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ज़मीन का आख़िरी टुकड़ा

zamin ka akhiri tukDa

इब्राहिम शरीफ़

इब्राहिम शरीफ़

ज़मीन का आख़िरी टुकड़ा

इब्राहिम शरीफ़

और अधिकइब्राहिम शरीफ़

    माँ आँगन में चारपाई पर लेटी हुई थी। मेरी आवाज़ सुनकर उठ बैठीं। मैंने अटैची चारपाई के पास ही रख दी। माँ के पैर छुए और उनके पास बैठ गया। माँ मेरे पास सरक आई, अपने दोनों पंजे मेरे गालों पर रख दिए और रुआँसी हो गई।

    बड़े दादा और बच्चे भीतर खाना खा रहे थे। आवाज़ सुनकर आँगन में गए। छोटे दादा भी आए हुए थे। बच्चे जूठे हाथों से आकर चिपट गए। मैं उठकर खड़ा हो गया। माँ बोलीं—हाथ-मुँह धोकर खाना खा लो, सफ़र में थक गए होंगे।

    मैंने अटैची उठा ली और अंदर चला आया।

    भाभी रोटी सेंक रही थीं। मुझे देखकर हाल पूछा। मैंने कपड़े बदले। सहन में जाकर हाथ-मुँह धोया। लौटकर खाना खाने बैठ गया। मैंने छोटे दादा से पूछा—आप कब आए?

    जवाब बड़े दादा ने दिया—परसों सुबह।

    —भाभी और बच्चों को नहीं लाए?

    —ना।

    —बच्चे कैसे हैं?

    —मज़े में हैं। तुमको याद करते रहते हैं। छोटे दादा ने कौर मुँह में रखते हुए कहा। दाल में नमक कम था। मैंने थोड़ा नमक लेकर दाल में घोल लिया। बड़े दादा बोले—तार मिल गया था?

    —हाँ।

    —मैंने सोचा था, तुम परसों ही जाओगे।

    —छुट्टी नहीं मिली।

    उन्होंने कौर चबाते हुए मेरी तरफ़ देखा। कुछ-कुछ नाराज़गी के साथ बोले—तुम्हारी यह शिकायत कभी दूर भी होगी?

    —मैं क्या कर सकता हूँ? फ़ैक्टरी के नियम ही ऐसे हैं...नौकरी भी तो करनी है।

    उन्होंने गिलास उठाकर मुँह से लगा लिया। बच्चे खाना खा चुके थे। बड़े दादा उठे, बाहर जाकर हाथ धो आए। खूटी पर टँगी हुई क़मीज़ की जेब में से बीड़ी निकालकर सुलगा ली, दीवार से पीठ सटाकर बैठ गए। छोटे दादा भी खाना ख़त्म कर चुके थे, मगर वहीं बैठे रहे।

    बीड़ी के चार-छः कश लगाकर बड़े दादा बोले—तुम्हें पता है, दो साल बाद तुम घर आए हो?

    —माँ की तबीअत ठीक ही तो है...आपने तार किसलिए दिया था?

    मेरी कटोरी में दाल खतम हो गई थी। मैंने थोड़ी दाल और लेकर उसमें नमक मिला लिया।

    —क्या माँ के मरने के बाद ही आने का इरादा था?

    —बड़े दादा, आप भी क्या बात करते हैं...मैं जानबूझकर थोड़े यहाँ नहीं आता हूँ? मैंने गिलास के बचे पानी में ही उँगलियाँ डुबा दीं।

    —तो तुम ही बताओ, ये भी तो नौकरी करते हैं...मगर साल में एक बार हाल तो पूछ जाते हैं...तुम्हारे तो बीवी-बच्चे भी नहीं हैं...

    मैंने कोई जवाब नहीं दिया। छोटे दादा को शायद लगा कि मैं इन सवालों से दुखी हो गया हूँ। वह जैसे स्थिति को संभलाते हुए बोले—मेरी तो सरकारी नौकरी है दादा...चाहे जब छुट्टी ले सकता हूँ, किसी किसी बहाने...प्राइवेट में दिक़्क़त होती है...।

    बड़े दादा ने बीड़ी का टोंटा ज़मीन पर रगड़ दिया। मेरी तरफ़ फिसलती निगाह से देखा। बोले—तुम कभी शीशे में अपनी शक्ल भी देखते हो?

    उनका सवाल सुनकर मुझे हँसी गई। मुझे हँसता देखकर छोटे दादा और पास में बैठे हुए बच्चे भी हँस पड़े। भाभी चूल्हे के पास ही बैठी खाना खा रही थीं। शायद दाल ख़त्म हो गई थी। हर दूसरे-तीसरे कौर के साथ वह कुर्र करके प्याज़ कुतर रही थीं। बड़े दादा ने आगे पैर पसार लिए थे। मैंने उनकी तरफ़ देखा। उनकी खोपड़ी बिलकुल गंजी हो गई थी और गाल ख़ासे पिचक गए थे। मेरे भीतर कुछ हिल-सा गया। मैंने उनसे कहा—बड़दा, आपकी सेहत काफ़ी गिर गई है।

    उन्होंने उठकर जेब में से एक बीड़ी और निकाल ली। बोले—तुम अपनी पर तो ध्यान दो...देखी है, शक्ल कैसी निकल आई है, बिज्जुओं जैसी...इसीलिए तो कहता हूँ, शीशे में अपनी शक्ल देख लिया करो।

    मैं बड़े दादा के बारे में सोचने लगा। मुझे ठीक से याद भी नहीं है, मेरे पिता कब मर गए थे। मुझे पाला-पोसा बड़े दादा ने ही। छोटे भाई की तरह नहीं, अपने सगे बेटे की तरह, मुझे ही नहीं, छोटे दादा को भी। हमें पढ़ाया-लिखाया। काम-धंधे के लायक़ बनाया। जब मेरे पिता चल बसे थे तब उनकी उम्र सिर्फ़ सत्रह साल की थी और साल भर पहले ही उनकी शादी हो चुकी थी। मगर जायदाद में अपना हिस्सा लेकर वह अलग नहीं हो गए थे। परिवार के सारे बोझ को कंधों पर धर लिया। माँ, चाची, दो छोटे भाई, बीवी। सभी को समेटे रखा। चाची की मौत-मिट्टी की, छोटे दादा की शादी की, इस सबके बदले में किसी से कुछ नहीं चाहा। अपने ही सिर के बाल उड़ा लिए। गाल पिचका लिए। ज़िल्लतें सहीं। मगर शू नहीं किया। इस सबके बीच इतना ज़रूर हुआ कि पिता की छोड़ी हुई जायदाद धीरे-धीरे सरकने लगी। क़र्ज़दारी बढ़ने लगी। फाँकों ने हमारी दहलीज़ में झाँकना शुरू किया। तगादों की आवाज़ें बुलंद होने लगी। बीच बाज़ार में उनके गिरेबान परम जबूत पंजे पसरने लगे। फिर भी उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आगे चलते गए, दोनों कंधों को बोझ से दबाए ही।

    मैं उठकर बाहर आँगन में गया। मेरे पीछे छोटे दादा भी गए। माँ लेटे-लेटे माला फेर रही थीं। मुझे देखकर चारपाई पर एक तरफ़ हो गई। मैं उनके पास बैठ गया। छोटे दादा सामने वाली चारपाई पर बैठ गए। माँ ने माला समेट कर तकिए के नीचे रख दी। बोलीं—खाना खा लिया? खाया क्या होगा, कोई सब्ज़ी भी तो नहीं थी। मैंने माँ के कंधे पर हाथ रख दिया।

    भाभी भीतर चौका साफ़ कर रही थीं। बच्चे शायद सोने की तैयारी कर रहे थे। बड़े दादा उठकर आए। सामने वाली चारपाई पर बैठ गए। भीतर की रौशनी बाहर आँगन में पड़ रही थी। बेहद मामूली-सी। शक्लों की शिनाख़्त भर करने लायक़ बड़े दादा थोड़ी देर चुपचाप बैठे रहे। फिर चारपाई पर लेट गए। छोटे दादा ने मुझसे पूछा—तुम्हारी फ़ैक्टरी में कितने आदमी काम करते हैं?

