गर्मी के दिन थे। बादशाह ने उसी फाल्गुन में सलीमा से नई शादी की थी। सल्तनत के सब झंझटों से दूर रहकर नई दुलहिन के साथ प्रेम और आनंद की कलोलें करने, वह सलीमा को लेकर कश्मीर के दौलतख़ाने में चले आए थे।
रात दूध में नहा रही थी। दूर के पहाड़ों की चोटियाँ बर्फ़ से सफ़ेद होकर चाँदनी में बहार दिखा रही थीं। आरामबाग़ के महलों के नीचे पहाड़ी नदी बल खाकर बह रही थी।
मोतीमहल के एक कमरे में शमादान जल रहा था, और उसकी खुली खिड़की के पास बैठी सलीमा रात का सौंदर्य निहार रही थी। खुले हुए बाल उसकी फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी पर खेल रहे थे। चिकन के काम से सजी और मोतियों से गुँथी हुई उस फ़िरोज़ी रंग की ओढ़नी पर, कसी हुई कमखाब की कुरती और पन्नों की कमरपेटी पर, अंगूर के बराबर बड़े मोतियों की माला झूम रही थी। सलीमा का रंग भी मोती के समान था। उसकी देह की गठन निराली थी। संगमर्मर के समान पैरों में ज़री के काम के जूते पड़े थे, जिन पर दो हीरे धक्-धक् चमक रहे थे।
कमरे में एक कीमती ईरानी कालीन का फ़र्श बिछा था, जो पैर लगते ही हाथ भर धँस जाता था। सुगंधित मसालों से बने हुए शमादान जल रहे थे। कमरे में चार पूरे क़द के आईने लगे थे। संगमर्मर के आधारों पर सोने-चाँदी के फूलदानों में ताज़े फूलों के गुलदस्ते रखे थे। दीवारों और दरवाज़ों पर चतुराई से गुँथी हुई नागकेसर और चंपे की मालाएँ झूल रही थीं, जिनकी सुगंध से कमरा महक रहा था। कमरे में अनगिनत बहुमूल्य कारीगरों की देश-विदेश की वस्तुएँ क़रीने से सजी हुई थीं।
बादशाह दो दिन से शिकार को गए थे। आज इतनी रात हो गई, अभी तक नहीं आए। सलीमा चाँदनी में दूर तक आँखें बिछाए सवारों की गर्द देखती रही। आख़िर उससे न रहा गया, वह खिड़की से उठकर, अनमनी-सी होकर मसनद पर आ बैठी। उम्र और चिंता की गर्मी जब उससे सहन न हुई, तब उसने अपनी चिकन की ओढ़नी भी उतार फेंकी और आप ही आप झुँझलाकर बोली—”कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अब क्या करूँ?” इसके बाद उसने पास रखी बीन उठा ली। दो-चार उँगली चलाई, मगर स्वर न मिला। उसने भुनभुनाकर कहा—”मर्दों की तरह यह भी मेरे वश में नहीं है।” सलीमा ने उकताकर उसे रखकर दस्तक दी। एक बाँदी दस्तबस्ता हाज़िर हुई।
बाँदी अत्यंत सुंदरी और कमसिन थी। उसके सौंदर्य में एक गहरे विषाद की रेखा और नेत्रों में नैराश्य-स्याही थी। उसे पास बैठने का हुक्म देकर सलीमा ने कहा—“साक़ी, तुझे बीन अच्छी लगती है या बाँसुरी?”
बाँदी ने नम्रता से कहा—“हुज़ूर जिसमें ख़ुश हों।”
सलीमा ने कहा—“पर तू किसमें ख़ुश है?”
बाँदी ने कंपित स्वर में कहा—“सरकार बाँदियों की ख़ुशी ही क्या?”
क्षण भर सलीमा ने बाँदी के मुँह की तरफ़ देखा—वैसा ही विषाद, निराशा और व्याकुलता का मिश्रण हो रहा था।
सलीमा ने कहा—“मैं क्या तुझे बाँदी की नज़र से देखती हूँ?”
‘‘नहीं, हज़रत की तो लौंडी पर ख़ास मेहरबानी है।”
‘‘तब तू इतनी उदास, झिझकी हुई और एकांत में क्यों रहती है? जब से तू नौकर हुई है, ऐसा ही देखती हूँ! अपनी तकलीफ़ मुझसे तो कह प्यारी साक़ी।”
इतना कहकर सलीमा ने उसके पास खिसक कर उसका हाथ पकड़ लिया।
बाँदी काँप गई, पर बोली नहीं।
सलीमा ने कहा—“क़समिया! तू अपना दर्द मुझ से कह! तू इतनी उदास क्यों रहती है?”
बाँदी ने कंपित स्वर में कहा—“हुज़ूर क्यों इतनी उदास रहती हैं?”
सलीमा ने कहा—“इधर जहाँपनाह कुछ कम आने लगे हैं। इससे तबीयत ज़रा उदास रहती है।”
बाँदी—“सरकार, प्यारी चीज़ न मिलने से इंसान को उदासी आ ही जाती है, अमीर और ग़रीब, सभी का दिल तो दिल ही है।”
सलीमा हँसी। उसने कहा—“समझी, अब तू किसी को चाहती है। मुझे उसका नाम बता, उसके साथ तेरी शादी करा दूँगी।”
साक़ी का सिर घूम गया। एकाएक उसने बेग़म की आँखों से आँख मिलाकर कहा—“मैं आपको चाहती हूँ।”
सलीमा हँसते-हँसते लोट गई। उस मदमाती हँसी के वेग में उसने बाँदी का कंपन नहीं देखा। बाँदी ने वंशी लेकर कहा—“क्या सुनाऊँ?”
बेग़म ने कहा—“ठहर, कमरा बहुत गर्म मालूम देता है। इसके तमाम दरवाज़े और खिड़कियाँ खोल दे। चिराग़ों को बुझा दे, चटख़ती चाँदनी का लुत्फ़ उठाने दे और फूल-मालाएँ मेरे पास रख दे।”
बाँदी उठी। सलीमा बोली—“सुन, पहले एक गिलास शरबत दे, बहुत प्यासी हूँ।”
बाँदी ने सोने के गिलास में ख़ुशबूदार शरबत बेग़म के सामने ला धरा। बेग़म ने कहा–“उफ़! यह तो बहुत गर्म है। क्या इसमें गुलाब नहीं दिया?”
बाँदी ने नम्रता से कहा—“दिया तो है सरकार?”
‘‘अच्छा, इसमें थोड़ा-सा इस्तम्बोल और मिला।”
साक़ी गिलास लेकर दूसरे कमरे में चली गई। इस्तम्बोल मिलाया और भी एक चीज़ मिलाई। फिर वह सुवासित मदिरा का पात्र बेग़म के सामने ला धरा।
एक ही साँस में उसे पीकर बेग़म ने कहा—“अच्छा, अब सुना। तूने कहा कि मुझे प्यार करती है, सुना कोई प्यार का गाना सुना।”
इतना कह और गिलास को गलीचे पर लुढ़काकर मदमाती मसनद पर ख़ुद लुढ़क गई, और रसभरे नेत्रों से साक़ी की ओर देखने लगी। साक़ी ने वंशी का सुर मिलाकर गाना शुरू किया—
“दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी...”
