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क्विज़ मास्टर

kwiz master

पंकज मित्र

पंकज मित्र

क्विज़ मास्टर

पंकज मित्र

और अधिकपंकज मित्र

    वह एक छोटे-से शहर का बड़ा क्विज़मास्टर था। छोटा इसीलिए कि अभी भी इस शहर में अँग्रेज़ी में बात करने को ‘गिटिर पिटर करना’ कहा जाता था और अँग्रेज़ी बोलने वाले का मुँह भकर भकर देखा जाता था। हालाँकि पिछले कुछ वर्षों में हर छोटे शहर की तरह कुछ बदलाव भी आए थे जिन्हें कुछ लोग ‘पॉज़िटिव चेंज़’ कहते थे और कुछ का मानना था कि ‘सब कुछ तेलहंडे में जा रहा है।’ एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री के नाम वाले कॉलेज की छात्राएँ बातचीत में ‘ओ शिट’ आदि का प्रयोग करने लगी थीं, शायद बिना शाब्दिक अर्थ समझे, वरना स्नानादि की भी नौबत सकती थी। हर बड़े बनते शहर की तरह यहाँ भी गणेश जी ने दूध पीने की कृपा की थी और इससे साबित हुआ था कि सूचना क्रांति ने अब यहाँ भी द्वार पर दस्तक दे दी। सूचनाओं के महत्व को इस शहर के लोग भी समझने लगे थे—ख़ासकर इंग्लिश मीडियम वाले स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के माता पिता—और उसी स्कूल को शानदार और जानदार माना जाने लगा था जिसकी फीस हो तगड़ी और जहाँ क्विज़ कांपिटिशंस में बुद्धि जाती हो रगड़ी। ख़ैर साहब, तो कुछ ऐसे ही माहौल में उसने यकायक पाया कि उसका नाम शहर के एक प्रतिष्ठित क्विज़मास्टर के रूप में स्थापित हो चुका है। लोग कहते (विशेष रूप से उन स्कूलों, कॉलेजों के प्रिंसिपल साहिबान जिन्हें उसमें एक मुफ्त का क्विज़मास्टर नज़र आता था) कि उसकी अँग्रेज़ी की ‘फ्लूएंशी’ के सामने सिद्धार्थ बसु फेल है और उसकी अदाओं के सामने ओब्रायन भाई पानी भरेंगे और क्विज़ के बीच-बीच में पंच किए गए उसके विटी रिमार्क्स, चुटकुलों और सस्पेंस पैदा करने की उसकी क्षमता का तो कोई जोड़ ही नहीं है—’इस बार ज़रा पिछली बार से भी जोरदार शो हो, ख़र्चे की कोई फिकर नहीं, ज़रा बोर्ड के चेयरमैन रहे हैं और वीसी भी रहेंगे—हें...हें...हें...’ अपना एकमात्र सूट पहन कर एकमात्र टाई लगाए—’ए वेरी गुडी इवनिंग टु यू लेडिज़ एंड जेंटलमैन...’ फर्राटेदार अँग्रेज़ी, चुस्त-दुरुस्त उच्चारण...वर्षों के अभ्यास से बनाई हुई, साधी गई...और ‘क्विज़मास्टर्स डिसीजन इज फाइनल’ तक आते-आते तो गर्दन उसकी तन कर अकड़ जाती थी। लोगों की तालियों के बीच उसे लगने लगता कि बस उसकी बात ही ‘आख़िरी बात’ है। उस शहर के कार्यक्रमों के बीच में अचानक बिजली चली जाना, किराए के माइक में घरघराहट शुरू हो जाना जैसी दुर्घटनाएँ अक्सर होती थीं लेकिन ज़रा भी नहीं घबराता था वह।

    अब उसी दिन की घटना लीजिए...झकाझक रोशनियों के बीच उसने कॉलेज में बस शुरू ही किया था कि भक्...बिजली गुल...अब कॉलेज के लड़के, शुरू हो गए।

    हा! हा! खी! खी! हू! हू!

    ‘जाने दीजिए सर! तब तक कुछ गाना उना लगाइए’...तरह-तरह की फब्तियों के बीच उसने सँभाला माइक—‘गाना भी है मेरे पास दोस्तो।’ गनीमत थी कि माइक ठीक था—‘गाने के साथ साथ सवाल भी है आप आडिएंस के लिए कि सारा दिन सताते हो/रातों को जगाते हो/तुम याद बहुत आते हो...इस फ़िल्मी गाने की याद तो होगी आपको, लेकिन सवाल आपके लिए कि ये याद किसकी है?

    ‘जया प्रदा।’ लड़के चिल्लाए।

    थोड़ा पाज...‘जी नहीं, इसका जवाब है बिजली, और लगता है आज शहर में कोई मंत्री नहीं है।’ लड़के हँसते रहे। धक-धक जेनरेटर चालू हो चुका था। शो फिर शुरू हो चुका था, आज के क्विज़ का ग्रैंड शो। आयोजक पसीना पोंछ रहे थे। थोड़ी देर होती तो लड़के तो तोड़-फोड़ शुरू कर देते। फिर जब अँग्रेज़ी की बीन बजनी शुरू हो गई उसकी तो लड़के उसके सम्मोहन से कैसे निकलते। लेकिन सिर्फ़ अँग्रेज़ी की ही बात नहीं। बक्सर के अब उसी कॉलेज की बात लीजिए। कहने को क्विज़ था कॉलेज का, हज़ारों हज़ार लोग जमा हो गए। बीच में कस दी किसी ने फब्ती...‘जादे अंगरेजी मत झाड़ कुछ भोजपुरियो में होखे के चाही।’

    पुलिस कप्तान थे मुख्य अतिथि, सो पुलिस वाले दौड़े—‘कौन बोला रे’ ‘पकड़ तो रे।’

    उसने माइक पर बोलना शुरू किया—‘राउर सबके इहे मर्ज़ी बा तो उहे होई’ और बाद के क्विज़ के दो राउंड भोजपुरी में ही हुए, सवाल भी जवाब भी। बीच-बीच में ‘लोहासिंह’ शैली में पंच भी, महिलाएँ थीं नहीं तो कुछ अति भी कर दी उसने। अपने कालेजिया दिनों के कुछ डायलाग्स भी सुना डाले उसी शैली में—‘जब हम काबुल के मोर्चा पर गइल रही नूँ हुआँ अंगरेज के मिमिन लोग बिलौज सिलाय था तो उस में से काँखी का बार लौकता था, अउर हम जब लँगोट सिलाया तो इसमें भी ओही डिफेट था।’ लोग गदगद, आयोजक गदगदायमान। क्विज़मास्टर हो तो ऐसा, सिचुएशन के हिसाब से ख़ुद भी ढल जाए और बदल दे पूरा माहौल। घुमा दे आडिएंस का दिमाग...

