. mujhe laga ki phula so gai hai. lekin main phir guzra aur mujhe laga ki nahin, soi nahin hai. shayad chhokariyon ke saath isne bhi bahut sharab pi li hai. main apni kholi tak gaya. tala kholne se pahle phir laut aaya. ab mujhe laga ki phula behosh hai. kuch hichkicha kar mainne avaz di, phula! phula bai! koi javab nahin aaya. ab main uske ekdam paas pahunch gaya. mainne use hilaya aur. . . aur mujhe laga ki phula bahut bimar hai. uska badan bahut zyada garam hai aur munh ke charon taraf kai phaili hui hai. achanak hi sab kuch samajh mein aa gaya. shayad phula kai dinon se bimar thi. mujhse jhagaDte samay bhi shayad bimar thi. parlarvalon ne shayad aaj use nikal diya. vahan se nikal kar wo kisi tarah takhte tak pahunchi. . ya shayad log use yahan Daal ge. iske baad. . . ! iske baad meri samajh mein nahin aaya ki kya karun! kya main phula ko usi tarah vahan chhoD doon aur chala jaun? mujhe laga ki aisa nahin ho sakta. vahan andheri gali mein koi nahin tha, jisse main kuch kah sakta. sirf uunchi imarton ki battiyan chamak rahi theen. aur saDak par ek do taiksivale apni apni taiksiyon mein so ge the. main chahta tha ki kisi ko pukarun, avaz doon, lekin vahan koi nahin tha.
us samay mainne hisab lagaya ki mere paas kuch kitne rupe bache hain. iske baad mainne ek taiksivale ko jagane ki koshish ki. mushkil hi mushkil thi. phir bhi mainne soch liya tha ki ab kya karna hai.
isi tarah raat bitti gai thi. do asptalon ne use lene se inkaar kar diya. myunisipal aspatal thasathas bhara tha. mainne baDi minnten ki thi. narson ke Dyuti room mein ek bistar Daal kar use lita diya gaya tha. salain ki botal laga di gai thi. baDi nars ne mujhse kaha ki main botal ki jagah dusri la doon. aspatal mein davaiyan bhi nahin hain. main bahar se kharid kar davaiyan le auun. lekin main chupchap subah ka intizar kar raha tha. varDon mein, galiyaron mae, palangon par, zamin par, har jagah mariz hi mariz paDe the. narson ne kaha tha ki injekshan bhi lana hoga. bahut si chizon ki zarurat thi. lekin hamare paas kuch nahin tha. phir bhi main subah ka intizar kar raha tha. aur bench par baithe baithe hi subah ho gai thi. mujhe nahin malum tha ki ye kaisi subah thi. logon ne chalna phirna aur gaDiyon ne dauDna shuru kar diya tha. mainne tamam logon ke bare mein socha tha. ye log thoDi bahut madad kar sakte the. Dyuti room mein ja kar mainne ek baar phir phula ki taraf dekha tha. wo ab bhi behosh thi. chitkabre baal bikhre hue the aur wo pahle se ziyada kurup lag rahi thi. iske baad mainne chalna shuru kar diya tha.
din bhar chalta raha. is jagah se us jagah aur us jagah se us jagah. inDiya intarneshnal kaurporeshan ne mujhe kaam par lene se inkaar kar diya. mujhe bahut duःkha hua. meri sari ashayen mitti mein mil gain. is baar mujhe bahut bharosa tha, kaam zarur lag jayega. subah shaam ki chinta mit jayegi. mujhe laga ki main jaise phutpath par aa gaya hoon. shaam hote hote main laut aaya. is samay davaiyan aur salain ki botlen mainne kharid li theen. kuch logon ne thoDe thoDe paise de diye the. main bilkul thak gaya tha.
jab main aspatal pahuncha, to phula ki haalat bahut kharab thi. uske munh par, kanon tak kai phaili hui thi aur bistar bhi kai mein sana hua tha. uski saans gharaghra rahi thi. lagta tha ki kisi bhi samay ukhaD jayegi. lekin phir bhi uski taraf kisi ka dhyaan nahin tha. is samay mujhe laga ki phula mar jayegi. pata nahin kyon, mujhe ye bhi laga ki he bhagvan, phula ko is tarah marna nahin chahiye. kisi bhi tarah use bachna chahiye.
main dauD kar baDi sistar ke paas gaya tha. baDi mushkil se usne meri taraf dhyaan diya tha. phir ek Dauktar aaya tha. usne batya tha ki kai phephDon mein chali gai hai. phula paDi hui kai karti thi aur kisi ne uski taraf dhyaan nahin diya tha. ab ek mashin lai gai. mashin ghar ghar chalne lagi. munh ke andar nali Daal kar Dauktar charon taraf hilane laga. ab phula ek ek saans khinchne ke liye bilbilane lagi. bilbila kar saans khinchti thi. chhatapta kar ankhen khol charon taraf dekhti thi. ab mujhe baar baar lagne laga ki kisi bhi tarah use bach jana chahiye. bach kar kya hoga? bach kar kahan jayegi? mujhe kuch bhi malum nahin tha. bas, yahi lag raha tha ki use bachna chahiye.
mashin chalti rahi aur avaz aati rahi. phula bilbilati rahi aur avaz aati rahi. dhire dhire raat ho gai aur sabhi avazen chup ho gain. ab mashin hata di gai aur botal phir laga di gai. ab meri samajh mein nahin aa raha tha ki kya karun? nars aur Daktar koi batane ko taiyar nahin tha ki kya hoga! auksijan ke sare silenDar khali paDe the. ya do teen the, jo marizon par lage hue the. main baitha raha. phir main bahar aa gaya. phir main sochne laga ki raat kya hoga? kya main vahin kahin so jaun? lekin aisi koi jagah nahin thi. raat kuch ho gaya, to kya phula ka duniya mein koi hai? kya hamara duniya mein koi hai? tab mujhe laga tha ki hamara koi nahin hai. . . hamin apne sab kuch hain.