बहुत देर तक साक़ी की वंशी और कंठ-ध्वनि कमरे में घूम-घूमकर रोती रही। धीरे-धीरे साक़ी ख़ुद रोने लगी। सलीमा मदिरा और यौवन के नशे में होकर झूमने लगी।
गीत ख़तम करके साक़ी ने देखा, सलीमा बेसुध पड़ी है। शराब की तेज़ी से उसके गाल एकदम सुर्ख़ हो गए हैं और तांबूल-राग-रंजित होंठ रह-रहकर फड़क रहे हैं। साँस की सुगंध से कमरा महक रहा है। जैसे मंद पवन से कोमल पत्ती काँपने लगती है, उसी प्रकार सलीमा का वक्षस्थल धीरे-धीरे काँप रहा है। प्रस्वेद की बूँदें ललाट पर दीपक के उज्ज्वल प्रकाश में मोतियों की तरह चमक रही हैं।
वंशी रखकर साक़ी क्षण भर बेग़म के पास आकर खड़ी हुई। उसका शरीर काँपा, आँखें जलने लगीं, कंठ सूख गया। वह घुटने के बल बैठकर बहुत धीरे-धीरे अपने आँचल से बेग़म के मुख का पसीना पोंछने लगी। इसके बाद उसने झुककर बेग़म का मुँह चूम लिया।
इसके बाद ज्योंही उसने अचानक आँख उठाकर देखा, ख़ुद दीन-दुनियाँ के मालिक शाहजहाँ खड़े उसकी यह करतूत अचरज और क्रोध से देख रहे हैं।
साक़ी को साँप डस गया। वह हतबुद्धि की तरह बादशाह का मुँह ताकने लगी। बादशाह ने कहा—“तू कौन है, और यह क्या कर रही थी?”
साक़ी चुप खड़ी रही। बादशाह ने कहा- ‘‘जवाब दे!”
साक़ी ने धीमे स्वर में कहा—“जहाँपनाह! कनीज़ अगर कुछ जवाब न दे तो?”
बादशाह सन्नाटे में आ गए। बाँदी की इतनी स्पर्धा!
उन्होंने कहा—“मेरी बात का जवाब नहीं? अच्छा, तुझे नंगी करके कोड़े लगाए जाएँगे।”
साक़ी ने कंपित स्वर में कहा—“मैं मर्द हूँ!”
बादशाह की आँखों में सरसों फूल उठी, उन्होंने अग्निमय नेत्रों से सलीमा की ओर देखा। वह बेसुध पड़ी सो रही थी। उसी तरह उसका भरा यौवन खुला पड़ा था। उसके मुँह से निकला, ‘‘उफ़ फ़ाहिशा।” और तत्काल उनका हाथ तलवार की मूठ पर गया। फिर नीचे को उन्होंने घूमकर कहा—“दोज़ख़ के कुत्ते! तेरी यह मजाल!”
फिर कठोर स्वर से पुकारा—“मादूम!”
क्षण भर में एक भयंकर रूप वाली तातारी औरत बादशाह के सामने अदब से आ खड़ी हुई। बादशाह ने हुक्म दिया—“इस मर्दूद को तहख़ाने में डाल दे, ताकि बिना खाए-पिए मर जाए।”
मादूम ने अपने कर्कश हाथों में युवक का हाथ पकड़ा और ले चली। थोड़ी देर में दोनों लोहे के एक मज़बूत दरवाज़े के पास आ खड़े हुए। तातारी बाँदी ने चाबी निकालकर दरवाज़ा खोला और क़ैदी को भीतर ढकेल दिया। कोठरी की गच क़ैदी का बोझा ऊपर पड़ते ही काँपती हुई नीचे को धसकने लगी।
प्रभात हुआ। सलीमा की बेहोशी दूर हुई। चौंककर उठ बैठी। बाल सँवारे, ओढ़नी ठीक की और चोली के बटन कसने को आईने के सामने जा खड़ी हुई। खिड़कियाँ बंद थीं। सलीमा ने पुकारा—“साक़ी! प्यारी साक़ी! बड़ी गर्मी है, ज़रा खिड़की तो खोल दे। निगोड़ी नींद ने तो आज ग़ज़ब ढा दिया। शराब कुछ तेज़ थी।”
किसी ने सलीमा की बात न सुनी। सलीमा ने ज़रा ज़ोर से पुकारा—“साक़ी!”
जवाब न पाकर सलीमा हैरान हुई। वह ख़ुद खिड़कियाँ खोलने लगी, मगर खिड़कियाँ बाहर से बंद थीं। सलीमा ने विस्मय से मन ही मन कहा—“क्या बात है? लौंडियाँ सब क्या हुईं?”
वह द्वार की तरफ़ चली। देखा, एक तातारी बाँदी नंगी तलवार लिए पहरे पर मुस्तैद खड़ी है। बेग़म को देखते ही उसने सिर झुका लिया।
सलीमा ने क्रोध से कहा—“तुम लोग यहाँ क्यों हो?”
‘‘बादशाह के हुक्म से।”
‘‘क्या बादशाह आ गए?”
‘‘जी, हाँ।”
‘‘मुझे इत्तला क्यों नहीं की?”
‘‘हुक्म नहीं था।”
‘‘बादशाह कहाँ हैं?”
‘‘ज़ीनतमहल के दौलतख़ाने पर।”
सलीमा के मन में अभिमान हुआ। उसने कहा—“ठीक है, ख़ूबसूरती की हाट में जिनका कारोबार है, मुहब्बत को क्या समझेंगे? तो अब ज़ीनतमहल की क़िस्मत खुली?”
तातारी स्त्री चुपचाप खड़ी रही। सलीमा फिर बोली—
‘‘मेरी साक़ी कहाँ है?”
‘‘क़ैद में।”
‘‘क्यों?”
‘‘जहाँपनाह का हुक्म था।”
‘‘उसका क़ुसूर क्या था?”
‘‘मैं अर्ज़ नहीं कर सकती।”
‘‘क़ैदखाने की चाबी मुझे दे, मैं अभी उसे छुड़ाती हूँ।”
‘‘आपको अपने कमरे से बाहर जाने का हुक्म नहीं है।”
‘‘तब क्या मैं भी क़ैद हूँ?”
‘‘जी हाँ।”
सलीमा की आँखों में आँसू भर आए। वह लौटकर मसनद पर पड़ गई और फूट-फूटकर रोने लगी। कुछ ठहरकर उसने एक ख़त लिखा—“हुज़ूर! मेरा क़ुसूर माफ़ फ़र्मावें। दिन भर की थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुज़ूर के इस्तक़बाल में हाज़िर न रह सकी। और मेरी उस प्यारी लौंडी की भी जाँ-बख़्शी की जाए। उसने हुज़ूर के दौलतख़ाने में लौट आने की इत्तला मुझे वाजबी तौर पर न देकर बेशक भारी क़ुसूर किया है, मगर वह नई, कमसिन, ग़रीब और दुखिया है।
कनीज़
सलीमा।”
चिट्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह की तबीयत बहुत नासाज़ थी। तमाम हिंदुस्तान के बादशाह की औरत फ़ाहिशा निकले। बादशाह अपनी आँखों से परपुरुष को उसका मुँह चूमते देख चुके थे। वह ग़ुस्से से तलमला रहे थे और ग़म ग़लत करने को अंधाधुंध शराब पी रहे थे। ज़ीनतमहल मौक़ा देखकर सौतियाडाह का बुख़ार निकाल रही थी। तातारी बाँदी को देखकर बादशाह ने आगबबूला होकर कहा—“क्या लाई हो?”