    दिमाग़ तो घुमा देती थी गुरप्रीत कौर, अपनी नियानशाइन हँसी और अँग्रेज़ी के चमकदार उच्चारण से।

    एक बहुत ही छोटे-से क़स्बे से कर शहर के गौरव एक मिशनरियों के कॉलेज में अँग्रेज़ी आनर्स में एडमिशन लेने की जुर्रत कर चुका था वह। उस दौर में उस कॉलेज में विदेशी शिक्षक हुआ करते थे जिनकी अँग्रेज़ी सुन कर वह भकर-भकर मुँह देखा करता था। जाने कहाँ से शेरवुड से कि दून से कर इंग्लिश डिपार्टमेंट के बेरंग से कैनवस को रंगों से भर दिया था गुरप्रीत कौर ने। पहले से ही अभिजात समझा जाने वाला विभाग उसके जाने से अत्याधुनिक भी माना जाने लगा था। जिधर से गुजरती, प्रशंसा, आतंक, सवालों के रंगीन बादल लड़कों के बीच छा जाते। ‘यही है वो’—जब तक एक नज़र दूसरे को समझाती तब तक वह फुर्र हो चुकी होती थी, अपनी सफ़ेद एंबेसडर में जिसमें लगी थी लाल बत्ती और जो उसे रोज़ पहुँचाने आती थी और क्लास ख़त्म होने तक रुकी रहती। और यही वह समय था जब उसकी प्रश्नाकुलता का दौर शुरू हुआ था—कहाँ से आई है, घर में कौन-कौन हैं...हर दिन एक अदद पुरानी हरक्युलस साइकिल से उस सफ़ेद एंबेसडर का पीछा करके उसके घर का पता मालूम करने की कोशिश भी करता लेकिन कितनी भी मज़बूत साइकिल क्यों हो, भला एंबेसडर का मुक़ाबला क्या करती, वो भी लाल बत्ती लगी हुई। उसकी प्रश्नाकुलता बढ़ती रही, बढ़ती रही और क्लास में पीछे बैठे-बैठे कुछ ऐसे सवाल भी उसके अंदर उगने लगे थे जिन्हें वक़्त के उस दौर में काफ़ी गर्हित माना जाता था—मसलन जो नाइलान की टाइट फिटिंग लाल रंग की जर्सी गुरप्रीत पहनती है उसके अंदर के कबूतरों को दाना चुगाने का मौका कभी उसे मिल जाए तो...(उस वक़्त तक साफ़-साफ़ पूछने का प्रचलन हुआ नहीं था कि चोली के पीछे क्या है)। इस ‘तो’ के बाद कान की जड़ में सनसनाहट-सी शुरू हो जाती थी, वह धीरे-धीरे इतनी तेज़ हो जाती थी कि हलक सूखने लगता और लाल-नीले-पीले सितारों की कहकशाँ छा जाती आँखों के आगे। ऐसी ही एक प्रश्नाकुल घड़ी में वह क्लास में ही नीम बेहोश-सा हो गया और उसकी ये नीम बेहोशी इतनी फ़ायदेमंद साबित हुई कि बहुत सारे प्रश्नों के जवाब उसे ख़ुद-ब-ख़ुद मिल गए। मसलन वह लाल बत्ती लगी सफ़ेद एंबेसडर गाड़ी सरदार हरबंस सिंह नामक सज्जन के घर जाती थी जो भारतीय सर्वशक्तिमान सेवा (इंडियन आलमाइटी सर्विस या आई.ए.एस.) के अधिकारी थे और गुरप्रीत उन्हीं की एकमात्र बेटी थी। (इसके बाद कुछ दिनों तक उसने सरदारों के बारे में चुटकुलों से तौबा कर ली थी) उसी लाल बत्ती लगी एंबेसेडर में डाल कर उसे डॉक्टर के यहाँ ले जाया गया, जहाँ लो ब्लड प्रेशर बता कर उसकी छुट्टी कर दी गई और उसे गुरप्रीत के बँगले पर लाया गया था। आख़िर साले ब्लड प्रेशर ने भी दगा दिया, यहाँ भी लो, ज़िंदगी में हाई कुछ भी नहीं। इसके बाद से गुरप्रीत के चेहरे पर उसे देखते ही च्च...च्च...च्च वाला भाव जाता था जिससे उसे कोफ्त भी थी पर क्या कर सकता था वह। तभी पहली बार काले, पूँछकटे कुत्ते वहीं देखे थे जिनके बारे में गुरप्रीत ने बताया था, ‘डाबरमैन’ हैं। तुमने देखी है वो फ़िल्म ‘डाबरमैन गैंग’ जिसमें इन्हीं कुत्तों को ट्रेंड करके बैंक राबरी कराई जाती थी? नहीं देखी? पुअर चैप!’ और तभी उसे बड़ी शिद्दत से अहसास हुआ था कि वह सचमुच का ‘पुअर चैप’ है। अब उस शहर में वह अँग्रेज़ी फ़िल्में क्या देखता। उस समय तक तीन चौथाई अँग्रेज़ी फ़िल्में तो उसके पल्ले ही नहीं पड़तीं—तोड़-जोड़ कुछ कल्पना कुछ समझ, मिला-जुला कर वह फ़िल्म की कहानी किसी तरह समझ पाता था और इस शहर में लगती भी कहाँ थीं अँग्रेज़ी फ़िल्में।

