क्वार की एक शाम को पान की एक दुकान पर दो युवक मिले। आकाश साफ़, नीला और ख़ुशनुमा था और हवा आने वाले मौसम की स्मृति में चंचल। एक युवक गोरे रंग का, लंबा, तगड़ा और बहुत सुंदर था, यद्यपि उसकी आँखें छोटी-छोटी थीं। वह सफ़ेद क़मीज़ और आधुनिक फ़ैशन की एक ऐसी तंग पैंट पहने था, जिसको फाड़कर उसके बड़े-बड़े और सुडोल चूतड़ बाहर निकलना चाहते थे। पैरों में जूते थे, किंतु मोज़े नहीं थे और बाल उलटे फिरे थे। दूसरा युवक साँवला, ठिगना और तंदुरुस्त था। उसकी दाढ़ी-मूँछ अपने साथी की तरह ही सफ़ाचट थी, पोशाक भी उसी ढंग की थी, किंतु सिर पर कश्मीरी टोपी थी, पैंट का रंग चाकलेटी न होकर भूरा था और क़मीज़ की दो बटनें खुली होने के कारण बनियान साफ़ दिखाई दे रही थी।
“हलो डियर!”
“हलो, सना” गोरा पास आकर खड़ा हो गया।
“इतना लेट क्यों, बेटे?”
“भई, बोर हो गए।”
“कोई ख़ास बात?”
“यही नेहरू है, यार! आज उसका एक और पत्र मिला है।”
“आई सी!” साँवले की आँखों और होंठों के कोरों में हास्य की हल्की सिकुड़नें पैदा होकर विलीन हो गईं।
“हाँ, डियर, यह आदमी मुझको परेशान कर रहा है। मैंने बार-बार कहा कि भाई मेरे, भारत की प्राइम मिनिस्ट्री किसी दूसरे व्यक्ति को दो, मेरे पास बड़े-बड़े काम हैं। लेकिन मानता ही नहीं।”
“क्या कहता है?”
“वही पुराना राग। इस बार लिखा है—अब मैं थक गया हूँ। गाँधी जी देश का जो भार मुझे सौंप गए, उसको मैं आपके मज़बूत कंधों पर रखना चाहता हूँ। इस अभागे देश में आज आपसे क़ाबिल और समझदार दूसरा कोर्इ भी नहीं है।”
दो लट्टू तेज़ी से नाचकर सहसा गिर गए हों, इस तरह वे कुछ क्षण हँसकर गंभीर हो गए।
“और भी तो नेता हैं। साँवले ने पूछा।
“नेहरू देश के और सभी नेताओं को निकम्मा और बातूनी समझता है। तुमको तो मालूम है न कि लास्ट टाइम जब में दिल्ली गया था तो नेहरू ने अशोक होटल में आकर मुझसे मुलाक़ात की थी?”
“नहीं! तुम हरामी की औलाद हो, कोई बात बताते भी तो नहीं!” साँवले की आँखें बटन की तरह चमकने लगीं।
नेहरू हाथ पकड़कर रोने लगा। बोला, “आज देश भारी संकट से गुज़र रहा है। सभी नेता और मंत्री बेईमान और संकीर्ण विचारों के हैं। जो ईमानदार हैं, उनके पास अपना दिमाग़ नहीं है। मेरी लीडरशिप भी कमज़ोर है। मेरे अफ़सर मुझको धोखा देते हैं। जनता की भलाई के लिए मैंने पाँच साला योजनाएँ शुरू कीं, लेकिन ब्लाकों के सरकारी कर्मचारी अपने घरों को भरने में लगे हैं। मैं जानता हूँ कि सारे देश में कुछ लोग लूट-खसोट मचाए हुए हैं, लेकिन में उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर सकता।
“अरे!”
“किसी से कहना मत, साले!...उसने अंत में कहा—देश को आज केवल आपका ही सहारा है। आप ही पूँजीपतियों, मंत्रियों और अफ़सरों के षड्यंत्र को ख़त्म करके समाजवाद क़ायम कर सकते हैं।”
“अब तुम क्या सोच रहे हो?”
ऐसे छोटे-मोटे काम माबदौलत नहीं करते।”
“प्यार, तुमको देश की ख़ातिर कुछ तो झुकना ही चाहिए!”
“नहीं, बे! मैं सिद्धांतों का आदमी हूँ। नेहरू को ट्रंक कॉल करके आ रहा है इसीलिए तो देर हुई।”
“अच्छा?”
“हो! मैंने साफ़-साफ़ कह दिया—भैया, देश की प्राइम मिनिस्ट्री मुझे मंज़ूर नहीं। मेरे सामने बहुत बड़े-बड़े सवाल हैं। सबसे पहले तो मुझे विश्वशांति क़ायम करनी है”
दोनों दाँत खोलकर हँसने लगे।
“तुम्हारा सोचना एक तरह से ठीक ही है। हाँ, मुझको भी एक मामूली-सी बात याद आ गई। कल मुझको भी अमेरिका के प्रेसीडेंट केनेडी का एक तार मिला था।”
“क्या लिखता है?” गोरे की आँखें सिकुड़ गईं।
“मुझको अमेरिका बुला रहा है। उसने लिखा है—आप-जैसा साहसी व्यक्ति आज संसार में कोई दूसरा नहीं। आप आ जाएँगे तो अमेरिका निश्चित रूप से रूस को युद्ध में हरा देगा।”
“तुमने कोई जवाब दिया?”
“मैंने भी कबूल कर दिया कि मैं राष्ट्रीय विचारों का युवक हूँ और इस घोर संकट के समय किसी भी हालत में अपने देश को छोड़कर किसी दूसरी जगह नहीं जा सकता।”
“अच्छा किया। वैसे वह शख़्स है बहुत सीधा-सादा। मेरी तो बड़ी इज़्ज़त करता है। मैंने ही उससे तुम्हारी सिफ़ारिश कर दी थी!”
इस पर वे एक ही साथ इस तरह सिर नीचा करके हँसने लगे, जैसे अपनी निकली छातियों को देखकर ख़ुश हो रहे हों। परंतु बग़ल में खड़े एक पटवारी सज्जन की खिलखिलाहट सुनकर फ़ौरन गंभीर हो गए। उनकी आँखें सिकुड़ गई, होंठों में दृढ़ता आ गई और गर्दन तन गई। इसके बाद गोरे ने अजीब शान से आगे बढ़कर पान वाले से कैप्स्टन का डिब्या ले लिया। फिर दोनों ने एक-एक सिगरेट सुलगाई और अंत में शंटिंग करने वाले रेल के इंजन की तरह लापरवाही से धुआँ छोड़ते हुए वहाँ से चलते बने।
एक चौड़ी और साफ़-सुथरी तारकोल की सड़क के दोनों ओर भव्य दुकानें थीं। अगल-बग़ल दोनों फ़ुटपाथों पर हर उम्र, पेशा और रंग-रूप के स्त्री-पुरुषों की उत्साही भीड़ें विपरीत दिशाओं को सरक रही थीं। वे बाईं पटरी से आगे बढ़ रहे थे। उनके कूल्हे ख़ूब मटक रहे थे। उनके हाथ कुछ फैलकर इस तरह आगे-पीछे हो रहे थे, जैसे वे खड़े होकर तैर रहे हों। वे अक्सर अपने दाएँ और बाएँ अत्याधिक नाराज़ी से घूरते थे। एक बार जब भड़कीले वस्त्रों से सज्जित कुछ छात्राओं का एक दल सुगंध उड़ाता हुआ बग़ल से गुज़रा तो उन्होंने होंठ सिकोड़कर चुंबन की आवाज़ें पैदा कीं। जब वे बाज़ार के दूसरे छोर पर पहुँच गए तो उन्होंने सरदार की दुकान के सामने खड़े होकर बादाम का शरबत पिया, बनारसी पान वाले के यहाँ जाकर चार-चार बीड़े मगही पान खाए और अंत में बाई पटरी से वापस लौटने लगे।
“उस लौंडिया को पहचान रहे हो?”
“नहीं,” साँवले ने पीछे घूमकर एक दुबली-पतली लड़की को जाते हुए देखा।
“तुम साले गदहे हो। जब प्रधानमंत्री बनूँगा तो तुपको सेक्रेटेरियट का भंगी बनाऊँगा! बेटे, यह है चंदा सिन्हा। एम.ए. इंगलिश टॉप करके अब रिसर्च कर रही है। वह मुझको अपना पति मान चुकी है।”
“या पुत्र?”