बाँदी ने दस्तबस्ता अर्ज़ की—“ख़ुदाबंद! सलीमा बीबी की अर्ज़ी है।”
बादशाह ने ग़ुस्से से होंठ चबाकर कहा—“उससे कह दे कि मर जाए।”
इसके बाद ख़त में एक ठोकर मारकर उन्होंने उधर से मुँह फेर लिया। बाँदी लौट आई। बादशाह का जवाब सुनकर सलीमा धरती पर बैठ गई। उसने बाँदी को बाहर जाने का हुक्म दिया और दरवाज़ा बंद करके फूट-फूटकर रोई। घंटों बीत गए, दिन छिपने लगा, सलीमा ने कहा—“हाय! बादशाहों की बेग़म होना भी बद-नसीबी है! इंतज़ारी करते-करते आँख फूट जाए, मिन्नतें करते-करते ज़बान घिस जाए, अदब करते-करते जिस्म के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँ, फिर भी इतनी-सी बात पर कि मैं ज़रा सो गई, उनके आने पर जाग न सकी, इतनी सज़ा? इतनी बेइज़्ज़ती?”
‘‘तब मैं बेग़म क्या हुई? ज़ीनत और बाँदियाँ सुनेंगी तो क्या कहेंगी? इस बेइज़्ज़ती के बाद मुँह दिखाने लायक़ कहाँ रही? अब तो मरना ही ठीक है। अफ़सोस, मैं किसी ग़रीब की औरत क्यों न हुई!”
धीरे-धीरे स्त्रीत्व का तेज़ उसकी आत्मा में उदय हुआ। गर्व और दृढ़ प्रतिज्ञा के चिह्न उसके नेत्रों में छा गए। वह साँपनी की तरह चपेट खाकर उठ खड़ी हुई। उसने एक और ख़त लिखा—
‘‘दुनिया के मालिक! आपकी बीवी और कनीज़ होने की वजह से आपके हुक्म को मानकर मरती हूँ, इतनी बेइज़्ज़ती पाकर एक मलिका का मरना ही मुनासिब है, मगर इतने बड़े बादशाह को औरतों को इस क़दर नाचीज़ तो न समझना चाहिए कि अदना-सी बेवक़ूफ़ी की इतनी बड़ी सज़ा दी जाए। मेरा क़ुसूर तो इतना ही था कि मैं बेख़बर सो गई थी। ख़ैर, फिर एक बार हुज़ूर को देखने की ख़्वाहिश लेकर मरती हूँ। मैं उस पाक परवरदिगार के पास जाकर अर्ज़ करुँगी कि वह मेरे शौहर को सलामत रक्खें।
सलीमा”
ख़त को इत्र से सुवासित करके ताज़े फूलों के एक गुलदस्ते में इस तरह रख दिया, जिससे किसी की उस पर नज़र न पड़ जाए। इसके बाद उसने जवाहर की पेटी से एक बहुमूल्य अँगूठी निकाली और कुछ देर तक आँख गड़ा-गड़ाकर उसे देखती रही। फिर उसे चाट गई।
बादशाह शाम की हवाख़ोरी को नज़र-बाग़ में टहल रहे थे। दो-तीन खोजे घबराए हुए आए और चिट्ठी पेश करके अर्ज़ की—“हुज़ूर, ग़ज़ब हो गया। सलीमा बीबी ने ज़हर खा लिया और वह मर रही हैं।”
क्षण भर में बादशाह ने ख़त पढ़ लिया। झपटे हुए महल में पहुँचे। प्यारी दुलहिन सलीमा ज़मीन पर पड़ी है। आँखें ललाट पर चढ़ गई हैं। रंग कोयले के समान हो गया है। बादशाह से रहा न गया। उन्होंने घबराकर कहा—“हकीम, हकीम को बुलाओ!” कई आदमी दौड़े।
बादशाह का शब्द सुनकर सलीमा ने उनकी तरफ़ देखा, और धीमे स्वर में कहा—“ज़हे क़िस्मत।”
बादशाह ने नज़दीक बैठकर कहा—“सलीमा, बादशाह की बेग़म होकर तुम्हें यही लाज़िम था?”
सलीमा ने कष्ट से कहा—”हुज़ूर, मेरा क़ुसूर मामूली था।”
बादशाह ने कड़े स्वर में कहा—“बदनसीब! शाही ज़नानख़ाने में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली क़ुसूर समझती है? कानों पर यक़ीन कभी न करता, मगर आँखों देखी को झूठ मान लूँ?”
जैसे हज़ारों बिच्छुओं के एक साथ डंक मारने से आदमी तड़पता है, उसी तरह तड़पकर सलीमा ने कहा—“क्या?”
बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा—“सच कहो, इस वक़्त तुम ख़ुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था?”
सलीमा ने अचकचाकर पूछा, ‘‘कौन जवान?”
बादशाह ने ग़ुस्से से कहा—“जिसे तुमने साक़ी बनाकर अपने पास रक्खा था?”
सलीमा ने घबराकर कहा—“हैं! क्या वह मर्द है?”
बादशाह—“तो क्या, तुम सचमुच यह बात नहीं जानती?”
सलीमा के मुँह से निकला—“या ख़ुदा।”
फिर उसके नेत्रों से आँसू बहने लगे। वह सब मामला समझ गई। कुछ देर बाद बोली—“ख़ाविंद! तब तो कुछ शिकायत ही नहीं, इस क़ुसूर की तो यही सज़ा मुनासिब थी। मेरी बदगुमानी माफ़ फ़रमाई जाए। मैं अल्लाह के नाम पर पड़ी कहती हूँ, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं है।”
बादशाह का गला भर आया। उन्होंने कहा—“तो प्यारी सलीमा, तुम बेक़ुसूर ही चलीं?” बादशाह रोने लगे।
सलीमा ने उनका हाथ पकड़कर अपनी छाती पर रखकर कहा—“मालिक मेरे! जिसकी उम्मीद न थी, मरते वक़्त वह मज़ा मिल गया। कहा-सुना माफ़ हो, एक अर्ज़ लौंडी की मंज़ूर हो।”
बादशाह ने कहा—“जल्दी कहो, सलीमा?”
सलीमा ने साहस से कहा—“उस जवान को माफ़ कर देना।”
इसके बाद सलीमा की आँखों से आँसू बह चले और थोड़ी ही देर में ठंडी हो गई।
बादशाह ने घुटनों के बल बैठकर उसका ललाट चूमा और फिर बालक की तरह रोने लगा।
ग़ज़ब के अँधेरे और सर्दी में युवक भूखा-प्यासा पड़ा था। एकाएक घोर चीत्कार करके किवाड़ खुले। प्रकाश के साथ ही एक गंभीर शब्द तहख़ाने में भर गया—“बदनसीब नौजवान, क्या होश-हवास में है?”
युवक ने तीव्र स्वर से पूछा—“कौन?”
जवाब मिला—“बादशाह।”
युवक ने कुछ भी अदब किए बिना कहा—“यह जगह बादशाहों के लायक़ नहीं है—क्यों तशरीफ़ लाए हैं?”
