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कोसी का घटवार

kosi ka ghatwar

शेखर जोशी

शेखर जोशी

कोसी का घटवार

शेखर जोशी

और अधिकशेखर जोशी

    गुसाईं का मन चिलम में भी नहीं लगा। मिहल की छाँह से उठकर वह फिर एक बार घट (पनचक्की) के अंदर आया। अभी खप्पर में एक-चौथाई से भी अधिक गेहूँ शेष था। खप्पर में हाथ डालकर उसने व्यर्थ ही उलटा-पलटा और चक्की के पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को झाड़कर एक ढेर बना दिया। बाहर आते-आते उसने फिर एक बार और खप्पर में झाँककर देखा, जैसे यह जानने के लिए कि इतनी देर में कितनी पिसाई हो चुकी है, परंतु अंदर की मिकदार में कोई विशेष अंतर नहीं आया था। खस्स-खस्स की ध्वनि के साथ अत्यंत धीमी गति से ऊपर का पाट चल रहा था। घट का प्रवेश-द्वार बहुत कम ऊँचा था, ख़ूब नीचे तक झुककर वह बाहर निकला। सिर के बालों और बाँहों पर आटे की एक हल्की सफ़ेद पर्त बैठ गई थी।

    खंभे का सहारा लेकर वह बुदबुदाया, “जा स्साला! सुबह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ। सूरज कहाँ का कहाँ चला गया है! कैसी अनहोनी बात!”

    बात अनहोनी तो है ही। जेठ बीत रहा है। आकाश में कहीं बादलों को नामोनिशान भी नहीं। अन्य वर्षों में अब तक लोगों की धानरोपाई पूरी हो जाती थी, पर इस साल नदी-नाले सब सूखे पड़े हैं। खेतों की सिंचाई तो दरकिनार, बीज की क्यारियाँ सूखी जा रही हैं। छोटे नाले-गुलों के किनारे के घट महीनों से बंद हैं। कोसी के किनारे है गुसाईं का यह घट। पर इसकी भी चाल ऐसी कि लद्दू घोड़े की चाल को मात देती है।

    चक्की के निचले खंड में ‘छच्छिर-छच्छिर’ की आवाज़ के साथ पानी को काटती हुई मथानी चल रही थी। कितनी धीमी आवाज़! अच्छे खाते-पीते ग्वालों के घर में दही की मथानी इससे ज़्यादा शोर करती है। इसी मथानी का वह शोर होता था कि आदमी को अपनी बात नहीं सुनाई देती और अब तो भले नदी पार कोई बोले, तो बात यहाँ सुनाई दे जाए!

    छप...छप...छप...पुरानी फ़ौजी पैंट को घुटनों तक मोड़कर गुसाईं पानी की गूल के अंदर चलने लगा। कहीं कोई सुराख़-निकास हो, तो बंद कर दें। एक बूँद पानी भी बाहर जाए। बूँद-बूँद की क़ीमत है इन दिनों। प्रायः आधा फर्लांग चलकर वह बाँध पर पहुँचा। नदी की पूरी चौड़ाई को घेरकर पानी का बहाव घट की गूल की ओर मोड़ दिया गया था। किनारे की मिट्टी-घास लेकर उसने बाँध में एक-दो स्थान पर निकास बंद किया और फिर गुल के किनारे-किनारे चलकर घट के पास गया।

    अंदर जाकर उसने फिर पाटों के वृत्त में फैले हुए आटे को बुहारकर ढेरी में मिला दिया। खप्पर में अभी थोड़ा-बहुत गेहूँ शेष था। वह उठकर बाहर आया।

    दूर रास्ते पर एक आदमी सिरे पर पिसान रखे उसकी ओर रहा था। गुसाईं ने उसकी सुविधा का ख्य़ाल कर वहीं से आवाज़ दे दी, “हैं हो! यहाँ लम्बर देर में आएगा। दो दिन का पिसान अभी जमा है। ऊपर उमेदसिंह के घट में देख लो।”

    उस व्यक्ति ने मुड़ने से पहले एक बार और प्रयत्न किया। ऊँचे स्वर में पुकार कर बोला, “ज़रूरी है जी, पहले हमारा लम्बर नहीं लगा दोगे?”