    —सात सौ।

    —सात सौ? बहुत बड़ी फ़ैक्टरी होगी।

    —और क्या।

    —बड़े दादा ने लेटे-लेटे पूछा—तुम्हारी तनख़्वाह बढ़ी है कि नहीं?

    —बढ़ी है...अठारह रुपए?

    —बस पाँच साल में अठारह रुपए?

    —पार साल ही तो मैं पर्मानेंट हुआ हूँ...मालिक हरामी है...

    —क्या कहता है? छोटे दादा ने पूछा।

    —कहता क्या है?...वर्कर्स के साथ बेरहमी दिखाता है। धमकी दो तो यूनियन के नेताओं को ख़रीद लेता है या सिर फुड़वा देता है।

    सिर फूटने वाली बात से शायद बड़े दादा चकरा गए। झट से उठ बैठे। उस झीनी रौशनी में मेरी तरफ़ ग़ौर से देखने की कोशिश की। बोले—तुम इन झंझटों में पड़ते तो नहीं हो न? अलग ही रहा करो...

    —बड़दा, आप भी कैसी बात करते हैं। हर आदमी इसी तरह अलग रहेगा तो हक़ के लिए लड़ेगा कौन?

    छोटे दादा शहर में नौकरी करते है। वह मेरी बात समझ गए। मेरा समर्थन करते हुए बोले—यूनियन के कामों से ऐसे अलग रहकर काम नहीं चलता दादा...

    बड़े दादा फिर लेट गए। बोले—सो तो ठीक है, फिर भी होशियारी से काम लेना चाहिए...छोटू वहाँ रहते भी अकेले हैं न...

    माँ को शायद नींद रही थी, उन्होंने भी यही ताकीद दुहरा दी और आँखें मूँद लीं। भीतर भाभी भी काम से निपट कर बच्चों के पास ही सो गर्इ थीं। थोड़ी देर चारों तरफ़ चुप्पी छार्इ रही।

    लेटे-लेटे ही अचानक बड़े दादा बोले छोटू मैंने वह बची हुई ज़मीन बेच दी है।

    मैंने कोई जवाब नहीं दिया तार पाने के बाद मुझे जो ख़याल आया था वह ठीक ही था। छोटे दादा ने जैसे ख़ुलासा किया—बेच देना ही ठीक था...वरना बेकार में ब्याज़ चढ़ जाता...फिर तो ज़मीन बेचकर भी क़र्ज़ा चुकाना मुश्किल हो जाता...

    —तुम लोगों से पूछे बिना ही यह फ़ैसला ले लिया। बड़े दादा के स्वर में रंज था।

    —हमसे पूछते तो हम भी यही सलाह देते...

    —करता क्या, क़र्ज़दार मेरी जान खाए जा रहा था।

    —ख़ैर छोड़िए, फिकर करने की कोई बात नहीं।

    माँ ने करवट बदली। उनकी नींद उचट गई थीं। या लेटे-लेटे वह चुपचाप हमारी बातें सुन रही थीं। बोलीं—तुम्हारे पिताजी की वह आख़िरी निशानी थी...वह भी चली गई।

    बड़े दादा उठ कर चुपचाप बैठ गए। मैंने माँ को ढाढ़स दिया—निशानी-विशानी कुछ नहीं होती माँ। पिताजी ने हमारी ही ज़रूरतों के लिए ही तो ज़मीन रखी थी।

    बड़े दादा उठकर भीतर गए। घड़े में से पानी लेकर पिया। बीड़ी सुलगाई। वापस आकर चारपाई पर बैठ गए। बीड़ी के दो-चार तेज़ कश खींचे और अपने आप बड़बड़ाने लगे—हमारी ज़मीनें इतनी जल्दी नहीं बिकतीं...लेकिन आधी तो सूद पर ही चली गई...गाँव में और कोई भी तो नहीं है। क़र्ज़ा देने वाला यही साला अकेला इब्बू है...इसका ब्याज़ तो आग जैसा है...जलाकर राख कर देने वाला...साल भर गुज़रा कि नहीं, क़र्ज़े की रक़म दुगुनी हो जाती है...ज़रूरतमंद करे भी क्या...इसी तरह क़र्ज़ लेता रहेगा, इसी तरह अपने आप को बेचता रहेगा...यह हरामी इब्बू गाँव में किसी को ज़िंदा नहीं छोड़ेगा...सब को खा जाएगा...

    छोटे दादा को शायद नींद रही थी, बोले—दादा, जाकर सो जाइए। कल सुबह तड़के उठना भी तो है। पहली बस से जाना ही ठीक रहेगा...

    —हाँ छोटू, कल चलना है रजिस्ट्रार आफ़िस को...मैंने चार-पाँच दिन पहले ही काग़ज़ात तैयार करवा लिए हैं...बस तुम्हारा इंतिज़ार था...तुम्हारा तार मिलने के बाद वकील के कारिंदे से भी कह दिया, कल सुबह चलने के लिए...गाँव वालों का भी क्या भरोसा...ख़रीदार के कोई कान भर देगा तो वह मुकर जाण...फिर और किसी को ख़रीदने भी नहीं देगा इसलिए रजिस्ट्री कल ही हो जानी चाहिए...क्या ख़याल है? सुबह की बस से चलोगे तो शाम तक लौट आएँगे...वरना रात हो जाएगी...माँ को भी तो साथ चलना है न...रात हो जाएगी तो इनको तकलीफ़ होगी...उन्होंने बीड़ी का टोंटा फेंक दिया, उठे, सोने भीतर चले गए। माँ ने पैरों के पास पड़ा हुआ कंबल खींच कर ओढ़ लिया। छोटे दादा दूसरी चारपाई पर पसर गए। मैं माँ की बग़ल में ही सिकुड़ गया।

    मच्छरों की वजह से रात को ठीक से नींद नहीं लगी। सबेरे ढंग से आँख लगी कि भाभी ने जगा दिया। बड़े दादा शायद वकील के कारिंदे के पास गए हुए थे। माँ कंबल ओढ़े मेरे पास वाली चारपाई पर बैठी होंठों में कुछ बुदबुदा रही थीं। छोटे दादा शायद दातून कर रहे थे। मुझे जगाकर भाभी बोलीं—लाला उठो, जाना नहीं है?

    मैंने आँखें मलीं। देखा, पास के नीम के पेड़ पर आठ-दस चिड़ियाँ चहक रही हैं। नीम की पतली-सी टहनियाँ हल्की-सी हवा के झोंकों की वजह से हौले-हौले झूल रही हैं। मैंने आवाज़ दी—भाभी, क्या चाय बन सकेगी? भाभी ने कोई जवाब नहीं दिया। शायद मेरी आवाज़ सुनी नहीं हो। मैं उठकर भीतर गया। बच्चे टेढ़े-मेढ़े सो रहे थे। भाभी आटा गूंध रही थीं। मैंने दुबारा पूछा—चाय नहीं बनाओगी?