“मज़ाक़ नहीं, डियर। कई बार चरण पकड़कर रो चुकी है। लेकिन तुम तो जानते ही हो कि मैं बाल-ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ।”
“तुम्हारे बाप भी तो बाल-ब्रह्मचारी ही थे!”
दोनों के मुँह कानों तक फैल गए।
“यार, तुम हर बात को नॉनसीरियस बना देते हो! मैं देश की कोटि-कोटि जनता के कल्याण के लिए अपील करता हूँ कि तुम गंभीर बनो और अनुशासन में रहो!”
“अच्छा, फ़रमाइए, हुज़ूर शाहंशाह हरामी उल-मुल्क।”
“तो हे अर्जुन, सुनो! एक रोज़ प्रोफ़ेसर दीक्षित मेरे पास आकर गिड़गिड़ाने लगे।”
“इंगलिश डिपार्टमेंट के हेड?”
“हाँ बे, और कौन प्रोफ़ेसर दीक्षित हैं इस अखिल विश्व में?”
“ग़लती हुई, सरकार!”
“आते ही हाथ जोड़कर बोले, इस संसार में आप ही मेरी मदद कर सकते है। चंद्रा सिन्हा के बिना मैं एक क्षण भी ज़िंदा नहीं रह सकता। वह मामूली स्टूडेंट थी, लेकिन मैंने ही उसको टॉप कराया। मैंने उससे कई बार कहा है कि तुमको दो वर्ष में ही डाक्टरेट दिला दूँगा। मैंने हर दर्जे के लिए पाठ्य-पुस्तकें और कुंजियाँ लिखकर जो लाखों रुपए कमाए हैं, उनको चंद्रा के चरणों पर न्योछावर करने को तैयार हूँ। लेकिन यह तो मेरी ओर देखती भी नहीं। वह आपके ही नाम की माला जपती रहती है। आप समझा देंगे तो कहना मान जाएगी।”
“तुम तो, बेटा, फिर हरे होंगे। तुम्हारा एक पीरियड वह लेता जो है!”
“हुश! सारा देश जिसकी पूजा करता है यह उस पिद्दी से डरेगा? मैंने डॉटकर उससे पूछा—बच्चू, पाठ्य-पुस्तकों का रौब तो बहुत दिखाते हो, लेकिन क्या तुम इससे इंकार कर सकते हो कि तुम्हारी सभी पुस्तकें तुम्हारे शिष्यों की लिखी हुई हैं?”
“फिर क्या बोलिस?”
“बोलता क्या? थर-थर काँपने लगा। मेरे चरण पकड़कर प्रार्थना करने लगा कि मैं यह बात किसी से न कहूँ। मैंने कड़ककर उत्तर दिया—मैं जानता हूँ कि तुम बड़े-बड़े अफ़सरों और मंत्रियों की चापलूसी करते हो। तुमने अनगिनत लड़कियों की ज़िंदगी इसी तरह चौपट की है। चंदा सती-साध्वी नारी है, अगर आइंदा तुमने उसको बुरी नज़र से देखा तो मुझे बाध्य होकर देश की शिक्षा-पद्धति में आमूल परिवर्तन करना पड़ेगा!”
सहसा एक बुक-स्टाल ने उनका ध्यान आकर्षित किया, जिसके सामने एक जवान, गोरी और सुंदर महिला खड़ी थी। उसका जूड़ा सर्प की कंडली की तरह पीछे बँधा था और उसके पुष्ट शरीर पर गेरुए रंग की एक रेशमी साड़ी सयत्न लापरवाही के साथ लिपटी थी, जिससे वह कोई बौद्ध भिक्षुणी की तरह दिखाई दे रही थी। वह ‘ईब्स वीकली’ को ध्यानपूर्वक उलट-पुलटकर देख रही थी परंतु उसके मुख पर इस आशा का भाव था कि लोग उसको अत्यधिक आधुनिक और प्रबुद्ध समझें। वे भी मुँह से धीरे-धीरे सीटी की आवाज़ें निकालते हुए निकट आकर खड़े हो गए और कुछ पत्र-पत्रिकाओं को उलटने पुलटने लगे। उन्होंने बारी-बारी से ‘रेखा’, ‘गोरी’, ‘रीडर्स डाइजेस्ट’, ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’, ‘लाइफ़’, ‘मनोहर कहानियाँ’, ‘फ़िल्म फ़ेयर’,’'जासूस महल’ आदि पत्रिकाएँ देखीं। बीच-बीच में वे उस महिला को धूरते जाते थे और कोई बात कहके ज़ोर से हँस पड़ते थे।
“यार, लास्को भी अजीब आदमी था,” गोरे ने कहा।
“क्यों?”
“तुम तो जानते ही हो कि ‘ग्रामर ऑफ़ पॉलिटिक्स लिखने के पहले वह मुझसे मिलने आया था!”
“कुछ-कुष्ठ याद आ रहा है,” साँवला महिला की ओर तिरछी दृष्टि से देखकर ज़ोर से हँस पड़ा।”
“वह एक रात को चुपके से मेरे घर पहुँचा। गिड़गिड़ाकर बोला—जब तक आप मदद न करेंगे मेरी किताब लिखी नहीं जाएगी। मुझे दया आ गई कि आदमी शरीफ़ है और इसके लिए कुछ कर देना चाहिए। मैंने कहा—भाई, मेरे पास इतना समय तो नहीं कि तुम्हारे लिए पूरी पुस्तक लिख दूँ, रोज़ मैं रात को दो घंटे बोल दूँगा और तुम नोट कर लेना।”
“तैयार हुआ?”
“अरे, बड़ा ख़ुश हुआ! मैंने दस दिन में ही पूरी किताब डिक्टेट करा दी। वह कहने लगा कि पुस्तक के असली लेखक आप ही हैं और उस पर आपका ही नाम जाना चाहिए, लेकिन मैंने जवाब दिया कि मैं सत्य और अहिंसा के देश का रहने वाला हूँ और मेरी सेवाएँ सदा निःस्वार्थ होती हैं।”
उस महिला ने शान से गर्दन घुमाकर उनकी ओर घूरती नज़र से देखा। फिर वह ‘ईव्स वीकली’ ख़रीदकर उपेक्षापूर्ण भाव प्रकट करती हुई चली गई। दोनों ने ज़ोर का ठहाका लगाया। फिर साँवला शीघ्र ही गंभीर होकर गुनगुनाने लगा—मुझे पलकों की छाँव में रहने दो।
उन्होंने बाज़ार के दो और चक्कर लगाए। तब तक अँधेरा छा गया था। सभी दुकानें रंग-बिरंगी रौशनियों से जगमगाकर रहस्यमय स्वप्नलोक की तरह प्रतीत हो रही थीं। फिर उसी पान की दुकान पर आकर खड़े हो गए। इस बार साँवले ने सिगरेट ख़रीदी।
“डियर, हम काफ़ी विदेश भ्रमण कर चुके। अब हमको प्यारे स्वदेश की भी सुध लेनी चाहिए।” गोरा जमुहाई लेकर बोला।
“हाँ। मेरी भी पवित्र आत्मा स्वदेश के लिए छटपटा रही है।”
“लेट अस गो!”
कुछ दूर चलकर वे ‘दी प्रिंस' में घुस गए। काउंटर पर बड़ी-बड़ी मूँछों वाला एक अधेड़ व्यक्ति अत्यधिक तटस्थ और विनम्र भाव से बैठा था। उसने झुककर उनको सलाम किया। दाहिनी ओर चार केबिन बने हुए थे। पहले में चार व्यक्ति बैठे हुए थे और ज़ोर-ज़ोर से बातें करके ठहाके लगा रहे थे, जिनको देखते ही वे दोनों अत्यधिक गंभीर हो गए और उनके चेहरों पर उच्चता और उपेक्षा के भाव अंकित हो गए। अंतिम केबिन में जाकर बैठ गए।
“क्या लोगे” गोरे ने पूछा।
“देश का सामाजिक और नैतिक स्तर ऊँचा करना है, ब्रांडी ही चलने दो।”
“एक अद्धा और साथ में अभी...उबले हुए अंडे,” गोरे ने आर्डर दिया।
जब बैरे ने सामान लाकर मेज़ पर रख दिया तो गोरे ने दो गिलासों में बराबर-बराबर मात्रा में शराब डाली। साँवले ने चुपके से अपने गिलास की कुछ शराब गोरे के गिलास में उँडेल दी और अंत में झेंपकर हँसने लगा।
“साले! तुम कायर हो।” गोरा बिगड़ गया, “मैंने सोचा था कि प्राइम मिनिस्टर होने पर मैं तुमको भ्रष्टाचार-निवारण-समिति और जातिभेद-उन्मूलन-समिति का अध्यक्ष बना दूँगा। लेकिन जब तुम इतनी पी नहीं सकते तो अवसर आने पर घूस कैसे लोगे, जालसाज़ी कैसे करोगे, झूठ कैसे बोलोगे? फिर देश की सेवा क्या करोगे, ख़ाक?”