‘‘तुम्हारी कैफ़ियत नहीं सुनी थी, उसे सुनने आया हूँ।”
कुछ देर चुप रहकर युवक ने कहा—“सिर्फ़ सलीमा को झूठी बदनामी से बचाने के लिए कैफ़ियत देता हूँ, सुनिए सलीमा जब बच्ची थी, मैं उसके बाप का नौकर था। तभी से मैं उसे प्यार करता था। सलीमा भी प्यार करती थी; पर वह बचपन का प्यार था। उम्र होने पर सलीमा परदे में रहने लगी और फिर वह शाहंशाह की बेग़म हुई, मगर मैं उसे भूल न सका। पाँच साल तक पागल की तरह भटकता रहा। अंत में भेष बदलकर बाँदी की नौकरी कर ली। सिर्फ़ उसे देखते रहने और ख़िदमत करके दिन गुज़ार देने का इरादा था। उस दिन उज्ज्वल चाँदनी, सुगंधित पुष्प-राशि, शराब की उत्तेजना और एकांत ने मुझे बेबस कर दिया। उसके बाद मैंने आँचल से उसके मुख का पसीना पोंछा और मुँह चूम लिया। मैं इतना ही ख़तावार हूँ। सलीमा इसकी बाबत कुछ भी नहीं जानती।”
बादशाह कुछ देर चुपचाप खड़े रहे। उसके बाद वह दरवाज़े बंद किए बिना ही धीरे-धीरे चले गए।
सलीमा की मृत्यु को दस दिन बीत गए। बादशाह सलीमा के कमरे में ही दिन-रात रहते हैं। सामने नदी के उस पार, पेड़ों के झुरमुट में सलीमा की सफ़ेद क़ब्र बनी है। जिस खिड़की के पास सलीमा बैठी उस दिन रात को बादशाह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी खिड़की में, उसी चौकी पर बैठे हुए बादशाह उसी तरह सलीमा की क़ब्र दिन-रात देखा करते हैं। किसी को पास आने का हुक्म नहीं। जब आधी रात हो जाती है, तो उस गंभीर रात्रि के सन्नाटे में एक मर्म-भेदिनी गीत-ध्वनि उठ खड़ी होती है। बादशाह साफ़-साफ़ सुनते हैं, कोई करुण-कोमल स्वर में गा रहा है—
‘‘दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी!”
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badashah do din se shikar ko ge the. aaj itni raat ho gai, abhi tak nahin aaye. salima chandni mein door tak ankhen bichhaye savaron ki gard dekhti rahi. akhir usse na raha gaya, wo khiDki se uthkar, anamni si hokar masnad par aa baithi. umr aur chinta ki garmi jab usse sahn na hui, tab usne apni chikan ki oDhni bhi utaar phenki aur aap hi aap jhunjhlakar boli—”kuchh bhi achchha nahin lagta. ab kya karun?” iske baad usne paas rakhi been utha li. do chaar ungli chalai, magar svar na mila. usne bhunabhunakar kaha—”mardon ki tarah ye bhi mere vash mein nahin hai. ” salima ne uktakar use rakhkar dastak di. ek bandi dastbasta hazir hui.
bandi atyant sundri aur kamsin thi. uske saundarya mein ek gahre vishad ki rekha aur netron mein nairashya syahi thi. use paas baithne ka hukm dekar salima ne kaha—“saqi, tujhe been achchhi lagti hai ya bansuri?”
bandi ne namrata se kaha—“huzur jismen khush hon. ”
salima ne kaha—“par tu kismen khush hai?”
bandi ne kampit svar mein kaha—“sarkar bandiyon ki khushi hi kyaa?”
kshan bhar salima ne bandi ke munh ki taraf dekha—vaisa hi vishad, nirasha aur vyakulta ka mishran ho raha tha.
salima ne kaha—“main kya tujhe bandi ki nazar se dekhti hoon?”
‘‘nahin, hazrat ki to launDi par khaas mehrbani hai. ”
‘‘tab tu itni udaas, jhijhki hui aur ekaant mein kyon rahti hai? jab se tu naukar hui hai, aisa hi dekhti hoon! apni taklif mujhse to kah pyari saqi. ”
itna kahkar salima ne uske paas khisak kar uska haath pakaD liya.
bandi kaanp gai, par boli nahin.
salima ne kaha—“qasamiya! tu apna dard mujh se kah! tu itni udaas kyon rahti hai?”
salima ne kaha—“idhar jahanpnah kuch kam aane lage hain. isse tabiyat zara udaas rahti hai. ”
bandi—“sarkar, pyari cheez na milne se insaan ko udasi aa hi jati hai, amir aur gharib, sabhi ka dil to dil hi hai. ”
salima hansi. usne kaha—“samjhi, ab tu kisi ko chahti hai. mujhe uska naam bata, uske saath teri shadi kara dungi. ”
saqi ka sir ghoom gaya. ekayek usne begham ki ankhon se ankh milakar kaha—“main aapko chahti hoon. ”
salima hanste hanste lot gai. us madmati hansi ke veg mein usne bandi ka kampan nahin dekha. bandi ne vanshi lekar kaha—“kya sunaun?”
begham ne kaha—“thahr, kamra bahut garm malum deta hai. iske tamam darvaze aur khiDkiyan khol de. chiraghon ko bujha de, chatakhti chandni ka lutf uthane de aur phool malayen mere paas rakh de. ”
bandi uthi. salima boli—“sun, pahle ek gilas sharbat de, bahut pyasi hoon. ”
bandi ne sone ke gilas mein khushbudar sharbat begham ke samne la dhara. begham ne kaha–“uf! ye to bahut garm hai. kya ismen gulab nahin diya?”
bandi ne namrata se kaha—“diya to hai sarkar?”
‘‘achchha, ismen thoDa sa istambol aur mila. ”
saqi gilas lekar dusre kamre mein chali gai. istambol milaya aur bhi ek cheez milai. phir wo suvasit madira ka paatr begham ke samne la dhara.
ek hi saans mein use pikar begham ne kaha—“achchha, ab suna. tune kaha ki mujhe pyaar karti hai, suna koi pyaar ka gana suna. ”
itna kah aur gilas ko galiche par luDhkakar madmati masnad par khud luDhak gai, aur rasabhre netron se saqi ki or dekhne lagi. saqi ne vanshi ka sur milakar gana shuru kiya—
“dukhva main kase kahun mori sajni. . . ”
bahut der tak saqi ki vanshi aur kanth dhvani kamre mein ghoom ghumkar roti rahi. dhire dhire saqi khud rone lagi. salima madira aur yauvan ke nashe mein hokar jhumne lagi.
geet khatam karke saqi ne dekha, salima besudh paDi hai. sharab ki tezi se uske gaal ekdam surkh ho ge hain aur tambul raag ranjit honth rah rahkar phaDak rahe hain. saans ki sugandh se kamra mahak raha hai. jaise mand pavan se komal patti kanpne lagti hai, usi prakar salima ka vakshasthal dhire dhire kaanp raha hai. prasved ki bunden lalat par dipak ke ujjval parkash mein motiyon ki tarah chamak rahi hain.