    फिर से उसकी प्रश्नाकुलता का दौर शुरू हो गया था। गुरप्रीत उसके बारे में क्या सोचती है, उसे क्या पसंद है क्या नापसंद, किस तरह की नौकरी पसंद करती है या फिर नौकरी एकदम पसंद हो। अपने और उसके बीच पनपने वाले (एकतरफा ही सही) संबंधों के नामों के आप्शंस पर विचार करता। कोशिश भी की थी उन्हें नाम देने की। एक बड़े- से कार्ड पर बड़ा-सा G और K लिखकर बीच में जोड़ (+) का निशान बना दिया और नीचे कई आप्शंस दिए—गुरप्रीत + कौर, गुरप्रीत + कुमार (उसका अपना नाम) तथा जेनरल + नालेज (यह साबित करने कि उसमें सेन्स आफ ह्यूमर प्रचुर मात्रा में मौजूद है)। तो गुरप्रीत ने उसी आप्शन पर टिक कर दिया था। तभी से उसके जीवन के दो मकसद हो गए—एक अँग्रेज़ी को माँज-धो कर, चुस्त- दुरुस्त करके गुरप्रीत के बराबर चमकदार बनाना तथा जेनरल नालेज पर ज़्यादा से ज़्यादा ध्यान देना जिससे भारतीय सर्वशक्तिमान सेवा (इंडियन आलमाइटी सर्विस यानी आई.ए.एस.) का सदस्य बन कर गुरप्रीत को दिखा सके और बहुत सारे सवालों को एक झटके में ही हल कर डाले। चैंबर्स, आक्सफोर्ड, वेब्सटर, बी.बी.सी. के इंग्लिश लेशंस, कीटस्, शेक्सपियर, इलियट, एन.सी.ई.आर.टी. बुक्स, डी.डी. बसु, रायचौधरी, बाशम, रोमिला थापर सभी सवाल पूछते रहे, वह हल करता रहा, करता रहा, पर सभी मिला कर भी उसके इस सवाल का जवाब नहीं दे पाए कि सेशन के ऐन बीच में ही गुरप्रीत कहाँ ग़ायब हो गई। जवाब दिया तो डी.डी.सी. साहब के चपरासी ने—‘ बेबी का तो बियाह हो गिया। लड़का भटिंडा में एस.डी.ओ. है। वहीं चंडीगढ़ से ही हुआ।’ उसी दिन सारे चैंबर्स, आक्सफोर्ड, शेक्सपियर, डी.डी. बसु, रोमिला थापर, बाशम सभी किनारे हो गए। ‘अब आप लोगों से सवाल-जवाब का क्या मतलब है। वही डिफेट तो रहिए गया ना।’ लोहासिंह की नकल पर वही जुमला—कभी उसका प्रिय जुमला हुआ करता था और वह आश्चर्यचकित था कि पिछले एक साल से वह इस जुमले को भूले हुए था।

    सवाल दर सवाल, जवाब दर जवाब का इतना तो असर हुआ ही कि अँग्रेज़ी हो गई उसकी चुस्त मुहावरेदार—छोटे-से शहर को आंतकित कर देने, उसे सहमा कर दुबका देने, भकर भकर मुँह ताकने पर मजबूर कर देने वाली और जेनरल नालेज का लेवल सामान्य के निशान से काफ़ी ऊपर। हर बार जी.के. टेस्ट (जी.के. का जिक्र उसे हर बार गुरप्रीत + कुमार की याद दिलाता था) में वह काफ़ी नंबर लाता और क्विज़ कांपिटिशंस में काफ़ी हिस्सा लिया करता बतौर शौक। तब शायद इतना जोर भी नही था सूचनाओं का और ‘इंफ़ॉरमेशन इज़ पावर’ आदि जुमलों के आने में काफ़ी वक़्त था। कौन है मोनिका लेविंस्की, बिल गेट्स की आत्मकथा की कितनी प्रतियाँ बिक चुकी हैं या राष्ट्रपति बुश ने अपनी कुतिया का नाम क्या रखा है इन सवालों पर तब भूत/वर्तमान/भविष्य निर्भर था। क्विज़ प्रतियोगिताएँ थीं, पर सिर्फ़ दिमागी कसरत एवं याददाश्त की जाँच के लिए, छप्पर फाड़ने और कुछ फड़वाने के लिए नहीं। कॉलेज के यूथ फेस्टिवल के इसी तरह की कसरत में सोने के पानी चढ़े एक मेडल को जीत कर भी वह ख़ुश नहीं था क्योंकि गुरप्रीत नहीं आई थी वहाँ, गोकि उसका बाप सरदार हरबंस सिंह मुख्य अतिथि बन कर अपनी लाल बत्ती लगी सफ़ेद एंबेसडर सहित मौजूद था। ‘गुरप्रीत इज बिट इंडिस्पोस्ड’ सूचना मिली पूरे डिपार्टमेंट को, साथ उसे भी।

    मेडल ले कर दूसरे ही दिन वह दिखाने पहुँचा, पूरे डाबरमैन गैंग से मुक़ाबला करता हुआ (मानसिक ही, शारीरिक तो क्या करता!) उस दिन भी गुरप्रीत ने वही लाल जर्सी पहन रखी थी, जिसके अंदर के कबूतर उसके अंदर दाना चुगाने की हसरत पैदा करते थे। चेहरा, गाल, नाक सब लाल। ‘आय एम सारी’ कहते हुए जो नाक सिनकने की अदा थी उसकी...तर्जनी को ऐन नाक से हारिजांटली खींचने की...‘इज दिस फेस दैट लांच्ड थाउजैंड शिप्स...आदि...आदि याद आए थे उसे। ज़ुकाम की वजह से शायद कुछ डिप्रेस्ड भी थी क्योंकि ‘गरीबों से सहानुभूति’, ‘पैसा हाथ का मैल है’, ‘मनी इज़ गुड सर्वेंट बट बैड मास्टर’ आदि विषयों पर बात की उसने और अपने डाबरमैन गैंग को कई बार लतियाया भी—‘गो! गो अवे!’ उसके अंदरूनी हिस्सों में काफ़ी प्रसन्नता उग आई थी उस दिन पता नहीं क्यों। हालाँकि उन सवालों के जवाब अब ढूँढ़ कर भी क्या होना था...