    इतने में छोटे दादा अंदर गए। शायद उनको भी चाय की तलब लगी थी। भाभी बोलीं—पत्ती है और गुड़ भी... दूध आने में देरी होगी।

    मैंने छोटे दादा से पूछा—बिना दूध की चाय पी लेंगे आप? वैसे होती शानदार है। भाभी से मैंने चूल्हा जलाने को कहा और ख़ुद चाय बनाने बैठ गया।

    बड़े दादा गए। भाभी को आटा गूंधते देख कर बरस पड़े—अभी तक तुमने कुछ बनाया नहीं है? हम क्या दस बजे तक यहीं बैठे रहेंगे? मैंने उन्हें भी थोड़ी-सी चाय दी। भाभी पराठे सेंकने लगीं। बड़े दादा से बोलीं—ले जाने के लिए भी चार-छह पराठे सेक हूँ? अचार के साथ खा लेना...माँजी बाहर का खाना खाएँगी भी नहीं।

    मैं हाथ मुँह धोकर तैयार हो गया। हम लोगों ने नाश्ता किया। माँ ने सिर्फ़ आधा पराठा खाया। उनका चेहरा उतरा हुआ था। मैंने सोचा, शायद उन्हें अपने पति की याद रही होगी। उनकी छोड़ी हुई ज़मीन का आख़िरी टुकड़ा भी तो बिका जा रहा है। माँ ने पानी पिया और माला लेकर बैठ गयीं।

    भाभी ने पराठे एक पुराने अख़बार में लपेट कर झोले में रख दिए। एक ख़ाली लोटा भी साथ में रख दिया, पानी-वानी पीने के लिए। माँ ने कहकर उससे अपनी शाल भी रखवा ली। झोला हाथ में लेते हुए बड़े दादा ने भाभी से पूछा—हम पाँच जनों के लायक़ खाना रख दिया है न?

    —पाँच कौन, हम चार ही तो हैं? मैंने पूछा।

    —वह वकील का कारिंदा भी साथ चल रहा है न...उसी ने तो काग़ज़ात तैयार किए हैं...ज़मीन के रुपए भी तो वही साथ लाएगा।

    माँ की तरफ़ देख कर बड़े दादा ने कहा— माँ चलें?

    मैंने माँ की तरफ़ नहीं देखा। छोटे दादा और मैं बाहर गए। माँ बड़े दादा के साथ चलने लगीं। बाहर आकर बोलीं—बेकार में जायदाद में मेरा हिस्सा भी लिखा गए हैं...वरना मेरे ये बार-बार के चक्कर नहीं होते...गाँव में फ़जीहत अलग से...मैंने ही कौन-सी जायदाद बचा ली है?

    किसी ने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया। चुपचाप चलने लगे। तीन साल पहले, सर्दियों में माँ के दाहिने हाथ और पैर पर लकवे का जो हमला हुआ था, उसका असर अब तक था। वह दाहिने हाथ से पानी का भरा लोटा भी ढंग से उठा नहीं पाती थीं। और चलते हुए दाहिने पैर को घसीट कर चलती थीं। इनके इलाज के लिए दादा ने जो पैसा उधार लिया था, उसका भी एक हिस्सा था ज़मीन की बिक्री में। पता नहीं छोटे दादा क्या सोच रहे थे लेकिन उनके साथ चलते हुए मेरे दिमाग़ में यही सारी बातें कुलबुला रही थीं।

    हम लोग बस के समय से पहले ही अड्डे पर पहुँच गए। लेकिन वह वकील का कारिंदा अब तक नहीं पहुँचा था। बड़े दादा व्यग्र होकर उसकी राह देखने लगे। छोटे दादा को भी बेचैनी होने लगी। माँ भी माला फेरने के दौरान बीच-बीच में उसके आने की वजह पूछने लगी। मैं थोड़े से घेरे में चहलकदमी करने लगा। हम लोग उसकी राह देख ही रहे थे कि बस आई और निकल गई। बड़े दादा की बेचैनी बढ़ गई। वह बार-बार बीड़ी सुलगाने और बड़बड़ाने लगे-पता नहीं क्या बात हो गई। सुबह भी मैं उससे मिला था, उसने ऐसी कोई बात नहीं कही थी...तो अब आया क्यों नहीं? साले इब्बू ने तो कोई अडंगा नहीं अड़ा दिया होगा।

    छोटे दादा दो-चार बार जिज्ञासा दिखा कर गुमसुम हो गए। मैं माँ के पास बैठ गया। बड़े दादा पास में पड़ी हुई बड़ी-सी चट्टान पर उकडूं बैठकर बेचैनी से थूकने लगे। छोटे दादा ने उसे दूर से आते हुए देख लिया। उत्साह में उछल कर बोले—दादा, वह रहा है। यह बात सुनते ही उन्होंने उँगलियों में फंसी हुई बीड़ी परे फैंक दी, तेज़ी से उठ कर खड़े हो गए। वह अपनी बड़ी-सी बेढब तोंद को झुलाता हुआ हाथी के बच्चे की तरह चला रहा था।

    उसके पास आते ही दादा लपक पड़े—क्या बात हो गई थी चाचा? बड़ी आँखे दुखाई तुमने। तेज़ चलने की वजह से वह शायद थक गया था। उसी चट्टान पर बैठ कर हाँफने लगा। बीच-बीच में दाँत ऐसे चलाने लगा जैसे जुगाली कर रहा हो। मैंने देखा उसकी क़मीज़ की जेब बेहूदगी की हद तक बड़ी है और उसमें तरह-तरह के काग़ज़ ठुँसे हुए हैं। उसने जेब में तीन-चार रंग-बिरंगे पेन लगा रखे हैं। हाथ में एक झोला है जो शायद काग़ज़ों से ही भरा हुआ है। उसने साँस धीमी की और बोला—क्या करता, इब्बू ने रुपए देने में देरी कर दी। सुबह सात बजे ही मैं उसके घर पहुँच गया था। लेकिन पैसे वालों के नखरे तुम जानते ही हो। इसी में देरी हो गई। चलो कोई बात नहीं, अगली बस से चलेंगे। बड़े दादा ने एक बीड़ी और सुलगा ली।

    रजिस्ट्रार के दफ़्तर पर जब हम पहुँचे तो दोपहर के खाने का समय हो गया था। साहब खाना खाने घर चले गए थे। दोनों क्लर्क दफ़्तर में ही बैठे खाना खा रहे थे और सामने बैठी हुई टाइपिस्ट लड़की को देखे जा रहे थे। चपरासी स्टूल पर बैठा बीड़ी पी रहा था। हम लोग वहाँ पहुँचे तो वह उठ कर खड़ा हो गया और हमारे साथ वाले आदमी को बड़े जोश से नमस्ते की। उसने हमारी तरफ़ भी मुस्कुराती निगाहों से देखा। शायद उसे हमारी शिनाख़्त हो गई थी। पिछले दस सालों में यह पाँचवी या छठी बार हम लोग वहाँ गए थे। इसी तरह तीन भाई और माँ। हाँ, पहले एकाध बार हमारी चाची भी साथ थीं जो हमारी ही तरह बिकी हुई ज़मीनों की हक़दार थीं। लेकिन वह बार-बार यह ज़हमत उठाने से बच गईं और चल बसी थीं। इन्हीं सारी बातों के साथ ही यह सवाल भी मेरे दिमाग़ में चक्कर काटने लगा कि सरकार को यह क्या सूझी कि इतने मामूली से क़स्बे में रजिस्ट्रार आफ़िस खोल रखा है। क्या और कोई जगह नहीं मिली होगी? सब कुछ हास्यास्पद था। मैं सोचता रह गया।

    बस से उतर कर यहाँ तक पैदल चलने की वजह से माँ थक गई थीं। उन्हें प्यास लग आई थी और शायद भूख भी। मैंने माँ से पूछा—माँ, खाना खाओगी?