दोनों ज़ोर-ज़ोर से ठहाके लगाने लगे। फिर उन्होंने सिगरेट सुलगा ली। वे शराब की चुस्की लेने के बाद अंडे खाकर कुछ देर तक अपनी नाक की सीध में महत्वपूर्ण और बुज़ुर्गाना ढंग से देखते थे और बाद में सिगरेट के गहरे कश खींचकर घुआँ छोड़ने लगते थे।
जब वे बाहर निकले तो उनके चेहरे तमतमा रहे थे। फ़ुटपाथों पर की भीड़ें हल्की पड़ गई थीं। गोरे ने हाथ ऊँचे करके अपने शरीर को तोड़ा।
“तुम्हारी लीडरशिप का मज़ा न आया। आज तो कुछ रचनात्मक कार्य होना चाहिए?”
“तो तैयार हो जाओ। मैं देश के चौमुखी विकास और विश्वशांति की स्थापना के लिए जो क़दम उठाने जा रहा हूँ, उसमें तुम्हारे जैसे नौजवान की मदद चाहिए। अगर तुम हिम्मत से काम लोगे तो माबदौलत ख़ुश होकर तुमको होम मिनिस्टर बना देंगे!”
“जो आज्ञा, हुज़ूर!”
“तो आओ, बेटा, रिक्शे पर बैठो।”
कुछ देर बाद उनका रिक्शा एक छोटी-सी बस्ती के पास रुका, जिसमें खपड़ैल और फूस के पंद्रह-बीस छोटे-छोटे मकान थे। उस बस्ती में चौका-बर्तन करने वाले कमकर, कुछ रिक्शा-चालक और इसी क़िस्म के मज़दूर रहते थे। वह स्थान विश्वविद्यालय से लगभग एक मील दूर शहर की सीमा पर स्थित था, इसलिए दूर तक कोई अन्य बस्ती नहीं दिखाई देती थी। नुक्कड़ पर पान की एक ऐसी दुकान थी, जिसमें अन्य छोटे-मोटे सामान भी मिलते थे। झोंपड़ियों से मद्धिम मटमैली रौशनियाँ झाँक रही थीं। रात अँधेरी थी, परंतु मौसम बहुत सुहावना था और निःशब्द चलने वाली पवित्र, स्वच्छ और शीतल हवा शरीर और मन को पुलक से भर देती थी।
वे पहली झोंपड़ी में ही घुसे। बाहर छोटे-से बरामदे में बाईं ओर दीवार से सटकर नाव की तरह गहरी एक पुरानी बँसखट पड़ी हुई थी। दाहिनी तरफ़ एक कोने में एक औरत चूल्हे के सामने बैठी खाना बना रही थी। वह चौंककर खड़ी हो गई, परंतु गोरे को तत्क्षण पहचानकर सज्जनता पूर्वक हँसने भी लगी, जिससे उसके गालों के बीच में गड्ढे पड़ गए। उसकी उम्र चौबीस-पच्चीस की होगी। रंग क़रीब-क़रीब काला था, परंतु शरीर मज़बूत था और वह देखने में बुरी भी नहीं थी। वह एक मैली-कुचेली साड़ी पहने थी और आँचल की अस्त-व्यस्तता के कारण उसके उन्नत और पुष्ट उरोज दिखाई दे रहे थे। वह एक सीधी-सादी और सरल स्वभाव की स्त्री प्रतीत होती थी।
“बहुत दिन के बाद दरसन दिया? बैठिए।”
“यहाँ बैठकर क्या होगा, जी?” गोरा हँस पड़ा।
“तो भीतर चलिए!”...वह भी हँसने लगी।
“आज तुम्हारी सेवा में विश्व के एक महान नेता को लाया हूँ।”
“मुझे तो आपकी बात समझ में नहीं आती। कौन हैं ये?” उसने अदा के साथ साँवले की ओर देखा।
“ये अखिल विश्व लोफ़र संघ के अध्यक्ष हैं। इनको हर तरह से तुम्हे ख़ुश करना है।”
“मेरे लिए तो सभी बराबर हैं। किसी तरह की शिकायत की बात नहीं मिलेगी।” वह फिर हँसने लगी।
“तुम्हारा दोपाया जानवर कहाँ है?”
“कहीं पास चरने गया होगा।” वह खिलखिला पड़ी।
“तो क्या देर है?”
“कुछ नहीं। दाल चुरती रहेगी।”
वह सहसा व्यस्त होकर चूल्हे के सामने बैठ गई। उसके होंठ अनजान में ही एक शिष्ट, हल्की मुस्कुराहट से फैल गए थे। उसने एक लकड़ी निकालकर आँच धीमी कर दी, बटलोई की दाल को करछुल से चलाया और अंत में आश्वस्त होकर उठ खड़ी हुई।
गोरा बाहर बँसखर पर बैठा ऊँघता-सा रहा। थोड़ी देर बाद औरत तेज़ी से बाहर आई और बटलाई को चूल्हे पर से उतारकर पुनः कोठरी में चली गई। अब बाहर बैठने की बारी साँवले की थी। इस बीच बरामदे के ताक पर रखी ढिबरी की रौशनी किसी बीमार की फीकी मुस्कराहट की तरह टिमटिमाती रही।
“दो-दो रुपए हुए न?” बाहर निकलकर गोरे ने हँसकर पूछा।
“आज तो चार-चार लूँगी! बड़ा परेशान किया है आप लोगों ने!” वह आँखें मटकाकर बोली।
“तुम तो पूँजीपति हो! तुमको किस बात की कमी है? अच्छा, आठ-आठ आना और। लेकिन दस रुपए का नोट है।”
“रुपए तो मेरे पास नहीं हैं।”
“पान वाले से भुना लेते हैं।”
“लाइए, मैं ले आती हूँ।”
“अरे, तुम देश की महान कार्यकर्त्री हो, तुम कहाँ कष्ट करोगी? अभी आते हैं।”
“अच्छी बात है,” वह हँसने लगी।
वे झोंपड़ी से बाहर निकलकर पान की दुकान की ओर बढ़े। वह औरत बरामदे में खड़ी उनको देख रही थी।
“साले, जूते निकालकर हाथ में ले लो।” गोरे ने दुकान के निकट पहुँचकर फुसफुसाहट के स्वर में कहा।
“क्यों?” साँवला चौंक उठा।
“मेरे आदेश का चुपचाप पालन कर। आज समय आ गया है कि हमारे नवयुवक बुद्धिमानी, मौलिकता, साहस और कर्मठता से काम लें। मैं पूर्ण अहिंसात्मक तरीक़ें से उनका पथ-प्रदर्शन करना चाहता हूँ।”
दोनों ने झटपट अपने जूते उतारकर अपने हाथों में ले लिए।
“भाग साले! आर्थिक और सामाजिक क्रांति करने का समय आ गया है।”
वे सरपट भाग चले। साथ में वह ही-ही हँसते भी जा रहे थे। वह औरत झोंपड़ी के बाहर निकल आई थी और छाती पीट-पीटकर विलाप करने लगी थी, “अरे, लूट लिया हरामी के बच्चों ने। उन पर बज्जर गिरे... ”
झोंपड़ियों से कुछ व्यक्ति निकलकर युवकों के पीछे दौड़े। तारकोल की सड़कें जन-शून्य थीं। दोनों युवक अरबी घोड़ों की तरह दौड़ रहे थे। वे कभी बाएँ घूम जाते और कभी दाएँ। पीछा करने वालों में से एक फ़ुर्तीबाज़ व्यक्ति तीर की तरह उनकी ओर बढ़ा जा रहा था। वह समीप आता गया। अब वह समय दूर नहीं था जब वह आगे लपककर साँबले रंग के युवक को पकड़ लेता, जो पीछे पड़ गया था। परंतु सहसा गोरा रुककर एक ओर खड़ा हो गया। उसने पेंट की जेब में से एक छुरा निकालकर खोल लिया, जो उसके हाथ में चमक उठा। फिर फुर्ती से आगे बढ़कर उसने छुरा उस व्यक्ति के पेट में भोंक दिवा जो “हाय मार डाला' कहके लड़खड़ाकर गिर पड़ा।
इसके बाद दोनों पुनः तेज़ी से भाग चले। जब बिजली का खंभा आया तो रौशनी में उनके पसीने से लथपथ ताक़तवर शरीर बहुत सुंदर दिखाई देने लगे। फिर वे न मालूम किधर अँधेरे में खो गए।
kvaar ki ek shaam ko paan ki ek dukan par do yuvak mile. akash saaf, nila aur khushanuma tha aur hava aane vale mausam ki smriti mein chanchal. ek yuvak gore rang ka, lamba, tagDa aur bahut sundar tha, yadyapi uski ankhen chhoti chhoti theen. wo safed qamiz aur adhunik faishan ki ek aisi tang paint pahne tha, jisko phaDkar uske baDe baDe aur suDol chutaD bahar nikalna chahte the. pairon mein jute the, kintu moze nahin the aur baal ulte phire the. dusra yuvak sanvla, thigna aur tandurust tha. uski daDhi moonchh apne sathi ki tarah hi safachat thi, poshak bhi usi Dhang ki thi, kintu sir par kashmiri topi thi, paint ka rang chakleti na hokar bhura tha aur qamiz ki do batnen khuli hone ke karan baniyan saaf dikhai de rahi thi.