    नाक सिनकने की उसी अदा—तर्जनी को नाक के ऐन नीचे से हारिजांटली खींचने की ‘आय एम सारी’ कहते हुए को छोड़ कर ऐसा कुछ भी कामन नहीं था गुरप्रीत और प्रीति में जिसे शादी के बाद पंजाबियों की तरह ‘प्रीतो’ कहने लगा था। विकल्प तो कई थे पर प्रीति की इसी अदा (लड़की देखने जब गया था वह तो प्रीति शायद ज़ुकाम से पीड़ित थी) को देख कर उसने निश्चय कर लिया था कि वह प्रीति से ही शादी करेगा। सभी विकल्पों को छोड़ कर उसने ‘प्रीतो’ के नाम पर टिक लगा दी थी। एम.ए. कर लेने के बाद ‘योर टाइम स्टार्ट्स नाऊ’ का डंडा ले कर बाबू जी पीछे पड़ गए और कई बार ‘नन आफ़ अवभ’ को टिक करने के बाद वह लेक्चररशिप पा जाने में कामयाब हो गया था। तभी पहली और आख़िरी बार गुरप्रीत उसके सपने में आई थी और उसके चेहरे पर वही ‘च्च...च्च...च्च...’ का भाव था—वही ‘पुअर चैप’ वाला। सचमुच नौकरी क्या थी, पूरी की पूरी क्विज़ थी, वो भी सिर्फ़ माइनस मार्किंग की शर्तों वाली—अगर आप फलाँ-फलाँ जात के नहीं हैं तो आपको फलाँ-फलाँ समस्याएँ भुगतनी पड़ेंगी, अगर आप फलाँ-फलाँ का चरणचंपन नहीं करते तो फलाँ-फलाँ चीज़ों से हमेशा वंचित रहेंगे। ‘क्विज़ मास्टर्स डिसीजन इज फाइनल’ की तरह के भी कई प्रतिबंध थे—मसलन समय पर तनख़्वाह के बारे में कुछ बोलना ‘कुफ़्र बकना’ था और बनिया हमेशा बदलते रहने पड़ते थे। ये सवाल भी सामने रहता था कि एक दिन जब शहर के सभी बनिए उसे ‘उधार का राशन’ खिला चुके होंगे तब क्या होगा। एक ही ‘डिफ़ेट’ का भरोसा था कि तब तक जनसंख्या भी काफ़ी बढ़ चुकी होगी, कुछ और नए बनिए भी पैदा हो चुके होंगे। इस जवाब पर वह ख़ुद को हमेशा पूरे नंबर दिया करता था दस में दस। लेकिन कई सवाल होते थे जिनके उत्तर उसे एकदम पता नहीं होते थे। कोई गेस नहीं, कुछ नहीं—जैसे, उसके दो बच्चे (एक बेटा, एक बेटी) इतनी तेज़ी से क्यों बढ़ रहे हैं, हर छह महीने पर ही क्या स्कूलों में रिएडमिशन होने लगा है, हर दूसरे तीसरे दिन स्कूलों में क्यों तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं जिनमें दस-बीस रुपए देने पड़ते हैं। शायद समय-बोध गड़बड़ा रहा था उसका—बनिया तीन महीने पर पैसा लेता है या छह महीने पर, दूधवाले को हर महीने पैसा देना पड़ता है क्या—ऐसे बहुत सारे सवाल थे जिनमें उसके एकदम नंबर नहीं आते थे...

    फुल मार्क्स तो देते थे उसे श्रीवास्तव जी जिनका एक स्कूल था और जो अपने तालव्य ‘श’ के आक्रमण से आक्रांत किए रहते थे उसे। बच्चों ने भी उनका नाम ‘बहुत शुंदर श्रीवाश्तव’ रखा था—बहुत शुंदर! बहुत शुंदर...फ़ुल मार्क्स टु यू शर! आज का शो, ग्रेट! आपका तो ख़ैर...उसके बाद शब्द नहीं मिल रहे थे, ‘बच्चों का जेनरल अवेयरनेस इतना डेवलप करवा देना, आपके शहजोग से कि हमारे बच्चे जहाँ जाएँ बश...श...श...’ इसके बाद शायद अँग्रेज़ी में कुछ कहना चाहते होंगे, बड़ी बात, लेकिन सही शब्द नहीं मिल पाने के कारण ‘श’ ही खिंचता रहता और बदलती रहतीं हाथों की मुद्राएँ। हर क्विज़ के बाद छा जाती थी ख़ुशी की परत, विक्को टर्मेरिक की परत के उपर, जिसे श्रीवास्तव बिला नागा लगाया करता था। उसे नफ़रत थी इस गंध से और श्रीवास्तव की अँग्रेज़ी से भी। अब बच्चों के अभिभावकों को तो झेलनी ही पड़ती थी अँग्रेज़ी उसकी, क्योंकि शहर में अँग्रेज़ी मीडियम स्कूल वही दूसरे नंबर पर था। नंबर एक में एडमीशन हो तो ‘जाएँ तो जाएँ कहाँ’ और फिर कुमार की चुस्त अँग्रेज़ी में पूछे गए प्रश्नों का जवाब अपने बच्चों को पटापट देते हुए सुनते, तो परम संतुष्टि का अनुभव करते कि बच्चा ठीक हाथों में है। अत्याधुनिक सूचना समाज का कारगर अंग बन रही है। इस अंग निर्माण की प्रक्रिया में उनका आर्थिक योगदान दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता था और बढ़ती जाती ‘बहुत शुंदर श्रीवाश्तव’ के चेहरे पर विक्को टर्मेरिक की परत की चमक भी। लेकिन वे चेहरे की शिकन को छुपाए रखते, आख़िर ‘इंफ़ॉर्मेशन इज़ पावर’ भाई!