ab main vahin laut aaya tha. jahan smaglar, arab, amir, laDkiyan, dalal, hijDe. . sab apna kaam kar rahe the. kai sitaron vale hotlon mein battiyan jagmaga rahi theen aur mahnge restranon mein ajib dhunen baj rahi thi. masaj parlar ke samne khubsurat gaDiyan khaDi theen. aaj shayad koi khaas din tha. gandhi ji ki murti ko lattuon se sajaya gaya tha aur samne koi neta bhashan kar raha tha. kafi bheeD lagi hui thi. is samay neta gandhi ji, panDit ji vaghairah ki mahanta ka bakhan kar raha tha aur ek dalal ek karvale ko patane ki koshish kar raha tha.
tab mujhe achanak pahli baar khayal aaya ki main kis duniya mein hoon? kisne ise aisa bana diya hai? main kya karun? ise aisa hi chhoD kar apni ankhen band kar loon? charon taraf dalalon ki bheeD hai. main bhi dalalon ki duniya men dalalon ke dalalon ki duniya mein shamil nahin kar sakta. main bekar, beghar, besahara sahi, par main dalalon ki duniya mein shamil nahin ho sakta. naukari nahin milegi. . . kabhi nahin. koi baat nahin. phula mar jayegi, koi baat nahin. rasta mujhe malum nahin, koi baat nahin. in sabke liye mere andar nafrat hai. wo hamsha zinda rahegi. vahi mujhe rasta dikhayegi.
raat bhar avazen aati rahin. raat bhar baje bajte rahe aur dhune gunjti rahin. raat bhar battiyan jalti rahin. raat bhar. . main so nahin saka ya shayad so gaya aur sapne dekhta raha. phula mar gai aur baje bajte rahe. . . dhune gunjti rahi. . . battiyan jhilmilati rahin. main jaag kar uth baitha. baar baar main so gaya. baar baar phula marti gai.
lekin jab subah ho gai, to phula mari nahin, zinda thi. main sabse pahle aspatal pahuncha tha. botal aur nali ko hata diya gaya tha. nars ne kaha ki main chaay kaufi doodh bhi la kar use pilaun.
ek gilas mein chaay le kar jab main uske paas baitha, to ankhen khol kar usne meri taraf dekha. mainne chammach se chaay di. usne chupchap pi li. ek baar phir usne meri taraf dekha. phir chupchap ankhen band kar li.
lekin isi samay baDi nars ne aa kar kaha main use le jaun aur fauran wo jagah khali kar doon. imarjensi mein use rakh liya gaya tha. ab jaan ke liye khatra nahin hai. ab Dyuti room mein use rakha nahin ja sakta. aspatal mein koi jagah nahin hai. baqi davaiyan main use ghar le ja kar doon. tab mainne socha tha. . . ghar? ghar le jaun? kahan hai ghar? masaj parlar vale use rakhenge? kafi samay mainne usi tarah guzar diya tha.
achanak baDi nars bahut tezi se mere paas aai. phula ko na le jane ke liye usne mujhe bahut Danta. avaz de kar usne kai vaarD bauy bula liye. akhiri baar usne mujhse kaha ki agar main phula ko nahin le jaunga, to wo use bahar Dalva degi. is baar main chup nahin rah saka. phula ke paas pahunch kar mainne kaha, phula bai. . . utho! ab yahan se chalna hai.
phula uthne ki koshish karne lagi, lekin utha nahin gaya. tab aage baDh kar mainne sahara diya. kisi tarah uth kar baith gai. phir sahare sahare khaDi ho gai. phir ghisat ghisat kar hum donon ne kisi tarah chalna shuru kar diya. ghisatte hue hum aspatal ke phatak par aa ge. achanak wo thahar gai. mainne dekha ki kuch kah rahi hai. mainne sunne ki koshish ki. kanpti avaz mein usne kaha, tum. . tum. . nai aata to. . . to mar jati!
is samay uski ankhen DabDabai hui theen. achanak main zoron se hans paDa. . . hansta raha. wo dekhti rahi. hanste hue mainne kaha, tum. . . boli theen na. . . ki main. . . mohabbat nahin kar sakta. abhi dekha na, main kaisi mohabbat karta!. . . bolo!
lekin phir isi samay main achanak bahut gambhir ho gaya. mainne kaha, magar. . . . . wo taip ka adami nain hu. . . samajh gain na!
is samay ghisatte hue. . ., laDkhaDate hue. . . hum aspatal se bahar nikal rahe the. lekin. . . hamein nahin malum tha. . . ki kidhar jana hai!
zaruri nahin hai phula bai ka zikr. phir bhi ek basti hai, jise sabne dekha hai. pahli baar main bhaunchak rah gaya tha. purane makanon mein ajib ajib log rahte the—dur door se aaye hue log. lagta tha pichhaD ge hain. aage baDhne ki laDai mein lage hue hain. kuch laDkiyan theen, jo veshyayen theen. kuch laDke—dalal the. din bhar log khamosh rahte the—soye hue. shaam se halchal shuru hoti thi. puri saDak gaDiyon, dalalon aur grahkon se bhari hoti thi. baDe baDe hotlon ki battiyan chamakne lagti theen. inmen paanch ya teen tare hote the ya kisi mein koi tara nahin hota tha. tare dikhai nahin dete the. hum unhen sirf mahsus kar sakte the.