“halo Diyar!”
“halo, sana” gora paas aakar khaDa ho gaya.
“itna let kyon, bete?”
“bhai, bor ho ge. ”
“koi khaas baat?”
“yahi nehru hai, yaar! aaj uska ek aur patr mila hai. ”
“ai see!” sanvle ki ankhon aur honthon ke koron mein hasya ki halki sikuDnen paida hokar vilin ho gain.
“haan, Diyar, ye adami mujhko pareshan kar raha hai. mainne baar baar kaha ki bhai mere, bharat ki praim ministri kisi dusre vyakti ko do, mere paas baDe baDe kaam hain. lekin manata hi nahin. ”
“kya kahta hai?”
“vahi purana raag. is baar likha hai—ab main thak gaya hoon. gandhi ji desh ka jo bhaar mujhe saump ge, usko main aapke mazbut kandhon par rakhna chahta hoon. is abhage desh mein aaj aapse qabil aur samajhdar dusra kori bhi nahin hai. ”
do lattu tezi se nachkar sahsa gir ge hon, is tarah ve kuch kshan hansakar gambhir ho ge.
“aur bhi to neta hain. sanvle ne puchha.
“nehru desh ke aur sabhi netaon ko nikamma aur batuni samajhta hai. tumko to malum hai na ki laast taim jab mein dilli gaya tha to nehru ne ashok hotal mein aakar mujhse mulaqat ki thee?”
“nahin! tum harami ki aulad ho, koi baat batate bhi to nahin!” sanvle ki ankhen batan ki tarah chamakne lagin.
nehru haath pakaDkar rone laga. bola, “aaj desh bhari sankat se guzar raha hai. sabhi neta aur mantri beiman aur sankirn vicharon ke hain. jo iimandar hain, unke paas apna dimagh nahin hai. meri liDarship bhi kamzor hai. mere afsar mujhko dhokha dete hain. janta ki bhalai ke liye mainne paanch sala yojnayen shuru keen, lekin blakon ke sarkari karmachari apne gharon ko bharne mein lage hain. main janta hoon ki sare desh mein kuch log loot khasot machaye hue hain, lekin mein unke khilaf koi karrvai nahin kar sakta.
“are!”
“kisi se kahna mat, sale!. . . usne ant mein kaha—desh ko aaj keval aapka hi sahara hai. aap hi punjiptiyon, mantriyon aur afasron ke shaDyantr ko khatm karke samajavad qayam kar sakte hain. ”
“ab tum kya soch rahe ho?”
aise chhote mote kaam mabdaulat nahin karte. ”
“pyaar, tumko desh ki khatir kuch to jhukna hi chahiye!”
“nahin, be! main siddhanton ka adami hoon. nehru ko trank kaul karke aa raha hai isiliye to der hui. ”
“achchha?”
“ho! mainne saaf saaf kah diya—bhaiya, desh ki praim ministri mujhe manzur nahin. mere samne bahut baDe baDe saval hain. sabse pahle to mujhe vishvshanti qayam karni hai”
donon daant kholkar hansne lage.
“tumhara sochna ek tarah se theek hi hai. haan, mujhko bhi ek mamuli si baat yaad aa gai. kal mujhko bhi amerika ke presiDent keneDi ka ek taar mila tha. ”
“kya likhta hai?” gore ki ankhen sikuD gain.
“mujhko amerika bula raha hai. usne likha hai—ap jaisa sahasi vyakti aaj sansar mein koi dusra nahin. aap aa jayenge to amerika nishchit roop se roos ko yuddh mein hara dega. ”
“tumne koi javab diya?”
“mainne bhi kabul kar diya ki main rashtriy vicharon ka yuvak hoon aur is ghor sankat ke samay kisi bhi haalat mein apne desh ko chhoDkar kisi dusri jagah nahin ja sakta. ”
“achchha kiya. vaise wo shakhs hai bahut sidha sada. meri to baDi izzat karta hai. mainne hi usse tumhari sifarish kar di thee!”
is par ve ek hi saath is tarah sir nicha karke hansne lage, jaise apni nikli chhatiyon ko dekhkar khush ho rahe hon. parantu baghal mein khaDe ek patvari sajjan ki khilkhilahat sunkar fauran gambhir ho ge. unki ankhen sikuD gai, honthon mein driDhta aa gai aur gardan tan gai. iske baad gore ne ajib shaan se aage baDhkar paan vale se kaipstan ka Dibya le liya. phir donon ne ek ek sigret sulgai aur ant mein shanting karne vale rel ke injan ki tarah laparvahi se dhuan chhoDte hue vahan se chalte bane.
ek chauDi aur saaf suthari tarkol ki saDak ke donon or bhavya dukanen theen. agal baghal donon futpathon par har umr, pesha aur rang roop ke stri purushon ki utsahi bhiDen viprit dishaon ko sarak rahi theen. ve bain patri se aage baDh rahe the. unke kulhe khoob matak rahe the. unke haath kuch phailkar is tarah aage pichhe ho rahe the, jaise ve khaDe hokar tair rahe hon. ve aksar apne dayen aur bayen atyadhik narazi se ghurte the. ek baar jab bhaDkile vastron se sajjit kuch chhatraon ka ek dal sugandh uData hua baghal se guzra to unhonne honth sikoDkar chumban ki avazen paida keen. jab ve bazar ke dusre chhor par pahunch ge to unhonne sardar ki dukan ke samne khaDe hokar badam ka sharbat piya, banarsi paan vale ke yahan jakar chaar chaar biDe maghi paan khaye aur ant mein bai patri se vapas lautne lage.
“us launDiya ko pahchan rahe ho?”
“nahin,” sanvle ne pichhe ghumkar ek dubli patli laDki ko jate hue dekha.
“tum sale gadhe ho. jab prdhanmantri banunga to tupko sekreteriyat ka bhangi banaunga! bete, ye hai chanda sinha. em. e. inglish taup karke ab risarch kar rahi hai. wo mujhko apna pati maan chuki hai. ”
“ya putr?”
“mazaq nahin, Diyar. kai baar charan pakaDkar ro chuki hai. lekin tum to jante hi ho ki main baal brahamchari rahne ki prtigya kar chuka hoon. ”
“tumhare baap bhi to baal brahamchari hi the!”
donon ke munh kanon tak phail ge.
“yaar, tum har baat ko naunsiriyas bana dete ho! main desh ki koti koti janta ke kalyan ke liye apil karta hoon ki tum gambhir bano aur anushasan mein raho!”
“achchha, farmaiye, huzur shahanshah harami ul mulk. ”
“to he arjun, suno! ek roz profesar dikshit mere paas aakar giDgiDane lage. ”
“inglish Dipartment ke heD?”
“haan be, aur kaun profesar dikshit hain is akhil vishv men?”
“ghalati hui, sarkar!”