    गुसाईं होठों ही होठों में मुस्कराया, “स्साला कैसा चीख़ता है, जैसे घट की आवाज़ इतनी हो कि मैं सुन सकूँ!” कुछ कम ऊँची आवाज़ में उसने हाथ हिलाकर उत्तर दे दिया, “यहाँ ज़रूरी का भी बाप रखा है, जी। तुम ऊपर चले जाओ।” वह आदमी लौट गया।

    मिहल की छाँव में बैठकर गुसाईं ने लकड़ी के जलते कुन्दे को खोदकर चिलम सुलगाई और गुड़-गुड़ करता धुआँ उड़ाता रहा।

    खस्सर-खस्सर चक्की का पाट चल रहा था।

    किट-किट-किट-किट खप्पर से दाने गिराने वाली चिड़िया पाट पर टकरा रही थी।

    छिच्छिर—छिच्छिर की आवाज़ के साथ मथानी पानी को काट रही थी। पत्थरों के बीच में टखने-टखने तक फैला पानी क्या आवाज़ करेगा। पानी के गर्भ से निकलकर छोटे-छोटे पत्थर भी अपना सिर उठाए आकाश को निहार रहे थे। दोपहरी ढलने पर भी इतनी तेज़ धूप! कहीं चिरैया भी नहीं बोलती। किसी प्राणी का प्रिय-अप्रिय स्वर नहीं।

    सूखी नदी के किनारे बैठा गुसाईं सोचने लगा, क्यो उस व्यक्ति को लौटा दिया। लौट तो वह जाता ही घट के अंदर टच्च पड़े पिसान के थैलों को देखकर। दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता।

    कभी-कभी गुसाईं को यह अकेलापन काटने लगता है। सूखी नदी के किनारे का यह अकेलापन नहीं, ज़िंदगी भर साथ देने के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है, वही। जिसे अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं, पालतू कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं। क्या ठिकाना ऐसे मालिक का, जिसका घर-द्वार नहीं...बीवी—बच्चे नहीं, खाने—पीने का ठिकाना नहीं।

    घुटनों तक उठी हुई पुरानी फ़ौजी पैट के मोड़ को गुसाईं ने खोला। गूल में चलते हुए वह हिस्सा थोड़ा भीग गया था। पर इस गर्मी में उसे भीगी पैंट की यह शीतलता अच्छी लगी। पैंट की सलवटों को ठीक करते-करते गुसाईं ने हुक्के की नली से मुँह हटाया। उसके होठों में बाएँ कोने पर हल्की-सी मुस्कान उभर आई। बीती बातों की याद...गुसाईं सोचने लगा, इसी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है।...नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी...बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवलदार साहब की पैट की बात उसे नहीं भूलती।

    ऐसी ही फ़ौजी पैट पहनकर हवलदार धरमसिंह आया था...लॉण्ड्री की धुली, नोंकदार, क्रीजवाली पैंट। वैसी ही पैंट पहनने की महत्त्वाकांक्षा लेकर गुसाईं फ़ौज में गया था। पर फ़ौज से लौटा, तो पैंट के साथ-साथ ज़िंदगी का अकेलापन भी उसके साथ गया

    पैंट के साथ और भी कितनी ही स्मृतियाँ मुखर है। उस बार की छुट्टियों की बात...

    कौन महीना? हाँ, बैसाख ही था। सिर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर—फ़ौजी वर्दी पहने वह पहली बार एनुअल-लीव पर घर आया, तो चीड़-वन की आग की तरह ख़बर इधर-उधर फैल गई थी। बच्चे-बूढ़े, सभी उमसे मिलने आए थे। चाचा का गोठ एक़दम भर गया था, ठसाठस्स। बिस्तर की नई, एक़दम साफ़, जगमग, लाल-नीली धारियों वाली दरी आँगन में बिछानी पड़ी थी लोगों को बिठाने के लिए। ख़ूब याद है, आँगन का गोबर दरी में लग गया था। बच्चे-बूढे सभी आए थे। सिर्फ़ चना—गुड़ या हलद्वानी के तम्बाकू का लोभ नहीं था, कल के शर्मीले गुसाईं को इस नए रूप में देखने का कौतूहल भी था। पर गुसाईं की आँखें इस भीड़ में जिसे खोज रही थी, वह वहाँ नहीं थी।

    नाले-पार के अपने गाँव से भैंस के कट्या को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी। पर गुसाईं उस दिन उससे मिल सका। गाँव के छोकरे ही गुसाईं की जान को बवाल हो गए थे। बुड्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसाईं को देखकर सोबनियाँ का लड़का भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है।...दिन-रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे उसके पीछे लगे रहते थे, सिगरेट-बीड़ी या गपशप के लोभ में।