door door deshon ke log yahan aate the. dekhkar pata chalta tha ki gore hain. arab hain. log khaas taur par arbon ke aane ka rasta dekhte the. dukanon, hotlon, laDakiyon aur dalalon ko arbon ka intizar hota tha. bhikhariyon, bazigron, hijDon ko bhi arbon ka intizar hota tha. apne apne kamron ki uunchaiyon se arab log niche ki duniya ko dekha karte the. yahan hijDe nachte the. bazigar khel dikhate the. bhikhari aurten bachche bheekh mangte the. naton ke bachche sarkas karte the. har khel ke baad ek hi saval hota tha gharib. . . bhukha. . . pet ke liye khana. . . alla. . . rafiq. . . rahm kar. sukhe duble—phatehal hindustani apna khali pet pitte the. aurten kale bimar bachche dikhati theen. arab. . . rafiq. . . rahamdil allah ke naam par uupar se not phenkte the. duble kale insaan un par toot paDte the. sabmen samjhauta ho gaya tha. noton ko lekar laDaiyan hoti theen. . . phir nahin hoti theen. lekin phir aur mangte the. . . allah ke naam par rafiq. . . rahamdil! ab arab sirf hanste the. kabhi kabhi kaghaz ke tukDe phenkte the. bheeD ek baar phir dauD paDti thi.
hum sab log khush the. yahan rahna zaruri tha. sari daulat yahin thi. sab kuch yahin tha. sirf rahne ki jagah nahin thi. iska bhi intizam ho gaya tha. ek kona tha. . . ek khaat kafi thi. yahin mainne phula bai ko dekha tha. pachpan ya saath saal ki thaki hui kali aurat. balon mein badrang khizab lagya tha. balon ki jaDen safed ho rahi theen. kai jagah safed baal chhoot bhi ge the. aate jate ek baar usne mujhe ghaur se dekha tha. dusri baar muskrai thi. tisri baar usne ankh maar di thi. mujhe kya hua tha, malum nahin, shayad main ghabra gaya tha. isse pahle kisi aurat ne aisa nahin kiya tha. us din se main hoshiyar ho gaya tha. aate jate hamesha dusri taraf dekhta tha. lekin phir bhi chizen theek nahin ho rahi thi. kisi na kisi tarah phula samne aa jati thi aur ziyada bani thani, aur ziyada thaki hui. zara sa khansti. phir ankhon ke konon se takti. vahi muskurahat. main pareshan ho gaya tha.
magar log ab bhi usi tarah chal rahe the. suzar samandar mein Doob jata tha. purane makanon mein laDkiyan ban than kar taiyar ho jati theen. taiksiyan ya karen hotlon mein pahuncha deti theen. samne ki baDi imarat ki battiyan chamakti rahti theen. amir hindustaniyon aur arbon ki gaDiyan vahan zarur aati theen. ye imarat hotal nahin thi. iske flaiton mein sharif log rahte the. lekin laDkiyan vahan bhi hoti thi. dalal vahan bhi ghumte the. main aksar ukta jata tha. samundar ki lahren bhi dil nahin bahlati thi. gandhi ki murti ankhen band kiye muskurati rahti thi. premi log lipatte rahte the. bhikhmange. . . hijDe. . . dalal. . . thelevale. . . sab apna kaam karte rahte the. magar mujhe. . . mujhe kya taklif thi, malum nahin, is samay mujhe phula bai ka khayal aa jata tha.
baDi imarat ke ek flait se koi aksar yahin naam pukarta tha. phula fauran andar chali jati thi. andar shayad kaam karti thi. phir bahar aa jati thi. ek biDi lekar baith jati thi. lekin fauran hi phir pukar hoti thi. dam lene ki fursat bhi nahin milti thi. dukanon se saman le le kar andar pahunchati thi. hotal se chaay, dukan se paan sigret vaghairah. ukta kar kabhi kabhi main sochta tha ki meri sahi jagah kya hai! is bheeD mein mujhe kis taraf jana hai? kya main bhi aage baDhun aur dalalon ki duniya mein shamil ho jaun? gandhi ki murti ke paas arbon aur amiron ke saude patana shuru kar doon?
raat lekin hamesha bahut ho jati thi. kabhi akhiri bas milti thi, kabhi nahin. jute ghasitta hua main paidal us thikane par pahunch jata tha, jahan meri khatiya thi. partnar kabhi Dyuti par hota tha, kabhi sota rahta tha. idhar jab se wo ghar gaya tha, raat ko lautne par kholi mujhe katne dauDti thi. jitna ziyada ho sakta tha, main bahar rahta tha. is samay, jab main steshan se bahar aaya, akhiri bas ja chuki thi. ghaDi mein DeDh baj rahe the. khali raste par mainne chalna shuru kar diya tha. daru ke aDDe khul the. meet anDe ke khomchon ke paas bheeD theen. ranDiyon ki talash ab bhi jari thi. thikane par pahunchte do Dhai baj ge. sari jagah sunsan lagti thi. sirf phlaiton ki battiyan jal rahi theen. shayad koi nashe mein cheekh raha tha. andhere galiyaron se jab main guzra to laga ki koi khaDa hai. phula bai thi. . . main pahchan gaya. pal bhar ruk kar main aage nikal gaya.