“ate hi haath joDkar bole, is sansar mein aap hi meri madad kar sakte hai. chandra sinha ke bina main ek kshan bhi zinda nahin rah sakta. wo mamuli stuDent thi, lekin mainne hi usko taup karaya. mainne usse kai baar kaha hai ki tumko do varsh mein hi Daktret dila dunga. mainne har darje ke liye pathya pustken aur kunjiyan likhkar jo lakhon rupe kamaye hain, unko chandra ke charnon par nyochhavar karne ko taiyar hoon. lekin ye to meri or dekhti bhi nahin. wo aapke hi naam ki mala japti rahti hai. aap samjha denge to kahna maan jayegi. ”
“tum to, beta, phir hare honge. tumhara ek piriyaD wo leta jo hai!”
“hush! sara desh jiski puja karta hai ye us piddi se Darega? mainne Dautkar usse puchha—bachchu, pathya pustkon ka raub to bahut dikhate ho, lekin kya tum isse inkaar kar sakte ho ki tumhari sabhi pustken tumhare shishyon ki likhi hui hain?”
“phir kya bolis?”
“bolta kyaa? thar thar kanpne laga. mere charan pakaDkar pararthna karne laga ki main ye baat kisi se na kahun. mainne kaDakkar uttar diya—main janta hoon ki tum baDe baDe afasron aur mantriyon ki chaplusi karte ho. tumne anaginat laDakiyon ki zindagi isi tarah chaupat ki hai. chanda sati sadhvi nari hai, agar ainda tumne usko buri nazar se dekha to mujhe badhya hokar desh ki shiksha paddhati mein amul parivartan karna paDega!”
sahsa ek buk staal ne unka dhyaan akarshit kiya, jiske samne ek javan, gori aur sundar mahila khaDi thi. uska juDa sarp ki kanDli ki tarah pichhe bandha tha aur uske pusht sharir par gerue rang ki ek reshmi saDi sayatn laparvahi ke saath lipti thi, jisse wo koi bauddh bhikshuni ki tarah dikhai de rahi thi. wo ‘iibs vikli’ ko dhyanapurvak ulat pulatkar dekh rahi thi parantu uske mukh par is aasha ka bhaav tha ki log usko atyadhik adhunik aur prabuddh samjhen. ve bhi munh se dhire dhire siti ki avazen nikalte hue nikat aakar khaDe ho ge aur kuch patr patrikaon ko ulatne pulatne lage. unhonne bari bari se ‘rekha’, ‘gori’, ‘riDars Daijest’, ‘ilastreteD vikli’, ‘laif’, ‘manohar kahaniyan’, ‘film feyar’,’jasus mahl’ aadi patrikayen dekhin. beech beech mein ve us mahila ko dhurte jate the aur koi baat kahke zor se hans paDte the.
“yaar, lasko bhi ajib adami tha,” gore ne kaha.
“kyon?”
“tum to jante hi ho ki ‘gramar auf paulitiks likhne ke pahle wo mujhse milne aaya tha!”
“kuchh kushth yaad aa raha hai,” sanvla mahila ki or tirchhi drishti se dekhkar zor se hans paDa. ”
“vah ek raat ko chupke se mere ghar pahuncha. giDagiDakar bola—jab tak aap madad na karenge meri kitab likhi nahin jayegi. mujhe daya aa gai ki adami sharif hai aur iske liye kuch kar dena chahiye. mainne kaha—bhai, mere paas itna samay to nahin ki tumhare liye puri pustak likh doon, roz main raat ko do ghante bol dunga aur tum not kar lena. ”
“taiyar hua?”
“are, baDa khush hua! mainne das din mein hi puri kitab Diktet kara di. wo kahne laga ki pustak ke asli lekhak aap hi hain aur us par aapka hi naam jana chahiye, lekin mainne javab diya ki main satya aur ahinsa ke desh ka rahne vala hoon aur meri sevayen sada niःsvarth hoti hain. ”
us mahila ne shaan se gardan ghumakar unki or ghurti nazar se dekha. phir wo ‘iivs vikli’ kharidkar upekshapurn bhaav prakat karti hui chali gai. donon ne zor ka thahaka lagaya. phir sanvla sheeghr hi gambhir hokar gungunane laga—mujhe palkon ki chhaanv mein rahne do.
unhonne bazar ke do aur chakkar lagaye. tab tak andhera chha gaya tha. sabhi dukanen rang birangi raushaniyon se jagamgakar rahasyamay svapnalok ki tarah pratit ho rahi theen. phir usi paan ki dukan par aakar khaDe ho ge. is baar sanvle ne sigret kharidi.
“Diyar, hum kafi videsh bhrman kar chuke. ab hamko pyare svadesh ki bhi sudh leni chahiye. ” gora jamuhai lekar bola.
“haan. meri bhi pavitra aatma svadesh ke liye chhatapta rahi hai. ”
“let as go!”
kuch door chalkar ve ‘di prins mein ghus ge. kauntar par baDi baDi munchhon vala ek adheD vyakti atyadhik tatasth aur vinamr bhaav se baitha tha. usne jhukkar unko salam kiya. dahini or chaar kebin bane hue the. pahle mein chaar vyakti baithe hue the aur zor zor se baten karke thahake laga rahe the, jinko dekhte hi ve donon atyadhik gambhir ho ge aur unke chehron par uchchata aur upeksha ke bhaav ankit ho ge. antim kebin mein jakar baith ge.
“kya loge” gore ne puchha.
“desh ka samajik aur naitik star uncha karna hai, branDi hi chalne do. ”
“ek addha aur saath mein abhi. . . uble hue anDe,” gore ne arDar diya.
jab baire ne saman lakar mez par rakh diya to gore ne do gilason mein barabar barabar matra mein sharab Dali. sanvle ne chupke se apne gilas ki kuch sharab gore ke gilas mein unDel di aur ant mein jhempkar hansne laga.
“sale! tum kayar ho. ” gora bigaD gaya, “mainne socha tha ki praim ministar hone par main tumko bhrashtachar nivaran samiti aur jatibhed unmulan samiti ka adhyaksh bana dunga. lekin jab tum itni pi nahin sakte to avsar aane par ghoos kaise loge, jalasazi kaise karoge, jhooth kaise bologe? phir desh ki seva kya karoge, khaak?”
donon zor zor se thahake lagane lage. phir unhonne sigret sulga li. ve sharab ki chuski lene ke baad anDe khakar kuch der tak apni naak ki seedh mein mahatvpurn aur buzurgana Dhang se dekhte the aur baad mein sigret ke gahre kash khinchkar ghuan chhoDne lagte the.
jab ve bahar nikle to unke chehre tamtama rahe the. futpathon par ki bhiDen halki paD gai theen. gore ne haath uunche karke apne sharir ko toDa.
“tumhari liDarship ka maza na aaya. aaj to kuch rachnatmak karya hona chahiye?”
“to taiyar ho jao. main desh ke chaumukhi vikas aur vishvshanti ki sthapana ke liye jo qadam uthane ja raha hoon, usmen tumhare jaise naujavan ki madad chahiye. agar tum himmat se kaam loge to mabdaulat khush hokar tumko hom ministar bana denge!”
“jo aagya, huzur!”
“to aao, beta, rikshe par baitho. ”
kuch der baad unka riksha ek chhoti si basti ke paas ruka, jismen khapDail aur phoos ke pandrah bees chhote chhote makan the. us basti mein chauka bartan karne vale kamkar, kuch riksha chalak aur isi qism ke mazdur rahte the. wo sthaan vishvavidyalay se lagbhag ek meel door shahr ki sima par sthit tha, isliye door tak koi anya basti nahin dikhai deti thi. nukkaD par paan ki ek aisi dukan thi, jismen anya chhote mote saman bhi milte the. jhompaDiyon se maddhim matmaili raushaniyan jhaank rahi theen. raat andheri thi, parantu mausam bahut suhavna tha aur niःshabd chalne vali pavitra, svachchh aur shital hava sharir aur man ko pulak se bhar deti thi.
ve pahli jhopDi mein hi ghuse. bahar chhote se baramde mein bain or divar se satkar naav ki tarah gahri ek purani bansakhat paDi hui thi. dahini taraf ek kone mein ek aurat chulhe ke samne baithi khana bana rahi thi. wo chaunkkar khaDi ho gai, parantu gore ko tatkshan pahchankar sajjanta purvak hansne bhi lagi, jisse uske galon ke beech mein gaDDhe paD ge. uski umr chaubis pachchis ki hogi. rang qarib qarib kala tha, parantu sharir mazbut tha aur wo dekhne mein buri bhi nahin thi. wo ek maili kucheli saDi pahne thi aur anchal ki ast vyastata ke karan uske unnat aur pusht uroj dikhai de rahe the. wo ek sidhi sadi aur saral svbhaav ki stri pratit hoti thi.