    यह बात सुन कर हमारे साथ के कारिंदे ने अपनी फैली हुई जेब में से काग़ज़ों का पुलिंदा निकाला और उसके बीच में तह करके रखे हुए नोटों में से एक दस रुपए का पत्ता बड़े दादा की तरफ़ बढ़ाते हुए बोला—तुम लोग जा कर पास के ढाबे में खाना खा लो...अब हमारा काम तो ढाई बजे ही होगा...मैं साहब के घर जा कर कह दूँगा कि हमारा काम ज़रा जल्दी कर दें...आफ़िस में कहना ठीक नहीं रहेगा...उसने मेरी तरफ़ देख कर मुस्करा दिया जैसे यह कहना चाहता हो कि हथेली की गर्मी को तुम्हारे शहरों के दफ़्तर वाले ही नहीं, हमारे गाँवों और क़स्बों के दफ़्तर वाले भी जानते-पहचानते हैं।

    बड़े दादा ने नोट नहीं लिया। बोले—हम खाना ले आए हैं। छोटे दादा को शायद उसका नोट देना अच्छा नहीं लगा। वह आवाज़ में कुछ तुर्शी भरते हुए बोले, हमारी तरफ़ से तुम ही रख लो चाचा...तुम्हें भी तो खाना खाना है...शायद उसकी समझ में बात नहीं आई। वह हीं-हीं करके हँसने लगा। जब वह साहब से मिलने के लिए उसी तरह झूलता चला गया, छोटे दादा हिकारत से बोले—हरामज़ादा, खाना खाने के लिए हमें पैसे देने लगा है...लोगों के काग़ज़-पत्तर लिख कर चार पैसे क्या कमा लिए हैं, साले का दिमाग़ फिर गया है...वो दिन भूल गया जब इसकी माँ हमारे घर पर अनाज बीना करती थी, दो जून रोटी के लिए...स्साला...मेरी समझ में नहीं रहा था कि अचानक वह इस तरह ग़ुस्सा क्यों हो रहे हैं, अपनी फ़ितरत के ख़िलाफ़। मैं सोचने लगा, पिता की सारी ज़मीन के बिक जाने का उन्हें जो दर्द हो रहा है, उसे वह झेल नहीं पा रहे हैं। प्यास की वजह से माँ का गला सूख गया था। वह धीरे से खाँसने लगीं। बड़े दादा बोले—चलो, सामने के बग़ीचे में चल कर खाना खा लेते हैं...इब्बू साले की वजह से इतनी देरी हो गई...वरना अब तक काम पूरा हो गया होता, दो बजे वाली बस से लौट भी जाते। माँ को चलने में तकलीफ़ हो रही थी। वह आज अपनी शक्ति से बढ़कर चल चुकी थीं। छोटे दादा ने उनकी बाँह पकड़ ली और धीरे-धीरे चलने लगे। हम लोग सड़क पार करके बग़ीचे के पास गए। बड़े दादा वहीं खड़े माली को ऊंची आवाज़ में पुकारने लगे। आठ-दस आवाज़ों के बाद माली ने जवाब दिया।

    —क्या हम कुँए पर बैठ कर खाना खा लें?

    —आ जाइए, इसमें पूछने की क्या बात है?

    माली को आज़ाद हिंदुस्तान की हवा अभी नहीं लगी है। मैं धीरे-धीरे चलते हुए सोचने लगा।

    —तुम्हारे यहाँ का कुत्ता बड़ा ख़तरनाक है। भई...बड़े दादा को कुत्तों से नफ़रत थी और डर भी।

    —डरिए नहीं, वह कुछ नहीं करेगा...मैं जो आप से बात कर रहा हूँ।

    माली ने ही कुएँ से एक बाल्टी पानी निकाल कर दिया। हम लोगों ने हाथ मुँह धोए। माँ ने खाने से पहले ही लोटा भर पानी पी लिया। हमने खाना खाया। अब भी माँ ने आधे पराठे से ज़्यादा नहीं खाया। वह ख़ाली पानी पीती रहीं। बड़े दादा ने कुल्ला किया। सरक कर पेड़ के तने से सट कर बैठ गए। बीड़ी सुलगा ली? मैंने झोले में से शाल निकाल कर ज़मीन पर बिछा दी। माँ को थोड़ी देर आराम करने के लिए कहा। बड़े दादा बीड़ी पीते हुए पेड़ के पत्तों की तरफ़ देख रहे थे। बोले—छोटू, अब तुम्हें अपनी आदतें सुधारनी होंगी...देख रहे हो न, बित्ता भर ज़मीन भी अब हमारी नहीं रही है। मैंने उनके चेहरे की तरफ़ देखा। लगा जैसे हवाइयाँ उड़ रही हैं। मैंने गर्दन झुका ली। उन्हें किसी तरह का जवाब देने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। उन्होंने बीड़ी फेंक दी। कुछ रूखें स्वर में बोले—समझ रहे हो, मैं क्या कह रहा हूँ?

    —जी...

    —जी-जी से काम नहीं चलेगा, हमें अपने पिताजी की ज़मीन वापस ख़रीदनी है...यह तुम दोनों से ही हो सकता है।

    —आप अपने यहाँ के इब्बू हरामज़ादे का कलेजा फाड़ दीजिए...मैं अपनी फ़ैक्टरी के मालिक की बोटियाँ नोच लूँगा... और ये...ये अपनी सरकार की गर्दन काट देंगे...तभी हम अपने पिताजी की ज़मीन वापस कमा सकते हैं...ख़तम कर सकेंगे इब्बू को आप?

    मैं उठकर खड़ा हो गया। मेरा जिस्म हलका-सा झूल रहा था। शायद ग़ुस्से के अतिरेक की वजह से। मैं जा कर थोड़ी देर कुएँ पर खड़ा रहा, फिर लौट आया। बड़े दादा उसी तरह चुपचाप बैठे हुए थे। माँ शायद मेरी कड़कती आवाज़ सुन कर घबरा गई थीं। वह उठकर बैठ गईं। काफ़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला। बड़े दादा के लटकाए हुए चहेरे को देख कर छोटे दादा को रहम हो आया था। वह धीमी आवाज़ में बोले—दादा, छोटू ठीक ही कह रहे हैं...इन हालातों में कोई भी अपनी खोई हुई ज़मीन दुबारा ख़रीद नहीं सकता...आप ही सोच कर देखिए, हम लोग भला ज़मीन कैसे ख़रीद सकते हैं?

    बड़े दादा कुछ नहीं बोले। जैसे गहरी सोच में डूब गए हों, छोटे दादा ने माँ को बाँह पकड़ कर उठाया। बड़े दादा की तरफ़ तरस खाती नज़रों से देखा। बोले—चलिए, काफ़ी देर हो गई है...दफ़्तर में काम शुरू हो गया होगा।

    हम लोग दफ़्तर में दाख़िल हुए। पता चला, साहब अभी नहीं आए हैं। खाना खा कर घर पर आराम कर रहे हैं। उनका कमरा अब भी बंद था। सामने के कमरे में दोनों बाबू बैठे हुए थे। एक के आगे बड़ा-सा रजिस्टर फैला हुआ था जिस पर वह कुछ लिख रहा था, दवात में कलम डुबो-डुबो कर। दूसरा बाबू पान चबाते हुए कोई काग़ज़ बहुत ध्यान से पढ़ रहा था। बाईं तरफ़ की खिड़की के पास बैठी टाइपिस्ट बहुत मामूली-सी रफ़्तार के साथ कुछ टाइप कर रही थी। टाइप में शायद उसका मन नहीं लग रहा था। वह बीच-बीच में खिड़की के बाहर झाँक रही थी। उस खिड़की के साथ ही बरामदे में बने हुए लंबे-से चबूतरे पर हमारे साथ वाला कारिंदा लेटा सुबह की तरह जुगाली कर रहा था। चपरासी उसके पैरों के पास बैठा उससे बातें कर रहा था। उस चबूतरे के रू-ब-रू, बरामदे के दूसरी तरफ़ बने हुए वैसे ही लंबे चबूतरे पर कोई पाँच-छह लोग चुपचाप बैठे हुए थे। ठेठ गाँव के लोग। शायद वे भी अपनी ज़मीन-जायदाद की बिक्री के सिलसिले में आए हुए थे।

    हमें देखते ही कारिंदा उठ कर बैठ गया। चपरासी परे हठकर खड़ा हो गया। शायद उस पर मेरी और छोटे दादा की पतलूनों का रोब पड़ रहा था। कारिंदे ने पूछा-खाना खा लिया?