lekin chabi mere paas nahin theen shayad kahin gir gai thi ya kahin rah gai theen. main samajh nahin paya ki kya karun! der tak vahin khaDa raha. phir bahar aa gaya. phir andar chala gaya. is tarah do teen chakkar ho ge. mujhe dekhkar ab kuch kutton ne bhokna shuru kar diya. is samay phula bai andhere se ujale mein aa gai. mainne dekha ki chehre par bahut sa pauDar lagaya gaya tha. badrang balon mein murjhaya hua ek gajra atka hua tha. ek ajib si saDi pahni thi, jo na jane kab nari rahi hogi. pahli baar mujhe malum hua ki phula bhi roz raat shayad grahak talash karti thi. pahli baar usne mujhse kaha, kya ho gaya chakkar kyoon lagate ho?
meri samajh mein nahin aaya ki kya karun! phir bhi mainne kaha, meri killi gum ho gai. kholi pe lauk hai.
is samay raat puri tarah sunsan thi. baDi imarat ke masaj parlar se nikal kar koi baDa adami kaar ka darvaza khol raha tha? halke ujale mein phula chupchap khaDi rahi. main chalne laga, to boli, zara ruko to. . . kaisa tala hai tumhara?
hichkicha kar mainne use tale ke bare mein bataya. boli, aisa karo. . . hamari killi laga ke dekho na!
uski chaal mein laDkhaDahat thi. jab imarat se lauti, to haath mein chabiyon ka guchchha tha. mainne kai chabiyan lagain. ek bhi nahin lagi. phir usne koshish ki. chabiyon par chabiyan badalti rahi. pata nahin kaise, tala khul gaya. main pal bhar vaise hi khaDa rah gaya. andar ja kar batti jalai. apne aap hi phula andar aa gai. is samay meri himmat nahin ho rahi thi ki uski taraf dekhun, lekin main use dekhne laga. wo chehra us ujale mein aur bhi kala thaka buDha lag raha tha. balon ka badrang khizab, jhurriyon par pauDar ki parte aur puti hui lali. mujhe kya laga, malum nahin. shayad bahut bura laga. shayad thoDa duःkha hua.
phula boli, main tumku. . . aate jate roz dekhti. ab uske honth dhire dhire kanpne lage. munh ke konon mein laar ikattha ho gai. ruk kar boli, tum ki nai. . . meri ku bhot achchhe lagte.
ekayek hi main kuch bol nahin saka. ajib si chuppi pal bhar chhai rahi. ab phula sambhal gai. boli, tumku lagta ki meri umar bhot jasti! nain kyaa? par main sachchi bolti, meri umar jasti nain hai.
mujhe malum nahin tha, main kya kahun, phir bhi mainne kaha, nain, ye baat nain. tum mere ko ghalat samjha. main aisa adami nain hoon.
usi tarah phula ne kaha, nain, sab adami log kamti umar ki chhokri se mohabbat karte. par main sachchi bolti, mera umar jasti nain. tabbet thoDa bighaD gaya, bas!
mainne jaise zid karte hue kaha, nain, tum mere ko samjha nain, main wo taip ka adami nain. main tumku bahut achchha samajhta, par. . . bolte bolte mein ruk gaya. malum nahin, kya kah deta. phula jaise aur sambhal gai. boli, dekho na, main tumku bhot pasand karti. aate jate hamesha dekhti. tum akele. . . main akeli. main to akeli. main to tumku. . . bole to. . . muhabbat karti. aur bhi jasti muhabbat karungi. kyon to is vaste ki mere ku bhi muhabbat mangta. thoDa helap mangta.
sunsan raat ke teen baje. . . ek akele kamre mein. . . phula mujhse mohabbat aur help ki bheekh maang rahi thi. uske lipe pute chehre par achanak itni bebasi dikhai di ki mujhe bahut taklif hui. lekin mainne kaha, nai bai, tum meri baat samjho. mere ko tumse koi nafrat nain hai. par main main wo taip ka adami hi nain hoon. nai samjhi?
phula ne kuch nahin kaha. ab uska kala chehra aur zyada kala ho gaya tha. ab use koi aasha nahin thi. baDi der tak usi tarah chupchap khaDi rahi. dhire dhire boli, umar jasti hone se kya hota? mohobat nain mangta? help nain mangta?
main chup raha. akhir phula ne kaha, chalo, jane do. koi baat nain. par ek baat bolun kyon?
main usi tarah uski taraf dekhta raha. wo boli, mere ku thoDa paisa mangta chaar paanch rupiya. . . udhari. main jaldi vapas kar deungi. bharosa karna, sachchi bolti.
is tarah phula bai se meri pahli batachit khatm hui. main ab bhi usi raste aata aur jata tha. biDi phunkti hui phula mujhe dekhti thi. muskurati thi, lekin muskrahat mein ab pahle vali baat nahin thi. mere paas paison ki bahut kami thi. phir bhi thoDa kuch mainne use de diya tha. lekin batachit kabhi nahin ho pati thi.
lekin ek raat. . . jab bina kuch khaye piye main sone ki koshish kar raha tha, darvaze par dastak hui. samne phula khaDi thi. uske maile anchal mein kuch Dhaka hua tha. kuch chiDchiDa kar mainne kaha, kya hai?
anchal ke niche se ek rikabi usne meri taraf baDha di. kholi mein ek khushbu si phail gai. plet mein pulav ya is tarah ki koi cheez thi. main uski taraf dekhta rah gaya. usne kaha, subu ko plet le jaungi. aisa khali pet nai sone ka?
mujhe tajjub hua tha. usko kisne bataya ki shaam mujhe khana nahin mila tha. iske baad kai baar aisa hone laga. guzarte samay kai baar wo mere chehre ko dekhti. use bahut kuch malum ho jata tha. kai baar usne mujhe roka. andar jakar chupchap koi rikabi ya plet le aai. lekin batachit ab bhi nahin hoti thi.