“bahut din ke baad darsan diya? baithiye. ”
“yahan baithkar kya hoga, jee?” gora hans paDa.
“to bhitar chaliye!”. . . wo bhi hansne lagi.
“aaj tumhari seva mein vishv ke ek mahan neta ko laya hoon. ”
“mujhe to apaki baat samajh mein nahin aati. kaun hain ye?” usne ada ke saath sanvle ki or dekha.
“ye akhil vishv lofar sangh ke adhyaksh hain. inko har tarah se tumhe khush karna hai. ”
“mere liye to sabhi barabar hain. kisi tarah ki shikayat ki baat nahin milegi. ” wo phir hansne lagi.
“tumhara dopaya janvar kahan hai?”
“kahin paas charne gaya hoga. ” wo khilkhila paDi.
“to kya der hai?”
“kuchh nahin. daal churti rahegi. ”
wo sahsa vyast hokar chulhe ke samne baith gai. uske honth anjan mein hi ek shisht, halki muskurahat se phail ge the. usne ek lakDi nikalkar anch dhimi kar di, batloi ki daal ko karchhul se chalaya aur ant mein ashvast hokar uth khaDi hui.
gora bahar bansakhar par baitha uunghata sa raha. thoDi der baad aurat tezi se bahar aai aur batlai ko chulhe par se utarkar punः kothari mein chali gai. ab bahar baithne ki bari sanvle ki thi. is beech baramde ke taak par rakhi Dhibri ki raushani kisi bimar ki phiki muskrahat ki tarah timtimati rahi.
“do do rupe hue na?” bahar nikalkar gore ne hansakar puchha.
“aaj to chaar chaar lungi! baDa pareshan kiya hai aap logon ne!” wo ankhen matkakar boli.
“tum to punjipati ho! tumko kis baat ki kami hai? achchha, aath aath aana aur. lekin das rupe ka not hai. ”
“rupe to mere paas nahin hain. ”
“paan vale se bhuna lete hain. ”
“laiye, main le aati hoon. ”
“are, tum desh ki mahan karykartri ho, tum kahan kasht karogi? abhi aate hain. ”
“achchhi baat hai,” wo hansne lagi.
ve jhopDi se bahar nikalkar paan ki dukan ki or baDhe. wo aurat baramde mein khaDi unko dekh rahi thi.
“sale, jute nikalkar haath mein le lo. ” gore ne dukan ke nikat pahunchakar phusphusahat ke svar mein kaha.
“kyon?” sanvla chaunk utha.
“mere adesh ka chupchap palan kar. aaj samay aa gaya hai ki hamare navyuvak buddhimani, maulikta, sahas aur karmathta se kaam len. main poorn ahinsatmak tariqen se unka path pradarshan karna chahta hoon. ”
donon ne jhatpat apne jute utarkar apne hathon mein le liye.
“bhaag sale! arthik aur samajik kranti karne ka samay aa gaya hai. ”
ve sarpat bhaag chale. saath mein wo hi hi hanste bhi ja rahe the. wo aurat jhopDi ke bahar nikal aai thi aur chhati peet pitkar vilap karne lagi thi, “are, loot liya harami ke bachchon ne. un par bajjar gire. . . ”
jhompaDiyon se kuch vyakti nikalkar yuvkon ke pichhe dauDe. tarkol ki saDken jan shunya theen. donon yuvak arbi ghoDon ki tarah dauD rahe the. ve kabhi bayen ghoom jate aur kabhi dayen. pichha karne valon mein se ek furtibaz vyakti teer ki tarah unki or baDha ja raha tha. wo samip aata gaya. ab wo samay door nahin tha jab wo aage lapakkar sanbale rang ke yuvak ko pakaD leta, jo pichhe paD gaya tha. parantu sahsa gora rukkar ek or khaDa ho gaya. usne pent ki jeb mein se ek chhura nikalkar khol liya, jo uske haath mein chamak utha. phir phurti se aage baDhkar usne chhura us vyakti ke pet mein bhonk diva jo “haay maar Dala kahke laDakhDakar gir paDa.
iske baad donon punः tezi se bhaag chale. jab bijli ka khambha aaya to raushani mein unke pasine se lathpath taqatvar sharir bahut sundar dikhai dene lage. phir ve na malum kidhar andhere mein kho ge.
kvaar ki ek shaam ko paan ki ek dukan par do yuvak mile. akash saaf, nila aur khushanuma tha aur hava aane vale mausam ki smriti mein chanchal. ek yuvak gore rang ka, lamba, tagDa aur bahut sundar tha, yadyapi uski ankhen chhoti chhoti theen. wo safed qamiz aur adhunik faishan ki ek aisi tang paint pahne tha, jisko phaDkar uske baDe baDe aur suDol chutaD bahar nikalna chahte the. pairon mein jute the, kintu moze nahin the aur baal ulte phire the. dusra yuvak sanvla, thigna aur tandurust tha. uski daDhi moonchh apne sathi ki tarah hi safachat thi, poshak bhi usi Dhang ki thi, kintu sir par kashmiri topi thi, paint ka rang chakleti na hokar bhura tha aur qamiz ki do batnen khuli hone ke karan baniyan saaf dikhai de rahi thi.
“halo Diyar!”
“halo, sana” gora paas aakar khaDa ho gaya.
“itna let kyon, bete?”
“bhai, bor ho ge. ”
“koi khaas baat?”
“yahi nehru hai, yaar! aaj uska ek aur patr mila hai. ”
“ai see!” sanvle ki ankhon aur honthon ke koron mein hasya ki halki sikuDnen paida hokar vilin ho gain.
“haan, Diyar, ye adami mujhko pareshan kar raha hai. mainne baar baar kaha ki bhai mere, bharat ki praim ministri kisi dusre vyakti ko do, mere paas baDe baDe kaam hain. lekin manata hi nahin. ”
“kya kahta hai?”
“vahi purana raag. is baar likha hai—ab main thak gaya hoon. gandhi ji desh ka jo bhaar mujhe saump ge, usko main aapke mazbut kandhon par rakhna chahta hoon. is abhage desh mein aaj aapse qabil aur samajhdar dusra kori bhi nahin hai. ”
do lattu tezi se nachkar sahsa gir ge hon, is tarah ve kuch kshan hansakar gambhir ho ge.
“aur bhi to neta hain. sanvle ne puchha.
“nehru desh ke aur sabhi netaon ko nikamma aur batuni samajhta hai. tumko to malum hai na ki laast taim jab mein dilli gaya tha to nehru ne ashok hotal mein aakar mujhse mulaqat ki thee?”
“nahin! tum harami ki aulad ho, koi baat batate bhi to nahin!” sanvle ki ankhen batan ki tarah chamakne lagin.
nehru haath pakaDkar rone laga. bola, “aaj desh bhari sankat se guzar raha hai. sabhi neta aur mantri beiman aur sankirn vicharon ke hain. jo iimandar hain, unke paas apna dimagh nahin hai. meri liDarship bhi kamzor hai. mere afsar mujhko dhokha dete hain. janta ki bhalai ke liye mainne paanch sala yojnayen shuru keen, lekin blakon ke sarkari karmachari apne gharon ko bharne mein lage hain. main janta hoon ki sare desh mein kuch log loot khasot machaye hue hain, lekin mein unke khilaf koi karrvai nahin kar sakta.
“are!”
“kisi se kahna mat, sale!. . . usne ant mein kaha—desh ko aaj keval aapka hi sahara hai. aap hi punjiptiyon, mantriyon aur afasron ke shaDyantr ko khatm karke samajavad qayam kar sakte hain. ”
“ab tum kya soch rahe ho?”
aise chhote mote kaam mabdaulat nahin karte. ”
“pyaar, tumko desh ki khatir kuch to jhukna hi chahiye!”
“nahin, be! main siddhanton ka adami hoon. nehru ko trank kaul karke aa raha hai isiliye to der hui. ”
“achchha?”
“ho! mainne saaf saaf kah diya—bhaiya, desh ki praim ministri mujhe manzur nahin. mere samne bahut baDe baDe saval hain. sabse pahle to mujhe vishvshanti qayam karni hai”
donon daant kholkar hansne lage.