    छोटे दादा ने माँ को एक तरफ़ बिठा दिया। माँ ने माला फेरनी शुरू कर दी। उन्होंने किसी तरफ़ कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया। बड़े दादा ने कारिंदे से साहब के बारे में पूछा। उसने जुगाली बंद की। बोला—सब ठीक हो गया है। साहब अभी आने वाले हैं, पहले हमारा ही काम होगा। बड़े दादा उसकी बग़ल में बैठ गए। उनकी बग़ल में छोटे दादा। मैं खिड़की के पास खड़ा हो गया। सामने के चबूतरे, पर बैठे हुए लोग उसी तरह गुमसुम थे।

    साहब जब आए तो धूप काफ़ी फीकी पड़ गई थी। साढ़े तीन के क़रीब का समय था। उन्हें दूर से आते देख कर चपरासी ने भाग कर उनके कमरे के किवाड़ खोल दिए। दोनों चबूतरों के लोग उठ कर खड़े हो गए। सिर्फ़ माँ बैठ रहीं, उसी तरह माला फेरती हुई। हमारे साथ वाले कारिंदे ने एक बार फिर कस कर साहब को सलाम किया। उन्होंने उस पर नज़र डाली तो उन्होंने होंठों पर खिली हुई मुस्कुराहट को चुस्ती के साथ भीतर लपेट लिया, अपने कमरे में चले गए। घंटी बजाई। भाग कर चपरासी उनके कमरे में गया। पल भर के बाद लौट आया। धीमी आवाज़ में हमारे साथ वाले कारिंदे से कुछ कहा। लौट कर बाबुओं वाले कमरे में चला गया।

    कारिंदे ने अपने झोले में से काग़ज़ निकाले। जल्दी में उन्हें एक बार उलटा-पुलटा। तेज़ क़दमों से जा कर पान चबाने वाले बाबू के आगे काग़ज़ रख दिए। समाने वाले चबूतरे पर बैठे हुए लोगों में भी अब चहल-पहल गई थीं। उनमें से एक आदमी अपने झोले में से कुछ काग़ज़ निकाल कर देख रहा था। मैं जिधर खड़ा था, उधर से साहब के चेहरे की झलक मिल रही थी। मैंने देखा, मुझे उनका धड़ और मोटा-सा सिर ही नज़र रहा था। बहुत ग़ौर करने पर भी उनकी गर्दन का कहीं नामो-निशान नहीं था।

    काफ़ी देर बाद चपरासी ने आकर हम लोंगों को अंदर चलने के लिए कहा।

    हम लोग बाबुओं वाले कमरे में पहुँचे, चपरासी ने एक छोटी-सी मेज़ पर बड़ा-सा खुला रजिस्टर लाकर रखा। उस पर ख़ाने बने हुए थे। पहले दो-तीन ख़ानों में कुछ लिखा हुआ था। आख़िरी ख़ानों में हम लोगों को दस्तख़त करने थे। पहले ख़ाने में माँ को, उसके नीचे वाले में बड़े दादा को, तीसरे में छोटे दादा को और चौथे में मुझे। इसी क्रम से हमारे नाम दर्ज थे। माँ दस्तख़त करना नहीं जानती थीं। बड़े दादा ने चपरासी को बताया। बग़ल की मेज पर से बड़ा-सा रोशनाई का पैड उठा लाया। माँ के दाहिने हाथ का अँगूठा अपने हाथ में ले कर उसने पैड पर रगड़ कर काला किया। माँ को अपना अँगूठा एकदम ढीला छोड़ देने की हिदायत की और सबसे ऊपर वाले ख़ाने में अँगूठे का बड़ा-सा निशान लगा दिया निशान लगाते हुए माँ का अँगूठा काँप रहा था। चपरासी ने रजिस्टर का पन्ना पलटा। उस पन्ने पर भी सबसे ऊपर वाले खाने में माँ के अँगूठे का निशान लगाया और इसी तरह तीसरे पन्ने पर भी। उसके बाद उसने बग़ल में पड़े हुआ खुरदरा काला कपड़ा उठा कर माँ को दिया, अपना अँगूठा पोंछ लेने के लिए। मैंने वह कपड़ा अपने हाथ में ले कर माँ का अँगूठा अच्छी तरह पोंछा और उन्हें बाहर चबूतरे पर ला कर बिठा दिया।

    मैंने देखा, माँ का चेहरा कसा हुआ है और उनके हाथ ज़ाहिर तौर पर काँप रहे हैं। वह अपने पल्लू से आँखें पोंछने लगीं।

    हम तीनों भाइयों ने तीनों पन्नों पर अपने दस्तख़त कर दिए। हमें भी दस्तख़तों के नीचे अपने अँगूठों के निशान भी लगाने थे। सरकार की एहतियाती सूझ पर मुझे ख़ुशी हो आई। कहीं तो वह सजग है। यह सब कर-करा कर हम लोग भी बाहर चबूतरे के पास गए। बड़े दादा का चेहरा भी ख़ासा कसा हुआ था। उनके गालों के गड्ढे कुछ और धंसे हुए लग रहे थे। वह चुपचाप बैठे रहे। छोटे दादा माँ के पास जाकर बैठ गए। हमारे साथ वाला कारिंदा बाबुओं के कमरे में ही खड़े कुछ बातें कर रहा था। हमारे सामने वाले चबूतरे पर बैठे हुए लोगों को भी यही सब करना था। उनमें से दो आदमी उठ कर चपरासी के कहने पर अंदर गए।

    कोई पंद्रह-बीस मिनट बाद हमें साहब के कमरे में जाने के लिए कहा गया। हम लोग जाकर सहाब की बड़ी-सी मेज़ के इर्द-गिर्द खड़े हो गए। माँ के और बड़े दादा के चेहरों पर अब तक भी सहजता नहीं पाई थी। साहब के आगे वही रजिस्टर फैला हुआ था जिस पर हम लोगों ने दस्तख़त करके अँगूठे के निशान लगाए थे। साहब थोड़ी देर कुछ पढ़ते रहे, फिर गंभीर आवाज़ में बोले—सुभ्रदा देवी आप ही हैं?

    —जी। माँ की आवाज़ लड़खड़ाई।

    —रामगोपाल?

    —जी, मैं। बड़े दादा बोले।

    —हरिशरण?

    —जी, मैं। छोटे दादा ने कहा।

    —राधेश्याम?

    —मैं हूँ। मेरे अंदर का शहर कुलबुलाने लग गया था।

    —क्या आप लोगों ने ज़मीन अपनी मर्ज़ी से बेची है?

    —जी। बड़े दादा ने उत्तर दिया।

    —कितने में?

    —चार हज़ार नौ सौ पचास में।

    —आप लोगों को रुपए मिल गए?