    आख़िर कुमार तैयारी भी तो ज़बर्दस्त करता था, एक-एक क्विज़ के लिए। कलेजा निचोड़ कर रख देती थी ये तैयारी—हिस्ट्री, ज्योग्राफ़ी, लिटरेचर, करंट अफ़ेयर्स, रोचक सूचनाएँ, आडियो टेप, वीडियो क्लिपिंग्स...श्रीवास्तव ने कहा भी था—‘ख़र्चे की कोई चिंता नहीं। दीज आर आल इंटरटेनमेंट।’ सब कुछ परफ़ेक्ट होना है...दो तीन छात्र उसकी टीम के—टिन्नू, अनवर सभी चाक-चौबंद—हर इशारे को समझने वाले, सही टाइमिंग, सही प्रोग्रामिंग। किताबें, पत्रिकाएँ, अख़बार, रेडियो, टी.वी. से सूचनाएँ खँगाल कर इकट्ठा कर, धो-पोंछ कर रोचकता की चाशनी में लपेट कर पेश करना और साथ ही चुस्त अँग्रेज़ी की मस्त ख़ुशबू...वाह! क्या कहने...और शुरू हो जाता श्रीवास्तव जी का ‘राग बहुत शुंदर’...स्कूल में बढ़ती जाती थी छात्रों की संख्या...बहुत शुंदर...बहुत शुंदर, कुमार और उसकी टीम के लिए स्कूल के गार्डेन से ही फूलों का बुके, तीन-चार सौ रुपल्ली माहवार पर ज़बर्दस्ती मुस्कराती शिक्षिकाओं के हाथों...बहुत सुंदर...बहुत सुंदर।

    आख़िर ये ‘राग बहुत शुंदर’ कितने दिनों तक चलता, खटराग होना ही था। हनीमून कब तक—‘हनी वाज़ नाऊ मनी एंड मून बर्न्ट आउट शून’ फट पड़ी थी प्रीति एक दिन—‘उनका स्कूल तो तरक़्क़ी कर रहा है, स्टूडेंट बढ़ रहे हैं। आपको क्या मिलता है। कभी अठन्नियो मिला है। इतना समय जो देते है इस सब में।’

    उसने हैरत से प्रीति को देखा।

    ‘ऐसे क्या देख रहे हो। कुछ ग़लत कहा?’

    ‘देखो प्रीति, (उसने प्रीतो नहीं कहा, ये नोट किया उसने) ये सब पैसे के लिए थोड़े करता हूँ। शौक है बस।’

    ‘शौक़ बड़े लोगों के लिए होते हैं। दस लोगों ने ‘वाह! वाह!’ कर दी, बस कुमार साहब फूल के कुप्पा। बहुत बड़े क्विज़मास्टर हो गए। पता भी है, पिछले एक हफ्ते से दूधवाला पैसा माँग रहा है। टरका रही हूँ किसी तरह, कुछ होश है?’

    ‘अच्छा!’ कुमार ने दुबारा आश्चर्य से उसकी ओर देखा जैसे दूधवाले का पैसा माँगना कोई अनहोनी घटना हो और उसके बारे में सही सूचनाएँ ‘विलीव इट आर नाट’ या फिर ‘इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ में मिलेंगी।

    ‘दूधवाले का पैसा अभी कुछ ही दिनों पहले तो...’ कुमार का समय-बोध फिर गड़बड़ाने लगा था। ‘तुम्हारा’ अभी कुछ ही दिनों पहले जो है न, वह तीन महीने पहले बीत चुका है। समझे!’

    पूरी तरह तिथियाँ गड्डमड्ड हो चुकी थीं—पानीपत की पहली लड़ाई कब...1588 नहीं...इस साल तो स्पैनिश आर्मडा का आक्रमण हुआ था। हिरोशिमा पर बम तो 6 अगस्त या कि 6 दिसंबर...नहीं वो तो बाबरी मस्जिद...

    ‘इतना जो कुईज़ फुईज़ में समय देते हो फ्री फ़ंड का, इससे अच्छा ट्युशन ऊशन पढ़ा लेते तो कुछ काम का होता, अँग्रेज़ी का तो डिमांड भी बढ़ा है इस कंप्यूटर का जमाना में। अगल-बगल देखियो के आँख नहीं खुलता है।’

    बड़बड़ाती हुई प्रीति अंदर चली गई थी। उसी अदा से नाक सिनकी थी उसने, जो बड़ी फूहड़-सी लगी थी उसे आज शायद...पहली बार...पड़ोस की छत पर देखा तो मिसेज शर्मा थीं। शायद सूख गए कपड़े उठाने आई थीं। ओ! तो प्रीति की गाइडेड मिसाइल उन्हीं की तरफ़ फेंकी गई थी। मि. शर्मा ट्यूशन की दुनिया के बेताज बादशाह जो थे। कई बार वह मज़ाक भी उड़ा चुका था—शर्मा जी! ट्यूशन स्पायल्स इन्ट्यूशन! (ट्यूशन से प्रज्ञा नष्ट होती है) आदि फिकरे कस कर। लेकिन प्रीति के इस ‘रैपिड फ़ायर राउंड’ का कोई जवाब नहीं था उसके पास और वह इस राउंड में शून्य अंक पर था। उसे याद रहे थे शून्य में ताकते उन छात्रों के चेहरे। उसकी अँग्रेज़ी क्लास में भकर भकर देखते हुए, चेहरों पर स्थायी प्रशंसा का भाव...दासत्व की अवशिष्ट स्मृतियों के इश्तहार बने चेहरे…

    शर्मा के बिज़नेस टिप्स की ज़रूरत आन पड़ेगी क्या? सेशन की शुरुआत में एक दो क्लास पूरे उत्साह के साथ। ‘एड क्लास’ कहता था शर्मा उन्हें, पूरी बेशर्मी के साथ।

    ‘सर! आख़िर आप भी...।’ अनवर जो प्रिय छात्र था उसका और क्विज़ में असिस्ट करता रहा था लंबे समय से—बोला था।

    ‘यू टू ब्रूटस’ की तरह कलेजे पर लगा था उसे। ख़ैर उसे ‘एड क्लास’ लेने की ज़रूरत नहीं थी। लड़के उसकी क्षमता से वाकिफ थे। सिर्फ़ उन्हें ख़बर मिलनी थी कि अब कुमार साहब भी...