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saqi chup khaDi rahi. badashah ne kaha ‘‘javab de!”
saqi ne dhime svar mein kaha—“jahanpnah! kaniz agar kuch javab na de to?”
badashah sannate mein aa ge. bandi ki itni spardha!
unhonne kaha—“meri baat ka javab nahin? achchha, tujhe nangi karke koDe lagaye jayenge. ”
saqi ne kampit svar mein kaha—“main mard hoon!”
badashah ki ankhon mein sarson phool uthi, unhonne agnimay netron se salima ki or dekha. wo besudh paDi so rahi thi. usi tarah uska bhara yauvan khula paDa tha. uske munh se nikla, ‘‘uf fahisha. ” aur tatkal unka haath talvar ki mooth par gaya. phir niche ko unhonne ghumkar kaha—“dozakh ke kutte! teri ye majal!”
phir kathor svar se pukara—“madum!”
kshan bhar mein ek bhayankar roop vali tatari aurat badashah ke samne adab se aa khaDi hui. badashah ne hukm diya—“is mardud ko tahkhane mein Daal de, taki bina khaye piye mar jaye. ”
madum ne apne karkash hathon mein yuvak ka haath pakDa aur le chali. thoDi der mein donon lohe ke ek mazbut darvaze ke paas aa khaDe hue. tatari bandi ne chabi nikalkar darvaza khola aur qaidi ko bhitar Dhakel diya. kothari ki gach qaidi ka bojha uupar paDte hi kanpti hui niche ko dhasakne lagi.
parbhat hua. salima ki behoshi door hui. chaunkkar uth baithi. baal sanvare, oDhni theek ki aur choli ke batan kasne ko aine ke samne ja khaDi hui. khiDkiyan band theen. salima ne pukara—“saqi! pyari saqi! baDi garmi hai, zara khiDki to khol de. nigoDi neend ne to aaj ghazab Dha diya. sharab kuch tez thi. ”
kisi ne salima ki baat na suni. salima ne zara zor se pukara—“saqi!”
javab na pakar salima hairan hui. wo khud khiDkiyan kholne lagi, magar khiDkiyan bahar se band theen. salima ne vismay se man hi man kaha—“kya baat hai? launDiyan sab kya huin?”
wo dvaar ki taraf chali. dekha, ek tatari bandi nangi talvar liye pahre par mustaid khaDi hai. begham ko dekhte hi usne sir jhuka liya.
salima ne krodh se kaha—“tum log yahan kyon ho?”
‘‘badashah ke hukm se. ”
‘‘kya badashah aa ge?”
‘‘ji, haan. ”
‘‘mujhe ittala kyon nahin kee?”
‘‘hukm nahin tha. ”
‘‘badashah kahan hain?”
‘‘zinatamhal ke daulatkhane par. ”
salima ke man mein abhiman hua. usne kaha—“thik hai, khubsurti ki haat mein jinka karobar hai, muhabbat ko kya samjhenge? to ab zinatamhal ki qismat khuli?”
‘‘qaidkhane ki chabi mujhe de, main abhi use chhuDati hoon. ”
‘‘apko apne kamre se bahar jane ka hukm nahin hai. ”
‘‘tab kya main bhi qaid hoon?”
‘‘ji haan. ”
salima ki ankhon mein ansu bhar aaye. wo lautkar masnad par paD gai aur phoot phutkar rone lagi. kuch thaharkar usne ek khat likha—“huzur! mera qusur maaf farmaven. din bhar ki thaki hone se aisi besudh so gai ki huzur ke istaqbal mein hazir na rah saki. aur meri us pyari launDi ki bhi jaan bakhshi ki jaye. usne huzur ke daulatkhane mein laut aane ki ittala mujhe vajbi taur par na dekar beshak bhari qusur kiya hai, magar wo nai, kamsin, gharib aur dukhiya hai.
kaniz
salima. ”
chitthi badashah ke paas bhej di gai. badashah ki tabiyat bahut nasaz thi. tamam hindustan ke badashah ki aurat fahisha nikle. badashah apni ankhon se parpurush ko uska munh chumte dekh chuke the. wo ghusse se talamla rahe the aur gham ghalat karne ko andhadhundh sharab pi rahe the. zinatamhal mauqa dekhkar sautiyaDah ka bukhar nikal rahi thi. tatari bandi ko dekhkar badashah ne agabbula hokar kaha—“kya lai ho?”
bandi ne dastbasta arz ki—“khudaband! salima bibi ki arzi hai. ”
badashah ne ghusse se honth chabakar kaha—“usse kah de ki mar jaye. ”
iske baad khat mein ek thokar markar unhonne udhar se munh pher liya. bandi laut aai. badashah ka javab sunkar salima dharti par baith gai. usne bandi ko bahar jane ka hukm diya aur darvaza band karke phoot phutkar roi. ghanton beet ge, din chhipne laga, salima ne kaha—“hay! badshahon ki begham hona bhi bad nasibi hai! intzari karte karte ankh phoot jaye, minnten karte karte zaban ghis jaye, adab karte karte jism ke tukDe tukDe ho jayen, phir bhi itni si baat par ki main zara so gai, unke aane par jaag na saki, itni saza? itni beizzti?”
‘‘tab main begham kya hui? zinat aur bandiyan sunengi to kya kahengi? is beizzti ke baad munh dikhane layaq kahan rahi? ab to marna hi theek hai. afsos, main kisi gharib ki aurat kyon na hui!”
dhire dhire streetv ka tez uski aatma mein uday hua. garv aur driDh prtigya ke chihn uske netron mein chha ge. wo sanpani ki tarah chapet khakar uth khaDi hui. usne ek aur khat likha—
‘‘duniya ke malik! apaki bivi aur kaniz hone ki vajah se aapke hukm ko mankar marti hoon, itni beizzti pakar ek malika ka marna hi munasib hai, magar itne baDe badashah ko aurton ko is qadar nachiz to na samajhna chahiye ki adna si bevaqufi ki itni baDi saza di jaye. mera qusur to itna hi tha ki main bekhbar so gai thi. khair, phir ek baar huzur ko dekhne ki khvahish lekar marti hoon. main us paak parvardigar ke paas jakar arz karungi ki wo mere shauhar ko salamat rakkhen.
salima”
khat ko itr se suvasit karke taze phulon ke ek guldaste mein is tarah rakh diya, jisse kisi ki us par nazar na paD jaye. iske baad usne javahar ki peti se ek bahumulya anguthi nikali aur kuch der tak ankh gaDa gaDakar use dekhti rahi. phir use chaat gai.
badashah shaam ki havakhori ko nazar baagh mein tahal rahe the. do teen khoje ghabraye hue aaye aur chitthi pesh karke arz ki—“huzur, ghazab ho gaya. salima bibi ne zahr kha liya aur wo mar rahi hain. ”
kshan bhar mein badashah ne khat paDh liya. jhapte hue mahl mein pahunche. pyari dulhin salima zamin par paDi hai. ankhen lalat par chaDh gai hain. rang koyle ke saman ho gaya hai. badashah se raha na gaya. unhonne ghabrakar kaha—“hakim, hakim ko bulao!” kai adami dauDe.
badashah ka shabd sunkar salima ne unki taraf dekha, aur dhime svar mein kaha—“zahe qismat. ”
badashah ne nazdik baithkar kaha—“salima, badashah ki begham hokar tumhein yahi lazim tha?”
salima ne kasht se kaha—”huzur, mera qusur mamuli tha. ”
badashah ne kaDe svar mein kaha—“badansib! shahi zanankhane mein mard ko bhesh badalkar rakhna mamuli qusur samajhti hai? kanon par yaqin kabhi na karta, magar ankhon dekhi ko jhooth maan loon?”
jaise hazaron bichchhuon ke ek saath Dank marne se adami taDapta hai, usi tarah taDapkar salima ne kaha—“kya?”
badashah Darkar pichhe hat ge. unhonne kaha—“sach kaho, is vaqt tum khuda ki raah par ho, ye javan kaun tha?”
salima ne achakchakar puchha, ‘‘kaun javan?”
badashah ne ghusse se kaha—“jise tumne saqi banakar apne paas rakkha tha?”
salima ne ghabrakar kaha—“hain! kya wo mard hai?”
badashah—“to kya, tum sachmuch ye baat nahin janti?”