lekin ab wo mujhe bahar bhi milne lagi thi. samundar ke kinare gandhi ki muskrati murti ke paas kabhi kabhi biDi phunkti hui baithi rahti thi. dhire dhire mainne uske paas baithna shuru kar diya tha. ab wo zyada thaki, zyada hari hui malum hoti thi. kaam ab usse hota nahin tha. masaj parlar mein kaam bahut karvate the. raat ko kaam hota tha. din mein bhi kaam hota tha. parlar mein kai laDkiyan theen. raat ko ye arbon aur hindustani raison ki malish karti theen. band kamron ke andar se lagatar phula ki pukar hoti rahti thi. kabhi ye pahunchao. . . kabhi wo pahunchao! sharab. . . barf. . . soDa. . . sigret. . . ! beech beech mein lambi chuppiyan chha jati theen. khana bhi pakana paDta tha. baDi raat laDkiyan bahut thak jati theen. fauran khana mangti thi. phula ko bahut galiyan deti theen. nashe mein kabhi kabhi marana shuru kar deti theen. kahan ka ghussa kahan nikalti theen. koi koi kastmar khana bhi khate the. ye log khoob paisa lutate the. itna paisa hai unke paas ki soch bhi nahin sakte. magar laDakiyon ko bahut kam milta tha. parlar ke flait ka bhaDa hi pandrah hazar rupiya mahina tha. bacha hua bahut sa rupiya parlar vala le jata tha. kuch dalal log le jate the. laDakiyon ke liye thoDa sa bach jata tha. bas achchhi tarah pahan oDh leti theen. laDkiyan baDe beman se kaam karti theen. kai baar buri tarah piti jati theen. kuch ko charas. . . aur pata nahin kya kya ki lat lag gai thi.
din bhar bhatak kar shaam ko main aksar murti ke chabutre par baith jata tha. is samay mujhe phula ka intizar hota tha. apne dil ka sara ghubar ab main uske samne nikalne laga tha. lekin aksar wo nahin aa pati thi. kai baar murti ke paas raushani ki jati thi aur bhashan hote the. lekin taiksivale arab amiron ko yahan le aate the. inke saath hindustani ya nepali laDkiyan hoti theen. chhoti chhoti laDakiyon ko achchhe achchhe kapDe pahna kar arab log inhen sair karane late the. in sukhi murjhai laDakiyon par fauren ki jeens aur qamizen baDi ajib lagti theen. in kapDon ko pahli baar pahan kar ye laDkiyan bahut khush dikhai deti theen. hindustani dalal aur taiksi Draivar haath bandhe pichhe pichhe chalte the. beech beech mein chhoti laDakiyon ko Daant Daant kar batate rahte the ki kaisi harkat karni chahiye aur kaisi nahin. ret ke kinare ke restaran aur hotal bahut uunche aur mahnge the. arab log in laDakiyon ko vahan zarur le jate the. us samay aise khane ko pahli baar dekhkar in laDakiyon ke ankhon mein pata nahin kaisi chamak aa jati thi. phir is tarah khatin ki bas dekhte hi banta tha. arab log in laDakiyon ko bahut khush karte the. kabhi ghoDon par bithate, kabhi uunt par. tarah tarah se inki rangin tasviren utarvate the. itni khushiyan ek saath pakar ye chhoti chhoti laDkiyan uchhal uchhal kar kabhi ye mangti theen, kabhi wo.
ye sab dekh dekhkar phula ko bahut ghussa aata tha. ek din jhalla kar boli, sunte kyaa! ek din inka bhi voi haal hoga, jo mera ho raya hai. mere ku bhi ye sab mein bhot maza aata tha.
achanak phula jaise ruansi ho gai. ho sakta hai, ye sahi ho. shayad kabhi phula ka bhi ek zamana raha ho. ye baat sach ho ki door door se log phula ka pata laga kar aate the. dalal log baDe baDe grahkon ko hamesha phula ke bare mein batate the. lekin phula ki is haalat ko dekhkar, pata nahin kyon, uski in baton par bharosa nahin hota tha.
idhar wo kuch ziyada hi chiDachiDane lagi thi. har cheez. . . har baat par jhalla uthti thi. ab sirf laDakiyon, dalalon, parlarvale ko hi nahin kosti, sari sari duniya ko galiyan deti thi.
ek shaam, jab suraj ko Dube kafi samay beet gaya tha, gandhi ki muskurati murti ke paas hum donon baithe the. joDe pyaar kar rahe the. laDkiyan grahak talash kar rahi theen. hijDe naach rahe the aur bhikhari bheekh maang rahe the. phula kuch ziyada hi chup thi. main bhi chupchap tamam logon ko dekh raha tha, jo bahut khush dikhai de rahe the.
achanak mainne mahsus kiya ki phula mere paas sarak aai hai. lekin main anjan bana raha. wo kuch aur paas aa gai. uske sharir ka itna paas hona mujhe kuch ziyada taklif dene laga. phir bhi main baitha raha. ab usne haath mere kandhe par rakh diya aur boli, aisa kya karte. chalo na, apun chalega. . . kidhar bhee! apun mohobat karega.
main ab bhi usi tarah baitha raha. uska munh ab mere bahut qarib aa gaya tha. usne kaha, sachchi, main tumku bhot mohobat karti. . . bhot. aisa kya karte. chalo na bhee!
ab main uth kar khaDa ho gaya. mainne kaha, ek baar bola na tumko, main wo taip ka adami nai hoon. samajh mein nain aata kyaa?