    एक दिन बड़ी मुश्किल से मौक़ा मिला था उसे। लछमा को पात-पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से काँकड़ के शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था। गाँव की सीमा से बहुत दूर, काफल के पेड़ के नीचे गुसाईं के घुटने पर सिर रखकर, लेटी-लेटी लछमा काफल खा रही थी। पके, गदराए, गहरे लाल-लाल काफल! खेल-खेल में काफलों की छीना-झपटी करते गुसाईं ने लछमा की मुट्ठी भींच दी थी। टप-टप काफलों का गाढ़ा लाल रस उसकी पैंट पर गिर गया था। लछमा ने कहा था, “इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बाँह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी।” वह खिलखिलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हँस दी थी।

    पुरानी बात। क्या कहा था गुसाईं ने, याद नहीं पड़ता...तेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूँगा, मेरी सुवा!...या कुछ ऐसा ही।

    पर लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई—पहाड़ी पार के रमुवाँ ने, जो तुरीनिसाण लेकर उसे ब्याहने आया था?

    “जिसके आगे-पीछे भाई-बहन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोंक पर जान रखने वाले को छोकरी कैसे दे दें हम?” लछमा के बाप ने कहा था।

    उसका मन जानने के लिए गुसाईं ने टेढ़े-तिरछे बात चलवाई थी।

    उसी साल मंगसिर को एक ठंडी, उदास शाम को गुसाईं की यूनिट के सिपाही किसनसिंह ने क्वार्टर-मास्टर स्टोर के सामने खड़े-खड़े उससे कहा था, “हमारे गाँव के रामसिंह ने ज़िद की, तभी छुट्टियाँ बढ़ानी पड़ी। इस साल उसकी शादी थी। ख़ूब अच्छी औरत मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी ख़ूब है, एक़दम पटाखा! बड़ी हँसमुख है। तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गाँव के नज़दीक की है। लछमा—लछमा कुछ ऐसा ही नाम है।”

    गुसाईं को याद नहीं पड़ता, कौन—सा बहाना बनाकर वह किसनसिंह के पास से चला आया था।...रम-डे था उस दिन। हमेशा आधा पैग लेने वाला गुसाईं उस दिन दो पैग रम लेकर अपनी चारपाई पर पड़ गया था।...हवलदार मेजर ने दूसरे दिन पेशी करवाई थी—मलेरिया प्रिकॉशन करने के अपराध में!...सोचते-सोचते गुसाईं बुदबुदाया, “स्साला एडजुटेंट!”

    गुसाईं सोचने लगा, उस साल छुट्टियों में घर से विदा होने से एक दिन पहले वह मौक़ा निकालकर लछमा से मिला था।

    “गंगानाथज्यू की क़सम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूँगी।” आँखों मे आँसू भरकर लछमा ने कहा था।

    वर्षों से वह सोचता है, कभी लछमा से भेंट होगी तो वह अवश्य कहेगा कि वह गंगनाथ का जागर लगाकर प्रायश्चित्त ज़रूर कर ले। देवी-देवताओं की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज़ करने से क्या लाभ? जिस पर भी गंगनाथ का कोप हुआ, वह कभी फल-फूल नहीं पाया। पर लछमा से कब भेंट होगी, यह वह नहीं जानता। लड़कपन से संगी-साथी नौकरी-चाकरी के लिए मैंदानों में चले गए हैं। गाँव की ओर जाने का उसका मन नहीं होता। लछमा के बारे में किसी से पूछना उसे अच्छा नहीं लगता। जितने दिन नौकरी रही, वह पलटकर अपने गाँव नहीं आया। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफ़र लेने वालों की लिस्ट में नायक गुसाईं का नाम ऊपर आता रहा-लगातार पंद्रह साल तक।

    पिछले बैसाख में ही वह गाँव लौटा, पंद्रह साल बाद, रिज़र्व में आने पर। काले बालों को लेकर गया था, खिचड़ी बाल लेकर लौटा। लछमा का हठ उसे अकेला बना गया।

    आज इस अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसाईं अपनी ज़िंदगी की किताब पढ़कर सुनाता। शब्द-अक्षर...कितना देखा, कितना सुना और कितना अनुभव किया है उसने...।

    पर नदी के किनारे की यह तपती रेत, पनचक्की की खटर-खेटर और मिहल की छाया में ठंडी चिलम को निष्प्रयोजन गुड़गुड़ाना गुसाईं! और चारों ओर अन्य कोई नहीं! एक़दम निर्जन, निस्तब्ध, सुनसान...।

    एकाएक गुसाईं का ध्यान टूटा...