    —जी, मिल गए।

    —अब आप लोग जा सकते हैं। साहब कुर्सी की पीठ पर पसर गए।

    हम लोग बाहर गए। हमारे साथ वाला कारिंदा चबूतरे पर बैठा काग़ज़ के टुकड़े पर कुछ लिख रहा था। बड़े दादा उसकी बग़ल में बैठ गए। मैंने छोटे दादा से पूछा—अब हम लोग जा सकते हैं न? उन्होंने मेरी तरफ़ ध्यान से देखा। अँग्रेज़ी में बोले कि वह भी सब कुछ से काफ़ी ऊब गए हैं...मैंने जैसे ख़ुद को सांत्वना देते हुए कहा—चलिए, यह आख़िरी ऊब है...वह हँस पड़े। ख़ासी फीकी-सी हँसी। गोया मुझ पर तरस खा रहे हो कि बच्चू, इस ऊब को तो आख़िरी कह रहे हो, बाक़ी रोज़मर्रे की ऊबों का क्या करोगे? मैं खिड़की में से टाइपिस्ट लड़की को देखने लगा।

    यह कारिंदा काग़ज़ का टुकड़ा बड़े दादा के आगे करके उन्हें समझाने लगा—इब्बू से लिया हुआ पैसा, एक हज़ार छह सौ। दो साल का ब्याज़, आठ रूपए सैकड़ा। हर महीने की दर से तीन हज़ार बहत्तर। मेरी फ़ीस, पचास रुपए। साहब को दिए हुए साठ रुपए, दफ़्तर वालों को, आठ रुपए। कुल चार हजार आठ सौ दस रुपए। बक़ाया एक सौ चालीस तुम्हें मिलने हैं। उसने अपनी फैली हुई जेब में से टटोल कर नोटों की गड्डी निकाली और दस-दस के चौदह नोट गिन कर बड़े दादा के हाथ में पकड़ा दिए। मैंने देखा, रुपए लेते हुए बड़े दादा के चेहरे पर काली-सी झांई थरथरा उठी है। इस बीच वह कारिंदा फिर जुगाली करने लग गया था। बड़े दादा ने रुपए जेब में रख लिए। कारिंदे ने कहा—तुम लोग जाओ...छह बजे आख़िरी बस है, उससे चले जाना। मुझे थोड़ा काम है। मैं कल शाम तक घर पहुँचूँगा।

    हम लोग धीरे-धीरे चलकर बस अड्डे पर गए। रास्ते भर कोई किसी से कुछ नहीं बोला। माँ ने सिर्फ़ इतना कहा—मेरी आँखों के सामने ही तुम्हारे पिताजी भी चले गए...उनकी ज़मीन भी चली गई। उनका गला भर आया था। इस पर भी किसी ने कुछ नहीं कहा।

    बस स्टैंड पर बैठे-बैठे सात बज गए। छह बजे वाली बस नहीं आई थी। माँ ने इस बीच दो बार पानी पिया। माला फेरती हुई बैठी रहीं। बारी-बारी से मैं और छोटे दादा इधर-उधर जाकर बस के बारे में दर्याफ़्त कर आए। और लोग भी हमारी तरह थे। किसी ने बताया, बस कहीं रास्ते में ख़राब हो गई होगी। भी आए तो कोई बड़ी बात नहीं।

    बड़े दादा की परेशानी बढ़ गई। माँ को आराम की ज़रूरत थी। बस नहीं आएगी तो रात को साढ़े ग्यारह बजे मेल मिलेगा। मौसम ख़राब है। रात में हल्की-सी ठंड पड़ने लगती है। माँ को परेशानी होगी। क्या किया जाए? वह बड़बड़ाने लगे।

    साढ़े आठ बज गए थे। क़स्बे का मामूली-सा अस्तित्व जैसे रात भर के लिए अंधरे में खोता जा रहा था। अड्डे नी इक्के-दुक्के लोग ही रह गए थे। मैंने सुझाया, स्टेशन चलेंगे। माँ निढाल हो रही थीं। स्टेशन क़स्बे के बाहर था। लगभग सुनसान इलाक़े में। हम लोगों ने ताँगा कर लिया। ताँगे में बैठने से पहले बड़े दादा ने अपने लिए बीड़ी का बंडल और माचिस ली। एक दर्जन केले ख़रीद कर झोले में रख लिए। स्टेशन पर कुछ भी तो नहीं मिलता है...माँ ने दोपहर को कुछ नहीं खाया है...वह बोले।

    स्टेशन बहुत छोटा-सा था और उजाड़ था। टिकट घर और स्टेशन मास्टर के कमरों में मद्धिम-सी रौशनी थी और कहीं रौशनी का नाम नहीं था। प्लेटफ़ार्म उन दोनों कमरों जितना ही फैला हुआ था जिस पर टीन की छत थी। प्लेटफ़ार्म के इधर-उधर काफ़ी जगह थी, मगर खुली हुई। वहाँ भी रौशनी नहीं थी। प्लेटफ़ार्म पर अनाज के या किसी चीज़ के भरे बोरे पड़े हुए थे, बेतरतीब। छत के नीचे की सारी जगह उन्हीं से घिरी हुई थी। शायद एक कोने में किसी और चीज़ के बोरे पड़े हुए थे जिनसे एक तरह की तीख़ी बदबू रही थी। मैंने सोचा, शायद कच्चे चमड़े के बोरे होंगे। उस बदबू में वहाँ बैठना संभव नहीं था, ख़ासकर माँ के लिए इसलिए, एक तरफ़ खुले में बैठने के सिवा कोई चारा नहीं था। माँ की बाँह पकड़ कर उन्हें रास्ता दिखाते हुए छोटे दादा चलने लगे। बड़े दादा ने दस रुपए का नोट निकाल कर मुझे दिया, टिकट ख़रीदने के लिए। टिकटघर में बाबू सो रहा था। मैंने स्टेशन मास्टर से जाकर पूछा। उसने बताया, ग्यारह बजे टिकट मिलेगी। मैंने पूछा—यहाँ कोई वेटिंग-रूम नहीं है? उसने गर्दन उठाकर मेरी तरफ़ देखा। मेरी पतलून पर नज़र डाली। गर्दन झुका ली। मुझे उसका रुख़ अच्छा नहीं लगा। मैंने अँग्रेज़ी में कहा—यात्रियों को असुविधा होती है। उसने दुबारा मेरी तरफ़ देखा। अँग्रेज़ी में ही बोला—चुनाव लड़कर मंत्री बन जाइए, फिर इस पर सोचिए उसने ठहाका लगा दिया।

    माँ शाल ओढ़ कर दुबकी बैठी थीं। मैंने कहा—अभी गाड़ी आने में काफ़ी देर है, माँ के सोने का इंतिज़ाम होना चाहिए।

    बड़े दादा बोले—सो कैसे सकती हैं, बिछाने के लिए कुछ भी तो नहीं है।

    माँ बोलीं—मैं ठीक हूँ, तुम लोग फिकर मत करो। हम लोग भी माँ के साथ ज़मीन पर बैठ गए।

    हम लोगों से थोड़ा-सा हटकर कुछ लोगों की आवाज़ें रही थीं हँसने की, बातें करने की। मैंने ध्यान से देखा। अंधेरे में किसी का चेहरा नज़र नहीं रहा था। मैं उठ कर उन लोगों के पास गया। कोई छह-सात लोग एक-दसूरे की बग़ल में लेटे बातें कर रहे थे। मेरी आहट पाकर वे चुप हो गए। मैंने झुक कर उनकी तरफ़ देखने की कोशिश की। फिर भी किसी का चेहरा साफ़ नज़र नहीं रहा थ। मैंने पूछा—क्या आप लोग भी गाड़ी के लिए बैठे हैं?

    एक ने कहा—नहीं, हम तो यहीं के हैं। रेलवे लाइन का काम चल रहा है न, दिन में काम करते हैं, रात को यहीं सोए रहते हैं।

    मैं उन लोगों के पास उकडूँ बैठ गया। पूछा—मेल कितने बजे आएगा?

    —बारह बजे तक जाएगा।

    —बारह तक?