meri avaz mein shayad kuch ghussa tha. pal bhar wo usi tarah baithi rahi, phir khaDi ho gai. is samay mainne mahsus kiya ki wo bahut ziyada ghusse mein hai. uska kala chehra us dhundhle andhere mein kanpne laga. bahut hi nangi galiyan de kar wo boli, ja re sala. . . ja ja! tu kya mohobat karega! hijDa! tera baba bhi mohobat nain kar sakta. sala. . . kaleja mangta. . . kaleja. . . mohobat ke vaste. sala, tera baap bhi kabhi kiya. tu. . tu. . tu to!
iske baad nangi galiyon ki koi had nahin rahi. main chupchap use dekhta raha. mere man mein ab koi ghussa nahin tha. un galiyon ka mujhe bura bhi nahin lag raha tha. use dekh kar mujhe kuch taklif ho rahi thi. wo bolti rahi, main sunta raha. wo thak gai. laDkhaDati hui chali gai. main usi tarah dhundhle andhere mein khaDa rah gaya. sagar ki lahron ke thapeDe paas aate ge aur logon ka shor kam hota gaya. lekin ab bhi meri samajh mein nahin aaya ki kya karun.
lekin iske baad phula ne meri taraf dekhana bilkul band kar diya. kai baar main paas se guzar jata tha, phir bhi wo meri taraf nahin dekhti thi. kya wo mujhse hamesha naraz rahti thee? mujhe aisa nahin lagta tha. lagta tha ki koi saval hai. shayad zindagi ka saval! is saval se ab wo akele hi laDegi. ab use kisi ki zarurat nahin hain. main bhi uske liye bekar hoon. ya shayad bahut thak gai hai. ab kisi ko dekhana, kisi se bolna use achchha nahin lagta.
lekin main phula se bolna chahta tha. ek din main bahut zyada duhkhi ho gaya tha. idhar daftron aur kampaniyon mein logon ko sirf chhah mahinon ke liye kaam par rakha jata hai. isse kaam karne vale hamesha tempreri rahte hain. unke parmanent hone ka koi khatra nahin hota. har chhah mahine ke baad unhen kaam se alag kar diya jata hai. iske baad naya apaintment diya jata hai. is baar kampni ne mujhe naya apaintment dene se inkaar kar diya. achanak hi main bekar ho gaya. itna pareshan main pahle kabhi nahin hua tha. laga ki khoob roun. us din bahut man ho raha tha ki phula se sab kuch kah doon lekin murti ke chabutre par aana usne band kar diya tha. lautte samay raste mein mili zarur, lekin dekh kar bhi mujhe andekha kar diya. main vahan se baar baar guzra, magar usne meri taraf dekha tak nahin. us samay mujhe us par ghussa bhi aaya tha.
mera room partnar hamesha sota rahta tha. uski Dyuti hamesha raat ko rahti thi. meri uski batachit bahut kam ho pati thi. ab main akela hi sagar kinare door door tak ghumta rahta tha. is ilaqe men—nai nai aur uunchi uunchi bilDinge khoob ban rahi theen. hum log inhen bas dekh sakte the. mainne suna tha ki bilDar log ek ek flait ke kai kai laakh rupe lete hain. bahut se baDe baDe smaglar log bilDar ban jate hain, bahut se log lakhon rupe de kar ye flait kharidte hain. phir lakhon rupe kharch kar in flaiton ko sajate hain. ye sari baten sunta tha, lekin mujhe bharosa nahin hota tha.
mainne ye bhi suna tha ki log bahut jald amir ho jate hain. is baat par bhi mujhe bharosa nahin hota tha.
in dinon mere man mein phula se baat karne ki baDi ichchha hoti thi. din bhar dhakke kha kar shaam jab main lautta tha, to har roz mere paas ek nai kahani hoti thi. ye kahaniyan aksar nirasha, beizzti aur duःkha ki kahaniyan hoti theen. kaam milna baDa mushkil ho raha tha. har jagah apne apne logon ko kaam diya ja raha tha. ye sab kahaniyan main pahle ki tarah hi phula ko sunana chahta tha. lekin ab phula ne dikhai dena bhi band kar diya tha.
ek din jab main lauta, to bahut khush tha. agle do chaar dinon mein mera kaam par lagna pakka ho gaya tha. ummid thi ki is baar chhah mahine vali naukari nahin hogi, pakka ho jane ki puri aasha thi. main itna khush tha ki kisi bhi haalat mein phula se baat karna chahta tha. kafi raat tak main murtivale chabutre par baitha raha. mere samne hanste khelte log guzar ge. mere samne suraj pani mein Doob gaya. lekin phula nahin aai. ye koi nai baat nahin thi. raat tak baith kar main vahan se utha gaya. imarat ke samne se guzarte guzarte kai baar mainne udhar dekha. phula kahin dikhai nahin di. ye bhi koi nai baat nahin thi. lekin is baar mujhe kuch ajib sa laga. mujhe phir khayal aaya ki pichhle kai dinon se mainne use nahin dekha hai. kya hua? kya wo kahin aur chali gai? is khayal se main kuch pareshan ho gaya. main kisi se phula ke bare mein puchhna chahta tha, lekin yahan koi kisi se baat hi nahin karta tha.
do teen din aur guzar ge. masaj parlar ki battiyan baDi raat tak chamakti rahti theen. baar baar aate hue. . . jate hue. . . mainne dhyaan se dekha, phula kahin nahin thi. mujhe malum ho gaya, phula kahin chali gai. shayad mujhe kafi bura laga. lekin main uunchi imarton mein rahne vale logon ki baten sochne laga. lakhon rupe kharch karne vale logon ki baten sochne laga. smagalron, bilDron, arab amiron ke saath ghumti chhoti laDakiyon. . . sabhi ki baten sochne laga. lekin phula ke bare mein bhi sochta raha.