    सामने पहाड़ी के बीच की पगडंडी के सिर पर बोझ लिए एक नार-आकृति उसी ओर चली रही थी। गुसाईं ने सोचा, यही से आवाज़ देकर उसे लौटा दे। कोसी के चिकने, काई-लगे पत्थरों पर कठिनाई से चलकर उसे वहाँ तक आकर केवल निराश लौट जाने को क्यों वह बाध्य करे! दूर से चिल्ला-चिल्लाकर पिसान स्वीकार करवाने की लोगों की आदत के कारण वह तंग हो चुका था। इस कारण आवाज़ देने को उसका मन नहीं हुआ है वह आकृति अब तक पगडंडी छोड़कर नदी के मार्ग में पहुँची थी।

    चक्की की बदलती आवाज़ को पहचानकर गुसाईं घट के अंदर चला गया। खप्पर का अनाज समाप्त हो चुका था। खप्पर में एक कम अन्न वाले थैले को उलटकर उसने अन्न का निकास रोकने के लिए काठ की चिड़ियों को उलटा कर दिया। किट-किट का स्वर बंद हो गया। वह जल्दी-जल्दी आटे को थैले में भरने लगा। घट के अंदर मथानी की छिच्छिर—छच्छिर की आवाज़ भी अपेक्षाकृत कम सुनाई दे रही थी। केवल चक्की के ऊपर वाले पाट की घिसटती हुई घरघराहट का हल्का धीमा संगीत चल रहा था। तभी गुसाईं ने सुना अपनी पीठ के पीछे, घट के द्वार पर, इस संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठ-स्वर, “कब बारी आएगी? रात की रोटी के लिए भी घर में आटा नहीं है।”

    सिर पर पिसान रखे एक स्त्री उसे यह पूछ रही थी। गुसाईं को उसका स्वर परिचित-सा लगा। चौंककर उसने पीछे मुड़कर देखा। कपड़े में पिसान ढीला बँधा होने के कारण बोझ का एक सिरा उसके मुख के आगे गया। गुसाईं उसे ठीक से नहीं देख पाया, लेकिन तब भी उसका मन जैसे आशंकित हो उठा। अपनी शंका का समाधान करने के लिए वह बाहर आने को मुड़ा; लेकिन तभी फिर अंदर जाकर पिसान के थैलों को इधर-उधर रखने लगा। काठ की चिड़ियाँ किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुसाईं को अपने हृदय की धड़कन का आभास हो रहा था।

    घट के छोटे कमरे में चारों ओर पिसे हुए अन्न का चूर्ण फैल रहा था, जो अब तक गुसाईं के पूरे शरीर पर छा गया था। इस कृत्रिम सफ़ेदी के कारण वह वृद्ध-सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।

    उसने दुबारा वे ही शब्द दोहराए। अब वह भी तेज़ धूप में बोझा सिर पर रखे हुए गुसाईं का उत्तर पाने को आतुर थी। शायद नकारात्मक उत्तर मिलने पर वह उलटे पाँव लौटकर किसी अन्य चक्की का सहारा लेती।

    दूसरी बार के प्रश्न को गुसाईं टाल पाया, उत्तर देना ही पड़ा, “यहाँ पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही।” उसने दबे-दबे स्वर में कह दिया।

    स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की। शाम के आटे का प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पड़ी।

    गुसाईं कमर झुकाकर घट से बाहर निकला। मुड़ते समय स्त्री की एक झलक देखकर उसका संदेह विश्वास में बदल गया था। हताश-सा वह कुछ क्षणों तक उसे जाते हुए देखता रहा और फिर अपने हाथों तथा सिर पर गिरे हुए आटे को झाड़कर वह एक-दो क़दम आगे बढ़ा। उसके अंदर की किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया। आवाज़ देकर उसे बुला लेने को उसने मुँह खोला, परंतु अवाज़ दे सका। एक झिझक, एक असमर्थना थी, जो उसका मुँह बंद कर रही थी। वह स्त्री नदी तक पहुँच चुकी थी। गुसाईं के अंतर में तीव्र उथल-पुथल मच गई। इस बार आवेग इतना तीव्र था कि वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लड़खड़ाती आवाज़ में उसने पुकारा, लछमा!”

    घबराहट के कारण वह पूरे ज़ोर से आवाज़ नहीं दे पाया था। स्त्री ने यह आवाज़ नहीं सुनी। इस बार गुसाईं ने स्वस्थ होकर पुनः पुकारा, “लछमा!”

    लछमा ने पीछे मुड़कर देखा। मायके में उसे सभी इसी नाम से पुकारते थे। यह संबोधन उसके लिए स्वाभाविक था। परंतु उसे शंका शायद यह थी कि चक्कीवाला एक बार पिसान स्वीकार करने पर भी उसे बुला रहा है। या उसे केवल भ्रम हुआ है। उसने वही से पूछा, “मुझे पुकार रहे हैं जी?”