salima ke munh se nikla—“ya khuda. ”
phir uske netron se ansu bahne lage. wo sab mamla samajh gai. kuch der baad boli—“khavind! tab to kuch shikayat hi nahin, is qusur ki to yahi saza munasib thi. meri badgumani maaf farmai jaye. main allah ke naam par paDi kahti hoon, mujhe is baat ka kuch bhi pata nahin hai. ”
badashah ka gala bhar aaya. unhonne kaha—“to pyari salima, tum bequsur hi chalin?” badashah rone lage.
salima ne unka haath pakaDkar apni chhati par rakhkar kaha—“malik mere! jiski ummid na thi, marte vaqt wo maza mil gaya. kaha suna maaf ho, ek arz launDi ki manzur ho. ”
badashah ne kaha—“jaldi kaho, salima?”
salima ne sahas se kaha—“us javan ko maaf kar dena. ”
iske baad salima ki ankhon se ansu bah chale aur thoDi hi der mein thanDi ho gai.
badashah ne ghutnon ke bal baithkar uska lalat chuma aur phir balak ki tarah rone laga.
ghazab ke andhere aur sardi mein yuvak bhukha pyasa paDa tha. ekayek ghor chitkar karke kivaD khule. parkash ke saath hi ek gambhir shabd tahkhane mein bhar gaya—“badansib naujavan, kya hosh havas mein hai?”
yuvak ne teevr svar se puchha—“kaun?”
javab mila—“badashah. ”
yuvak ne kuch bhi adab kiye bina kaha—“yah jagah badshahon ke layaq nahin hai—kyon tashrif laye hain?”
‘‘tumhari kaifiyat nahin suni thi, use sunne aaya hoon. ”
kuch der chup rahkar yuvak ne kaha—“sirf salima ko jhuthi badnami se bachane ke liye kaifiyat deta hoon, suniye salima jab bachchi thi, main uske baap ka naukar tha. tabhi se main use pyaar karta tha. salima bhi pyaar karti thee; par wo bachpan ka pyaar tha. umr hone par salima parde mein rahne lagi aur phir wo shahanshah ki begham hui, magar main use bhool na saka. paanch saal tak pagal ki tarah bhatakta raha. ant mein bhesh badalkar bandi ki naukari kar li. sirf use dekhte rahne aur khidmat karke din guzar dene ka irada tha. us din ujjval chandni, sugandhit pushp rashi, sharab ki uttejna aur ekaant ne mujhe bebas kar diya. uske baad mainne anchal se uske mukh ka pasina ponchha aur munh choom liya. main itna hi khatavar hoon. salima iski babat kuch bhi nahin janti. ”
badashah kuch der chupchap khaDe rahe. uske baad wo darvaze band kiye bina hi dhire dhire chale ge.
salima ki mrityu ko das din beet ge. badashah salima ke kamre mein hi din raat rahte hain. samne nadi ke us paar, peDon ke jhurmut mein salima ki safed qabr bani hai. jis khiDki ke paas salima baithi us din raat ko badashah ki prtiksha kar rahi thi, usi khiDki mein, usi chauki par baithe hue badashah usi tarah salima ki qabr din raat dekha karte hain. kisi ko paas aane ka hukm nahin. jab aadhi raat ho jati hai, to us gambhir ratri ke sannate mein ek marm bhedini geet dhvani uth khaDi hoti hai. badashah saaf saaf sunte hain, koi karun komal svar mein ga raha hai—
‘‘dukhva main kase kahun mori sajni!”
garmi ke din the. badashah ne usi phalgun mein salima se nai shadi ki thi. saltanat ke sab jhanjhton se door rahkar nai dulhin ke saath prem aur anand ki kalolen karne, wo salima ko lekar kashmir ke daulatkhane mein chale aaye the.
raat doodh mein nha rahi thi. door ke pahaDon ki chotiyan barf se safed hokar chandni mein bahar dikha rahi theen. arambagh ke mahlon ke niche pahaDi nadi bal khakar bah rahi thi.
motimhal ke ek kamre mein shamadan jal raha tha, aur uski khuli khiDki ke paas baithi salima raat ka saundarya nihar rahi thi. khule hue baal uski firozi rang ki oDhni par khel rahe the. chikan ke kaam se saji aur motiyon se gunthi hui us firozi rang ki oDhni par, kasi hui kamkhab ki kurti aur pannon ki kamarpeti par, angur ke barabar baDe motiyon ki mala jhoom rahi thi. salima ka rang bhi moti ke saman tha. uski deh ki gathan nirali thi. sangmarmar ke saman pairon mein zari ke kaam ke jute paDe the, jin par do hire dhak dhak chamak rahe the.
kamre mein ek kimti iirani kalin ka farsh bichha tha, jo pair lagte hi haath bhar dhans jata tha. sugandhit masalon se bane hue shamadan jal rahe the. kamre mein chaar pure qad ke aine lage the. sangmarmar ke adharon par sone chandi ke phuldanon mein taze phulon ke guldaste rakhe the. divaron aur darvazon par chaturai se gunthi hui nagakesar aur champe ki malayen jhool rahi theen, jinki sugandh se kamra mahak raha tha. kamre mein anaginat bahumulya karigron ki desh videsh ki vastuen qarine se saji hui theen.
badashah do din se shikar ko ge the. aaj itni raat ho gai, abhi tak nahin aaye. salima chandni mein door tak ankhen bichhaye savaron ki gard dekhti rahi. akhir usse na raha gaya, wo khiDki se uthkar, anamni si hokar masnad par aa baithi. umr aur chinta ki garmi jab usse sahn na hui, tab usne apni chikan ki oDhni bhi utaar phenki aur aap hi aap jhunjhlakar boli—”kuchh bhi achchha nahin lagta. ab kya karun?” iske baad usne paas rakhi been utha li. do chaar ungli chalai, magar svar na mila. usne bhunabhunakar kaha—”mardon ki tarah ye bhi mere vash mein nahin hai. ” salima ne uktakar use rakhkar dastak di. ek bandi dastbasta hazir hui.
bandi atyant sundri aur kamsin thi. uske saundarya mein ek gahre vishad ki rekha aur netron mein nairashya syahi thi. use paas baithne ka hukm dekar salima ne kaha—“saqi, tujhe been achchhi lagti hai ya bansuri?”
bandi ne namrata se kaha—“huzur jismen khush hon. ”
salima ne kaha—“par tu kismen khush hai?”
bandi ne kampit svar mein kaha—“sarkar bandiyon ki khushi hi kyaa?”
kshan bhar salima ne bandi ke munh ki taraf dekha—vaisa hi vishad, nirasha aur vyakulta ka mishran ho raha tha.
salima ne kaha—“main kya tujhe bandi ki nazar se dekhti hoon?”