lekin ek raat ek aur hi baat ho gai. mujhe lautne mein kafi der ho gai thi. agle din mujhe kaam par bulaya gaya tha. main thaka tha. lekin kafi khush tha. akhiri bas chhoot jane ke karan main paidal chal kar hi thikane par pahuncha tha. jab main andheri gali mein dakhil ho raha tha, mainne dekha ki lanDri ki dukan ke takhte par koi aurat paDi hai. main aage nikal gaya. lekin phir laut aaya. haan, ye phula hi thi. main kuch samajh nahin paya. is samay raat ke do baj rahe the. saDak qarib qarib khali hi thi. laDkiyan aur dalal ja chuke the. mujhe laga ki phula so gai hai. lekin main phir guzra aur mujhe laga ki nahin, soi nahin hai. shayad chhokariyon ke saath isne bhi bahut sharab pi li hai. main apni kholi tak gaya. tala kholne se pahle phir laut aaya. ab mujhe laga ki phula behosh hai. kuch hichkicha kar mainne avaz di, phula! phula bai! koi javab nahin aaya. ab main uske ekdam paas pahunch gaya. mainne use hilaya aur. . . aur mujhe laga ki phula bahut bimar hai. uska badan bahut zyada garam hai aur munh ke charon taraf kai phaili hui hai. achanak hi sab kuch samajh mein aa gaya. shayad phula kai dinon se bimar thi. mujhse jhagaDte samay bhi shayad bimar thi. parlarvalon ne shayad aaj use nikal diya. vahan se nikal kar wo kisi tarah takhte tak pahunchi. . ya shayad log use yahan Daal ge. iske baad. . . ! iske baad meri samajh mein nahin aaya ki kya karun! kya main phula ko usi tarah vahan chhoD doon aur chala jaun? mujhe laga ki aisa nahin ho sakta. vahan andheri gali mein koi nahin tha, jisse main kuch kah sakta. sirf uunchi imarton ki battiyan chamak rahi theen. aur saDak par ek do taiksivale apni apni taiksiyon mein so ge the. main chahta tha ki kisi ko pukarun, avaz doon, lekin vahan koi nahin tha.
us samay mainne hisab lagaya ki mere paas kuch kitne rupe bache hain. iske baad mainne ek taiksivale ko jagane ki koshish ki. mushkil hi mushkil thi. phir bhi mainne soch liya tha ki ab kya karna hai.
isi tarah raat bitti gai thi. do asptalon ne use lene se inkaar kar diya. myunisipal aspatal thasathas bhara tha. mainne baDi minnten ki thi. narson ke Dyuti room mein ek bistar Daal kar use lita diya gaya tha. salain ki botal laga di gai thi. baDi nars ne mujhse kaha ki main botal ki jagah dusri la doon. aspatal mein davaiyan bhi nahin hain. main bahar se kharid kar davaiyan le auun. lekin main chupchap subah ka intizar kar raha tha. varDon mein, galiyaron mae, palangon par, zamin par, har jagah mariz hi mariz paDe the. narson ne kaha tha ki injekshan bhi lana hoga. bahut si chizon ki zarurat thi. lekin hamare paas kuch nahin tha. phir bhi main subah ka intizar kar raha tha. aur bench par baithe baithe hi subah ho gai thi. mujhe nahin malum tha ki ye kaisi subah thi. logon ne chalna phirna aur gaDiyon ne dauDna shuru kar diya tha. mainne tamam logon ke bare mein socha tha. ye log thoDi bahut madad kar sakte the. Dyuti room mein ja kar mainne ek baar phir phula ki taraf dekha tha. wo ab bhi behosh thi. chitkabre baal bikhre hue the aur wo pahle se ziyada kurup lag rahi thi. iske baad mainne chalna shuru kar diya tha.
din bhar chalta raha. is jagah se us jagah aur us jagah se us jagah. inDiya intarneshnal kaurporeshan ne mujhe kaam par lene se inkaar kar diya. mujhe bahut duःkha hua. meri sari ashayen mitti mein mil gain. is baar mujhe bahut bharosa tha, kaam zarur lag jayega. subah shaam ki chinta mit jayegi. mujhe laga ki main jaise phutpath par aa gaya hoon. shaam hote hote main laut aaya. is samay davaiyan aur salain ki botlen mainne kharid li theen. kuch logon ne thoDe thoDe paise de diye the. main bilkul thak gaya tha.
jab main aspatal pahuncha, to phula ki haalat bahut kharab thi. uske munh par, kanon tak kai phaili hui thi aur bistar bhi kai mein sana hua tha. uski saans gharaghra rahi thi. lagta tha ki kisi bhi samay ukhaD jayegi. lekin phir bhi uski taraf kisi ka dhyaan nahin tha. is samay mujhe laga ki phula mar jayegi. pata nahin kyon, mujhe ye bhi laga ki he bhagvan, phula ko is tarah marna nahin chahiye. kisi bhi tarah use bachna chahiye.
main dauD kar baDi sistar ke paas gaya tha. baDi mushkil se usne meri taraf dhyaan diya tha. phir ek Dauktar aaya tha. usne batya tha ki kai phephDon mein chali gai hai. phula paDi hui kai karti thi aur kisi ne uski taraf dhyaan nahin diya tha. ab ek mashin lai gai. mashin ghar ghar chalne lagi. munh ke andar nali Daal kar Dauktar charon taraf hilane laga. ab phula ek ek saans khinchne ke liye bilbilane lagi. bilbila kar saans khinchti thi. chhatapta kar ankhen khol charon taraf dekhti thi. ab mujhe baar baar lagne laga ki kisi bhi tarah use bach jana chahiye. bach kar kya hoga? bach kar kahan jayegi? mujhe kuch bhi malum nahin tha. bas, yahi lag raha tha ki use bachna chahiye.