    —आपको कहाँ जाना है? उनमें से तीन-चार लोग उठ कर बैठ गए थे।

    —यही, चार-पाँच स्टेशन छोड़ कर, उधर।

    वे लोग चुप हो गए। मैं बोला—मेरे साथ माँ और दो भाई भी हैं...बस से जाना था...बस नहीं मिली...माँ की तबीअत ठीक नहीं है... हमारे पास कपड़े भी नहीं है...

    मेरी बात सुन कर एक आदमी झट से उठ बैठा। अपने सिरहाने तह करके रखी हुई सुजनी मेरी तरफ़ बढ़ाई। बोला—यह लीजिए, किसी किसी तरह थोड़ा समय ही तो काटना है। मैं धन्यवाद देकर वहाँ से उठा। सुजनी दुहरी तह करके ज़मीन पर बिछाई थी। बड़े दादा ने केले निकाल कर माँ को दिए। उन्हें शायद भूख लग रही थी। केले खा लिए। शाल ओढ़ कर सुजनी पर लेट गईं।

    हम तीनों ने भी केले खाए। वे मज़दूर लोग उसी तरह बातें कर रहे थे। बीच-बीच में ठहाके लगा रहे थे। कहीं दूर पर कुत्तों के भूँकने की आवाज़ें रही थीं। आसमान पर इधर-उधर तारे टिमटिमा रहे थे। मौसम में कुछ खुनकी बढ़ गईं थी।

    बड़े दादा ने बीड़ी सुलगा ली। उन लोगों में से किसी ने बीड़ी सुलगा ली। मैंने आवाज़ कुछ ऊँची करके उन लोगों से पूछा—आप लोगों में से किसी को बीड़ी-वीड़ी तो नहीं चाहिए? मुझे लगा, बहुत बेहूदे ढंग से कृतज्ञता दिखा रहा हूँ। उनको बीड़ी चाहिए नहीं थी।

    बड़े दादा ने मुझसे पूछा—छोटू, कितने दिन की छुट्टी ले आए हो?

    —कल रात की गाड़ी से चले जाना है...

    —और तुम? उन्होंने छोटे दादा से पूछा।

    —मैं भी कल-परसों में चला जाऊँगा।

    —तुम लोगों को किराए के पैसे चाहिए न? वह बोले।

    —नहीं, मेरे पास हैं। मैं बोला। छोटे दादा ने कहा—उनको भी नहीं चाहिए।

    —इन एक सौ चालीस में से तुम लोग भी ले सकते हो।

    मैंने उस अंधेरे में ही उनका चेहरा देखने की कोशिश की। मुझे कुछ नज़र नहीं आया। उनकी आवाज़ के कंपन के सिवा।

    मैं बोला रुक-रुक कर—बड़दा, आप फिकर मत कीजिए...अच्छे दिन आएँगे...।

    वह कुछ नहीं बोले। बीड़ी का टोंटा फेंक दिया।

    कहीं किसी मुर्ग़े को ग़लतफ़हमी हो गई थी। वह बाँग देने लगा। सबेरा होने से पहले ही सवेरे की उतावली में।

    पास के लोगों में से किसी ने पूछा—बाबूजी, कै बजे हैं?

    मैंने माचिस जला कर घड़ी देखी। पौने दस, मैंने आवाज़ दी।

    उन लोगों को नींद नहीं रही थी। किसी बात पर खिलखिलाकर हँस पड़े। थोड़ी देर बाद चुप्पी छा गई। आस-पास की झाड़ियों में झींगुर बोल रहे थे। उन लोगों में से किसी ने कहा—अबे अब शुरू तो कर...साला हर रात सताता है... इसके साथ ही तीन-चार लोगों की आवाज़ें एक साथ आईं—हाँ यार, अब शुरू कर। उनमें से किसी ने हमारी तरफ़ आवाज़ फेंकी—बाबूजी, आप लोग तो पढ़े-लिखे हैं...कोई कहानी-वहानी सुनाइए...गाड़ी के आने तक वक़्त कट जाएगा...

    मैंने जवाब दिया—हममें कोई कहानी-वहानी नहीं जातना।

    —ऐ दुर्गा, तू सुना...सुनोगे बाबूजी? उनमें से एक बोला।

    —ज़रूर।

    थोड़ी देर ख़ामोशी बनी रही। आसमान साफ़ हो गया था। तारों की संख़या बढ़ गर्इ थी। शायद दुर्गा बोल उठा—तो सुनिए बाबूजी...यह कहानी मैंने बचपन में अपने दादा से सुनी थी...उनको उनके नाना ने सुनाई थी।

    किसी ने आवाज़ कसी—अबे नाना के बच्चे, कहानी तो सुना...

    दुर्गा ने गला साफ़ किया। आवाज़ बुलंद की। कहने लगा—एक गाँव में एक आदमी रहता था...बहुत ग़रीब...

    उन लोगों में से किसी ने फब्ती कसी—तेरे से भी? एक ज़बरदस्त ठहाका लगा। दुर्गा नाराज़ हो गया—साले, तू बीच में बोलेगा तो मैं कहानी ठेंगा सुनाऊँगा...

    —अबे चुप रह, बीच में बोलता क्यों है?

    दुर्गा ने कहानी शुरू की—हाँ, तो वह बहुत ग़रीब था। एक दिन वह काम-धाम की खोज में निकल पड़ा पैदल। बारह-तेरह बरस का रहा होगा। रास्ते में भूख लग आई। रात को भी कुछ नहीं खाया था। पर करते क्या? ऐसे ही चलते रहे। चलते-चलते दिन ढलने लगा। रास्ते में दोनों ने तीन-चार जगह पानी पिया। और इसी से संतोष कर लिया। फूटी कौड़ी तो पास में थी नहीं, जो कुछ ख़रीद कर खा लेते।

    बड़े दादा को शायद कहानी अच्छी लग रही थी।

    दुर्गा बोले जा रहा था—बाप-बेटा किसी गाँव के पास पहुँचे। गाँव के बाहर कोई मेला लगा हुआ था। नगाड़े-तुरही की आवाज़ें रही थीं। लड़के के कान खड़े हो गए। उसने अपने बाप से पूछा। आवाज़ बाप ने भी सुनी थी। बोला, कोई मेला होगा। मेले की बात सुनकर लड़का मचलने लगा। बाप का हाथ पकड़ कर बोला, बापू मेला देखते चलेंगे। उन्हें उसी तरफ़ जाना था। बाप मान गया। बाप-बेटा उधर ही चल पड़े। थोड़ी देर बाद मेले में पहुँच गए। बहुत भारी मेला लगा था। तरह-तरह की चीज़ें बिक रही थीं। तरह-तरह के खेल-तमाशे हो रहे थे। बाप ने लड़के को सारे मेले में घुमाया। बेचारा लड़का नदीदी आँखों से देखता रहा। शाम हो गई तो बाप ने लड़के का हाथ पकड़ लिया। बोला, चल, शाम हो रही है, जल्दी पहुँचना है। पर लड़के को मेले में मज़ा रहा था। वह अपने बाप का हाथ पकड़े हुए इधर-उधर देखता हुआ मलने लगा।

    —अब वहीं एक कोने में, एक पेड़ के तने से आठ-दस ऊँट बंधे हुए थे। लड़के की निगाह ऊँटों पर पड़ी। उसने इतने सारे ऊँट इकट्ठे कभी नहीं देखे थे। उसने बाप का हाथ पकड़ लिया। बोला, बापू उन ऊँटों को देखते चलेंगे। बाप लड़के को लेकर ऊँटों की ओर चला।

    दुर्गा को शायद तलब लग गई थी। उसने कहानी रोक कर बीड़ी सुलगा ली। दो-तीन सुट्टे मारे। बाक़ी टुकड़ा अपने साथी को पकड़ा दिया। फिर कहानी शुरू की—हाँ, तो वे दोनों ऊँटों के पास पहुँचे। ऊटों वाला ऊँट बेच रहा था। ऊँची आवाज़ में कह रहा था—ऊँट ले लो...ऊँट बीकानेरी ऊँट...गाड़ी खिंचवा लो..रहट चलवा लो...ज़मीन जुतवा लो... सवारी कर लो...ऊँट ले लो... दो-दो आने का...ऊँट ले लो...

