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खेल

khel

जैनेंद्र कुमार

और अधिकजैनेंद्र कुमार

    मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुका-तीर पर एक बालक और एक बालिका अपने को और सारे विश्व को भूल, गंगातट के बालू और पानी को अपना एकमात्र आत्मीय बना, उनसे खिलवाड़ कर रहे थे।

    प्रकृति इन निर्दोष परमात्म-खंडो को निः स्तब्ध और निर्निमेष निहार रही थी। बालक कहीं से एक लकड़ी लाकर तट के जल को छटाछट उछाल रहा था। पानी मानो चोट खाकर भी बालक से मित्रता जोड़ने के लिए विह्वल हो उछल रहा था। बालिका अपने एक पैर पर रेत जमाकर और थोप-थोपकर एक भाड़ बना रही थी।

    बनाते-बनाते भाड़ से बालिका बोली¬- देख, ठीक नहीं बना तो मैं तुझे फोड़ दूँगी फिर बड़े प्यार से थपका-थपकाकर उसे ठीक करने लगी। सोचती जाती थी, इसके ऊपर मैं एक कुटी बनाऊँगी—यह मेरी कुटी होगी। और मनोहर?... नहीं, वह कुटी में नहीं रहेगा, बाहर खड़ा-खड़ा भाड़ में पत्ते झोंकेगा। जब वह हार जाएगा, बहुत कहेगा, हाथ जोड़ेगा, तब उसे अपनी कुटी के भीतर लूँगी।

    मनोहर उधर अपने पानी से हिलमिलकर खेल रहा था। उसे क्या मालूम कि यहाँ अकारण ही उस पर रोष और अनुग्रह किया जा रहा है।

    बालिका सोच रही थी, मनोहर कैसा अच्छा है। पर वह दंगई–बड़ा है। हमें छेड़ता ही रहता है। अबके दग़ा करेगा, तो हम उसे कुटी में साझी नहीं करेंगे। साझी होने को कहेगा तो उससे शर्त करवा लेंगे, तब साझी करेंगे।

    बालिका सुरबाला सातवें वर्ष में थी। मनोहर कोई दो साल उससे बड़ा था।

    बालिका को अचानक ध्यान आया, भाड़ की छत तो गर्म होगी। उस पर मनोहर रहेगा कैसे? मेरा क्या, मैं तो रह जाऊँगी, पर मनोहर तो जलेगा। फिर सोचा—उससे मैं कह दूँगी, भई, छत बहुत तप रही है, तुम जलोगे, तुम मत आओ। पर वह अगर नहीं माना? मेरे पास वह बैठने को आया ही—तो? मैं कहूँगी, भाई, ठहरो, में ही बाहर आती हूँ। पर वह मेरे पास आने की ज़िद करेगा क्या?... ज़रूर करेगा, वह बड़ा हठी है। पर मैं उसे आने नही दूँगी। बेचारा तपेगा—भला कुछ ठीक है! ज़ियादा कहेगा, मैं धक्का दे दूँगी, कहूँगी—अरे जल जाएगा मूरख!' यह सोचने पर उसे बड़ा मज़ा-सा आया। पर उसका मुँह सूख गया। उसे मानो सचमुच ही धक्का खाकर मनोहर के गिरने का हास्योत्पादक और करुण दृश्य सत्य की भाँति प्रत्यक्ष हो गया।

    बालिका ने दो एक पक्के हाथ भाड़ पर लगाकर देखा—भाड़ अब बिलकुल बन गया है। माँ जिस सतर्क सावधानी के साथ अपने नवजात शिशु को बिछौने पर लिटाने को छोड़ती है, वैसे ही सुरबाला ने अपना पैर धीरे-धीरे भाड़ के नीचे से खींचकर निकाला। इस क्रिया में वह सचमुच भाड़ को पुचकारती जाती थी। उसके पैर पर ही तो भाड़ टिका है। पैर का आश्रय हट जाने पर बेचारा कहीं टूट पड़े! पैर साफ़ निकलने पर भाड़ जब ज्यों-का-त्यों टिका रहा, तब बालिका एक बार आह्लाद से नाच उठी।

    बालिका अब एक दम ही बेवक़ूफ़ मनोहर को इस अलौकिक चातुर्य से परिपूर्ण भाड़ के दर्शन के लिए दौड़कर खींच लाने को उद्यत हो गई। मूर्ख लड़का पानी से उलझ रहा है, यहाँ कैसी ज़बरदस्त कारगुज़ारी हुई है—सो नहीं देखता। ऐसा पक्का भाड़ उसने कहीं देखा भी है!