    पड़ोस वाली छत से शर्मा गुटखा खाए दाँतों को निकाल कर दोस्ताना भाव से मुस्करा रहा था—‘क्यों कुमार साहब! स्वागत है, स्वागत है हमारे यूनियन में। आख़िर आप भी बन ही गए अँग्रेज़ी डाक्टर। हें...हें...अच्छा है, अच्छा है, और हम तो पहले ही बोलते थे कि का किऊज फ्यिूज कराते रहते हैं फ्री का। अरे पैसा-वैसा कमाने का जुगाड़ लगाइए, पैसा!’ कुमार ने दिखने वाले दाँत निकाले—‘पैसा ही कमाना होता तो इस नौकरी में क्यों आते, शर्मा जी! कहीं कोयला का कारोबार करता।’

    शर्मा—‘इ नौकरी में नहीं आते तो कोई दूसरा रस्ता भी था का आपके पास और कोयला ओयला का कारबार के लिए कलेजा चाहिए, कलेजा। है आपके पास? आपके पास है ना हमारे पास। दाय से पेट का छिपाते हैं कुमार साहब!’ कुमार ने हल्का-सा प्रतिवाद करना चाहा—‘वो तो मैं ब्रेनगेम...’

    ‘अरे गोली मारिए गेम उम को...पैसा कमाइए पैसा। बरेन है तो बरेन से कमाइए जो चीज़ है आपके पास उसी से कमाइए। अगल-बगल देखते नहीं हैं का?...जो है रख दीजिए बाज़ार में—फटाक देनी उड़ जाएगा...कस्टमर का कमी है कोनो?...हम भी भेज देंगे कुछ कस्टमर अपने यहाँ से...’

    हें...हें...करता हुआ शर्मा नीचे उतर चुका था। उसके कस्टमरों का वक़्त हो चुका था शायद।

    खट्! खट्

    ये दस्तक तो उसी के दरवाज़े पर थी। देखा एक लड़का है। उसका पहला ट्यूशनिया, या कस्टमर...

    ‘यस?’ उसने सवालिया भौं उठाई।

    ‘प्रणाम सर! आय...आय...वांट ट्यूशन।’ अटक अटक कर बोला।

    ‘व्हिच कोर्स’

    ‘इंटरकोर्स!’

    ज़ोर से चौंका था कुमार। लड़का बेख़बर था, शेक्सपियर, इलियट से ले कर अरुंधती राय तक सर पीट रहे थे। विषण्ण हँसी थी कुमार के चेहरे पर। अब तो इस तरह की दुर्घटनाएँ झेलनी ही पड़ेंगी। कालेजिया दिनों का मुहावरा भी सामने था—‘जब नाम लिखा ही लिया तो मोटा पतला से क्या डरना।’ वह ख़ुद से, प्रीति से, सबसे नाराज़ था मगर प्रीति ख़ुश थी। बार-बार लक्ष्मी गणेश की तस्वीर के सामने हाथ जोड़ रही थी, ये खुशी रात तक कायम रही और उसकी थोड़ी खीझ के साथ शुरू हुआ ‘परिचय राउंड’ जिसमें हाथों ने सबका परिचय प्राप्त किया। फिर आडियो राउंड में—

    ‘आज का दिन बड़ा अच्छा है न?’

    ‘हूँ।’

    ‘आज दाढ़ी क्यों नहीं बनाई...ऊँ...गड़ती है...क्या कर रहे हो...बच्चे जगे हैं उस कमरे में।’ इठलाती-सी आवाज़। आप्शन राउंड में होठों ने कई आप्शंस पर गौर किए तथा सही-सही टिक मार्क लगाए।

    वीडियो राउंड में प्रदर्शन, परिदर्शन आदि हुए और फिर रैपिड फायर राउंड के साथ रात्रि क्विज़ का आनंददायक समापन हुआ जिसमें प्रीति ने सबसे ज़्यादा अंक प्राप्त किए।

    लेकिन समापन नहीं हुआ, इस दिन से शुरुआत हुई बात की। बात निकलती है तो फिर दूर तलक जाती ही रहती है। सुबह पाँच बजे से जो सिलसिला चालू होता तो कोई स्पोकन, कोई ग्रामर, कोई इंटर तो कोई आनर्स, कोई अँग्रेज़ी की टूटी टाँग जुड़वाने तो कोई टाँके लगवाने...हम है मता-ए-कूचा-ओ बाज़ार की तरह। शर्मा से नज़रें मिला कर बात करना छोड़ दिया था उसने, या पहले की तरह कर नहीं पाता था। हँसी-मज़ाक कुछ नहीं। बल्कि पहले थोड़ा दबने वाला शर्मा ही कुछ ज़्यादा ही खुल गया था।

    ‘क्या कुमार साहब! कल का एपिसोड देखे थे के.बी.सी. (कौन बनेगा करोड़पति) का। एभरेज इंटलीजेंसी का आदमी औरत साला पचास लाख रुपया जीत लिया, एगो साला हम लोग हैं। दिन रात भेड़ बकरी चराओ तब जाके खाने-पीने भर होता है। सब साला किस्मते है।’

    ‘हूँ।’ संक्षिप्त-सा उत्तर चोरों की तरह कनखियों से देखते हुए। इंटेलीजेंस, ज्ञान आदि की ज़रूरत कहाँ है। कुछ सूचनाएँ, कुछ भाग्य का तमाशा बस।

    ‘आप भी तो एतना किउज कराते रहते हैं, काहे नहीं कोशिश करते हैं एक बार हाट सीट पर बैठ गए तो लाइफे सुधर जाएगा। सब इस्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में किउज-फिऊज कराने से कुछो नहीं होगा...झूठो का...’