‘‘nahin, hazrat ki to launDi par khaas mehrbani hai. ”
‘‘tab tu itni udaas, jhijhki hui aur ekaant mein kyon rahti hai? jab se tu naukar hui hai, aisa hi dekhti hoon! apni taklif mujhse to kah pyari saqi. ”
itna kahkar salima ne uske paas khisak kar uska haath pakaD liya.
bandi kaanp gai, par boli nahin.
salima ne kaha—“qasamiya! tu apna dard mujh se kah! tu itni udaas kyon rahti hai?”
salima ne kaha—“idhar jahanpnah kuch kam aane lage hain. isse tabiyat zara udaas rahti hai. ”
bandi—“sarkar, pyari cheez na milne se insaan ko udasi aa hi jati hai, amir aur gharib, sabhi ka dil to dil hi hai. ”
salima hansi. usne kaha—“samjhi, ab tu kisi ko chahti hai. mujhe uska naam bata, uske saath teri shadi kara dungi. ”
saqi ka sir ghoom gaya. ekayek usne begham ki ankhon se ankh milakar kaha—“main aapko chahti hoon. ”
salima hanste hanste lot gai. us madmati hansi ke veg mein usne bandi ka kampan nahin dekha. bandi ne vanshi lekar kaha—“kya sunaun?”
begham ne kaha—“thahr, kamra bahut garm malum deta hai. iske tamam darvaze aur khiDkiyan khol de. chiraghon ko bujha de, chatakhti chandni ka lutf uthane de aur phool malayen mere paas rakh de. ”
bandi uthi. salima boli—“sun, pahle ek gilas sharbat de, bahut pyasi hoon. ”
bandi ne sone ke gilas mein khushbudar sharbat begham ke samne la dhara. begham ne kaha–“uf! ye to bahut garm hai. kya ismen gulab nahin diya?”
bandi ne namrata se kaha—“diya to hai sarkar?”
‘‘achchha, ismen thoDa sa istambol aur mila. ”
saqi gilas lekar dusre kamre mein chali gai. istambol milaya aur bhi ek cheez milai. phir wo suvasit madira ka paatr begham ke samne la dhara.
ek hi saans mein use pikar begham ne kaha—“achchha, ab suna. tune kaha ki mujhe pyaar karti hai, suna koi pyaar ka gana suna. ”
itna kah aur gilas ko galiche par luDhkakar madmati masnad par khud luDhak gai, aur rasabhre netron se saqi ki or dekhne lagi. saqi ne vanshi ka sur milakar gana shuru kiya—
“dukhva main kase kahun mori sajni. . . ”
bahut der tak saqi ki vanshi aur kanth dhvani kamre mein ghoom ghumkar roti rahi. dhire dhire saqi khud rone lagi. salima madira aur yauvan ke nashe mein hokar jhumne lagi.
geet khatam karke saqi ne dekha, salima besudh paDi hai. sharab ki tezi se uske gaal ekdam surkh ho ge hain aur tambul raag ranjit honth rah rahkar phaDak rahe hain. saans ki sugandh se kamra mahak raha hai. jaise mand pavan se komal patti kanpne lagti hai, usi prakar salima ka vakshasthal dhire dhire kaanp raha hai. prasved ki bunden lalat par dipak ke ujjval parkash mein motiyon ki tarah chamak rahi hain.
vanshi rakhkar saqi kshan bhar begham ke paas aakar khaDi hui. uska sharir kanpa, ankhen jalne lagin, kanth sookh gaya. wo ghutne ke bal baithkar bahut dhire dhire apne anchal se begham ke mukh ka pasina ponchhne lagi. iske baad usne jhukkar begham ka munh choom liya.
iske baad jyonhi usne achanak ankh uthakar dekha, khud deen duniyan ke malik shahajhan khaDe uski ye kartut achraj aur krodh se dekh rahe hain.
saqi ko saanp Das gaya. wo hatbuddhi ki tarah badashah ka munh takne lagi. badashah ne kaha—“tu kaun hai, aur ye kya kar rahi thee?”
saqi chup khaDi rahi. badashah ne kaha ‘‘javab de!”
saqi ne dhime svar mein kaha—“jahanpnah! kaniz agar kuch javab na de to?”
badashah sannate mein aa ge. bandi ki itni spardha!
unhonne kaha—“meri baat ka javab nahin? achchha, tujhe nangi karke koDe lagaye jayenge. ”
saqi ne kampit svar mein kaha—“main mard hoon!”
badashah ki ankhon mein sarson phool uthi, unhonne agnimay netron se salima ki or dekha. wo besudh paDi so rahi thi. usi tarah uska bhara yauvan khula paDa tha. uske munh se nikla, ‘‘uf fahisha. ” aur tatkal unka haath talvar ki mooth par gaya. phir niche ko unhonne ghumkar kaha—“dozakh ke kutte! teri ye majal!”
phir kathor svar se pukara—“madum!”
kshan bhar mein ek bhayankar roop vali tatari aurat badashah ke samne adab se aa khaDi hui. badashah ne hukm diya—“is mardud ko tahkhane mein Daal de, taki bina khaye piye mar jaye. ”
madum ne apne karkash hathon mein yuvak ka haath pakDa aur le chali. thoDi der mein donon lohe ke ek mazbut darvaze ke paas aa khaDe hue. tatari bandi ne chabi nikalkar darvaza khola aur qaidi ko bhitar Dhakel diya. kothari ki gach qaidi ka bojha uupar paDte hi kanpti hui niche ko dhasakne lagi.
parbhat hua. salima ki behoshi door hui. chaunkkar uth baithi. baal sanvare, oDhni theek ki aur choli ke batan kasne ko aine ke samne ja khaDi hui. khiDkiyan band theen. salima ne pukara—“saqi! pyari saqi! baDi garmi hai, zara khiDki to khol de. nigoDi neend ne to aaj ghazab Dha diya. sharab kuch tez thi. ”
kisi ne salima ki baat na suni. salima ne zara zor se pukara—“saqi!”
javab na pakar salima hairan hui. wo khud khiDkiyan kholne lagi, magar khiDkiyan bahar se band theen. salima ne vismay se man hi man kaha—“kya baat hai? launDiyan sab kya huin?”
wo dvaar ki taraf chali. dekha, ek tatari bandi nangi talvar liye pahre par mustaid khaDi hai. begham ko dekhte hi usne sir jhuka liya.
salima ne krodh se kaha—“tum log yahan kyon ho?”
‘‘badashah ke hukm se. ”
‘‘kya badashah aa ge?”
‘‘ji, haan. ”
‘‘mujhe ittala kyon nahin kee?”
‘‘hukm nahin tha. ”
‘‘badashah kahan hain?”
‘‘zinatamhal ke daulatkhane par. ”
salima ke man mein abhiman hua. usne kaha—“thik hai, khubsurti ki haat mein jinka karobar hai, muhabbat ko kya samjhenge? to ab zinatamhal ki qismat khuli?”
‘‘qaidkhane ki chabi mujhe de, main abhi use chhuDati hoon. ”
‘‘apko apne kamre se bahar jane ka hukm nahin hai. ”
‘‘tab kya main bhi qaid hoon?”
‘‘ji haan. ”
salima ki ankhon mein ansu bhar aaye. wo lautkar masnad par paD gai aur phoot phutkar rone lagi. kuch thaharkar usne ek khat likha—“huzur! mera qusur maaf farmaven. din bhar ki thaki hone se aisi besudh so gai ki huzur ke istaqbal mein hazir na rah saki. aur meri us pyari launDi ki bhi jaan bakhshi ki jaye. usne huzur ke daulatkhane mein laut aane ki ittala mujhe vajbi taur par na dekar beshak bhari qusur kiya hai, magar wo nai, kamsin, gharib aur dukhiya hai.
kaniz
salima. ”
chitthi badashah ke paas bhej di gai. badashah ki tabiyat bahut nasaz thi. tamam hindustan ke badashah ki aurat fahisha nikle. badashah apni ankhon se parpurush ko uska munh chumte dekh chuke the. wo ghusse se talamla rahe the aur gham ghalat karne ko andhadhundh sharab pi rahe the. zinatamhal mauqa dekhkar sautiyaDah ka bukhar nikal rahi thi. tatari bandi ko dekhkar badashah ne agabbula hokar kaha—“kya lai ho?”
bandi ne dastbasta arz ki—“khudaband! salima bibi ki arzi hai. ”
badashah ne ghusse se honth chabakar kaha—“usse kah de ki mar jaye. ”
iske baad khat mein ek thokar markar unhonne udhar se munh pher liya. bandi laut aai. badashah ka javab sunkar salima dharti par baith gai. usne bandi ko bahar jane ka hukm diya aur darvaza band karke phoot phutkar roi. ghanton beet ge, din chhipne laga, salima ne kaha—“hay! badshahon ki begham hona bhi bad nasibi hai! intzari karte karte ankh phoot jaye, minnten karte karte zaban ghis jaye, adab karte karte jism ke tukDe tukDe ho jayen, phir bhi itni si baat par ki main zara so gai, unke aane par jaag na saki, itni saza? itni beizzti?”