    गुसाईं ने संयत स्वर में कहा, “हाँ, ले आओ, हो जाएगा।”

    लछमा क्षण-भर रुकी और फिर घट की ओर लौट आई।

    अचानक साक्षात्कार होने का मौक़ा देने की इच्छा से गुसाईं व्यस्तता का प्रदर्शन करता हुआ मिहल की छाँह में चला गया।

    लछमा पिसान का थैला घट के अंदर रख आई। बाहर निकलकर उसने आँचल के कोर से मुँह पोंछा। तेज़ धूप मे चलने के कारण उसका मुँह लाल हो गया था। किसी पेड़ की छाया में विश्राम करने की इच्छा से उसने इधर-उधर देखा। मिहल के पेड़ की छाया को छोड़कर अन्य कोई बैठने लायक स्थान नहीं था। वह उसी ओर चलने लगी।

    गुसाईं की उदारता के कारण ऋणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट आते-आते कहा, “तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बड़ा उपकार का काम कर दिया तुमने! ऊपर के घट में भी जाने कितनी देर में नंबर मिलता।”

    अजात संतति के प्रति दिए गए आशीर्वचनों को गुसाईं ने मन ही मन विनोद के रूप में ग्रहण किया। इस कारण उसकी मानसिक उथल-पुथल कुछ कम हो गई। लछमा उसकी ओर देखे, इससे पूर्व ही उसने कहा, “जीते रहें तेरे बाल-बच्चे लछमा। मायके कब आई?”

    गुसाईं ने अंतर में घुमड़ती आँधी को रोककर यह प्रश्न इतने संयत स्वर में किया, जैसे वह भी अन्य दस आदमियों की तरह लछमा के लिए एक साधारण व्यक्ति हो।

    दाड़िम की छाया में पान-पतेल झाड़कर बैठते लछमा ने शंकित दृष्टि से गुसाईं की ओर देखा। कोसी की सूखी धार अचानक जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य नहीं होता, जितना अपने स्थान से केवल चार क़दम की दूरी पर गुसाईं को इस रूप में देखने पर हुआ। विस्मय से आँखें फाड़कर वह उसे देखे जा रही थी, जैसे अब भी उसे विश्वास हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसाईं ही है।

    “तुम?” जाने लछमा क्या कहना चाहती थी, शेष शब्द उसके कंठ में ही रह गए।

    “हाँ, पिछले साल पल्टन में लौट आया था, वक़्त काटने के लिए यह घट लगवा लिया।” गुसाईं ने उसकी जिज्ञासा शांत करने के लिए कहा है होठों पर मुस्कान लाने की उसने असफल कोशिश की।

    कुछ क्षणों तक दोनों कुछ नहीं बोले। फिर गुसाईं ने ही पूछा, “बाल-बच्चे ठीक हैं?”

    आँखें ज़मीन पर टिकाए, गर्दन हिलाकर संकेत से ही उसने बच्चों की कुशलता की सूचना दे दी। ज़मीन पर गिरे एक दाड़िम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुड़ियों को एक-एक कर निरुद्देश्य तोड़ने लगी और गुसाईं पतली सीक लेकर आग को कुरेदता रहा।

    बातों का क्रम बनाए रखने के लिए गुसाईं ने पूछा, “तू अभी और कितने दिन मायके ठहरने वाली है?”

    अब लछमा के लिए अपने को रोकना असंभव हो गया। टप्-टप्-टप्...वह सिर नीचा किए आँसू गिराने लगी। सिसकियों के साथ-साथ उसके उठते-गिरते कंधों को गुसाईं देखता रहा। उसे यह नहीं सूझ रहा था कि वह किन शब्दों में अपनी सहानुभूति प्रकट करे।

    इतनी देर बाद सहसा गुसाईं का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। उसके गले में काला चरेऊ (सुहाग-चिन्ह) नहीं था। हतप्रभ-सा गुसाईं उसे देखता रहा। अपनी व्यावहारिक अज्ञानता पर उसे बेहद झुँझलाहट हो रही थी।

    आज अचानक लछमा से भेंट हो जाने पर वह उन सब बातों को भूल गया, जिन्हें वह कहना चाहता था। इन क्षणों में वह केवल-मात्र श्रोता बनकर रह जाना चाहता था। गुसाईं की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आँसू पोंछती हुई अपना दुखड़ा रोने लगी, “जिसका भगवान् नहीं होता, उसका कोई नहीं होता। जेठ-जिठानी से किसी तरह पिंड छुड़ाकर यहाँ माँ की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोड़कर चली गईं। एक अभागा मुझे रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड़ रहा है। नहीं तो पेट पर पत्थर बाँधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता।