“tumhara sochna ek tarah se theek hi hai. haan, mujhko bhi ek mamuli si baat yaad aa gai. kal mujhko bhi amerika ke presiDent keneDi ka ek taar mila tha. ”
“kya likhta hai?” gore ki ankhen sikuD gain.
“mujhko amerika bula raha hai. usne likha hai—ap jaisa sahasi vyakti aaj sansar mein koi dusra nahin. aap aa jayenge to amerika nishchit roop se roos ko yuddh mein hara dega. ”
“tumne koi javab diya?”
“mainne bhi kabul kar diya ki main rashtriy vicharon ka yuvak hoon aur is ghor sankat ke samay kisi bhi haalat mein apne desh ko chhoDkar kisi dusri jagah nahin ja sakta. ”
“achchha kiya. vaise wo shakhs hai bahut sidha sada. meri to baDi izzat karta hai. mainne hi usse tumhari sifarish kar di thee!”
is par ve ek hi saath is tarah sir nicha karke hansne lage, jaise apni nikli chhatiyon ko dekhkar khush ho rahe hon. parantu baghal mein khaDe ek patvari sajjan ki khilkhilahat sunkar fauran gambhir ho ge. unki ankhen sikuD gai, honthon mein driDhta aa gai aur gardan tan gai. iske baad gore ne ajib shaan se aage baDhkar paan vale se kaipstan ka Dibya le liya. phir donon ne ek ek sigret sulgai aur ant mein shanting karne vale rel ke injan ki tarah laparvahi se dhuan chhoDte hue vahan se chalte bane.
ek chauDi aur saaf suthari tarkol ki saDak ke donon or bhavya dukanen theen. agal baghal donon futpathon par har umr, pesha aur rang roop ke stri purushon ki utsahi bhiDen viprit dishaon ko sarak rahi theen. ve bain patri se aage baDh rahe the. unke kulhe khoob matak rahe the. unke haath kuch phailkar is tarah aage pichhe ho rahe the, jaise ve khaDe hokar tair rahe hon. ve aksar apne dayen aur bayen atyadhik narazi se ghurte the. ek baar jab bhaDkile vastron se sajjit kuch chhatraon ka ek dal sugandh uData hua baghal se guzra to unhonne honth sikoDkar chumban ki avazen paida keen. jab ve bazar ke dusre chhor par pahunch ge to unhonne sardar ki dukan ke samne khaDe hokar badam ka sharbat piya, banarsi paan vale ke yahan jakar chaar chaar biDe maghi paan khaye aur ant mein bai patri se vapas lautne lage.
“us launDiya ko pahchan rahe ho?”
“nahin,” sanvle ne pichhe ghumkar ek dubli patli laDki ko jate hue dekha.
“tum sale gadhe ho. jab prdhanmantri banunga to tupko sekreteriyat ka bhangi banaunga! bete, ye hai chanda sinha. em. e. inglish taup karke ab risarch kar rahi hai. wo mujhko apna pati maan chuki hai. ”
“ya putr?”
“mazaq nahin, Diyar. kai baar charan pakaDkar ro chuki hai. lekin tum to jante hi ho ki main baal brahamchari rahne ki prtigya kar chuka hoon. ”
“tumhare baap bhi to baal brahamchari hi the!”
donon ke munh kanon tak phail ge.
“yaar, tum har baat ko naunsiriyas bana dete ho! main desh ki koti koti janta ke kalyan ke liye apil karta hoon ki tum gambhir bano aur anushasan mein raho!”
“achchha, farmaiye, huzur shahanshah harami ul mulk. ”
“to he arjun, suno! ek roz profesar dikshit mere paas aakar giDgiDane lage. ”
“inglish Dipartment ke heD?”
“haan be, aur kaun profesar dikshit hain is akhil vishv men?”
“ghalati hui, sarkar!”
“ate hi haath joDkar bole, is sansar mein aap hi meri madad kar sakte hai. chandra sinha ke bina main ek kshan bhi zinda nahin rah sakta. wo mamuli stuDent thi, lekin mainne hi usko taup karaya. mainne usse kai baar kaha hai ki tumko do varsh mein hi Daktret dila dunga. mainne har darje ke liye pathya pustken aur kunjiyan likhkar jo lakhon rupe kamaye hain, unko chandra ke charnon par nyochhavar karne ko taiyar hoon. lekin ye to meri or dekhti bhi nahin. wo aapke hi naam ki mala japti rahti hai. aap samjha denge to kahna maan jayegi. ”
“tum to, beta, phir hare honge. tumhara ek piriyaD wo leta jo hai!”
“hush! sara desh jiski puja karta hai ye us piddi se Darega? mainne Dautkar usse puchha—bachchu, pathya pustkon ka raub to bahut dikhate ho, lekin kya tum isse inkaar kar sakte ho ki tumhari sabhi pustken tumhare shishyon ki likhi hui hain?”
“phir kya bolis?”
“bolta kyaa? thar thar kanpne laga. mere charan pakaDkar pararthna karne laga ki main ye baat kisi se na kahun. mainne kaDakkar uttar diya—main janta hoon ki tum baDe baDe afasron aur mantriyon ki chaplusi karte ho. tumne anaginat laDakiyon ki zindagi isi tarah chaupat ki hai. chanda sati sadhvi nari hai, agar ainda tumne usko buri nazar se dekha to mujhe badhya hokar desh ki shiksha paddhati mein amul parivartan karna paDega!”
sahsa ek buk staal ne unka dhyaan akarshit kiya, jiske samne ek javan, gori aur sundar mahila khaDi thi. uska juDa sarp ki kanDli ki tarah pichhe bandha tha aur uske pusht sharir par gerue rang ki ek reshmi saDi sayatn laparvahi ke saath lipti thi, jisse wo koi bauddh bhikshuni ki tarah dikhai de rahi thi. wo ‘iibs vikli’ ko dhyanapurvak ulat pulatkar dekh rahi thi parantu uske mukh par is aasha ka bhaav tha ki log usko atyadhik adhunik aur prabuddh samjhen. ve bhi munh se dhire dhire siti ki avazen nikalte hue nikat aakar khaDe ho ge aur kuch patr patrikaon ko ulatne pulatne lage. unhonne bari bari se ‘rekha’, ‘gori’, ‘riDars Daijest’, ‘ilastreteD vikli’, ‘laif’, ‘manohar kahaniyan’, ‘film feyar’,’jasus mahl’ aadi patrikayen dekhin. beech beech mein ve us mahila ko dhurte jate the aur koi baat kahke zor se hans paDte the.
“yaar, lasko bhi ajib adami tha,” gore ne kaha.
“kyon?”
“tum to jante hi ho ki ‘gramar auf paulitiks likhne ke pahle wo mujhse milne aaya tha!”
“kuchh kushth yaad aa raha hai,” sanvla mahila ki or tirchhi drishti se dekhkar zor se hans paDa. ”
“vah ek raat ko chupke se mere ghar pahuncha. giDagiDakar bola—jab tak aap madad na karenge meri kitab likhi nahin jayegi. mujhe daya aa gai ki adami sharif hai aur iske liye kuch kar dena chahiye. mainne kaha—bhai, mere paas itna samay to nahin ki tumhare liye puri pustak likh doon, roz main raat ko do ghante bol dunga aur tum not kar lena. ”
“taiyar hua?”
“are, baDa khush hua! mainne das din mein hi puri kitab Diktet kara di. wo kahne laga ki pustak ke asli lekhak aap hi hain aur us par aapka hi naam jana chahiye, lekin mainne javab diya ki main satya aur ahinsa ke desh ka rahne vala hoon aur meri sevayen sada niःsvarth hoti hain. ”
us mahila ne shaan se gardan ghumakar unki or ghurti nazar se dekha. phir wo ‘iivs vikli’ kharidkar upekshapurn bhaav prakat karti hui chali gai. donon ne zor ka thahaka lagaya. phir sanvla sheeghr hi gambhir hokar gungunane laga—mujhe palkon ki chhaanv mein rahne do.
unhonne bazar ke do aur chakkar lagaye. tab tak andhera chha gaya tha. sabhi dukanen rang birangi raushaniyon se jagamgakar rahasyamay svapnalok ki tarah pratit ho rahi theen. phir usi paan ki dukan par aakar khaDe ho ge. is baar sanvle ne sigret kharidi.
“Diyar, hum kafi videsh bhrman kar chuke. ab hamko pyare svadesh ki bhi sudh leni chahiye. ” gora jamuhai lekar bola.