    पर सोचा, अभी नहीं, पहले कुटी तो बना लूँ। यह सोचकर बालिका ने रेत की एक चुटकी ली और बड़े धीरे से भाड़ के सिर पर छोड़ दी। फिर दूसरी, फिर तीसरी, फिर चौथी। इस प्रकार चार चुटकी रेत धीरे-धीरे वहाँ छोड़कर सुरबाला ने भाड़ के सिर पर अपनी कुटी तैयार कर ली।

    भाड़ तैयार हो गया। पर पड़ोस का भाड़ जब बालिका ने पूरा-पूरा याद किया तो पता चला कि एक कमी रह गई! धुआँ कहाँ से निकलेगा? तनिक सोचकर उसने एक सीक टेढ़ी करके उसमें गाढ़ दी। बस, ब्रह्मांड का सबसे संपूर्ण भाड़ और विश्व की सबसे सुंदर वस्तु तैयार हो गई।

    वह उजड्ड मनोहर को इस अपूर्व कारीगरी का दर्शन कराएगी, पर अभी ज़रा थोड़ा देख तो ले। सुरबाला मुँह खुला, आँख स्थिर, इस भाड़-श्रेष्ठ को देख देखकर विस्मित और पुलकित होने लगी। परमात्मा कहाँ विराजते हैं, कोई इस बाला से पूछे, तो वह बताए, इस भाड़ के जादू में। मनोहर अपनी सुरी-सुरी-सुरी की याद कर, पानी से नाता तोड़ और हाथ की लकड़ी को भरपूर ज़ोर से गंगा की धारा में फेंक जब मुड़ा, तब श्री सुरबाला देवी एकटक अपनी परमात्म लीला के जादू को बूझने और सुलझाने में लगी हुई थी।

    मनोहर ने बाला की दृष्टि का अनुसरण कर देखा—श्रीमती बिल्कुल अपने भाड़ में अटकी हुई है। उसने ज़ोर से क़हक़हा लगाकर एक हाथ से भाड़ का काम तमाग कर दिया।

    न-जाने क्या क़िला फ़तह किया हो, ऐसे महत्व से भरा मनोहर चिल्लाया- सुर्रो रानी!

    सुर्रो रानी मूक खड़ी थी। उनके मुँह पर जहाँ विशुद्ध रस था, वहाँ अब एक शून्य फैल गया। रानी के सामने एक स्वर्ग सागोपांग उपस्थित था। वह उन्हीं का अपना रचा हुआ था और वह एक व्यक्ति को अपने साथ लेकर उस स्वर्ग की एक-एक मनोरमता और स्वर्गीयता को दिखलाना चाहती थी। हा, हत! वह व्यक्ति आया और उसने अपनी लात से उसे तोड़-फोड़ डाला। रानी हमारी बड़ी व्यथा से भर गई।

    हमारे विद्वान पाठकों में से कोई होता तो उस झूठमूठ की मूर्ख रानी को समझाता—यह संसार क्षणभंगुर है। इससे दुःख क्या और सुख क्या? जो जिससे बनता है, वह उसी में लय हो जाता है। इसमें लोक और उद्वेग की क्या बात है? यह संसार जल का बुदबुद है, फटकर किसी रोज़ जल में ही मिल जाएगा। फूट जाने में ही बुदबुद की सार्थकता है। जो यह नहीं समझते वे दया के पात्र हैं। री, मूर्ख लडकी! तू समझ। सब ब्रह्मांड ब्रह्मा का है, और उसी में लीन हो जाएगा। इसमें तू किसलिए व्यर्थ व्यथा सह रही है? रेत का तेरा भाड़ क्षणिक था, क्षण में लुप्त हो गया, रेत में मिल गया। इन पर खेद मत कर, इससे शिक्षा ले। जिसने लात मार कर उसे तोड़ा है, वह तो परमात्मा का केवल साधन-मात्र है। परमात्मा तुझे नवीन शिक्षा देना चाहते हैं। लड़की, तू मूर्ख क्यों बनती है? परमात्मा की इस शिक्षा को समझ और परमात्मा तक पहुँचने का प्रयास कर... आदि-आदि।

    पर बेचारी बालिका का दुर्भाग्य, कोई विज्ञ धीमान पंडित तत्वोपदेश के लिए उस गंगा तट पर नहीं पहुँच सके। हमें तो यह भी संदेह है कि सुर्रो एक-दम इतनी जड़मूर्खा है कि यदि कोई परोपकार-रत पंडित परमात्म-निर्देश से वहाँ पहुँचकर उपदेश देने भी लगते, तो वह उनकी बात को सुनती और समझती। पर, अब तो वहाँ निर्बुद्धि शठ मनोहर के सिवा और कोई नहीं है और मनोहर विश्व-तत्व की एक भी बात नहीं जानता। उसका मन जाने कैसा हो रहा है। कोई उसे जैसे भीतर ही भीतर मसोसे डाल रहा है। लेकिन उसने बनकर कहा—सुर्रो, दुत् पगली, रूठती है!

    सुरबाला वैसी ही खड़ी रही।

    'सुरी, रूठती क्यों है?

    बाला तनिक हिली।

    'सुरी! सुरी!...ओ, सुरी!