    “यहाँ काका-काकी के साथ रह रही हो?” गुसाईं ने पूछा।

    “मुश्किल पड़ने पर कोई किसी को नहीं होता जी! बाबा की जाएदाद पर उनकी आँखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं हक़ जमा लूँ। मैंने साफ़-साफ़ कह दिया, मुझे किसी का लेना-देना नहीं है। जंगलात का लीसा ढो-ढोकर अपनी गुज़र कर लूँगी, किसी की आँख का काँटा बनकर नहीं रहूँगी।’’

    गुसाईं ने किसी प्रकार की मौखिक संवेदना नहीं प्रकट की। केवल सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से उसे देखता-भर रहा। दाड़िम के वृक्ष से पीठ टिकार लछमा घुटने मोड़कर बैठी थी। गुसाईं सोचने लगा, पंद्रह-सोलह साल किसी की ज़िंदगी में अंतर लाने के लिए कम नहीं होते, समय का यह अंतराल लछमा के चेहरे पर भी एक छाप छोड़ गया था, पर उसे लगा, उस छाप के नीचे वह आज भी पंद्रह वर्ष पहले की लछमा को देख रहा है।

    “कितनी तेज़ धूप है, इस साल!’’ लछमा का स्वर उसके कानों में पड़ा। प्रसंग बदलने के लिए ही जैसे लछमा ने यह बात जान-बूझकर कही हो।

    और अचानक उसका ध्यान उस ओर चला गया, जहाँ लछमा बैठी थी। दाड़िम की फैली-फैली अधढँकी डालों से छनकर धूप उसके शरीर पर पड़ रही थी। सूरज की एक पतली किरन जाने कब से लछमा के माथे पर गिरी हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी। गुसाईं एकटक उसे देखता रहा।

    “दोपहर तो बीत चुकी होगी?” लछमा ने प्रश्न किया तो गुसाईं का ध्यान टूटा, “हाँ, अब तो दो बजने वाले होंगे” उसने कहा, “उधर धूप लग रही हो तो इधर जा छाँव में।” कहता हुआ गुसाईं एक जम्हाई लेकर अपने स्थान से उठ गया।

    “नहीं, यहीं ठीक है” कहकर लछमा ने गुसाईं की ओर देखा, लेकिन वह अपनी बात कहने के साथ ही दूसरी ओर देखने लगा था।

    घट में कुछ देर पहले डाला हुआ पिसान समाप्ति पर था। नंबर पर रखे हुए पिसान की जगह उसने जाकर जल्दी-जल्दी लछमा का अनाज खप्पर में खाली कर दिया।

    धीरे-धीरे चलकर गुसाईं गूल के किनारे तक गया। अपनी अंजुली से भर-भरकर उसने पानी पिया और फिर पास ही एक बंजर घट के अंदर जाकर पीतल और अलमुनियम के कुछ बर्तन लेकर आग के निकट लौट आया।

    आस-पास पड़ी हुई सूखी लकड़ियों को बटोरकर उसने आग सुलगाई और एक कालिख पुती बटलोई में पानी रखकर जाते-जाते लछमा की ओर मुँह कर कह गया, “चाय का टैम भी हो रहा है। पानी उबल जाए, तो पत्ती डाल देना, पुड़िया में पड़ी है।”

    लछमा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह उसे नदी की ओर जाने वाली पगडंडी पर जाता हुआ देखती रही।

    सड़क किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसाईं को काफ़ी समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा, एक छः-सात वर्ष का बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है।

    बच्चे का परिचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, “इस छोकरे को घड़ी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता-खोजता मेरी जान खाने को यहाँ भी पहुँच गया है।”

    गुसांई ने लक्ष्य किया कि बच्चा बार-बार उसकी दृष्टि बचाकर माँ से किसी चीज़ के लिए ज़िद कर रहा है। एक बार झुंझलाकर लछमा ने उसे झिड़क दिया, “चुप रह! अभी लौटकर घर जाएँगे, इतनी-सी देर में मरा क्यों जा रहा है?”