    यूनिवर्सिटी में क्विज़ का ज़िक्र आते ही उसे याद गया कि उसे ख़ुद कुलपति महोदय ने सुबह साढ़े छह बजे ही डेरे पर बुलवाया था। सिक्स थर्टी शार्प मार्निंग वाक करते हुए बातें होंगी। कुलपति महोदय बड़े ही भूलनशील प्राणी थे। कई कॉलेजों स्कूलों में क्विज़ प्रतियोगिताओं में मुख्य अतिथि के रूप में शाबासी दे चुकने के बावजूद वह हमेशा उसका नाम भूल जाते थे। भाषण हमेशा जोश में शुरू करते...और आज के क्विज़मास्टर की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। हमारे विश्वविद्यालय के गौरव हैं आप, इसके लिए मैं मिस्टर...।

    फिर नकल करने वाले विद्यार्थी की तरह इधर-उधर देखने लगते। अगल-बगल से कोई बताता ‘कुमार’... ‘जी हाँ मिस्टर कुमार को कांग्रैचुलेट करता हूँ।’ गनीमत थी उस सुबह वह नाम नहीं भूले थे उसका, शायद सुबह की ताज़ा हवा वजह रही हो, और घोर आश्चर्य कि काम भी याद था उन्हें। ‘हाँ तो मिस्टर कुमार! आप तो जानते ही होंगे आज़ादी की पचपनवीं वर्षगाँठ मनाई जा रही है। जानते हैं न...’

    ‘यस सर!’

    हो हो हो करके हँसे, जैसे बहुत ख़ूबसूरत मज़ाक हो।

    ‘तो एच.आर.डी. की तरफ़ से सेलेब्रेशन के लिए कुछ पैसा आया था। क्यों नहीं हम एक ग्रैंड क्विज़ का आयोजन करें। सब्जेक्ट होगा ‘इंडियन फ़्रीडम मूवमेंट’...’

    उनके चेहरे पर ‘बहुत शुंदर श्रीवास्तव’ की तरह ही चमक गई थी।

    ‘सो डू इट! ख़र्चे की कोई चिंता नहीं, बट इट शुड बी रियली बिग बिग शो।’

    इसके बात कुलपति महोदय कुमार के सर के ऊपर का एक खास एंगल बनाते हुए ताकने लगे जैसे अब कुमार वहाँ था ही नहीं या ऊँचाई पर कोई रियली बिग-बिग शो हो रहा हो। वक़्त का ज़्यादातर हिस्सा वह इसी एंगल पर देखते हुए बिताते और ख़ासकर जहाँ दूसरों को सुनने की नौबत आती थी वहाँ यह एंगल और बढ़ता ही जाता, कुमार लौट आया और फिर जुटना ही था रियली बिग-बिग शो वाला कुलपति महोदय का सपना साकार करने में। रियली बिग बिग शो का मतलब ही था बड़े ख़र्चे का मामला। ‘ख़र्चे की कोई चिंता नहीं दीज आर आल इंवेस्टमेंट’ (श्रीवास्तव वचन)। मज़ाक में वह भी एच.आर.डी. को ‘हेवनली रिसार्ट ऑफ़ डकोयट्स’ (डकैतों का स्वर्गिक धाम) कहता था—उपकरण जुटाने लगे—किताबें, पत्रिकाएँ आडियो, वीडियो रिकार्डिंग्स, आकाशवाणी, दूरदर्शन, चैनल्स के सौजन्य से प्राप्त किए गए। तस्वीरें, चार्ट्स, ग्राफ़िक्स सब...तय हुआ कि आडिएंस के बीच भी क्लोज सर्किट टी.वी. की व्यवस्था रहेगी ताकि आनंद दूना हो सके और आख़िर क्रांति—सूचना क्रांति आदि का भी ख्याल रखना था। ‘टिन्नू ने लगाया भी था—महिषासुर का वध करने में भी इतने उपकरण नहीं जुटे होंगे लेकिन ये एच.आर.डी. का फंडासुर, ओह!’ सभी हँस पड़े थे और आश्वस्ति भी थी कि पूरी तैयारी के साथ शो का मज़ा ही कुछ और है। विपनचंद्र, सुमित सरकार, कर्जन टु नेहरू से ले कर एंसाइक्लोपीडिया तक खँगाल डाला गया। ख़ूबसूरत शामियाना, ज़ोरदार साउंड सिस्टम। हर तकनीकी पहलू पर बारीक़ नज़र। एकमात्र सूट को ड्राइक्लीन भी करवा डाला गया, जेब से पच्चीस रुपए निकल गए। ख़ैर, शो की पैकेजिंग का सवाल था। उसके सात साल के बेटे मयंक ने क्विज़ कार्यक्रम में जाने की ज़िद की।

    ‘मम्मी, चलो क्विज़ देखेंगे।’

    ‘कोई ज़रूरत नहीं है।’ प्रीति गुर्राई थी। ‘यहीं टी.वी. पर प्रोग्राम देखेंगे...’

    पुष्पगुच्छ प्रदान, भाषण, आशीर्वचन होते हवाते रात के नौ बजने को आए।

    ‘ए वेरी गुड इवनिंग टु यू...’ शुरू किया ही था कि भक्क—बिजली गुल, लड़कों ने शुरू कर दी हू! ही! ही!

    ‘देखिए, आडिएंस के लिए भी...’ माइक भी काम नहीं कर रहा था। हलक सूखने लगा था उसका।

    ‘मटियाइए सर!’ पीछे से आवाज़ आई। हँसी का दौरा छात्रों के बीच। आऊँ आऊँ की आवाज़ें!