    अब बनना हो सका। मनोहर की आवाज़ हठात् कँपी-सी निकली।

    सुरबाला अब और मुँह फेरकर खड़ी हो गई। स्वर के इस कंपन का सामना शायद उससे हो सका।

    'सुरी, सुरिया! मैं मनोहर हूँ...मनोहर! मुझे मारती नहीं!— यह मनोहर ने उसके पीठ पीछे से कहा और ऐसे कहा, जैसे वह यह प्रकट करना चाहता है कि वह रो नहीं रहा है।

    'हम नहीं बोलते।‘—बालिका से बिना बोले रहा गया। उसका भाड़ का स्वर्ग शायद विलीन हो गया और उसका स्थान और बाला की सारी दुनिया का स्थान काँपती हुई मनोहर की आवाज़ ने ले लिया। वही आवाज़ मानो सब कहीं व्यापक चित्र-सी लिख गई।

    मनोहर ने बड़ा बल लगाकर कहा—'सुरी, मनोहर तेरे पीछे खड़ा है, वह बड़ा ख़राब है। बोल मत, पर उस पर रेत क्यों नहीं फेंक देती, मार क्यों नहीं देती! उसे एक थप्पड़ लगा—वह अब कभी, क़ुसूर नहीं करेगा।'

    बाला ने कड़ककर कहा—'चुप रहो जी।'

    'चुप रहता हूँ, पर मुझे देखोगी भी नहीं?'

    'नहीं देखते।'

    'अच्छा, मत देखो। मत ही देखो। मैं अब कभी सामने आऊँगा, मैं इसी लायक़ हूँ।‘

    'कह दिया तुमसे, चुप रहो। हम नहीं बोलते।'

    बालिका में व्यथा और क्रोध कभी का ख़त्म हो चुका था। वह तो जाने कहाँ उड़कर खो चुका था। यह कुछ और ही भाव था। यह एक उल्लास था जो ब्याज-कोप का रूप धर रहा था। दूसरे शब्दों में यह स्त्रीत्व था।

    मनोहर बोला-'लो सुरी, मैं नहीं बोलता। मैं बैठ जाता हूँ। यहीं बैठा रहूँगा। तुम जब तक कहोगी, उठूँगा, बोलूँगा।'

    मनोहर चुप बैठ गया। कुछ क्षण बाद हारकर सुरबाला बोली—हमारा भाड़ क्यों तोड़ा जी? हमार भाड़ बना के दो!

    'लो, अभी लो।'

    'हम वैसा ही लेंगे।

    'वैसा ही लो, उससे भी अच्छा।'

    'उस पै हमारी कुटी थी, उस पै धुएँ का रास्ता था।'

    'लो, सब लो!' तुम बताती जाओ, मैं बनाता जाऊँ।'

    हम नहीं बताएँगें। तुमने क्यों तोड़ा? तुमने तोड़ा, तुम्ही बनाओ।

    अच्छा पर तुम इधर देखो तो।'

    'हम नहीं देखते, पहले भाड़ बना के दो।'

    मनोहर ने एक भाड़ बनाकर तैयार किया। कहा--'लो, भाड़ बन गया।

    'बन गया?'

    'धुएँ का रास्ता बनाया? कुटी बनाई?'

    'सो कैसे बनाऊँ—बताओ तो।'

    'पहले बनाओ, तब बताऊँगी।'

    भाड़ के सिर पर एक सीक लगाकर और एक पत्ते की ओट लगाकर कहा—'बना दिया।

    तुरंत मुड़कर सुरबाला ने कहा— 'अच्छा दिखाओ।'

    'सीक ठीक नहीं लगी जी, पत्ता ऐसे लगेगा?'—आदि-आदि संशोधन कर चुकने पर मनोहर को हुक्म हुआ—

    'थोड़ा पानी लाओ, भाड़ के सिर पर डालेंगे।'

    मनोहर पानी लाया।

    गंगाजल से करपात्री द्वारा वह भाड़ का अभिषेक करना ही चाहता था कि सुरी रानी ने एक लात से भाड़ के सिर को चकनाचूर कर दिया।

    सुरबाला रानी हँसी से नाच उठी। मनोहर उत्फुल्लता से क़हक़हा लगाने लगा। उस निर्जन प्रांत में वह निर्मल शिशुहास्य-रव लहरें खेता हुआ व्याप्त हो गया। सूरज महाराज बालकों जैसे लाल-लाल मुँह से गुलाबी हँसी हँस रहे थे। गंगा मानो जान-बूझकर किलकारियाँ भर रही थी। और वे लबे ऊँचे दिग्गज पेड़, दार्शनिक पंडितों की भाँति, सब हास्य की सार-शून्यता पर मन ही मन गंभीर तत्त्वावलोकन कर, कहीं हँसी में भूले मूर्खें पर आँसू बहाना तो नहीं चाह रहे थे—वे बेचारे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : गल्प-संसार-माला, भाग-1 (पृष्ठ 51)
    • संपादक : श्रीपत राय
    • रचनाकार : जैनेंद्र कुमार
    • प्रकाशन : सरस्वती प्रकाशन, बनारस
    • संस्करण : 1953

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