    चाय के पानी में दूध डालकर गुसाईं फिर उसी बंजर घट में गया। एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे बैठा-बैठा उसे गूँथने लगा। मिहल के पेड़ की ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन और ले लिए।

    लछमा ने बटलोई में दूध-चीनी डालकर चाय तैयार कर दी थी। एक गिलास, एक अलमूनियम का मग और एक अलमुनियम के मैसटिन में गुसाईं ने चाय डालकर आपस में बाँट ली और पत्थरों से बने बे-ढंगे चूल्हे के पास बैठकर रोटियाँ बनाने का उपक्रम करने लगा।

    हाथ का चाय का गिलास ज़मीन पर टिकाकर लछमा उठी। आटे की थाली अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसाईं ना कह सका। वह खड़ा-खड़ा उसे रोटी पकाते हुए देखता रहा। गोल-गोल डिबिया-सरीखी रोटियाँ चूल्हे में खिलने लगीं। वर्षों बाद गुसाईं ने ऐसी रोटियाँ देखी थीं, जो अनिश्चित आकार की फ़ौजी लंगर की चपातियों या स्वयं उसके हाथ से बनी बे-डौल रोटियों से एकदम भिन्न थीं। आटे की लोई बनाते समय लछमा के छोटे-छोटे हाथ बड़ी तेज़ी से घूम रहे थे। कलाई में पहने हुए चांदी के कड़े जब कभी आपस में टकरा जाते, तो खन्-खन् का एक अत्यंत मधुर स्वर निकलता। चक्की के पाट पर टकराने वाली काठ की चिड़ियों का स्वर कितना नीरस हो सकता है, यह गुसाईं ने आज पहली बार अनुभव किया।

    किसी काम से वह बंजर घट की ओर गया और बड़ी देर तक ख़ाली बर्तन-डिब्बों को उठाता-रखता रहा।

    वह लौटकर आया, तो लछमा रोटी बनाकर बर्तनों को समेट चुकी थी और अब आटे में सने हाथों को धो रही थी।

    गुसाईं ने बच्चे की ओर देखा। वह दोनों हाथों में चाय का मग थामे टकटकी लगाकर गुसाईं को देखे जा रहा था। लछमा ने आग्रह के स्वर में कहा, “चाय के साथ खानी हों, तो खा लो। फिर ठंडी हो जाएँगी।”

    “मैं तो अपने टैम से ही खाऊँगा। यह तो बच्चे के लिए...” स्पष्ट कहने में उसे झिझक महसूस हो रही थी, जैसे बच्चे के संबंध में चिंतित होने की उसकी चेष्टा अनधिकार हो।

    “न-न, जी! वह तो अभी घर से खाकर ही रहा है। मैं रोटियाँ बनाकर रख आई थी,” अत्यंत संकोच के साथ लछमा ने आपत्ति प्रकट कर दी।

    “हाँ, यूँही कहती है। कहाँ रखी थीं रोटियाँ घर में?” बच्चे ने रूआँसी आवाज़ में वास्तविक स्थिति स्पष्ट कर दी। वह ध्यानपूर्वक अपनी माँ और इस अपरिचित व्यक्ति की बतें सुन रहा था और रोटियों को देखकर उसका संयम ढीला पड़ गया था।

    “चुप!” आँखें तरेरकर लछमा ने उसे डाँट दिया। बच्चे के इस कथन से उसकी स्थिति हास्यास्पद हो गई थी। लज्जा से उसका मुँह आरक्त हो उठा।

    “बच्चा है, भूख लग आई होगी, डाँटने से क्या फ़ायदा?” गुसाईं ने बच्चे का पक्ष लेकर दो रोटियाँ उसकी ओर बढ़ा दीं। परंतु माँ की अनुमति के बिना उन्हें स्वीकारने का साहस बच्चे को नहीं हो रहा था। वह ललचाई दृष्टि से कभी रोटियों की ओर, कभी माँ की ओर देख लेता था।

    गुसाईं के बार-बार आग्रह करने पर भी बच्चा रोटियाँ लेने में संकोच करता रहा, तो लछमा ने उसे झिड़क दिया, “मर! अब ले क्यों नहीं लेता? जहाँ जाएगा, वहीं अपने लच्छन दिखाएगा!”

    इससे पहले कि बच्चा रोना शुरू कर दें, गुसाईं ने रोटियों के ऊपर एक टुकड़ा गुड़ का रखकर बच्चे के हाथों में दिया। भरी-भरी आँखों से इस अनोखे मित्र को देखकर बच्चा चुपचाप रोटी खाने लगा, और गुसाईं कौतुकपूर्ण दृष्टि से उसके हिलते हुए होठों को देखता रहा।

    इस छोटे-से प्रसंग के कारण वातावरण में एक तनाव-सा गया था, जिसे गुसाईं और लछमा दोनों ही अनुभव कर रहे थे।

    स्वयं भी एक रोटी को चाय में डुबाकर खाते-खाते गुसाईं ने जैसे इस तनाव को कम करने की कोशिश में ही मुस्कुराकर कहा, “लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है।”