mashin chalti rahi aur avaz aati rahi. phula bilbilati rahi aur avaz aati rahi. dhire dhire raat ho gai aur sabhi avazen chup ho gain. ab mashin hata di gai aur botal phir laga di gai. ab meri samajh mein nahin aa raha tha ki kya karun? nars aur Daktar koi batane ko taiyar nahin tha ki kya hoga! auksijan ke sare silenDar khali paDe the. ya do teen the, jo marizon par lage hue the. main baitha raha. phir main bahar aa gaya. phir main sochne laga ki raat kya hoga? kya main vahin kahin so jaun? lekin aisi koi jagah nahin thi. raat kuch ho gaya, to kya phula ka duniya mein koi hai? kya hamara duniya mein koi hai? tab mujhe laga tha ki hamara koi nahin hai. . . hamin apne sab kuch hain.
ab main vahin laut aaya tha. jahan smaglar, arab, amir, laDkiyan, dalal, hijDe. . sab apna kaam kar rahe the. kai sitaron vale hotlon mein battiyan jagmaga rahi theen aur mahnge restranon mein ajib dhunen baj rahi thi. masaj parlar ke samne khubsurat gaDiyan khaDi theen. aaj shayad koi khaas din tha. gandhi ji ki murti ko lattuon se sajaya gaya tha aur samne koi neta bhashan kar raha tha. kafi bheeD lagi hui thi. is samay neta gandhi ji, panDit ji vaghairah ki mahanta ka bakhan kar raha tha aur ek dalal ek karvale ko patane ki koshish kar raha tha.
tab mujhe achanak pahli baar khayal aaya ki main kis duniya mein hoon? kisne ise aisa bana diya hai? main kya karun? ise aisa hi chhoD kar apni ankhen band kar loon? charon taraf dalalon ki bheeD hai. main bhi dalalon ki duniya men dalalon ke dalalon ki duniya mein shamil nahin kar sakta. main bekar, beghar, besahara sahi, par main dalalon ki duniya mein shamil nahin ho sakta. naukari nahin milegi. . . kabhi nahin. koi baat nahin. phula mar jayegi, koi baat nahin. rasta mujhe malum nahin, koi baat nahin. in sabke liye mere andar nafrat hai. wo hamsha zinda rahegi. vahi mujhe rasta dikhayegi.
raat bhar avazen aati rahin. raat bhar baje bajte rahe aur dhune gunjti rahin. raat bhar battiyan jalti rahin. raat bhar. . main so nahin saka ya shayad so gaya aur sapne dekhta raha. phula mar gai aur baje bajte rahe. . . dhune gunjti rahi. . . battiyan jhilmilati rahin. main jaag kar uth baitha. baar baar main so gaya. baar baar phula marti gai.
lekin jab subah ho gai, to phula mari nahin, zinda thi. main sabse pahle aspatal pahuncha tha. botal aur nali ko hata diya gaya tha. nars ne kaha ki main chaay kaufi doodh bhi la kar use pilaun.
ek gilas mein chaay le kar jab main uske paas baitha, to ankhen khol kar usne meri taraf dekha. mainne chammach se chaay di. usne chupchap pi li. ek baar phir usne meri taraf dekha. phir chupchap ankhen band kar li.
lekin isi samay baDi nars ne aa kar kaha main use le jaun aur fauran wo jagah khali kar doon. imarjensi mein use rakh liya gaya tha. ab jaan ke liye khatra nahin hai. ab Dyuti room mein use rakha nahin ja sakta. aspatal mein koi jagah nahin hai. baqi davaiyan main use ghar le ja kar doon. tab mainne socha tha. . . ghar? ghar le jaun? kahan hai ghar? masaj parlar vale use rakhenge? kafi samay mainne usi tarah guzar diya tha.
achanak baDi nars bahut tezi se mere paas aai. phula ko na le jane ke liye usne mujhe bahut Danta. avaz de kar usne kai vaarD bauy bula liye. akhiri baar usne mujhse kaha ki agar main phula ko nahin le jaunga, to wo use bahar Dalva degi. is baar main chup nahin rah saka. phula ke paas pahunch kar mainne kaha, phula bai. . . utho! ab yahan se chalna hai.
phula uthne ki koshish karne lagi, lekin utha nahin gaya. tab aage baDh kar mainne sahara diya. kisi tarah uth kar baith gai. phir sahare sahare khaDi ho gai. phir ghisat ghisat kar hum donon ne kisi tarah chalna shuru kar diya. ghisatte hue hum aspatal ke phatak par aa ge. achanak wo thahar gai. mainne dekha ki kuch kah rahi hai. mainne sunne ki koshish ki. kanpti avaz mein usne kaha, tum. . tum. . nai aata to. . . to mar jati!
is samay uski ankhen DabDabai hui theen. achanak main zoron se hans paDa. . . hansta raha. wo dekhti rahi. hanste hue mainne kaha, tum. . . boli theen na. . . ki main. . . mohabbat nahin kar sakta. abhi dekha na, main kaisi mohabbat karta!. . . bolo!
lekin phir isi samay main achanak bahut gambhir ho gaya. mainne kaha, magar. . . . . wo taip ka adami nain hu. . . samajh gain na!
is samay ghisatte hue. . ., laDkhaDate hue. . . hum aspatal se bahar nikal rahe the. lekin. . . hamein nahin malum tha. . . ki kidhar jana hai!
स्रोत :
पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 55)
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।