‘‘tab main begham kya hui? zinat aur bandiyan sunengi to kya kahengi? is beizzti ke baad munh dikhane layaq kahan rahi? ab to marna hi theek hai. afsos, main kisi gharib ki aurat kyon na hui!”
dhire dhire streetv ka tez uski aatma mein uday hua. garv aur driDh prtigya ke chihn uske netron mein chha ge. wo sanpani ki tarah chapet khakar uth khaDi hui. usne ek aur khat likha—
‘‘duniya ke malik! apaki bivi aur kaniz hone ki vajah se aapke hukm ko mankar marti hoon, itni beizzti pakar ek malika ka marna hi munasib hai, magar itne baDe badashah ko aurton ko is qadar nachiz to na samajhna chahiye ki adna si bevaqufi ki itni baDi saza di jaye. mera qusur to itna hi tha ki main bekhbar so gai thi. khair, phir ek baar huzur ko dekhne ki khvahish lekar marti hoon. main us paak parvardigar ke paas jakar arz karungi ki wo mere shauhar ko salamat rakkhen.
salima”
khat ko itr se suvasit karke taze phulon ke ek guldaste mein is tarah rakh diya, jisse kisi ki us par nazar na paD jaye. iske baad usne javahar ki peti se ek bahumulya anguthi nikali aur kuch der tak ankh gaDa gaDakar use dekhti rahi. phir use chaat gai.
badashah shaam ki havakhori ko nazar baagh mein tahal rahe the. do teen khoje ghabraye hue aaye aur chitthi pesh karke arz ki—“huzur, ghazab ho gaya. salima bibi ne zahr kha liya aur wo mar rahi hain. ”
kshan bhar mein badashah ne khat paDh liya. jhapte hue mahl mein pahunche. pyari dulhin salima zamin par paDi hai. ankhen lalat par chaDh gai hain. rang koyle ke saman ho gaya hai. badashah se raha na gaya. unhonne ghabrakar kaha—“hakim, hakim ko bulao!” kai adami dauDe.
badashah ka shabd sunkar salima ne unki taraf dekha, aur dhime svar mein kaha—“zahe qismat. ”
badashah ne nazdik baithkar kaha—“salima, badashah ki begham hokar tumhein yahi lazim tha?”
salima ne kasht se kaha—”huzur, mera qusur mamuli tha. ”
badashah ne kaDe svar mein kaha—“badansib! shahi zanankhane mein mard ko bhesh badalkar rakhna mamuli qusur samajhti hai? kanon par yaqin kabhi na karta, magar ankhon dekhi ko jhooth maan loon?”
jaise hazaron bichchhuon ke ek saath Dank marne se adami taDapta hai, usi tarah taDapkar salima ne kaha—“kya?”
badashah Darkar pichhe hat ge. unhonne kaha—“sach kaho, is vaqt tum khuda ki raah par ho, ye javan kaun tha?”
salima ne achakchakar puchha, ‘‘kaun javan?”
badashah ne ghusse se kaha—“jise tumne saqi banakar apne paas rakkha tha?”
salima ne ghabrakar kaha—“hain! kya wo mard hai?”
badashah—“to kya, tum sachmuch ye baat nahin janti?”
salima ke munh se nikla—“ya khuda. ”
phir uske netron se ansu bahne lage. wo sab mamla samajh gai. kuch der baad boli—“khavind! tab to kuch shikayat hi nahin, is qusur ki to yahi saza munasib thi. meri badgumani maaf farmai jaye. main allah ke naam par paDi kahti hoon, mujhe is baat ka kuch bhi pata nahin hai. ”
badashah ka gala bhar aaya. unhonne kaha—“to pyari salima, tum bequsur hi chalin?” badashah rone lage.
salima ne unka haath pakaDkar apni chhati par rakhkar kaha—“malik mere! jiski ummid na thi, marte vaqt wo maza mil gaya. kaha suna maaf ho, ek arz launDi ki manzur ho. ”
badashah ne kaha—“jaldi kaho, salima?”
salima ne sahas se kaha—“us javan ko maaf kar dena. ”
iske baad salima ki ankhon se ansu bah chale aur thoDi hi der mein thanDi ho gai.
badashah ne ghutnon ke bal baithkar uska lalat chuma aur phir balak ki tarah rone laga.
ghazab ke andhere aur sardi mein yuvak bhukha pyasa paDa tha. ekayek ghor chitkar karke kivaD khule. parkash ke saath hi ek gambhir shabd tahkhane mein bhar gaya—“badansib naujavan, kya hosh havas mein hai?”
yuvak ne teevr svar se puchha—“kaun?”
javab mila—“badashah. ”
yuvak ne kuch bhi adab kiye bina kaha—“yah jagah badshahon ke layaq nahin hai—kyon tashrif laye hain?”
‘‘tumhari kaifiyat nahin suni thi, use sunne aaya hoon. ”
kuch der chup rahkar yuvak ne kaha—“sirf salima ko jhuthi badnami se bachane ke liye kaifiyat deta hoon, suniye salima jab bachchi thi, main uske baap ka naukar tha. tabhi se main use pyaar karta tha. salima bhi pyaar karti thee; par wo bachpan ka pyaar tha. umr hone par salima parde mein rahne lagi aur phir wo shahanshah ki begham hui, magar main use bhool na saka. paanch saal tak pagal ki tarah bhatakta raha. ant mein bhesh badalkar bandi ki naukari kar li. sirf use dekhte rahne aur khidmat karke din guzar dene ka irada tha. us din ujjval chandni, sugandhit pushp rashi, sharab ki uttejna aur ekaant ne mujhe bebas kar diya. uske baad mainne anchal se uske mukh ka pasina ponchha aur munh choom liya. main itna hi khatavar hoon. salima iski babat kuch bhi nahin janti. ”
badashah kuch der chupchap khaDe rahe. uske baad wo darvaze band kiye bina hi dhire dhire chale ge.
salima ki mrityu ko das din beet ge. badashah salima ke kamre mein hi din raat rahte hain. samne nadi ke us paar, peDon ke jhurmut mein salima ki safed qabr bani hai. jis khiDki ke paas salima baithi us din raat ko badashah ki prtiksha kar rahi thi, usi khiDki mein, usi chauki par baithe hue badashah usi tarah salima ki qabr din raat dekha karte hain. kisi ko paas aane ka hukm nahin. jab aadhi raat ho jati hai, to us gambhir ratri ke sannate mein ek marm bhedini geet dhvani uth khaDi hoti hai. badashah saaf saaf sunte hain, koi karun komal svar mein ga raha hai—
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।
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