    लछमा ने करूण दृष्टि से उसकी ओर देखा। गुसाईं हो-होकर खोखली हँसी हँस रहा था।

    “कुछ साग-सब्ज़ी होती, तो बेचारा एक-आधी रोटी और खा लेता।” गुसाईं ने बच्चे की ओर देखकर अपनी विवशता प्रकट की।

    “ऐसी ही खाने-पीने वाले की तक़दीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पड़ता? दो दिन से घर में तेल-नमक नहीं है। आज थोड़े पैसे मिले हैं, आज ले जाऊँगी कुछ सौदा।”

    हाथ से अपनी जेब टटोलते हुए गुसाईं ने संकोचपूर्ण स्वर में कहा, “लछमा!”

    लछमा ने जिज्ञासा से उसकी ओर देखा। गुसाईं ने जेब से एक नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा, “ले, काम चलाने के लिए यह रख ले, मेरे पास अभी और है। परसों दफ़्तर से मनीआर्डर आया था।”

    “नहीं-नहीं, जी! काम तो चल ही रहा है। मैं इस मतलब से थोड़े कह रही थी। यह तो बात चली थी, तो मैंने कहा,” कहकर लछमा ने सहायता लेने से इंकार कर दिया।

    गुसाईं को लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज़ में वह बोला, “दुःख-तकलीफ़ के वक़्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूँका हमने इस ज़िंदगी में। है कोई हिसाब! पर क्या फ़ायदा! किसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!”

    परंतु गुसाईं के इस तर्क के बावजूद भी लछमा अड़ी रही, बच्चे के सर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, “गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाए। अपने-पराए प्रेम से हँस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए।”

    गुसाईं ने ग़ौर से लछमा के मुख की ओर देखा। वर्षों पहले उठे हुए ज्वार और तूफ़ान का वहाँ कोई चिह्न शेष नहीं था। अब वह सागर जैसे सीमाओं में बंधकर शांत हो चुका था।

    रूपया लेने के लिए लछमा से अधिक आग्रह करने का उसका साहस नहीं हुआ। पर गहरे असंतोष के कारण बुझा-बुझा-सा वह धीमी चाल से चलकर वहाँ से हट गया। सहसा उसकी चाल तेज़ हो गई और घट के अंदर जाकर उसने एक बार शंकित दृष्टि से बाहर की ओर देखा। लछमा उस ओर पीठ किए बैठी थी। उसने जल्दी-जल्दी अपने नीजी आटे के टीन से दो-ढाई सेर के क़रीब आटा निकालकर लछमा के आटे में मिला दिया और संतोष की एक सांस लेकर वह हाथ झाड़ता हुआ बाहर आकर बांध की ओर देखने लगा। ऊपर बांध पर किसी को घुसते हुए देखकर उसने हाँक दी। शायद खेत की सिंचाई के लिए कोई पानी तोड़ना चाहता था।

    बाँध की ओर जाने से पहले वह एक बार लछमा के निकट गया। पिसान पिस जाने की सूचना उसे देकर वापस लौटते हुए फिर ठिठककर खड़ा हो गया, मन की बात कहने में जैसे उसे झिझक हो रही हो। अटक-अटककर वह बोला, “लछमा...।”

    लछमा ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। गुसाईं को चुपचाप अपनी ओर देखते हुए पाकर उसे संकोच होने लगा। वह जाने क्या कहना चाहता है, इस बात की आशंका से उसके मुँह का रंग अचानक फीका होने लगा। पर गुसाईं ने झिझकते हुए केवल इतना ही कहा, “कभी चार पैसे जुड़ जाएँ, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफ़ी माँग लेना। पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए।” लछमा की बात सुनने के लिए वह नहीं रूका।

    पानी तोड़ने वाले खेतिहार से झगड़ा निपटाकर कुछ देर बाद लौटते हुए उसने देखा, सामने वाले पहाड़ की पगडंडी पर सर पर आटा लिए लछमा अपने बच्चे के साथ धीरे-धीरे चली जा रही थी। वह उन्हें पहाड़ी के मोड़ तक पहुँचने तक टकटकी बाँधे देखता रहा।

    घट के अंदर काठ की चिड़ियाँ अब भी किट-किट आवाज़ कर रही थीं, चक्की का पाट खिस्सर-खिस्सर चल रहा था और मथानी की पानी काटने की आवाज़ रही थी, और कहीं कोई स्वर नहीं, सब सुनसान, निस्तब्ध!

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी कहानी संग्रह (पृष्ठ 161)
    • संपादक : भीष्म साहनी
    • रचनाकार : शेखर जोशी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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