“haan. meri bhi pavitra aatma svadesh ke liye chhatapta rahi hai. ”
“let as go!”
kuch door chalkar ve ‘di prins mein ghus ge. kauntar par baDi baDi munchhon vala ek adheD vyakti atyadhik tatasth aur vinamr bhaav se baitha tha. usne jhukkar unko salam kiya. dahini or chaar kebin bane hue the. pahle mein chaar vyakti baithe hue the aur zor zor se baten karke thahake laga rahe the, jinko dekhte hi ve donon atyadhik gambhir ho ge aur unke chehron par uchchata aur upeksha ke bhaav ankit ho ge. antim kebin mein jakar baith ge.
“kya loge” gore ne puchha.
“desh ka samajik aur naitik star uncha karna hai, branDi hi chalne do. ”
“ek addha aur saath mein abhi. . . uble hue anDe,” gore ne arDar diya.
jab baire ne saman lakar mez par rakh diya to gore ne do gilason mein barabar barabar matra mein sharab Dali. sanvle ne chupke se apne gilas ki kuch sharab gore ke gilas mein unDel di aur ant mein jhempkar hansne laga.
“sale! tum kayar ho. ” gora bigaD gaya, “mainne socha tha ki praim ministar hone par main tumko bhrashtachar nivaran samiti aur jatibhed unmulan samiti ka adhyaksh bana dunga. lekin jab tum itni pi nahin sakte to avsar aane par ghoos kaise loge, jalasazi kaise karoge, jhooth kaise bologe? phir desh ki seva kya karoge, khaak?”
donon zor zor se thahake lagane lage. phir unhonne sigret sulga li. ve sharab ki chuski lene ke baad anDe khakar kuch der tak apni naak ki seedh mein mahatvpurn aur buzurgana Dhang se dekhte the aur baad mein sigret ke gahre kash khinchkar ghuan chhoDne lagte the.
jab ve bahar nikle to unke chehre tamtama rahe the. futpathon par ki bhiDen halki paD gai theen. gore ne haath uunche karke apne sharir ko toDa.
“tumhari liDarship ka maza na aaya. aaj to kuch rachnatmak karya hona chahiye?”
“to taiyar ho jao. main desh ke chaumukhi vikas aur vishvshanti ki sthapana ke liye jo qadam uthane ja raha hoon, usmen tumhare jaise naujavan ki madad chahiye. agar tum himmat se kaam loge to mabdaulat khush hokar tumko hom ministar bana denge!”
“jo aagya, huzur!”
“to aao, beta, rikshe par baitho. ”
kuch der baad unka riksha ek chhoti si basti ke paas ruka, jismen khapDail aur phoos ke pandrah bees chhote chhote makan the. us basti mein chauka bartan karne vale kamkar, kuch riksha chalak aur isi qism ke mazdur rahte the. wo sthaan vishvavidyalay se lagbhag ek meel door shahr ki sima par sthit tha, isliye door tak koi anya basti nahin dikhai deti thi. nukkaD par paan ki ek aisi dukan thi, jismen anya chhote mote saman bhi milte the. jhompaDiyon se maddhim matmaili raushaniyan jhaank rahi theen. raat andheri thi, parantu mausam bahut suhavna tha aur niःshabd chalne vali pavitra, svachchh aur shital hava sharir aur man ko pulak se bhar deti thi.
ve pahli jhopDi mein hi ghuse. bahar chhote se baramde mein bain or divar se satkar naav ki tarah gahri ek purani bansakhat paDi hui thi. dahini taraf ek kone mein ek aurat chulhe ke samne baithi khana bana rahi thi. wo chaunkkar khaDi ho gai, parantu gore ko tatkshan pahchankar sajjanta purvak hansne bhi lagi, jisse uske galon ke beech mein gaDDhe paD ge. uski umr chaubis pachchis ki hogi. rang qarib qarib kala tha, parantu sharir mazbut tha aur wo dekhne mein buri bhi nahin thi. wo ek maili kucheli saDi pahne thi aur anchal ki ast vyastata ke karan uske unnat aur pusht uroj dikhai de rahe the. wo ek sidhi sadi aur saral svbhaav ki stri pratit hoti thi.
“bahut din ke baad darsan diya? baithiye. ”
“yahan baithkar kya hoga, jee?” gora hans paDa.
“to bhitar chaliye!”. . . wo bhi hansne lagi.
“aaj tumhari seva mein vishv ke ek mahan neta ko laya hoon. ”
“mujhe to apaki baat samajh mein nahin aati. kaun hain ye?” usne ada ke saath sanvle ki or dekha.
“ye akhil vishv lofar sangh ke adhyaksh hain. inko har tarah se tumhe khush karna hai. ”
“mere liye to sabhi barabar hain. kisi tarah ki shikayat ki baat nahin milegi. ” wo phir hansne lagi.
“tumhara dopaya janvar kahan hai?”
“kahin paas charne gaya hoga. ” wo khilkhila paDi.
“to kya der hai?”
“kuchh nahin. daal churti rahegi. ”
wo sahsa vyast hokar chulhe ke samne baith gai. uske honth anjan mein hi ek shisht, halki muskurahat se phail ge the. usne ek lakDi nikalkar anch dhimi kar di, batloi ki daal ko karchhul se chalaya aur ant mein ashvast hokar uth khaDi hui.
gora bahar bansakhar par baitha uunghata sa raha. thoDi der baad aurat tezi se bahar aai aur batlai ko chulhe par se utarkar punः kothari mein chali gai. ab bahar baithne ki bari sanvle ki thi. is beech baramde ke taak par rakhi Dhibri ki raushani kisi bimar ki phiki muskrahat ki tarah timtimati rahi.
“do do rupe hue na?” bahar nikalkar gore ne hansakar puchha.
“aaj to chaar chaar lungi! baDa pareshan kiya hai aap logon ne!” wo ankhen matkakar boli.
“tum to punjipati ho! tumko kis baat ki kami hai? achchha, aath aath aana aur. lekin das rupe ka not hai. ”
“rupe to mere paas nahin hain. ”
“paan vale se bhuna lete hain. ”
“laiye, main le aati hoon. ”
“are, tum desh ki mahan karykartri ho, tum kahan kasht karogi? abhi aate hain. ”
“achchhi baat hai,” wo hansne lagi.
ve jhopDi se bahar nikalkar paan ki dukan ki or baDhe. wo aurat baramde mein khaDi unko dekh rahi thi.
“sale, jute nikalkar haath mein le lo. ” gore ne dukan ke nikat pahunchakar phusphusahat ke svar mein kaha.
“kyon?” sanvla chaunk utha.
“mere adesh ka chupchap palan kar. aaj samay aa gaya hai ki hamare navyuvak buddhimani, maulikta, sahas aur karmathta se kaam len. main poorn ahinsatmak tariqen se unka path pradarshan karna chahta hoon. ”
donon ne jhatpat apne jute utarkar apne hathon mein le liye.
“bhaag sale! arthik aur samajik kranti karne ka samay aa gaya hai. ”
ve sarpat bhaag chale. saath mein wo hi hi hanste bhi ja rahe the. wo aurat jhopDi ke bahar nikal aai thi aur chhati peet pitkar vilap karne lagi thi, “are, loot liya harami ke bachchon ne. un par bajjar gire. . . ”
jhompaDiyon se kuch vyakti nikalkar yuvkon ke pichhe dauDe. tarkol ki saDken jan shunya theen. donon yuvak arbi ghoDon ki tarah dauD rahe the. ve kabhi bayen ghoom jate aur kabhi dayen. pichha karne valon mein se ek furtibaz vyakti teer ki tarah unki or baDha ja raha tha. wo samip aata gaya. ab wo samay door nahin tha jab wo aage lapakkar sanbale rang ke yuvak ko pakaD leta, jo pichhe paD gaya tha. parantu sahsa gora rukkar ek or khaDa ho gaya. usne pent ki jeb mein se ek chhura nikalkar khol liya, jo uske haath mein chamak utha. phir phurti se aage baDhkar usne chhura us vyakti ke pet mein bhonk diva jo “haay maar Dala kahke laDakhDakar gir paDa.
iske baad donon punः tezi se bhaag chale. jab bijli ka khambha aaya to raushani mein unke pasine se lathpath taqatvar sharir bahut sundar dikhai dene lage. phir ve na malum kidhar andhere mein kho ge.
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी
‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।