    दुर्गा का कोई साथी ठठा कर हँस पड़ा—साले की हर कहानी ऐसी ही होती है...अबे, दो आने में कहीं ऊँट मिलता है?

    —अबे चुप...बीच में बकवास मत कर...वरना तेरी अक़्लमंदी पीछे-से निकाल देंगे। तीन-चार लोगों ने टोकने वाले को एक साथ डाँटा। वह चुप हो गया। छोटे को नींद रही थी। वह बैठे-बैठे इधर-उधर होने लगे। बड़े दादा ने एक बीड़ी सुलगा ली। मैंने आसमान की तरफ़ देखा।

    दुर्गा ने फिर कहना शुरू किया तो क्या बता रहा था मैं? हाँ...तो ऊँट वाला चिल्ला रहा था, दो-दो आने का एक ऊँट...दो-दो आने का ऊँट...लड़के ने ऊँट का दाम सुना तो उसके मुँह में पानी भर आया। ख़ुशी के मारे उसके पैर ज़मीन पर टिक नहीं रहे थे। सोचने लगा, हमारे पास ऊँट होता तो दिन भर हम पैदल क्यों चलते? आराम से उस पर बैठ कर चले जाते। उसने बाप का हाथ पकड़ कर खींचा और कहने लगा—बापू, एक ऊँट ले लो...हमारे बहुत काम आएगा। बाप ने लड़के को समझाया, बेटे पैसे नहीं हैं। लेकिन कहाँ मानने लगा। मचल गया, बापू एक ऊँट ख़रीद दो। अब बाप को ग़ुस्सा गया। उसने लड़के का हाथ पकड़ कर खींचते हुए झिड़क दिया—अबे चुपचाप चल, ऊँट कहाँ से ख़रीदेगा? कल से खाना नहीं खाया।

    चलते-चलते बाप-बेटा काफ़ी दूर चले गए। बाप आगे-आगे चल रहा था। लड़का पीछे-पीछे, लड़का बहुत थक गया था। बेचारे का चेहरा लटक आया था। उसकी आँखों के आगे ऊँट ही दिखाई पड़ रहे थे। एकाएक लड़के को अपने पैरों के पास कोई चीज़ दिखाई पड़ी। चमकदार चीज़। लड़के ने झुक कर उठा ली। क़मीज़ से उस पर की धूल साफ़ की। वह और ज़्यादा चमकने लगी। लड़के ने बाप को आवाज़ दी—बापू, यह देखो, कोई चीज़ मिली है। बाप ने पीछे मुड़ कर देखा। बाप ने उलट-पलट कर देखा। बोला—बेटे, यह तो हीरा है। लड़का समझा नहीं, बोला—वह क्या होता है, बापू? बापू ने बताया—हीरा क़ीमती चीज़ होता है बेटे। बाप को बहुत ख़ुशी हो रही थी। बेटे ने पूछा—यह कितने में बिकेगा बापू? बापू ने दुबारा उलट-पुलट कर देखा। सोच कर बोला—यह तो पाँच सौ का है बेटे। पाँच सौ। तो मुझे कई ऊँट दिला दो बापू। लड़का तरसने लगा। बाप को बेटे पर दया हो आई। बोला, चल तेरे लिए एक ऊँट ख़रीद देता हूँ। बाप-बेटा भागे-भागे मेले में लौट आए। मेला उठ रहा था। लोग बाग अपने-अपने घरों की तरफ़ चल रहे थे। लड़के ने उछलते हुए एक ऊँट चुन लिया। बोला, वह वाला ख़रीद दो बापू। बाप को भी वह ऊँट पसंद आया। उसने ऊँट वाले के हाथ में हीरा रख दिया। बोला-भैय्या, वह वाला ऊँट दे दो और बाक़ी पैसे भी। ऊँट वाले ने हीरे को ठोंक-पीट कर देखा, बोला-यह क्या है?—यह हीरा है, बाप ने कहा—इसमें ऊँट कैसे ख़रीदोगे? ऊँट वाले ने पूछा। अरे, यह तो पाँच सौ रुपए का हीरा है...तुम्हारा ऊँट तो दो आने का है। दे दो वह वाला ऊँट...जल्दी से...बाक़ी पैसे भी लौटाओ।

    —ऊँट वाले ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए उस ग़रीब आदमी के हाथ में हीरा वापस रख दिया। ग़ुस्से में बोला—क्या बक रहे हो...अभी दस मिनट पहले ही रामपुर के राजा ने एक हज़ार रुपए में मेरा एक ऊँट ख़रीदा है...मैं तो अब हज़ार रुपए का ही ऊँट बेचूँगा...

    —यह बात सुन कर बेचारे लड़के की साँस रुक गई। उसके बाप को भी बहुत दुख हुआ। उसे ग़ुस्सा भी आया। लेकिन करता क्या? वह अपने लड़के का हाथ पकड़े चुपचाप आगे बढ़ गया, हीरे को मुट्ठी में बाँधे। भूखे बाप-बेटे पैर घिसटते हुए चलने लगे।

    —बस, यही है कहानी। दुर्गा चुप हो गया।

    थोड़ी देर चारों तरफ़ मुर्दानी छाई रही। कुछ देर बाद उन लोगों में से किसी ने पूछा—यार दुर्गा, कहानी तो ठीक है... पर...तू यह बता, दो-दो आने में बिकने वाले ऊँट को उस राजा ने एक हज़ार रुपए में क्यों ख़रीदा था? क्या उस राजा को...यार उस राजा को इस बात का पता लग गया था कि वह गाँव का ग़रीब लड़का भी ऊँट ख़रीद लेगा?

    किसी और ने सवाल का समर्थन करते हुए पूछा—हाँ, दुर्गा, उस राजा ने ऐसा क्यों किया था?

    दुर्गा ने इस बीच बीड़ी सुलगा ली थी। बड़े दादा ने भी। कश खींचता हुआ दुर्गा बोला—मैं क्या जानूँ, यार...मुझे क्या पता, राजा ने दो आने का ऊँट एक हज़ार में क्यों लिया था?

    —मैं जानूँ...मैं जानता हूँ...बड़े दादा ने पूरी ताक़त के साथ बीड़ी ज़मीन पर दे मारी और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हुए उठ कर खड़े हो गए, जैसे बौखला गए हों। उनका जिस्म काँप रहा था।

    मैंने कस कर उनकी बाँह पकड़ ली। उन्हें जैसे समझाते हुए धीरे से बोला—बड़दा, आप धीरज रखिए...ये लोग...ये सब लोग भी आप ही की तरह जान जाएँगे...बड़े दादा अब भी काँप रहे थे। पता नहीं क्यों मेरी आँखें डबडबा आई थीं। अँधेरे में ही मैंने बाएँ हाथ से आँखें पोंछ लीं।

    पिछले स्टेशन से रेल के छूटने की घंटी बज उठी, अँधेरे को चीरती हुई-टन्...टन्...।

    छोटे दादा माँ को जगाने लग गए थे—माँ, उठो, गाड़ी रही है। कहीं दूर पर मुर्ग़ा बाँग देने लग गया था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिन्दी कहानियाँ (1970-1980) (पृष्ठ 28)
    • संपादक : स्वयं प्रकाश
    • रचनाकार : इब्राहिम शरीफ़
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस प्रा. लिमिटेड

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