    ‘के.बी.सी. का समय हो गया!’

    ‘नौ बज गए क्या!’

    ‘अनवर! अनवर!’ वह पसीना पोंछ रहा था, ‘जेनरेटर-जेनरेटर।’

    अनवर बैक स्टेज से दौड़ा रहा था।

    ‘सर! फैनबेल्ट ही ग़ायब है। जेनरेटर मिस्त्री गया है लाने।’

    ‘ग़ायब है कि टूट गया! क्या सैबोटाज...’

    ‘पता नहीं सर देखता हूँ...।’

    आऊँ आऊँ की आवाज़ों के बीच मुर्दा माइक हाथ में लिए, अँधेरे में भूत की तरह खड़ा था वह। सामने अंधकार का साम्राज्य...उससे उगती आवाज़ों की बर्छियाँ ताक ताक कर फेंकी जा रहीं-

    ‘चल बे! अमितभवो से बड़का कुईज मास्टर हौ का बे? कै करोड़ मिलतौ एकरा में?’

    ‘दूर बे, अमितभवा से का कंपीयर करे है बे, सूरज के दिया देखावे है?’

    ‘पुरनका बतवा सब काहे बोले है बे, नयका एडीशन ना मालूम हौ का बे।’

    ‘भालू के झाँट दिखाबे है बे।’ ही! ही! इ! इ! खी! खी! ओय ओय! ओय होय!

    उसकी कनपटी गरम हो गई थी। कुछ चले गए, कुछ जा रहे थे। फिर बिजली भी आई थी, शुरू भी किया था उसने। तभी कुलपति महोदय उठ खड़े हुए—‘सारी! मैं रुकता...लेकिन...आप जारी रखिए। शो मस्ट गो आन!’ चले गए थे पूरे लाव-लश्कर के साथ। कुलपति की मुस्कान से बहुत डर गया था वह। आख़िर कुलपति महोदय का रियली बिग बिग शो का सपना इंडियन फ्रीडम मूवमेंट के योद्धाओं के सपनों की तरह चूर चूर जो हो गया था। लड़खड़ाते कदमों से वह भी घर पहुँचा...उसकी सारी तैयारी, सारी मशक्कत...।

    प्रीति और बच्चे घर का ताला खोल रहे थे।

    ‘पापा, आप भी तो राँची में सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ते थे न?’ सात साल का बेटा मंयक था।

    ‘हाँ, क्यों?’

    ‘आज केबीसी में एक आंटी आई थी, मोटी-सी, वो बोलीं ना कि वो राँची सेंट जेवियर्स में थीं।’

    ‘बड़े लोग भी पैसे के पीछे हैं। अब देखो कहीं के कलक्टर की बीवी थी। गुरप्रीत कौर या ऐसा ही कुछ नाम था।...अब क्या ज़रूरत है भाई। बस भाग रहे हैं पैसे के पीछे...।’ प्रीति की बड़बड़ाहट जारी थी। उसकी आँखों के आगे लाल जर्सी के अंदर बंद कबूतर नुमायाँ हो गए। बहुत थका-सा महसूस कर रहा था।

    ‘कैसा रहा आज का शो?’ प्रीति थी। उसकी कनपटी फिर गर्म हो गई।

    ‘हूँ।’ अनमना भाव। वह सो जाना चाहता था...एक बहुत ही गहरी नींद।

    ‘शर्मा जी क्या कह रहे थे उस दिन?’

    ‘किस दिन?’

    ‘उसी दिन, केबीसी में फोन लगाने के बारे में आज फिर बोल रहे थे। लाइन कट गई थी तो उनके यहाँ चले गए थे हम लोग देखने। उनके यहाँ तो जेनरेटर है न।’

    विक्को टर्मेरिक की बदबू से उसका जी मिचलाने लगा।

    ‘तुम कब से लगाने लगी विक्को टर्मेरिक? पहले तो नहीं लगाती थी।’

    ‘क्यूँ बुरी लग रही हूँ?’ कितनी चीप अदाएँ हो गई हैं प्रीति की। वह कब सो गया पता नहीं।

    ‘ए जी उठो! उठो न।’ अचकचा कर उठा वह।

    ‘क्या बात है।’ उसे लगा शायद उस दिन की तरह रात्रि क्विज़ की संभावना बन रही हो। जादूगरनी के अंदाज़ में तकिए के नीचे से एक मोबाइल फ़ोन निकाला प्रीति ने। रात के ढाई बजे थे। उसे लगा बच्चों का कोई पेंसिल बाक्स वगैरह होगा। आजकल फ़ैशन में थीं ये चीजें। घर में होने वाली चीज़ों का भ्रम पालने के लिए। प्रीति की आँखों में याचना थी।

    ‘सुनो न! आज से तीन दिन के लिए केबीसी में फ़ोन लगाने का खुला है। शर्मा जी भी बोल रहे।’

    ‘ये मोबाइल शर्मा का है?’ उसने दाँतदार नज़रें डालीं।

    ‘तो अपने यहाँ फोनो है का?’ दाँतदार चीज़ों का जवाब दाँतदार चीज़ों से ही।

    ‘मुझे नहीं लगाना नंबर उंबर।’ वह पलट कर सोने लगा।

    ‘श्योर,’ प्रीति व्यंग्य से मुस्कराई थी। मोबाइल फ़ोन को सहला रही थी जैसे कोई संभावनाशील बच्चा हो। पर अब वह तो श्योर था, कांफ़िडेंट, पक्का और उसके पूरे वजूद को एक छोटे शहर के अदने क्विज़मास्टर के रूप में लाक कर दिया गया था। सिर्फ़ और सिर्फ़ उसका सात साल का बेटा मयंक ही उसे अभी भी एक बड़ा क्विज़ मास्टर समझता था।

    स्रोत :
    • पुस्तक : श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ (2000-2010)
    • संपादक : कमला प्रसाद
    • रचनाकार : पंकज मित्र
    • प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस
    • संस्करण : 2010

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